०१ एदमगन्म देवयजनम्
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एदम॑गन्म देव॒यज॑नं पृथि॒व्या यत्र॑ दे॒वासो॒ऽअजु॑षन्त॒ विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॑ꣳ स॒न्तर॑न्तो॒ यजु॑र्भी रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा म॑देम। इ॒माऽआपः॒ शमु॑ मे सन्तु दे॒वीरोष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳहिꣳसीः ॥१॥
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एदम॑गन्म देव॒यज॑नं पृथि॒व्या यत्र॑ दे॒वासो॒ऽअजु॑षन्त॒ विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॑ꣳ स॒न्तर॑न्तो॒ यजु॑र्भी रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा म॑देम। इ॒माऽआपः॒ शमु॑ मे सन्तु दे॒वीरोष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳहिꣳसीः ॥१॥
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पदपाठः
आ। इ॒दम्। अ॒ग॒न्म॒। दे॒व॒यज॑न॒मिति॑ देव॒यज॑नम्। पृ॒थि॒व्याः। यत्र॑। दे॒वासः॑। अजु॑षन्त। विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॒मित्यृ॑क्ऽसा॒माभ्या॑म्। स॒न्तर॑न्त॒ इति॑ स॒म्ऽतर॑न्तः। यजु॑र्भि॒रिति॒ यजुः॑ऽभिः। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। म॒दे॒म॒। इ॒माः। आपः॑। शम्। ऊँ॒ऽइ॒त्यूँ॑। मे॒। स॒न्तु॒। दे॒वीः। ओष॑धे। त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒। १।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अबोषध्यौ देवते
- प्रजापतिर्ऋषिः
- विराड् ब्राह्मी जगती
- निषादः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अब चौथे अध्याय का प्रारम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में जल के गुण, स्वभाव और कृत्य का उपदेश किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (पृथिव्या) भूमि पर मनुष्यजन्म को प्राप्त होके जो (इदम्) यह (देवयजनम्) विद्वानों का यजन पूजन वा उन के लिये दान है, उस को प्राप्त होके (यत्र) जिस देश में (ऋक्सामाभ्याम्) ऋग्वेद, सामवेद तथा (यजुर्भिः) यजुर्वेद के मन्त्रों में कहे कर्म (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि (समिषा) उत्तम-उत्तम विद्या आदि की इच्छा वा अन्न आदि से दुःखों के (सन्तरन्तः) अन्त को प्राप्त होते हुए (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् हम लोग सुखों को (अगन्म) प्राप्त हों, (अजुषन्त) सब प्रकार से सेवन करें, (मदेम) सुखी रहें, (उ) और भी (मे) मेरे सुनियम, विद्या, उत्तम शिक्षा से सेवन किये हुए (इमाः) ये (देवीः) शुद्ध (आपः) जल सुख देनेवाले होते हैं, वैसे वहाँ तू भी उन को प्राप्त हो (जुषस्व) सेवन और आनन्द कर। वे जल आदि पदार्थ भी तुझ को (शम्) सुख करानेवाले (सन्तु) होवें, जैसे (ओषधे) सोमलता आदि ओषधिगण सब रोगों से रक्षा करता है, वैसे तू भी हम लोगों की (त्रायस्व) रक्षा कर। (स्वधिते) रोगनाश करने में वज्र के समान होकर (एनम्) इस यजमान वा प्राणीमात्र को (मा हिꣳसीः) कभी मत मार ॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग ब्रह्मचर्यपूर्वक अङ्ग और उपनिषद् सहित चारों वेदों को पढ़ कर, औरों को पढ़ा कर, विद्या को प्रकाशित कर और विद्वान् होके उत्तम कर्मों के अनुष्ठान से सब प्राणियों को सुखी करें, वैसे ही इन विद्वानों का सत्कार कर, इनसे वैदिक विद्या को प्राप्त होकर, श्रेष्ठ आचार तथा उत्तम औषधियों के सेवन से कष्टों का निवारण करके शरीर वा आत्मा की पुष्टि से धन का अत्यन्त सञ्चय करके सब मनुष्यों को आनन्दित होना चाहिये ॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
अथ जलगुणस्वभावकृत्यमुपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा पृथिव्या मध्ये मनुष्यजन्म देवयजनं प्राप्य यत्र ऋक्सामाभ्यां यजुर्भी रायस्पोषेण दुःखानि सन्तरन्तो विश्वे देवासो वयं सुखान्यगन्माजुषन्त मदेम सुखयेम। उ इति वितर्के मे मम विद्यासुशिक्षाभ्यां सेविता इमा देव्य आपः सुखकारिकाः सन्ति, तथैव तत्र त्वं ता जुषस्व, तवैताः शं सन्तु सुखकारिका भवन्तु। यथौषधे सोमलताद्यौषधिगणो रोगेभ्यस्त्रायते, तथा त्वं नस्त्रायस्व, स्वधितिर्वज्रस्त्वमेनं जीवं मा हिंसीर्हननं मा कुर्य्याः ॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः साङ्गान् सरहस्याँश्चतुरो वेदानधीत्यान्यानध्याप्य विद्यां प्रदीप्य, विद्वांसो भूत्वा सुकर्मानुष्ठानेन सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुस्तथैवैतान् सत्कृत्यैतेभ्यो वैदिकविद्यां प्राप्य, श्रेष्ठाचारौषधिसेवनाभ्यां दुःखान्तं गत्वा, शरीरात्मपुष्ट्या धनं समुपचित्य सर्वैर्मनुष्यैरानन्दितव्यम् ॥१॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी ब्रह्मचर्याचे पालन करून वेदांग, उपनिषदे व वेदांचे अध्ययन करावे. इतरांनाही विद्या शिकवावी, विद्वान व्हावे व उत्तम कर्माचे अनुष्ठान करावे आणि सर्व जीवांना सुखी करावे. तसेच अशा विद्वानांचा सन्मान करून त्यांच्याकडून वैदिक विद्या ग्रहण करावी. शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवावे व धनाचा संचय करून सर्वांनी आनंदित व्हावे.
०२ आपोऽअस्मान् मातरः
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आपो॑ऽअ॒स्मान् मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः᳖ पुनन्तु। विश्व॒ꣳ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒तऽए॑मि। दी॒क्षा॒त॒पसो॑स्त॒नूर॑सि॒ तां त्वा॑ शि॒वाꣳ श॒ग्मां परि॑दधे भ॒द्रं वर्णं॒ पुष्य॑न् ॥२॥
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आपो॑ऽअ॒स्मान् मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः᳖ पुनन्तु। विश्व॒ꣳ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒तऽए॑मि। दी॒क्षा॒त॒पसो॑स्त॒नूर॑सि॒ तां त्वा॑ शि॒वाꣳ श॒ग्मां परि॑दधे भ॒द्रं वर्णं॒ पुष्य॑न् ॥२॥
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पदपाठः
आपः॑। अ॒स्मान्। मा॒तरः॑। शु॒न्ध॒य॒न्तु॒। घृ॒तेन॑। नः॒। घृ॒त॒प्व᳖ इति॑ घृतऽप्वः॒। पु॒न॒न्तु॒। विश्व॑म्। हि। रि॒प्रम्। प्र॒वह॒न्तीति॑ प्र॒ऽवह॑न्ति। दे॒वीः। उत्। इत्। आ॒भ्यः॒। शुचिः॑। आ। पू॒तः। ए॒मि॒। दी॒क्षा॒त॒पसोः॑। त॒नूः। अ॒सि॒। ताम्। त्वा॒। शि॒वाम्। श॒ग्माम्। परि॑। द॒धे॒। भ॒द्रम्। वर्ण॑म्। पुष्य॑न्। २।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आपो देवता
- प्रजापतिर्ऋषिः
- स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर उन जलों से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (भद्रम्) अति सुन्दर (वर्णम्) प्राप्त होने योग्य रूप को (पुष्यन्) पुष्ट करता हुआ मैं जो (घृतप्वः) घृत को पवित्र करने (देवीः) दिव्यगुणयुक्त (मातरः) माता के समान पालन करनेवाले (आपः) जल (रिप्रम्) व्यक्त वाणी को प्राप्त करने वा जानने योग्य (विश्वम्) सब को (प्रवहन्ति) प्राप्त करते हैं, जिनसे विद्वान् लोग (अस्मान्) हम मनुष्य लोगों को (शुन्धयन्तु) बाह्य देश को पवित्र करें और जो (घृतेन) घृतवत् पुष्ट करने योग्य जल हैं, जिनसे (नः) हम लोगों को सुखी कर सकें, उनसे (पुनन्तु) पवित्र करें। जैसे मैं (इत्) भी (उत्) अच्छे प्रकार (आभ्यः) इन जलों से (शुचिः) पवित्र तथा (आपूतः) शुद्ध होकर (दीक्षातपसोः) ब्रह्मचर्य्य आदि उत्तम-उत्तम नियम सेवन से जो धर्मानुष्ठान के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, जिस (शिवाम्) कल्याणकारी (शग्माम्) सुखस्वरूप शरीर को (एमि) प्राप्त होता और (परिदधे) सब प्रकार धारण करता हूँ, वैसे तुम लोग भी उन जल और (ताम्) उस (त्वा) अत्युत्तम शरीर को धारण करो ॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सब सुखों को प्राप्त करने, प्राणों को धारण कराने तथा माता के समान पालन के हेतु जल हैं, उनसे सब प्रकार पवित्र होके, इनको शोध कर मनुष्यों को नित्य सेवन करने चाहियें, जिससे सुन्दर वर्ण, रोगरहित शरीर को सम्पादन कर निरन्तर प्रयत्न के साथ धर्म का अनुष्ठान कर पुरुषार्थ से आनन्द भोगना चाहिये ॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ताभिरद्भिः किं कर्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा भद्रं वर्णं पुष्यन्नहं या घृतप्वो देव्य आपो विश्वं रिप्रं प्रवहन्ति, विद्वांसो या मातरो या घृतप्वो घृतेन सन्ति, याभिर्नोऽस्मान् सुखयन्ति, ताभिर्नोऽस्मान् भवन्तः शुन्धयन्तु पुनन्तु च। यथाहमुदिदाभ्यः शुचिः पवित्रो भूत्वा या दीक्षातपसोस्तनूर(स्य)स्ति तां त्वामेतां शिवां शग्मां परिदधे सर्वतो धरामि, तथा तास्तां च यूयमपि धरत ॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। याः सर्वसुखप्रापिकाः प्राणधारिका मातृवत् पालनहेतव आपः सन्ति, ताभ्यः सर्वतः पवित्रतां सम्पाद्यैताः शोधयित्वा मनुष्यैर्नित्यं संसेव्या, यतः सुन्दरं वर्णं रोगरहितं शरीरं च सम्पाद्य नित्यं प्रयत्नेन धर्ममनुष्ठाय पुरुषार्थेनानन्दः कर्तव्य इति ॥२॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, जल मातेप्रमाणे पालन करते. सुख देते व प्राण प्रदान करते. त्यासाठी अशा जलाने पवित्र बनावे. स्वच्छ जलाचे नित्य सेवन करावे. अशा जलामुळे वर्ण सुंदर व शरीर रोगरहित होईल, असा प्रयत्न करावा आणि धर्माचे पालन करून पुरुषार्थाने आनंद भोगावा.
०३ महीनां पयोऽसि
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म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि वर्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे देहि। वृ॒त्रस्या॑सि क॒नीन॑कश्चक्षु॒र्दाऽअ॑सि॒ चक्षु॑र्मे देहि ॥३॥
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म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि वर्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे देहि। वृ॒त्रस्या॑सि क॒नीन॑कश्चक्षु॒र्दाऽअ॑सि॒ चक्षु॑र्मे देहि ॥३॥
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पदपाठः
म॒हीनाम्। पयः॑। अ॒सि॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। अ॒सि॒। वर्चः॑। मे॒। दे॒हि॒। वृ॒त्रस्य॑। अ॒सि॒। क॒नीन॑कः। च॒क्षु॒र्दा इति॑ चक्षुः॒दाः। अ॒सि॒। चक्षुः॑। मे॒। दे॒हि॒। ३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मेघो देवता
- प्रजापतिर्ऋषिः
- स्वराड् अनुष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर इस जलसमूह से उत्पन्न हुए मेघ का क्या निमित्त है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जो यह (महीनाम्) पृथिवी आदि के (पयः) जल रस का निमित्त (असि) है, (वर्चोदाः) दीप्ति का देनेवाला (असि) है, जो (मे) मेरे लिये (वर्चः) प्रकाश को (देहि) देता है, जो (वृत्रस्य) मेघ का (कनीनकः) प्रकाश करनेवाला (असि) है, वा (चक्षुर्दाः) नेत्र के व्यवहार को सिद्ध करनेवाला (असि) है, वह सूर्य्य (मे) मेरे लिये (चक्षुः) नेत्रों के व्यवहार को (देहि) देता है ॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जानना उचित है कि जिस सूर्य्य के प्रकाश के विना वर्षा की उत्पत्ति वा नेत्रों का व्यवहार सिद्ध कभी नहीं होता, जिसने इस सूर्य्यलोक को रचा है, उस परमेश्वर को कोटि असंख्यात धन्यवाद देते रहें ॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनरस्य जलसमूहजन्यस्य मेघस्य किं निमित्तमस्तीत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - यो महीनां पयोऽ(स्य)स्ति, वर्चोदा अ(स्य)स्ति, यो मे मह्यं वर्चोदा ददाति, वृत्रस्य कनीनकोऽस्ति, चक्षुर्दा अस्ति, स सूर्य्यो मे मह्यं चक्षुर्ददाति ॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्नहि सूर्य्यस्य प्रकाशेन विना वृष्ट्युत्पत्तिश्चक्षुर्व्यवहारश्च सिध्यति। येनायं सूर्य्यो निर्मितस्तस्मा ईश्वराय कोटिशो धन्यवादा देया इति वेद्यम् ॥३॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, ज्या सूर्यप्रकाशाविना पर्जन्याची निर्मिती होऊ शकत नाही व नेत्र पाहू शकत नाहीत त्या सूर्यलोकाला परमेश्वराने निर्माण केलेले आहे. त्याबद्दल त्याला असंख्य धन्यवाद दिले पाहिजेत.
०४ चित्पतिर्मा पुनातु
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चि॒त्पति॑र्मा पुनातु वा॒क्पति॑र्मा पुनातु दे॒वो मा॑ सवि॒ता पु॑ना॒त्वच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तस्य॑ ते पवित्रपते प॒वित्र॑पूतस्य॒ यत्का॑मः पु॒ने तच्छ॑केयम् ॥४॥
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चि॒त्पति॑र्मा पुनातु वा॒क्पति॑र्मा पुनातु दे॒वो मा॑ सवि॒ता पु॑ना॒त्वच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तस्य॑ ते पवित्रपते प॒वित्र॑पूतस्य॒ यत्का॑मः पु॒ने तच्छ॑केयम् ॥४॥
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पदपाठः
चि॒त्पति॒रिति॑ चि॒त्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु। वा॒क्पति॒रिति॑ वाक्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु॒। दे॒वः। मा॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॑रिति॑ र॒श्मिऽभिः॒। तस्य॑। ते॒। प॒वि॒त्र॒प॒त॒ इति॑ प॒वित्र॑ऽपते। प॒वित्र॑पूत॒स्येति॑ प॒वित्र॑ऽपूतस्य। यत्का॑म॒ इति॒ यत्ऽका॑मः। पुने। तत्। श॒के॒य॒म्। ४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- परमात्मा देवता
- प्रजापतिर्ऋषिः
- निचृद् ब्राह्मी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
जिसने सूर्य्य आदि सब जगत् को बनाया है, वह परमात्मा हमारे लिये क्या-क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पवित्रपते) पवित्रता के पालन करनेहारे परमेश्वर ! (चित्पतिः) विज्ञान के स्वामी (वाक्पतिः) वाणी को निर्मल और (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले (देवः) दिव्य स्वरूप आप (पवित्रेण) शुद्ध करनेवाले (अच्छिद्रेण) अविनाशी विज्ञान वा (सूर्यस्य) सूर्य और प्राण के (रश्मिभिः) प्रकाश और गमनागमनों से (मा) मुझ और मेरे चित्त को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ और मेरी वाणी को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ तथा मेरे चक्षु को (पुनातु) पवित्र कीजिये, जिस (पवित्रपूतस्य) शुद्ध स्वाभाविक विज्ञान आदि गुणों से पवित्र (ते) आप की कृपा से (यत्कामः) जिस उत्तम कामनायुक्त मैं (पुने) पवित्र होता हूँ, जिस (ते) आपकी उपासना से (तत्) उस अत्युत्तम कर्म के करने को (शकेयम्) समर्थ होऊँ, उस आपकी सेवा मुझ को क्यों न करनी चाहिये ॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि जिस वेद के जानने वा पालन करनेवाले परमेश्वर ने वेदविद्या, पृथिवी, जल, वायु और सूर्य्य आदि शुद्धि करनेवाले पदार्थ प्रकाशित किये हैं, उसकी उपासना तथा पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्यों को पूर्ण कामना और पवित्रता का सम्पादन अवश्य करना चाहिये ॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
येन सूर्य्यादिकं जगद्रचितं सोऽस्मदर्थं किं किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे पवित्रपते परमात्मन् चित्पतिर्वाक्पतिः सविता देवो भवान् पवित्रेणाच्छिद्रेण विज्ञानेन सूर्यस्य रश्मिभिश्च मा मां मम चित्तं च पुनातु। मा मां मम वाचं च पुनातु। मा मां मम चक्षुश्च पुनातु। यस्य पवित्रपूतस्य कृपया यत्कामोऽहं पुने पवित्रो भवामि। यस्य ते तवोपासनया पवित्रं कर्म कर्त्तुं शक्नुयाम्, तस्य सेवा कर्तुं योग्या मे कथं न भवेत् ॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्येन वेदविज्ञात्रा पत्या परमेश्वरेण विद्याभूजलवायुसूर्य्यादयः शुद्धिकारकाः पदार्थाः प्रकाशितास्तस्योपासना पवित्रकर्मानुष्ठानाभ्यां मनुष्यैः पूर्णकामः पवित्रता च कार्य्या ॥४॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर हा वेद जाणणारा व सर्वांचे पालन करणारा असून, त्याने वेदविद्या व पृथ्वी, जल, वायू, सूर्य, इत्यादी शुद्धी करणारे पदार्थ निर्माण केलेले आहेत. तेव्हा माणसांनी परमेश्वराची उपासना करावी व पवित्र कर्म करून कामना पूर्ण कराव्यात व पवित्र बनावे.
०५ आ वो
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आ वो॑ देवासऽईमहे वा॒मं प्र॑य॒त्य᳖ध्व॒रे। आ वो॑ देवासऽआ॒शिषो॑ य॒ज्ञिया॑सो हवामहे ॥५॥
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आ वो॑ देवासऽईमहे वा॒मं प्र॑य॒त्य᳖ध्व॒रे। आ वो॑ देवासऽआ॒शिषो॑ य॒ज्ञिया॑सो हवामहे ॥५॥
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पदपाठः
आ। वः॒। दे॒वा॒सः॒। ई॒म॒हे॒। वा॒मम्। प्र॒य॒तीति॑ प्रऽय॒ति। अ॒ध्व॒रे। आ। वः॒। दे॒वा॒सः॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। य॒ज्ञिया॑सः। ह॒वा॒म॒हे॒। ५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- प्रजापतिर्ऋषिः
- निचृद् आर्षी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
मनुष्यों को किस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवासः) विद्यादि गुणों से प्रकाशित होनेवाले विद्वान् लोगो ! जैसे हम लोग (वः) तुम को (प्रयति) सुखयुक्त (अध्वरे) हिंसा करने अयोग्य यज्ञ के अनुष्ठान में (वः) तुम्हारे (वामम्) प्रशंसनीय गुणसमूह की (आ ईमहे) अच्छे प्रकार याचना करते हैं, हे (देवासः) विद्वान् लोगो ! जैसे हम लोग इस संसार में आप लोगों से (यज्ञियासः) यज्ञ को सिद्ध करने योग्य (आशिषः) इच्छाओं को (आ हवामहे) अच्छे प्रकार स्वीकार कर सकें, वैसे ही हम लोगों के लिये आप लोग सदा प्रयत्न किया कीजिये ॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि उत्तम विद्वानों के प्रसङ्ग से उत्तम-उत्तम विद्याओं का सम्पादन कर, अपनी इच्छाओं को पूर्ण करके इन विद्वानों का सङ्ग और सेवा सदा करना चाहिये ॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे देवासो ! यथा वयं वो युष्मान् प्रयत्यध्वरे वो युष्माकं वाममेमहे समन्ताद् याचामहे, हे यज्ञियासो देवासो ! यथाऽस्मिन् संसारे वो युष्माकं सकाशाद् यज्ञिया आशिष आहवामहेऽभितः स्वीकुर्वीमहि, तथैवास्मदर्थं भवद्भिः सततमनुष्ठेयम् ॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः परमविद्वद्भ्यः प्रशस्ता विद्याः सम्पाद्य स्वेच्छाः पूर्णाः कृत्वैतेषां सङ्गसेवे सदैव कर्त्तव्ये ॥५॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांच्या संगतीत राहून उत्तम विद्या संपादन करावी व आपल्या इच्छा पूर्ण कराव्यात आणि सदैव विद्वानांच्या संगतीत राहून त्यांची सेवा करावी.
