[[नवरत्नविवाहपद्धतिः Source: EB]]
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यह पुस्तक सन १८६७ के ऐक्ट २५ के बमूजब रजिष्टरी
करके सब हक्क यन्त्राधिकारीने स्वाधिन रक्खा है ।
श्रीः ।
विशेष सूचना ।
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विदितहो कि इस श्रीवेङ्कटेश्वर यन्त्रालयमें हमारी बनाईभई रामगीता भाषाटीकात्रयोपेता तथा उपनयनपद्धतिभाषाटीका- सहित उपस्थितहै । इन सर्व नवरत्नविवाहपद्धति आदिपुस्तकोंका पुनर्मुद्रणादि सर्व अधिकार श्रीकृष्णदासात्मज गङ्गाविष्णु, खेमराजकूं दे दिया है यहाँसेकोई मतलबलेके दुसरेने छापना नहीं.
दैवज्ञ दुनिचन्द्रात्मज ( शोरि )
पं० विष्णुदत्त शर्म्मा
वैदिक
कपूरथला ।
विज्ञापना ।
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विदित हो की हमारे आर्य्यावर्त भारतखण्डमें अतिचिरसेवर्धित अधर्मरूप यवन राज्यकें प्रताप ( संताप ) से नित्य आनंदरूप शीतलस्वभावसंपन्न सगुणनिर्गुणात्मक पूर्वोत्तर तटयुक्तऔर वेद४ पुराण १४ न्याय २ मीमांसा २ धर्मशास्त्र१८ शिक्षा १ कल्प २ व्याकरण ८ निरुक्त १ छंद ३ ज्योतिष ६ काव्य २ नाटक १० चंपू १ आख्यायिका इतिहासकोश ५२ अलंकार नीती मंत्र २ तंत्र चिकित्सा ८ गणित २वेदान्त सांख्ययोग कर्मकाण्डादिक रूप विकसित जो अनेक कमल उनपर लोभायमान भृंगरूप विद्वद्वृंद और आनंदमग्न कविरूपंहंस चक्रवाक पारावत कौंचादियोसे शोभायमान वेदविद्यारूपनदीके किञ्चित् शुष्कप्राय होनेपर तदनंतरही सर्वान्तर्यामि कृपालुपरमेश्वरकी कृपा दृष्टि और अखण्डप्रतापरूप श्रीमती महाराजराजेश्वरी श्रीविकटोरीयाजीके राज्यप्रतापरूप अरुणोदय होनेपरऔर धर्मरूप चारो तरफ वृष्टिके होनेसे वही सनातन वेदविद्यारूपनदी सगाध होकर वहने लगी उस्की अशुद्धिरूप मलनिवृत्तिकर्नेकलिये हमारे भातृगण क्षत्री वैश्य शूद्रादि तनमनधनसे अति उद्यत होनेपर बौद्ध चरक जैन अनार्य्यादि नूतनमलके निवृत्तहोनेसे वही हंसादिरूप विद्वान् निर्मलजलपान कर्ते है तथापि विनाकषाय पदार्थ हरीतक्यादि भक्षण विन जैसे जलका मधुरगुण ( मिठास ) मालुम नहीं होती तद्वत् विना अर्थ विनियोगके वेदविद्याका फलरूप गुण मालुम नहीं होता इस्में श्रुति प्रमाणभीहै
विक्रयार्थ पुस्तकों.
यजुर्वेदसंहिता ( वाजसनेयी ) सर्वानुक्रमणिका याज्ञवल्क्य शिक्षासहित दूसरे मोटे टैपमें शुद्धतापूर्वक उत्तम छपीहै कीमत ३ रु०
गीता चिद्घनानंदस्वामिकृत गूढार्थदीपिकासहित
मूल अन्वय पदच्छेदसहितभाषाटीका किमत ८ रु०
गीता आनंदगिरिकृतभाषा टीकास० कीमत ३ रु०
शिवस्वरोदय भाषाटीकासह कीमत १२ आ०
वेदांतरामायण भाषाटीकासह कीमत १॥रु०
श्रीरामगीता भाषाटीका पदप्रकाशिका अनुवाद समुच्चय और विषमपदी सहित कीमत ८ आ०
वेदान्तग्रंथपंचकम् वाक्यसुधारस, हस्तामलक, गीर्वाणपंचक मनीषापंचकम् इमे सटीकाः आत्मबोधकीमत ८ आ०
श्रीमहाभारतसटीक अतिउत्तम बड़े अक्षरकामजबूत कागज गणपतकृ० छापेका अनुक्रमणिका सहित कीमत ४० रु०
श्रीमद्भागवत श्रीधरी टिप्पणीसह
अक्षरमोटा परमोत्तम है कीमत १५रु०
श्रीमद्भागवतभाषाटीकासह ५०० दृष्टांतोसहित कि० १२रु०
भागवत विजयध्वजीटीकासह माध्वसंप्रदायी ग्रंथसंख्या८०००० होगा कीमत १२रु०
वाल्मीकिरामायण सटीक कीमत ९ रु०
श्रीमद्भागवत श्रीधरीटीका चूर्णिका टीका सह कीमत ९ रु०
विक्रयार्थ पुस्तकों
ब्रह्मवैवर्तपुराण संपूर्ण चारोंखंड कीमत ८ रु०
मार्कण्डेयपुराणजिसमेंसप्तशती शान्तनवीटीकासहितहैकीमत ५ रु०
अध्यात्मरामायण सटीक चिकना कागज कीमत ४ रु०
गर्गसंहिता नयी शुद्ध दशखंड कीमत ४ रु०
भागवत दशमस्कंद भाषाटीका कीमत ४ रु०
श्रीमद्भागवताद्यपद्यव्याख्या शतक( जन्माद्यस्य श्लोकके सो अर्थ ) कीमत २ रु०
भागवतलीलाकल्पद्रुम ( श्रीमद्भागवत के सब चरित्र जन्माद्यस्य इस श्लोकमें ) कीमत १ ॥ रु०
कालिकापुराण शाक्तजनोंको अवश्य ग्राह्य कीमत ४ रु०
नंदमहोत्सव कथा करनेवालोंको अवश्यलेने योग्य की ० ८ आ०
एकादशीमाहात्म्य भाषा टीका सह कीमत १ रु०
कार्तिकमाहात्म्य भाषाटीका सह कीमत १२ आ०
ब्रह्मवैवर्त्तपुराणका ब्रह्म, प्रकृति और गणेशखंड कीमत ४ रु०
मनुस्मृती सान्वय भाषाटीका कीमत ३ रु०
व्रतराज टिप्पणसहित कीमत ३॥ रु०
विवादार्णवसेतुः धर्मशास्त्र व न्याय राजनीति कीमत २ रु०
ब्राह्मणोत्पत्ति मूल संस्कृत और भाषाटीकासह कीमत ३॥ रु०
संस्कारभास्कर यजुर्वेदी सब संस्कारोंकी विधिहै की० ३ रु०
पूजापंकजभास्कर कीमत २ रु०
श्राद्धविवेक कीमत १२ आ०
उपाकर्मपद्धति ( श्रावणीयजुर्वेदकी ) कीमत १२ आ०
वेदोक्तवास्तुपद्धति कीमत ६ आ०
वैवाहपद्यावली (नोतनी अर्थात् विनतीमें कहनेयोग्य दोनो पक्षके श्लोक) भाषाटीकासह कीमत १२आ०
व्याकरणमहाभाष्यम् कैय्यटकृतभाष्यप्रदीपसहितऔर बालशास्त्रिकृत टिप्पणी समेत कीमत १२ रु०
लघुशब्देन्दुशेखर काशीके छापेका कीमत ५ रु०
सिद्धांन्तकौमुदी अष्टाध्यायी, गणपाठ,धातुपाठ, लिंगानुशासन पा० अक्षर मोटाजिल्द अति उत्तम कीमत ४॥ रु०
सिद्धांतचंद्रिका सुबोधिनीटीका और तत्वदीपिकास. की० ४ रु०
सिद्धातकीमुदी तत्त्वबोधिनी टीकासहितजिल्द काशीका कमीत ७ रु०
सिद्धांतचंद्रिकाउत्तरार्ध सुबोधिनी औरतत्वदीपिकासह. कीमत २ रु०
तर्कसंग्रह दीपिका नीलकंठी टीकासहित कीमत १२ आ०
कारकावली मुक्तावली रामरुद्रीदिनकरी काशीकी की० ५ रु०
गीतगोविंद संस्कृतटीका और भाषाटीका की० १ ।रु०
माघकाव्य ( शिशुपालवध ) संपूर्ण कीमत २ ॥ रु०
पद्यावली अनेमहानुभावोंके संगृहीतश्लोक कीमत ८ आ०
सुभाषितरत्नाकर कीमत २ रु०
अष्टांगत्हृदय ( वाग्भट ) भाषाटीका अत्युत्तमवैद्यकग्रंथ संपूर्ण छपके तैयारहै कीमत १० रु०
शार्ङ्गधर निदानसह भाषाटीका पं० दत्तरामचौबे मथुरानिवासीका बनाया कीमत ३ रु०
माधवनिदानभाषाटीका कीमत २ ॥ रु०
चर्य्याचंद्रोदय भाषाटीका (व्यंजनबनाने का ग्रंथ ) की ०२रु०
वीरसिंहावलोकन ज्योतिषशास्त्रादिकर्मविपाक चिकित्सा नवीन टाईपमें अति उ० कीमत १ ॥ रु०
न्यायप्रकाश परमोत्तमचिद्धनानंदस्वाभिकृत कीमत ७ रु०
तुलसीकृत रामायण सटीक पंडित ज्वालाप्रसादजीकृत भाषाटीका अतिउत्तम संपूर्ण क्षेपकोंके अर्थ और माहात्म्य तुलसीदासजीकाजीवनचरित्रसहित कीमत ८ रु०
तुलसीकृतरामायण बडे टाईपका अतिउत्तममये(श्लोकार्थ, गूढार्थ, प्रसंगार्थ, लवकुशकांड-सहित इतिहास तुलसीदासजीका जीवन चरित्रऔर पंचीकरण, रामचंद्रजीके वनवासका तिथिपत्र व दृष्टांत सहित ३८०० टिप्पणीके जिसमेंसंपूर्ण क्षेपक हैं ) ग्लेज ५ रु० और रफ्४ रु०
तुलसीकृत रामायण क्षेपकसह मझले टाईपका अतिउत्तम मये ( श्लोकार्थ व गूढार्थ वप्रसंगार्थ व लवकुश कांडसहित इतिहास व दृष्टांत सहित ३८०० टिप्पणीके जिसमें संपूर्ण क्षेपक हैं ) ग्लेज २॥ रु० रफ्१॥। रु०
विज्ञापना ।
यथा (स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योर्थम् ।योर्थज्ञऽइत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेतिज्ञानविधूतपाप्मा) इसलिये सर्वोपकारके लिये विवाह पद्धतीका मैने वेदभाष्य सायन उवट महीधरादी देख और श्रीनिबाहूरामकृत संस्कृत टीकातथा ब्राह्मण सर्वस्व हरिहरभाष्य आदि ग्रंथोंका सार ले तथा अनेक विवाहपद्धति गृह्यसूत्रसे मिलाय पाठ शुद्धकरा है और जो मंत्र पद्धतियों में अप्रचारसे अशुद्ध थे वह यजुर्वेदादि संहितासे मिलाय शुद्धकरे साथ वेदका प्रमाण अध्याय मंत्रांक भी लिखे है और मंत्रोंको ऋषि छन्द देवतादिसे मुशोभितकर कर्तव्यता मंत्रार्थ भावार्थ गूटार्थ युक्त नव प्रकरण संयुक्त भाषामें टीका बनाई ( रची ) है इस लिये सज्जन पुरुष इस पुस्तकको स्वीकार करमुझकेपरिश्रमकोसफल करे और इस पुस्तकमे जो वर कन्याके प्रति उपदेश आचार दोषगुण कहै है वह उपदेशकरे ऐसे कर्नेसे लोकपरलोकमें यशकी धर्मकी प्राप्ति होगी।इसपरिश्रमसे सर्वांतर्यामिपरमेश्वरश्रीरामचन्द्र प्रसन्नहों ॥ श्रीः ॥
राजधानी कर्पूरस्थल निवासी
गोतम गोत्र ( शोरी ) अन्वयालंकृत
दैवज्ञ दुनिचन्द्रात्मज.
पण्डित - विष्णुदत्त शर्म्मा वैदिक.
विवाहपद्धतिस्थितविषयनिरूपण
( प्रथमप्रकरणज्योतिषशास्त्र में)
जिस्में स्त्रीप्रशंसा,दैवज्ञपूजन,विवाहप्रश्न, प्रश्नसे शुभाऽशुभविचार. वैधव्ययोगका व्रत शांति आदिसे परिहार, सावित्रीव्रतविधान पिप्पलविवाह कुंभविवाह अच्युतविवाहविधानप्रश्नसे कन्यास्त्रीपुत्रविचार मंगलशब्दअशुभशब्द ।बालकवरण नक्षत्र ।कन्यावरणविधि ।कन्यापरिणयनकाल । चैत्रादिमासनियम व्यवस्था ।ज्येष्ठ में विवाह निषेध ।पुत्र विवाहके अनंतर कन्या विवाह निषेध और विधान । मुण्डनविचार । विवाहकेमुहूर्त पुरुषस्त्रीराशिचक्र ।वर्णचक्र । योनिचक्र ।गणचक्र । लत्तापात। युतिवेध । चरणवेध । जामित्र । बुधपंचक \। सर्व देशमें एकार्गल चक्र । यह सभदोषपरिहारसहित । उपग्रह ।क्रांतिसाम्य ।दग्धातिथि । दशयोग \। पंग्बंधकाणलग्नविचार ।ग्रहनैसर्गिकमैत्रीचक्र ।दुष्टभकूट ।लग्नशुद्धि । गोधूली लग्न ।वधूप्रवेश । द्विरागमन मुहूर्त । शुक्रविचार परिहारसहित ।यह सभ भाषाटीका सहित प्रथम प्रकरणमें लिखे है॥
(द्वितीयप्रकरण कर्मकाण्ड विषय में )
यथार्थगृहचित्र ।मण्डपचित्र ।तिलकमण्डलचित्र ।सर्वतोभद्रचित्र पञ्चाग्निकुण्ड । आज्यस्थाली । चरुस्थाली । प्रणीतापात्र ।पुरोडाशपात्र । स्रुव ।उपभृत्स्रुक्।ध्रुवास्रुक् । पुष्करस्रुक् ।अग्निहोत्रहवणी । वैकंकतस्रुक्।उलूखल ।मुसल । शूर्प । शम्या ।
स्फ्यः । शृतावदान । उपवेष । कूर्च्च । दृषत् । उपल ।षड्वर्त। अश्री। अरणी । चोत्तरारणी । मोविली । प्रमन्थ । नेत्र ।अन्तर्धानकट । हविर्धानपात्री । प्राशित्रहरण । चमसा । इडापात्री । यजमानासन । पत्न्यासन । होत्रासन । ब्रह्मासन । यजमानपात्री । पत्नीपात्री । कृष्णाजिन । इनसर्वके प्रमाणसहितचित्र । कात्यायनोक्तपात्रोंके लक्षण । विनियोगवर्णन । ऋषिछंददेवतालक्षण । छन्दसंख्या गायत्रीछन्दभेद। यह सर्व श्रेष्ठतासेद्वितीयप्रकरणमे लिखे है॥
(तृतीयप्रकरणकात्यायनोक्तशांतिमें )
जिसमें प्रमाणसहित स्वर संयुक्त अतिशुद्धकर वेदोंकेमंत्र । स्वस्तिवाचन । गणपत्यादिपूजन । रक्षाविधान । आचार्यादिवरण । वेदस्वरूप । आशीर्वादमंत्र । कलश । वास्तुपूजन । योगिनी । ब्रह्मा । विष्णु । शिव । इंद्रादि दशदिक्पाल । नवग्रहपूजन । बलिदान ।संकल्प । शांति । सामग्रीहै ।
(चतुर्थप्रकरणसंकल्पादिभेदमें )
विवाहसामग्री । चतुर्थीकर्मसामग्री । कन्योद्वाहमें यजमान कर्तृकप्रतिज्ञासंकल्प । यजमानकर्तृक शुश्रचौलशाटिकासंकल्प । कन्या पितृकर्तृक वेदीदानसंकल्प । यजमानकर्तृकचतुर्थीदानसंकल्प। यजमान कर्तृक उपाध्यायदक्षिणासंकल्प । यजमानकर्तृककन्यायज्ञ अंतमेंभूरि अन्नद्रव्यदानसंकल्प । यजमानकर्तृककल्प । वरकर्तृकपत्नीप्रतिग्रहगोदानसंकल्प । अभावे सुवर्णमयी गोदानसंकल्प । उपाध्यायदक्षिणासंकल्प । यजमानकर्तृकख-
ट्वादानसंकल्प । जलवेष्टन । गोत्रोच्चारण । अतिविस्तृतकन्यासंकल्प । संक्षेपसेकन्यासंकल्प । परिभाषा । सूर्यादिनवग्रहमंत्र । इन्को पूजनीयता । षोडशोपचारपूजा । ज्योतिषबोधकनवग्रहमंगलाष्टक पारस्करोक्तकुशकंडिकामें विवाहसूत्र ।
( पंचमप्रकरणम् )
विवाहपद्धतिप्रारम्भ । मंगलाचरण ग्रंथकर्तुःप्रशंसा । वाग्दानविधि । बालकवरण । वेदोच्चारण । गणेशस्तुति । ऋषिसृष्टि ।शिवसंकल्प । शांतिपाठ यह सभ अत्युत्तम भाषाटीका सहित साथप्रमाण स्वरयुक्त मंत्र है ।
(पष्टप्रकरण विवाहविधिमें)
( तत्र कन्याहस्तेन ) इहाँसे आदिले ( प्राङ्मुखौ वधूवरौ स्थितौभवतः ) इस पर्यंत अर्थात् संपूर्ण पद्धति अनेक पद्धतियोसे मिलाय संस्कृत शुद्धकर ऋग्वेदादि चतुर्वेदोसे मंत्र निकाल और जिसवेदका जो मंत्र उस्का प्रमाण तथा स्वरसहित अतिशुद्ध कर विनियोगोंके सहित लिखेहै । इस्की टीका महीधरभाष्य सायन भाष्य उवटभाष्य ब्राह्मणसर्वस्व गृह्यसूत्र हरिहरभाष्य ॥ तथा निवाहुरामकृतटीका जिस्को पाञ्चालदेशीय महाविद्यानिकेरकेमुख्य संस्कृताध्यापक श्रीपंडित गुरुप्रसादजीने शुद्ध किया॥ इत्यादि अनेक वेदार्थबोधक ग्रंथोंसे मंत्रोंके अर्थ साथ मन्वादि प्रमाणदेकर सभकी समझमें आनेवाली मनभाविनी अतिसुंदर भाषाटका में करेंहैं इसी प्रकार साथ प्रमाणोंके विवाहपद्धति के पद २का अर्थ स्पष्टभाषाटीकामें लिखाहै॥
प्रार्थना
( सप्तमप्रकरणमें )
चतुर्थीकर्म अतिविस्तृत भाषाटीकासहित है ।
(अष्टमप्रकरण स्त्रीआचारमें)
धर्म शास्त्रादि अनेक शास्त्रोक्त विवाहानंतर जो स्त्री मात्रकोपति सेवा आदि प्रतिदिन कर्तव्य है वह अतिविस्तार से निरूपणकरा है॥
( नवमप्रकरणरजस्वलाकृत्य में )
अर्थात् जिस समय स्त्रीयोंको ऋतु आते है उस दिनसे तीनदिन पर्यन्त स्त्री रक्षा भोजन शयनासनादि व्यवस्था जिससे गर्भाशय शुद्ध रहनेसे अति शौर्य बल बुद्धि संपन्न और दुराचारसे दुष्ट कुकर्मी संतान होती है । यह सभ धर्म्मशास्त्र कर्मकाण्ड ज्योतिष चिकित्सासे शुद्ध कर अतिसुंदर निरूपण करा है ॥ इति ॥ तथा प्रकीर्णाऽध्यायलिखा है।
** ( प्रार्थना )** यद्यपि अनेक विवाहपद्धति मूल और संस्कृतटीकासंवलितसें कार्य सिद्ध था तथापि वेद मंत्रोमें अशुद्धिका सन्देहऔर संस्कृतटीकाको सर्वोपकारक ना होनेसे तथा विना विवाहप्रकरण अन्य स्थानों में मंत्रार्थ कर्तव्यताकी इच्छालग्नशुद्धि कात्यायनी शांति संकल्प आदिकी आवश्यकता विचार कर संस्कारकीशुद्धि और लोकोपकारार्थ की जिस्को पढकर सामान्य विद्यासंपन्नभी पुरुष अति सुगमरीतीसे समझकर आनंदपूर्वक निर्वाह करे इसलिये मैनेअत्युत्तम भाषाटीका सहित विवाहपद्धतिकापुस्तक नवप्र-
करणमें अति परिश्रमसे बनाया है । इस्को महाशय जन स्वीकारकर प्रचरित करे॥ और जो मुझकी अशुद्धिहो वह क्षमा करे॥
पुष्पाञ्जलिः—
यदशुद्धमसम्बद्धमज्ञानाच्चकृतंमया ।
विद्वद्भिःक्षम्यतांसर्वंबालत्वादयमञ्जलिः॥
( कर्पूरस्थलनिवासि—दैवज्ञ. दुनिचन्द्रात्मज (शोरी )
पण्डित विष्णुदत्तशर्मा
—वैदिक.
