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विश्वास-टिप्पनी

विश्वास-टिप्पन्यो ऽन्यत्र - TW

नित्य-नैमित्तिक-कर्मानपेक्षा

पूर्वपक्षः

नन्व् एवं केवलानां कर्म-ज्ञान-भक्तीनां व्यवस्थोक्ता ।
नित्य-नैमित्तिकं कर्म तु +++(कर्म-ज्ञन-भक्ति-निष्ठेषु)+++ सर्वेष्व् एवावश्यकं,
तर्हि साङ्कर्ये कथं शुद्धे ज्ञान-भक्ती प्रवर्तेयाताम्,

हिन्दी

केवल ज्ञान-कर्म की व्यवस्था कही गई है,
किन्तु नित्य नैमित्तिक कर्म-
कर्मी, ज्ञानी, भक्त- सब के पक्ष में अवश्य करणीय है ।
ऐसा होने पर ज्ञान एवं भक्ति के सहित
कर्म मिश्रित होने से
शुद्ध ज्ञान भक्ति कैसे हो सकती है ?

तावत् कर्माणि कुर्वीत

तद् एतद् आशङ्क्य तयोः कर्माधिकारितां वारयति—

हिन्दी

इस प्रकार आशङ्का के उत्तर में
ज्ञानी एवं भक्त की कर्माधिकारिता निवारण करने के निमित्त
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - (११/२०१६)

तावत् कर्माणि कुर्वीत
न निर्विद्येत यावता ।
मत्-कथा-श्रवणादौ वा
श्रद्धा यावन् न जायते ॥
[भा।पु। ११.२०.९]

हिन्दी

ज्ञानी तावत् पर्य्यन्त नित्यनैमित्तिक कर्मानुष्ठान करे,
यावत् पर्यन्त ऐहिक पारलौकिक सुख भोग में
निर्वेद उपस्थित नहीं होता है ।

(सावधिं कर्म-योगम् आह—तावद् इति नवभिः ।) कर्माणि नित्य-नैमित्तिकादीनि ।

इति +++(श्रीधर-)+++टीका च ।

हिन्दी

भक्त भी तब तक नित्यनैमित्तिक कर्मानुष्ठान करे,
जब तक मदीय कथा श्रवण कीर्तनादि में श्रद्धा नहीं होती है-
अर्थात् दृढ़ विश्वास भक्ति में नहीं होता है ।

अत एव—

श्रुति-स्मृती ममैवाज्ञे
यस् ते उल्लङ्घ्य वर्तते ।
आज्ञा-च्छेदी मम द्वेषी
मद्-भक्तोऽपि न वैष्णवः ॥

इत्य् उक्त-दोषोऽप्य् अत्र नास्ति,
+++(“तावत् कुर्वीते"त्य्)+++ आज्ञा-करणात् ।

हिन्दी

अतएव कथित है-

श्रुति स्मृति मेरी आज्ञा है,
जो उस द्विविध आज्ञा के मध्य में
किसी भी एक को लङ्कन करता है,
वह मेरी आज्ञाच्छेदी एवं द्वेषी है,
अतएव वह मेरा भक्त होने पर भी
वैष्णव नहीं है।

यह भगवत् कथित दोष भी
पूर्वोक्त अधिकारी के पक्ष में प्रयोज्य नहीं हो सकता है ।

“तावत् कर्माणि कुर्वीत " यह आदेश श्रीभगवान् का ही है ।

प्रत्युत जातयोर् अपि निर्वेद-श्रद्धयोस्
तत्-करण एवाज्ञा-भङ्गः स्यात् ।+++(5)+++

हिन्दी

प्रत्युत निर्वेद एवं श्रद्धा का उदय जिस में हुआ है,
उस के पक्ष में नित्य नैमित्तिक कर्मानुष्ठान करने से ही
आज्ञा भङ्ग रूप दोष होता है ।

“धर्मान् संत्यज्य”

यथा च व्याख्यातम्,

आज्ञायैवं गुणान् दोषान् [भा।पु। ११.११.३२] (मयादिष्टानपि स्वकान् । धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान्
मां भजेत स च सत्तमः ॥)

इत्य् अस्य टीकायां—

भक्ति-दार्ढ्येन निवृत्त्य्-अधिकारतया सन्त्यज्य

इति ।

हिन्दी

भा० ११।११।३२ में उक्त है-

“आज्ञायैव गुणान् दोषान्
मयादिष्टानपि स्वकान् । धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान्
मां भजेत स च सत्तमः ॥

(टीका - …)

श्रीधर स्वामिपाद ने
उक्त श्लोक की टीका में कहा है- “भक्ति-दार्ढ्येन निवृत्त्य्-अधिकारतया सन्त्यज्य”
अर्थात् नित्यनैमित्तिक कर्म का अनुष्ठान
निष्काम भाव से करने से
चित्त शुद्धि रूप गुण,
एवं न करने से प्रत्यवाय होगा,
यह जानकर भी जो व्यक्ति,
भक्ति में दृढ़ता हेतु - कर्मानुष्ठान में अधिकार नहीं है,
यह जानकर नित्य नैमित्तिक कर्म समूह को सम्यक् परित्याग करके
मेरा भजन करता है,
वह सत्तम अर्थात् साधु श्रेष्ठ है ।

अन्येष्व् आनृण्यम्

निवृत्त्य्-अधिकारित्वं चोक्तं श्री-करभाजनेन—

हिन्दी

निवृत्ताधिकारता का कथन भा० ११।५।४१ में श्रीकर भाजन ने किया है ।

देवर्षि-भूताप्त-नृणां पितॄणां
किङ्करो नायम् ऋणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्त्तम् +++(=कृत्यम्)+++ ॥ [भा।पु। ११.५.४१]

हिन्दी

(टीका - …)

हे राजन् ! जो व्यक्ति, निखिल कर्त्तव्य परित्याग करके
सर्वान्तः-करण से शरणागत पालक श्रीमुकुन्द की शरण ग्रहण करता है,
वह व्यक्ति, देव, ऋषि, भूत, आत्मीय, स्वजन एवं पितृ वृन्द का
किङ्कर नहीं है,
एवं किसी के पास ऋणी भी नहीं है ।

इति तेषां न किङ्करः
किन्तु श्री-भगवत एवेत्य् अनधिकारित्वम्1
कर्तं “कृत्यम्” ।

हिन्दी

यहाँ श्लोकस्थ ‘कर्त्त’ पद का अर्थ कृत्य है ।

कर्तं “भेदम्” इत्य् अर्थे
ततो देवतादीनां स्वातन्त्र्यम् इति यावत् ।

हिन्दी

कर्त्त शब्द का अर्थ भेद है ।
अर्थात् श्रीभगवान् से देवता प्रभृति में
जो स्वातन्त्र्य बुद्धि, उस को छोड़ कर -
अर्थात् स्वतन्त्र रूप से देवतागण के प्रति आराध्य बुद्धि परित्याग करके,
जो व्यक्ति, श्रीभगवान् में एकान्त भाव से शरणागत हुआ है,
उसको कुछ भी करणीय नहीं है ।
इस अवस्था का ही निवृत्ताधिकारता समझना होगा ।

