११५ विपर्याङ् (वि+परि+आङ्)

वृत्

  • {विपर्यावृत्}
  • वृत् (वृतु वर्तने)।
  • ‘नाग्निं विपर्यावर्तेत’ (कौ० सू० १।२६)। पराङ्मुखो नापसरेदित्याह।
  • ‘ईदृङ् वै राष्ट्रं वि पर्यावर्तयति’ (तै० सं० २।५।१।१)। अपहृत्यान्यत्र सङ्क्रामयेत्।