अथ अष्टमोऽध्यायः
प्रथमः पादः
सर्वस्य द्वे ॥ ८|१|१||
सर्वस्य ६ | १ || द्वे ||२|| अर्थः- अधिकारोऽयम् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः पदस्येत्यतः प्राक्, तत्र सर्वस्य द्वे भवत इत्येवं तद्वेदितव्यम् ॥ वक्ष्यति नित्यवीप्सयो: ( ८1१1४ ) तत्र सर्वस्य स्थाने द्वे भवतः ॥ उदा० - पचति पचति । ग्रामो ग्रामो रमणीयः ॥
भाषार्थ : - यह अधिकार सूत्र है, पदस्य ( ८|१|१६ ) से पहले-पहले जायेगा | यहाँ से आगे पदस्य से पहले-पहले जो भी कहेंगे वहाँ [सर्वस्य ] सबके स्थान में [द्वे] द्वित्व’ होता है, ऐसा अर्थ होता जायेगा || यथा नित्यवीप्सयो: (८१११४) आगे कहेंगे सो वहाँ अर्थ होगा “नित्यता तथा वीप्सा अर्थ में (सर्वस्य) सबको (द्वे) द्वित्व हो” ॥
तस्य परमाम्रेडितम् ||८| ११२ ॥
तस्य ६ |१|| परम् ||१|| आम्रेडितम् १|१|| अर्थ: - तस्य द्विरुक्तस्य यत्परं शब्दरूपं तदाग्रेडितसंज्ञं भवति ॥ उदा० - चौर चौर ३, वृषल- वृषल ३, दस्यो दस्यो ३ घातयिष्यामि त्वा, बन्धयिष्यामि त्वा ||
भाषार्थ:- [तस्य ] उस द्वित्व किये हुये के [परम् ] पर वाले (अर्थात् दूसरा ) शब्द की [आम्रेडितम् ] आम्रेडित संज्ञा होती है || ‘चौर’ आदि शब्दों को वाक्यादेराम० (८११८) से द्वित्व होकर ‘चौर चौर’ बना । अब पर वाले चौर की आम्रेडित संज्ञा हो जाने से आम्रेडितं भर्त्सने ( ८/२/६५ ) से आम्रेडितसंज्ञक चौर की टि को प्लुत हो गया, इसी प्रकार सर्वत्र जानें। चौर के ‘सु’ का एह्रस्वात्० (६।१।६७) से लोप होकर द्वेत्व हुआ है, एवं दस्यो दस्यो ३ में ह्रस्वस्य गुण: ( ७ | ३ | १०८ ) से गुण हुआ है ।
यहाँ से ‘आम्रेडितम्’ की अनुवृत्ति ८१११३ तक जायेगी ॥
३५
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……..
५४६
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः
अनुदात्तं च || ८|१|३||
श्रर्थः - यदा-
i
अनुदात्तम् १|१|| च अ० ॥ अनु० - आम्रेडितम् ॥ ग्रेडितसंज्ञं तदनुदात्तं च भवति ॥ उदा० - भुङ्क्ते भुङ्क्ते । पशून प॑शून् ॥
भाषार्थ:- जिसकी आम्रेडित संज्ञा होती है, वह [अनुदात्तम्] अनु- दात्त [च] भी होता है | नित्यवीप्सयोः से भुङ्क्ते आदि में द्वित्व होता है । भुङ्क्ते की सिद्धि परि० १|३|६४ के प्रयुङ्क्ते के समान है ।
। भुजोऽनवने (१|३|६६ ) से यहाँ आत्मनेपद हुआ है। भुज उदात्तेत् है, प्रत्यय स्वर से उदात्त हुआ । सतिशिष्टोऽपि विकरणस्वरो लसार्वधातुकस्वरं न बाधते ( वा० ६।१।१५२ ) से श्नम् को अनुदात्त प्राप्त हुआ, परन्तु श्नम् के अदुपदेश होने से तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेशा ० (६।१।१८०) से ‘ते’ अनुदात्त हो गया । सो श्नम् प्रत्यय स्वर से उदात्त हुआ । पश्चात् श्नम् के उदात्त अकार के लोप होने पर अनुदात्तस्य च० (६।१।१५५) से अनुदान्त ते उदात्त हो गया। द्वित्व होने के पश्चात् पर भाग में भी यही स्वर प्राप्त होने पर उसकी आम्रेडित संज्ञा होने से सब स्वर हटकर सारा पद अनुदात्त हुआ पश्चात् भुं के उ को स्वरित (८।४।६५) एवं अन्य अनुदात्तों को एकश्रुति हो गई । इसी प्रकार पशु शब्द अर्जिहशि० (उणा ० २।२७) से कु प्रत्ययान्त होने से प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है । पर वाला भाग आम्रेडित संज्ञा होने से सारा अनुदात्त हो गया ||
नित्यवीप्सयोः ||८|१|४॥
नित्यवीप्सयोः ७|२|| स० - नित्यञ्च वीप्सा च नित्यवीप्से तयोः … इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु– सर्वस्य द्वे ॥ अर्थ:- नित्ये चार्थे वीप्सायां च यः शब्दो वर्त्तते तस्य सर्वस्य द्वे भवतः ॥ उदा० - नित्ये - पचति पचति । जल्पति जल्पति । भुक्त्वा २ व्रजति । भोजं २ ब्रजति । लुनीहि २
। इत्येवमयं लुनाति । वीप्सायाम् - ग्रामो २ रमणीयः । जनपदो २ रमणीयः । पुरुषः पुरुषो निधनमुपैति ॥
भाषार्थ : - [ नित्यवीप्सयोः ] नित्यता एवं वीप्सा अर्थ में जो शब्द उस सम्पूर्ण शब्द को द्वित्व होता है ||
नित्यता आभीक्ष्ण्य = पौनःपुन्य को कहते हैं, वह नित्यता तिङ् तथा कृतू जो अव्यय संज्ञक उनमें ही होती है, सो उसी प्रकार उदाहरणअष्टमोऽध्यायः
५४७
पाद: ] दर्शा दिये हैं । वीप्सा भिन्न २ पदार्थों की क्रिया तथा गुण की व्याप्ति को एक साथ कहने की इच्छा को कहते हैं । यथा जनपद २ रमणीय है । यहाँ भिन्न २ जनपदों के रमणीयता गुण को एक साथ कह दिया । इस प्रकार वीप्सा सुपों का ही धर्म है | आभीक्ष्ण्ये णमुल् च ( ३।४।२२) से उदाहरणों में क्त्वा णमुल् तथा क्रियासमभिहारे० (३|४|२) से लुनीहि में लोट् को ‘हि’ हुआ है । क्त्वा, णमुल् क्त्वातोसुन्० (१।११३९) एवं कृन्मेजन्तः (१|१|३८) से अव्ययसंज्ञक तथा कृत्संज्ञक ( ३|१|९३) भी हैं, सो उनको नित्यता अर्थ में द्वित्व हुआ है |
परेवर्जने ॥ ८/११५ ॥
परे : ६ | १ || वर्जने ७|१|| अनु० – सर्वस्य द्वे || अर्थः- परीत्येतस्य वर्जनेऽर्थे वर्तमानस्य द्वे भवतः ॥ उदा० - परि २ त्रिगर्त्तेभ्यो वृष्टो देवः । परि २ सौवीरेभ्यः । परि २ सर्वसेनेभ्यः ||
भाषार्थ:- [वर्जने] वर्जन = छोड़ने अर्थ में वर्त्तमान [परेः] परि शब्द को द्वित्व होता है || अपपरी वर्जने (१।४।८७) से ‘परि’ शब्द की हाँ कर्मप्रवचनीयसंज्ञा होने से पञ्चम्यपा० (२|३|१०) से त्रिगन्तेभ्यः आदि में पञ्चमी हुई है । विभाषा प० (२|१|११ ) से विकल्प से समास कहा है, सो असमास पक्ष में ही इस सूत्र से द्विर्वचन होता है, समास क्ष में द्वित्व नहीं होता ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि समास पक्ष में रि स्वतन्त्र पद नहीं रहता । यहाँ वीप्सा अर्थ में द्विर्वचन प्राप्त था, नेयमार्थं सूत्र है ॥
प्रसमुपोदः पादपूरणे || ८ | १२६॥
प्रसमुपोदः ६ | १ || पादपूरणे ७|१|| स० - प्रश्च सम् च उपश्च उत् च समुपोत् तस्य ‘समाहारद्वन्द्वः । पादस्य पूरणं पादपूरणं तस्मिन् ष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - सर्वस्य द्वे ॥ अर्थ:-प्र, सम्, उप, उत् इत्येतेषां भवतो द्विर्वचनेन चेत्पादः पूर्यते ॥ उदा० - प्रप्रायम॒ग्निर्भरतस्य॑ वे (ऋ० ७१८१४) । संस॒मिद्युवसे (ऋ० १० | १६१|१) । उपोप मे रामृश (ऋ० १।१२६।७ ) । किं नोदु॑दु हर्ष से दात॒वा उ॑ (ऋ०४।२१।९ ) ॥
भाषार्थ: - [प्रसमुपोदः ] प्र, सम्, उप, तथा उत् उपसर्गों को पादपूरणे ] पाद की पूर्ति करनी हो ( अक्षरादि कम हों तो, पूर्ति करने

५४८ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ प्रथमः में) तो द्वित्व हो जाता है ।। इस प्रकार का प्रयोग भाषा विषय में नहीं होता, अतः सामर्थ्य से यह सूत्र छन्द में ही प्रवृत्त होगा || उपर्यध्यवसः सामीप्ये ॥ ८|१|७|| उपर्यध्यवसः ६ | १ || सामीप्ये ७|१|| स० - उपर्य० इत्यत्र समाहार- द्वन्द्वः ॥ अनु० – सर्वस्य द्वे ॥ अर्थ:- उपरि, अधि, अधस् इत्येतेषां द्वे भवतः सामीप्ये विवक्षिते ॥ उदा० - उपर्युपरि दुःखम् । उपर्युपरि ग्रामम् । अध्यधि ग्रामम् । अधोऽधो नगरम् ॥ भाषार्थ:-[उपर्यध्यधसः ] उपरि, अधि, अधस् इनको [ सामीप्ये ] समीपता अर्थ कहना हो तो द्वित्व होता है । उपर्युपरि आदि में यणादेश हुआ है । उपर्युपरि दुःखम् अर्थात् अभी २ दुःख का क्षण दूर हुआ है || उपरि आदि अव्यय शब्द हैं || वाक्यादे रामन्त्रितस्यासूयासम्म तिकोपकुत्सन- भर्त्सनेषु || ८ |१| ८ ॥ वाक्यादेः ६|१|| आमन्त्रितस्य ६ | १ || असूया “भर्त्सनेषु ७|३|| स०- वाक्यस्य आदि: वाक्यादिस्तस्य षष्ठीतत्पुरुषः । असूया च सम्मतिश्च कोपञ्च कुत्सनञ्च भर्त्सना असूया “नानि तेषु इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० – सर्वस्य द्वे ॥ श्रर्थः - वाक्यादेरामन्त्रितस्य द्वे भवतः, असूया, सम्मति, कोप, कुत्सन, भर्त्सन इत्येतेषु गम्यमानेषु यदि तद्वाक्यं भवति || उदा० - असूया - माणवर्क ३ माणवक अभिरूपर्क ३ अभि- रूपक रिक्तं ते आभिरूप्यम् । सम्मतौ - माणवर्क ३ माणवक अभिरूपर्क ३ अभिरूपक शोभनः खल्वसि । कोपे - माणवर्क ३ माणवक अविनीतर्क ३ अविनीतक इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म । कुत्सने - शक्तिके’ ३ शक्तिके यष्टिके’ ३ यष्टिके रिक्ता ते शक्तिः । भर्त्सने - चौर चौर ३ वृषल वृषल ३ घातयिष्यामि त्वा बन्धयिष्यामि त्वा || + • भाषार्थ:- [वाक्यादेः ] वाक्य के आदि के [आमन्त्रितस्य ] आमन्त्रित को द्वित्व होता है, यदि वाक्य से [असूया “र्त्सनेषु ] असूया, सम्मति, कोप, कुत्सन, भर्त्सन गम्यमान हो रहा हो तो || दूसरे के गुणों को भी न सहन करने को असूया, सत्कार को सम्मति, क्रोध को कोप, निन्दा को कुत्सन, तथा डराने धमकाने को भर्त्सन कहते हैं |*………………. पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ५४९ उदाहरणों में माणवक आदि शब्द आमन्त्रित (२।३।४८) एवं वाक्य के आदि में स्थित हैं सो द्वित्व हो गया है, वाक्य से असूयादि अर्थों की प्रतीति हो ही रही है || सर्वत्र असूयादि अर्थों में द्वित्व किये हुये पूर्व वाले पद को स्वरितमाम्रेडिते ० (८।२।१०३) से प्लुत स्वरित होता है, केवल भर्त्सन अर्थ में आम्रेडितं भर्त्सने (८/२/९५) से पर वाले पद = आम्रेडित को प्लुत उदात्त हुआ है, सो उदाहरणों में दर्शा दिया है ||

एक बहुव्रीहिवत् ||८|१|९ ॥
एकम् १|१|| बहुव्रीहिवत् अ० ॥ बहुव्रीहेरिवेति बहुव्रीहिवत् ॥ अर्थः – द्विरुक्तमेकमित्येतच्छब्दरूपं बहुव्रीहिवद् भवति ॥ बहुव्रीहिवद्धा- वस्य प्रयोजनं - सुब्लोपपुंवद्भावो ॥ उदा० - एकैकमक्षरं पठति । एकैकयाऽहुत्या जुहोति ॥
भाषार्थ:– द्वित्व किये हुये [ एकम् ] एक शब्द को [बहुव्रीहिवत् ] बहुव्रीहि के समान कार्य हो जाता है एकैकम् यहाँ वीप्सा अर्थ ( ८1१1४ ) में द्वित्व होकर बहुव्रीहिवद्भाव होने से ‘एकम् एकम्’ यहाँ जो वैभक्ति थी उसका सुपो धातु० (२|४|७१) से लुकू हो गया । पश्चात् बुद्धि एकादेश (६।११८५) करके एकैक से ‘सु’ आया उसको अतोऽम् (७/१/२४) से अम् होकर एकैकम् बन गया । स्त्रीलिङ्ग में एकैकया यहाँ नी इसी प्रकार एकया एकया में विभक्ति लुकू करके ‘एका एकया’ रहा, स्त्रियाः पुंवद्० (६| ३ | ३२ ) से पुंवद्भाव होकर एकएकया बना । वृद्धि कादेश करके एकैकया ( ३|१) बन गया ||
यहाँ से ‘बहुव्रीहिवत्’ की अनुवृत्ति ८|१|१० तक जायेगी ||
आबाधे च || ८ | १ | १॥
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आबावे ७|१|| च अ० ॥ अनु० - बहुव्रीहिवत् सर्वस्य द्वे || आबा- ‘नमाबाधः = पीडा । भावे ( ३ | ३|१८) इत्यनेनात्र घन् ॥ अर्थः- आबाधे र्त्तमानस्य द्वे भवतो बहुव्रीहिवास्य कार्य भवति ॥ उदा० - गतगतः, ष्टनष्टः, पतितपतित: । गतगता, नष्टनष्टा, पतितपतिता ॥
भाषार्थ : - [ आबाधे ] आबाध = पीडा अर्थ में वर्त्तमान शब्द को [च] द्वित्व होता है, तथा उस शब्द को बहुव्रीहिवत् कार्य भी होता है ||
बहुव्रीहित करने के प्रयोजन हैं ।।
५५०
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः
कोई अपने प्रिय के चले जाने पर पीड़ित दुखित हुआ हुआ वियोग में कहता है ‘गतगतः = चला गया, नष्टनष्टः = नष्ट हो गया’ सो यही यहाँ आबाध अर्थ है । इस प्रकार प्रयोक्ता के कथन से यहाँ आबाधत्व की प्रतीति है ॥ गतगतः आदि में सुप् लोप तथा गतगता आदि में सुप् लोप एवं पुंवद्भाव दोनों हुये हैं ।।
कर्मधारयवदुत्तरेषु ||८|१|११ ॥
कर्मधारयवत् अ० || उत्तरेषु ७| ३ || श्रर्थः - इत उत्तरेषु द्विर्वचनेषु कर्मधारयवत् कार्यं भवतीति वेदितव्यम् ॥ कर्मधारयस्य इव कर्मधारय - वत् ॥ कर्मधारयवत्वे प्रयोजनं - सुब्लोपपुंवद्भावान्तोदात्तत्वानि ॥ उदा० - सुब्लोपः - पटुपटुः, मृदुमृदुः पण्डितपण्डितः । पुंवद्भावः- पटुपद्वी, मृदुमृद्धी, कालककालिका । अन्तोदात्तत्वम् - पटुपटुः, पटुपट्वी ॥
1
भाषार्थ :- यहाँ से [उत्तरेषु ] आगे द्विर्वचन करने में [कर्मधारयवत् ] कर्मधारय समास के समान कार्य होते हैं, ऐसा जानना चाहिये | यह कार्यातिदेश है || कर्मधारयवत् करने का प्रयोजन- सुब्लोप, पुंवद्भाव, तथा अन्तोदात्तत्व है । सुप् का लोप तथा पुंवद्भाव पूर्ववत् है । वोतो गुणवचनात् ( ४|१|४४ ) से पदवी मृदुवी शब्दों में ङीष् हुआ है, पूर्व पद में उसी की निवृत्ति पुंवद्भाव करने से होकर पटु मृदु शब्द रह गये । कालककालिका यहाँ न कोपधाया: ( ६ | ३ | ३५) से पुंवद्भाव का प्रतिषेध प्राप्त था, कर्मधारयवत्त्व होने से पुंवत् कर्मधारय० (६।३।४०) से पुंवद्भाव हो गया तो पूर्वपद वाले कालिका के टापू एवं तन्निमित्तक इकार की निवृत्ति होकर कालककालिका बन गया । काला शब्द से प्रागिवात्कः ( ५/३/७०) सेक, केऽण: (७|४|१३) से हस्वत्व एवं प्रत्ययस्थात् ० ( ७ | ३ | ४४ ) से इत्व होकर कालिका शब्द बना है, उसीको पुंवद्भाव हो गया । अन्तोदात्तत्व समासस्य’ (६।१।२१७) से कर्मधारयवत् मानने से होता है । अनुदात्तं च (८१११३) से आम्रेडित को अनुदात्त प्राप्त था, कर्मधारयवत् होने से
१. इस सूत्र को कार्यातिदेश मानने पर समासस्य का बाधक अनुदात्तं च से परत्व से अनुदात्त ही होना चाहिये, अतः इसी सूत्र से समास के अन्त को उदात्त विधान भी मानना चाहिये । शास्त्रातिदेश पक्ष में तो समासस्य हो जायेगा ।
……पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
५५१
वह न होकर समास अन्तोदात्तत्व ही हुआ | प्रकारे गुण ० (८|१|१२)
से सर्वत्र द्वित्व हुआ है |
यहाँ से ‘कर्मधारयवत्’ की अनुवृत्ति ८|१|१५ तक जायेगी ||
प्रकारे गुणवचनस्य || ८|१|१२ ॥
प्रकारे ७|१|| गुणवचनस्य ६ |१|| स०- गुणमुक्तवान् गुणवचन- स्तस्य’ ’ ‘तत्पुरुषः ॥ अनु० – कर्मधारयवत्, सर्वस्य द्वे ॥ अर्थः- प्रकारे वत्तमानस्य गुणवचनस्य द्वे भवतः, कर्मधारयवत् चास्य कार्य भवति । प्रकारः सादृश्यमिह गृह्यते ॥ उदा० - पटुपटुः, मृदुमृदुः, पण्डितपण्डितः ॥
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भाषार्थ:— [ प्रकारे ] प्रकार अर्थ में वर्त्तमान [गुणवचनस्य ] गुणवचन शब्दों को द्वित्व होता है, और उसे कर्मधारयवत् कार्य भी होता हैं | सादृश्य अर्थ वाले ‘प्रकार का यहाँ ग्रहण है, सो पटुपटुः का अर्थ है, कुछ कम पटु गुण वाला, अर्थात् यहाँ पूर्ण पटु की अपेक्षा से किसी में कुछ न्यूनता दिखाकर प्रकार सादृश्य ( उपमा ) कहा जा रहा है । मृदु- मृदुः का अर्थ होगा परिपूर्ण मृदुवाले की अपेक्षा से कुछ कम मृदुः गुण वाला, सो सबमें ऐसा हो जानें || पूर्व सूत्र से कर्मधारयवत् होने से पूर्व- वत् अन्तोदात्तत्व अनुदात्तं च (८१११३ ) का बाधक हो जायेगा ||
अकुच्छ्रे प्रियसुखयोरन्यतरस्याम् ||८|१|१३||
अकृच्छ ७|१|| प्रियसुखयोः ६ ॥२॥ अन्यतरस्याम् ७|१|| स० - न कृच्छो- Sकृच्छ्रस्तस्मिन्नस्तत्पुरुषः । प्रियश्च सुखञ्च प्रियसुखे तयो: ‘इतरेतर- द्वन्द्वः ॥ अनु० - कर्मधारयवत्, सर्वस्य द्वे ॥ अर्थ:- प्रिय सुख इत्येतयों- रकृच्छ्रे द्योत्ये ऽन्यतरस्यां द्वे भवतः, कर्मधारयवचास्य कार्य भवति || उदा०– प्रियप्रियेण ददाति, सुखसुखेन ददाति । पक्षे - प्रियेण ददाति, सुखेन ददाति ॥
भाषार्थ:– [ प्रियसुखयोः ] प्रिय तथा सुख शब्दों को [ अकृच्छ्रे ] अकृच्छ ( कष्ट न होना) अर्थ द्योत्य हो तो [ अन्यतरस्याम् ] विकल्प करके द्वित्व होता है, एवं कर्मधारयवत् कार्य उसको (द्वित्व किये हुये को) होता है || ‘प्रियप्रियेण ददाति’ का अर्थ है, अत्यन्त निर्धन होने पर भी कोई वस्तु अनायास प्रसन्नता से दे देता है। इसी प्रकार ‘सुख- खेन’ में समझें, यही यहाँ अकृच्छ है ॥ प्रियेण, सुखेन तृतीयान्त
५५२
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः
शब्दों को द्वित्व करने पर कर्मधारयवत् होने से सुप् का लुकू हो गया तो ‘प्रियप्रिय’ रहा । पुनः तदन्त शब्द से तृतीया एकवचन ‘टा’ आकर प्रिय- प्रियेण, सुखसुखेन बन गया ||
यथास्वे यथायथम् ||८|१|१४||
यथास्वे ७|१|| यथायथम् १|१|| स० – यो यः स्वो यथास्वम्, तस्मिन् । यथाऽसादृश्ये (२|१|७) इति वीप्सायामव्ययीभावसमासः ॥ स्वशब्दो ह्यत्रात्मवचनः, आत्मीयवचनो वा ॥ अनु - कर्मधारयवत्, सर्वस्य द्वे || अर्थ:– यथास्वेऽर्थे यथायथमिति निपात्यते, कर्मधारयवच्चास्य कार्य भवति । यथाशब्दस्य द्विर्वचनं नपुंसकलिङ्गता च निपातनेन भवति । नपुंसकलिङ्गतया ह्रस्वो नपुंसके० (१२/४७ ) इत्यनेन ह्रस्वः ॥ उदा० - ज्ञाताः सर्वे पदार्था यथायथम् । सर्वेषां तु यथायथम् ॥
भाषार्थ :- [ यथास्वे ] यथास्वम् अर्थ में [ यथायथम् ] यथायथम् शब्द निपातन है, तथा कर्मधारयवत् कायें भी इसे होता है । यथा शब्द को द्विर्वचन तथा नपुंसकलिङ्गता निपातन से होती है, नपुंसकलिङ्ग होने से ह्रस्वो नपुंसके० से ह्रस्व होकर यथायथम् बनेगा ||
यथास्वे में ‘स्व’ शब्द आत्मा ( वस्तु का अपना स्वभाव) अथवा आत्मीय (उसकी अपनी स्वाभाविकता) अर्थ का वाचक है || ज्ञाताः सर्वे पदार्थाः यथायथम् का अर्थ है “मैंने सब पदार्थों के उनके अपने स्वभाव को जान लिया है” । सर्वेषां तु यथायथम् = अर्थात् सब की आत्मीयता = स्वाभाविकता को || कर्मधारयवत् होने से पूर्ववत् अन्तोदात्तत्व होता है |
द्वन्द्वं रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्र-
प्रयोगाभिव्यक्तिषु || ८ | १|१५|
द्वन्द्वम् १|१|| रहस्य’ व्यक्तिषु ७१३ ॥ स०- यज्ञपात्राणां प्रयोग: यज्ञपात्रप्रयोगः, षष्ठीतत्पुरुषः । मर्यादायाः वचनं मर्यादावचनं, षष्ठी- तत्पुरुषः । रहस्यञ्च मर्यादावचनश्च व्युत्क्रमणश्च यज्ञपात्रप्रयोगश्च अभि- व्यक्तिव रहस्य’’ ‘व्यक्तयस्तेषु इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० – कर्मधारयवत्, सर्वस्य द्वे ॥ अर्थ:– रहस्य, मर्यादावचन, व्युत्क्रमण, यज्ञपात्रप्रयोग, अभिव्यक्ति इत्येतेष्वर्थेषु द्वन्द्वमिति निपात्यते कर्मधारयवत् चास्य कार्म
7अष्टमोऽध्यायः
५५३

पाद: ] भवति ।। द्वन्द्वमित्यत्र द्विशब्दस्य द्विर्वचनम् द्विर्वचने कृते पूर्वपदस्याभाव:, उत्तरपदस्य चात्वं निपात्यते ॥ उदा० - रहस्ये - द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते । मर्यादा- वचने - आचतुरं हीमे पशवो द्वन्द्वं मिथुनायन्ते । माता पुत्रेण पौत्रेण प्रपौत्रेण च मिथुनं गच्छति । व्युत्क्रमणे - द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः । यज्ञपात्र- प्रयोगे - द्वन्द्वं न्यचि यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति धीरः । अभिव्यक्तौ द्वन्द्वं नारदपर्वतौ द्वन्द्वं संकर्षणवासुदेवौ ॥ 1 भाषार्थ: - [रहस्य क्तिषु ] रहस्य, मर्यादावचन, रहस्य, मर्यादावचन, व्युत्क्रमण, यज्ञपात्रप्रयोग अभिव्यक्ति इन अर्थों में [द्वन्द्वम् ] द्वन्द्वम् यह शब्द निपातन है कर्मधारयवत् कार्य भी इसको होता है ॥ द्वि शब्द को द्विर्वचन कर लेने के पश्चात् पूर्वपद के इकार को अम् भाव एवं उत्तरपद के ‘इ’ को अत्व तथा नपुंसकत्व यहाँ निपातन है । ‘द्वि औ, द्वि औ’ इस स्थिति में कर्मधारयवद्भाव होने से सुप् का लुकू पूर्ववत् हुआ, एवं निपातन से अम् भाव एवं अत्व भी होकर द्वन्द्व रहा । नपुंसकलिङ्ग होने से द्वन्द्व शब्द से आये हुये सु को अम् (७११/२४) होकर द्वन्द्वम् बन गया । कर्मधारयवद्भाव होने से अन्तोदात्तत्व भी यहाँ पूर्ववत् होगा || रहस्य अर्थात् एकान्त । मर्यादावचन का अर्थ है स्थिति का अनतिक्रमण व्युत्क्रमण पृथक् अवस्थिति भेद को कहते हैं । अभिव्यक्ति अर्थात् साहचर्यं || उदा० - रहस्य में - द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते ( दो दो मिल कर परस्पर मन्त्रणा करते हैं) । मर्यादावचन में - आचतुरं हीमे पशवो द्वन्द्वं मिथुना- यन्ते (चौथी पीढ़ी तक ये पशु परस्पर मैथुन करते हैं) । माता पुत्रेण पौत्रेण प्रपौत्रेण च मिथुनं गच्छति ( माता पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र से संयुक्त होती है ) । व्युत्क्रमण में - द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः (दो दो वर्ग बना कर चले गए । यज्ञपात्रप्रयोग में- द्वन्द्वं न्यचि यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति धीर: (धैर्यशाली अर्वाग्बिल = उलटे यज्ञपात्रों को दो दो को इकट्ठा वेदि में रखता है ) । अभिव्यक्ति में - द्वन्द्वं नारदपर्वतौ (नारद और पर्वत दोनों का साह- चर्य) । द्वन्द्वं संकर्षणवासुदेवौ ।। पदस्य || ८|१|१६| पदस्य ६ | १ || अर्थ:- प्रागपदान्तादधिकाराद् इतोऽग्रे वक्ष्यमाणानि कार्याणि पदस्य भवन्तीत्यधिकारो वेदितव्यः ॥ उदा० - वक्ष्यति - संयोगान्तस्य लोपः (८/२/२३) पचन, यजन् ॥ ५५४ अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ [ प्रथमः भाषार्थ:– यह अधिकार सूत्र है || अपदान्तस्य मूर्धन्यः ( ८1३।५५) से पहिले २ अर्थात् ८|३|५४ तक के कहे हुये कार्य [पदस्य ] पद के स्थान में होते हैं, ऐसा अधिकार जानना चाहिये || शतृ प्रत्ययान्त पचन्त् यजन्त् पद के अन्त संयोग का लोप पचन यजन में हुआ है ॥ पदात् ||८|१|१७|| प्राकू पदात् ५|१|| अनु० - पदस्य || अर्थः – अयमप्यधिकारः कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ (८११६६) । इतोऽग्रे वक्ष्यमाणानि कार्याणि पदात् । पदस्य भवन्ति ॥ उदा० – वदयति- आमन्त्रितस्य च ( ८|१|१६ ) पचसि देवदत्त || । भाषार्थ:- यह भी अधिकार सूत्र है । कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ से पहिले २ कहे हुये कार्य [ पदात् ] पद से उत्तर पद के स्थान में होते हैं, ऐसा अधिकार जानना चाहिये ॥ पचसि देवदत्त यहाँ से पचसि पद से उत्तर देवदत्त आमन्त्रित संज्ञक पद को अनुदात्त हुआ है || अनुदाचं सर्वमपादादौ || ८ | १ | १८ | अनुदात्तम् ||१|| सर्वम् १|१||अपादादौ ७|१||स०- पादस्य आदिः पादादिः, षष्ठीतत्पुरुषः । न पादादिरपादादिस्तस्मिन्नन्तत्पुरुषः ॥ अर्थ:- अयमप्यधिकारः तिङि चोदात्तवति, ( ८/११७१) इत्येतत्पर्यन्तम् । इत उत्तरं यद् वक्ष्यामस्तद् ‘अनुदात्तं सर्वमपादादौ’ इत्येवं तद्वेदितव्यम् || उदा० - वक्ष्यति - आमन्त्रितस्य चेति पचसि देवदत्त ॥ भाषार्थ:- यह भी अधिकार सूत्र है, तिङि चोदात्तवति (८११७१) तक जायेगा । यहाँ से आगे जो कुछ कहेंगे वहाँ [अपादादौ ] पाद आदि में न हो तो [सर्वम् ] सारा [ अनुदात्तम्] अनुदात्त होता है, ऐसा अधिकार बैठता जायेगा || पाद से यहाँ ऋचा का अथवा श्लोक का पाद गृहीत है सो ‘उसके आदि में न हो तो ऐसा अर्थ होगा || पचसि देवदत्त यहाँ सम्पूर्ण आमन्त्रित संज्ञक को (२१३१४८) अनुदात्त होता है, क्योंकि इस सूत्र का आमन्त्रितस्य च में अधिकार है || आमन्त्रितस्य च || ८ | १|१९|| आमन्त्रितस्य ६ | १ || न अ० ॥ अनु० – अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- पदात् परस्यामन्त्रितस्य पदस्यापादादौ वर्त्त -पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ५५५ । मानस्य सर्वस्यानुदान्तो भवति || उदा०– पचसि देवदत्त । पचसि यज्ञदत्त ॥ भाषार्थ :- पद से उत्तर [आमन्त्रितस्य ] आमन्त्रित संज्ञक सम्पूर्ण पद को [च] भी पाद के आदि में वर्त्तमान न हो तो अनुदात्त होता है | आमन्त्रितस्य च ( ६ |१| १६२ ) से आद्युदात्त प्राप्त था, निघात कर दिया || सामन्त्रितम् (२।३।४८) से आमन्त्रित संज्ञा होती है ।। । युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोर्वान्नावौ ||८|१|२० ॥ युष्मदस्मदो : ६ |२|| षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः ६ | २ || वान्नावौ १|२|| स० - युष्मद् च अस्मद् च युष्मदस्मदौ तयोः इतरेतरद्वन्द्वः । षष्ठी च चतुर्थी च द्वितीया च षष्ठीचतुर्थीद्वितीयाः, तासु यौ तिष्ठतस्तौ षष्ठीचतुर्थी- द्वितीयास्थौ तयोः इतरेतरद्वन्द्वगर्भतत्पुरुषः । वाम् च नौ च वान्नावौ, इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - अनुदात्तं सर्वमपादादौ पदात् पदस्य || अर्थः- पदादुत्तरयोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोरपादादौ वर्त्तमानयोर्युष्मद्- स्मदोः पदयो यथासङ्ख्यं वाम् नौ इत्येतावादेशौ भवतोऽनुदात्तौ च तौ भवतः ॥ उदा० - षष्ठी - ग्रामो वां स्वम् । जनपदो नौ स्वम् । चतुर्थी- 1 ग्रामो वां दीयते । जनपदौ नौ दीयते । द्वितीया - ग्रामो वां पश्यति । ग्रामो नौ पश्यति ॥ " भाषार्थ :- पद से उत्तर [ षष्ठी स्थयोः ] षष्ठी विभक्ति में स्थित अर्थात् षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त जो अपादादि में वर्त्तमान [ युष्मदस्मदो: ] युष्मद् अस्मद् शब्द उनके सम्पूर्ण के स्थान में क्रमशः [वान्नाव] वाम् तथा नौ आदेश होते हैं, एवं उन आदेशों को अनुदात्त भी होता है ।। युष्मद् अस्मद् के षष्टी चतुर्थी द्वितीया के बहुवचन, एकवचन में अन्य आदेश कहेंगे, अतः ये आदेश द्विवचन में जानने चाहियें || उदा० - ग्रामो वां स्वम् (ग्राम तुम दोनों की मिल्कियत है ) जनपदो नौ स्वंम् (जनपद हम दोनों की मिल्कियत है ) । ग्रामो वां दीयते ( ग्राम तुम दोनों के लिये दिया जाता है) जनपदो नौ दीयते ( जन- पद हम दोनों के लिये दिया जाता है) । ग्रामो वां पश्यति ( ग्राम तुम दोनों को देखता है) ग्रामो नौ पश्यति (ग्राम हम दोनों को देखता है ) || सर्वत्र ग्राम या जनपद से उत्तर आदेश हुये हैं । षष्ठी में युवयोः, ५५६ अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ आवयोः, चतुर्थी में युवाभ्याम्, आवाभ्याम्, तथा द्वितीया में आवाम् के स्थान में ये आदेश क्रमशः हुये हैं । [ प्रथ युवाम यहाँ से ‘युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः’ की अनुवृि ८/१/२६ तक जायेगी ॥ बहुवचनस्य वस्नसौ || ८|१/२१ ॥ बहुवचनस्य ६ | १|| वस्नसौ १|२|| स० - वचनश्च वस्नसौ, इतरेतर द्वन्द्वः ॥ अनु० - युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः, अनुदार सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थः- पदादुत्तरयो बहुवचनान्तयो षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोरपादादौ वर्त्तमानयोर्युष्मदस्मदो: पदयोर्यथा- सङ्ख्यं वस् नस्_ इत्येतावादेशौ भवतोऽनुदात्तौ च तौ भवतः ॥ उदा०- षष्ठी - ग्रामो वः स्वम् जनपदो नः स्वम् । चतुर्थी - ग्रामो वो दीयते, जनपदो नो दीयते । द्वितीया - ग्रामो वः पश्यति, जनपदो नः पश्यति ।। भाषार्थः - पद से उत्तर अपादादि में वर्त्तमान जो [बहुवचनस्य ] बहुवचन में षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त एवं द्वितीयान्स युष्मद् अस्मद् पद उनको (सम्पूर्ण को) क्रमशः [वस्नसौ ] वस्, नस् आदेश होते हैं, और वे आदेश अनुदात्त होते हैं ।। ‘ग्रामो वः स्वम्’ की सिद्धि परि० १|१|५५ में देखें । सर्वत्र स्थानिवत् कार्य इसी प्रकार जान लेना चाहिये । षष्टी में युष्माकम् अस्माकम् चतुर्थी में युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम् तथा द्वितीया में युष्मान् अस्मान के स्थान में क्रमशः वसू, नस् आदेश जानें । सर्वत्र पद से उत्तर है ही || ॥ तेमयावेकवचनस्य || ८|१|२२ ॥ तेम १|२|| एकवचनस्य ६ |१|| स० तेच मेच तेमयौ, इतरेतर- द्वन्द्वः ॥ अनु० – युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीस्थयोः, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थः- पदादुत्तरयोरेकवचनान्तयोः षष्ठीचतुर्थीस्थयोर- पादादौ वर्त्तमानयोर्युष्मदस्मदोः पदयोर्यथासङ्ख्यं ते मे इत्येतावादेशौ भवतोऽनुदात्तौ च तौ भवतः ॥ उदा० - षष्ठी - ग्रामस्ते स्वम्, ग्रामो मे स्वम् । चतुर्थी - ग्रामस्ते दीयते, ग्रामो मे दीयते ॥ द्वितीयान्तस्या- देशान्तरविधानात् नोदाह्रियते ॥ भाषार्थः - पद से उत्तर अपादादि में एकवचन वाले षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त युष्मद् वर्त्तमान जो [ एकवचनस्य ] अस्मद् पद उनको क्रमशःपाद: ] अष्टमोऽध्यायः 1 ५५७ [तेमयौ] ते, मे आदेश होते हैं, और वे आदेश अनुदात्त होते हैं । द्वितीयान्त को अन्य आदेश आगे कहेंगे, अतः यहाँ ‘द्वितीया’ की अनुवृत्ति का सम्बन्ध नहीं लगेगा ॥ षष्ठी में तव, मम तथा चतुर्थी में तुभ्यम्, मह्यम् के स्थान में क्रमश: ते, मे आदेश होते हैं ।। यहाँ से ‘एकवचनस्य’ की अनुवृत्ति ८|११२३ तक जायेगी || त्वामौ द्वितीयायाः ||८|१|२३|| " त्वामी ||२|| द्वितीयायाः ६ | १ || स० – त्वाश्च माच्च त्वामौ, इतरेतर- द्वन्द्वः । अनु० – एकवचनस्य युष्मदस्मदो:, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:– द्वितीयाया यदेकवचनं तदन्तयोरपादादौ वर्त्त - मानयोर्युष्मदस्मदोः पदयोर्यथासङ्ख्यं त्वा मा इत्येतावादेशौ भवतोऽनु- दात्तौ च तौ ।। उदा० - ग्रामस्त्वा पश्यति, ग्रामो मा पश्यति ।। भाषार्थ :- पद से उत्तर अपादादि में वर्त्तमान [द्वितीयायाः ] द्वितीया विभक्ति का जो एकवचन तदन्त युष्मद् अस्मद् पद को यथासङ्ख्य करके [त्वामौ] त्वामा आदेश होते हैं, और वे अनुदात्त होते हैं । द्वितीया एकवचनान्त त्वाम्, माम् को क्रमशः त्वा मा आदेश यहाँ हुये हैं || न चवाहाहैवयुक्ते || ८ | १|२४ ॥