०६ स्वाहा यज्ञम्
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स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒ स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ꣳ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒ स्वाहा॑ ॥६॥
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स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒ स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ꣳ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒ स्वाहा॑ ॥६॥
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पदपाठः
स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। मन॑सः। स्वाहाः॑। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। वाता॑त्। आ। र॒भे॒ स्वाहा॑। ६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- प्रजापतिर्ऋषिः
- निचृद् आर्षी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
किस-किस प्रयोजन के लिये इस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे मैं (स्वाहा) वेदोक्त (स्वाहा) उत्तम शिक्षा सहित (स्वाहा) विद्याओं का प्रकाश (स्वाहा) सत्य और सब जीवों के कल्याण करनेहारी वाणी और (स्वाहा) अच्छे प्रकार प्रयोग की हुई उत्तम क्रिया से (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्) आकाश और (वातात्) वायु की शुद्धि करके (द्यावापृथिवीभ्याम्) शुद्ध प्रकाश और भूमिस्थ पदार्थ (मनसः) विज्ञान और ठीक-ठीक क्रिया से (यज्ञम्) यज्ञ को पूर्ण करने के लिये पुरुषार्थ का (आरभे) नित्य आरम्भ करता हूँ, वैसे तुम लोग भी करो ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों के द्वारा जो वेद की रीति और मन, वचन, कर्म से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है, वह आकाश में रहनेवाले वायु आदि पदार्थों को शुद्ध करके सब को सुख करता है ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
किं किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथाहं स्वाहा वेदोक्तया स्वाहा सुशिक्षितया स्वाहा विद्याप्रकाशिकया स्वाहा सत्यप्रियत्वादिगुणयुक्तया वाचा स्वाहा सुष्ठु क्रियया चोरोर्मनसोऽन्तरिक्षाद् वाताद् द्यावापृथिवीभ्यां यज्ञमारभे नित्यं कुर्वे तथा भवन्तोऽप्यारभन्ताम् ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदरीत्या यो मनोवचनकर्मभिरनुष्ठितो यज्ञो भवति, सोऽन्तरिक्षादिभ्यो वायुशुद्घिद्वारा प्रकाशपृथिव्योः पवित्रतां सम्पाद्य सर्वान् सुखयतीति ॥६॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसे मन, वचन, कर्म यांच्याद्वारे वेदोक्त रीतीने अनुष्ठानपूर्वक जो यज्ञ करतात त्यामुळे आकाशात राहणारे वायू इत्यादी पदार्थ शुद्ध होतात व सर्वांना सुखी करतात.
०७ आकूत्यै प्रयुजेऽग्नये
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आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒ मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पू॒ष्णे᳕ऽग्नये॒ स्वाहा॑। आपो॑ देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो॒ द्यावा॑पृथिवी॒ऽउरो॑ऽन्तरिक्ष। बृह॒स्पत॑ये ह॒विषा॑ विधेम॒ स्वाहा॑ ॥७॥
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आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒ मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पू॒ष्णे᳕ऽग्नये॒ स्वाहा॑। आपो॑ देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो॒ द्यावा॑पृथिवी॒ऽउरो॑ऽन्तरिक्ष। बृह॒स्पत॑ये ह॒विषा॑ विधेम॒ स्वाहा॑ ॥७॥
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पदपाठः
आकू॑त्या॒ इत्याऽकू॑त्यै। प्र॒युज॒ इति॑ प्र॒ऽयुजे॑। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। मे॒धायै॑। मन॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। दी॒क्षायै॑। तप॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। पू॒ष्णे। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। आपः॑। दे॒वीः॒। बृ॒ह॒तीः॒। वि॒श्व॒शं॒भु॒व॒ इति॑ विश्वऽशंभुवः। द्यावा॑पृथिवी॒ऽइति द्यावा॑पृथिवी। उरो॒ऽइत्युरो॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒। बृह॒स्पत॑ये। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। स्वाहा॑। ७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता। आपो देवता। बृहस्पतिर्देवता।
- प्रजापतिर्ऋषिः
- पङ्क्तिः, आर्षी बृहती,
- पञ्चमः, मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
किसलिये उस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (आकूत्यै) उत्साह (प्रयुजे) उत्तम-उत्तम धर्मयुक्त क्रियाओं (अग्नये) अग्नि के प्रदीपन (स्वाहा) वेदवाणी के प्रचार (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी (पूष्णे) पुष्टि करने (बृहस्पतये) बड़े-बड़े अधिपतियों के होने (अग्नये) बिजुली की विद्या के ग्रहण (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने से विद्या (मेधायै) बुद्धि की उन्नति (मनसे) विज्ञान की वृद्धि (अग्नये) कारणरूप (स्वाहा) सत्यवाणी की प्रवृत्ति (दीक्षायै) धर्मनियम और आचरण की रीति (तपसे) प्रताप (अग्नये) जाठराग्नि के शोधन (स्वाहा) उत्तम स्तुतियुक्त वाणी से (बृहतीः) महागुण-सहित (विश्वशम्भुवः) सब के लिये सुख उत्पन्न करानेवाले (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्न (आपः) प्राण वा जल से (स्वाहा) सत्य भाषण (द्यावापृथिवी) भूमि और प्रकाश की शुद्धि के अर्थ (उरो) बहुत सुख सम्पादक (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष में रहनेवाले पदार्थों को शुद्ध और जिस (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा वेदवाणी से यज्ञ सिद्ध होता है, उन सबों को (हविषा) सत्य और प्रेमभाव से (विधेम) सिद्ध करें, वैसे तुम भी किया करो ॥७॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यज्ञ के अनुष्ठान के विना उत्साह, बुद्धि, सत्यवाणी, धर्माचरण की रीति, तप, धर्म का अनुष्ठान और विद्या की पुष्टि का सम्भव नहीं होता और इनके विना कोई भी मनुष्य परमेश्वर की आराधना करने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान करके सब के लिये सब प्रकार आनन्द प्राप्त करना चाहिये ॥७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा वयमाकूत्यै प्रयुजेऽग्नये स्वाहा, सरस्वत्यै पूष्णे बृहस्पतयेऽग्नये स्वाहा, मेधायै मनसेऽग्नये स्वाहा, दीक्षायै तपसेऽग्नये स्वाहा, या बृहत्यो विश्वशम्भुवो देव्य आपः स्वाहा, वाक् द्यावापृथिवी उरोऽन्तरिक्षस्थे च स्तस्ता अपि स्वाहा, क्रियया हविषा च शुद्धा विधेम, तथा यूयमपि विदधत ॥७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - नहि यज्ञानुष्ठानेन विनोत्साहो मेधा सत्यवाग् दीक्षा तपो धर्मानुष्ठानं विद्या पुष्टिश्च संभवति। न किलैतैर्विना कश्चिदपि परमेश्वरमाराद्धुं शक्नोतीति, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरेतत् सर्वमनुष्ठाय सर्वानन्दः प्राप्तव्यः ॥७॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यज्ञाच्या अनुष्ठानाखेरीज उत्साह, बुद्धी सत्यवाणी, धर्माचरण, तप व विद्येची वृद्धी होऊ शकत नाही. त्याशिवाय कोणताही माणूस परमेश्वराची उपासना करू शकत नाही. यासाठी सर्व माणसांनी यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्वांसाठी आनंद प्राप्त केला पाहिजे.
०८ विश्वो देवस्य
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विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्त्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑ ॥८॥
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विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्त्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑ ॥८॥
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पदपाठः
विश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्त्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति॒। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑। स्वाहा॑। ८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ईश्वरो देवता
- आत्रेय ऋषिः
- आर्षी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
मनुष्यों को परमेश्वर के आश्रय से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (विश्वः) सब (मर्तः) मनुष्य (नेतुः) सब को प्राप्त वा (देवस्य) सब का प्रकाश करनेवाले परमेश्वर के साथ (सख्यम्) मित्रता और गुणकर्मसमूह को (वुरीत) स्वीकार और (विश्वः) सब (राये) धन की प्राप्ति के लिये (इषुध्यति) बाणों को धारण करे, वह (द्युम्नम्) धन को (वृणीत) स्वीकार करे, वैसे हे मनुष्य ! इस सब का अनुष्ठान करके (स्वाहा) सत्क्रिया से तू भी (पुष्यसे) पुष्ट हो ॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना करके परस्पर मित्रपन का सम्पादन कर, युद्ध में दुष्टों को जीत के, राज्यलक्ष्मी को प्राप्त होकर सुखी रहना चाहिये ॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
मनुष्यैः परमेश्वराश्रयेण किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - यथा विश्वो मर्त्तो नेतुर्देवस्य जगदीश्वरस्य सख्यं वुरीत विश्वो राय इषुध्यति। स द्युम्नं वृणीत, तथा हे मनुष्य ! एतत्सर्वमनुष्ठाय स्वाहा सत्क्रियया त्वमपि पुष्यसे पुष्टो भवेः ॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरमुपास्य परस्परं मित्रतां कृत्वा युद्धे दुष्टान् विजित्य राजश्रियं प्राप्य सुखयितव्यम् ॥८॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी परमेश्वराची उपासना करून परस्पर मैत्री करावी व युद्धात शत्रूला जिंकावे आणि लक्ष्मी प्राप्त करून सुखी व्हावे.
०९ ऋक्सामयोः शिल्पे
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ऋ॒क्सा॒मयोः॒ शिल्पे॑ स्थ॒स्ते वा॒मार॑भे॒ ते मा॑ पात॒मास्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑। शर्मा॑सि॒ शर्म॑ मे यच्छ॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः ॥९॥
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ऋ॒क्सा॒मयोः॒ शिल्पे॑ स्थ॒स्ते वा॒मार॑भे॒ ते मा॑ पात॒मास्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑। शर्मा॑सि॒ शर्म॑ मे यच्छ॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः ॥९॥
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पदपाठः
ऋक्सा॒मयो॒रित्यृ॑क्ऽसा॒मयोः॑। शि॒ल्पे॒ऽइति॒ शि॒ल्पे॑। स्थः॒। तेऽइति॒ ते। वा॒म्। आ। र॒भे॒। तेऽइति॒ ते। मा॒। पा॒त॒म्। आ। अ॒स्य। य॒ज्ञस्य॑। उ॒दृचः॒ इत्यु॒त्ऽऋचः॑। शर्म्म॑। अ॒सि॒। शर्म्म॑। मे॒। य॒च्छ॒। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒। ९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विद्वान् देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- आर्षी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
१० ऊर्गस्याङ्गिरस्यूर्णम्रदाऽऊर्जं मयि
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ऊर्ग॑स्याङ्गिर॒स्यूर्ण॑म्रदा॒ऽऊर्जं॒ मयि॑ धेहि। सोम॑स्य नी॒विर॑सि॒ विष्णोः॒ शर्मा॑सि॒ शर्म॑ यज॑मान॒स्येन्द्र॑स्य॒ योनि॑रसि सुऽस॒स्याः कृ॒षीस्कृ॑धि। उच्छ्र॑यस्व वनस्पतऽऊ॒र्ध्वो मा॑ पा॒ह्यꣳह॑स॒ऽआस्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑ ॥१०॥
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ऊर्ग॑स्याङ्गिर॒स्यूर्ण॑म्रदा॒ऽऊर्जं॒ मयि॑ धेहि। सोम॑स्य नी॒विर॑सि॒ विष्णोः॒ शर्मा॑सि॒ शर्म॑ यज॑मान॒स्येन्द्र॑स्य॒ योनि॑रसि सुऽस॒स्याः कृ॒षीस्कृ॑धि। उच्छ्र॑यस्व वनस्पतऽऊ॒र्ध्वो मा॑ पा॒ह्यꣳह॑स॒ऽआस्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑ ॥१०॥
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पदपाठः
ऊर्क्। अ॒सि॒। आ॒ङ्गि॒र॒सि॒। ऊर्ण॑म्रदा॒ इत्यूर्ण॑ऽम्रदाः। ऊर्ज॑म्। मयि॑। धे॒हि॒। सोम॑स्य। नी॒विः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। शर्म॑। अ॒सि॒। शर्म॑। यज॑मानस्य। इन्द्र॑स्य। योनिः॑। अ॒सि॒। सु॒स॒स्या इति॑ सुऽस॒स्याः। कृ॒षीः। कृ॒धि॒। उत्। श्र॒य॒स्व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। ऊ॒र्ध्वः। मा॒। पा॒हि॒। अꣳह॑सः। आ। अ॒स्य। य॒ज्ञस्य॑। उ॒दृच॒ इत्यु॒त्ऽऋचः॒। १०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- निचृद् आर्षी जगती साम्नी त्रिष्टुप्
- निषादः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
वह शिल्पविद्या यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) प्रकाशनीय विद्याओं का प्रचार करनेवाले विद्वान् मनुष्य ! तू जो (आङ्गिरसि) अग्नि आदि पदार्थों से सिद्ध की हुई (ऊर्णम्रदाः) आच्छादन का प्रकाश वा (ऊर्क्) पराक्रम तथा अन्नादि को करनेवाली शिल्पविद्या (असि) है अथवा जो (ऊर्जम्) पराक्रम वा अन्न आदि को धारण करती (असि) है, जो (सोमस्य) उत्पन्न पदार्थ समूह का (नीविः) संवरण करनेवाली (असि) है, जो (विष्णोः) शिल्पविद्या में व्यापक बुद्धि (यजमानस्य) शिल्पक्रिया को जाननेवाले (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त मनुष्य के (शर्म) सुख का (योनिः) निमित्त (असि) है, जो (अस्य) इस (उदृचः) ऋचाओं के प्रत्यक्ष करनेवाले (यज्ञस्य) शिल्पक्रिया-साध्य यज्ञ की (शर्म) सुख करानेवाली (असि) है, उसको (मयि) शिल्पविद्या को जानने की इच्छा करनेवाले मुझ में (आ धेहि) अच्छे प्रकार धारण कर (सुसस्याः) उत्तम-उत्तम धान्य उत्पन्न करने वा (कृषीः) खेती वा खेंचनेवाली क्रियाओं को (कृधि) सिद्ध कर, (ऊर्ध्वः) ऊपर स्थित होनेवाले (मा) मुझ को (उच्छ्रयस्व) उत्तम धान्यवाली खेती का सेवन कराओ और (अंहसः) पाप वा दुःखों से (पाहि) रक्षा कर, जो विमान आदि यानों और यज्ञ में (वनस्पते) वृक्ष की शाखा ऊँची स्थापन की जाती है, उस को भी (उच्छ्रयस्व) उपयोग में लाओ ॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विद्वानों के सकाश से शिल्पविद्या का साक्षात्कार और प्रचार करके सब मनुष्यों को समृद्धियुक्त करना चाहिये ॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
स शिल्पविद्यो यज्ञः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे वनस्पते विद्वंस्त्वं याङ्गिरस्यूर्णम्रदा ऊर्क् शिल्पविद्यास्ति, योर्जं दधाति, या सोमस्य नीविरस्ति, या विष्णोर्यजमानस्येन्द्रस्य योनिरस्ति। याऽस्योदृचो विष्णोर्यज्ञस्य शर्म सुखकारिकास्ति, तामाधेहि। सुसस्याः कृषीस्कृधि कुरु कारय वोर्ध्वं मामुच्छ्रयस्व सुसस्याः कृषीश्चांहसो मां पाहि, विमानादिषु यानेषु या वनस्पतिरूर्ध्वं स्थाप्यते तमप्युच्छ्रयस्व ॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्वद्भ्यः शिल्पविद्यां साक्षात्कृत्यैतां प्रचार्य्य सर्वे मनुष्याः समृद्धाः कार्य्याः ॥१०॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने (शिल्प विद्या, शिल्पक्रिया जाणून) यज्ञ, कृषी, विमान इत्यादी पदार्थांचे प्रत्यक्ष दर्शन करून त्यांचा प्रसार करावा व माणसांना समृद्ध करावे.