विशेषद्रष्टव्य
यथाह सुश्रुते भगवान् धन्वन्तरिः॥ अथास्मै पंचविंशतिवर्षाय द्वादशवर्षंपत्नीमावहेत् । पित्र्यधर्मार्थकामप्रजाः प्राप्स्यतीति॥किञ्च —॥ तद्वर्षाद्वादशात्कालेवर्तमानमसृक्पुनः । जरापक्वशरीराणांयातिपंचाशताक्षयम्॥ ऊनषोडशवर्षायामप्राप्तः पञ्चविंशतिः । यद्याधत्तेपुमान्गर्भंकुक्षिस्थः सविपद्यते॥ जातोवानचिरंजीवेज्जीवेद्वादुर्बलेन्द्रियः । तस्मादत्यन्तबालायांगर्भाधानंनकारयेत्॥अयमेवाशयमालम्ब्यभावमिश्रोपिभावप्रकाशेवयोधिकांनिंदनवालांस्तौति॥
यथा—पूतिमांसंस्त्रियोवृद्धाबालार्कतरुणंदधि । प्रभातमैथुनंनिद्रासद्यःप्राणहराणिषट्॥ वृद्धोपितरुणीं गत्वातरुणत्वमवाप्नुयात् । वयोधिकांस्त्रियंगत्वातरुणःस्थविरायते॥ अत्याशितोऽधृतिःक्षुद्वान्सव्यथांगः पिपासितः । बालोवृद्धोन्यवेगार्तस्त्यजेद्रोगोचमै
थुनम्॥ लिंगिनींगुरुपत्नींचसगोत्रामथपर्वसु । वृद्धांचसंध्ययोश्चापिगच्छतोजीवनक्षयः॥ विंशते श्चैवमैथुनमित्याद्य- नेकवचनप्रामाण्यात्तत्तद्ग्रंथाऽवलोकनाच्चस्त्रियावरोद्विगुणोऽभावेसार्द्धोवास्त्रीत्वयवी यसीएवविधेयाइतिमेप्रतिभात्यतश्चेह- लौकिक पारलौकिकहितेप्सुभिःपुरुषैरस्यप्रचारः कर्तव्यइतिशम्॥
प्रार्थनेयंदै°दुनिचन्द्रात्मजकर्पूरस्थलीय पंडित
विष्णुदत्तवैदिकशर्मणः ।
(अवशिदेखिये देखनयोगू )
सुश्रुतमें भगवान धन्वंतरि स्वयं लिखतेहै कि पच्चीस २५ वर्षके बालकको द्वादश १२ वर्षकी स्त्री से विवाहकर्नेसे धर्म अर्थ काम संयुक्त पिताको हित दीर्घायुवाली संतान प्राप्तहोती हैं ।और स्त्रीको द्वादशवर्षसे ले ऋतु पचास वर्षपर्यन्त रहतेहै और षोडश १६ वर्षसे न्यून ( कम ) स्त्रीको यदि पचीसवर्षसे कम ( न्यून ) पुरुषप्राप्तहो उससे जो गर्भहो वह स्रवजाताहै अर्थात् गिरजाताहै । वा उत्पन्नहोकर चिरकाल जीवत नहीं रहता यदि रहता है तो दुर्बलशरीर (नताकत ) असमर्थ इंद्रियवाला चिरजीवताहै। इस कारणसे अतिबालकोंका गर्भाधान नाकरावें॥ अर्थात् २५ पचीसवर्षका पुरुष औ१६ वर्षकीस्त्री। वा १४ वर्षकीस्त्री औ २० वीसवर्षका पुरुषहो इससे न्यून नाहीं॥और इसी आशयको लेकर भावमिश्रजी भावप्रकाश ग्रंथ में वृद्धा ( बडी ) स्त्रीका निषेध
और बालास्त्रीका स्वीकार कहतेहै॥जैसे सढा मांस । वृद्धस्त्री ।लाल दधि । वादिनमे बनाया हुआ दधि॥ प्रातःकाल स्त्रीसे संभोग । और प्रातःकाल निद्रायह शीघ्र बलको नष्टकर्तेहै । वृद्धपुरुष यौवनवती स्त्रीको प्राप्तहोय युवा होताहै और अपनेसे बडीस्त्रीको यदि युवानपुरुष प्राप्तहोय तो शीघ्रही वृद्ध ( बूढा ) होजाता है । और बहुतअन्न भोजनकर धैर्यरहित क्षुधायुक्त पीडायुक्त तृषायुक्त और बालक अर्थात् वीस २० वर्षसे न्यून ( कम ) और वृद्ध( अशीति ८० वर्षसे ) ऊपर पुरुष॥और रोगातुर और जो एकसेसंभोगकर चुकाहो यह ७ पुरुष मैथुन ना करे यदि यह करे तो प्रत्यक्ष फलको प्राप्तहोतेहै। इसीप्रकार संन्यासयुक्तस्त्रीसे वा गुरुकीस्त्रीसे और अपने गोत्रकी स्त्रीसे वा कन्योसे और पर्वकाल अष्टमी अमावस एकादशी आदिमें और वृद्धास्त्रीसे तथा संध्याकालमें संभोगकर्नेसे जीवनका क्षयहोताहै । इसलिये विंशति अर्थात् वीस २० वर्षकेउपर पुरुषको मैथुन कर्नाचाहिये इत्यादि अनेकवचननिदर्शनसेसिद्ध यह भयाकी स्त्रीसे बालक द्विगुण अर्थात् दुगुण( दूना ) होना चाहिये । जैसे स्त्री वारह १२ वर्षकी और पुरुष२५ वर्षका यदि ऐसा योग्य गुणयुक्त वरनामिले तो द्वादश १२ वर्षकी लडकीको वर विंशति २० वर्षका अवश्य होना चाहियेऔर कन्या वरसे सदैव न्यूनहोनी चाहिये । ऐसेकर्नेसे इस लोकमें यश परलोकमें अनंत सुखप्राप्तहोताहै इस लिये संसारभीरु धर्मनिष्ठपुरुषोंको इसका प्रचार तनमन धनसे अवश्य कर्नाचाहिये ।
प्रार्थनेयं दैवज्ञदुनिचन्द्रात्मज (शोरिकर्पूरस्थलीय विष्णुदत्तकशर्मणः ।
॥ श्रीः ॥
अथ नवरत्नविवाहपद्धतिः भाषाटीकासहिता
ॐ स्वस्ति श्रीगणेशाय विघ्नहर्त्रे नमोनमः
अथ मुहूर्तचिंतामणौविवाह ( उपयमन ) प्रकरणम्॥
भार्य्यात्रिवर्गकरणंशुभशीलयुक्ता शीलंशुभं
भवतिलग्नवशेनतस्याः॥तस्माद्विवाहसमयः
परिचिंत्यतेहितन्निघ्नतामुपगताः सुतशीलधर्माः १ ॥
मंगलाचरणम्,
शिवंशिवकरंगौरी रामसीतासमन्वितं॥
नत्वालग्नविशुद्ध्यर्थं टीकांकुर्वेमनोहराम्॥
भा०टी० भार्या अर्थात् जिससे विवाह होय वह स्त्री शुभशीलसे युक्त धर्म अर्थ कामका साधन होती है॥वह शुभशीलतालग्नद्वारा होनेसे विवाहका समय प्रथम चिंतना कर्ते है ।भावर्थ यह है कि यदि लग्नदशदोषादिरहित शुद्ध होय तो उस्में पाणिग्रहण कर्नेसे स्त्री दुष्ट भी श्रेष्ठ (अच्छी) और वंध्यायोगवाली पुत्रवती और पापिष्ठ धर्मयुक्त लग्नके प्रभावसे हो जाती है॥ १ ॥
आदौसंपूज्यरत्नादिभिरथगणिकंवेदयेत्स्वस्थचित्तं
कन्योद्वाहंदिगीशानलहयविशिखप्रेश्नलग्नाद्यदीन्दुः॥
दृष्टोजीवेनसद्यः परिणयनकरोगोतुलाकर्कटाख्यंवा
स्यात्प्रश्नस्यलग्नंशुभखचरयुतालोकितंतद्विदध्यात् २॥
भा० टी० प्रथम रत्न सुवर्ण रजतादिसे गणितविद्यानिपुणज्योतिषी स्वस्थचित्त बैठेको भेटकर कन्याका विवाह निवेदन( कथन ) करे इहा रत्नादिसे यह प्रयोजन है जितनेसे संतुष्ट हो जाय उतना द्रव्यदेना वा यथा शक्ति अनुसार देना॥और साथ यहकहनाकी में कन्याका विवाह कर्ना चाहता है । यदि उसकालविवाहप्रश्नसे दशम १० एकादश ११ तृतीय ३ सप्तम ७ पंचम ५ स्थानमें चन्द्रमा होय और पूर्णदृष्टि नवम ९ पंचम ५से बृहस्पति चंद्रमा को देखे वा वृष तुला कर्क यह प्रश्नके लग्न होय और शुभग्रह युक्त होवे वा देखे तो शीघ्रही विवाह होता है २
विषमभांशगतौशशिभार्गवौ तनुगृहंबलिनौ यदिपश्यतः ।
रचयतोवरलाभमिमौ यदा युगलभांशगतौ युवतिप्रदौ ३॥
भा० टी० यदि शुक्रचंद्र विषम (मेष. मिथुन. सिंह. तुला. धन. कुंभ राशिके नवांशेमें बलयुक्त प्राप्त होकर प्रश्नलग्नको देखे तो यहवरकी प्राप्ति कन्याको कर्तेहै ।यदि शशि शुक्र समराशि के नवांशमें हो और बलयुक्त प्रश्नलग्नको देखे तो कन्याकी प्राप्ति बालक को कर्तेहै॥ ३ ॥
षष्टाऽष्टस्थःप्रश्नलग्नाद्यदीन्दुर्लग्नेक्रूरः सप्तमेवाकुजः
स्यात् । मूर्ताविन्दुःसप्तमेतस्यभौमोरंडासास्यादृष्ट
संवत्सरेण॥ ४ ॥
भा० टी० प्रश्नलग्नसे षष्ठ ६ अष्टम ८ इनस्थानोमें चंद्रमा होय औलग्नमे क्रूर ग्रह होवै यह एक योग है॥ १ ॥ वा प्रश्नलग्नसेषष्ठ ६ अष्टम ८ इनस्थानोमे चंद्रमा होयऔर प्रश्नलग्नसे भी सप्तम७ स्थानमे मंगल होवे यह द्वितीय योग है॥ २ ॥ अथवा लग्नमेचंद्रमा और सप्तम ७ स्थान में मंगल होवे यह तृतीय योग है । फल इन्का ऐसे होने से आठ वर्षके अंतर वह कन्या रंडा होती है ४
प्रश्नतनोर्यदिपापनभोगाः पंचमगोरिपुदृष्टशरीरः ।
नीचगतश्चतदाखलुकन्यासाकुलटात्वथवामृतवत्सा ५॥
भा० टी० प्रश्नलग्नसे पापीग्रह अर्थात् क्षीणचंद्रमा सूर्य मंगल शनैश्चर और इन्के साथ युक्त बुध यह पापीग्रह लग्न पंचमस्थानमेहोय और लग्नमे स्थितहो शत्रुग्रह उस्को देखे॥ वा नीचगत होयतो निश्चयसे वह कन्या व्यभिचारिणी वैश्या कुलिटा होती है॥अथवा मृतवत्सा अर्थात् नारहणेवाली संतान वाली होती है॥प्रमाण बृहज्जातकका पापी नीच उच्च ग्रहोमे यथा ( क्षीणेन्द्रर्कमहीसुतार्कतनयाः पापा बुधस्तैर्युतः । अज वृषभ मृगांगनाकुलीरा झषवाणजौचदिवाकराक्षितुंगाः । दश १० शिखि॥ ३ ॥ मनुयुग् २८ तिथी १५ न्द्रियांशे ५ स्त्रिनवक २७ विंशति २० भिश्चते ऽस्तनीचाः) अर्थात् मेषके १० अंश सूर्य्य उच्च औ तुलाके १० अंशनीच इसप्रकार वृषके ३ अंश चंद्रमा उच्च औ वृश्चिकके ३ अंशनीच॥ औ मंगल मकरके २८ अंश उच्च औ कर्कके२८ अंश नीच औ कन्याके १५ अंश बुध उच्च औ मीनके १५ अंशनीच होताहै और बृहस्पति कर्कके ५ अंश बृहस्पति उच्च
औ मकरके ५ अंशनीच॥ शुक्र मीनके २७ अंश उच्च ओ कन्याके २० अंशनीच । शनैश्वर तुलाके २० अंश उच्च औ मेषके २० अंशनीच होताहै॥ ५ ॥
यदिभवतिसितातिरिक्तपक्षेतनुगृहतःसमराशिगःश
शांकः । अशुभखचरवीक्षितोऽरिरंध्रेभवतिविवाह
विनाशकारकोऽयम्॥ ६ ॥
भा० टी० यदि लग्नगृहसे कृष्णपक्षमे समराशिगत चंद्रमाहोय और पत्र ६ अष्टम ८ इनस्थानमे स्थितहो पापी ग्रह देखे तोविवाहका नाश कर्नेवाला होता है॥ ६ ॥
जन्मोत्थंचविलोक्यबालविधवायोगंविधाय्यव्रतम् ।
सावित्र्याउतपैप्पलंहिसुतयादद्यादिमांवारहः॥
सल्लग्नेऽच्युतमूर्तिपिप्पलघटैः कृत्वा विवाहं स्फुटं ।
दद्यात्ताञ्चिरजीविनेऽत्रनभवेद्दोषःपुनर्भूर्भुवः॥ ७ ॥
भा० टी० प्रश्नलग्नसे जैसे विधवा योग विचारा इसीप्रकार जातकशास्त्रसे जन्म लग्नसे उत्पन्न विधवा योग विचारकरे ( जैसेलिखा भी है—बाल्ये विधवा भौमे पति संत्यक्तादिवाकरे ऽस्तस्थे ।सौरे पापैदृष्टेकन्यैव जरां समुपयाति ) अन्यच्च ( उत्सृष्टारविणा कुजेन विधवा बाल्ये ऽस्तराशिस्थिते ) अर्थात् यदि मंगल स्त्रीकेजन्मलग्नसे सप्तम स्थान स्थितहो तो स्त्रीको बालविधवा योग होताहै यदि सप्तम स्थान सूर्य स्थितहो तो पति स्त्रीको त्याग देता है॥यदि कन्याकी जन्म कुंडलीमे शनिश्वर पापदृष्टी युक्त सप्तम स्थि-
तहो तो कन्याही वृद्धहो जातीहै अर्थात् विवाह नहि होता॥औरभी लिखाहै ( लग्नेव्यये चपाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे । कन्या भर्तृविनाशाय भर्ताकन्याविनाशकः) अर्थात् जन्मलग्नचतुर्थ ४ सप्तम ७ द्वादश १२ अष्टम ८ इनस्थानोमे यदि कन्याके मंगलहोय तो पतिका नाशकर्ता है यदिपुरुषके इनस्थानोमे मंगल होयतो स्त्रीनाशकर्ता है॥इत्यादि योगोसे अच्छीतरह बालविधवायोगको विचार आगे कहना जो वैधव्यनाशक सावित्रीका तव्रपिता कन्यासे विधिपूर्वक करवावें॥ यदि भर्ताके स्त्रीनाशक औस्त्रीके भर्तानाशक योग पडा होय तो उन दोनोका विवाह कर्ना श्रेष्ठ होता है औवैधव्यकारक योग नहि रहता॥इस्मे दृष्टान्तयह है कि जैसे दोनो अंगार आपसमे युद्धकरे तो घातसे दोनोही निस्तेज हो जाते है औ सर्प दोनो युद्धकरे तो उस्की विष उस्को उस्की विष नहि बाधा कर्ती॥ और केवल स्त्रीके ही विधवा योग होय तो एकांतमे कन्याका पिता कन्यासे सावित्री व्रत करवाय पश्चात् पिप्पलसे वा घट अथवा सुवर्णमयी विष्णुमूर्तिसेयथोक्त विधिसे विवाहकर पीछेसे चिरायुवाले वरसे विवाह करेतो पुनर्भुदोष नहि होता॥ प्रमाणभी जैसे व्रतखंडमे लिखाहै( सावित्र्यादिव्रतादीनि भक्त्या कुर्वन्ति याः स्त्रियः॥ सौभाग्यञ्चसुहृत्त्वञ्च भवेत्तासां सुसन्ततिः) यह सभ अष्टम प्रकरण स्त्रीयोकेआचारमे अच्छीतरह आगे लिखाहै॥ ७ ॥
(अथ पिप्पलव्रत ज्ञानभास्करोक्त लिखतेहै)
बलवद्विधवायोगेबाल्येसतिमृगीदृशाम्
पितारहसिकुर्वीततद्भङ्गंशास्त्रसम्मतम्॥
सुदिनेशुभनक्षत्रेचन्द्रताराबलान्विते ।
अवैधव्यकरैर्योगर्लग्नेग्रहबलान्विते॥
व्रतारम्भंप्रकुर्वीतबालवैधव्यनाशकम् ।
सुस्नातां चित्रवसनांकन्यांपितृगूहाद्वहिः॥
नीत्वाऽश्वत्थशमीस्थानेयद्वाबदरिकाश्रमे ।
आलवालं प्रकुर्वीतयदिवामृदुकर्पितम्॥
कुमार्य्याचार्य्यनिर्दिष्टंकृत्वासंकल्पमादरात् ।
करकाम्बुप्रमाणेनसिंचनंप्रतिवासरम्॥
चैत्रेवाश्विनमासेवातृतीयाऽसितपक्षतः ।
यावत्कृष्णातृतीयान्यामासमेकंयथाविधि॥
ब्राह्मणानांतथा स्त्रीणांपूजनंचसमाचरेत् ।
तदाशिपाप्नुयात्कन्यांसौभाग्यञ्चसुखान्वितम्॥
प्रतिमांपार्वतीनाम्नीवैष्णवेभाजनेऽर्चयेत् ।
चंदनाक्षतदूर्वाद्यैर्बिल्वपत्रैर्यथाविधि॥
उपचारैर्यथाशक्त्यानैवेद्यैःप्रतिवासरम् ।
एवंव्रतप्रभावेणवालवैधव्यनिष्कृतिः॥
जायतेकन्यकानाञ्चततः पाणिग्रहक्रियाः ।
इति अश्वत्थव्रतविधानम्॥
भा० टी० भावार्थ यह है कि बलिष्ठ स्त्रीको विधवा योग पडने सेएकांत स्थानमे पिता शास्त्रोक्तउस्का भंग वक्ष्यमाण शुभदिन शुभनक्षत्रोगे करे॥ कन्याको स्नान करवाय वस्त्रभूषण पहनाय घर
(गृह) से बाहिर अश्वत्थ (पिप्पल) के स्थानमे कन्याको साथलेपिप्पलकी आलवाल ( आढ) चारो तरफ कर कन्या संकल्पपूर्वक जो चतुर्थ प्रकरण में लिखाहै । प्रतिदिन जलसे सिंचन करेफिर चैत्र वा आश्विन शुक्लतृतीयासे कृष्णतृतीयापर्यन्त ब्राह्मणऔ स्त्रीयोका कन्या पूजनकर उनके आशीर्वाद कन्या ग्रहण करे॥और सुवर्णपात्रमे पार्वतीजीको षोडशोपचार वक्ष्यमाणसे पृजनकरे इस व्रतके प्रभावसे कन्योका बालवैधव्य योग नाश होता हैपीछेसे चिरायुवाले वरसे विवाह देवे॥
अथ अश्वत्थविवाहविधिः)
सूर्यारुणसंवादोक्तोलिख्यते॥
सुहृद्द्विजगुरून्नारीमङ्गलोच्चारणैःसमम् ।
आहूयोद्वाहकालेचरम्यभूमौचमण्डपे॥
गत्वाप्रणम्यगौरीञ्चगणनाथंचभूरुहम् ।
भवानींचैवमन्थानींपिता मंत्रमुदीरयेत्॥
उद्वाहयिष्येविधिवदश्वत्थेनमनोहराम् ।
कन्यांसौभाग्यसौख्यार्थहेतवेऽहंद्विजोत्तमाः ।
नमस्तेविष्णुरूपायजगदानंदहेतवे ।
पितृदेवमनुष्याणामाश्रयायनमोनमः॥
पूर्वजन्मकृतंपापंवालवैधव्यकारकम् ।
नाशयाशुसुखंदेहिकन्यायाममभूरुह॥ इति ॥
भा० टी० भावार्थ यह है कि अश्वत्थव्रतके अनंतर मित्र द्विज
गुरु स्त्री मंगल शब्दके साथ विवाह कालमे इन सर्वको साथलेकर सुंदर मण्डप भूमिमे प्राप्त होय गौरी गणेश पिप्पल भवानीमंथानी इन्को प्रणाम कर इस मंत्रसे प्रार्थना कन्याका पिता करे॥हे ब्राह्मणगण आपके प्रत्यक्ष सौभाग्य सुख अर्थके लिये अपनीकन्याको अश्वत्थके साथ विवाह कर्त्ता है जगत्-आनंद हेतु विष्णुरूप औ पितर देव मनुष्योका आश्रय इस अश्वत्थको वारंवारनमस्कार कर साथ प्रार्थना कर्ते है भो अश्वत्थदेव पूर्वजन्मकृतजो बालवैधव्यकारक पाप इन्को नाश करो और मेरी कन्याकोसुखसौभाग्य देवो॥ इति ॥ यह प्रार्थना के मंत्र है और विवाहविधि वक्ष्यमाण यथावत् मंत्रोंसे कर्नी चाहिये॥
( अथ कुम्भविवाहः)
सूर्यारुणसंवादे॥
विवाहोक्तेनमंथन्याकुम्भेनचसहोद्वहेत् ।
विवाहात्पूर्वकालेतुचंद्रताराबलेशुभे॥
पितासंकल्प्यवाह्यञ्चविवाहविधिपूर्वकम् ।
सूत्रेणवेष्टयेत्पश्चाद्दशतन्तुविशेषतः1 ।
कुंकुमालंकृतंदेहंतयोरेकान्तमन्दिरे॥
ततःकुम्भंविनिस्सार्य्यप्रभज्यसलिलाशये ।
ततोऽभिषेचनंकुर्यात्पञ्चपल्लववारिभिः॥
तत्सर्वंवस्त्रपूजाद्यंब्राह्मणायनिवेद्यच॥
कन्यालंकारवस्त्राद्यंब्राह्मणायनिवेदयेत्॥
प्रार्थना
वरुणांगस्वरूपत्वंजीवनानांसमाश्रय॥
पतिञ्जीवयकन्यायाश्चिरंपुत्रान्सुखवरम्॥
देहिविष्णुवरानन्दंकन्यांपालयदुःखतः॥
इति कुम्भविवाहः
भा० टी० भावार्थ यह है कि विवाहके प्रथम शुभदिनमे विवाहोक्त विधिसे मन्थानी कुंभसे संकल्पपूर्वक विवाह करे पीछे से दशतंतुसूत्रसे वेष्टन कर कुंकुम (केशर) लगाय एकान्तमे फिरकुंभको निकाल सलिल स्थानमे प्रक्षेपकर ( फैंक ) पंचपल्लवसेअभिषेक कन्याको करे अनंतर संपूर्ण कुंभपूजनकी सामग्री ब्राह्मणको दे कन्याकेभीवस्त्रभूषण ब्राह्मणको देवे॥ और वरुणकीप्रार्थना करे हे जीवनके आश्रय वरुणस्वरूप घट कन्याके पतिको चिरंजीवी करो हे विष्णो कन्याकी पालना कर सुख सौभाग्यको देवों॥ इति ॥ इस प्रकार सुवर्णमयि चतुर्भुज विष्णु की मूर्तिबनाय विवाह कर यथावत् विधिसे ब्राह्मणको मूर्ति देवे॥दानकाप्रकार जैसे वहाही लिखाहै यथा॥
शुभेमासेसितेपक्षेसानुकूलग्रहेदिने॥
ब्राह्मणंसाधुमामंत्र्यसंपूज्यविविधार्हणैः॥
तस्मैदद्याद्विधानेनविष्णोर्मूर्तिंचतुर्भुजाम्॥
शुद्धवर्णसुवर्णेनवित्तशक्त्याथवापुनः॥
निर्मितांरुचिरांशंखगदाचक्राब्जसंयुताम्॥
दधानांवाससीपीतेकुमदोत्पलमालिनीं॥
सदक्षिणांचतांदद्यान्मंत्रमेतमुदीरयेत्॥
यन्मयापूर्वजनुषिघ्नन्त्यापतिसमागमं॥
विषोपविषशस्त्राद्यैर्हतोवातिविरक्तया॥
प्राप्यमानंमहाघोरंयशः सौख्यधनापहम्॥
वैधव्याद्यतिदुःखौघनाशायसुखलब्धये॥
महासौभाग्यलब्ध्यैचमहाविष्णोरिमांतनुम्॥
सौवर्णनिर्मितांशक्त्यातुभ्यंसंप्रददेद्विज॥
अनघात्वहमस्मीतित्रिवारंप्रवदेदिति॥
एवमस्त्वितिविप्राशीर्गृहीत्वास्वगृहंविशेत्॥
ततोवैवाहिकंतातोविधिंकुर्यान्मृगीदृशाम्॥
इतिविष्णुप्रतिमादानविधिः॥
(भावार्थ )
भा० टी० सानुकूल ग्रहदिनमे ब्राह्मणको बुलाय सुवर्णनिर्मितचतुर्भुज शंख चक्रगदा पद्म युक्त पीत वस्त्र वनमाला सहित साथदक्षिणाके प्रतिमा देय यह मंत्र पढे कन्या की जो मेने पूर्वजन्ममेपतिसमागम नाशकर्नेसे वा विष उप विष शस्त्रसे पतिको मारा उससेउत्पन्न जो वैधव्य योग उसके नाशके लिये और सुख प्राप्तिके लियेयह सुवर्णमयी महाविष्णुकी मूर्ति हे ब्राह्मण तुमको दान कर्ती हैइससे मैं पापरहित भई यह तीन वार कहे एवमस्तु ऐसे ब्राह्मणवाक्यके अनंतर गृहमें आवे तव पितावर के साथ मंगल शब्द पूर्वक विवाह करै ।
शास्त्रार्थ
यदि कोई महाशय शंका करे की विष्णुमूर्ति कुंभपिप्पल इन्मेसे एकके साथ विवाह कर फिर द्वितीयवार मनुष्यकेसाथ विवाह कर्नेमे पुनर्भूदोष स्त्री को होना चाहिये॥उस्का उत्तर यह है कि जो एक मनुष्यके साथ विवाह कर फिर द्वितीयपुरुषके साथ विवाह किया जाय वह स्त्री पुनर्भू कहलाती है।इस्मे हम प्रमाण देते है । याज्ञवल्क्यस्मृति अध्याय १ प्रथम (यथा—अक्षता च क्षता चैव पुनर्भूः संस्कृता पुनः) अर्थात् पतिके मरजाने पर वा जीवत पर जो फिर दूसरे मनुष्यसे संस्कृत विवाहीजाय वही पुनर्भू होती है। यदि पिपलादि विवाहके अनंतर मनुष्यके साथ विवाह होनेसे पुनर्भु दोष है तो याज्ञवल्क्यजीने अक्षता च क्षता यह शब्द किसलिये कथन करा ( ऐसे लिख देना थाकी पुनर्भूः संस्कृता पुनः ) और अक्षता च क्षता इन शब्दोको अर्थ मिताक्षर में यह लिखा है पति अक्षत हो अर्थात् जीवत हो वा(चक्षता) क्षतहो अर्थात् मरगया हो॥ फिर संस्कार कर्नेसे पुनर्भूसंज्ञा होती है \। इसलिये पिप्पल देवादि विवाहसे पुनर्भूदोष नहि है हम औरभी प्रमाण देते है की जो घटादिविवाहसे पुनर्भूदोष नाहो॥प्रमाण विधान व्रतखंडका जैसे ( स्वर्णाम्बुपिप्पलानाञ्चप्रतिमा विष्णुरूपिणी । तयासह विवाहेच पुनर्भूत्वं न जायते। अन्यच्चलक्ष्मीरूपासदा कन्या हरिरूपं सदा जलं ।हरेर्दत्तञ्च यद्दा दातुःपापहरं सदा॥ अथ सुवर्ण घट पिप्पलकी प्रतिमा मूर्ति विष्णुरूप हो
ती है इन्के साथ विवाह कर्नेसे पुनर्भू दोष नहि होता॥और लक्ष्मी संदैव कन्या हरिरूप सदैव जल होता है इसलिये विष्णुकोजोदानदिया जाय वह यजमानके पाप नष्टकर्नेवाला होताहै॥ इसलिये इन्को साथ विवाह कर्नेसे पुनर्भू दोष नही प्रत्युत (किञ्च ) कन्याकावैधव्य नाशक है॥और वेदमेंभी सोम, सूर्य, अग्नि पालन कर्नेसे स्त्रीकेरक्षक लिखे है। और चतुर्थ मनुष्य पति लिखाहै यथा ( सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविदउत्तरः । तृतीयो अग्निष्टे पति स्तुरी यस्ते मनुष्यजाः) इस मंत्रका अर्थ विस्तार पूर्वक आगे विवाह प्रकरण में लिखा है॥यदि कोई महाशय अवभी यह आक्षेप करेकि जो वस्तु एक को दानकरवा भोगने के लिये दी जाय फिर यदि वही वस्तु दूसरेको भोगनेके लिये दी जाय तो वह उच्छिष्ट ( जूठ ) होती है और उच्छिष्टका सर्वत्रही निषेध है॥इस लियेप्रथम विष्णु घट वा पिप्पलको स्त्रीदी फिर वही मनुष्यके साथ विवाह दी तो वह भी उच्छिष्ट भई इस लिये मनुष्यको खीकार कर्नी नहि चाहिये॥उत्तर महाशय मित्रवर आपने युक्तीसे फिरभी वही दोष उच्छिष्ट मान कर लगाया अहो आप बडे निपुण होऔर अति चंचल बुद्धिहो परंतु आपको विनयपूर्वक हम यह कहते है कि आप उच्छिष्टका त्याग सर्वत्र कर्ते हो वा आपके पूर्व पूर्व पूरुषोने किया जैसे मधु ( शहत ) ( दुग्ध) यहभी उच्छिष्ट ही हैयह आप किस लिये भक्षण कर्ते हो और श्राद्धादि कर्मोसे मधुवातादि मंत्रोंसे मधु पितरोके अर्पण कर्ते होवा नहि॥बस अब चुपहोगये भला जरा सा तो कहिये वस अव नहि कहेगे निरुत्तर भये
अच्छा अपने प्रश्नका तो उत्तर श्रवण कीजिये महात्मन् जसैमधुमक्षिकासे दुग्ध वत्ससे कमल भ्रमरोसे उच्छिष्टभयाभी देवपितृकर्ममे आता और जगतको पंचगव्यादिसे पवित्र कर्त्ता है उसीप्रकारविष्णु घट पिपलसे संस्कृतस्त्री मनुष्यके साथ विवाह कर्नेके अनंतरपुत्रपौत्रादिसंतानसे शुभलोककी प्राप्ति औ इसलोकमे सुख देती हैयथा याज्ञवल्क्यस्मृतिमे लिखा है अध्यायः १ लोकानंत्यं दिवःप्राप्तिः पुत्रपौत्रपौत्रकैः । यस्मात्तस्मात्स्त्रियः सेव्याः कर्त्तव्याश्व सुरक्षिताइति॥ ) और विधानखंडमेभी लिखा है यथा ( यथालिभुक्तकमलं देवानां पूजनाय वै॥ अहं भवति सर्वत्र तथा कन्या नृणां भवेत्॥ ) इस लिये भास्कराचार्य मंथानीसे कन्याका विवाह यत्नसे कर्त्ता भया ।और रेणुक महर्षि अश्वत्थसे कन्याका विवाह कर्त्ता भया॥ प्रमाण अभिधानखण्डका जैसे ( मन्थन्या भास्करो यत्नात् कृतवान् दुहितुर्विधं॥ रेणुकोपि स्वकन्यायास्तरूद्वाहं चकारसः ) इसलिये पुत्रवत् कन्याकीभीजन्मकुण्डली सर्व महाशयजनोको अवश्य बनानी चाहिये॥यदि कर्मानुसार जिस्के योग पडाहो उस्का शास्त्रोक्त उपाय कराने से शांति होजाय तोसुखहो॥इत्यलम्॥
प्रश्नलग्नक्षणेयादृशाऽपत्ययुक्स्वेच्छयाकामिनीतत्र
चेदाव्रजेत् ।कन्यकावासुतोवातदापण्डितैस्तादृशा
पत्यमस्याविनिर्दिश्यते॥
भा० टी० प्रश्नकालमे जैसी संतान युक्त आपनी इच्छासे उसंस्थान आजाय॥ वा कन्या वा बालक बुद्धिवान् ज्योतिषी ता-
दृश उस्की संतान कहै॥अर्थात् जैसी स्त्री कन्या बालक प्राप्तहोय वैसेही उस्को स्त्रीपुत्रादिक मिलते है॥
शङ्खभेरीविपंचीरवैर्मंगलंजायर्तेवैपरीत्यंतदालक्षयेत् ।
वायसोवाखरःश्वाशृगालोपिवाप्रश्नलग्नक्षणेरौतिनादंयदि॥
भा० टी० शंख दुंदभी वीणा सतारका शब्द प्रश्नकालमे शुभ होता है॥और काक श्वान गर्दभ शृगाल यह प्रश्नकालमे शब्द करे तो निषिद्ध अशुभ हे॥
विश्वस्वातीवैष्णवपूर्वात्रयमैत्रैर्वस्वग्नेयैर्वाकरपीडो
चितऋक्षैः । वस्त्रालंकारादिसमेतैः फलपुष्पैस्सन्तो
ष्यादौस्यादनुकन्यावरणंहि॥
भा० टी० अव कन्याकावरण लिखते है ज्येष्ठा स्वाती श्रवण पूर्वात्रय अनुराधा धनिष्ठा कृत्तिका अथवा पाणिग्रहणोचित नक्षत्रोमेफल पुष्प वस्त्रालंकारादिसे कन्याको संतुष्ट करपीछेसे वरण करे॥
धरणिदेषोऽथवाकन्यकाणोदरःशुभदिनेगीतवाद्या
दिभिःसंयुतः॥ वरवृतिंवस्त्रयज्ञोपवीतादिभिर्ध्रु
वयुतैर्वन्हिपूर्वात्रयैराचरेत्॥
भा० टी० अथ बालक वरणालखते है \। बाह्मण वा कन्याकाभ्राता ( भाई ) शुभदिनमे गीतादिवाद्यसहित होय वस्त्रयज्ञोपवीतादिसे । उत्तराफाल्गुनी । उत्तराभाद्रपदा । उत्तराषाडा ।रोहिणी ।कृत्तिका पूर्वाफाल्गुणी पूर्वाभाद्रपदा पूर्वाषाढा इन नक्षत्रोमे वरका वरण करे ।इस प्रकार वर वरण कर पीछेसे कन्या-
को वस्त्रालंकारादि श्वशुरगृहसे जो प्राप्त उससे पूर्वोक्त नक्षत्रोमेवरण कर्ना॥
गुरुशुद्धिवशेनकन्यकानांसमवर्षेपुपडब्दको परिष्टा
त् ।रविशुद्धिवशाच्छुभोवराणामुभयोश्चंद्रविशुद्धि
तोविवाहः॥
भा० टी० गुरुबृहस्पतिजीकी शुद्धिसे कन्याका षट् ६ वर्षके ऊपर अष्टम ८ दशम १० समवर्ष में विवाह शुभ है॥और सूर्यकी शुद्धिद्वारा वरका विवाह श्रेष्ठ है और वर कन्यादोनोका चंद्रमाकी शुद्धिसे विवाह शुभहोता है भावार्थ यह हैकी कन्याकी जन्मराशीसे गुरु औ वरकी जन्मराशीसे सूर्यऔर दोनोको चंद्रमाजीकी शुद्धिसे श्रेष्ठविवाह होता है॥इसी आशयको काशीनाथजी कहते॥ वरस्य भास्करबलं कन्यायाश्व गुरोर्बलं॥द्वयोश्र्वंद्रबलं ग्राह्यं विवाहो नान्यथा भवेत्॥
मिथुनकुम्भमृगालिवृषाजगेमिथुनगोपिरवौत्रिलवेशु
चिः । अलिमृगाजगतेकरपीडनंभवतिकार्तिकपौ
पमधुष्वपि॥
भा० टी० मिथुन कुंभ मकर वृश्विक वृष मेष इन राशियोमेसूर्य होय अथवा आषाढके १० दशदिन पर्यंत मिथुन राशिगत सूर्य हो वा वृश्चिक मकर मेषगत सूर्य्य होयतो कार्तिक पौषचैत्रमे भी पाणिग्रहण शुभ है ।
आद्यगर्भसुतकन्ययोर्द्वयोर्जन्ममासभतिथौकरग्रहः ।
नोचितोथसबुधैःप्रशस्यतेचेद्द्वितीयजनु पोसुतप्रदः॥
भा० टी०आद्यगर्भ प्रथमगर्भ अर्थात् ज्येष्ट पुत्र वा कन्या होय तो उन दोनोका जन्मके मासमे वा जन्म तिथिमे अथवा जन्मनक्षत्रमे पाणिग्रहण श्रेष्ठ नहि यदि वह दोनो दूसरे गर्भके होयतोजन्म मास तिथि नक्षत्रमे विवाह पुत्रके देनेवालाई॥
ज्येष्ठद्वंद्वंमध्यमंसंप्रदिष्टंत्रिज्येष्ठंचेन्नैवयुक्तंकदापि ।
केचित्सूर्यंवन्हिगंप्रोक्तमाहुर्नैवान्योन्यज्येष्ठयोस्या
द्विवाहः॥
भा० टी० ज्येष्ठ बालक ज्येष्ठ कन्याका विवाह मध्यम होताहै यदि ज्येष्ठका महीना (मास) ज्येष्ठ बालक ज्येष्ठाही कन्या यहतीन ज्येष्ठ कीसी कालमेजी श्रेष्ठ नहि अति निषिद्ध है॥कईआचार्योका यह मतहै की जिसकालपर्यंत कृत्तिका मे सूर्य होउतना काल ज्येष्ठमासनिषिद्ध है ।परंतु सिद्धांत मत यही है
वरकन्या ज्येष्ठोका आपसमे विवाह श्रेष्ठ नहि॥
सुतपरिणयात्पण्मासान्तःसुताकरपीडनंनचनिजकुले
तद्वद्वामुण्डनादपिमुण्डनं॥ नचसहजयोर्देयेभ्रात्रोः सहोद
रकन्यके नसहजसुतोद्वाहोब्दार्धेशुभेनपितृक्रिया॥
भा० टी० पुत्रविवाहके अनंतर षण्मास ६ के बीचमे कन्याकाविवाह शुभ नहि॥ इसप्रकार अपनी कुलमे मुंडन ( चूडाकर्म )के पीछे मुंडन षट् ६ महीने के अन्तर श्रेष्ठ नहि और एकपिताकेदो पुत्रोको दो भ्राताकी कन्यासे सहोदर ( सके ) भाईयोका
विवाह शुभ नहि॥ यदि एक पिताकी दो कन्या होय तो एकपिता के दो पुत्रोसे विवाह का दोष नहि॥ सहोदर शब्दका यह अर्थ हैकि एकमाता के गर्भसे नाही और एक पितासे सपत्नीमे उत्पन्नभाता सहोदर नहि कहाते॥ प्रमाण ( समानोदर्य्यसोदर्यसगर्भ्यस्तु सनाभयः इत्यमरः ) और बालक कन्याके विवाहके अनंतर षट् मास ६ पर्यन्त पितृक्रिया श्राद्धादि शुभ नहि है ।
वध्वावरस्यापिकुलेत्रिपूरुषेनाशंव्रजेत्कश्चननिश्चयो
त्तरं । मासोत्तरंतत्रविवाहइष्यतेशान्त्याथवासूतक
निर्गमेपरे॥
टीका० वधूपरकेतीन पुरुषमे यदि कोई नाशको प्राप्तहो जाय निश्चयके अनंतर एक मासके अनन्तर विवाह करें \। अथवा कुष्मांड शांतिकर विवाह करे । कोई आचार्य सूतक पातक की निवृत्तिके अनंतर कहते है॥यदि कन्यादान हो चुकाही फिर सुतक पातक पडेतो भोजनादि सर्व विवांहांग कर्नेका दोष नहि॥
चूडाव्रतंचापिविवाहतोव्रताच्चूडाचनेष्टापुरुषत्रयान्त
रे । वधूप्रवेशाच्चसुताविनिर्गमः षण्मासतोवाब्दविभे
दतः शुभः॥
टीका०विवाह मे चूडा कर्मचूडा कर्मसिविवाह षण्मासके बीचश्रेष्ठ नहि इस प्रकार वधू प्रवेश से कन्याका निर्गम ६ षट् मासकेअन्तर श्रेष्ठनहि । यदि वर्षका भेद होयतोदोषनहि॥ विवाहमें सूर्य संक्रान्त से वर्षका भेद होता है॥
॥ अथविवाहमुहूर्तानि॥
निर्वेधैःशशिकरमूलमैत्रपित्र्यवाह्मांत्योत्तरपवनैः
शुभोविवाहः । रिक्ताऽमारहिततिथौशुभेन्हिवैश्वप्रां
त्यांघ्रिश्रुतितिथिभागतोऽभिजित्स्यात्॥
भा० टी० वेध रहित मृगशिर हस्त मूल अनुराधा मघा रोहिणी रेवती उत्तरात्रय ३ स्वाती यह नक्षत्र विवाहमें शुभ है॥ चतुर्थी४ नवमी ९ चतुर्दशी १४ अमावस ३० इनसे रहित तिथीया श्रेष्ठहै॥विवाहमे चंद्र बुध बृहस्पति शुक्र यह वार शुभ होते है॥ उत्तराषाढाका अंतका चरण श्रवणकी ४ चारघटी अभिजित् नक्षत्र होताहै । और राशि वर्ण योनि गण षडाष्टक नव पंचक द्विर्द्वादश राशिनाडी चक्र वर्ग लत्तादिकदश १० दोष अवश्य विचारणे योग्यहै इस लिये सारणी बनाकर सभकी समझमें आनेवाली अतिसुगम रीतिसे आगे लिखेहै।
अथ राशि चक्रम.