हश्च
न अ० ॥ चवाहा हैवयुक्ते ७|१|| स-चश्च वाव हा अहव एवञ्च चवाहाहैवाः, तैर्युक्तः चवाहा हैवयुक्तस्तस्मिन् द्वन्द्वगर्भतृतीया- तत्पुरुषः । अनु० - युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः, पदस्य, पदात् ॥ अर्थ:- च, वा, ह, अह, एव एभिर्योगे युष्मदस्मदोर्वान्नावादय आदेशा न भवन्ति ।। पूर्वैः सूत्रैः प्राप्ताः प्रतिषिध्यन्ते || उदा :- ग्राम- स्तव च स्वम्, ग्रामो मम च स्वम् । ग्रामो युवयोश्च स्वम्, ग्राम आव- योश्च स्वम् । ग्रामो युष्माकं च स्वम्, ग्रामोऽस्माकं च स्वम् । ग्रामस्तुभ्यं च दीयते, ग्रामो मह्यं च दीयते । ग्रामो युवाभ्यां च दीयते, ग्राम आवाभ्यां च दीयते । ग्रामो युष्मभ्यं च दीयते, ग्रामोsस्मभ्यं च दीयते । ग्रामस्त्वां च पश्यति, ग्रामो मां च पश्यति । ग्रामो युवां च पश्यति, ग्राम आवां च पश्यति । ग्रामो युष्मांश्च पश्यति, ग्रामोऽस्मांश्च पश्यति । वा-
1 ग्रामस्तव वा स्वम् ग्रामो मम वा स्वम् । ग्रामो युवयोर्वा स्वम्, ग्राम आव-
योर्वा स्वम् । ग्रामो युष्माकं वा स्वम्, ग्रामोऽस्माकं वा स्वम् । ग्राम-
i
…………

५५८ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ प्रथमः स्तुभ्यं वा दीयते, ग्रामो मह्यं वा दीयते । ग्रामो युवाभ्यां वा दीयते, ग्राम आवाभ्यां वा दीयते । ग्रामो युष्मभ्यं वा दीयते, ग्रामोऽस्मभ्यं वा दीयते । ग्रामस्त्वां वा पश्यति, ग्रामो मां वा पश्यति । ग्रामो युवां वा पश्यति, ग्राम आवां वा पश्यति । ग्रामो युष्मान् वा पश्यति, ग्रामोऽस्मान् वा पश्यति । ह - ग्रामस्तव ह स्वम्, ग्रामो मम ह स्वम् । ग्रामो युवयोर्ह स्वम्, ग्राम आवयोर्ह स्वम् । ग्रामो युष्माकं ह स्वम्, ग्रामोऽस्माकं ह स्वम् । ग्रामस्तुभ्यं ह दीयते, ग्रामो मह्यं ह दीयते । ग्रामो युवाभ्यां ह दीयते, ग्राम आवाभ्यां ह दीयते । ग्रामो युष्मभ्यं ह दीयते, ग्रामोsस्मभ्यं ह दीयते । ग्रामस्त्वां ह पश्यति, ग्रामो मां ह पश्यति । ग्रामो युवां ह पश्यति, ग्राम आवां ह पश्यति । ग्रामो युष्मान् ह पश्यति, ग्रामोऽस्मान् छ पश्यति । अह - ग्रामस्तवाह स्वम्, ग्रामो ममाह स्वम् । ग्रामो युवयोरह स्वम्, ग्राम आवयोरह स्वम् । ग्रामो युष्माकमह स्वम्, ग्रामोऽस्माकमह स्वम् । ग्रामस्तुभ्यमह दीयते, ग्रामो मामह दीयते । ग्रामो युवाभ्यामह दीयते, ग्राम आवाभ्यामह दीयते । ग्रामो युष्मभ्यमह दीयते, ग्रामोऽस्मभ्यमह दीयते । ग्रामस्त्वामह पश्यति, ग्रामो मामह पश्यति । ग्रामो युवामह पश्यति, ग्राम आवामह पश्यति । ग्रामो युष्मान् अह पश्यति, ग्रामोऽस्मान् अह पश्यति । एव-ग्राम- स्तवैव स्वम्, ग्रामो ममैव स्वम् । ग्रामो युवयोरेव स्वम्, ग्राम आवयोरेव स्वम् । ग्रामो युष्माकमेव स्वम्, ग्रामोऽस्माकमेव स्वम् । ग्रामस्तुभ्यमेव दीयते, ग्रामो मामेव दीयते । ग्रामो युवाभ्यामेव दीयते, ग्राम आवाभ्यामेव दीयते । ग्रामो युष्मभ्यमेव दीयते, ग्रामोsस्मभ्यमेव दीयते । ग्रामस्त्वामेव पश्यति, ग्रामो मामेव पश्यति । ग्रामो युवामेव पश्यति, ग्राम आवामेव पश्यति । ग्रामो युष्मान् एव पश्यति, ग्रामो स्मान् एव पश्यति ॥ भाषार्थ : - [ चवाहा हैवयुक्ते ] च, वा, ह, अह, एव इनके योग में षष्ठ्यन्त, चतुथ्यैन्त, द्वितीयान्त युष्मद् अस्मद् शब्दों को पूर्व सूत्रों से प्राप्त वाम् नौ आदि आदेश [न] नहीं होते । एकवचन, द्विवचन, बहुवचन में जो भी आदेश पूर्व सूत्रों से कह आये हैं, उन सबका च, वा आदि के योग में प्रतिषेध हो जाता है, सो उसी प्रकार उदाहरण सभी वचनों में दर्शा दिये हैं । यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति ८|१|२६ तक जायेगी ॥पाद: ] अष्टमोऽध्यायः परयार्थैश्वानालोचने || ८ | १ | २५ || ५५९. पश्यार्थैः ३|१|| च अ० || अनालोचने ७|१|| स० - पश्योऽर्थो येषां ते पश्यार्थास्तैः बहुव्रीहिः ॥ दर्शनं पश्यः अस्मादेव निपातनात्, कृत्यल्युटो बहुलम् (३|३|११३) इति वा भावे शप्रत्ययः । पाघ्राध्मा० ( ७।३।७८) सूत्रेण च पश्यादेशः । न आलोचनमना लोचनम्, तस्मिन्.. नव्यू तत्पुरुषः ॥ दर्शनं ज्ञानम् । आलोचनं चक्षुर्विज्ञानम् ॥ अनुन, युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः, पदस्य, पदात् ॥ अर्थ:- अनालो- चनेऽर्थे वर्त्तमानैः पश्याथैः = ज्ञानार्थैर्धातुभिर्योगे युष्मदस्मदोर्वान्नावादयो न भवन्ति ॥ उदा० - ग्रामस्तव स्वं समीक्ष्यागतः, ग्रामो मम स्वं समीक्ष्या- गतः । एवं सर्वत्र द्विवचने बहुवचनेऽपि उदाहार्यम् । ग्रामस्तुभ्यं दीयमानं समीक्ष्यागतः, प्रामो मह्यं दीयमानं समीक्ष्यागतः । ग्रामस्त्वां समीक्ष्यागतः, ग्रामो मां समीक्ष्यागतः ॥

भाषार्थ: - [अनालोचने] अनालोचन= न देखना अर्थ में वर्त्तमान [पश्याथैः] पश्य दर्शन - ज्ञान अर्थ वाले धातुओं के योग में [च] भी युष्मद् अस्मद् को पूर्व सूत्रों से प्राप्त वाम् नौ आदि आदेश नहीं होते || आलोचन चक्षु द्वारा देखने को कहते हैं । पश्यार्थ अर्थात् दर्श- नार्थक = ज्ञानार्थक | साधारणतया ‘पश्य’ का देखना अर्थ ही लिया जाता है पर यहाँ अनालोचन निषेध के कारण पश्य से देखना अर्थ नहीं लेना किन्तु यहाँ ज्ञान अर्थ गृहीत है, तभी तो अनालोचन विषय सम्भव है | उदाहरणों में ‘समीक्ष्य’ ज्ञानार्थक धातु का योग है, अतः वाम्, नौ आदि आदेश नहीं हुए । ‘ग्रामस्तव स्वं समीक्ष्यागतः’ का अर्थ है, ग्राम तुम्हारी मिल्कियत है ऐसा मन से निरूपण = ज्ञान करके आ गया। इस प्रकार यहाँ ‘समीक्ष्य’ का अनालोचन अर्थ है । इसी प्रकार अन्य उदाहरणों का भी अर्थ जानें ||
सपूर्वायाः प्रथमाया विभाषा || ८ | १|२६||
सपूर्वायाः ५ | १ || प्रथमायाः ५ | १ || विभाषा १|१|| स० - सह = विद्य- मानं पूर्वं यस्याः सा सपूर्वा, तस्याः " बहुव्रीहिः । तेन सहेति० (२२२८) इत्यनेनात्र समासः, वोपसर्जनस्य ( ६ |३|८० ) इत्यनेन च सहस्य ‘स’ आदेशः ॥ अनु० - न, युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोः पदात्,
!
५६०
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ प्रथम
पदस्य | अर्थ:- विद्यमानपूर्वात् प्रथमान्तात् पदादुत्तरयोर्युष्मदस्मदो विभाषा वान्नावादय आदेशा न भवन्ति । उदा० - ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्, पक्षे - ग्रामे कम्बलस्तव स्वम् । ग्रामे कम्बलो मे स्वम्, ग्रामे कम्बलो मम स्वम् । एवं सर्वत्र द्विवचन बहुवचनेऽपि पूर्ववदुदाहार्यम् । ग्रामे कम्बलस्ते दीयते, प्रामे कम्बलस्तुभ्यं दीयते । ग्रामे कम्बलो मे दीयते, ग्रामे कम्बलो मह्यं दीयते । ग्रामे छात्रास्त्वा पश्यन्ति, ग्रामे छात्रास्त्वां पश्यन्ति । ग्रामे छात्राः मा पश्यन्ति, ग्रामे छात्राः मां पश्यन्ति ||
"
भाषार्थ : - [सपूर्वायाः ] विद्यमान है पूर्व में (कोई पद ) जिससे ऐसे [ प्रथमाया : ] प्रथमान्त पद से उत्तर षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त युष्मद् अस्मद् शब्द को [विभाषा ] विकल्प से वाम नौ आदि आदेश नहीं होते, अर्थात् विकल्प से होते हैं । ग्रामे कम्बलस्ते स्वम् आदि सभी उदाहरणों में प्रथमान्त कम्बल शब्द से पूर्व ‘ग्रामे’ पद है, अतः सपूर्व = विद्यमान पूर्व वाले कम्बल प्रथमान्त पद से उत्तर विकल्प से वाम्, नौ आदि आदेश हो गये || सर्वत्र एकवचनान्त उदाहरण ही दिखा दिये हैं, इसी प्रकार पूर्व सूत्रों से कहे आदेश द्विवचनान्त बहुवचनान्त को भी विकल्प से होंगे। सभी वचनों में उदाहरण हमने न चवा ( ८1१/२४) में दिखाये हैं, तद्वत् ही जान लेना चाहिये ||
तिङो गोत्रादीनि कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः || ८|१|२७||
तिङः ५|१|| गोत्रादीनि ||३|| कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः ७२॥ स०– गोत्र आदियेषां तानि गोत्रादीनि बहुव्रीहिः । कुत्सनच आभीक्ष्ण्यच कुत्सनाभीक्ष्ण्ये तयो: “इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु - अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थ:- कुत्सने, आभीक्ष्ण्ये चार्थे वर्त्तमानानि तिङन्तात् पदात् पराणि गोत्रादीनि अनुदात्तानि भवन्ति || उदा :- कुत्सने - पचति गोत्रम्, जल्पति गोत्रम् । पचति ब्रुवम्,
ब्रुवम्, जल्पति ब्रुवम् । अभीक्ष्ण्ये- पचति पचति गोत्रम्, जल्पति जल्पति गोत्रम् ॥
भाषार्थ: – [ तिङः ] तिङन्त पद से उत्तर [कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः ] कुत्सन ( निन्दा ) तथा आभीक्ष्ण्य ( पौनः पुन्य) अर्थ में वर्त्तमान [गोत्रा- दीनि ] गोत्रादि गण पठित पदों को अनुदात्त होता है | जो अपने पुरु-अष्टमोऽध्यायः
५६१
पाद: ] पार्थ को त्याग कर अपने गोत्र की उच्चतादि’ बताकर जीवन यापन करता है, उसे ‘पचति गोत्रम्’ कहते हैं । पच् धातु यहाँ व्यक्त = ख्यापन अर्थ में है । ब्रुव शब्द भी निन्दार्थवाची है, अतः पचति ब्रुवम् का अर्थ ‘क्या खाक पकाता है’ ऐसा होगा । पचति २ गोत्रम् का अर्थ है, विवा- हादि विषय में पुनः २ गोत्रोचारण करता है | नित्यवीप्सयोः (८१११४) से नित्यता आभीक्ष्ण्य अर्थ में पचति २ द्वित्व हुआ है । ब्रुव वचि (२|४|५३) आदेश निपातन से नहीं हुआ है ॥
तिङ्ङतिङः || ८|१|२८||
को
तिङ् १|१|| अतिङः ५|१|| स० - न तिङ् अतिङ् तस्मात् ’ ’ ‘नन्- तत्पुरुषः ॥ अनु० - अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ श्रर्थ:- अतिङन्तात् पदादुत्तरं तिङन्तं पदमनुदात्तं भवति || उदा० -देवदत्तः पचति । यज्ञदत्तः पचति ॥
भाषार्थ:– [श्रतिङः ] अतिङ् पद से उत्तर जो [तिङ् ] तिङ् पद उसको (सम्पूर्ण को) अनुदात्त होता है । सर्वत्र सूत्रार्थं में ‘अपादादौ ’ का सम्बन्ध लगा लेना चाहिये || उदाहरण में देवदत्त यज्ञदत्त अतिङ पद से उत्तर ‘पचति’ तिङ् पद है, सो उसे सब स्वर हट कर सर्वानुदात्त निघात हो गया || निघात करने से पूर्व पचति का क्या स्वर था, यह परि० ३ १ ४ में देखें | यहाँ से आगे इस सूत्र के अपवाद सूत्र कहे जायेंगे ||
यहाँ से ‘तिङ’ की अनुवृत्ति ८|१|६६ तक जायेगी ॥
न लुट् ||८|१|२९ ॥
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न अ० ॥ लुट् १|१|| अनु० - तिङ्, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थः- पदात् परं लुडन्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति | पूर्वेणातिप्रसक्ते प्रतिषेध आरभ्यते ॥ उदा० - श्वः कर्त्ता, श्वः कर्त्तारौ, मासेन कर्त्तारः ॥
१. गोत्र बताकर जीविका यापन करना निन्दित है, मनुस्मृति में कहा है-
न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत् ।
भोजनार्थं हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः ॥ मनु० ३ ॥ ७१ ॥
३६
५६२
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः भाषार्थ :- पद से उत्तर [लुट ] लुडन्त तिङन्त को अनुदात्त [न] नहीं होता || पूर्व सूत्र से अतिप्रसक्ति प्राप्त थी, यहाँ से उसका प्रतिषेध आरम्भ करते हैं । कर्त्ता कुत्तारी’ कर्त्तारः की स्वर सिद्धि सूत्र ६ |१|१८० में देखें !
यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति ८|१|६६ तक जायेगी ||
निपातैर्यद्य दिहन्तकु विन्नेच्चे चणकश्चिद्यत्रयुक्तम् ||८|१|३०||
निपातैः ३|३|| यद्यदिद्दन्तकुविन्नेच्चेच्चण्कच्चिद्यत्रयुक्तम् १|१|| स०- यत् च यदिश्च हन्तश्च कुवित् च नेत् च चेत् च चण् च कश्चित् च यत्रश्च यद्यदि द्यत्रास्तैर्युक्तं यद्यदियुक्तम्, द्वन्द्वगर्भतृतीया तत्पुरुषः ॥ अनु०- न, तिङ् अनुदात्त सर्वमपादादौ पदातू, पदस्य ॥ अर्थः– यत्, यदि, हन्त, कुवित्, नेत्, चेत्, चण् कञ्चित्, यत्र इत्येतैर्निपातैयुक्तं तिङन्तं नानुदात्त ं भवति || उदा० - यत् - यत् करोति, यत् पर्चति । यदग्ने स्याम- हैं त्वम् (ऋ० ८|४४१२३) यदि यदि करोति॑ि यदि पचति । यु यदी’ कृथः (ऋ० ५।७४।५) । हन्त - हन्त करोति, हन्त पचति । कुवित्- कुवित् करोति, कुवित् पचति । नेत्-नेज्जिह्मायन्तो नरकं पतम । चेत् स चेद्
। भुङ्क्ते, स चेदधीते । चण्-अयं च म॒रि॒ध्यति॑ । कञ्चित् - कञ्चिद् भुङ्क्ते, कच्चिदधीते । अर्चित्तिभिश्चक्रमा कच्चित् (ऋ० ४|१२|४) । यत्र यत्र भुङ्क्ते, यत्रा॒ध॒ते । पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ (ऋ० १८६६) ।
। ।
भाषार्थ : - [ यद्य युक्तम् ] यत्, यदि, हन्त, कुवित्, नेत्, चेत्, चण्, कच्चित्, यत्र इन [ निपातै: ] निपातों से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || पूर्ववत् प्राप्ति थी, प्रतिषेध कर दिया | सिद्धि परिशिष्ट में देखें ||
नह प्रत्यारम् ||८|१|३१ ॥
नह अ० ॥ प्रत्यारम्भे ७|१|| अनु० - न, तिङ्, अनुदात्तं सर्वम- पादादौ, पदातू, पदस्य || प्रत्यारम्भः = पुनरारम्भः || नह इति निपात- समुदायः ॥ अर्थ: - नह इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति प्रत्यारम्भे || उदा० - नह भोक्ष्यसे, नहाध्ये ष्यसे ||
भाषार्थ :- [नह ] नह से युक्त तिङन्त को होने पर अनुदात्त नहीं होता || प्रत्यारम्भ पुनः
[ प्रत्यारम्भे] प्रत्यारम्भ आरम्भ को कहते हैं ।अष्टमोऽध्यायः
५६३
पादः ] खाओ या पढ़ो ऐसी आज्ञा देने के पश्चात् मना कर देने पर क्रोध से या उपहास से पुनः प्रतिषेध से सम्बन्धित वाक्य ‘नह भोक्ष्यसे’ = नहीं खाओगे (अर्थात् खाना पड़ेगा ) ऐसा कहता है, यही प्रत्यारम्भ पुनः- आरम्भ है || नह शब्द न तथा ह मिलकर निपातों के समुदाय रूप में निर्दिष्ट है || भोक्ष्यसे अध्येष्य से यहाँ थास् को से (३१४१८०) होकर ‘स्य’ के अदुपदेश होने से तास्यनुदात्ते ० (६।१।१८०) से ‘से’ अनुदात्त तथा स्य प्रत्ययस्वर से उदात्त है, पश्चात् से को स्वरित ( ६ | ४|६५ ) हो गया ||
सत्यं प्रश्ने || ८|१| ३२ ॥
सत्यम् १|१|| प्रश्ने ७|१|| अनु०न, तिङ्, अनुदान्तं सर्वमपादादौ पदात्, पदस्य | अर्थः- सत्यमित्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति प्रश्ने सति || उदा० - सत्यं भोक्ष्यसे’, सत्यमध्ये ष्यसे ॥
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भाषार्थ :- [ सत्यम् ] सत्यम् शब्द से युक्त तिङन्त को [ प्रश्ने] प्रश्न होने पर अनुदात्त नहीं होता । सत्यं भोक्ष्यसे = सचमुच खाओगे ? पढ़ोगे ? यहाँ प्रश्न किया जा रहा है ।। सिद्धि पूर्व सूत्र में देखें ||
अङ्गाप्रातिलोम्ये || ८ | १|३३||
अङ्ग अ० || अप्रातिलोम्ये ७|१|| स० - न प्रातिलोम्यम् अप्राति- लोम्यं तस्मिन्नन्तत्पुरुषः ॥ प्रातिलोम्यं प्रतिकूलता, तद्भावोऽप्रति- कूलताऽनुकूल्यमिति यावत् । गुणवचनबा० (५।१।१२३ ) इत्यनेन ष्यन् ॥ अनु– न, तिङ्, अनुदात्त सर्वमपादादौ पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:- अप्रातिलोम्ये गम्यमानेऽङ्ग इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति || उदा० - अङ्ग कुरु, अङ्ग पर्च, अङ्ग पठे ॥
भाषार्थः–[अप्रातिलोम्ये] अप्रातिलोम्य = अनुकूलता गम्यमान हो तो [अङ्ग ] अङ्ग शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || कुरु की सिद्धि सूत्र ६ |४|१०६ में देखें । कुरु प्रत्यय स्वर से अन्तोदात्त है, अर्थात् विकरण उ उदात्त है । पच, पठ धातुस्वर से आद्युदात्त हैं । पच शपू हि = यहाँ हि का तो है : ( ६|४|१०५) से लुक् हुआ है तथा शपू पहले पित् स्वर से अनुदात्त था पश्चात् स्वरित हो गया है । अङ्ग कुरु = अर्थात् हाँ तुम करो । यही यहाँ अनुकूलता है |
। ||
यहाँ से ‘अप्रातिलोम्ये’ की अनुवृत्ति ८ | १|३४ तक जायेगी ||
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५६४
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्ती
हि च || ८|१|३४||
[ प्रथमः
हि अ० ॥ च अ० ॥ अनु० – अप्रातिलोम्ये, न, ति, अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ: - हि इत्यनेन युक्तं तिङन्तमप्रा- तिलोम्ये गम्यमाने नानुदात्तं भवति || उदा० - त्वं हि कुरु त्वं हि पठे ||
भाषार्थ:– [हि] हि से युक्त तिङन्त को [च] भी अप्रातिलोम्य गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता || पूर्ववत् स्वर सिद्धियाँ हैं ।।
यहाँ से ‘हि’ की अनुवृत्ति ८१११३५ तक जायेगी ||
छन्दस्यनेकमपि साकाङ्क्षम् ||८|१|३५||
छन्दसि ७|१|| अनेकम् १|१|| अपि अ० ॥ साकाङ्क्षम् १|१| स–न एकम् अनेकम्, नस्तत्पुरुषः । सह आकाङ्क्षया वर्त्तते = साका ङ्क्षम् बहुव्रीहिः ॥ अनु० - हि, तिङ्, न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ पदात्, पदस्य ॥ अर्थः- हियुक्तं साकाङ्क्ष तिङन्तमनेकमपि नानुदा भवति, अपिग्रहणात् एकमपि कचिद् न भवति छन्दसि विषये कदाचिदेकं कदाचिदने कमित्यर्थः ॥ उदा० – अनेकं तावत् - अनृतं हि मत्तो वति पाप्मा एनं विपु॒नाति॑ । एकमपि - अग्निर्हि अग्रे उ॒दाज॑य तमि॑न्द्रोऽनूजयत् । अ॒जा व॑ग्ने॒रज॑निष्ट गर्भात्, सा वा अ॑पश्यञ्जनि॒तार॑ मग्रे ( तै० सं० ४|२|१०|३) ॥
भाषार्थ: - हि से युक्त [साकाङ्क्षम् ] साकाङ्क्ष [अनेकम् ] अने तिङन्तों को [अपि] तथा अपि ग्रहण से एक को भी कहीं २ अनुदान नहीं होता [छन्दसि ] वेद विषय में ॥
‘अनृतं हि मत्तो वदति’ तथा ‘पाप्मा एनं विपुनाति यहाँ वदति विपुनाति दोनों तिङन्त हेतु हेतुमद्भाव (फल) होने से साकाङ्क्ष एवं दोनों ‘हि’ से युक्त हैं । हेतु है- क्योंकि मत्त = पागल झूठ बोल है, अतः पाप्मा = मत्तपन उसको शुद्ध कर देता है अर्थात् मत्तता कारण अमृत दोष का भागी नहीं होता - यह हेतुमद्भाव है । यहाँ दोन साकाङ्क्ष तिङन्तों को अनुदात्त नहीं होता, अतः वदति पचति समान आद्युदात्त है, एवं विपुनाति का ‘ना’ प्रत्यय स्वर से उदात्त है अग्निर्हि अग्रे ‘यहाँ भी ‘वि’ उपसर्ग को तिङि चोदा० (८११७१) निघात हो ही जायेगा। दोनों उदजयत्, अनूदजयत् तिङन्त ‘हि’ से युपादः ]
अष्टमोऽध्यायः
५६५
तथा पूर्ववत् ही हेतु हेतुमद्भाव से साकाङ्क्ष हैं । अर्थ है- क्योंकि अग्नि पहले जय को प्राप्त हुआ, अतः अग्नि के पश्चात् इन्द्र ने जय को प्राप्त किया । यहाँ यद्यपि पूर्ववत् दोनों तिङन्त ‘हि’ से युक्त हैं, किन्तु
सूत्र
में अपि ग्रहण से एक को ही (उदजयत् को ही ) अनुदात्त का निषेध प्रकृत सूत्र से हुआ, द्वितीय अनूदजयत् को तिङ्ङतिङ : ( ८|११२८) से प्राप्त निघात ही हुआ । उत्पूर्वक जि धातु का लहू में उदजयत् रूप बना है, सो अजयत् आद्युदात्त है, क्योंकि अद् लुङ्लङ्० (६।४।७१ ) से उदात्त होता है। शेष अच् पूर्ववत् अनुदात्त हो गये । अनु उत् पूर्वक ‘जि’ से लड् में ही अनूदजयत् बनेगा ॥ अजा ह्यग्ने यहाँ भी पूर्ववत् साकाङ्क्षत्व जानें । अर्थ है - ‘क्योंकि अजा अग्नि के गर्भ से उत्पन्न हुई उसने (अजा ने) उत्पन्न करने वाले को देखा ( अनुभव किया) पहले ( प्रथम ) । इस प्रकार अजनिष्ट, अपश्यत् दोनों के ‘हि’ से युक्त एवं साकाङ्क्ष होने पर भी ‘अपि’ ग्रहण से एक अजनिष्ट तिङ को ही निघात प्रतिषेध हुआ, अपश्यत् को नहीं । सो अपश्यत् तिङ्ङतिङः से निघात एवं अजनिष्ट पूर्ववत् आद्युदान्त है, अर्थात् अट् उदात्त है । जनी प्रादुर्भावे धातु से लुङ् में सिच् को इट् आगमादि होकर अ ज न् इ प् त = अज- निष्ट बना है । अपश्यत् दृशिर् धातु के लहू में पाघ्राध्मा० (७।३।७८) से पश्य आदेश होकर अ पश्य अ त् = अपश्यत् बना है ||
यावद्यथाभ्याम् ||८|१|३६||
यावद्यथाभ्याम् ३|२|| स० - यावत् च यथा च यावद्यथे, ताभ्याम् इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ पदात्, पदस्य || अर्थः- यावद् यथा इत्येताभ्यां युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ॥ उदा० - यावद् भुङ्क्ते, यथा भुङ्क्ते । या॒वद॒ध॒ते, यथा॑ ऽधीते देवदत्तः पचति यावत्, देवदत्तः पचति यथा ॥
भाषार्थ:-[यावद्यथाभ्याम् ] यावत् यथा इनसे युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || स्वर सिद्धि परि० ८ | १ | ३० में देखें ||
यहाँ से ‘यावद्यथाभ्याम्’ की अनुवृत्ति ८|११३८ तक जायेगी ||
पूजायां नानन्तरम् ||८|१|३७||
पूजायाम् ७|१|| न अ० ॥ अनन्तरम् १|१|| स०–न अन्तरम्
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५६६
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः
विद्यतेऽस्य तदनन्तरम्, बहुव्रीहिः ॥ अनु० - यावद्यथाभ्याम्, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थ:– यावद् यथा इत्येताभ्यां युक्तमनन्तरं तिङन्तं पूजायां विषये नानुदात्तं न भवति, अर्थादनुदात्तमेव भवति ॥ उदा० – यावत् पचति शोभनम्, यावत् करोति चारु । यथा पचति शोभनम्, यथा करोति चारु ।।
भाषार्थः - यावत् तथा यथा से युक्त [ अनन्तरम् ] अनन्तर = अव्य- वहित तिङन्त को [पूजायाम् ] पूजा विषय में अननुदात्त [न] नहीं होता, अर्थात् अनुदान्त ही होता है || दो प्रतिषेध हो जाने से अनुदात्त ही होता है, ऐसा अर्थं निकला | पूर्व सूत्र से अननुदान्त की प्राप्ति थी, निषेध कर दिया, तो तिङ्ङतिङ : ( ८|१|२८) से निघात ही हो गया । उदाहरणों में यावत्, यथा से अनन्तर ही तिङ् है ॥
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८|११३८ तक जायेगी ||
उपसर्गव्यपेतं च || ८ |१| ३८ ॥
उपसर्गव्यपेतम् १|१|| च अ० ॥ स० - उपसर्गेण व्यपेतमुपसर्ग- व्यपेतम्, तृतीयातत्पुरुषः ॥ अनु० - पूजायां नानन्तरम्, यावद्यथा- भ्याम्, तिङ् न, अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- यावद्यथाभ्यां युक्तमुपसर्गेण व्यपेतं = व्यवहितं चानन्तरं तिङन्तं पूजायां विषये नानुदान्तं न भवति, अर्थादनुदात्तमेव ॥ उदा० - यावत् प्रपचति शोभनम्, यावत् प्रकरोति चारु । यथा प्रपचति शोभनम्, यथा प्रकरोति चारु ॥
भाषार्थः - यावत् यथा से युक्त एवं [ उपसर्गव्यपेतम् ] उपसर्ग से व्यपेत = व्यवहित अनन्तर तिङन्त को [च] भी पूजा विषय में अन- नुदात्त नहीं होता, अर्थात् अनुदात्त होता है | पूर्व सूत्र
से अनन्तर = अव्यवधान में ही कहा था, यहाँ केवल उपसर्ग का व्यवधान होने पर भी कह दिया । सर्वत्र उदाहरणों में यावत्, यथा एवं तिङ् के मध्य में प्र उपसर्ग का व्यवधान है। शोभनम्, चारु कहने से यहाँ स्पष्ट पूजा अर्थ है ही, अतः पूर्ववत् ति को अनुदात्त हो जायेगा ||
तुपश्यपश्यता हैः पूजायाम् ||८|१|३९||
तुपश्य पश्यता है : ३ | ३ || पूजायाम् ७११|| स० – तुपश्य० इत्यत्रेतरे-पाद: ]
अष्टमोऽध्यायः
५६७
तरद्वन्द्वः ॥ अनु० - तिङ्, नु, अनुदात्त ं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:-तु, पश्य, पश्यत, अह इत्येतैर्युक्तं तिङन्तं पूजायां विषये नानु- दात्त भवति || उदा०–तु- माणवकस्तु भुङ्क्ते शोभनम् । पश्य पश्य माणवको भुङ्क्ते शोभनम् । पश्यत- पश्यत माणवको भुङ्क्ते शोभनम् । अह अह माणवको भुङ्क्ते शोभनम् ॥
भाषार्थ : — [तुपश्यपश्यताहैः ] तु, पश्य, पश्यत, अह इनसे युक्त तिङन्त को [पूजायाम् ] पूजा विषय में अनुदात्त नहीं होता || पूर्ववत् तिङ्ङतिङः से प्राप्त अनुदान्त का प्रतिषेध होकर यथाप्राप्त स्वर हो गया || भुङ्क्ते की स्वरसिद्धि परि० ८ ११३० में देखें ॥
यहाँ से ‘पूजायाम्’ की अनुवृत्ति ८|१|४० तक जायेगी ||
अहो च || ८|१|४०||
अहो अ०॥ च अ० ॥ ॥ अनु० - पूजायाम्, तिङ् न, अनुदात्तं सर्व- मपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- अहो इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति पूजायां विषये ॥ उदा०– अहो देवदत्तः पचति शोभनम् । अहो विष्णुमित्रः क॒रोति॑ चारु ॥
भाषार्थ :- [अहो ] अहो से युक्त तिङन्त को [च] भी पूजा विषय में अनुदात्त नहीं होता || सिद्धियाँ परि० ८ |१| ३० में देखें ||
यहाँ से ‘हो’ की अनुवृत्ति ८|१|४१ तक जायेगी ||
शेषे विभाषा || ८ | १|४१ ॥
शेषे ७|१|| विभाषा १|१|| अनु० - अहो, तिङ् न, अनुदात्त’ सर्वमपादादौ, पदातू, पदस्य || अर्थ:- अहो इत्यनेन युक्तं तिङन्तं शेषे विकल्पेन नानुदात्तं भवति ॥ यदन्यत् पूजायाः, स शेषः ॥ उदा० - कटमहो करिष्यसिं, मम गेहमे॒ ष्यसि॑ि । पक्षेऽनुदात्तमेव - कटमहो करिष्यसि मम गेहमे ष्यसि ।।
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भाषार्थ :- अहो से युक्त तिङन्त को पूजा विषय से [शेषे ] शेष विषयों में [विभाषा ] विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता | पूर्व सूत्र पूजा विषय में कहा था, यहाँ ‘शेष’ ग्रहण से पूजा विषय से ही शेष लिया जायेगा || पक्ष में यथाप्राप्त (८/१२८) अनुदात्त ही होगा ।
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५६८
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ प्रथमः
अनुदात्त निषेध पक्ष में करिष्यसि आदि का ‘स्य’ प्रत्यय स्वर से उदात्त है । पित् स्वर से ‘सि’ अनुदात्त था, पश्चात् स्वरित हो गया ||
यहाँ से ‘विभाषा’ की अनुवृत्ति ८|१|४२ तक जायेगी ||
पुरा च परीप्सायाम् ||८|१|४२ ॥
पुरा अ० ॥ च अ० ॥ परीप्सायाम् ७११|| अनु० - विभाषा, तिङ, न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:- पुरा इत्यनेन युक्तं तिङन्तं परीप्सायामर्थे विभाषा नानुदात्तं भवति ॥ परीप्सा त्वरा || उदा० - अधीष्व माणवक पुरा वि॒द्योत॑ते विद्युत्, पुरा स्व॒नय॑ति स्तन- यित्नुः । पुरा विद्योतते विद्युत्, पुरा स्तनयति स्तनयित्नुः ||
.”
भाषार्थ :- [पुरा ] पुरा से युक्त तिङन्त को [च] भी [परीप्सायाम् ] परीप्सा = शीघ्रता अर्थं गम्यमान होने पर अनुदान्त नहीं होता || विद्योतते आदि में भविष्यत् के अर्थ में यावत्पुरानिपातयोर्लट् (३|३|४) से लट् लकार हुआ है, अतः ‘अधीष्व माणवक ’ आदि वाक्यों का अर्थ है- ‘बचो पढ़ो नहीं तो अभी बिजली चमकेगी’ यहाँ पुरा शब्द भविष्यत् काल की आसन्नता को प्रकट करता है, सो परीप्सा अर्थ गम्यमान है || विद्योतते का ‘ते’ तास्यनुदात्तेन्ङिददुपदेश ० (६।१।१८०) से अनुदात्त है, इस प्रकार द्योतते धातु स्वर से आद्युदात्त है और तिङि चोदात्तवति (८११७१) से वि अनुदात्त है चुरादिगणस्थ अदन्त स्तन धातु से णिच् आकर एवं अकार लोप ( ६ |४ | ६४ ) होकर सनाद्यन्ता ० (३|१| ३२ ) से ‘स्तन’ धातु बनी । सो धातोः (६।१।१५६ ) से अन्तोदात्त अर्थात् स्तनि का ‘इ’ उदात्त हुआ । शप् तिप् आकर स्तने अति = स्तनयू अति = स्तनयति बना | अर्थात् ‘इ’ को गुण तथा ‘अयू’ कर लेने पर ‘न’ का ‘अ’ उदात्त रहा || अनुदात्त पक्ष में वि उपसर्ग स्वर से उदात्त होगा ॥
नन्वित्यनु ज्ञैषणायाम् ||८|१ | ४३ ॥
किंचित् कत्तु
ननु अ० ॥ इति अ० ॥ अनुज्ञेषणायाम् ७|१|| स० - अनुज्ञाया एषणा - प्रार्थना अनुज्ञेषणा, तस्याम् षष्ठीतत्पुरुषः ॥ स्वयमेवोद्यतस्यैवं क्रियतामित्यनुज्ञानमनुज्ञा ॥ अनु० - तिङ् न, अनु-
;अष्टमोऽध्यायः
५६६
पादः ] दात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- अनुज्ञैषणायां विषये ननु इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति । उदा० - ननु क॒रोहि॑ भोः ॥ भाषार्थ:- [अनुज्ञैषणायाम् ] अनुज्ञेषणा विषय में [ननु ] ननु [इति] इस शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || कुछ कार्य स्वयं ही करने को उद्यत हुये को कहना कि ‘ऐसा करें’ यह अनुज्ञा है । एषणा अर्थात् प्रार्थना । अनुज्ञा की प्रार्थना अनुज्ञेषणा है । ननु करोमि
। भोः का अर्थ है - श्रीमन, क्या मैं करूं ? सिद्धि पूर्व सूत्रों में देखें ||
किं क्रियाप्रश्नेऽनुपसर्गमप्रतिषिद्धम् ||८|१|४४ ||
किम् १|१॥ क्रियाप्रश्ने ७|१|| अनुपसर्गम् १|१|| अप्रतिषिद्धम् १|१|| स - क्रियायाः प्रश्नः क्रियाप्रश्नस्तस्मिन् षष्ठीतत्पुरुषः । न विद्यते उपसर्गोऽस्य तद्नुपसर्गम्, बहुव्रीहिः । प्रतिषेधः प्रतिषिद्धम्, भावे निष्ठा नपुंसके (३|३|११४) इत्यनेन । न प्रतिषिद्धमस्येत्यप्रतिषिद्धम्, तत्पुरुषः ॥ अनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ :- क्रियाप्रश्ने वर्त्तमानेन किंशब्देन युक्तमनुपसर्गमप्रतिषिद्धं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ॥ उदा० - किं देवदत्तः पचति, आहोस्विद् भुङ्क्ते ? किं देवदत्तः शेते’ आहोस्विदधीते ? ||
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भाषार्थ : - [क्रियाप्रश्ने] क्रिया के प्रश्न में वर्त्तमान जो [किम्] किम् शब्द उससे युक्त [अनुपसर्गम् ] उपसर्ग से रहित तथा [अप्रतिषिद्धम् ] अप्रतिषिद्ध = प्रतिषेध रहित तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || ‘किं देवदत्तः” का अर्थ है- क्या देवदत्त पकाता है, अथवा खाता है, यहाँ किम् से पकाता है अथवा खाता है क्रिया का प्रश्न किया जा रहा है, अतः किम् शब्द क्रियाप्रश्न में वर्त्तमान है । पचति आदि ति यहाँ उपसर्ग से रहित एवं प्रतिषेध से रहित भी हैं, सो अनुदात्त नहीं हुआ || शेते की स्वर सिद्धि तास्यनुदात्त० (६।१।१८०) सूत्र में देखें ॥
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८|१|४५ तक जायेगी ॥
१. उदाहरणों में कोई २ किम् से युक्त पूर्व वाला तिङन्त ही मानते हैं, द्वितीय नहीं, अतः पूर्व वाले पचति को ही अनुदात्त का प्रतिषेध होगा, द्वितीय भुङ्क्ते को नहीं । तथा कोई २ दोनों तिङों को ही किम से युक्त मानते हैं, अतः उनके मत में दोनों को ही अनुदात्त नहीं होगा । हमने वाक्य स्थित दोनों ही तिङन्तों को किम से युक्त मानकर निघात के प्रतिषेध का स्वर दिखाया है ।
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५७० अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ लोपे विभाषा ||८||४५ ॥ [ प्रथमः लोपे ७ | १ || विभाषा ||१|| अनु- - किं क्रियाप्रश्नेऽनुपसर्गमप्रति- षिद्धम्, तिङ् न, अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- किमो लोपे सति क्रियाप्रश्नेऽनुपसर्गमप्रतिषिद्धं तिङन्तं विभाषा नानुदात्तं भवति ॥ यत्र किमोऽर्थो गम्यते न च प्रयुज्यते तत्र किमो लोपो ज्ञेयः ॥ उदा० - देवदत्तः पचति आहोस्वित् पठति ? | प-देवदत्तः पचति आहोस्वित् पठति ? | भाषार्थः - किम् का [लोपे] लोप होने पर क्रिया के प्रश्न में अनुपसर्ग अप्रतिषिद्ध तिङन्त को [विभाषा ] विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता || पक्ष में यथाप्राप्त ( ८1११२८) अनुदात्त ही होगा | यहाँ किसी सूत्र से किम् के लोप का तात्पर्य नहीं है, किन्तु जहाँ किम् का अर्थ गम्यमान हो, किन्तु उसका प्रयोग न हो रहा हो, वही किम् का अदर्शन = अर्थात् लोप समझा जायेगा । इस प्रकार उदाहरण में ‘क्या देवदत्त पकाता है, अथवा पढ़ता है’ ? ऐसा अर्थ होने से किम् का अर्थ है, किन्तु वह प्रयुक्त नहीं है, इसलिये किम् का लोप ही माना गया । स्वर सिद्धियाँ पूर्ववत् जानें || एहिमन्ये प्रहासे लट् ||८|१|४६ ॥ ७|१|| } एहिमन्ये लुप्तप्रथमान्तनिर्देश: || प्रहासे |१ || ऌट् १|१|| स० एहिश्च मन्ये च एहिमन्ये, इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:– एहिमन्ये इत्यनेन युक्त लडन्तं तिङन्तं प्रहासे गम्यमाने नानुदात्तं भवति ॥ प्रकृष्टो हासः प्रहासः ॥ उदा० - एहि मन्ये ओदनं भोक्ष्यसे’ नहि भोक्ष्यसे’, भुक्तः सोऽति- थिभिः । एहि मन्ये रथेन यास्यसि, नहि य॒स्यसि॑ि यातस्तेन पिता || भाषार्थ :- [ एहिमन्ये ] एहि तथा मन्ये से युक्त [लृट् ] लङन्त तिङन्त को [ प्रहासे ] प्रहास (हँसी) गम्यमान हो तो अनुदात्त नहीं होता || मन धातु का मन्ये उत्तम पुरुष का रूप है, एवं इण् का लोट् मध्यम पुरुष का ‘एहि’ है, सो ‘एहिमन्ये’ क्रियापदों में अनुकरण मानकर समस्त निर्देश किया है । इस प्रकार एहि मन्ये ऐसे समुदाय के उपपद रहते भोक्ष्यसे अनुदान्त नहीं हुआ । भोक्ष्यसे’ की वर सिद्धिअष्टमोऽध्यायः ५७१ पाद: ] सूत्र ८|१| ३१ में देखें । यास्यसि में भी सिपू को पित् स्वर से अनु- दात्तत्व तथा स्य को प्रत्ययस्वर से उदात्तत्व होगा । पश्चात् ‘सि’ को स्वरित हो जायेगा || मन्यसे के स्थान पर मन्ये एवं भोक्ष्ये के भोक्ष्यसे यह पुरुष व्यत्यय प्रहासे च मन्यो० ( ११४३१०५) से उदाहरणार्थ वहीं देखें, जिससे प्रहास स्पष्ट हो जायेगा || जात्वपूर्वम् ||८|१|४७ || स्थान पर हुआ है । यस्मात् तद् जातु अ० || अपूर्वम् १|१|| स० – अविद्यमानं पूर्व अपूर्वम्, बहुव्रीहिः ॥ अनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- अविद्यमानपूर्वेण जातु इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति || उदा० - जातु भोक्ष्यसे’, जातु करिष्यामि ।। भाषार्थ:– [अपूर्वम् ] जिससे पूर्व कोई पद विद्यमान नहीं है ऐसे [जातु] जातु शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता | सिद्धियों में पूर्ववत् प्रत्यय स्वर से ‘स्य’ उदात्त है ॥ यहाँ से ‘अपूर्वम्’ की अनुवृत्ति ८|११५० तक जायेगी || किंवृत्तं च चिदुत्तरम् ||८|१ | ४८ || किंवृत्तम् १|१|| च अ० || चिदुत्तरम् १|१|| स० - किमो वृत्त किं- वृत्तम् षष्ठीतत्पुरुषः । वृत्तमित्यधिकरणे (३।४।७६) क्तः, तेनाधिकरण वा ० (२|३|६८) इति ‘किम:’ इत्यत्र षष्ठी । अधिकरणवाचिना च (२|२| १३) इत्यनेन समासप्रतिषेधे प्राप्तेऽस्मादेव निपातनात् समासः ॥ चित् उत्तरं यस्मात् तत् चिदुत्तरम्, बहुव्रीहिः ॥ अनु० - अपूर्वम्, तिङ् न, अनु- दात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थः- अविद्यमानपूर्व चिदुत्तरं यत् किंवृत्तं तेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ॥ किंवृत्तग्रहणेन विभक्त्यन्तं डतरडतमप्रत्ययान्तं च किमो रूपं गृह्यते ॥ उदा० - कश्चिद् भुङ्क्ते, कश्चिद् भा॒जय॑ति, कश्चिद् अधीते । केनचित् करोति॑ि । कस्मैचिद् ददाति । डतर - कतरश्चित् क॒रोति॑ । उतम - कतमश्चिद् भुङ्क्ते ॥ भाषार्थ:- [चिदुत्तरम् ] जिससे उत्तर ‘चित्’ है, तथा जिससे पूर्व कोई शब्द नहीं है, ऐसे [ किंवृत्तम् ] किंवृत्त शब्द से युक्त तिङन्त को [च] भी अनुदात्त नहीं होता ॥ किंवृत्त से किम् शब्द से उत्पन्न जो ! i