११ व्रतं कृणुताग्निर्ब्रह्माग्निर्यज्ञो
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व्र॒तं कृ॑णुता॒ग्निर्ब्रह्मा॒ग्निर्य॒ज्ञो वन॒स्पति॑र्य॒ज्ञियः॑। दैवीं॒ धियं॑ मनामहे सुमृडी॒काम॒भिष्ट॑ये वर्चो॒धां य॒ज्ञवा॑हसꣳ सुती॒र्था नो॑ऽअस॒द्वशे॑। ये दे॒वा मनो॑जाता मनो॒युजो॒ दक्ष॑क्रतव॒स्ते नो॒ऽवन्तु॒ ते नः॑ पान्तु॒ तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥११॥
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व्र॒तं कृ॑णुता॒ग्निर्ब्रह्मा॒ग्निर्य॒ज्ञो वन॒स्पति॑र्य॒ज्ञियः॑। दैवीं॒ धियं॑ मनामहे सुमृडी॒काम॒भिष्ट॑ये वर्चो॒धां य॒ज्ञवा॑हसꣳ सुती॒र्था नो॑ऽअस॒द्वशे॑। ये दे॒वा मनो॑जाता मनो॒युजो॒ दक्ष॑क्रतव॒स्ते नो॒ऽवन्तु॒ ते नः॑ पान्तु॒ तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥११॥
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पदपाठः
व्रतम्। कृ॒णु॒त॒। अ॒ग्निः। ब्रह्म॑। अ॒ग्निः। य॒ज्ञः। वन॒स्पतिः॑। य॒ज्ञियः॑। दैवी॑म्। धिय॑म्। म॒ना॒म॒हे॒। सु॒मृ॒डी॒कामिति॑ सुऽमृडी॒काम्। अ॒भिष्ट॑ये। व॒र्चो॒धामिति॑ वर्चः॒ऽधाम्। य॒ज्ञवा॑हस॒मिति॑ य॒ज्ञऽवा॑हसम्। सु॒ती॒र्थेति॑ सु॒ऽती॒र्था। नः॒। अ॒स॒त्। वशे॑। ये। दे॒वाः। मनो॑जाता॒ इति॒ मनः॑ऽजाताः। म॒नो॒यु॒ज॒ इति॑ मनः॒ऽयुजः॑। दक्ष॑ऽक्रतव॒ इति॒ दक्ष॑ऽक्रतवः। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। पा॒न्तु॒। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुब् आर्षी उष्णिक्
- गान्धारः, ऋषभः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अब अनेक अर्थवाले अग्नि को जानकर उससे क्या-क्या उपकार लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (ब्रह्म) ब्रह्मपदवाच्य (अग्निः) अग्नि नाम से प्रसिद्ध (असत्) है, जो (यज्ञः) अग्निसंज्ञक और जो (वनस्पतिः) वनों का पालन करनेवाला यज्ञ (अग्निः) अग्नि नामक है, उसकी उपासना कर वा उससे उपकार लेकर (अभिष्टये) इष्टसिद्धि के लिये जो (सुतीर्था) जिससे अत्युत्तम दुःखों से तारनेवाले वेदाध्ययनादि तीर्थ प्राप्त होते हैं, उस (सुमृडीकाम्) उत्तम सुखयुक्त (वर्चोधाम्) विद्या वा दीप्ति को धारण करने तथा (दैवीम्) दिव्यगुणसम्पन्न (धियम्) बुद्धि वा क्रिया को (मनामहे) जानें, (ये) जो (दक्षक्रतवः) शरीर, आत्मा के बल, प्रज्ञा वा कर्म से युक्त (मनोजाताः) विज्ञान से उत्पन्न हुए (मनोयुजः) सत्-असत् के ज्ञान से युक्त (देवाः) विद्वान् लोग (वशे) प्रकाशयुक्त कर्म में वर्त्तमान हैं, वा जिनसे (स्वाहा) विद्यायुक्त वाणी प्राप्त होती है, (तेभ्यः) उनसे पूर्वोक्त प्रज्ञा की (मनामहे) याचना करते हैं, (ते) वे (नः) हम लोगों को (अवन्तु) विद्या, उत्तम क्रिया, तथा शिक्षा आदिकों में प्रवेश [करायें] और (नः) हम लोगों की निरन्तर (पान्तु) रक्षा करें ॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जिसकी अग्नि संज्ञा है, उस ब्रह्म को जान और उसकी उपासना करके उत्तम बुद्धि को प्राप्त करना चाहिये। विद्वान् लोग जिस बुद्धि से यज्ञ को सिद्ध करते हैं, उससे शिल्पविद्याकारक यज्ञों को सिद्ध करके विद्वानों के सङ्ग से विद्या को प्राप्त होके स्वतन्त्र व्यवहार में सदा रहना चाहिये, क्योंकि बुद्धि के विना कोई भी मनुष्य सुख को नहीं बढ़ा सकता। इससे विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों के लिये ब्रह्मविद्या और पदार्थविद्या और बुद्धि की शिक्षा करके निरन्तर रक्षा करें और वे रक्षा को प्राप्त हुए मनुष्य परमेश्वर वा विद्वानों के उत्तम-उत्तम प्रिय कर्मों का आचरण किया करें ॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
अथानेकार्थमग्निं विज्ञाय कः क उपकारो ग्राह्य इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - वयं यद्ब्रह्माग्निरग्निनामा सद्यो यज्ञोऽग्निसंज्ञोऽसद्, यो वनस्पतिर्यश्च यज्ञोऽग्निर्नामकस्तमुपास्योपकृत्याभिष्टये या सुतीर्थास्ति तां सुमृडीकां वर्चोधां दैवीं धियं मनामहे विजानीयाम। ये दक्षक्रतवो मनोजाता मनोयुजो देवा विद्वांसो वशे वर्त्तमानाः सन्ति, तेभ्यः स्वाहा प्राप्ता भवति। ये नोऽस्मदर्थं धियं प्रकाशयन्ति, तेभ्यः पूर्वोक्तामेतां धियं मनामहे याचामहे, ते नोऽस्मानवन्तु, ते नोऽस्मान् सततं पान्तु ॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यस्याग्निसंज्ञा तद्ब्रह्म विज्ञायोपास्य सुप्रज्ञा प्राप्तव्या, विद्वांसः तया शिल्पयज्ञान् संसाध्नुवन्ति, तेषां सङ्गमेन विद्यां प्राप्य स्वतन्त्रे व्यवहारे सदा स्थातव्यम्। नहि प्रज्ञया विना कश्चित् सुखमेधते, तस्मात् सर्वैर्विद्वद्भिः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो ब्रह्मविद्यां पदार्थविद्यां बुद्धिं च दत्त्वैते सततं रक्ष्याः, रक्षिताश्चैते परमेश्वरस्य धार्मिकाणां विदुषां च प्रियाणि कर्माणि नित्यमाचरेयुः ॥११॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ब्रह्मरूपी अग्नीला जाणून घेऊन माणसांनी त्याची उपासना करावी व बुद्धी प्राप्त करावी. विद्वान लोक ज्या (प्रज्ञा) बुद्धीने यज्ञ करतात त्या बुद्धीने शिल्प विद्याकारक यज्ञ करून विद्वानांच्या संगतीने विद्या प्राप्त करावी व सदैव स्वतंत्र व्यवहार करावा. कारण बुद्धीशिवाय कोणत्याही माणसाच्या सुखात वृद्धी होत नाही. त्यामुळे विद्वान माणसांचे हे कर्तव्य आहे की सर्व माणसांसाठी ब्रह्माविद्या पदार्थविद्येचे शिक्षण, बौद्धिक शिक्षण देऊन त्यांचे सदैव रक्षण करावे व अशा माणसांनी परमेश्वर व विद्वानांच्या उत्तम व प्रिय कर्माचे आचरण करावे.
१२ श्वात्राः पीता
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श्वा॒त्राः पी॒ता भ॑वत यू॒यमा॑पोऽअ॒स्माक॑म॒न्तरु॒दरे॑ सु॒शेवाः॑। ताऽअ॒स्मभ्य॑मय॒क्ष्माऽअ॑नमी॒वाऽअना॑गसः॒ स्व॑दन्तु दे॒वीर॒मृता॑ऽऋता॒वृधः॑ ॥१२॥
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श्वा॒त्राः पी॒ता भ॑वत यू॒यमा॑पोऽअ॒स्माक॑म॒न्तरु॒दरे॑ सु॒शेवाः॑। ताऽअ॒स्मभ्य॑मय॒क्ष्माऽअ॑नमी॒वाऽअना॑गसः॒ स्व॑दन्तु दे॒वीर॒मृता॑ऽऋता॒वृधः॑ ॥१२॥
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पदपाठः
श्वा॒त्राः पी॒ताः। भ॒व॒त॒। यू॒यम्। आ॒पः॒। अ॒स्माक॑म्। अ॒न्तः। उ॒दरे। सु॒शेवा॒ इति॑ सु॒ऽशे॑वाः। ताः। अ॒स्मभ्य॑म्। अ॒य॒क्ष्माः। अ॒न॒मी॒वाः। अना॑गसः। स्वद॑न्तु। दे॒वीः। अ॒मृताः॑। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। १२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आपो देवताः
- आङ्गिरस ऋषयः
- भुरिग् ब्राह्मी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
इसका अनुष्ठान करके आगे मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो हम ने (पीताः) पिये (अस्माकम्) मनुष्यों के (अन्तः) मध्य वा (उदरे) शरीर के भीतर स्थित हुए (अस्मभ्यम्) मनुष्यादिकों के लिये (सुशेवाः) उत्तम सुखयुक्त (अनमीवाः) ज्वरादि रोग-समूह से रहित (अयक्ष्माः) क्षय आदि रोगकारक दोषों से रहित (अनागसः) पाप दोष निमित्तों से पृथक् (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ाने वा (अमृताः) नाशरहित अमृतरसयुक्त (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्न (आपः) प्राण वा जल हैं, (ताः) उनको आप लोग (स्वदन्तु) अच्छे प्रकार सेवन किया करो। इसका अनुष्ठान करके (यूयम्) तुम सब मनुष्य सुखों को भोगनेवाले (भवत) नित्य होओ ॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विद्वानों के सङ्ग वा उत्तम शिक्षा से विद्या को प्राप्त होकर अच्छे प्रकार परीक्षित शुद्ध किये हुए, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाने और रोगों को दूर करनेवाले जल आदि पदार्थों का सेवन करना चाहिये, क्योंकि विद्या वा आरोग्यता के विना कोई भी मनुष्य निरन्तर कर्म करने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे इस कार्य्य का सर्वदा अनुष्ठान करना चाहिये ॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
एतदनुष्ठायाग्रे मनुष्यैः किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! या अस्माभिः पीता अस्माकमन्तरुदरे स्थिता अस्मभ्यं श्वात्राः सुशेवा अयक्ष्मा अनमीवा अनागस ऋतावृधोऽमृता देवीर्देव्य आपो भवन्ति, ता भवन्तः स्वदन्तु सुसेवन्ताम्। तदेतदनुष्ठाय यूयं सुखिनो भवत ॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गेन सुशिक्षया विद्यां प्राप्य सर्वथा सुपरीक्षिताः शोधिताः संस्कृताः शरीरात्मबलवर्धका रोगविच्छेदका जलादयः पदार्थाः सेवनीयाः। नहि विद्याऽऽरोग्याभ्यां विना कश्चिदपि निरन्तरं कर्म कर्तुं शक्नोति, तस्मादेतत् सर्वदाऽनुष्ठेयम् ॥१२॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने उत्तम शिक्षण घेऊन विद्या प्राप्त करावी व शरीर आणि आत्मबल वाढविण्यासाठी, रोग दूर करण्यासाठी शुद्ध जल वगैरे पदार्थांचे सेवन करावे. कारण विद्या व आरोग्य याखेरीज कोणीही माणूस सतत कर्म करू शकत नाही. त्यासाठी सदैव अशा प्रकारचे अनुष्ठान करावे.
१३ इयं ते
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इ॒यं ते॑ य॒ज्ञिया॑ त॒नूर॒पो मु॑ञ्चामि॒ न प्र॒जाम्। अ॒ꣳहो॒मुचः॒ स्वाहा॑कृताः पृथि॒वीमावि॑शत पृथि॒व्या सम्भ॑व ॥१३॥
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इ॒यं ते॑ य॒ज्ञिया॑ त॒नूर॒पो मु॑ञ्चामि॒ न प्र॒जाम्। अ॒ꣳहो॒मुचः॒ स्वाहा॑कृताः पृथि॒वीमावि॑शत पृथि॒व्या सम्भ॑व ॥१३॥
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पदपाठः
इ॒यम्। ते॒। य॒ज्ञिया॑। त॒नूः। अ॒पः। मु॒ञ्चा॒मि॒। न। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। अ॒ꣳहो॒मुच॒ इत्य॑ꣳह॒ऽमुचः॑। स्वाहा॑कृता॒ इति॒ स्वाहा॑ऽकृताः। पृ॒थि॒वीम्। आ। वि॒श॒त॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒। १३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आपो देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- भूरिग् आर्षी बृहती
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे (ते) तेरा जो (इयम्) यह (यज्ञिया) यज्ञ के योग्य (तनूः) शरीर (अपः) जल, प्राण वा (प्रजाम्) प्रजा की रक्षा करता है, जिसको तू नहीं छोड़ता, मैं भी अपने उस शरीर को विना पूर्ण आयु भोगे प्रमाद से बीच में (न मुञ्चामि) नहीं छोड़ता हूँ। हे मनुष्यो ! जैसे तुम (पृथिव्या) भूमि के साथ वैभवयुक्त होते (अंहोमुचः) दुःखों को छुड़ाने वा (स्वाहाकृताः) वाणी से सिद्ध किये हुए (अपः) जल और (पृथिवीम्) भूमि को (आविशत) अच्छे प्रकार विज्ञान से प्रवेश करते हो, मैं इनसे ऐश्वर्य्यसहित और इनमें प्रविष्ट होता हूँ, वैसे तू भी (सम्भव) हो और प्रवेश कर ॥१३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्या से परस्पर पदार्थों का मेल और सेवन कर रोगरहित शरीर तथा आत्मा की रक्षा करके सुखी रहना चाहिये ॥१३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ता आपः कीदृशः सन्तीत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा ते तव येयं यज्ञिया तनूरपः प्राणान् प्रजां पालनीयां न त्यजति, यं त्वं न मुञ्चसि यथैवाहमेता ईदृशं स्वशरीरं च न मुञ्चामि न परित्यजामि, हे मनुष्याः ! यथा यूयं पृथिव्या सह संभवतांहोमुचः स्वाहाकृता अपः पृथिवीं चाविशत, विज्ञानेन समन्तात् प्रवेशं कुरुताहं च सम्भवाम्याविशामि, तथा त्वमपि सम्भव चाविश ॥१३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैर्विद्यया परस्परं पदार्थान् मेलयित्वा सेवित्वा रोगरहितं शरीरमात्मानं च पालयित्वा सुखयितव्यम् ॥१३॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्यायुक्त होऊन पदार्थांचा परस्पर संयोग करावा व त्यांचे सेवन करून रोगरहित व्हावे आणि शरीर व आत्मा यांचे रक्षण करून सुखी व्हावे.
१४ अग्ने त्वम्
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अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि ॥१४॥
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अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि ॥१४॥
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पदपाठः
अग्ने॑। त्वम्। सु। जा॒गृ॒हि॒। व॒यम्। सु। म॒न्दि॒षी॒म॒हि॒। रक्ष॑। नः॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। प्र॒बुध॒ इति॑ प्र॒ऽबुधे॑। न॒। पु॒न॒रिति॒ पुनः॑। कृ॒धि॒। १४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- स्वराड् आर्षी उष्णिक्
- ऋषभः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) जो अग्नि (प्रबुधे) जगने के समय (सुजागृहि) अच्छे प्रकार जगाता वा जिससे (वयम्) जगत् के कर्मानुष्ठान करनेवाले हम लोग (सुमन्दिषीमहि) आनन्दपूर्वक सोते हैं, जो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित होके (नः) प्रमादरहित हम लोगों की (रक्ष) रक्षा तथा प्रमादसहितों को नष्ट करता और जो (नः) हम लोगों के साथ (पुनः) बार-बार इसी प्रकार (कृधि) व्यवहार करता है, उसको युक्ति के साथ सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये ॥१४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जो अग्नि सोने, जागने, जीने तथा मरने का हेतु है, उसका युक्ति से सेवन करना चाहिये ॥१४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - अग्ने त्वं योऽग्निः प्रबुधे नोऽस्मान् सुजागृहि सुष्ठु जागरयति, येन वयं सुमन्दिषीमहि, योऽप्रयुच्छन्नोऽस्मान् रक्ष रक्षति, प्रयुच्छतश्च हिनस्ति, यो नोऽस्मान् पुनः पुनरेवं कृधि करोति, सोऽस्माभिर्युक्त्या सम्यक् सेवनीयः ॥१४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्योऽग्निः शयनजागरणजीवनमरणहेतुरस्ति स युक्त्या संप्रयोक्तव्यः ॥१४॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो अग्नी झोपणे, जागणे, जगणे, मरणे यांचे कारण आहे त्याचे माणसांनी युक्तिपूर्वक सेवन केले पाहिजे.
१५ पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन्
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पुन॒र्मनः॒ पुन॒रायु॑र्म॒ऽआग॒न् पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा म᳖ऽआग॒न् पुन॒श्चक्षुः॒ पुनः॒ श्रोत्रं॑ म॒ऽआग॑न्। वै॒श्वा॒न॒रोऽद॑ब्धस्तनू॒पाऽअ॒ग्निर्नः॑ पातु दुरि॒ताद॑व॒द्यात् ॥१५॥
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पुन॒र्मनः॒ पुन॒रायु॑र्म॒ऽआग॒न् पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा म᳖ऽआग॒न् पुन॒श्चक्षुः॒ पुनः॒ श्रोत्रं॑ म॒ऽआग॑न्। वै॒श्वा॒न॒रोऽद॑ब्धस्तनू॒पाऽअ॒ग्निर्नः॑ पातु दुरि॒ताद॑व॒द्यात् ॥१५॥
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पदपाठः
पुनः॑। मनः॑। पुनः॑। आयुः॑। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। पुन॒रिति॒ पुनः॑। प्रा॒णः। पुनः॑। आ॒त्मा। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। पुन॒रिति॒ पुनः॑। चक्षुः॑। पुन॒रिति॒ पुनः॑। श्रोत्र॑म्। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। वै॒श्वा॒न॒रः। अद॑ब्धः। त॒नू॒पा इति॑ तनू॒ऽपाः। अ॒ग्निः। नः॒ पा॒तु॒। दु॒रि॒तादिति॑ दुःइ॒तात्। अ॒व॒द्यात्। १५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- आङ्गिरस ऋषयः
- ब्राह्मी बृहती
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
जीव अग्नि, वायु आदि पदार्थों के निमित्त से जगने के समय वा दूसरे जन्म में प्रसिद्ध मन आदि इन्द्रियों को प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जिसके सम्बन्ध वा कृपा से (मे) मुझ को जो (मनः) विज्ञानसाधक मन (आयुः) उमर (पुनः) फिर-फिर (आगन्) प्राप्त होता (मे) मुझ को (प्राणः) शरीर का आधार प्राण (पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होता (आत्मा) सब में व्यापक सब के भीतर की सब बातों को जाननेवाले परमात्मा का विज्ञान (आगन्) प्राप्त होता (मे) मुझको (चक्षुः) देखने के लिये नेत्र (पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होते और (श्रोत्रम्) शब्द को ग्रहण करनेवाले कान (आगन्) प्राप्त होते हैं, वह (अदब्धः) हिंसा करने अयोग्य (तनूपाः) शरीर वा आत्मा की रक्षा करने और (वैश्वानरः) शरीर को प्राप्त होनेवाला (अग्निः) अग्नि वा विश्व को प्राप्त होनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों को (अवद्यात्) निन्दित (दुरितात्) पाप से उत्पन्न हुए दुःख वा दुष्ट कर्मों से (पातु) पालन करता है ॥१५॥ (मे) मुझको (चक्षुः) देखने के लिये नेत्र (पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होते और (श्रोत्रम्) शब्द को ग्रहण करनेवाले कान (आगन्) प्राप्त होते हैं, वह (अदब्धः) हिंसा करने अयोग्य (तनूपाः) शरीर वा आत्मा की रक्षा करने और (वैश्वानरः) शरीर को प्राप्त होनेवाला (अग्निः) अग्नि वा विश्व को प्राप्त होनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों को (अवद्यात्) निन्दित (दुरितात्) पाप से उत्पन्न हुए दुःख वा दुष्ट कर्मों से (पातु) पालन करता है ॥१५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब जीव सोने वा मरण आदि व्यवहार को प्राप्त होते हैं, तब जो-जो मन आदि इन्द्रिय नाश हुए के समान होकर फिर जगने वा जन्मान्तर में जिन कार्य्य करने के साधनों को प्राप्त होते हैं, वे इन्द्रिय जिस विद्युत् अग्नि आदि के सम्बन्ध परमेश्वर की सत्ता वा व्यवस्था से शरीरवाले होकर कार्य्य करने को समर्थ होते हैं, मनुष्यों को योग्य है कि (जो) वह अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ जाठराग्नि सब की रक्षा करता और जो उपासना किया हुआ जगदीश्वर पापरूप कर्मों से अलग कर धर्म में प्रवृत्त कर बार-बार मनुष्यजन्म को प्राप्त कराकर दुष्टाचार वा दुःखों से पृथक् करके इस लोक वा परलोक के सुखों को प्राप्त कराता है ॥१५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
जीवा अग्निवाय्वादिनिमित्तेन जागरणे पुनर्जन्मनि वा प्रसिद्धानि मनआदीनीन्द्रियाणि प्राप्नुवन्तीत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - यस्य सम्बन्धेन कृपया वा मे मह्यं जागरणे पुनर्जन्मनि वा मन आयुः पुनरागन्, मे मम प्राणः पुनरागन्, आत्मा पुनरागन्, मे मह्यं चक्षुः पुनरागन्, श्रोत्रं पुनरागन्। सोऽदब्धस्तनूपा वैश्वानरोऽग्निर्नोऽस्मानवद्याद् दुरितात् पातु पालयति पालयतु वा ॥१५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यदा जीवाः शयनं मरणं च प्राप्नुवन्ति, तदा यानि कार्य्यसिद्धिसाधनानि मन आदीनीन्द्रियाणि प्रलीनानीव भूत्वा पुनः पुनर्जागरणे जन्मान्तरे वा प्राप्नुवन्ति, तानि यस्य विद्युदग्न्यादेः सम्बन्धेन परमेश्वरस्य सत्ता व्यवस्थाभ्यां वा सगोलकानि भूत्वा कार्य्यकरणसमर्थानि भवन्ति, स सम्यक् सेवितो जाठराग्निः सर्वं रक्षत्युपासितो जगदीश्वरः पापकर्मणः सकाशान्निवर्त्त्य धर्मे प्रवर्त्य पुनः पुनर्मनुष्यजन्मानि प्रापय्य दुष्टाचाराद् दुःखेभ्यश्च पृथक्कृत्वाऽऽभ्युदयिकं नैःश्रेयसिकं च सुखं प्रापयति ॥१५॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. आहे. जेव्हा जीव निद्रिस्त होतात किंवा त्यांना मृत्यू येतो. तेव्हा मन व इंद्रियांचा नाश झाल्यासारखाच असून, निद्रेनंतर जेव्हा जाग येते किंवा मृत्यूनंतर पुनर्जन्म प्राप्त होतो, तेव्हा कर्म करण्यासाठी त्याला साधनरूपी इंद्रिये पुन्हा प्राप्त होतात. परमेश्वरी व्यवस्थेप्रमाणे इंद्रिये विद्युतरूपी अग्नीद्वारे (शरीरयुक्त बनून) कार्य करण्यास सिद्ध होतात. चांगल्या स्थितीतील जठराग्नी सर्वांचे रक्षण करतो व परमेश्वर पापरूपी कर्मापासून परावृत्त करून धर्मात प्रवृत्त करतो व वारंवार मनुष्यजन्म देऊन दुष्ट आचरण व दुःख यापासून पृथक करतोच व इहलोक किंवा परलोकाचे सुख प्रदान करतो त्यासाठी तोच उपासना करण्यायोग्य असा उपास्यदेव आहे.