[TABLE]
पुरुषकी राशि स्त्रीकी राशिसे बलि उच्चितहैं और संपूर्ण चतुष्पद द्वि-
पदोके वश्यहै सिंहकेबिना जलचरभक्षहै सर्पविछु भयदायकहै॥
[TABLE]
अथयोनिचक्रम्
[TABLE]
वैर वैर वैर
वैर
यह योनिचक्र विवाहमे सेव्यसेवक भावमे मैत्री कार्यमें अवश्य विचारणा चाहिये.
अथगणचक्रम्.
| म | श्ले | ध | ज्ये | मूला | शन | कृति | चि | वि० | राक्षस |
| पू.फा | पू.षा. | पू.भा. | उ.फा. | उ.षा. | उ.भा. | रोहि. | भर. | आर्द्रा | मनुष्य |
| ऽनु | पुन | मृ. | श्र. | रेव | स्वा. | ह | अश्व | पुष्प | देवता |
अपने गणके साथ परमप्रीति देवत मनुष्यीकी समदेवता राक्षसोक युद्ध मनुष्यराक्षसकी मृत्यु गणोकी आपसमे होती है॥
अथषडाष्टकचक्रम्
| मे | वृष | मि | र्क | सिं | कं | पुरुषराशिमृत्युः |
| र्क | तु | वृ. | ध. | म | मी | स्ती राशिमृत्युः |
अथनवपचकचक्रम्
[TABLE]
अथद्विर्द्वदशचक्रम्
| मे | वृ | मि | र्क | सि | क | वृ | म | मी | दारिद्र्यं |
| वृ | मि | र्क | सिं | क | तु | ध | कुं | मी | दारिद्र्यं |
मृत्युषडाष्टकेज्ञेयोऽपत्यहानिर्नवात्मजे।
द्विर्द्वादशेनिर्द्धनत्वंद्वयोरन्यत्रसौख्यकृत्॥
अथनार्डाचक्रम्
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दम्पत्योरे कनाड्यांपरिणयनमसत्मध्यनाड्यांहिमृत्युः
अर्थात् स्त्रीवरका एक नाडीमे स्थित नक्षत्रोमे विवाह
अशुभ होता है और मध्यम नाडीमे मृत्यु होती है॥
इसलिये तृतीय नाडी शुभ है.
अथवर्गचक्रम्.
[TABLE]
अपने वर्गमे परम प्रीति होती है और अपने वर्गसे पंचम वर्ग शत्रु होता है और चतुर्थ मित्र औतृतीय उदासीन होता है इन्का फल वर्ग सदृश है।
अथराशिचक्रम्
| मे | वृ | मि | क | सिं | कं | तु | वृ | ध | म | कुं | मी | राशयः |
| मे | शु | बु | चं | सू | बु | शु | मे | बृ | श | श | बृ | स्वामिनः |
अथराशिचक्रम्
| मे | वृ | मि | र्क | सिं | क | तु | वृश्चि | धन | म | कुं | मी |
| चु | इ | का | हि | म | टो | रा | तो | ये | भो | गु | दि |
| चे | उ | कि | हु | मि | प | रि | न | यो | जजे | गे | दु |
| चो | ए | कु | हे | मु | पि | रु | नि | भ | जिजे | गो | ध |
| ला | डो | धे | हो | मे | यु | रे | नु | भि | रवेरवे | स | ल |
| लि | वा | ङ | डा | मो | ष | रो | ने | रिव | सि | ञे | ञ |
| ल | वि | छ | डि | टा | ज | ता | जो | ध | रवे | सु | दे |
| ले | वु | के | डु | टि | ठा | ति | या | फा | रवो | से | दो |
| लो | वे | को | डे | टु | पे | तु | यि | ढा | ग | सो | च |
| अ | वो | हा | डो | टे | पो | ते | यु | भे | गि | द | चि |
अथलत्ताचक्रम्.
[TABLE]
यह लत्ता दोष विवाहादि शुभकार्योमें वर्जित है. विशेषकर मालवदेशमे अवश्य वर्जनीय है॥
अथपातदोषचक्रम्.
| वैधृति | हर्षण | व्यतिपात | शूल | गंड | योगानाम् |
| अन्ते विवाह नक्षत्रं यथा गंड़योग १५ घटी रेवती ३० वा२५ घटी पातेन पतितं नक्षत्रं विवाहे वर्ज्यं कुरुजांगलदेशे अवश्यं वर्ज्यम्॥ |
अथयुतिदोषचक्रम्
[TABLE]
अथवेधचक्रम्
[TABLE]
अथचरणवेधचक्रम्
[TABLE]
अथ यामित्रनाक्षत्रचक्रम्
| रो | मृ | म | उ.फा | ह | स्च | ऽनु | भू | उ,षा | उ.भा | रे | वि.न. |
| ऽनु | ज्ये | ध | पू.भा | उ.भा | ऽश्वि | कृ | मृ | पु | उ.फा | ह | ग्रहा |
लग्नसे चंद्रमासे सप्तमग्रह यामित्रकारक होता है. अथवालग्न नवांशसे वा चंद्रराशिस्थ नवोरासे पंचपंचाशत् ५५ न वमांश मे जो ग्रह होय वह यामित्रकारक होता है शुभ नहि होना॥
अथ बुधपंचकचक्रम्.
| ८ | २ | ४ | ६ | १ | अंक |
| रोग | वन्हि | राजा | चौर | मृत्यु | बाणा |
शुक्ल प्रतिपत्से गततिथि लग्नसे युक्त कर नौसे भाग ले शेष रहा अंक बाए जानना॥ यह दक्षिण देशमें निषिद्ध है॥
अथसर्वदेशेबुधपंचकम्.
[TABLE]
एकार्गलचक्रम्.
| व्या | गंड | व्यति | वि० | शूल | वाधृति | वज्य | परि | ऽतिगं- |
| यदि सूर्य नक्षत्रसे विवाह नक्षत्र विषम ऽभिजित् सहितस्थित हो तो एकार्गला योग कुरु बाल्हीक दशमे वर्जित है |
अथोपग्रहाः
| ५ | ८ | १० | १४ | ७ | १९ | १५ | १८ | २१ | २२ | २३ | २४ | २५ |
| यदिसूर्यनक्षत्रसेइनअंकोमेविवाहनक्षत्रहोयनोउपग्रहदोषहोताहै॥ |
(अथक्रांतिसाम्यम्)
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अर्थात् चंद्रमा सूर्य अन्योन्य नक्षत्रगत होय सन्मुख स्थित होय तो क्रांतिसाम्य दोष होताहै विवाहमे शुभनहि होता॥
(अथ दग्धातिथिः)
[TABLE]
यह शुभ कर्मेंमें दग्धातिथी वर्जित है॥
( अथदशयोगाः ॥)
| सूर्य चंद्र नक्षत्र योगः २७ शेषः ॥ | |||||||||
| ०० | ०१ | ४ | ६ | १० | ११ | १५ | १८ | १९ | २० |
| वात | ऽभ्र | ऽग्नि | नृप | चोर | मृति | रोग | वज्र | वाद | क्षिति |
यथा सूर्यर्क्ष श्रवण २२ चंद्र धनिष्ठा २३ अनयोर्योगः ४५ भशेषः २७ सप्तविंशति तष्टः १८ वज्रपातयोगः
(अथपंग्वधकाणलग्नानि )
| मे | वृ | मि | क | सिं | क | तू | वृ | ध | म | कुं | मी |
| अंध | अंध | अंध | अंध | अंध | अंध | वधिर | ब० | बधिर | बधिर | पंगु | पंगु |
| दिन | दिन | रात्रि | रात्रि | दिन | रात्रि | अप | अप | अप | संध्या | स० | स० |
| मे | मे | मे | मे | मे | मे | राण्हमे | राण्हे | राण्हे | मे |
यह गौड मालव देशमे त्याज्यहै अथवा गुरु दृष्टिसे किसी स्थानमे भी दोष नहि है॥
(अथग्रहनैसर्गिकमैत्रीचक्रम्)
[TABLE]
प्रोक्तेदुष्टभकूटकेपरिणयस्त्वेकाधिपत्येशुभोऽथो
राशीश्वरसौत्दृदेपिगदितोनाड्यर्क्षशुद्धिर्यदि॥अ
न्यर्क्षैंशपयोर्बलित्वसखितेनाड्यर्क्षशुद्धौतथाताराशु
द्धिवशेनराशिवशताभावेनिरुक्तोबुधैः॥
भा० टी० दुष्टभकूटमेभीविवाह शुभहोताहै यदि दोनोराशिका स्वामि एकहो अथवा दोनोकी आपसमे मैत्रीहोय॥
(अथलग्नशुद्धिमाह)
कार्मुकतौलिककन्यायुग्मलवेझपगेवा॥ यर्हि भवेदुप
यामस्तर्हिसतीखलुकन्या॥व्ययेशनिः खेवनिजस्तृ
तीयेभृगुस्तनौचंद्रखलानशस्ताः ।लग्नेट् कविर्ग्लौश्चि
रिपौमृतौग्लौलग्नेट् शुभाराश्चमदे च सर्वे॥त्र्यायाष्ट
षट्सुरविकेतुतमोर्कपुत्रास्त्र्यायारिगः क्षितिसुतोद्वि
गुणायगोन्जः॥सप्तव्ययाष्टरहितौज्ञगुरू सितोष्टत्रि
द्यूनषड्व्ययगृहान्परित्दृत्यशस्तः॥ त्याज्यालग्नेब्ध
योमन्दात् पष्टेशुक्रेंदुलग्नपाः ।रंध्रेचंद्रादयः पंचसर्वे
स्तेऽब्जगुरूसमौ॥
भा० टी० धन तुला कन्या मिथुन मीन इन लग्नोमें। वा इनके नवमांशेमे विवाह होवे तो कन्या सती होतीहै । और चरलग्नका नवांशाना होवे तुलामकरमैं चंद्रमा होवे तब चरलग्न भी शुभहै॥और लग्नसे द्वादश १२ स्थानमें शनि दशमे १० मंगल तृतीय ३ शुक्र लग्नमें १ चंद्रमा मंगल शनिसूर्य शुभनहि होते है॥ षष्ठ ६ स्थानमे लग्नेश शुक्र
चंद्रमा शुभ नहि॥ और अष्टम ८ स्थान चंद्रमा लग्नेश बुध बृहस्पति शुक्र मंगल शुभ नहिहै ।और सप्तम ७ स्थानमे संपूर्णग्रहशुभनहि होते है। अन्यच्च तृतीय ३ एकादश ११ अष्टम ८ षष्ठ ६स्थानमे सूर्य केतु राहु शनि श्रेष्ठहै और तृतीय ३ एकादश ११षष्ठ ६ स्थानमे मंगल शुभहै और द्वितीय २ तृतीय ३ एकादश ११ स्थानमे चंद्रमा शुभहै ७ । १२ । ८ । ३ । ६ । इनस्थान के विन और स्थान बुधगुरु शुक्र शुभ है ॥ अन्यच्च ॥ लग्नमे शनि सूर्य चंद्र मंगल यह नाहोय और षष्ठ स्थानमे शुक्र चंद्रमा लग्नेश ना होय और अष्टम स्थानमें चंद्रमा मंगल बुध बृहस्पति शुक्र नाहोय ।सप्तम स्थानमे कोई भी ग्रह ना होय अर्थात् शुद्ध होवे तो शुभहै कई आचार्य सप्तम स्थानमे चंद्रमा बृहस्पति को सम कहते है ।
( कर्तरीदोषमाह)
लग्नात्पापावृजुनृजूरिष्फार्थस्थौयदातदा॥ कर्तरी
नामसाज्ञेयामृत्युदारिद्र्यशोकदा॥
भा० टी० लग्नसेद्वितीयस्थान वक्रीग्रह और द्वादश १२ स्थान मे मार्गी ग्रह होयतो कर्तरीदोष होता है ॥शुभनहि ॥
( पुष्टिमाह )
त्रिकोणेकेंद्रेवामदनरांहतेदोषशतकंहरेत्सौम्यःशु
क्रोद्विगुणमपिलक्षंसुरगुरुः॥ भवेदायेकेन्द्रेंगपउतलवे
शोयदितदासमूहंदोषाणांदहनइवतूलंशमयति॥
भा० टी० विवाहलग्नसे नवम पंचमप्रथम चतुर्थ दशम यदि बुध होय
तो शत १०० दोषका नाश कर्ताहै यदि शुक्र होय तो द्विगुणशत२०० दोषका नाश कर्ता है बृहस्पति जो होय तो लक्ष १०००००दोषका नाश कर्तेहैयदि एकादश ११ चतुर्थ सप्तम लग्नदशमस्थानमे यदि लग्नेश ऊन नवमांशेश होय तो दोषो के समूह को जैसेअग्नितूलके पुंज को क्षणभरमे नाश कर्ताहै तद्वत् नाश कर्ताहै॥
(अथसंकीर्णजातीनांविवाहः )
कृष्णेपक्षेसौरिकुजार्केपिचवारेवर्ज्येनक्षत्रेयदिवा
स्यात्करपीडा । संकीर्णानांतर्हिशतायुः खलुलाभः
प्रीतिप्राप्तिःसाभवतीहस्थितिरेषा॥
भा० टी० कृष्णपक्षमें शनिश्र्वरमंगल सूर्य वारमे और विवाहमेवर्जित नक्षत्रोमे यदि संकीर्ण शबर किरात निपाद भिल्ल पुंलिदम्लेच्छ यवन प्रभृतीयोका विवाह होयतो आयु सुत प्रीतिका लाभदायक होता है॥
( अथगोधूलीलग्नमाह)
पिण्डीभूतेदिनकृतहेमन्तऋतौस्यादर्धास्तेतपसम
येगोधूलिः ।सम्पूर्णास्तेजलधरमालाकालेत्रेधायो
ज्यासकलशुभेकार्य्यादौ॥
भा० टी०जब नक्षत्रादिक शुद्धि ना होय तव गोधूली समय सर्वकार्यमे शुभ होता है । जैसेमार्गशिर पौषमे जब पिंडाकार सूर्य होय तो गोधूली समय होताहै ( फाल्गुण माघमे भी इसीप्रकार ) और ( चैत्र वैशाख ज्येष्ठ आषाढमे ) अर्द्धसूर्य जब होय तब गोधुली
समय होता है॥और श्रवण भाद्रपद ( आश्विन कार्तिक मे ) संपूर्ण अस्तसूर्य होनेपर गोधूली समय होताहै यह सर्व कार्य्यमे श्रेष्ठहै।
(अथवधूप्रवेश)
समाद्रिपंचांगदिनेविवाहात् वधूप्रवेशोष्टिदिनांतराले ।
शुभःपरस्ताद्विषमाब्दमासदिनेक्षवर्षात्परतोयथेष्टम्॥
भा० टी० विवाहदिनसे। २।४।५।६।७।८।९।१०।१२।१४।१६। दिनमे इसके उपर विषम वर्षमे वा मासमे विवाहदिनसे ५ पंचवर्ष उपरंत यथेच्छ प्रवेश करे॥
ध्रुवक्षिप्रमृदुश्रोत्रवसुमूलमघानिले । वधूप्रवेशः सन्नेष्टोरि
क्तारार्केबुधेपरैः॥
भा० टी० हस्त अश्विनी पुष्य अभिजित् उत्तरात्रय रोहिणी मृगशिर चित्रा अनुराधा श्रवण धनिष्ठा मूल मघा स्वाती इन नक्षत्रोमेवधूप्रवेश श्रेष्ठहै और चतुर्थी ४ नवमी ९ चतुर्दशी १४ यह तिथि ना होय और मंगल सूर्य बुध इन वारोके विना वधू प्रवेश शुभ है ।
(अथद्विरागमनमुहूर्त्तम् )
चरेदथोजहायनेघटालिमेषगेरवौरवीज्यशुद्धियोगतः
शुभग्रहस्यवासरे॥नृयुग्ममीनकन्यकातुलावृषेवि
लग्नगेद्विरागमंलघुध्रुवेचरेस्रपेमृदूदुभिः॥
भा० टी० विषम वर्षविवाह कालसे अथवा विषम मास कुंभवृश्चिक मेषगत सूर्य होय और मिथुन कन्या तुला मीन वृष यहलग्नहोय और सूर्य बृहस्पति शुद्धहोय शुक्र बृहस्पति चंद्र बुध
इन दिनोंमे और हस्त अश्विनी पुष्य अभिजित उत्तरात्रय स्वाती पुनर्वसु श्रवण धनिष्ठा शतभिषा मूला मृगशिर रेवती चित्रा अनुराधाइन नक्षत्रोमे द्विरागमन शुभ होता है ।
(अथ शुक्रविचारमाह)
दैत्येज्योह्यभिमुखदक्षिणेयदिस्याद्गछेयुर्नहिशिशुगर्भि
णीनवोढा॥बालश्चेद्व्रजतिविपद्यतेनवोढाचेद्वंध्या
भवतिचगर्भिणीत्वगर्भा॥
भा० टी० यदिशुक्रजी सन्मुख वा दक्षिण भागमे स्थित होयतो तब बालक गर्भिणी नवीन युवती यह तीन ना जाय यदि बालक यात्राकरे तो मृत्यु को प्राप्त होता है और यदि गर्भवती स्त्री जाय तोगर्भरहित होतीहै अर्थात् गर्भ स्रब जाता है और यदि नवीन युवतीयात्राकरे तो वंध्या होजातीहै ।और वामांग पृष्टमे शुक्र श्रेष्ठ होताहैयात्रामे॥
(अथापवादमाह)
नगरप्रवेशविषयाद्युपद्रवेकरपीडनेविबुधतीर्थयात्रयोः॥नृपपीडने नववधूप्रवेशने प्रतिभार्गवो भवति दोषकृन्नहि॥ पित्र्ये गृहे चेत्कुचपुष्पसंभवःस्त्रीणां न दोषः प्रतिशुक्रसंभवः। भृग्वंगिरोवत्सवसिष्ठकश्यपात्रीणां भरद्वाजमुनेः कुले तथा॥ इतिश्रीदैवज्ञाऽनंतरामसुतविरचिते मुहूर्तचिंतामणौ विवाहप्रकरणं समाप्तम्॥
भा० टी० अपने नगरमे एकगृहसे द्वितीयगृहमें प्रवेशकर्ना होय अथवा देशभंग वा राजभंग होय और विवाहमे अर्थात् विवाह को मुख्य रख यात्रामे और देव यात्रा पंचक्रोशी आदि तीर्थ यात्रा गंगादि और नवीन वधूके आगमन मे सन्मुख शुक्र दोषकारक नहि होता प्रमाणभी जैसे बादरायणका ( स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विभ्रमे तथोद्वाहे । नूतनवध्वागमने प्रतिशुक्रविचारणं नास्ति॥ एकग्रामे पुरे वापि दुर्भिक्षे राजविष्ठवे । विवाहे तीर्थयात्रायां प्रति शुक्रोन दुष्यति ) और कई आचार्य दीपमाला के अनंतर प्रतिपत् मे आगमन से शुक्रका सन्मुख दक्षिण दोष नहि कहते॥ प्रमाण (अस्तंगते गुरौ शुक्र सिंहस्थे वा बृहस्पतौ॥ दीपोत्सवदिने चैव कन्या भर्तृगृहं विशेत्॥ ) यदि कन्याके पितृगृहमे कुच पुष्पका संभव हो अनंतर विवाह कर्नेसे शुक्रका दोष नहि होता प्रमाण चंडेश्वर का ( पिंत्र्यागारे कुचकुसुमयोः संभवो वा यदि स्यात्पत्युः शुद्धिर्न भवति सफला सेवितुं स्वामिसद्म॥ ) और भृगु अंगिरा वत्स वशिष्ठ कश्यप अत्रि और भरद्वाज इनकी कुलमेभी शुक्रकृत दोष नहि होता॥ इतिश्री गौतम गोत्र (शोरि) अन्वयालंकृत श्रीदैवज्ञ दुनिचन्द्रात्मज कर्पूरस्थलनिवासि पण्डित विष्णुदत्त वैदिक संगृहीत विवाहमुहूर्त तत्कृतटीका समाप्तिमगात्॥ समाप्तश्वायं प्रथमः प्रकर्णः । शुभमस्तु कुलदेव्याः प्रसादात्॥
अथद्वितीयप्रकरणं.