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अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
1 ।
[ प्रथा
विभक्तियाँ तद्विभक्त्यन्त शब्द तथा इतर डतम प्रत्ययान्त किम् शब्द व ग्रहण है । वृत्तं में अधिकरण में क्त हुआ है । वर्त्ततेऽस्मिन्नि वृत्तम् । किमो वृत्तं = किम् का ( उसमें ) रहना किंवृत्त है || भुक आदि की स्वरसिद्धि परि० ८।१।३० में देखें । भोजयति णिजन्त धा है, सो धातु स्वर से ‘भोजि’ का ‘इ’ उदात्त रहा । पश्चात् गुण अयादे करके ‘ज’ का अ उदात्त हो गया । ददति को आयुदात्त अनुदात्ते ’ ( ६।१।१८४ ) से होता है ॥
आहो उताहो चानन्तरम् ||८|१|४९ ॥
आहो अ० ॥ उताहो अ० ॥ च अ० ॥ अनन्तरम् १|१|| स०- अविद्यमानमन्तरं व्यवधानं यस्य तदनन्तरम्, बहुव्रीहिः ॥ अनु– अप र्वम्, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात् पदस्य || अर्थ:- आहो, उताहो इत्येताभ्याम् अविद्यमानपूर्वाभ्याम् युक्तमनन्तरं तिङन नानुदात्तं भवति । उदा० - आहो भुङ्क्ते, उताहो भुङ्क्ते । आहं पठति, उताहो पठति ॥
भाषार्थ :- अविद्यमान पूर्व वाले [आहो उताहो ] आहो उताहो से युक्त जो [अनन्तरम् ] अव्यवहित = व्यवधान रहित ति उसको [च भी अनुदात्त नहीं होता है || पूर्ववत् स्वर- सिद्धियाँ हैं ।
यहाँ से ‘हो उताहो’ की अनुवृत्ति ८११५० तक जायेगी ||
शेषे विभाषा || ८ | १/५०॥
शेषे ७|१|| विभाषा १११ ॥ अनु० - आहो उताहो, अपूर्वम्, तिङ न, अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- आहो, उताह इत्येताभ्यामपूर्वाभ्यां युक्तं तिङन्तं शेषे विभाषा नानुदात्त’ भवति । अनन्तरापेक्षं शेषत्वम् ॥ उदा० - आहो देवदत्तः पचति, पक्षे - आहे
। देवदत्तः पचति । उताहो देवदत्तः पठति, पक्षे-उताहो देवदत्तः पठति ॥
भाषार्थ:- पूर्व सूत्र में ‘आहो उताहो’ से अनन्तर तिङ् को अन नुदात्त कहा था । यहाँ ‘शेषे’ ग्रहण अनन्तर की अपेक्षा से रखा है । अविद्यमानपूर्व आहो, उताहो शब्दों से युक्त तिङन्त को [शेषे] अनन्तर से शेष विषय ( अर्थात् व्यवधान) में [ विभाषा ] विकल्प करके अनुदानबाद: ]
अष्टमोऽध्यायः
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नहीं होता || इस प्रकार पक्ष में अनुदान्त यथाप्राप्त होता है ॥ उदाहरणों में आहो उताहो एवं तिङन्त के मध्य में ‘देवदन्तः’ पद का व्यवधान होने पर विकल्प से अननुदात्त हो गया । पूर्व सूत्र से अप्राप्त था, विकल्प कर दिया ।।
गत्यर्थलोटा लग्न चेत् कारकं सर्वान्यत् ||८|१|५१||
,
गत्यर्थलोटा ३|१|| लट् १|१|| न अ० ॥ चेत् अ० || कारकम् १|१|| सर्वान्यत् १|१|| स-गतिरर्थो येषां ते गत्यर्थाः, बहुव्रीहिः । गत्यर्थानां लोट् गत्यर्थलोट्, तेन षष्ठीतत्पुरुषः । सर्वञ्च तदन्यत् च सर्वान्यत्, कर्मधारयतत्पुरुषः ॥ श्रनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पद्स्य || अर्थ:- गत्यर्थलोटा युक्तं लडन्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति, न चेत् कारकं सर्वमन्यद् भवति । यस्मिन् कारके ( कर्त्तरि कर्मणि वा) लोट्, तस्मिन्नेव कारके यदि लडपि स्यादित्यर्थः । उदा० - आगच्छ देवदत्त ग्रामं द्रक्ष्यस्ये’ नम् । आगच्छ देवदत्त ग्राममोदनं भोक्ष्यसे । कर्मणि - उद्यन्तां देवदत्तेन शालयस्तेनैव भोक्ष्यन्ते । उद्यन्तां यज्ञदत्तेन शालयो देवदत्तेन भोक्ष्यन्ते’ ||
भाषार्थ:– [गत्यर्थलोट । ] गति अर्थ वाले धातुओं के लोट् लकार से युक्त [लृट् ] लडन्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, [ चेत् ] यदि [कारकम् ] कारक [सर्वान्यत् ] सारा अन्य [न] न हो तो ॥
तिङ से वाच्य कर्त्ता कर्म कारक होते हैं, अतः यहाँ कारक से कर्त्ता कर्म का ही ग्रहण है । जिस कारक = कर्त्ता अथवा कर्म में लोडन्त हो, उसी कारक में यदि लडन्त ( जिसे अनुदान्त का निषेध कर रहे हैं) वह भी हो तो, अर्थात् लोडन्त एवं लडन्त ति का वाच्य कारक भिन्न २ न हो, यही ‘सर्वान्यत्’ का तात्पर्यार्थ है । पूर्व दो उदाहरणों में ‘आगच्छ’ एवं द्रक्ष्यसि भोक्ष्यसे दोनों (लोडन्त एवं लडन्त) तिङन्त कर्तृवाच्य ( कारक ) में हैं, एवं पश्चात् के उदाहरणों में उद्यन्तां लोडन्त तथा भोदयन्ते लडन्त दोनों कर्मवाच्य में हैं इस प्रकार ‘सर्वान्यत्’ नहीं है । गम् तथा वह गत्यर्थक धातुएँ हैं, सो लोट् प्रत्ययान्त आगच्छ आदि से युक्त लडन्त पद है ही, अतः उसे अननुदात्त हो गया || ‘उद्यन्तां देव- दत्तेन” का अर्थ है – देवदत्त के द्वारा धान लाई (ढोई ) जावे, उसी
के द्वारा खाई जाये । द्रक्ष्यसि में सुजिहशो० (६।११५७) से दृश को अम्
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अष्टाध्यायीप्रथमावृत्ती
[ प्रथम
आगम, ब्रश्वभ्रस्ज० (८१२१३६ ) से षत्व तथा षढों: कः सि (८।२।४१ ) से कत्व हुआ है । प्रत्ययस्वर से ‘स्य’ सर्वत्र उदात्त है । भुज का कर्त्ता अथव कर्म में भोक्ष्यते ही रूप बनेगा | चोः कुः (८/२/३ = ) से कुत्व ग् एवं खरि ( ८|४|५४) से चर्च कू यहाँ हुआ है ।। अन्तिम वाक्य में दोनों क्रियाओं का वाच्य कर्म एक ही है, अतः कर्ता में भेद होने पर भी सूत्र प्रवृत्त
हो जाता है ||
MIS
यहाँ से ‘गत्यर्थलोटा न चेत् कारकं सर्वान्यत्’ की अनुवृत्ति ८|११५३ तक जायेगी ||
लोट् च ॥ ८|११५२ ॥
लोट् १|१|| च अ० ॥ अनु० - गत्यर्थं लोटा न चेत् कारकं सर्वान्यत्, तिङ, न, अनुदात्त सर्वमपादादौ, पदात, पदस्य || अर्थ:- गत्यर्थलोटा युक्तं लोडन्तं च तिङन्तं नानुदात्तं भवति, न चेत् कारकं सर्वान्यद् भवति ॥ उभयोर्लोडन्तयोरेकं कारकं यदि भवतीत्यर्थः ॥ उदा०- आगच्छ देवदत्त ग्रामं पश्य । आब्रज विष्णुमित्र ग्रामं शाधि । आगम्यतां देवदत्तेन प्रामो दृश्यता यज्ञदत्तेन ||
भाषार्थ :- गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त [लोटू ] लोडन्त तिङन्त को [च] भी अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक (दोनों तिङों के) सारे अन्य न हों तो ।। पूर्व सूत्र से लडन्त को ही अननुदात्त प्राप्त था, लोडन्त को भी कह दिया ॥ न चेत् कारकं सर्वान्यत्’ की व्याख्या पूर्ववत् समझें । यहाँ आगच्छ आदि से युक्त ‘पश्य’ आदि लोडन्त हैं आगम्यताम् दृश्यताम् में कर्मवाच्य में लकार है || लोटू मध्यम पुरुष में दृश् को ‘पश्यू’ आदेश तथा हि लुक् (६|४|१०५) होकर पश्यू अ रहा । अब ‘पश्य’ आदेश धातु स्वर से उदान्त था, सो शप् के अनुदात्त होने से आद्युदात्त पद हुआ । शाधि की सिद्धि सूत्र ६ |४| २२ में देखें, यह ‘हि’ के अर्पित होने से प्रत्यय स्वर से अन्तोदात्त है । आमेत : ( ३ | ४ |६०) आदि लगकर दृश् यक् ताम् = दृश्यताम् बना । ‘दृश् ताम्’ यहाँ ‘ताम्’ का ‘आ’ प्रत्यय स्वर से उदात्त है । यक् विकरण ‘ताम्’ के पश्चात् हुआ है, अतः सतिशिष्ट ( वा० ६।१।१५२) होने से ‘य’ को उदात्त होना चाहिये किन्तु ‘सतिशिष्टोऽपि विकरणस्वरो लसावँ धातुकस्वरं न बाधते’ ( महाभाष्य ६ (१९५२) इस भाष्य वचन से विकरणस्वर सार्वधातुकस्वर को नहीं बाधता, अतः ‘ताम्’ को स्वर की प्राप्ति होने पर तास्यनु-पाद: ]
अष्टमोऽध्यायः
५७५
दात्तेन्दिदुपदेश ० (६११।१८०) से ताम् अनुदात्त हो जाता है, अतः मध्योदात्त ही दृश्यताम् का स्वर रहता है ||
यहाँ से ‘लोट्’ की अनुवृत्ति ८|१|५४ तक जायेगी ||
विभाषितं सोपसर्गमनुत्तमम् ||८|१/५३ ||
विभाषितम् ||१|| सोपसर्गम् १|१|| अनुत्तमम् १|१|| स०- उपसर्गेण सह वर्त्तते सोपसर्गम्, बहुब्रीहिः । न उत्तममनुत्तमम्, नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० – लोटू, गत्यर्थलोटा न चेत् कारकं सर्वान्यत्, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ पदात्, पदस्य || अर्थः- गत्यर्थलोटा युक्तं सोपसर्गमुत्तमपुरुषवर्जितं लोडन्तं तिङन्तं विभाषा नानुदात्तं भवति, न चेत् कारकं सर्वान्यद् भवति । प्राप्तविभाषेयम् ॥ विभाषा शब्देन समानार्थो विभाषितशब्दः || उदा० - आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रविश । पक्षे - आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रविश । आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रशाधि । पक्षे - आगच्छ देवदत्त ग्रामं प्रशोध ॥
भाषार्थ :- गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त [ सोपसर्गम् ] उपसर्ग सहित एवं [ अनुत्तमम् ] उत्तम पुरुष वर्जित जो लोडन्त तिङन्त उसे [विभाषितम् ] विकल्प करके अनुदान्त नहीं होता, यदि कारक सभी अन्य ( भिन्न २) न हों तो ॥ पूर्वं सूत्र से नित्य प्रतिषेध प्राप्त था, सोपसर्ग में विकल्प कह दिया, सो यह प्राप्त विभाषा है || ‘विभाषित’ शब्द विभाषा का समानार्थक है | प्रशाधि के अन्तोदात्त स्वर की सिद्धि पूर्ववत् जानें प्र को तिङि चोदात्तवति ( ८/१/७१ ) से निघात होगा । प्र पूर्वक विश (तुदा० ) धातु से लोट में हि लोप हो जाने पर विकरण स्वर और प्रं को निघात हुआ । प्रविशू श = प्रविश यहाँ श विकरण प्रत्यय स्वर से उदात्त है, अतः अन्तोदात्त ‘प्रविश’ पद रहा । पक्ष में तिङन्त को यथाप्राप्त निघात होगा और ‘प्र’ उपसर्ग स्वर (फिट्० ८०) से उदात्त होगा || यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८।११५४ तक जायेगी ||
हन्त च || ८|१|५४॥
||
हन्त अ० ।। च अ० ।। अनु० - विभाषितं सोपसर्गमनुत्तमम्, लोट्, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदातू, पदस्य | अर्थः - इन्त इत्यनेन च युक्तं सोपसर्गमुत्तमवर्जितं लोडन्तं तिङन्तं विभाषितं नानुदान्तं
i
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अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ प्रथम
भवति ।। उदा० - हन्त प्रविश । प-हन्त प्रवि॑श॒ । हन्त प्रशाधि
प - हन्त प्रश॑धि॒ ॥
C
भाषार्थ:- [हन्त ] हन्त से युक्त सोपसर्ग उत्तम पुरुष वर्जित लोडन्त तिङन्त को [च] भी विकल्प से अनुदात्त नहीं होता || निपातैर्यद्यदि ( ८/१/३०) से यहाँ नित्य निघातप्रतिषेध प्राप्त था, विकल्प कर दिया || पूर्ववत् सिद्धियाँ जानें ||
आम एकान्तरमामन्त्रितमनन्तिके ||८/१/५५ ||
आम: ५ | १ || एकान्तरम् १|१|| आमन्त्रितम् १|१|| अनन्तिके ७|१|| स० - एकं (पदम् ) अन्तरं यस्य तदेकान्तरम्, बहुव्रीहिः । न अन्तिक- मनन्तिकम्, तस्मिन्नस्तत्पुरुषः ॥ अनु०न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थः- आम: परमेकपदान्तरमनन्तिके वर्तमानमामन्त्रितं नानुदात्तं भवति । उदा० - आम् पचसि देवदत्त | आम् भो देवदत्त || अनन्तिके इत्यनेन सामीप्यार्थस्य प्रतिषेधः क्रियते । सूत्रलाघवाय ‘दूरे’ इत्यस्यानुक्तत्वात् यन्न समीपं यश्च न दूरं तादृग् अर्थो गृह्यते । तेनाचैक- श्रुतेः प्राप्त्यभावे प्राप्तमनुदात्तत्वमेव प्रतिषिध्यते ॥
भाषार्थ:- [आम] आम् से उत्तर [ एकान्तरम् ] एक पद का अन्तर = व्यवधान है जिसके मध्य में ऐसे [आमन्त्रितम् ] आमन्त्रित- संज्ञक पद को [नन्तिके ] अनन्तिक ( जो समीप नहीं अर्थात् न दूर न समीप) अर्थ में अनुदात्त नहीं होता || उदाहरणों में आम से उत्तर एवं आमन्त्रितसंज्ञक ‘देवदत्त’ के मध्य में ‘पचसि’ एवं ‘भो:’ एक पद का व्यवधान है, अतः एकपदान्तरित = एक पद से व्यवहित आमन्त्रित पद है ही, सो अनुदात्त का निषेध होने से पाष्टिक श्रमन्त्रितस्य च (६।१।१६२ ) से आमन्त्रित पद आद्युदान्त हो गया । ‘भो’ आमन्त्रित है उस को आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् (८११७२ ) से अविद्यमानवद्भाव प्राप्त होने पर एकान्तरितत्व नहीं रहता अतः यहाँ भो के अविद्यमानवत्व का नामन्त्रिते समानाधिकरणे (८११७३) से निषेध जानना चाहिए ।
अन्तिक का अर्थ है, ‘समीप, सो अनतिक का अर्थ होगा जो न दूर
१. महाभाष्य में ‘अनन्तिक’ में विरुद्ध अर्थ में नञ् मानकर दूर अर्थ करके एकश्रुति को भी प्राप्ति दिखाकर उस एकश्रुति का भी इस सूत्र से प्रतिषेध दिखाया है । इस पक्ष में दूराद्धते च ( २८४ ) से ग्रामन्त्रित को प्लुत होगा ही । हमनेपादः ]
अष्टमोऽध्यायः
५७७
न समीप । अनन्तिक से यहाँ समीप अर्थ से भिन्न दूर अर्थ अभिप्रेत नहीं है यदि ‘दूर’ अर्थ ही अभिप्रेत हो तो सूत्र में स्पष्ट ‘दूरे’ कहते अतः यहाँ नजिवयुक्तम् ० ( परि० ६५) परिभाषा के नियम से जो ‘न दूर न समीप’ यही अर्थ लेना है । इस प्रकार अनन्तिक (न दूर न समीप) अर्थ में अनुदान्त निषेध करने से दूर अर्थ में विधीयमान जो कार्य वे अपने क्षेत्र में यथाविहित होते हैं । यथा – एकश्रुति दूरात् सम्बुद्धौ ( १/२/३३) से विहित एकश्रुति एवं दूराद्भूते च (८२२८४ ) से विहित प्लुत । इनका भी प्रतिषेध न हो यही यहाँ ‘अनन्तिके’ ग्रहण का प्रयोजन
। है । उदाहरण में ‘भोः’ के रुके र को भोभगो अघो० (८।३।१७) से यू तथा लोपः शाकल्यस्य ( ८|३|१६ ) से उस यू का लोप होकर ‘भो’ बना है । यहाँ आमन्त्रितं पूर्वम० (८/१/७२ ) से ‘भोः’ को अविद्यमानवत्ता प्राप्त थी, किन्तु नामन्त्रिते समानाधिकरणे० (८११७३ ) से अविद्यमानवत्ता का प्रतिषेध हो जाता है, सो विद्यमानवत्ता ही मानी जाती है । अविद्य- मानवत् होने से एकपदान्तरता न मिलती ||
,
यद्धितुपरं छन्दसि ||८|१|५६ ॥
यद्धिपरम् १|१|| छन्दसि ७|१|| स० - यत् च हिश्च तुश्च यद्धितवः, इतरेतरद्वन्द्वः । यद्धितवः परे यस्मात् तत् यद्धिपरम्, बहुव्रीहिः || अनु० – तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ श्रर्थः यत्परं हिपरं तुपरं च तिङन्तं छन्दसि विषये नानुदात्तं भवति || उदा० यत्परम् - गवा॑ गो॒त्रमु॒दसृ॑जो यद॑ङ्गिरः (ऋ० २।२३।१८) । हिपरम् - इन्दवो वामुशन्ति हि (ऋ० १२१४) । परम् - आख्यास्यामं तु ते ।।
भाषार्थ: – [ यद्धितुपरम् ] यत्परक, हिपरक तथा तुपरक तिहू को [छन्दसि ] वेद विषय में अनुदात्त नहीं होता || यत् परक तिङन्त को निपातैर्यद्य ० (८।१।३०) से तथा हि परक को हि च (८|१|३४) से एवं तुपरक को तुपश्य पश्यता है: ० ( ८1१1३९) से निघात प्रतिषेध सिद्ध ही था, पुनः यह सूत्र नियमार्थं है कि-‘छन्द में पर के योग में भी यदि प्रतिषेध हो तो इन्हीं के पर के योग में हो, अन्यों के नहीं’ । उदाहरणों में तिङन्त
W
सादृश्य अर्थ में नञ का अर्थ करके ‘न दूर न समीप’ यह अर्थ अनन्तिक का किया है । ये दोनों ही पक्ष भाष्य में होने से प्रमाण हैं । प्रथमावृत्ति से पृथक् विषय होने से यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त है ||
३७
i
¦

५७८ अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ [ प्रथम से परे यत्, हि, तु हैं ही || उदसृजः यह उत् पूर्वक सृज (तुदा० ) धा का लङ् सिप् में बना रूप है, अतः पूर्ववत् इसका ‘अटू’ उदात्त है: यत् परे रहते सन्धि में हशि च (६|१|११० ) द् गुण: ( ६|१|८४ लगकर ‘उदसृजो’ बना है || वश कान्तौ ( अदा० ) से लट् बहुवचन उशन्ति’ बना है । ग्रहिज्यावयि० (६।१११६ ) से व् को सम्प्रसारण तथ शप का लुक् २।४।७२ से हुआ है । इस प्रकार अन्ति का ‘अ’ प्रत्यय स्व से उदात्त है, सो मध्योदात्त पद रहा । आख्यास्यामि आङपूर्वक ख्य प्रकथने से ऌट् में बना है, सो पूर्ववत् स्य उदात्त है । तिङन्त दे उदात्त होने पर उपसर्ग तिङि चोदात्तवति (८११७१) से अनुदात्त ह जाता है ।। चनचिदिव गोत्रादितद्धिताम्रेडितेष्वगतेः ||८|१|५७ || चन’ ‘डितेषु ७ | ३ || ॥ ७|३|| , स०- All अगतेः ५|१|| स० गोत्र आदिर्येषां ते गोत्रा दयः, बहुव्रीहिः । चनश्च चित् च इवश्च गोत्रादयश्च तद्धिताच आम्रेडि तच चनचि’ ‘डितानि तेषु इतरेतरद्वन्द्वः । न गतिरगतिस्तस्मात् नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० - तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात पदस्य ॥ अर्थः- चन, चित्, इव, गोत्रादि, तद्धित, आम्रेडित इत्येते! परतोऽगतेरुत्तरं तिङन्तं नानुदात्तं भवति || उदा० - देवदत्तः पचति चन चित्-देवदत्त पचति चित् । इव - देवदत्तः पचति इव । गोत्रादि- । देवदत्तः पच॑ति गोत्रम्, देवदत्तः पचति ब्रुवम्, देवदत्तः पच॑ति प्रवचनम् । तद्धित - देवदत्तः पच॑तिकल्पम्, पच॑तिरूपम् । आम्रेडित- देवदत्तः पच॑ति प॒च॒त । भाषार्थ: - [चन’ ‘डितेषु ] चन, चित्, इव तथा गोत्रादि गण पठित शब्द तद्धित प्रत्यय एवं आम्रेडित संज्ञक शब्दों के परे रहते [गते: गतिसंज्ञक से भिन्न किसी पद से उत्तर तिङन्त को पचतिकल्पम् में पचति तिङन्त से ईषदसमाप्तौ ० अनुदात्त नहीं होता । (५|३|६७ ) से कल्पप तथा पचतिरूपम् में प्रशंसायां (५।३।६६ ) से रूप तद्धित प्रत्यय हुअ है । पित होने से ये प्रत्यय अनुदात्त हैं, पश्चात् एकश्रुति स्वरितात् १. संहितापाठ के स्वरनियम से यहाँ उशन्ति के ति को स्वरित न दिखाक अनुदात्त दिखाया है ।पादः ] अष्टमोऽध्यायः ५७६ ( ११२१३६ ) से हो ही जायेगी । पचति की स्वरसिद्धि पूर्ववत् है । देवदत्तः पचति पचति यहाँ नित्यवीप्सयोः (८१११४ ) से पचति को द्वित्व हुआ है, सो पर वाला पचति आम्रेडितसंज्ञक है, उसके परे रहते पूर्व वाले पचति के निघात का निषेध हो गया || यहाँ से ‘गते’ की अनुवृत्ति ८|११५८ तक जायेगी ||

चादिषु च ॥ ८|११५८ ॥
चादिषु ७|३|| च अ० ॥ स०-च आदिर्येषां ते चादयस्तेषु बहुव्रीहिः ॥ अनु० — अगतेः, तिङ्, न, अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ: – चादिषु च परतो ऽगतेरुत्तरं तिङन्तं नानुदात्तं भवति || चादयो न चवाहाहैवयुक्ते ( ८|१|२४ ) इत्यत्र ये निर्दिष्टास्त एव गृह्यन्तेऽत्र ॥ उदा०– चशब्दे - देवदत्तः पचति च खादति च । वा- देवदत्तः पचति वा खादति वा । ह-देवदत्तः पचति ह खादति ह । अह- देवदत्तः पच॒त्य॒ह॒ खाद॒त्य॒ह॒ । एव-देवदत्तः पच॒त्ये व खादत्येव ॥
भाषार्थ:- [ चादिषु ] चादियों के परे रहते [च] भी गतिभिन्न पद से उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता ॥ चादि गणपाठ में पठित
|| शब्द भी हैं, तथा ‘न चवाहा हैवयुक्ते’ सूत्र में निर्दिष्ट च, वा आदि शब्द भी ‘चादि’ से कथित हैं, सो यहाँ समीपस्थ होने से सूत्र निर्दिष्ट च वा आदि शब्द ही ‘चादि’ से लेना है, चादि (१।४।५७) गणपठित शब्द नहीं, ऐसा समझें ॥
यहाँ चादि परे रहते अगति से उत्तर तिङन्त दोनों पदों को निघात का प्रतिषेध होता है । चवायोगे प्रथमा (८११५९) सूत्र का विषय च वा के पूर्व प्रयोग और गति से उत्तर का विषय होने से उसकी यहाँ
प्रवृत्ति नहीं होती ||
चवा
चवायोगे प्रथमा || ८ | ११५९ ॥
चवायोगे ७|१|| प्रथमा १|१|| स० – चश्च वाश्च चवौ, ताभ्यां योगः चवायोगस्तस्मिन् द्वन्द्वगर्भ तृतीयतत्पुरुषः ॥ अनु० - तिङ् न, अनु-
दात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ||
प्रथमा तिविभक्तिर्नानुदात्ता भवति ॥ वोणां च वादयति । गर्दभान् वा कालयति,
अर्थ:-च, वा इत्येताभ्यां योगे उदा०– गर्दभाँच कालयंति, वीणां वा वादयति ॥

