शुद्धिः

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ओ३म्

आर्य्य समाज के नियम।

१ — सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जान जाते उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।

२ — ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनूपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्य्यामी, अजर अमर, अभय नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है, उसीकी उपासना करना योग्य है।

३ — वेद सत्य विद्याओं का पुस्तक है वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परमधर्म है।

४ — सत्य ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।

५ — सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को बिचार कर करने चाहिये।

६ — संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शरीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

७— तब से प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।

८ — अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करना चाहिए।

९ — प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझना चाहिये।

१० — सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए, और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें।

विषयानुक्रमणिका।

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विषयः विषयः
४२ राजान्न के भोजन का निषेध ६४ राम नाम से शुद्धि
४३ खान पान पर धर्म सूत्रों की व्यवस्था ६५ ध्यान से शुद्धि
४४ स्मृति कारों की व्यवस्था ६५ सर्व साधारण बातें
४५ शौचा चार की महिमा ६७ शुद्धि की आवश्यक बातें
४६ चारों वर्णोका साझा धर्म ६८ शुद्धि की विधि
४७ अभोज्यान्न का वर्णन ६९ स्त्री और केशवपन
४८ समान जाति वा असमान जाति में विवाह विधि और इतिहास ७० प्रायश्चित्ती और पंचायत
४९ पतितों की कन्या पतित नहीं होती ७१ सभा के लक्षण
५९ पतितों की कन्या को विवाह ने में स्मार्तप्रमाण ७२ पंचायत (सभा) का कर्तव्य
५१ पतित और प्रायश्चित ७३ पतितों से खान पान कानिषेध
५२ अभक्ष्य भक्षण तथा अगम्यागमन में स्मृति कारों की व्यवस्था ७४ शुद्ध हुए हुओं को कूपादि पर जाने का अधिकार
५३ चांडालादि के जल पान में प्रायश्चित्त ७५ प्राजापत्यादि ब्रतों का स्वरूप
५४ कूपादि की शुद्धि **परिशिष्ट
५५ आपद्धर्म ७६ यवनों का हिन्दु होना
५६ सदा चार की रक्षा वा महिमा ७७ कलियुग में विदेशियों से खान पान तथा बेटी व्यवहार
५७ पतित स्त्रियों की शुद्धि ७८ शकलोगों से हिन्दुओं का बेटी व्यवहार
५८ गायत्री मन्त्र से शुद्धि ७९ आभीर लोग हिन्दु बन गये
५९ रहस्य प्रायश्चित ८० तुर्क लोग हिन्दु बनाये गये
६० वेदों में शुद्धि ८१ मग लोग हिन्दु बनाये गये
६१ प्राणायाम से शुद्धि ८२ देव स्थापना में मगों का अधिकार
६२ गंगा स्नान से शुद्धि ८३ मग म्लेच्छजाति में से थे
६३ ब्राह्मणों के चरणामृत से शुद्धि ८४ हूणलोग हिन्दु बनाए गये
८५ गुज्जरों का चारों वर्णो में प्रवेश

।ओ३म्।

भूमिका।

किसी जाति के सामाजिक बल का निर्भर उस जाति की आन्तरिक गठित पर है। इस आन्तरिक गठित की परीक्षा यह है कि किस अवधि तक वह अपने व्यक्तियों की रक्षा करती है और कहां तक उसके विभिन्न व्यक्तियों में पारस्परिक प्रेम और न्यायाचरण है। प्रत्येक जाति में कुछ समुदाय होते हैं जिनके समुदाय का नाम जाति है। जाति के आन्तरिक गठित की यह परीक्षा है कि इन समुदायों में कहां तक समष्टिरूप से कार्य करने की शक्ति है। और कहांतक वे भिन्न भिन्न समुदाय ऐसे कार्य करने के लिये एकत्र होजाने के लिये उद्यत हैं। जिन कार्यों का समुदाय विशेषन किसी व्यक्ति वा समुदाय से नहीं है किन्तु समग्र जाति से है। दूसरे शब्दों में यह कहां कि जाति के सामाजिक बल का परीक्षण यह है कि कहांतक उस जाति के विभिन्न समुदाय और पृथक् पृथक् व्यक्ति अपनी जाति के अन्य समुदायों व्यक्तियों की अन्य जाति के समुदायों एवं व्यक्तियों से रक्षा करने की रुचि रखती हों यह बात स्वाभाविक है कि एक समुदाय की व्यक्तियों को उसी समुदाय की व्यक्तियों की अपेक्षा इतर समुदायों की व्यक्तियों से अधिक स्नेह हो संसार का यह नियम है कि जितना किसी को दूसरे से घनिष्ट सम्बन्ध होगा उतना ही उसका अधिक स्नेह होगा। अतः एक कुटुम्ब की व्यक्तियां परस्पर अधिक स्नेह रखती है उस प्रेम की अपेक्षा जो उनका दूसरे परिवार के लोगों के साथ है। इसमें कोई दोष नहीं परन्तु यह

आवश्यक है कि एक जाति के विविध समुदायों में परस्पर अधिक प्रेम और सम्बन्ध हो। उस सम्बन्ध से जो उनको अन्य जातियों के समदायों से सम्बन्ध है हम दृष्टान्त से इसकों अधिक स्पष्ट कर देते हैं। आप ऐसा अनुमानकरे कि एक जाति का नाम है दूसरी का नाम और तीसरी का नाम है। में १० समुदाय सम्मिलित है। में ९ हैं और में १२ हैं। इनमें से प्रत्येक जाति के सामाजिक बल का निर्भर इस बात पर है कि उसके भिन्न २ समुदायों में कहांतक अपनी अपनी जाति के विभिन्न समुदायों की सहायता की रुचि है। जैसे यदि जाति के समुदायों में इतना प्रेम नहीं है कि वह जाति से अपनी जाति के समुदायों की अपेक्षा अधिक प्रेम कर सकें। तो समझना चाहिये कि जाति के सामाजिक वल पर भरोसा नहीं हो सकता। यदि जाति के विभिन्न समुदायों में परस्पर प्रेम और सम्बन्ध अधिक है तो उसमें जाति की अपेक्षा सामाजिक बल अधिक है।

एक जाति के भिन्न भिन्न समुदाय यदि कभी कभी लड़ते हैं या उनमें मति भेद होता है या वे परस्पर कटाक्ष करते हैं तो यह कुछ चिन्तास्पद नहीं। (यद्यपि हम यह नहीं कहते कि ऐसा करना प्रशंसनीय है वा ऐसा होना चाहिये परन्तु संसार में प्रायः देखा जाता है इसको मानकर विचारना चाहिये) परन्तु उनके जाति हित की परख और उनकी जाति के सामाजिक बल की परख यह है कि जब उनकी जाति के किसी समुदाय को किसी दूसरी जाति के सामने सहायता की आवश्यकता हो तो वह उदारता से उन्हें सहायता देता है वा नहीं। इङ्गलिस्तान के रहने वालों के अनेक समुदाय

हैं जो आपस मे समय समय लड़ते और झगड़ते हैं। ये समुदाय धार्मिक और राजनैतिक दोनों प्रकार के हैं। इङ्गलैण्ड निवासियों का सामाजिक वल महान् है क्योंकि उनके भिन्न भिन्न समुदायों में अपने देश और जाति का प्रेम इतना बढ़ा हुआ है कि आपस में लड़ते और झगड़ते हुए भी उनको अपने समुदायों और व्यक्तियों से दूसरी जातियों और व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रेम है। इङ्गलिस्तान में ईसाई मत दो बड़ी श्रेणियों में विभक्त है। प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथलिक प्रोटेस्टेंट में असंख्यात फिर्के हैं। वे प्रायः परस्पर लड़ते झगड़ते रहते हैं। पर उनकी गठित की परख यह है कि वे रोमन कैथलिक श्रेणी की प्रतिद्वन्द्वता में जहां कोई मत सम्बन्धी विवाद उपस्थित हो तो झट इकट्ठे होजाते हैं। और (No Popery) नो पोपरी की ध्वनिचारों ओर से उठाने लगते हैं। इसी प्रकार इंगलैंड की पूर्वोक्त दोनों श्रेणियां राजनैतिक भाव से परस्पर एकत्र होजाती हैं। जब कभी इंगलैंड का फ्रांस के साथ विवाद हो। या यदि फ्रांस में रोमन कैथलिक अधिक है और इंगलैंड में प्रोटेस्टेट।

हमारे मुसलमान भाइयों में प्रथम संख्या की गठित विद्यमान् है। यद्यपि द्वितीय संख्या की नहीं। मुसलमानों के सब फिर्के एक दूसरे के साथ लड़ते और झगड़ते रहते हैं परन्तु मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों के साथ सामना करने में उनमें पारस्परिक अधिक प्रेम हैं। और वे झट इकट्ठे होजाते हैं। हिन्दुओं की सामाजिक निर्बलता का मूल कारण इस प्रेम का अभाव है। इस प्रेम के अभाव के कारण वे नियम हैं जिन पर पौराणिक समय में वर्ण व्यवस्था डाल दी गई। किसी समाज में सामाजिक गठित नहीं रह सकती यदि उसके समाज के व्यक्तियों में न्याय और प्रेम का व्यवहार नहो। परिवारों जातियों और समुदायों के गठन

का आधार प्रेम और न्याय होना चाहिये। जिस परिवार के लोगों में आपस में न्याय का वर्ताव न होगा, उस में प्रेम नहीं रह सकता। इसी प्रकार किसी समाज के माननीय पुरुष या लीडर या बड़े लोग अपने छोटे भाइयों के साथ अन्याय का व्यवहार करे और अपनी शक्ति बल पराक्रम और नेतृत्व (लीडर शिप) को अन्याय से वर्त्तेतो उस समाज में कीं मेल और प्रेम नहीं रहता।

यह सच है कि प्रेम एक मुदुल चित्तापकर्षक भाव हैं अर्थात् है Amotion या Possion है ऐसेप्रेम के भावों में हिसाब का काम नहीं होता यह प्रायः वे हिसाब होते हैं। परन्तु याद रखना चाहिये कि यह वे हिसाब प्रेमभाव परिमित समय तक अपना प्रभाव रख सकता है। यदि इस सद भाव से कोई पुरुष अनुचित लाभ उठाने की चेष्टा करे और इसको अपनी आड़ बनाकर दूसरे पुरुषों के साथ अन्याया चरण करे तो प्रेम का भाव घृणाके भाव में परिवर्तितहो जाता है। जिन का परिणाम यह होता हैं कि अत्यन्त प्रेम के स्थान में अत्यन्त घृणा और द्वेषआ उपस्थित होते हैं॥

वह प्रेम चिरस्थायी होता है जो न्याया चरण पर निर्धारित हो। वा यों कहो कि जिसको किसी एक मनुष्य के अन्याय या अत्याचार या अनुचित लाभ उठाने की इच्छा से हानि पहुंचाने की कम सम्भावना हो। दो मित्रों और सम्बन्धियों में जब तक न्याय और सदव्यवहार का आचरण होता है तब तक उन के प्रेम में विघ्न पड़ने के अवसर बहुत कम होते हैं। चुगली करने वालों को और फूटकी आग सुलगाने वालों को ऐसी सुगमता से कृत कार्यता नहीं होती जैसी उस समय होती है जब कि मित्रों और सम्बन्धियों के परस्पर व्यवहार में न्याय न रहे या कम हो जाय।

और उस के स्थान में स्वार्थान्धता अन्याय और अत्याचार का प्रवेश हो जावे जिस प्रकार यह प्रेम व्यक्तियों के प्रेम पर घटता है उसी प्रकार से यह समुदायों के परस्पर सम्बन्ध पर ठीक उतरता हैं॥

परिवार में लड़ाई हो जाती है और इर्ष्या, और फूट का अग्नि प्रचण्ड होजाता है जब कि उनके पारस्परिक व्यवहार मे न्याय का तिरोभाव होजाता है नियम यह है कि जिस सीमा या जिस अवधि तक मनुष्यों मनुष्यों समाजों और समाजों वर्णोंऔर वर्णोंके अन्दर न्याया चरण रहेगा उसीअवधि तक उनमें परस्पर प्रेम होगा और उसी अवधि तक इनमें विपरीत शक्तियों के साथ सफलता से संग्राम करने की शक्ति होगी।

मैने ऊपर वर्णन किया है कि हिन्दुओं में सामाजिक निर्वलता का कारण वर्णों का वर्णोंके साथ अन्याया चरण है। जिस नियम पर पौराणिक समय में वर्ण व्यवस्था स्थापित की गई उस नियम पर कभी सम्भव न था कि उनमें सामाजिक अथवा जातीय प्रेम और समष्टि बल रह सके। और इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि ऐसा ही हुआ और इससमय भी वही दृश्य हमारी आंखों के सामने विद्यमान है।

हिन्दुओं की वर्त्तमान प्रणाली में उच्च वर्णों को नीच वर्णोंपर वे अधिकार दिये गये हैं और नीच जातियों पर वे अत्याचार ठीक समझे गये हैं जिनके कारण इनमें प्रेम का रहना असम्भव है?जिस सामाजिक व्यवस्था में स्वकीय बुद्धिमत्ता, सुजनता तथा गुण सम्पन्नता को कोई स्थान न हो, जिसव्यवस्था में जन्म से एक नीच श्रेणि के मनुष्य को अपनी स्वकीय गुण सम्पन्नता से उच्च पद पाने

का अवसर न मिल सक्ता हो वह व्यवस्था सर्वथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध और अस्वभाविक है, इसका आधार ऐसे अन्याय पर है जो उन्नति और सामाजिक बल की जड़ों को काटने वाला है! हिन्दु समाज की वर्तमान सामाजिक नियमावली के अनुकूल एक शुद्र चाहेकितना ही विद्वान् गुण सम्पन्न, धनाढ्य और धर्मात्मा क्यों न हो जावे परन्तु हिन्दुओं में उसका समाजिक स्थान शूद्र पद से उच्च नहीं हो सक्ता और हिन्दु बिरादरी में सर्वदा उस पर एक अनपढ़ मूर्ख विद्वान् निर्धन पापात्मा, और दुराचारी द्विज को उत्कृष्टता मिलती रहेगी।

यह एक घोर अत्याचार है और ऐसे अन्याय के होने पर हिन्दु जाति के भिन्न २ विभागों में कभी प्रेम नहीं होसक्ता और प्रेम के बिना वह सामाजिक गठत नहीं होसक्ती जिस पर सामाजिक बल का आधार है॥

सभ्य दुनियां में यह नियम है कि यदि एक विद्वान् कोई अपराध करे तो उसका अपराध एक मूर्ख और अविद्वान् की अपेक्षा अधिक घृणित समझा जाता है, जैसेयदि कोई धनाढ्य मनुष्य चोरी करे तो उसका यह कर्म्मएक की मनुष्य की अपेक्षा घोरतर है जिसने भूखे मरते चोरी की परन्तु हिन्दु वर्ण प्रणाली में ठीक इसके प्रतिकूल है, चोरी करने वाला शूद्र चोरी करने वाले ब्राह्मण से सैंकड़ों गुण दण्ड का भागी समझा गया, अधिकाराभि मानी और राज के बल से अन्ध हुई जातियें (Imperial races) अपनी पराजित प्रजापर (Subject races) ऐसाअन्याय करें तो करे परन्तु अन्याय को ठीक मानने वाली जातियें बहुत दिनों तक संसार में सुखी नहीं रहतीं! इन दशा में यह कैसे होसक्ता है कि एक ही

जाति के भिन्न २ भागों में अन्यायाचरण हो और इसका बुरा परिणाम न निकले! यही अन्यायाचरण है जिसने हिन्दुओं को यह दिन दिखाया है यही अन्याय और अत्याचार है जिसने हिन्दूओं को दूसरे आक्रमण करने वालों के सामने पराजित किया, यही निष्ठुरता और अत्याचार है जिसने हिन्दुओंको पारस्परिक फूटसे इतना निर्बल कर दिया कि प्रत्येक मनुष्य आज उन पर लात मार रहा है, हंसी उड़ाता है और इनको घृणा की दृष्टिसे देखता है। जिस जाति के भिन्न २ समुदायों में इस प्रकार का अन्याय और अत्याचार ठीक माना गया हो उस जाति में पारस्परिक प्रेम और गठन का होना असम्भव है।

यह भी याद रखना चाहिये कि अत्याचार करने वाला भी हरा भरा नहीं होता थोड़े दिन तक चाहे वह फलता रहे और वह अपने अत्याचारों के बुरे फलों से अनभिज्ञ रहे परन्तु वास्तव में अत्याचार करने वाला उस मूर्ख के सदृश है जो स्वयमेव अपने बल के अभिमान में अपने पैरों पर कुल्हाड़ा चलाता है।

ज़ालिम को जब जुल्म करने का स्वभाव पड़ जाता है तो वह दूसरों को छोड़ कर अपने निकट वर्ती मित्रों तथा सम्बन्धियों पर ही जुल्म करना आरम्भ कर देता है उसका सिर चकरा जाता है और वह यह समझता है कि परमात्मा की सृष्टि में प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि उसके सामने सिर झुकावे :—

और इसकी आज्ञाओं का विना ननुनच के पालन करे यही कारण है कि शूद्रों पर अत्याचार करते २ हिन्दुओं की उच्च जातियों ने महिलागण पर जिन में उनकी माताएं, भगिनियें और पुत्रियां

हैं अत्याचार करना आरम्भ कर दिया — इस द्विविध अत्याचार का फल आज हिन्दु जाति सहन कर रही है क्योंकि जिस मनुष्य का स्वयं जुलम करने का स्वभाव हो जाता है उसका शनै २ दूसरों के हाथों से भी जुल्म सहन करने का स्वभाव बन जाता है! वह समझने लगता है कि जैसा मुझे अपने से छोटो पर या अपने आधीनों पर जुल्म करने का अधिकार है वैसा ही औरों को जो मेरे से अधिक बलवान और बड़े हैं मुझ पर जुल्म करने का अधिकार है, जुल्म करने वाला संसार में जुल्म का ऐसा प्रवाह चला देता है जिस से मनुष्य जाति को बड़ी हानि पहुंचती है और संसार में दुःख बढ़ जाता है इसी वास्ते नीतिज्ञ पुरुषों ने कहा है कि जुल्म को सहन करने वाला भी उसी अवधि तक सच्चे सामाजिक नियमों का विरोधी और अपराधी है जैसा जुल्म करने वाला! जिस प्रकार जुल्म करने वाले का कोई हक नहीं है कि वह दूसरे पर जुल्म करे इसी प्रकार जिस मनुष्य पर जुल्म करने की चेष्टा की जाती है उसका भी कोई हक नहीं है कि अपने ऊपर जुल्म होने दे! प्रत्येक मनुष्य का यह धर्म्महै कि न वह दूसरों पर जुल्म करे और ने अपने ऊपर दूसरों को जुल्म करने दे! संसार का प्रबन्ध धर्मानुसार और न्यायानुकूल तब ही स्थिर रह सकता है जब प्रत्येक मनुष्य अपने हक पर स्थित रहे और धर्मानुकूल अपने कर्तव्य का पालन करे न स्वयं किसी के अधिकार पर हस्ताक्षेप करे और न किसी दूसरे को अपने अधिकार पर हस्ताक्षेप करने दे। शूद्रों ने द्विजों के जुल्म सहने से द्विजों को उतनी ही हानि पहुंचाई जितनी अपने आपको इस भाव से जुल्म करने वाला और जुल्म सहन करने वाला दोनों ही अपराधी हैं, दोनों एक सच्चे सामाजिक नियम को तोड़ते हैं

दोनोंही सामाजिक नियम के विरुद्ध चलते हैं।

जिस जाति में एक समुदाय के लोग ऐसे घृणित हों कि दूसरे समुदाय के लोग उनके दर्शन मात्र से पापी हो जाते हैं, जिसजाति में एक समुदाय के लोग ऐसे तुच्छ और पादाक्रान्त हों कि एक समुदाय के लोग आप चाहे कितने ही मैले, अपवित्र और दुष्ट क्यों न हों परन्तु दूसरे समुदाय के स्वच्छ, पवित्र और धर्मात्मा मनुष्यों से छूना भी पाप समझें, जिसजाति में एक समुदाय के लोग ऐसीघृणा से देखे जानें कि उनके किसी विशेष रास्ते पर चलने से वह रास्ता और सड़क ही अपवित्र हो जाती हो जिस समुदाय में बाप दादा के अपराध का दण्ड उसकी सन्तान को मिलता हो, जिससमुदाय में एक मनुष्य को अपनी सुजनता और गुण सम्पन्नता से सामाजिक अवस्थामें उन्नत होनेका कोई अवसर न हो, उस जाति में कभी जातीय बल नहीं आ सकता और न उस की भिन्न २ व्यक्तियों और समुदायों में पारस्परिक प्रेम हो सकता हे हिन्दुओं की ऊंची जातियों ने इस जुल्म और सख्ती को यहां तक पहुंचा दिया कि वे अपने भाइयों को दूसरों की अपेक्षा भी अधिक घृणा दृष्टि से देखते हैं, हिन्दुओं की ऊंची जातियां नीच जातियों से वह वर्ताव भी करना नहीं चाहतीजो वे मुसलमानों तथा ईसाइयों से करती हैं मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दुओं के कुओं से पानी भरने की आज्ञा है परन्तु शूद्रों को नहीं, दक्षिण में ईसाइयों और मुसलमानों को सारी सड़कों पर फिरने का अधिकार है परन्तु शूद्रों को नहीं, मुसलमान और ईसाई हिन्दुओं के मन्दिरों में दर्शक वन कर जा सकते हैं परन्तु शूद्र नहीं, मुसलमान और ईसाइयों से हिन्दु हाथ मिलाते हैं वो प्रायः उन से हाथ मिलाने में अपना सौभाग्य समझते हैं परन्तु हिन्दु शूद्रों से ऐसा बर्ताव करने से

बे पतित हो जाते हैं ! विचित्र बात यह है कि इन शूद्रों को हिन्दूओं की ऊंची जातियां उस ही समय तक घृणा की दृष्टि से देखती हैं जिस समय तक वे हिन्दु रहते हैं परन्तु उन्हीं शूद्रों से वे अच्छा बर्ताव करने लग जाती जूंहि कि वे अपना धर्म्मत्याग कर मुसलमान या ईसाई हो जाते हैं, इसका प्रत्यक्ष यही अभिप्राय है कि एक मुसलमान या ईसाई हुआ २ शूद्र हिन्दु शूद्र की अपेक्षा अच्छेसलूक का पात्र है। जिसजाति के भिन्न विभागों में ऐसा सलूक हो और ऐसे२ अत्याचारों को ठीक समझा जावे उसमें, जब तक इन अत्याचारों को दूर न किया जावे एकता होनी असम्भव है।

इस वास्ते हिन्दुयों की ऊंची जातियों का यह मुख्य कर्तव्य है कि वे अपने अभिमान तथा अस्मिता को कम करके इसअन्याय को दूर करें। प्राचीन शास्त्रों के पढ़ने तथा पुराने इतिहास के देखने से विदित होता है कि प्राचीन आर्य ऐसेज़ालिम न थे। उस समय शूद्रों को अपनी स्वकीय योग्यता सुजनता तथा धर्म्मभाव से उच्च पद को प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था, और बहुतसों ने यह उच्च पद प्राप्त भी किया इसी प्रकार द्विज लोग भी अपनी अयोग्यता, क्षुद्रता और अधर्म्मसे नीच अंवस्था को पहुंच जाते थे, क्योंकि यही न्याय था। इसपुस्तक में पुराने शास्त्रों के प्रमाणों और पुराने इतिहाससे यह दर्शाया गया है कि प्राचीन समय में जात पांत के बन्धन ऐसेकड़े न थे जैसेअब हैं और उनकी बुनयाद गुण कर्म्म और स्वभाव पर थी, यदि हिन्दुओं की यह इच्छा है कि शुद्र हिन्दु समाज के अन्दर बने रहें और उन मे निकल कर मुसलमान या ईसाई न हो जावें तो उनको अवश्यमेव यह करना होगा कि वे शूद्रों को धार्मिक शिक्षा दें और उन में ऐसा धार्मिक बल उत्पन्न करें जिनसे वे जाति

के दूसरे विभागों की सदृश धर्मात्मा बन कर जाति और धर्म्म की रक्षा करने के काम में भाग ले सके—

धर्म्मकिसी मनुष्य का दाय भाग नहीं है। कुछ धार्मिक संस्कार चाहे किसी मनुष्य को दाय भाग में मिल जावेंपरन्तु बहुत करके धर्म्म प्रत्येक मनुष्य की अपनी कमाई है इस वास्ते प्रत्येक मनुष्य का यह हक है कि वह जितना धर्म्मधन चाहे कमावे, किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह धर्म्म का द्वार किसी दूसरे पर बन्द करदे।

जिस धर्म्मके प्रचारक अपने धर्म का द्वार किसी मनुष्य पर बन्द कर देते हैं केवल इस कारण से कि वह एक ऐसे परिवार में उत्पन्न हुआ है जो उनकी दृष्टि मे नीच और शूद्र है वे प्रचारक अपने धर्म को धर्म के सिंहासन से गिराते हैं और उसका अपमान और उसकी हानि करते हैं।

जिस प्रकार परमात्मा का द्वार सारी सृष्टि के लिये खुला है और प्रत्येक मनुष्य अपने मन को उनके चरणों में समर्पण करने से जात पात रंग रूप की विवेचना के बिना उनके पास पहुंच सकता है उसी प्रकार धर्म जो परमात्मा का स्वरूप है या परमात्मा के स्वरूप जानने का साधन है सब के लिये खुला होना चाहिये जो चाहे उससे लाभ उठावे, उन मनुष्यों में जो जन्म, या जाति रङ्ग अभिमान में उन्मत्त हैं सच्चे धार्म्मिक भाव नहीं आसकते! सच्चे धार्म्मिक भाव वाले मनुष्य में किसी हद तक अपनी सचाई और स्वकीय सुजनता का अभिमान होसक्ता है जिसको अंग्रेज़ी में सैल्फ रेस्पैक्ट (Self-respect) कहते हैं परन्तु उस में जन्म या जाति या रङ्ग या धन का अभिमान नहीं होसक्ता ! ऐसा अभिमान धार्म्मिक भाव का विरोधी है।

जातीय उन्नति के एक और नियम का में यहीं प्रकाश करना चाहता हूं वह यह है कि जातीय बल के वास्ते आवश्यक है कि उस में अति ऊंचे या अति धनाढ्य मनुष्य कितने ही हों परन्तु अति नीच अथवा शुद्र या दुर्बल आदमी कम हों! जातीय उन्नति का यह रहस्य है कि उस में अधिक संख्या (Middle Classes) मध्य श्रेणी वाले मनुष्यों की हो और छोटी श्रेणीयें अर्थात् (Lower Classes) बहुत कम हों। जिस जाति को सामाजिक बना वट में इस बात के तो असंख्यात अवसर है कि उनकी (Lower Classes) अर्थात् शुद्रों की श्रेणियां बढ़ती जावें परन्तु इस बात का कोई अवसर नहीं कि मध्य श्रेणि में बढ़ती हो सके वह जाति कभी जाति भाव से उन्नति नही कर सकती - जातीय उन्नति का यह रहस्य है कि इस में से “Lower Classes” अर्थात् शूद्रों कीसंख्या दिन प्रति दिन कम होती जावे और (Middle Classes) की संख्या बढ़ती जावे! इसका यह अभिप्राय है कि (Lower Classes) में शूद्रों को यह अवसर दिया जावे कि वे उन्नति करके न्यून से न्यून वैश्य बन सकें! इनमें से विशेष योग्यता और गुण सम्पन्नता रखने वाले निःसन्देह ब्राह्मण और क्षत्रिय बन जावें परन्तु यह हक प्रत्येक का होना चाहिये कि यह उन्नति करता हुआ कम से कम वैश्य तो अवश्य मेवबन सकें! पश्चिमी जातियें आज इस यत्न में लगी हुई हैं कि अधिक धनाढ्य श्रेणियों को कम किया जावे और उनके धन का आधार भूत “Lower Classes” अर्थात् नीच मज़दूरी करने वाली श्रेणियों को उठाकर किया जावे।

हमको कम से कम यह चेष्टा तो अवश्य करनी चाहिये कि हमारे शुद्र शुद्र अवस्था से निकलकर द्विज बन जावें में अपने सह जाति हिन्दु भाइयों से प्रार्थना करता हूं कि वे मनु महाराज की उस

व्यवस्था पर विचार करें कि “जिस जाति में शूद्रों की संख्या आधिक हों और द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य) की संख्या कम हों उस जाति में दुभिक्ष और उड़कर लगने वाले रोग अर्थात् ताऊन फैल जाती है” यह व्यवस्था बिलकुल सचाई पर निर्धारित है। जिस जाति में विद्या हीन और मैले मनुष्यों की संख्या अधिक होगी और विद्वान्, धर्मात्मा और स्वच्छ रहनें वाले मनुष्यों की संख्या कम होगी उस में अधिक संख्या की मूर्खता और अपवित्रता का परिणाम अवश्य दुर्भिक्ष और ताऊन होगी! दुर्भिक्ष और ताऊन का प्रतिकार करने वाले विद्या धर्म्म, धन और पवित्रता है। धन और पवित्रता दोनों का आधार विद्या और धर्म्मपर है। शुद्र उस मनुष्य को कहते हैं जो विद्या हीन हो और धर्म्मके संस्कार न करता हों इस वास्ते देश में से दुर्भिक्ष और ताऊन को दूर करने का एक बड़ा उपाय यह है कि शूद्रों को विद्या और धर्म्मका दान देकर द्विज बना दिया जावे।

गत मर्दुमशुमारी के कागजों को जिन लोगों ने पड़ताल किया है वे लिखते हैं कि हिन्दुस्थान में ५ करोड़ से अधिक ऐसे हिन्दु हैं जिनके साथ कोई हिन्दु नहीं छूता, सामाजिक व्यवहार का तो कहना ही क्या? इनके अतिरिक्त ऐसे शूद्रों की संख्या भी बहुत बड़ी है जिनको हमारे पौराणिक भाइयों के मतानुकूल बेद पढ़ने का अधिकार हीनहीं यदि हिन्दुओं की कुल आबादी में से इन अछूत जातियां तथा शूद्रों को निकाल दिया जावे तो फिर ज्ञात हो जावेगा कि शुद्र कितने कम हैं, और इस देश में बार २ दुर्भिक्ष और बीमारी पड़ने का यही कारण है कि इस में द्विज लोग कम हैं और शूद्र अधिक हैं।

इसके अतिरिक्त एक और सबल सिद्धान्त है जिस पर इस पुस्तक में विचार किया गया है वह प्रायश्चित्त का विषय हैं। प्राचीन हिन्दु शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान भिन्न २ है। समयानुकूल प्रायश्चित्त विधि भी बदली गई है, परन्तु जब तक हिन्दुओं में धार्मिक तथा राजनैतिक बल रहा उन्होंने किसी विदेशी या अनार्य्यको धर्म्मदान देकर अपने अन्दर मिलाने से इनकार नहीं किया और यह तो असम्भव ही था कि वे पतितों को वापिस लेने से इनकार करते मुसलमानों के राज्याधिकार के दिनों में पहले पहल यह नियम बनाया गया था कि जो मनुष्य मुसलमान हो जाता था उसको वापिसनहीं लिया जाता था। प्रतीत ऐसा होता है कि इस नियम के चलाने का कारण उस समय की आवश्यकता थी परन्तु आज कल की आवश्यकता बतला रही है कि यदि हिन्दु इन दिनों में भी उसी नियम पर कटिबद्ध रहें जिस पर कि मुसलमानों के दिनों में थे तो इनका सामाजिक बल बहुत कम होजावेगा और क्रोड़ों हिन्दु इन से अलग हो जावेंगे।

इस समय दो धार्म्मिक समुदाय देश में हिन्दुओं के विरुद्ध काम कर रहे हैं अर्थात् मुसलमान और ईसाई। मुसलमान अपने धर्म के इतने अनुरागी हैं कि वे नये मुसलमान का विशेष सन्मान करते हैं। और सदा सब प्रकार स्वधर्म की शिक्षा देकर वा प्रचार करके मुसलमानों से भिन्न अन्य धर्मावलंबियों को मुसलमान बनाने के लिये उद्यत हैं। मुसलमानी धर्म्ममें जात पांत का बन्धन नहीं और यह धर्म बल पूर्वक इस बात की शिक्षा देता है कि सब मुसलमान भाई हैं और बराबर हैं यद्यपि हिन्दुस्तान के मुसलमानों में जात पात का भेद पाया जाता है परन्तु वास्तव में यह मुसलमानी धर्म्मकी शिक्षा के विरुद्ध हैं। परन्तु नये मुसलमान हुए

मनुष्यों पर इसका बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। मुसलमान होते ही प्रयेकं पुरुष को प्रत्येक मसजिद में नमाज़ पढ़ने और मुसलमानों की श्रेणी में खड़ा होने का अधिकार होजाता है। मुसलमान लोग ‘नये हुए मुसलमानों से असाधारण रीति से प्रेम प्रकट करते हैं उनके लिये खान पान के पदार्थ सबपहुंचा देते हैं। उनके विवाह करा देते हैं। उन्हें सब प्रकार से सहायता करते हैं। जिसका परिणाम यह है कि हज़ारों की संख्या में हिन्दू नर नारियें मुसलमान होती जाती हैं। इसके अतिरिक्त हिन्दू अपनी विधवाओं पर इतनी कठोरता करते हैं कि इनमें से कई मुसलमान होजाती हैं। और इसप्रकार उसकठोरता से छुटकारा पाती हैं जो हिन्दू रहने की अवस्था में उनके साथ होती हैं। बीसवर्ष पहले बंगाल में हिन्दू अधिक थे और मुसलमान कम। परन्तु इन बीस वर्षों में मुसलमानोंकी संख्या हिन्दू बंगालियों से बहुत अधिक होगई। इसी प्रकार अन्य प्रान्तों में भी मुसलमानों की वृद्धि हिन्दुओं से बहुत अधिक है। गत मनुष्य गणना के अनुनार पञ्जव में मुसलमानों की वृद्धि हिन्दुओं से प्रति शतक पांच गुणा अधिक थी। यही दशा अन्य प्रान्तों की है। इस दशा में यदि हिन्दू अपने मुसलमान हुए २ भाइयों को सदा के लिये निकाल देंगे और उनमें से उनको जी लौटकर आना चाहें प्रायश्चित्त कराकर लेना स्वीकार न करेंगे तोएक समय आवेगा कि हिन्दू इन देश में से निर्मूल होजावेंगे।

यही भय हिन्दुओं को ईसाइयों से है। ईसाई इस देश में अपने धर्म प्रचार के लिये और इसको सर्वप्रिय करने के लिये असंख्य साधन बरत रहे हैं। हज़रत ईसाने अपने शिष्यों से कहा कि सब जगत् में फैल जाओ और जिसतरह मैंने उपदेश दिया है, उसीतरह इनको फैलादो।

अपने नबी के इस उपदेश पर आचरण करते हुए ईसाई प्रचारक और पादरी सारे आर्यावर्त में फैले हुए हैं यहांतककि पहाड़ों की कन्दराओं में और पर्वतों की चोटियों पर वे स्थान २ पर मिलते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उनमें धर्म भाव बहुत अधिक है और इस वास्ते अपने धर्म्मका प्रचार करने के वास्ते वे नाना प्रकार के दुःख सहन करते हैं बरसों घर से और नगरों से अलग रहते हैं एक २ प्रचारक अपने आपको दुनियां से काटकर ऐसा अपने काम में तन्मय होजाता है कि वह सैकड़ों और हज़ारों को ईसाई किये बिना दम नहीं लेते। वह प्रेम से लालच से ओर सेवा से सब भांति लोगों के मनों को अपनी ओर आकर्षित करता है और इन तीनों उपायों से अपने धर्म्मका महत्व लोगों के दिलों पर बैठाता है। संसार में गहरी फिलासफी के जानने वाले कम होते हैं लोग तो बाहर का प्रभाव देखते हैं। ईसाई अपना पाठशालाओं, अपने औषधालयों, अपने अनाथालयों और अपने गरीबखानों के द्वारा अपने धर्म्मका महत्व बच्चों और युवावस्था के लोगों के दिलों पर बैठाते हैं प्रथम तो वे उनका विश्वास अपने धर्म्मपर से हटाकर निर्वल कर देते हैं और फिर अपने प्रेममय प्रभाव से शनैः २ उनको अपनी और खैंच लेते हैं। कितने ही युवक ईसाई स्त्रियों तथा ईसाई लड़कियों की सभ्यता और बनाव चुनाओ को देखकर लट्टू होजाते हैं कई एक उदरपूर्णा के कारण पादरयों के शरणागत होजाते हैं। कई तो बहुत थोड़े से सांसारिक लाभ से ही आकर्षित होकर चले जाते हैं, बहुत से ऐसेहैं जिनमें निर्धनता और दरिद्रता ऐसे भाव नहीं छोड़तीं जिसे वे सच्चे धर्म्मकी बारीक फिलासफी को समझ सकें, उनके वास्ते तो रोटी कपड़ा ही धर्म है और यदि इस रोटी कपड़े के साथ इनको विद्या