वह व्यक्ति, देव, ऋषि वृन्द का किङ्कर नहीं है कि
श्रीभगवान् का ही किङ्कर है।
अतएव जो जिस का किङ्कर है,
वह उस की सेवा करेगा।
दूसरी की सेवा क्यों करेगा ? +++(5)+++

एवम् एवोक्तं गारुडे—

हिन्दी

गरुड़ पुराण में इस प्रकार उल्लेख है ।

अयं देवो मुनिर् वन्द्य
एष ब्रह्मा बृहस्पतिः ।
इत्य् आख्या जायते तावद्
यावन् नार्चयते हरिम् ॥ [ग।पु। १.२३५.२०]

हिन्दी

(टीका - …)

यह देवता है, यह मुनि है, यह ब्रह्मा है, यह बृहस्पति है,
अतएव यह सब मेरे वन्दनीय हैं,

इस प्रकार संज्ञा
तब तक होती है,
जब तक श्रीहरि की अर्चना नहीं करते हैं।

विकर्म-प्रायश्चित्तानपेक्षा

च विकर्म-प्रायश्चित्त-रूपं कर्मान्तरं कर्तव्यं,
तस्य तच्-छरणस्य विकर्म-प्रवृत्त्य्-अभावात् ।

हिन्दी

और भी विशेष ज्ञातव्य यह है कि-
यदि किसी कारण से विकर्म्म उपस्थित हो तो,
उसका प्रायश्चित्त रूप कर्मान्तर का अनुष्ठान करना कर्तव्य नहीं है।

कथञ्चिद् आपतितेऽपि विकर्मणि
तद्-अनुस्मरणेनैव प्रायश्चित्तस्याप्य् आनुषङ्गिक-सिद्धिर्
इत्य् अप्य् उक्तम् अनन्तर-पद्येनैव—

हिन्दी

कारण, श्रीहरि चरणों में शरणागत जन की प्रवृत्ति
विकर्म में हो ही नहीं सकती +++(5)+++,
यदि दैवात् विकर्म्म उपस्थित भी होता है,
तो श्रीभगवान् के नियत स्मरण प्रभाव से
आनुषङ्गिक रूप में प्रायश्चित्त भी सिद्ध हो जाता है ।

भा० ११।५।४२ में उक्त है-

स्व-पाद-मूलं भजतः प्रियस्य
त्यक्तान्य-भावस्य हरिः परेशः ।
विकर्म+++(-प्रायश्चित्तम्)+++ यच् चोत्पतितं कथञ्चिद्
धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥ [भा।पु। ११.५.४२]

इति ।

हिन्दी

(टीका - …)

[[३४५]]

श्रीकरभाजन कहे थे-
जो व्यक्ति, अन्य देवता के प्रति भाव शून्य होकर
भक्ति युक्त हृदय से
श्रीहरि के चरणाचर्च्चन करता है,
श्रीहरि उसके प्रति अतीव सन्तुष्ट होते हैं,
यदि असावधानता के कारण स्वभाव वशतः कदाचित् विकर्म्म उपस्थित हो जाता है,
तो उस के मानस में उदित श्रीहरि ही
उस के विधर्म को विदूरित कर देते हैं ।

आदेश लङ्घन कारी के प्रति अधिकार यमराज का ही है ?
इस के उत्तर में कहते हैं,
‘परेशः’ अर्थात् श्रीहरि ही परमेश्वर हैं ।
परमेश्वर का आदेश सब को शिरोधार्य है ।

कर्म त्याग विषय के
हेतु रूप में उल्लिखित होने के कारण,
श्रद्धा एवं शरणापत्ति की एकार्थता प्रतीत होती है ।
कारण, “मत्-कथा-श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्नजायते” श्लोक में कहा गया है,
जब तक श्रीहरि कथा श्रवण कीर्तनादि में श्रद्धा का उदय नहीं होता है,
तब तक नित्यनैमित्तिक कर्म करना चाहिये ।
अर्थात् श्रद्धोदय होने से
नित्य नैमित्तिक कर्म्म त्याग करना चाहिये ।
यहाँपर भी
श्रद्धा को कर्म त्याग के हेतु रूप में उल्लेख किया गया है ।

त्यक्तोऽन्यत्र देवतान्तरे भगवतीव भावो भक्तिर् येनेति च व्याख्येयम् ।

अत्र कर्म-परित्याग-हेतुत्वेनाभिधानात्
श्रद्धा-शरणापत्त्योर् ऐकार्थ्यं लभ्यते,
तच् च युक्तम् ।

हिन्दी

“सर्वात्मना यः शरणं शरण्यम्” (भा० ११।११।३२) श्लोक में कथित है,
एकान्त भाव से श्रीहरि चरण में शरणागत व्यक्ति के पक्ष में
काम्य कर्म त्याग करना चाहिये ।

अतएव शरणागति एवं श्रद्धा की एक कार्यकरिता हेतु
श्रद्धा एवं शरणागति का तात्पर्य एक ही जानना होगा।+++(5)+++

श्रद्धा एवं शरणागति शब्द का एकार्थ होना ही युक्ति युक्त है ।

श्रद्धा हि शास्त्रार्थ-विश्वासः ।

हिन्दी

कारण, शास्त्रार्थ में दृढ़ विश्वास का नाम श्रद्धा है ।

शास्त्रं च तद्-अशरणस्य भयं,
तच्-छरणस्याभयं वदति ।

हिन्दी

शास्त्र भी श्रीभगवान् में शरणागत जन के प्रति अभय
एवं अशरणागत व्यक्ति के प्रति भय का उपदेश प्रदान करते हैं ।

ततो जातायाः श्रद्धायाः
शरणापत्तिर् एव लिङ्गम् ।

हिन्दी

अतएव शास्त्रार्थ में दृढ़ विश्वास उत्पन्न हुआ है अथवा नहीं,
उसका चिह्न शरणापति ही है,
अर्थात् शरणापत्ति के द्वारा ही
श्रद्धा का सुष्ठु परिचय होता है।

न पृथग् आराधनम्

न च देवादीनां +++(कामं विना)+++ तर्पण-मात्र-तात्पर्येणापि
पृथक्-पृथग्-आराधनं कर्तव्यम्,

हिन्दी

देव वर्ग को सुतृप्त करने के निमित्त
पृथक् पृथक् रूप से उन सब की आराधना करनी नहीं चाहिये ।
अर्थात् कामना शून्य होकर
केवल तृप्ति साधन हेतु भी
पृथक् पृथक् भाव से देवतान्तर की आराधना करना
कर्त्तव्य नहीं है ।

यथा तरोर् मूल-निषेचनेन [भा।पु। ४.३१.१२]
(तृप्यन्ति तत्-स्कन्ध-भुजोपशाखा ।
प्राणोपहाराच् च यथेन्द्रियाणां
तथैव सर्वार्हणम् अच्युतेज्या )