५८० अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ प्रथ भाषार्थ : - [ चवायोगे ] च तथा वा के योग में [ प्रथमा ] प्र तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता || उदाहरण वाक्यों में दो तिङन्त श‍ हैं, उनमें से प्रथम तिङन्त को निघात का निषेध प्रकृत सूत्र से हे हैं । द्वितीय तिङन्त को तिङ्ङतिङ : ( ८|११२८ ) से प्राप्त निघात होगा । पूर्ववत् (सूत्र ८|१|४२ - ४८) भोजयति स्तनयति के सम ८|१|४२-४८) कालयति का स्वर जानें || यहाँ से ‘प्रथम’ की अनुवृत्ति ८|१|६५ तक जायेगी || हेति क्षियायाम् ||८|१|६|| ह अ० ॥ इति अ० ॥ क्षियायाम् ७ ११ ॥ अनु० - प्रथमा, ति, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थ:-ह इत्यनेन युक्ता प्रथ तिङ् विभक्तिर्नानुदात्ता भवति, क्षियायां गम्यमानायाम् ॥ क्षिया नि सा चेहाऽचारव्यतिक्रमरूपा ॥ उदा स्वयं ह रथेन याति॑ उपाध्यायं पदाति॑ ग॒म॒यति॒ । स्वयं हौदनं भुङ्क्ते’ ३, उपाध्यायं सक्तृ पाययति ॥ Revtada भाषार्थ:- [ह] ह [इति] इससे युक्त प्रथम तिङन्त ( विभक्ति) [क्षियायाम् ] क्षिया गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता || पूर्व वाक्यस्थ प्रथम तिङन्त को अननुदात्त होगा, सो याति धातु स्वर आद्युदात्त है, एवं भुङ्क्ते का स्वर पूर्व दिखाया जा चुका है ।। या मुङ्क्ते में ज्ञियाशीः प्रेषेषु तिङाकाङ्क्षम् (८।२।१०४) से तिङन्त को स्वरि प्लुत होता है । याति में ‘ति’ को स्वरित होने पर धातु स्वर की दृष्टि असिद्ध होने से ‘या’ उदात्त रहता है । परन्तु यहाँ ‘याति’ और ‘भुङ्क्ते अतिङन्त से उत्तर होने के कारण (८११२८) ‘या’ ‘भु’ अनुदात्त होंगे सर्वानुदात्तत्व की प्राप्ति में अन्त्य को स्वरितत्व का विधान किया है। क्षिया, शिष्टाचार के व्यतिक्रम को कहते हैं, सो उदाहरणों में स्व रथ से जाना एवं आचार्य को पैदल ले चलना, इसी प्रकार स्वयं उत्त पदार्थ चावल खाना तथा आचार्य जी को सक्तु पिलाना, यह स्प शिष्टाचार का व्यतिक्रम है || यहाँ से ‘क्षियायाम्’ की अनुवृत्ति ८/१६१ तक जायेगी ||पादः ] अष्टमोऽध्यायः अहेति विनियोगे च || ८|१| ६१ ॥ ५८१ : अह अ० ॥ इति अ० ॥ विनियोगे ७|१|| च अ० ॥ अनु०- क्षियायाम्, प्रथमा, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:- अह इत्यनेन युक्ता प्रथमा तिङ् विभक्तिर्नानुदात्ता भवति विनियोगे गम्यमाने चकारात् क्षियायां च गम्यमानायाम् ॥ उदा० - विनियोगे- त्वमह ग्रामं गच्छे ३, स्वमहारण्यं गच्छ । क्षियायाम - स्वयमह रथेन यात ३ उपाध्यायं पदातिं गमयति । स्वयमहौदनं भुङ्क्ते’ ३ उपाध्यायं सक्तून् पाययति ॥

भाषार्थ: - [ अह ] अह [ इति ] इससे युक्त (वाक्यस्थ ) प्रथम तिङन्त को [विनियोगे ] विनियोग [च] तथा चकार से क्षिया गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता || अनेक प्रयोजन के लिये प्रैष देने को विनियोग कहते हैं, उदाहरण में ‘तुम ग्राम को जाओ, तुम अरण्य को जाओ’, यहाँ अनेक प्रयोजन के लिये प्रैष है | ‘गच्छ’ (लोट् मध्यम पुरुष ) धातु स्वर से आयुदात्त है । लोट् में ‘हि’ का लुक आदि पूर्ववत् ( ६ |४| १०५) जानें | प्लुतत्व भी यहाँ क्षियाशी : ० ( ८|२| १०४) सूत्र से ही प्रैष मानकर हुआ है, एवं याति ३ आदि में पूर्ववत् क्षियानिमित्तक प्लुत है ही || चाहलोप एवेत्यवधारणम् ||८|१|६२ || चाहलोपे ७|१|| एव अ० ॥ इति अ० ॥ अवधारणम् १|१|| स०- चश्च अहश्च चाहौ, तयोर्लोपः चाहलोपस्तस्मिन् द्वन्द्वगर्भषष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - प्रथमा, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वेमपादादौ पदात् पदस्य || अर्थ:-च, अह इत्येतयोर्लोपे च प्रथमा तिविभक्तिर्नानुदात्ता भवति, एवशब्दश्चेदवधारणार्थं प्रयुज्यते ॥ यत्र गम्यते चार्थो न च प्रयुज्यते तत्रानयोर्लोप इति ज्ञेयम् ॥ उदा० - चलोपे - देवदत्त एव ग्रामं गच्छंतु, देवदत्त एवारण्यं गच्छतु । अहलोपे - देवदत्त एव ग्रामं गच्छेतु, यज्ञदत्त एवारण्यं गच्छतु । 11 भाषार्थ :- [ चाहलोपे ] च तथा अह शब्द का लोप होने पर प्रथम ( वाक्यस्थ ) तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि [ एव] एव [इति] यह शब्द वाक्य में [ अवधारणम् ] अवधारण अर्थ में प्रयुक्त किया गया हो तो || ‘चाहलोपे’ कहने से जहाँ ‘च’ तथा ‘अह’ का अर्थ तो हो, किन्तु उसका प्रयोग न किया गया हो, वहाँ ‘च अह’ का लोप हुआ है, ऐसा ५८२ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ प्रथमः माना जायेगा ॥ च समुच्चय अर्थ में होता है, तथा अह केवल अर्थ में, सो उसी प्रकार उदाहरणों का अर्थ ‘च’ अह के प्रयोग के बिना ही यहाँ है । ‘देवदत्त एव’ देवदत्त ही ग्राम को जावे एवं देवदन्त ही जङ्गल को’ यहाँ समुच्चय तथा ‘देवदत्त ही केवल ग्राम को जावे, एवं यज्ञदत्त ही केवल अरण्य को, यहाँ लुप्त अह का शब्द अवधारण ( निश्चय) अर्थ में धातु स्वर से आयुदात्त है, पचति के केवलार्थ है । यहाँ सर्वत्र एव प्रयुक्त है | प्रथम ‘गच्छतु’ पद समान इसका स्वर जान लें । द्वितीय गच्छतु पद यथाप्राप्त (८/१/२८) अनुदात्त होगा ही ।। चादिलोपे विभाषा || ८ | १ | ६३ || अनु०- चादिलोपे ७|१|| विभाषा १|१|| स० - च आदिर्येषां ते चादयः, चादीनां लोपः चादिलोपस्तस्मिन् ‘द्वन्द्वगर्भषष्ठीतत्पुरुषः ॥ प्रथमा, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ अर्थ:- चादिलोपे प्रथमा तिविभक्तिर्विभाषा नानुदात्ता भवति ॥ उदा०- चलोपे - शुक्ला व्रीहयो भव॑न्ति (पले - भ॒व॒न्ति॒ि ), श्वेता गा आज्याय दुर्हन्ति । वालोपे - व्रीहिभिर्यजेत (पक्षे-यजे त ), यवैर्यजेत । एवं शेषेष्वपि यथाप्राप्तमुदाहर्त्तव्यम् ॥ भाषार्थ:– [चादिलोपे] चादियों के लोप होने पर प्रथम तिङन्त को [विभाषा ] विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता ॥ चादि से यहाँ न चवाहाहैवयुक्ते (८|१|२४) सूत्र में निर्दिष्ट च, वा, ह आदि शब्द गृहीत हैं, गणपठित चादि नहीं । लोप का तात्पर्य पूर्ववत् ही ‘जहाँ चादियों का अर्थ हो पर प्रयोग न हो’ यही लेना है । ह, अह आदि के लोप होने पर प्रथम तिङ् को विकल्प कहने से अनुदात्त वाले उदाहरण भी प्रयोग मिलने पर साधु समझने चाहिये || भवन्ति में एक पक्ष में अदुपदेश से परे ‘अन्ति’ को निघात होने से धातुस्वर से आद्युदात्त रहेगा, तथा पक्ष में अनुदात्त होगा ही । यजेत यहाँ ‘त’ को सार्वधातुकानुदात्तत्व करने से धातुस्वर से यजेत आबुदान्त है || यहाँ से ‘विभाषा’ की अनुवृत्ति ८|११६५ तक जायेगी || चैवावेति च च्छन्दसि ||८|१|६४ ॥ वैवाव लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ इति अ० ॥ च अ० ॥ छन्दसिपादः ] , अष्टमोऽध्यायः ५८३ ७|१|| स० - वैश्च वावश्व वैवाव, द्वन्द्वः ॥ अनु० - विभाषा, प्रथमा, तिङ् न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:-वै, वाव इत्येताभ्यां युक्ता प्रथमा तिविभक्तिर्विकल्पेन नानुदात्ता भवति छन्दसि विषये ॥ उदा० - अहर्वै देवानामासीत् रात्रीरसुराणामासीत् । पक्षे- अहर्वै देवानामासीत्, रात्रीरसुराणामासीत् । बृहस्पतिर्वै देवानां पुरोहित आसीत् ( पक्षे - आसीत् ) शण्डामर्कावसुराणाम् । वाव - अयं वाव ह आसीत् नेतर आसीत् । पक्षे-अयं वाव हस्त आसीत्, नेतर आसीत् । भाषार्थ:—[ वैवाव] वै तथा वाव [इति] इनसे युक्त (वाक्यस्थ ) प्रथम तिङन्त को [च] भी विकल्प से [ छन्दसि ] वेद विषय में अनुदात्त नहीं होता || प्रथम आसीत् का ‘आटू’ उदात्त रहेगा, तथा पक्ष में अनुदात्त होगा ही । आसीत् की सिद्धि सूत्र ७ | ३ |६६ में देखें ॥ । यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ८|११६५ तक जायेगी || एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम् ||८|१ | ६५ || एकान्याभ्याम् ३|२|| समर्थाभ्याम् ३|२|| स० – एकच अन्यश्च एकान्यौ ताभ्यां ‘इतरेतरद्वन्द्वः । समौ तुल्यावर्थौ ययोस्तौ समर्थौ ताभ्यां’‘‘बहुव्रीहिः ॥ अनु० - छन्दसि विभाषा, प्रथमा, तिङ्, न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थ:- एक, अन्य इत्येताभ्यां समर्थाभ्यां युक्ता प्रथमा तिङविभक्तिर्विभाषा नानुदान्ता भवति छन्दसि विषये ॥ उदा०– प्रजामेका जिन्वति ऊर्जमेका रक्षति । पक्षे - प्रजामेका जिन्वति ऊर्जमेका रक्षति । अन्य तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वन्ति (पक्षे - स्वाद्वत्ति), अन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भिचाकशीति (ऋ०

  • १।१६४।२० ) । भाषार्थ:- [समर्थाभ्याम् ] समान अर्थ वाले [ एकान्याभ्याम् ] एक तथा अन्य शब्दों से युक्त प्रथम तिङन्त को विकल्प से छन्द विषय में अनुदान्त नहीं होता || उदाहरणों में ‘एक’ तथा ‘अन्य’ दोनों समान = तुल्य अर्थ वाले हैं ।। जिवि (प्रीणनार्थक) धातु को इदित होने से नुम् (७/११५८) होकर लट् में शप् तिप् आकर जिन्वति बना है, सो पचति के समान धातुस्वर से जिन्वति पक्ष में आद्युदात्त है । अद धातु से अत्ति ५८४ अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ [ प्रथमः यह भी धातु स्वर से आद्युदात्त है । स्वादु + अत्ति स्वादुवन्ति । पक्ष में अनुदात्तत्व होगा ही || यद्वृचान्नित्यम् ||८|१|६६ ॥ यद्वृत्तात् ५|१|| नित्यम् १|१|| स०–यदो वृत्तं यद्वृत्तं तस्मात् षष्ठीतत्पुरुषः ॥ वर्त्ततेऽस्मिन्निति वृत्तम् ॥ किवृत्तञ्च० (८|१|४८) इत्यत्र प्रदर्शिता किंवृत्तशब्दस्य या व्युत्पत्तिस्तद्वदत्रापि ज्ञेया ॥ अनु० - तिङ्, न, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ॥ श्रर्थ:– यद्वृत्तादुत्तरं तिङन नित्यं नानुदान्तं भवति ॥ यद्वृत्तग्रहणेनात्र तदूविभक्त्यन्तं गृह्यते ॥ उदा०– यो भुङ्क्ते, यं भोजयति, येन भुङ्क्ते, यस्मै ददाति, यत्कामास्ते जुहुमः (ऋ० १०।१२१११० ) ॥ भाषार्थ : - [ यद्वृत्तात् ] यद्वृत्त शब्द से उत्तर तिङन्त को [ नित्यम् ] नित्य ही अनुदात्त नहीं होता । यद्वृत्त से यहाँ यद् शब्द से उत्पन्न जो विभक्तियाँ तविभक्त्यन्त शब्द लिये गये हैं । यद्वृत्त की व्युत्पत्ति ८|१|४८ सूत्र में दी हुई किंवृत्त की व्युत्पत्ति के समान जाने । स्वर सिद्धियाँ भी उसी सूत्र में देखें । जुहुमः हु धातु के लट् म में बना है, । सो प्रत्ययस्वर (३|१|३) से अन्तोदात्त यह शब्द है । पूजनात् पूजितमनुदाचम् ||८|१| ६७ ॥ पूजनात् ५|१|| पूजितम् १११ | अनुदान्तम् ||१|| अनु० - अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य | अर्थ:– पूजनात् परं पूजितमनुदात्तं भवति ॥ उदा० - काष्ठाध्यापकः, काष्टाभिरूपकः, दारुणाध्यापकः, दारु- णाभिरूपकः ॥ भाषार्थ:- [पूजनात् ] पूजनवाची शब्दों से उत्तर [पूजितम् ] पूजितवाची शब्दों को [ अनुदात्तम्] अनुदात्त होता है || दारुणम् अध्यापयतीति दारुणाध्यापकः, काष्टाभिरूपकः यहाँ दारुण काष्ठ आदि शब्द क्रियाविशेषण द्वितीयान्त हैं, सो यहाँ वैयधिकरण्य होने से समास नहीं हुआ है, किन्तु मलोपश्च ( वा० ८|१|६७ ) इस वार्त्तिक से दारुणम् काष्ठम् के मकार का लोप हुआ है ?, पश्चात् सवर्ण दीर्घत्व हो गया || १. उपपद समास यहाँ मानने पर कृदुत्तरपद स्वर का यह बाधक होगा, ऐसा समझना चाहिए ।दः] अष्टमोऽध्यायः । ५८५ ऋष्ठ शब्द अद्भुतवाची हैं, अतः पूजनवचनता है । अध्यापक अभि- रूपक शब्द पूजितवाची हैं ही । काष्टाध्यापकः अर्थात् काष्ठा’ तीमा = अन्त ( = किसी विषय की अन्तिम सीमा तक ) अर्थात् आश्चर्य- तनक पढ़ानेवाला | दारुण शब्द क्लिष्टवाची है, अतः अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ को पढ़ाने वाला ऐसा अर्थ होगा । अध्यापक, अभिरूपक शब्द ण्वुलन्त पं, अतः लितू स्वर की प्राप्ति थी, अनुदात्त कह दिया || यहाँ से ‘पूजनात् पूजितम्’ की अनुवृत्ति ८११६८ तक जायेगी || सगतिरपि तिङ् ||८|११६८ ॥ सगतिः १|१|| अपि अ० ॥ तिङ् १|१|| स०-गतिना सह सगतिः, हुव्रीहिः । तेन सहेति० (२२/२८) इत्यनेन समासः ॥ अनु० - पूजनात् । पूजितम्, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य || अर्थः- पूजनात् वरं सगतिरगतिरपि पूजितं तिङन्तमनुदात्तं भवति ॥ उदा० अगतिः - यत्काष्ठं पचति, यदारुणं पचति । सगतिः - यत्काष्ठं प्रपचति । प्रद्दारुणं प्रपचति ॥ सगतिग्रहणात् गतिरपि निहन्यते । भाषार्थ : - पूजनवाचियों से उत्तर [सगतिः ] गति सहित [तिङ् ] तिङन्त को तथा ( अपि ग्रहण से ) गतिभिन्न तिङन्त को [ प ] भी अनुदात्त होता है ॥ तिङ्ङतिङः (८|१|२८ ) से निघात प्राप्त ही था, पुनः निपातैर्यद्यदि० (८|१|३०) से निघात प्रतिषेध प्राप्त होने पर इस सूत्र का विधान है || भाष्यानुसार पूर्वोक्त मलोपश्च वार्त्तिक अतिङ् परे रहते ही प्रवृत्त होता है, अतः ‘यत्काष्ठं पचति’ आदि में मकार लोप नहीं हुआ || सगति ग्रहण से गतिसहित निघात होता है || यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८१६६ तक जायेगी || कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ || ८|१|६९ || कुत्सने ७|१|| च अ० ॥ सुपि ७|१|| अगोत्रादौ ७|१|| स० - गोत्र आदिर्यस्य स गोत्रादिः, बहुव्रीहिः । न गोत्रादिरगोत्रादिस्तस्मिन्नञ्- तत्पुरुषः ॥ अनु० - सगतिरपि तिङ्, अनुदात्तं सर्वमपादादौ, पदस्य | १. सूत्र वा गण में नपुंसकलिङ्ग काष्ठ शब्द भी काष्ठा = सीमा का वाचक है ऐसा समझना चाहिए । 1 ? ५८६ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ प्रथमः पदादत्र निवृत्तम् | अर्थ:- गोत्रादिवर्जिते कुत्सने च सुबन्ते परतः सगतिरगतिरपि तिङन्तमनुदात्तं भवति । उदा० - पचति पूर्ति, प्रपचति पूर्ति । पचति मिध्या, प्रपचति मिथ्या ।। भाषार्थ:– [ अगोत्रादौ ] गोत्रादि वर्जित (गणपठित शब्दों को छोड़कर) [कुत्सने] कुत्सन = निन्दावाची [सुपि] सुबन्त शब्दों के परे रहते [च] भी सगतिक एवं अगतिक (दोनों) तिङन्तों को अनुदात्त होता है | यहाँ से ‘पदात्’ अधिकार की अनुवृत्ति समाप्त हो गई है, अतः उदाहरणों में पद से उत्तर न होने से अगति में तिङ्ङतिङ : से निघात की प्राप्ति ही नहीं थी और सगति में प्र को मानकर तिङ् मात्र को निघात प्राप्त था, विधान कर दिया ।। पूति शब्द के ‘सु’ का स्वमोर्नपुं० (७/१२/२३) से लुक हुआ है । पचति पूर्ति अर्थात् खराब पकाती है, सो यहाँ उसकी क्रिया की कुत्सा = निन्दा हो रही है | गतिर्गतौ ॥८/१/७०|| गतिः १|१|| गतौ ७|१|| अनु० – अनुदान्तं सर्वमपादादौ, पदस्य || अर्थः- गतौ परतो गतिरनुदात्तो भवति ॥ उदा० - अ॒भ्युर्द्धरति समु॒दान॑यति, अ॒भि॒िसम्प॒र्याहरति ।। भाषार्थ:- [गतौ ] गति संज्ञक के परे रहते [गतिः ] गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता है || ‘अभि’ उपसर्ग को उपसर्गाश्चाभिवर्जम् सूत्र में निषेध करने से फिषोsन्त उदात्तः (फिट्० १) से अन्तोदात्त प्राप्त था, उत् गतिसंज्ञक के परे रहते अनुदान्त हो गया, पश्चात् यणादेश होने के कारण अभि का ‘अ’ ही अनुदान्त रहा, एवं ‘उत्’ का ‘उ’ उपसर्गाश्चाभिवर्जम् (फिट्० ८०) से उदात्त हो गया । समुदानयति में भी उपसर्गाश्चाभिवर्जम् से ही सम् के स को उदात्त प्राप्त था, आङ् गतिसंज्ञक के परे रहते सम् उत् दोनों को अनुदान्त हो गया, एवं आङ् पूर्ववत् उदान्त रहा। इसी प्रकार अभिसम्पर्याहरति में पूर्ववत् अभि को अन्तोदान्त प्राप्त था, आङ् परे रहते अभि, सम्, परि तीनों को अनुदान्त हो गया || यहाँ से ‘गतिः’ की अनुवृत्ति ८/११७१ तक जायेगी | तिङि चोदात्तवति || ८ | १/७१ ॥ तिङि ७|१|| च अ० ॥ उदात्तवति ७|१|| उदात्तोऽस्मिन्नस्तीति-पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ५८७ उदात्तवान् तस्मिन् ( मतुप्प्रत्ययः) ॥ अनु० - गतिः, अनुदात्तं सर्वम- पादादौ, पदस्य || अर्थ: - उदात्तवति तिङन्ते च परतो गतिरनुदात्तो भवति ॥ उदा० - यत् प्र॒पच॑ति, यत् प्रकरोति ॥ भाषार्थ : - [ उदात्तवति] उदात्तवान् [तिङि ] तिङन्त के परे रहते [च] भी गतिसंज्ञक को निघात होता है | उदाहरण में पचति, करोति तिङन्त को निपातैर्यद्यदि० (८१ (३०) अथवा यद्वत्तान्नित्यम् (८|१|६६ ) से निघात का प्रतिषेध हो जाने से उदात्तवान् हैं, अतः इनके परे रहते ‘प्र’ गतिसंज्ञक को अनुदात्त हो गया है, इस प्रकार उपसर्गाश्चा० (फिट्० ८०) से ‘प्र’ उदात्त नहीं हुआ । पचति करोति की स्वर सिद्धि परि० ८|१|३० में देखें || आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् ||८|१/७२ ॥ आमन्त्रितम् १|१|| पूर्वम् १|१|| अविद्यमानवत् अ० ॥ स०- न विद्यमानमविद्यमानम्, नन्तत्पुरुषः । अविद्यमानस्येव अविद्यमानवत् ॥ अनु० – पदस्य | अर्थः- आमन्त्रितं पदं पूर्वमविद्यमानवद् भवति, तस्मिन् सति यत् कार्यं प्राप्नोति तन्न भवति, असति यत्तद्भवतीत्यर्थः ॥ उदा० - देव॑त्त॒ यज्ञदत्त । दे॒व॑त्त॒ पच॑सि । देवदत्त तव ग्रामः स्वम् । देवदत्त मम ग्रामः स्वम् । यावद् देवदत्त पचसि । देवदत्त जातु पच॑सि । । आहो देवदत्त पचसि, उताहो देवदत्त पचसि । आम् भोः पसि देवदन्त || भाषार्थ:- किसी पद से (जिसे निघातादि कार्य कहे हों ) [पूर्वम् ] पूर्व [आमन्त्रितम् ] आमन्त्रितसंज्ञक पद हो तो वह आमन्त्रित पद [अविद्यमानवत्] अविद्यमान ( न होना) के समान माना जावे || अर्थात् उस आमन्त्रित को मानकर जो कार्य प्राप्त हो रहे हों, वे कार्य उसके अविद्यमानवत् होने से नहीं होते, एवं जो कार्य उसके न रहने पर प्राप्त होते हैं वे हो जाते हैं | देवदत्त यज्ञदत्त यहाँ दोनों ही पद आमन्त्रित संज्ञक (२|३|४८) हैं, सो आमन्त्रितस्य च (८|१|१६ ) से देवदत्त पद से उत्तर ‘यज्ञदत्त’ को निघात प्राप्त था, किन्तु पूर्व वाला आमन्त्रित पद देवदत्त, यज्ञदत्त की अपेक्षा से अविद्यमानवत् हो गया, तो पद से उत्तर न मिलने से ! ! thiri.h ५८८
  • एचः ६ | १ || अप्रगृह्यस्य ६ | १ || अदूरात् ५ | १ || हूते ७|१|| पूर्वस्य ६|१|| अर्धस्य ६ |१ || आत् १|१|| उत्तरस्य ६ |१|| इदुतौ १|२|| स०—- अप्रगृहास्य, अदूरात्, उभयत्र नन्नू तत्पुरुषः । इदुतौ इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनुप्लुतः ॥ श्रर्थः - अप्रगृह्यस्य एचोऽदूराद्भूते प्लुतविषये पूर्वस्या र्धस्य आकार आदेशो भवति स च प्लुतः, उत्तरस्येकारोकारौ आदेशौ भवतः ॥ उदा० - अगमः ३ पूर्वान् ग्रामा३न अग्निभूता३ इ, पटा३ उ । भद्रं करोषि माणवक ३ अग्निभूता३ इ, पटा३ उ । होतव्यं दीक्षितस्य: गृहा ३ इ | आयुष्मानेधि अग्निभूता ३ इ, पटा ३ उ । उक्षान्नाय वशा- नाय सोमपृष्ठाय वेधसे, स्तोमैर्विधेमाग्नया ३ इ (ऋ० ८।४३।११) ।। भाषार्थ:– [ अप्रगृह्यस्य ] अप्रगृह्यसंज्ञक [एच: ] एच, जो [अदूरा- जूते] दूर से बुलाने विषय में न हो तो प्लुत करने के प्रसङ्ग में उस एच ६४४ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ द्वितीयः के [पूर्वस्य अर्धस्य ] पूर्वार्ध भाग को [आत् ] आकारादेश होता है, और वह प्लुत होता है, तथा [ उत्तरस्य ] उत्तर वाले भाग को [इदुतौ ] इकार उकार आदेश होते हैं | ये एच् समाहार ( मिले हुये ) वर्ण हैं, ऐसा पूर्व सूत्र में कह चुके हैं, सो उनके पूर्व वाले आवे भाग को आकार एवं उत्तरभाग को इकार उकार हो गया। पूर्व सूत्रों से उदान्त अनुदात्त स्वरित जैसा प्लुत कहा है वैसा ही आकार आदेश यहाँ होता है । इकार उकार तो उदात्त ही होते हैं, (‘उदात्त’ के अधिकार से सम्बन्धित होने से) ऐसा जानना चाहिये । प्रथम उदाहरण में अनुदात्तं प्रश्ना० (८|२| १००) से प्लुत को अनुदात्त, द्वितीय में भी ( अभिपूजित में) इसी सूत्र से प्लुत को अनुदान्त हुआ है। तृतीय उदाहरण में विचार्यमाणानाम् (२७) से उदात्त प्लुत, चतुर्थ में प्रत्यभिवादेऽशूद्रे से तथा पञ्चम में याज्यान्तः के (८/२/६०) से उदात्त प्लुत हुआ है ऐसा जानें। भाष्य में इस सूत्र विषय का परिगणन कर दिया है, सो हमने भी तद्वत् ही उदाहरण दर्शा दिये हैं । तयोर्थ्यावच संहितायाम् ||८|२| १०८ || तयोः ६२ ॥ खौ ११२ ॥ अचि ७|१|| संहितायाम् ७|१|| स० यश्च वच खौ, इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु– प्लुतः ॥ अर्थः- तयोरिदुतोर्य- कारवकारादेशौ भवतोऽचि परतः याशा, पटा ३ वाशा, अग्ना ३ यिन्द्रम्, पटा ३ बुदकम् ॥ संहितायां विषये ॥ उदा० - अग्ना ३ M भाषार्थ:- [तयोः ] उनके अर्थात प्लुत के प्रसङ्ग में एच् के उत्तरार्ध को जो इकार उकार पूर्व सूत्र से विधान कर आये हैं, उन इकार उकार के स्थान में क्रमशः [ख] यू व् हो जाते हैं, [अचि] अच् परे रहते [संहिता- याम् ] सन्धि के विषय में || इको यणचि (६|१|७४ ) की दृष्टि में ये इकार उकार पूर्वत्रासिद्धम् से असिद्ध हैं, अतः इको याचि से यणादेश हो नहीं सकता था, इसलिये यह सूत्र बनाया ॥ अग्ने आशा, पटो आशा यहाँ पूर्व सूत्रोक्तानुसार प्रश्नान्त ( ८|२| १०० ) अभिपूजितादि किसी ८/२/१०० अर्थ में प्लुत होकर पूर्व सूत्र से आकारादेश एवं उत्तरार्ध को इकार उकार होकर ‘अग्ना ३ इ आशा, पटा ३ उ आशा’ रहा । प्रकृत सूत्र अच् परे रहते य् व् होकर अग्ना ३ याशा, पटा ३ वाशा आदि प्रयोग बन गये । अग्ना ३ इ इन्द्रम्, पटा ३ उ उदकम् यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः सेपादः ] अष्टमोऽध्यायः ६४५ ( ६ ११६७ ) की दृष्टिमें इ उ असिद्ध होने से सवर्णदीर्घ नहीं होता, इसी से यू व् आदेश हो जाते हैं ।। यहाँ से ‘संहितायाम्’ का अधिकार अध्याय की समाप्ति पर्यन्त ८|४|६७ तक जायेगा || ॥ इति द्वितीयः पादः ॥ -:०:– तृतीयः पादः मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि ||८|३ | १ || छन्दसि अनु-
  • खर्परे रहते [ विसर्जनीयस्य ] विसर्जनीय को [स] सकार आदेश होता है ॥ सत्व कर लेने पर यथायोग श्चुत्व ष्टुत्व हो ही जायेंगे || वस्तुतः खर् में से छ, ठ, थ, च, ट, त इनके परे रहते ही विसर्जनीय को सत्व होता है, क्योंकि अन्य अक्षरों के परे रहते अन्य आदेश कहेंगे || यहाँ से ‘विसर्जनीयस्य’ की अनुवृत्ति ८|३|५४ तक जायेगी || शपरे विसर्जनीयः || ८ | ३ |३५|| शर्परे ७|१|| विसर्जनीयः १|१|| स० - शर परो यस्मात् स शर्परस्त- स्मिन् बहुव्रीहिः ॥ अनु० - विसर्जनीयस्य संहितायाम् । पूर्ववत् खरी- त्यनुवर्त्तते ॥ अर्थः- शर्परे खरि परतो विसर्जनीयस्य विसर्जनीय आदेशो भवति || उदा० - शशः क्षुरम्, पुरुषः क्षुरम् । अद्भिः प्सातम्, वासः क्षौमम् । पुरुषः त्सरुः । घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् ॥ भाषार्थ:- [शर्परे] शर् (प्रत्याहार) परे है जिससे ऐसे खर के परे रहते विसर्जनीय को [विसर्जनीयः ] विसर्जनीय आदेश होता है । विस- र्जनीय को विसर्जनीय कहने से पूर्व सूत्र से प्राप्त सत्व एवं कुप्वो: ० ( ८ (३/३७) से प्राप्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय नहीं होते || सर्वन उदाहरणों में खर् से परे शत्रू = श, ष, स हैं ही ॥ यहाँ से ‘विसर्जनीयः’ की अनुवृत्ति ८|३|३७ तक जायेगी || वा शरि || ८|३ | ३६ || वा अ० ।। शरि ७७६॥ अनु० – विसर्जनीयः, विसर्जनीयस्य, संहिता- याम् ॥ अर्थ:– विसर्जनीयस्य विकल्पेन विसर्जनीयादेशो भवति शरि परतः ॥ उदा० – वृक्षः शेते, वृक्षश्शेते । प्लक्षः शेते, प्लक्षश्शेते । कवयः षट्, कवयष्षट् । धामिका: सन्तु, धार्मिकास्सन्तु ॥ || भाषार्थ : - विसर्जनीय को [वा] विकल्प से विसर्जनीय आदेश होता है, [शरि ] शर परे रहते || पक्ष में जब विसर्जनीय को विसर्जनीय नहीं हुआ तो यथाप्राप्त ८|३|३४ से सत्व हो गया, पश्चात् श्चुत्व ष्टुत्व हो ही जायेंगे ||पाद: 1 कुप्वोः अष्टमोऽध्यायः क पौ च ॥ ८|३|३७|| ६६३ कुत्रोः ७२॥ पौ|२|| च अ० ॥ स० - कुश्च पुश्च कुपू तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - विसर्जनीयः, विसर्जनीयस्य, संहिता- याम् ॥ अर्थ: - कवर्गे पवर्गे च परतो विसर्जनीयस्य यथासङ्ख्यं ( जिह्वा- मूलीयः) - ( उपध्मानीयः) इत्येतावादेशौ भवतः चकाराद्विसर्जनीयश्च ॥ उदा० – वृक्ष करोति, वृक्षः करोति । वृक्ष खनति, वृक्षः खनति । वृक्ष पचति, वृक्षः पचति । वृक्ष फलति, वृक्षः फलति ।। भाषार्थ :- [कुप्वोः ] कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते विसर्जनीय को यथा- सङख्य करके [पौ] क अर्थात् जिह्वामूलीय तथा प अर्थात् उपध्मानीय आदेश होते हैं, [च] तथा चकार से विसर्जनीय भी होता है । ‘क पौ’ यहाँ जिह्वामूलीय उपध्मानीय के चिह्नों के साथ क, एवं प को उच्चारणार्थ रखा है, वस्तुतः आदेश यही होते हैं । खरवसान० (८|३|१५) से खर् परे रहते विसर्जनीय होता है, अतः खर में से ही कवर्ग पवर्ग के अक्षर कौन २ हैं, देखते हैं, क्योंकि अन्यत्र विसर्जनीय होगा नहीं, इस प्रकार कवर्ग में कख तथा पवर्ग में प फ अक्षर ही परे मिलेंगे जिनके परे रहते विसर्जनीय को क्रमशः अर्थात् कवर्ग के क, ख परे रहते जिह्वामूलीय, एवं पवर्ग के प फ परे रहते उप- ध्मानीय आदेश होते हैं । यहाँ से ‘कुप्वो:’ की अनुवृत्ति ८|३|४६ तक जायेगी || सोऽपदादौ || ८ | ३ | ३८ || पदादिः, षष्ठी- परतो विसर्ज- सः ६|१|| अपदादौ ७|१|| स० - पदस्य आदि: तत्पुरुषः । न पदादिरपदादिस्तस्मिन् ‘‘नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० - विसर्ज - नीयस्य, कुप्वोः, संहितायाम् || अर्थः— अपदाद्योः कुप्वोः नीयस्य सकारादेशो भवति । उदा० पयस्पाशम्, पयस्कल्पम्, यशस्कल्पम् । पयस्कम्, यशस्कम् । यशस्काम्यति || यशस्पाशम् । पयस्काम्यति, भाषार्थ:- [ अपदादो] अपदादि (जो पद के आदि का नहीं) कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते विसर्जनीय को [सः ] सकारादेश होता है ॥ पूर्व : । ६६४ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ तृतीयः सूत्र का यह अपवाद है || याप्ये पाशप् (५|३|४७ ) से पयस्पाशम् में पाशप् प्रत्यय, तथा ईषदसमाप्तौ ० (५।३।६७) से पयस्कल्पम् में कल्पप् प्रत्यय हुआ हैं । पयस्क में प्रागिवात्कः ( ५।३।७०) से क तथा पय- स्काम्यति में काम्यच (३|११६ ) से काम्यच् प्रत्यय हुआ है । सर्वत्र पयस् यशस् के सू को रुत्व विसर्जनीय करके अपदादि विसर्जनीय होने से प्रकृत सूत्र से सू हो गया है । यहाँ से ‘सः’ की अनुवृत्ति ८|३|५४ तक ८|३|३९ तक जायेगी ॥ इणः षः || ८ | ३ | ३९॥ तथा ‘अपदादौ’ की इणः ५|१|| षः १|१|| अनु०-अपदादौ, कुप्वो:, विसर्जनीयस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ:- इण उत्तरस्य विसर्जनीयस्य षकारादेशो भवति, अपदायोः कुप्वोः परतः ॥ उदा० - सर्पिष्पाशम्, यजुष्पाशम् । सर्पिष्कल्पम्, यजुष्कल्पम् । सर्पिष्कम्, यजुष्कम् । सर्पिष्काम्यति, यजुष्काम्यति ॥ भाषार्थ:– [ इण: ] इण् से उत्तर विसर्जनीय को [ष] षकारादेश होता है, अपदादि कवर्गे पवर्ग के परे रहते ।। पूर्व सूत्र से सत्व प्राप्त था, इणू से उत्तर तदपवाद षत्व कह दिया || पूर्ववत् उदाहरणों में पाशपू आदि प्रत्यय हुये हैं, सो सर्पिस्, यजुस् के स् को विसर्जनीय होकर षत्व हो गया है ॥ यहाँ से ‘ष : ’ की अनुवृत्ति ८|३|४८ तक जायेगी | यहाँ से आगे ‘ष’ तथा ‘सः’ दोनों की अनुवृत्ति चलती है, सो इणू से उत्तर विसर्जनीय जहाँ हो, वहाँ ‘ष’ का सम्बन्ध तथा अन्यत्र ‘सः’ का सम्बन्ध लगेगा ऐसा जानें, तद्वत् ही अनुवृत्ति हम दिखायेंगे || नमस्पुरसोर्गत्योः || ८ | ३ | ४०॥ ||181318011. नमस्पुरसोः ६ |२|| गत्योः ६|२|| स० - नम० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, कुप्वोः, विसर्जनीयस्य, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थः– नमस् पुरस् इत्येतयोर्गतिसंज्ञकयोर्विसर्जनीयस्य सकारादेशो भवति, कुप्वोः परतः ॥ उदा० - नमस्कर्त्ता, नमस्कर्त्ताम्, नमस्कर्त्तव्यम् ||पादः ] अष्टमोऽध्यायः ६६५ भाषार्थ : - [ नमस्पुरसोः ] नमस् तथा पुरस् [गत्योः ] गतिसंज्ञक शब्दों के विसर्जनीय को सकारादेश होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते || नमस् की साक्षात्प्रभृतीनि च (१।४।७३ ) से तथा पुरस् की पुरोऽव्ययम् (१।४।६६ ) से गति संज्ञा होती है । नमः कर्त्ता = नमस्कर्ता ॥ इदुदुपधस्य चाप्रत्ययस्य || ८|३|४१ || इदुदुपधस्य ६|१|| च अ० ॥ अप्रत्ययस्य ६ | १ || स०– इच्च उच इदुतौ, इतरेतरद्वन्द्वः । इदुतौ उपधा यस्य स इदुदुपधस्तस्य ‘बहु- व्रीहिः । न प्रत्ययोऽप्रत्ययस्तस्य " नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० - षः, कुप्वोः विसर्जनीयस्य, संहितायाम् || अर्थः- इकारोपधस्य उकारोपधस्य चाप्रत्ययस्य विसर्जनीयस्य षकार आदेशो भवति, कुप्वोः परतः ॥ उदा० - निस् - निष्कृतम्, निष्पीतम् । दुस्- दुष्कृतम्, दुष्पीतम् । बहिस्- बहिष्कृतम्, बहिष्पीतम् | आविस्- आविष्कृतम्, आविष्पी - | तम् । चतुर् - चतुष्कृतम्, चतुष्कपालम्, चतुष्कण्टकम्, चतुष्कलम् । प्रादुस् — प्रादुष्कृतम्, प्रादुष्पीतम् ॥ भाषार्थ: - [ इदुदुपधस्य ] इकार और उकार उपधा में है जिसके ऐसे [ अप्रत्ययस्य ] प्रत्यय भिन्न विसर्जनीय को [च] भी षकार आदेश होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते ।। सर्वत्र उदाहरणों में निः, दुः आदि के विसर्जनीय से पूर्व अर्थात् उपधा में इकार उकार हैं, अतः षत्व हो गया हैं । सू को रुत्व विसर्जनीय, तत्पश्चात् षत्व करने की प्रक्रिया पूर्ववत् है | तिरसोऽन्यतरस्याम् ||८|३ | ४२ ॥ तिरसः ६ |१२|| अन्यतरस्याम् ७|१|| अनु० - सः, कुप्वोः, विसर्ज- नीयस्य, पदस्य, संहितायाम् । नमस्पुरसोर्गत्योः ( ८1३३४० ) इत्यतः गतेरित्यनुवर्त्तते, मण्डूकप्लुतगत्या | अर्थः - तिरसो विसर्जनीयस्य विकल्पेन सकारादेशो भवति, कुप्वोः परतः ॥ उदा० - तिरस्कर्त्ता, तिरस्कत्तुम्, तिरस्कत्तु व्यम्। तिरःकर्ता, तिरः कर्त्तम्, तिरः कर्त्तव्यम् ॥ भाषार्थ :- [तिरस: ] तिरस् के विसर्जनीय को [ अन्यतरस्याम् ] विकल्प करके सकारादेश होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते || तिरस् की तिरोऽन्तर्धी (१|४/७०) से गति संज्ञा है । पक्ष में विसर्जनीय ही रहेगा | कुप्वो: ० (८|३|३७ ) की प्राप्ति में यह सूत्र है || यहाँ से ‘अन्यतरस्याम्’ की अनुवृत्ति ८ | ३ | ४४ तक जायेगी ||