और स्त्री भी मिल जावे तो फिर तो कहना ही क्या? लाखों हिन्दू इस प्रकार ईसाई होते हैं, उनमें से बहुत से तो वापिस आने का नाम नहीं लेते क्योंकि आजकल हिन्दुपन में कुछ लाभ दीख नहीं पड़ता परन्तु कई ऐसेभी हैं जो अपने किये पर पछताते हैं और अपने धर्म्ममें वापिस आने की इच्छा प्रकट करते हैं, उनको हमारे भोले हिन्दु नहीं लेते। बहुत सी ईसाई स्त्रियें आज कल हिन्दुओं के घरों में लड़कियों और दूसरी स्त्रियों को शिक्षा देने के लिये जाती हैं और वे उन पर अपने धर्म का प्रभाव डालती हैं, निर्लंज्ज हिन्दु प्रथम तो अपने बालक तथा बालिकाओं के लिये धार्म्मिक और सांसारिक विद्या का प्रवन्ध नहीं करते और दूसरे जब कोई भूल से अपने धर्म्ममे पतित होजाता है तो फिर उसको वापिस लेने से इनकार करते हैं जिनका परिणाम यह है कि इन कारणों से भी हिन्दुओं की संख्या में बड़ी कम होती जाती हैं।

परन्तु इन सब बातों से अधिक आवश्यक यह बात है कि इन हानिकारक बन्धनों से हिन्दु धर्म्मपर हिन्दुओं की अपनी अश्रद्धा होती जाती है। जिन धर्म्म्ममें यह शक्ति नहीं कि वह गिरे हुए को उठा सके, भूले हुए को सत्य मार्ग पर लासके जिस धर्म में ऐसा कोई मार्ग नहीं जिससे पतित उद्धार होसके जिस धर्म पें अपराध के क्षमा करने का कोई प्रबन्ध नहीं, जिस धर्म्म में पश्चाताप करने पर भी शुद्धि नहीं होसक्ती वह धर्म्म धर्म्म के उन आवश्यक अङ्गों से वञ्चित हैं जिनके विना धर्म्म धर्म्म कहलाने का अधिकारी नहीं। इसका परिणाम यह है कि करोड़ों हिन्दु केवल नाममात्र के हिन्दु हैं और प्रतिक्षण अपना धर्म छोड़ने के लिये उद्यत रहते हैं।

इन दिनों में रेल गाड़ियों और जहाजों ने यात्रा को सुमग

कर दिया है, सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के वास्ते हिन्दुओं को चाहिये कि वे अपने घर के कुए से निकल कर दुनियां को देखें और अन्य देशों में जावें चाहें विद्या सीखने के लिये चाहे व्यापार के वास्ते, इस वास्ते, समय के प्रवाह को देखकर यह असम्भव प्रतीत होता है कि हिन्दु जात पात को और छूत छात के उन बन्धनों को रख सकें जो अब तक उनके अन्दर चले आये हैं। प्राचीन शास्त्रों में इस बात के बहुत प्रमाण मिलते हैं कि पुराने हिन्दुओं में खान पान और छूत छात की यह कठोरता न थी, वे लोग प्रत्येक मनुष्य को धर्म दान देते थे और प्रायश्चित्त कराकर अपनी सोसायटी में सम्मिलित कर लेते थे, यदि कोई मनुष्य अपने धर्म से गिर जाता था तो उसका भी प्रायश्चित्त कराकर फिर अपने पहले पद पर स्थापित कर देते थे। इस छोटी सी पुस्तक में शास्त्रों के यह सब प्रमाण इकट्ठेकिये गये हैं। इस बात की आवश्यकता है कि हिन्दुओं में इन भावों को फैलाया जावेताकि उनको अपने शास्त्रों की आज्ञाओं का परिचय होजाये। मुझे पूर्ण आशा है कि हिन्दु पबलिक पं० रामचन्द्र शास्त्री के इस परिश्रम कासन्मान करेगी।

** लाहौर
२ अक्तूबर १९०९
लाजपतराय।**

वेदोपदेश।

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो वियौष्ठ संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्योऽन्यस्मै बल्गुवदन्त एतमध्रीचीनान्वः संमनस्कृणोमि॥५॥
अथर्व ३। ३०।

बड़े बनो, समझ वाले बनो, मत बिछड़ो, सफल होते जाओ। एक साथ मिलकर एक धुरा को उठाओ, एक दूसरे के लिये मीठा बोलो, आओ मैं तुमको साथ चलने वाले और एक मन वाले बनाता हूं।

किसी ने सत्य कहा है किः—

“नीचैर्गच्छत्युपरिच दशा चक्र नेमिक्रमेण”॥

संसार की दशा सदा एकरस नहीं रहती।
जिस जाति का यह सिद्धान्त हो कि —

कर्म प्रधान विश्व रच राखा,
जो जस करे सो तस फल चाखा।

जिसने अपनी विद्या और तप से न केवल यह अनुभव ही किया हो किः—

**धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वंवर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णोजघन्यं वर्ण मापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥**आपस्तंव २।५।११।

धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को उपलब्ध करता है। और अधर्माचरण से उत्तमवर्णी नीच बनजाता है, प्रत्युत अपने अनुष्ठान से दर्शाया किः —

यात्यधोऽधो ब्रजत्युच्चैर्नरः स्वैरेवकर्मभिः।
कूपस्यखनितायद्वत् प्राकारस्येव कारकः॥
ई० सु० ४२।

मनुष्य अपने कर्म से ऊंचा और नीचा बन जाता है। जैसे दीवार चुनने वाला, और कूप खोदने वाला।

जिसने उच्चस्वर से यह घोषणा दी कि :—

**योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
सजीव न्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥**मनु० २।१६८।

**अश्रोत्रिया अननुवाक्या अनग्नयो वा शूद्रस्यसधर्मिणो भवन्ति॥**वसिष्ठ० ध० सू० ३।३।

जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्यत्र प्रयत्न करता है। वह जीता ही पुत्र पौत्रादि सहित शुद्र होजाता है।

जो ब्राह्मण के घर उत्पन्न होकर न वेद पढ़ते हैं, और न पढ़ाते हैं, न अग्नि आधान किये हैं वे शुद्र के बराबर हैं। जिसका यह सिद्धान्त हो कि :—

**यस्तु शूद्रोदमेसत्ये धर्मे च सततोत्थितः।
तं ब्राह्मण महं मन्ये बृतेन हि भवेद्द्विजः॥**महाभारतबन० अ०२१६।
शूद्रे चैतद् भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते।
नवै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणोन च ब्राह्मणः॥
महाभा० शां०आ०१९

जो शूद्र गृहोत्पन्न दम, धर्म, और सत्य में आरूढ़ है मैं उसको ब्राह्मण मानता हूं। क्योंकि बृत्त से ही ब्राह्मण बनता है।

यदि ब्राह्मण के लक्षण शुद्र में पाये जाते हैं, और शूद्र के

ब्राह्मण में तो वह शूद्र शुद्र नहीं और ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं।

शोक!!! आज उसके अनुयायी कई एक सनातनधर्माभिमानी यह कहें कि एक भ्रष्टाचारी अब्रती ब्राह्मण कुमार ब्राह्मण ही रहेगा क्योंकि वह ब्राह्मण के घर जन्मा है।

और एक सदाचारी ब्रह्मचारी दमी शूद्र, शुद्र ही बना रहेगा क्योंकि वह शुद्र वीर्य्य से उत्पन्न हुआ है।

यह शास्त्र प्रतिकूल कपोल कल्पित सिद्धान्त न केवल उनकी अज्ञता और हठ धर्मी का परिचय देता है — प्रत्युत इसी पाप प्रचारक सर्वनाशक सिद्धान्त ने जहां ब्राह्मणों को विद्या हीन कर सर्व का तिरस्कारपात्र बनाया वहां सांथ ही उन छोटी जातियों को सदा के लिये बढ़ने से रोका।

और इसी से आर्य्यजाति का ह्रास हुआ, अतः युक्त प्रतीत होता है कि इस भ्रम जाल को काटने के लिये प्रथम (वर्ण परिवर्तन) नाम प्रकरण का आरम्भ किया जावे। क्योंकि यदि शास्त्रों से यह सिद्ध हो कि नीच ऊंच और ऊंच नीच बनसक्ते हैं, और सदा से बनते आये हैं, तो इस वर्तमान विवाद अर्थात् शुद्धि विषय की सिद्धि में भी सन्देह की इति श्री होजावेगी।

(वर्ण परिवर्तन)।

शास्त्रों का सिद्धान्त है कि (लक्षण प्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धिः) लक्षण और प्रमाणों से वस्तु की सिद्धि होती है। इसलिये निरुक्त के कर्त्ता यास्काचार्य्य वर्ण की निरुक्ति करते हुए लिखते हैं, किः—

** (वर्णोवृणोतेः)** नि० अ० २–खं० ३।

** वर्णीया वरितुमर्हा गुणकर्म्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं ब्रियन्ते येते**

वर्णाः। वर्ण को वर्ण इसलिये कहा जाता है, कि इसे मनुष्य गुणकर्म्म स्वभाव से प्राप्त करते हैं।

जब भारद्वाज मुनि ने भृगु जी से पूछा कि :—

**ब्राह्मणः केन भवति क्षत्रियो वा द्विजोत्तम।
वैश्यः शूद्रश्च विप्रर्षे तद्ब्रूहि वदतांवर॥१॥**भा० शां० अ० १८९

हे द्विज श्रेष्ठ ! कृपा करके मुझे बतावें कि किस कर्म्म से ब्राह्मण बनता है, और किस से क्षत्रिय वैश्य और शूद्र बनते हैं। तब भृगु बोले—

जातकर्म्मादिभिर्यस्तु संस्कारः संस्कृतः शुचिः।
वेदाध्ययन सम्पन्नः षट्सु कर्म्म स्ववस्थितः॥२॥
शौचाचार स्थितः सम्यक् विघसाशी गुरुप्रियः।
नित्यव्रती सत्यपरः स वैब्राह्मण उच्यते॥३॥
सत्यंदान मथाद्रोह आनृशंस्यंत्रपा घृणा।
तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः॥४॥
क्षत्रं च सेवते कर्म्म वेदाध्ययन संगतः।
दाना दान रतिर्यस्तु सवैक्षत्रिय उच्यते॥५॥
विशत्याशु पशुभ्यश्च कृष्या दान रतिः शुचिः।
वेदाध्ययन सम्पन्नः स वैश्य इति संगतः॥६॥
सर्वभक्षरति र्नित्यं सर्व कर्म्म करोऽशुचिः।
त्यक्त्वेदस्त्वनाचारः सवै शूद्र इतिस्मृतः॥७॥

जो जातकर्म्मादि संस्कारों से संस्कृत पवित्र वेदाध्ययन में

तत्पर छः अर्थात् (अध्ययनाध्यापनादि) मनुप्रोक्त ब्राह्मण कर्म्मोंमें तत्पर) शौचाचार में स्थित, विघसाशी (यज्ञ शेष के खाने वाला) गुरुप्रिय ब्रती और सत्यप्रिय है वही ब्राह्मण है। जिस में सत्यदान अद्रोह अनृशंसता लज्जा दया और तप देखेजाते हैं, वही ब्राह्मण है।

क्षत्रिय — जो क्षात्र कर्म्म(भयातों की रक्षा) करता है। और वेदाध्ययन भी करता है। और दान करता है लेता नहीं वह क्षत्रिय है।

वैश्य — जो वाणिज्य पशु पालन और कृषि कर्म्म में आसक्त है वेद को पढ़ता है, वह वैश्य कहा जाता है।

शुद्र — जो सर्व भक्षी–-सर्व कर्त्ता–अपवित्र–वैद विहीन और आचार हीन है वह शुद्र है।

इसी की पुष्टि महाभारत वन पर्व अ० २१६ में इस प्रकार की गई है।

ब्रह्माणः पतनीयेषु वर्तमानी विकर्म्मसु दाम्भिको
दुष्कृतः पापः, शूद्रेण सदृशो भवेत्। १
यस्तु शूद्रोदमे सत्ये धर्म्मेचसततो त्थितः
तं ब्राह्मण महंमन्ये वृत्तेन हि भवेद्द्विजः। २

जो ब्राह्मण दम्भी पापी और पतित– दुष्कर्मों में लग जाता है वह शूद्र है, और जो शुद्र दम–धर्म्म–और सत्य में आसक्त है, मैं उस को ब्राह्मण मानता हूं– क्योंकि वृत्त से ही ब्राह्मण बनता है।

भारद्वाज मुनि ने भृगु जी से पूछा, कि–

कामः क्रोधो भयं लोभः शोकश्चिन्ता क्षुधा श्रमः
सर्वेषां नः प्रभवति कस्माद्वर्णोविभज्यते। ७

स्वेद मूत्र पुरी षाणि श्लेष्मापित्ते स शोणितम्
तनुः क्षरति सर्वेषां–
कस्माद्वर्णो विभज्यते। ८
जङ्गमानाम संख्येया स्थावराणां च जातयः
तेषां विविध वर्णानां कुतो वर्ण विनिश्चयः। ९
भा० शां० अ० १८८

जब कि काम क्रोध लोभ मोह आदि हम सब में एक से पाये जाते हैं, तो फिर वर्ण विभाग कैसे?

जब कि स्वेद मूत्र पुरीषादि सबके शरीरसे समान ही निकलते हैं तो फिर वर्ण विभाग कैसे?

जब के जंगम और स्थावरादि असंख्य जातियें हैं इन का वर्ण विभाग कैसे?

इस का उत्तर देते हुए भृगु महात्मा कहते हैं –

नविशेषोऽस्तिवर्णानां सर्वं ब्राह्म मिदं जगत्
ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्म्मभि र्वर्णतां गतम्। १०

वर्णोंमें कोई विशेष नहीं क्योंकि प्रथम सबब्रह्म से उत्पन्न किये सत्व प्रधान ब्राह्मण ही थे। परन्तु कर्म्म वश से भिन्न २ वर्ण बन गये। जैसे-

क्षत्रिय– काम भोग प्रियास्तीक्ष्णाः क्रोधना प्रियसाहसाः
त्यक्तस्वधर्म्मारक्ताङ्गास्ते द्विजाः क्षत्रतां गताः ११

उन्हीं ब्राह्मणों में से जो लोग काम प्रिय भोगी तीक्ष्ण स्वभाव

क्रोधी साहसी और ब्राह्म धर्म्म से कुछ फिसल कर युद्ध प्रिय हुए वे क्षत्रिय कहलाने लगे॥

वैश्य—गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीताः कृष्यु पजीविनः
स्वधर्म्मान्ना नुतिष्ठत्ति तेद्विजाः वैश्यतांगताः।

जिन ब्राह्मणों ने अपने धर्म्मको छोड़, गो सेवा कृषि और वाणिज्य धर्म्मस्वीकार किया, वे वैश्य कहलाये।

शूद्र — हिंसा नृत प्रिया लुब्धाः सर्व कर्म्मोपजीविनः
कृष्णाः शौच परिभ्रष्टास्ते द्विजाः शूद्रतां गत्ताः॥ १३

जो ब्राह्मण हिंसा युक्त मिथ्यावादी लोभी सर्व कर्म्म के करने वाले, और शौच से रहित हुए वे शूद्र कहलाने लगे।

इत्येतैः कर्म भिर्व्यस्ता द्विजाः वर्णान्तरंगताः।
धर्मोयज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते॥१४॥
इत्येते चतुरोवर्णाः येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्राह्मणा पूर्वं लोभाच्चाज्ञानतांगताः॥१५॥

इन कर्मों से व्यस्त हो कर चारों वर्ण हुए**—** इन चारों को धर्म और यज्ञ कर्म्म में निषेध नहीं॥

इस प्रकार यह चारों वर्ण हुए। इन चारों के लिये ही ब्राह्मी सरस्वती (वेदवानी) परमात्मा ने प्रदान की है परन्तु ये लोभ वश से अज्ञानी बन गये॥

ब्राह्मणा ब्रह्मतंत्रस्थास्तपस्तेषां न नश्यति।
ब्रह्म धारयतां नित्यं ब्रतानि नियमांस्तथा॥१६॥
ब्रह्मचैव परंसृष्टं ये न जानन्ति तेऽद्विजाः।

तेषां बहुविधास्त्वन्यास्तत्र तत्रहिजातयः॥१९॥
पिशाचाराक्षसाः प्रेताः विविधाः म्लेच्छजातयः।
प्रनष्ट ज्ञान विज्ञानाः स्वच्छन्दाचार चेष्टिताः॥१८॥

भा० शां० अ० १८८।

जो ब्राह्मण वेदों और ब्रत को धारण किये हैं उनका तप नष्ट नहीं होता॥

अय ! भारद्वाज वेद ही परम तप है**—**जो वेद नहीं जानते बह अद्विज हैं।

और इन्हीं अद्विजों की इधर उधर अनेक जातियें देखी जाती हैं। और इन्हीं से राक्षस पिशाच म्लेच्छादिक की उत्पत्ति है।

यदि कोई जाति पक्षपात में पड़ कर स्वार्थ लोलुपता से वर्ण व्यवस्था केवल जन्म से मानने लगती है, तो वह जल्दी अपने पद से गिर जाती और नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। जब तक कि पुनः उस का संस्कार वा उद्धार नहीं किया जावे। क्योंकि भगवान् कृष्णचंद्र के कथनानुसार**—**

यःशास्त्र विधि मुत्सृज्य वर्तते काम चारतः।
नच सिद्धि मवाप्नोति न सुखं नपरां गतिम्॥
भ० गी०

जहां शास्त्र मर्य्यादा का परित्याग होता है, और काम चारता प्रवेश करती है, वहां किसी प्रकार का भी कल्याण नहीं आसकता।

यही कारण है, कि आज जन्म से ही जगद् गुरु कहलाने वाले वेदत्याग, नाना व्यसनों में आसक्त हो कर धर्म्मार्थ से रिक्त हो रहे हैं। परन्तु प्राचीन समय में जब कि सदाचार की प्रधानता थी जब कि

धर्म का राज्य था, उस समय यह दशा न थी। लोग नीच कर्म्म से भय खाते थे, और सत्कर्म्मोंद्वारा उत्तम बनने का प्रयत्न करते और बनते थे। जिन के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं॥

सत्य कामो ह जाबालो जबालां मातर मा मंत्रयां चक्रे “ब्रह्मचर्य्यंभवति! विवत्स्यामि” किंगोत्रोऽहमस्मीति?

** सा हैनमुवाच ‘नाहमेवं वेद तात! यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे। साहमेतन्न वेद यद्गोत्रस्त्वमसि। जबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम त्वमसि॥
स सत्यकाम एव जाबालो ब्रवीथा इति॥**

जबाला के पुत्र सत्यकाम ने अपनी माता जबाला से पूछा कि मातः मैं ब्रह्मचर्य वास करना चाहता हूं’ बता मैं किस गोत्रका हूं! उस ने कहा पुत्र मैं यह नहीं जानती तूं किस गोत्र का है मैं इधर उधर फिरती थी, मैने अपनी जवानी में तुझे पाया है सो मैं नहीं जानती तूं किस गोत्र का है हां मेरा नाम जवाला है और तेरा नाम सत्यकाम सो तूं यही**—**कहो कि मैं जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं॥

** सहारिद्रुमतं गौतम मेत्योवाच ‘ब्रह्मचर्यं भगवति वत्स्याम्युपेयां भगवन्तमिति॥३॥**

यह हारिद्रुमत (हरिद्रुमान के पुत्र) गौतम के पास आया और कहा भगवन् ! मैं आप के पास ब्रह्मचर्य वास करूंगा भगवन् मैं आप के पास आया हूं॥

तँहोवाच ‘किं गोत्रोनुसौम्यमिति, स हो वाच नाहमेतद्वेद भो! यद्गोत्रोऽहमस्मि’ अपृच्छंमा तरँ सा मा प्रत्यब्रवीत् “बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवनेत्वामलभे। साहमेतन्नवेद यद्गोत्रस्त्वमसि। सोऽहं सत्यकामो जाबालोऽस्मि भो! इति तँ होवाचनैतदब्राह्मणोविवक्तुमर्हति। समिधं सौम्या हरो पत्वानेष्ये न सत्यादगा इति॥

छांदोग्य प्रपा० ४-खं०४

गौतम ने उसे कहा कि सौम्य तूं किस गोत्र का है उस ने उत्तर दिया भगवन् मैं नहीं जानता कि मैं किस गोत्र का हूं। मैंने अपनी माता से पूछा था**—** उसने मुझे कहा कि इधर उधर फिरती हुई मैंने जवानी में तुझे पाया है सो मैं नहीं जानती तूं किस गोत्र का है हां मेरा नाम जबाला है तेरा नाम सत्यकाम सो हे भगवन् मैं जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं॥

तब उस ऋषि ने कहा यह बात अर्थात् ऐसी सचाई सिवाय ब्राह्मण के कोई नहीं कह सकता। जा सौम्य समिधा ले आ मैं तेरा उपनयन करूंगा क्योंकि तूं सचाई से नहीं गिरा है॥

२**—एवं ऐतरेय ब्राह्मण २—**१९ में कवष ऐलूषका इतिहास आता है।

** ऋषयो वै सरस्वत्यां सत्रमासत। ते वै कवष मैलूषं सोमार्तजयय दास्याः पुत्रः कितवो ऽब्राह्मणः कथं नोमध्ये दीक्षिष्टेत्यादि॥**

ऋषि लोग सरस्वती के किनारे यज्ञ करते थे। उन्हों ने कवष ऐलूष को यज्ञ से बाहर निकाल दिया क्योंकि वह एक तो दासी का पुत्र था दूसरा ज्वारी था पश्चात् इसने विद्या पढ़ने का ब्रत धारण किया और संपूर्ण ऋग्वेद पढ़ते २ उसको नये २ विषय प्रकाशित होने लगे यह देख ऋषियों ने उसे यज्ञ में बुलाया और उसको आचार्य बना कर यज्ञ की विधि को पूरा कराया।

और पीछे से यही कबष ऐलुष ऋग्वेद मं० १० अनु. ३ सू. ३०**—**३४ तक का ऋषि हुआ है॥

पृषध्रगुरु और गौ के वध से शुद्र वन गया।

३— पृषध्रस्तु गुरु गो बधाच्छूद्रत्वमगमत्।
विष्णु० पु० ४-१-१४

नेदिष्ट का पुत्र नाभाग कर्म वश से वैश्य बन गया॥

४—नाभागो नेदिष्ट पुत्रस्तु, वैश्यता मगमत्॥
वि० ४-१-१६

वीतहव्य राजा भृगु के वचन से ब्रह्मर्षि बना॥

५ — भृगोर्वचन मात्रेण स ब्रह्मर्षितां गतः।
भा० अनु० अ० ३०

युवनाश्व के पुत्र और**—**हरित हारीत हुए।
वह सब अंगिरा गोत्र के ब्राह्मण बने॥

६ —विश्वामित्रोऽपिधर्मात्मालब्ध्वा ब्राह्मण मुत्तमम्।
पूजयामास ब्रह्मर्षिंवसिष्टं जपतां वरम्॥

बा०रा०बा०स०६५

धर्मात्मा विश्वामित्र ने उत्तम ब्राह्मण पदवी पाई॥ इसादि उदाहरणों से प्रकट होता है कि कर्म वश से वर्ण परिवर्त्तन होता रहा है॥

म्लेच्छ यवनादिकों की उत्पत्ति
और परिवर्तन।

महाभारत शां. प. अ. १८८ श्लोक १८ में

भृगु वाक्य से यह दर्शाया गया है कि ब्राह्मण क्षत्रियादि चतुर्वर्णोंसे ही म्लेच्छ आदि वाह्य जातियों की उत्पत्ति है। इस की पुष्टि भारत-शांतिपर्व राजप्रकरण अ. ६५ मे इसप्रकार से की गई है।

यवनाः किराताः गान्धारा श्चीनाः शवरबर्वराः शका-
स्तुषारा कङ्काश्च पल्लवाश्चा ध्रमद्रकाः॥१३॥
चौड्रापुलिन्दारमठा काम्बोजाश्चैवसर्वशः ब्रह्मक्षत्र
प्रसूताश्च वैश्याः शूद्राश्चमानवाः॥१४॥

कि यवन (यूनान) किरात-कंधार चीनादि सम्पूर्ण जातियें ब्राह्मणादि चतुर्वर्णियों से ही उत्पन्न हुई हैं। अर्थात् क्रिया भ्रष्ट ब्राह्मणादिकों का ही नामान्तर है। यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है, कि वेद ने (ब्राह्मणोस्येत्यादि-यजु., अ. ३१) गुणानुसार-चार वर्णों का उपदेश किया और मनुने तदनुकूल यह सिद्धान्त किया**—**

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयोवर्णाद्विजातयः।
चतुर्थएक जातिस्तु शुद्रो नास्ति तु पञ्चमः।

ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों वर्ण द्विजाति हैं चौथा

शूद्र एक जाति है, पञ्चवां वर्ण नहीं है। तो फिर यह म्लेच्छादि क्या हैं और कहां से आगये हैं। इसका उत्तर देते हुए मनु महाराज लिखते हैं**—**

**शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गताः लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥ **मनु० १०-४३
पौण्ड्रकाश्चोड द्रिवडाः काम्बोजा यवनाः शकाः
पारदापल्हवाश्चीनाः किरातादरदा खशः॥४४॥
मुखबाहू रूपज्जानां यालोके जातयोवहिः।
म्लेच्छ वाचाचार्य भाषा सर्वेते दस्यवः स्मृताः॥४५॥

यह क्षत्रिय जातियें ही उपनयनादि क्रिया के लोप होजाने से और (वेदवेत्ता) ब्राह्मणों के न मिलने से शनैः २ वृषल होगईं (अर्थात् धर्म्महीन होगईं) और यवन म्लेच्छादि नामों से प्रसिद्ध होगई॥ आगे श्लोक ४५ में मनु वताते हैं, कि ब्राह्मणादि वर्ण ही क्रिया लोप से बाहिर की जातियें बनीं और वह जातियें, चाहे म्लेच्छ भाषा से युक्त थीं। या आर्य्य भाषा से, सब की सब दस्यु कहलाई। कुल्लूक भट्ट पौण्ड्रक आदि की व्याख्या करता हुआ लिखना है, कि**—**

पौण्ड्रकादि देशोद्भवाः क्षत्रियाः सन्तः क्रियालोपा दिना शूद्रत्वमापन्नाः।

यह पौण्ड्रादि देशोत्पन्न क्षत्रिय ही कर्म्मलोप से शूद्र बन गये।

न केवल क्रिया लोप से ही लोग म्लेच्छ बने, प्रत्युत इतिहासों के देखने से प्रतीत होता है, कि अनेक स्थानों में ब्राह्मणों ने

जुल्म से लोगों को म्लेच्छ बनाया॥ विष्णु पु. - अंश ४ अध्याय ३ में लिखा है, कि त्रिशंकु की वंश में वाहू नाम राजा हुआ वह हैहय ताल जंघादिकों से शिकस्त खाकर अपनी गर्भवती स्त्री के साथ जङ्गल में भाग गया। और वहीं, औखा ऋषि के आश्रम के पास उसकी मृत्यु हुई। जब उसकी स्त्री**—अपने आपको निराश्रय देख पति के साथ जलने लगी, तो औखा ऋषि ने उसको समझाया कि तुम मत जलो क्योंकि तुम गर्भवती हो तुम्हारे उदर से एक तेजस्वी पुत्र पैदा होगा जो शत्रुओं को जीतकर चक्रवर्ती राजा बनेगा इस प्रकार समझा बुझाकर उसको अपने आश्रम में ले आया। कुछ दिन बाद उसके हां लड़का जन्मा ऋषि ने जात कर्म्मादि संस्कार करा उसका नाम सगर रक्खा। और विधि पूर्वक समयानुसार उपनयन संस्कार करा शास्त्र और शस्त्र विद्या की शिक्षा दे निपुण किया। जब वह लड़का ज्ञानवान् हुआ उसने अपनी मातासे अपना वंश और वन में आने का कारण पूछा। जब माता ने सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा—**

ततश्च पितृराज्यहरणाय हैहयतालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञा मकरोत्॥२३॥

** अथैतान् वसिष्ठो जीवन्मृतकान् कृत्वासगर माह वत्स! अल मेभिर्जीवन मृतकै रनुमृतै रेनैः च मयै वत्वत्प्रतिज्ञा परिपालनाय निजधर्म्म द्विजसंग परित्याग कारिताः॥२५॥**

तबउसने अपने पिता का राज्य वापस लेने के लिये शत्रुओं के मारने की प्रतिज्ञा की। जब उसने बहुत से हैहयताल जङ्गादिकों

का नाश किया, तब वह लोग अपनी रक्षार्थ, सगर के कुल गुरु वसिष्ठ की शरण में गये।

तब वसिष्ठ ने उनके जीवन्मृतक अर्थात् जीते ही मरे हुए करके सगर को कहा, कि पुत्र अब इन मरों हुओं को मत मारो। मैंने तुम्हारी प्रतिज्ञापूर्ति के लिये इनको अपने धर्म्म और द्विजों के संग से बाहर करदिया है। अर्थात् इनको जाति से बाहर कर दिया है।

** स तथेति तद्गुरुवचनमभिनन्द्य तेषां वेशान्यत्वम कारयत्। यवनान् मुण्डित शिरसोऽर्द्ध मुण्डान् शकान्प्रलम्बकेशान् पल्हवांश्चस्मश्रुधरान् निः स्वाध्यायवषट् कारान् एतानन्यांश्च क्षत्रियांश्च कार। ते चात्म धर्म्म परित्यागात् ब्राह्मणैश्च परित्यक्ताः म्लेच्छतां ययुः॥२६॥**

तब सगर ने अपने गुरु के वचन को स्वीकार करके उनके वेशों में परिर्वतन कर दिया, जैसे किसी का सिर मुंडवा यवन नाम दिया किसी के केश रखवा दिये और शव नाम रक्खा और किसी की दाढ़ियें रखवा दीं, उनका पल्हव आदि नाम रखा और उन सब को स्वाध्याय आदि से बाहर कर दिया। इस प्रकार वह सब अपने धर्म के त्यागतथा ब्रह्मणों के त्याग से म्लेच्छ होगये। इत्यादि प्रमाणों से न केवल यह ही सिद्ध होता है, कि ब्राह्मण ही केवल कर्म्मभेद से क्षत्रिय वैश्य और शुद्र बने प्रत्युत निस्सन्देह यह भी मानना पड़ता है कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र ही ब्राह्मणों के अदर्शन तथा क्रिया लोप से म्लेच्छादि जातियें बनीं। और आर्य्योसे बाहिर की गंई ॥

अब देखना यह है, कि इनका अर्थात् म्लेच्छादिकों का पुनः परिवर्तन कैसे होता है। परन्तु इस से प्रथम यह बात याद रखनी चाहिये कि द्विज का अर्थ, दो जन्मों का है जो कि उत्पत्ति और यज्ञोपवीत संस्कार से मिलते हैं। जैसा कि धर्म्मशास्त्रकारों ने**—**

मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौज्जी बन्धनात्।
ब्रह्म क्षत्रिय विशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः॥

मनु० २-३२ प्रतिपादन किया है॥

इसी द्विजत्व अथवा यज्ञोपवीत संस्कार के लिये जिसके बिनाकोई द्विज बन नहीं सकता ऋषियों ने भिन्न २ समय नियत किये जैसा कि**—**

**गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥**मनु २।३६

आषोडशाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नाति वर्त्तते।
आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धो रा चतुर्विंशतेर्विशः॥३८॥
अत ऊर्द्ध त्रयोऽप्येते यथाकालम संस्कृताः।
सावित्री पतिता ब्रात्या भवन्त्यार्य विगर्हिताः॥३९॥

गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण कुमारका, गर्भ से एकादश वर्ष में क्षत्रिय और द्वादश में वैश्य का उपनयन संस्कार हो। सोलह वर्ष पर्य्यन्त ब्राह्मण की बाईस वर्ष पर्य्यन्त क्षत्रिय चौबीस वर्ष पर्य्यन्त वैश्य की सावित्री नहीं जाती। अर्थात् यज्ञोपवीत कालकी यह परमा वधि है।

इसके उपरान्त (यज्ञोपवीत न होने से) सावित्री पतित हो जाते हैं तब उनकी संज्ञा ब्रात्यहोती है और वे आर्य्यों में निन्दित गिने जाते हैं।

इस पर एक व्यवस्था रणबीर कारित प्रायश्चित्त से उद्धृत की जाती है ताकि पाठक स्वयं अनुभव कर सकें कि किस प्रकार एक द्विजाति यज्ञोपवीत के न होने से निकृष्ट जाति बनजाता है, और पुनः कैसे उच्च होता है। देखो रणबीर कारित० प्रा ०प्र० १२ पृ० ९७।

अथ ब्रात्यता।

** ब्रात्य इति—ब्रात शब्दादि वार्थे य प्रत्ययेन निष्पन्नः, यद्वा बात मर्हतीति— ब्रातं नीचकर्म ‘दण्डादिभ्योय’ इति ब्रात्यः। शरीरायासजीवी व्याधादिकोऽष्टाविंशति संस्कारहीनो भ्रष्टगायत्रीकः। षोडशवर्षादूर्ध्वमप्य कृत ब्रतबन्धो दानाद्यकर्त्ता दिजो ब्रात्य इत्यमर टीका राजमुकुटी।**

** (ब्रातच्फजोरस्त्रियाम्) इति सूत्रे कौमुद्यांतु नाना जातीया अनियतबृत्तयः।**

** उत्सेधजीविनः संघा ब्राता इति।**

ब्रात्यानाहमनुः

द्विजातयः सवर्णासु जनयन्त्य ब्रतांस्तुयान्।
तान् सावित्री परिभ्रष्टान् ब्रात्यानिति विनिर्दिशेत्॥

मनुः १०-२०।

ब्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्माभूर्जकण्टकः
आवन्त्यवाढ धानौच पुष्यधः शैख एवच।२१।
झल्लो मल्लश्च राजन्याद्ब्रात्यान्निच्छिवि रेवच।
नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एवच।२२।
वैश्यात्तु जायते ब्रात्यात् सुधन्वाचार्य एवच।
कारुषश्च विजन्माच मैत्रः सात्वत एवच।२३।

अब ब्रात्य का प्रायश्चित्त कहने वास्ते पहले ब्रात्यशब्द का अर्थ करते हैं ब्रात्य इति। ब्रात शब्द के परे सादृश्य अर्थ में “य” प्रत्यय आने से ब्रात्यशब्द सिद्ध हुआ।

दूसरा अर्थ**—**ब्रात जो है नीचकर्म तिसके योग्य जो होवे (दण्डादिभ्योयः) इस सूत्र करके “य” प्रत्यय आया तव ब्रात्यसिद्ध हुआ। सो किसका नाम है कि शरीर के आयास करके जीवका करनेवाले (जो व्याधादिक) भारवाहक हैं अठाईस संस्कारों से भ्रष्ट और सोलह वर्ष से उपरान्त नहीं हुआ यज्ञोपवीत जिसका और दानादि के न करने वाला जो द्विज तिसका नाम ब्रात्य है। यह अमर कोष की राजमुकुटी टीका में लिखा है। (ब्रातच्फजोरस्त्रियाम्) यह जो कौमुदी का सूत्र है इसमें बहुत जाति वाले और नहीं है नियम करके वृत्ति जिनकी अर्थात् कभी भारका कर्म करना कभी लकड़ी का वा चर्म का काम करना और शरीर करके जीविका करने वाले इनका जो समूह है तिसको ब्रात्य कहते हैं।

तैसेही ‘ब्रातेन जीवति’ इस सूत्र से ब्रात क्या शरीर से आयास करके जीविका करता है बुद्धि करके जीविका न करे यह अर्थ है।

“ब्रातेन जीबति” इस सूत्र में महाभाष्य का भी प्रमाण करते हैं (ब्रातमित्यादिना) अब ब्रात्यों को मनु जी कहते हैं जो ब्राह्मण क्षत्री, वैश्य समान जाति की स्त्री में ब्रतरहित उत्पन्न होवें और गायत्री भ्रष्ट होवें उनका नाम ब्रात्यहै और उनसे आगे निम्नसंज्ञिक सन्तान उत्पन्न होती है।

ब्रात्यब्राह्मण से तुल्यजाति की स्त्री में जो सन्तान उत्पन्न हो उसका नाम भूर्जकण्टक है। तथा आवन्त्यवाढ, पुष्यध, शैखयह एकही देश भेद से प्रसिद्ध नाम हैं।

ब्रात्यक्षत्रिय से समान जाति की स्त्रिये उत्पन्न होने का नाम झल्ल, मल्ल, निच्छिवि, नट, करण, खस, द्रविड़ है।

ब्रात्यवैश्य से समानजाति की स्त्री में उत्पन्न सन्तान का नाम सुधन्वाचार्य, कारूप, विजन्मा, मैत्र, सात्वत हैं इस लेख से पाठकगण स्वयं जान गये होंगे कि पूर्वोक्त व्यवस्थानुसार चर्मकार तथा नट आदि भी ब्रात्यहैं जिनको स्मृतिकारों ने अन्त्यजमाना है। इत्यादि व्यवस्था बतलाकर आगे प्र० पृ० १०३ में इनकी शुद्धि का वर्णन करते हुए आपस्तम्ब सूत्र में व्यवस्था दी है कि :—

** “यस्य प्रपितामहादे रूपनयनं न स्मर्यते, तत्रार्थादे तेषामपि पुरुषाणामनुपनीतत्वं’ ते सर्वेश्मशानवद शुचयः तेष्वागतेष्वभ्युत्थानं भोजनंच वर्जयेत् आप द्यपि नकुर्य्यादित्यर्थः। तेषां स्वयमेव शुद्धि मिच्छतां प्रायश्चित्तानन्तर मुपनयनम्।**