१६ त्वमग्ने व्रतपाऽअसि
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त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता वस्व॑दात् ॥१६॥
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त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता वस्व॑दात् ॥१६॥
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पदपाठः
त्वम्। अ॒ग्ने॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रत॒ऽपाः। अ॒सि॒। दे॒वः। आ। मर्त्त्ये॑षु। आ। त्वम्। य॒ज्ञेषु॑। ईड्यः॑। रास्व॑। इय॑त्। सो॒म। आ। भूयः॑। भ॒र॒। दे॒वः। नः॒। स॒वि॒ता। वसोः॑। दा॒ता। वसु॑। अ॒दा॒त्। १६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- वत्स ऋषिः
- भूरिग् आर्षी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (अग्ने) जगदीश्वर ! जो (त्वम्) आप (मर्त्त्येषु) मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्य धर्माचरण की रक्षा (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने (यज्ञेषु) सत्कार वा उपासना आदि में (ईड्यः) स्तुति के योग्य (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन के (दाता) दान करनेवाले (वसु) धन को (अदात्) देते हैं, सो (इयत्) प्राप्त करते हुए आप (भूयः) बारंबार अत्यन्त धन (आरास्व) दीजिये (आभर) सब सुखों से पोषण कीजिये ॥१॥१६॥ (त्वम्) जो (अग्ने) अग्नि (मर्त्त्येषु) मरण धर्मवाले मनुष्यों के कार्यों में (व्रतपाः) नियमाचरण का पालन (देवः) प्रकाश करने (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादि यज्ञों में (ईड्यः) खोजने योग्य (सोमः) ऐश्वर्य को देने (सविता) जगत् को प्रेरणा करने (देवः) प्रकाशमान अग्नि है, वह (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन को (दाता) प्राप्त (इयत्) कराता हुआ (भूयः) अत्यन्त (वसु) धन को (अदात्) देता और (आरास्व) धन को देने का निमित्त होके (आभर) सब प्रकार के सुखों को धारण करता है ॥२॥१६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को उचित है कि जैसे सत्यस्वरूप सब जगत् को उत्पन्न करने और सकल सुखों के देनेवाले जगदीश्वर ही की उपासना को करके सुखी रहें। इसी प्रकार कार्यसिद्धि के लिये अग्नि को संप्रयुक्त करके सब सुखों को प्राप्त करें ॥१६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे सोमग्ने ! यस्त्वं मर्त्त्येषु व्रतपा सविता यज्ञेष्वीड्यो देवोऽसि, स भवान्नोऽस्मभ्यं वसोर्दाता सन् वस्वदाद् विज्ञानधनं ददाति, स भूयो वस्वारास्वेयत् सँस्त्वमेतान्यस्मदर्थमाभरेत्येकः ॥१॥१६॥ योऽग्नेऽयमग्निर्मर्त्त्येषु व्रतपाः सविता यज्ञेष्वीड्योऽध्येषितव्यः सोमो देवोऽस्ति, स नोऽस्मभ्यं वसोर्दातेयत् सन् भूयः सर्वकार्य्येष्वारास्वारासते, आभराभितः सुखैर्भरति पुष्णातीति द्वितीयः ॥२॥१६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः सत्यस्वरूपस्य पूजार्हस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलसुखप्रदातुः परमेश्वरस्यैवोपासनां कृत्वा सुखयितव्यम्, एवं च कार्य्यसिद्धये भौतिकमग्निं संप्रयोज्य सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानीति ॥१६॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांनी सत्यस्वरूप व सर्व जगाला उत्पन्न करणाऱ्या आणि सर्व सुख देणाऱ्या ईश्वराची उपासना करून सुखी व्हावे. तसेच कार्यसिद्धीसाठी अग्नीला चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त करून सर्व सुख प्राप्त करावे.
१७ एषा ते
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ए॒षा ते॑ शुक्र त॒नूरे॒तद्वर्च॒स्तया॒ सम्भ॑व॒ भ्राज॑ङ्गच्छ। जूर॑सि धृ॒ता मन॑सा॒ जुष्टा॒ विष्ण॑वे ॥१७॥
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ए॒षा ते॑ शुक्र त॒नूरे॒तद्वर्च॒स्तया॒ सम्भ॑व॒ भ्राज॑ङ्गच्छ। जूर॑सि धृ॒ता मन॑सा॒ जुष्टा॒ विष्ण॑वे ॥१७॥
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पदपाठः
ए॒षा। ते॒। शु॒क्र॒। त॒नूः। एतत्। वर्चः॑। तया॑। सम्। भ॒व॒। भ्राज॑म्। ग॒च्छ॒। जूः। अ॒सि॒। धृ॒ता। मन॑सा। जुष्टा॑। विष्ण॑वे। १७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- वत्स ऋषिः
- आर्ची त्रिष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
इनको सेवन करके मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (शुक्र) वीर्य्य पराक्रमवाले विद्वन् मनुष्य ! (ते) तेरा जो (विष्णवे) परमेश्वर वा यज्ञ के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, तैने जिसको (धृता) धारण किया और है (तया) उससे तू (जूः) ज्ञानी वा वेगवाला होके (एतत्) इस (वर्चः) विज्ञान और तेज को (सम्भव) अच्छे प्रकार सम्पन्न कर और उससे तू (भ्राजम्) प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त हो और (मनसा) विज्ञान से पुरुषार्थ को प्राप्त हो ॥१७॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर की आज्ञा का पालन करके विज्ञानयुक्त मन से शरीर वा आत्मा के आरोग्यपन को बढ़ा कर यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखी रहें ॥१७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
एतान् सेवित्वा मनुष्येण कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे शुक्र विद्वंस्ते तव या विष्णवे तनूरस्ति, या त्वया धृता जुष्टा च तया जूः संस्त्वमेतद्वर्चः संभव सम्यग्भावय, भ्राजं गच्छ, मनसैतेन पुरुषार्थं गच्छ प्राप्नुहि ॥१७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः परमेश्वराज्ञापालनेन विज्ञानयुक्तेन मनसा शरीरात्मारोग्यं वर्धित्वा यज्ञमनुष्ठाय विज्ञानयुक्तेन मनसा सुखयितव्यम् ॥१७॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करून विज्ञानयुक्त मनाने शरीर व आत्म्याचे आरोग्य वाढवावे आणि यज्ञाचे अनुष्ठान करून सुखी व्हावे.
१८ तस्यास्ते सत्यसवसः
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तस्या॑स्ते स॒त्यस॑वसः प्रस॒वे त॒न्वो᳖ य॒न्त्रम॑शीय॒ स्वाहा॑। शु॒क्रम॑सि च॒न्द्रम॑स्य॒मृत॑मसि वैश्वदे॒वम॑सि ॥१८॥
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तस्या॑स्ते स॒त्यस॑वसः प्रस॒वे त॒न्वो᳖ य॒न्त्रम॑शीय॒ स्वाहा॑। शु॒क्रम॑सि च॒न्द्रम॑स्य॒मृत॑मसि वैश्वदे॒वम॑सि ॥१८॥
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पदपाठः
तस्याः॑। ते॒। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। त॒न्वः᳖। य॒न्त्रम्। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑। शु॒क्रम्। अ॒सि॒। च॒न्द्रम्। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। अ॒सि॒। १८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- स्वराड् आर्षी बृहती
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
वह वाणी और बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त वा जगत् के निमित्त कारणरूप (ते) आपके (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में आपकी कृपा से जो (स्वाहा) वाणी वा बिजुली है, (तस्याः) उन दोनों के सकाश से विद्या करके मैं जो (शुक्रम्) शुद्ध (असि) है, (चन्द्रम्) आह्लादकारक (असि) है, (अमृतम्) अमृतात्मक व्यवहार वा परमार्थ से सुख को सिद्ध करनेवाला (असि) है और (वैश्ववेदम्) सब देव अर्थात् विद्वानों को सुख देनेवाला (असि) है, (तत्) उस (यन्त्रम्) सङ्कोचन, विकाशन, चालन, बन्धन करनेवाले यन्त्र को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥१८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यो को चाहिये कि ईश्वर की उत्पन्न की हुई इस सृष्टि में विद्या से कलायन्त्रों को सिद्ध करके अग्नि आदि पदार्थों से अच्छे प्रकार पदार्थों का ग्रहण कर सब सुखों को प्राप्त करें ॥१८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
ते वाग्विद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! सत्यसवसस्ते तव प्रसवे या स्वाहा वाग् विद्युच्च वर्त्तते, तस्या विद्यां प्राप्य यच्छुक्रमस्ति चन्द्रमस्त्यमृतमस्ति वैश्वदेवमस्ति तद्यन्त्रमहमशीय प्राप्नुयाम् ॥१८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरोत्पादितायामस्यां सृष्टौ विद्यया कलायन्त्रसिद्धेरग्न्यादिभ्यः पदार्थेभ्यः सम्यगुपकारान् गृहीत्वा सर्वाणि सुखानि सम्पादनीयानि ॥१८॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी ईश्वराने उत्पन्न केलेल्या या सृष्टीत विद्यायुक्त बनावे व कलायंत्रे तयार करावीत आणि अग्नी इत्यादीद्वारे पदार्थांना चांगल्या प्रकारे उपयोगात आणावे व सर्व सुख प्राप्त करावे.
१९ चिदसि मनासि
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चिद॑सि म॒नासि॒ धीर॑सि॒ दक्षि॑णासि क्ष॒त्रिया॑सि य॒ज्ञिया॒स्यदि॑तिरस्युभयतःशी॒र्ष्णी। सा नः॒ सुप्रा॑ची॒ सुप्र॑तीच्येधि मि॒त्रस्त्वा॑ प॒दि ब॑ध्नीतां पू॒षाऽध्व॑नस्पा॒त्विन्द्रा॒याध्य॑क्षाय ॥१९॥
मूलम् ...{Loading}...
चिद॑सि म॒नासि॒ धीर॑सि॒ दक्षि॑णासि क्ष॒त्रिया॑सि य॒ज्ञिया॒स्यदि॑तिरस्युभयतःशी॒र्ष्णी। सा नः॒ सुप्रा॑ची॒ सुप्र॑तीच्येधि मि॒त्रस्त्वा॑ प॒दि ब॑ध्नीतां पू॒षाऽध्व॑नस्पा॒त्विन्द्रा॒याध्य॑क्षाय ॥१९॥
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पदपाठः
चित्। अ॒सि॒। म॒ना। अ॒सि॒। धीः। अ॒सि॒। दक्षि॑णा। अ॒सि॒। क्ष॒त्रिया॑। अ॒सि॒। य॒ज्ञिया॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। उ॒भ॒य॒तः॒शी॒र्ष्णीत्यु॑भयतःऽशी॒र्ष्णी। सा। नः॒ सुप्रा॒चीति॒ सुऽप्रा॑ची। सुप्र॑ती॒चीति॒ सुऽप्र॑तीची। ए॒धि॒। मि॒त्रः॒। त्वा॒। प॒दि। ब॒ध्नी॒ता॒म्। पू॒षा। अध्व॑नः। पा॒तु॒। इन्द्रा॑य। अध्य॑क्षा॒येत्यधि॑ऽअक्षाय। १९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- निचृद् ब्राह्मी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे वाणी और बिजुली किस प्रकार की हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त (ते) आपके (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में जो (चित्) विद्या व्यवहार को चितानेवाली (असि) है, जो (मना) ज्ञान साधन करानेहारी (असि) है, जो (धीः) प्रज्ञा और कर्म को प्राप्त करनेवाली (असि) है, जो (दक्षिणा) विज्ञान विजय को प्राप्त करने (क्षत्रिया) राजा के पुत्र के समान वर्ताने हारी (असि) है, जो (यज्ञिया) यज्ञ को कराने योग्य (असि) है, जो (उभयतःशीर्ष्णी) दोनों प्रकार से शिर के समान उत्तम गुणयुक्त और (अदितिः) नाशरहित वाणी वा बिजुली (असि) है, (सा) वह (नः) हम लोगों के लिये (सुप्राची) पूर्वकाल और (सुप्रतीची) पश्चिम काल में सुख देने हारी (एधि) हो, जो (पूषा) पुष्टि करने हारा (मित्रः) सब का मित्र होकर मनुष्यपन के लिये (त्वा) उस वाणी और बिजुली को (पदि) प्राप्ति योग्य उत्तम व्यवहार में (अध्यक्षाय) अच्छे प्रकार व्यवहार को देखने (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले परमात्मा, अध्यक्ष और श्रेष्ठ व्यवहार के लिये (बध्नीताम्) बन्धनयुक्त करे, सो आप (अध्वनः) व्यवहार और परमार्थ की सिद्धि करनेवाले मार्ग के मध्य में (नः) हम लोगों की निरन्तर (पातु) रक्षा कीजिये ॥१९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और पूर्व मन्त्र से (ते, सत्यसवसः, प्रसवे) इन तीन पदों की अनुवृत्ति भी आती है। मनुष्यों को जो बाह्य, आभ्यन्तर की रक्षा करके सब से उत्तम वाणी वा बिजुली वर्त्तती है, वही भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल में सुख की करानेवाली है, ऐसा जानना चाहिये। जो कोई मनुष्य प्रीति से परमेश्वर, सभाध्यक्ष और उत्तम कामों में आज्ञा के पालन के लिये सत्य वाणी और उत्तम विद्या को ग्रहण करता है, वही सब की रक्षा कर सकता है ॥१९॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! सत्यसवस्ते तव प्रसवे या वाग् विद्युद्वा चिदस्ति मना अस्ति धीरस्ति दक्षिणास्ति क्षत्रियास्ति यज्ञियास्त्युभयतः शीर्ष्ण्यादितिरस्ति सा नोऽस्मभ्यं सुप्राची सुप्रतीच्येधि भवतु। यः पूषा मित्रः सर्वसखा भूत्वा मनुष्यत्वाय त्वां पद्यध्यक्षायेन्द्राय बध्नीताम्। स भवानध्वनो व्यवहारपरमार्थसिद्धिकरस्य मार्गस्य मध्ये नोऽस्मान् सततं पातु रक्षतु ॥१९॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। ते, सत्यसवसः, प्रसवे−इति पदत्रयमत्रानुवर्त्तते। या बाह्याभ्यन्तररक्षणाभ्यां सर्वोत्तमा वाग् विद्युच्च वर्त्तते, सैषा भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालेषु सुखकारिण्यस्तीति वेद्यम्। यः कश्चित् परमेश्वरसभा- ध्यक्षोत्तमव्यवहारसिद्धिप्रीत्याज्ञापालनाय सत्यां वाचं विद्युद्विद्यां च दृढां निबध्नाति, स एव मनुष्यः सर्वरक्षको भवतीति ॥१९॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील (ते) (सत्यसवसः) (प्रसवे) या तीन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. बाह्य व आभ्यंतर यांचे रक्षण करणारी सर्वात उत्तम वाणी किंवा विद्युत असते व तीच भूत, वर्तमान व भविष्यकाळात सुखी करणारी असते हे माणसांनी जाणले पाहिजे. जो माणूस चांगले कर्म करताना परमेश्वर व राजा यांची आज्ञा पालन करून सत्यवाणी व उत्तम विद्या संपादन करतो तोच सर्वांचे रक्षण करू शकतो.
२० अनु त्वा
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अनु॑ त्वा मा॒ता म॑न्यता॒मनु॑ पि॒ताऽनु भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। सा दे॑वि दे॒वमच्छे॒हीन्द्रा॑य॒ सोम॑ꣳ रु॒द्रस्त्वा॑वर्त्तयतु स्वस्ति सोम॑सखा॒ पुन॒रेहि॑ ॥२०॥
मूलम् ...{Loading}...
अनु॑ त्वा मा॒ता म॑न्यता॒मनु॑ पि॒ताऽनु भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। सा दे॑वि दे॒वमच्छे॒हीन्द्रा॑य॒ सोम॑ꣳ रु॒द्रस्त्वा॑वर्त्तयतु स्वस्ति सोम॑सखा॒ पुन॒रेहि॑ ॥२०॥
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पदपाठः
अनु॑। त्वा॒। मा॒ता। म॒न्य॒ता॒म्। अनु॑। पि॒ता। अनु॑। भ्राता॑। सग॑र्भ्य॒ इति॒ सऽग॑र्भ्यः। अनु॑। सखा॑। सयू॑थ्य॒ इति॒ सऽयू॑थ्यः। सा। दे॒वि॒। दे॒वम्। अच्छ॑। इ॒हि॒। इन्द्रा॑य। सोम॑म्। रु॒द्रः। त्वा॒। आ। व॒र्त्त॒य॒तु॒। स्व॒स्ति॑। सोम॑स॒खेति॒ सोम॑ऽसखा। पुनः॑। आ। इ॒हिः॒। २०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- साम्नी जगती भुरिग् आर्षी उष्णिक्
- निषादः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वह वाणी और बिजुली कैसी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! जैसे (रुद्रः) परमेश्वर वा ४४ चवालीस वर्ष पर्यन्त अखण्ड ब्रह्मचर्य्याश्रम सेवन से पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् (त्वा) तुझको जिस वाणी वा बिजुली तथा (सोमम्) उत्तम पदार्थसमूह और (स्वस्ति) सुख को (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (आवर्त्तयतु) प्रवृत्त करे और जो (सा) वह (सोमसखा) विद्याप्रकाशयुक्त वाणी और (देवि) दिव्यगुणयुक्त बिजुली (देवम्) उत्तम धर्मात्मा विद्वान् को प्राप्त होती है, वैसे उसको तू (पुनः) बार-बार (अच्छ) अच्छे प्रकार (इहि) प्राप्त हो और इसको ग्रहण करने के लिये (त्वा) तुझ को (माता) उत्पन्न करनेवाली जननी (अनुमन्यताम्) अनुमति अर्थात् आज्ञा देवे, इसी प्रकार (पिता) उत्पन्न करनेवाला जनक (सगर्भ्यः) तुल्य गर्भ में होनेवाला (भ्राता) भाई और (सयूथ्यः) समूह में रहनेवाला (सखा) मित्र ये सब प्रसन्नता पूर्वक आज्ञा देवें, उसको तू (पुनरेहि) अत्यन्त पुरुषार्थ करके बारं-बार प्राप्त हो ॥२०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रश्नः—मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार वर्त्तना चाहिये? उत्तरः—जैसे धर्मात्मा, विद्वान्, माता, पिता, भाई, मित्र आदि सत्यव्यवहार में प्रवृत्त हों, वैसे पुत्रादि और जैसे विद्वान् धार्मिक पुत्रादि धर्मयुक्त व्यवहार में वर्त्तें, वैसे माता पिता आदि को भी वर्त्तना चाहिये ॥२०॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यथा रुद्रः परमेश्वरो विद्वान् वा वर्त्तयतु, यां वाणीं विद्युतं सोमं देवं स्वस्ति सुखं यस्मा इन्द्राय आ वर्त्तयतु, सा सोमसखा देवि वाग्विद्युद्वा देवं विद्वांसमेति, तथैव त्वं तस्मै पुनरच्छेहि, पुनः पुनः समन्तात् सम्यग्रीत्या प्राप्नुहि। एतद्विद्यां ग्रहीतुं त्वा त्वां मातानुमन्यतां पितानुमन्यतां सगर्भ्यो भ्राताऽनुमन्यतां सयूथ्यः सखाऽनुमन्यतां त्वं च त्वा तां पुनः पुनः पुरुषार्थेनैहि प्राप्नुहि ॥२०॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परस्परमेवं वर्त्तितव्यं यथा धर्म्मात्मा विदुषी माता धर्म्मात्मा विद्वान् पिता भ्राता मित्रादयश्च सत्ये व्यवहारे प्रवर्तेरँस्तथैव पुत्रादिभिरप्यनुवर्तितव्यम्। यथा च विद्वांसो धार्मिका पुत्रादयो धर्मे व्यवहारे प्रवर्तेरँस्तथैव मात्रादिभिरप्यनुष्ठातव्यमित्येवं सर्वैः परस्परं वर्त्तित्वाऽऽनन्दितव्यम् ॥२०॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. प्रश्न ः माणसांनी परस्पर वर्तन कसे करावे? उत्तर ः जसे धर्मात्मा, विद्वान, माता, पिता, बंधू, मित्र इत्यादी सत्य व्यवहाराने वागतात तसेच पुत्र इत्यादींनीही वागावे व विद्वान धार्मिक पुत्र जसा धार्मिक व्यवहार करतो तसे माता व पिता यांनीही वागावे.