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| अथतिलकनाममण्डलचित्रम् |
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यज्ञपात्राणि कात्यायनसूत्रे - ऋचोयजूँषिसामा निनिगदामन्त्रास्तेषांवाक्यं निराकाङ्क्ष मिथः सं बद्धं – वैकङ्कतानिपात्राणिखादिरः स्रुवःस्फ्यश्चपा लाशीजुहूराश्वथ्युपभृद्वारणान्यहोमसंयुक्तानिबाहुमा त्र्यः स्रुचःपाणिमात्रपुष्करास्त्वग्वालाहँसमुखप्रसेका मूलदण्डाभवन्त्यरत्निमात्रःस्रुवोऽङ्गष्ठपर्ववृत्तपुष्कर स्फ्योऽस्याराकृतिरादर्शाकृतिः प्राशित्रहरणंचमसा कृति वा चात्वालोत्करावस्तरेणसञ्चरः प्रणीतोत्क राविष्टिषु ॥ ३ ॥ विस्तरस्तुतत्रैववासंस्कारभाष्ये द्रष्टव्यः ॥ विस्तरभयान्नलिखितं । विवाहप्रकरणे येषांप्रयोजनंतेषांप्रमाणपृ०प० अमुकोपरिलिखितंअ न्यान्यादर्शमात्राणि ॥ इतिश्रीदैवज्ञदुनिचंद्रात्मज विष्णुदत्तसंग्रहीतंगृहमण्डपपात्रचिन्हंनामप्रकरणं सप्रमाणंसमाप्तम् शुभम् ॥ श्रीः ॥
(अथ विनियोगवर्णन )
व्याख्यालिख्यते ॥ विदित होकि आगामि सर्वमंत्रोका साथ विनियोग दिखाया जावेगा इसलिये प्रथम विनियोग की पुष्टीकर्त्तेहै कि विनियोग उस्को कहते है कि ऋषि छंद देवता ओंका स्वर कर्ममे योजनकर्ना अर्थात इस मंत्रका यह ऋषि और यह देवता अमुकछंद इन्का यथार्थ ज्ञानको विनियोग कहते है और वि-
नाविनियोगके मंत्रसिद्धि को प्राप्त नहिहोता इसकारणसे विनियोग की आवश्यकताहै * ऋषि किनको कहतेहै≍ ( द्रष्टारो ऋषयः ) अर्थ मंत्रद्रष्टा ऋषि होतेहै जैसे इस मंत्रका गोतम ऋषि वा भरद्वाज वा आङ्गिर इत्यादि ऋषिहै उहा समझनाकि यह मंत्र इस ऋषि को अपने तपोबलसे प्रत्यक्ष स्मरणभया उस्को निश्चय गुरुसेकिया था फिर वही मंत्र वेदसे सदृशमिलने से वह ऋषि उस मंत्र का भया कि इसने प्रथम मालूमकिया ॥ १ ॥ और देवता उन्को कहतेहै (स्मर्तारः परमेष्ठ्यादयः) अर्थात् जैसे ब्रह्माने अमुक वेदका स्मरण किया विष्णुने अमुक स्मरणकरा इसप्रकार रुद्र इंद्र अग्निसूर्य चंद्रादि जिस २ मंत्रोको स्मरण कर्तेभये वह उन २ के देवताभये ॥ २ ॥ अब छंद लिखतेहै (छन्दा गायत्री प्रभृतयः ) अर्थात् गायत्रीसे आदिलेकर मंत्रोके छंद होतेहै ॥ अबछंदोको यथावत् लिखतेहै कि जो वेदमंत्रोकेहे ॥ उक्ता १ अत्युक्ता २ मध्या ३ प्रतिष्ठा ४ सुप्रतिष्ठा ५ गायत्री ६ उष्णिक् ७ अनुष्टुप् ८ बृहती ९ पंक्ति १० त्रिष्टुप् ११ जगती १२ अतिजगती १३ शक्वरी १४ अतिशक्वरी १५ अष्टि १६ अत्यष्टि १७ धृति १८ अतिधृति १९ प्रकृति २० आकृति २१ विकृति २२ संस्कृति २३ अभिकृति २४ उत्कृति२५ यह छंदसंख्याहै॥
(अथगायत्र्यादिछन्दोभेदाः)
| छन्दः | गायत्री | उष्णि. | अनुष्ठुप् | बृहती | पंक्ति | त्रिष्टुप् | जगती | |
| १ | आष | २४ | २८ | ३२ | ३६ | ४० | ४४ | ४८ |
| २ | दैवी | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ |
| ३ | आमुरी | १५ | १४ | १३ | १२ | ११ | १० | ९ |
| ४ | प्राजापत्या | ८ | १२ | १३ | २० | २४ | २८ | ३२ |
| ५ | याजुषी | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
| ६ | साम्नी | १२ | १४ | १३ | १८ | २० | २२ | २४ |
| ७ | आर्च्ची | १८ | २१ | २४ | ४७ | ३० | ३३ | ३६ |
| ८ | ब्राह्मी | ३६ | ४२ | ४८ | ५४ | ६० | ६६ | ७२ |
इसप्रकार सम्पूर्णछन्दोके अनेक भेदहै विस्तारके भयसे लिखते नहि एक गायत्री छन्द उदाहरण मात्र दिखलादियाहै जिनमहा शयोंको और भेददेखने की इच्छाहो वह सभाष्य पिंगलसूत्र छंद शास्त्रसे देखलेवे ॥ श्रीः श्रीः इति श्रीदैवज्ञ दुनिचंद्रात्मज पण्डित विष्णुदत्त कृत ऋषि छंद देवता वर्णनं नाम द्वितीयं प्रकरणं समाप्तं ॥
इति २ प्रकरणम् ।
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ओंस्वस्तिश्रीगणेशायनमः॥ श्रीगुरवे नमः ॥ अथ
कात्यायनीशान्तिप्रयोगः ॥ आदौगणपति॑वन्देविघ्नं
नाशंविनायकम् \। ऋषींश्चदेवजननींग्रहस्थापनमारभे ॥ १ ॥
भा०टी०श्रीगुरुचरणसरोजं नत्वागणपत्यादिदेवांश्चाकात्यायन कृतशान्तेः कुर्वेनृभाषयाटीका १ काव्पकलापे कुशलाः सन्तियद्यपिसर्वभुदेवाः ॥ सर्वजनसुखाप्तिहेतौ क्रियतेविष्णुदत्तेन ॥ २ ॥ श्री विघ्नविनाशक विनायक गणपतिजीको तथा ऋषियोको देवजननी दुर्गाजी अथवा अदितिजीको वंदन कर प्रथम ग्रहोकी यथावत् स्थितिका प्रारंभ कर्ते है । देव जननी इस शब्दसे लक्षण द्वारा ब्रह्मा विष्णु रुद्रादि देवता और ब्रह्मविद्याका ग्रहण होताह ॥
मण्डलंचततः कृत्वासर्वतोभद्रमेवच । व्रतोपनयनेचूडे यत्रशांतिरुदात्दृता॥२॥ विवाहादौलिखेन्नित्यंतिलकंनाममण्डलम् । द्वादशाङ्गुलमध्यस्थंवर्तुलाष्टदलंरविं। चन्द्रमर्द्धंलिखेत्तत्र ह्याग्नेय्यांचतुर्विंशतिः ॥ ३ ॥
त्रिकूटंभूसुतंचैवदक्षिणेचतुरंगुलम् ॥ ४ ॥ धनुषाका रंनवाङ्गुल्यमीशानेचबुधंतथा ॥ उत्तरेचगुरुः स्थाप्यः पद्माकारोनवाड्गुलः ॥ ५॥ पूर्वेसंस्थापयेच्छुक्रं चतुष्कोणंनवांगुलं । खड़ाकृतिंनवाङ्गुल्यं प्रतीच्यांशनिमेवच ॥६॥ नैर्ऋत्यांराहुसंस्थाप्यमत्स्याकारं नवांगुलं
केतुंदीर्घंयथाराहुंवायव्यांदिशिसंस्थितम् ॥ ७ ॥ स्व
स्वदिक्षुग्रहाः स्थाप्याः संख्या रेखा भवेद्ध्रुवम् । भा स्करांगारकौरक्तौश्वेतौशुक्रनिशाकरौ ॥ ८ ॥ सो मपुत्रोगुरुश्चैवउभौतौपीतकौस्मृतौ । कृष्णवर्णोभ वेच्छौरीराहुकेतूचधूम्रकौ ॥ ९ ॥ ब्रह्माविष्णुश्चरुद्रश्च उत्तरेचतथानलः ॥ इंद्रोवायुर्भवेत्पूर्वेसर्प्पकालौचदक्षिणे ॥ १० ॥ ऐशान्यांकलशःस्थाप्यओंकारादींश्चसर्वशः । मातरश्चोत्तरेस्थाप्याआग्नेय्यांयोगिनींन्यसेत् । कनिष्टिकाप्रमाणेनरेखाः कार्य्याः प्रयत्नतः ॥ ११ ॥ स्थूलाः मूक्ष्मानकर्तव्यायदीच्छेच्छ्रेयआत्मनः ॥ १२ ॥ इतिग्रहस्थापनम् ॥
भा० टी० व्रतमें उपनयन चूडाकर्म तथा यहा शांति हो वहा सर्वतोभद्र मण्डल रचना चाहिये, विवाहमे तिलक नाम मण्डल लिखे ॥ यह मंडल का चित्र पीछे लिखा है इस लिये अर्थ सुगम होने मे लिखते नहि ॥ तथापि सूर्यमंगल यह रक्त वर्णसे लिखे बुध गुरु पीतवर्णसे शुक्र चंद्र श्वेत और कृष्णवर्णसे शनि राहु केतु धूम्रवर्ण लिखे ष यदि कल्याण की ईच्छा हो तो ना अति सूक्ष्म और ना स्थूललिखे ॥ इति नवग्रहस्थापनविधानम् ॥
अथस्वस्तिवाचनम्॥
हरिःओम् \।\। शुक्लयजुर्वेदअध्याय २५ कं० मंत्र १९
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हपठेच्छृणुयादपि ॥ विद्यारंभेविवाहेचप्रवेशेनिर्गमेतथा । संग्रामेसंकटेचैव- विघ्नस्तस्यनजायते ॥ श्रीगणपतयेनमः ॥ इति स्वस्तिवाचनम् ॥
भा० टी० यह स्वस्तिवाचन का अर्थ आगे विवाह प्रकरणके आदिमें लिखाहै इस लिये पिष्टपेषण नहि कर्ते ॥ [ मनोजूति इस्का ] [ अर्थ. ] अति वेग युक्त मेरा मन आज्यको सेवन करे इस यज्ञको बृहस्पति जो विस्तृत करे तथा अरिष्टको तथा इस यज्ञकी पुष्टि करे । और विश्वेदेवा १३ नाम देवगण इहा आनंदसे मग्नहोवे वा मदयुक्त होवै ॥ [ सुमुख श्वेति ] यह १२ द्वादश गणेशजीके नाम विद्याके प्रारंभ तथा विवाह में प्रवेश निर्गम संग्राम संकट अर्थात् यहा भीतिहो वहा लेनेसे विघ्नादि सर्व उपद्रव शान्त होतेहै इस लिये आदिमें गणपति पूजन यथोक्त कर्ना चाहिये।
अथततःसंकल्पः ॥
ओंतत्सदद्यब्रह्मणोद्वितीयपरार्द्धेश्रीश्वेतवाराहकल्पे
जंबूद्वीपेभरतखंडे, आर्यावर्तेवर्तमानकलियुगप्रथम
चरणेवैवस्वतमन्वंतरेअष्टाविंशतिमेयुगेऽमुकऋतौअ मुकमासेऽमुकपक्षेऽमुकतिथौअमुकवासरान्वितायां अमुककरणनक्षत्रयोगयुक्तायांश्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फलावाप्तिकामःधर्मार्थकाममोक्षार्थेमनोभिलषितप्राप्तये अमुकगोत्रोऽमुकशर्माऽहममुककर्मनिमित्तक
कात्यायनीशान्तिमहंकरिष्ये ॥ तन्निर्विघ्नपरिसमाप्त
येगणपतिपूजनंचकरिष्येइति ॥
भा० टी० संकल्प में यथावत्संवत्सरादि नामादि उच्चारण कर्ने चाहिये ॥ और शर्म के स्थान क्षत्रीवर्मा यह पद कहे और वैश्य गुप्त यह पद कहै ॥प्रमाण. ( शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य) गृह्यसूत्र । १ । कांडमें ॥
अथगणपतिपूजनम् ॥ ॐगणानांत्वागणपति €
हवामहेइतिमंत्रेण । ॐ भूर्भुवःस्वःभगवन्गणपति
दैवतइहागच्छइहतिष्टसुप्रतिष्ठवरदोभवममपूजांगृ
हाण ॥ पाद्यादिभिरर्चयेत् ॥
भगवन्गणपतिदेवएत
त्पाद्यादिभिर्गंधाक्षतादिभिश्चपूजितःप्रसन्नोभव ॥ पु
नः । वक्रतुंडमहाकायकोटिसूर्यसमप्रभ । अविघ्नंकु
रुमेदेवसर्वकार्येषुसर्वदा ॥ इति ॥ अथपंचोपकारपूज
नम् ॥आवाहयाम्यहंदेवमोंकारंपरमेश्वरं त्रिमात्रंत्र्यक्षरं
दिव्यंत्रिपदंचत्रिदैवकं त्र्यक्षरंत्रिगुणाकारं सर्वाक्षरम
यंशुभं । त्र्यणवंप्रणवंहसंस्रष्टारंपरमेश्वरं । अना
दिनिधनंदेवमप्रमेयंसनातनं ॥ परंपरतरंबीजंनिर्मलं
निष्कलंशुभम् ॥
भा० टी० गणानांत्वा इस मंत्र से गणपति का पूजन करे और प्रार्थना करे हे भगवन् गणपति दैव इहा आओ और बैठो वर को देवो और पूजा को ग्रहण करो ॥ पाद्य अर्थ आचमनीय इत्या
दिसे आगे लिखे षोडश उपचारसें पूजन करे । इस प्रकार ओंकार के मंत्रोसे ओंकार पूजन कर्ना ।
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भा० टी० [ मंत्रार्थ ]हेब्रह्मन हे ब्रह्माजी आपकी कृपासे यज्ञको कर्ना कराना पढना पढाना दान लेणा देणा इत्यादि षट्कर्म कर्ने वाले और ब्रह्मतेजवाले ब्राह्मण होमे ॥ और हमारे राष्ट्रमे क्षत्री व्याधि
काततासे रहित शूरवीर महारथ इस यजमान के हो. और इस यजमान की दुग्ध देने वाली गौऊ होमें और शीघ्र गमन वाले घोडे और सुंदर रूप वाले होमे० और पुरुष रथमें बैठने वाले युवान सभा योग्य इस यजमान के संबंधि पुत्रादि होमे और हमारी प्रार्थना से वृष्टिहो और फल युक्त ओषधीया पके हमारे को योग क्षेम होवे ॥
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मत करे किं तु हमारी रक्षाकरे अर्थात् असमर्थ शत्रुका क्या मारना वह आगे मृत होताहै \। [ यदाबध्नन् ] दक्षकी संतान जोसुवर्ण शतानीक अर्थात् बहुत सेनायुक्त राजाको वंधतेभये प्रसन्न चित्तहोकर शतजीवनके लिये तिस प्रकार जैसे हम वृद्धावस्थाको प्राप्तहोमे तद्वत् बांधते है ॥
अथमातृपूजनम् ॥
गौरी १ पद्मा २ शची ३ मेधा ४ सावित्री ५ विजया६
जया ७॥ देवसेना ८ स्वधा ९ स्वहा १० मातरो११
लोकमातरः १२॥त्दृष्टिः १३ पुष्टि १४स्तथातुष्टि १५
स्तथात्मकुलदेवता १६ ॥ श्री कुलदेव्यंत्तर्गत गौ
र्य्यादिषोड शमातृभ्योनमः ॥अथ ऋत्विजां वरणम् ॥
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्ववेदधरः प्रभुः ॥ तथा त्वंमम
यज्ञेऽस्मिन्ब्रह्माभवद्विजोत्तम ॥ गृहीत्वातुकराङ्गुष्ठं
यजमानःपठेदिदम् ॥ अस्यकर्म्मणःप्रतिष्ठापनार्थं
त्वंब्रह्मा भव( अहंभवामि ब्रह्मा ब्रूयात् )
भा० टी० गोरी से आदि षोडश १६ मात्रा भिन्न भिन्न अंकदेकर लिखीहै मूलमें ।उन्की यथावत् षोडशोपचार पूजा कर्ने से वह संतुष्ट होकर शुभको विधान कर्ती है ॥ ऋत्विक होता आचार्य ब्रह्मादि वरणमें प्रथम ब्रह्माका वरण होताहै ॥ अर्थ जैसे चतुर्मुखसंपूर्ण वेदविद्याके जाननेवाले ब्रह्माजी है तद्वत् आप
मेरे यज्ञमें ब्रह्मा होमे यह कहे हस्तका अंगुष्ठ पकडकर यजमान इस कर्मकी प्रतिष्ठा के लिये आप ब्रह्माहो ।होताहै यह ब्रह्म कहै ॥
आचार्य्यस्तुयथास्वर्गेशक्रादीनांबृहस्पतिः । तथा
त्वंममयज्ञेऽस्मिन्नाचार्यस्त्वंभवप्रभो ॥ गृहीत्वानुक
रांगुष्ठंयजमानःपठेदिदम् ॥ अस्यकर्म्मणःप्रतिष्ठा
पनार्थंत्वंआचार्योभव । अहंभवामि ॥ ऋग्वेदःपद्मप
त्राक्षोगायत्रयः सोमदेवतः । अत्रिगोत्रस्तुविप्रेन्द्रऋ
त्विकत्वंमेमखेभव ॥ गृहीत्वानुकरांगुष्ठंयजमानःप
ठेदिदम् ॥ अस्यकर्णः प्रतिष्ठापनार्थंऋग्वेदीभव ।
अहंभवामि ॥
भा० टी०जैसे स्वर्ग में इंद्रादिको का आचार्य्य ( गुरु ) बृहस्पति जी है तद्वत् आप मेरे यज्ञमें आचार्य्यहोमें गृहीत्वातु इसका पूर्वोक्त अर्थ है यदि कोईक है कि आचार्य्यको गुरु कैसे कहतेहै उत्तर जो उपनयन कर शोचता और वेद विद्या पढाने वह आचार्य्यअर्थात् गुरु को कहतेहैप्रमाण भी यास्कजीने निरुक्तमें लिखाहै ( आचार्य्यःकस्मा दाचार्यआ दाचारंग्राहयित्वा चिनो त्यर्थान् ) याज्ञवल्क्य जी भी लिखतेहै उपनीयददद्वेदमाचार्ग्यःस उदाहृतः । इस प्रकार ऋग्वेदादिक चार वेदो का वरण जानना ॥ स्वरूप ऋववेदका पद्मपत्रवत् नेत्र गायत्री छद सोम देवता अत्रिगोत्र इत्यादि ॥
कातराक्षोयजुर्वेदस्त्रिष्टुभोब्रह्मदैवतः । भारद्वाजस्तु
विप्रेंद्रऋत्विक्त्वंमेमखेभव॥गृहीत्वातुकरांगुष्ठंयजमां
नः पठेदिदम् ॥ अस्यकर्मxणःप्रतिष्ठापनार्थंत्वंर्मेजुर्वे
दीभव(अहंभवामि)सामवेदस्तुपिंगाक्षस्त्रिष्टुभोविष्णु
दैवतः। काश्यपेयस्तुविप्रेंद्रऋत्विक्त्वंमेमखेभव ॥ गृही
त्वातुकरांगुष्ठंयजमानःपठेदिदम् ॥ अस्यकर्मणःप्र
तिष्ठापनार्थंत्वंसामवेदीभव (अहंभवामि )
भा० टी० कैरता युक्त नेत्र त्रिष्टुप् छंद ब्रह्मदेवता भारद्वाज गोत्र इत्यादि यजुर्वेदका स्वरूपहै । और पिंगलवर्ण नेत्र त्रिष्टुप् छंद विष्णुदेवता कश्यपगोत्र इत्यादि सामवेदका स्वरूप छंदादिकहै ॥
अथाशीर्वादः ॥
ऋग्वेदस्तुयजुर्वेदः सामवेदोह्यथर्वणः ब्रह्मवाक्यैश्चतै
नित्यं हन्यंतांतवशत्रवः ॥अपुत्राः पुत्रिणः सन्तुपुत्रिणः
सन्तु पौत्रिणः । अधनाः सधनाः सन्तु संतुसर्वार्थसाध
काः ॥ विप्रहस्ताच्चगृह्णीयाद्यज्ञपुष्पफलाक्षतान् ।
चत्वारस्तववर्द्धन्ता मायुःकीर्ति र्यशोबलं ॥ अथ क
लश पूजनम् । ॐ ऋग्वेदायनमः यजुर्वेदायनमःसा
मवेदायनमः अथर्ववेदायनमः कलशायनमः वरुणा
यनमः रुद्रायनमः समुद्रायनमः गंगायैनमः यमुना
यैनमः सरस्वत्यैनमः कलशकुंभायनमः ॥
भा० टी० ऋक्यजु साम अथर्वण यह ४ वेद ब्रह्मवाक्य पुराणादि सहित तुमारे शत्रुओंको नष्टकरे ॥ और जिन्के पुत्र नहि
वह पुत्रयुक्तहैऔर पुत्रोवाले पौत्रोसे युक्तहो ॥ निर्धन धनवान् हो धनवान् संपूर्ण कामना सिद्धकर्नेवाले हो ॥ यज्ञमें ब्राह्मणके हाथसे पुष्प फल अक्षत ग्रहण करे ४ चार वस्तु आयु १ कीर्ति २ यश ३ बल ४ वृद्धिको प्राप्तहो ॥
ब्रह्मणानिर्मितस्त्वंहिमंत्रैरेवामृतोद्भवः ॥
प्रार्थयामिचत्वांकुम्भवांछितार्थंदेहिमे ॥
शुक्लयजु० अध्याय ४ मंत्र० ३६
व्वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ व्वरु॑णस्य
स्क्कम्भ॒सर्ज्ज॑नीस्त्थो॒व्वरु॑णस्यऽऋ
तु॒सद॑न्यसि॒व्वरुणस्यऽऋत॒सद॑नम
सि॒व्वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासींद ॥
भा० टी० ( वरुणस्योत्तंभनमसि ) अर्थ - हे शम्येतुम वरुण के जलकी स्तंभन कर्नेवाली है और वरुणकी तुम शिथिल शम्या २ हौंवे और वरुणके सत्य स्थानमेंहो और वरुणके सत्य स्थान होनेसे आप इहाँस्थित होमें ॥ यह वेद मंत्रार्थ है ॥ १ ब्रह्माजीने अमृतोद्भव मंत्रोसे आपको रचा और हम आपकी प्रार्थना कर्तेहै की हमारेको वांछित अर्थ देवे ॥
अथ वास्तुपूजा ॥
अथातः संप्रवक्ष्यामि यदुक्तं वास्तुपूजनं ॥ येनपूजा
विधानेन कर्मसिद्धिस्तु जायते ॥ अनंतं पुण्डरीकाक्षं
फणाशतविभूषितं । विद्युद्वन्धूकसाकार कूर्मारूढं
प्रपूजयेत् ॥
शुक्लयजु० अध्याय १३ मंत्र ६
ॐ नमो॑स्तु स॒र्प्पेभ्यो॒येकेच॑ पृथि॒
वीमनु॑ । घेऽअ॒न्तरि॑क्षे॒ येदि॒विते
भ्य॑÷स॒र्प्पे भ्यो॒नम॑÷॥वासुक्याद्य
ष्टकुलनागेभ्योनमः ॥
भा० टी० इसके अनंतर वास्तुपूजा लिखतेहै जिसके कर्नेसे कर्मोंकीसिद्धि होतीहै । यह कर्मका अंगहै कमलसदृश नेत्रवाला और शतफलोंसे सुशोभित विद्युत्कांतियुक्त कूर्मदेवपर स्थित अनंत ( शेष ) की पूजनकरे ॥ [ नमोस्तुमंत्रार्थ ] जो पृथ्वीमें रहतेहै और जो आकाशमें तथा स्वर्गमें सर्प रहतेहै तिन्हो संपूर्णोंके लिये यह प्रणाम वारंवार हो और वह रक्षाकरे यह फलितार्थ है।
अथ योगिनीपूजा
ॐआवाहयाम्यहं देवींयोगिनीं परमेश्वरीं । योगाभ्या
सेन संतुष्टापरध्यानसमन्विता ॥ १ ॥ दिव्यकुण्ड
लसंकाशा दिव्यज्वाला त्रिलोचना । मूर्तिमती ह्य
मूर्ताच उग्राचैवोग्ररूपिणी ॥ २ ॥ अनेकभावसं
युक्ता संसारार्णवतारिणी । यज्ञं कुर्वन्तु निर्विघ्नं श्रे
यो यच्छन्तु मातरः ॥ ३ ॥ दिव्ययोगीमहायोगी
सिद्धयोगी गणेश्वरी । प्रेताशी डाकिनी काली
कालरात्री निशाचरी । हुंकारी सिद्धवेताली
खर्परी भूतगामिनी । उर्ध्वकेशी विरूपाक्षी शुष्कां
गी मांसभोजनी । फूत्कारी वीरभद्राक्षी धूम्राक्षी
कलहप्रिया । रक्ता च घोरा रक्ताक्षी विरूपाक्षी
भयंकरी ।चौरिका मारिका चंडी वाराही मुण्ड
धारिणी । भैरवी चक्रिणी क्रोधा दुर्मुखी प्रेतवासिनी ।
कालाक्षी मोहिनी चक्री कंकाली भुवनेश्वरी । कुण्डला
ताल कौमारी यमदूती करालिनी।कौशिकी यक्षिणी
यक्षी कौमारी यंत्रवाहिनी॥दुर्घटे विकटे घोरे कपाले
विपलंघने।चतुःषष्टिःसमाख्याता योगिन्योहि वरप्रदाः ।
त्रैलोक्ये पूजिता नित्यं देवमानुपयोगिभिरिति ॥
भा० टी० परब्रह्ममें खचित योगाभ्यासकर संतुष्ट परमेश्वरी दैवाश्रीयोगिनीका आवाहन कर्ते है ॥ १ ॥ दिव्य कुंडलोंसे युक्त तेज युक्त त्रिनेत्र मूर्तिवाली और मूर्तिसे रहित भयानक इत्यादि अनेक भावोंसे संयुक्त संसाररूपी समुद्रके पार उतारनेवाली योगिनी माता इस यज्ञको विघ्नरहित करे और हमारेको कल्याण देवे ॥ यह ६४ योगिनी संकटमें विपत्तीमें अर्थात् यहां भीतिहो वहां स्मरण की हुई वेरको देती संकट दूरकर्तीहै इस कारणसे देव मानुष योगि
जनोकर यह पूजनीयहै अर्थात् संपूर्ण जगत् इन्कीपूजा कर्ताहै॥
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भा० टी० [ मंत्रार्थ ब्र० ] ब्रह्मसर्वव्यापि सूर्य प्रथम पूर्वदिशामें उदय होता है फिर अपने प्रकाशसे चारोंतरफ मध्यवर्ती प्रकाश कर्ताहै वह प्रकाशमान लोक वेनमेधावी आदित्य दिशाकोसे जा
नाजाताहै इस जगत्विद्यमान का अधिष्ठाताहै और अमूर्त अदृ-
श्यमान जगत् का कारणहै ॥ अर्थात् सूर्य भगवानही संपूर्ण लोकोंको दिशाको प्रकाश कर्ताहै ॥ विष्णोरराटमसि. इस्काअर्थ आगे लिखाहै शांतिपाठमें ॥ ॥ इति विष्णुंपाद्यादिभिरर्चयेत् ॥
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भा० टी० [ नमःशंभवेति ] नमस्कारहै शमके देनेवाले तथा सुख कल्याणादिगुण देनेवाले शंकरजीको ॥
इति शिवंपाद्यादिभिरर्चयेत् ॥
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भा० टी० [ त्रातारमिंद्र ] रक्षाकर्नेवाला जिससे इंद्रजीको कहतेहैं बुलावनेमे शोभन शूरवीर वह इंद्र हमारे कर बुलायाभया ना नष्ट होनेवाला धन और स्वस्ति हमारेको देवे हम प्रार्थना कर्तेहे ॥
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इतिपूजयेत्
भा० टी० [ हेवायुदेव ] योतुमारे सहस्रसंख्यकरथ सदृश रथहै उन्से युक्तहोकर आप सोम पानके लिये आयो हमप्रार्थना कर्तेहै॥
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[ अग्नेसपत्न] हेभगवन् अग्निदेव तुम शत्रुओंको नाशकर्नेले. हमारेको नाहिंसनकर्ते हमारी वृद्धिकरे हेचित्रावसो हेरात्रि ! ना नाशहोनेवाली कल्याणदेवे. ( रात्रिर्वै चित्रावसुरितिश्रुतिः ) और तुमारे पारको सुखपूर्वक प्राप्त होयाकरे ॥
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भा० टी०आकृष्णेनेति ॥ सूर्य देव रात्रिरूप रजसे वर्तमान वारंवार भ्रमण कर्ता तथा अपने २ स्थानमें देवताओंको अमृत मनुष्यादिकोंको अन्न देता हुआ सुवर्णके रथसे १४ भुवनो को देखता भया और आरोग्य देता भया फिरताहै ॥ १ ॥ उदय होता है।
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भा० टी० इमंदेवा-देवो दानादिति - हे दानशील पुरुषो तुम इस चंद्रमाको शूरवीरताके लिये ज्येष्ठता राज्य ऐश्वर्यादिके लिये
अमुक पुत्र इसकी सेवा करो यह चंद्रमा हम ब्राह्मणोंका राजा है \। श्रौतार्थमे हे देवताओ यह संबंध कर्ना \।\।
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**अग्निर्मूर्द्धा -**हे अग्निस्वरूप वा अग्नि तत्व मंगल देव स्वर्ग आकाश में सूर्य रूप होकर मूर्द्धवर्तिहो और ककुत् बडे तेजस्वी और पृथिवी के पुत्र हौऔर तुमही जलवृष्टि रेतोत्पत्तिमें कारण है ॥ ( श्रौतार्थ मे अग्निस्तुतिमे विनियुक्त है ॥ )
प्रमाण बृहज्जातके शिखिभूखपयोमरुद्रणानां वशिनो भूमि सुतादयः क्रमेण ॥
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भा० टी० उद्बुध्यस्व. हे बुध देव अग्निवत् प्रकाशमान आप प्रसन्न हो आप की प्रसन्नता से यह यजमान इष्टमनोर्थको प्राप्त होवे और इस लोकमें ऐश्वर्यादि भोग उत्तर लोकमें देवताओं- के साथ निवास करे यह हम प्रार्थना कर्ते है ( श्रौतमें अग्नि)