हिन्दी

भा० ४।३१११४ में उक्त है—

“यथा तरोर्मूल निषेचनेन
तृप्यन्ति तत्-स्कन्ध-भुजोपशाखा ।
प्राणोपहाराच् च यथेन्द्रियाणां
तथैव सर्वार्हणम् अच्युतेज्या

(टीका …)

जिस प्रकार वृक्ष के मूल देश में
जल सिञ्चन करने से ही
उसके स्कन्ध, भुज, उपशाखा प्रभृति की तृप्ति होती है.
अथवा पाक स्थली में भोजन प्रदान करने से
जिस प्रकार इन्द्रिय वृन्दकी तृप्ति होती है,
उस प्रकार श्रीविष्णु की आराधना करने से समस्त देव वृन्द सुतृप्त होते हैं ।

इत्य्-आदौ तत्-पौनरुक्त्य-प्राप्तेः ।

हिन्दी

इस में पुनरुक्ति दोष नहीं है ।

त्यक्त-कर्मण्य् अन्-अनुतापः

न च त्यक्त-कर्मणो मध्ये
विघ्न-स्थगितायाम् अपि भक्तौ
तत्-त्यागानुतापो युज्यते—

हिन्दी

समस्त काम्य कर्मत्याग करने के पश्चात्
प्रचुर विघ्न से भक्ति स्थगिता होने पर
काम्य कर्म त्याग हेतु
अनुताप करना चाहिये ।

इस प्रकार कथन समीचीन नहीं है ।

त्यक्त्वा स्व-धर्मं (चरणाम्बुजं हरे
भजन्नपक्वोऽथ पतेत् ततो यदि
यत्र क्व वाभद्रम् अभूद् अमुष्य किं
को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥)[भा।पु। १.५.१७]

इत्य्-आद्य्-उक्तेः ।

हिन्दी

कारण, भा० १।५।१७ में उक्त है-

स्व धर्म परित्याग पूर्वक श्रीहरि चरण कमल का भजन करते करते
भजन अपक्वावस्था में भजन से स्खलित होने पर
क्या भक्त का अमङ्गल होना सम्भव है ?
इस प्रकार उल्लेख के कारण,
कर्म त्याग जन्य अनुताप करना युक्ति युक्त नहीं है ।

श्री-गीतासु च—

हिन्दी

श्रीभगवद् गीता में उक्त है- (१८२६६)

सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ [गीता १८.६६]

इत्य् अस्य,

देवर्षि-भूताप्त-नॄणां ( किङ्करो नायम् ऋणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्त्तम् +++(=कृत्यम्)+++ ॥ [भा।पु। ११.५.४१])

इत्य्-आदि-द्वयेनैकार्थ्यं दृश्यते ।

हिन्दी

श्लोकद्वय में एकार्थता दृष्ट होती है।

अर्थात् श्रीभगवच्चरणों में शरणागत जन के प्रति
सर्व कर्म त्याग का उपदेश,
उभय श्लोक में एक प्रकार ही दृष्ट होता है ।

अतो भक्त्य्-आरम्भ एव तु
स्वरूपत एव कर्म-त्यागः कर्तव्यः । +++(5)+++

हिन्दी

अतएव भक्ति के प्रारम्भ में ही
स्वरूपतः ही काम्य+++(5)+++ कर्म परित्याग करना कर्त्तव्य है ।

परित्यज्य इत्य् अत्र परि-शब्दस्य हि तथैवार्थः +++(स्वरूपतस् त्याग इति)+++।

हिन्दी

‘सर्व धर्मान् परित्यज्य’ इत्यादि श्लोकस्थ ‘परि’ शब्द का अर्थ -
स्वरूपतः कर्म त्याग ही है ।

मन्-मना भव मद्-भक्तो
मद्-याजी मां नमस्कुरु [गीता १८.६५]

इत्य्-आदिना चानन्याम् एव भक्तिम् उपदिदेश ।

हिन्दी

( गी० १८/६५) में उक्त है-

तुम मेरे विषयक सङ्कल्प युक्त भक्त बनो,
मेरी पूजा करो,
मुझ को नमस्कार करो,

इस में भी श्रीभगवान् अनन्य भक्ति का ही उपदेश प्रदान किये हैं ।

गौतमीये च—

हिन्दी

गौतमीय में भी दृष्ट होता है -

न जपो नार्चनं नैव
ध्यानं नापि विधि-क्रमः ।
केवलं सततं कृष्ण-
चरणाम्भोज-भाविनाम् ॥ [गौ।त। ३३.५७]

हिन्दी

जो सतत श्रीकृष्ण चरण कमल की चिन्ता करते हैं,
उनके पक्ष में जप, अर्चन, ध्यान, एवं विधि क्रम की कोई अपेक्षा नहीं है ।

[मन्-मना भव मद्-भक्तो
मद्-याजी मां नमस्कुरु [गीता ९.३४]

इत्य्-आदिना चानन्याम् एव भक्तिम् उपदिदेश ।]

तथा2 विष्णु-पुराणेऽपि भरतम् उद्दिश्य—

हिन्दी

उस प्रकार विष्णु पुराण में भी भरत को लक्ष्य करके कहा गया है-

यज्ञेशाच्युत गोविन्द
माधवानन्त केशव ।
कृष्ण विष्णो हृषीकेशेत्य्
आह राजा स केवलम् ।
नान्यज् जगाद मैत्रेय
किञ्चित् स्वप्नान्तरेष्व् अपि ॥ [वि।पु। २.१३.९-१०]

इति ।

हिन्दी

“यज्ञेशाच्युत गोविन्द
माधवानन्त केशव । कृष्ण विष्णो हृषीकेशेत्य्
आह राजा स केवलम् ॥४६६॥ नान्यज् जगाद मैत्रेय
किञ्चित् स्वप्नान्तरेष्व् अपि ॥ " ४६७ ॥

हे मैत्रेय ! भरत महाराज, यज्ञेश, अच्युत, गोविन्द, माधव, अनन्त, केशव, कृष्ण, विष्णु, हृषीकेश,
केवल यह सब नामों का उच्चारण करते थे,
स्वप्न में भी अपर कुछ भी नहीं कहते थे ।

[[३४७]]

अत्र वचनान्तरस्यानवकाशात् -
सुतराम् एव तद्-वचनमय-कर्मान्तर-परित्यागोऽङ्गीकृतः ।

विश्वास-टिप्पनी

नैतद् एवम् - भवद्-उक्तम् अग्रिमवाक्यं हि वरम् ।

हिन्दी

इस से प्रमाणित हुआ कि,
अन्य किसी प्रकार वचनान्तर का अवकाश ही नहीं था ।
सुतरां उक्त वचन द्वयके द्वारा
कर्मान्तर का परित्याग स्वीकृत हुआ है ।

कथञ्चित् क्रियमाणम् अपि
तन्-नाम्नैव कृतम् इत्य् अवगतेश् च
सर्वत्र तद्-ईक्षणाच् छुद्ध-भक्तित्वम् एवाङ्गीकृतम् ।