२१ वस्व्यस्यदितिरस्यादित्यासि रुद्रासि
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वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑ च॒न्द्रासि॑। बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के ॥२१॥
मूलम् ...{Loading}...
वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑ च॒न्द्रासि॑। बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के ॥२१॥
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पदपाठः
वस्वी॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्या। अ॒सि॒। रु॒द्रा। अ॒सि॒। च॒न्द्रा। अ॒सि॒। बृह॒स्पतिः॑। त्वा॒। सु॒म्ने। र॒म्णा॒तु॒। रु॒द्रः। वसु॑भि॒रिति॒॑ वसु॑ऽभिः। आ। च॒के॒। २१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- विराड् आर्षी बृहती
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वह वाणी वा बिजुली किस प्रकार की है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि विद्या सम्बन्धी, जिसकी सेवा २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करनेवालों ने की हुई (असि) है, जो (अदितिः) प्रकाशकारक (असि) है, जो (रुद्रा) प्राणवायु सम्बन्धवाली और जिसको ४४ चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करनेहारे प्राप्त हुए हों, वैसी (असि) है, जो (आदित्या) सूर्य्यवत् सब विद्याओं का प्रकाश करनेवाली, जिसका ग्रहण ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यसेवी मनुष्यों ने किया हो, वैसी (असि) है, जो (चन्द्रा) आह्लाद करनेवाली (असि) है, जिसको (बृहस्पतिः) सर्वोत्तम (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाला परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख में (रम्णातु) रमणयुक्त करता और जिस (वसुभिः) पूर्णविद्यायुक्त मनुष्यों के साथ वर्त्तमान हुई वाणी वा बिजुली की (आचके) निर्माण वा इच्छा करता अथवा जिसकी मैं इच्छा करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको (रम्णातु) रमणयुक्त वा इसको सिद्ध करने की इच्छा कर ॥२१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वाणी, बिजुली और प्राण पृथिवी आदि और विद्वानों के साथ वर्त्तमान हुए अनेक व्यवहार की सिद्धि के हेतु हैं और जिनकी सेवा जितेन्द्रियादि धर्मसेवनपूर्वक होके विद्वानों ने की हो, वैसी वाणी और बिजुली मनुष्यों को विज्ञानपूर्वक क्रियाओं से संप्रयोग की हुई बहुत सुखों के करनेवाली होती है ॥२१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! यथा या वस्व्यस्त्यदितिर(स्य)स्ति रुद्रास्यस्त्यादित्या(स्य)स्ति चन्द्रा(स्य)स्ति, यां बृहस्पतिः सुम्ने रमयति प्रेरयति यां रुद्रो वसुभिः सह वर्त्तमानामाचके यामहं कामये तथा त्वा तां भवान् रम्णातु रमयतु ॥२१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा ये वाग्विद्युतौ प्राणपृथिव्यादिभिः सह वर्त्तमाने अनेकव्यवहारहेतू स्तो ये जितेन्द्रियादिधर्मपुरस्सरं यथायोग्यं कृतब्रह्मचर्यैर्मनुष्यैर्विज्ञानेन क्रियासु संप्रयोजिते सत्यौ वाग्विद्युतौ बहुसुखकारिके जायेते, एतां त्वमपि नित्यं सेवस्व ॥२१॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. वाणी, विद्युत, प्राण, पृथ्वी ही विद्वानांच्या व्यवहारसिद्धीची कारणे आहेत. त्यासाठी जितेंद्रिय धार्मिक विद्वानांनी वाणी व विद्युत यांचा वैज्ञानिकदृष्ट्या चांगला प्रयोग केल्यास सर्व माणसांना ती सुखकारक ठरतात.
२२ अदित्यास्त्वा मूर्द्धन्नाजिघर्मि
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अदि॑त्यास्त्वा मू॒र्द्धन्नाजि॑घर्मि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याऽइडा॑यास्प॒दम॑सि घृ॒तव॒त् स्वाहा॑। अ॒स्मे र॑मस्वा॒स्मे ते॒ बन्धु॒स्त्वे रायो॒ मे रायो॒ मा व॒यꣳ रा॒यस्पोषे॑ण॒ वियौ॑ष्म॒ तोतो॒ रायः॑ ॥२२॥
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अदि॑त्यास्त्वा मू॒र्द्धन्नाजि॑घर्मि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याऽइडा॑यास्प॒दम॑सि घृ॒तव॒त् स्वाहा॑। अ॒स्मे र॑मस्वा॒स्मे ते॒ बन्धु॒स्त्वे रायो॒ मे रायो॒ मा व॒यꣳ रा॒यस्पोषे॑ण॒ वियौ॑ष्म॒ तोतो॒ रायः॑ ॥२२॥
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पदपाठः
अदि॑त्याः। त्वा॒। मू॒र्द्धन्। आ। जि॒घर्मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। इडा॑याः। प॒दम्। अ॒सि॒। घृ॒तव॒दि॑ति घृ॒तऽव॑त्। स्वाहा॑। अ॒स्मे॑ऽइत्य॒स्मे। र॒म॒स्व॒। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। ते॒। बन्धुः॑। त्वेऽइति॒ त्वे। रायः॑। मेऽइति॒ मे। रायः॑। मा। व॒यम्। रा॒यः। पोषे॑ण। वि। यौ॒ष्म॒। तोतः॑। रायः॑। २२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- ब्राह्मी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे वाणी और बिजुली कैसी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! तू जैसे (देवयजने) विद्वानों के यजन वा दान में इस (अदित्याः) अन्तरिक्ष (पृथिव्याः) भूमि और (इडायाः) वाणी को (स्वाहा) अच्छे प्रकार यज्ञ करनेवाली क्रिया के मध्य जो (मूर्द्धन्) सब के ऊपर वर्त्तमान (घृतवत्) पुष्टि करनेवाले घृत के तुल्य (पदम्) जानने वा प्राप्त होने योग्य पदवी (असि) है वा जिसको मैं (आ जिघर्मि) प्रदीप्त करता हूँ, वैसे (त्वा) उसको प्रदीप्त कर और जो (अस्मे) हम लोगों में विभूति रमण करती है, वह तुम लोगों में भी (रमस्व) रमण करे, जिसको मैं रमण कराता हूँ, उस को तू भी (रमस्व) रमण करा, जो (अस्मे) हम लोगों का (बन्धुः) भाई है, वह (ते) तेरा भी हो, जो (रायः) विद्यादि धनसमूह (त्वे) तुझ में है, वह (मे) मुझ में भी हो, जो (तोतः) जानने प्राप्त करने योग्य (रायः) विद्याधन मुझ में है, सो तुझ में भी हो, (रायः) तुम्हारी और हमारी समृद्धि है, वे सब के सुख के लिये हों। इस प्रकार जानते निश्चय करते वा अनुष्ठान करते हुए तुम (वयम्) हम और सब लोग (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से कभी (मा वियौष्म) अलग न होवें ॥२२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सत्यविद्या, धर्म से संस्कार की हुई वाणी वा शिल्पविद्या से संप्रयोग की हुई बिजुली आदि विद्या को सब मनुष्यों के लिये उपदेश वा ग्रहण और सुख-दुःख की व्यवस्था को भी तुल्य ही जानके सब ऐश्वर्य्य को परोपकार में संयुक्त करना चाहिये और किसी मनुष्य को इस प्रकार का व्यवहार कभी न करना चाहिये कि जिससे किसी की विद्या, धन आदि ऐश्वर्य्य की हानि होवे ॥२२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! त्वं यथा या देवयजनेऽदित्याः पृथिव्या इडायाः स्वाहा घृतवत्पदम(स्य)स्ति, यामहं आ जिघर्मि, त्वा तां त्वमपि जिघृहि, याऽस्मे अस्मासु रमते सा युष्मास्वपि रमस्व रमताम्, यामहं रमयामि तां भवानपि स्वस्मिन् रमयतु। योऽस्मे अस्माकं बन्धुरस्ति, स ते तवाप्यस्तु, यो रायो धनसमूहस्त्वय्यस्ति, स मे मय्यप्यस्तु। तोतो भवान् या रायो विद्याधनसमृद्धीः प्राप्नोति, ता मे मय्यपि सन्तु, या मयि वर्त्तन्ते, तास्त्वे त्वय्यपि सन्त्वेता रायः समृद्धयः सन्ति ताः सर्वेषा सुखायापि संप्रयुक्ताः सन्तु, यथैवं जानन्तो निश्चिन्वन्तोऽनुतिष्ठन्तो यूयं वयं च रायस्पोषेण कदाचिन्मा वियौष्म कदाचिद् वियुक्ता मा भवेम, तथैव सर्वे भवन्तु ॥२२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्या सत्यविद्याधर्मसंस्कृता वाग् विद्याक्रियाभ्यां संप्रयुक्ता विद्युदादिविद्यास्ति सा सर्वेभ्य उपदिश्य संग्राह्य, सुखदुःखव्यवस्थां समानां विदित्वा सर्वमैश्वर्य्यं परोपकारे संयोज्य सदा सुखयितव्यम्। नैवं कदाचिद् व्यवहारः कर्त्तव्यो येन स्वस्यान्यस्य वैश्वर्य्यह्रासः कदाचिद् भवेदिति ॥२२॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सत्यविद्या व धर्माने संस्कारित झालेली वाणी किंवा शिल्पविद्येने प्रयुक्त केलेली विद्युत इत्यादी विद्यांची सर्व माणसांनी माहिती घेऊन तिचा अंगीकार करावा व सुखदुःख व्यवस्था समान समजून सर्व ऐश्वर्य परोपकारासाठी खर्च करावे. विद्या, धन इत्यादी ऐश्वर्याची हानी होईल असा व्यवहार कोणत्याही माणसाने करू नये.
२३ समख्ये देव्या
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सम॑ख्ये दे॒व्या धि॒या सं दक्षि॑णयो॒रुच॑क्ष॒सा। मा म॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षी॒र्मोऽअ॒हं तव॑ वी॒रं वि॑देय॒ तव॑ देवि स॒न्दृशि॑ ॥२३॥
मूलम् ...{Loading}...
सम॑ख्ये दे॒व्या धि॒या सं दक्षि॑णयो॒रुच॑क्ष॒सा। मा म॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षी॒र्मोऽअ॒हं तव॑ वी॒रं वि॑देय॒ तव॑ देवि स॒न्दृशि॑ ॥२३॥
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पदपाठः
सम्। अ॒ख्ये॒। दे॒व्या। धि॒या। सम्। दक्षि॑णया। उ॒रुच॑क्ष॒सेत्यु॒रुऽच॑क्षसा। मा। मे॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒। मोऽइति॒ मो। अ॒हम्। तव॑। वी॒रम्। वि॒दे॒य॒। तव॑। देवि॒। संदृशीति॑ स॒म्ऽदृशि॑। २३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाग्विद्युतौ देवते
- वत्स ऋषिः
- आस्तारपङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
इन दोनों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे (अहम्) मैं (दक्षिणया) ज्ञानसाधक अज्ञाननाशक (उरुचक्षसा) बहुत प्रकट वचन वा दर्शनयुक्त (देव्या) देदीप्यमान (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (तव) उस (देवि) सर्वोत्कृष्ट गुणों से युक्त वाणी वा बिजुली के (संदृशि) अच्छे प्रकार देखने योग्य व्यवहार में जीवन को (समख्ये) कथन से प्रकट करता हूँ वह (मे) मेरे (आयुः) जीवन को (मा प्रमोषीः) नाश न करे, उसको मैं अविद्या से नष्ट न करूँ (तव) हे सब के मित्र ! अन्याय से आपके (वीरम्) शूरवीर को (मो संविदेय) प्राप्त न होऊँ, वैसे ही तू भी पूर्वोक्त सब करके अन्याय से मेरे शूरवीरों को प्राप्त मत हो ॥२३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि शुद्ध कर्म वा प्रज्ञा से वाणी वा बिजुली की विद्या को ग्रहण कर उमर को बढ़ा और विद्यादि उत्तम-उत्तम गुणों में अपने सन्तान और वीरों को सम्पादन करके सदा सुखी रहें ॥२३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
एतयोः कथमुपयोगः कार्य्य इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्मनुष्य ! यथाहं दक्षिणयोरुचक्षसा देव्या धिया तव देवि तस्या दिव्यगुणैर्विराजमानाया वाचो विद्युतो वा संदृशि जीवनं समख्ये, सा मे ममायुर्मा प्रमोषीः खण्डनं न कुर्य्यादहमेतां समख्ये प्रख्यातां कुर्य्यामन्यायेन तव वीरं मो मा संविदेय, तथैव त्वमेतत् सर्वमाचर्य्यान्यायेनापि मम वीरं च मा संविन्दस्व ॥२३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः शुद्धाभ्यां कर्मप्रज्ञाभ्यां वाग्विद्युद्विद्यां संगृह्य जीवनं वर्धयित्वा विद्यादिसद्गुणेषु वीरान् सम्पाद्य सदा सुखयितव्यम् ॥२३॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी शुद्ध कर्माने व आपल्या प्रज्ञेने वाणी व विद्युत विद्या ग्रहण करावी आणि आपले आयुष्य वाढवावे. आपली मुले व वीरपुरुष यांना विद्या इत्यादी गुणांनी युक्त करून सुखी बनावे.
२४ एष ते
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ए॒ष ते॑ गाय॒त्रो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतादे॒ष ते॒ त्रैष्टु॑भो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतादे॒ष ते॒ जाग॑तो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूताच्छन्दोना॒माना॒ꣳ सा॑म्राज्यङ्ग॒च्छेति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतात्। आस्मा॒को᳖ऽसि शु॒क्रस्ते॒ ग्रह्यो॑ वि॒चित॑स्त्वा॒ विचि॑न्वन्तु ॥२४॥
मूलम् ...{Loading}...
ए॒ष ते॑ गाय॒त्रो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतादे॒ष ते॒ त्रैष्टु॑भो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतादे॒ष ते॒ जाग॑तो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूताच्छन्दोना॒माना॒ꣳ सा॑म्राज्यङ्ग॒च्छेति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतात्। आस्मा॒को᳖ऽसि शु॒क्रस्ते॒ ग्रह्यो॑ वि॒चित॑स्त्वा॒ विचि॑न्वन्तु ॥२४॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ए॒षः। ते॒। गा॒य॒त्रः। भा॒गः। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। ए॒षः। ते॒। त्रैष्टु॑भः। त्रैस्तु॑भ॒ इति त्रैऽस्तु॑भः। भा॒गः। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। ए॒षः। ते॒। जाग॑तः। भा॒गः। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। छ॒न्दो॒ना॒माना॒मिति॑ छन्दःऽना॒माना॑म्। साम्रा॑ज्य॒मिति॒ साम्ऽरा॑ज्यम्। ग॒च्छ॒। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। आ॒स्मा॒कः। अ॒सि॒। शु॒क्रः। ते॒। ग्रह्यः॑। वि॒चित॒ इति॑ वि॒ऽचितः॑। त्वा॒। वि। चि॒न्व॒न्तु॒। २४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- वत्स ऋषिः
- ब्राह्मी जगती याजुषी पङ्क्तिः
- निषादः, पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
किसके प्रतिपादन के लिये ज्ञान की इच्छा करनेहारा विद्वानों को पूछे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! तू कौन इस यज्ञ का (गायत्रः) वेदस्थ गायत्री छन्दयुक्त मन्त्रों के समूहों से प्रतिपादित (भागः) सेवने योग्य भाग है, (इति) इस प्रकार विद्वान् से पूछ। जैसे वह विद्वान् (ते) तुझ को उस यज्ञ का यह प्रत्यक्ष भाग है, (इति) इसी प्रकार से (सोमाय) पदार्थविद्या सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे लिये (ब्रूतात्) कहे। तू कौन इस यज्ञ का (त्रैष्टुभः) त्रिष्टुप् छन्द से प्रतिपादित (भागः) भाग है, (इति) इसी प्रकार विद्वान् से पूछ। जैसे वह (ते) तुझको उस यज्ञ का (एषः) यह भाग है, (इति) इसी प्रकार प्रत्यक्षता से समाधान (सोमाय) उत्तम रस के सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे लिये (ब्रूतात्) कहे। तू कौन इस यज्ञ का (जागतः) जगती छन्द से कथित (भागः) अंश है, (इति) इस प्रकार आप्त से पूछ। जैसे वह (ते) तुझ को उस यज्ञ का (एषः) यह प्रसिद्ध भाग है, (इति) इसी प्रकार (सोमाय) पदार्थविद्या को सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे लिये उत्तर (ब्रूतात्) कहे। जैसे आप (छन्दोनामानाम्) उष्णिग् आदि छन्दों के मध्य में कहे हुए यज्ञ के उपदेश में (साम्राज्यम्) भले प्रकार राज्य को (गच्छ) प्राप्त हो (इति) इसी प्रकार (सोमाय) ऐश्वर्य्ययुक्त (मे) मेरे लिये सार्वभौम राज्य की प्राप्ति होने का उपाय (ब्रूतात्) कहिये और जिस कारण आप (आस्माकाः) हम लोगों को (शुक्रः) पवित्र करनेवाले उपदेशक (असि) हैं, वैसे मैं (ते) आपके (ग्रह्यः) ग्रहण करने योग्य (विचितः) उत्तम-उत्तम धनादि द्रव्य और गुणों से संयुक्त शिष्य हूँ। आप मुझको सब गुणों से बढ़ाइये, इस कारण मैं (त्वा) आपको वृद्धियुक्त करता हूँ और सब मनुष्य (त्वा) आप वा इस यज्ञ तथा मुझको (विचिन्वन्तु) वृद्धियुक्त करें ॥२४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग विद्वानों से पूछकर सब विद्याओं का ग्रहण करें तथा विद्वान् लोग इन विद्याओं का यथावत् ग्रहण करावें। परस्पर अनुग्रह करने वा कराने से सब वृद्धियों को प्राप्त होकर विद्या और चक्रवर्त्ति आदि राज्य को सेवन करें ॥२४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
किं प्रतिपादनाय जिज्ञासुर्विदुषः पृच्छेदित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वंस्त्वं विद्वांसं प्रति कोऽस्य यज्ञस्य गायत्रो भागोऽस्तीति पृच्छ, स विद्वान् ते तवैषोऽयमस्तीति मे मह्यं सोमायैतं ब्रूताद् ब्रवीतूपदिशतु। कोऽस्य यज्ञस्य त्रैष्टुभो भागोऽस्तीति त्वं पृच्छ, स ते तवैषोऽयमस्तीति समक्षे खल्वेतं मे मह्यं सोमाय ब्रूतात्। कोऽस्य यज्ञस्य जागतो भागोऽस्तीति त्वं पृच्छ, स ते तवैषोऽयमस्तीति प्रसिद्ध्यैतं सोमाय मे मह्यं ब्रूतात्। यथा भवांश्छन्दोनामानामुष्णिगादीनां छन्दसां मध्ये प्रतिपादितस्य यज्ञस्योपदेशे साम्राज्यं गच्छतु, तथैवैतेषामेनं सोमाय मे मह्यं ब्रूतात्। यस्त्वमास्माकः शुक्रोऽसि तस्मात् ते तवाहं विचितो ग्रह्योऽस्मि, त्वं मां सर्वैरेतैर्विचिनुहि, अहं त्वां विचिनोम्येव, सोऽपि सर्वे त्वामेतं यज्ञं मां च विचिन्वन्तु वर्धयन्तु ॥२४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्वद्भ्यः पृष्ट्वा सर्वा विद्याः संगृह्णीरन्। विद्वांसः खल्वेताः संग्राहयन्तु, परस्परमनुग्राह्यानुग्राहकभावेन वर्त्तित्वा सर्वे वृद्धिं प्राप्य चक्रवर्त्तिराज्यं सेवेरन्निति ॥२४॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांशी परामर्श करून सर्व विद्या ग्रहण कराव्यात व विद्वान लोकांनीही यथायोग्य रीतीने विद्या प्रदान करावी. परस्परांवर अनुग्रह करून किंवा करवून सर्व प्रकारची वृद्धी करावी आणि विद्या व चक्रवर्ती राज्य इत्यादी प्राप्त करावे.