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बृहस्पते —हे बृहस्पति देव अतिशय सेंधन अर्थ स्वामिता अर्ह पूजा यज्ञ करनेवाले पुरुषमे धारण करे और बलसे यो रक्षा कर्नेवाले तथा सत्यसे है उत्पत्ति जिनकी वा सत्य प्रजावाले पुरुषोंको अनेक प्रकार चित्र विचित्र धन देमे यह प्रार्थनाकर्ते है।
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भा० टी० अन्नात्परिस्रुत÷हविलक्षणरूप अन्नका परिस्रुत रस त्रयी लक्षण ब्रह्मसें व्याप्त और क्षत्रसे व्याप्त सोम प्रजाप्रति संबंधि पय इस सत्यसे युक्त इंद्रकी इंद्रिय अन्न यह शुक्रजीके संबंधसे युक्त हो यह प्रार्थना कर्ते है ॥
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शन्नोदेवी – सुखरूप हमारे कल्याण कारक देव स्वरूप रोग के विनाशके लिये भय के दूर कर्नेके वास्ते शनिदेवको स्तुति और प्रार्थना कर्ते है ॥ श्रौतमे वरुण संबंधि स्तुत्यमंत्र है ॥
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कयानश्वित्र2 —हे राहु देव किस आगमनसे तुम हमारेको आनंद कर्ते है और किससे हमारेको धन देते है वह हम उपाय करे ( पूजा इति शेषः ) ( श्रौतमें इंद्र )
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ॐब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरांतकारी भानुः शशीभूमिसु
तो बुधश्च ॥ गुरुश्चशुक्रः शनिराहुकेतवःसर्वैग्रहाःशां
ति कराभवन्तु ॥ इतिनवग्रहपूजा ॥ त्र्यंबकं यजामहे
इति त्र्यंबकपूजनम् ॥ अथकुशकण्डिका प्रारम्भः॥
ततोहोमार्थं चतुरंगुलोच्छ्रितहस्तमात्रपरिमितां वे
दीं कुर्यात् कुशैः परिसमूह्य तान् कुशान ऐशान्यांप
रित्यज्य गोमयोदकेनोपलिप्य खादिरेण स्रुवेण चो
ल्लेखनंहस्तेनोद्धरणं जलेनाभ्युक्षणं कांस्यपात्रयुग
लेन लौकिकंनिर्मथितं वाग्निमानीय स्थापयेत् । ततः
पुष्पचंदनतांबूलवासांस्यादाय ॐअद्यकर्तव्यामुक
शान्तिहोमकर्मणि कृताकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्म-
कर्तुममुकगोत्रममुकशर्माणमेभिः पुष्पचंदनतां
बूलवासोभिर्ब्रह्मत्वेनत्वामहंवृणे इति ब्रह्माणंवृ
णुयात् ॥ ॐवृतोस्मीति प्रतिवचनम् \। यथाविहि
तंकर्मकुर्वित्याचार्येणोक्त करवाणीतिप्रतिवचनम् ।
ततोग्नेर्दक्षिणतः शुद्धमासनंदत्वा तदुपरि प्रागग्रा
न्कुशानादायास्तीर्य्य अग्निं प्रदक्षिणं कारयित्वा
ऽस्मिन्कर्मणि त्वंमेब्रह्माभवेत्यभिधाय भवानीति
तेनोक्तेतदुपरि ब्रह्माणमुदङ्मुखमुपवेश्य प्रणीता
पात्रं पुरतःकृत्वा वारिणा परिपूर्य्यकुशैराच्छा
द्य ब्रह्मणो मुखमवलोक्याग्नेरुत्तरतः कुशोपरिनिद
ध्यात् ततः परिस्तरणम्बर्हिपश्चतुर्थभागमादाया
ग्नेरीशानांतंत्रह्मणोऽग्निपर्यन्तंनैर्ऋत्याद्वायव्यान्तंअ
ग्नितःप्रणीतापर्यन्तंततोग्नेरुत्तरतःपश्चिमदिशिपवित्र
च्छेदनार्थंकुशत्रयंपवित्रकरणार्थंसाग्रमनन्तर्गर्भकुश
पत्रद्वयंप्रोक्षणीपात्रंआज्यस्थालीसंमार्जनार्थंकुशत्रयं
उपयमनार्थवेणीरूपकुशत्रयं समिधस्तिस्रः स्नु
वः आज्यं षट्पंचाशदुत्तराचार्य्यमुष्टिशतद्वयाव
च्छिन्नामतण्डुलपूर्णपात्रं ततःपवित्रछेदनकुशैः
पवित्रेछित्त्वासपवित्रकरेणप्रणीतोदकंत्रिः प्रोक्षणीपा
त्रेनिधायअनामिकांगुष्ठाभ्यांपवित्रेउत्तराग्रेगृहीत्वात्रि
रुत्पवनंप्रोक्षणीपात्रंवामकरेणादाय । अनामिकां
गुष्ठाभ्यांगृहीतपवित्राभ्यांतज्जलंकिंचित्रिरुत्क्षिप्य प्र
णीतोदकेनप्रोक्षणीमभिषिच्य प्रोक्षणीजलेनासादि
तवस्तुसेचनंकृत्वाग्निप्रणीतयोर्मध्येप्रोक्षणीपात्रंनिद
ध्यात् आज्यस्थाल्यामाज्यंनिरूप्याधिश्रयणं त
तःकुशंप्रज्वाल्याज्योपरिप्रदक्षिणंभ्रामयित्वावह्नौत
त्प्रक्षिप्यस्नुवंत्रिःप्रतप्यसम्मार्जनकुशानामग्रैरंतरतो
मूलैर्बाह्यतःस्रुवंसंमृज्यप्रणीतोदकेनाभ्युक्ष्यपुनस्त्रिः
प्रतप्यदक्षिणतोनिदध्यात्आज्यस्याग्नेरवतारणंतत
आज्यंप्रोक्षणीवदुत्पूयावेक्ष्य सत्यपद्रव्येतन्निरसनं
कृत्वापुनःप्रोक्षणीमुत्पूयततउत्थायोपयमनकुशान्वा
महस्तेकृत्वाप्रजापतिंमनसाध्यात्वातूष्णीमग्नौघृता
क्ताःसमिधस्तिस्रःक्षिपेत् ॥ उपविश्यसपवित्रप्रो
क्षण्युदकेनप्रदक्षिणक्रमेणाग्निंपर्युक्ष्यप्रणीतापात्रेपवि
त्रेनिधायपातितदक्षिणजानुःकुशेन ब्रह्मणान्वारब्धः
समिद्धतमेऽग्नौस्रुवेणाज्याहुतीर्जुहोति । तत्तदाहुत्य
नंतरंस्रुवावस्थितघृतशेषस्यप्रोक्षणीपात्रेप्रवेशः ।
अथस्रुवपूजनम् ॥ ॐआवाहयाम्यहंदेवंस्रुवंशेवधि
मुत्तमम् । स्वाहाकारस्वधाकारवषट्कारसमन्वितं \।
अष्टांगुलंत्यजेन्मूलमग्रेत्यत्त्कादशांगुलंकर्तव्यंगोप
दाकारंदंडस्याग्रेतुकंकणं । विष्णोःस्थानंप्रगृह्णी
याद्धूयतेचहुताशनम् ॥ पद्मयोनिंसमादायहोता
सुखमवाप्नुयात् । इतिस्रुवपूजनम् ॥
भा०टी० कुशकंडिका आगे विवाहमे स्पष्टार्थ लिखी है इसलिये
महाशयो को उचितहै कि विवाहप्रकरणमे देखे ॥ और स्रुवको हस्तमे कंकण बंधकर पूजन कर्ना ॥
अथघृताहुतिः ॥ ॐप्रजापतयेस्वाहाइदंप्रजापतयेइ
तिमनसा ॐइन्द्रायस्वाहाइदमिंद्राय०॥ इत्याघारौ ॥
ॐअग्नयेस्वाहा इदमग्नये० ॐसोमायस्वाहा इदंसोमा
य० इत्याज्यभागौ ॥ ॐभूःस्वाहा इदंभूःॐभुवःस्वा
हा । इदंभुवः । ॐस्वःस्वाहा इदंस्वः ॥ एतामहा
व्यात्दृतयः ॥
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इदंवरुणाय० । एताः सर्वप्रायश्चित्तसंज्ञकाः ॥ ॐगण
पतयेस्वाहा । इदंगणपतये० । ॐविष्णवेस्वाहा । इदं
विष्णवे० । ॐशम्भवेस्वाहा इदंशम्भवे०। ॐलक्ष्म्यै
स्वाहा इदंलक्ष्म्यै० ॥ ॐसरस्वत्यैस्वाहा इदंसरस्व
त्यै ० । ॐभूम्यैस्वाहा इदंभूम्यै० ॥ ॐ सूर्यायस्वा०
इदंसूर्याय० ॐ चंद्रमसेस्वाहा इदंचंद्रमसे० ॥ ॐ
भौमायस्वाहा इदंभौ० ॥ ॐबुधायस्वहा इदंबु
धाय० ॥ ॐबृहस्पतयेस्वाहा इदंबृहस्पतये० ॥
ॐशुक्रायस्वाहा इदंशुक्राय० ॥ ॐशनैश्चराय-
स्वाहा इदंशनैश्चराय० ॥ ॐराहवेस्वाहा इदंराहवे०
॥ ॐकेतवेस्वाहा इदंकेतवे० ॥ ॐव्युष्ट्यैस्वाहा०
इदंव्युष्ट्यै० ॥ ॐउग्राय स्वाहा इदमुग्राय० ॥ ॐ
शतक्रतवेस्वाहा इदंशतक्रतवे० ॥ ॐप्रजापतयेस्वा
हा इदंप्रजापतये० ॥ इतिमनसा प्राजापत्यं । ॐअग्न
येस्विष्टकृतेस्वाहा इदमग्नयेस्विष्टकृते० । इतिस्विष्ट
कृद्धोमः । ततःसंस्रवप्राशनं आचमनं ततोब्रह्मणे
दक्षिणादानम् ॥
भा० टी० त्वन्नोअग्ने१ सत्वन्नो अग्ने२ येतेशतं ३ अयाश्चाग्ने ४ उदुत्तमं ५ यहपांच मंत्रोका विवाह की कुशकंडिकाके अन्तमे अर्थ लिखाहै इसलिये पुनःपिष्टपेषण नहिकर्ते \। और आगेके नामोक्तमंत्र २१ है इन्मो सूर्यादि नवहै । और प्रजापतये स्वाहा यह मंत्र मनमे उच्चारण कर्ना और सर्व स्पष्ट मुखसे उच्चारण कर्ने ॥
ॐअद्यएतस्मिन्शांतिहोमकर्माणिकृताकृतावेक्षण
रूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदंपूर्णपात्रंप्रजापतिदैवतं अमु
कगोत्रायामुकशर्मणेत्रह्मणेदक्षिणांदातुमहमुत्सृजे ॥
ॐस्वस्तीतिप्रतिवचनम् । ततोब्रह्मग्रंथिविमोकः ॥
यजु० अध्याय मंत्र
ततः ॐसुमित्रियानऽआपऽओषधयःसंतु इतिपवित्रा
भ्यांजलमानीयतेनशिरःसंमृज्य ॐदुर्म्मित्रियास्तस्मै
सन्तुयोऽस्मान्द्वेष्टियञ्चवयंद्विष्मः ॥ इत्यैशान्यां
प्रणीतान्युब्जीकरणम् ।
भा० टी० आज इस शांतिके होमरूप कर्ममे कर्ना वाना कार्ना इस्की परीक्षारूप ब्रह्माके कर्मकी प्रतिष्ठालिये यह पूर्ण पात्र प्रजा-
पतिसंबंधि अमुक गोत्रबाह्मणको दक्षिणा देनेलिये देताहुं । स्वस्तिवाह्मणकहे ॥ ५० ॥ कुशनिर्मित ब्रह्माकी ग्रंथी खोलदेणी विवाह प्रकरण मे ब्रह्मादि कोका लक्षण लिखाहै ( पंचाशतोभवेद्ब्रह्मा)इत्यादि । और सुमित्रिया १ दुर्भित्रिया २ इनदोनो मंत्रोका अर्थ भी स्पष्ट विवाह प्रकरणमे लिखा है ॥
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इतिबर्हिर्होमः । तत आचारात्दशदिक्पालेभ्योद
धिमापबलिर्देयः क्षेत्रपालबलिदानंच ॥ ततःस्थाली
पाकादिपक्वान्नेनगणपतिप्रमुखसूर्यादिग्रहेभ्यस्तत्त
न्मंत्रैर्बलिर्देयः । ततोब्राह्मणभोजनम् ।
भा० टी० स्मरणक्रमसे कुशाग्रहणकर घृतलगाय हाथसे हवन करे ।देवागातु इसमंत्रसे इसका अर्थ विवाह प्रकरणमे लिखा है ॥ फिर आचारसे दशदिक्पालोको दधियुक्त माषोकी बलीदेनी दश दिक्पालयहहै । इंद्र १ वन्हि २ धर्मराज ३ नैर्ऋत ४ वरुण ५ मरुत ६ कुबेर ७ ईश८ और पृथिवी आकाशका स्वामी २ ।
यह १० अनंतर स्थालीपाकसे पकाहुआ पक्कान्नसे श्रीगणेशजीसे आदि सूर्यादि नवग्रह ओंकार सर्प योगिनी अर्थात् जो २ पीछे स्थापन करेहैउनेके मंत्रोसे सबको बलिदान कर्णी ॥
ॐअद्यकरिष्यमाणब्राह्मणभोजनसांगतासिद्धयर्थमि
दंदक्षिणाद्रव्यंतेभ्योविभज्यदातुमहमुत्सृजे ततोगुरवे
दक्षिणादेया ॥ ततः छायापात्रदानं । तदनंतरंपू
र्णाहुतिः तद्यथा स्रुवेणपूगीफलादिकंगृहीत्वा ॥
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भा० टी० प्रथम संकल्प ब्राह्मणो की दक्षिणा का है। पीछे छाया पात्र दान कर्ना अनंतर फल पुष्प स्रुव मे स्थित घृतसे मूर्द्धानं इस मंत्रसे पूर्णाहुति कर्नी । यह मंत्रका अर्थ विवाह प्रकरण में लिखाहै
यजमानपक्षेतन्नोइत्यस्यस्थानेतत्तेइतिविशेषः । त
तोऽभिषेकः ॥ तच्चाम्रपल्लवकुशादिकेनकलशस्थ
जलमानीयआपोहिष्ठेत्यादिमंत्रेणयजमानमभिषिंचे
त् ॥ आचार्यादीनांदक्षिणादेयाततोभूयसींदद्या
त् । ॐआज्येनवर्द्धतेबुद्धिराज्येनवर्द्धतेयशः ।
आज्येनवर्द्धते आयुर्दर्शनंपापनाशनं । अथविशेष
पूजा । ग्रहागावोनरेंद्राश्चबाह्मणाश्चविशेषतः । पूजि
ताः प्रतिपूज्यंतेसावधानाभवन्तुते । अथ अग्निवि
सर्ज्जनम् । गच्छगच्छसुरश्रेष्ठस्वस्थानंपरमेश्वर ॥
यत्रब्रह्मादयोदेवास्तत्रगच्छहुताशन ॥
भा० टी० घृतसे बुद्धि बल यश आयु वृद्धिको प्राप्तहोती और पाप नष्ट होते है ॥ आयु वृद्धिमे प्रमाण भावप्रकाश चिकित्सा शास्त्रमे जैसे ( स्वमाननं घृते पश्येद्यदीच्छेच्चिरजीवितुं ) ग्रह गौआ ब्राह्मण राजा यह पूजन कीये हुये विशेष
फल देते है ॥गच्छ २ इस मंत्रसे अग्निका विसर्जन कर्ना ॥
आगतास्तुयथान्यायंपूजितास्तुयथाविधि । कृत्वा
कृपांमयिदेवायत्रासंस्तत्रगच्छत ॥ यज़मानहिता
र्थायपुनरागमनायच ।शत्रूणांबुद्धिनाशाय मित्रा
णामुदयायच ॥ यथाशस्त्रप्रहाराणांकवचंवारणंभ
वेत् । तद्वदेवाभिघातानांशांतिर्भवति वारणं ॥ अ
थग्रहादीनांविसर्जनम् ॥ यान्तुदेवगणाः सर्वेपूजामा
दायमामकीं। यजमानहितार्थायपुनरागमनायच ॥
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भा० टी० भलीभांति आये हुये और पूजन किये हुये मुझपर कृपा कर अपने २ स्थानको देवगण सिधारे यजमान की कुशल ताकेलिये तथा फिर आवे लिये ॥ जैसे खड्गादि शस्त्रोके प्रहारसे
रक्षा कर्नेवालाकवच ( संजोया ) होता है तद्वत् संपूर्ण विघ्नोके दूर कर्ने लिये शांति है ॥अग्नि मीले यह मंत्र ऋग्वेदके आदका है ।
ॐविष्णुस्तत्सदद्यामुकगोत्रोहममुकशर्माहंइदंसमि
ष्टंघृतपक्कंविष्णुदैवतंभगवद्विष्णुप्रीतयेयथानामगो
त्रायब्राह्मणायाहंददे । ॐअद्यकृतैतत्समिष्टघृतप
क्वदानप्रतिष्ठासांगतासिद्धयर्थंविष्णुप्रीतयेयथानाम
गोत्र ब्राह्मणायदक्षिणांदातुमहमुत्सृजे । ॐअद्यतत्सद्वि
वाहांगत्वेनेदमिष्टघृतपक्कंविष्णुदैवतंकुलदेवताप्रीत
येसौभाग्यताप्राप्तयेयथानामगोत्रायब्राह्मणायाहंददे ।
इतिकन्यापक्षे ॥ ततः सुपूजितंकंकणबंधनं तत
स्तिलकंकुर्यात् । तदनंतरंसूर्यायार्घ्यदानं ॥ इति
श्रीकात्यायनीशान्तिःसमाप्ता ॥ शुभंभूयात् ॥
भा० टी० अमुकगोत्रबाह्मणको विष्णुप्रीतिलिये घृतपक्व अन्न देता है । और इस्की प्रतिष्ठाके लिये दक्षिणा देताहुं कन्या पक्षमे सौभाग्यतालिये यह पद कहना । फिर पूजन कर कंकण बंधना तिलक कर्ना ॥
इति श्रीकर्पूरस्थलनिवासिगौतमगोत्र ( शोरि )
अन्वयालंकृतश्रीअपारमहिमा. पं. घनैयारामतत्पुत्रवै
कुण्ठपीठाधिष्ठितश्रीतुलसीरामतत्पुत्रश्रीसकलजन
वंद्यदैवज्ञदुनिचन्द्रतदात्मजशौर्य्यौदार्य्यधैर्य्याद्यालं
कृतअधीतवेदवेदांगधर्मशास्त्रादिश्रीपंडितविष्णुद
त्तवैदिककृतकात्यायनीशांतिटीका अद्रिवेदां
कभूमिते १९४७ वैक्रमेमाधवेमासिकृष्णदशम्यां
चंद्रवासरेसमाप्तिमगात् ॥ साचशुभावहीस्यात्
श्रीरामचंद्रप्रसादात् ॥
अथशांतिसामग्रा
मौली रोला पंचरंग आटा चावल गुढ केशर पुष्पधूप दीप नैवद्य
तांबूल सुपारी ७ पतासे मठ्ठिया घुंगनिया दालां ७ घृत तेल कुशा स्रुव पलाश समिधा पटढी यव तिल गोमय बटना कंकण रेत पत्र ग्रहजप । इति ।
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ओंस्वस्तिश्रीगणेशायनमः ॥ ओंवेदपुरुषायनमः ॥ श्रीः अथविवाहसामग्रीलिख्यते ॥ आटा गुड चावल मौली रोला केशर पुष्प नैवेद्य मेवा धूप दीपअटे ७ सुपारिया ११वा चंदन पुष्पमाला २ आम्रकेपत्र १०० पटडीया२ वेद १ चंदोया १ खारे २ वाचौंकिया २ घृत प्रणीतापात्र प्रोक्षणीपात्र कांस्यपात्र २ मधुपर्क गौकादुग्ध दधी घृत शहत नालकेर १ धोती उपर्णा बालकनू । अर्धचौल अट्टे २ सिंधूर शूर्प १ लाजा अर्धशेर जंडीकेपत्र शण शंख सुवर्ण वीडेपानके २ पूर्णपात्र १ चावल अभिषेककेलिये गागरवाकुंभ वाकौरी १ समिधा पलाश वा वेरीकी १० सेर वटना शिलावट्टा शर्करा बहारी १ सालूगिरा ५ पर्णा १ कुशा समवस्त्र गज ४ स्रुवा १ आसन २ अर्धा हलपजाली मठिया ५ इति अथ चतुर्थदिनमे चतुर्थी कर्मकी सामग्रीलि० आटा गुड मौली चावल कसर धूप दीप नैवेद्य सुपारिया ५ दूर्वा आम्रपत्र १० पटडीया २ चंदोया १ घृत प्रणीता प्रोक्षणी अर्धचावल पृथूदकपात्र कुनाली १ हलपजाली गौदुग्ध अर्धसेर चावलपूर्णपात्र १ वस्त्रगज १० सिंदू
डांगा ४ शण सुवर्ण रेत स्रुवा कुशा समिधा चरुस्थाली इतिचतुर्थीकर्मसामग्री॥
१ अथकन्योद्वाहेयजमानकर्तृकप्रतिज्ञासंकल्पःॐवि-
ष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्यब्रह्मणोद्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवा-
राहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतिमेयुगे कलि-
युगेप्रथमचरणे अमुकसंवत्सरेऽमुकगोलेऽमुकायनेऽ
मुकपदेऽमुकमासेऽमुकतिथौनक्षत्रकरणयोगयुक्तेऽमु-
कवासरे अमुकगोत्रोत्पन्नोहं जन्मनामतः प्रसिद्धनाम-
तश्चामुकशर्माहं कृतकायिकमानसिकसांसर्गिक ज्ञा
ताज्ञातसमस्तदोषपरिहारार्थं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त
फलावाप्तिकामः श्रीयज्ञपुरुषनारायणप्रीत्यर्थंतत्प्रसा-
दात्कायवाङ्भनोभिर्महापातकादिदोपनिवृत्तिपूर्वकैहि-
कामुष्मिकेश्वरप्रसादानुरूपविभवयोगक्षेमप्राप्तयेच
अश्वमेधपुण्यजनकताकपुत्रीविवाहात्मकदानमहं क-
रिष्ये तन्निर्विघ्नतासिद्धये यथोपलब्धोपचारद्रव्यैः
गणपत्यादिनवग्रहपूजनमहंकरिष्ये ॥ इति॥ पश्चा-
त्गणेशादिपूजनंकुर्यात् ॥
२ अथ- यजमानकर्तृकशुभ्रचौलाधोतीपर्णानांदा
न संकल्पः ॥ अद्येत्यादि ० पुत्रीविवाहकर्म्मणि क-
न्यादानप्रतिपत्त्यर्थमादाविमानि चतुष्टयवस्त्राणि प-
ट्टकार्पासादिसंपादितानि मांजिष्टारिष्टादिनानारं-
जितानि बृहस्पतिदैवतानि कन्यावरयोर्वैवाहिकस-
मये परिधानयोग्यानि सदक्षिणानि अमुकगोत्रप्र-
वरायाऽमुकनामशर्मणे विष्णुरूपिणेवरायतुभ्यमहं
संप्रददे ॥ इतिशुभ्रचौलादिदानम् ॥
३ अथ - कन्यापितृकर्तृकवेदीदानसंकल्पः ॥ ३ ॥
ॐतत्सदद्येति०नानारागानुरूपयज्ञाधिष्ठातृपरमे-
श्वरादिविशेषणवतोभगवतः प्रीत्यर्थं तत्प्रसादात्
याज्ञिकभूमिदानजन्यनानास्वर्गादिफलप्राप्तये इ-
मानि रजतमुद्रिकानि चंद्रदैवतानिसदक्षिणानिक-
न्यावैवाहिकचतुष्टयवंशनिर्मितस्तंभवेदिकान्तरभू-
मिप्रतिनिध्यात्मकानियथानामगोत्राय० इतिवेदी
दान संकल्पः ॥
४ अथ - यजमानकर्तृकचतुर्थीदानसंकल्पः ॐअ-
द्येत्यादि० कृतेतत्पुत्रीविवाहचतुर्थीकर्मप्रतिष्ठार्थं
सांगतासिद्ध्यर्थंचेमांरजतमुद्रिकांसदक्षिणांचंद्रदेवतां
अमुकगोत्राय अमुकशर्मणे ब्राह्मणायतुभ्यमहंसंप्रद
दे० स्वस्तीति प्रतिवचनं सर्वत्र०इतिचतुर्थीदानं ॥
५ अथ - यजमानकर्तृकउयाघ्यायदक्षिणासंकल्पः ॥
ॐअद्येत्यादि कृतैतदग्निष्टोमादिकृतसमपुत्रविवाह
योगमंत्रोच्चारणादिकर्तव्यताककर्म्मप्रतिष्ठार्थं सांग-
तासिद्ध्यर्थंचेदंद्रव्यंरजतंचंद्रदैवतंअमुकगोत्रायाऽमु-
कशर्म्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहंसंप्रददे ॥ इति ॥
६ अथ - यजमानकर्तृककन्यायज्ञान्ते अन्नदानभू-
रिद्रव्यदानसंकल्पः ॥ ॐअद्येत्यादि० श्रीयज्ञपुरु-
पपरमेश्वरप्रीत्यर्थं तत्प्रसादादवगताऽनवगतसक-
लदुरितोपदुरितशमनपुरस्सराक्षयफलावाप्तयेच व
खध्वोः पूर्णायुरादिसुखसंपत्तिसिद्धये प्रजापतिकं
दास्यमानान्नं तथाभूरिद्रव्यंताम्रंवारजतं सूर्यदैवतं
वा चंद्रदैवतं सदक्षिणंयथा २ नाम गोत्रेभ्यो ब्राह्मणे
भ्यो विभज्यदातुमहमुत्सृजे ॥ इतिकन्यापितृ-
कर्तृकनानाद्रव्यदानसंकल्पः ॥ शुभमस्तु ॥
७ अथ - बालककर्तृकविवाहप्रतिज्ञासंकल्पः ॥ ॐ
तत्सदद्येति० जन्मलग्नतो वर्पलग्नतश्च तथा वै-
वाहिकलग्नतःखेटावेदतानिष्टफलनिरसनोत्तरेष्टफल-
प्राप्तिपुरस्सरसकलकर्मसिद्ध्यर्थं गार्हस्थ्यनानाक-
र्म्माधिष्ठानात्मकस्वविवाहकर्माहं करिष्ये ॥ तदं
गत्वेनतन्निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं आदौगणपत्यादिनवग्रह
पूजनमहंकरिष्ये १ ॥ इति ॥
८ अथ - पत्नीप्रतिग्रहगोदानसंकल्पः ॥ ॐतत्सद-
द्येत्यादि ० श्रौतस्मार्तवैदिकेतिहासपुराणोक्तफला-
वाप्तिकामः श्रीपरमेश्वरनारायणादिविशेषेणविशि-
ष्टभगवत्प्रीत्यर्थं तत्प्रसादात् जन्मराशितोनामराशि-
तश्च जन्मलग्नतोवर्षलग्नतश्च जन्यजननजनिष्य-
माणात्मकदोष ८ त्रयनिरसनोत्तरजन्मलग्नतो विवा-
हलग्नतश्चानिष्टखेटावेदिताशुभदुरितक्रमनिवृत्तयेप-
त्नीपाणिग्रहणजन्यप्रतिग्रहविशेषताकपुरस्सरभार्या -
त्रिवर्गकरणमित्यनेनप्रतिपादितधर्मार्थकामप्रति-
पत्तयेचेमांगां सुवर्णरजतवस्त्रैःयथाशक्त्यालंकृतां
कांस्यदोहोपयुक्तां सवत्सां मुक्तालांगूलभूपितां
सुशीलां रुद्रदैवतां अमुकगोत्राय अमुकशर्म
णेब्राह्मणायतुभ्यमहं संप्रददे ॥ * ॥ अथद-
क्षिणासकंल्पः ॥ ॐ अद्यकृतैतद्गोदानप्रतिष्ठार्थ
मिदंद्रव्यं रजतंवासुवर्णं चंद्रदैवतंवाअग्निदैवतं यथा
नामगोत्रायेत्यादि ॥
९ अथ - गोदानाभावे दक्षिणादानसंकल्पः ॥ ॐअ-
घेत्यादि सर्वं पूर्ववत् • इमांगां इत्यस्यस्थाने गोदा-
नप्रतिनिधिभूतमिदं द्रव्यं अमुकदैवतं यथानामगो-
त्राय ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रदद \। दक्षिणापूर्ववत् \।\।
१० अथ-उपाध्यायदक्षिणादानसंकल्पः ॥ ॥ ॐअ-
घेत्यादि० गतानवगत सकलदुरितोपदुरितक्षय
पुरस्सर सकलत्र स्वशीर कल्याणोत्तर पूर्णायुरा-
दि सुखसंपत्ति सिद्धिकामः कृतैतज्जन्मादि दश सं-
स्कारांतर्गत स्वविवाहात्मक महत्संस्कार मंत्रोच्चा-
रण कारयितव्य कर्तव्यताक कर्म्मप्रतिष्ठार्थञ्च सा-
ङ्गतासिद्ध्यर्थम् इमाममुकद्रव्यमयीमुपाध्यायद-
प्रकरणम् ४
क्षिणां अमुकदैवतां यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे १ इति०
११ अथ— विवाहे यजमानकर्तृक खट्वादानं सकल्पः। तत्रकन्यापितासपत्नीकः कृतनित्यक्रियः कृमिजव स्त्रपरिधानपूर्वकोत्तराभिमुखः । आदौगोधूमचूर्णे नगणपत्यादीन्विधाय स्वस्तिवाचनपूर्वकं प्रतिज्ञासंकल्पं कुर्यात् ॥ ॐतत्सदद्येत्यादि देशकालपूर्वकं श्रुतिस्मृत्याद्युक्तफलावाप्तिपुरस्सरावगतानवगतसकलदुरित महापातक- क्षयानंतरज्ञाताज्ञातकृतकायवाङ्मनःकृतसमस्तपातकोपपातकजन्मत्रयोपार्जितपापक्षयकामःराजद्वारतो व्यवहारतश्च सुप्रतिष्ठितैश्वर्यसुखाप्तये च श्रीमद्भगवच्चरणारविंदप्रीतिजनक कन्यादेहरोमसमसंख्याकल्पावछिन्न स्वर्गलोकवासजन- ककन्योद्वाहांगभूतविचित्रवर्णवस्त्राद्याभरणरीतिकांस्यलोहपैत्तल त्रपु सीसकमाषपिष्ट पक्वान्न रजत सुवर्ण रूप्याद्यनेकभूषण ताम्राद्यनेक द्रव्ययुक्त खट्वादानमहंकरिष्ये ॥॥ ततः दक्षिण शिरसमुत्तरपादां तू लकोपधानादि पुरस्कृतां वस्त्राभरण पात्रादि अलंकृतां खट्वां वरकन्यारोहणपूर्वकां पूर्वदिक्पार्श्वे रक्तसूत्रोप बद्धां कन्यापितापत्न्यासह ग्रंथिबंधनं कृत्वाखट्वातंतु गंधाक्षतपुष्पजलैः संकल्पंकुर्या
त् ॥ १२ अथ— ॐ तत्सदद्येत्यादि देशकालौ संकीर्त्य० श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासेत्यादि प्रतिपादितफलावाप्तिकामोऽवगता नवगतसकलदुरितोपदुरितक्षयकामश्चनानापटतंतुसंख्यासमानाने कल्पावछिन्न वैकुंठलोकप्राप्तिकामः श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतिजनकबहुअश्वमेधयज्ञफलसूचकस्वपुत्री विवाहाङ्गभूतां इमांसतूलोपधानादिसंस्कृतांखाट्वां उत्तानांगिरोदैवतां बृहस्पतिदेवताकसितरक्तपीताद्यनेकविध सुवर्णरजततंतुमिश्रितवस्त्रसंयुतां विश्वकर्मदेवताकैः यथापरिमितैः रीतिकांस्यलोहमयपात्रैःसपा त्रितां चंद्राग्निसामुद्रदैवताक अनेकविधविरचितरजत सुवर्णभूषणविभूषितां प्रजापतिदैवताकविविधपक्वान्नाद्यधिकरणकां सूर्य्यचंद्रदेवताकथयापरिमितताम्ररजतमयैः द्रव्यैस्सदक्षिणाममुकगोत्राय अमुकप्रवरायामुकनाम्ने वराय तुभ्यमहं संप्रददे ॥ स्वस्तीतिप्रतिवचनंवरप्रत्युक्ति र्वा॥दक्षिणायाभिन्नसंकल्पः । ॐअद्यकृतैतत्खट्वादानप्रतिष्ठार्थमिदंताम्ररजतद्रव्यं सूर्यचंद्रदैवतं अमुक० ॥