हिन्दी

जब कभी जो कुछ कर्म करते
वह कर्म - श्रीभगवन्नामोच्चारण के सहित ही करते ।

यह सुस्पष्ट रूप से विदित हुआ ।
सर्वत्र श्रीनाम एवं नामी के प्रति अभेद दृष्टि होने के कारण
इस दृष्टान्त के द्वारा
विशुद्ध भक्ति धर्म ही स्वीकृत हुआ है।

यथोक्तं पाद्मे—

हिन्दी

पद्म पुराण में कथित है-

सर्व-धर्मोज्झिता विष्णोर्
नाम-मात्रैक-जल्पकाः ।
सुखेन यां गतिं यान्ति
न तां सर्वेऽपि धर्मिकाः ॥
[प।पु। ६.७१.९९]

इति ।

हिन्दी

इस में भी काम्य कर्मादि शून्य
भक्ति का संवाद परिवेशित हुआ है-
सर्व धर्म त्याग कर
जो केवल मात्र श्रीहरिनाम ही उच्चारण करते हैं,
वे सब सुख पूर्वक जो गति को प्राप्त करते हैं,
समस्त धार्मिक वृन्द उस गति को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं ।

तस्मान् मतान्तरेणाप्य् उचितः
श्रद्धावतो ऽनन्य-भक्त्य्-अधिकारः,
कर्माद्य्-अनधिकारश् चेति।

हिन्दी

अतएव श्रद्धावान् व्यक्ति का ही
अनन्या भक्ति में अधिकार
वचनान्तर के द्वारा परि पुष्ट है ।
एवं काम्य कर्मादि में
अनधिकार का प्रदर्शन भी हुआ है।

श्रद्धाभिज्ञानम्

किन्तु श्रद्धा-सद्-भाव एव कथं ज्ञायते ?

इति विचार्यम् ।

हिन्दी

सम्प्रति शास्त्र में श्रद्धा है अथवा नहीं।
इस को कैसे जानेंगे -
सम्प्रति इस विषय में विचार करना आवश्यक है ।

तत्र च लिङ्गत्वेन पूर्व-पूर्वं शरणापत्तिर् उपदिष्टैव -
यस्यां च3 शरणापत्तौ वक्ष्यमाणानि
आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः इत्य्-आदीनि लिङ्गानि ।

हिन्दी

पहले श्रद्धा का अस्तित्व के सम्बन्ध में
यह निर्णय किया गया है कि
श्रीभगवच्चरणों में शरणागति होने से ही जानना होगा कि -
शास्त्रीय श्रद्धा विद्यमान है ।
अर्थात् श्रीभगवत् शरणागति ही
श्रद्धा का लक्षण है -
जिस शरणापत्ति में
यह सब लक्षण सुस्पष्ट प्रकाशित होते हैं ।

“आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः
प्रातिकूल्य-विवर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो
गोप्तृत्वे वरणं तथा ।
आत्म-निक्षेप-कार्पण्ये
षड्-विधा शरणागतिः ॥ "

इस लक्षण के द्वारा श्रद्धा का अस्तित्व विषयक ज्ञान होता है।

तथा व्यवहार-कार्पण्याद्य्-अभावेऽपि4
श्रद्धा-लिङ्गं ज्ञेयम् ।+++(5)+++

हिन्दी

श्रद्धा का अस्तित्व विषय में
और भी विशेष लक्षण यह है–कि-
समस्त व्यवहारों में
जिस का कार्पण्य परिलक्षित नहीं होता है,
वह व्यक्ति श्रद्धावान् है ।

शास्त्रं हि तथैव श्रद्धाम् उत्पादयति—

हिन्दी

कारण, शास्त्र, उस प्रकार श्रद्धा उत्पादन करते हैं।

हिन्दी

गीता के ९.२२ में उक्त है

अनन्याश् चिन्तयन्तो मां
ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां
योग-क्षेमं वहाम्य् अहम् ॥ [गीता ९.२२]

हिन्दी

[[३४८]]

हे अर्जुन ! जो, अन्य चिन्ता विमुख होकर
सम्यक् रूप से मेरी उपासना करते हैं,
यह सब नित्याभियुक्त व्यक्तियों के
योग क्षेम का वहन मैं ही करता हूँ ।

इम से व्यवहारिक विषय में कार्पण्य का अभाव सूचित हुआ है ।

किं च, श्रद्धावतः पुरुषस्य
भगवत्-सम्बन्धि-द्रव्य-जाति-गुण-क्रियाणां
शास्त्रे श्रूयमाणेष्व् ऐहिक-व्यावहारिक-प्रभावेष्व् अपि
न कथञ्चिद् अनाश्वासो भवति ।

हिन्दी

और भी देखना होगा कि -
जिस की श्रद्धा भगवान् में हुई है,
उस में, शास्त्र से ऐहिक पारलौकिक विषयों का श्रवण होने पर भी
भगवत् सम्बन्धि द्रव्य, जाति, गुण एवं क्रिया के प्रति
कभी भी किसी प्रकार अविश्वास आचरण उपस्थित नहीं होगा ।

ततस् तासु प्राकृत-द्रव्यादि-साधारण-दृष्ट्या
दोष-विशेषानुसन्धानतो
न कदाचिद् अप्रवृत्तिः स्यात् ।

हिन्दी

अर्थात् ऐहिक व्यवहारिक मणि, मन्त्र, औषधि का प्रभाव
शास्त्र से श्रवण करके भी
श्रीभगवत् सम्बन्धि वस्तु श्रीचरणामृत के प्रति
अविश्वास उपस्थित नहीं होगा।

अतएव प्राकृत द्रव्यादि साधारण दृष्टि से
भगवत् सम्बन्धीय पदार्थ में दोष का अनुसन्धान न होने से
कभी भी भगवत् सम्बन्धीय वस्तु के प्रति
अविश्वास उत्पन्न नहीं होगा ।

अतएव प्राकृत द्रव्यादि साधारण दृष्टि से
भगवत् सम्बन्धीय पदार्थ में दोष का अनुसन्धान न होने से
कभी भी भगवत् सम्बन्धीय वस्तु के प्रति
अविश्वास उत्पन्न नहीं होगा ।

ते च तादृश-प्रभावाः—

हिन्दी

अर्थात् जिस प्रकार प्राकृत रसव्यञ्जनादि श्रीभगवान् में अर्पित होने से
महाप्रसाद होता है,
उस में प्राकृत अंश विनष्ट होता है।
अतः चिन्मयत्व प्राप्त विषय में
सन्देह का अवकाश न होने से
महाप्रसाद ग्रहण विषय में
किसी प्रकार अप्रवृत्ति नहीं होगी।+++(5)+++
उक्त महाप्रसाद एवं श्रीविग्रह प्रभृति का अलोक सामान्य प्रभाव का विवरण
शास्त्र में उपलब्ध है।