जिनके प्रपिता मह आदि से यज्ञोपवीत न हुआ हो, उनको भीअनुपनीतत्व है, वह श्मशान के तुल्य अपवित्र हैं, इनके आने परर खड़ा होना अथवा उनसे खान पान आपत्ति में भी नहीं करना चाहिये। यदि वह अपनी शुद्धि की इच्छा करें तो उनको प्रायश्चित्त कराकर यज्ञोपवीत दे देना योग्य है।

तत ऊर्ध्वं प्रकृतिवत् १—आपस्तंव–१–१–२।

और प्रायश्चित्त के अनन्तर प्रायश्चित्ती अपनी प्रकृति अर्थात् अपने असली वर्ण को प्राप्त करता है। और इसके सम्पूर्ण कर्म प्रथमवर्ण के होते हैं।

यही आज्ञा मनुः ११–१८८ में पाई जाती है।

“सर्वाणि ज्ञाति कर्म्माणि यथापूर्वं समाचरेत्”

शुद्ध हुआ पुरुष पहिले की तरह अपने वर्ण के कर्म करे।

इसी नियम अनुसार भारत के सुप्रसिद्ध विद्वानों ने रणबीर कारित मायश्चित्त में इन सब वाह्यजातियों की ब्रात्य संज्ञा मानकर ब्रात्यप्रायश्चित्त से ही शुद्धि की व्यवस्था दी है देखो रणबीर प्रका० प्रा० प्र० १२।

**उपपातक शुद्धि स्यादेवं चान्द्रायणेन वा।
पयसा वापि मासेन पराकेणाथवा पुनः॥**या० प्रा० प्र० ५

याज्ञवल्क्यजी का सिद्धान्त है कि इसी प्रकार अर्थात् गोबधआदि के तुल्य सम्पूर्ण उपपातकियों की शुद्धि एक मास पर्यन्त पंचगव्याशन, चान्द्रायण, वा मासभर दुग्धपान अथवा पराक व्रत

से होती है। इसप्रकार मिताक्षराकार व्यवस्था देता है कि :—

** एतच्चा कामकारे शक्त्यपेक्षया विकल्पितं ब्रत चतुष्टयं द्रष्टव्यम्। कामचारे चाह मनुः**

एतदेव ब्रतं कुर्यादुपपातकिनो द्विजाः।
अवकीर्णिवर्ज्जंशुद्ध्यर्थं चान्द्रायण मथापिवा।

यह अज्ञान से करने वालों के लिये शक्त्यनुसार चार विकल्पित ब्रत अर्थात् इनमें से शक्ति देखकर कोई एक ब्रत करावें। इच्छा पूर्वक उक्त पाप करने से मनु कहता है कि उपपातकी बिना अवकीर्णि के अपनी शुद्धि के लिये त्रैमासिक ब्रत अथवा चान्द्रायण ब्रत करें।

यदि मनु के कथनानुसार यह सत्य है कि सम्पूर्ण जातियें क्रियाहीन द्विजाति ही हैं। और यदि यह सत्य है कि नट आदि गायत्री भ्रष्ट द्विजों की ब्रात्यसन्तान है। तो यह भी सत्य हैं किः-

(तेषां स्वयमेव शुद्धि मिच्छतां प्रायश्चित्तानन्तर मुपनयनम्)

आपस्तम्ब - १।१।१।१।

यदि वे अपनी शुद्धि की इच्छा करें तो उनको प्रायश्चित्त कराकर यज्ञोपवीत दे देना चाहिये।

यदि विष्णुपुराण के कथनानुसार यह सत्य है कि :—

क्षत्रियाश्चते धर्म परित्यागाद्ब्राह्मणैश्च परित्यक्ता म्लेच्छतां ययुः॥(वि० प्र० ४।३)

यह सब क्षत्रिय अपने धर्म के त्याग, और ब्राह्मणों के त्याग से म्लेच्छ बनें। तो क्या यह सत्य नहीं कि भारतवर्ष की वर्त्तमान सूरी, सेठी, चढ्ढे, पगारे, स्याल, सैणी, माली, मलखान,

राजपूत, गुज्जर, डोगर, कम्बोह, बढ़ई, काछी, कोली, नाई, छीचे, खखे, पबेआदि मुसलमान जातियें औरङ्गजेब आदि मुसलमानों के जुल्म से अपना धर्म छोड़ मुसलमान बनी? यदि बनी हैं अथवा बनाई गई हैं तो क्या ऋषियों की आज्ञा नहीं? कि :—

देशभङ्गे प्रवासेच व्याधिषु व्यसनेष्वपि।
रक्षेदेव स्वदेहादि पश्चाद्धर्मं समाचरेत्॥

(पराशर ७।४१)

देश के उपद्रव, प्रवास, व्याधि और व्यसन (मुसीवत) में येन केन प्रकार से अपने शरीरादि की रक्षा करे, पीछे शान्ति के समय में धर्म (प्रायश्चित्त) करले! क्या इसी का प्रायश्चित्त ऋषि ने नहीं बताया? कि :—

तेषां प्रायश्चित्तं मासं पयोभक्ष्यं गामनुगच्छेत्।
यश्चीर्ण प्रायश्चित्तस्तं बसिष्ट ब्रतै रूपनयेयुः।
यथा प्रकृतिर्ऋतुछन्दो विशेषात्॥
(हारीतः)

देश के उपद्रव आदि से जिनका यज्ञोपवीत उतारा गया हो उनके लिये यह प्रायश्चित्त है कि वे मास पर्यन्त दुग्ध पान करें और गौकी सेवा करें पुनः यज्ञोपवीत धारण करें। जो पुरुष यम तथा हारीत की आज्ञानुसारमास पर्य्यन्त प्रायश्चित्त करले उसको वसिष्ट के ब्रतानुसार यज्ञोपवीत डालना चाहिये। जैसी प्रकृति(अर्थात् जिस वर्ण से भ्रष्ट हुआ हो उसी के अनुसार ऋतु और छन्द हो, जैसे बसन्त यह ब्राह्मण का इत्यादि।

३**—** क्या यह सत्य नहीं कि :–

बलाद्दासी कृतोम्लेच्छैश्चांडालाद्यैश्च दस्युभिः।
अशुभं कारितं कर्म गवादि प्राणि हिंसनं।९।
उच्छिष्ट मार्जनं चैव तथा तस्यैवभक्षणं।
तत्स्त्रीणां तथा संगस्ताभिश्चसहभोजनं।१०।
कृच्छ्रान्संवत्सरं कृत्वा सां तपनान् शुद्धिहेतवे।
ब्राह्मणःक्षत्रियस्त्वर्धं कृच्छ्रान् कृत्वा विशुद्ध्यति।११।
मासोषितश्चरे द्वैश्यः शूद्रः पादेन शुद्ध्यति॥(देवतः)

जिनको म्लेच्छों वा चाण्डालादिकों ने वल से दास बना और उस से गौहत्याआदि नीच कर्म कराये हों उसने म्लेच्छों की जूठ मार्जन की हो, वा उनकी जूठ खाई हो, उनकी स्त्री साथ मैथुन किया हो अथवा साथ खाया हो, तो ब्राह्मण एक वर्ष कृच्छ्र सांतपनकर, क्षत्रिय छः मास कृच्छ सांतपन करके शुद्ध हो जाता है, वैश्य एक मास उपवासकर, और शूद्र चौथा भाग करके शुद्ध होजाता है।

इसी शास्त्राज्ञा के अनुसार आर्य्य समाज पतित म्लेच्छादिकों को शुद्ध करता है। इसी नियमानुसार वर्त्तमान भारत राजपूत शुद्धि महासभा पतित मुसलमान (राजपूतों) को शुद्ध कर रही है। और इसी भाव से श्रीशङ्कराचार्य के मठाधीश जगद्‌गुरु ने भी व्यवस्था दी है कि जो परिवार किसी कारण से पतित हो दूसरों में आमिला हो उसका परिवर्त्तन हो सकता है। और इसी के अनुसार इस समय न केवल साधारण सनातन धर्मी सहस्रों लवाणा आदि (मुसलमानों को शुद्ध करते हैं

प्रत्युत हर्ष से कहा जाता है कि वर्त्तमान सतातन धर्म्म महापरिषद् ने भी गत वर्ष १९०८ ई० में नासिक सतातन धर्म महा परिषद में इस विषय की पर्यालोचना की जो प्रस्ताव उस सभा में पढ़ा गया पाठकों के उत्साह के लिये उसको उद्धृत किया जाता है।

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नासिक सनातनधर्म्म महापरिषद् में वक्तृता

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731398943Screenshot2024-11-10194120.png"/> पतित परावर्त्तन <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731398943Screenshot2024-11-10194120.png"/>

जो हिन्दू विधर्मी होगये हैं उनको पुनरपि अपने धर्म्म में लेना।

मान्यवर सभापति ओर सभासद् महाशया !!

आप लोगों ने मुझे यह मन्तव्य प्रस्ताव करने का सन्मान दिया है कि जो हिन्दू विवश होकर विधर्मी होगये हैं उनकी शुद्धि कर पुनरपि उनको अपने धर्म्म में ले लिया जावे। विषय नितान्त गम्भीर उत्कृष्ट प्रयोजनीय और पूर्ण रूप से धार्म्मिक हैं। मैं इसकी प्रस्तावना में नितान्त अयोग्य एवम् अक्षम हूं तथापि समागत महाशयों के अनुग्रह बल से बलवान् किये जाने के भरोसे पर तथा इस कार्य को सम्पादन करने के लिये खड़ा किया गया हूं इस विचार से आप लोगों की आज्ञापालन करने को उद्यत हूं। प्रार्थी भाव से आप लोगों के सन्मुख यथा शक्ति निवेदन करता हूं, परन्तु मैं स्वयम् अक्षम हूं मुझ से त्रुटियां अवश्य होंगी आशा है कि आप लोग उनकी ओर ध्यान न देकर मुझे क्षमा करेंगे।

जगत् के सभी वर्त्तमान अथवा पूर्वकाल के नये वा पुराने धर्म्म, देश और जातियों के इतिहासों में देखा जाता है कि किसी किसी धर्म्म, जाति देश पर कभी २ घोर विपत्ति आ पड़ती है। असंख्य मनुष्यों को विवश होकर अपना धर्म्मऔर स्वजन मंडल त्याग कर विधर्मी और विजातीय वनना पड़ा है। यद्यपि उनकी पर धर्म स्वीकार करने की इच्छा न थी। कण्ठगत प्राण होने पर ही उनको इस दुर्दशा में पड़ना पड़ा है तथापि उनका धर्म बल पूर्वक उन से छीन कर उनको विधर्मी होना पड़ा है।

जिस समय मनुष्य निरुपाय होजाता है, अपना धर्मऔर अपनी जाति की रक्षा करने के लिये अपनी दृढ़ इच्छा, अपने प्राण और अपनी तलवार एक ही मुट्ठी में लेकर जोड़ वे जोड़ का भी ध्यान भूल जाता है उस समय उसको “मरों मारों” के सिवाय और कोई उपाय नहीं सूझता परन्तु तब भी सम्भवतः अपने को दूसरों से पराजित किया हुआ देखता है और विवश होकर उसको अपने धर्म और जाति के लिये तिलाञ्जली देनी पड़ती है पर धर्म अङ्गीकार करना पड़ता है पर जाति में सम्मिलित होना पड़ता है और घोर शोक सन्ताप घृणा दुःख का भागी बनना पड़ता है। एक बीर पुरुष इसके अतिरिक्त और क्या कर सकता है?

ऐसी दशा में उनके धर्म और जाति के लोग उनके सहायक होते हैं। समय और सुकाल उपस्थित होने पर उनको फिर भी अपनी जाति और धर्म में ले लेते हैं और इस प्रकार उनके स्वधर्माभिमान, भक्ति, और अनुराग की सच्ची प्रतिष्ठा, सहानुभूति और यथार्थ आदर कर वास्तविक स्वजनत्व, आत्मीयता, पौरुषेय उदार सौहार्द न्याय का परिचय देते हैं। “जातिगङ्गा गरीयसी” यह एक

सर्व मान्य लोकोक्ति है। अन्याय क्लेशित सजातीय के मति सहायता कर इस लोकोक्ति की अशेषमर्यादा को वे प्रत्येक्ष चरितार्थ करते हैं।

मान व जाति की न्याय सिंहासनासीना बुद्धि में भी यह बात नहीं आती कि एक निरपराध स्वजन को दूसरों के अपराध के कारण क्यों दण्डित किया जावे। स्वधर्म में उसकी श्रद्धा, बुद्धि और अनुराग रहते हुए तथा स्वजाति में उसका अनुराग और अभिमान करते भी यदि उसका धर्म उससे छूट गया है अथवा छुड़ा लिया गया है तो पीढ़ी दरपीढ़ी के लिये उसको धर्म और जाति से बाहर निकाल कर उसको ऐसा घोर कठोर और निष्टुर दण्ड क्यों दिया जावे।

परन्तु साम्प्रति काल में हिन्दू जाति के भीतर यह प्रथा प्रचलित नहीं है। साम्प्रति काल में इसलिये कहता हूं कि अतः पूर्व पतित परावर्त्तन की प्रथा प्रचलित थी। जब जब हिन्दू धर्मावलम्बी कोई समूह धर्मच्युत हुआ है तब ही तब शुद्धि करने के उपरान्त वह पुनरपि हिन्दू मण्डल में अङ्गीकार किया गया है। मैंने शङ्कर दिग्विजय पढ़ी नहीं है परन्तु प्रचलित लोक कथा कई बार सुनी है, जिससे जाना गया है कि लाखों बौद्धों को भगवान् शङ्कराचार्य ने ग्रहण कर लिया था। ब्राह्म तेज पुञ्ज कुमारिल भट्टने भी ऐसा ही किया था।

टाड साहव अपने राजस्थान के इतिहास में कहते हैं कि एक बार हिन्दू साम्राज्य सिंहासन पर महा विपत्ति पड़ी थी। उस समय हूण और मीर आदि जातीय वंशोंने हिन्दू राजमुकुट की रक्षा करने के लिये तथा हिन्दू देश वंश और धर्म के अस्तित्व और मान मर्यादा

के लिये अपने प्राण दिये थे। कदाचित् उसी उपकार के बद‌ले सत्कार वा प्रत्युपकार करते हुए हिन्दूनरनाथ चित्तौरनाथ ने इन्हें अपना बना लिया और हिन्दू राजवंशों के २६ प्रशस्त प्रमुख राजवंशों में इन की गणना की।

अस्तु वही बात अब भी है। अनेक हिन्दू राजवंश राजा महाराजा सेठ साहूकार प्रभुत्वशाली वर्तमान प्राचीन आचायों की अनेक गद्दियां अब भी हिन्दु धर्म पर अपना शासन और गौरव सम्पादन कर रही हैं। धर्म धुरन्धर महात्मा पण्डितगण आज भी प्रायः सर्वत्र उन्हें सविनीत मस्तक प्रणाम कर उनके आदेश की राह देखते हैं। अतएव समझ में नहीं आता कि ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जावे। अपने धार्मिक और सामाजिक बल का कुछ कम प्रभाव नहीं है समाचारपत्र समुदाय की एक नयी और सार्वजनिक शक्तिकेन्द्र का आविर्भाव होने पर भी वृटिश गवर्नमेण्ट की शान्ति स्थापिक धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त साम्राज्य में भी हम लोग यदि इस विषय को नहीं उठायें तो फिर इससे अच्छा और कौनसा अवसर होगा।

हर्ष की बात है कि उस समय के लिये अब बहुत दिन तक ठहरना नहीं पड़ेगा । श्रीसनातन भारतधर्म महापरिषद् ने उस विषय को उठाया है और आशा है कि उस में पूर्ण सफलता होगी। अब यह देखना चाहिये कि शुद्धि के लिये कौन से समूह हैं और इसके प्रचार के लिये कौन कौन से उपायों का अवलम्बन करना होगा।

अभी थोड़े दिन हुए जोधपुर के राजपद प्रतिष्ठा प्राप्त विद्वद्वर मुंशी देवीसहायजीने एक पुरानी पुस्तक जोधपुर राज पुस्तकालय से प्राप्त कर उसका भाषानुवाद छपाया हैं। हमारे “भारतमित्र के” सम्पादक बाबू बालमुकुन्द गुप्तने इस पुस्तक की समालोचना की है।

इससे बहुतसी बातों का ज्ञान प्राप्त होता है। उसमें एक विषय यह भी है कि बहुतसे क्षत्रिय राजपूत आदि उच्च कुलके हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों द्वारा बलात् मुसलमान बनाये जाने से बचने के लिये और कुछ उपाय न देखकर सब जनेऊ उतार २ शूद्र बन गये और माली इत्यादि का काम करने लगे। राजपूताने में कई गांव ऐसे प्रशंसनीय हिन्दू धर्माभिमानी हिन्दू बंशों के हैं। इधर मथुराजी में बहुत से ब्राह्मण ऐसे ही कारणों से बढ़ई का काम करने लगे और बढ़ई होगये और अपने २ मूल द्विजातीय शाखाओं से सम्बन्ध छोड़ दिया।

ऐसे ही फिर मथुरा आगरा की ओर एक जाति “मलखान” नाम से प्रसिद्ध है। इन के गले में तुलसी की माला पड़ी है धोती कटि प्रदेश में विराज रही है। रामनाम मुँह में और हृदय में विराज रहा है। खाना पीना देखिये तो वही चौके में पीढ़े पर बैठे हुए हिन्दू रीति नीति से होरहा है। पर इन हिन्दू धर्माभिमानी बीरों से पूछिये कि कौन जाति हो तो कहते हैं कि मुसलमान हैं? बेचारे हमारे बह भाई और क्या कहें जब उन्हें हम अपना नहीं कहते। वह हिन्दू होना भी चाहते हैं जिसके वह कुल वृक्ष हैं पर हम लोग उन्हें पराया ही रक्खा चाहते हैं अपनी ही सन्तान को मुसलमान रखना चाहते हैं तो वे और क्या बनें ?

उस समय सम्भव था कि हिन्दू जाति इनके इस स्वधर्म और स्वजाति के अभिमान और अनुराग का पुरस्कार उन्हें न दे सकी हो फिर वही धार्मिक सामाजिक पद प्रतिष्ठा मान गौरव और स्बत्वाधिकार न देने का कोई विशेष कारण हो। संभव हैं कि हिन्दूजाति ने यह सोचा हो कि यह बहादुर लोग जो छिप छिपाकर भी हिन्दू

बना रहना चाहते हैं और मुसलमानी बादशाही लालच में अथवा उसके धार्मिक समान पद प्रलोभन में आकर अपना धर्म छोड़ने की कायरता नहीं दिखलाया चाहते वह यदि पुनः अपने उस द्विजातीय पद मर्यादा प्रतिष्ठित और स्थापित कर दिये जांय तो उनका अभीष्ट ही न सिद्ध हो क्योंकि इस बात के प्रकाश होजाने पर उस समय के मुसलमान जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यो को ढूंढ़ २ कर ज़बरदस्ती मुसलमान बना दिया करते थे इन बेचारों को भी द्विजाति जानकर हिन्दू न रहने देते और मुसलमान बना डालते। अस्तु हिन्दू जाति के अग्रणी लोगों ने ऐसे दुरवसर पर चुप रहना ही उचित और नीति युक्त समझा।

परन्तु अब वह बात नहीं हैं। वृटिश गवर्नमेण्ट का सुराज्य है। बाघ बकरी एकही घाट पानी पी रहे हैं। क्या ऐसे अवसर में भी वह अपने इस पीढी दर पीढ़ी के स्वधर्माभिमान स्वजात्याभिमान का आदर प्रतिष्ठा हिन्दू जाति से न पावेंगे। उस समय जो द्विजाति हिन्दू मुसलमान होजाता था उसे बादशाह की ओर से उसकी इसियत से कई गुनी बड़ी सम्पत्ति जागीर वा नौकरी के रूप में दीजाती थी। इस धन का लोभ न कर, इसकी चिन्ता न कर द्विजाति से शूद्र बनकर भी उन लोगों ने अपना धर्म रक्खा अपने हिन्दू होने का अभिमान रक्खा। क्या यह थोड़े आत्मिक साहस (Courage) और थोड़े आत्मिक बल (Moral Force) का काम हैं? प्राणी सभी तो योद्धा नहीं होते और न सब को युद्ध विद्या आती है कि लड़कर प्राण दे देते । अस्तु इनका आध्यात्मिक बल प्रशंसा और पुरस्कार के योग्य है। सुतरां अपने पूर्व्व पद गौरव में पुनः प्रतिष्ठित कर दिए जाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार से

हमारी समझमें हमारी धर्म और न्याय बीर हिन्दू जाति उन के हड़ पुरुषार्थ वा उनके स्वधर्म भक्ति और ममत्व का सन्मान तथा प्रत्युत कार नहीं कर सक्ती?

ऐसे शूरवीर पतितों को फिर से शुद्धिकर धर्म वा जाति में लेने की आज्ञा है— वा नहीं यह मैं नहीं जानता। मैं संस्कृत और धर्म शास्त्र से नितान्त अनभिज्ञ हूं और जो कुछ पण्डित गुरुजनों की सेवा में प्रार्थना कर रहा हूं– बह आप सब जानते हैं। परन्तु अनुमान ऐसा ही है कि ऐसा कोई प्रमाण अवश्य होगा। धर्मशास्त्र में लिखा है– कि ऐसी सबारी जिसमें एक सहस्त्र से अधिक लोहे के कीले कांटे लगे हों तो उसमें बैठकर खाने पीने से छुवा छूत का दोषनहीं लगता और पुरुष धर्मभ्रष्ट नहीं होता क्योंकि वह अशक्यता और विवशता की बात होजाती है। इसके अतिरिक्त आप लोग सब जानते हैं कि महर्षि विश्वामित्र ने एक समय दुर्भिक्ष पड़ने पर अन्न न मिलने पर चाण्डाल के घर जाकर कुत्ते का मांस खाकर प्राण रक्षा की थी। वह इतने बढ़े ब्रह्मतेज पूर्ण तपोबल वाले थे कि वह चाहते तो अपने तपोबल से करोड़ों मन अन्न उपस्थित कर सक्ते थे अथबाअपने तपोबल से दो चार दिन क्या दो चार वर्ष बिना कुछ खाए पीए केवल वायु भक्षणकर प्राण रक्षा कर सक्ते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और चाण्डाल के बतला देने पर भी तथा उसके निवारण करने पर भी कुत्ते का मांस खाकर ही अपने प्राणों की रक्षा करनी चाहा इसीलिए कि उन्होंने देखा कि ऐसा करने से कुछ हानि नहीं है न धर्म्मवा जाति से पतित होनाही है आपत्तिकाल में मनुष्य विवश होकर किसी प्रकार अपनी रक्षा करता है यह उसका स्वाभाविक नियम है; अस्तु जो काम मनुष्य

का साधारण वा स्वाभाविक नियम से निकल जाना सम्भव है उसके लिये तपोबल का प्रयोग करना वा धर्म की दुहाई मचाना मानो आडम्बरात्याचारका प्रचार कराने के लिये उदारण बनना है। जो सर्वदा ऋषियों को इष्ट नहीं है।

अस्तु जब द्वापर त्रेता मे ऐसा नियम सिद्ध होता है तो कलियुग में जब कि प्रजा दिनों दिन दुर्बल होती जाती है तो क्या उसे दया शील विधि का अधिकारी होना अनुचित होगा? फिर जब अन्याय और अत्याचार द्वारा बलात् विधर्मीय बनाया गया हो तो उसे पुनः अपने धर्म्मऔर जाति में स्थापित कर देना और भी न्याययुक्त बोध होता है। क्योंकि ऐसान होने से जिज्ञासा देवी प्रश्न उठाती है कि किसने सचमुच अन्याय अत्याचार किया उस विधर्मीय उस पराए ने जिसने इसका जबरदस्ती इसका धर्म छुड़ा कर विधर्म्मीय बना दिया परन्तु “अपना” बना लिया! अथवा इस स्वधर्मी स्वजातीय ने जिसने अपने एक स्वधर्मीय को अपनी जाति पांति में नहीं रक्खा क्योंकि (१) किसी पराए ने उसे बलात् “बेधर्म” कर दिया। (२) उसे पराया मानना आरम्भ कर दिया। यद्यपि वह बेचारा हिन्दू रहने के लिए उत्कण्ठित है और अपनी लाचारी से लाचार है। कहिये कौन अत्याचारी है हम स्वयं या वह विधर्मीय विजातीय?

निदान मैं अव अधिक दीर्घ सूचना अपनी बिनती में नहीं किया चाहता। और यह कहकर अन्त करता हूं कि आप महाशय गण! पतितपरांवर्त्तन पर ध्यान दें जिससे यह कार्य सफल हो। शक्तिकेन्द्र भी यही समझे कि हिन्दू सर्वसाधारण सच्चे धर्मानुरोध से सहानुभूति और कल्याणेच्छा से अपनी उन्नतिके लिये उन

शक्तिकेन्द्रों से यह आशा लाभ करने के प्रार्थी हैं। इसलिये प्रत्येक पढ़े लिखे हिन्दू सन्तान का काम है कि कुछ आर्थिक सहायता करके श्री सनातन भारत धर्म परिषद् में एक फण्ड स्थापित करादे जिसमें उन उन शक्तिकेन्द्रों से लिखा पढ़ी आरम्भ करदें और काम पूरा पड़े। और उद्योग इस कार्य की सफलता के लिये करने पड़ेंगे उसे विशेष कमेटी स्थिर करेगी। इत्यलम्।

  जय विजय नारायणसिंह बरांव।              

(वेङ्कटेश्वर)

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>पुराणों में १० सहस्र मुसलमानों की शुद्धि<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-173108612782.png"/>

इस समय जब कोई मुसलमान वा अङ्गरेज शुद्ध होता है तो कई एक धर्मानभिज्ञ लोग कह उठते हैं कि यह भ्रष्टाचार हैं अधर्म है इत्यादि।

उन लोगों को दर्शाने के लिये पुराणों का एक इतिहास उद्धृत किया जाता है, ताकि उन भोले हिन्दुओं को प्रतीत हो कि उनके पूर्वजों ने न केवल अपने देश में प्रत्युत दूसरे देशों में जाकर अपने पवित्र धर्म के प्रभाव से सहस्रों मुसलमानों को शुद्धकर शूद्र बैश्य और क्षत्रिय की पदवियें दीं।

देखो भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्बखं० ४ अ० २१।

सरस्वत्याज्ञया कण्वो मिश्र देशमुपा ययौ।
म्लेच्छान् संस्कृत्य चा भाष्य तदा दशसहस्रकान्।१६
वशी कृत्य स्वयं प्राप्तो ब्रह्मावर्त्तेमहोत्तमे।
ते सर्वे तपसा देवीं तुष्टवुश्च सरस्वतीम्।१७
पञ्च वर्षान्तरे देवी प्रादुर्भूता सरस्वती।
सपत्नीकांश्च तान् म्लेच्छान् शूद्रवर्णायचाकरोत्। १८

कार वृत्तिकराः सर्वे बभूवु र्बहुपुत्रकाः।
द्विसहस्रास्तदा तेषां मध्ये वैश्याः बभूविरे।१९
तन्मध्ये चाचार्य पृथु र्नाम्ना कश्यप सेवकः।
तपसा च तुष्टाव द्वादशाब्दं महामुनिम्।२०
तदा प्रसन्नो भगवान् कण्वो वेद विदांवरः।
तेषां चकार राजानं राजपुत्र पुरं ददौ। २१

सरस्वती (विद्या) की प्रेरणा से कण्व ऋषि मिश्र देश में गया और वहां दश हजार म्लेच्छों को संस्कृत पढ़ा और अपने वशीभूत करके पवित्र ब्रह्मावर्त्त में लाया।

उन संस्कृत म्लेच्छों ने तप से देवी सरस्वती को प्रसन्न किया और पांचवें वर्ष प्रसन्न होकर देवी ने उनको शुद्र वर्ण दिया– अनन्तर उनमें से दो हजार को वैश्य की पदवी दीगई।

उनमें से एक पृथु नाम ने बारह वर्ष पर्य्यन्त आचार्य्य की सेवा की तब प्रसन्न हुए वेदवेत्ता कण्वने उसको राजा (क्षत्रिय) बनाया और राजपुत्र नाम नगर दिया उसी का आगे मागध पुत्र हुआ जिससे मगधराज्य की नींव पड़ी।

इसी के श्लोक ही से जब कलियुग को ७०० बर्ष बीते तब बौद्धमत प्रवर्त्तक शाक्यसिंह का गुरु :—

नाम्नागौत्तमाचार्योदैत्यपक्ष विबर्द्धकः।
सर्व तीर्थेषु तेनैव यंत्राणि स्थापितानिवै।३३
तेषां मध्ये गता ये तु बौद्धाश्चासन् समंततः।
शिखा सूत्र विहीनाश्च बभूवुर्वर्ण संकराः। ३४

दशकोट्यःस्मृताः भार्य्याः बभूवुर्बौद्ध पन्थिनः।
पंच लक्षास्तदा शेषाः प्रययुर्गिरि मूर्द्धनि।३५
चतुर्वेद प्रभावेन राजन्याः वन्हिवंशजाः।
चत्वारिंश भवायोद्धास्तैश्चबौद्धाः समुझिता।३६
आर्य्यास्ताँस्ते तु संस्कृत्य विन्ध्याद्रे दक्षिणे कृतान्।
तत्रैव स्थापया मासु र्वर्ण रूपान् समंततः।३७

गौतम आचार्य्य हुआ, उसने संपूर्ण तीर्थों पर मठ नियत किये। जो लोग उसके बश में गये सब बौद्ध होगये, और सब ने शिखा सूत्र का परित्याग कर दिया। इस प्रकार दस करोड़ आर्य बौद्ध बन गये। तव शेष पांच लक्ष आर्य जो बौद्ध नहीं बने थे वह आबू पहाड़ पर गये और वहां हवन किया (इसी के प्रथम खण्ड में विषय व्याख्या देखिये) वहां चतुर्वेद के प्रभाव से अग्नि वंशज राजाओं ने बौद्धों को काटा। इन पतितों को पुनः शुद्धकर और वर्णाश्रमी बनाकर आर्य धर्म में स्थित किया।

इसी के आगे श्लोक ४८ से बतलाया है कि जब आर्यावर्त्त में म्लेच्छों का राज्य होगया और म्लेच्छों ने भी बौद्धों के तुल्य।

यंत्राणि कारयामासुःसप्तष्वेव पुरीषु च।
तदधो येगता लोकास्सर्वेते म्लेच्छतांगताः। ५२
महत्कोलाहलं जातमार्याणां शोककारिणाम्।

सातो पुरी में अर्थात् जगन्नाथ आदि प्रसिद्ध नगरों में अपनी मसजिदें बनालीजो उनके वश में आये म्लेच्छ बन गये तब तमाम आर्योमें एक कोलाहल मच गया।

श्रुत्वाते वैष्णवाः सर्वे कृष्ण चैतन्य सेवकाः।
दिव्यं मंत्रं गुरोश्चैव पठित्वा प्रययुः पुरीः।

तब बैष्णव धर्म्मानुयायी कृष्ण चैतन्य के सेवक अपने गुरु से योग्य शिक्षा लेकर सातों पुरियों में फैल गये।

रामानन्दस्य शिष्योवै चायोध्याया मुपागतः।
कृत्वा विलोमं तं मंत्रं वैष्णवास्तान् कारयत्॥
भाले त्रिशूल चिन्हं च श्वेत रक्तं तदाभवत्।
कण्ठे च तुलसीमाला जिह्वा राममयी कृता॥
म्लेच्छा स्ते वैष्णवाश्चासन् रामानन्द प्रभावतः।
आर्य्याश्च वैष्णवा मुख्या अयोध्यायां बभूविरे॥

उनमें से रामानन्द का शिष्य अयोध्या में गया। और वहां म्लेच्छों के उपदेशों को खण्डनकर उनको वैष्णव धर्म्मीबनाया माथे में त्रिशूलाकार तिलक दिया। गले में तुलसी की माला पहरा राम नाम का उपदेश दिया वह सम्पूर्ण म्लेच्छ रामानन्द के प्रभाव से वैष्णव वने। और शेष आर्य अयोध्या में रहने लगे।

निम्बादित्योगतो धीमान् स शिष्यः कांचिकांपुरीम्।
म्लेच्छ यंत्रं राजमार्गे स्थितं तत्र ददर्श ह। ५८
विलोमं स्वगुरोर्मंत्रं कृत्वा तत्र सचावसत्।
वंशपत्र समारेखा ललाटे कण्ठमालिका। ५९
गोपी बल्लभ मंत्रोहि मुखे तेषां रराज सः।
तदधो ये गता लोका वैष्णवाश्च बभूविरे।

म्लेच्छाः संयोगिनो ज्ञेया आर्यास्तन्मार्ग वैष्णवाः।

बुद्धिमान् निम्बादित्यकांची में गया और वहांपर म्लेच्छों के विरुद्ध उपदेश कर और सब को अपने वश में करके वैष्णव वना आया। उनके मस्तक में वंश पत्र के तुल्य तिलक कण्ठ में माला तथा गोपी बल्लभ का मंत्र सिखाता हुआ और वह सब वैष्णव बने।

विष्णु स्वामी हरिद्वारे जगाम स्वगणैर्वृतः।
तत्रस्थितं महामंत्रं विलोमं तच्चकार ह॥
तदधो ये गता लोका आसन् सर्वे च वैष्णवाः।

विष्णु स्वामी हरिद्वार में गया और वहां म्लेच्छों के विरुद्ध प्रचार कर सब को वैष्णव बनाया। एवं वाणी भूषण आदि विद्वानों ने काशी आदि स्थानो में जाकर सहस्रों म्लेच्छों को शुद्ध किया।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/> अंत्यजों का परिवर्तन <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>

बंशानुगत (मौरूसी) वर्णाभिमान से आर्य्य जाति की जो हानि हुई उसको कौन विज्ञ पुरुष नहीं जानता। कौन नहीं जानता कि इस खानदानी जात्याभिमान ने ही ब्राह्मणों को वेद विहीनकर अपने बृत्त से पतित किया। कौन नहीं जानता कि स्वश्लाघी जात्यभिमानियों की घृणा और उदासीनता से सहस्रों जन पवित्र आर्य धर्म्मसे वियुक्त हुए।क्योंकि वर्त्तमान वंशानुगत निर्मूल जातपात के नियमानुसार एक छोटी जाति का पुत्र कभी ऊंचा नहीं हो सकता। चाहे वह कितना ही विद्वान् और सदाचारी क्यों न हो। उसका स्पर्श दोष दूर नहीं होता चाहे उसका आहार आचार और व्यवहार एक मौरूसी ब्राह्मण से भी पवित्र क्यों न हो, परन्तु

प्राचीन समय में यह बात नहीं थी, क्योंकि रजक तथा चमार आदि जिनको अन्त्यज वा नीच कहा जाता है यह कोई भिन्न जाति नहीं है प्रत्युत ब्राह्मण क्षत्रिय आदि के व्यभिचार से उत्पन्न हुए संस्कार हीन पुरुष विशेषों की संज्ञा है जैसा कि निम्न लिखित प्रमाणों से ज्ञात होजाता है।

ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूतो वैश्या द्वैदेहिकस्तथा।
शूद्राज्जातस्तु चांडालः सर्व धर्म्म वहिष्कृतः॥

(या० प्र० प्र० ३)

क्षत्रिय से ब्राह्मणी में जो पैदा हो वह सूत कहा जाता है वैश्य से ब्राह्मणी में जो पैदा हो वह वैदेहिक– और शूद्र से जो पैदा हो बह चांडाल कहा जाता है जो कि सर्व धर्म्म से वहिकृत होता है।

सूताद्विप्रसुतायां सुतो वेणुक उच्यते।
नृपायामेव तस्यैव जातो यश्च चर्म्मकारकः॥

(औशनस स्मृतिः–१–४)

सूत से जो ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न हो उसको वेणुक (वरूड़) कहते हैं। और उसी सूत से क्षत्रिय कन्या में जो हो उसको चर्मकार (चमार) कहते हैं।

चांडालाद्वैश्य कन्यायां जातः श्वपच उच्यते।
श्वमांस भक्षणं तेषां श्वान एवच तद्वलम्॥

(औशनस ० १–११)

चांडाल से जो वैश्य की कन्या में उत्पन्न होउसको श्वपच कहते हैं कुत्ते का मांस उसका भक्षण है और कुत्ता ही उस

का बल है।

नृपायां वैश्य संसर्गात् योगव इति स्मृता।
तन्तुवायाः भवन्त्येव वसुकांस्योप जीविनः। १२
शीलिकाः केचिद त्रैव जीवनं वस्त्रनिर्मिते।
अयोगवेन विप्रायां जाता स्ताम्रोप जीवनः। १३

(औशनस)

क्षत्रिय की कन्या में जो वैश्य से पैदा हो उसको आयोगव (जुलाहा) कहते हैं। वह कपड़े बुनने और कांसेके व्योपार (कसेरापन) से जीवका करें। इनमें से जो वस्त्र पर रेशम आदि से कसीदा निकालते हैं वह शीलिक कहाते हैं। आयोगव से जो ब्राह्मण की कन्या में हों उसको ठठेरा कहा जाता है।

नृपायां शूद्र संसर्गाज्जातः पुल्कस उच्यते।
सुराबृत्तिं समारुह्य मधुविक्रय कर्मणः।१७
(औशनस १)