आचारात् कन्यादातासकलत्रः जलेनवरकन्यासहितखट्वांसव्येन वेष्टनंकुर्यात् ततः सपत्नीकोयजमानः खट्वापश्चिमभागेपूर्वाभिमुखःसन् कन्यावरक्षिप्तधा न्यानिगृहीगृह्णीयात्सबांधवैः ॥ अथधान्यप्रक्षेपे
मंत्रः॥ॐविश्वामित्रोजमदग्निर्वशिसिष्टोगौतमस्तथा । कश्यपोत्रिर्भरद्वाजोविष्णुब्रह्मादयश्चये ।तेसर्वेत्वां प्रयच्छंतुधनधान्यादिसंपदम् १ ॐसनकः सनंदनाद्याश्चधेनवोमातरस्तथा । देवाः सर्वेप्रयच्छंतुधनंधान्यं सदागृहे २ चिरंजीवतुमेमाता चिरंजीवतुमेपिता । चिरंजीवतुमेभ्राता चिरंजीवंतुबांधवाः ३ ॐदिवारक्षतुसूर्योयं रात्रौरक्षतुचंद्रमाः । वंशंरक्षतुभौमश्च धनधान्यादिसंपदाम् ४ पितृवंशंबुधोरक्षेत् मातृवंशंगुरुस्तथा । बंधुवर्गचरक्षॆत्तुभृगुदत्यपुरोहितः ५ अश्विन्यादीनिऋक्षाणि योगाविष्कंभकादयः । तिथयः प्रतिपद्याद्याः शुभंयच्छन्तुतेसदा ॥ ६ ॐ तेजोवृद्धिर्यशोवृद्धिर्वंशवृद्धिस्तथैवच \। लोककीर्तिर्भवेत्तात धनधान्यंसदागृहे ॥ ७ ॥ ॐगंगाद्याः सरितः सर्वाः शोणाद्याश्चनदास्तथा । कृतंपापं प्रशाम्यंतु प्रयच्छन्तुसुखंचते ॥ ८ ॥ ततोयजमानः श्रीसूर्यायार्घ्यंदद्यात् \।\। इतिखट्वादानविधिः ॥
( अथगोत्रोच्चारणम् )
ॐ श्रीमत्पंकजविष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोनलश्चंद्रोभास्करवित्तपालवरुणाः प्रेताधिपाद्याग्रहाः प्रद्युम्नो नलकूबरौ सुरगजश्चिंतामणिः कौस्तुभः स्वामीशक्तिधरश्वलांगलधरः कुर्वन्तु वो मंगलम्
१ ॥ श्लोकान्तेगोत्रोमुच्चारयेयुः ३ गौरीश्रीकुलदेवताचसुभगाभूमिः प्रपूर्णाशुभा सावित्रीचसरस्वती चसुरभिःसत्यव्रतारुंधती \। स्वाहाजाम्बुवती चरुक्मभगिनी दुःस्वप्नविध्वंसिनी वेलाचांबुनिधेःसमीनमकराः कुर्वंतुवोमङ्गलम्॥ २॥ गंगा सिंधु सरस्वतीच यमुनागोदावरीनर्मदा कावेरी सरयूर्महेंद्रतनया चर्मण्वती वेदिका ।क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता च यागंडकी पुण्याःपुण्यजलैः समुद्रसहिताःकुर्वंतुवोमङ्गलम् ॥ ३ ॥ लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वंतरिश्चंद्रमाधेनुः कामदुघा सुरेश्वरगजो रंभाचदेवांगना \।\। अश्वःसप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोविपं चांबुधे रत्नानीतिचतुर्दशप्रतिदिनं कुर्वन्तुवोमङ्गलम् ॥ ४ ॥ ब्रह्मावेदपतिः शिवः पशुपतिः सूर्योग्रहाणांपतिःशक्रोदेवपतिर्हविर्हुतपतिःस्कंदश्च सेनापतिः । विष्णुंर्यज्ञपतिर्वलीरधः पतिःशक्तिःपतीनांपतिः सर्वेतेपतयः सुमेरुसहिताः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥ ५ ॥ इतिसर्वोपयोगिगोत्रोच्चारणं \। इतिश्री गौतमान्वयालंकृत ( शोरि ) दैवज्ञममार्य श्रीदुनिचंद्रसंगृहीतं संकल्पप्रकरणं समाप्तं शुभं भूयात् ॥ अथ निबाहुररामटीकायाम् ।कन्यासंकल्पविधिः ॥ हरिःॐम् ॥ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः पुनातु अद्यतत्सत्ब्रह्म अथानन्तवीर्यस्य श्रीमदादिनारा
यणास्याऽर्चित्यापरिमिताऽनंतशक्तिसमन्वितस्य स्वकीयमूलप्रकृतिपरमशक्त्याप्रीक्रडमानस्य सच्चिदानन्दसन्दोह- स्वरूपेस्वात्मनिसर्वाधिष्ठाने स्वाज्ञानकल्पितानां महाजलौघमध्ये परिभ्रम्यमाणानामनेककोटि ब्रह्माण्डानामेकतमेऽ- स्मिन्ब्रह्माण्डेऽव्यक्तमहदहङ्कारपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादिभिर्दशगुणोत्तरैरावरणैरावृते आधारशक्ति श्रीकूर्मवराहधर्मान- न्ताष्टदिग्गजादिप्रतिष्ठितेऐरावतपुण्डरीक वामनकुमुदाऽञ्जन पुष्पदन्तसार्वभौम सुप्रतीकाख्याष्टदिग्दन्तिशुण्डादण्डो- त्तण्डितैद्ब्रह्माण्डखण्डयोरन्तर्गतभूर्लोकभुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोकजनलोक तपोलोक सत्यलोकाख्यानां सर्वज्ञसर्वशक्ति- समन्वित सर्वोत्तम सर्वाधिपश्रीचतुर्मुखप्रभृतिस्वस्वलोकाधिष्ठातृपुरुषाधिष्ठितानामधोभागेफणिराजस्य शेषस्य सहस्रफणामण्डलैकफणोपरि सर्षपैककणायमानमहीमण्डलान्तर्गतातलवितल सुतलतलातलरसातलमहातलपातालानां स्वस्वाधिष्ठात्रधिष्ठितानामुपरितनेसुमेरुमंदिरमन्दराचल निषध हिमगिरि शृङ्गवद्धेमकूट दुर्द्धर पारियात्र शैल महाशैलमहेंद्र सह्याद्रि मलयाचल विंध्यर्ष्यमूक चित्रकूट मैनाकमानसोत्तर त्रिकूटोदयाचलास्ताचलपर्य्यन्तानेकाभिधाना- द्रिगणप्रतिष्ठितायां ज ९
म्बू प्लक्ष शाल्मली कुश क्रौञ्च शाक पुष्कराख्य सप्तद्वीपवत्यां लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिक्षीर शुद्धोदकाख्यसप्तसागरसमन्वितायां समस्तभूरेखायां कमल कदम्ब गोलकाकारायां वर्तमाने कुवलयकोशान्तर्गतदलवद्विराजमाने उत्तरकुरुहिरण्मयरम्यकभद्राश्व केतुमालेलावृत हरिवर्ष किम्पुरुष भारताख्यनवखण्डवति जम्बुद्वीपे सर्वेभ्योप्यतिरिक्तसारवति देवादिभिरप्यभीष्टसुकृतक्षेत्रभूतहेतुनाभिल षिततमेअङ्ग वङ्ग कलिङ्ग कालिंग काम्बोजसौवीर सौराष्ट्र महाराष्ट्र बङ्गालोत्कल मगध मालव नेपाल केरल चोरल गौड मल पाञ्चाल सिंहल मत्स्य द्रविड द्राविड कर्णाट राटव शूरसेन कौङ्कण टोंकण पाण्डच पुलिंघ्र्यान्ध्र्यद्रौण दशार्ण विदेहविदर्भ मैथिल कैकय कोशल कुन्तल मैन्ध्रुव जावल सार्वसिन्धु शालभद्र मध्यदेश पर्वत काश्मीर पुष्टाहार सिंधु पारसीक गान्धार वाल्हीक ( हूण ) प्रभृतिबहुविधदेशविशेष संपन्ने दण्डकारण्य महारण्या द्वैतारण्य कामुकारण्य सैन्धवारण्य प्रभृत्यनेकारण्यवति श्रीगंगा यमुना सरस्वती गोदावरी नन्दालकनन्दा मन्दाकिनी कौशिकी नर्मदा सरयू कर्मनाशा चर्मण्वति क्षिप्रा वेत्रवती कावेरी फल्गु मार्कण्डेय रामगंगा शतद्रु विपाशैरावती चन्द्रभा
प्रकरणम् ४
गा वितस्ता सिन्धु दृषद्वती प्रभृत्यनेकनदनदीव ति कुरुक्षेत्र हरिद्वार क्षेत्रमाल क्षेत्रादि बहुक्षेत्रान्विते भारतखण्डे तत्रापि मध्यरेखाकुरुक्षेत्रादमुकदिग्भागे अमुकनदीमध्ये श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशेकलौयुगे कलिप्रथमचरणे आर्यावर्ते पुण्यबृहस्पतिक्षेत्रे शुभसंवत्सरेऽस्मिन्नमुकायनगतसूर्येअमुकार्तवाऽमुकमासेऽमुकपक्षेऽमुकतिथावमुकवासरे यथायोगकरणमुहूर्ते वर्तमाने चंद्रताराऽनुकूलेपुण्येऽहनि अमुकगोत्रस्य अमुकसूत्रिणोऽमुकशर्मणः प्रपौत्राय ।अमुकगोत्रस्य यथोक्तप्रवरस्याऽमुकवेदिनोऽमुक शाखिनोऽमुकसूत्रिणोऽमुकशर्म्मणः पौत्राय २ अमुकगोत्रस्य यथोक्त- प्रवरास्याऽमुकवेदिनोऽमुक शाखिनोऽमुक मूत्रिणोऽमुकशर्म्मणः पुत्राय ॥ ३ ॥ अमुकगोत्रस्य यथोक्तप्रवर- स्याऽमुकवेदिनोऽमुक शाखिनोऽमुकसूत्रिणोऽमुक शर्मणः प्रपौत्रीं१ अमुकगोत्रस्य यथोक्तप्रवरस्य अमुकवेदिनोऽमुक सूत्रिणोऽमुकशर्म्मणः पौत्रीं२ अमुकगोत्रस्यामुऽकवेदिनोेऽमुकशाखिनोऽमुकसूत्रिणोऽमुकशर्मणः पुत्रीं ३ इत्येवंगोत्र- प्रवरादिनिरूपणपूर्वकप्रपितामहादिसंज्ञासंबंधकथनं त्रिरावर्त्य ३ अमुकगोत्राय यथोक्तप्रवरायाऽमुकवेदिनेऽमुकशा
खिनेऽमुकसूत्रिणे अमुकशर्मणे ब्राह्मणाय वराय अमुकगोत्रांयथोक्तप्रवराममुकनाम्म्रीमिमां यथाशक्त्यालंकृतां महद्वस्त्रद्वयावृतां विवाहदीक्षितां प्रजापतिदैवतकां गङ्गावालुकाभिः सप्तर्षिमण्डलपर्यन्तराशीकृतरेणुपुञ्जस्य मध्याद्वर्षस्हस्रावसाने एकैकवालुकापकर्षणेन सर्वाचालुकापकर्षण संम्मितकालपर्यन्तं सूर्यलोकनिवाससिद्ध्यर्थ- यवैश्चन्द्रमण्डलपर्यन्तं कृतएव राशितो वर्षसहस्रावसाने एकैक यवापकर्षणेन सर्वयवापकर्षण संम्मितकाल पर्यन्तं चंद्रलोक निवास सिद्धयर्थंमाषैध्रुवमण्डलपर्यन्तंराशीकृतमाषॆभ्यो वर्षसहस्राव्साने एकैकमाषापकर्षण संमितकालं यावद्विष्णुलोक रुद्रलोक ध्रुवलोक निवास सिद्धयर्थं गन्धर्वाप्सरोगण मण्डित हंसपारावत शुकसारिकारुतनादित किङ्किणीशतसमलंकृत दिव्यविमानेन मनोऽभिलषित देशगमनपूर्वक गिरि नदी नद सिंधुद्वीप दिव्यदेश नन्दन चैत्ररथ प्रभृति स्थानेषु स्वाभिलषित भोग्य विषयोपभोगार्थंमयासह दशपूर्वेषां दशावरेषां मद्वंश्यानामग्निष्टोमातिरात्रवाजपेय पुण्डरीकाश्वमेध ऋतुशतफलजन्य ब्रह्मलोक निवासार्थंपत्नीत्वेन तुभ्यमहं संप्रददे ॥ इतिशंखावस्थितद्रव्ययुत जलेन सह कन्याहस्तं ( सांगुष्ठं )
वरहस्ते दद्यात् ॥ इतिनिवाहुरामटीकाधृत कन्या संकल्पविधानम् ॥ श्रीः ॥ अथ संस्कारभास्करोक्तः संक्षेपतः कन्यासंकल्पः ततोदाता स्वदक्षिणे पत्न्यासह वरदक्षिणपार्श्व भागे शुभासने उदङ्मुख उपविश्य आचम्य प्राणानायम्य संवत्सरादि क्षेत्रादि देशकालौसंकीर्त्य एवं गुणविशेषेणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अस्मिन्पुण्याहे अस्याः कन्याया अनेनवरेण धर्मप्रजया उभयोः वंशयोर्वंशवृद्धयर्थं तथाच मम समस्तपितृणांनिरतिशयसानंद ब्रह्मलोकावाप्त्यादि कन्यादानकल्पोक्त फलावातये अनेनवरेण अस्यां कन्यायामुत्पादयिष्यमाण संतत्या दशपूर्वान्दशावरान्मांचएकविंशति पुरुषानुर्द्धर्तुंब्राह्मविवाहविधिना श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये कन्यादानमहं करिष्ये इति ॥ अत्र सर्वसंकल्पादिषु शर्म इत्यस्यस्थाने क्षत्रियवैश्यविवाहे वर्मन् गुप्तक्रमेण कथनम् ॥ यत्र अद्येत्यादि ० दृश्यते तत्रपूर्वमुक्तंसर्वं योजनीयम् ॥ गोत्रोच्चारणं श्लोकान्ते संकल्पविहितं प्रपितामह पूर्विकावंशसंख्या कथनीया इति परिभाषा ॥ अनुक्तंश्लोकतः सर्वंज्ञातव्यम् ॥ श्रीः ॥ अथ त्रैवर्णिकानां पूजनार्थं शुक्लयजुर्वेदोक्तं सुस्वरसहितं नवग्रहमंत्रविधानं लिख्यते ॥
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अथ सूर्यकण्डिका
आकृष्णेनुरज॑सा॒वर्तमानोनिवेश य॑न्न॒मृतुम्मर्त्यञ्च ॥
हिर॒ण्यये॑नस वि॒तारधे॒नादे॒वोया॑ति॒भुव॑नानि॒प श्यन् ॥ १ ॥ *
॥ अथ चंद्रमःकण्डिका ॥
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इ॒मन्दैवा असपुत्न सु॑वसम्महुतेक्षत्राय॑मह॒तेज्यैष्ठ्याय मह॒तेजान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑ ॥ इ॒ममुमुष्यं पुत्रमुमुण्यै पुत्रम॒स्यैवि॒शऽए॒षवों मी॒राजा॒सोमो॒स्माक॑म्ञाह्म॒णाना छंराजां ॥ २ ॥
अथ भौमकण्डिका
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अ॒ग्निर्मूर्द्धादि॒वः कुकुत्पति॑÷पृथि॒
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व्याऽअ॒यम् । अ॒पारेता सिजि न्न्वति ॥ ३ ॥
अथ बुधकण्डिका
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उद्बुद्ध्यस्वाग्ने॒प्प्रति॑जागृहि॒त्वमिष्टापूर्तेस-सृ॑जेथाम॒यञ्च ॥
अ॒स्मिन्त्स॒धस्थेऽध्युत्त॑रस्मि॒न्न्विश्वे॑दे्वायज॑मानश्चसीदत ॥ ४ ॥
अथ बृहस्पतिकण्डिका
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बृह॑स्पते॒ऽअति॒यदर्य्योऽअर्हाद्युमद्विश्राति॒क्रतु॑म॒ज्जने॑षु ॥
यहीदयच्छवसऽऋतप्रजाततदुस्मासु॒द्रविणन्धेहिचि॒त्रम् ॥ ५॥
अथ शुक्रकण्डिका
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अन्ना॑त्परि॒स्रुतो॒रस॒म्ब्रह्म॑णा॒ध्य॒पि
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बत्क्ष॒त्रम्पयःसोम॑म्प्र॒जाप॑तिः ॥
ऋ॒तेन॑स॒त्यमि॑न्द्रि॒य॑ति॒पान॑७शुक्क्र
मन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दम्पयो॒मृतुम्मधु॑ ॥ ६ ॥
अथ शनिकण्डिका
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शन्नो॑दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ऽआपोभवन्तु्पीतये॑ । शय्ँयो र॒भिस्व॑वन्तुनः ॥ ७ ॥
अथ राहुकण्डिका
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कयानश्चि॒त्रऽआश्रुवदूतिसदावृ॑धः
सखां। कया॒शचि॑ष्ठयावृता ॥८॥
अथ केतुकण्डिका
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के॒तुङ्कृण्वन्न॑के॒तवे॒पेशोमर्य्याअपेश
से । समुपद्भिरजायथाः॥ ९ ॥ इति ॥
यश्चयस्य यदातुष्टः सतंयत्नेन पूजयेत् । ब्रह्मणै षांवरोदत्तः पूजिताःपूजयिष्यत ॥ ग्रहाधीना नरें
द्राणामुच्छ्रायाः पतनानिच ॥ भावाऽभावौच जगतस्तस्मात्पूज्यतमाग्रहाः इति याज्ञवल्क्यस्मृतौ प्रथमाध्याये ग्रहशांति प्रकरणे उक्तम् । अतः षोडशोपचारैर्गणपत्यादिन्संपूज्य विशेषेण पूजनीयाः ॥ सन्तुष्टाः सन्तश्चतेअनिष्टान् शमयंति ॥ ३ ॥ प्रार्थनेयं विष्णुदत्तस्य \।\।
अथ
षोडशोपचाराणि ज्ञानमालायामुक्तानि ॥ तद्यथा आवाहनम् १ आसनं २ पाद्यं ३ अर्घ्यं ४ आचमनीयम् ५ स्नानम् ६ वस्त्रम् ७ यज्ञोपवीतम् ८ गंधम् ९ पुष्पम् १० धूपम् ११ दीपम् १२ नैवेद्यं मध्ये पानीयं उत्तरापोशनं हस्तप्रक्षालनं मुखप्रक्षालनं १३ ताम्बूलम् १४ दक्षिणा १५ नमस्कारम् १६ ॥ इति षोडशोपचाराणि एवं गणपत्यादीन्सर्वान्पूजयेत् ॥ अभावेद्रव्यस्य यथाशक्त्योपलब्धवस्तुभिः पुष्पाक्षतादिभिः श्रद्धायुक्तः पूजयेत् \।\।
अथ नवग्रह मङ्गलाष्टकानि ॥ भास्वान्काश्यपगोत्रजोऽरुणरुचिर्यः सिंहराशीश्वरः षट्त्रिस्थोदशशोभनो गुरुशशीभौमेषुमित्रंसदा । शुक्रोमन्दरिपुः कलिङ्गजनितश्चाग्नीश्वरों देवते मध्ये वर्तुलपूर्वदिग्दिनकरः कुर्यात्सदामङ्गलम् ॥ १ ॥ चन्द्रः क
र्कटकप्रभुः सितनिभश्चात्रेयगोत्रोद्भव श्चाग्नेय्यांश्चतुरस्रुवारुमुखश्चापोप्युमाधीश्वरः । षट् सप्ताग्नि दशैकशोभनफलो नोरिर्बुधार्कप्रियःस्वामी यामुनदेशजो हिमकरः कु० ॥ २ ॥ भौमोदक्षिणदिक्त्रिकोण यमदिक् विघ्नेश्वरो रक्तभःस्वामी वृश्चिकमेषयोः सुरुगुरुश्चार्कःशशीसौहृदः । ज्ञोरिः षट् त्रि फलप्रदश्च वसुधास्कन्दौ क्रमाद्देवते भारद्वाजकुलो द्रवःक्षितिसुतः कुर्या० ॥ ३ ॥ सौम्योदङ्मुख पीतवर्ण मगधश्चात्रेयगोत्रोद्भवो बाणेशानदिशःसुत्हच्छनिभृगुः शत्रुः सदाशीतगुः \। कन्यायुग्मपतिर्दशाष्टचतुरः षण्नेत्रगः शोभनो विष्णुःपौरुष देवते शशिसुतःकुर्या० ॥ ४ ॥ जीवश्चाङ्गिरगोत्रजोत्तरमुखो दीर्घोत्तरासंस्थितः पीताश्वत्थसमिच्चसिन्धुजनितश्चापोऽथमीनाधिपः । सूर्येन्दुक्षितिजप्रियोबुधसितौ शत्रू समाश्चाःपरे सप्ताङ्कद्विभवः शुभःसुरगुरुः कुर्या० ॥ ५ ॥ शुक्रोभार्गवगोत्रजः सितनिभः प्राचीमुखः पूर्वदिक्पञ्चाङ्गोवृषभस्तुलाधि- पमहाराष्ट्राधिपोदुम्बरः । इन्द्राणीमघवानुभौबुधशनीमित्रार्क चन्द्रौरिपूषष्ठोद्विर्दशवर्जितोभृगुसुतः कुर्या० ॥६॥ मन्दः कृष्णनिभस्तुपश्चिममुखःसौराष्ट्रकः काश्यपःस्वामीमकरकुम्भयोर्बुधसितौमित्रेसमश्चाङ्गिराः॥ स्थानं पश्चिमदिक्प्रजापति यमौदेवधनुष्यासनः षट्त्रिस्थः
शुभकृच्छनीरविसुतःकुर्या० \।\।७\।\। राहुः सिंहलदेशजश्चनिर्ऋतिःकृष्णाङ्गशूर्पासनो यः पैठीनसिसम्भवःश्च समिधोदूर्वामुखोदक्षिणः । यः सर्पाद्यधिदेवतेचनिर्ऋतिप्रत्याधिदेवः सदाषट्त्रिस्थः शुभकृच्चसिंहिकसुतः कुर्या० ॥ ८ ॥ केतुर्जैमिनिगोत्रजः कुशसमिद्वायव्यकोणेस्थितश्चित्राङ्गध्वजलाञ्छनोहिमगुहा योदक्षिणाशामुखः । ब्रह्माचैवस चित्रचित्रसहितः प्रत्याघिदेवः सदाषट्त्रिस्थः शुभकृच्चबर्बरपतिः कुर्यात्सदा मंगलम् ॥ ९ ॥ इत्यतेट्रग्रहमङ्गलाष्टनवकंलोकोपकारप्रदं पापौघप्रशमं महच्छुभकरंसौभाग्यसंवर्द्धनम् ।यः प्रातः (शुद्धः) शृणुयात्पठत्यनुदिनं श्रीकालीदासोदितं स्तोत्रंमंगलदायकंशुभकरं प्राप्नोत्यभीष्टंफलम् ॥ १० ॥ इतिनवग्रहमङ्गलाष्टकानि ॥ पारस्करगृह्यसूत्रोक्तंकुशकण्डिकासूत्रम् ॥ अथा तोगृह्यस्थालीपाकानांकर्मपरिसमुह्योपलिप्योल्लि ख्योद्धृत्याभ्युक्ष्याग्निमुपसमाधायदक्षिणतो ब्रह्मासनमास्तीर्यप्रणीयपरिस्तीर्य्याऽर्थवदासाद्यपवित्रेकृत्वाप्रोक्षणीः संस्कृत्यार्थवत्प्रोक्ष्यनिरूप्याज्यमधिश्रित्यपर्यग्निः कुर्यात्स्रुवंप्रतप्यसंमृज्याभ्युक्ष्यपुनः प्रतप्य निदध्यादाज्यमुद्वास्योत्पूयावेक्ष्य प्रोक्षणीश्चपूर्व वदुपयमनान्कुशानादाय समिधोभ्याधायपर्युक्ष्यजु
** हुयादेएषएवविधिर्यत्रक्वचिद्धोमः ॥ १ ॥ अर्थात् सर्वत्रहोमएषएवविधिर्ज्ञातव्यइति ॥**
[मंत्रार्थ आकृष्णेनेति ] सुवर्ण मय रथसे भुवना को देखताभया अर्थात् कर्मभूमिमे स्थित मनुष्यों के पापपुण्य को साक्षि होकर देखता हुआ । कृष्ण मलीन रात्रिसे वर्तमान प्रतिदिन स्तुत्य सूर्यभगवान देवता ओंको और मनुष्यो को परस्पर व्यापार मे प्रेरता हुआ उदय को प्राप्त होता है ।
[मंत्रार्थ इमंदेवाइति ] इहा इम शब्दसे प्रकृत होनेसे सोम कापरामर्श है ॥ संपूर्ण देवता गण इस चंद्रमा को उत्पन्न कर्ते भये । कैसे को शत्रु रहित और सौम्यसर्व प्रियको । किस प्रयोनज के लिये उत्पन्न कर्ते भये क्षत्रके लिये अर्थात् लोक पालोको राजभाव के लिये और सर्वोत्तम ताके लिये औ अतिशय युक्त को इस प्रत्यक्ष दृश्यको ( अमुं) नित्य ब्रह्म स्वरूप होनेसे परोक्ष दृश्यको । सूर्यके पुत्रको अर्थात् सूर्यकी किरणोसे चंद्रमा की वृद्धि होनेसे सूर्य पुत्र कहा जाता है ॥ अमुष्य दिशाके पुत्रको अर्थात् पूर्वंदिशासे उत्पन्न उदय होनेसे पुत्रता है। अत्रि महर्षिजी के चक्षुसे उत्पन्न तेजको दिशाने धारण किया यह पुराणोके अभिप्रायसे युक्तार्थ है \। किस लिये यह दिशाने धारण किया. ( अस्यैविशे) प्रजाके अनुग्रह अर्थात् अमृत रस की उत्पत्ति कांति आंनदके लिये ॥ ( और हय चंद्रमा हम ब्रह्मण जातिका राजा है)
(मंगलमंत्र काविनियोग)
अग्निर्मूर्द्धाइस मंत्रका विरूपाङ्गिरस ऋषि अग्नि देवता गाय
त्रीछंद अग्निके उपस्थानमे विनियुक्त है (मंत्रार्थ आभिर्मूर्द्धेति) यह भौम अत्यंत तेजवाला होने से अनिका मूर्द्ध ( मस्तक) है वा अत्यंत रक्तवर्ण होनेसे । और आकाशका ( ककुत् ) चिन्हहै । और वृष्टि कर्नैमें मुख्यहेतु होनेसे जलका वह स्वामी है (प्र० चलत्यंगारको वृष्टिरिति) अर्थ मंगलके राश्यंतर होनेसे वर्षा होती है और पृथिवीका रेत बीजरूप है अर्थात् अपनि शक्ति से पृथिवी जातको प्रीणन कर्त्ताहै (प्रमा० वृ. जा. अं. २ कालात्मा दिन कृन्मनस्तुहिनगो सत्वंकुजो ज्ञोगिरः ) अर्थात् बलका अधिष्ठाता मंगल है ॥
बुधमंत्रकाविनियोग
बुधमंत्रका परमेष्ठि ऋषि अग्निदेवता त्रिष्टुप् छंद चितिके उपस्थानमें विनियुक्त है ॥ [मंत्रार्थ] हे अग्रेउद्बुध्यस्व अर्थात् प्रकाशहो हे बुधदेव तुम हमारे कर क्रियमाण इस कर्ममें सावधानहों \।\। और बुध अग्नि तुम दोनो इष्टा पूर्त नाम यज्ञ में यजमानके संसर्गकों करें । यह ग्रहयज्ञमें ऋत्विक् की प्रार्थना है ॥ और सर्वोत्क्रृष्ट इस पूजा स्थानमे यह यजमान (और संपूर्ण देवता स्थितहो । सहोपदेनसधसाधयोश्चयो श्वेतिइस सूत्रसे सहके स्थानमें सध आदेश भया ।
बृहस्पतिकेमंत्रकाविनियोग
बृहस्पति जीके मंत्रका गृत्समद ऋषि ब्रह्मा देवता त्रिष्टुप् छंदः बार्हस्पत्य ग्रहणमे विनियुक्त है।
अर्थ हे बृहस्पति देव ऋत अर्थात् सत्य नानष्टहोनेवाली प्रजा (संतान ) द्रविण ( धन ) हमको देवों कैसा धन की जिस धनसे ईश्वर की पूजा करे और जो लोकमे प्रकाशहो औरदीप्ति युक्त जिससे यज्ञादि कर्म कि येजाय और जिस्की बलसे रक्षाकी जाय ऐसा गौऊ वस्त्र सुवणीदि रूप धनको दीजिये ॥ यहप्रार्थना वाक्य है\।\।
शुक्रजीके मंत्रका प्रजापति ऋषि अश्वि सरस्वती इंद्रदेवता जगती छंद सौत्रामणिनाम यज्ञ में पयके ग्रहण में विनियुक्तहै ॥
अर्थ प्रजापति ( ब्रह्मा ) हविरूप अन्नसे परिस्रुत रसको पान कर्ता भया \। कैसेको क्षत्रको (वा सोमरसको ब्रह्मा पानकर्ता भया ) किसद्वारा पानकर्ता भया ( ब्रह्मण )प्रपंचरहित मंत्ररूप वेदसे इस अन्नके सोमरूप रसको जो अन्नसे उत्पन्न भया (विपान ) ब्रह्माजीका विशिष्टपान वह शुक्रबीजनानाश होनेवाला ( इंद्रिय ) इंद्रियोकासार देवराज इंद्रकावीर्य्य पय क्षीर अमरमे कारण ( मधु ) पितृगणकी तृप्तिमे मुख्य हेतु होता भया । परिस्रुतं यह द्वितीयाके अर्थमे प्रथमाविभक्ती है ॥
अर्थ शनिश्वरजीके मंत्रका दध्यङ्ङाथर्वण ऋषि गायत्री छन्दजलदेवता शांतिकरणमे विनियुक्त है ।
अर्थ याज्ञवल्यादि विहित आदित्य प्रभव अपसे अभेदोपचारसे अपशब्दसे शनिका ग्रहण है (आपो देवी) शनिश्चरदेव हमारेको कल्याण हो किस अर्थके लिये वृद्धिद्वारा तृप्ति हेतू पानके लिये औ
र कल्याणके योग्य जल अभिमुखको प्राप्त हो ॥ अपशब्दको बहुवचनांत होनेसे बहुवचनांत विशेषण जानने ॥
अर्थ राहुजीके मंत्रका अग्नि ऋषि दूर्वेष्टकादेवता अनुष्टुपूछन्द दूर्व्वेष्टकाके उपधानसे विनियुक्त है ॥
अर्थ हे दूर्व्वे प्रति कांड पर्वप्रति परुष ग्रंथियुक्त सर्वतो भावसे उत्पन्नभई तुम हमारेको शतसहस्र संख्यका पुत्रपौत्रादिसे विस्तृत करों।
अथ केतुजीके मंत्रका मधुछंद ऋषि अनिदेवता निरुक्ता गायत्री छंद केतुके अभिमंत्रणमे विनियुक्त है \।