२५ अभि त्यम्
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अ॒भि त्यं दे॒वꣳ स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः᳖ क॒विक्र॑तु॒मर्चा॑मि स॒त्यस॑वꣳ रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिं क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भाऽअदि॑द्यु॒त॒त् सवी॑मनि॒ हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पा स्वः॑। प्र॒जाभ्य॑स्त्वा प्र॒जास्त्वा॑ऽनु॒प्राण॑न्तु प्र॒जास्त्वम॑नु॒प्राणि॑हि ॥२५॥
मूलम् ...{Loading}...
अ॒भि त्यं दे॒वꣳ स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः᳖ क॒विक्र॑तु॒मर्चा॑मि स॒त्यस॑वꣳ रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिं क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भाऽअदि॑द्यु॒त॒त् सवी॑मनि॒ हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पा स्वः॑। प्र॒जाभ्य॑स्त्वा प्र॒जास्त्वा॑ऽनु॒प्राण॑न्तु प्र॒जास्त्वम॑नु॒प्राणि॑हि ॥२५॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ॒भि। त्यम्। दे॒वम्। स॒वि॒ता॑रम्। ओण्योः᳖। क॒विक्र॑तु॒मिति॑ क॒विऽक्र॑तु॒म्। अर्चा॑मि। स॒त्यस॑व॒मिति॑ स॒त्यऽस॑वम्। र॒त्न॒ऽधामिति॑ रत्न॒धाम्। अ॒भि। प्रि॒यम्। म॒तिम्। क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा। यस्य॑। अ॒मतिः॑। भाः। अदि॑द्यु॒तत्। सवी॑मनि। हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। अ॒मि॒मी॒त॒। सु॒क्रतु॒रिति॑ सु॒ऽक्रतुः॑। कृ॒पा। स्व॒रिति॒ स्वः॑। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। त्वा॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वा॒। अ॒नु॒प्राण॒न्त्वित्य॑नु॒ऽप्राण॑न्तु॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वम्। अ॒नु॒ऽप्राणि॒हीत्य॑नु॒ऽप्राणि॑हि। २५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सविता देवता
- वत्स ऋषिः
- भुरिक् शक्वरी, भुरिग् गायत्री
- निषादः, षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर अगले मन्त्र में ईश्वर, राजसभा और प्रजा के गुणों का उपदेश किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - मैं (यस्य) जिस सच्चिदानन्दादिलक्षणयुक्त परमेश्वर, धार्मिक सभापति और प्रजाजन के (सवीमनि) उत्पन्न हुए संसार में (ऊर्ध्वा) उत्तम (अमतिः) स्वरूप (भाः) प्रकाशमान (अदिद्युतत्) प्रकाशित हुआ है। जिसकी (कृपा) करुणा (स्वः) सुख को करती है, (हिरण्यपाणिः) जिसने सूर्य्यादि ज्योति व्यवहार में उत्तम गुण कर्मों को युक्त किया हो, (सुक्रतुः) जिस उत्तम प्रज्ञा वा कर्मयुक्त ईश्वर, सभा-स्वामी और प्रजाजन ने (स्वः) सूर्य्य और सुख को (अमिमीत) स्थापित किया हो (त्यम्) उस (ओण्योः) द्यावापृथिवी वा (सवितारम्) अग्नि आदि को उत्पन्न और संप्रयोग करने तथा (कविक्रतुम्) सर्वज्ञ वा क्रान्तदर्शन (रत्नधाम्) रमणीय रत्नों को धारण करने (सत्यसवम्) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त (प्रियम्) प्रीतिकारक (मतिम्) वेदादि शास्त्र वा विद्वानों के मानने योग्य (कविम्) वेदविद्या का उपदेश करने तथा (देवम्) सुख देनेवाले परमेश्वर, सभाध्यक्ष और प्रजाजन का (अर्चामि) पूजन करता हूँ वा जिस (त्वा) आपको (प्रजाभ्यः) उत्पन्न हुई सृष्टि से पूजित करता हूँ। उस आप की सृष्टि में (प्रजाः) मनुष्य आदि (अनुप्राणन्तु) आयु का भोग करें (त्वम्) और आप कृपा करके (प्रजाः) प्रजा के ऊपर जीवों के अनुकूल (अनुप्राणिहि) अनुग्रह कीजिये ॥२५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त परमेश्वर, धार्मिक सभापति और प्रजाजन समूह ही का सत्कार करना चाहिये, उनसे भिन्न और किसी का नहीं। विद्वान् मनुष्यों को योग्य है कि प्रजा-पुरुषों के सुख के लिये इस परमेश्वर की स्तुति प्रार्थनोपासना और श्रेष्ठ सभापति तथा धार्मिक प्रजाजन के सत्कार का उपदेश नित्य करें, जिससे सब मनुष्य उनकी आज्ञा के अनुकूल सदा वर्त्तते रहें और जैसे प्राण में सब जीवों की प्रीति होती है, वैसे पूर्वोक्त परमेश्वर आदि में भी अत्यन्त प्रेम करें ॥२५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनरीश्वरराजसभाप्रजागुणा उपदिश्यन्ते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् सभाध्यक्ष प्रजापुरुष ! वाऽहं यस्य सवीमन्यूर्ध्वामतिर्भा अदिद्युतत् कृपा स्वः सुखं करोति। यो हिरण्यपाणिः सुक्रतुः स्वरमिमीतादित्यं वा निर्मितवान्। त्यमोण्योः सवितारं कविक्रतुं रत्नधां प्रियं मतिं कविं देवं त्वा त्वां प्रजाभ्योऽभ्यर्चामि तं त्वां प्रजा अनुप्राणन्तु, कृपया त्वं प्रजा अनुप्राणिहि ॥२५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वजगत्स्रष्टुर्निराकारस्य व्यापिनः सर्वशक्तिमतः सच्चिदानन्दादिलक्षणस्य परमेश्वरस्य प्रजापालनतत्परस्य सभापतेर्धार्मिकस्य वैवार्चा नित्यं कर्त्तव्या, नातो भिन्नस्य कस्यचित्। विद्वद्भिः प्रजास्थानां सुखायैतेषां स्तुतिप्रार्थनोपदेशा नित्यं कार्य्याः। यतः सर्वा प्रजास्तदाज्ञानुकूलाः सदा वर्त्तेरन्। यथा प्राणे सर्वेषां जीवानां प्रीतिरस्ति, तथा परमात्मादिष्वपि कार्य्येति ॥२५॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी सर्व जग उत्पन्न करणाऱ्या निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वर व धार्मिक राजा आणि प्रजा यांच्याबद्दल आदर बाळगावा व सत्कार करावा. इतरांचा नाही. विद्वान माणसांनी प्रजेच्या सुखासाठी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना आणि श्रेष्ठ राजा व धार्मिक प्रजा यांच्याबद्दल आदर बाळगून त्यांचा सत्कार करण्याचा उपदेश नेहमी करावा. त्यामुळे सर्व माणसे त्यांच्या आज्ञेनुसार वागतील व प्राण जसे सर्वांना प्रिय वाटतात तसेच परमेश्वराबद्दलही प्रेम वाटावे.
२६ शुक्रं त्वा
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शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रेण॑ क्रीणामि च॒न्द्रं च॒न्द्रेणा॒मृत॑म॒मृते॑न। स॒ग्मे ते॒ गोर॒स्मे ते॑ च॒न्द्राणि॒ तप॑सस्त॒नूर॑सि प्र॒जाप॑ते॒र्वर्णः॑ पर॒मेण॑ प॒शुना॑ क्रीयसे सहस्रपो॒षं पु॑षेयम् ॥२६॥
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शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रेण॑ क्रीणामि च॒न्द्रं च॒न्द्रेणा॒मृत॑म॒मृते॑न। स॒ग्मे ते॒ गोर॒स्मे ते॑ च॒न्द्राणि॒ तप॑सस्त॒नूर॑सि प्र॒जाप॑ते॒र्वर्णः॑ पर॒मेण॑ प॒शुना॑ क्रीयसे सहस्रपो॒षं पु॑षेयम् ॥२६॥
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पदपाठः
शु॒क्रम्। त्वा॒। शु॒क्रेण॑। क्री॒णा॒मि॒। च॒न्द्रम्। च॒न्द्रेण॑। अ॒मृत॑म्। अ॒मृते॑न। स॒ग्मे। ते॒। गोः। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। ते॒। च॒न्द्राणि॑। तप॑सः। त॒नूः। अ॒सि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। वर्णः॑। प॒र॒मेण॑। प॒शुना॑। क्री॒य॒से॒। स॒ह॒स्र॒पो॒षमिति॑ सहस्रऽपो॒षम्। पु॒षे॒य॒म्। २६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- वत्स ऋषिः
- भुरिग् ब्राह्मी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
मनुष्यों को क्या-क्या साधन करके यज्ञ को सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (सग्मे) पृथिवी के साथ वर्त्तमान यज्ञ में (तपसः) प्रतापयुक्त अग्नि वा तपस्वी अर्थात् धर्मात्मा विद्वान् का (तनूः) शरीर (असि) है, उसको शिल्पविद्या वा सत्योपदेश की सिद्धि के अर्थ (पशुना) विक्रय किये हुए गौ आदि पशुओं करके धन आदि सामग्री से ग्रहण करके (प्रजापतेः) प्रजा के पालनहेतु सूर्य्य का (वर्णः) स्वीकार करने योग्य तेज (क्रीयसे) क्रय होता है, उस (सहस्रपोषम्) असंख्यात पुष्टि को प्राप्त होके मैं (पुषेयम्) पुष्ट होऊँ। हे विद्वन् मनुष्य ! जो (ते) आपको (गोः) पृथिवी के राज्य के सकाश से (चन्द्राणि) सुवर्ण आदि धातु प्राप्त हैं, वे (अस्मे) हम लोगों के लिये भी हों, जैसे मैं (परमेण) उत्तम (शुक्रेण) शुद्ध भाव से (शुक्रम्) शुद्धिकारक यज्ञ (चन्द्रेण) सुवर्ण से (चन्द्रम्) सुवर्ण और (अमृतेन) नाशरहित विज्ञान से (अमृतम्) मोक्षसुख को (क्रीणामि) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर ॥२६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि शरीर, मन, वाणी और धन से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षणयुक्त यज्ञ का निरन्तर अनुष्ठान करके असंख्यात अतुल पुष्टि को प्राप्त करें ॥२६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
मनुष्यैः किं कृत्वा यज्ञः साधनीय इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - अहं सग्मे या तपसस्तनूर(स्य)स्ति, यः पशुना प्रजापतेर्वर्णः क्रीयसे क्रीयते, तं सहस्रपोषं पुषेयम्। हे विद्वन् ! यानि ते तव यस्या गोः सकाशाच्चन्द्राण्युत्पन्नानि सन्ति, तान्यस्मे अस्मभ्यमपि सन्तु। अहं परमेण शुक्रेण यं शुक्रं यज्ञं चन्द्रेण चन्द्रममृतेनामृतं च क्रीणामि, त्वा तं त्वमपि क्रीणीहि ॥२६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः शरीरमनोवाग्धनेन परमेश्वरोपासनादिलक्षणं यज्ञं सततमनुष्ठायासंख्याताऽतुला पुष्टिः प्राप्तव्या ॥२६॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी शरीर, मन, वाणी व धन यांनी अत्यंत परमेश्वराची उपासना इत्यादी लक्षणांनी युक्त असलेल्या यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व सामर्थ्यवान व्हावे.
२७ मित्रो नऽएहि
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मि॒त्रो न॒ऽएहि॒ सुमि॑त्रध॒ऽइन्द्र॑स्यो॒रुमावि॑श॒ दक्षि॑णमु॒शन्नु॒शन्त॑ꣳ स्यो॒नः स्यो॒नम्। स्वान॒ भ्राजाङ्घा॑रे॒ बम्भा॑रे॒ हस्त॒ सुह॑स्त॒ कृशा॑नवे॒ते वः॑ सोम॒क्रय॑णा॒स्तान् र॑क्षध्वं॒ मा वो॑ दभन् ॥२७॥
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मि॒त्रो न॒ऽएहि॒ सुमि॑त्रध॒ऽइन्द्र॑स्यो॒रुमावि॑श॒ दक्षि॑णमु॒शन्नु॒शन्त॑ꣳ स्यो॒नः स्यो॒नम्। स्वान॒ भ्राजाङ्घा॑रे॒ बम्भा॑रे॒ हस्त॒ सुह॑स्त॒ कृशा॑नवे॒ते वः॑ सोम॒क्रय॑णा॒स्तान् र॑क्षध्वं॒ मा वो॑ दभन् ॥२७॥
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पदपाठः
मि॒त्रः। नः॒। आ। इ॒हि॒। सुमि॑त्रध॒ इति॒ सुऽमि॑त्रधः। इन्द्र॑स्य। उ॒रुम्। आ। वि॒श॒। दक्षि॑णम्। उ॒शन्। उ॒शन्त॑म्। स्यो॒नः। स्यो॒नम्। स्वान॑। भ्राज॑। अङ्घा॑रे। बम्भा॑रे। हस्त॑। सुह॒स्तेति॒ सुऽहस्त॑। कृशा॑नो॒ऽइति॒ कृशानो। ए॒ते। वः॒। सो॒म॒क्रय॑णा॒ इति॑ सोम॒ऽक्रय॑णाः। तान्। र॒क्ष॒ध्व॒म्। मा। वः॒। द॒भ॒न्। २७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विद्वान् देवता
- वत्स ऋषिः
- भुरिग् ब्राह्मी पङ्क्तिः
- पञ्चमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
मनुष्यों को विद्वान् मनुष्य के साथ और विद्वान् को सब मनुष्यों के संग कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वान) उपदेश करने (भ्राज) प्रकाश को प्राप्त होने (अङ्घारे) छल के शत्रु (बम्भारे) विचार-विरोधियों के शत्रु (हस्त) प्रसन्न (सुहस्त) अच्छे प्रकार हस्तक्रिया को जानने और (कृशानो) दुष्टों को कृश करने (सुमित्रधः) उत्तम मित्रों को धारण करने (मित्रः) सब के मित्र (स्योनः) सुख की (उशन्) कामना करने हारे सभाध्यक्ष ! आप (नः) हम लोगों को (आ इहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये तथा (दक्षिणम्) उत्तम अङ्गयुक्त (उरुम्) बहुत उत्तम पदार्थों से युक्त वा स्वीकार करने योग्य (उशन्तम्) कामना करने योग्य (स्योनम्) सुख को (आविश) प्रवेश कीजिये। हे सभाध्यक्षो ! (एते) जो (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त सभाध्यक्ष विद्वान् के (सोमक्रयणाः) सोम अर्थात् उत्तम पदार्थों का क्रय करने हारे प्रजा और भृत्य आदि मनुष्य (वः) तुम लोगों की रक्षा करें और आप लोग भी उनकी (रक्षध्वम्) रक्षा सदा किया करो। जैसे वे शत्रु लोग (तान्) उन (वः) तुम लोगों की हिंसा करने में समर्थ (मा दभन्) न हों, वैसे ही सम्यक् प्रीति से परस्पर मिल के वर्त्तो ॥२७॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राज्य और प्रजापुरुषों को उचित है कि परस्पर प्रीति, उपकार और धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् वर्त्त, शत्रुओं का निवारण, अविद्या वा अन्यायरूप अन्धकार का नाश और चक्रवर्त्ति राज्य आदि का पालन करके सदा आनन्द में रहें ॥२७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
मनुष्यैर्विदुषा सह विदुषैतैश्च कथं वर्त्तितव्यमित्यपुदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे स्वान भ्राजाङ्घारे बम्भारे हस्त सुहस्त कृशानो सभाद्यध्यक्ष सुमित्रधो मित्रः स्योन उशँस्त्वं नोऽस्मानेहि, दक्षिणमुरुमुशन्तं स्योनमाविश। हे मनुष्या ! एत इन्द्रस्य विदुषः सोमक्रयणा मनुष्या वो युष्मान् रक्षन्तु, यूयमेतान् रक्षध्वम्। यथा तान् सर्वान् वो युष्मान् शत्रवो मा दभन् हिंसितारो न भवेयुस्तथैव परस्परं संप्रीत्या मिलित्वाऽनुष्ठेयम् ॥२७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजप्रजापुरुषैः परस्परं प्रीत्योपकारे धर्म्ये व्यवहारे च वर्त्तित्वा शत्रून् निवार्य्याविद्यान्धकारं विनाश्य चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्यानन्दे सदा स्थातव्यम् ॥२७॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजा यांनी परस्पर प्रीतीने एकमेकांवर उपकार करून धर्मयुक्त व्यवहार करावा. शत्रूचे निवारण करावे. अविद्या किंवा अन्यायरूपी अंधकाराचा नाश करावा व चक्रवर्ती राज्याचे पालन करून आनंदात राहावे.