क्षत्रिय की कन्या में शुद्र से जो पैदा हो उसको पुल्कस (जुलाहा) कहते हैं यह सुरा (शराब) से जीविका करता है।

पुल्कसाद्वैश्य कन्यायां जातोरजक उच्यते। १८

पुल्कस से वैश्य की कन्या में जो पैदा हो उसे रजक (लिलारी) कहते हैं।

नृपायामेव तस्यैव सूचिकः याचकः स्मृतः।
वैश्यायांशूद्रश्चौर्याज्जातश्चक्री च उच्यते॥२२

वैदेहिक (गड़रिया) से क्षत्रिय की कन्या में जो पैदा हो उसे सूचिक (दरजी) वा पाचक रसोइया (सूद) कहते हैं। शुद्र से जो वैश्य की कन्यामें चोरी से पैदा हो उसे चक्री (तेली) कहते हैं।

वैश्यायां विप्रतश्चौर्यात्कुम्भकारः सउच्यते॥३२॥

वैश्य की कन्या में जो चोरी से ब्राह्मण पैदा करे उसे कुम्हार कहा जाता है।

सूचकाद्विप्र कन्यायां जातस्तक्षक उच्यते।
शिल्पकर्म्माणि चान्यानि प्रासाद लक्षणं तथा। ४३

दरजी से ब्राह्मण की कन्या में जो पैदा हो उसे तक्षक (बढ़ई) कहते हैं उसका काम (शिल्प) चित्रकारी वा मकान बनाना है।

इत्यादि प्रमाणों से प्रतीत होता है कि वह इन प्रत्येक व्यवसायियों का कोई भिन्न जाति नहीं। धर्म शास्त्र और इतिहासों के देखने से प्रतीत होता है कि जहां एक तरफ आर्यजाति ने एक क्रिया भ्रष्ठ दुराचारी को आर्य्यजाति से बाहिर कर और दण्डरूप से उसे निन्दित कर्म्मोंमें नियुक्त करके सदाचार को स्थिर रखने का प्रयत्नकिया, वहां दूसरी ओर गुण कर्म्म और सदाचार के कारण एक नीच सन्तान को (बृत्तेनहिभवेद्द्विजः) के अनुसार अपना शिरोमणि रक्खा आर्य बृत्त को ऊञ्चाकिया। जैसे बाल्मीकि आदि।

शास्त्र पर्य्यालोचना से न केवल यह सिद्ध होता है कि बाल्मीक आदि अनेक नीच गृहोत्पन्न सदाचार से ऊंचे हुए। प्रत्त्युत यह भी निस्सन्देह मानना पड़ना है कि समयानुसार उनकी संज्ञा और कर्म में भी परिवर्तन होता रहा है।

कालवशात् जब कभी देश की पोलिटिकल अवस्थाका परिवर्त्तन होता है, तो उसके साथ ही सोशियल अथवा सामाजिक नियमों में कुछ न कुछ परिवर्त्तन होने लगता है। और ऐसा होना अवश्यं भावी है। जो जाति देश कालानुसार समय के साथ साथ नहीं चलती वह जीती नहीं रह सकती। यही भाव था कि जिसने समय २ में ऋषियों को प्रद्योतित किया कि वह समयानुसार अपनी २ व्यवस्था दें, और यही कारण भिन्न २ स्मृतियों के लिखने का है। इसी की पुष्ठि में पराशर ऋषि अपनी स्मृति के प्रारम्भ मे बतलाता है, कि :—

अन्येकृतयुगे धर्म्मास्त्रेतायां द्वापरे युगे।
अन्ये कलियुगे नृणां युगधर्मानुसारतः

(परा० १-२२)

सत्ययुग त्रेता द्वापर और कलियुग में धार्मिक व्यवस्था एक सी नहीं होती। इसी नियमानुसार समयान्तर में अन्त्यजों की संज्ञा-संख्या तथा कर्म्म आदिकों में परिवर्त्तन किया गया। जैसा कि आगे के उदाहरणों से प्रतीत होगा।

शास्त्रों में यद्यपि अनेक प्रकार के पुत्रों का वर्णन है तथापि उत्पत्ति भेद से चार भेद कहे जा सकते हैं। प्रथम सवर्णी अर्थात् तुल्य वर्ण के स्त्री पुरुषों से उत्पन्न हुई सन्तान। दूसरा अनुलोमज अर्थात् उत्तम वर्णी पुरुष का हीन वर्णी स्त्री से उत्पन्न। तीसरा प्रतिलोमज अर्थात् हीनवर्णी पुरुष से उत्तमवर्ण स्त्री मे प्राप्त हुआ। चतुर्थ संकर अर्थात् पूर्वोक्त अनुलोमज प्रतिलोमजों से व्यभिचार रूप से सन्तानोत्पत्ति।

प्रतिलोमजोंका वर्णन करते हुए मनु याज्ञवल्क्यादि लिखते हैं :—

ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूतो वैश्याद्वैदेहिकस्तथा।
शूद्राज्जातस्तु चाण्डालः सर्व धर्म वहिष्कृतः॥

(याज्ञवल्क्य ९३)

क्षत्रिय से ब्राह्मणी का पुत्र सुत नाम होता हैं। वैश्य से वैदेहिक, और शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुआ २ चाण्डाल कहाता है जो कि सर्व धम्मों से बहिष्कृत है।

समीक्षा - मनु ने इन सूत मागध और वैदेह को अपसद वा करार देकर लिखा कि :—

सूतानामश्वसारथ्य मम्बष्ठानां चिकित्सकम्।
वैदेहिकानां स्त्रीकार्य्यं मागधानां वणिक्पथः॥

(मनु० १०-४७)

सूतों का काम सारथिपन (साईसी करना) अम्बष्ठों का चिकित्सा वैदेहिको का अन्तःपुर का काम और मागधों का स्थल मार्ग से व्यापार करना है। इसी आशय को लेकर मध्यमाङ्गिराने तो इनको साफ अन्त्यज ही लिख दिया। जैसे :—

चांडालः श्वपचः क्षत्ता सूतो वैदेहिकस्तथा।
मागधा योगवौ चैव सप्तैतेंऽत्या वसायिनः॥

चण्डाल, श्वपत्र, क्षत्ता-सूत, वैदेहिक, अयोगव (बढ़ई) यह सात नीच हैं। परन्तु समय के परिवर्त्तन से एक समय आया जब कि करीब करीब इन सब का परिवर्त्तन हुआ। तब उशनाचार्य ने सूत के विषय में व्यवस्था दी :—

नृपाद् ब्रह्मकन्यायां विवाहेषु समन्वयात्।
जातः सूतोऽत्र निर्द्दिष्टः प्रतिलोम विधिद्विजः।
वेदानईस्तथा चैषां धर्म्माणा मनुबोधकः।

(औशनश अ० १–श्लो०–३)

ब्राह्मण की कन्यामें विवाह होने से क्षत्रिय द्वारासे जो पुत्र होता है वह सूत कहाता है। और वह प्रतिलोम विधि का द्विज है। उसको बेद का अधिकार नहीं है। परन्तु वह धर्मों का उपदेश कर सकता है।

यही सूत महाराजा दशरथ का प्रधान मंत्री बना जोकि बिना द्विजातियों के नहीं होसक्ता। और पुराणों के समय में इस सूत को इतनी उच्च पदवी दीगई कि सूत ने व्यास गद्दी पर बैठ ऋषियों को सम्पूर्ण पुराण सुनाए। पुराणवक्ता सूत ने भागवत प्रथम स्कन्ध अध्याय–१८ में इस बात को हर्ष और अभिमान से प्रकट किया है, कि मैने प्रतिलोमज होकर भी ईश्वर भक्ति आदि गुणों से उच्च पदवी पाई। एवं ययाति ने ब्राह्मण कन्या से विबाह किया और उसकी सन्तान क्षत्रिय बनीं ।

आगे मनु अ० १०–श्लो० १२ में लिखा है कि :—

शूद्रादा योगवः क्षत्ता चांडालश्चाधमो नृणाम्।
वैश्य राजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसंकराः॥

शूद्र से वैश्या में अयोगव–शुद्र से क्षत्रिया में क्षत्ता और ब्राह्मणी में चण्डाल पैदा होता है, और यह वर्ण संकर हैं। आगे श्लोक १६. में इन तीनों को अधम मानकर इनकी बृत्ति का वर्णन करते हुए लिखा कि :—

(त्वष्टिस्त्वा योगवस्यच। मनु १०–श्लोक ४८)

क्षत्रुग्रपुक्कसानांतु विलोको वध बन्धनम्। ४९

अयोगव का काम लकड़ी छिलना [बढ़ई का कर्म करना] है। और क्षत्ता का काम बिल में रहने वाले गोधा आदि जीवों का पकड़ना और बांधना है। परन्तु समय के परिवर्त्तन से इनकी संज्ञाउत्पत्ति और बृत्ति में परिवर्त्तन किया गया।

उशनाचार्य अपनी स्मृतिके श्लोक बारह में लिखता है किः—

नृपायां वैश्य संसर्गादा योगव इतिस्मृतः।
तन्तुवाया भवन्त्येव वसुकांस्योप जीविनः॥

क्षत्रिय की कन्या में जो वैश्य से उत्पन्न हो आयोगव [जुलाहा] कहाता है और उसका काम कपड़ा बुनना वा [कांस्योपजीवन] अर्थात् भांडे बेचना [कसेरापन] है।

एवं आगे श्लोक ४२ में बतालाया किः—

शूद्रायां वैश्य संसर्गाद्विधिना सूचकः स्मृतः।
सूचकाद्विप्र कन्यायां जातस्तक्षक उच्यते॥

विधि से विवाही शूद्र कन्या में जो वैश्य से उत्पन्न हो उस को सूचक [दरजी] कहते हैं। और सूचक से ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न तक्षक [बड़ई] कहा जाता है।

कहां मनु के समय में शूद्र से उत्पन्नआयोगव वा क्षत्ताका काम बढ़ईपन, और कहां उशनस्के समय सूचकोत्पन्न तक्षक।

मनु तथायाज्ञवल्क्य की व्यवस्थाथीकि :—

निषाधः शूद्र कन्यायां यः पारशवउच्यते।
मनु १०–८

ब्राह्मण से शूद्र कन्या में पैदा हुए की निषाध संज्ञा है, जिस की दूसरा नाम पारशव है, और आगे श्लोक-१२ में शूद्र से क्षत्रिया में जो उत्पन्न हो उसे क्षत्ता कहा है परन्तु महाभारत के समय मेंइसका व्यतिक्रम होगया। क्योंकि व्यास से दासी में उत्पन्न हुए विदुर की निषाध संज्ञा नहीं थी, प्रत्युत क्षत्ता थी।

इसी की पुष्टि में भारत के अनुशासन पर्व अध्याय ४८ श्लोक बारह में लिखा है (शूद्रान्निषाधोमत्स्यघ्नःक्षत्रियायांव्यतिक्रमात्) इसके भाष्य में टीकाकार लिखता है :—

** “अत्र मनुना निषेधोऽनुलोमजेषु क्षत्ताच प्रतिलोमजेषूक्तः। व्यासेनतु विपरीत मुक्तं विदुरे क्षतृ शब्दं तत्रतत्र प्रयुंजानेन। अतएव– शूद्रायां निषाधोजातः पारशवोऽपिवा, क्षत्रिया मागंध वैश्यात् शूद्रात् क्षत्तार मेववा, इति याज्ञवल्क्य उभयत्र वा शब्दं पठन् अनयो र्निषाधत्वक्षतृत्वे सूचयति तेन विप्रात् शूद्रायां क्षत्ता क्षत्रियायां निषाध इत्यर्थ साधुता।**

मनु ने निषाध को अनुलोमजों में लिखा है, और क्षत्ता को प्रतिलोमजों में। परन्तु व्यास ने इसके विपरीत लिखा है क्योंकि विदुर के लिये जहां तहां क्षत्ता शब्द दिया है।

अपने पक्ष के समर्थन में याज्ञवल्क्य दो श्लोकों की व्यवस्था लगाकर कहता है कि जो श्लोक– ९१–९४ में वा शब्द

का प्रयोग किया है, इससे भी मालूम होता है कि ब्राह्मण से शूद्र कन्या में उत्पन्न की क्षत्ता–और शुद्र से क्षत्रिया में उत्पन्न की निषाध संज्ञा भी वह मानते हैं।

यदि ब्राह्मण से शूद्रकन्या में उत्पन्न हुआ निषाध ही रहता तो व्यास आदि भी ब्राह्मण न बनते। परन्तु इतिहास बतलाता है कि :—

जातो व्यासस्तु कैवर्त्त्याःश्वपाक्यास्तु पराशरः।
बहवोऽन्येऽपि विप्रत्वं प्राप्ता ये पूर्वमद्विजाः॥

कैवर्त्त (दास) की कन्या में उत्पन्न व्यास-तथा श्वपाकी (चांडाली) से उत्पन्न पराशर, तथा और बहुत कर्म बश से ब्राह्मण बनें जो प्रथम इतर थे।

मनु कहता है कि :—

वृषली फेन पीतस्य निश्वासोपहतस्यच॥
तस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते॥

मनु ३-१९

बृषली के मुख चुम्वन करने वाले को उसके मुख का श्वास लेने वाले तथा बृषली में उत्पन्न की शुद्धि नहीं।

बृषली का अर्थ करते हुए अंगिरा ऋषि लिखता है कि (चांडाली बंधनी वैश्या) चाण्डाली बंधनी और वैश्या आदि पांच बृषली संज्ञिक हैं।

परन्तु इतिहास बतलाता है कि :—

गणिका गर्भ सम्भूतो बशिष्टश्चमहामुनिः।
तपसा ब्राह्मणो जातः संस्कारस्तत्र कारणम्॥

वैश्या के गर्भ से उत्पन्न वशिष्टष्ट मुनि तप से ब्राह्मण बना, संस्कार ही इसमें कारण हैं। अर्थात् यदि कर्म उचहों तो योनि दोष नहीं रहता।

दूर क्यों जांये तनिक वर्त्तमान दशा की ओर दृष्टि दें मनु ने अ० १० श्लोक ११ में लिखा है कि वैश्या से क्षत्रिया में जो सन्तान उत्पन्न हो बह मागध संज्ञिक होती है और आगे श्लोक १७ में उसको अपसद लिखा। इसी को मध्यम अंगिरा ने अन्त्यावसायी लिखा इसके विषय में भारत अनुशासनपर्व० अध्याय ४८ में लिखा कि :—

चतुरो मागधीसूते क्रूरान्मायोप जीविनः।
मासं स्वादुकरं क्षौद्रं सौगन्धमिति विश्रुतम्॥

मागधी चार पुत्र उत्पन्न करती है जिनका काम मांसादि बेचना है और उनमें (क्षौद्र-सूद-और शूद्र) ये तीनों एक के नाम हैं और उनका काम शाक आदि बनाना तथा अन्न बनाना है। कोशों ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए लिखा कि (सुदन्ति छागानीतिसूदः) इसक्षोद्र वा सूद का काम बकरों को मारना है परन्तु राजाओं के संसर्ग तथा कर्म की उत्तमता से आज सूद द्विज हैं।

व्यास ने :—

वर्हकोनापितो गोप आशायाः कुम्भकारकः॥
बणिक् किरात कायस्थमाला कार कुटुम्बिनः॥

व्यास–१–१०

व्याजलेने वालों, नाई गोप, और वणिया तक को अन्त्यज लिख दिया। परन्तु इसी व्यास ने ३–५१ में लिखा कि :—

नापिताचयमित्रार्द्धसीरिणोदास गोपकः॥
शूद्राणा मप्यमी षान्तुभुक्त्वाऽन्नं नैवदुष्यति॥

नाई, वाहक, दास (कैवर्त्त) गोप, आदि के अन्न खाने में दोष नहीं। यही व्यवस्था पराशर ११-२२ में (दास नापित गोपालों को दी है। न केवल अन्न खाने का अधिकार दिया गया, प्रत्युत नाई तथा निषाध आदि कई एक को तो वेद मंत्र पढ़ने का भी अधिकार दे दिया। जैसे :—

आचान्तोदकाय गौरिति नापित स्त्री ब्रूयात्॥
गोभिलीय० गृ० सू० प्र० ४

ऊपर निवेदन किया गया कि मध्यम अंगिरा ने सूत और क्षत्ता आदि को भी अन्त्यज माना। व्यास ने अपने समय‌ में व्याज लेने वाला आदि को अन्त्यज माना, परन्तु समय के परिवर्त्तन से पीछे के अत्रि, अंगिरा, यम, आदि स्मृतिकारों ने इन सब को काटकर :—

रजकश्चर्म कारश्च नटो वरुड़ एवच॥
कैवर्त्त भेद भिल्लाश्च सप्तैतेऽन्त्यजाः स्मृताः॥

केवल रजक (लिलारी) चमार, नट बरुड़ (बांस बनाने बाले) कैवर्त्त, मल्लाह, भेद तथा भील को अन्यज माना। देखो अत्रिस्मृतिः श्लोक १९५-अंगिरा श्लोक २ यम श्लोक ३२। और हम देखते हैं कि वर्त्तमान समय में व्यास के कथनानुसार गोप आदि को अन्त्यज नहीं माना जाता मनु ने अध्याय ४ श्लोक २१० वा २१५ में लिखा कि गाने वाले तथा नाचने वाले का अन्ननहीं खाना चाहिये परन्तु समय के परिवर्त्तन से पद्मपुराण ब्र० खं० ३ अ०६ में लिखा है कि :—

कुशीलवः कुम्भकरश्च क्षेत्र कर्मक एवच॥
एते शूद्रेषु भोज्यान्नादृष्ट्वाास्वल्पगुणं बुधैः॥१७॥

नाचने वाले, गाने वाले, कुम्भकार, तथा क्षेत्र कर्म करनेवाले अर्थात् बाइक वा वर्त्तमान बाइती जाट इनमें थोड़ा सा भी गुण देखकर इनका अन्न खा लेना चाहिये। कहां तक लिखे इसी के प्रथम श्लोक तथा पराशर ११।२२ में तो यहां तक लिखा है कि (यश्चात्मानं निवेदयेत्) जो अपने आपको तुम्हारे अर्पण करता है अर्थात् जो यह कहे कि मैं तुम्हारा हूं उसका अन्न खा लेना चाहिये अर्थात् वह शुद्ध है।

मनु ने ४। २०९ में लिखा कि (गणान्नंगणिकान्नंच) समुदाय का अन्न नहीं खाना चाहिये परन्तु देखा जाता है कि आजकल वर्षा ऋतु में चन्दा से इकट्ठा किये धन से प्रवर्त्तित यज्ञों में सहस्रों ब्राह्मण न्योता जीमते हैं। मनु ने ४।२१२। में लिखा कि (चिकित्सकस्य मृग्योश्च) वैद्य वा शिकारी का अन्न न खावे प्रत्युत आज ऐसा नहीं। मनु० ४।२१४। में लिखा है (पिशुना नृतिनोश्चान्नं) चुगलखोर और झूटी गवाही देने बाले का अन्न नहीं खाना चाहिये। मनु० ४।२०५ में उन्मत्त, चोर आदि के अन्नका निषेध है परन्तु इस समय ऐसा नहीं है मनुः ४।२१५ में सुनार के अन्न का निषेध है परन्तु इस समय ऐसा नहीं :—

इत्यादि प्रमाणों तथा उदाहरणों से निस्सन्देह मानना पड़ता है कि समय समय पर परिवर्त्तन होता रहा है।

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<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731556783Screenshot2024-11-10194120.png"/>पुराणों में चांडाल की शुद्धि<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731556783Screenshot2024-11-10194120.png"/>

पौराणिक इतिहासों से प्रतीत होता है कि कभी कभी बिना प्रायश्चित्त विधि के ही चाण्डालादिकों को शुद्धकर आचार्य तथा

मठाधीश वनाबागया। जैसे कि नीचे के उदाहरणों से साबित होगा पीछे इसके कि, चांडाल की शुद्धि वतलाई जावे, प्रथम यह बतला देना चाहता हूं कि शास्त्र चांडाल किसको मानते हैं संपूर्ण धर्मशास्त्र (स्मृतियें) और तमाम पुराण इसके सहायक हैं कि :—

ब्राह्मण्यां शूद्रसंसर्गाज्जातश्चांडाल उच्यते।
सीसाभरणं तस्य कार्णायस मथापिवा॥८
वध्रीकंठे समा वध्य मल्लरीं कक्षतोऽपिवा।९
मलाप कर्षणं ग्रामे पूर्वाण्हे परिशुद्धिकम्।
नपराण्हे प्रविष्टोऽपि वहिर्ग्रामाच्चनैऋते। १०

(औशनस)

ब्राह्मणी में जो शुद्र से उत्पन्न हो उसे चांडाल कहते हैं। इस के सीसे वा लोहे के भूषण होते हैं। यह कण्ठ में बध्री(चमड़े का पट्टा) और बगल में झाडू बान्ध कर मध्यान्ह से प्रथम ग्राम में शुद्धि के लिये मल को उठावे। और मध्यान्ह के उपरान्त ग्राम में प्रवेश न करे, ग्राम के बाहिर नैऋत कोण में बास करे।

ऊपर के लेख से प्रतीत होगया होगा कि चांडाल किसका नाम है। अब इनकी शुद्धि देखिये भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व ३ खंड दो अध्याय ३४।

ऋषय ऊचुः :—

वाग्जंकर्म स्मृतं सूत! वेद पाठं सनातनम्।
बहुत्वात्सर्व वेदानां श्रोतुमिच्छा महे वयम्॥१॥
केन स्तोत्रेण वेदानां पाठस्य फलमाप्नुयांत्।

पापानि विलयं यान्ति तन्नोवद विलक्षण!॥ २॥

ऋषि बोले कि सूत जी वेद पाठ सनातन वाचिकधर्म्म है परन्तु सारे वेदों का पढ़ना बहुत कठिन है, इसलिये हमें कोई ऐसा स्तोत्र बताओ जिस एक के पढ़ने से वेद पाठ का पुण्य प्राप्त और सम्पूर्ण पापों का नाश हो।

सूत उवाच :—

विक्रमादित्य राज्येऽतुद्विजः कश्चिदभूद्भुवि।
व्याधकर्मेति विख्यातो ब्राह्मण्यां शूद्रतोऽभवत्॥३॥

सूत ने कहा, कि विक्रमादित्यके राज्य में व्याध कर्मा नाम से प्रसिद्ध द्विज हुआ, जो शुद्र वीर्य से ब्राह्मणी के उदर मे से जन्मा था। अर्थात् चांडाल था। इसका विवर्ण करते हुए कहा—

त्रिपाठिनो द्विजस्यैव भार्य्या नाम्नाहि कामिनी।
मैथुनेच्छावती नित्यं महा घूर्णित लोचना॥ ४॥
द्विजः सप्तशती पाठे वृत्त्यर्थं कर्हिचिद्गतः।
ग्रामे देवलके रम्ये बहु वैश्य निषेविते॥५॥
तत्र मासगतः कालो नाययौ च स्वमन्दिरे।

त्रिपाठी नाम ब्राह्मण की मदोद्धित कामिनी नाम स्त्री थी जोकि बहुत काम प्रिया थी। एकदा बह त्रिपाठी ब्राह्मण सप्तशती (चण्डी) पाठ के लिये देवल नाम एक वैश्य वस्ती में गया और एक मास पर्यंत वहां ही रहा।

तदातु कामिनी दुष्ठा रूपयौवन संयुता।
दृष्ट्वा निषादं सबलं काष्ठ भारोपजीवितम्॥

तस्मै दत्वा पञ्च मुद्राः बुभुञ्ज कामपीड़िता॥७॥

तब रूप यौवन संयुक्त उस दुष्टा कामिनी ने एक काष्ठ भार के उठाने वाले बलवान् निषाद को देखा और पांच रुपये देकर व्यभिचार किया।

तदा गर्भं दधौ सा च व्याध वीर्य्येण सेचितम्।
पुत्रोऽमुद्दश मासान्ते जातकर्म पिता ऽकरोत्॥

उस व्याध से कामिनी को गर्भ स्थिति हुई, दश मास पीछे पुत्र उत्पन्न हुआ, और पिता ने जात कर्म संस्कार किया।

द्वादशाब्दे गतेकाले सधूर्तोवेदवर्जितः।
व्याधकर्म करो नित्यं व्याधकर्म्मायतोऽभवत्॥९॥
निष्कासितौ द्विजेनैव मातृपुत्रौ द्विजाधमौ।
त्रिपाठी ब्रह्मचर्य्यं तु कृतवान् धर्म्म तत्परः॥१०॥

बारह बर्ष की अवस्था में बह धूर्त वेद त्याग व्याध कर्म्म में आसक्त होगया। इससे उसका नाम व्याधकर्म्माहुआ। यह देख उस त्रिपाठी ब्राह्मण ने उन दोनों अर्थात् अपनी स्त्री और पुत्र को घर से निकाल दिया और स्वयं ब्रह्मचर्य धारण कर धर्म्म परायण हुआ।

निषादस्य गृहे चोभौ बने गत्वोषतुर्मुदा।
प्रत्यहं जारभावेन बहुद्रव्य मुपार्जितम्॥१२॥
व्याधकर्म्मातु चौर्य्येण पितृमातृ प्रियंकरः

वे दोनों माता पुत्र हर्ष से उस निषाद के घर रहने लगे।

वहां वह प्रतिदिन जार भाव से धन एकत्र करती, और व्याध कर्म्माचोरी से।

कदाचित्प्राप्त वांस्तत्र द्विजवस्त्र समुद्गतम्।
श्रुतमादि चरित्रं हि तेन शब्द प्रियेण वै॥१५॥
पाठ पुण्य प्रभावेण धर्म्म बुद्धिस्ततोऽभवत्।
दत्त्वा चौर्य्य धनं सर्वं तस्मै विप्राय पाठिने।
शिष्यत्व मगमत्तत्राऽक्षरमैशंजजाप ह।
वीज मंत्र प्रभावेण तदंगात्पाप मुल्वणम्।
निसृतं कृमिरूपेण बहुवर्णेनतापितम्।

कदाचित् उसने उस ब्राह्मण के वस्त्र से निकलते हुए आदि चरित्र को एक ब्राह्मण से सुना और उस पाठ के प्रभाव से उस की बुद्धि में धर्म्म भाव उत्पन्न हुआ। वह अपने चोरी के सब धन को ब्राह्मण के अर्पण कर उसका शिष्य बना और अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म का जप करने लगा। उस वीज मंत्र के प्रभाव से उस का वह बड़ा पाप नष्ट होगया।

त्रि वर्षान्तेच निष्पापो बभूव द्विजसत्तमः।
पठित्वाक्षर मालाञ्च जजापादि चरित्रकम्॥१८॥
द्वादशाब्दमितेकाले काश्यां गत्वातु सद्विजः।
अन्न पूर्णां महादेवीं तुष्टाव परयामुदा॥२०॥

तीन वर्ष के अनन्तर वह शुद्ध ब्राह्मण होगया, अनंतर उसने काशी में जाकर बारह वर्ष अन्नपूर्णा की स्तुति की।

साइत्यष्टोत्तरे जप्ता ध्यानास्तिमितलोचना।
सुष्वापतत्र मुदिता स्वप्ने प्रादुरभूच्छिवा।
दत्वा तस्यै ऋग्विद्यां तत्रैवान्तर धीयत॥२२॥
उत्थाय स द्विजो धीमान् लब्ध्वाविद्या मनुत्तमाम्।
विक्रमादित्य भूपस्य यज्ञाचार्य्योबभूवह॥२४॥

तब प्रसन्न हो देवी ने उसको ऋग्विद्या प्रदान की और वह ब्राह्मण उस उत्तम वेद विद्या को पाकर विक्रमादित्य के यज्ञ में आचार्य बना।

एवं एक उदाहरण सनतानधर्म मार्तण्ड (जिसको शाहजहां पुर की धर्म सभा ने ज्येष्ठ शुक्ल संवत् १९३५ में प्रकाशित किया) से उद्धृत किया जाता है, जिस से पाठकों को प्रतीत होगा, कि उस समय भी लोगों ने कार्य वशात् बिना प्रायश्चित्त के ही चण्डालआदिकों को शुद्धकर मठाधीश और आचार्य बनाया।

करीबन सात सौ वर्ष हुए कि रामानुज संप्रदाय चली रामानुज सम्प्रदाय के प्रथमाचार्य षट्‌कोपतीर्थ वे जाति के कंजर थे यह उन्हीं के ग्रंथों में से दिव्य सूरि प्रभादीपिका के चतुर्थसर्ग में लिखा है :—

विक्रीयसूर्पं विचचार योगी।

योगी षट्‌कोपजी सूप बेचकर विचरते हुए। इस वाक्य से उनकी जाति का निश्चय होता है, और उनका टोप आज तक उनकी सम्प्रदाय वाले पूजते हैं।

दूसरे आचार्य मुनिबाहन हुए यह आचार्य जाति के चण्डाल थे। इनकी भी कथा उनके ग्रंथों में लिखी है।

दक्षिण में “तोतादरी” और “रङ्ग” भी दो स्थान हैं वहाँ एक चण्डाल चुराकर मंदिर के सहन में बुहारी (झाडू) द्वेजाता था। एक दिन पुजारी लोगों ने जाना तो उसको बहुत मारा और बाहर निकाल दिया। पुनः एक पुजारी ने कहा कि मुझे एक स्वप्न भया है, कि उसी चण्डाल को अपना अधिष्ठाता बनाओ। सब लोगों ने उसका नाम मुनिवाहनरक्खा। उसका चेला एक मुसलमान भयाउसका नाम तिक्तयामुनाचार्य रक्खा। उनके चेले महा पूर्ण और तिनके चेले रामानुज भये।"

देखो सनातन धर्म मार्तण्ड पृ० १८७।

सच तो है। जाति गंगा गरीयसी।

अत्रि भी कहते हैं :—

अंगीकारेण ज्ञातीनां ब्राह्मणानुग्रहेण च।
पूयन्ते तत्र पापिष्ठा महापातकिनोऽपि ये॥

(अत्रि० २७४)

यदि जाति स्वीकार करे और ब्राह्मणों की अनुग्रह हो तो नीच से नीच भी पवित्र होजाते हैं।

इसीआशय को लेकर मैंवर्त्तमान हिन्दू जाति से सविनय निवेदन करूंगा कि वह अपनी सामाजिक उन्नति वा जाति कल्याण के लिये जाति के प्रत्येक भाग को धर्मानुसार ऊंचा करने का प्रयत्न करें। क्योंकि किसी जाति का सामाजिक बल अथवा धार्म्मिक बल नहीं बढ़ सकता, जब तक कि उसका प्रत्येक भाग मेघरूप से एक दूसरे का सहायक का सेवक नहीं बनता। न केवल इस उदाहरण से प्रत्युत स्मृतियों में चांडालों की शुद्धि के

लिये प्रायश्चित्तों का भी उपदेश पाया जाता है।

अत्रि ऋषि श्लोक १२८ में लिखता है कि :—

कपिलायास्तु दुग्धाया धारोष्णं यत्पयः पिबेत्।
एष व्यास कृतः कृच्छ्रः स्वपाकमपिशोधयेत्॥

कपिला गौ की धारा का गरम दूध पीवे। इसका नाम व्यास ने कृच्छ्र कहा है और यह चांडाल को भी शुद्ध करता है। यही श्लोक रणवीर कारित प्रा० प्र० १५ पर इसी अर्थ में आया है दूध कितना पीना चाहिये कितने दिन पीना चाहिये इसकी विशेष व्याख्या भी मिल सकती है।

एवं पराशर अध्याय ११ में लिखा है कि :—

ब्रह्म कूर्म महोरात्रं स्वपाकम पिशोधयेत्॥

अहो रात्र का ब्रह्म कूर्म नाम व्रत श्वपाक चांडाल को भी शुद्ध कर देता है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>खान पान और विवाह<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>

संसार की गति भी एक विचित्र गति है। आर्य्य जाति जो कभी विद्या की कान थी जिस के निष्कलङ्क चरित्र और उच्च शिक्षा के सामने दूसरी जातियें मस्तिष्क नवाती थी। जिसका धर्म पवित्र और सच्चा धर्म माना जाता था उसने समय के परिवर्तन और अपने आलस के कारण उस निर्मल धर्म को अपना भ्रम जनक कल्पित कल्पनाओं से इतना कलङ्कित कर दिया कि वह न केवल दूसरों को ही भ्रम जाल भासने लगा, प्रत्युत स्वयं आर्य्य(हिन्दू) जाति भी उसे कच्चा धागा समझने लगी। जिसका तोड़ना वायु के अति निस्सार झोंकों ने सुकर समझा। चाहे वह पूर्व से आये हों

वा पश्चिम से। तिस पर भी आश्चर्य्य यह कि संसार में तो कच्चा धागा तनक जिह्वा के रस और हाथों की मरोड़ से गांठा जाता है, परन्तु इसकी त्रुटि की पूर्ति सहस्रों वर्षों से असम्भव मानी गई।

एक आर्य्य (हिन्दू) न केवल म्लेच्छ के छूए जल पान से न केवल (घ्राणञ्त्वार्ध खादनम्) के निर्मूल सिद्धान्तानुसार दूसरों के अन्न सूंघने से ही पतित होने लगा प्रत्युत अपनी जाति माता तथा भ्राता के हाथसे भी भोजन कर अपने आपको पतित समझने लगा।

परमात्मा वेद द्वारा आज्ञा देते हैं,

समानी प्रपा सहवोऽन्न भागः समाने योक्रेसह वो युनज्मि। ६—अथर्व–कां० ३ सू० ३०

हे एकता चाहने वाले मनुष्यो! तुम्हारी प्रपा अर्थात् पानी पीने का स्थान एक हो। तुम्हारा भोजन आदि साथ हो,

इस पर भाष्य करते हुए सायणाचार्य लिखते हैं–

(सहवोऽन्नभागाः) अन्नभागश्च सह एव भवतु
परस्परानुरागवशेन एकत्रावस्थितमन्नपानादिकं
युष्माभि रुपभुज्यता मित्यर्थः॥

तुम्हारा अन्न भाग साथ ही हो। अर्थात् परस्पर की एकता वा स्नेह बढ़ाने के कारण एक साथ बैठ कर खान पान करो।

शोक जिस जाति का इतना उच्च सिद्धान्त हो, उस के पुत्र आज मनामाने खान पान के बन्धन में फंस कर न केवल चतुर्वर्णियों से प्रत्युत माता पिता से भी पृथक् चौका लगा इस वैदिक सिद्धान्त पर चौका फेर रहे हैं।

परन्तु वे लोग जिनका धर्म्म उनकी कपोल कल्पित सखरी

निखरी बा लून मरच पर ही आ ठहरा है, उनको स्मृति रहे कि प्राचीन समय में ऐसा नहीं था।

इतिहास बतलाते हैं, कि पूर्व समय में राज सूय आदि यज्ञों मैं चारों वर्ण एकत्रित होते थे, सब एक पंक्ति में बैठ कर भोजन करते थे, वहां कोई गौड़ ब्राह्मण वावर्ची नहीं होता था। प्रत्युत सूद सूपकार आदि दास लोग भोजन बनाते थे। जैसे-

आरालिकाः सूपकाराः राग खाण्ड विकास्तथा
उपातिष्ठन्तु राजानं धृतराष्ट्रं यथा पुरा-

भा० आ० अ०

कि अरालिक सूपकार आदि रसोई किया करते थे। एवं श्री रामचद्र जी अपने यज्ञ के लिये आज्ञा देते हैं।

अन्तरा यण वीथ्यश्च सर्वे च नट नर्तकाः
सूदानार्थ्यश्च बहवो नित्यं यौवनशालिनः।

बा० रा० उ० स० ९१

सब बाजार और व्यापारी नट (नर्तक) रसोइये और रसोई बनाने वाली स्त्रियें भरत जी के संग जावें। और यह सब लोग दास और शूद्र थे। जैसा कि भा० अश्वमेध पर्व–अ ८५ में—

विविधान्न पानानि पुरुषा ये ऽनुयायिनः

इससे स्पष्ट प्रतीत होता है,
कि सूद आदि संकर जाति होकर भी ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यों के यहां ही भोजन बनाते थे और द्विजाति खाते थे। और क्यों न खाते, जब ऋषियों की आज्ञा है। कि :—

आर्य्याधिष्ठिता वा शूद्रा संस्कर्तारः स्युः। ४
आप० ध० २–२–३

कि आर्यों की अध्यक्षता में खुद रसोई बनावें। क्या महाराज युधिष्ठिर वा श्रीरामचन्द्रादि आर्य नहीं थे। यदि आर्य थे तो क्या ऋषियों की यह आज्ञा नहीं कि :—

यन्त्वार्य्याः क्रियमाणं प्रशंसन्ति सधर्म्मो
यद् गर्हन्ते सोऽधर्मः।७

आप० १–७–२०

जिसको आर्य अच्छा कहते हैं वह धर्म है, और जिसकी निन्दा करते हैं वह अधर्म्म है।

यदि ऐसा है तो क्या कोई बतला सकता है ? कि श्रीरामचन्द्र जी, धर्म्मपुत्र युधिष्ठिर, अथवा उससमय के ऋत्विज लोग आजकल के “नौ कन्नौजी और दसचूल्हा” के अनुसार आप पकाकर खाते थे? नहीं, प्रत्युत वह एक पङ्कि में बैठकर मूदों का पकाया खाते थे।