अर्थ हे केतुदेव ध्वजरूपको तुम प्राप्त हो किनसे जन्यमान गृहस्थियोसे क्या कर्ता भया मनुष्योको केतुज्ञानको कर्ता हुवा.और (पेश ) सौंदर्य और सुवर्णको कर्ता भया ॥ निघंटुः -प्रमाण पेशकारी पशसो मात्रामापादयेदिति ॥ कैसे मनुष्योकों जो अज्ञानि और निर्धन कुरूप उन्को सुवर्ण रूप सौंदर्य देता भया ॥ कित ज्ञाने इस धातुका केतु रूप है ॥ अकेतवे अपेशसे यह बहुवचनमे एकवचन है \।\।
अथपारस्कर गृह्यसूत्रे प्रथमकाण्डे विवाहसूत्रम् \।\।
तद्यथा
आवसत्थ्याधानंदारकालेदायाद्यकालएकेषांवैश्यस्यबहुपशोर्गृहादग्निमात्हत्यचातुष्प्राश्यपचनवत्सर्वमरणिप्रदानमेकेपंचमहायज्ञाइतिश्रुतेरग्न्याधेयदेवताभ्यःस्थालीपा
क्^(ँ)श्रपयित्वाऽज्यभागावष्टाज्याहुतीर्जुहोति ॥ त्वन्नोऽ आग्नेसत्वन्नोऽअग्नेऽइमंंमेवरुण तत्वायामि येतेशत मयाश्चाग्नऽउदुत्तमं भवतन्न इत्यष्टौ पुरस्तादेवमुपरिष्टात्स्थालीपाकस्याग्न्याधेयदेवताभ्योहुत्वाजुहोतिस्विष्टकृतेचाया स्याग्नेर्वषट्कृतं यत्कर्म्मणोत्यरीरिचं देवागातुविदइति बर्हिर्हुत्वा प्राश्नाति ॥ ततोत्राह्मणभोजनम् ॥ २ ॥ षडर्घ्याभवन्त्याचार्यऽऋत्विग्वैवाह्योराजाप्रियः स्रातकइति प्रतिसम्वत्सरार्हयेयुर्यक्ष्यमाणास्त्वृत्विज आसनमाहार्याह साधुभवानास्तामर्चयिष्यामोभवन्तमित्याहरंतिविष्टरंपाद्यंपादार्थमुदकमर्घ्यमाचमनीयं मधुपर्कंदधिमधुघृतमपिहितंका^(ँ)स्येका^(ँ)स्येनान्यस्त्रिस्त्रिः प्राह, विष्टरादीनि विष्टरं प्रतिगृह्णाति वर्ष्मोस्मिसमानानामुद्यतामिवसूर्यः । इमन्तमभितिष्ठामि योमाकश्चाभिदासतीत्येनमभ्युपविशतिपादयोरन्यंविष्टर आसीनायसव्यंपादम्प्रक्षाल्यदक्षिणप्रक्षालयति ब्राह्मश्चेद्दक्षिणं प्रथमं विराजोदोहोसिविराजोदोहमशीयमयिपाद्यायै विराजोदोहऽइत्यर्घंप्रतिगृह्णात्यायस्थयुष्माभिः सर्वान्कामान्नवाप्रवानीति निनयन्नभिमंत्रयतेसमुद्रंवःप्रहिणो मिस्वांयो निमभिगच्छतअरिष्टास्माकंवीरामापरासेचिमत्पयऽइत्याचामत्यामागन्यशसास^(ँ)सृजवर्च्चसातंमाकुरु प्रियं प्रजानामधिपतिंपशूनामरिष्टिंतनूनामिति मित्रस्यत्वेतिमधुपर्कप्रतीक्षते देवस्यत्वेति प्रतिगृह्णातिसव्येपाणौक्कृत्वादक्षिणस्यानामिकयात्रिःप्रयोतिनमःश्यावास्यायांनशनेयत्तऽआ
विद्धंतत्तेनिष्कृन्तामीत्यनामिकाङ्गुष्ठेनचत्रिर्निरुत्क्षपयतितस्यत्रिःप्राश्नाति यन्मधुनोमधव्येनपरमेणरूपेणान्नाद्येनपरमो मधव्योन्नादो सानीतिमधुमतीभिर्वाप्रत्यृचंपुत्रायान्तेवासिनेवोत्तरतऽआसीनायोच्छिसष्टंदद्यात्सर्वम्वाप्राश्नीया त्प्राग्वासंचरे निनयेदाचम्यप्राणानसंमृशति वाङ्मऽआ स्येनसोःप्राणोक्ष्णोश्चक्षुःकर्णयोः श्रोत्रंबाह्वोर्बलमूर्वोरोजोरिष्टानिमेंगानितनू- स्तन्वामेसहेत्याचांतोदकायशासमादायगौरितित्रिः प्राहप्रत्याहमातारुद्राणांदुहितावसूना^(ँ)स्वसादित्यानाम मृतस्यनाभिः ॥ प्रनुवोचंचिकितुषेजनायमागामनागामदितिवधिष्ट॥ ममचामुष्यचपाप्माहन^(ँ)हनोमीति यद्यालभेतययुत्सिसृक्षेन्ममचामुष्यचपाप्माहतः । ओमुत्सृजततृणान्यत्त्वितिब्रूयान्नत्वेवामा^(ँ)सोर्घःस्यादधियज्ञ
मधिविवाहं- कुरुतेत्येवब्रूयाद्यद्यप्यसकृत्संवत्सरस्यसोमेनय जेतकृतार्घ्याऽएवैनंयाजयेयुर्नाकृतार्घ्यइतिश्रुतेः ॥ ३ ॥ चत्वारः पाक यज्ञाहुतोऽहुतः प्रहुतः प्राशित ऽइतिपंचसुबहिः शालायां विवाहेचूडाकरणऽउपनयनेकेशान्तेसीमन्तोन्नयनऽ इत्युपलिप्तउद्धतावोक्षितेग्निमुप समाधायनिर्मंन्थ्यमेकेविवाहाऽउदगयनऽ आपूर्यमाणपुण्याहे कुमार्याः पाणिंगृह्णीयात्रिषु त्रिषूत्तरादिषुस्वातौमृगशिरसिरोहिण्यांवातिस्रोब्राह्मणस्यवर्णानुपूर्व्येणद्वे राजन्यस्यैकावैश्यस्यसर्वेषा^(ँ)शूद्राणामप्येके मंत्रवर्ज्यमथैनां वासःपरिधापयति जरांगच्छपरिधत्स्ववासो भवाकृष्टीनामभिशस्तिपावा ॥ शतञ्चजीवशरदः सुवर्च्चारयिं
१०
चपुत्राननुसंव्ययस्वायुष्मतीदंपरिधत्स्ववासऽइत्यथोत्तरीयंयाऽअकृतन्नवयंयाऽअतन्वतयाश्चदेवीस्तंतूनभितोततंथतास्त्वादेवीर्जरसेसंव्ययस्वायुष्मतीदंपरिधत्स्ववासऽइत्यथैनौसमंजयंतिसमञ्जन्तुविश्वेदेवाः समापोहृदयानिनौ। सम्मातरिश्वासं धातासमुदेष्ट्रीधातुनावितिपित्राप्रत्तामादायगृहीत्वानिष्कामतियदैपिमनसदूरंदिशोनुपवमानोवा॥हिरण्यपर्णॊवैकर्णः सत्वामन्मनसांकरोत्वित्यसावित्यथैनौसमीक्षयत्यघोरचक्षुरपतिघ्न्येधिशिवापशुभ्यःसुमनाःसुवर्च्चाः॥वीरसूर्द्देवकामास्यो नाशन्नोभवद्विपदेशञ्चतुष्पदे॥सोमः प्रथमोविविदेगंधर्वोविविदऽउत्तरः।तृतीयोऽअग्निष्टेपतिस्तुरीयस्तेमनुष्यजाः॥ सोमोददद्गंधर्वायगंधर्वोदददग्नये ।रयिं चपुत्रांश्चादादग्निर्मह्यमथोइमाम् ॥ सानः पूषाशिवतमामेरय सानऽऊरूउशती विहरयस्यामुशंतःप्रहरामशेपं यस्यामुकामाबहवोनिविष्टया इति॥४॥प्रदक्षिणमग्निं पर्य्याणोयैकेपश्चादग्नेस्तेजनींकटंवा दक्षिणपादेनप्रहृत्योपविशत्यन्वारब्धआघारावाज्यभागौमहाव्याहृतयः सर्वप्रायश्चित्तंप्राजापत्य^(ँ)
स्विष्टकृच्चैतन्नित्य^(ँ)
सर्वत्र प्राङ्महाव्याहृतिभ्यःस्विष्टकृदन्यच्चेदाज्याद्धविः सर्वप्रायश्चित्तंप्राजापत्यान्त रमतेदावापस्थानं विवाहे राष्ट्रभृतइत्थं जयाभ्यातानांश्चजा नन्येनकर्मणेच्छेदितिवचनाच्चित्तंचचित्तिञ्चाकूतञ्चाकूतिश्च विज्ञातंचविज्ञातिश्च मनश्वशक्वरश्च दर्शश्चपौर्णमासं चबृहच्चरथन्तरंचप्रजापतिर्ज्जयानिंद्राय वृष्णेप्रायच्छदुग्रः पृत
नाजयेषु । तस्मैविशः समनमंतः सर्वाः स उग्रः सइहव्योवभूवस्वाहत्यग्निर्भूतानामधिपतिः समावत्विन्द्रोज्येष्ठानांयमः पृथिव्या वायुरन्तरिक्षस्य सूर्य्योदिवश्चंद्रमानक्षत्राणां बृहस्पतिर्ब्रह्मणो मित्रःसत्यानां वरुणोपा समुद्रःस्रोत्यानामन्न ५ साम्राज्यानामधिपतिस्तन्मावतुसोमओषधीना सविताप्रसवाना ५ रुद्रः पशूनां त्वष्टारूपाणां विष्णुः पर्वता नांमरुतोगणानामधिपतयस्तेमावन्तुपितरःपितामहाः परेवरेततस्ततामहाः । इहमावन्त्वस्मिन्त्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्या ५ स्वादेति सर्वत्रानुपज्जत्यग्निरैतुप्रथमोदेवताना ५ सोस्यैप्रजांमुअतुमृत्युपाशात् ॥ तदय राजावरुणोनुमन्यतांयथेयं स्त्रीपौत्रमघन्नरादोत्स्वा ०॥ इमामग्रिस्त्रायतांगार्हपत्यःप्रजामस्यैनयतुदीर्घमायुः। अशून्योपस्थाजीवतामस्तुमातापौत्रमानंदमभिविबुध्यतामियर स्वाहा \। स्वस्तिनो अग्नेदिवापृथिव्याविश्वानिधेह्ययथायदत्र यदस्यांमहिदिविजातंत्रशस्तंतदस्मासुद्रविणंधेहिचित्र- स्वाहा ॥ सुगनुपन्थांप्रदिशन्न एहिज्योतिष्मद्धेयजरन्न आयुः । अपैतुमृत्युरमृतंम आगाद्वैवस्वतोनोअभयंकृणोतुस्वाहेतिपरंमृत्यवितिचैकेप्राशनान्ते ॥ ५ ॥ कुमार्याभ्राताशमीपलाशमिश्राल्ँलाजानंजलिनाञ्जलावावपतितांजुहोतिसं हतेन तिष्ठत्यर्यमणंदेवंकन्या अग्निमयक्षत सनोअर्यमा देवःप्रेतोमुञ्चतुमापतेस्वाहा \। इयन्नायुपवतेलाजानावपतिका \। आयुष्मानस्तुमे
पतिरेधन्तां ज्ञातयोममस्वाहा ॥ इमाल्ँलाजानावपाम्यग्नौसमृद्धिकरणं तव । ममतुभ्यञ्चसंवननंतदग्निरनुमन्यतामियँस्वाहा ॥ इत्यथास्येदक्षिणँहस्तंगृह्णातिसांगुष्ठं गृभ्णामिते सौभगत्वायहस्तंमयापत्याजरदष्टिर्यथासः । भगो अर्यमासवितापुरंधिर्मह्यन्त्वा दुर्गार्हपत्यायदेवाः ॥ अमोहमस्मिसात्वँसात्वमस्यमोऽअहं । सामाहमस्मिऋत्कंद्यौरहंपृथिवीत्वं । तावेहिविवहावहैसहरेतोदधावहै । प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विद्यावहैबहून् । तेसन्तुजरदष्टयः संप्रियौ रोचिष्णूसुमनस्यमानौ । पश्येमशरदःशतंजीवेमशरदःशतँशृणुयामशरदः शतमिति ॥ ६ ॥ अथैनामश्मानमारोहयत्युत्तरतोग्नेर्दक्षिणपादेनारोहेममश्मानमश्मेवत्वँस्थिरा भव । अभितिष्ठपृतन्यतोवबाधस्वपृतनायतऽइत्यथगाथां गायति सरस्वतिप्रेदमवसुभगेवाजिनीवति । यांत्वाविश्वस्य भूतस्यप्रजायामस्याग्रतः । यस्यांभूतँसमभवद्यस्यांविश्वमिदंजगत् \। तामद्यगाथांगास्यामियास्त्रीणामुत्तमंयश इत्यथ परिक्रामतस्तुभ्यमग्नेपर्यवहत्सूर्यावहतुनासह ॥ पुनः पतिभ्यो जायांदाग्नेप्रजयासहेत्येवंद्विरपरं लाजादिचतुर्थँशूर्पकुष्टया सर्वालाजानावपतिभगायस्वाहेतित्रिः परिणीतांप्राजापत्यँहुत्वा ७ अथैनामुदोची ँसप्तपदानिप्रक्रामयत्ये कमिषेद्वेऊर्ज्जेत्रीणिरायस्पोषायचत्वारिमायोभवायपंचपशुभ्यः षडृतुभ्यःसखे सप्तपदाभवसामामनुव्रताभवविष्णुस्त्वानयत्वितिसर्वत्रानुपज्जति निष्क्रमणप्रभृत्युदकुंभँस्कंधेकृ
त्वा दक्षिणतोग्नेर्वाग्यतः स्थितोभवत्युत्तरत एकेषां तत एनांमूर्द्धन्यभिषिंचत्यापः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्तेकृण्वन्तुभेषज-मित्यापोहिष्ठेतिचतिसृभिरथैनाँ-सूर्यमुदीक्षयतितच्चक्षुरित्यथास्यैदक्षिणाँ-समधिहृदयमा-लभतेममव्रतेते-हृदयंदधामिममचित्तमनुचित्तंते अस्तु। ममवाचमेकमनाजुषस्वप्रजापतिष्ठा नियुनक्तुमह्यमित्यथै नामभिमत्रयते सुमङ्गलीरियंवधूरिमा ँ समेतपश्यत। सौभाग्यमस्यैदत्वायाथास्तं विपरेतनेतितांदृढपुरुष उन्मथ्यप्राग्वोदग्वानु-गुप्तागार आनडुहेरोहितेचर्मण्युपवेशयतीहगा वोनिषीदत्विहाश्वा इहपूरुषाः। इहोसहस्रदक्षिणोयज्ञ इहपूषानिषीदंत्वितिग्रामवचनंच कुर्युर्विवाहश्मशानयोर्ग्रा मंत्रप्राविशतादिति-वचनात्तस्मात्तयोर्ग्रामप्रमाणमितिश्रुतेराचार्यायं-वरंददातिगौर्बाह्मणस्य वरोग्रामोराजन्यस्या श्वोवैश्यस्या धिरथँशतंदुहितृमतेस्तमितेध्रुवंदर्शयति ध्रुवमसिध्रुवंत्वा पश्यामिध्रु-वैधिपोष्येमयिमह्यंत्वादाद्ब्रहस्पतिर्मयापत्याप्रजावती संजीवशरदः शतमिति।सायदिनपश्येत् पश्यामीत्ये-वब्रूयात्त्रिरात्रमक्षारालवणाशिनौस्यातामधः शयीयाताेँ सँवत्सरन्नमिथुनमुपेयातां द्वादशरात्रँषड्रात्रंत्रिरात्रमन्ततः॥८॥ उपयमनप्रभृत्योपासनस्य परिचरणमस्तमितानुदितयोर्द ध्नातण्डुलैरक्षतैर्वाग्नयेस्वाहा-प्रजापतयेस्वाहेति साय ँसूर्याय स्वाहाप्रजापतयेस्वाहेतिप्रातः पुमाँसौमित्रावरुणापुमाँसाश्विनावुभौ। पुमानिन्द्रश्चसूर्यश्च पुमाँ
संवर्ततांमयिपुनः स्वाहेति पूर्वांगर्भकामा ॥ ९॥ राज्ञोक्षभेदेनद्धविमोक्ष्ये यानविपर्यासेन्यस्यांवाव्यापत्तौस्त्रियाश्चोद्वहने तमेवाग्निमुपसमाधाय आज्य^(ँ)
संस्कृत्येहरतिरितिजुहोति नानामंत्राभ्यामन्यद्यानमुपकल्प्यतत्रोपवेशयेद्राजानँ
स्त्रियंवा प्रतिक्षत्रंऽइतियज्ञांतेनान्वाहार्यमिति चैतयाधुर्योदक्षिणाप्रायश्चित्तिस्ततो ब्राह्मणभोजनम् ॥ १० ॥
अथ चातुर्थ्यकर्मणिपारस्करसूत्रं
तद्यथा
चतुर्थ्यामपररात्रेभ्यन्तरतोऽग्निमुपसमाधाय दक्षिणतो ब्रह्माणमुपवेश्योत्तरतऽ उदपात्रंप्रतिष्ठप्य स्थालीपाकं ँ
श्रपयित्वाज्यभागाविष्टाज्याहुतीर्जुहोत्यग्नेप्रायश्चित्तेत्वंदेवानांप्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वानाथकाम उपधावामि यास्यैपतिघ्नीतनूस्तामस्यैनाशयस्वाहा ॥ वायोप्रायश्चिते त्वंदेवानां० यास्यै प्रजाघ्नीतनूस्तामस्यै नाशयस्वाहा ॥ सूर्यप्रायश्चित्ते त्वंदेवानां ० यास्यैपशुघ्नीतनूस्तामस्यैनाशयस्वाहा॥चंद्र प्रायश्चित्ते॰ यास्यैगृहघ्नीतनूस्तामस्यैेनाशयस्वाहा ॥ गंधर्वप्रा० यास्यैयशोघ्नीतनूस्तामस्यैनाशयस्वाहेतिस्थालीपाकस्य जुहोतिप्रजापतये स्वाहेतिदुत्वा हुत्वैतासामाहुतीनामुदपात्रे स^(ँ)
स्रवांन्त्समवनीयततऽएनांमूर्द्धन्यभिषिंचति यातेपतिघ्नीप्रजाघ्रीपशुघ्नीगृहघ्नीयशोघ्नीनिंदितातनूर्जारघ्नी ततऽएनांकरोमि- साजीर्यत्वंमयासहासावित्यथै ना^(ँ)
स्था लीपाकंप्राशयति प्राणैस्तेप्राणान्त्संदधाम्यस्थिभिरस्थी
निमा^(ँ)
सैर्मा^(ँ)
सानित्वचात्वचमितितस्मादेवंविच्छ्रोत्रियस्य दारेणनोपहसमिच्छेदत ह्येवंवित्परोभवतितामुदुह्ययथर्तुप्रवेशनंयथा कामीवा काममाविजनितोःसंभवामेतिवचनादथास्यैदक्षिणा ^(ँ)
समधिहृदयमालभते यत्तेसुशीमे हृदयं दिविचंद्रमसिश्रियं।वेदाहंतन्मांतद्विद्यात्पश्येमशरदः शतंजीवेमशरदः शत^(ँ)
शृणुयामशरदः शतमित्येवमतऊर्ध्वम् ॥ ११ ॥
इतिश्री कर्पूरस्थल निवासी गौतमगोत्र ( शोरि ) अन्वयालङ्कत दैवज्ञ दुनिचन्द्रात्मजपण्डित विष्णुदत्त वैदिक संगृहीतं चतुर्थ प्रकरणं समाप्तम् ॥ शुभमस्तुश्रीरामचंद्र प्रसादात् ॥
(समाप्तमिदंचतुर्थप्रकरणम्)
अथ पंचमप्रकरणम् ।
ॐनमोगणपतये ।
अथविवाहपद्धतिर्लिख्यते । तत्रादौ युग्मकेनमङ्गलाचरणम् \।\।
संधिविग्रहमन्त्रेन्द्रो रुद्रदेवतनूद्भवः । भूमिपालशिरोरत्नरञ्जितांघ्रिसरोरुहः ॥ १ ॥
भा०टी० ओंस्वस्ति श्रीगणेशाय नमः ॥ अथ विवाहपद्धतिकी व्याख्या भाषा में कर्तेहै ॥प्रथम (मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात्फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति ) श्रुत्यादि विहित मङ्गलाचरण कोहोनेसे
विघ्नविनाशनके लिये लिखते है \। गणेशं गुरुं पद्मनाभं महेशं कुमारं महेन्द्रं रमां शारदाञ्च ॥ ग्रहांस्तुङ्गगान्वीर्ययुक्तांस्तथैव नमस्कृत्यसर्वान्सुटीकां करोमि ॥ १ ॥ याकृता रामदत्तेन3 निवाहुरामशर्म्मणा4 । ताम्विलोक्योपकाराय सर्वेषां क्रियते मया ॥ २ ॥ व्याख्यानगिरया सैवधर्मकामार्थसिद्धिदा ।प्रहृत्यरागद्वेषौ ( च ) द्रष्टव्यासुविचक्षणैः ॥ ३ ॥ यदशुद्धमसम्बद्धमज्ञानाच्चकृतंमया । विद्वद्भिः क्षम्यतां सर्वं बालत्वादयमञ्जलिः ॥ ४ ॥ विवाहपद्धतेर्व्याख्याकृता यत्नाद्विलोक्यताम् ॥ उल्हसिष्यन्तिदुष्यन्ति्सन्तोऽसन्तश्चभूतले॥ ५॥
सन्धिविग्रहकृच्छ्रीमद्वीरेश्वरसहोदरः ।
महन्महत्तरः श्रीमान्विराजतिगणेश्वरः ॥ २ ॥ युग्मकं ॥
भा०टी० ( सन्धिविग्रह इति ) सन्धि जो परस्पर मिलावट अर्थात् मेल विग्रह अर्थात् युद्ध इन्काजो मन्त्र सम्यक् विचार तिस्मे इन्द्र ईश्वर अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धिद्वारा संधिविग्रहके यथार्थ ज्ञानमे समर्थ रुद्रदेव जो महादेव तिस्कापुत्र प्रमाण जैसे अथर्व वे० ( नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायएकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ) इति.इहा यद्यपि तनूद्भवसे और सपुत्र लियाजाता है तथापिरूढेि (प्रसिद्धि) से क्षेत्रज पुत्रमे भी वर्तताहै सरसिज ( कमल ) वत् भावयह है कि सरोवरमे जो उत्पन्नहो वह पाटलिअर्थात् गुलावजो पृथ्विपर पैदा होता है इस्कोभी कहते है ॥ सरसिज ( कमल ) अक्षरार्थ से कहा जाता है तथापि प्रसिद्धिसे
प्रमाण जैसे ( स्थलाराविन्द श्रियम् ) फिर कैसेहैभूमिपाल राजा लोक इन्कें प्रति दिनराजकार्य तिन्मे विघ्नका संदेह उसके निवृत्त कर्नेके लिये प्रणाम कररहे राजा ओंकेसे मुकट रत्नोसे विचित्रित हुऐहै चरणकमल जिनके ॥ १ ॥
(संधि इति ) तारक दैत्यके वधमे संधि विग्रह कर्णॆवाला श्रीमान् वीरेश्वर अर्थात् वीरपुरुषोंका स्वामी और युद्धमे लगाने वाला जो स्वामि कार्तिकजी इन्केभाई और महान् जो व्यास वशिष्ठादि उन्मे जो बड़े ब्रह्मादिक उनका पूज्य और गणोकास्वामि श्री गणेशभगवान् विराजमान् अर्थात् शोभता है ॥ २ ॥
( युग्मका लक्षण साहित्य दर्पणमे लिखाहै( द्वाभ्यां तुयुग्मकंज्ञेयं ) अर्थ दो लोकोसे एकार्थ कहनेसे युग्म होता है।
श्रीमतारामदत्तेनमन्त्रिणातस्यसूनुना \।
पद्धतिः क्रियतेरम्याधर्म्या वाजसनेयिनाम् ॥ ३ ॥
भा०टी० श्रीमान् शोभायुक्त संहिता पदक्रम जटा घन और वेदार्थ मे चतुर श्रीगणेशनाम कर स्वपिताके पुत्र रामदत्तजी मे शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनी शाखा वाजसनेयी संहिता कात्यायन सूत्रवाले जो त्रैवर्णिक अर्थात् बाह्मण क्षत्री वैश्य इनकी धर्म युक्तमनोहरतासे शोभित विवाहकी पद्धति प्रगट कर्तहै इससे शुद्र का विवाह वेदोक्त मंत्रोसे नहि चाहिये. प्रमाण याज्ञ• स्मृति ब्रह्मवत्क्य क्षत्रिय विट् शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः । निषेकादि श्मशानां तास्तेषां वै मंत्रतः क्रियाः ॥ नतु शूद्रस्य ॥ स्त्रीशूद्रोऽनुपनीतश्च वेदमंत्रान् विवर्जयेत् ॥
११
तत्रक्रमः ॥ तावत्पूगीफलोपवीतदानं तत्रकन्याभ्रातापुरोधाअन्योब्राह्मणोवाकश्चित् ॥
भा०टी० ( तत्रक्रमः) तिसपद्धतिमे जो शास्त्रक्रम अर्थात् मंत्रपूर्वक ब्राह्मण सूत्र विहित मर्यादा वहीमुख्य नहि अपने मुखसे रचित वा न्यून अधिक अन्यथा वेद विरुद्ध होनेसे प्रत्यवाय होता है ।अथकन्यादानका फल लिखते है॥ भूमिदानं वृषोत्सर्गोदानं गजसुवर्णयोः । उभयतो वदनागोश्च तुलाया दानमुत्तमम् ॥ कन्यादानं जीवदानं शरणागतपालनं । वेददानं महाराज महादानानि वै दश ॥ तत्रापि च महाबाहो कन्यादानमनुत्तमम् ।कन्यादानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति ।यह मार्तण्डमे लिखाहै ॥अर्थ - भूमी १ वृषोत्सर्ग २ हस्ति ३ सुवर्ण ४ ऊर्ध्वमुखीगौ ५ तुला ६ कन्या ७ शरणागतकी रक्षा ८ जीवदान ९ वेददान १० यह महादान है तिस्मेभी कन्यादान अधिकहै ॥ अन्यच्च विधिवत्कन्यकादानं अश्वमेधसमं कलौ । गोविंदराज ऐसे कहते है ॥अर्थ अन्य युगोंमे अश्वमेध और कलियुगमे कन्यादान यह दो सदृश है ॥ अन्यच्च. तिस्रः कोट्योर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत् । दिविभुव्यंतरिक्षेच कलौते सन्ति जान्हवी ॥ वेदंतत्रप्रणीतायायानिमन्त्राणि सर्वशः । वेदमातुर्जपे तेषां फलं प्रोक्तं कलौयुगे ॥पद्मपुराणमे यह लिखाहै ॥ अर्थ सुगम है ।चिंतामणीनां गिरयः कल्पवृक्षाः सहस्रशः । व्रजाश्चकामधेनूनां तत्र गच्छेद्दुहितृदः ॥ कांचनानि च हर्म्याणि नद्यः पायसकर्दमाः
फलान्यमृतकल्पानितत्रगच्छेदृहितृदः ॥ यह मार्कण्डेयका वचन है। ऐसा महाफलका दाता कन्यादान तीनप्रकार का है ॥ प्रथमवाग्दान अर्थात् सगाई वाकुडमाई द्वितीय कन्यादान अर्थात् पाणिग्रहण वा विवाह तृतीय खट्वादि पारिबर्हदान प्रमाणभी जैसे वृद्धमनुजी, वरंसम्पूज्य खार्जूरं फलं दत्वामुखे तथा । तस्मिन्कालेऽभिसान्निध्ये पितातुभ्यं प्रदास्यति ॥ इति प्रतिज्ञयायच कन्याभ्रात्रादिनाच सा \। वाचायद्दीयते तुल्ये वाग्दानं प्रथमं स्मृतं ॥ वरं संपूज्य विधिना वेद्यमनिं विधायच \। दात्रा प्रदीयते यच्च न्यासंककल्प्य वाग्यतः ॥ द्वितीयं कन्याकादानं तत्तु प्रोक्तं मनीषिभिः वधूवरौ च खड्वायां मंण्डपे संनिवेश्यच ॥ पारिबर्ह महद्दत्वा जलेन च विसर्जनम् । तृतीयं कन्यकादानं व्यासाद्या मुनयो जगुः ॥ अर्थ सुगमहे ॥
तत्रकन्या भ्रातेति ] कन्याकाभाई वा पुरोहित अथवा अन्य ब्राह्मण सगाई करे. मनुजी भी लिखते ॥ ऋत्विक्पुरोहितः पुत्रो भार्य्या भृत्यः सखा तथा । एतद्वारा कृतं यच्च तत्कृतं स्वयमेव हि ॥ अर्थ इन् द्वारा जो किया जाय वह आपही किया होताहै ॥
उदङ्मुखः प्रत्यङ्मुखो वा उपविश्य प्राङ्मुखस्य वरस्य गन्धाक्षतैरर्च्चितस्यमुखदत्तखार्जूरादिफलस्य स्वयंपूगीफलयज्ञोपवीतमादाय ॥
भा०टी० उत्तराभिमुख वा पश्चिमाभिमुख स्थित होकर पूजनकरे इस्में प्रमाण मनुजीका लिखते है ॥ पूज्यश्च प्राङ्मुखो यत्रोदङ्मुखः पूजको भवेत् । अर्च्चयेद्देवमभित इति प्रत्यङ्मुख
श्वसः) यह वाक्य जो है कि (प्रत्यङ्मुखं स्थापयेत्तु देवं पूज्यं तथैव च । पूजकः सन्मुखस्तत्र इति धर्मानुशासनम् ) कहते है कि यद्यपि पूज्य होनेसे वरको प्रत्यङ्मुख होना उचित है तथापि (प्रत्यङ्मुखं स्थापयेत्तु देवं पूज्यं वरं विना ॥ वरस्तु प्राङ्मुखः पूज्यः पूजकः स्यादुदङ्मुखः) इस व्यासस्मृति प्रमाणसे तथा (प्रत्यङ्मुखान्पूजनीयदेवांस्तत्संमुखः स्थितः । अर्चयेन्नित्यमेवेत्थं विधिरित्येव सम्मतः॥ स्थित्वाचाभिमुखंनार्च्चेच्छम्भुं जामातरं तथा । इंद्रं चोदङ्मुखं स्थाप्य स्वयं प्राङ्मुख संस्थिस्तः \।\। उदङ्मुखोर्च्चयेद्दाता वेदिस्थं प्राङ्मुखं वरम्) ॥ यह पराशर जीके वचनसे वरको प्राङ्मुख वैठाय गंधाक्षतसे पूजन कर मुखमे खर्जूर ( छुहारे ) का फलदेवे (नारिकेलफलं चैव तदन्तर्भक्ष्यमुत्तमम् खर्जूरादि फलं राजन् विवाहे मङ्गलप्रदम् \।\। इस भृगुजीके वचनसे विवाहादिक सब मंगल कार्य खर्जूरादि फल देना सिद्ध होता है । (स्वयमिति ) आप पुगीफल ( सुपारी ) यज्ञोपवीतको लेकर कन्याका भ्राता वापुरोहितादिमान्य पुरुष जो आगेलिखेगे वह कहकर वरण करे अर्थात् सगाई वा कुडमाईकरे वरकैसा चाहिये वह लिखते है ययोरेव समं वित्तं ययोरेवसमं कुलं । तयोर्विवाहो मैत्रीच न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ यह महाभारत मे लिखाहै अर्थ जिनका धन कुल आचरणादि समहो । उनका विवाहकर्ना चाहिये लक्षण वरके जैसे गोंविदराज जीनेकहेहै (सुशिलबारुबुद्धिश्च व्यवहारपटुःक्षमी ॥ उदारो वाक्पटुर्वाग्मी गुणयुक्तो वरो मतः ॥ परस्पराप्तसंबंधकुलजातो महाकविः । का-
न्तः सुलक्षणः श्रीमान् मातृ पितृ युतोवरः ॥ इत्यादि लक्षणसम्पन्नवर चाहिये ।
तस्मिन्कालेग्निसांनिध्येस्त्रातःस्राते ह्यरोगिणि॥
अव्यङ्गेऽपतितेऽक्लीबेपितातुभ्यं प्रदास्यतीपठित्वा हस्तेदद्यात्