२८ परि माग्ने
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परि॑ माग्ने॒ दुश्च॑रिताद् बाध॒स्वा मा॒ सुच॑रिते भज। उदायु॑षा स्वा॒युषोद॑स्थाम॒मृताँ॒२ऽअनु॑ ॥२८॥
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परि॑ माग्ने॒ दुश्च॑रिताद् बाध॒स्वा मा॒ सुच॑रिते भज। उदायु॑षा स्वा॒युषोद॑स्थाम॒मृताँ॒२ऽअनु॑ ॥२८॥
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पदपाठः
परि॑। मा॒। अ॒ग्ने॒। दुश्च॑रिता॒दिति॒ दुःऽच॑रितात्। बा॒ध॒स्व॒। आ। मा॒। सुच॑रित॒ इति॒ सुऽच॑रिते। भ॒ज॒। उत्। आयु॑षा। स्वा॒युषेति॑ सुऽआ॒युषा॑। उत्। अ॒स्था॒म्। अ॒मृता॑न्। अनु॑। २८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- वत्स ऋषिः
- साम्नी बृहती, साम्नी उष्णिक्,
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
सब मनुष्यों को उचित है कि सब करने योग्य उत्तम कर्मों के आरम्भ, मध्य और सिद्ध होने पर परमेश्वर की प्रार्थना सदा किया करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप कृपा करके जिस कर्म से मैं (स्वायुषा) उत्तमतापूर्वक प्राण धारण करनेवाले (आयुषा) जीवन से (अमृतान्) जीवनमुक्त और मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् वा मोक्षरूपी आनन्दों को (उदस्थाम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ, उससे (मा) मुझको संयुक्त करके (दुश्चरितात्) दुष्टाचरण से (उद्बाधस्व) पृथक् करके (मा) मुझको (सुचरिते) उत्तम-उत्तम धर्माचरणयुक्त व्यवहार में (अन्वाभज) अच्छे प्रकार स्थापन कीजिये ॥२८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि अधर्म के छोड़ने और धर्म के ग्रहण करने के लिये सत्य प्रेम से प्रार्थना करें, क्योंकि प्रार्थना किया हुआ परमात्मा शीघ्र अधर्मों से छुड़ा कर धर्म में प्रवृत्त कर देता है, परन्तु सब मनुष्यों को यह करना अवश्य है कि जब तक जीवन है, तब तक धर्माचरण ही में रहकर संसार वा मोक्षरूपी सुखों को सब प्रकार से सेवन करें ॥२८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेषु कर्त्तव्येषु शुभकर्मानुष्ठानेषु परमेश्वरः सदा प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने जगदीश्वर ! त्वं कृपया येन कर्मणाहं स्वायुषायुषाऽमृतान् प्राप्तमोक्षान् सदेहान् विगतदेहान् वा विदुषोऽमृतात्मभोगान् वोदस्थामुत्कृष्टतया प्राप्युनाम, तेन मा मां संयोज्य दुश्चरिताद् उद्बाधस्व पृथक् कुरु, पृथक् कृत्वा मा मां सुचरितेऽन्वाभज ॥२८॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरधर्मत्यागाय धर्मग्रहणाय सत्यभावेन प्रार्थितोऽयं परमात्मा यथैतानधर्माद् वियोज्य धर्मे सद्यः प्रवर्त्तयति, तथैव स्वैरपि यावज्जीवनं तावत्सर्वं धर्माचरणे नीत्वा संसारमुक्तिसुखानि सेवनीयानि ॥२८॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी अधर्माचा त्याग व धर्माचा स्वीकार करण्यासाठी परमेश्वराची मनापासून खऱ्या भक्तीने प्रार्थना करावी. कारण प्रार्थना केल्यामुळे परमेश्वर अधर्मापासून परावृत्त करतो व धर्माकडे वळवितो. त्यासाठी सर्व लोकांनी जिवंत असेपर्यंत धर्मानेच वागले पाहिजे व सांसारिक किंवा मोक्षरूपी सुख भोगले पाहिजे.
२९ प्रति पन्थामपद्महि
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प्रति॒ पन्था॑मपद्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्। येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ व॒सु॑ ॥२९॥
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प्रति॒ पन्था॑मपद्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्। येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ व॒सु॑ ॥२९॥
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पदपाठः
प्रति॑। पन्था॑म्। अ॒प॒द्म॒हि॒। स्व॒स्ति॒गामिति॑ स्वस्ति॒ऽगाम्। अ॒ने॒हस॑म्। येन॑। विश्वाः॑। परि॑। द्विषः॑। वृ॒णक्ति॑। वि॒न्दते॑। वसु॑। २९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- वत्स ऋषिः
- निचृद् आर्षी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप के अनुग्रह से युक्त पुरुषार्थी होकर हम लोग (येन) जिस मार्ग से विद्वान् मनुष्य (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रु सेना वा दुःख देनेवाली भोगक्रियाओं को (परिवृणक्ति) सब प्रकार से दूर करता और (वसु) सुख करनेवाले धन को (विन्दते) प्राप्त होता है, उस (अनेहसम्) हिंसारहित (स्वस्तिगाम्) सुख पूर्वक जाने योग्य (पन्थाम्) मार्ग को (प्रत्यपद्महि) प्रत्यक्ष प्राप्त होवें ॥२९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि द्वेषादि त्याग, विद्यादि धन की प्राप्ति और धर्ममार्ग के प्रकाश के लिये ईश्वर की प्रार्थना, धर्म और धार्मिक विद्वानों की सेवा निरन्तर करें ॥२९॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनः स किमर्थं प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वराग्ने ! त्वदनुगृहीता पुरुषार्थिनो भूत्वा वयं येन विद्वान् विश्वा द्विषः परिवृणक्ति वसु विदन्ते, तमनेहसं स्वस्तिगां पन्थां मार्गं प्रत्यपद्महि प्रत्यक्षतया व्याप्त्या प्राप्नुयाम ॥२९॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्द्वेषादित्यागाय विद्याधनप्राप्तये धर्ममार्गप्रकाशायेश्वरप्रार्थना धर्मविद्वत्सेवा च नित्यं कार्य्या ॥२९॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - माणसांनी द्वेष इत्यादींचा त्याग, विद्या वगैरे धनाची प्राप्ती व धर्ममार्गाचे अनुसरण करण्यासाठी ईश्वराची प्रार्थना करावी व धर्मपालन आणि धार्मिक विद्वानांची सतत सेवा करावी.
३० अदित्यास्त्वगस्यदित्यै सदऽआसीद
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अदि॑त्या॒स्त्वग॒स्यदि॑त्यै॒ सद॒ऽआसी॑द। अस्त॑भ्ना॒द् द्यां वृ॑ष॒भोऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ममि॑मीत वरि॒माण॑म्पृथि॒व्याः। आसी॑द॒द्विश्वा॒ भुव॑नानि स॒म्राड् विश्वेत्तानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ ॥३०॥
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अदि॑त्या॒स्त्वग॒स्यदि॑त्यै॒ सद॒ऽआसी॑द। अस्त॑भ्ना॒द् द्यां वृ॑ष॒भोऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ममि॑मीत वरि॒माण॑म्पृथि॒व्याः। आसी॑द॒द्विश्वा॒ भुव॑नानि स॒म्राड् विश्वेत्तानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ ॥३०॥
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पदपाठः
अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। अदि॑त्यै। सदः॑। आ। सी॒द॒। अस्त॑भ्नात्। द्याम्। वृ॒ष॒भः। अ॒न्तरिक्ष॑म्। अमि॑मीत। व॒रि॒माण॑म्। पृ॒थि॒व्याः। आ। अ॒सी॒द॒त्। विश्वा॑। भुव॑नानि। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। विश्वा॑। इत्। तानि॑। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑। ३०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वरुणो देवता
- वत्स ऋषिः
- स्वराड् याजुषी त्रिष्टुप्, आर्षी त्रिष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अगले मन्त्र में ईश्वर, सूर्य्य और वायु के गुणों का उपदेश किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिससे (वृषभः) श्रेष्ठ गुणयुक्त (अदित्याः) पृथिवी के (त्वक्) आच्छादन करनेवाले (असि) हैं, (अदित्यै) पृथिवी आदि सृष्टि के लिये (सदः) स्थापन करने योग्य (आसीद) व्यवस्था को स्थापन करते वा (द्याम्) सूर्य्य आदि को (अस्तस्नात्) धारण करते (वरिमाणम्) अत्यन्त उत्तम (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (अमिमीत) रचते और (सम्राट्) अच्छे प्रकार प्रकाश को प्राप्त हुए सब के अधिपति आप (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के बीच में (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (आसीदत्) स्थापन करते हो, इससे (तानि) ये (विश्वा) सब (वरुणस्य) श्रेष्ठरूप (ते) आपके (इत्) ही (व्रतानि) सत्य स्वभाव और कर्म हैं, ऐसा हम लोग (अपद्महि) जानते हैं ॥१॥३०॥ जो (वृषभः) अत्युत्तम (सम्राट्) अपने आप प्रकाशमान सूर्य्य और वायु (अदित्याः) पृथिवी आदि के (त्वक्) आच्छादन करनेवाले (असि) हैं, वा (अदित्यै) पृथिवी आदि सृष्टि के लिये (सदः) लोकों को (आसीद) स्थापन (द्याम्) प्रकाश को (अस्तभ्नात्) धारण (वरिमाणम्) श्रेष्ठ (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अमिमीत) रचना और (पृथिव्याः) आकाश के मध्य में (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (आसीदत्) स्थापन करते हैं, (तानि) वे (विश्वा) सब (ते) उस (वरुणस्य) सूर्य्य और वायु के (इत्) ही (व्रतानि) स्वभाव और कर्म हैं, ऐसा हम लोग (अपद्महि) जानते हैं ॥२॥३०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार और पूर्व मन्त्र से ‘अपद्महि’ इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। जैसा परमेश्वर का स्वभाव है कि सूर्य्य और वायु आदि को सब प्रकार व्याप्त होकर रच कर धारण करता है, इसी प्रकार सूर्य्य और वायु का भी प्रकाश और स्थूल लोकों के धारण का स्वभाव है ॥३०॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
अथेश्वरसूर्य्यवायुगुणा उपदिश्यन्ते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यतो वृषभस्त्वमदित्यास्त्वगस्यदित्यै सद आसीदासादयसि, द्यामस्तभ्नात् स्तभ्नासि वरिमाणमन्तरिक्षममिमीत निर्मिमीषे, सम्राट् सन् पृथिव्या अन्तरिक्षस्य मध्ये विश्वा भुवनान्यासीददासादयसि, अस्मात् तान्येतानि विश्वा सर्वाणि वरुणस्य ते तवेदेव व्रतानि सन्तीति वयमपद्महि विजानीयामेत्येकः ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्राद् ‘अपद्महि’ इति पदमनुवर्त्तते। परमेश्वरस्यैवैष स्वभावो यदिदं सर्वमभिव्याप्य रचयित्वा धरत्येवं सूर्य्यवाय्वोरपि प्रकाशधारणस्वभावोऽस्ति ॥३०॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील (अपद्महि) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे, हे जाणावे. ज्याप्रमाणे परमेश्वर, सूर्य, वायू यांना उत्पन्न करून त्यात स्वाभाविक रीतीने व्याप्त आहे व त्यांना तो धारण करतो त्याप्रमाणेच सूर्य व वायूनेही प्रकाश व स्थूलगोलांना स्वाभाविक रीतीने धारण केलेले आहे.
३१ वनेषु व्यन्तरिक्षम्
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वने॑षु॒ व्य᳕न्तरि॑क्षं ततान॒ वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ऽउ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो वि॒क्ष्व᳕ग्निं दि॒वि सूर्य॑मदधा॒त् सोम॒मद्रौ॑ ॥३१॥
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वने॑षु॒ व्य᳕न्तरि॑क्षं ततान॒ वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ऽउ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो वि॒क्ष्व᳕ग्निं दि॒वि सूर्य॑मदधा॒त् सोम॒मद्रौ॑ ॥३१॥
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पदपाठः
वने॑षु। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। त॒ता॒न॒। वाज॑म्। अर्व॒त्स्वित्यर्व॑त्ऽसु। पयः॑। उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्स्विति॑ हृ॒त्ऽसु। क्रतु॑म्। वरु॑णः। वि॒क्षु। अ॒ग्निम्। दि॒वि। सूर्य्य॑म्। अ॒द॒धा॒त्। सोम॑म्। अद्रौ॑। ३१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वरुणो देवता
- वत्स ऋषिः
- विराड् आर्षी त्रिष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जो (वरुणः) अत्युत्तम, परमेश्वर सूर्य्य वा प्राणवायु हैं, वे (वनेषु) किरण वा वनों के (अन्तरिक्षम्) आकाश को (विततान) विस्तारयुक्त किया वा करता (अर्वत्सु) अत्युत्तम वेगादि गुणयुक्त विद्युत् आदि पदार्थ और घोड़े आदि पशुओं में (वाजम्) वेग (उस्रियासु) गौओं में (पयः) दूध (हृत्सु) हृदयों में (क्रतुम्) प्रज्ञा वा कर्म (विक्षु) प्रजा में (अग्निम्) अग्नि (दिवि) प्रकाश में (सूर्य्यम्) आदित्य (अद्रौ) पर्वत वा मेघ में (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधी और श्रेष्ठ रस को (अदधात्) धारण किया करते हैं, उसी ईश्वर की उपासना और उन्हीं दोनों का उपयोग करें ॥३१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर अपनी विद्या का प्रकाश और जगत् की रचना से सब पदार्थों में उनके स्वभावयुक्त गुणों को स्थापन और विज्ञान आदि गुणों को नियत करके पवन, सूर्य आदि को विस्तारयुक्त करता है, वैसे सूर्य्य और वायु भी सब के लिये सुखों का विस्तार करते हैं ॥३१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - यो वरुणः परमेश्वरः सूर्य्यो वायुर्वा वनेषु किरणेष्वरण्येषु वान्तरिक्षं विततानार्वत्सु वाजमुस्रियासु पयो हृत्सु क्रतुं विक्ष्वग्निं दिवि सूर्य्यमद्रौ सोमं चादधात्, स एव सर्वैरुपास्यः सम्यगुपयोजनीयो वास्ति ॥३१॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरः स्वविद्याप्रकाशजगद्रचनाभ्यां सर्वेषु पदार्थेषु तत्तत्स्वभावयुक्तान् गुणान् संस्थाप्य विज्ञानादिकं वायुसूर्य्यादिकं च विस्तृणोति, तथैव वायुसूर्य्यावपि सर्वेभ्यः सुखं विस्तारयतः ॥३१॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे परमेश्वर आपल्या ज्ञानाने सर्व जगाची निर्मिती करून निरनिराळे गुणधर्म असलेले पदार्थ निर्माण करतो त्याप्रमाणे त्याने वायू व सूर्याची रचनाही विज्ञानपूर्वक केलेली आहे. सूर्य व वायू हेही सर्वांचे सुख वृद्धिंगत करतात.
३२ सूर्यस्य चक्षुरारोहाग्नेरक्ष्णः
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सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒रारो॑हा॒ग्नेर॒क्ष्णः क॒नीन॑कम्। यत्रैत॑शेभि॒रीय॑से॒ भ्राज॑मानो विप॒श्चिता॑ ॥३२॥
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सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒रारो॑हा॒ग्नेर॒क्ष्णः क॒नीन॑कम्। यत्रैत॑शेभि॒रीय॑से॒ भ्राज॑मानो विप॒श्चिता॑ ॥३२॥
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पदपाठः
सूर्य्य॑स्य। चक्षुः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒ग्नेः। अ॒क्ष्णः। क॒नीन॑कम्। यत्र॑। एत॑शेभिः। ईय॑से। भ्राज॑मानः। वि॒प॒श्चितेति॑ विपः॒ऽचिता॑। ३२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निर्देवता
- वत्स ऋषिः
- निचृद् आर्षी अनुष्टुप्
- गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! (यत्र) जहाँ आप (एतशेभिः) विज्ञान आदि गुणों से (भ्राजमानः) प्रकाशमान (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् से (ईयसे) विज्ञात होते हो वा जहाँ प्राणवायु वा बिजुली (एतशेभिः) वेगादि गुण वा (विपश्चिता) विद्वान् से (भ्राजमानः) प्रकाशित होकर (ईयसे) विज्ञात होते हैं और जहाँ आप प्राण तथा बिजुली (सूर्य्यस्य) सूर्य्य वा बिजुली और (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (अक्ष्णः) देखने के साधन (कनीनकम्) प्रकाश करनेवाले (चक्षुः) नेत्रों को (आरोह) देखने के लिये कराते वा कराती हैं, वहीं हम लोग आप की उपासना और उन दोनों का उपयोग करें ॥३२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जैसे विद्वान् लोग ईश्वर, प्राण और बिजुली के गुणों को जान, उपासना वा कार्य्यसिद्धि करते हैं, वैसे ही उनको जानकर उपासना और अपने प्रयोजनों को सदा सिद्ध करते रहें ॥३२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! यत्र त्वमेतशेभिर्भ्राजमानो विपश्चितेयसे, यत्र प्राणो विद्युद्वैतशेभिर्विपश्चिता भ्राजमानो विज्ञायते। यत्र त्वं स सा च सूर्य्यस्याग्नेरक्ष्णः कनीनकं चक्षुरारोह समन्ताद् दर्शयति वा, तत्र वयं त्वां तं तां चोपासीमहि युञ्ज्याम वा ॥३२॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा विद्वद्भिरीश्वरः प्राणो विद्युच्च विज्ञायोपास्यते संप्रयुज्यते च, तथैव विज्ञायोपास्य उपयोक्तव्यः संप्रयोजितव्या च ॥३२॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक ईश्वराची उपासना करतात व प्राण आणि विद्युत यांचे गुणधर्म जाणून कार्य सिद्ध करतात. त्याप्रमाणेच सर्व माणसांनी ईश्वरोपासना करावी व प्राण आणि विद्युत यांच्याद्वारे कार्यसिद्धी करून घ्यावी.
३३ उस्रावेतं धूर्षाहौ
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उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम् ॥३३॥
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उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम् ॥३३॥
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पदपाठः
उस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒। धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ। अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म्। ३३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्य्यविद्वांसौ देवते
- वत्स ऋषिः
- निचृद् आर्षी गायत्री, याजुषी जगती
- षड्जः, निषादः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अब सूर्य्य और विद्वान् कैसे हैं, और उनसे शिल्पविद्या के जाननेवाले क्या करें, सो अगले मन्त्र में कहा है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्पक्रिया को प्राप्त होने की इच्छा करनेवाले (ब्रह्मचोदनौ) अन्न और विज्ञान प्राप्ति के हेतु (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का रक्षण करने (उस्रौ) ज्योतियुक्त और निवास के हेतु (धूर्षाहौ) पृथिवी और धर्म के भार को धारण करनेवाले विद्वान् (आ इतम्) सूर्य्य और वायु को प्राप्त होते वा (युज्येथाम्) युक्त करते और (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुख से (गच्छतम्) गमन करते हैं, वैसे तुम भी उनको युक्ति से संयुक्त कर के कार्यों को सिद्ध किया करो ॥३३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और विद्वान् सब पदार्थों को धारण करनेहारे, सहनयुक्त और प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् से यानों में युक्ति से सेवन किये हुए अग्नि और जल सवारियों को चला के सर्वत्र सुखपूर्वक गमन कराते हैं ॥३३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
अथ सूर्य्यविद्वांसौ कथंभूतावेताभ्यां शिल्पविदौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा विद्याशिल्पे चिकीर्षू यौ ब्रह्मचोदनावनश्रू अवीरहणावुस्रौ धूर्षाहौ सूर्य्यविद्वांसौ गावौ वृषवद् यानचालनायैतं प्राप्नुतो युज्येथां युक्तौ कुरुतो यजमानस्य गृहान् स्वस्ति गच्छतं सुखेन गमयतस्तौ यूयं युक्त्या सेवयत ॥३३॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यविपश्चितौ क्रमेण सर्वं प्रकाश्य धृत्वा सहित्वा युक्त्वा प्राप्य सुखं प्रापयतस्तथैव येन शिल्पविद्यासम्पादकेन यानेषु युक्त्या सेविते अग्निजले सुखेन सर्वत्राभिगमनं कारयतः ॥३३॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सूर्य जसा सर्व पदार्थांना प्रकाशित करतो व सुख देतो आणि विद्वान सर्वांना ज्ञानयुक्त बनवून सुखी करतो तसे कुशलतेने अग्नी व जलाचा वापर करणाऱ्या शिल्पविद्या जाणकारांनी तयार केलेल्या यानातून प्रवास करता येतो.