देखिये —

ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते।
तापसाः भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते॥१२॥
वृद्धाश्चव्याधिताश्चैव स्त्री बालास्तथैवच।
नाना देशा दनुप्राप्ताः पुरुषास्त्री गणास्तथा।
अन्न पानैः सुविहितास्तस्मिन् यज्ञे महात्मनः।१६।
अन्नं हिं विधिवत्स्वादु प्रशंसन्ति द्विजर्षभाः।
अहो! “तृप्तास्म भद्रन्ते” इति शुश्राव राघवः।१७।

स्वलङ्कृताश्च पुरुषा ब्राह्मणान्पर्य्य वेष्टयन्।१८।
वा० रा० स०

महाराज दशरथ के यज्ञ में ब्राह्मण शूद्र तपस्वी और संन्यासी बृद्ध रोगी स्त्रीऔर बाल सब इच्छा पूर्वक भोजन पाने लगे अनेक देशों के स्त्री पुरुष इस महात्मा राजा के यज्ञ में आकर खान पान करने लगे। भोजन के समय ब्राह्मण लोग सुंदर स्वादु भोजनों की प्रशंसा करते थे। और “हम तृप्त हुए हैं आप की कल्याण हो” इस प्रकार राजा का यश गाते थे। और बहुत से सुवेश धारी रसोइये ब्राह्मणों के आगे अन्न परोसते थे॥

यदि इसमें संदेह हो कि वहां शायद पूरी वा परोठा आदि पक्वान्न होगा, तो इस संदेह की निवृत्ति के लिये देखें बालमीकीय रामायण उत्तर काण्ड सर्ग? १. जहां श्री रामचन्द्रजी ब्राह्मणों और ऋषियों को निमंत्रण देते हैं, वहां साथ ही लक्ष्मण जी को आज्ञा देते हैं कि—

शतंवाह सहस्राणां तण्डुलानां वपुष्मताम्।
अयुतं तिल मुद्गस्य प्रयात्वग्रेमहाबल!॥१९॥
चणकानां कुलत्थानां माषाणां लवणस्यच।
अतोऽनुरूपं स्नेहं च गन्ध संक्षिप्तमेवच॥२०॥

हे महाबली लक्ष्मण! बड़े हृष्ट पुष्ट एक लाख बैलों की गाड़ी मे चावल भर कर वहां भेज दीजिये॥

दस इज़ार गाड़ी तिल और मूंग की भर कर अभी बहां भेजवा दीजिये॥

और इस के अनुसार चणा, कुलत्थ माष और लून, तदनुसार घी तथा और सुगन्धित द्रव्य वहां भेजवा दीजिये॥

यहां न केवल माष आदि दालें भेजी गयीं प्रत्युत लून भी भेजा गया जिसको आज धर्म नाशक समझा जाता है॥

एवं भारत सभापर्व अध्याय ४ में महाराज युधिष्ठिर ने

चोष्यैश्च विविधैराजन् पेयैश्च बहु विस्तरैः॥४॥

लेह्य पेय आदि अनेक प्रकार के भोजनों से ब्राह्मणों को तृप्त किया॥

इतिहासों के देखने से यह भी प्रतीत होता है कि श्री रामचन्द्रादि अनेक धर्म्मिष्ठों ने उनके हाथ से भी छूत नहीं मानी, जिन हिन्दू जातियों को इस समय नीच माना जाता है॥

जब श्री रामचन्द्रजी शवरी (भीलनी के) आश्रम में गये,

तौ दृष्ट्वा तदा सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।
पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्यच धीमतः॥६॥
पाद्य माचमनीयञ्चसर्वं प्रादाद्यथा विधि॥७॥

वा० रा० सु०

तो उन दोनों भाइयों को देखकर वह हाथ जोड़ कर उठी पाओं छूप और यथा विधि पाद्य आचमन दिया। एवं भारत-वन पर्व अध्याय में लिखा है कि—

प्रविश्यच गृहं रम्य मासनेनाभि पूजितः,
पाद्य माचनीयञ्चप्रतिगृह्य दिजोत्तमः।

एक वेदवेत्ता कौशिक ब्राह्मण मिथिला देश में एक व्याध (कसाई) के गृह में जाता है और उससे जल लेकर आचमन करता है॥

मेरे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं हैं कि भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं होना चाहिये अथवा कोई अभोज्यान्न नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि शास्त्रों में चतुर्वणियों में से किसीवर्ण विशेष को इस लिये अभोज्यान्न नहीं लिखा कि वह अमुक वर्ण में उत्पन्न हुआ है। प्रत्युत शास्त्र बतलाते हैं कि जिसका आचार भ्रष्ट हो, जो क्रियाहीन हो जो भक्ष्याभक्ष्य का विचार न करता हो उसका अन्न नहीं खाना चाहिये, चाहे वह ब्राह्मण गृह में ही उत्पन्न हुआ हो जैसे

नाश्रोत्रियतते यज्ञे मनुः–४–२०५

अश्रोत्रिय से कराये यज्ञ में अन्न नहीं खाना चाहिये।

दत्तान्न मग्नि हीनम्यन गृह्णीयात्कदाचन
याज्ञवल्क्य०

अग्निहीन का अन्न नहीं खाना चाहिये। इत्यादि यदि वर्ण दृष्टि से भोज्याभोज्य की व्यवस्था होती तो राजा के अन्न का निषेध न होता। मनु बतलाता है कि—

राजान्नं तेज आदत्ते मनुः ४–२१८

राजा का अन्न नहीं खाना चाहिये, क्योंकि राजा का अन्न तेज को हर लेता है॥

परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि प्रत्येक राजा का अन्ननहीं खाना चाहिये। क्योंकि प्राचीन समय में ऋषि महर्षि तथा ब्राह्मण राजाओं का अन्न खाते थे और इससमय ब्राह्मण राजाओं

का अन्न खाते हैं, यदि खाते हैं तो “राजान्नं तेज आदत्ते” का क्या मतलब?

उपनिषध में एक इतिहास आता है कि जब ऋषियों ने राजा अश्वपति का धन नहीं लिया तो राजा ने कहा कि—

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यों न मद्यपः।
ना ना हिताग्निर्ना विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः॥

छां० ५।११

आप मेरी भेंट क्यों नहीं स्वीकार करते मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई कदर्य (कृपण) नहीं, कोई मद्यप (शराबी) नहीं कोई अग्नि शून्य नहीं (अर्थात् ऐसा कोई नहीं जो नित्यप्रति अग्नि होत्र न करता हो) कोई अनपढ़ (मूर्ख) नहीं, कोई व्यभिचारी नहीं तो फिर व्यभिचारिणी कहाँ?

इत्यादि वाक्यों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि शास्त्र चोर अब्रती मद्यपायी आदि भ्रष्टाचारी का अन्न अभोज्यान्न बताते हैं, और जिसराजा का आचार भ्रष्ट हो जिसका अन्न अन्याय से आया हो ऐसेराजा का अन्न नहीं खाना चाहिये॥

क्योंकि उस मलिन् अन्न से एक व्रती ब्राह्मण का मन मलीन होता है और तेज नष्ट हो जाता है।

जैसा कि याज्ञवल्क्य श्लोक १४० स्नातक प्र० में लिखा है

नराज्ञः प्रति गृह्णीया ल्लुब्धस्यो च्छास्त्रवर्त्तिनः॥

कृपण और शास्त्राज्ञाके प्रतिकूल चलने वाले राजा का अन्न न लेवे।

यही भाव शूद्र शब्द का है! जहां यह आता है कि शुद्र का अन्न नहीं खाना चाहिये। जैसाकि इसी राजान्नं तेज आदत्ते के आगे

** शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसं। मनु ४-२१८** लिखा है। यहां यह मतलब नहीं है कि शुद्र वर्ण में उत्पन्न हुए का अन्न नहीं खाना चाहिये प्रत्युत यहां ऋषियों का तात्पर्य यह है किः—

** (शुचं द्रवतीति शूद्रः)** जो पवित्रता से रहित हो उसका अन्न नहीं खाना चाहिये। और इस भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में प्रत्येक विद्वान् ने यही अर्थ किया है। क्योंकि यदि शूद्र वर्ण से ही तात्पर्य होता तो (कर्मारस्य निषादस्य रंगावतारकस्यच) मनुः ४-२१५ लुहार सुनार निषाध आदि के नामोंकी क्या आवश्यकता थी, क्या ये एक शूद्र शब्द वा असज शब्द में नहीं आ सकते थे, इससे सिद्ध हाता है कि जहां पातत बा चांडालादि क्रिया भ्रष्ट और मलिन अन्न बालों का वर्णन किया वहां शूद्र शब्द से अपने कर्त्तव्य भ्रष्ट शौचाचार विहीन चतुर्वर्णियों का भाव है न कि शुद्र वर्ण का॥

महर्षि आपस्तंब अपने धर्म सूत्र में भोज्याभोज्यान्न का वर्णन करते हुए प्रश्नोत्तर रूप से लिखते हैं कि—

प्र० क आश्यान्नः– १।६–१९ किसका अन्न खाना चाहिये

** उ० इप्सेदिति कण्वः**– ३।१।६–१९ कण्यऋषि उत्तर देते हैं कि जो खिलाना चाहे!

इस में यह संदेह था कि तबतो चांडालादि सब का खा लेना चाहिये इस लिये कौत्स ऋषि कहते हैं कि—

पुण्य इतिकौत्सः ।४। १–६–१९

जो पवित्र शुद्धाचारी हो उसका अन्न खाना चाहिये॥

वार्ष्यायणि ऋषि का मत है कि—

यः कश्चिद् दद्यादिति वार्ष्यायणिः॥५॥१-६-१९

चतुर्वर्णियों में से जो कोई दे देवे उसी का खा लेना चाहिये।

इस में आपस्तंब१-६-१८ में ऋषि अपना सिद्धान्त प्रकट करता है।

सर्व वर्णानां स्वधर्मे वर्त्तमानानां भोक्तव्यम् ।१३॥

अपने २ धर्म में वर्त्तमान सब वर्णोंका अन्न खाना योग्य है यह लिखकर आगे कहता है कि (शुद्र वर्ज्ज मित्येके) कोई२ यह भी कहते हैं कि शुद्र का नहीं खाना चाहिये परंतु इस में अपना सिद्धान्त प्रकट करते हुए आगे सूत्र १४ में लिखा

** (तस्यापि धर्मोपनतस्य)** अपने धर्म में स्थित शूद्र का भी खा लेना चाहिये॥

यही सिद्धान्त मनु के इस श्लोक से भी पाया जाता है।

नाद्याच्छूद्रस्य पक्वान्नं विद्वान श्राद्धिनोद्विजः॥
मनुः ४–२२३

विद्वान् ब्राह्मण श्राद्ध से शून्य शूद्र का अन्न न खावे। किसी २ टीका कारने (अश्राद्धिनः) के स्थान में (अश्रद्धिनः) पाठ रक्खा है कि श्रद्धाहीन का अन्न नहीं खाना चाहिये॥ और आपस्तंबआदि के (धर्मोपनतस्य) आदि वचनों से यही युक्त भी प्रतीत होता है। अस्तु इस से झगड़ा नहीं क्योंकि श्राद्ध भी श्रद्धा से ही किया जाता है। इन वाक्यों से सिद्ध होता है कि अपने २ धर्म में तत्पर चारों वर्णों का अन्न भोज्यान्न है।

यदि उत्पत्ति क्रम से ही शूद्र अभोज्यान्न होता तो “दास नापित गोपाल कुल मित्रार्द्ध सीरिणः” पराशर ११-२२ दास (कैवर्त्त) माई–गोपाल आदि को भोज्यान्न न लिखते क्योंकि—

रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड़ एव च।
कैवर्त्तमेद भिल्लाश्च सप्तैतेंऽत्यजाः स्मृताः॥अत्रि २९५

सब ने दास (कैवर्त्त) को अंत्यज लिखा है। एवं व्यासस्मृति १-१० में (बर्द्धको नापितो गोपः) व्याज लेने वाले, नाई, तथा गोप को अंत्यज लिखा परन्तु आगे इन्हीं को व्यासस्मृति-३-५१ में भोज्यान्न लिखा है और विरुद्ध इसके ऐसेभी अनेक प्रमाण पाये जाते हैं जिन में क्रिया भ्रष्ट ब्राह्मण कुमारों को भी अभोज्यान्न में लिखा है जैसे–

दुराचारस्य विप्रस्य निषिद्धा चरणस्य च।
अन्नं भुक्त्वाद्विजः कुर्य्या द्दिनमेकमभोजनम्॥

पराशर १२-५७

दुराचारी—और निषिद्ध आचारण वाले ब्राह्मणोत्पन्न का अन्न खा कर द्विज एक दिन उपवास करें॥

यो गृहीत्वा विवाहाग्निंगृहस्थ इति मन्यते।
अन्नं तस्य न भोक्तव्यं बृथापाको हि सः स्मृतः॥

जो विवाह की अग्नि लेकर पुनः उसकी रक्षा नहीं करता अर्थात् अग्नि होत्र नहीं करता। उसका अन्न नहीं खाना चाहिये, क्योंकि वह वृथापाकी है॥

क्रियाहीनश्च मूर्खश्च सर्व धर्म विवर्ज्जितः।
निर्दयः सर्व भूतेषु विप्र श्चाण्डाल उच्यते॥अत्रि ३८१

जो ब्राह्मण के गृह में उत्पन्न होकर क्रियाहीन हो, मूर्ख हो अध्ययनाध्यापनादि धर्म से रहित हो, निर्दयी हो वह चाण्डाल है॥ अतएव आपस्तंबने सिद्धान्त किया कि अपने २ धर्म में स्थित चारों वर्णों का अन्न खाना चाहिये॥

अब प्रश्न यह होता है कि यदि वे (समानी प्रपाः सहवोऽन्नभागः) इस वेदाज्ञाके अनुसार चतुर्वर्णी सह भोजी हैं, तो पुनः भ्रष्टाचारी का क्या और पतित का क्या? क्यों न इस खान पान की कैद को ही उठा दिया जावे इस के उत्तर में निवेदन है कि आर्य्यजाति के संमुख सदा से एक लक्ष्य रहा है जिसको उसने अपने जीवन का मुख्योद्देश्य माना है, और जिसकी पूर्त्ति के लिये ही संपूर्ण नियमोपनियमों का अनुष्ठान है, उसका नाम आत्म ज्ञान वा ब्रह्म प्राप्ति है।

वेद कहता है कि वह (शुद्धमपापविद्धम्) यजुःअध्या० ४०।शुद्ध पवित्र और निष्पाप है अतः उसकी प्राप्ति के लिये शुद्धि की आवश्यकता है, बृद्ध गौतम कहता है कि—

त्रिदण्ड धारणं मौनं जटा धारण मुंडनम्।
बलकला जिनर्वाशो व्रतचर्य्याभि षेचनम्॥
अग्निहोत्रं बनेवासः स्वाध्यायोध्यान संस्क्रिया।
सर्वाण्येतानि वै मिथ्या यदि भावो न निर्मलः॥

त्रिदंड धारण करना— मौनसाधन अथवा मुंडन आदि सब

वृथा हैं अर्थात् केवल इन से आत्मिक ज्ञान नहीं होता जब तक कि भाव शुद्ध न हो। और भाव (चित्त) की शुद्धि बिना आहार शुद्धि के असंभव है जिसका अन्न अपवित्र है इसका भाव निर्मल नहीं हो सकता॥

ऋषियों का सिद्धान्त है कि—

आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः

आहार की शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है, और चित्त शुद्धि से सत्यज्ञान की प्राप्ति होती है। अतः ऋषियों ने वेदानुसार शौच को धर्म का एकांग मान कर शौचाचार का उपदेश किया॥

ऋषियों का सिद्धान्त है कि—

शौचाचार विहीनस्य समस्ताः निष्फलाः क्रियाःदक्ष० अ० ५

शौचाचार से जो हीन है उसके सब कर्म निष्फल हैं। वह शौच क्या है इसका उत्तर देते हुए अत्रि ऋषि लिखता है कि—

अभक्ष्य परिहारश्च संसर्गश्चाप्य निन्दितैः।
आचारेषु व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते॥अत्रि ३५

अभक्ष्य का त्याग, निन्दित (पतितों) का त्याग और अपने आचार में स्थिति को शौच कहा है॥

और यह शौच धर्म चतुर्वर्णियों का साधारण धर्म है मनु ने जहां चतुर्वर्णियों के (अध्ययनाध्यापन) आदि भिन्न २ धर्मों को

बतलाया, वहां साधारण धर्मों का वर्णन करते हुए लिखा कि—

अहिंसा सत्य मस्तेयं शौचमिन्द्रिय निगृहः।
एतं सामासिकं धर्मं चातुवर्ण्येऽब्रवीन्मनुः॥

मनुः १०-६३

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) शौच और इन्द्रिय दमन यह चारों वर्णों के सामान्य धर्म हैं ॥

यदि मनु के कथनानुसारयह सत्य है कि शुद्र का भी शौच धर्म है जैसाब्राह्मण का और यदि यह सत्य है कि जो अभक्ष्य भक्षण से रहित और अपने आचार में स्थित है वह शुद्ध पवित्र है, तो अवश्य मानना पड़ता है कि जहां शूद्र के अन्न का निषेध है वहां (शुचं द्रवतीति शुद्रः) पूर्वोक्त शौच को त्यागने वाले का नाम शुद्र है चाहे किसी वर्ण में उत्पन्न हुआ हो। और आपस्तंव का यह कथन सत्य है कि (सर्व वर्णानां स्वधर्मेवर्त्त मानानां भोक्तव्यम्) अपने धर्म में स्थित चारों वर्णों का अन्न खाने योग्य है, और पतित भ्रष्टाचारी का अन्न नहीं खाना चाहिये इति।

वेद ने जहां “समानीप्रपाः” का उपदेश किया साथ ही यह भी आज्ञा दी।

स॒प्तम॒र्य्यादाः॑क॒वय॑स्तक्षु॒ स्ता॒सामेका॒मि दभ्यं॑हुरोगा॑त् ऋ० अष्टक ७ अ० ५ व० ३३॥

सात मर्यादाएं (अर्थात् काम क्रोधादादि से उत्पन्न भ्रष्ट रासते) नियत की गई हैं। जो मनुष्य उन में से किसी एक को भी ग्रहण करता है वह पापी (पतित) हो जाता है॥

वह सात मर्यादाएं कौन हैं इनका सायणाचार्य निरुक्त ६- २७ से उद्धृत करता है।

** स्तेयं गुरुतल्पारोहणं ब्रह्महत्या सुरापानं दुष्कृत कर्म्मणः पुनः पुनः सेवनं पातकेऽनृतो घमिति॥**

चोरी, गुरु स्त्री गमन, ब्रह्महत्या, मद्यपान, दुष्कर्मों का बार २ सेवन और पातक में झूठ॥

इन्हीं की शास्त्रों में विशेष व्याख्या है इनका अन्न तथा संसर्ग त्याज्य है जब तक कि युक्त प्रायश्चित्त न करें॥

** यथा। न भक्षये क्रियादुष्टं यद् दुष्टं पतितैः पृथक्।**

क्रिया दुष्ट और पतितों से दुष्ट अन्न को न खाना चाहिये॥

२ अभक्ष्याणि द्विजाताना म मेध्यप्रभवाणि च॥

अमेध्य अपवित्र स्थान में उत्पन्न को न खाना चाहिये जैसे।

मृद्वारि कुसमादींश्च फलकंदेक्षुमुलकान् विण्मुत्र दूषितान् प्राश्य चरेत् कृच्छ्रंच पादतः॥

लघु विष्णुः ।

फल गन्ना मूली आदि यदि विष्टा मूत्रसे दूषित हो अर्थात्अपवित्र स्थान में उत्पन्न होतो उनको खाकर कृच्छ्र व्रत को एक पाद करे।

म्लेच्छान्नं म्लेच्छ संस्पर्शः म्लेच्छेन सह संस्थितिः।

देवलः ।

म्लेच्छों का अन्न खाकर म्लेच्छों से स्पर्श कर तथा स्थिति करके तीन रात्रि उपवास करना चाहिये॥

एवं। संसर्ग दुष्टं यच्चान्नं क्रियादुष्टं च कामतः।
भुक्त्वास्वभाव दुष्टं च तप्तकृच्छं समाचरेत्॥व्यास।

संसर्गदुष्ठ, क्रिया दुष्ट और स्वभावदुष्ठ अन्न को खाकर तप्त कृच्छ्र ब्रत करे॥

स्वभावदुष्ट॥मांस मूत्र पुरीषाणि प्राश्य गो मांसमेव च।
श्व गो मायुकपीनांच तप्त कृच्छ्रंविधीयते॥पाठीनसिः

मांस मूत्र पुरीष (विष्टा) तथा गो कुत्ता, गीदड़, कपि का मांस खाकर तप्तकृच्छ्र व्रत करे।

संसर्गदुष्ट॥केशकीरावपन्नं तु नीली लाक्षोपघातितम्।
स्नाय्वस्थि चर्म संस्पृष्टं भुक्त्वान्नंतूपवसेदहः॥

वृहद्यमः

केश (बाल) कीर, नील, लाक्षा से युक्त तथा हड्डी चर्म आदि से छूत अन्न को खाकर उपवास करना चाहिये।

जाति दुष्ट— अविखरोष्ट्र मानुषीक्षीर प्राशने तप्तकृच्छ्रः।

भेड़, गधी, ऊंटनी और मानुषी का दूध पीकर तप्त कृच्छ्र करे।

एवं रस दुष्ट गुण दुष्ट और काल दुष्ट अन्न का निषेध है जिन से शारीरिक और आत्मिक उन्नति में बाधा पड़ती हो।

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/> विवाह <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731471232Screenshot2024-11-10194120.png"/>

इसमे सन्देह नहीं कि तुल्य वर्ण का विवाह अर्थात् ब्राह्मण गुण युक्त ब्राह्मण कुमार का तदनुकूल ब्राह्मण कुमारी से विवाह उत्तम और श्रेयस्कर है और इसकी सबने प्रशंसा की है, क्योंकि उत्तम वीर्य और उत्तम क्षेत्र के संयोग से उत्तम संतान की विशेष संभावना है परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि अपने से नीचे वर्ण में विवाई करने वाला पतित होजाता है। क्योंकि ऋषियों ने वर्ण क्राम से चार, तीन, दो और एक वर्ण में विवाह की आज्ञा दी है :—

शूद्रैव भार्य्याशूद्रस्य सा च स्वाच विशः स्मृतः।
तेच स्वाचैव राज्ञ श्चताश्चस्वाचाग्रजन्मनः॥

मनुः ३–१३

ब्राह्मण की ब्राह्मणी क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा स्त्री होसक्ती है, अर्थात् ब्राह्मण चारों वर्णों में विवाह कर सकता है। क्षत्रिय तीन में वैश्य दो में शूद्रकेवल एक शुद्र वर्ण में।

हां याज्ञवल्क्य आदि ने ब्राह्मण का शूद्रा से विवाह का निषेध किया, परन्तु प्राचीनकाल में अनेकों ने मनु की इस आज्ञा का अनुकरण किया और वे पतित नहीं हुए॥

मनु का सिद्धान्त हैं कि :—

यादृग्गुणेन भर्त्रास्त्री सं युज्येद् यथाविधिः।
तादृग् गुणा साभवति समुद्रेणेवनिम्नगा॥

मनुः ९–२२

स्त्री जैसे भर्त्ता से विवाही जाती है, वैसी ही होजाती है जैसे समुद्र में मिली हुई नदी। अर्थात् उसका वही वर्ण और गोत्र हो जाता है जो पति का :—

इसके आगे उदाहरण रूप से बताया है कि**–**

अक्षमाला वशिष्ठेन संयुक्ता धम योनिजा।
शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणी यताम्॥

मनुः ९–२३

अधम योनि में उत्पन्न अक्षमाला वशिष्ठ के संग से तथा शारङ्गी मन्दपाल के सङ्ग विवाह करने से पूज्य बनीं। अतएव सम्पूर्ण

ऋषियों ने (बुद्धिमतेकन्यां प्रयच्छेत्) आश्वला० गृ० सू० १-५-२।

नचैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्। मनुः

इस बात पर बल दिया कि गुण कमानुसार योग्य वर का कन्या देनी चाहिये।

इतिहासों के देखने से प्रतीत होता है कि भृगु आदिकों ने न केवल अनुलोमजविवाह किया प्रत्युत बहुत से द्विजातियों ने उन की कन्याओं से विवाह किया जिनको नीच वा अन्त्यज कहा जाता है।

महाराजा शन्तनु कैवर्त्य (अन्त्यज) की कन्या को देखकर कहता है :—

न चास्ति पत्नी मम वै द्वितीया।
त्वं धर्म पत्नी भव मे मृगाक्षि॥

दे० भा० स्कं० २ अ० ५

हे मृगनयनी! मेरे आगे कोई स्त्री नहीं है, तू मेरी धर्म पत्नी बन।

जब कैवर्त्त के आग्रह से भीष्म ने राज्य और विवाह दोनों के त्याग की प्रतिज्ञा की तो :—

एवं कृत प्रतिज्ञांतु निशम्य षझजीविकः।
ददौ सत्यवतीं तस्मै राज्ञे सर्वाङ्ग शोभनाम्॥

इस कैवर्त्त ने अपनी सत्यबती कन्या शन्तनुको विवाह दी।

एवं पराशर तथा व्यासका शुद्रकन्या से पुत्र उत्पन्न करना अर्जुन का उलोपी से विवाह भीमसेनका हिडिम्बा से पुत्र उत्पन्न करना इसका साक्षी है कि निचले वर्ण से कन्या लेने में कोई पतित नहीं हुआ॥

विशेष क्या करें ऋषियों ने तो पतितों की कन्या भी ले लेने की आज्ञा दी है देखो याज्ञवल्क्य प्रा० प्र० श्लोक २६१–और इस की मिताक्षरा टीका।

कन्यां समुद्धहे देषां सोपवासाम किञ्चनाम्। २६१।

पतितों की कन्या को विवाह ले–जो उन पतितों के धन से रहित हो और जिसने उपवास किया हो॥

मिताक्षरा (पतितोत्पन्नापिसा न पतिता) पतित से उत्पन्न हो कर भी कन्या पतित नहीं होती॥

बसिष्ट कहता है

पतितोत्पन्नः पतित इत्याहुरन्यत्र स्त्रियः।
सा हि पर गामिनी तामरिक्या मुपादेयादिति॥

पतित की संतान पतित होती है बिना कन्या के, अर्थात् कन्या पतित नहीं होती, क्योंकि कन्या दूसरे घर जाने वाली होती है, वह त्यागने योग्य नहीं।

इस लिये उन पतितों के धन से रहित उसको विवाह लेना चाहिये॥

** हारीत – पतिस्य कुमारीं विवस्त्रामहोरात्र मुपोषितां प्रातः शुक्लेन वाससाच्छादितां “नाह मेतेषां नममैत”**

इति त्रिरुच्चैरभिदधानां तीर्थे स्वगृहे वोद्वहेत्।

पतित की कन्या जो वस्त्र से रहित हो जिसने एक रातदिन का उपवास कर लिया हो प्रातःकाल नवीन वस्त्र से आच्छादित होऔर जो तीनवार उच्च स्वर से कहदे कि “न मैं इनकी और न यह मेरे” अर्थात् उन पतितों का संसर्ग छोड़ दे उसको विवाह लेना चाहिये। मिताक्षराकार यह व्यवस्था देता हुआ लिखता है :—

एवं च सति पतित योनि संसर्ग प्रतिषेधो भवति।

ऐसा करने से पतित योनि संसर्ग दोष दूर होजाता है अत एव मनु की आज्ञा है कि :—

स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।
विवधानि च रत्नानि समादेयानि सर्वतः॥

मनुः २-२४०

स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म्म, शौच, और सुभाषित जहां से मिले ले लेना चाहिये॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/> पतित और प्रायश्चित्त <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>

१ अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितञ्चसमाचरन्।
प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु, प्रायश्चित्तीयते नरः॥

मनुः-११-४४

विहित कर्मोंके न करने से निन्दित कर्मों के सेवन तथा इन्द्रियासक्ति से मनुष्य प्रायश्चित्त के योग्य हो जाता है॥

जैसे निर्मल दर्पण कालिया आदि के संसर्ग से मलिन हो

कर प्रतिविम्ब दर्शन के योग्य नहीं रहता, जब तक कि युक्त साधनों द्वारा उसका मार्ज्जन न किया जावे।

एवं मनुष्य का अन्तःकरणावच्छिन्न जीवात्मा मोहा वरण से आच्छादित होकर अभक्ष्य भक्षणादि पापाचार से मलिन वा अपवित्र हो जाता है, जब तक कि उसको युक्त रीति से शुद्ध न किया जावे॥अतएव ऋषियों ने आज्ञा दी कि :—

एवमस्यान्तरात्माच लोकश्चैव प्रसीदति॥
पा० प्रा० प्र०३-२२०

इस (प्रायश्चित्त) सेप्रायश्चित्ती का अन्तरात्मा और लोग प्रसन्न हो जाते हैं। क्योंकि प्रायश्चित्त का अर्थ ही पापों से छूटना और निर्मलता को स्वीकार करना है। जैसेः—

प्रायः पापं विजानीयाश्चितं वै तद्विशोधनम्।

प्रायः, नाम पाप का है और चित्त उसकी शुद्धि है तथा

प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते।
तपो निश्चय संयुक्तं प्रायश्चित्तं तदुच्यते॥

प्रायः नाम तप का है और चित्त नाम निश्चय का है, तप और निश्चय को प्रायश्चित्त कहते हैं। अर्थात वह साधन जो शास्त्रों तथा देशकालानुनार विद्वान् पुरुषों ने नियत किये हों, जिन के अनुष्ठान से पातकी के आत्मा तथा जाति की प्रसन्नता हो, उसका नाम प्रायश्चित्त है॥ अत्रि ऋषि इस प्रकार से इसका नाम शौच रक्खते हैं-जैसे

अभक्ष्य परिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः।
आचारेषु व्यवस्थानं शौच मित्यभिधीयते॥

                       अत्रि० श्लो० ३५

अभक्ष्य का परित्याग नीच संसर्ग से वियुक्ति और अपने वर्णाश्रमानुकूल सदाचार में स्थिति का नाम शौच वा शुद्धि है॥

में इस प्रायश्चित्त निर्णय से प्रथम यह प्रकट कर देना चाहता हूं कि इस विषय में संप्रति प्राचीन आर्य जाति से हम बहुत दूर चले गये हैं। प्राचीन समय में क्या शास्त्र दृष्टि से और क्या कर्मानुष्ठान से जिसको जातिच्युत (पतित) समझा जाता था इस समय के अनुष्ठान में ऐसानहीं दीख पड़ता चाहे शास्त्र दृष्टि में वह अब भी ऐसे ही पाप हैं जैसेकि इन सेप्रथम थे। मनु बतलाता है कि

ब्राह्मणस्य रूजः कृत्वा घ्राति रघ्रेयमद्ययोः
जैह्मयं च मैथुनं पुंसि जाति भ्रंशकरं स्मृतम्॥

मनु० ११।६७।

ब्राह्मण को लाठी आदि से दुःख देने वाला, मद्यऔर दुर्गन्धि युक्त पदार्थों को सूंघने वाला, कुटिल, तथा पुरुषसे मैथुन करने वाला, जातिच्युत (पतित) होता है॥

जाति भ्रंशकरं कर्म्मकृत्वाऽन्यतम मिच्छया।
चरेत्सां तपनं कृच्छ्रंप्राजापत्यम निच्छया
॥**
**मनु० ११।१२४

इन (पूर्वोक्त) में से कोई भी कर्म्मइच्छा के करने से प्राजापत्य ब्रत करे॥ परंतु आज कल ऐसे कर्म्मकरने वालों को जाति च्युत नहीं किया जाता॥

शास्त्रों में लिखा है कि

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः।
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह॥
अनृतं च समुत्कर्षे राजगामिच पैशुनम्।
गुरोश्चालीक निर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया॥इत्यादि

मनुः-११ श्लो० ५४-५८

ब्रह्महत्या, सुरापान (शराब पीना) चोरी– और गुरु की स्त्री से संग यह महा पाप हैं। और इन से ससंर्ग करने वाला भी महा पातकी है तथा असत्य बोलना, चुगलीखाना, वेद की निन्दा झूठी साक्षी देना, धरोहर का हर लेना आदि को पूर्वोक्त महा पातकों के तुल्य लिख कर नाना प्रायश्चित्त लिखे जिनमें प्राणान्त तक भी दण्ड विधान है। जिनकी ओर आज कल दृष्टि नहीं दी जाती। इसका यह मतलब नहीं कि अब वह पाप नहीं रहे। तात्पर्य यह है कि समय के प्रभाव से सुरापान वा असत्यभाषण आदि से किसी को जातिच्युत नहीं समझा जाता। और ब्रह्महत्याआदि में यदि दंड दिया जाता है तो वह राज्य की और से ही होता है।

अतः उन सब को विस्तार भय से छेड़कर इस पुस्तक में केवल उन्हीं पातकों वा उपपातकों कोदरशायां गया है जिनसे

इस समय मनुष्य पतित किया जाता है और जिनकी शुद्धि में विवाद होरहे हैं।

क्या प्राचीन समय में और क्या वर्त्तमान् में आर्यजाति सदैव गोहत्याऔर गोमांसभक्षण को पाप मानती रही है और मानती है। और इस पाप में ग्रस्त को जातिच्युत समझा जाता है। इस लिये सब से प्रथम इसी का वर्णन किया जाता है।

मन्वादि सकल स्मृतिकारों ने गोबध को उपपातकों में स्थान दिया है, और उसके प्रायश्चित्त का भी देश काल पाप वा शत्क्यनुसार न्यूनाधिकतया वर्णन किया है।

मनुने अध्याय ११ श्लो० १०८—११६ में लिखा है किः—

उपपातक संयुक्तो गोध्नो मासं यवान् पिबेत्।
कृतवापो वसेद् गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः। १०८

उपपातक युक्त गो घातक एक मास पर्यन्त यवों को पीवे, मुण्डन कराकर गौका चर्मओढ़ गोशाला में रहे।

जितेन्द्रिय होकर क्षार लवण रहित अन्न को चौथे प्रहर खावे और दो मासपर्यन्त गौमूत्र से स्नान करे॥

चलती के पीछे चले बैठने पर बैठ जाय इत्यादि सेवा बतला कर कि इसप्रकार जो गौ हत्यारा गौ की सेवा करता है यह तीन मास में उसपाप सेछूटकर शुद्ध होजाता है।

व्रत के उपरान्त दस १० गौयें और एक बैल वेदवेत्ताब्राह्मण को देवें यदि इतनी शक्ति न रखता हो तो सर्वस्वदे देवे।

याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि :—

पंच गव्यं पिबेद् गोघ्नो मासमासीच्च संयतः।
गोष्टेशयो गोनुगामी गोप्रदानेन शुद्धयति॥

(या० प्रा० प्र३)

गौ हत्यारा मास पर्यन्त संयम से पञ्चगव्य पीने से, गोष्ठ में शयन करने से गौके पीछे चलने तथा गोदान से शुद्ध होजाता है।

समय के परिवर्त्तन से संवर्त्ताचार्य ने १५ दिन में इसकी शुद्धि की व्यवस्थादी।

गोघ्नः कुर्वीत संस्कारं गोष्ठे गोरुपसन्निधौ।
तत्रैवक्षितिशायी स्यान्मासार्द्धं संयतेन्द्रियः॥१३३॥
स्नानं त्रिषवणं कुर्यान्नख लोम विवर्ज्जितः।
सक्तु यावक भिक्षाशी पयोदधि सकृन्नरः॥ १३४॥
एतानि क्रमशोऽश्नीयात् द्विजस्तत्पापमोक्षकः।
गायत्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः॥१३५॥
पूर्णे चैवार्द्ध मासेच सविप्रान् भोजयेद् द्विजः।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु गांच दद्यात् विचक्षणः॥
(संवर्त्त० १३६)

गोघातक गोशाला में जाकर संस्कार करे, वहां ही पृथिवी पर १५ दिन शयन करे, तीन वक्त स्नान करे, नख तथा लोम कटवादे, मांगकर यवों के सत्तु खाये, अथवा एक वक्त दूध वा दही खाये, गोहत्या से मुक्त होने के लिये इन साधनों को करे।

गायत्री तथा अन्य पवित्र अघमर्षण आदि यंवों का जप

करे जब १५ दिन पूर्ण होजावे, तो ब्रह्मभोज करे और गौदान देवे।

एवं संपूर्ण उपपातकों के भिन्न २ प्रायश्चित्त बतलाकर अन्त में सर्व साधारण प्रायश्चित्त का उपदेश किया :—

उपपातक शुद्धिः स्याच्चान्द्रायण ब्रतेन च।
पयसा वापि मासेन पराकेणाथ वा पुनः॥

(या० प्रा० प्र० ६-२६५)

चान्द्रायण ब्रत से, वा एक मास पर्यन्त दूध पान करने से, अथवा पराक ब्रत करने से ही गोहत्या आदि सकल उपपातकों की शुद्धि होजाती है। इसमें मिताक्षराकार व्यवस्था देता है कि याज्ञवल्क्य ने देश काल शक्ति की अपेक्षा से अज्ञानकृत गोहत्या में चार व्रत नियत किये हैं। १ चान्द्रायण २ मास पर्यन्त दुग्धपान, मास पर्यन्त पञ्चगव्य, वा पराकब्रत, शक्त्यानुसार इनमें कोई एक करने से शुद्धि होजाती है। और ज्ञान से गोबध में मनु का सिद्धान्त है कि :—