बृहन्नारदीय में वर्णित है-

अकाल-मृत्यु-शमनं
सर्व-व्याधि-विनाशनम् ।
सर्व-दुःखोपशमनं
हरि-पादोदकं स्मृतम् ॥
[ना।प। ३७.१६]

इत्य्-आदयः ।

हिन्दी

अर्थात् श्री हरिपादोदक - अकालमृत्यु नाशक, सर्वव्याधिविनाशक, एवं सर्व दुःखोपशमक है।
इस -प्रकार भूरि भूरि प्रमाण विद्यमान हैं ।

केचित् तु
“तत्र तत्र [द्रव्य-जाति-गुण-क्रियासु] श्रद्धावन्तोऽपि
स्वापराध-दोषेण सम्प्रति तत् फलं नोदेती"ति5 स्थगितायन्ते ।

हिन्दी

कतिपय व्यक्ति कहते हैं-

अप्राकृत श्रीचरणामृत, श्रीमहाप्रसाद, श्रीविग्रह प्रभृति में श्रद्धा युक्त होकर भी
निज कृत अपराध हेतु भक्त्यङ्ग का फलोदय स्थगित होता है "

लोक-सङ्ग्रहः

यत् तु

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं
स बाह्याभ्यन्तर-शुचिः[ग।पु।]

इत्य्-आदौ श्रद्-दधाना अपि
स्नानादिकम् आचरन्ति,
तत् खलु श्रीमन्-नारद-व्यासादि-सत्-परम्पराचार-गौरवाद् एव ।+++(5)+++

हिन्दी

किन्तु

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः

अर्थात् जो पुण्डरीकाक्ष का स्मरण करता है,
उस के वाह्याभ्यन्तर पवित्र होते हैं,

शास्त्रीय इस वाक्य में विश्वस्त होकर भी
वह व्यक्ति शुद्धि हेतु स्नानादि आचरण करता है,
उस का कारण है, लोकों की कदर्थ्य वृत्ति को निरोध करने के निमित्त
सदाचार परम्परा की रक्षा करना,
अर्थात् श्रीव्यास, श्रीनारद प्रभृति साधु वृन्दके आचरण का पालन करना
कल्याण कर है।

अन्यथा तद्-अतिक्रमेऽप्य् अपराधः स्यात् ।

हिन्दी

महाजन प्रवर्तित आचरण को लङ्घन करने से
अपराध अवश्य होता है ।

ते च तथा मर्यादां
लोकस्य कदर्य-वृत्त्य्-आदि-निरोधायैव स्थापितवन्त
इति ज्ञेयम् ।

हिन्दी

श्रीनारद प्रभृति महाजन वृन्द लोक समाज की कदर्थ्य वृत्ति निरोध हेतु
उस प्रकार मर्थ्यादा स्थापन किये हैं।
इस प्रकार जानना होगा ।

वैशिष्ट्य-सम्पादनम्

किं च, जातायां श्रद्धायां
सिद्धाव् असिद्धौ च
स्वर्ण-सिद्धि-लिप्सोर् इव
सदा तद्-अनुवृत्ति-चेष्टैव6 स्यात् ।

हिन्दी

श्रद्धोदय होने से
सिद्ध वा असिद्धि उभय अवस्था में ही
स्वर्ण लिप्सु की इच्छा के समान
महाजन गण की अनुवृत्ति की चेष्टा निरन्तर रहेगी ।

जिस प्रकार सुवर्ण लाभ हेतु
वारम्-वार सुवर्ण को अग्नि दग्ध करना पड़ता है,
दग्ध होने से उसका वर्ण उज्ज्वल होता है,
एवं स्वर्ण प्राप्ति हेतु अत्यधिक प्रयत्न भी होता है,
उस प्रकार जिस की सिद्धि हुई है,
उसकी सिद्धि का वैशिष्ट्य सम्पादन हेतु
एवं जिस की सिद्धि नहीं हुई है,
उस की भी सिद्धि लाभ हेतु
महाजन गण की अनुकूल वृत्ति का अनुष्ठान
निरन्तर करना पड़ता है ।

सिद्धिश् चात्रान्तःकरण-कामादि-दोष-क्षय-कारि–
परमानन्द-परम-काष्ठा-गामि–
श्री-हरि-स्फुरण-रूपैव ज्ञेया ।

हिन्दी

यहाँ सिद्धि शब्द का अर्थ है -
अन्तः करण की कामादि दोष क्षय कारी
परमानन्द की परमकाष्ठा प्राप्त अनवरत श्रीहरि स्फूर्ति ।

तस्यां स्वार्थ-साधनानुप्रवृत्तौ च
दम्भ-प्रतिष्ठादि-लिप्सादिमय-चेष्टा-लेशोऽपि न भवति ।

हिन्दी

उक्त अनवरत श्रीहरि स्फूर्ति अवस्था में -
निज प्रयोजन साधन की अनुकूल प्रवृत्ति में भी
कपटता प्रतिष्ठादि-मय चेष्टा का लेशमात्र उदय नहीं होता है ।

महद्-अपराध-वारणम्

न सुतरां7
ज्ञान-पूर्वकं महद्-अवज्ञादयोऽपराधाश् चापतन्ति,
विरोधाद् एव ।

हिन्दी

अतएव बुद्धि पूर्वक महत् की अवज्ञा प्रभृति अपराध का भी उद्गम नहीं होता है ।

अत एव चित्रकेतोः श्री-महादेवापराधस्
तस्य स्व-चेष्टान्तरेणाच्छन्न-स्वभावस्य भागवतत्वाज्ञानाद् एव मन्तव्यः ।

हिन्दी

कारण, श्रीहरिस्फूर्ति एवं महत् अवमानन दोनों ही विरुद्ध है,
अर्थात् श्रीहरि की स्मृति होने पर
श्रीहरि स्वरूप महत् प्रभृति की अवज्ञा प्रभृत्ति
हो ही नहीं सकती ।
किन्तु जो प्रथम जीवन से ही स्वेच्छा चारी हैं,
मन मुखी होकर चलना पसन्द करते हैं,
महाजन प्रवर्तित पथ का अनुसरण नहीं करते हैं,
केवल स्वेच्छाचारितमय आचरण ही करते हैं,
उन के पक्ष में अपराध उद्गम की बहुल सम्भावना हैं ।

किन्तु जो लोक साधन की प्रथमावस्था से ही
सर्वावस्था में महाजन गण प्रवत्तित पथ के अनुवर्ती होकर चलते हैं,
उनके पक्ष में
प्रकृति विरोध के कारण
महद्-अमर्यादा-जनित-दोष उपस्थित नहीं हो सकता है ।

अतएव चित्र-केतु का श्रोमहादेव के चरणों में अपराध जो हुआ था,
उस का कारण ही है,
स्वाधीन चेष्टान्तर के द्वारा
महाजनानुगत-भक्त-स्वभाव आच्छन्न होने के कारण
भगवद्-भक्त-तत्त्व-सम्बन्ध में अज्ञान
तज्जन्य ही महद्-अवमानन-रूप-अपराध हुआ था।