:
६६६
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
द्विस्त्रिचतुरिति कृत्वोऽर्थे || ८|३ | ४३ ॥
[" तृतीयः
द्वित्रिश्चतुः अविभक्त्यन्तनिर्देशः ॥ इति अ० ॥ कृत्वोऽर्थे ७|१|| स०-द्विश्च त्रिश्च चतुश्च द्वित्रिश्चतुः समाहारद्वन्द्वः । कृत्वसः अर्थः कृत्वोऽर्थस्तस्मिन् ‘‘षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - अन्यतरस्याम्, षः, कुप्वोः, पदस्य, विसर्जनीयस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ:– द्विस्, त्रिस्, चतुर् इत्येतेषां कृत्वोऽर्थे वर्त्तमानानां विसर्जनीयस्य विकल्पेन षकार आदेशो भवति, कुप्वोः परतः ॥ उदा० - द्विष्करोति, द्विः करोति । त्रिष्करोति, त्रिः करोति । चतुष्करोति, चतुः करोति । द्विष्पचति, द्विः पचति । त्रिष्पचति, त्रिः पचति । चतुष्पचति, चतुः पचति ।।
भाषार्थ:- [क्कृत्वोऽर्थे] कृत्वसुच् के अर्थ में वर्त्तमान [ द्विस्त्रिश्चतुः ] द्विस्, त्रिस् तथा चतुर् [इति] इनके विसर्जनीय को षकारादेश विकल्प करके होता है, कवर्ग पवर्गे परे रहते । द्वि, त्रि तथा चतुर् शब्दों से द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच् (५|४|१८) से सुच् प्रत्यय होकर द्विस्, त्रिस्, चतुस् बनता है । चतुर सुच् = चतुर् स् यहाँ सुच् के स् का रात्सस्य ( ७/४/२४) से लोप होकर चतुर् - चतुः बना, पश्चात् इस विसर्जनीय को करोति पचति परे रहते षत्व हो गया ||
इसुसोः सामर्थ्य || ८ | ३ | ४४ ॥
इसुसोः ६ |२|| सामर्थ्यं ७|१|| स० - इस् च उस् च इसुसौ, तयोः ‘इतरेतरद्वन्द्वः ॥ समर्थस्य भावः सामर्थ्यम् तस्मिन् ब्राह्मणा- दित्वात् (५।१।१२३ ) यन् ॥ अनु० अन्यतरस्याम्, षः, कुप्वोः, विसर्जनीयस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ:–इस् उस् इत्येतयोर्विसर्जनीयस्या- न्यतरस्यां षकारादेशो भवति, सामर्थ्य सति कुप्वोः परतः ॥ उदा०- सर्पिष्करोति, सर्पिः करोति । यजुष्करोति यजुः करोति ॥
भाषार्थ : - [ इसुसो : ] इस् तथा उस के विसर्जनीय को विकल्प से षकारादेश होता है [सामर्थ्ये] सामर्थ्य होने पर, कवर्ग पवर्ग परे रहते ।। अभिप्राय यह है कि इसन्त उसन्त शब्द (जिसका विसर्जनीय हुआ है)
१. इतिग्रहणं स्वरूपनिर्देशार्थम्, स्वरूपनिर्देशाय चाविभक्त्यन्तो निर्देशः । यद्वा ‘इतिना’ इति शुक्लयजुः प्रातिशाख्ये वर्णानामितिना निर्देशः क्रियते तथेहापि निर्देशार्थ इति शब्दः तेन चाविभक्त्यन्तः ।पाद: 7
अष्टमोऽध्यायः
६६७
का कवर्ग पवर्गादि शब्द जो कि परे हैं, उनके साथ परस्पर सामर्थ्य = सम्बद्धार्थता होने पर षत्व हो । सर्पिस् यजुस् शब्द इसन्त उसन्त हैं ही ॥
यहाँ से ’ इसुसो : ’ की अनुवृत्ति ८|३|४५ तक जायेगी ||
नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य || ८ | ३ | ४५ ||
नित्यम् १|१|| समासे ७|१|| अनुत्तरपदस्थस्य ६ |१|| स० - उत्तरपदे तिष्ठतीति उत्तरपदस्थः, तत्पुरुषः । न उत्तरपदस्थोऽनुत्तरपदस्थस्तस्य नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० - इसुसोः, षः, कुप्वो, विसर्जनीयस्य, संहिता- याम् | अर्थ:-समासे इसुसोरनुत्तरपदस्थस्य विसर्जनीयस्य नित्यं षत्वं भवति कुप्वोः परतः ॥ उदा० - सर्पिषः कुण्डिका - सर्पिष्कुण्डिका, धनुष्कपालम्, सर्पिष्पानम्, धनुष्फलम् ॥
भाषार्थ:- [अनुत्तर पदस्थस्य ] अनुत्तरपदस्थ (जो उत्तरपद में स्थित न हों) इस् उस् के विसर्जनीय को [समासे ] समास विषय में [ नित्यम् ] नित्य ही पत्व होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते ||
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८ | ३ | ४७ तक जायेगी ||
अतः कुक
भिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णीष्वनव्ययस्य || ८|३|४६ ॥
अतः ५|१|| कुकमि कर्णीषु ७|३|| अनव्ययस्य ६ | १ || स० – कृ च कमिश्च कंसश्च कुम्भश्च पात्रञ्च कुशा च कर्णी च कृकमि ‘कण्येस्तेषु… इतरेतरद्वन्द्वः । न अव्ययमनव्ययं तस्य नन्तत्पुरुषः ॥ ऋनु० नित्यं समासे ऽनुत्तरपदस्थस्य, सः, विसर्जनीयस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ:- अकारादुत्तरस्य समासेऽनुत्तरपदस्थस्यानव्ययस्य विसर्जनीयस्य नित्यं सकारादेशो भवति कृ, कमि, कंस, कुम्भ, पात्र, कुशा, कर्णी इत्येतेषु परतः ॥ उदा० - कृ — अयस्कारः, पयस्कारः । कमि-अयस्कामः पयस्कामः । कंस - अयस्कंसः पयस्कंसः । कुम्भ - अयस्कुम्भः पयस्कुम्भः । पात्र- अयस्पात्रम्, पयस्पात्रम् । कुशा - अयस्कुशा, पयस्कुशा । कर्णी - अयस्कर्णी, पयस्कर्णी ।
2
भाषार्थः - [अतः ] अकार से उत्तर समास में जो अनुत्तरपदस्थ [ अनव्ययस्य ] अनव्यय का विसर्जनीय उसको नित्य ही सकारादेश
६६८
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
होता है, [कृकमि कर्णीषु ] कृ, कमि (धातु) कंस, कुम्भ, पात्र, कुशा कर्णी इन २ शब्दों के परे रहते || कुप्वोः - पौ च (८|३|३७ ) की
प्राप्ति में ही इस प्रकरण से सत्व, षत्व कहा गया है, अतः यह सूत्र भी तदपवाद है ||
अधः शिरसी पदे || ८ | ३ | ४७||
अधः शिरसी १२, षष्ठ्यर्थे प्रथमाऽत्र ॥ पदे ७|१|| स० - अधस् च शिरस् च अधः शिरसी, इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - नित्यं समासेऽनु- त्तरपदस्थस्य, सः, विसर्जनीयस्य, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ:- अधस्, शिरस् इत्येतयोर्विसर्जनीयस्य समासेऽनुत्तरपदस्थस्य सकार आदेशो भवति पदशब्दे परतः ॥ उदा० - अधस्पदम्, शिरस्पदम् । अधस्पदी, शिरस्पदी ||
भाषार्थ :- समास में अनुत्तरपदस्थ [ अधः शिरसी ] अधस् तथा शिरस के विसर्जनीय को सकार आदेश होता है, [पदे] पद शब्द परे रहते || अधस्पदम् तथा शिरस्पदम् में षष्ठी तत्पुरुष समास हुआ है ||
कस्कादिषु च || ८ | ३ | ४८ ॥
5
कस्कादिषु ७ १३ ॥ च अ० ॥ स० – करक आदियेषां ते कस्काद- यस्तेषु बहुव्रीहिः ॥ अनु० सः, षः, कुप्वोः विसर्जनीयस्य, पदस्य, संहितायाम् || अर्थः – कस्कादिषु गणपठितेषु च विसर्जनीयस्य सकार: षकारो वा यथायोगमादेशो भवति, कुप्वोः परतः ॥ उदा० - कस्कः, कौतस्कुतः, भ्रातुष्पुत्रः ॥
भाषार्थः – [ कस्कादिषु ] कस्कादि गणपठित शब्दों के विसर्जनीय को [च] भी सकार अथवा षकार आदेश यथायोग से होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते || इण ष: ( ८|३|३९) सूत्र में कहे अनुसार इण् से उत्तर जहाँ होगा, वहाँ विसर्जनीय को षकार तथा अन्यत्र सकार होगा । कस्क: में किम् को क (७/२११०३) आदेश होकर ‘कः’ को वीप्सा में द्वित्व तथा कौतस्कुतः में कुतः को बीप्सा में द्वित्व हुआ है, पुनः उसी विसर्जनीय को सत्व हो गया । कुतस्कुतः होकर तत श्रागत: तथा अव्ययानां च० ( वा० ६ |४|१४४ ) से कुतस्कुतः
(
४ | ३ |७४ ) से अणू (४।३/७४)
के
टि भाग ‘अ’ कापादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६६६
लोप होकर कौतस्कुतः बना है || भ्रातुष्पुत्रः में ऋतो विद्या (६|३|२१) से षष्ठी का अलुक् होकर घत्व हुआ है ||
छन्दसि वाऽप्रात्रे डितयोः || ८ | ३ | ४९||
छन्दसि ७|१|| वा अ० ॥ अप्राम्रेडितयोः ७|२|| स० - प्रश्च आम्रेडितञ्च प्राम्रेडिते, न प्राम्रेडिते अप्राम्रेडिते तयो:’ ‘द्वन्द्वगर्भनन्- तत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, कुप्योः, पदस्य, संहितायाम् | अर्थ:- प्रशब्दम् आम्रेडितञ्च वर्जयित्वा कुप्वोः परतश्छन्दसि विषये विसर्जनीयस्य वा सकारादेशो भवति ॥ उदा० - अय: पात्रम्, अयस्पात्रम् । विश्वतः- पात्रम्, विश्वतस्पात्रम् । उरुणः कारः, उरुणस्कारः ॥
भाषार्थ:– [प्राम्रेडितयो: ] प्र तथा आम्रेडित को छोड़कर जो कवर्ग तथा पवर्ग परे हों तो [छन्दसि ] वेद विषय में विसर्जनीय को [वा] विकल्प से सकारादेश होता है || अयःपात्रम् आदि में षष्ठीतत्पुरुष समास कर लेने पर ऋतः कृकमि० (८|३|४६ ) से नित्य सत्व प्राप्त था विकल्प कर दिया । ‘उरुण:’ यहाँ उरु शब्द से उत्तर अस्मद् को बहुवचनस्य वस्नसौं (८१/२१ ) से नस् आदेश, तथा नश्च धातुस्थो० (८/४/२६ ) से णत्व एवं विसर्जनीय होकर उरुणः कारः बना । पक्ष में सत्व होकर उरुणस्कारः बन गया ||
यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ८|३|५४ तक जायेगी ||
कः करत्करतिकृधिकृतेष्वनदितैः || ८|३|५० ||
कः करत्’ ’ ‘कृतेषु |३|| अनदितेः ६|१|| स० - कः कर० इत्यत्रेतरे- तरद्वन्द्वः । न अदितिरनदितिस्तस्य’’ ‘नञ् तत्पुरुषः ॥ अनु० - छन्दसि, सः, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थः कः, करत, करति, कृधि, कृत इत्येतेषु परतोऽनदितेर्विसर्जनीयस्य सकारादेशो भवति छन्दसि विषये ॥ उदा- कः — विश्वतस्कः । करतू— विश्वतस्करत् । करति–पयस्करति । कृधि– उरुणस्कृधि (ऋ०८१७५१११) कृत - सदस्कृतम् ॥
भाषार्थ : – [कः क तेषु ] कः, करतू, करति, कृधि, कृत इनके परे रहते [अनदितेः] अदिति को छोड़कर जो विसर्जनीय उसको सकारादेश होता है वेद विषय में || ‘कः’ कृ का लुङ् में चिल का लुकू (२|४|८०) बहुलं० (६।४।७५) से अडभाव, गुण एवं ६ |१|६६ से तिप का तू लोप
६७०
करके रूप है ||
तथा नश्च धातु०
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
नस् आदेश (८/११२१ ) के विसर्जनीय को यहाँ रुत्व (८|४| २६ ) से न् को णू हुआ है । (८|४|२६)
पञ्चम्याः परावध्यर्थे || ८ | ३ | ५१ ||
पञ्चम्याः ६ | १ || परौ ७|१|| अध्यर्थे ७|१|| स० – अधेरर्थोऽध्यर्थः, तस्मिन् षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - छन्दसि सः, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ :- अध्यर्थे वर्त्तमानो यः परिस्तस्मिन् परतः पञ्चमीविसर्जनीयस्य सकारादेशो भवति छन्दसि विषये ॥ उदा०– दि॒वस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञे (ऋ० १०/४५।१) अग्निर्हिमवतस्परि । दिवस्परि, महस्परि ॥
भाषार्थ : - [ अध्यर्थे ] अधि के अर्थ में वर्त्तमान जो [परौ ] परि उपसर्ग उसके परे रहते [पञ्चम्याः] पञ्चमी के विसर्जनीय को सकारादेश होता है, वेद विषय में ॥ अधि ऊपर अर्थ में है, सो यहाँ उदाहरण में ‘परि’ अधि के अर्थ में अर्थात् ऊपर अर्थ में है । दिवस्परि अर्थात् अग्नि पहले द्यौ लोक से परि= ऊपर उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार ‘अग्नि हिमवान से ऊपर ऐसा अर्थ है ||
यहाँ से ‘पञ्चम्याः’ की अनुवृत्ति ८|३|५२ तक जायेगी ||
पातौ च बहुलम् ||८|३|५२ ॥
पाती ७|१ || च अ० ॥ बहुलम् १|१|| अनु० - पञ्चभ्याः, छन्दसि, सः, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थः- पातौ च धातौ परतः पञ्चमीविसर्जनी- यस्य बहुलं सकार आदेशो भवति छन्दसि विषये || उदा०-दिवस्पातु । राज्ञस्पातु । बहुलग्रहणात् न च भवति - परिषदः पातु ||
भाषार्थ:– [पाती | पा धातु के प्रयोग परे हों तो [च] भी पञ्चमी के विसर्जनीय को [ बहुलम् ] बहुल करके सकार आदेश होता है, वेद विषय में ||
षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु || ८ | ३ |५३ ||
षष्ठ्याः ६१ ॥ पतिषेषु ७ | ३ || स० - पति० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्व ॥ अनु० – छन्दसि सः, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ - पति, पुत्र, पृष्ठ, इत्येतेषु परतश्छन्दसि विषये षष्टीविसर्जनीयस्य उदा० - पति - वाचस्पतिं वि॒श्वक॑र्माणमृतये
पार, पद, पयस्, पोष सकारादेशो भवति ||अष्टमोऽध्यायः
६७१
पादः ] (ऋ० १०१८।७)। पुत्र - दिवस्पुत्राय॒ सूर्याय (ऋ० १०/३७३१) । पृष्ठ- दिवस्पृष्ठे धावमानं सुपर्णम् । पार– अगन्म तमसस्पारम् । पद — इडस्पदे समिध्य से (ऋ० १० १६१|१) । पयस् - सूर्य चक्षुदिवस्पयः । पोष - रायस्पोषं यजमानेषु धत्तम् (ऋ० ८१५९/७ ) ||
भाषार्थ:- [ पति पोषेषु ] पति, पुत्र, पृष्ठ, पार, पद, पयस्, पोष इन शब्दों के परे रहते वेद विषय में [ षष्ठ्याः ] षष्ठी विभक्ति के विसर्जनीय को सकारादेश होता है || सर्वत्र षष्ठी विभक्ति के विसर्जनीय को सत्व हुआ है । वाचः पतिम् = वाचस्पतिम् अर्थात् वाणी का स्वामी ||
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८ | ३ |५४ तक जायेगी ||
इडाया वा || ८|३ | ५४॥
इडायाः ६ |१|| वा अ० ॥ अनु० – षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठ पारपदपय- स्पोषेषु, छन्दसि सः, पदस्य, संहितायाम् ॥ अर्थ :- इडायाः षष्टी - विसर्जनीयस्य वा सकार आदेशो भवति पतिपुत्रादिषु परतः, छन्दसि विषये || उदा० - इडायास्पतिः, इडायाः पतिः । इडायास्पुत्रः, इडाया:- पुत्रः । इडायास्पृष्टम्, इडायाः पृष्ठम् । इडायास्पारम्, इडायाः पारम् । इडायास्पदम्, इडायाः पदम् । इडायास्पयः, इडायाः पयः । इडायास्पो- षम्, इडायाः पोषम् ॥
भाषार्थ:- [ इडायाः ] इडा शब्द के षष्ठी विभक्ति के विसर्जनीय को [ar] विकल्प से सकार आदेश होता है पति, पुत्र, पृष्ठ, पार, पद, पयस्, पोष शब्दों के परे रहते वेद विषय में || पूर्व सूत्र से नित्य सत्व प्राप्त था, विकल्पार्थ यह सूत्र है ||
अपदान्तस्य मूर्धन्यः || ४ | ३ |५५ ||
अपदान्तस्य ६ | १ || मूर्धन्यः १|१|| स० - पदस्य अन्तः पदान्तः,
|१ षष्ठीतत्पुरुषः । न पदान्तोऽपदान्तस्तस्य ‘नञ्तत्पुरुषः ॥ मूर्धनि भवो मूर्धन्यः, शरीरावयवाद्यत् ( ५११६ ) इति यत्प्रत्ययः ॥ अर्थः- आ पादपरिसमाप्तेरपदान्तस्य मूर्धन्यादेशो भवतीत्यधिकारो वेदितव्यः ॥ उदा० - वक्ष्यति - आदेशप्रत्यययोः । सिषेच, सुष्वाप । अग्निषु, वायुषु ॥
भाषार्थ :- [ अपदान्तस्य ] अपदान्त को [ मूर्धन्यः ] मूर्धन्य आदेश होता है, ऐसा अधिकार पाद की समाप्ति पर्यन्त ( ८|३|११६) जाता है, ऐसा जानना चाहिये ||
६७२
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
मूर्धन्य से अभिप्राय मूर्धा से बोले जाने वाले अक्षर से है, सो ‘स्’ का मूर्धन्य ‘बू’ आदेश उदाहरणों में हुआ है ||
पिचिर क्षरणे विष्वप् शये से लिट् में धात्वादेः षः सः ( ६ |१| ६२ ) से षू को स् होकर सिषेच, सुष्वाप बना है । स्वपू के अभ्यास को लिट्यभ्यास ० (६।१।१७ ) से सम्प्रसारण होकर सुखप् ण = सु स्वाप अ, सि सेच् अ रहा । अब यहाँ धात्वादेः षः सः से पू को स् होने से आदेश का स् मानकर आदेशप्रत्य० से मूर्धन्य आदेश होकर सिषेच सुष्वाप बन गया । अग्निषु वायुषु में प्रत्यय का स् मानकर षत्व हुआ है ||
सहेः साडः सः || ८|३|५६ ॥
सहे : ६|१|| साडः ६|१|| सः १|१|| अनु० - अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ श्रर्थ:- सहेर्धातोर्यत् सारूपं तस्य सकारस्य मूर्धन्य आदेशो भवति । उदा० - जलाषाट्, तुराषाट्, पृतनाषाट् ॥
भाषार्थः - [सहे:] सह धातु का बना हुआ जो [साङ: ] साडू रूप उसके [स] सकार को भूर्धन्य आदेश होता है || जल इत्यादि उपपद रहते सह धातु से छन्दसि सह : (३२२२२३) से ण्वि होकर एवं सहू की उपधा को वृद्धि तथा हो ढः (८/२/६१ ) से ढत्व, तथा जश्त्व होकर ‘साडू’ रूप बना है, उसीको यहाँ षत्व हुआ है । अन्येषामपि (६।३।१३५) से जल आदि को दीर्घ होकर जलापाद, तुराषाट् पृतना षाट् बन गया ||
यहाँ से ‘सः’ की अनुवृत्ति ८|३|११९ तक जायेगी ||
इण्कोः || ८|३|५७||
इण्को: ५|१|| स० - इण् च कुश्च इण्कु तस्मात् समाहारद्वन्द्वः | अर्थः- इतोऽग्रे वक्ष्यमाणानि कार्याणि इण्कवर्गाभ्यामुत्तरस्य भवन्तीत्य धिकारो वेदितव्यः, आपादपरिसमाप्तेः ॥ कु इत्यनेन कवर्गस्य ग्रहणम् इणू इत्यनेन परणकारेण प्रत्याहारो गृह्यते || उदा० - सिषेच, सुष्वाप अग्निषु, वायुषु, कर्त्तृषु, गीषु, वाक्षु, त्वक्षु ॥पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६७३
भाषार्थ : - यह अधिकार सूत्र है । यहाँ से आगे जो भी कार्य कहेंगे वे [इएको: ] इण् और कवर्ग से उत्तर होते हैं, ऐसा अधिकार पाद की समाप्ति पर्यन्त जानना चाहिये || अग्निषु आदि में इणू से उत्तर तथा वाक्षु त्वक्षु में कवर्ग से उत्तर के उदाहरण हैं । वाचू त्वच् के च को चोः कुः (८/२/३०) से कू हुआ है, सो सर्वत्र प्रदेशप्र० (८२३५६ ) से षत्व हो गया । इण् से पर णकार (ल तक के) वाले प्रत्याहार का ग्रहण है || नुम्विसर्जनीयर्व्यवायेऽपि || ८|३|५८ ||
नुम्वि वाये ७|१|| अपि अ० ॥ स० - नुम् च विसर्जनीया शर् च नुम्बिशरः, इतरेतरद्वन्द्वः । नुम्विसर्जनीयशर्भिः व्यवायः तुम्बि शर्व्यवायस्तस्मिन् तृतीयातत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् | अर्थ:– नुम्व्यवायेऽपि विसर्जनीय व्यवायेऽपि शर्व्यवायेऽपि इण्कोरुत्तरस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति || उदा०- नुम्व्यवाये - सर्पषि, यजूंषि, हवींषि । विसर्जनीयव्यवाये - सर्पिः षु, यजुःषु, हविःषु । शर्व्यवाये सर्विष्णु, यजुष्षु, हविष्षु ||
भाषार्थ:- [नुम्वि ‘वाये ] नुम्, विसर्जनीय तथा शर ( प्रत्याहार) का व्यवधान होने पर [प] भी इण् तथा कवर्ग से उत्तर सकार को मूर्धन्य आदेश होता है || अभिप्राय यह है कि इण् और कवर्ग से उत्तर जिसे षत्व करना है उसके मध्य में नुम् आदि का व्यवधान हो तो भी पत्व हो जाये ।। सर्पषि आदि में सर्पिस् शब्द से जश्शसोः शिः (७|११२०) से शि तथा नपुंसकस्य झलचः (७१।७२) से नुम् एवं सान्तमहत: ० (६।४।१०) से दीर्घ होकर ‘सर्प न स ई’ रहा। अब यहाँ नुम् के व्यवधान में भी षत्व तथा न् को अनुस्वार ( ८1३/२४) होकर सर्पषि बन गया । सर्पिःषु आदि में वा शरि से पक्ष में स् को विसर्जनीय तथा पक्ष में सत्व ( ८1३1३४) होकर सर्पिष्षु बना है । इनके व्यवधान में भी षत्व कर लेने पर सर्पिष्षु आदि में मध्य के स् को ष ( ८|४|४०) भी हो गया || यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८|३|११६ तक जायेगी ||
आदेशप्रत्यययोः || ८|३|५९ ॥
आदेशप्रत्यययोः ६ |२|| स० - आदेशश्च प्रत्ययश्च आदेशप्रत्ययौ तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि सः,
४३
!
!
६७४
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- इण्कवर्गाभ्यामु
|| त्तरस्य आदेशो यः सकारः प्रत्ययस्य च यः सकारस्तस्य मूर्धन्यादेशो भवति, संहितायाम् ॥ उदा० - आदेशस्य - सिषेच, सुष्वाप । प्रत्ययस्य- अग्निषु, वायुषु कर्त्तृषु, हर्त्तृषु ।।
भाषार्थ : - इणू तथा कवर्ग से उत्तर [ आदेशप्रत्यययोः ] आदेश रूप जो सकार तथा प्रत्यय का जो सकार उसे मूर्धन्यादेश होता है || सिद्धियाँ ८।३।५५ सूत्र पर आ चुकी हैं ।।
शासिवसिघसीनां च ||८|३|६०॥
शासिवसिघसीनाम् ६|३|| च अ० || स० - शासिश्च वसिव घसिच शासिवसिघसयस्तेषां इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- शासि, वसि, घसि इत्येतेषां च सकारस्य इण्कोरुत्तरस्य मूर्धन्यादेशो भवति || अनादेशार्थमिदं सूत्रम् ॥ उदा०- शासि - अन्वशिषत्, अन्वशिषताम्, अन्वशिषन् । शिष्टः शिष्टवान् । वसि - उषितः, उषितवान् उषित्वा । घसि - जक्षतुः, जक्षुः, अक्षन्नमी.
1 मदन्त पितरः ॥
भाषार्थ : - इण् तथा कवर्ग से उत्तर [शासि सीनाम् ] शासु वस तथा घस् के सकार को [च] भी मूर्धन्य आदेश होता है || आदेश का स् न होने से पूर्व सूत्र से पत्व प्राप्त नहीं था, विधान कर दिया || अशिषत् की सिद्धि परि० ३ | ११५६ में तथा शिष्टः शिष्टवान् की सूत्र ६ | ४ | ३४ में देखें । उषितः उषितवान् में वचिस्वपि ० (६।१।१५) से
। सम्प्रसारण एवं वचिस्वपि० (७/२/५२ ) से इट् हुआ है । जतुः जक्षुः तथा अक्षन् कीसिद्धि परि० २।१।५७ में देखें । घसि से यहाँ घरल अढ़ने धातु तथा घरऌ आदेश दोनों का ही ग्रहण है ||
11
स्तौतिण्योरेव पण्यभ्यासात् ||८|३|६१ ||
स्तौतिण्योः ६|२|| एव अ० ।। षणि ७|१|| अभ्यासात् ५|१|| स० – स्तौतिश्च णिश्च स्तौतिणी तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थः- अभ्यासादिण उत्तरस्य स्तोतेर्ण्यन्तानां च षत्वभूते सनि परत आदेश सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ॥ उदा० - तुष्टूषति । ण्यन्ता- नामू- सिषेचयिषति । सिपञ्जयिषति, सुष्वापयिषति ||पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६७५
भाषार्थ:-[अभ्यासात् ] अभ्यास के इणू से उत्तर [ स्तौतिरयोः ] स्तु (ष्टुम् ) तथा ण्यन्त धातुओं के आदेश सकार को [ एव] ही षत्वभूत [षणि] सन् परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है || आदेश का सकार होने से आदेश प्रत्य० (८२३१५६ ) से ही षत्व सिद्ध था पुनः यह सूत्र नियमार्थं है, अर्थात् - षत्वभूत सन् के परे रहते तथा अभ्यास के इण् से उत्तर यदि षत्व हो तो स्तौति एवं ण्यन्त धातुओं को ही हो, अन्यों को नहीं, सो सिसिक्षति में नहीं होता । सन् को षत्व णत्व करके सूत्र में ‘षणि’ निर्देश किया है ।। तुष्टूषति की सिद्धि परि० ९२राह में तथा सुष्वापयिषति की सूत्र ७|४ | ६७ में देखें । इसी प्रकार षि से सिचू सेचयि ष = सिषेचयिषति एवं षन्ज से सिपञ्जयिषति बनेगा । पन्ज के अभ्यास को सन्यतः (७७४।७६ ) से इत्व होता है, तथा स्तो:
चुना० से न् को न् हुआ है ||
यहाँ से ‘णे : ’ षण्यभ्यासात्’ की अनुवृत्ति ८|३ | ६२ तक जायेगी ||
सः स्विदिस्वदिसहीनां च || ८|३ | ६२ ॥
सः २ १|१|| स्विदिस्वदिसहीनाम् ६|३|| च अ० ॥ स० - स्विदि० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - णेः षण्यभ्यासात्, सः, इण्कोः, अप- दान्तस्य संहितायाम् || अर्थ:- अभ्यासादिण उत्तरस्य स्विदि, स्वदि, सहि इत्येतेषां ण्यन्तानां सकारस्य सकारादेशो भवति षत्वभूते सनि परतः ॥ उदा० - सिस्वेदयिषति । सिस्वादयिषति । सिसाहयिषति ॥
भाषार्थः - अभ्यास के इणू से उत्तर [स्विदि “हीनाम् ] निष्विदा ध्वद तथा वह इन ण्यन्त धातुओं के सकार को [सः] सकारादेश होता है, षत्वभूत सन् के परे रहते [च] भी ॥ धात्वादेः षः सः (६ |१| ६२ ) से धातुओं के षू को स् हुआ है, अतः आदेश का सकार मानकर पूर्व से षत्व प्राप्त था, सकार को सकार ही कह देने से उसकी निवृत्ति हो गई ||
सूत्र
प्राक्सितादडव्यवायेऽपि || ८ | ३ | ६३ ||
प्राक् अ० ॥ सितात् ||१|| अड्व्यवाये ७|१|| अपि अ० ॥ स०-
१. एकस्य पदस्यानुवृत्तत्वादेकवचनम् ॥
२. न्यासपदमञ्जर्योः ‘स स्विदि’ पाठः । तथाऽविभक्त्यन्तम् ।
६७६
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
अटा व्यवाय: अड्व्यवायस्तस्मिन् तृतीया तत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ :- प्राक् सितशब्दाद्
|| अव्यवायेऽपि मूर्धन्यो भवति अपि ग्रहणादनव्यवायेऽपि ॥ उदा०- वक्ष्यति उपसर्गात् सुनोति० (८१३१६५ ) इति षत्वं तत्राड्व्यवायेऽपि भवति - अभ्यषुणोत्, पर्यषुगोत्, व्यषुणोत्, न्यषुणोत् ॥ अनड्व्य- वायेऽपि – अभिषुणोति, परिषुणोति, विषुणोति, निषुणोति ॥
भाषार्थ:- [ सितात् ] सित शब्द से [प्राक् ] पहले २ [अड्व्यवाये ] अटू का व्यवधान होने पर तथा अपि ग्रहण से अट् का व्यवधान न होने पर [अपि ] भी सकार को मूर्धन्य आदेश होता है । तात्पर्य यह है कि इणू और कवर्ग से उत्तर जिसे षत्व करना है उसके मध्य में अटू का व्यवधान हो तो भी षत्व हो जाये । सित से परिनिविभ्यः सेवसित० (८३/७०) का सित लिया है, सो उससे पूर्व पूर्व अटू के व्यवधान में भी षत्व होगा || अभि अषुणोत् = अभ्यषुणोत् ||
यहाँ से ‘अव्यवायेऽपि’ की अनुवृत्ति ८|३|७० तक तथा ‘प्राकू सितात्’ की ८|३|६४ तक जायेगी ||
स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य || ८ | ३ |६४ ||
स्थादिषु |३|| अभ्यासेन ३|१|| च अ० ॥ अभ्यासस्य ६ |१|| स०-स्था आदिर्येषां ते स्थादयस्तेषु’ ’ ‘बहुव्रीहिः ॥ अनु० - प्राकू सितादव्यवायेऽपि सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थः— स्थादिषु प्राक् सितशब्दादभ्यासेन व्यवाये सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, अभ्याससकारस्य च भवतीत्येवं वेदितव्यम् ॥ उदा० - अभितष्ठौ, परितष्ठौ । अभिषिषेणयिषति, परिषिषेणयिषति । अभिषिषिक्षति, परि- पिषिक्षति ॥
भाषार्थ :- सित से पहले पहले [स्थादिषु ] स्था इत्यादियों में अर्थात् स्था से लेकर सित पर्यन्त [ श्रभ्यासेन ] अभ्यास का व्यवधान होने पर भी मूर्धन्य आदेश होता है, [च] तथा [अभ्यासस्य ] अभ्यास को भी मूर्धन्य होता है, ऐसा जानना चाहिये ।। स्था से उपसर्गात् सुनोति० (८)३६५) में जो स्था कहा है, उसका ग्रहण है, सो उस स्था से लेकर सितपर्यन्त अभ्यास के व्यवाय में घत्व होगा || अभितष्ठौ में इणू प्रत्या- हार अन्त वाला अभ्यास न होने से षत्व की प्राप्ति नहीं थी कह दिया,पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६७७
एवं षिच धातु से अभिषिषिक्षति में स्तौतिण्योरेव० (८|३|६१ ) के नियम की व्यावृत्ति से षत्व प्राप्त नहीं था, प्रकृत सूत्र से हो गया ॥ अभितष्ठौ की सिद्धि सूत्र ७ । १ । ३४ में देखें || अभिषेणयति की सिद्धि सूत्र ३।१२।२५ में देखें, तद्वत् ‘अभिसेन णिच्’ रहा। णाविष्ठवत् प्राति० ( वा० ६ । ४ । १५५) सेटि लोप होकर अभिसेन इ इट् सन रहा । गुण अयादेश करके
। ‘सेनयिष’ धातु बनी, तो रूपातिदेश होकर द्वित्व एवं अभ्यास कार्य होकर ‘अभि सि सेनयिष’ रहा। अब यहाँ आदेश का सकार न होने से आदेशप्र० (८|३|५६ ) से षत्व प्राप्त नहीं था, प्रकृत सूत्र से होकर अभिषिषेणयिषति बन गया ॥
सूत्र में ‘अभ्यासस्य’ ग्रहण नियमार्थ है, क्योंकि अभ्यास को षत्व तो उपसर्गात् सुनोति से उपसर्ग से उत्तर सिद्ध ही था सो नियम हुआ कि — स्थादियों में ही अभ्यास के सकार को मूर्धन्य हो अन्यों को नहीं ॥
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८|३|७० तक जायेगी ।
उपसर्गात् सुनोतिसुवतिस्यतिस्तौतिस्तोभतिस्थासेनय-
सेसिचसस्वाम् ||८|३ | ६५ ॥
उपसर्गात् ५|१|| सुनोति स्वञ्जम् ६|३|| स०– सुनोति० इत्यत्रे- तरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य, अड्व्यवायेऽपि, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थः- उपसर्गस्थान्नि- मित्तादुत्तरस्य सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति, स्तोभति, स्था, सेनय, सेध, सिच, सअ स्वञ्ज इत्येतेषां सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, अव्य- वायेऽपि, स्थादिषु अभ्यासेन चाभ्यासस्य || उदा० - सुनोति - अभिषुणोति, परिषुणोति । अभ्यषुणोत्, पर्यषुणोत् । सुवति– अभि- षुवति, परिषुवति । अभ्यषुवत् पर्यषुवत् । स्यति - अभिष्यति, परिष्यति । अभ्यष्यत्, पर्यष्यत् । स्तौति - अभिष्टौति, परिष्टौति । अभ्यष्टौत्, पर्यष्टोत् । स्तोभति – अभिष्टोभते, परिष्टोभते । अभ्यष्टोभत, पर्यष्टोभत । स्था- अभिष्टास्यति, परिष्ठास्यति । अभ्यष्ठात्, पर्यष्ठात् । अभ्यासेन व्यवाये - अभितष्ठौ परितष्ठौ । सेनय - अभिषेणयति, परिषेणयति । अभ्यषेण- यत् पर्यषेणयत् । अभिषिषेणयिषति, परिषिषेणयिषति । सेध- अभिषेधति, परिषेधति । अभ्यषेधत् पर्यषेधत् । अभिषिषेध, परिषि-
,
—- १५
६७८
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
षेध । सिच - अभिषिञ्चति, परिषिञ्चति । अभ्यषिञ्चत् पर्यषिञ्चत् अभिषिषिक्षति, परिषिषिक्षति । सञ्ज - अभिषजति, परिषजति । अभ्य षजत्, पर्यषजत् । अभिषिषङ्क्षति, परिषिषङ्क्षति । स्वञ्ज-अभिष्व जते, परिष्वजते । अभ्यध्वजत, पर्यष्वजत । अभिषिष्वङ्क्षते, परिषि
वक्षते ||
भाषार्थ:— [ उपसर्गात् ] उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर [सुनोति स्वञ्जम् ] सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति, स्तोभति स्था, सेनय, से (षिधू) सिच, सञ्ज, स्वञ्ज इनके सकार को मूर्धन्यादेश होता है, अद के व्यवाय में भी तथा स्थादियों के अभ्यास के व्यवाय में, ए अभ्यास को भी ॥ षत्व कर लेने पर रषाभ्यां नो ण: ० ( ८|४|१, श्रट्कुप्वाङ्० (८|४|२) से णत्व सर्वत्र यथायोग करके हो जायेगा अड्व्यवाय में सर्वत्र लहू के उदाहरण दिये हैं । षू धातु के लहू में अचिश्तु० (६।४/७०) से उवङ् करके अभिषुवति आदि प्रयोग बने हैं षो धातु के ओकार का ओतः श्यनि (७७३/७१ ) से लोप होकर अभिष्यति आदि प्रयोग जानें | अभिष्टास्यति (ऌट्) आदि में षत्व कर लेने पर ष्टुत्व भी हो जायेगा । स्तौति की सिद्धि परि० २।१।६० में की है, तद्वत् अभिष्टौति आदि में समझें । अभिषेणयति आदि प्रयोग पूर्व सूत्र में देखें । षिच धातु से सिति में शे मुचादीनाम् (७|१|५९ ) से नुम आगम होता है ।। षञ्ज धातु से देश अ० (६/४/२५) से नकारलोप होकर अभिषजति आदि प्रयोग बनेंगे । सन् परे रहते नकार लोप नहीं होगा तो नश्चापदान्तस्य ० ( ८1३1२४ ) से अनुस्वार एवं अनुस्वारस्य ययि० (८|४|५७) लगकर अभिषिषङ्क्षति बन गया | चोः कुः (८|२| ३०) से यहाँ जू को गू तथा च कू ( ८|४|५४) भी हो गया है । इसी प्रकार व से अभिषिष्वक्षते बनेगा || इणू और कवर्ग से उत्तर षत्व होता है, अतः ये षत्व के निमित्त हैं, सो उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर कहने का अभिप्राय यह है कि ‘यदि इणू अथवा कवर्ग उपसर्ग में स्थित हो तो उनसे उत्तर ||
यहाँ से ‘उपसर्गात्’ की अनुवृत्ति ८२३१७७ तक जायेगी ||
सदिरप्रतेः || ८|३|६६ ॥
सदिः १|१|| अत्र षष्ठ्याः स्थाने प्रथमा || अप्रतेः ५|१|| स०
स०-अष्टमोऽध्यायः
६७ह
पाद: ] प्रतिरप्रतिस्तस्मात् नव्यतत्पुरुषः ॥ अनु० - उपसर्गात्, स्थादिष्वभ्या- सेन चाभ्यासस्य, अड्व्यवायेऽपि सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् | अर्थ:– उपसर्गस्थान्निमित्ताप्रतेरुत्तरस्य सदेः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, अड्व्यवायेऽपि, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य || उदा० - निषीदति, विषीदति । न्यषीदत्, व्यषीदत् । निषसाद, विषसाद ||
भाषार्थ :- [ अप्रतेः ] प्रतिभिन्न उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर [सदिः ] षदूल धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है अड्व्यवाय एवं अभ्यास के व्यवाय में भी ॥ सात् पदाद्योः ( ८|३|१११ ) से प्रतिषेध प्राप्त था, तदर्थ यह वचन है । निषीदति आदि में पाघ्राध्मा० (७२३।७८) से सद को सीद आदेश हुआ है । निषसाद (लिट्) में शितू परे न होने से आदेश नहीं हुआ । सदेः परस्य लिटि ( ८|३|११८ ) के प्रतिषेध से यहाँ अभ्यास से परे वाले सकार को षत्व नहीं हुआ है ।
स्तन्भेः || ८ | ३|६७ ||
स्तन्भेः ६।१।। अनु०—उपसर्गात्, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य, अड्व्यवायेऽपि सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ :- उपसर्गस्थान्निमित्तादुत्तरस्य स्तम्भः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, अड्व्यवायेऽपि, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य || उदा० – अभिष्ट नाति, परिष्टभ्नाति । अभ्यष्टभ्नात् पर्यष्टभ्नात् । अभितष्टम्भ, परितष्टम्भ |
"
भाषार्थ :- उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर [स्तन्भेः ] स्तन्भु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है अट् के व्यवाय एवं अभ्यास व्यवाय में भी ।। स्तन्भु सौत्र धातु है । स्तन्भुस्तुन्भु० (३|१|८२ ) से श्ना विकरण तथा निदितां० (६।४।२४) से अनुनासिक लोप होकर अभिष्टम्नाति आदि प्रयोग बने हैं । अभितष्टम्भ (लिट) यहाँ शर्पूर्वाः खयः ( ७१४१६१ ) से अभ्यास का खयू शेष रहा है ||
यहाँ से ‘स्तन्भे:’ की अनुवृत्ति ८|३|६८ तक जायेगी ||
अवाच्चालम्बनाविदूर्ययोः ||२८|३|६८||
अवात् ५|१|| च अ० ॥ आलम्बनाविदूर्ययोः ७|२|| स० - आलम्ब - नच आविदुर्यच आलम्बनाविदूर्ये, तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० –
६८०
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ तृतीय स्तन्भेः, उपसर्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् । अर्थ :- आलम्बन आविदूर्ये चार्थे, अवोपसर्गादुत्तरस्य स्तम्भः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति || आलम्बनमाश्रयणम् । अविदूरस्य भाव आविदूर्यम् व्यज्यूप्रत्ययः ॥ उदा० - आलम्बने अवष्टभ्यास्ते । अवष्टभ्य तिष्ठति आविदूये - अवष्टब्धा सेना, अवष्टब्धा शरत् ॥
भाषार्थ:- [ श्रवात् ] अव उपसर्ग से उत्तर [च] भी स्तन्भु के सका को [आलम्बनाविदूर्ययोः ] आलम्बन तथा आविदूर्य अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है || आलम्बन अर्थात् आश्रयण, एवं आविदूर्य अर्थात समीपता || अवष्टभ्यास्ते ( आश्रयण करके बैठा है) यहाँ अवष्टभ्र ल्यबन्त है । अवष्टब्धा सेना ( सेना समीप है ) यहाँ क्त प्रत्यय करवे झषस्त० (८१२३४०) से धत्व झलां जश् झशि (८|४|५२ ) से भू को बू एक टापू होकर अवष्टब्धा बना है ||
यहाँ से ‘श्रवात्’ की अनुवृत्ति ८|३|६९ तक जायेगी ||
वेव स्वनो भोजने || ८|३|६९ ॥
वेः ५|१|| च अ० ॥ स्वनः ६ |१|| भोजने ७|१|| अनु० - अवात् उपसर्गात्, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य, अड्व्यवायेऽपि सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ श्रर्थः – वेरुपसर्गादवाच्चोत्तरस्य भोजनार्थे स्वनधातोः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, अड्व्यवायेऽपि स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य ॥ उदा० - विष्वणति । व्यष्वणत् । विषष्वाण | अवात् - अवष्वणति । अवाष्यणत् । अवषष्वाण |
भाषार्थ:- [वे:] वि उपसर्ग से उत्तर तथा [च] चकार से अब उपसर्ग से उत्तर [भोजने] भोजन अर्थ में [स्वनः ] स्वन धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, अड्व्यवाय एवं अभ्यास व्यवाय में भी || अवष्वणति का अर्थ है ‘मुँह से (मुँह चलाने का ) शब्द आवाज़ करते हुए खाता है’। इस प्रकार स्वन धातु शब्दार्थक होते हुये भी भोजन अर्थ में है । टुकु० (८|४|२) से णत्व यहाँ हुआ है ||
परिनिविभ्यः सेवसितसय सिवु सहसुट् स्तुस्वञ्जाम् ||८|३|७० ||
परिनिविभ्यः ५ | ३ || सेव’ आम् ६|३|| स० - सेवश्च सितश्च यश्च सिवुश्च सहच सुट च स्तुश्च स्वअ च सेव’ ‘स्वअस्तेषाम्’ ’ ‘इतरेतर-पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६८१
द्वन्द्वः ॥ अनुः - उपसर्गात्, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य, प्राकू सिता- दड्व्यवायेऽपि सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:– परि, नि, वि इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्य उत्तरेषां सेव, सित, सय, सिवु, सह, सुद्, स्तु, स्वञ्ज इत्येतेषां सकारस्य मूर्धन्य आदेशो भवति, प्रासितादव्यवायेऽपि स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य ॥ उदा०– सेव-परिषेवते, निषेवते, विषेवते । पर्यषेवत, न्यषेवत, व्यषेवत । परिषिषेविषते, निषिषेविषते, विषिषेविषते । सित - परिषितः, निषितः, विषितः । सय- परिषयः, निषयः विषयः । सिवु - परिषीव्यति, निषीव्यति, विषीव्यति । पर्यपीव्यत्, न्यषीव्यत् व्यपीव्यत् । पर्यसी- व्यत्, न्यसीव्यत्, व्यसीव्यत् । सह- परिषहते, निषहते, विषहते । पर्यषहत, न्यषहत, व्यवहत । पर्यसहत, न्यसहत, व्यसहत । सुदू परिष्करोति । पर्यष्करोत् । पर्यस्करोत् । स्तु परिष्टौति, निष्टौति, विष्टौति । पर्यष्टोत्, न्यष्टौत्, व्यष्टोत् । पर्यस्तीत्, न्यस्तौत्, व्यस्तीत् । ष्त्रञ्ज - परिष्वजते, निष्वजते, विष्वजते । पर्यष्वजत, न्यष्वजत, व्यष्वजत । पर्यस्वजत, न्यस्वजत, व्यस्वजत ॥
"
भाषार्थ : - [ परिनिविभ्यः ] परि, नि, तथा वि उपसर्ग से उत्तर [सेव स्वञ्जम् ] सेव, सित, सय, सिवु, सह, (पह) सुट्, स्तु, तथा स्वज के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, सित शब्द से पहले २ अट् व्यवाय एवं अभ्यास व्यवाय में भी होता है । तद्वत् उदाहरण सित से पूर्व २ के दिखा दिये हैं ।। षेवृ धातु का ‘सेव’, तथा षिन् बन्धने के निष्ठा का ‘सित’, एवं षिञ् का ही एरच् ( ३।३१५६ ) से अच् करके ‘सय’ निर्देश सूत्र में है, अतः तद्वत् क्तान्त एवं अच् प्रत्ययान्त शब्दों को पत्व होगा । परिषिषेविषते आदि पूर्ववत् णिजन्त के सन् के रूप हैं । सिधु ( षिवु) से आगे के प्रयोगों में सिवादीनां वा० (८|३|७१) से अटू के व्यवाय में विकल्प से षत्व होता है, अतः अटू के व्यवाय के दो २ प्रयोग दिखाये हैं । सम्परिभ्यां० (६|१|१३२) से परि से उत्तर सुद् कहा है नि, वि से उत्तर नहीं, अतः परि का ही उदाहरण दिखाया है || स्तु तथा स्वअ को उपसर्गात् सुनोति० (८|३|६५ ) से ही षत्व प्राप्त था, अगले सूत्र से अड्व्यवाय में षत्व का विकल्प करने के लिये इनका ग्रहण है, अन्यथा ८|३|६५ से नित्य ही षत्व होता । परिष्वजते आदि में दंशसञ्ज० ( ६ |४| २५) से अनुनासिक लोप होगा ||