अवकीर्णी वर्ज्जंशुद्ध्यर्थंचान्द्रायण मथापिवा। (मनुः ११-११७)

बिना अवकीर्णी के शेष सत्र उपपातकियों की चान्द्रायण से शुद्धि होजाती है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731332678Screenshot2024-11-10194120.png"/> अभक्ष्यभक्षण तथा अगम्या गमन <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731332678Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अभोज्यानांञ्च भुक्त्वान्नं स्त्री शूद्रोच्छिष्ट मेवच।
जग्ध्वा मांस मभक्ष्यंच सप्तरात्रं यवान् पिबेत्॥

(मनुः ११-१५२)

अभोज्य अर्थात् पतित म्लेच्छ आदिकों का अन्न खाकर स्त्री और शूद्र का जूठा अन्न खाकर तथा अभक्ष्य मांस (गोमां सादि) खाकर सात रात्रि जौ के सत्तु वा (लप्सी) खाने से शुद्धि होजाती है। एवं अत्रिस्मृतिः पृ० ३ श्लो० ७२।

अमेध्य रेतो गोमांसं चांडालान्न मथापिवा।
यदि भुक्तं तु विप्रेण कृच्छ्रंचान्द्रायणं चरेत्॥
(पराशर–११–१)

अपवित्र वीर्य– गोमांस तथा चांडाल का अन्न खाकर ब्राह्मण कृच्छ्र चान्द्रायण से शुद्ध होता है॥ (ऐसेस्थानों पर जहां केवल ब्राह्मण का ही नाम हो (क्षत्रिय विट्शूद्राणां तु पादपाद हानिः) का सिद्धान्त याद रक्खें अर्थात नीचे २ वर्ण में एक२ पाद कम हो जाता है।

अगम्या गमनं कृत्वा मद्य गोमांस भक्षणम्।
शुद्धयेच्चाद्रायणाद्विप्रः प्राजायत्येन भूमिपः॥
वैश्यः सांतपनाच्छूद्रः पंचाहो भिर्विशुद्ध्यति॥

गरुड़पु० मू० अ० २१४– श्लो० ४९

न गमन करने योग्य स्त्री से गमन कर, मद्य और गो मांस भक्षण करके ब्राह्मण चान्द्रायण ब्रत करे, क्षत्रिय प्राजापत्य वैश्य सांतपन और शूद्र पांच दिन के ब्रत से शुद्ध हो जाता है॥

भुंक्ते ज्ञानाद् द्विजश्रेष्टश्चाण्डालान्नं कथंचन।
गोमूत्र यावकाहारो दशरात्रेण शुद्ध्यति॥

पराशर० ६–३२

ब्राह्मण यदि ज्ञान पूर्वक चाण्डाल का अन्न खाले, तो दस दिन यवखाने तथा गो मूत्र पीने से शुद्ध हो जाता है॥

अन्त्यजोच्छिष्ट भुक् शुद्ध्येत् द्विजश्चान्द्रायणेनच।
चाण्डालान्नं यदा भुंक्ते प्रमादादैन्दवं चरेत्॥
क्षत्रजातिः सान्तपनं पक्षो रात्रं परे तथा॥

गरुड़–पू० आ० २१४–१२

द्विज अन्त्यजों का जूठा खाकर चाद्रायण व्रत से शुद्ध होता है यदि ब्राह्मण प्रमाद से चांडाल का अन्न खाले तो चान्द्रायण क्षत्रिय सांतपन वैश्य पाक्षिक और शूद्र एक रात्रि के व्रत से शुद्ध हो जाता है॥

चाण्डालपुल्कसादीनां भुत्क्त्वा गत्वा च योषिताम्।
कृच्छ्राष्टमा चरेत्कामाद कामादैन्दवं चरेत्॥

यमस्मृ० २८

इच्छा पूर्वक चांडाल आदिकों का अन्न खाकर और उनकी स्त्रियों से मैथुन कर आठ कृच्छ्र ब्रत करने से शुद्ध हो जाता है॥

असंस्पृष्टेन संस्पृष्टः स्नानं तेन विधीयते॥
अत्रि० श्लो० ७३

नस्पर्श करने योग्यसे स्पर्श कर केवल स्नान से शुद्ध होजाताहै।

सर्वान्त्यजानां गमने भोजने संप्रवेशने।
पराकेण विशुद्धिः स्याद् भगवान त्रिरब्रवीत्॥१७॥

भगवान् अत्रि कहते हैं कि सपूर्ण अंत्यज जातियों के अन्नं खाने से उनमें गमन करने से पराक ब्रत से शुद्धि होती है ॥

संस्पृष्टं यस्तु पक्वान्न मन्त्यजैर्वा प्युदक्यया।
अज्ञानाद् ब्राह्मणोऽश्नीयात् प्राजापत्यार्द्धमा चरेत्॥

अत्रि १७२

ब्राह्मण अंत्यज तथा रजस्वला के स्पर्श किये पक्वअन्न को यदि अज्ञान से खाले तो आधा प्राजापत्य व्रत करे – और ज्ञान सेखाले तो मारा।

अन्त्यजानामपि सिद्धान्नं भक्षयित्वा द्विजातयः।
चान्द्रं कृच्छ्रंतदर्द्धं च ब्रह्म क्षत्र विशांविदः॥

अंगिराः–२

अन्त्यजों के भी पकाए अन्न को खाकर ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य क्रम सेचान्द्रायण, कृच्छ्र ओर आधा कृच्छ्रकर शुद्ध हो जाते हैं॥

कापालिकान्न भोक्तृणां तन्नारी गामिनां तथा।
कृच्छ्राब्दमा चरेज् ज्ञानाद ज्ञानादैन्दवं द्वयम्॥

यम–२९

ज्ञान सेकापलिकों का अन्न खाकर और उनकी स्त्रियों मे गमन कर वर्ष पर्यन्त कृच्छ्र व्रत करे और यदि अज्ञान से करे तो चान्द्रायण व्रत करे॥

महा पातकिनामन्नं योऽद्याद ज्ञानतो द्विजः।

अज्ञानात्तप्तकृच्छ्रंतु ज्ञानाच्चान्द्रायणं चरेत्॥
बृदत्पा० ६–१८९

जो द्विजमहा पातकियों के खाले तो अज्ञान से खाने में तप्त कृच्छ्र ब्रत करे। और ज्ञान पूर्वक खाने में चान्द्रायण व्रत कर शुद्ध हो जाता है॥

अभक्ष्य भक्षणे विप्रस्तथैवा पेयपान कृत्।
ब्रतमन्यत् प्रकुर्वीत वदन्त्यन्ये द्विजोत्तमाः॥

बृ० पा० ६–२०६

कई विद्वान् ब्राह्मणों का कथन है कि ब्राह्मण अभक्ष्य भक्षण कर तथा अपेय पानकर कोई एक ब्रत कर शुद्धहो जाता है॥

शलूषींरजकीं चैव वेणु चर्म्मोपजीवनीम्।
एताः गत्वा द्विजो मोहाच्चरेच्चान्द्रायण ब्रतम्॥

संवर्त्त–१५४

द्विज मोह से नटी, रजकी, डूमणी, अथवा चमारी से संगम करके चान्द्रायण व्रत करे॥

चांडालीं च श्वपाकीं वा अनुगच्छति यो द्विजः।
त्रिरात्र मुपवासीत विप्राणा मनुशासनात्॥५॥
सशिखं वपनं कृत्वा प्राजापत्यद्वयं चरेत्।
ब्रह्म कूर्चं ततः कृत्वा कुर्य्याद् ब्राह्मण तर्पणम्॥६॥
गायत्रीं च जपेन्नित्यं दद्याद् गो मिथुन द्वयम्।
विप्राय दक्षिणां दद्यात् शुद्धिमाप्नोत्य संशयम्॥७॥

परा० १०

जो द्विज चांडाली वा श्वपाकी का संग करे। वह ब्राह्मणों की आज्ञानुसार तीन दिन उपवास कर शिखा सहित मुंडन करा कर, अनन्तर ब्रह्म कूर्च करके ब्राह्मणों को प्रसन्न करे, नित्य गायत्री जप करे और दो गौ का दान करे तो शुद्ध हो जाता है॥

म्लेच्छान्नं म्लेच्छ संस्पर्शो म्लेच्छेन सह संस्थितिः
वत्सरं वत्सरादूर्ध्वं त्रिरात्रेण विशुद्ध्यति॥देवल०

जिसने एक वर्ष वा वर्ष से अधिक म्लेच्छों का अन्न खाया हो म्लेच्छ सहवास किया हो उसकी शुद्धि तीन दिन ब्रत करने से होता है॥

म्लेच्छः सहोषितो यस्तु पंच प्रभृति विंशतिम्।
वर्षाणि शुद्धिरेषोक्ता तस्य चान्द्रायण द्वयम्॥देव

जो पांच वर्ष से लेकर बीस वर्ष पर्यन्त म्लेच्छों के साथ रहा हो उसकी शुद्धि दो चान्द्रायण ब्रत करने से होजाती है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/> चाण्डालादिकों के जलपान में शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/>

चाण्डाल भाण्डे यत्तोयं पीत्वा चैव द्विजोत्तमः।
गोमूत्र यावकाहारो सप्त षट् त्रिः द्व्यहान्यपि॥

(अत्रि० १७१)

ब्राह्मण आदि यदि चाण्डाल के घड़े में से जल पीलें तो क्रमं से सात छः तीन और दो दिन गोमूत्र तथा यत्र खाने से शुद्ध होजाते हैं।

भाण्डे स्थितमभोज्यानां पयोदधि घृतं पिबेत्।

द्विजाते रूपवासः स्याच्छूद्रो दानेन शुद्ध्यति॥
(बृ० या० ६-२०९)

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य यदि अभोज्यों के भांडे में जल, दही और घी पीलें तो उपवास करके और शूद्र दान से शुद्ध होजाते हैं।

मद्यादि दुष्ट भाण्डेषु यदायं पिबतेद्विजः।
कृच्छ्रपादेन शुद्ध्येत् पुनः संस्कार कर्मणः॥

(गरु० पु० २१४-१७)

जो द्विज मद्य आदि से दुष्ट भांडे में जल पान करे, तो कृछ्रपाद से शुद्ध होजाता है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/> कुपादि की शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अस्थि चर्म मलं वापि मूषिके यदि कूपतः।
उद्धृत्य चोदकं पंचगव्याच्छुद्ध्येच्छोद्धितम्॥४६॥
कूपेच पतितौ दृष्ट्वा श्व शृगालौच मर्कटम्।
तत्कूपस्योदकं पीत्वा शुद्ध्येद्धिप्रस्त्रिभिर्दिनैः॥४७॥

(गरुड़० पु० २१४)

यदि जल भरने वाले कूप से अस्थि, चर्म, मल (विष्टा) वा मृत मूष निकले तो कूप का जल निकालने और पंचगव्य मे शुद्धि होजाती है। कूप में कुत्ता, गीदड़ वा वानर का गिरा हुआ देख कर और पुनः उसका जल पीकर ब्राह्मण तीन दिन में शुद्ध होता है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/>मलिन पदार्थों से शुद्धि<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731334135Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अज्ञानात् प्राश्य विन्मूत्रं सुरासंस्पृष्ट मेवच।
पुनः संस्कार मर्हन्ति त्रयोवर्णा द्विजोतमाः॥

(मनुः ११-१५०)

तीनों वर्ण मल, मूत्र और सुरा से युक्त पदार्थ को खाकर पुनः संस्कार के योग्य होजाते हैं। अर्थात् उनका पुनः यज्ञोपवीत संस्कार होना चाहिये, परन्तु इसमें मुण्डन वा मेखला आदि नहीं है।

आपद्धर्म।

जीवितातपमापन्नो यो ऽन्नमत्ति यतस्ततः।
आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते॥

(मनुः १०-१०४)

प्राणातप में जो द्विज जहां तहां खालेता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता जैसे पंक से आकाश। अर्थात् जहां मिले खालेवे।

आपद्गतो द्विजोऽश्नीयाद् गृह्णीयाद्वायतस्त तः।
न स लिप्यते पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा॥

(बृ० या० ६-३१८)

आपत्ति में द्विज इधर उधर खालेने से पाप में लिप्त नहीं होता, जैसे जल में कमल।

आपद्गतः सं प्रगृह्णन् भुंजानो वा यतस्ततः।

न लिप्यतैनसा विप्रो ज्वलनार्कसमो हि सः॥
(या० प्रा० प्र० ३ आ २ श्लो०)

आपत्ति में जहां तहां से लेकर खाता हुआ ब्राह्मण पापी नहीं होता, वह प्रकाशमान् सूर्यवत् उज्वल ही रहता है। इसी भाव से विश्वामित्र ने मातंग नाम चांडाल के घर से अभक्ष्य मांस खाने की चेष्टा की देखो महा० भा० शांतिपर्व० अ० ११।

इसी प्रकार :—

श्वमांसमिच्छन्नार्त्तोऽत्तुं धर्माधर्म विचक्षणः।
प्राणानां परि रक्षार्थं वामदेवो न लिप्तवान्॥

(मनुः-१०-१०६)

धर्माधर्म का ज्ञाता, भूखा हुआ वामदेव ऋषि प्राण रक्षार्थ कुत्ते का मांस खाने की इच्छा से भी पापी नहीं बना। एवं अजीगर्त तथा भारद्वाज आदि। (मनुः-१०)

एवं छान्दोग्य १-१० में आता है कि जब उपस्थि चाक्रायण क्षुधार्त्त होगया, तो उसने एक महावत से जो कुलत्थ खारहा था खाना मांगा । महावत ने कहा शोक है कि मेरे पास यही है, जो मैं खारहा हूं इनके सिवाय मेरे पास और नहीं हैं। तत्र उषस्थि ने कहा, इन्हीं में से मुझे भी देदो। महावत ने जूठे कुलत्थ देदिये, और उषस्थि ने प्रसन्नता से खाये। जब महावत ने उषस्थि को अपना जूठा जल दिया तो उपस्थि ने वह जल न पिया और कहा कि यदि मैं इस अन्न को न खाता तो मेरा जीवन न रहता। परन्तु मुझे पानी बहुत मिलता है। वह उषस्थि कुछ खाकर कुछ अपनी स्त्री के लिये लेगया, परन्तु उसकी स्त्री को पहिले कुछ

भिक्षा मिल गई थी। इसलिये उसने वह कुलत्थ लेकर रख दिये! दूसरे दिन प्रातःकाल वही बासी कुलत्थ खाकर उषस्थि ने एक बड़े राजा के घर जाकर यज्ञ कराया।

यह इतना बड़ा विद्वान् एक महावत के जूठे तथा बासी कुलत्थ खाता है क्योंकि वह इस धर्म के तत्व को जानता है किः-

**१ देशभङ्गे प्रवासे वा व्याधिषु व्यसने ष्वपि।
रक्षेदेव स्वदेहादि पश्चाद्धर्मं समाचरेत्॥**परा०७-४१

देश भंग में, विदेश में, व्याधि में, तथा आपत्ति में येन केन प्रकार से अपनी शरीर रक्षा कर लेनी चाहिये, पीछे धर्म अर्थात् ब्रत आदि कर लेना चाहिये॥

शंख ऋषि लिखता है कि-

**शरीरं धर्म सर्वस्वं रक्षणीयं प्रयत्नतः।
शरीरात्सूयतेधर्मः पर्वतात्सलिलं यथा॥**शंख० अ०१७

शरीर धर्म का सर्वस्वहै, शरीर से धर्म होता है-जैसे पर्वत सेजल इस लिये प्रयत्नसे शरीर की रक्षा करनी चाहिये॥

पराशर के (देशभंगे प्रवासे वा) से यह भी सिद्ध होता है किआज कल जो विद्यार्थीगण विद्यार्थअन्य देशों में जाते हैं और वहां दूसरे लोगों के हाथ से खाते हैं, वह पतित नहीं। यदि वह अभक्ष्य गो मांस आदि तथा अगम्यागमन आदि कुकर्म से अपने आप को पतित न करें॥

अतएव पराशर ने कहा है कि-

यत्र कुत्र गतो वापि सदाचारं न वर्ज्जयेत्।

जहां कहीं जाओ परंतु अपने सदाचार को न छोड़ो ॥

देवलः

म्लेच्छैर्हतो वा चौरैर्वा कान्तारे विप्रवासिभिः।
भुक्त्वा भक्ष्य मभोज्यं तु क्षुधार्त्तेन भयेन वा॥ १॥
पुनः प्राप्य स्वकं देशं चातुर्वर्ण्यस्य निष्कृतिः॥२॥
कृच्छ्रमेकं चरेद्विप्रः पादोनं क्षत्रियश्चरेत्।
तदर्द्धमाचरे द्वैश्यः शूद्रः पादं समाचरेत्॥३॥

र० बी० प्र० १२

जो म्लेच्छोंसे, वा चोरोंसे, अथवा वन में लुटेरों से ताड़ित हो कर अथवा अति क्षुधा के कारण अभक्ष्य भक्षण करले—व किसी के भय से अभक्ष्य भक्षण करे तब चारों वर्णों की शुद्धि इस प्रकार से होती है कि ब्राह्मण अपने देश में आकर एक कृच्छ्र ब्रत करे, क्षत्रिय उससे पौना, वैश्य अपनी शुद्धि के लिये आधा— और शुद्र एक पाद कृच्छ्र ब्रत करे॥

प्रायश्चित्ते विनीते तु तदा तेषां कलेवरे।
कर्त्तव्यः सूत्र संस्कारो मेखला दण्ड वर्ज्जितः॥३॥

जिसने प्रायश्चित्त कर लिया हो उनके शरीर में मेखला और दंड से रहित यज्ञोपवीत संस्कार करना योग्य है॥

तदासौ स्वकुटुम्बानां पङ्क्तिंप्राप्नोति नान्यथा।
स्वभार्यां गन्तु मिच्छे च्चैव विशुद्धितः॥६॥

तबप्रायश्चित्त करके अपने कुटुम्ब की पंक्ति को प्राप्त होता है यदि अपनी स्त्री पास जाने की इच्छा करे तो शुद्ध होकर जावे॥

बलाद् दासी कृतो म्लेच्छैश्चाण्डाला द्यैश्च दस्युभि।
अशुभं कारितं कर्म गवादि प्राणिहिंसनम्॥९॥
उच्छिष्ट मार्ज्जनं चैव तथा तस्यैव भक्षणम्।
तत्स्त्रीणां च तथा संगः ताभिश्च सहभोजनम्॥१०॥
कृच्छ्रान् संवत्सरं कृत्वा सांतपनान् शुद्धि हेतवे॥
ब्राह्मणः क्षत्रियस्त्वर्द्धं कृच्छ्रान् कृत्वा विशुध्यति॥११॥
मासोषितश्चरेद्वैश्यः शूद्रः पादेन शुध्यति॥

जिसको म्लेच्छों वा चोरों चांडालों ने बल से अपना दास बना लिया हो, उससे गौ आदि की हिंसा कराई हो अथवा उस ने उन म्लेछ आदिकों की जूठ खाई हो वा उनकी स्त्रियों मे मैथुन वा उनके साथ भोजन किया हो इसकी शुद्धि के लिये ब्राह्मण एक वर्ष तक कृच्छ्र सांतपन करे, क्षत्रिय ब्राह्मण से आधा करे, वैश्य एक मास उपवास करने से और शुद्र चौथा हिस्सा प्रायश्चित्त करके शुद्ध हो जाता है॥

गृहीतो वा बला न्म्लेच्छैः स्वयं वा मिलितस्तु यः।
वर्षाणि पंच सप्ताष्टौ शुद्धिस्तस्य कथं भवेत्॥
प्राजापत्य द्वयं तस्य शुद्धि रेषा प्रकीर्त्तिता॥

जिसको म्लेच्छों ने बल से दास कर लिया हो, अथवा अपनी इच्छा से मिला हो पांच, सात, आठ वर्ष म्लेच्छों के साथ

रहा हो दो प्राजापत्य ब्रत से उसकी शुद्धि हो जाती है॥

म्लेच्छैः सहोषितो यस्तु पंच प्रभृति विंशतिम्।
वर्षाणि शुद्धिरेषोक्ता तस्य चान्द्रायण द्वयम्।
कक्षा गुह्यं शिखा श्मश्रु चत्वारि परिवापयेत्॥
प्रहृत्य पाणि पादां तान्नखान् स्नातस्ततः शुचिः।

जो म्लेच्छों के साथ पांच से वीस वर्ष पर्यन्त रहा हो उसकी दो चान्द्रायण ब्रत से शुद्धि होती है। और उसके कक्षा गुह्य और श्मश्रु (दाढ़ी) आदि के लोम और हाथ पाओं के नख उतरवा देने चाहिये॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731386397Screenshot2024-11-10194120.png"/> पतित स्त्रियों की शुद्धि <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731386397Screenshot2024-11-10194120.png"/>

पुरुषस्य यानि पतन निमित्तानि स्त्रीणामपितान्येव।
संसर्ग स्तदीयमेव प्रायश्चित्तमर्हंकृत्वा प्रदातव्यम्॥
(शौनकः)

जिन कारणों से पुरुष पतित होते हैं स्त्री भी उन्हीं कारणों से पतित होती है। परन्तु जिस पातक से संसर्ग हो उसका आधार प्रायश्चित्त स्त्री से कराना चाहिये। क्योंकि सब का मत है कि (स्त्रीणामर्द्धंप्रदातव्यम्) स्त्रियों को आधा प्रायश्चित्त कराना चाहिये।

रजकश्चर्मकारश्च नटो बरुड़ एवच।
कैवर्त्त मेद भिल्लाश्च सप्तैतेऽन्त्यजाः स्मृताः॥ १९६॥
एतान् गत्वा स्त्रियो मोहाद् भुक्त्वा च प्रतिगृह्यच।
कृच्छ्राब्दमाचरेज् ज्ञानादज्ञानादेव तद्द्वयम्॥१९७अ०

रजक, चमार, नट, बरुड़, कैवर्त्त, (मल्लाह) मेद, और भील यह सात अन्त्यज हैं। जो स्त्री इन पूर्वोक्त अन्त्यजों से सङ्ग करे। इनके खाले अथवा लेलेवे, वह यदि ज्ञान से हो तो वर्ष भर कृच्छ्र ब्रत करे और यदि अज्ञान से हो तो दो कृच्छ्र ब्रत करें।

सकृद् भुक्त्वा तु या नारी म्लेच्छैश्च पापकर्मभिः।
प्राजापत्येन शुद्ध्येत् ऋतु प्रस्रवणेन तु॥ १९८॥
बलोद्धृतां स्वयं वापि पर प्रेरितया यदि।
सकृद् भुक्ता तु या नारी प्राजापत्येन शुद्ध्यति॥९१९॥

जो स्त्री पाप कर्मी म्लेच्छों से एकबार भोगी गई हो, बह प्राजापत्य ब्रत से और ऋतु आने से शुद्ध होती है।

जिस स्त्री को म्लेच्छों ने बल से भोगा हो अथवा बह स्वयं गई हो अथवा किसी की प्रेरणा से एक बार भोगी गई हो वह प्राजापत्य ब्रत से शुद्ध होजाती है।

असवर्णात्तु यो गर्भः स्त्रीणां योनौ निषिच्यते।
अशुद्धा सा भवेन्नारी यावच्छल्यं न मुंचति॥
विमुक्ते तु ततः शल्ये रजसोवापि दर्शने।
तदा सा शुद्ध्यते नारी विगतं काञ्चनं यथा॥

(अत्रि० २११-२९२)

असवर्णी से गर्भ धारणकर स्त्री अशुद्ध होजाती है, जब तक कि वह न निकाला जावे, अथवा ऋतु न आजावे। ऋतु के अन-

न्तरंनिर्मल कांचनवत् शुद्ध होजातीं है।

यमाचार्य लिखता है किः—

योषा विभर्त्ति या गर्भं म्लेच्छात्कामादकामतः।
ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या तथा वर्णेतरापिच॥
अभक्ष्यं भक्षितं चापि तस्याः शुद्धिः कथं भवेत्।
कृच्छ्र सांतपनं शुद्ध घृतैर्योनि विपाचनम्॥

यदि ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या, वा शुद्री, इच्छा से अथवा अनिच्छा से किसी म्लेच्छ का गर्भ धारण करले, अथवा अभक्ष्य भक्षण करले तो कृच्छ्र सांतपन से, और शुद्ध किये घी से योनि प्रक्षालन कर शुद्ध होजाती है ।

चाण्डालं पुल्कसं चैव श्वपाकं पतितं तथा।
एतान् श्रेष्टाः स्त्रियो गत्वा कुर्य्युश्चान्द्रायणत्रयम्॥

(संवर्त्त० १७३)

श्रेष्ठ स्त्रियें अर्थात् ब्राह्मणी आदि चांडाल आदि नीच से संसर्गकर तीन चान्द्रायण व्रत करे।

अन्तर्वत्नी तु या नारी समेत्याक्रम्य कामिता।
प्रायश्चित्तं नकुर्य्यात्सा यावद्गर्भो न निसृतः॥
गर्भेजाते ब्रतं पश्चात्कुर्य्यान्मासं तु यावकम्।
न गर्भदोषस्तस्यास्ति संस्कार्य्यः स यथाविधि॥

यदि गर्भवती स्त्री बलात्कार किसी म्लेच्छादि से भोगी

जावे, तो वह गर्भ के उत्पन्न होने से प्रथम कोई प्रायश्चित्तन करे।

गर्भ के उत्पद्म होने के अनन्तर मास पर्यन्त पवित्रकारक ब्रत करे। गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान को कोई दोष नहीं, अतः उस का यथा विधि संस्कार करना चाहिये।

अति तुच्छ पातकों में तो आचार्य्योंका मत है कि :—

स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च न दुष्यन्तिकदाचन।
(गरुड़० २१४-२२१)

स्त्री, वाल, और बृद्ध दोषी ही नहीं होते।

क्योंकि सब का मत हैः—

रजसाशुद्ध्येतनारी नदी वेगेन शुद्ध्यति।
(अङ्गिरा० ४२)

स्त्री रज के आने से शुद्ध होजाती है और नदी वेग से। इसीलिये शास्त्रों की आज्ञा है कि पतित की कन्या पतित नहीं होती देखो विवाह प्रकरण।

अनुक्त निष्कृतीनान्तु पापानामपनुत्तये।
शक्तिं चा वेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्॥

(मनुः ११—२०९)

जिनका प्रायश्चित्त नहीं कहा, उन पापों की दूरी के लिये शक्ति और पाप को देखकर प्रायश्चित्त कल्पना करना चाहिये।

अनिर्दिष्टस्य पापस्य तथोपपातकस्य च।
तच्छुद्ध्यै पावनं कुर्य्याश्चान्द्रायणं समाहितः॥

(बृ० पा० ६-१११)

जिन पापों वा उपपापों का वर्णन नहीं किया गया उन सब की शुद्धि के लिये चान्द्रायण ब्रत करना चाहिये।

मैंने पीछे दर्शाया है कि (देशं कालं वयः शक्तिं) के अनुसार इसमें न्यूनाधिकता होसक्ती है मनु बतलाता है किः—

धर्मस्य ब्राह्मणो मूल मग्रं राजन्य उच्यते।
तस्मात्समागमेतेषामेनो विख्याप्य शुध्यति॥ ८३॥
तेषां वेदविदां ब्रूयु स्त्रयोप्येनः सुनिष्कृतिम्।
सा तेषां पावनाय स्यात्पवित्रा विदुषां हि वाक्॥८४॥

(मनुः अ० ११)

ब्राह्मण धर्म का मूल है, और राजा (क्षत्रिय) अग्र है इसलिये उनके समागम (सभा) में अपने पाप का निवेदन कर प्रायश्चित्ती शुद्ध होजाता है। क्योंकि तीन वेदवेत्ता विद्वान् जिस पाप के लिये जो प्रायश्चित्त (दण्ड) नियत करे उसी से पापी की शुद्धि होजाती है क्योंकि विद्वानों की बाणी ही पवित्र होती है।

पराशर कहता है :—

तेहि पाप कृतां वैद्याः हन्तारश्चैव पाप्मनाम्।
व्याधितस्य यथा वैद्याः बुद्धिमन्तो रुजापहा॥

(पराशर २९७)

वे (पूर्वोक्त) विद्वान् लोग पातकियों के पाप दूर करने के लिये उनके वैद्य हैं जैसेरोगी के रोग दूर करने वाले भिषग् (हकीम)।

इसी सिद्धान्तानुमार विद्वानों ने देश कालानुसार गायत्री जाप से, वेद पाठ से, प्राणायाम से, ईश्वर ध्यान से, राम नाम से तीर्थ स्नान से पश्चात्ताप से यहांतक कि ब्राह्मणों के चर्णामृत से ही शुद्धि का उपदेश किया न केवल उपदेश किया प्रत्युत् इस पर अनुष्ठान किया। जैसाकि कई एक उदाहरणों से प्रतीत होता है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731386397Screenshot2024-11-10194120.png"/> गायत्री से शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731386397Screenshot2024-11-10194120.png"/>

शतं जप्ता तु सा देवी स्वल्प पाप प्रणाशिनी।
तथा सहस्र जप्ता तु पातकेभ्यः समुद्धरेत्॥
दश सहस्रजाप्येन सर्वकिल्विष नाशिनी।
लक्षं जप्तातु सादेवी महापातक नाशिनी॥२॥
सुवर्णस्तेय कृद्विप्रो ब्रह्महा गुरुतल्पगः।
सुरापश्च विशुद्ध्यन्ति लक्षं जप्त्वा न संशयः॥

(शंखा १२-२)

सौ बार गायत्री जप से छोटे २ पाप दूर होजाते हैं। सहस्र बार के जप से पातकों से शुद्धि होजाती है दश हजारजप से बहुत से पापों का नाश होजाता है और लक्षबार जप करने से ब्रह्महत्या आदि महापातकों की शुद्धि होजाती है।

संवर्त– महापातक संयुक्तो लक्षहोम सदाद्विजः।
मुच्यते सर्व पापेभ्यो गायत्र्याचैवपावितः। २१६

महापातकी सप्त व्याहृातेयों से लक्ष आहुति युक्त हवन करके तथा गायत्री जप से शुद्ध होजाता है।

अभ्यसेच्चतथा पुण्यां गायत्रीं वेदमातरम्।
गत्वाऽरण्ये नदी तीरे सर्व पापविशुद्धये॥२१७॥

संपूर्ण पापों की शुद्धि के लियेबन में जाकर नदी के किनारे वेद माता गायत्री का अभ्यास करे।

ऐहिकामुष्मिकं पापं सर्वं निरवशेषतः।
पंचरात्रेण गायत्रीं जपमानो व्यपोहति। २२०

पांच रात्रि तक गायत्री का जप करता हुआ पुरुष इस जन्म और अन्य जन्म के सम्पूर्ण पापों को नष्ट करता है।

गायत्र्यास्तु परं नास्ति शोधनं पापकर्मणाम्।
महाव्याहृतिसंयुक्तां प्रणवेन च संजपेत्॥२२१॥

गायत्री से बढ़कर कोई पापियों का शोधक नहीं। अतः महाव्याहृति और ओंकार से युक्त गायत्री का जप करे।

अयाज्य याजनं कृत्वा भुक्त्वा चान्नं विगर्हितम्।
गायत्र्यष्ट सहस्रं तु जपं कृत्वा विशुध्यति॥२२३॥

अयोग्य को यज्ञ करा और निन्दित अन्न खाकर आठ हजार गायत्री जप से शुद्ध होजाता है।

वृ-०परा०—गायत्र्याः शतसाहस्रंसर्वपापहरं स्मृतम्।
(बृ० पा० ६।२९१)

एक लक्ष गायत्री जप से सम्पूर्ण पाप नष्ट होजाते हैं।

ग०पु०— गायत्री परमादेवी भुक्तिमुक्ति प्रदा च तां।
यो जपेत्तस्य पापानि विनश्यन्ति महांत्वपि॥

(गरुड़ पु० ३७।१)

गायत्री देवी भुक्ति और मुक्ति के देने वाली है। जो इस का जप करता है उसके बड़े से बड़े पाप नष्ट होजाते हैं।

चतुर्विंशतिमतं—

गायत्र्यास्तु जपेत्कोटिं ब्रह्महत्यां व्यपोहति।
लक्षाशीतिं जपेद् यस्तु सुरापानाद्विमुच्यते॥ १॥
पुनाति हेमहर्तारं गायत्र्यालक्ष सप्तति।
गायत्र्या लक्ष षष्ट्या तु मुच्यते गुरुतल्पगः॥ २॥

एक करोड़ गायत्री जप से ब्रह्मघाती, अस्सीहजार गायत्री जप से मद्यपायी (शराबी) सत्तर हजार जप से स्वर्ण चुरानेवाले और साठ हज़ार जप से गुरु स्त्री से संसर्ग करने वाले की शुद्धि हो जाती है।

मरीचिः—ब्रह्म सूत्रं बिना भुंक्ते विण्मूत्रं कुरुतेऽथवा।
गायत्र्यष्ट सहस्रेण प्राणायामेन शुध्यति॥

जो पुरुषबिना याहोपधीत के भोजन करताहैवा मूत्रपुरी षोत्सर्ग करता है उसकी शुद्धि आठ सहस्र गायत्री जप तथा प्राणायाम से होती है।

याज्ञवल्क्यः—

गोष्ठेवसन् ब्रह्मचारी मासमेकं पयोब्रतः।
गायत्री जाप्य निरतः शुध्यतेऽसत् प्रतिग्रहात्॥२८९॥

(या० प्रा० प्र० ५)

असत् प्रतिग्रहअर्थात् पतित आदि से दान लेकर एक मास पर्य्यन्त दुग्ध पान करता हुआ ब्रह्मचर्य्य धारण कर गोशाला में निवासकर गायत्री जाप से शुद्ध होता है।

मनुः— जपित्वा त्रीणि सावित्र्याः सहस्राणि समाहितः।
मासं गोष्टे पयः पीत्वा मुच्यतेऽसत् प्रतिग्रहात्॥

गोष्ट में निवासकर तीन हजार गायत्री जपकर असत् प्रतिग्रह दोष से विमुक्त होजाता है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731306294Screenshot2024-11-10194120.png"/>रहस्य प्रायश्चित्तानि <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731306294Screenshot2024-11-10194120.png"/>

मनुः— ऋक् संहितां त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः।
साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

(मनुः ११-२६२)

ऋग्वेद संहिता, यजुर्वेद संहिता, वा सामवेद संहिता, उपनिषदादि सहित तीनबार पाठकर सब पापों से छूट आता है।

यथा महा ह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति॥११-२६३

जैसेबड़ी नदी में फैंका हुआ ढेला गल जाता है। इसीप्रकार सम्पूर्ण पाप वेदों की त्रिराबृत्ति सेनष्ट होजाते हैं।

संवर्त— ऋग्वेद मभ्यसेद् यस्तु यजुः शाखामथापिवा।
सामानि सरहस्यानि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥२२९॥

जो ऋग् यजुः अथवा सरहस्य साम का पाठ करता है वह सम्पूर्ण पापों में छूट जाता है।

याज्ञवल्क्यः —

त्रिरात्रो पोषितो जप्त्वा ब्रह्महा त्वघमर्षणम्।
अन्तर्जले विशुद्ध्येतदत्वा गांच पयस्विनीम्॥३०१॥

ब्रह्मघाती जल में खड़ा हो उपवास रख तीन दिन अघमर्षण, (ऋतं च सत्यं च) मन्त्र मे और एक गौदानकर शुद्ध होजाता है।

सुमन्तुः— देवद्विज गुरुहन्ताऽप्सु निमग्नोऽघमर्षं सूक्तं त्रिरावर्त्तयेत्।

देवता, ब्राह्मण, गुरु के हनन करने वाला जल में खड़ा हो तीन दिन अघमर्षण सूक्त को जपै।

याज्ञवल्क्यः—

त्रिरात्रो पोषितो भूत्वा कुश्माण्डीभिर्घृतं शुचिः।

सुरापी (शराब पीने वाला) (यद्देवादेव हऽचं) इत्यादि ऋचाओं से चालीसआहुति देकर और तीन दिन उपवास कर शुद्ध होजाता है।

ब्राह्मणः स्वर्णहारी तु रुद्राजापीजलेस्थितः। या०३०३

स्वर्ण चुराने वाला ब्राह्मण जल में खड़ा होकर तीन दिन (नमस्तेरुद्रमन्यवे) इत्यादि मन्त्रों का जाप कर शुद्ध होजाता है।

सहस्रशीर्षाजापी तु मुच्यते गुरुतल्पगः॥ ३०४

गुरु तल्पी सहस्रशीर्षा आदि पुरुष सूक्त के जाप से और गोदान से शुद्ध होता है।

मनुः— वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रियाक्षमाः।
नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि॥

(मनुः ११।२४५)

प्रतिदिन यथाशक्ति वेदाध्ययन, पंचयज्ञों का करना, तथा क्षमा कुसंस्कारंरूप पापों का नाश करते हैं।

तथैधस्तेजसा वन्हिः प्राप्तं निर्दहति क्षणात्।
तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदवित्॥२॥

जैसे अग्नि समीप स्थित काष्ठों को क्षण में भस्म कर देता है, एवं वेदवित् ज्ञानाग्निसे पापों का नाश करता है।

इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वेद पढ़ने वाला जो चाहे करे, अथवा उसको कोई पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि

बहुत से पाप अज्ञान और अकाम से ही होजाते हैं उन सब की शुद्धि वेदपाठ से होजाती है।

मनु कहता है :—

अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति।
(मनुः ११-४५)