दुस्-संस्कारिषु श्रद्धाङ्कुरम्

यदि वा श्रद्धावतोऽपि प्रारब्धादि-वशेन विषय-सम्बन्धाभ्यासो भवति,
तथापि तद्-बाधया
विषय-सम्बन्ध-समयेऽपि दैन्यात्मिका +++(भगवत्-सम्बन्ध-काङ्क्षिणी)+++ भक्तिर् एवोच्छलिता स्यात् ।

हिन्दी

यद्यपि श्रद्धावान् जन का
निज प्रारब्ध प्रभृति कर्म के कारण,
विषय सम्बन्ध का अनुशीलन होता है,
तथापि भगवद् भक्ति बाधा निबन्धन
जब मन का सम्बन्ध विषय के सहित हो ही जाता है,
तब भक्त में दैन्यात्मिका भक्ति उच्छलिता हो उठती है।
कारण, प्रारब्ध कर्म वशता हेतु
मन के सहित द्वन्द्व युद्ध करके
जयलाभ करने में अक्षम होने पर
भक्त अतिशय क्षिण्ण होकर
निज प्रेष्ठ प्रभु के श्रीचरणों में आर्त्तिपूर्ण निवेदन ही करता रहता है ।
हे नाथ! मैं निज सामर्थ्य से
मन के सहित संघर्ष कर के
उस को आप के चरणों मे उन्मुख करने में अक्षम हूँ,
एकमात्र अप की कृपा ही अवलम्बन है,
इस प्रकार विज्ञापन भक्त के द्वारा होता है ।

यथोक्तं—

जुषमाणश् च तान् कामान्
दुःखोदर्कांश् च गर्हयन्
[भा।पु। ११.१४.१७]

इत्य्-अत्र

हिन्दी

भा० ११।२० २८ श्रीभगवान् कहे हैं -

यह सब विषय भोग भी करते हैं,
किन्तु विषय भोग का फल को दुःख मय जानकर
मन मन में धिक्कार भी देते हैं-

यहाँ धिक्कार शब्द से मानसिक क्लेश भोग करते हैं। यह जानना होगा ।

बाध्यमानोऽपि मद्-भक्तः [भा।पु। ११.१४.१८] +++(न बाध्यते)+++

इत्य्-आदौ च ।

हिन्दी

भा० ११।१४॥ १८ में कहा गया है -
" बाध्यमानोऽपि मद्भक्तः "
मेरा भक्त विषय के द्वारा आकृष्यमाण होकर भी
उस के द्वारा बाधित नहीं होता है।

“अपि चेत् सुदुराचारः” [गीता ९.३०]

हिन्दी

गीता के ६।३० में उक्त है- “अपि चेत् सुदुराचारः "

इत्य्-आद्य्-उक्तस्यानन्य-भाक्त्वेन लक्षिता तु या श्रद्धा,
सा खलु

ये शास्त्र-विधिम् उत्सृज्य
यजन्ते श्रद्धयान्विताः [गीता १७.१]

इत्य्-आदिवल् लोक-परम्परा-प्राप्ता, न तु शास्त्रावधारण-जाता ।

हिन्दी

इस में भक्त को जो अनन्य उपासक कहा गया है।
वह श्रद्धा, गीतोक्त “ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः " श्रद्धा के समान ही है,
अर्थात् यह श्रद्धा लोक परम्परा प्राप्त श्रद्धा है,
किन्तु शास्त्रीय श्रद्धा नहीं है,
कारण, लोक रीति से उत्पन्न श्रद्धा में
सुदुराचार होना सम्भव है,
किन्तु शास्त्रीय श्रद्धा में सुदुराचारत्व आ ही नहीं सकता है।

शास्त्रीय-श्रद्धायां तु जातायां सुदुराचारत्वायोगः स्यात् ।

हिन्दी

कारण, शास्त्रीय श्रद्धा जिस के हृदय उदित है,
उसकी प्रवृत्ति कभी भी
शास्त्र विरुद्ध दुराचार में होगी ही नहीं ।

पर-पत्नी-पर-द्रव्य-(परहिंसासु यो मतिं
न करोति पुमान् भूप तुष्यते तेन केशव ॥) [वि।पु। ३.८.१४]

इत्य्-आदि-विष्णु-तोषण-शास्त्र-विरोधात्,
मर्यादां कृतां तेन इत्य्-आदिना तद्-भक्तत्व-विरोधाच् च ।

हिन्दी

कारण, विष्णु पुराणोक्त

जो व्यक्ति पर पत्नी, परद्रव्य, एवं परहिंसा में मति नहीं देता है,
उस के द्वारा ही श्रीविष्णु सन्तुष्ट होते हैं।

इस प्रकार विष्णु तोषण शास्त्र के सहित
उक्त आचरण का विरोध उपस्थित होगा ।

विशेष कर- विष्णु धर्मोत्तर में उक्त है-

“मर्यादाञ्च कृतां तेन
यो भिनत्ति स मानवः ।
न विष्णु भक्तो विज्ञेयः
साधुधर्म्मार्चनो हरिः ॥”+++(5)+++

जो व्यक्ति, भगवत् कृत मर्यादा को अर्थात् नियम को लङ्घन करना है, वह व्यक्ति विष्णुभक्त रूप से ख्यात नहीं हो सकता है।
कारण, पवित्र धर्माचरण से ही श्रीभगवान् सन्तुष्ट होते हैं।

इस प्रमाण से निर्णीत हुआ कि-
भक्त के पक्ष में श्रीविष्णु के द्वारा प्रवर्तित नियम लङ्घन करना निषिद्ध है ।

न तु सा दुर्-आचारता तद्-भक्ति-महिम-श्रद्धा-कृतैव,
अपि-शब्देन दुराचारत्वस्य हेयत्व-व्यञ्जनात्,
तथा “क्षिप्रं भवति धर्मात्मा”[गीता ९.३१] इत्य्-उत्तराप्रतिपत्तेः,
“नाम्नो बलाद् यस्य हि पाप-बुद्धिः” इत्य्-आदिनामापराधापाताच् च ।

हिन्दी

क्त दुर्-आचारता का उद्भव
भगवद् भक्ति के प्रति विश्वास से नहीं हुआ है ।
कारण, ‘अपि चेत्’ शब्द के द्वारा
दुराचारत्व को हेय कहा गया है,
तत् परवर्ती श्लोक में कहा गया है -

“क्षिप्रं भवति धर्मात्मा
शश्वच् छान्तिं निगच्छति ।”

इस से प्रतीत होता है कि
धर्म जीवन प्राप्त करना
एवं दुराचारत्व से निवृत्त होना वाञ्छनीय है।
अतएव दुराचारत्व का हेयत्व ही प्रतिपादित हुआ है।
भक्ति महिमा बोध से
यदि उस प्रकार दुराचारत्व की उत्पत्ति होती
तो “नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धिः”
भक्ति के आचरण के बल से पाप में प्रवृत्त होने से
उसका उद्धार नहीं है,
इस प्रकार भीति प्रदर्शक वाक्य का लङ्घन
कभी भी नहीं होता।