३४ भद्रो मेऽसि
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भ॒द्रो मे॑ऽसि॒ प्रच्य॑वस्व भुवस्पते॒ विश्वा॑न्य॒भि धामा॑नि। मा त्वा॑ परिप॒रिणो॑ विद॒न् मा त्वा॑ परिप॒न्थिनो॑ विद॒न् मा त्वा॒ वृका॑ऽअघा॒यवो॑ विदन्। श्ये॒नो भू॒त्वा परा॑पत॒ यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छ॒ तन्नौ॑ सँस्कृ॒तम् ॥३४॥
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भ॒द्रो मे॑ऽसि॒ प्रच्य॑वस्व भुवस्पते॒ विश्वा॑न्य॒भि धामा॑नि। मा त्वा॑ परिप॒रिणो॑ विद॒न् मा त्वा॑ परिप॒न्थिनो॑ विद॒न् मा त्वा॒ वृका॑ऽअघा॒यवो॑ विदन्। श्ये॒नो भू॒त्वा परा॑पत॒ यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छ॒ तन्नौ॑ सँस्कृ॒तम् ॥३४॥
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पदपाठः
भ॒द्रः। मे॒। अ॒सि॒। प्र। च्य॒व॒स्व॒। भु॒वः॒। प॒ते॒। वि॒श्वा॑नि। अ॒भि। धामा॑नि। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒रिण॒ इति॑ परिऽप॒रिणः॑। वि॒द॒न्। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒न्थिन॒ इति॑ परिऽप॒न्थिनः॑। वि॒द॒न्। मा। त्वा॒। वृकाः॑। अ॒घा॒यवः॑। अ॒घ॒यव॒ इत्य॑घ॒ऽयवः॑। वि॒द॒न्। श्ये॒नः। भू॒त्वा। परा॑। प॒त॒। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒। तत्। नौ॒। सँ॒स्कृ॒तम्। ३४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यजमानो देवता
- वत्स ऋषिः
- भुरिग् आर्ची गायत्री, भुरिग् आर्ची बृहती, विराड् आर्ची अनुष्टुप्
- षड्जः, मध्यमः, गान्धारः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
उस यान से विद्वान् को क्या-क्या करना चाहिये है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (भुवः) पृथिवी के (पते) पालन करनेवाले विद्वन् मनुष्य ! तू (मे) मेरा (भद्रः) कल्याण करनेवाला बन्धु (असि) है, सो तू (नौ) मेरा और तेरा (संस्कृतम्) संस्कार किया हुआ यान है (तत्) उससे (विश्वानि) सब (धामानि) स्थानों को (अभि प्रच्यवस्व) अच्छे प्रकार जा, जिससे सब जगह जाते हुए (त्वा) तुझ को जैसे (परिपरिणः) छल से रात्रि में दूसरे के पदार्थों को ग्रहण करनेवाले (वृकाः) चोर (मा विदन्) प्राप्त न हों और परदेश को जानेवाले (त्वा) तुझ को जैसे (परिपन्थिनः) मार्ग में लूटनेवाले डाकू (मा विदन्) प्राप्त न होवें, जैसे परमैश्वर्य्ययुक्त (त्वा) तुझ को (अघायवः) पाप की इच्छा करनेवाले दुष्ट मनुष्य (मा विदन्) प्राप्त न हों, वैसा कर्म सदा किया कर। (श्येनः) श्येन पक्षी के समान वेगबलयुक्त (भूत्वा) होकर उन दुष्टों से (परापत) दूर रह और इन दुष्टों को भी दूर कर, ऐसी क्रिया कर के (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घर वा देश-देशान्तरों को (गच्छ) जा कि जिससे मार्ग में कुछ भी दुःख न हो ॥३४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य को योग्य है कि उत्तम-उत्तम विमान आदि यानों को रच, उन में बैठ, उनको यथायोग्य चला, श्येन पक्षी के समान द्वीप वा देश-देशान्तर को जा, धनों को प्राप्त करके, वहाँ से आ और दुष्ट प्राणियों से अलग रह कर सब काल में स्वयं सुखों का भोग करें और दूसरों को करावें ॥३४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
तेन यानेन विदुषा किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे भुवस्पते विद्वन् ! त्वं मे मम भद्रोऽसि। यन्नौ तव मम च संस्कृतं यानमस्ति तेन विश्वानि धामान्यभिप्रच्यवस्वाभितः प्रकृष्टतया गच्छ, यथा सर्वत्राभिगच्छन्तं त्वां परिपरिणो वृका मा विदन् मा लभन्ताम्, तथा प्रयतस्व। परदेशसेविनं त्वां तथा परिपन्थिनो वृका मा विदन्, तथाऽनुतिष्ठ। यथा परदेशसेविनं त्वामघायवः पापिनो मनुष्या मा विदन्, तथाऽनुजानीहि। त्वं श्येनो भूत्वा तेभ्यः परापत गच्छैतान् वा परापत दूरे गमयैवं कृत्वा यजमानस्य गृहान् गच्छ, यतो मार्गे किञ्चिदपि दुःखं न स्यात् ॥३४॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरुत्तमानि विमानादीनि यानानि रचयित्वा तत्र स्थित्वा तानि यथायोग्यं प्रचाल्य श्येन इव द्वीपाद्यन्तरं देशं गत्वा धनं प्राप्य तस्मादागत्य दुष्टेभ्यः प्राणिभ्यो दूरे स्थित्वा सर्वदा सुखं भोक्तव्यम् ॥३४॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. माणसांनी उत्तम विमाने इत्यादी याने तयार करून त्यातून प्रवास करावा व श्येन पक्षाप्रमाणे गतिमान बनून द्वीपद्वीपान्तरी किंवा देशदेशान्तरी जाऊन धन प्राप्त करून यावे. दुष्ट प्राण्यांपासून दूर राहावे, नेहमी स्वतः सुखी व्हावे व इतरांनाही सुखी करावे.
३५ नमो मित्रस्य
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नमो॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ चक्ष॑से म॒हो दे॒वाय॒ तदृ॒तꣳ स॑पर्यत। दू॒रे॒दृशे॑ दे॒वजा॑ताय के॒तवे॑ दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या॑य शꣳसत ॥३५॥
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नमो॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ चक्ष॑से म॒हो दे॒वाय॒ तदृ॒तꣳ स॑पर्यत। दू॒रे॒दृशे॑ दे॒वजा॑ताय के॒तवे॑ दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या॑य शꣳसत ॥३५॥
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पदपाठः
नमः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। चक्ष॑से। म॒हः। दे॒वाय॑। तत्। ऋ॒तम्। स॒प॒र्य्य॒त॒। दू॒रे॒दृश॒ इति॑ दूरे॒ऽदृशे॑। दे॒वजा॑ता॒येति॑ दे॒वऽजा॑ताय। के॒तवे॑। दि॒वः। पु॒त्राय॑। सूर्य्या॑य। श॒ꣳस॒त॒। ३५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्य्यो देवता
- वत्स ऋषिः
- निचृद् आर्षी जगती
- निषादः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर ईश्वर और सूर्य्य कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (मित्रस्य) सब के सुहृत् (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का (ऋतम्) सत्य स्वरूप है, (तत्) उस चेतन की सेवा करते हैं, वैसे तुम भी उस का सेवन सदा (सपर्य्यत) किया करो और जैसे उस (महः) बड़े (दूरेदृशे) दूरस्थित पदार्थों को दिखाने (चक्षसे) सब को देखने (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे) विज्ञानस्वरूप (देवाय) दिव्यगुणयुक्त (पुत्राय) पवित्र करनेवाले (सूर्य्याय) चराचरात्मा परमेश्वर को (नमः) नमस्कार करते हैं, वैसे तुम भी (प्रशंसत) उसकी स्तुति किया करो ॥१॥३५॥ हे मनुष्यो ! जो (मित्रस्य) प्रकाश (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप सूर्य्यलोक का (ऋतम्) यथार्थ स्वरूप है, (तत्) उस प्रकाशस्वरूप को तुम भी विद्या से (सपर्य्यत) सेवन किया करो, जैसे हम लोग जिस (चक्षसे) सब के दिखाने (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे) ज्ञान कराने, अग्नि के (पुत्राय) पुत्र (दूरेदृशे) दूर स्थित हुए पदार्थों को दिखाने (महः) बड़े (देवाय) दिव्यगुणवाले (सूर्य्याय) सूर्य्य के लिये प्रवृत्त होओ ॥२॥३५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को जिसकी कृपा वा प्रकाश से चोर डाकू आदि अपने कार्य्यों से निवृत्त हो जाते हैं, उसी की प्रशंसा और गुणों की प्रसिद्धि करनी और परमेश्वर के समान समर्थ वा सूर्य्य के समान कोई लोक नहीं है, ऐसा जानना चाहिये ॥३५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनरीश्वरसवितारौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथा वयं यन्मित्रस्य वरुणस्य दिव ऋतं सत्यं स्वरूपमस्ति, तद्यूयमपि सपर्य्यत। यस्य महो महसे दूरेदृशे चक्षसे देवजाताय केतवे देवाय पुत्राय पवित्रकर्त्रे सूर्य्याय परमात्मने वयं नमस्कुर्म्मस्तस्मै यूयमपि कुरुतेत्येकः ॥१॥३५॥ हे मनुष्या यथा वयं यन्मित्रस्य वरुणस्य दिवः प्रकाशस्वरूपस्य सूर्य्यलोकस्यर्तं यथार्थं स्वरूपं सेवेमहि, तद्यूयमपि विद्यया सपर्य्यत। यथा वयं यस्मै चक्षसे देवजाताय केतवे दिवोऽग्नेः पुत्राय दूरेदृशे महोदेवाय सूर्य्याय लोकाय प्राप्त्यर्थं प्रवर्त्तेमहि, तथा यूयमपि प्रवर्त्तध्वम् ॥२॥३५॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यस्य कृपया प्रकाशेन वा चोरदस्य्वादयो निवर्त्तन्ते, यतः परमेश्वरेण समः समर्थः सूर्य्येण समो लोकश्च न विद्यते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैः स एव प्रशंसनीय इति वेद्यम् ॥३५॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या परमेश्वराची आपल्यावर कृपा आहे, त्याच्यासारखा समर्थ कोणी नाही हे जाणून त्याची माणसांनी प्रशंसा केली पाहिजे. तसेच ज्या सूर्याच्या प्रकाशामुळे चोर, डाकू वगैरे चोरी करू शकत नाहीत त्या सूर्याचे गुण जाणून सूर्यासारखा कोणताही लोक (तारा) नाही हे जाणले पाहिजे.
३६ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य
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वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ वरु॑णस्य स्कम्भ॒सर्ज॑नी स्थो॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न्यसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑नमसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासी॑द ॥३६॥
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वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ वरु॑णस्य स्कम्भ॒सर्ज॑नी स्थो॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न्यसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑नमसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासी॑द ॥३६॥
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पदपाठः
वरु॑णस्य। उ॒त्तम्भ॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। स्क॒म्भ॒सर्ज॑नी॒ऽइति॑ स्कम्भ॒ऽसर्जनी॑। स्थः॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॒नीत्यृ॑तऽसद॑नी। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। आ। सी॒द॒। ३६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्य्यो देवता
- वत्स ऋषिः
- विराड् ब्राह्मी बृहती
- मध्यमः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिससे आप (वरुणस्य) उत्तम जगत् के (उत्तम्भनम्) अच्छे प्रकार प्रतिबन्ध करनेवाले (असि) हैं। जो (वरुणस्य) वायु के (स्कम्भसर्जनी) आधाररूपी पदार्थों के उत्पन्न करने (वरुणस्य) सूर्य्य के (ऋतसदनी) जलों का गननागमन करनेवाली क्रिया (स्थः) हैं, उनको धारण किये हुए हैं। (वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) पदार्थों का स्थान (असि) हैं। (वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) सत्यरूपी बोधों के स्थान को (आसीद) अच्छे प्रकार प्राप्त कराते हैं। इससे आपका आश्रय हम लोग करते हैं ॥१॥३६॥ जो (वरुणस्य) जगत् का (उत्तम्भनम्) धारण करनेवाला (असि) है। जो (वरुणस्य) वायु के (स्कम्भसर्जनी) आधारों को उत्पन्न करने वा जो (वरुणस्य) सूर्य्य के (ऋतसदनी) जलों का गमनागमन करानेवाली क्रिया (स्थः) हैं, उनका धारण करने तथा जो (वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) सत्य पदार्थों का स्थानरूप (असि) है, वह (वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) पदार्थों के स्थान को (आसीद) अच्छे प्रकार प्राप्त और धारण करता है, उसका उपयोग क्यों न करना चाहिये ॥२॥३६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई परमेश्वर के विना सब जगत् के रचने वा धारण, पालन और जानने को समर्थ नहीं हो सकता और कोई सूर्य्य के विना भूमि आदि जगत् के प्रकाश और धारण करने को भी समर्थ नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को ईश्वर की उपासना और सूर्य्य का उपयोग करना चाहिये ॥३६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यतस्त्वं वरुणस्योत्तम्भनमसि या वरुणस्य स्कम्भसर्जनी या च वरुणस्यर्त्तसदनी क्रिये स्थः स्तस्ते धारितवानसि। यद्वरुणस्यर्त्तसदनमस्ति तत्कृपया वरुणस्यर्त्तसदनमासीद समन्तात् प्रापयत्यतस्त्वां वयमाश्रयाम इत्येकः ॥१॥३६॥ यो वरुणस्योत्तम्भनं धरति, या वरुणस्य स्कम्भसर्जनी, या च वरुणस्यर्त्तसदनी क्रिये स्थः स्तो यस्तयोर्धारकोऽस्ति यद्वरुणस्यर्त्तसदनमस्ति, तद्यो वरुणस्यर्त्तसदनमासीद समन्तात् प्रापयति स कुतो नोपयोक्तव्यः ॥२॥३६॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कश्चित् परमेश्वरेण विना सर्वं जगद्रचितुं धर्त्तुं पालयितुं विज्ञातुं वा शक्नोति। न किल कश्चित् सूर्य्येण विना सर्वं भूम्यादि जगत् प्रकाशितुं धर्त्तुं वा शक्नोति, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरीश्वरस्योपासनं सूर्य्यस्योपयोगो यथावत् कार्य्य इति ॥३६॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जगाची निर्मिती, धारण, पालन करणारा व जाणणारा परमेश्वराखेरीज कोणीही असू शकत नाही व भूमीला प्रकाश देऊन तिला धारण करणारा सूर्याखेरीज कोणी असू शकत नाही यासाठी सर्व माणसांनी ईश्वराची उपासना करावी. सूर्याचा यथायोग्य उपयोग करून घ्यावा.
३७ या ते
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या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒ विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फानः॑ प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्रच॑रा सोम॒ दुर्या॑न् ॥३७॥
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या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒ विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फानः॑ प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्रच॑रा सोम॒ दुर्या॑न् ॥३७॥
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पदपाठः
या। ते॒। धामा॑नि। ह॒विषा॑। यज॑न्ति। ता। ते॒। विश्वा॑। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। अ॒स्तु॒। य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फान॒ इति॑ गय॒ऽस्फानः॑। प्र॒तर॑ण॒ इति॑ प्र॒ऽतर॑णः। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। अवी॑र॒हेत्यवी॑रऽहा। प्र। च॒र॒। सो॒म॒। दुर्य्या॑न्। ३७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यज्ञो देवता
- गोतम ऋषिः
- निचृद् आर्षी त्रिष्टुप्
- धैवतः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर ये कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जैसे विद्वान् लोग (या) जिन (ते) आप के (धामानि) स्थानों को (हविषा) देने-लेने योग्य द्रव्यों से (यजन्ति) सत्कारपूर्वक ग्रहण करते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन (विश्वा) सभों को ग्रहण करें, जैसे (ते) आप का वह यज्ञ विद्वानों को (गयस्फानः) अपत्य, धन और घरों के बढ़ाने (प्रतरणः) दुःखों से पार करने (सुवीरः) उत्तम वीरों का योग कराने (अवीरहा) कायर दरिद्रतायुक्त अवीर अर्थात् पुरुषार्थरहित मनुष्य और शत्रुओं को मारने तथा (परिभूः) सब प्रकार से सुख करानेवाला है, वैसे वह आप की कृपा से हम लोगों के लिये (अस्तु) हो वा जिसको विद्वान् लोग (यजन्ति) यजन करते हैं, उस (यज्ञम्) यज्ञ को हम लोग भी करें। हे (सोम) सोमविद्या को सम्पादन करनेवाले विद्वन् ! जैसे हम लोग इस यज्ञ को करके घरों में आनन्द करें, जानें, इसमें कर्म करें, वैसे तू भी इस को करके (दुर्य्यान्) घरों में (प्रचर) सुख का प्रचार कर, जान और अनुष्ठान कर ॥३७॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इन मन्त्र मे श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर से प्रीति, संसार में यज्ञ के अनुष्ठान को करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को करना उचित है ॥३७॥ इस अध्याय में शिल्पविद्या, वृष्टि की पवित्रता का सम्पादन, विद्वानों का सङ्ग, यज्ञ का अनुष्ठान, उत्साह आदि की प्राप्ति, युद्ध का करना, शिल्पविद्या की स्तुति, यज्ञ के गुणों का वर्णन, सत्यव्रत का धारण, अग्नि-जल के गुणों का वर्णन, पुनर्जन्म का कथन, ईश्वर की प्रार्थना, यज्ञानुष्ठान, पुत्रादिकों द्वारा माता-पिता का अनुकरण, यज्ञ की व्याख्या, दिव्य बुद्धि की प्राप्ति, परमेश्वर का अर्चन, सूर्य्यगुण वर्णन, पदार्थों के क्रय-विक्रय का उपदेश, मित्रता करना, धर्ममार्ग में प्रचार करना, परमेश्वर वा सूर्य्य के गुणों का प्रकाश, चोर आदि का निवारण, ईश्वर-सूर्य्यादि गुणवर्णन और यज्ञ का फल कहा है। इससे इस अध्यायार्थ की तीसरे अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। ऊवट और महीधर आदि ने इस अध्याय का भी शब्दार्थ विरुद्ध ही वर्णन किया है ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - विषयः
पुनरेतौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यथा विद्वांसो यानि ते तव धामानि हविषा यजन्ति, तथा ता तानि विश्वा सर्वाणि वयमपि यजेमैतेषां यथा यस्ते तव गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा परिभूर्यज्ञप्रदोऽस्ति, तथा स भवत्कृपयाऽस्मभ्यमपि सुखकार्य्यस्तु। हे सोम विद्वन् ! यथा वयमेतं यज्ञमनुष्ठाय गृहेषु प्रचरेम विजानीयामानुतिष्ठेम तथा त्वमप्येतं दुर्य्यान् गृहाणि प्रचर, विजानीह्यनुतिष्ठ ॥३७॥
दयानन्द-सरस्वती (सं) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्वांस ईश्वरे प्रीतिं संसारे यज्ञानुष्ठानं कुर्वन्ति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठेयम् ॥३७॥ अस्मिन्नध्याये शिल्पविद्या वृष्टिपवित्रतासम्पादनं विदुषां सङ्गो यज्ञानुष्ठानमुत्साहादिप्रापणं युद्धकरणं शिल्पविद्यास्तुतिर्यज्ञवर्णनं सत्यव्रतधारणं जलाग्न्योर्गुणवर्णनं पुनर्जन्मकथनमीश्वरप्रार्थनं यज्ञानुष्ठानं मातापित्रादेः पुत्रादिनाऽनुकरणं यज्ञव्याख्या दिव्यधीप्रापणं परमेश्वरार्चनं सूर्य्यगुणवर्णनं पदार्थक्रयविक्रयोपदेशो मित्रत्वसम्पादनं धर्ममार्गे प्रचारकरणं परमेश्वरसूर्य्यगुणप्रकाशनं चोरादिनिवारणमीश्वरसूर्य्यादिगुणवर्णनं यज्ञफलं चेत्युक्तमत एतदुक्तार्थानां तृतीयाध्यार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। अयमप्यध्याय ऊवटमहीधरादिभिरन्यथैव व्याख्यातः ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वती-स्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चतुर्थोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥४॥
सविता जोशी ← दयानन्दः (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्वान लोक जशी ईश्वराची भक्ती व यज्ञाचे अनुष्ठान करतात. तसेच सर्व माणसांनी करावे.