यहाँ से ‘परिनिविभ्यः’ की अनुवृत्ति ८|३|७१ तक जायेगी ||
!
Wat
६८२
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
सिवादीनां वाऽड्व्यवायेऽपि || ८ | ३ | ७१ ॥
[ तृतीयः
सिवादीनाम् ६|३|| वा अ० || अड्व्यवाये ७ | १ || अपि अ० || स– सिधू आदिर्येषां ते सिवादयस्तेषां बहुव्रीहिः । अटा व्यवायो- ऽड्व्यवायस्तस्मिन् तृतीयातत्पुरुषः ॥ अनुः परिनिविभ्यः, उपसर्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थः- परिनिविभ्य उपसर्गेभ्य उत्तरेषां सिवादीनामव्यवायेऽपि सकारस्य वा मूर्धन्यादेशो भवति ॥ पूर्वसूत्रोक्ताः सिबुसद्दसुट स्तुस्वआम् इति सिवादयः ॥ पूर्वसूत्रे तथैवोदाहृतमत्रापि द्रष्टव्यम् ॥
"
भाषार्थ:- परि, नि, वि उपसर्गों से उत्तर [सिवादीनाम् ] सिवादियों के सकार को [अड्व्यवाये ] अट् के व्यवधान होने पर [अपि ] भी [वा] विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है । सिवादि से पूर्व सूत्र में कहे हुये सिवु से लेकर स्वअ तक का ग्रहण है ||
।।
यहाँ से ‘वा’ की अनुवृत्ति ८|३|७६ तक जायेगी |
अनुविपर्यभिनिभ्यः स्यन्दतेरप्राणिषु || ८ | ३ |७२ || अनुविपर्यभिनिभ्यः ५|३|| स्यन्दते : ६ | १ || अप्राणिषु ७ | ३ || स०- अनुश्च विश्च परिश्च अभिश्च निश्च अनुनयस्तेभ्यः” इतरेतर- द्वन्द्वः । न प्राणिनोऽप्राणिनस्तेषु ‘नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० - वा, उपस- र्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:—अनु, वि, परि, अभि, नि इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्य अप्राणिषु स्यन्दतेः सकारस्य वा मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - अनुष्यन्दते, विष्यन्दते, परिष्यन्दते, अभिष्यन्दते, निष्यन्दते । पक्षे- अनुस्यन्दते, विस्यन्दते, परिस्यन्दते, अभिस्यन्दते निस्यन्दते ||
||
भाषार्थः –[अनुभ्यः] अनु, वि, परि, अभि, नि उपसर्गों से उत्तर [स्यन्दतेः ] स्यन्दू धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, यदि [प्राणिषु ] प्राणि का कथन न हो रहा हो तो ॥
वेः स्कन्देरनिष्ठायाम् ||८|३ | ७३ ॥
वेः ५|१|| स्कन्दे : ६|१|| अनिष्ठायाम् ७|१|| स०– अनिष्ठा० इत्यत्र नव्तत्पुरुषः ॥ अनु० - वा, उपसर्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः,
Tपादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६८३
संहितायाम् | अर्थः- वेरुपसर्गादुत्तरस्य स्कन्देः सकारस्य वा मूर्धन्या-
| देशो भवत्यनिष्टायाम् ॥ उदा०– विष्कन्ता, विष्कन्तुम्, विष्कन्तव्यम् | पक्षे - विस्कन्ता, विस्कन्तुम्, विस्कन्तव्यम् ॥
भाषार्थ :- [वे : ] वि उपसर्गं से उत्तर [स्कन्देः ] स्कन्दिर धातु के सकार को [ अनिष्ठायाम् ] निष्ठा परे न हो तो विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है । वि स्कन्द तृच् = च होकर (८|४|५४) विष्कन्त् ता = झरो झरि सवर्णे ( ८|४|६४) लगकर विष्कन्ता बना । इसी प्रकार सबमें जानें |
यहाँ से ‘स्कन्देः’ की अनुवृत्ति ८|३|७४ तक जायेगी ||
परेश्व || ८|३|७४ ||
परेः ५|१|| च अ० ॥ अनु० - स्कन्देः, वा, उपसर्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- परेरुपसर्गाञ्चोत्तरस्य स्कन्दे : सकारस्य वा मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - परिष्कन्ता, परिष्कन्तुम्, परिष्कन्तव्यम् । पक्षे – परिस्कन्ता, परिस्कन्तुम्, परिस्कन्तव्यम् । परि
। ष्कण्णः, परिस्कन्नः ॥
भाषार्थ :- [परेः ] परि उपसर्ग से उत्तर [च] भी स्कन्द के सकार को विकल्प से मूर्धन्यादेश होता है ॥ क्त में स्कन्दू के अनुनासिक का अनिदितां हल० (६|४|२४ ) से लोप तथा निष्ठा तकार एवं पूर्व दकार को रदाभ्यां निष्ठातो० (८/२/४२ ) से नत्व एवं पत्व पक्ष में णत्व ( ८|४|२) होकर परिष्कण्णः परिस्कन्नः बन गया ||
परिस्कन्दः प्राच्यभरतेषु || ८ | ३ |७५ ||
इत्यत्र
परिस्कन्दः १|१|| प्राच्यभरतेषु ७|३|| स० - प्राच्याश्चासौ भरताच प्राच्यभरतास्तेषु कर्मधारयतत्पुरुषः ॥ अर्थः- परिस्कन्द मूर्धन्याभावो निपात्यते प्राच्यभरतेषु प्रयोगविषयेषु ॥ पूर्वेण मूर्धन्ये प्राप्ते तदभावो निपात्यते ॥ परिस्कन्दः ||
भाषार्थ :- [ परिस्कन्दः ] परिस्कन्द शब्द में मूर्धन्याभाव निपातन है, [प्राच्यभरतेषु ] प्राग्देशीयान्तर्गत भरतदेश के प्रयोग विषय में । पूर्व से षत्व प्राप्त था तदभाव निपातन कर दिया । परिस्कन्दः शब्द पचाद्यच् प्रत्ययान्त है ॥
सूत्र
६८४
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
स्फुरतिस्फुलत्योर्निर्निविभ्यः || ८|३ | ७६ ||
[ तृतीय:
स्फुरतिस्फुलल्योः ६|२|| निर्निविभ्यः ५|३|| स० - स्फुरतिश्च स्फुलति स्फुरतिस्फुटती, तयोः ‘इतरेतरद्वन्द्वः । निस् च निश्व विश्व निर्निव यस्तेभ्यः" इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० वा उपसर्गात्, सः इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- निस्, नि, वि इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्य उत्तरस्य स्फुरतिस्फुलत्योः सकारस्य वा मूर्धन्यादेशो भवति || उदा० - स्फुरति - निषष्फुरति निष्फुरति । विष्फुरति । पक्षे - निस्स्फुरति निस्फुरति विस्फुरति । स्कुलति - निषष्फुलति, निष्कुलति । विष्कुलति
स्फुलति-निषष्फुलति, । । पक्षे - निस्स्फुलति, निस्फुलति, विस्फुलति ॥
भाषार्थ :- [निर्निविभ्यः] निस्, नि, वि उपसर्ग से उत्तर [स्फुरति- स्फुलत्यो: ] स्फुरति तथा स्फुलति के सकार को विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है । निस् स्फुरति निस् ष्फुरति = ष्टुत्व होकर निषष्फुरति
बन गया ||
वेः स्कनातेर्नित्यम् ||८|३|७७||
"
वेः ५|१|| स्कस्नाते : ६|१|| नित्यम् १|१|| अनु० - उपसर्गात्, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- वेरुपसर्गादुत्तरस्य स्कभ्नातेः सकारस्य नित्यं मूर्धन्यादेशो भवति || उदा० – विष्कभ्नाति । विष्कम्भिता, विष्कम्भितुम्, विष्कम्भितव्यम् ॥
भाषार्थ :- [वे:] वि उपसर्ग से उत्तर [स्कभ्नाते:] स्कन्भु (सौत्र धातु) के सकार को [ नित्यम् ] नित्य ही मूर्धन्य आदेश होता है | स्तम्भुस्तुन्भु ० (३|१|८२ ) से विष्कम्नाति में श्ना विकरण हुआ है |
इणः षीध्वंलुलिटां धोऽङ्गात् ||८|३|७८ ॥
इणः ५|१|| षीध्वंलुलिटाम् ६|३|| घः ६ |१| | अङ्गात् ५|१|| स०- षीध्वं च लुङ् च लिट् च षीध्वं लुलिटरतेषाम्’ ’ ‘इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु०- अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- इणन्तादङ्गादुत्तरेषां षीध्वम्, लुङ्, लिट् इत्येतेषां यो धकारस्तस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा०–
। - घीध्वम्- च्योषीढ्वम्, प्लोषीढ्वम् । लुङ् अच्योवम् अप्लोट्वम् । लिट् - चढवे, ववृढ्वे || लिट्-चकृढ्वे
।पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
६८५
भाषार्थ: - [ इणः ] इणन्त ( इण् प्रत्याहार अन्त वाले) [ अङ्गात् ] अङ्ग से उत्तर [ षीध्वं लुलिटाम् ] पीध्वम्, लुङ, तथा लिट् का जो [धः] धकार उसको मूर्धन्य आदेश होता है || आशीर्लिङ् में च्युङ् प्लुङ् धातु से च्यु सीयुट् ध्वम् = च्यो सीय् ध्वम् = षत्व ( ८|३|५९) तथा यू का लोप (६।१।६४) होकर च्योषीध्वम् रहा । अब यहाँ प्रकृत सूत्र से षीध्वम् के धू को मूर्धन्य होकर च्योषीढ्वम् प्लोषीढ्वम् बन गया । लुङ् में धि च (८।२।२५) से सिचू के स् का लोप एवं धू को मूर्धन्य होकर अच्योवम् बन गया । एकाच उपदेशे ० (७१२/१०) से सर्वत्र इट् निषेध जानें | लिट् में कृ को द्वित्वादि होकर च कृ ध्वम् = टितआत्मने० (३।४।७६ ) से एव तथा मूर्धन्य होकर चकृढ्वे ववृढ्वे बन गया । यहाँ सृभृ० (७/२|१३) से इट निषेध हुआ है । मूर्धन्य कहने से यहाँ स्थानेऽन्तरतमः (१|१|४६ ) से मूर्धा स्थानी धू को दू हो गया है ||
यहाँ से ‘इणः षीध्वं लुलिटाम् घः’ की अनुवृत्ति ८ ३७६ तक जायेगी ||
विभाषेटः || ८|३|१९||
विभाषा || १ || इट: ५|१|| अनु० - इणः षीध्वंलुलिटां धः, अप- दान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् | अर्थ:- इणः परस्मात् इट उत्तरेषां षीध्वंलुलिटां यो धकारस्तस्य विकल्पेन मूर्धन्यादेशो भवति ।। उदा०– लविषीध्वम्, लविषीढ्वम् । पविषीध्वम्, पविषीढ्वम् । लुङ् - अलविध्वम्, अलविदवम् । लिट्-लुलुविध्वे, लुलुविवे ॥
भाषार्थ : - इण् से उत्तर जो [इट: ] इट् उससे उत्तर जो षीध्वम्, लुङ तथा लिट् का धकार उसको [विभाषा ] विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है । पूर्ववत् लिङ् में लू इट् सीयुट् ध्वम् = लू इ षीध्वम् रहा । अब यहाँ लू का ऊ इण् है सो उससे उत्तर जो इट् उससे परे षीध्वम् के धू को मूर्धन्य होकर लू इ पीढ्वम् = लो इ पीढ्वम् = लविषीदवम् बन गया । पक्ष में धू ही रहा । अलविध्वम् अलविदवम् की सिद्धि सूत्र ८/२/२५ में देखें | लिट् में लू को द्वित्यादि कार्य एवं चि श्नुधातु० ( ६ |४| ७७ ) से उवङ् होकर लुलुविवे लुलुविध्वे बना है ||
समासे ऽङगुलेः सङ्गः ||८|३|८०||
समासे ७|१२|| अङ्गुलेः ५|१|| सङ्गः १|१ || षष्ठ्याः स्थाने प्रथमात्र व्यत्ययेन ॥ अनु० सः, नुम्बिसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य
|| -
६८६
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:-सङ्गशब्दस्य सकारस्याङगुले रुत्तरस्य मूर्धन्यादेशो भवति समासे ॥ उदा० - अङ्गुलेः सङ्गः = अङ्गुलिषङ्गः । अङ्गुलिषङ्गा यवागूः । अङ्गुलिषङ्गो गाः सादयति ।।
भाषार्थ:- [ समासे ] समास में [गुलेः ] अङ्गुलि शब्द से उत्तर [सङ्गः ] सङ्ग शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है ॥ सङ्ग अर्थात् संश्लेष, अङ्गुलिषङ्गः = अङ्गुलिका संश्लेष ॥ सात् पदाद्योः (८|३|१११) से प्रतिषेध प्राप्त था, तदर्थ यह सूत्र है || ॥
||
यहाँ से ‘समासे’ की अनुवृत्ति ८|३|८५ तक जायेगी ||
भीरोः स्थानम् ||८|३|८१ ॥
भीरोः ५|१|| स्थानम् १|१|| षष्ठ्यर्थे प्रथमा || अनु० - समासे, सः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थः स्थानसकारस्य भीरोरुत्तरस्य मूर्धन्यादेशो भवति समासे ॥ उदा० - भीरोः स्थानम् = भीरुष्ठानम् ॥
भाषार्थ : – [भीरोः ] भीरु शब्द से उत्तर [ स्थानम् ] स्थान शब्द के सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है ।
अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः || ८|३|८२||
अग्नेः ५|१|| स्तुत्स्तोमसोमाः १|३|| स० - स्तुत्० इत्यत्रेतरेतर- द्वन्द्वः ॥ अनु० - समासे, सः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् | अर्थ:- अग्नेरुत्तरस्य स्तुत्, स्तोम, सोम इत्ये- तेषां सकारस्य समासे मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० – अग्निष्टुत् अग्नि- ष्टोमः, अग्नीषोमौ ॥
भाषार्थ :- [अग्नेः ] अग्नि शब्द से उत्तर [स्तुतुस्तोमसोमाः] स्तुत्, स्तोम, तथा सोम के सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है | परि० १|१|६१ के अग्निचित् के समान अग्निस्तुत् बन कर पश्चात् षत्व ष्टुत्व अग्निष्टुत् में हुआ है । अग्निष्टोमः में षष्ठी समास है । अग्नी- पौमी यहाँ द्वन्द्व समास है, तथा ईदग्नेः सोम० (६।३।२५) से अग्नि को ईत्व हुआ है || स्तोम सोम शब्द १११४० उणादि से मन् प्रत्ययान्त हैं, सांत्पदाद्योः से पदादि लक्षण प्रतिषेध सर्वत्र प्राप्त था विधान कर दिया ||पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
ज्योतिरायुषः स्तोमः || ८ | ३ |८३ ||
६८७
ज्योतिरायुषः ५ | १ || स्तोमः १|१|| स० – ज्योतिश्च आयुश्च ज्योति- रायुस्तस्मात् समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० - समासे, सः, नुम्बिसर्जनीय- शर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- ज्योतिस् आयुस् इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्तोमसकारस्य समासे मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - ज्योतिषः स्तोमः = ज्योतिष्टोमः, आयुष्टोमः । ज्योतिष्टोमः, आयुः ष्टोमः ||
भाषार्थ :- [ ज्योतिरायुषः ] ज्योतिस् तथा आयुस् शब्द से उत्तर [स्तोमः ] स्तोम शब्द के सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है || ज्योतिस् आयुस् के स् को विसर्जनीय होकर स्तोम परे रहते वा शरि (८|३ | ३६ ) से पक्ष में सत्व एवं स्तोम के स् को षू करने पर ष्टुत्व होकर ज्योतिष्टोमः, आयुष्ष्टोमः प्रयोग बन गये । पक्ष में जब वा शरि से विस- र्जनीय हुआ तो ज्योतिष्टोमः, आयुः ष्टोमः प्रयोग बन गये ॥ पूर्ववत् प्रतिषेध प्राप्त था कह दिया ||
मातृपितृभ्यां स्वसा ||८|३|८४ ॥
मातृपितृभ्याम् ५|२|| स्वसा १|१|| अनु० - समासे, सः, तुम्बिसर्ज नीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ श्रर्थः - मातृ पितृ इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्वससकारस्य समासे मूर्धन्यादेशो भवति || उदा०– मातृष्वसा, पितृष्वसा ॥
भाषार्थ :- [मातृपितृभ्याम् ] मातृ तथा पितृ शब्द से उत्तर [स्वसा ] स्वसृ शब्द के सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है | उदाहरणों में षष्ठी समास है । विभाषा स्वसृपत्योः (६।३।२२ ) से यहाँ जब षष्ठी का लुक् हो गया है, उस पक्ष के ये उदाहरण हैं । अनादेश का सकार होने से उत्सर्ग सूत्र ( ८1३1५६ ) से षत्व प्राप्त नहीं था अप्राप्त विधान है, ऐसा अन्यत्र भी जहाँ किसी का अपवाद रूप सूत्र न हो, समझें ॥
यहाँ से ‘स्वसा’ की अनुवृत्ति ८१३१८५ तक जायेगी ||
मातुः पितुर्भ्यामन्यतरस्याम् ||८|३|८५ ||
मातुः पितुर्भ्याम् ५|२|| अन्यतरस्याम् ७|१|| स० - मातुश्च पितुश्च मातुः पितुरौ, ताभ्यां इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - स्वसा, समासे, सः,
६८८
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- मातुर् पितुर् इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्वसृशब्दस्य सकारस्य समासे विकल्पेन मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - मातुःष्वसा मातुःस्वसा । पितुःष्वसा, पितुःस्वसा ॥
भाषार्थ :- [मातुः पितुर्भ्याम् ] मातुर् तथा पितुर् शब्द से उत्तर स्वसृ के सकार को समास में [ अन्यतरस्याम् ] विकल्प करके मूर्धन्य आदेश होता है । मातुर् पितुर् यह षष्ठ्यन्त का अनुकरण है, सो वैसा ही निर्देश सूत्र में कर दिया है । मातुर् पितुर के रेफ को विसर्जनीय पूर्ववत् उदाहरणों में हुआ है । षष्ठी विभक्ति का अलुकू यहाँ विभाषा स्वसृपत्योः ( ६।३।२२ ) से होता है । वा शरि से पक्ष में जब विसर्जनीय को सत्व होगा तो स् को ष्टुत्व होकर मातुष्ष्वसा पितृष्वसा प्रयोग भी बनेंगे, ऐसा जानें ||
यहाँ से ‘अन्यतरस्याम्’ की अनुवृत्ति ८|३|८६ तक जायेगी ||
अभिनिसः स्तनः शब्दसंज्ञायाम् ||८|३|८६||
अभिनिस: ५|१|| स्तनः ६|१|| शब्दसंज्ञायाम् ७|१|| स० - अभिश्च निस् च अभिनिः, तस्मात् समाहारद्वन्द्वः । शब्दस्य संज्ञा शब्दसंज्ञा, तस्याम् षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - अन्यतरस्याम्, सः, तुम्बिसर्जनीय- शर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- अभि निस् इत्येतस्मादुत्तरस्य स्तनधातोः सकारस्य शब्दसंज्ञायाम् गम्यमानायाम् विकल्पेन मूर्धन्यादेशो भवति || उदा० - अभिनिष्टानो वर्णः, अभिनिष्टानो विसर्जनीयः । पक्षे- अभिनिस्तानो वर्णः, अभिनिस्तानो विसर्जनीयः ||
भाषार्थ:– [ अमिनिसः] अभि तथा निस् से उत्तर [स्तनः] स्तन धातु के सकार को [ शब्दसंज्ञायाम् ] शब्द की संज्ञा गम्यमान हो तो विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है ।। अभि निस् ये समुदित रूप से उदाहरणों में आयें तभी पत्व होता है | अभिनिष्टान विसर्जनीय रूप वर्ण विशेष की संज्ञा है । पूर्व उदाहरण में वर्ण सामान्य का निर्देश होने पर भी विसर्जनीय रूप वर्ण की ही संज्ञा जाननी चाहिए । आपस्तम्बगृह्यसूत्र के नाम प्रकरण में ‘अभिनिष्टान्तम्’ पद विसर्जनीय के लिए प्रयुक्त है । क्या वह पाठाशुद्धि सम्भव है ?पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच् परः ॥८३॥८७॥
६८९
उपसर्गप्रादुर्भ्याम् ५|२|| अस्ति: १|१|| यच्परः १|१|| स०- उपसर्गश्च प्रादृश्य उपसर्गप्रादुसौ, ताभ्यां इतरेतरद्वन्द्वः । यश्च अच् च यचौ, यचौ परौ यस्मात् स यच्परः, द्वन्द्वगर्भबहुव्रीहिः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, तुम्बिसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:–उपसर्गस्थान्निमित्तादुत्तरस्य प्रादुस् शब्दाच्चोत्तरस्य यकारपरस्य अचूपरस्य चास्ते: सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - अच्पर- स्यास्ते:- अभिषन्ति, निषन्ति, विषन्ति । प्रादुःषन्ति । यकारपरस्यास्ते:- अभिष्यात्, निष्यात्, विष्यात् । प्रादुःष्यात् ॥
भाषार्थ:– [ उपसर्गप्रादुभ्यम् ] उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर ( अर्थात् इण् कवर्ग) तथा प्रादुस् शब्द से उत्तर [यच्परः ] यकारपरक एवं अच्परक [अस्ति: ] अस् धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है ।। अभिषन्ति आदि में अस् के सकार से परे अन्ति का ‘अ’ अचू परे है । अदादिगणस्थ होने से शप् का लुकू तथा एनसोर लोप: ( ६ |४|१११ ) से अस् के अ का लोप यहाँ होता है । अभिष्यात् आदि में यासुट् का यकार परे है, शेष पूर्ववत् है ॥ यासुट् के स् का लोप लिङः सलोपो० ( ७१२/७६ ) से होगा ||
सुविनिदुर्भ्यः सुपिसूविसमाः || ८|३|८८ ||
सुविनिर्दुः ५|३|| सुपिसूतिसमाः ११३ || स० – सुश्च विश्व निर्च दुर् च सुविनिर्दुरस्तेभ्यः इतरेतरद्वन्द्वः । सुपि० इत्यत्रापीतरेतरद्वन्द्वः ॥
। अनु० - सः, नुम्बिसजनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहिता- याम् ॥ अर्थ:-सु, वि, निर, दुर् इत्येतेभ्य उत्तरस्य सुपि सूति सम इत्येतेषां सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ।। उदा०– सुषुप्तः, विषुप्तः, निः- पुप्तः, दुःषुप्तः । सूति- सुषूतिः, विषूतिः, निःषूतिः, दुःषूतिः । सम सुषमम्, विषमस्, निःषमम्, दुःषमम् ॥
भाषार्थ: - [सुविनिर्दुः ] सु, वि, निर् तथा दुर् से उत्तर [सुपिसूति- समाः ] सुपि, सूति, तथा सम के सकार को मूर्धन्यादेश होता है | स्वप् को सम्प्रसारण (६।१।१५) करके सूत्र में ‘सुपि’ निर्देश है । षू धातु का क्तिन् में सूति: रूप बना है, अत: क्तिन्नन्त को ही षत्व होगा || सुपि
४४
६९०
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीय: सूति को सात पदाधोः (८३११२) से पदादि लक्षण निषेध प्राप्त था, कह दिया || निर् दुर् उपसगों के र् को विसर्जनीय पूर्ववत् हुआ है ॥
निनदीभ्यां स्नातेः कौशले || ८|३|८९ ॥
निनदीभ्याम् ५|२|| स्नाते : ६|१|| कौशले ७|१|| स० – निश्च नदी च निन्द्यौ, ताभ्याम् इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, तुम्बिसर्जनीयशव्यं वायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ: - निनदी इत्येताभ्या मुत्तरस्य स्नातेः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, कौशले गम्यमाने ॥ उदा०- निष्णातः कटकरणे, निष्णातो रज्जुर्वत्तने । नद्यां स्नातीति नदीष्णः ||
भाषार्थ :- [ निनदीभ्याम् ] नि तथा नदी इनसे उत्तर [स्नाते: ] ष्णा शौचे धातु के सकार को [ कौशले] कुशलता गम्यमान हो तो मूर्धन्य आदेश होता है || पदादि मानकर सात्पदाद्योः (८|३|१११) से निषेध प्राप्त था, विधान कर दिया । निष्णातः कटकरणे = चटाई बनाने में जो होशियार | ष्णा के घूको पहिले धात्वादेः ० (६३११६२) से सत्व होकर स्ना रहा । तत्पश्चात् नि, नदी से उत्तर पत्व ष्टुत्व हो गया । नदीष्णः (नदी स्नान में कुशल) में सुपि स्थः (३/२/४ ) के योगविभाग से ष्णा से भी क
४)
प्रत्यय हो जाता है । पश्चात् श्रतो लोप० (६|४| ६४ ) से ‘गा’ का ‘आ’ लोप हो जायेगा ||
सूत्रं प्रतिष्णातम् ||८|३ | ९० ॥
सूत्रम् १|१|| प्रतिष्णातम् १|१|| अनु० - सः, मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थः- प्रतिष्णातमित्यत्र मूर्धन्यादेशो निपात्यते, सूत्रं चेत्तद् भवति || उदा० - प्रतिष्णातं
सूत्रम् ॥ 11
भाषार्थ : [ प्रतिष्णातम् ] प्रतिष्णातम् में पत्व निपातन है [सूत्रम् ] सूत्र (धागा) को कहने में || प्रतिस्ना क्त = प्रतिष्णातम् । पूर्ववत् सात्- पदाद्योः से पत्व प्रतिषेध प्राप्त था, निपातन कर दिया || प्रतिष्णातम् अर्थात् शुद्ध सूत ||
कपिष्ठलो गोत्रे || ८ | ३ | ११ ॥
कपिष्ठलः १|१|| गोत्रे ७|१|| अनु० - सः, मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थः- कपिष्ठल इति मूर्धन्यादेशो निपात्यते, गोत्रविषये ॥ उदा० कपिष्ठलो नाम यस्य कापिष्ठलिः पुत्रः ॥
:-पाद: ]
अष्टमोऽध्यायः
६९१
भाषार्थ : – [ कपिष्ठल : ] कपिष्ठल में मूर्धन्य आदेश निपातन है [गोत्रे ] गोत्र विषय को कहने में ||
गोत्र से यहाँ लौकिक गोत्र का ग्रहण है, न कि पारिभाषिक (४।१।१६२ ) । लौकिक गोत्र में जिस विशिष्ट पुरुष से सन्तति का प्रारम्भ होता है, उसकी एवं उसके आगे की गोत्र संज्ञा होती है । इस प्रकार कपिष्ठल में आदि पुरुष मान कर षत्व हो गया है, अन्यथा अपत्यं पौत्र ० (४|१|१६२ ) के कारण कापिष्टलिः में ही षत्व होता, कपिष्ठल में नहीं ||
प्रष्ठोऽग्रगामिनि || ८ |३|९२ ॥
प्रष्ठः १|१|| अग्रगामिनि ७|१|| स० – अग्रे गच्छतीति अग्रगामी, तस्मिन् तत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थः- प्रष्ठ इति निपात्यते अग्रगामिन्यभिधेये || उदा० - प्रतिष्ठत इति प्रष्टोऽश्वः ॥
भाषार्थ : - [ प्रष्ठः ] प्रष्ठ इस शब्द में [अग्रगामिनि] अग्रगामी अभि- वेय हो तो षत्व निपातन है | प्रष्ठोऽश्वः अर्थात् आगे चलने वाला अश्व || प्रष्ठः में सुपिस्थ : (३ |२| ४ ) से क प्रत्यय हुआ है ||
वृक्षासनयोर्विष्टरः || ८ | ३ | ९३ ॥
वृक्षासनयोः ७२ ॥ विष्टरः १|१|| स० - वृक्ष
तयोः “इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, मूर्धन्यः, विष्टर इति निपात्यते, वृक्षे आसने च वाच्ये ॥ विष्टरमासनम् ॥
आसनच वृक्षासने,
संहितायाम् ॥ अर्थ:- उदा० - विष्टरो वृक्षः,
भाषार्थ : - [ वृक्षासनयोः ] वृक्ष तथा आसन वाच्य हो तो [विष्टरः ] विष्टर शब्द में पत्व निपातन है । वि पूर्वक स्तृव्यू से ऋदोरप् (३१३१५७) से अप् प्रत्यय करके विस्तर = विष्टर बना है ||
यहाँ से ‘विष्टरः’ की अनुवृत्ति ८|३|६४ तक जायेगी ||
छन्दोनाम्नि च || ८|३ | ९४ ||
छन्दोनाम्नि ७|१|| च अ० ॥ स० – छन्दसः नाम छन्दोनाम, तस्मिन् षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - विष्टरः, सः, मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- छन्दोनाम्नि सति विष्टार इत्यत्र मूर्धन्यादेशो निपात्यते ॥ उदा०-विष्टा- [पङ्क्ति: छन्दः, विष्टारबृहती छन्दः ॥
६९२
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः भाषार्थ:- [ छन्दोनाम्नि ] छन्द का नाम कहना हो तो [च] भी विष्टार शब्द में षत्व निपातन किया है । यहाँ यद्यपि ‘विष्टरः’ की अनु- वृत्ति आ रही थी किन्तु विष्टार में छन्दोनाम्नि च (३|३|३४ ) से घन् होने से वृद्धि (७/२/११५) होकर विष्टार ही बनेगा, अतः विष्टार निपातन माना है || छन्द से यहाँ विष्टारपङक्ति आदि छन्द (छन्दों के नाम ) गृहीत हैं न कि वेद । सिद्धि के लिये ३।३।३४ सूत्र ही देखें ||
गवियुधिभ्यां स्थिरः || ८|३|१५||
:-
गवियुधिभ्याम् ५|२|| स्थिरः १|१|| स०-गवि० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थः- गवि युधि इत्येताभ्यामुत्तरस्य स्थिरसकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा०- गवि तिष्ठतीति गविष्ठिरः, युधिष्ठिरः ||
भाषार्थ: - [ गवियुधिभ्याम् ] गवि तथा युधि से उत्तर [स्थिर: ] स्थिर शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है || गवि युधि सप्तम्यन्त के अनुकरण रूप शब्द हैं । युधिष्ठिरः में युधि के सप्तमी का अलुक् हलदन्तात् (६३७ ) से हुआ है, तथा गो शब्द के अहलन्त होने से विभक्ति लुक् अप्राप्त था इसी सूत्र के निपातन से विभक्ति का अनुकू हुआ है || पदादि मानकर सात्पदाद्योः (टा३३१११ ) से पत्व प्रतिषेध प्राप्त था तदर्थ यह वचन है ॥
विकुशमिपरिभ्यः स्थलम् ||८|३ | ९६ ||
विकुशमिपरिभ्यः ५|३|| स्थलम् १|१|| स – विश्व कुश्च शमी च परिश्च विकु रयः, तेभ्यः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:–वि, कु, शमि, परि इत्येतेभ्य उत्तरस्य स्थलसकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा० - विष्ठलम्, कुष्ठलम्, शमीनां स्थलम् - शमिष्टलम्, परिष्ठलम् ॥
भाषार्थ :- [ विकुशमिपरिभ्यः ] वि, कु, शमि तथा परि से उत्तर [स्थलम् ] स्थल शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है ॥ वि, कु तथा परि के साथ स्थल का कुगतिप्रादयः (२२/१८) से समास हुआ है, तथा शमिष्ठलम् में षष्ठीसमास हुआ है । शमिष्टलम् में शमी को हव ड्यापोः संज्ञा० (६ । ३।६१ ) से होता है ।।दः ]
अष्टमोऽध्यायः
६६३
यहाँ सूत्र में ‘शमी’ को ह्रस्व यह दर्शाने के लिये पढ़ा है, कि जब से हस्वत्व हो तभी षत्व हो । बहुल कहने से जब दीर्घ भी रहे तब त्व न हो ||
अम्बाम्बगो भूमिसव्यापद्वित्रिकुशेकुशङकङ्गमझिपुञ्जि
परमेबर्हिर्दिव्य निभ्यः स्थः || ८|३ | १७ ||
अम्बा ग्निभ्यः ५|३|| स्थः १११|| स० - अम्बा० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः || अनु० - सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- अम्ब, आम्ब, , भूमि, सव्य, अप, द्वि, त्रि, कु, शेकु, शङ्कु, अङ्ग, मञ्जि, पुञ्जि, परमे, हिंस, दिवि, अग्नि इत्येतेभ्य उत्तरस्य स्थशब्दस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो वति ॥ उदा - अम्बष्ठः, आम्बष्ठः, गोष्ठः, भूमिष्ठः सव्येष्ठः, अपष्ठः, ३ष्ठः, त्रिष्टः, कुष्ठः, शेकुष्ठः, शङ्कटः, अङ्गुष्ठः मञ्जिष्टः पुष्टिः, परमेष्ठः, हिंष्ठः, दिविष्ठः, अग्निष्टः ॥
भाषार्थः–[अम्बा " ग्निभ्यः ] अम्ब, आम्ब, गो, भूमि, सव्य, अप, ई, त्रि, कु, शेकु, शङ्कु, अङ्गु, मञ्जि, पुञ्जि, परमे, बर्हिस, दिवि, अग्नि इन शब्दों से उत्तर [स्थः] स्था के सकार को मूर्धन्य आदेश होता ॥स्था से कप्रत्यय तथा आकार लोप करके ‘स्थः ’ सूत्र में निर्देश है, उदाहरणों में कप्रत्ययान्त का ही ग्रहण होगा । अम्बष्ठः यहाँ अम्बा को यापोः संज्ञा० (६३३३६१ ) से ह्रस्व होगा । गोष्ठ: में घञर्थे कविधानम् वा० ३३३३५८) से क प्रत्यय तथा अन्यत्र सुपि स्थः (३1२1४ ) से क हुआ : । सव्येष्टः में हलदन्तात् ० (६१३३७) से विभक्ति का अलुकू हुआ है । त्व कर लेने पर ष्टुत्व पूर्ववत् हो ही जायेगा ।
'
सुषामादिषु च || ८ | ३ | १८ ||
सुषामादिषु ७१३|| च अ० ॥ स० – सुषामा आदियेषां ते सुषामा- यस्तेषु बहुव्रीहिः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, [म्विसर्जनीयश दवायेऽपि संहितायाम् ॥ अर्थ:-सुपामादिषु शब्देषु कारस्य मूर्धन्यादेशो भवति || उदा०— शोभनं साम यस्यासौ सुषामा ह्मण:, निष्षामा, दुष्षामा ||
भाषार्थ : - [सुषामादिषु ] सुपामादि शब्दों के सकार को [च] भी धन्य आदेश होता है | निस् दुस् के सकार को विसर्जनीय होकर
६६४
अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ
[ तृतीयः
वा शरि ( ८1३1३६ ) से पक्ष में सत्व तथा ष्टुत्व होकर निष्यामा दुष्षामा बना है ॥
एति संज्ञायामगात् ||८|३ / ९९||
एति ७|१|| संज्ञायाम् ७|१|| अगात् ५|१|| स०-न गः अगस्त- स्मात् ‘नन्तत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थ:- अगकाराद् इण्कोरुत्तरस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति, एकारे परतः संज्ञायां विषये ॥ उदा०- हरयः सेना अस्य = हरिषेणः, वारिषेणः, जानुषेणी ॥
भाषार्थ : - [ अगात् ] गकारभिन्न इण् तथा कवर्ग से उत्तर सकार को [ एति] एकार परे रहते [संज्ञायाम् ] संज्ञा विषय में मूर्धन्य आदेश होता है | उदाहरणों में ‘सेना’ को गोस्त्रियो० ( १ | २|४८ ) से हस्वत्व हुआ है ||
यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ८|३|१०० तक जायेगी ||
नक्षत्राद् वा || ८|३|१००॥
इण्कोः,
नक्षत्रात् ५|१|| वा अ० ॥ अनु०- एति संज्ञायामगात्, सः, नुम्बिसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:– अगकारात् परस्य नक्षत्रवाचिनः शब्दादुत्तरस्य सकारस्य एति परतो संज्ञायां विषये विकल्पेन मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा०— रोहिणीषेणः, रोहिणीसेनः । भरिणीषेणः, भरिणीसेनः ॥
भाषार्थ: - अगकार से परे [नक्षत्राद्] नक्षत्र वाची शब्दों से उत्तर सकार को एकार परे रहते संज्ञा विषय में [वा ] विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है || रोहिणी भरिणी नक्षत्रवाची शब्द हैं । अट्कुप्वाङ्‍ (८/४/२) से णत्व हो ही जायेगा || पूर्व सूत्र से नित्य प्राप्त था, विकल्पार्थ यह वचन है ॥
हवा चादौ तद्धिते || ८ | ३ | १०१ ॥
हस्वात् ५|१|| तादौ ७|१|| तद्धिते अशा सतकार आदिर्यस्य स तादिस्तस्मिन् बहुव्रीहिः ॥ अनु० - सः, इण्कोः, तुम्विसर्जनीयशय- वायेऽपि, मूर्धन्यः, संहितायाम् | अर्थ:-हस्वादिण उत्तरस्य सकारस्यनादः ]
अष्टमोऽध्यायः
,
६९५
मूर्धन्यादेशो भवति तकारादौ तद्धिते परतः ॥ उदा० -तरपू - सर्पिष्टरम्,
। । यजुष्टरम् । तमप्-सर्पिष्टमम् यजुष्टमम् । तय-चतुष्टये ब्राह्मणानां निकेताः । तव सर्पिष्टुम, यजुष्टुम् । तद्-सपिष्टा, यजुष्टा । तसि - सर्पिष्टः, यजुष्टः | त्यप - आविष्ट यो वर्द्धते ||
1
भाषार्थ :- [ह्रस्वात् ] ह्रस्व इण् से उत्तर सकार को [ तादौ ] तका- रादि [तद्धिते ] तद्धित परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है || अपदान्तस्य का अधिकार होने से पदान्त सूको षत्व प्राप्त नहीं था विधान कर दिया || सर्पिस् यजुस् के स् को विसर्जनीय होकर पुनः तरप् (५१३।५७) तम (५३१५५) आदि परे रहते विसर्जनीय को सत्व ( ८|३|३४) होकर पश्चात् षत्वष्टुत्व हो गया है । चतुष्टये (७१) में भी इसी प्रकार चतुर् से सख्याया अवयवे० (५/२/४२ ) से तयप् प्रत्यय हुआ है । तस्य भावस्त्वतलौ (५।११११८) से त्व तल, अपादाने चाहीय० (५१४१४५) से सर्पिष्ट:, यजुष्टः (५१) में तसि, तथा आविस शब्द से अव्ययात्० (४/२/१०३ ) में स्थित विश्छन्दसि वात्तिक से त्यप् प्रत्यय हुआ है ।।
यहाँ से ‘तादों’ की अनुवृत्ति ८|३|१०४ तक जायेगी ||
निसस्तपतावना सेवने ||८|३ | १०२ ॥
निसः ६|१|| तपती ७|१|| अनासेवने ७|१|| स० - न आसेवनम् अनासेवनं तस्मिन्नव्यू तत्पुरुषः ॥ अनु० - सः, मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ :— निसः सकारस्य तपतौ परतो मूर्धन्यादेशो भवत्यनासेवनेऽर्थे ॥ आसेवनं पुनः पुनः करणम्, अनासेवनं तद्विपरीतम् ॥ (उदा० - निष्ट- पति सुवर्णम् ॥
भाषार्थ: - [निसः ] निसू के सकार को [ तपती] तपति परे रहते [अनासेवने] अनासेवन अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है । यह सूत्र भी दान्तार्थं पूर्ववत् है | आसेवन पुनः २ करने को कहते हैं, अनासेवन उससे विपरीत, सो ‘निष्टपति सुवर्णम्’ का अर्थ है एक बार सोने को उपाता है ||
युष्मत्तत्ततक्षुःष्वन्तः पादम् ||८|३|१०३॥
युष्मत्तन्ततक्षुः षु ७१३ || अन्तःपादम् १|१|| स० - युष्मत् च तत् च
६६६
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीय
ततक्षुश्च युष्मत्तत्ततक्षुसस्तेषु इतरेतरद्वन्द्वः । अन्तः = मध्ये पादस्येति अन्तः पादम् अव्ययं विभक्ति० (२|१|६) इत्यनेन विभक्त्यर्थेऽव्ययीभाव समासः ॥ अनु० – तादौ सः, इण्कोः, तुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ :- इण्कोरुत्तरस्य सकारस्य तादौ युष्मत्, तत्, ततक्षुस् इत्येतेषु परतो मूर्धन्यादेशो भवति स चेत् सकारोऽन्तः पादं भवति ॥ उदा० - युष्मद्-अग्निष्टुं नामासीत् । अग्निष्टा वर्द्धयामसि । अग्निष्टे विश्वा मानाय । अस्वग्ने सधिष्टव (ऋ० ८१४३/९) । तत्- अ॒ग्निष्टद्विश्व॒मापृ॑णाति (ऋ० १०।२।४) । ततुक्षस् - - - द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ( ऋ० २०१३१।४) ॥
भाषार्थ :- इण् तथा कवर्ण से उत्तर सकार को तकारादि [ युष्मत्तत्त- तक्षुःषु ] युष्मद्, तत्, तथा ततक्षुस् परे रहते मूर्धन्यादेश होता है, यदि वह सकार [अन्तःपादम् ] पाद के अन्तर् = मध्य में वर्तमान हो तो || उदाहरणों में सर्वत्र जिसको पत्व हुआ है वह ऋचा के मध्य में है । तादौ की अनुवृत्ति होने से युष्मद् को हुये जो तकारादि आदेश वही यहाँ लिये जायेंगे सो त्वाहौ सौ (७२६४) से हुआ ‘व’, त्वामौ द्वितीयायाः (८|१|२३) से द्वितीयान्त को हुआ ‘त्या’ तवममौ ङसि (६) से हुआ ‘तव’ तथा तेमयावेक० (८/११२२) से हुये ‘ते’ Àà’ आदेश के परे रहते सकार को मूर्धन्य हुआ है । तद्वत् क्रम से उदाहरण दिये हैं । तत् शब्द निपात है, तथा ‘ततक्षुः’ तक्ष धातु के उस में बना रूप है । षत्व कर लेने पर ष्टुत्व हो ही जायेगा || पदान्तार्थ ही यह सूत्र भी है ।
यहाँ से ‘युष्मत्तत्ततक्षुःषु’ की अनुवृत्ति ८|३|१०४ तक जायेगी ||
यजुष्येकेषाम् ||८|३ | १०४ ॥
यजुषि ७|१|| एकेषाम् ६|३|| अनु० - युष्मत्तत्ततक्षुःषु तादौ सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- यजुषि विषये तादौ युष्मत्तत्ततक्षुःषु परत एकेषामाचार्याणां मतेन इण्कोरुत्तरस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा०- अचिभिष्ट्वम्, अर्चिभिस्त्वम् । अग्निष्टेऽग्रम्, अभिस्तेऽग्रम् | अग्निष्टत्, अग्निस्तत् । अर्चिभिष्टतक्षुः, अर्चिर्भिस्ततक्षुः ॥
भाषार्थ :- [ यजुषि ] यजुर्वेद में तकारादि युष्मद् तत् तथा ततक्षुसदः ]
अष्टमोऽध्यायः
६६७
[ एकेषाम् ] एक = किन्हीं
रे रहते इण् तथा कवर्ग से उत्तर सकार को आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश होता है | एकेषाम् ग्रहण विकल्पार्थ है, अर्थात् एक के मत में होता है, एक के मत में नहीं सो पक्ष में षत्व नहीं होता || पूर्ववत् पदान्तार्थ यह सूत्र भी है || सु को विसर्जनीय तत्पश्चात् पूर्ववत् सत्व (८|३|३४) होकर पल हुआ है ।
यहाँ से ‘एकेषाम्’ की अनुवृत्ति ८|३|१०६ तक जायेगी ||
स्तुतस्तोमयोच्छन्दसि ||८|३|१०५ ॥
||
स्तुतस्तोमयोः ६|२|| छन्दसि ॥१॥ स० - स्तुत० इत्यत्रेतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० — एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- इणूकवर्गाभ्यामुत्तरस्य स्तुत, स्तोम [त्येतयोः सकारस्य छन्दसि विषय एकेषामाचार्याणां मतेन मूर्धन्यादेशो नवति || उदा० - त्रिभिष्टुतस्य, त्रिभिस्तुतस्य । गोष्टोमं षोडशिनम्,
स्तोमं षोडशिनम् ||
भाषार्थ :- इण् तथा कवर्ग से उत्तर [स्तुतस्तोमयो: ] स्तुत तथा स्तोम के सकार को [छन्दसि ] वेद विषय में कई आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश होता है । पूर्ववत् यहाँ भी एकेषाम् ग्रहण से विकल्प होता है || दादि लक्षण सात्पदाद्यो: ( ८|३|१११ ) से प्रतिषेध प्राप्त था, तदर्थ यह
धान है ||
यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ८|३|१०६ तक जायेगी ||
पूर्वपदात् ||८|३|१०६ ॥
पूर्वपदात् ५|१|| स० – पूर्वञ्चादः पदश्च पूर्वपदम् तस्मात् ‘कर्मधार- तत्पुरुषः ॥ अनु० - छन्दसि एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीय- व्यवायेऽपि अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ श्रर्थः – पूर्वपदस्था नमित्तादुत्तरस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति छन्दसि विषय एकेषामा- र्याणां मतेन ॥ उदा० - द्विषन्धिः, त्रिपन्धिः, मधुष्ठानम् द्विषाहसं कन्वीत | पक्षे - द्विसन्धिः, त्रिसन्धिः, मधुस्थानम्, द्विसाहस्रं चिन्वीत ॥
१. स्तोम शब्द में अत्तिस्तु० ( उणा ० १ १४० ) से मन प्रत्यय ष्टु धातु से आ है, अतः पदादि लक्षण निषेध प्राप्ति थी । स्तुत क्तान्त है ही ।
!