[[३५१]]

ततः सा श्रद्धा
न शास्त्रीय-भक्त्य्-अधिकारिणां विशेषणत्वे प्रवेशनीया,
किन्तु भक्ति-प्रशंसायाम् एव ।

हिन्दी

अर्थात् किसी भी भक्त्यङ्ग के अवलम्बन से
पाप में प्रवृत्त होने से अपराध होता है।
अतएव वह लोक परम्परा प्राप्त श्रद्धा,
शास्त्रीय भक्ति में जो अधिकारी है,
उसका विशेषण नहीं हो सकता है।
किन्तु भक्ति प्रशंसा में वह ग्रहणीय है ।
अर्थात् लोक परम्परा प्राप्त श्रद्धा होने से ही
मानव शास्त्रीय भक्ति में अधिकारी होगा,
इस प्रकार अर्थ नहीं है ।

देवतान्तर-श्रद्धाया भेदः

तादृश्या ऽपि श्रद्धया भक्तेः सत्त्व-हेतुत्वं,
न तु देवान्तर-यजनवत् ।

हिन्दी

किन्तु उस प्रकार श्रद्धायुक्त व्यक्ति
यदि भक्ति का अनुष्ठान करता है,
एवं यदि वह अनुष्ठान साधुधर्म प्राप्ति करने का हेतु होता है तो,
शस्त्रार्थ में दृढ़ विश्वास से उत्पन्न श्रद्धा विद्यमान होने से
वह श्रद्धा ही साधुत्व के प्रति हेतु होगी-
इस विषय में अधिक कहने का प्रयोजन ही क्या है ।

किन्तु देवतान्तर के अर्च्चन के समान
जो मानव शास्त्रविधि को लङ्घन करके श्रद्धा युक्त हृदय से अर्चना करता है,
उस से जिस प्रकार अर्च्चन-कारी की सिद्धि
अर्थात् चित्त शुद्धि नहीं होती है,
एवं उपशमात्मक सुख तथा परागति मुक्ति भी नहीं होती है ।

उस प्रकार भगवद् भजन में यदि लौकिक श्रद्धा है,
एवं उस के द्वारा श्रीभगवान् की उपासना करता है,
अन्य देवता को उपासना नहीं करता है,
तो उस से भी चित्त शुद्धि हो सकती है,
यह है- “अपिचेत् सुदुराचार’ श्लोक का तात्पर्य्यार्थी ।

“ये शास्त्र-विधिम् उत्सृज्य” [गीता १७.१] इत्य्-आदाव् एवोक्तम्
अन्यादृशत्वम् इति ।

श्रद्धा-पूर्णता-मानम्

अस्याः श्रद्धायाः पूर्णतावस्था तु ब्रह्म-वैवर्ते—

हिन्दी

इस प्रकार श्रद्धा की परिपूर्ण अवस्था का वर्णन
ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस प्रकार है-

“किं सत्यम् अनृतञ्चेह
विचारः सम्प्रवर्त्तते +++(“अकालमृत्यु-हरणम्” इत्यादौ)+++ । विचारेऽपि कृते राजन्
न सत्य-परिवर्जनम्
+++(→“चिन्तामण्यादिवद् अलौकिकशक्तिः पादोदकस्य्”)+++।
सिद्धं भवति पूर्णा स्यात्
तदा श्रद्धा महाफला ॥

इति ।

हिन्दी

पहले भक्ति अङ्ग का माहात्म्य सत्य है, अथवा मिथ्या है,
इस प्रकार विचार उपस्थित होता है।
जिस प्रकार श्रीचरणामृत के विषय में कहा गया है -
“अकालमृत्यु-हरणं सर्वव्याधिविनाशनम्”
श्रीचरणामृत, अकालमृत्यु हरण कारी है,
एवं समस्त रोग निवारक है,
इस प्रकार माहात्म्य श्रवण करके
प्रथमतः मन में एक आन्दोलन उपस्थित होता है,
यह कथन सत्य है,
किंवा मिथ्या है ?
नीरोगता हेतु औषधि सेवन जब करना पड़ता है,
तब सुस्थिर होता है कि -
यह प्रशंसा वचन मात्र है ।
इस प्रकार मानसिक स्थिति होने के पश्चात्
मन में एक युक्ति उपस्थित होती है ।
वह यह है -
यदि व्यवहारिक मणि, मन्त्र, एवं औषधि की चिन्तातीत, युक्त्यतीत सामर्थ्य है,
तब अप्राकृत भगवत् सम्बन्धि वस्तु श्रीचरणामृत में
इस प्रकार चिन्तातीत अलोक सामान्य सामर्थ्य होना क्या असम्भव है ?
इस प्रकार विचार के द्वारा
श्रीचरणामृत के प्रति
अविश्वासांश विदूरित हो जाता है,
एवं विश्वासांश निश्चित होता है।
यह विश्वास सुदृढ़ होकर
श्रद्धानाम से अभिहित होता है,
यह श्रद्धा महाफल दायिनी होकर
पूर्णता प्राप्त करती है ।

तद् एवं-लक्षणेषु श्रद्धोत्पत्ति-लक्षणेषु सत्सु विधीयते,

यदृच्छया मत्-कथादौ जात-श्रद्धस् तु यः [भा।पु। ११.२०.८]

इत्य्-आदि, “मत्-कथा-श्रवणादौ वा” [भा।पु। ११.२०.९] इत्य्-आदि च ।

हिन्दी

संशय निरसन पूर्वक
उक्त रीति से श्रद्धोत्पत्ति होने पर ही
" यदृच्छया मत् कथादौ जात श्रद्धस्तु यः पुमान्” इत्यादि
एवं “मत्-कथा श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते”, [[३५२]] “तावत् कर्माणि कुर्वीत” इत्यादि श्लोकों के द्वारा
काम्य कर्म परित्याग विहित हुआ है ।

कर्म-त्यागोपदेशः केषु?