अनिच्छा से किये पाप वेदाभ्यास से शुद्ध होजाते हैं ।

न वेद बलमाश्रित्य पापकर्म रतिर्भवेत्।
अज्ञानाच्च प्रमादाच्च दह्यते कर्म नेतरत्।

वेद के घमण्ड से पाप कर्म नहीं करना चाहिये क्योंकि अज्ञान और प्रमाद से किये पाप ही वेदाभ्यास से नष्ट होते हैं।

वैदिकज्ञान से शुद्धि और परिवर्त्तन, व्याधकर्माके दृष्टान्त से स्पष्ट है देखो पृ०।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731306294Screenshot2024-11-10194120.png"/> वेदों में शुद्धि <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731306294Screenshot2024-11-10194120.png"/>

मनु बतलाता है।

कौत्सं जप्त्वाप इत्येतत् वासिष्टं च प्रतीत्यृचम्।
माहित्रं शुद्ध वत्यश्च सुरोपोऽपि विशुद्ध्यति॥

मनुः ११-२४९

कुल्लूक– कौत्सऋषिके कहे हुए (अपनः शोशुचदघं) इस सूक्त को वसिष्ट नहीं हुए प्रतिस्तोम इस ऋचा को और माहित्रीणाम

बोऽस्तु इस सूक्त को तथा शुद्धवत्यः,– एतोचिन्द्रंस्तवाम– इतनी ऋचाओं को एक मास पर्यन्त प्रति दिन सोलह बार जप कर शराब पीने वाला वा सुरा पान के प्रयिश्चित्त का अधिकारी शुद्ध हो जाता है।

सकृज्जप्त्वाऽस्य वामीयं शिव संकल्प मेवच।
अप हृत्य सुवर्णं तु क्षणाद् भवति निर्मलः॥२५०॥

ब्राह्मण के सुवर्ण को चुरा कर एक मास पर्यंत अस्यवाम के कहे हुए और शिव संकल्प (यज्जाग्रतो) इत्यादि का जप कर उसी क्षण शुद्ध होजाता है।

हविष्यन्तीयमभ्यस्य नतमंह इतीति च।
जपित्वा पौरूषं सूक्तं मुच्यते गुरू तल्पगः॥२५१॥

जिसने गुरु (पिता-उपाध्याय भ्राता आदि की स्त्री अथवा भागनी सगोत्रा आदि से गमन किया हो) हविष्यांतमजरं इत्यादि २१ ऋचाओं का अथवा न तर्यं हो इनको वा तन्मेमनः– इनको अथवा पुरुषसूक्त को एक मास पर्यंतप्रति दिन एक बार जप कर गुरुतल्पग के पाप से छूट जाता है।

एनसां स्थूल सूक्ष्माणां चिकीर्षन्नप नोदनम्।
अवेत्यृचंजपेदब्दं यत्किंचेद मितीति वा॥२५२॥

छोटे बड़े पापों को प्रायश्चित चाहने वाला मनुष्य (अवेति ऋ० १-२४-१४) अर्थात् महा व उपपातक।

अथवा(यत्किं चेद मिति ऋ० ७-८९-५) का एक वर्ष प्रति दिन एक बार जप करें।

प्रतिगृह्याप्रतिग्रह्यं भुक्त्वा चान्नं विगर्हितम्।
जपंस्तरत्समं दीपं पूयते मानवस्त्र्यहात्॥ २५३॥

अयोग्य दान को लेकर अथवा अभोज्यान्न खाकर (तरत्समं) ऋ० दीधा व इन चार ऋचाओं का तीन दिन जप करने से शुद्ध होजाता है। इत्यादि अनेक मंत्र ऋषियों ने शुद्धि के लिये दर्शाये हैं जिनमें से चार मंत्र दिग्दर्शनमात्र व्याख्या सहित उद्धृत किये जाते हैं। जिन से पाठकों को निश्चय होगा कि वस्तुतया उनमें शुद्धि की ही प्रार्थना पाई जाती है ।

कौत्सं—अपनः शोशुचदघ मग्ने! शुशुग्ध्यारयिम्।
अपनः शोशुचदघम् ऋ० अष्ट १ अ० १५ व० ५॥

हे अग्ने1 ! हमारा पापहम से दूर हो-हमारा ऐश्वर्य बढ़े पुनः हमारा पाप दूर हो - इस पर सायणाचार्य लिखता है।

उक्तार्थमपि वाक्यं आदरातिशय द्योतनाय पुनः पठ्यते।
अवश्य मस्माक मघंविनश्यतु॥

एक बार कहे हुए वाक्य को आदर के लिये पुनः पढ़ा है कि अवश्य ही हमारा पाप नाश हो।

प्रथमअग्नि(अग्रणी भवति यज्ञेषु) के अनुसार यज्ञ हवन का अग्नि।

दूसरा (एकं सद्विप्राबहुधा वदन्त्यग्निंयमं मातरिश्वानमाहुः) अनुसार परमात्मा।

और तीसरा प्रभाव शाली तेजस्वीराजा वा अग्रणी अर्थात् सभापत्ति–

इससे यह सिद्ध होता है कि अग्नि में हवन करने से और परमात्मा की स्तुति प्रार्थना आदि भजन से और सभा पति वा सभा की अनुग्रह वा दया से मनुष्य शुद्ध होजाता है।

** १ पक्तिंचेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरामसि
अचित्तीयत्तवधर्मायुयोऽपिममानस्तस्यादेनसोदेवरीरिषः**

ऋ० अष्ट–५–५ व

हे वरुण! हम मनुष्य लोग विद्वानों से जो उपकार वा द्रोह करते हैं अथवा अज्ञान से जो तेरे धर्म पथ का उल्लंघन करते हैं हे देव! हमें उस पाप से बचा।

“एवं नतयंहो न दुरितं” इत्यादि मंत्र से साफ है कि जिस पर विद्वान जन अनुग्रह करते हैं उसका कोई पाप नहीं रहता इत्यादि।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310119Screenshot2024-11-10194120.png"/> प्राणायाम से शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310119Screenshot2024-11-10194120.png"/>

याज्ञवल्क्यः–

प्राणा याम शतं कुर्य्यात् सर्व पापा पनुत्तये ॥५३॥

संपूर्ण पापों की निवृत्ति के लिये सौ १०० प्राणायामकरे।

मनोवाक् कायजं दोषं प्राणायामैर्दहेद् द्विजः।
तस्मा त्सर्वेषु कालेषु प्राणायामपरो भवेत्॥

गरु० पु० अ० ३६।

प्राणा याम से मानसिक वाचिक, और कायिक—दोष दग्भ हो जाते हैं॥

मंर्वत्तः—

मानसं वाचिकं पापं कायेनैव च यत्कृतम्।
तत्सर्वं नाश मायाति प्राणा याम प्रभावतः ॥२२८॥

मानसिक, वाचिक और कायिक, पाप प्राणायाम के प्रभाव सेनष्ट हो जाते हैं॥

मनुः—

सव्याहृति प्रणवकाः प्राणा यामास्तु षोड़श।
अपिभ्रूण हणं मासात्पुनन्त्यह रहः कृताः।११।२४८

ओंकार और व्याहृति से संयुक्त प्रतिदिन किए हुए सोलह प्राणा याम एक मास में ही भ्रूण हत्या वाले को भी पवित्र कर देते हैं॥

याज्ञवल्क्यः—

प्राणा याम शतं कार्यं सर्व पापा पनुत्तये।
उपपातक जाताना मनादिष्टस्य चैव हि॥

प्रा० प्र०१०.५ श्लो०.३०५

प्रथम अग्नि (अग्रणी भवति यज्ञेषु) के अनुसार यज्ञ हवन का अग्नि।

दूसरा (एकं सद्विप्राबहुधां वदन्त्यग्निंयमं मातरिश्वानमाहुः) अनुसार परमात्मा।

और तीसरा प्रभाव शाली तेजस्वी राजा वा अग्रणी अर्थात् सभापति-

इससे यह सिद्ध होता है कि अग्नि में हवन करने से और परमात्मा की स्तुति प्रार्थना आदि भजन से और सभा पति वा सभा की अनुग्रह वा दया से मनुष्य शुद्ध होजाता है।

** १ पक्तिंचेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरामसि
अचित्तीयत्तवधर्मायुयोऽपिममानस्तस्यादेनसोदेवरीरिषः**
ऋ० अष्ट–५–५ व

हे वरुण! हम मनुष्य लोग विद्वानों से जो अपकार वा द्रोह करते हैं अथवा अज्ञान से जो तेरे धर्म पथ का उल्लंघन करते हैं हे देव! हमें उस पाप से बचा।

“एवं नतमंहो न दुरितं” इत्यादि मंत्र से साफ है कि जिस पर विद्वान जन अनुग्रह करते हैंउसका कोई पाप नहीं रहता इत्यादि।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/> प्राणायाम से शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>

याज्ञवल्क्यः—

प्राणा याम शतं कुर्य्यात् सर्व पापा पनुत्तये ॥५३॥

संपूर्ण पापों की निवृत्ति के लिये सौ १०० प्राणायाम करे।

मनोवाक् कायजं दोषं प्राणायामैर्दहेद्द्विजः।
तस्मा त्सर्वेषु कालेषु प्राणायामपरो भवेत्॥

गरु० पु० अ० ३६ ।

प्राणा याम मे मानसिक वाचिक, और कायिक- दोष दग्भ हो जाते हैं॥

संर्वत्तः—

मानसं वाचिकं पापं कायेनैव च यत्कृतम्।
तत्सर्वं नाश मायाति प्राणा याम प्रभावतः॥२२८॥

मानसिक, वाचिक और कायिक, पाप प्राणायाम के प्रभाव मे नष्ट हो जाते हैं॥

मनुः—

सव्याहृति प्रणवकाः प्राणा यामास्तु षोड़श।
अपिभ्रूण हणं मासात्पुनन्त्यह रहः कृताः ।११।२४८

ओंकार और व्याहृति से संयुक्त प्रतिदिन किए हुए सोलह प्राणा याम एक मास में ही भ्रूण हत्या वाले को भी पवित्र कर देते हैं॥

याज्ञवल्क्यः—

प्राणा याम शतं कार्य सर्व पापा पनुत्तये।
उपपातक जाताना मनादिष्टस्य चैव हि॥।

प्रा० प्र०.५ श्लो०.३०५

तोबधादि५६ उप पातक अनादिष्ट रहस्य तथा जाति भ्रंशक आदि पापों के नष्टकरने के लिये सौप्राणा याम करे।

बौधायनः—

अपिवाक् चक्षुः श्रोत्रंत्वक् घ्राण मनो व्यति क्रमेषु।
त्रिभिः प्राणा यामैः शुध्यति॥

मन बाणी तथा श्रोत्रादि के व्यति क्रममें तीन २ प्राणा याम करके शुद्धि होती है॥

पुराणों में गंगादि तीर्थ स्नान वा हरि नाम से शुद्धिः—

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/> गंगा स्नान <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अग्नौ प्राप्तं प्रधूयेत यथा तूलं द्विजोत्तम!
तथा गंगावगाहस्तु सर्व पापं प्रधूयते॥
भा० अनु०

जैसे अग्नि में रुई भस्म हो जाती है, एवं गंगा स्नान पापों को नष्ट करता है॥

वाङ्मनः कर्मजैर्ग्रस्तः पापैरपि पुमानिह।
वीक्ष्य गंगां भवेत्पूतोऽत्र मे नास्ति संशयः॥

मन वाणी और शरीर के पापों से युक्त पुरुष गंगा के दर्शन मात्र से शुद्ध हो जाता है।

गंगा गंगेति यैर्नाम योजनानां शतैरपि।
स्थितै रूचारितं हन्ति पापं जन्म त्रयार्ज्जितम्॥

वि०पु०अ०८

जो सौ योजन (४०० कोस) पर बैठ कर भी गंगा का नाम उच्चारण करता है उसके तीन जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं॥

पौराणिक समय में ऐसीशुद्धियें की गईं जिन के कुछ उदाहरण यहां उद्धृत किये जाते। देखो पद्म पुराण भूखंड २ अध्याय ९१

कुंजलक उवाच।

ब्रह्महत्याभिभूतस्तु सहस्राक्षो यदा पुनः।
गौतमस्य प्रियां संगादगम्या गमनं कृतम्॥१॥
संजातं पातकं तस्य त्यक्तो देवेश्च ब्राह्मणैः।
सहस्राक्षस्तपस्तेपे निरालम्बो निराश्रयः॥२॥

कुंजलकने कहा। जब इन्द्र ने ब्रह्महत्या की और गौतम स्त्री संसर्ग कर अगम्यागमन किया, तो उने देवता और ब्राह्मणों ने त्याग दिया– और वह निराश्रय होकर तप करने लगा॥

तपोऽन्ते देवताः सर्वा ऋषयो यक्ष किन्नराः।
देवराजस्य पूजार्थ मभिषेकं प्रचक्रिरे॥ ३॥
देशं मालवकं नीत्वा देवराजं सुतोत्तमाः।
चक्रे स्नानं महाभाग कुंभैरुदकपूरितैः॥ ४॥

तप के अनन्तर देवताओं ने उसकी शुद्धि के लिये उसका अभिषेक किया। मालवा देश में लेजाकर देवराज (इन्द्रको) स्नान कराया॥

स्नापितुं प्रथमं नीतों वाराणस्यां स्वयं ततः।
प्रयागे तु सहस्राक्ष अर्घतीर्थे ततः पुनः॥ ५॥

पुष्करे च महात्मासौ स्नापितः स्वयमेवहि।
ब्रह्मादिभिः सुरैः सर्वैर्मुनि बृन्दै र्द्विजोत्तम॥६॥

हे द्विज श्रेष्ट! देवताओं ने इन्द्र को प्रथम काशी में पुनः अर्घतीर्थ और प्रयाग तथा पुष्कर में स्नान2 कराया॥

नागैर्बृक्षै र्नाग सर्वैर्गन्धर्वै स्तुसकिन्नरैः।
स्नापितो देव राजस्तु वेदमन्त्रैः सुसंस्कृतः॥७॥
मुनिभिः सर्व पापप्नैस्तस्मिन् काले द्विजोत्तम!
शुद्धे तस्मिन् महाभागे सहस्राक्षे महात्मनि॥८॥
ब्रह्महत्या गता तस्य अगम्या गमनं तथा॥९॥

सम्पूर्ण गन्धर्व आदि देवताओं से शुद्र किये उसमहात्मा इन्द्र का ब्रह्महत्या दोष तथा अगम्यागमन का दोष दूर हुआ।

२ कुंजलक उवाच।

अस्ति पांचालदेशेषु विदुरो नाम क्षत्रियः।
तेन मोह प्रसङ्गेन ब्राह्मणो निहितः पुरः॥१८॥
शिखासूत्र विहीनस्तुतिलकेन विवर्ज्जितः।
भिक्षार्थ मटने सोऽपि ब्रह्मघ्नोऽहं समागतः ॥१९॥
ब्रह्मघ्नाय सुरापाय भिक्षाचान्नं प्रदीयताम्।

गृहष्वेवं समस्तेषु भ्रमतो याचते पुरा॥२०॥

पांचाल (पंजाब) में एक विदुर नाम क्षत्रिय रहता था। उसने मोह वश से ब्रह्महत्या करदी। तब वह शिखा सूत्र (यज्ञोपवीत) और तिलक से शून्य होकर, भिक्षा के लिये लोगों के घरों में जाता और कहता था कि मैं ब्रह्मघाती तथा शरावी हूं मुझे भिक्षा दीजिये।

एवं सर्वेषु तीर्थेषु अटित्वेव समागतः।
ब्रह्महत्या न तस्यापि प्रयाति द्विजसत्तम॥२१॥

इसप्रकार वह सम्पूर्ण तीथों में घूमां परन्तु उसकी ब्रह्म हत्या दूर न हुई।

बृक्षच्छायां समाश्रित्य दह्यमानेन चेतसा।
संस्थितो विदुरः पापो दुःख शोक समन्वितः॥२२॥

तब दुःखी हुआ हुआ वह पातकी विदुर एक बृक्ष की छाया में बैठ गया।

चन्द्रशर्मा ततो विप्रो महामोहेन पीड़ितः।
आवसन्मागधे देशे गुरुघातकरश्च सः॥२३॥
स्वजनैर्वन्धु वर्गैश्च परित्यक्तोदुरात्मवान्।
सहि तत्र संमायातो यत्रासौ विदुरः स्थितः॥२४॥

इतने में एक मगध देश निवासी चन्द्रशर्मा नाम ब्राह्मण

जिसने गुरु को मार डाला था और जो अपने सम्बन्धियों से त्यागा हुआ था वहां आगया जहां विदुर बैठा था।

शिखासूत्र विहीनस्तु विप्रलिङ्गै र्विवर्ज्जितः।
तदासौ पृच्छितस्तेन विदुरेण दुरात्मना॥२५॥
भवान् कोहि समायातो दुर्भगो दग्धमानसः।
विप्रलिङ्ग विहीनस्तु कस्मात्त्वं भ्रमसे महीम्॥२६॥

तब उसको शिखा सूत्रादि चिन्हों से रहित देखकर बिदुर ने पूछा कि तुम कौन हो और क्यों इतने दुःखी प्रतीत होते हो और द्विजों के चिन्हों से शून्य क्यों हो॥

विदुरेणोक्तमात्रस्तु चन्द्र शर्म्माद्विजाधमः।
आचष्टे सर्व मेवापि यथा पूर्वं कृतं स्वकम्॥२६॥
पातकं च महाघोरं वसता च गुरोर्गृहे।
महा मोह गते नापि क्रोधेना कुलितेन च॥२८॥
गुरोर्घातः कृतः पूर्वं तेन दग्धोऽस्मि सांप्रतम्।
चन्द्रशर्मा च वृत्तान्त मुक्त्वा सर्व म पृच्छत्॥२१॥

तब विदुर ने अपना बृत्तान्त सुनाते दुए कहा कि गुरू के घर मे रहते हुए मैंने मोह से गुरु को मारकर एक महापाप किया इसलिये अव दुःखी हुआ फिरता हूं, आप अपना हाल काहिये।

भवान् कोहि सुदुःखात्मा वृक्षच्छायां समाश्रितः।
विदुरेण समासेन आत्मपापं निवेदितम्॥३०॥

कि आप कौन हैं और क्यों यहां दुःखी से होकर बैठे हैं। तब बिदुर ने भी अपना सारा हाल सुनाया।

अथ कश्चिद् द्विजः प्राप्तस्तृतीयः श्रमकर्षितः।
वेदशर्मेति वै नाम बहुपातक संचयः॥३१॥

तदनन्तर वेद शर्मा नाम एक तीसरा मनुष्य थका हुआ वहां आया जिसने कि बहुत से पाप किये थे।

द्वाभ्यामपि संपृष्टः को भवान् दुःखिताकृतिः।
कस्माद् भ्रमसि वै पृथिवीं वद भावन्त्वमात्मनः॥३२॥
वेद शर्मा ततः सर्व मात्म चेष्टित मेवच।
कथयामास ताभ्यां वै स्वगम्यागमनं कृतम्॥३३॥
धिक् कृतः सर्व लोकैश्च अन्यैः स्वजनबान्धवैः।
तेन पापेन संलिप्तो भ्रमाम्येवं महीमिमाम्॥३४॥

तबउन दोनों ने उसेपूछा कि तुम कौन हो? तुम्हारा चेहरा दुःखी सा प्रतीत होता है किस लिये फिर रहे हो।१।

तब वेदशर्मा ने अपनी कर्तूतंसुनाई कि मैंने अगम्या गमन किया, अतः लोगों ने फिटकार कर बाहर निकाल दिया इसीलिये भटकता फिरता हूं।

वंजुलो नाम वैश्योऽथ सुरा पायी समाययौ।
स गोघ्नश्च विशेषेण तैश्च पृष्टो यथा पुरा॥३५॥

तेन आवेदितं सर्वं पातकं यत् पुरा कृतम्।
तैरा कर्णित मन्यैश्च सर्वंतस्य प्रभाषितम्। ३६
एवं चत्वारः पापिष्ठा एकस्थानं समाश्रिताः ३७

अनंतर उनके पास वंजुल नाम एक वैश्य आया, जो शराब पीने वाला था और जिस ने गौ घातका पाप भी किया था। तब उन तीनों ने उस से बृतान्त पूछा और उस ने अपनी कहानी सुनाई।

इस प्रकार वह चारों पापी वहां इकट्ठे हुए॥

तत्रकश्चित्समायातः सिद्धश्चैव महायशाः।
तेन पृष्टः सुदुः खार्त्ता भवन्तः केन दुःखिताः२
स तैः प्रोक्तो महा प्राज्ञः सर्वज्ञानविशारदः।
तेषां ज्ञात्वा महा पापं कृपां चक्रे सुपुण्यभाक् ३

इतने में वहां एक सिद्ध आया, उसने उन चारों के दुःख का कारण पूछा। जब उन्हों ने अपना २ हाल कहा, तो उसने उनको उस महा पाप से शुद्ध करने का उपाय बताया।

सिद्धउवाच

अमासोम समायोगे प्रयागः पुष्करश्चयः।
अर्ध तीर्थं तृतीयं तु वाराणसी चतुर्थिका॥४॥
गच्छन्तु तत्र वै यूयं चत्वारः पातकान्विताः।
गंगाम्भसि यदा स्नाता स्तदा मुक्ता भविष्यथ ।५

पातकेभ्यो न संदेहो निर्मलत्वं गमिष्यथ।
आदिष्टास्तेन वै सर्वे प्रणेमुस्तं प्रयत्नतः॥६॥

सिद्ध ने कहा कि तुम चारों पातकी सोमावती अमावस्या को प्रयाग, पुष्कर, अर्धतीर्थ ओर काशी में जाओ अनंतर जब तुम गंगा जल में स्नान करोगे अवश्य इन पापों से छूटकर शुद्ध हो जाओगे। तब उन्हों ने उसको प्रणाम किया और कलंजर बन से चलकर वाराणसि आदि से होते हुए वह चारों पापीः -—

तस्मिन्पर्वणि सप्राप्त स्नाता गंगा भास द्विज
स्नान मात्रेण मुक्तास्तु गोबधाद्यैश्च किल्विषैः १०

प०पु० भू० खं०२ भ० ४२

इसपर्व में गंगा में नहाये और स्नान मात्र से वह गोबध आदि पाप से छूट गये।

विशेष क्या लिखें पुराणों में तो ब्राह्मणों के चरणामृत से भी शुद्धि का उपदेश पाया जाता है।

नश्यन्ति सर्व पापानि द्विज हत्यादि कानि च।
कण मात्रं भजेद् यस्तु विप्रांघ्रि सलिलं नरः ४
यो नरश्चरणौ धौतं कुर्य्याद्धस्तेन भक्तितः।
द्विजाते र्वच्मि सत्यं तेस मुक्तः सर्व पातकैः।१०

प० पु० ब्र० खं० ४ भ० १४

जो ब्राह्मणों का चरणामृत लेता है उसके ब्रह्म हत्याआदि दोष नष्ट हो जाते हैं।

जो मनुष्य ब्राह्मणों के चरणों को भक्ति से धोता है, मैं सत्य कहता हूं कि वह संपूर्ण पापों से छूठ जाता है।

जैसाकि इसी के आगे भीम नाम शूद्र का उदाहरण दिया।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/> नाम से शुद्धिः <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>

प्रायश्चित्तानि सर्वाणि तपः कर्मात्मकानि वै।
यानि तेषा म शेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम्। ३७

वि० पु० अं० २ अ० ६

तप्तकृच्छ्र आदि जितने भी व्रत कहे हैं उन सब से बढ़कर कृष्ण नाम का स्मरण है।

श्रीराम राम रामेति ये वन्दत्यपि पापिनः।
पाप कोटि सहस्रेभ्यस्तेषां संतरणं ध्रुवम्। गुरु० पु०

तीनबार राम राम कहने से पापी करोड़ों पापों से छूट जाते हैं।

गो०स्वा० तुलसी दासजी श्रीराम चन्द्रजी के सखा गुह का वर्णन करते हुए लिखते हैं।

दोहा – रामराम कहिं जे जमुहाहीं। तिनहिंन पाप पुंज समुहा हीं।
उलटे नाम जपत जगजाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।
श्वपच शवर खल यमन जड, पामर कोल किरात।
राम कहन पावन परम, होत भुबन विख्यात।
१९ तु० रा० अ० कां०

जो राम राम कहकर जम्हाई लेते हैं उनके सामने पाप नहीं आते हैं। संसार जानता है कि उलटा नाम (मरा मरा) जपने से ही बालमीकि (मुक्त) ब्रह्मसम हुए।

श्वपच (चांडाल) शवर (भील) यवन (म्लेच्छ) नीच कोली आदि राम राम कहने से पवित्र हो जाते हैं।

गुह स्वयं भरत जी को कहता है किः–

कपटी कायर कुमति कुजाति, लोक वेद बाहर सब भांती।
राम कहि आपन जब हीं ते। भयउँ भुवन भूषण तहींते॥

मैं कपटी कायर कुबुद्धि कुजाती लोक और वेद से बाहिर था। परन्तु जब से रामचन्द्र जी ने मुझे अपना किया तभी से लोक का आभूषण बन गया।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>ध्यान से शुद्धिः<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731310879Screenshot2024-11-10194120.png"/>

नहि ध्यानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते।
श्वपचान्नानि सुंजानः पापी नैवात्र जायते।

गरुड़ पु० अ०२२२ श्लोक०३५

ध्यान के तुल्य और कोई पवित्र नहीं है। ध्यान युक्त पुरुषचांडाल का अन खाकर भी पापी नहीं होता।

ध्यायेत् नारायणं देवं स्नान दानादि कर्मसु।

प्रायश्चित्तेषु सर्वेषु दुष्कृतेषु विशेषतः॥
गरुड़० पु० अ० २२२ इलो० २८

स्नान दानादि कर्मों में सम्पूर्ण प्रायश्चित्तों में विशेष करके दुष्कर्मों की शुद्धि में नारायण का ध्यान करे॥

कृतेपापेऽनुरक्तिश्च यस्य पुंसः प्रजायते।
प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरे स्संस्मरणं परम्॥

वि० पु० अ० दो अ० ६ । ३८

जिसकी पातकों से अनुरक्ति हो गई हो उसके लिये हरि का ध्यान ही प्रायश्चित्त है।

उपपातक संघेषु पातकेषु महत्स्वपि।
प्रविश्य रजनी पादं ब्रह्मध्यानं समाचरेत्॥

जिसको सैकड़ों उपपातक और महापातक लगे हों, वे सब प्रभात में ब्रह्म ध्यान करने मे छूट जाते हैं॥

ख्यापनेनानु तापेन तपसा ध्ययनेन च।
पापकृन्मुच्यते पापात्तथा दानेनचापादि॥

मनुः-११।२२७।

पापी पाप के प्रकट करने से, पश्चाताप करने से वेदाध्ययन तथा दान से शुद्ध होजाता है॥

यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयंकृत्वानु भाषते।
तथा तथा त्वचेवाहि स्तेनाऽधर्मेण मुच्यते॥२२८॥

मनुष्य ज्यों २ अपने किये अधर्म को प्रकट करता है त्यों २ उस अधर्म से छूट जाता है, जैसे सर्प कोचली से॥

कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात् प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यां पुनरिति निवृत्त्या पूयतेत सः॥

मनुः ११।२३०

पाप करके पश्चात संताप युक्त होने से उस पाप से बचता है और “फिर ऐसा नहीं करूंगा” ऐसा कह कर निवृत्त होने से पवित्र हो जाता है॥

अज्ञानाद् यदि वा ज्ञानात् कृत्वा कर्म सुदुष्कृतम्।
तस्माद्विशुद्धि मन्विच्छन् द्वितीयं न समाचरेत्। २३२

ज्ञान से अथवा अज्ञान से अशुभ कर्म (पाप) करके उस से छूटने की इच्छा करने वाला, दुबारा उसको न करे॥

पश्चात्तापो निराहाराः सर्वेषां शुद्धि हेतवः॥
या० प्रा० प्र० ३

पश्चात्ताप निराकारादि सब शुद्धि के साधन हैं॥

महापातकिनश्चैव शेषाश्चाकार्य कारिणः।
तपसैव सुतप्तेन मुच्यन्ते सर्व किल्विषात्॥

मनुः ११।२३९

महा पातक और शेष उप पातक युक्त, मनुष्य तप करने से ही उन पापों से छूट जाते हैं॥

यत् किंचदेनः कुर्वन्ति मनोवाङ् मूर्त्ति भिर्जनाः।
तत्सर्वं निर्दहन्त्याशु तपसैव तपोधनाः॥

मनुः ११-२४१

मनुष्य मन, वचन, और कर्म से जो पाप करते हैं उन सब को तप करने वाले तप से भस्म कर देते हैं॥

सर्व साधारण व्रत।

यानि कानि च पापानि गुरोर्गुरुतराण्यपि।
कृच्छ्राति कृच्छ्र चान्द्रेयैः शुध्यन्ते मनुरब्रीत्॥

षट्त्रिंशन्मतं।

बड़े से बड़े पाप भी कृच्छ्र अतिकृच्छ्र और चान्द्रायण से नष्ट हो जाते हैं॥

पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्व पापापनोदनः।
मनुः ११।२१५

पराक कृच्छ्र ब्रत सब पापों को दूर करने वाला है॥

दुरितानां दुरिष्टानां पापानां महतामपि।
कृच्छ्रंचान्द्रायणं चैव सर्व पाप प्रणाशनम्॥(उशनः)

कृच्छ्र और चान्द्रायण संपूर्ण पातक और महापातकों को नष्ट कर देता है॥

यत्रोक्तं यत्र वा नोक्तं महा पातक नाशनम्।
प्राजापत्येन कृच्छ्रेण शुध्यतेनात्र संशयः॥ (उशनः)

जहां कहा हो वा न कहा हो, महा पातक के नाश करने वाले प्राजापत्यवा कृच्छ्र ब्रत से शुद्धि कर लेनी चाहिये॥

सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः।
सर्वेष्वेव ब्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थ मादितः॥

मनुः ११ । २२५

संपूर्ण व्रतों में आदर सहित यथा शक्ति गायत्री मंत्र तथा अन्य पवित्र मंत्रों का जप करना चाहिये॥

आवश्यक बातें॥

शुद्धि (प्रायश्चित्त) निर्णय में निम्न लिखित नियमों को नहीं भूलना चाहिये॥

१. गौत्तमः—

एनसि गुरुणि गुरूणि लघुनि लघूनि॥

विद्वानों को चाहिये कि बड़े पाप में बड़ा और छोटे में छोटा प्रायश्चित्त नियतकरें॥

विष्ण० प्र०—

पापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे तु तद्विदः।
प्रायश्चित्तानि मैत्रेय! जगुः स्वायंभुवादयः॥

अं० २ अ० ६।३६

हे मैत्रेय ! धर्मवेत्ता मन्वादिकों ने बड़े में बड़ा औरछोटे में छोटा प्रायश्चित्त नियत किया है।

शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्॥
मनुः ११ । २०९

शक्ति और पाप को देख कर प्रायश्चित्त कराना चाहिये॥

२ विहितं यद कामानां कामात् तद दिगुणं भवेत्

जो प्रायश्चित्त अनिच्छित पाप में नियत किया है, वह इच्छा से किये पाप में दुगना कर देना चाहिये॥

और जो इच्छित में दर्शाया गया है उसको अनिच्छत में आधा कर देना चाहिये॥

३ विप्रे तु सकलं देयं पादोनं क्षत्रिये स्मृतम्।
वैश्येर्द्धं पाद एकस्तु शस्यते शूद्र जातिषु॥

बृ० विष्णुः।

जिस पाप में जो ब्रत विधान किया हो, उसको ब्राह्मण पूरा करे क्षत्रिय चौथाई कम, वैश्य आधा–और शुद्र एक पाद (चौथा हिस्सा) करे। अर्थात् जिसको ब्राह्मण चार दिन करे तो क्षत्रिय तीन दिन– वैश्य दो दिन और शुद्र एक दिन करे॥

४ स्त्रीणां बाल बृद्धानां क्षयिणां कुशरीरिणाम्।
उपवासाद्य शक्तानां कर्त्तव्यो ऽनुग्रहश्च तैः॥

बृ० पा० अ० ८

स्त्री, बाल, बृद्ध, रोगी आदि उपवास में असमर्थों पर दया करनी चाहिये॥

स्त्रीणामर्द्धं प्रदातव्यं बृद्धानां रोगिणांतथा।
पादो बालेषु दातव्यः सर्व पापेष्वयं विधिः॥

विष्णु स्मृतिः।

स्त्री बृद्ध और रोगी को आधा प्रायश्चित्त कराना चाहिये। और बालों को चौथाई॥

अशीर्यस्य वर्षाणि बालो वाप्यून षोड़शः।
प्रायश्चित्तार्द्ध मर्हन्ति स्त्रियो व्याधित एव च॥६

अस्सीवर्ष का बृद्ध, ग्यारह से ऊपर और सोलह वर्ष से न्यून अवस्था का बाल, स्त्री और रोगी को आधा प्रायश्चित्त देना चाहिये।

न्यूनै कादश वर्षस्य पंच वर्षाधिकस्य च।
चरेद्गरु सुहृद्वापि प्रायश्चित्तं विशोधनम्॥७

ग्यारह वर्ष से न्यून और पांच वर्ष से अधिक अवस्था वाले की शुद्धि के लिये गुरु अर्थात् पिता अथवा कोई मित्र प्रायश्चित्त करे।

विधिः।

सर्व पापेषु सर्वेषां ब्रतानां विधि पूर्वकम्।
ग्रहणं संप्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्ते चिकीर्षिते॥
दिनान्ते नख रोमादीन् प्रवाप्य स्नानमा चरेत्।
भस्म गोमय मृद्वारि पंच गव्यादि कल्पितैः॥
मलापकषर्णं कार्यं वाह्य शौचोपसिद्धये।
दन्तधावन पूर्वेण पंच गव्येन संयुतम्॥

ब्रतं निशामुखे ग्राह्यं वहिस्तारक दर्शने।
आचम्यातः परं मौनी ध्यायन् दुष्कृतमात्मनः॥
मनः संतापनं तीब्रमुद्वहेच्छो क मन्ततः॥(बसिष्ठः)

पापों के प्रायश्चित्त करने की इच्छा हो तो उसकी विधि यह है कि दिन के अन्त में नख तथा रोमों को कटवा कर भस्म गोवर मट्टी और पंच गव्य आदि स्नानकर वाह्य शुद्धि करे और दंतधावन कार पंच गव्य पीवे। सायंकाल में जब तारे दीखें तो व्रत धारण करे आचमन करके मौन होकर अपने आप का ध्यान करे और मन से पश्चात्ताप करे॥

राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः।
केशानां वपनं कृत्वा प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥

यम ५६।

राजा हो वा राज पुत्र हो, अथवा विद्वान् ब्राह्मण हो सब बाल कटा कर प्रायश्चित्त करें॥

केशानां रक्षणार्थं तु द्विगुणं ब्रत मादिशेत्॥
यम।५७

यदि केश न कटवाना चाहे तो दुगना ब्रत करे॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/> स्त्री और केश वपन <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/>

नस्त्रीवपनं कार्यं॥ यम० श्लो० ५५

परंतु स्त्रियों के केश नहीं कटवाने चाहियें॥

एवं बौधायन स्त्रियाः केश वपन वर्ज्यम्

स्त्रियें बिना क्षौर कराए व्रत करें॥

इन ब्रतों अथवा नियमों को कौन नियत करे? इसका उत्तर शास्त्रों ने दिया है कि पंचायत॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/> प्रायश्चित्ती और पंचायत <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/>

प्रायश्चित्तीयतां प्राप्य दैवात्पूर्व कृतेन वा।
न संसर्गं ब्रजेत्सद्भिः प्रायश्चित्तेऽकृते द्विजः॥

मनुः ११।४७

जो किसी कारण से प्रायश्चित्त के योग्य हो जावे, वह बिनाप्रायश्चित्त किये किसी श्रेष्ट से संसर्ग न करे॥

कृत्वा पापं न गूहेत गुह्यमानं विवर्द्धते।
स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा वेद विदभ्यो निवेदयेत्॥

पराशर ८।६

वेद वेदांग विदुषां धर्म शास्त्रं विजानताम्।
स्वकर्मरत विप्राणां स्वकं पापं निवेदयेत्॥

परा.८।२

पाप करके छुपावे नहीं क्योंकि छुपाया हुआ पाप बढ़ता है। पाप छोटा हो वा बड़ा वेदवेत्ता, धर्म शास्त्राभिज्ञ ब्राह्मणों के संमुख प्रकट करते।

सभा के लक्षण।

प्रायश्चित्ते समुत्पन्ने ह्रीमान् सत्य परायणः।

मुदु रार्ज्जव सपन्नः शुद्धिं गच्छेत्मानव॥
परा० ८८

जब कोई पाप हो जाय तो लज्जा युक्त हो कर और सत्य परायण हो सरलता से शुद्धि का प्रयत्न करे॥

निष्कृतौ व्यवहारे च व्रतस्या शंसने तथा।
धर्मं वा यदि वा धर्मं परिषत् प्राह तद् भवेत्॥

बृ० पारा० ६।७२

शुद्धि में व्यवहार में तथा व्रत के बतलाने में सभा (पंचायत) जिस को धर्म वा अधर्म करार दे वही धर्म अथवा अधर्म होता है॥