६९८ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ तृर्त भाषार्थ:- [पूर्वपदात् ] पूर्वपद में स्थित निमित्त ( इणू तथा कव से उत्तर सकार को वेद विषय में कई आचार्यों के मत में मूर्धन्य आ होता है ॥ द्विषन्धिः, त्रिषन्धिः में षष्ठीतत्पुरुष अथवा बहुव्रीहि सम है । मधुष्ठानम् में षष्ठीसमास, तथा द्विषाहस्रम् में तद्धितार्थ० (२1१14 से समास हुआ है, अतः तत्र भवः ( ४ | ३ |५३ ) से अणू एवं सख्याया ( ७१३।१५) से उत्तरपद को वृद्धि हुई है । पूर्ववत् यहाँ भी विका होता है ॥ यहाँ से ‘पूर्वपदात्’ की अनुवृत्ति ८|३|१०६ तक जायेगी || सुञः || ८|३|१०७ ॥

सुनः ६६१॥ अनु० पूर्वपदात् छन्दसि सः इण्कोः, तुम्बिस नीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- पूर्वप स्थान्निमित्तादुत्तरस्य सुनः सकारस्य छन्दसि विषये मूर्धन्यादेशो भवति उदा० - अभीषणः सखीनाम् (ऋ० ४/३११३) । ऊर्ध्व ऊषुण (ऋ० ११३६।१३) । भाषार्थ:- पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर [सुञः ] सुन् निपात के सकार को वेद विषय में मूर्धन्य आदेश होता है ॥ इकः सुवि (६|३|१३२ ) से सुन से पूर्व को दीर्घ तथा नश्च धातुस्थो० (८३४/२६) से नस् के न कोण हुआ है । सनोतेरनः ||८|३ | १०८ ॥ सनोतेः ६|१|| अनः ६|१|| स०- अविद्यमानो नकारो यस्य स अन् तस्मात् बहुव्रीहिः ॥ अनु - पूर्वपदात्, छन्दसि सः, इण्कोः, नुम्बि- सर्जनीयर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- अनकारान्तस्य सनोतेः सकारस्य मूर्धन्यादेशो भवति छन्दसि विषये || उदा० - गोषाः, नृषाः ॥ भाषार्थ:— [अन: ] अनकारान्त ( नकार भिन्न ) [ सनोतेः] सन् धातु के सकार को वेद विषय में मूर्धन्य आदेश होता है | सिद्धि सूत्र ३ |२| ६७ में देखें | सन् धातु के न् को आत्व हो जाने से अनकारान्त सन् उदाहरणों में है । पूर्वपदात् से ही षत्व सिद्ध था पुनः यह सूत्र नियम करता है कि ‘अनकारान्त सन् को ही षत्व हो’ || |पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ६६६ सहेः पृतनर्त्ताभ्यां च ||८|३ | १०९ ॥ सहे ः ६|१|| पृतनर्त्ताभ्याम् ५|२|| च अ० ॥ स० - पृतना च ऋत पृतनर्त्ते, ताभ्यां इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् || अनु० - पूर्वपदात् छन्दसि सः अर्थ:- पृतना ऋत इत्येताभ्या मुत्तरस्य सहे : सकारस्य छन्दसि विषये मूर्धन्यादेशो भवति ॥ उदा०- पृतनाषाहम्, ऋताषाहम् ॥ भाषार्थ:- [पृतनर्त्ताभ्याम् ] पृतना तथा ऋत शब्द से उत्तर [च] भी [ सहे : ] सह धातु के सकार को वेद विषय में मूर्धन्य आदेश होता है | उदाहरणों में सहू से छन्दसि सह: (३३२३६३) से ण्वि प्रत्यय तथा ऋत को श्रन्येषामपि ० (६|३|१३५ ) से दीर्घ हुआ है । द्वितीयान्त के ये रूप हैं । इणू से उत्तर न होने से पूर्वपदात् से प्राप्त नहीं था, विधान कर दिया || न रपरसृपिसृजिस्पृशिस्ट्रहिसवनादीनाम् ||८|३ | ११० ॥ न अ० ॥ रपर दीनाम् ६|३|| स० - रः परो यस्मात् स रपरः, बहुव्रीहिः । सवनमादिर्येषां ते सवनादयः, बहुव्रीहिः । रपरश्च सुपिश्च सृजिश्व स्पृशिश्व स्पृहिच सवनादयश्च रपरदयस्तेषां इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० – सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थः- रेफपरस्य सकारस्य, सृपि सृजि, स्पृश, स्पृहि इत्येतेषां सवनादीनाञ्च सकारस्य मूर्धन्यो न भवति ॥ पूर्वपदात् ( ८|३|१०६ ) इति प्राप्ते प्रतिषिध्यते ।। उदा० - रपरः - विस्रंसिकायाः काण्डं जुहोति । विस्रब्धः कथयति । सुपि पुरा करस्य विसृपः । सृजि- वाचे विसर्जनात् । स्पृशि - दिवस्पृशम् । स्पृहि - निस्पृह कथयति । सवना- दीनाम् - सवने सवने, सूते २, सामे २ ॥ ·