अत एव +++(कर्म-त्याग-दृष्ट्या)+++ +अनधिकार्य्-अधिकारि-विषयत्व-विवक्षयैव श्री-भगवन्-नारदयोर् वाक्ये व्यवतिष्ठते—

हिन्दी

अतएव कर्मत्याग के अधिकारी अनधिकारी विषय की विवेचना करके ही श्रीभगवान् एवं श्रीनारद के व वय की व्यवस्था करनी चाहिये ।

न बुद्धि-भेदं जनयेद्
अज्ञानां कर्म-सङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्व-कर्माणि
विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ [गीता ३.२६]

इत्य्-आदि ।

हिन्दी

श्रीभगवद् गीता के ३।२६ में कथित है -

जो लोक, काम्य कर्म एवं काम्य कर्म के फल में आसक्त हैं,
विद्वान् व्यक्ति को चाहिये कि
वे उनसब को विचलित न करें,
अर्थात् कर्म्म त्याग की प्रवृत्ति को उत्पादन न करें,
किन्तु स्वयं उक्त कर्माचरण करके
कर्म में प्रवृत्ति उत्पादन करावें,

इस प्रकार कर्म करने की जो विधि भगवद् वाक्य में दृष्ट होती है,
वह विशुद्धा भक्ति में श्रद्धा हीनता दोष दुष्ट अनधिकारी व्यक्ति के पक्ष में प्रयोज्य है ।

जुगुप्सितं +++(कर्मात्मक-)+++धर्म-कृते ऽनुशासतः
+++(कर्मसु)+++ स्वभाव-रक्तस्य महान् व्यतिक्रमः
यद्-वाक्यतो +++(कर्मात्मको)+++ धर्म इतीतरः स्थितो
न मन्यते तस्य +++(भक्त्यर्थं)+++ निवारणं जनः ॥
[भा।पु। १.५.१५]

इति च ।

हिन्दी

श्रीभागवत १।५।१५ में उक्त है-

देवर्षि नारद ने श्रीकृष्णद्वैपायन को कहा-

हे मुनिवर ! श्रीहरि के यशोवर्णन व्यतीत महाभारत प्रभृति में
आपने जो धर्मादि का वर्णन किया है,
उस से मानवों को हित नहीं होगा ।
प्रत्युत विरुद्ध ही होगा ।

कारण, स्वभावतः निन्दित काम्य कर्मादि में अनुरक्त पुरुष के प्रति
धर्मानुष्ठान के निमित्त अनुशासन करना
आप के पक्ष में अतीत अन्याय हुआ है ।

कारण, जिस निन्दित काम्य कर्म में मानव की रुचि स्वाभाविकी है,
तज्जन्य उपदेश करना क्या अन्याय नहीं है ?
विशेष कर जिस के उपदेश वाक्य से
प्राकृत व्यक्ति ‘यही मुख्य धर्म है’ इस प्रकार निश्चय कर लेता है,
उस उपदेश वाक्य में विज्ञ व्यक्ति यदि दोष प्रदर्शन करता है तो,
उस निषेध वाक्य को अपर व्यक्ति नहीं मानेगा ।
कारण, वे सब कहेंगे कि, काम्य कर्मानुष्ठान हेतु
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास ने उपदेश दिया है ।
उस पर दूसरे का उपदेश मान्य नहीं हो सकता ।
इस प्रकार आप के उपदेश से अत्यधिक अन्याय हुआ है ।
उस का अनुभव स्वयं ही कर सकते हैं ।
आप सर्व श्रेष्ठ महर्षि न होते तो,
आप के उस प्रकार उपदेश से जगत् का अकल्याण नहीं होता ।

एवम् अजित-वाक्यं च तद्+++(→कर्म-त्याग)+++-अधिकारि-विषयम् एव—

हिन्दी

भा० ६। ५० में श्रीभगवान् अजित के उपदेश वाक्य प्रयोग, भी
कर्म्मपरित्याग करने का अधिकारी को लक्ष्य करके हुआ है ।

स्वयं निःश्रेयसं विद्वान्
न वक्त्य् अज्ञाय कर्म हि ।
न राति रोगिणोऽपथ्यं
वाञ्छतोऽपि भिषक्तमः ॥
[भा।पु। ६.९.५०]

इति ।

हिन्दी

(टीका-)

जो विज्ञ व्यक्ति, स्वयं ही अनुभव करते हैं कि
“काम्य कर्मासक्ति ही जीव का अनर्थ का मूल कारण है,
एवं कर्मासक्ति-त्याग ही शान्ति का निदान है”
यह जानकर कभी भी अज्ञ जन को
काम्य कर्मानुष्ठान करने के निमित्त
विज्ञजन उपदेश नहीं करते हैं
जिस प्रकार उत्तम चिकित्सक -
कभी भी रोगी के इच्छानुरूप अपथ्य दान नहीं करते हैं ।

अत्र यद्य् अप्य् अधिकारितायां श्रद्धैव हेतुः,
सा चाज्ञस्य न सम्भवतीति
नैतत् तद्-विषयं स्यात्,
तथापि कथम् अपि प्राचीन-संस्कार-वितर्केण
तद्-अधिकारित्व-निर्णयान् न दोष इति ज्ञेयम् । +++(4 सम्भ्रमः!)+++

हिन्दी

यहाँपर अनन्य भक्ति अनुष्ठान में अधिकारी होने के निमित्त
श्रद्धा ही एकमात्र हेतु है ।
एवं वह श्रद्धा भी
भक्ति माहात्म्य अनभिज्ञ व्यक्ति में होना असम्भव है ।
अतएव अज्ञ व्यक्ति के प्रति
इस प्रकार कर्म त्याग करने का उपदेश हो ही नहीं सकता है ।
तथापि, भक्ति-तत्त्वानभिज्ञ-व्यक्ति का
पूर्व-जन्मार्जित भक्ति संस्कार है,
इस प्रकार अनुमान करके ही
कर्म्मत्याग करने का उपदेश देना दोषावह नहीं है ।

श्रीमान् अजित, जो उपदेश प्रदान किये हैं-
उस में उक्त है-

स्वयं निःश्रेयसं विद्वान्
न वक्त्य् अज्ञाय कर्म हि ।

अर्थात् - “अज्ञ व्यक्ति को कर्मत्याग हेतु उपदेश विज्ञ व्यक्ति न करे।
जब तक भक्ति में दृढ़ श्रद्धा नहीं होती है,
तब तक काम्य कर्मानुष्ठान करना अनुचित है,”
इस प्रकार उपदेश न करे ।

अतएव अधिकारी अनधिकारी विवेचना करके ही
कर्म आचरणीय अनाचरणीय है,
इस प्रकार उपदेश करना कर्त्तव्य है ।

अन्यथोपदेष्टुर् एव दोषः8 स्यात्,
“अश्रद्दधाने विमुखेऽप्य् अशृण्वति यश् चोपदेशः” इति वक्ष्यमाणापराध-श्रवणात् ।[^१९२]

हिन्दी

इस प्रकार रीति को अवलम्बन करने से
गीता एवं श्रीमद् भागवत वचन का सामञ्जस्य हो सकता है ।
अन्यथा, उपदेश कारी का दोष होगा,
कारण- अश्रद्धालु जन को उपदेश करने से
उपदेश कारी का दोष होता है ।

“अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः "

अश्रद्धालु, विमुख, अश्रवण कारी व्यक्ति को उपदेश देने से अपराध होता है।

शास्त्र में है । १७३॥


  1. एवेत्य् अधिकारित्वम् (च) ↩︎

  2. ओन्ल्य् इन् य। ↩︎

  3. यस्माच् च (य) ↩︎

  4. अभावोऽपि (ख, च) ↩︎

  5. नोदेष्यतीति (र) ↩︎

  6. तद्-अनुगति- (ज, य) ↩︎

  7. न तेषां सुतरां (य), नतरां (च) ↩︎

  8. दोषापातः ↩︎