अतः-

प्रविश्य परिषदन्ते वै सभ्यानामग्रतः स्थितः।
यथा कृतं च यत्पापं तथैव विनिवेदयेत्॥

बृ० पारा० ६।७३

सभा में जाकर सभासदों के संमुख अपने पाप को यथा तथा प्रकट कर दे॥

परिषद् दशावरा प्रोक्ता ब्राह्मणैर्वेद पारगैः।
सा यद् ब्रूयात्स धर्मः स्यात् स्वयंभू रित्य कल्पयत्॥
वेद शास्त्र विदो विप्रा ब्रूयुः सप्त पंच वा।
त्रयो वापि सधर्मः स्यादे को वाऽध्यात्म वित्तमः।६४
संयमं नियमं वापि उपवासादिकं च यत्।
तद् गिरा परिपूर्णास्यान्निष्कृति र्ब्यावहारिकी। ६५

बृहत् ० पारा० अ० ६

दस वेदवेत्ता ब्राह्मण जिसमें हों उसका नाम सभा है। वेदादि शास्त्र के जानने वाले सात, पांच, तीन अथवा अध्यात्म वित्एक ही जिसको धर्म कहे वह धर्म है।

पूर्वोक्त सभा जो संयम, नियम, अथवा उपवास आदि नियत करे उस से सम्पूर्ण व्यावहारिक शुद्धि करनी चाहिये।

बशिष्ट कहता है :—

चत्वारो वा त्रयो वापि यं ब्रूयुर्वेद पारगाः।
स धर्म इति विज्ञेयो नेतरेषां सहस्रशः॥२।७

वेदवेत्ता चार अथवा तीन भी जो व्यवस्था दें वह धर्म है। और सहस्रों मूर्खोंका कथन धर्म नहीॆ।

चातुर्विद्यं विकल्पी च अंगविद्धर्म पाठकः।
आश्रमस्थास्त्रयो मुख्यापर्षदेषां दशावरा॥

वशिष्ट ३-२०

चार चारों वेदों के जानने वाले, एक मींमासा का जानने बाला, एक अङ्गों (व्याकरणादि ६) का जानने वाला। एक धर्म शास्त्र का वेत्ता, और तीन तीनों वर्षों के मुखिया ये दश पुरुष जिसमें हों धर्म निर्णय के लिये वह सभा वा पंचायत है।

मनु कहता है :—

दशावरा परिषद् यंधर्मं परि कल्पयेत्।
त्र्यवरावापि बृत्तस्था तेधर्मं न विचालयेत्॥१११॥
त्रैविद्यो हैतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्म पाठकः।
त्रयश्चा श्रमिणः पूर्वे परिषत् स्याद् दशावरा॥११२॥

एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।
सविज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञाना मुदितोऽयुतैः॥

मनुः १२-११३

दस श्रेष्ट विद्वान् जिसको धर्म कहें, अथवा दस के अभाव में तीन भी सदाचारी जिसको धर्म कहें उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिये॥

वेद न्याय मीमांसानिरुक्त आदि के जानने वाले और तीन पूर्वाश्रमी ये दस जिनमे हों उसका नाम सभा है। वेदवेत्ता एक ब्राह्मण भी जिसको कहे वह धर्म है, परन्तु मूर्ख दस हज़ार का भी कहा हुआ धर्म नहीं।

अब्रतानाम मंत्राणां जातिमात्रोप जीविनाम्।
सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते॥

मनुः ११-११४

व्रतहीन, वेद मंत्रों से शून्य, केवल जातिमात्र के घमंडी ब्राह्मण आदि यदि सहस्रों भी एकत्र हों तो भी उसका नाम सभा (पंचायत) नहीं।

अतएव बृहत्पाराशर अध्याय ६ श्लो० ६८ में कहता है किः—

न सा बृद्धैर्न तरुणै र्न सुरूपै र्धनान्वितैः।
त्रिभिरे केन परिषत्स्याद्विद्वद्भि र्विदुषा पि वा॥

धर्म निर्णय में बृद्धों, जवानों, खूबसूरतों, तथा धनाढयों की सभा नहीं कहलाती। प्रत्युत्वहां तो विद्वान् तीन अथवा एकही काफी है।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/> पंचायत का कर्त्तव्य<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731302174Screenshot2024-11-10194120.png"/>

देशं कालं वयः शक्तिं पापं चावेक्ष्य यत्नतः।
प्रायश्चित्तं प्रकल्प्यं स्याद् यत्रस्या दस्य निष्कृतिः॥

सभा को चाहिये कि वह लोभ मोह आदि से रहित होकर धर्म शास्त्रानुसार देशकालानुकूल प्रायश्चित्त नियत करे, अन्यथा उस पातक के भागी सभासद होते हैं।

आर्त्तानां मार्गमाणानां प्रायश्चित्तानि ये द्विजाः।
जानन्तोऽपि न यच्छन्ति ते वै यान्ति समं तु तैः॥

जो दुःखी और प्रायश्चित्त पूछने वाले को जान बूझ कर भी प्रायश्चित्त नहीं बताते वे भी उन पातकियों के तुल्य पापी होते हैं। परन्तु बिना यथार्थ ज्ञान के अन्यथा कहने में भी वैसा ही दोष है।

यं वदन्ति तमोभृताः मूर्खाः धर्म मतद्विदः।
तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तृननु गच्छति॥

मनुः १२-११५

धर्माधर्म के तत्व कों न जानने वाले तमोगुण प्रधान मूर्ख जिसको प्रायश्चित्त बताते हैं। उसका पाप सौगुणा होकर उनको लगता है।

प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति ये द्विजाः नामधारकाः।
ते द्विजाः पापकर्माणः समेताः नरकं ययुः॥

परा० ८।९८

जो केवल नामधारी (अर्थात् वेद विहीन) द्विज प्रायश्चित्त नियत करते हैं वे पापी हैं और सब के सब नरक में जाते हैं।

अज्ञात्वा धर्म शास्त्राणि प्रायश्चित्तं ददाति या।
प्रायश्चित्ती भवेत्पूतः किल्विषं पर्षदं ब्रजेत्॥

परा० ८।१४

जो सभा विना धर्म शास्त्र के ज्ञान के प्रायश्चित्त देती है उस से प्रायश्चित्ती तो शुद्ध होजाता है परन्तु उसका पाप सभा को लगता है।

लोभान्मोहाद् भयान्मैत्र्यादपि कुर्य्युरनुग्रहम्।
ते मूढा नरकं यान्ति शतधा प्राप्तपातकाः॥

बृ० पा० ६।८९

जो लोभ मोह भय अथवा मैत्रीभाव से पक्ष (रियायत) करते हैं वे मूढ नरक में जाते हैं, और उनका वह पाप सौगुना होकर लगता है।

शंखः—

तस्य गुरोर्बान्धवानां राज्ञश्च समक्षं दोषानभि
ख्यायानुभाष्य पुनः पुनराचारं लभस्वेति।
स पद्येव मप्यनवस्थितमतिःस्यात्ततोऽस्य पात्रं विपर्यस्येत्।

जब पातकी उक्त सभा के संमुख आवे तत्र सभा उसके दोषों को उसके गुरु, संबंधी तथा राजा के सामने प्रकट करके उसे पातकी

को कहे कि तुम इसप्रकार (जैसा सभा नियत करे) पुनः सदाचार में आजाओ! इस प्रायश्चित्त कथन पर भी यदि उसकी वृति सदा चार में न लगे, अर्थात् यदि वह तदनुसार अपनी मर्यादा में न आबे तो उसको जाति बाह्य कर देना (छेक) चाहिये॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/>खान पान बंद <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/>

निवर्त्तेरंश्च तस्मात्तु संभाषण सहासनं।
दायाद्यस्य प्रदानं च यात्रा चैवहि लौकिकी॥

मनुः ११। १८४

ज्येष्टता च निवर्त्तेत ज्येष्टा वाप्यं च तद्धनम्।
ज्येष्टांशं प्राप्नुयाच्चास्य यवीयान् गुणतोऽपिवा॥१८१॥

वह पतित जब तक प्रायश्चित्त न करले उससे वोलना साथ बैठना, दायभाग, तथा खान पान आदि लौकिक व्यवहार बंद कर देना चाहिये॥

यदि बड़ा हो तो उसकी बड़ाई, और ज्येष्ठांश, अर्थात् बडे़पना का जो भाग दायाद्य से उसे मिलना था, तोड़ा जावे, और उस अंश को छोटा भाई लेवे जो गुणों से अधिक हो॥

प्रायश्चित्ते तु चरितेपूर्ण कुंभमपां नवम्।
तेनैव सार्द्धं प्रास्येयुः स्नात्वा पुण्ये जलाशये॥

मनुः ११।१८६

परंतु पापानुसार प्रायश्चित्त कर लेने के उपरान्त सम्बन्धी लोग पवित्र जल से स्नान कर, जल से पूर्ण एक नवीन घटको उस के साथ जल में डाल देवे॥

(यहां किसी २ ने प्रास्येयुः के अर्थ पीने के भी किये हैं अर्थात उसके हाथ से जल ले कर आचमन करें।

यह अर्थ शुद्धि के लिये अच्छा प्रतीत होता है। क्योंकि इस समय भी लोग शुद्ध हुए के हाथ से कुछ लेकर खाते हैं वा आचमन लेते हैं ताकि उसको निश्चय हो जाय॥

गौतम कहता है कि—

शात कुम्भ मपां पात्रं पुण्यतमात् हदात् पूरयित्वा॥
स्रवन्तीभ्यो वा तत एनं अप उपस्पर्शयेयुः॥

स्वर्ण के पात्र को किसी पवित्र तालाब अथवा नदी से भर कर उससे उस प्रायश्चित्ती को स्पर्श करावें। अर्थात् उससे आचमन मार्ज्जन और स्नान करावें॥

स त्वप्सुघटं प्रास्य प्रविश्य भुवनं स्वकम्।
सर्वाणि ज्ञाति कर्माणि यथा पूर्वं समाचरेत्॥

मनुः ११। १८७

वह शुद्ध हुआ २ मनुष्य उस घट को जल में फैंक कर अपने घर में जाए, और पूर्ववत् संपूर्ण ज्ञाति कर्मों को करे॥

एत देव विधिं कुर्याद् योषित्सु पतिता स्वपि।
वस्त्रान्न पानं देयं तु वसेयुश्च गृहान्तिके॥१८८॥

यही विधि पतित स्त्रियों में भी करनी चाहिये। परंतु उनकी शुद्धि होने से प्रथम भी उनको अन्न जल देना चाहिये और गृह के समीप ही उनको रक्खना चाहिये॥

पुनः शुद्ध हुओं से घृणा नहीं करनी चाहिये।

एनस्वि भिरनि र्णिक्तैर्नार्थं किं चित्सहा चरेत्।
कृतनिर्णेजनां श्चैव न जु गुप्सेत कर्हिचित्॥

मनुः १९

बिना प्रायश्चित्त के पतितों के साथ लेन देन नहीं करना चाहिये परंतु प्रायश्चित्त करने के अनन्तर उनसेकभी भी घृणा नहीं करनी चाहिये॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/>व्रतस्वरूपम्<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अब उन कृच्छ्र आदि ब्रतों के स्वरूप बतलाए जाते हैं जिन में शुद्धि की जाती है॥

प्राजापत्य।

त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यह मद्याद याचितम्।
त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजा पत्यं चरन् द्विजः॥

मनुः ११ । २११

प्राजा पत्य कृच्छ्र करने वाला तीन दिन प्रातःकाल और तीन दिन सायंकाल भोजन न करे। तीन दिन अयाचित अन्न से भोजन करे। और तीन दिन उपवास करे इस प्रकार द्वादश दिनका प्राजा पत्यब्रत होता है॥

इसमें पराशर ने तो ग्रास संख्या भी लिखी है।

सायं द्वात्रिंशति र्ग्रासाःप्रातः षड् विंशतिस्तथा।
अयाचिते चतुर्विंशत् परं चानशनं स्मृतम्॥२११॥

सायंकाल के भोजन में बत्तीस ग्रास खावे। प्रातःकाल छब्बीस, इसके अनन्तर तीन दिन उपवास। अस्तु इत्यादि व्यवस्था को विस्तार भय से छोड़ कर केवल स्वरूप दर्शायें जावेगे॥

सांतपन कृच्छ्र।

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एक रात्रो पवासश्च कृच्छ्रंसांतपनं स्मृतम्॥ २१२॥

गोमूत्र, गोवर, दूध, दही, घी और कुशा का जल इनको एक दिन खावे और दूसरे दिन उपवास करे इसका नाम सांतपन कृच्छ है॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/> महासांतपन<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731248769Screenshot2024-11-10194120.png"/>

पृथक् सांतपन द्रव्यैः षड़हासोपवासकः
सप्ताहेन तु कृच्छ्रोऽयं महासांतपनं स्मृतम्। या० प्रा३१६

यदि इन पूर्वोक्त गोमूत्रादि छैः छैः दिन व्यतीत करे अर्थात् एक दिन गोमूत्र से एक दिन गोमय से इत्यादि, और इसके पश्चात् छःदिन उपवास करे वा इसको महासांतपन कृच्छ्र कहा है।

अतिकृच्छ्र।

एकैकं ग्रास मश्नीयात्, त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत।

त्र्यहं चोपवसे दन्त्यमति कृच्छ्रंचरन् द्विजः॥
मनुः ११-२१३

अतिकृच्छ्र करने वाला, तीन दिन सायं, तीन दिन प्रातः और तीन दिन अयाचित में एक एक ग्रास खावे। और तीन दिन उपवास करे।

तप्त कृच्छ्र :—

तप्त कृच्छ्रंचरन् विप्रो जलक्षीर घृतानिलान्।
प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान् सकृत्स्नायी समाहितः॥२१४॥

तप्त कृच्छ्र का अनुष्ठान् करने वाला विप्र समाहित चित्त होकर एकबार स्नान करे, तीन दिन उष्ण जल पीवे,। तीन दिन गरम दूध पीवे, तीन दिन घी, और तीन दिन निराहार रहे।

पराक कृच्छ्र :—

यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाह मभोजनम्।
पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्व पापापनोदनः॥ २१५॥

स्वस्थ और समाहित चित्त से बारह दिन भोजन न करने का नाम पराक कृच्छ्रब्रतहै और वह सब पापों को नष्ट करता है।

चान्द्रायणम्—

एकैकं ह्रास येत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत्।
उपस्पृशंस्त्रि षवण मेतच्चान्द्रायणं स्मृतम्॥२१६॥

तीन काल स्नान करता हुआ कृष्ण पक्ष में एक एक ग्रास

घटावे और शुक्लपक्ष में एक एक ग्रास बढ़ावे इसको पिपीलिका चान्द्रायण व्रत कहते हैं।

एतमेव विधिं कृत्स्नमाचरेद् यवमध्यमे।
शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं ब्रतम्॥२१७॥

उपरोक्त ग्रास के घटाने आदि विधि का शुक्लपक्ष से प्रारंभ करे इसको यव मध्याख्य चान्द्रायण कहा है। अर्थात् जैसे यव मध्य से मोटा होता है। एवं यवाकार ग्रास को शुक्लपक्ष से आरम्भ कर कृष्णपक्ष में घटाकर अमावस्या को उपवास करे।

यति चान्द्रायण —

अष्टावष्टौ समश्नीयात् पिंडान् मध्यं दिने स्थिते।
नियतात्मा हविष्याशी यतिचान्द्रायणंचरन्॥ २१८॥

शुक्लपक्ष अथवा कृष्णपक्ष से आरम्भ कर एक मास पर्यन्त जितेन्द्रिय होकर प्रतिदिन मध्यान्ह में आठ ग्रास खाना यति चांद्रायण कहाता है।

शिशु चान्द्रायण—

चतुरः प्रातरश्नीयात् पिंडान् विप्रः समाहितः।
चतुरो ऽस्तमिते सूर्य्येशिशुश्चान्द्रायणं स्मृतम्॥२१९॥

प्रातःकाल चार ग्रास भोजन करें और सायंकाल में भी चार ग्रास भोजन करे इसका नाम शिशु चान्द्रायणब्रत है। इत्यादि अनेक साधन हैं जिनका देशकाल और पापानुसार प्रयोग कराना विद्वानों का कर्त्तव्य है। इति शम्॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731247898Screenshot2024-11-10194120.png"/>परिशिष्ट<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731247898Screenshot2024-11-10194120.png"/>

अनार्य्यों को आर्य बनानें में

भारत के प्रसिद्ध विद्वान् (श्री० डाक्टर भण्डारकर एम० ए० की सम्मति जो उन्होंने २९ अगस्त १९०९ को पूना के व्याख्यान में प्रगट की।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731247898Screenshot2024-11-10194120.png"/> आर्यप्रभा<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731247898Screenshot2024-11-10194120.png"/>
के

प्रथम वर्ष के २२ तथा २४ अंक से उद्धृत

डाकटर साहिब के व्याख्यान में पुराणों इतिहासों तथा शिला लेखों के आधार से मुसलमानों के राज्य से पहिले (कलियुग में ही) समयमें विदेशी वा विजातीय अनार्यों को आर्य्य बनानेका विधानहै और हम इस से यह परिणाम निकालते हैं कि जब आज से हज़ार बर्ष पहिले अनार्यों से आर्य बन जाते थे तो आज उन का इसी विधि से आर्य्य बनाना कोई पाप कर्म्मनहीं है। डाकटर साहिव पुराणों के बहुत से उदाहरणों से अभीरशक, यवन, जातियों के आने और महाराजा अशोक के लेखों से ग्रीक लोगोंका नाम योण (यवन) सिद्ध करते हुए इनका हिन्दु होना बताते हैं और इस के आगे महाराजा मिलिंद्र(जिस का राज्य पञ्जाब और काबुल में था) का पहिला नाम मिनिडर लिखिते हुए लंका के शिला लेख वा सिक्कों पर से पाली भाषा में लिखे शब्दों से बताते हुए सिद्ध करते हैं कि बहुत बाद विवाद के पीछे वह बुद्ध धर्मानुयायी हुआ, यहीं नहीं,

किन्तु काली के बहुत से शिला लेखों से यवनों का सिंहधैर्य धर्म्म आदि नाम रख हिन्दु होना सिद्ध होता है। और वहां एक लेख से यह भी निश्चय होता है कि सेतफरण का पुत्र हरफरण (वहालोफर्नस) बहुतसा दान पुण्य करने से हिन्दु बनाया गया।

जुन्नर— के शिला लेख से चिटस और चंदान नामक यवनों को शुद्ध कर चित्र और चन्द्र बनाना सिद्ध होता है और इन के जीवन से आर्य्यपुरुषोंसे खान पान होना भी प्रतीत होता है।

नाशिक— (जिला) में एक शिला पर यह लेख है।

“सिधं ओतराहम दत्ता मिति यकस योणकस धंम देव पुतस इन्द्राग्नि दतस धर्म्मात्मना”।

इस से प्रतीत होता है कि उत्तर (सरहद्द) से आए हुए यवन के पिता को संस्कार कर धर्म्मदेव और पुत्र को इन्द्राग्निदत्त बना कर आर्य बनाया, ऊपर के नामों से यह भी प्रतीत होता है सिन्ध के पार शुरूसेही शेखमहमह और शेष अबदुल्लानहीं बसते थे।

नाशिक— के एक और शिला लेख से प्रसिद्ध क्षत्रप राज वंश के दिनीक, नहपान, क्षहशत, आदि राजाओं को शुद्ध किया गया और नहपान की कन्यासे ऋषिभदत्त (उपवदात) नामी आर्य का विवाह हुआ इन राजाओं के नाम से २४ हजार सिक्के अभी मिले हैं नहपान के जामाता ने एक बार ३००००० तीन लाख गौएं दान कर के दी थी और हर वर्ष लक्ष ब्राह्मण को भोजन कराया

करता था। इन का राज्य ५० वर्ष तक नाशिक में रहा पीछे गौतम पुत्र ने इनको निकाल दिया, इन क्षत्रपोंका एक बंश उज्जयिनीमें चला गया वहां उसके १९२० पुरुष हुए उनका वहां दो सवा दो सो वर्ष राज्य रहा, यह ईसा के संवत से ३८९ वर्ष पहिले का समय है।

** क्षत्रप शब्द का अर्थ—** कदाचित् कोई कहे कि यह क्षत्रप लोग शुरू से ही आर्य थे इनको आर्य बनाया नहीगया इसी लिये इन से गौएं लेने और इनका भोजन करने में कोई दोष नहीं इसलिये हम क्षत्रप शब्द का अर्थ कर देते हैं।

क्षत्रप— शब्द साधारण दृष्टि से तो संस्कृत का प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में संस्कृत के सारे साहित्य (कोष व्याकरणादि) में यह शब्द कहीं नहीं पाया जाता हां क्षत्रप वा खत्रप यह शब्द फारसी भाषा के इतिहास का [Satrup] शब्द एक प्रतीत होता है जिसका अर्थ है राजाधिराजों के हाथ का पुरुष वा राज्याधिकारी वा प्रतिनिधि प्रतीत होता है आज कल जिस प्रकार आर्या वर्त के पुरुष चीन आदि सम्राटों की सेनाओं में जाकर प्रतिष्ठा पा उच्च अधिकार पा रहे हैं-इसी प्रकार किसी समय विजातीय लोग आर्य सम्राटों के आधीन में रह कर अधिकार प्राप्त करते थे यहां तक कि दूसरे द्वीपों में राज प्रतिनिधि बन कर जाया करते थे।

टालेमी— नामक प्रसिद्ध भूगोल ग्रन्थ कार ने उज्जयिनी का वर्णन करते २ तियस्थ नीज़ और पुलुमाई तत्कालीन राजा-

ओं का नामांकित करता है पर उज्जयिनी के पुराने सिक्के और शिलाओं पर राजा का नाम चष्टन लिखा है कदाचित् यही तियस्थनीज होगा यह राजा क्षत्रप लोगों का आदि पुरुष हुआ है, यह नाम आर्या वर्तीय वा आर्य जांती का प्रतीत नहीं होता परन्तु इसके पुत्र का जयदाम और पोत्र का नाम रूद्रदाम था जिससे पाया जाता है कि इनका आधानाम जय तथा रुद्र हिन्दु होगया था और थोड़े काल के पीछे इसके बंश धरों के नाम रूद्र सिंह आदि हुए जो पूरे संस्कृत (आर्य) नाम हैं इनके इतिहास से यह भी सिद्ध होता है कि क्षत्रप लोग सबसे जल्दी आर्य बिरादरी में मिलाए गए अगले अङ्क में प्राचीन तुकों की शुद्धि का उल्लेख करेंगे॥

(२ रा अंक)

हमने विगतांक में डाकटर साहिब के व्याख्यान से बहुत से पुरुषों तथा समुदायों को आर्य्यबनाना (विदेशी वा विधर्मी होने पर भी) दिखाया था आज उसके उत्तरार्थ में से कुछक दृष्टान्त ऐसे देते हैं जिन से यह सिद्ध हो कि मुमलमानों के राज्य के कुछ काल पहिले से विदेशी वा विजातीय अनार्यों को आर्य बनाया जाता था।

डाकटर साहिब फर्माते हैं नाशिक के एक और शिलालेख से सिद्ध होता है कि आर्य्य लोग शक जाति की स्त्रियों से खुले तौर पर विवाह कर लेते थे।

नाशिक **—**के एक और शिला लेख में लिखा है किः—

** “सिद्धं राज्ञः माढ़री पुत्रस्य शिवदत्ताभीरपुत्रस्य आभीरेस्वरसेनस्य संवत्सरे नवम ९ गिम्हपखे चौथे४**

दिवस त्रयोदश १३ एताय पुवय शकाभिवर्मणः दुहित्रा गणपकस्य रेभिलस्य भार्यया गणपकस्य विश्ववर्म मात्रा शकनिकया उपासिकया विष्णुदत्तया गिलान भेषजार्थं अक्षयनीवी प्रयुक्ता”

इस लेख से प्रतीत होता है कि अग्नि वर्म की कन्या और विश्ववर्मा की माता “विष्णुदत्ता” ने रोगियों के औषध के लिए एक “अक्षयनीवी” (धर्मार्थ फण्ड) कायम किया था यह स्त्री शकनिका जाति की थी और इसका विवाह आर्य्य क्षत्रिय से होने के सबबइसका पुत्र भी वर्मा कहलाया ऐसा प्रतीत होता है।

इस लेख में आभीर राजा का संवत् दिया है उस समय महीनों का प्रचार नहीं था किन्तु ऋतु के हिसाब से लोग वर्ष गिना करते थे आभीर लोगों का राज्य शक लोगों के पीछे हिन्दुस्तान में हुआ, आभीर लोग मध्य एशिया से हिन्दुस्तान में आए थे, विष्णुपुराण में इनको म्लेच्छों में गिना है वराहमिहिर भी इन्हें म्लेच्छ ही कहते हैं।

काठियावाड़— के गुंडा गांव के शिला लेख से भी आभीर राजाओं के राज्य का पता लगता है जिससमय अर्जुन श्री कृष्ण की पत्नीको ला रहा था उन समय इन ही लोगों ने अर्जुन को लूटा था, यह लोग ही पीछे से अहीरबनगए और आज सुनारों तर्खाणों ग्वालों और ब्राह्मणों तक में पाए जाते हैं अर्थात् इस जाति के मनुष्यों ने अपने आप को म्लेच्छ वर्ग से निकाल कर ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र वर्ण के पद को प्राप्त कर लिया, इसमें बहुत

से लोग शूद्र होने पर भी जनेऊ डालते हैं पूना के सुनार अहीर जनेऊ पहिरते हैं खान देश के अहीर नहीं पहिरते कुछ काल से इन में इस बात से विरोध भी हो रहा है।

** तुर्क हिन्दु बन गये**— हिन्दुस्तान की उत्तर ओर तुर्क लोगों का राज्य था जिसको राजतरंगणि नामक पुस्तक में “तुरुष्क” वा कुषण के नाम से लिखा है इसी वंश का हिमकाडफिस नाम का एक राजा हिन्दू होकर शैवबन गया था यह मसीह की दूसरी वा तीसरी सदी में राज्य करता था इनके विशेषणों में “राजाधिराजस्य सर्व लोकैकेश्वरस्य माहेश्वरस्य”।

लिखा है, इसका नाम हिन्दुओं का सा नहीं है परन्तु यह पक्का शैव हिन्दु था इसके सिक्कों पर एक तरफ तुर्की टोपी और दूसरी तरफ नन्दी बैल तथा त्रिशूल हस्त एक पुरुष (शिव) की तस्वीर है जिन से सिद्ध है कि यह राजा तुर्कों के वंश में पैदा होकर भी हिन्दु होगया॥

** मगलोक ब्राह्मण होगये**—दूसरे देशों के आये हुए लोग ब्राह्मण भी बन जाते थे इसके बहुत से उदाहरणों में से एक “मग” जाति के लोगों का है, इन लोगों ने पहिलेपहिल राजपूताना, मारवाड़, बङ्गाल तथा संयुक्त प्राप्त में वसती की थी, शालिवाहन के १०२८ शके के एक शिला लेख से (जो नीचे दिया जाता है)।

** देवोजीया त्रिलोकी मणिरयमरूणो यन्निवासेन पुण्यः, शाकद्वीपस्सदुग्धाम्बुनिधि वलयितो यत्र विप्रा मगाख्याः।**

** वंशस्तद्द्विजानां भ्रमि लिखित तनोर्भास्वतः स्वाङ्गामुक्तः, शाम्बो यानानिनाय स्वयमिह महितास्ते जगत्यां जयन्ति॥ १॥**

सिद्ध होता हैं कि शाकद्वीप में मग लोक रहते थे वहां से शाम्ब (साम्ब) उन्हें यहां लाया इसवंश में छः पुरुष प्रसिद्ध कवि थे, इसका कुछ वर्णन भविष्य पुराण में भी मिलता है शाम्ब ने चन्द्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर एक मन्दिर बनवाया उस समय ब्राह्मणलोक देवपूजन को निन्दनीय कर्म्म समझते थे इसलिये शाम्ब को कोई पुजारी न मिला और उसने शाकद्वीप से आये हुए मग जाति के लोगों को पुजारी बना दिया। मुलतान के निकट जो सुवर्ण का भारी मन्दिर था जिसे पिछली सदी में मुसलमानों ने तोड़ फोड़ दिया प्रतीत होता है यह वही मन्दिर हैं जिसेशाम्ब ने बनाया था।

** देवस्थापन में मगों का अधिकार—**शनैः २ इनका देवपूजन में यहां तक अधिकार बढ़ा कि बराह मिहर से पण्डितों ने भी इनकी बाबत लिखा है कि :—

विष्णोर्भागवतान् मगांश्च सवितु

** र्शम्भोः सभस्मद्विजान्॥**

विष्णु की मूर्त्तिकी स्थापना भागवत् लोगों के हाथ से और सूर्य देवता की मग लोगों के हाथ से करानी चाहिये।

मग लोग कौन थे?— कदाचित् लोगों को मग लोगों की जाति सम्बन्ध में संदेह हो इस लिये हम बतला देते हैं कि हिन्दुस्तान के मग और पर्शिया के मगी [magi] एक ही हैं पर्शियों के धर्म्म पुस्तक की भाषा भी वेद की भाषा से मिलती है और “मित्र” आदि पूज्य देवता भी “मग” और “मगी” लोगों के एक से ही हैं यह लोग उधर सीरिया, एशिया, मापनर, और रोम तक फैले हुए हैं और इधर हिन्दुस्तान तक।

पहिले पहिल यह लोग एक सर्प की……की डोरी गल में डाला करते थे परन्तु ज्योंही इन्हों ने ग्राह्मण पदवी प्राप्त की त्योंही उसे साग जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहिरना आरम्भ कर दिया, इसका भी विशेष वर्णन भविष्य पुराण में ही मिलता है।

हूण लोगों का हिन्दु होना— ईसा के पांचवें शतक में हूण लोग हिन्दुस्तान में आये और कुछ काल बाद इस कुल के नर बीरोंने भारत के कई भागों का राज्य प्राप्त किया शिला लेखों से तोरमाण तथा निहरकुलदो राजाओं का वर्णन अब तक मिलता है।

छतीसगढ़ के राजाकर्णदेव ने एक हूण कन्या से वि-

वाह किया था और राजपूतों की बहुत सी जातियों में एक हूण जाति भी है इन सब घटनाओं से पाया जाता है कि हूण लोग आर्य्योने आर्य बना लिये थे।

** गुज्जर लोग क्षत्रिय बन गए**— इतिहास में जिस प्रकार आभीर, हुण, शक, यवन वा तुर्क आदि का हिन्दु समाज में मिलकर हिन्दू संस्कारों को धार हिन्दू बनना सिद्ध होताहै इसी प्रकार गुज्जर लोगों का विदेश से यहां आकर हिन्दू बनना पाया जाता है पंजाब में गुजरात शहर और दक्षिण में गुजरात प्रान्त इनलोगों के बसाए हुए हैं संस्कृत के गुर्जर शब्द से गुज्जर बन गये “गुर्जरत्रा” से गुजरात प्राकृत शब्द वन गया “गुर्जरत्रा” का अर्थ गुर्जर [गुज्जर] लोगों को आश्रय देकर रक्षा करने वाला है शुरू २ में यह लोग उस स्थान में आकर आश्रय लिया करते थे, गुजरात प्रान्त का पहिला नाम “लाट” था लाटी भाषा वा लाटी रीति बड़ी प्रसिद्ध थी काव्य प्रकाशादि में इसका वर्णन भी है मसीह की बारवीं सदी के पीछे इसका नाम गुजरात पड़ा, गुज्जर लोगों का भारत के भिन्न २ प्रान्त पर राज्य रहा, इस वंश के १ देव शक्ति, २ रामभट ३ रामभद्र, ४ भोज राजा ५ महेन्द्रपाल, ६ महीपाल छः राजे थे, इनमें से कन्नौज के राजा महेन्द्र पाल, के वंश को उसके गुरु कविराज शेखर ने अपने बालरामायण में रघुवंश की शाखा मानकर इसको “रघुकुल चूड़ामणि” लिखा है परं वास्तव में यह विदेशी (म्लेच्छ) लोग थे, और इनकी जाति के बहुत लोग गुज्जर नाम से रशिया के अज़ाब समुद्र के किनारे अब तक बसरहे हैं।

** गुज्जरों का चारों वर्णोमें प्रवेश**—जिस प्रकार अहीर लोग अपने २ कर्मों से हिन्दुओं की ब्राह्मण, सुनाकर, तर्खाण, आदि जातियोंमें प्रवेश कर गए इसी प्रकार गुज्जरों ने भी वर्णों चारों वर्णों में स्थान प्राप्त किया, अर्थात्, राजपूतानादि में बहुत में गौड़ ब्राह्मण बने बहुत से गूजर, क्षत्रिय, लुहार, तर्खाण सुनार वा जाट आदि वनगए।

** गुज्जर राजपूत**— राजपूत वंशों में १पडिहार, प्रमार किंवा परमार ३ चाहुवान (चौहाण) ४ सोलकी ऐसीजातियें हैं जिनका संस्कृत व्याकरण से अर्थ करना ऐसा ही है जैसा कुकुर का अर्थ “कौति वेद शब्दं करोति, इति “कुकुरो ब्रह्मा” हां इनमें से पडिहार शब्द कई स्थानों में गुज्जर शब्द का वाची तो आता है जिससे पाया जाता है कि और वर्णों में मिलने की तरह गुज्जरों ने राजपूत वंश में भी प्रवेश कर लिया।

इत्यादि लौकिक इतिहासों से सिद्ध होता है कि आर्य लोग शुरू से कर्म की प्रधानता को मुख्य रखकर न केवल अपने पतित भाइयों को शुद्ध कर अपना सा बना लेते थे किन्तु इतरों को भी अपने प्रभाव में लाकर अपना बना लेते थे, समझदार आर्यों का अब ‘भा यह विचार है कि इस जाति हितैषी अपने पूर्वजों के सनातन धर्म को जो परम्परा से चला आता है अब भी इसको विधि पूर्वक स्वच्छता से निबाहे जाना चाहिए, इति॥

शुद्धिपत्रम्।

अशुद्ध शुद्ध
वियौष्ठ मावियौष्ठ
मध्री सध्री
ब्रह्माणः ब्राह्मणः
वर्त्तमानी वर्त्तमानो
नानुतिष्टत्ति नानुतिष्ठन्ति
ब्राह्मण ब्रह्मणा
ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्यं
सोमात नयय सोमाद पनयन्
पञ्चवां पांचवां
द्रिवड़ा द्रविड़ा
म्लेच्छवाचाचार्यवाचा म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः
औरवा और्वः
रेनैः रेते
परित्याग परित्यागं
उनके उनको
शव शक
ब्रह्मणों ब्राह्मणों
अतऊर्ध्व अत ऊर्द्धं
ब्रातच्फजोरस्त्रियाम् ब्रातच्फिजोरस्त्रियाम्
देवतः देवलः
सतातन सनातन
प्रत्येक्ष प्रत्यक्ष
प्रत्युतकार प्रत्युपकार
उदारण उदाहरण
अशुद्ध शुद्ध
श्लोकही श्लोक ३१ से
७०० २७००
भार्य्याः आर्य्याः
समुझिता समुज्झिताः
विन्ध्याद्रेद विन्ध्याद्रेर्द
जीवनः जीविनः
जुलाहा कलाल
याचकः पाचकः
शूद्रश शूद्रतश्
रक्खा बना
अत्यर्थ इत्यपि साधुः
वैश्या वेश्या
वैश्या वैश्य
वर्हको वर्द्ध को
राज्येऽतु राज्येतु
वुभुञ्ज वुभुजे
सतातन धर्म सनातन धर्म
कूर्म कूर्च
मनामाने मनमाने
दृष्ट्वा दृष्ट्वातु
अध्याय अध्याय २०७
इप्सेदिति यईप्सोदिति
र्वाशो सर्वाशो
भक्षये भक्षयेत्
द्विजाताना द्विजातीना
अशुद्ध शुद्ध
कीरा कीटा
कीर कीट
धम धर्म
पझ झष
कालिया कालिमा
यवों मंत्रों
शुद्धयेच्च शुद्ध्येच्च
शलूषीं शैलूषीं
म्लेच्छः म्लेच्छैः
देव देवलः
कुपादि कूपादि
बानर का बानर को
जीवितातप, जीवितातय
प्रायश्चित्तमर्हं, प्रायश्चित्तार्द्धं
आधार आधा
भुक्त्वा भुक्ता
विगतं विमलं
विभत्तिं विभर्त्ति
सुरोपो सुरापो
हीं हुए से कहे हुए
एतोचिन्द्रं एतोन्विद्रं
तर्यंहो तमं हो
प्रतिगृह्यं प्रतिग्राह्यं
समंदीपं समंदीयं
अशुद्ध शुद्ध
पत्किचेदं यत्किचेदं
पापप्नैः पापघ्नैः
राम कहि राम कीन्ह
पूयतेत पूयतेतु
निराकारादि निराहारादि
विष्ण० प्र० विष्णु० पु०
अशीर्यस्य अशीतिर्यस्य
गुरु गुरुः
सपन्नः संपन्नः
सपद्येव सयद्येव
गोमूत्रादि गोमूत्रादि से
वा तो
ई० हि०

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]


  1. “नोट - यहां अग्नि शब्द से तीन अर्थ जानने।” ↩︎

  2. “ये सर्वसाधारण के बिचार के लिये समय २ की अवस्था दिखाई है, इस में लेखक के मतामत का संबन्ध नहीं॥” ↩︎