भाषार्थ: - [ रपर दीनाम् ] रेफ परे है जिससे उसके सकार को तथा सृप्ल, सृज, स्पृश, स्पृह एवं सवनादि गणपठित शब्दों के सकार को मूर्धन्य आदेश इण् कवर्गे से उत्तर [न] नहीं होता | पूर्वपदात् से प्राप्ति का यह प्रतिषेध है || विसिकायाः (६२) यहाँ वि पूर्वक स्रंसु से संज्ञायाम् (३३३३१०९) से ण्वुल् हुआ है । विस्रब्धः सम्भु धातु के क्त का रूप है । अनिदितां ० (६।४।२४) से नलोप, झषस्त० (८|२|४०)
७००
अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ
[ तृतीय: से धत्व एवं जश्त्व ( ८|४|५२) बू होकर विस्रब्धः बना है । यस्य विभाषा (७/२/१५) में इट् प्रतिषेध भी यहाँ जानें । यहाँ स् से परे रेफ है । ‘विसृप:’ में सृपितृदो : ० (३|४|१७ ) से कसुर तथा ‘विसर्जनात् ’ में ल्युट् है । दिविस्पृशम् में स्पृशो ऽनु० (३१२१५८ ) से किन् हुआ है, द्वितीयान्त का यह रूप है । तत्पुरुषे कृति० (६३११२) से यहाँ विभक्ति का अलुक् भी हुआ है । निस्पृहम् में एरच (३३३३५६ ) से अच् प्रत्यय तथा णि का लोप (६६४१५१) हुआ है । पुन् का ल्युट् सप्तयन्त में सवने रूप है, वीप्सा में द्वित्व सर्वत्र हुआ है । पूङ् का क्त में सूत तथा उणादि १।१४० से सोम बना है ||
यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति ८|३|११९ तक जायेगी ||
"
}
सात्पदाधोः || ८|३|१११ ॥
सात्पदाद्योः ६|२|| स= – पदस्य आदि पदादिः, षष्ठीतत्पुरुषः । सात् च पदादिश्च सात्पदाद्यौ तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० – न, सः, इण्कोः, नुम्बिसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:-सात् इत्येतस्य पदादेश्च सकारस्य मूर्धन्यादेशो न भवति || आदेशप्रत्यययो: ( ८ (३/५९) इत्यनेन प्राप्ते प्रतिषिध्यते ॥ उदा० – सात्- अग्निसात्, दधिसात् मधुसात् । पदादे:-दधि सिञ्चति मधु सिञ्चति ॥ भाषार्थ :- इण् तथा कवर्ग से उत्तर [सात्पदाद्योः ] सात् तथा पद् के आदि के सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता | विभाषा साति कारस्न्यें (५/४/५२ ) से साति प्रत्यय होता है, अतः प्रत्यय का सकार होने से षत्व प्राप्त था, निषेध कर दिया, एवं पदादि से आदेश लक्षण (८३५६) पत्व की जो प्राप्ति थी उसका निषेध होता है । पिच् धातु के षू को स हुआ है, अतः सिञ्चति का सू आदेश का स् है । शे मुचादीनाम् (७/११५९) से नुम् होकर सि नुम् च् अति = रचुत्व होकर सिञ्चति
बन गया ||
सिचो यङि || ८|३|११२ ॥
सिचः ६|१|| यङि ७|१|| अनु० – न, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् । अर्थ :– इण्कोरुत्तरस्य सिचः सकारस्य यङि परतो मूर्धन्यादेशो न भवति || उदा० – सेसिच्यते, अभिसेसिच्यते ॥पादः ]
अष्टमोऽध्यायः
७०१
भाषार्थ:- इण् तथा कवर्ग से उत्तर [ सिचः ] सिचू के सकार को [यङि ] यङ् परे रहते मूर्धन्य आदेश नहीं होता || सेसिच्यते में आदेश- प्रत्यययोः (६३३३५६ ) से सि के स् को पत्व प्राप्त था, तथा उपसर्गात् सुनोति (८|३|६५) से अभिसेसिच्यते में प्राप्त था, निषेध कर दिया || सेधतेर्गतौ || ८|३|११३||
सेधतेः ६|१|| गतौ ७|१|| अनु० – न, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य
मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:- गतावर्थे वर्त्तमानस्य सेधतेः सकारस्य मूर्धन्यादेशो न भवति || उदा० - अभिसेधयति गाः, परिसेधयति गाः || भाषार्थ : - [गतौ ] गति अर्थ में वर्त्तमान [सेधते : ] पिध गत्याम् धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता || षिधू शास्त्रे माङ्गल्ये च तथा षिध गत्याम् इन दोनों धातुओं का उपसर्गात् सुनोति० (८१३१६५) के सिध निर्देश से वहाँ ग्रहण हो सकता है, अतः उस सूत्र से उभयत्र षत्व प्राप्ति थी, गति अथ वाले पिध का निषेध कर देने से यहाँ पिघ गत्याम् वाले सिधू को षत्व नहीं हुआ || प्रतिस्तब्धनिस्तब्धौ च ॥ ८|३ | ११४ ॥ प्रतिस्तब्धनिस्तब्धौ ११२|| च अ० ॥ अनु० - न, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थ:- प्रतिस्तब्ध निस्तब्ध इत्यत्र मूर्धन्याभावो निपात्यते ॥ स्तन्भेरिति प्राप्ते प्रतिषिध्यते ॥ उदा०- प्रतिस्तब्धः, निस्तब्धः ॥ भाषार्थ:- [प्रतिस्तब्धनिस्तब्धौ ] प्रतिस्तब्ध निस्तब्ध शब्दों में [च] भी मूर्धन्याभाव निपातन है || स्तन्भेः (१३/६७) से पत्व प्राप्ति थी, निषेध निपातन कर दिया ॥ स्तन्भु के न का लोप (६१४ | २४ ) तथा निष्ठा के त को धत्वं एवं जश्त्व ( ८/४१५२ ) होकर प्रतिस्तब्धः निस्तब्धः बना है || ॥ सोढः || ८|३ | ११५ || सोढः ६|१|| अनु० - न, सः, इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहिता - याम् || अर्थ: - सोद् इत्यस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो न भवति ॥ सोद्भूतः सहधातुरत्र गृह्यते सोद् इत्यनेन ॥ उदा० – परिसोढः, परिसोढुम्, परिसोढव्यम् ॥ || 起 ७०२ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ तृती भाषार्थ:– [सोढः ] सोढ़ के सकार को मूर्धन्यादेश नहीं होता । स धातु का ढत्वधत्वष्टुत्वादि करके जो सोदू रूप बनता है, उसका । यहाँ सूत्र में निर्देश कर दिया है | परिनिविभ्यः सेवसित (८२३) ७० से यहाँ षत्व प्राप्ति थी, प्रतिषेध कर दिया || सहिवहोरोद० (६|३|११० से सहू के अवर्ण को ओत् होकर परिसोढः आदि प्रयोग बनेंगे । शे हो ढः (८२३२) आदि से दत्वादि कार्य बहुत बार दिखाया ज चुका है || स्तम्भुसिहां चडि || ८|३|११६|| स्तम्भुसिवु सहाम् ६|३|| चङि ७|१|| स - स्तम्भुश्च सिवुश्च सह् स्तम्भुसिबुसहस्तेषां इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अनु० - न, सः, इण्को:, अपदान्त स्य मूर्धन्यः, संहितायाम् ॥ अर्थ:-स्तम्भु, सिवु, सह इत्येतेषां सकारस्य चङि परतो मूर्धन्यादेशो न भवति ॥ स्तन्भः (८३३६७) परिनिविभ्यः० इति च प्राप्ते प्रतिषिध्यते ॥ उदा०–स्तम्भु - पर्यतस्तम्भत्, अभ्यत स्तम्भत् । सिवु पर्यसीषिवत् न्यसीषिवत् । सह पर्यसीषहत् । - न्यसीषहत् ॥ । भाषार्थ :- [स्तम्भुसिबुस हाम् ] स्तम्भु, षिवु, तथा पह धातु के सकार को [ चङि ] च परे रहते मूर्धन्य आदेश नहीं होता ॥ स्तम्भु को स्तन्भे: ( ८|३|६७) से तथा अन्यों को परिनिविभ्यः० (८१३१७०) से पत्व प्राप्त था, प्रतिषेध कर दिया । उपसर्ग से उत्तर इनके अभ्यास के सकार को स्थादिष्वभ्यासेन चा० (८|३|६४ ) से तथा सिवादीनां ० (८|३३७१) से अटू के व्यवाय में भी पत्व प्राप्ति थी, प्रतिषेध हो गया । अभ्यास से उत्तर तो आदेश ० (८३१५६ ) से षत्व हो ही जायेगा || णिजन्त के लुङ में सिद्धियाँ बहुत बार परि० ६१११११ आदि में दिखा चुके हैं तद्वत् यहाँ भी जानें | पर्यंतस्तम्भत् में शर्पूर्वाः खय: ( ७ | ४|६१ ) से अभ्यास का खय् शेष रहा है । सिव् को लघूपध गुण तथा सह् की उपधा को वृद्धि णिच् परे हुई थी, सो दोनों को णौ चड्यु० (७|४|१) से ह्रस्व एवं सन्वदुभाव होकर अभ्यास को अपीपचत् के समान इत्यादि कार्य हुए हैं ।द: ] अष्टमोऽध्यायः सुनोतेः स्यसनोः || ८|३ | ११७॥ ७०३ सुनोतेः ६|१|| स्यसनोः ७|२|| स० - स्यश्च सन् च स्यसनौ तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ श्रनुन, सः इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थ:-स्ये सनि च परतः सुनोतेः सकारस्य मूर्धन्यादेशो न भवति ॥ उदा० - अभिसोष्यति, परिसोष्यति, अभ्यसोष्यत् (लङ् ) पर्यसोष्यत् । सनि-अभिसुसूः ॥ 1 भाषार्थः – [स्यसनोः ] स्य तथा सन् परे रहते [सुनोतेः] सुनोति ( पुर् ) के सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता || उपसर्गात् सुनोति (८/३/६५ ) से षत्व प्राप्ति थी प्रतिषेध कर दिया । सन्नन्स के उदाहरण में ‘अभि सुसूष’ परि० ९२राह के चिचीषति के समान बना । पश्चात् ‘सुसूष’ की धातु संज्ञा होकर उससे क्विप् (३|२|७६) हुआ । क्विप् का सर्वापहारी लोप एवं अतो लोपः (६।४।४८) लगकर तथा षत्व के असिद्ध हो जाने से षू को स् मानकर रुत्व विसर्जनीय होकर ‘अभिसुसू:’ बन गया || सदेः परस्य लिटि || ८ | ३ | ११८ || ८|३|११८ । सदेः ६ |१|| परस्य ६ | १ || लिटि ७|१|| अनुन, सः इण्कोः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, संहितायाम् || अर्थ:- सदेः धातोर्लिटि परतः परस्य सकारस्य मूर्धन्यो न भवति || उदा० - अभिषसाद, परिषसाद, निषसाद, विषसाद || भाषार्थ : - [ लिटि] लिट् परे रहते [सदे:] पद धातु के [परस्य ] पर वाले सकार को मूर्धेन्य आदेश नहीं होता है | लिट् में द्विर्वचन कर लेने पर दो सकार हो जाते हैं, तो स्थादिष्वभ्या० (८|३|६४) सूत्र से अभ्यास के व्यवाय में भी सदिरप्रतेः (८|३|६६ ) से पर वाले सकार को षत्व प्राप्त था, निषेध हो गया । पूर्व वाले सकार को तो सदिरप्रते: से षत्व हो ही जायेगा, क्योंकि यहाँ पर वाले का ही निषेध है ।। निव्यभिभ्योऽव्यवाये वा छन्दसि ||८|३ | ११९ || निव्यभिभ्यः ५ | ३ || अड्व्यवाये ७|१|| वा अ० || छन्दसि ७|१|| ५|३|| स० - निश्च विश्व अभिश्च निव्यभयस्तेभ्यः इतरेतरद्वन्द्वः । अटा ari ७०४ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्ती [ तृतीय: इण्को:, व्यवायोऽडूव्यवायस्तस्मिन् तृतीयातत्पुरुषः ॥ अनु० - न, सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः संहितायाम् ॥ अर्थ:-नि, वि, अभि इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्य उत्तरस्य सकारस्याड्व्यवाये छन्दसि विषये विकल्पेन मूर्धन्यादेशो न भवति ॥ उदा० न्यषीदत् पिता नः । व्यषीदत् पिता नः । व्यष्टौत्, अभ्यष्टोत् । पक्षे- न्यसीदत् (ऋ०८१८१११) व्यसीदत्, व्यस्तीत्, अभ्यस्तीत् ॥ भाषार्थ:– [ निव्यभिभ्यः ] नि, वि तथा अभि उपसर्गों से उत्तर सकार को [ अड्व्यवाये] अद् का व्यवधान होने पर [ छन्दसि ] वेद विषय में [व] विकल्प से मूर्धन्य आदेश नहीं होता । अर्थात् विकल्प होता है | पूर्व सूत्र से ‘सदेः’ की अनुवृत्ति नहीं आ रही, अतः सामान्य रूप से इन उपसर्गों से उत्तर सकार को पत्व का विकल्प होता है । इस प्रकार जिस किसी सूत्र से पत्व की प्राप्ति हो उसी का छन्द में पक्ष में प्रतिषेध हो जाता है । पल को पाघ्राध्मा० (७।३।७८) से सीद आदेश होकर लड में न्यषीदत् आदि प्रयोग बने हैं, सो सदिरप्रतेः ( ८|३|६६ ) से नित्य षत्व प्राप्त था, विकल्प कर दिया । व्यष्टोत् आदि में उपसर्गात् सुनो० (८१३।६५ ) की नित्य प्राप्ति थी, विकल्प कर दिया । वि अस्तौ तू = (लड् ) व्यष्टोत्, व्यस्तौत् उतो वृद्धि० (७१३३८९) से वृद्धि एवं शप का लुक् (२|४|७२) होकर बन गया है || ॥ इति तृतीयः पादः ॥ -::— चतुर्थः पादः रषाभ्यां नो णः समानपदे || ८|४|१|| ।।
  • अर्कः, मत में [सर्वत्र ] भाषार्थ:– [ शाकल्यस्य ] शाकल्य आचार्य के सर्वत्र अर्थात् त्रिप्रभृति अथवा अत्रिप्रभृति सर्वत्र द्वित्व नहीं होता || अर्क: इत्यादि में चो रहाभ्यां द्वे से द्वित्व प्राप्ति थी, प्रतिषेध हो गया || दीर्घादाचार्याणाम् ||८|४|५१ ॥ || दीर्घात् ५|१|| आचार्याणाम् ६|३|| अनु न, द्वे, संहितायाम् ॥ अर्थ :- दीर्घादुत्तरस्याचार्याणां मतेन द्वित्वं न भवति || उदा० - दात्रम्, पात्रम्, सूत्रम्, मूत्रम् ॥ भाषार्थ: - [ दीर्घात् ] दीर्घ से उत्तर [आचार्याणाम् ] सभी आचार्यों के मत में द्वित्व नहीं होता | दात्रम् आदि में अनचिच से द्वित्व प्राप्ति थी, निषेध हो गया || झलां जश् झशि || ८|४|५२ || || अनु० - संहितायाम् ॥ झशि परतः ॥ उदा० - लब्धा, झलाम् ६|३|| जशू १|१|| झशि ७ | १ || अर्थ:- झलां स्थाने जरा आदेशो भवति लब्धुम् लब्धव्यम् । दोग्धा, दोग्धुम् दोग्धव्यम् । बोद्धव्यम् ॥ 7

बोद्धा, बोद्धुम, भाषार्थ:– [झलाम् ] झलों के स्थान में [शि ] झश् परे रहते [जश्] जशू आदेश होता है । लब्धा में लभ के भू को ब् जश्त्व हुआ है, शेष घत्वादि (८२४०) हो ही जायेंगे ! दोग्धा में दुहू को दादे- तोर्घः (८/२/३२ ) से हू को व् होकर पश्चात् घ् को ग जश्त्व हुआ है ||पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ७३१ यहाँ से ‘झलाम्’ की अनुवृत्ति ८३४१५५ तक तथा ‘जशू’ की ८|४|५३ तक जायेगी || अभ्यासे चर्च ||८|४|५३|| अभ्यासे |१|| चर् १|१|| च अ० ॥ अनु—झलाम्, जशू, संहितायाम् ॥ श्रर्थः - अभ्यासे वर्त्तमानानां झलां चर आदेशो भवति चकारात् जश् च ॥ उदा— चिखनिपति, चिच्छित्सति, टिठकारयिषति, तिष्ठासति, पिफकारयिषति । जश्- बुभूषति, जिघत्सति, डुढौकिषते || भाषार्थ :- [अभ्यासे ] अभ्यास में वर्त्तमान झलों को [चर् ] चर आदेश होता है, तथा चकार से जश् [च] भी होता है || चिखनिषति में खन धातु से सन् आकर द्वित्वादि होकर ‘ख खनिष’ रहा । कुहोश्चुः ( ७|४| ६२ ) से अभ्यास को चुत्व छ होकर पश्चात् उस छू को प्रकृत सूत्र से चू हो गया है । हिदू से चिच्छित्सति छे च (६।१।७१) से तुक् आगम एवं श्चुत्व होकर बना है । ठकार एवं फकार से पटयति (दे० परि० १|१|५६) के समान णिच् प्रत्यय आकर एवं टिलोप होकर ठकारय् फकारय् धातु बनें ! पश्चात् सन् इट् तथा ‘ठ ठकारयिष’ ‘फ फकारयिष द्वित्व एवं प्रकृत सूत्र से चर होकर टिठकारयिषति, पिफकारयिपति बन गया । तिष्ठासति में शर्- पूर्वा: खय: ( ७१४/६१ ) से अभ्यास का खय शेष रहा है । बुभूषति आदि में अभ्यास को जशू हुआ है । जिघत्सति की सिद्धि परि २|४|३७ में देखें | डुढौकिपते ढौ धातु से अभ्यास को ह्रस्वः (७१४/५६ ) से ह्रस्व होकर बना है || स्थानेऽन्तरतमः ( १११ ४९ ) के नियम से वर्ग के प्रथम द्वितीय वर्ण के स्थान में चर् उस वर्ग का प्रथम और तृतीय चतुर्थ वर्ण के स्थान जश् अर्थात् तृतीय आदेश होता है || में यहाँ से ‘चर’ की अनुवृत्ति ८|४|१५ तक जायेगी || खरि च || ८|४|५४ | खरि ७|१|| च अ० ॥ अनु० - चर्, झलाम्, संहितायाम् ॥ अर्थ:- खरि परतो झलां चर् आदेशो भवति ।। उदा० - भेत्ता, भेत्तुम्, भेतव्यम्, युयुत्सते, आप्सिते, आलिप्सते ।। भाषार्थ:– [ खरि] खर् परे रहते [च] भी झलों को चर् आदेश ७३२ अष्टाध्यायी प्रथमावृत्तौ [ चतुर्थ: होता है । भेत्ता आदि में दू को त् एवं युयुत्सते में धू को तू तथा आप्सिते, आलिप्सते में भू को प्चर हुआ है । आरिप्सते आलिप्सते में देखें ॥ की सिद्धि ७७४|५४ सूत्र वावसाने || ८|४|५५ | वा अ० || अवसाने ७११ || अनु० - चर्, झलाम्, संहितायाम् ॥ अर्थ :- अवसाने वर्त्तमानानां झलां वा चर् आदेशो भवति ॥ उदा०- वाच् - वाकू, वाग् । त्वच्-त्वक् त्वम् । श्धलिङ्-श्वलिट्, श्वलिड् । त्रिष्टुम् - त्रिष्टुप् त्रिष्टुब् ॥ " भाषार्थ:– [अवसाने] अवसान में वर्त्तमान झलों को [वा] विकल्प करके चर आदेश होता है | जब पक्ष में चर नहीं होगा तो झल जशोऽन्ते (८/२/३६ ) से हुआ जशू ही रहेगा । वाक् की सिद्धि परि० १|२|४१ में देखें । तद्वत् अन्य सिद्धियाँ हैं ॥ यहाँ से ‘वावसाने’ की अनुवृति ८|४|५६ तक जायेगी || अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः || ८|४|५६ || अणः ६ | १ || अप्रगृह्यस्य ६ | १|| अनुनासिकः १११ || सन प्रगृह्यम् अप्रगृह्यम् तस्य ‘नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० - वावसाने, संहितायाम् ॥ अर्थ :- अप्रगृह्यसंज्ञकस्याऽणोऽवसाने वर्त्तमानस्य वाऽनुनासिका देशो भवति ॥ उदा० दधि, दधिँ । मधु, मधु । कुमारी, कुमारीं ॥ भाषार्थ :- अवसान में वर्त्तमान [अप्रगृह्यस्य ] प्रगृह्यसंज्ञक से भिन्न [ अण: ] अणू को विकल्प से [ अनुनासिकः ] अनुनासिक आदेश होता है | अणु से यहाँ पूर्व णकार (अइउण् वाला) से ग्रहण है । दधि, मधु के सु का स्वमोर्नपुंसकात् (७११/२३) से लुक हुआ है । अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः || ८ | ४ | ५७ || अनुस्वारस्य ६|१|| ययि जशा परसवर्णः १|१|| स० — परस्य सवर्णै: परसवर्णैः, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - संहितायाम् ॥ अर्थ:– अनुस्वारस्य ययि परतः परसवर्णादेशो भवति ॥ उदा० - शङ्किता, शङ्कितुम्, शङ्कितव्यम् । उच्छिता, उच्छितुम्, उच्छितव्यम् । कुण्डिता, कुण्डितुम्,पादः ] अष्टमोऽध्यायः ७३३ कुण्डितव्यम् । नन्दिता, नन्दितुम्, नन्दितव्यम् । कम्पिता, कम्पितुम्, कम्पितव्यम् ॥ भाषार्थ:— [अनुस्वारस्य ] अनुस्वार को [य] ययू ( प्रत्याहार) परे रहते [परसवर्णः] परसवर्ण (अर्थात् परे जो वर्ण हो उसका सवर्णीय वर्ण) आदेश होता है || शकि, उछि, कुडि, टुनदि, कपि ये सभी धातुएं इदित हैं, अतः इदितो नुम्धातोः (७/११५८) से इन्हें नुम् आगम होकर न को नश्चाऽप ( ८1३1२४ ) से अनुस्वार हो गया, पश्चात् प्रकृत सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण आदेश होने से शङ्किता में कका पर सवर्णीय ङ, उच्छिता में छू का परसवर्णीय व् कुण्डिता में डू का परसवर्णीय णू एवं नन्दिता, कम्पिता में इसी प्रकार न्, म् परसवर्ण आदेश हो गये हैं | यहाँ से ‘अनुस्वारस्य ययि’ की अनुवृत्ति ८|४|५८ तक तथा ‘पर’ की ८|४|५९ एवं ‘सवर्ण:’ की ८|४|११ तक जायेगी || वा पदान्तस्य ||८|४|५८|| वा अ० || पदान्तस्य ६|१|| स० - पदस्य अन्तः पदान्तस्तस्य षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० - अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः, संहितायाम् ॥ || अर्थ:– पदान्तस्यानुस्वारस्य ययि परतो वा परसवर्णादेशो भवति || उदा० - तङ्कथञ्चित्रपक्षण्डयमानन्नभःस्थम्पुरुषोऽवधीत् । पक्षे तं कथं चित्रपक्षं डयमानं नभःस्थं पुरुषोऽवधीत् ॥ || भाषार्थ : - [पदान्तस्य ] पदान्त के अनुस्वार को यय् परे रहते [वा] विकल्प से परसवर्णादेश होता है । पूर्व सूत्र से नित्य प्राप्ति थी, विकल्प कर दिया || मोडनुस्वारः (८/३/२३) से पदान्त म् को अनुस्वार उदाहरणों में सर्वत्र हुआ है || तोलि ||८|४|५९|| तो : ६३२ || लि ७|१|| अनु - परसवर्णः, संहितायाम् ॥ अर्थ:- तवर्गस्य लकारे परतः परसवर्णादेशो भवति || उदा०– अग्निचिल्लुनाति, सोमसुल्लुनाति । भवाल्लुनाति, महाल्लुनाति ॥ भाषार्थ:- [तोः ] तवर्ग के स्थान में [लि] लकार परे रहते, परसवर्ण आदेश होता है | अग्निचिल्लुनाति में तू को परसवर्णं शुद्ध लू एवं ७३४ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ चतुर्थ: भवल्लुनाति में न् को परसवर्ण स्थानेऽन्तरतमः ( ११११४९ ) से सानुनासिक’ लू होता है, अतः ‘भवाँल्लुनाति’ ऐसा होता है || उद: स्थास्तम्भोः पूर्वस्य || ८|४| ६० ॥ अनु– सवर्णः, संहितायाम् ॥ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति || उत्थातव्यम् । स्तम्भेः - उत्तम्भिता, उद: ५|२|| स्थास्तम्भोः ६२|| पूर्वस्य ६ | १ || स० – स्थाश्च स्तम्भू च स्थास्तम्भौ, तयोः इतरेतरद्वन्द्वः ॥ अर्थः- उद उत्तरयो: स्था स्तम्भ उदा० -स्था - उत्थाता, उत्थातुम् उत्तम्भितुम्, उत्तम्भितव्यम् ॥ २ भाषार्थ :- [ उद: ] उत् उपसर्ग से उत्तर [ स्थास्तम्भोः ] स्था तथा स्तम्भ को [ पूर्वस्य ] पूर्वसवर्ण आदेश होता है || आदेः परस्य (११११५३) से स्था तथा स्तम्भ के सकार को पूर्वसवर्ण होगा, सो अघोष तथा महा- प्राण प्रयत्न वाले सकार का अन्तरतम अर्थात् उसी प्रयत्न वाला थकार पूर्वसवर्ण हो गया, तो उत् थ् थाता = उत्थ्याता रहा । झरो झरि सवर्णे (८/४/६४ ) से पक्ष में एक थकार का लोप हो गया तो उत्थाता बना । पक्ष में जब थकार का लोप नहीं होगा तो उत्थ्याता बनेगा । इसी प्रकार उत्तम्भिता, उत्त्तम्भिता रूप भी बनेंगे ॥ यहाँ से ‘पूर्वस्य’ की अनुवृत्ति ८|४|६१ तक जायेगी || झयो होऽन्यतरस्याम् ||८|४|६१ || झयः ५|१|| हः ६|१|| अन्यतरस्याम् ७|१|| अनु० पूर्वस्य, सवर्णः, संहितायाम् | अर्थ:- झय उत्तरस्य हकारस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति Inal– १. श्रन्तस्थ अर्थात् य, ल, व सानुनासिक एवं निरनुनासिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। देखो वर्णों० ७५, पृ० १६ । इसीलिये निरनुनासिक एवं सानुनासिक दो प्रकार का लू यहाँ इष्ट है || २. देखो वर्णों ० ६१, ६२ पृ० १४ ॥ ३. कई आचार्य बाह्य प्रयत्न की साम्यता की उपेक्षा करके तकार का पूर्ण सवर्णीय तकार ही करते हैं उनके मत में उत्त्थाता उत्त्तम्भिता रूप बनता है । थकार पक्ष में पूर्वसवर्ण के प्रसिद्ध होने से चर्च नहीं होता ||पादः ] अष्टमोऽध्यायः ७३५ विकल्पेन ॥ उदा० - वागूहसति वाग्घसति । श्वलिड्सति, श्वलिड- ढसति । अग्निचिहसति, अग्निचिद्धसति । सोमससुद्दसति, सोमसुद्ध- । सति । त्रिष्टुव्हसति, त्रिष्टब्भसति || भाषार्थ: - [झयः ] झय्, ( प्रत्याहार) से उत्तर [ह] हकार को [अन्यतरस्याम्] विकल्प से पूर्वसवर्ण आदेश होता है ।। सर्वत्र स्थानेs- न्तरतमः (११११४६ ) से अन्तरतम पूर्वसवर्ण होगा, और यह आन्तर्य वर्णोच्चारणशिक्षा में उल्लिखित स्थान और प्रयत्न के अनुसार होता है, अर्थात् जिस वर्ण का जिस वर्ण के साथ स्थान, एवं प्रयत्न मिल जाये, वही आन्तर्य है इस प्रकार ग् से उत्तर महाप्राणे हू को पूर्वसवर्ण घ्, ड् से उत्तर ह् को ढ् द् से उत्तर ह् को ध्, एवं बू से उत्तर हू को भू ये महाप्राण अपने वर्ग के चतुर्थ अक्षर हुये हैं || दू, यहाँ से ‘भय’ की अनुवृत्ति ८|४|६२ तक तथा ‘अन्यतरस्याम्’ की ८|४|६४ तक जायेगी ॥ शरछोटि ||८|४|६२॥ शः ६|१|| छः १|१|| अटि ७|१|| अनु० -झयोऽन्यतरस्याम् संहितायाम् ॥ अर्थ :- झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतइछकारादेशो भवति विकल्पेन || उदा० - वाक्छेते, वाक्शेते । अग्निचिच्छेते, अग्निचिच्शेते । सोम- सुच्छेते, सोमसुच्शेते’ । श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते । त्रिष्टुप्छेते, त्रिष्टुप् शेते ।। भाषार्थ: - झय् प्रत्याहार से उत्तर [शः ] शकार के स्थान में [अट] अटू परे रहते [छ ] छकार आदेश विकल्प से होता है । उदाहरणों में झय् से उत्तर शू है एवं शू से परे अट् प्रत्याहार है ही, अतः छत्व हो गया है ॥ हलो यमां यमि लोपः ||८|४|६३ || हल: ५|१|| यमाम् ६|३|| यमि ७|१|| लोपः १|१|| अनु० - अन्यत- रस्याम्, संहितायाम् ॥ अर्थ:- हल उत्तरेषां यमां यमि परतो लोपो भवति विकल्पेन || उदा० शय्या, शय्य्या | आदित्यः आदित्य्यः । आदित्य्यः, आदित्य्य्यः ॥ १. देखो वर्णों ० ‘एके अल्पप्राणा इतरे महाप्राणाः ६२ ॥ २. जब संहिता विवक्षित नहीं होगी तब ‘अग्निचित् शेते, सोमसुत् शेते’ होगा ॥ ७३६ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ । [ चतुर्थः शय्या की सिद्धि सूत्र ३३६ नचि च (८४१४६ ) से पक्ष में सो उनमें से एक यू से उत्तर भाषार्थ:– [हल: ] हल से उत्तर [यमाम् ] यम् का [यमि] यम् परे रहते विकल्प से [लोप: ] लोप होता है में देखें । यहाँ विशेष यह है कि जब यू को द्वित्व हुआ तो तीन यकार हो गये, एक यू के परे रहते मध्य वाले यू का विकल्प से लोप हो गया, सो दो एवं तीन यकारों की पर्याय से श्रुति होती है | अदितेरपत्यम् आदित्यः यहाँ दित्यदित्या० (४|११८५ ) से ण्य प्रत्यय हुआ है । अब यो मयो द्वे भवत इति वक्तव्यम् ( वा० ८१४३४६ ) से य को द्वित्व होकर आदित्य्यः बन गया, तो पक्ष में तू हलू से उत्तर यू परे रहते य् का लोप हो गया । इस प्रकार दो यकार एवं एक यकार वाले प्रयोग बन गये || आदित्य्यः यहाँ अपत्य अर्थ में आदित्य शब्द पूर्ववत् बनकर पुनः सास्य देवता अर्थ में ४|११८५ सूत्र से ही ण्य होकर ‘आदित्य्य:’ दो यकार वाला प्रयोग बना । पुनः उसमें पूर्ववत् वार्त्तिक से द्वित्व होकर आदित्य्यः तीन यकार हो गये,’ तब पक्ष में एक यू का लोप करके आदित्य्यः आदित्य्य्यः प्रयोग बन गये | यहाँ भी जब यू को पक्ष में द्विर्वचन न होगा तो उस पक्ष में भी एक यू का प्रकृत सूत्र से लोप होकर आदित्यः एक यकारवान् रुप ही बनेगा । यहाँ से ‘हलः लोपः’ की अनुवृत्ति ८|४|६४ तक जायेगी || झरो झरि सवर्णे || ८|४|६४ ॥ झर: ६ | १ || झरि ७|१|| सवर्णे |१|| अनु० – हलः लोपः, अन्यत- रस्याम्, संहितायाम् ॥ श्रर्थ:- हल उत्तरस्य विकल्पेन झरो लोपो भवति सवर्णे झरि परतः ॥ उदा० —प्रत्तम् प्रतूत्तम् । अवन्तम् अवत्त्तम् मरुत्तम् मरुतूत्तम् ॥ । " सूत्र भाषार्थः- हल् से उत्तर [झर: ] झर् का विकल्प से लोप होता है [सवर्णे ] सवर्ण [झरि ] झर् परे रहते ॥ प्रन्तम् ७ | ४ | ४७ में देखें । प्रत्तम् अवत्तम् में पहले ( ८|४|४६) करने पर चार हो गये, तो प्रकृत अवत्तम् की सिद्धि तीन तकार थे ही, द्वित्व सूत्र से एक तू का लोप 44 १. शाकटायन आचार्य के मत में आदित्य्य में पुनः द्वित्व नहीं होता- त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य (८४१४९), अतः उसके मत में सूत्र से एक यकार का लोप होकर आदित्यः श्रदित्थ्यः दो रुप ही बनते हैं |पाद: ] अष्टमोऽध्यायः ७३७ कर देने पर ‘प्रत्त्तम्’ एवं एक तू का लोप कर देने के पश्चात् दूसरे का भी लोप कर देने पर प्रप्तम् दो प्रयोग बनें । मरुत् शब्द का मरुत् शब्द- स्योपसङ्ख्यानम् ( वा० १|४|५८) से उपसर्गों में उपसङ्ख्यान माना है, सो उपसर्ग सामर्थ्य से अजन्त न होने पर भी मरुत् से उत्तर पूर्ववत् दा के आ को तू होकर मरुत् द् त् त = मरुतू तू तू त रहा। अब यहाँ चार तकार हैं । पूर्ववत् द्वित्व करने पर पाँच हो गये, तो एक का लोप करने पर (मध्य वाले का ) चार तकार, दो का लोप करने पर तीन तथा तीन का लोप करने पर दो शेष रहेंगे । इस प्रकार प्रथम उदाहरण में दो बार प्रकृत सूत्र की प्रवृत्ति होगी, तथा इस उदाहरण में तीन बार प्रवृत्ति होगी, क्योंकि तीनों बार सवर्णीय झर् परे एवं हल् से उत्तर झर् मिल जाता है | इसी प्रकार उत्थाता की सिद्धि में (सूत्र ८|४|६०) में भी प्रकृत सूत्र की प्रवृत्ति दिखाई जा चुकी है । सुगम होने से वह भी यहाँ समझाया जा सकता है || उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः || ८ | ४ | ६५ || उदात्तात् ५|१|| अनुदात्तस्य ६|१|| स्वरितः ||१२|| अर्थ:- उदात्ता- दुत्तरस्यानुदात्तस्य स्वरितादेशो भवति || उदा० – गार्ग्यः, वात्स्यः, पच॑ति, पठति ॥ भाषार्थ:— [उदात्तात् ] उदात्त से उत्तर [ अनुदात्तस्य ] अनुदात्त को भाषार्थ:–[उदात्तात् [ स्वरित: ] स्वरित आदेश होता है || गार्ग्यः, वात्स्यः में यन् प्रत्यय ॥ (४|१|१०५) हुआ है, अतः न्नित्यादि ० (६११११६२ ) से ये शब्द आद्युदात्त हैं सो अनुदात्तं पद० (६११११५२) लगकर प्रकृत सूत्र उदात्त से उत्तर अनुदात्त ‘य’ को स्वरित हो गया । पचति पठति की सिद्धि परि० ३|१|४ में देखें || से यहाँ से ‘अनुदात्तस्य स्वरित: ’ की अनुवृत्ति ८|४|६६ तक जायेगी || नोदात्तस्वरितोदयम गार्ग्य काश्यपगालवानाम् ||८|४| ६६ || न अ० ॥ उदात्तस्वरितोदयम् १११ || अगार्ग्य काश्यपगालवानाम् ६ | ३ || स० - उदात्तश्च स्वरितश्च उदात्तस्वरितौ, इतरेतरद्वन्द्वः । उदात्त- स्वरितौ उदयौ यस्मात् तत् “बहुव्रीहिः । गार्ग्यश्च काश्यपश्च गालवश्च गार्ग्य"लवाः, इतरेतरद्वन्द्वः । न गायें “लवाः अगार्ग्यकाश्यपगालवास्ते- ४७ ७३८ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्तौ [ चतुर्थः षाम् " नव्य्तत्पुरुषः ॥ अनु० - अनुदात्तस्य स्वरितः ॥ अर्थः– उदात्तो- दयस्य स्वरितोदयस्य चानुदात्तस्य स्वरितो न भवति अगार्ग्यकाश्यप- गालवानां मतेन ॥ उदयशब्दः परशब्देन समानार्थकोऽत्र गृह्यते पूर्वाचार्य- प्रसिद्धया || पूर्वेण प्राप्तिः प्रतिषिध्यते ॥ उदा० - उदात्तोदय:- गाग्य स्तन्न्र, वात्स्य॒स्तत्र॑ । स्वरितोदयः - गार्ग्यः के, वात्स्य॒ः क्के ॥ भाषार्थ :- [उदात्तस्वरितोदयम् ] उदात्त उदय = परे है जिससे एवं स्वरित उदय = परे है जिससे ऐसे अनुदात्त को स्वरित आदेश [न] नहीं होता [अगार्ग्य काश्यपगालवानाम् ] गार्ग्य, काश्यप, तथा गालव आचार्यों के मत को छोड़ कर, अर्थात् इन आचार्यों के मत में स्वरित होता ही है । पूर्व सूत्र से स्वरित की प्राप्ति थी, प्रतिषेध कर दिया || उदय शब्द प्रातिशाख्य ग्रन्थों में ‘पर’ का समानार्थक है, सो यहाँ भी पर अर्थ वाला उदय शब्द ही गृहीत है || गार्ग्यस्तत्र यहाँ तत्र शब्द लू ( ५|३|१० ) प्रत्ययान्त है, अतः लित् स्वर (६११११८७ ) से आद्युदात्त है । इस प्रकार गार्ग्य का य जो पूर्ववत् अनुदात्त (६।१।१५२) था, उससे परे उदात्त तत्र का ‘त’ है, अतः पूर्व सूत्र से जो ‘य’ को स्वरित प्राप्त था, वह उदात्त परे होने से नहीं हुआ तो गाग्यस्त रहा । इसी प्रकार वात्स्य॒स्त में जानें । गाग्र्यः के यहाँ क शब्द स्वरित है, जिसकी सिद्धि परि० ९१२।३१ में देखें । गार्ग्य: का य पूर्ववत् अनुदात्त है ही । इस प्रकार अनुदात्त य से परे स्वरित क है, सो य को पूर्व सूत्र से प्राप्त स्वरित नहीं हुआ, अनुदात्त ही रहा ।। अ अ || ८|४|६७ || अ अ० ॥ अ अ० ॥ अर्थ:–अकारो विवृतः संवृतो भवति ।। एकोऽत्र विवृतोऽपरः संवृतस्तत्र विवृतस्य संवृतः क्रियते || ‘संवृतस्त्व- कारः’ (वर्णो० ५८) इति वर्णोच्चारणशिक्षासूत्रेण अकारस्य संवृतप्रयत्नत्व- मुक्तम् । विवृतकरणाः स्वराः (वर्णो० ५७ ) इत्यनेन तु दीर्घाऽकारस्य प्लुतस्य च विवृतप्रयत्नत्वम् उक्तम् तयोः ह्रस्वदीर्घयोः प्रयत्नभेदात् सवर्णसंज्ञा न प्राप्नोत्यतः ‘अइउण’ सूत्रे कार्यार्थ शास्त्रेऽकारो विवृतः प्रतिज्ञातस्तस्य तथाभूतस्यैव लोके प्रयोगो मा भूद् इति संवृतताप्रत्या- पत्तिः क्रियते ॥ उदा- वृक्षः, प्लक्षः ॥ भाषाथ: - [अ] विवृत अकार [अ] संवृत होता है ।पादः ] अष्टमोऽध्यायः ७३६ संवृतस्वकारः सूत्र से ह्रस्व ‘अ’ का प्रयत्न संवृत (कण्ठ को संकोच करके बोलना ) है, एवं दीर्घ तथा प्लुत का विवृतकरणाः स्वराः से विवृत प्रयत्न ( कण्ठ को विकसित करके बोलना ) है, अतः ह्रस्व अ से, दीर्घ प्लुत के प्रयत्न का भेद होने से इनकी परस्पर तुल्यास्यप्रयत्नम्० से सवर्णसंज्ञा तथा अणुदित्० (११११६८ ) से सवर्ण ग्रहण नहीं हो सकता था, सो शास्त्र में सवर्ण रूप से आ अ ३ के गृहीत न होने से कार्य कैसे होता ? इसीलिये ‘अइउण’ प्रत्याहार सूत्र में पाणिनि मुनि ने अकार की विवृत प्रतिज्ञा की है, अर्थात् विवृत रूप से पढ़ा है, जिससे अकार से उसके सवर्णीय आ अ ३ का भी ग्रहण शास्त्र में कार्यार्थ हो सके। अब उस विवृत प्रतिज्ञात हस्व ‘अ’ का विवृत रूप में ही लोक में भी प्रयोग न होने लगे इसलिये इस सूत्र से आचार्य ने अइउण् में पठित विवृत अकार की प्रयोगार्थ संवृत प्रत्यापत्ति कर दी, अर्थात् प्रयोग में वह संवृत ही बोला जाये, ऐसा कह दिया | उदाहरण वृक्षः प्लक्ष: में संवृत रूप में अकार बोला जायेगा, विवृत रूप में नहीं, यही प्रयोजन है, शास्त्र में कायार्थं भले ही वह अइउण में विवृत प्रतिज्ञात होने से विवृत रूप से गृहीत हो परन्तु लोक में संवृत ही उच्चरित होगा । ॥ इत्यष्टमाध्यायः समाप्तः ॥ 7