भा०टी० (तस्मिन्कालेति) तिस प्रसिद्धकाल विवाहसमयमे अनिके समीप साक्षिद्वारा वाताश्मरी कुष्ट मेहमहोदर भगन्दर इत्यादि रोगरहित- यथा वाताश्मरी कुष्ठ मेहमहादेरभगंदराः ॥ अर्शश्व ग्रहणी चैव महारोगाः सुदुस्तराः \।\। इनके भेद चिकित्सा शास्रमे लिखे है मूल विरुद्ध होनेसे नहि लिखे जाते है इनसे रहित और व्यंग जो योनिज और जातिज दोप्रकार का उस्से रहित अर्थात् घृता (घरेल) विवाहिता (दासी) यह तीन स्त्री निषिद्ध होतीहै इनके लक्षण जो विधवा स्त्री प्रीतिपूर्वक सुंदर वाणि और पुष्कल भोजनद्वारा घरमे खोभावनासे रक्षितहो उस्को घृता ( धरेल) कहते है \। और जो पूर्व विवाहीहो अतन्तर मरजाने पति के फिरकन्या भवसे जो विवाहिजाय उस्को विवाहिता स्त्री कहते है ॥ अर्थात् पुनर्भु ॥ दासी उस्को कहते है कि प्रथम घरमे भृति (नौकरी) कर्तीहो फिर यौवन सुंदरता से कामवश होकर जो स्वीकारकी जावे ॥ इन स्त्रियोसे उत्पन्न संततिको अपने कुलमे जो मिलाना वह योनि व्यंग कहाता है ।और अपनि जातिका हीन जातिसे सम्बन्धको जातिव्यङ्ग कहते है ।इनसे रहित तुमको और चक्षु चरण कटि इन्का भंग और अंधता पंगु प्रभृतियो देहव्यङ्ग
उन्से रहित और अपतितको ब्रह्महा मद्यपस्तेनस्तथैव गुरुतल्पगः । एते महापातकिनो यश्च तैः सह सम्वसेत् ॥ ब्रह्महत्यादिके पापे जातिभ्रंशकरे तथा । वृषली गमनेत्यर्थं सावित्रीविरहेपि च ॥ अभक्ष्यभक्षणे चैव पतितो भवति ध्रुवम् इत्यादि कालादर्शादि निरूपितपतनादिसेरहित और क्लीब अर्थात् नपुंसकता से रहित को प्र० भस्मनि होमकरणात्षंढेकन्याप्रदानतः । कुलधर्मपरीत्यागान्नरके नियतं वसेत् ॥ याज्ञवल्क्य जी वरके लक्षण मे भी लिखतेहै \।\। एतैरेव गुणैर्युक्तः सवर्णः श्रोत्रियो वरः । यत्नात्परिक्षितः पुंस्त्वे युवा धीमान् जनप्रियः) इति प्रथमाध्याये अर्थ पूर्वोक्तगुणोयुक्त सवर्णी अर्थात् ब्राह्मणीसे ब्राह्मण क्षत्रियाणीसे क्षत्री इत्यादि वेदके जाननेवाला और यत्नसे पुंस्त्वमे परीक्षा कियाहो । युवान् और सर्व प्रियहो ॥ * इत्यादि दोषसे रहित तुमारे को पिता कन्यादान देवेगा यह प्रतिज्ञा को उच्चस्वरसे कहकर वरके हाथ पूगीफल यज्ञोपवीत कन्याका भ्राता अथवापुरोहित वा ब्राह्मणद्वारा देवे ॥ इति वाग्दानावधिः समाप्तः॥ शुभंभूयात् ॥ श्रोः॥ श्रीः ॥ भावयह है कि कन्याका भाई आप वा पुरोहित से अर्थात् जिसपर अपना दृढ विश्वासहोउसके द्वारा सगाई करे ॥
और कन्यासे वर दुगणा. अथवा डेढा अर्थात् कन्या ८ वरसकी बालक १६ वरसका होना चाहिये ना मिलनेपर ऐसा तो कन्या ८ वर्ष की बालक १२ वर्षसे कम ( न्यून ) ना होना चाहिये ।अन्यथा जो लोभ मोहादिके वशसे वाधनी देख क-
र आठवर्षके बालकके गलेमे १६ वर्षकी कन्याको चमेडदेवे उस्कोभी प्रत्यक्ष फल मालूम होना चाहिये कि बालक पुष्ट नहीं होता और शुष्क वदन बलरहित प्रजोत्पादनमे असमर्थ होता हैउस्को संतान उस्से निर्बल होती है इत्यादि बहुत दोष है जिन महाशयांके देखनेकी इच्छाहो वह मेने एक चिकित्सा शास्त्रको दिनरात्री ऋतुचर्यादि बहुत प्रकरको युक्त स्वस्थ पुरुष नाम कर ग्रंथ बनायाहै उस्के देखले प्रार्थनेयं वैदिक विष्णुदत्तस्य ॥
यजु० अध्याय १७ मंत्र ३
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ॐ ऋ॒तव॑स्थाऽऋता॒वृधा॑ऋजष्य
स्था॑ ऋता॒वृधा॑घृ॒त॒च्युतो॑मधु
च्युतो॑वि॒राजा॒नाम॑कामुदुघाऽअक्षी
यमाणा ॥
इतिपठित्वाशिरस्यक्षतादिकंदद्याद्वरः भ्रातृव्यतिरिक्तपक्षे पितेत्यत्रदातेत्युच्चारयेत् \।\।
भा०टी० ( ऋतवस्था इति ) भोकन्या के देनेवाले तुम ऋतनामसत्यमे तिष्ठित होनेवालेहो अर्थात् सत्य प्रतिज्ञा युक्त रहें । (ऋजुष्ये सन्मार्गे तिष्ठन्तीति ऋजुष्यस्थाः) अर्थात् सन्मार्गमे स्थितहो (ऋता सत्या अवधयो मर्य्यादाः समया वा येषांते) [अ-
र्थात् मर्यादा पालक हो ॥ (घृतश्च्युतः) बहुत होने से जिस्केघरमे घृत गिरता है ॥ (मधुश्च्यु॑तः ) मधूनि मधुराणि गुडशर्करानि श्वावयन्ति] अर्थात् बहुत मधुर रसवाले तुम होवो \।[ विशेषेण राजन्ते इति विराजः] सुशोभित हो (कामदुघा) कामनाके पूर्णकर्नेवालेहो (नाम ) प्रसिद्धहो [अक्षीयमाणाः] नहि नष्टभये धनादि जिनके एसे आपहोवे ।इस मंत्र से वर आशीर्वाद देकर जो वाग्दानकरे उस्के शिरपर अक्षताको धरदे ॥
अथसर्वेभ्योवेदाध्ययनश्रवणक्रियाव्यतिरिक्त क्रियानिवृत्तयेऽक्षतानिदत्वा सहस्तस्वरेणा भावेतारस्वरेण वेदोच्चारणं कुर्य्यात् \।\।
भा०टी० (अथसर्वेभ्य इति) ग्रंथ के आदमे मंगलकर्ना चाहिये इस शिष्टाचार से अथ शब्दका मंगल और निषेकादि संस्कारोसे अनंतर यहदो अर्थहै ।प्रमाण (अथ मंगलानन्तरारम्भ प्रतिज्ञाधिकार समुच्चयेषु ) विवाह के आरम्भमे हस्तस्वर सहित वेद उच्चारणकरे प्र०याज्ञ्यवल्क्य शिक्षामे हस्तस्वरेण योधीते स्वर वर्णार्थ संयुतमित्यादि बहुत लिखा है ॥
अभावमे ऊचेस्वरसे कंठस्वरवा हस्त स्वरसे यथा बुद्धिकरना चाहिये। तारस्वरसे उच्चारण कर्नेभी प्र०याज्ञवल्क्यमे यथा स्वरस्तु द्विविधः प्रोक्तो वेदो्च्चारण कर्मणि । कण्ड स्वरोहस्तस्वरो गौणमुख्यप्रभेदतः ॥ तारस्वरेण तावेवभवेतामिति निश्चयः । वेदस्यो च्चारणं कुर्यात् यथाविधि च वेदवित् ॥
सर्वविघ्नविनाशाय सर्वारम्भेषु सिद्धये ॥ अर्थ हस्तस्वर और कण्ठस्वर गौणमुख्य न्यायसे दो भेद है वह दोनो हि ऊचेश्वरसे कहे जाते है विघ्ननाश और सर्वसिद्धिलिये आदिमे वेदोच्चारण कर्नाचाहिये । अक्षतदेकर अन्यकार्य से निवृत्तहो वेदभगवान्का उच्चारण और श्रवण कर्ना सर्वपुरुषको चाहिये ।
शुक्लयजुर्वेद० संहिता वाजसनेयी अध्याय २३ मं० १९ ॥
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गुणाना॑न्त्वा गुणप॑ति हवामहेप्रि॒याणा॑न्त्वाप्रियप॑ति हवामहे ॥
निधीनान्त्वा॑ निधि॒पति॑ हवामहेव्वसोमम । आहम॑जानिगर्ब्भधमात्वम॑जासि गर्ब्भ॒धम् ॥ १ ॥
भा०टी० (गणानान्त्वेति) (हेममवसो) मेरेधन श्रीगणेशदेव (गणानांपतिं) गणाकेस्वामि (त्वां) तुमको (हवामहे) बुलावते है (प्रियाणां) इंद्रादि देवताका जो (प्रियपतिं) तारकादिदैत्योंके वधसे प्रियकार्तिर्केयादि उनके विघ्नके नाशकर्ने मे समर्थ ( त्वां ) तुमको ( हवामहे ) बुलावते है [ निधीनांनिधिपतिं ] निधीजोधनादि उनमेजो निधि अर्थात् अनंतफल देनेवालीयोगसिद्धि उनकेस्वामी तुमको बुलाते है (हेगणपते अहं त्वया अजानि) हेगणेशदेव मुझको
१२
तुमने उत्पन्नकिया ।कैसामैहु (गर्भधं) मातेके गर्ब्भसे पैदा हुआ (अज) हेअनादि ( त्वं ) तुम (गर्ब्भधमाऽसि) गर्ब्भसे नहीं हो। भाव गर्ब्भद्वारापरतंत्रतासेमैजीव और आप गर्भादिरहित स्वतन्त्रतासे प्रकाशहुये ईश्वर है इसलिये सर्वजगत वनानेमे सामर्थहो इति ॥
यजुः शु० अध्याय १६ मन्त्र २५ ॥
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ॐ नमो॑गुणेब्भ्यो॑ गुणप॑तिब्भ्यश्च
वॊ॒नमो॒नमो॒व्व्रते॑भ्यो॒ व्व्रात॑पतिभ्य
श्चवो॒ नमो॒नमो॒गृत्से॑ब्भ्योगृत्स॑प
तिब्भ्यश्श्ववोनमोनमो॒व्विरूपे
ब्भ्योव्विश्वरूपे ब्भ्यश्श्चवो॒ नम॑÷॥
भा०टी० [नमोगणेभ्यो] तुम गणनाम समूहोको और गणोके स्वामियाको नमस्कार है ( व्रातेभ्यो ) वातनाम राशीभूत तुमको और ( व्रातपतिभ्यो) राशीभूतोके स्वामि तुमको प्रणाम है ॥ (नमोगृत्सेभ्यो) नमस्कार है विघ्नके कर्नेवाले याको वा विषयमे लंपटाको वा बुद्धिवालो तुमको (गृत्सपतिभ्योनमः) और उनके पालनेवाले तुमको प्रणामहै (नमो विरूपेभ्यो) प्रणामहे अनेकरूपवालो वा कुत्सित रूपवालो वा वशिष्ट रूपवालोको (विश्वरूपेभ्यश्ववोनमः) संपूर्णरूपवालो तुमको प्रणामहै ॥ इति गणेशस्तुतिः ॥
शुक्ल० यजु० अध्याय० ३४ मन्त्र ४५ ॥
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स॒हस्तो॑माःसुहछ॑न्दसऽआवृत॑÷
स॒हप्प्र॑मा॒ऽऋष॑यःस॒प्तदैव्व्याः। पूर्व्वे
षाम्पन्था॑मनु॒ दृश्य॒धीरा॑ऽअ॒न्वालें
भिरे र॒त्थ्योनरश्मीन् ॥
भा०टी० [सहस्तोमा] (सप्तऋषयः) अर्थात् भरद्वाज १ कश्यप २ गौतम ३ अत्रि ४ विश्वामित्र ५ जमदग्नि ६ वशिष्ट ७ यह सातऋषि (पूर्वेषां) प्राचीनोके (पन्थानं) मार्गको (अनुदृश्य्) देखकर (अन्वालेभिरे) सृष्टिको उत्पन्नकर्तेभये कैसे ऋषि (महस्तोमाः) सृष्टिकर्नेकी ईच्छावाले (सहच्छन्दसः) छन्द अर्थात् वेदसहित ज्ञानवान् ( आवृतः ) आशब्दसे कर्म उससे युक्त अथवा अपने जो कर्म श्रद्धा सत्यप्रधान उनसे युक्त अर्थात् तपरूपकर्मोके अनुष्ठानकर्नेवाले (सहप्रमाः) यथार्थ ज्ञानयुक्त प्रमाण (यथार्थज्ञानंप्रमा) (देव्याः) जो ब्रह्माकि प्रथम देवीसृष्टी है और ईश्वरतासे सृष्टिकर्नेमे समर्थ (धीराः) ज्ञानसृष्टियुक्त (कथं) कैसे (अन्वालेभिरे) सष्टिकर्तेभये (रथ्योनरश्मीन्) रथ्य जो सारथि जैसे रश्मियोसे ।भावहै किउत्तमसाराथिवांछितदेशकी प्राप्ति लिये और घोडोके बांधनेलिये रश्मिआको बनाता है । तैसे वह ऋषिकारणोसे सृष्टि रचतेभये ॥ इति मङ्गलस्तुतिः ॥
यजु० अध्या ३४ मंत्र ५
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यज्जाग्ग्र॑तोदूरमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑सु॒प्तस्य॒
तथैवैति॑ । दूर॒ङ्गमञ्ञ्ज्योति॑षा॒ञ्ज्यो
ति॒रेकन्तन्मे॒मन॑÷शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ।
भा०टी० [यज्जाग्रतः] जो जाग्रतअवस्थामे इन्द्रियोसे (दूरमुदैति) दूरको जाता है कैसाहै (दैवं) देवस्वरूप (तदुसुप्तस्यतथैवैति स्वप्नावस्थामे भी सूक्ष्मेंद्रियोसे स्वरचित विषयोमे भ्रमता है ( दूरंगमं ) दूरगामी ( ज्योतिषांएकं ) इंद्रियोमे प्रधान ज्योतिः प्रकाशकर्नेवाला प्र० भगवद्गीताका. (इन्द्रियाणांमनश्चास्मि) (तन्मेमनः) ऐसा मुझका मन (शिवसंकल्पमस्तु) सत्यप्रधान वृत्तिवाला अथवा ब्रह्मलोकादिकोमे बसनेवाला होवे ॥
यजु० अध्याय ३४ मंत्र ६ ॥
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येनकर्मा॑ण्य॒पसो॑ मनी॒षिणॊ॑य॒ज्ञे
कृ॒ण्वन्ति॑ व्वि॒दथे॑षुधीराः॑। यद॑पूर्व्वष्य
क्ष्म॑म॒न्तः प्प्र॒जाना॒न्तन्मे॒मन॑÷ शि॒
वसंङ्कल्पमस्तु ।
भा०टी० [येनकर्माणि] ( येन ) जिस मनकर्के (अपसो मनीषिणः ) अप अर्थात् कर्ममे कुशल प्रमाण निघंटु । २ । १ (अप इति कर्मनाम) (यज्ञेकर्म्माणि कृण्वन्ति ) यज्ञमेकर्माको विस्तृत कर्तेहै कैसेहै (विदथेषुधीराः) यज्ञादिकोमे जोपण्डित है वा यज्ञ साधन ज्ञानमें (यदपूर्वं) जो अपूर्व अर्थात् नित्य वा अद्भुत (यक्ष्मं) पूजनेयोग्य (प्रजानामन्तः ) देहोके अन्तर वर्तनेवाला वह मन शिव संकल्प युक्तहो ॥ ६ ॥
यजु अ०३४ मन्त्र ७
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यत्प्र॒ज्ञान॑मु॒तचेतो॒धृति॑श्चयज्ज्यो
ति॑रन्तर॒मृत॑म्प्र॒जासु॑ । यस्म्मा॒न्न
ऽऋतेकिञ्च॒नकर्म्मक्क्रियते तन्मे॒म
न॑÷शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु \।\।
भा०टी० [यत्प्रज्ञानमिति] (यत्प्रज्ञानं) जो मन बुद्धिरूप (उत) समुच्चयसे (चेतः) चेतनतासे स्मरणात्मक ज्ञान (धृतिश्च) धैर्थ्यरूप (ज्योतिरन्तः) इंद्रियोके प्रकाश कर्नेवाला (प्र० सुखं दुःखं धृतिरधृतिसंशयं विपर्ययकामः सर्वंमनएवेति श्रुतिः) (प्रजासु अमृतं ) विनाशि शरीरोमे जो अमृत अर्थात् नित्य (यस्मान्न ऋते किंचिनकर्म क्रियते ) जिसकेविना कोईका मनहि कियाजाता वह मेरामन शिव संकल्पवाला होवे \।\।
शुक्ल यजुर्वेद ० अध्याय० ३४ मन्त्र ८
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येने॒दम्भूतंम्भुव॑नम्भवि॒ष्यत्परि॑गृ
हीतम॒मृते॑न॒सर्व्वम् । येन॑य॒ज्ञस्ता॒
यते॑ स॒प्तहो॑ता॒तन्मे॒मन॑ ÷ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥
भा०टी० [ येनेदामति ] ( येनेदम्भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतं ) जिसने वर्तमान भूतभविष्यत् तीनकालमे संपूर्ण भुवनकोश जानाहै कैसेने (अमृतेन) नित्यने (येनसप्तहोता यज्ञस्तायते) जिस मनने सप्तहैहोता जिस्मे असा अग्निष्टोमनाम यज्ञ विस्तृतकरीदा वह मेरामन शिव सङ्कल्पवाला होवे \।
यजु अध्याय ३४ मंत्र ९ ॥
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यस्म्मुिन्नृचुःसामुयजू षिय
स्म्मि^(ँ)न्प्रति॑ष्ठितारथना॒भावि॑वा॒राः
। यस्म्मि॑श्चि॒त्त सर्व्वमोत॑म्प्र॒जाना॒
न्तन्मे॒मन॑÷शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ।
भा०टी० [यस्मिन्नृचः] (सामयजू ँ षि) अर्थात् जिस्मे ऋक् यजु सामवेद (प्रतिष्ठिताः) आश्रित (रथनाभौ-आरा-
इव) रथके चक्रकी नाभिये आरकीन्याई (यस्मिन् सर्वं-प्रजानां चित्तं ओतं) जिसमे संपूर्णप्रजाका चित्त सम्बद्ध है ऐसा मेरामन शिवसंकल्प युक्तहोवे \।\।
यजुर्वेद ० शु० अध्याय ३४ मंत्र० १०
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सुषार॒थिरश्वा॑निव॒यन्न्म॑नु॒ष्या॒न्ने
नी॒यते॒भीशु॑भिर्व्वाजिन॑ऽइव । हृत्प्र
ति॑ष्ठ॒न्ष्यद॑जिरञ्जवि॑ष्ठ॒न्तन्मे॒मन॑÷
शिवस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ १० ॥
भा०टी० [ यन्मनुष्यान्नेनीयते ) जो मन मनुष्यलोकसे लेकर सर्वदेव दानव ऋषि इत्यादि स्थूल सूक्ष्म जीवाको श्रेष्ठ और निषिद्ध कर्ममे लगाताहै किसकीतरह (सुषारथिर्भीशुभिर्वाजिनः अश्वान्इव) श्रेष्ठ साराथ रश्मिसे वेगवाले अश्वाको मार्गसे निवृत्त और जैसे प्रवृत्तकरे (यतहृत्प्रतिष्ठं) जो मन हृदय गतहै (अजिरं) नित्य है (यविष्ठं) अतिशय वेगवाला वह मेरामन शिवसङ्कल्प युक्तहोवें ॥ १० ॥ इति शिवसङ्कल्प व्याख्या सम्पूर्ण ॥ शुभम् ॥
अथस्वस्तिवाचनम् ।
यजु० अध्याय २५ कं०१८
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स्व॒स्तिन॒ऽइन्द्रोव्वृद्धश्रवाःस्व॒स्ति
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न॑÷ पू॒षा व्विश्श्ववे॑दाः ॥ स्व॒स्तिन
स्तार्क्क्ष्यो॒ऽरि॑ष्टनेमिःस्व॒स्तिनोबृ
हुस्प्पर्तिर्द्दधातु ॥ १ ॥
भा०टी० बडीकीर्तिवाला इन्द्र हमारे आवनाश शुभको देवेऔर सर्वधनोका स्वामिपूषा हमको स्वस्तिदेवें नहीं नष्टभई चक्रधारा वा पक्ष जिस्के ऐसा रथवागरुड हमको स्वस्तिकोदे और देवताओंकागुरु बृहस्पतिजी हमदो स्वस्ति अर्थात् कल्याणकोदेवे॥
यजु अध्याय ३६ \। कंडि ३६ ॥
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पय॑÷पृथि॒व्याम्पय॒ऽओष॑धीषुपयों
दि॒घ्यृन्तरि॑क्षेपर्योधाः\। पय॑स्व
तीः प्प्रदिश॑÷सन्तुमह्य॑म् ॥ २ ॥
भा०टी०वे अग्निदेव तुम पृथिवीमे पय नामरसको धारणकरो और ओषधी अन्नादिमेभीरसकोदे (ओषध्यः फलपाकान्ता ) इति । इसप्रकार स्वर्गमे और अंतरिक्ष आकाशमे रसको स्थितकर परंतु मेरे लिये दिशा और विदिशा पयस्वती नाम रसयुक्त होमे यह प्रार्थना कर्ताहु ॥
यजु अध्याय ५ कंडि २१॥
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व्विष्ण्णॊ॑रराट॑मसि॒ विषण्णॊः श्र्नप्त्रे॑
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स्त्थोव्विष्ष्णॊः स्यूर॑सि॒व्विष्ष्णॊ॑र्द्भ्रु
वोसि । वैष्ष्ण॒वम॑सि॒व्विष्ष्ण॑वेत्वा३ ॥
भा०टी० हेदर्भरूपविष्णु तुम हविर्धान मण्डपके ललाटस्थानहो हेरेराट्यन्त तुमविष्णुनाम हविर्धान मण्डके (श्र्नप्त्रेस्त्थः) ओष्ठकी सन्धिरूपहो हेलस्यूजनि अर्थात् बृहत्सूची तुम विष्णुनाम हविर्धान मण्डपकी सूचीहो हेरज्जुग्रन्थि तुम हविर्भानकी ध्रुवनाम ग्रंथिहो हेहविर्धान तुम विष्णुसंबंधिहो इस लिये अर्थात् विष्णुसंबंधि होनेसे आपकोस्तुति कर्ताहुवास्पर्शकर्ताहु ॥ ३ ॥
यजु० अध्याय १४ कंडिका २० ॥
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अग्ग्निर्द्देवताव्वातो॑देवतासूर्य्योदेव
ता॑च॒न्द्रमा॑दे॒वता॒व्वस॑वोदे॒वता॑रु॒द्द्रा
दे॒वता॑दि॒त्यादे॒वता॑म॒रुतो॑देवताव्वि
श्श्वॆ॑देवादे॒वता॒बृह॒स्पति॑र्द्देवतेन्द्रों दे॒वता्॒व्वरु॑णोदे॒वता॑ ॥ ४ ॥
भा०टी० हे हविर्धान और जो तुम आग्निवायु सूर्यचंद्रमा वसु ८ रुद्र ११ आदित्य १२ मरुत ४९ विश्वेदेवा १३ बृहस्पति इ
न्द्रवरुण इत्यादि देवता स्वरूपहो इस लिये आपकी स्तुति वा स्पर्श कर्ता हुं ।
यजु०अध्याय ३६ कंडिका १७ ॥
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द्यौःशान्ति॑र॒न्तरि॑क्षवंशान्ति÷पृथि॒
वीशान्ति॒रापशान्ति॒रोष॑धयुःशा
न्ति÷व्वनस्प्पतंयशान्तिर्व्विश्श्वॆ॑दे
वाःशान्ति॑र्ब्ब्रह्म॒शान्तिःसर्व्वशा
न्तिःशातिरे॒वशान्तिः समा॒शान्ति
रेधि ॥ ५ ॥
भा०टी०स्वर्गरूप जो शांति और आकाशरूप जो शांति पृथिवीरूप जो शांति जलरूप जो शांति औषधीरूप जो शांति वृक्षरूप तथा सर्वदेवरूप और शांतिस्वरूप जो शांति वह मेरेको हे गणेशदे व आपकी प्रसन्नतासे होवे ।
यजुर्वेद अध्याय ३० । अनु० १ मं० ३ ॥
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व्विश्श्वा॑निदेवसवितर्दुरि॒तानि॒परां
सुव ॥ यद्द्भ्रद्द्रन्तन्न॒ऽआसु॑व ॥ ६ ॥
भा०टी०हे अंतर्यामी सूर्यदेव । तुम मेरे संपूर्ण पापको दूर ले
जाओ अर्थात् नष्ट करो और जो कल्याणह वह मुझको देवो ॥ सूर्यभगवान्को अन्तर्यामि होनेमे प्रमाण (आदित्यचन्द्रावनिलोऽनिलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयंयमश्च ।अहश्चरात्रिश्च उभेच सन्ध्ये धर्मोपिजानाति नरस्यवृत्तम्) इति नीतौ ( सूर्य आत्माजगतस्तस्थु षश्च इतिश्रुतिः)
यजुर्वेद अध्याय १६ अनु ७ मं ४८
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इ॒मारु॒द्राय॑त॒वसे॑ कप॒र्द्दिने॑क्ष॒यद्द्वीरा
यप्रभ॑रामहेम॒तीः ॥ यथा॒शमस॑द्द्वि
पदे॒ चतु॑ष्ष्पदे॒व्विश्श्व॑म्पुष्ट्टङ्ग्रामे॑ऽअ
स्म्मिन्न॑नातुरम् \।\।
भा०टी० (तवसे) बलवान (कपर्दिने) जटिल (क्षयद्वीरा ) शूरवीरो युक्त वा शूरवीरोंके नाशकर्नवाले और ( द्विपदे ) पुत्रोके देनेवाले (चतुष्पदे) च पायनाम पशुओंके देनेवाले जोमहादेव उनसे जैसे इस ग्राममे सुख और संपूर्ण लोक सुखी नीरोग होवै तैसे मतिको समर्पण कर्तेहै अर्थात् प्रार्थना कर्ते है ॥ ७ ॥
यजु० अध्याय २ मंत्र १२ ॥
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एतन्तेंदेवसवितर्य्यज्ञम्प्प्रहुर्ब्बृह
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स्प्प॑तये ब्ब्रह्मणें ॥ तेन॑य॒ज्ञम॑व॒तेन॑य॒
ज्ञप॑ति॒न्तेनमामंत्र ॥ ८ ॥
भा०टी० हे सर्वान्तर्यामि सूर्यदेव यह किया हुआ यज्ञ तुमारे लिये यजमान लोक कहते है किञ्च तुमारेसे प्रेरित देवोके यज्ञमे जो ब्रह्मा बृहस्पति उसके लियेभी कहते है और अपना जान यज्ञरक्षा करो और ब्रह्मारूप जो मै मुझकोभीरक्षा करो ॥ ८ ॥
सुप्रतिष्ठितावरदाभवन्तुदेवाः ॥ १० ॥ इतिस्व स्तिवाचनम् \।\।
भा० टी० सत्कारकिये हुए देवता लोकभी वरके दाता होवें ॥ १० ॥ इतिश्री०
** ॐकारपूर्वंहियोगोपासनंयानिनित्यानिकर्माणिइत्या
दिश्रुतिसेॐपूर्वकसर्वमंत्रोकाउच्चारणकर्नाचाहिये ॥**
इति श्रीकपूरस्थल निवासी दैवज्ञ दुनिचंद्रात्मज (शोरी ) पं० विष्णुदत्तकृतटीकायां पंचम प्रकरणं समाप्तिमगात् \।\।
( इति पंचम प्रकरणम्)
अथ विवाहविधौ षष्ठं प्रकरणम् \।
— ⇔ —
ओंस्वस्ति श्रीगणेशाय नमः ॥ अथविवाहः ॥ तत्रकन्याहस्तेनषोडशहस्तपरिमितंमण्डपंविधायतद्दक्षि
णस्यांदिशिपश्चिमांदिशमाश्रित्यमण्डपसंलग्नमुत्तरा
भिमुखं कौतुकागारंचमण्डपाद्वहिरैशान्यांजामातृच
तुर्हस्तपरिमितांसिकतादिपरिष्कृतां वेदीञ्चकारयेत्
भा०टी० स्वस्तिवाचनके अनन्तर विवाहविधि लिखते है कि कन्याहस्तपरिमाणके सदृश १६ हाथका मण्डप बनाकर उस्की दक्षिणकोणमे पश्चिम दिशाकौलै अर्थात् निरृतिकोणमे उत्तराभिमुख जानाआनेके लिये और कुलरीति कर्नेके लिये कौतुकागार बनावे और मण्डपके बाहर साथ मिलता ईशानकोणमे जामातृ(जुवाई) के चारहस्त परिमिता तुष ( तुह) केश (रोम ) शर्करादि निषिद्ध वस्तुयोसे रहित अर्थात् शुद्ध अग्निस्थापनके लिये चारथं भोवाली वेदीको बनवावे ॥ और विवाहमे तिलकनाम मण्डलरचना (विवाहादौ लिखेनित्यं तिलकंनाममण्डलं) इस कात्यायनजी के प्रमाणसे—तिलकमण्डलका लक्षण लिखते है । (सूर्यादयोग्रहाय त्र राजन्ते मध्यसंस्थिताः । इन्द्रादयः प्रतिदिशं स्वस्वभावेष्ववस्थिताः । बहिःशिवसुताद्याश्च सर्वतो भद्रमुच्यते ॥ विघ्नराजो भवेद्यत्र मध्येनान्यस्तुकश्चन \। सुमहत्सुन्दरञ्चैव तिलकं नाम मण्डलम् \। गृहारामप्रतिष्ठायां दुर्गाहोमे नवग्रहे । सर्वतोद्रभकंकुर्य्यान्मण्डपे तिलकं लिखेत् ॥ ३ ॥ इत्यादिवेदी बनानेकेभी बहुत प्रमाणहै परंतु विस्तारके भयसे लिखे नहीं जाते ॥
विवाहदिनेकृतनित्यक्रियेणजामातृपित्रामातृपूजापू
र्वकंआभ्युदयिकश्राद्धंकर्तव्यम्॥ कन्या पितास्नातः
शुचिःशुक्लांबरधरःकृतनित्यक्रियोमातृपूजाभ्युदयि
के कृत्वाअर्हणवेलायां5मण्डपेप्रत्यङ्मुखःप्राङ्मुखंवर
मूर्द्ध्वजानुंतिष्ठंतंसंबोध्य ॥ ततः स्वस्तिवाचनंगणेश
कलशादिपूजनंचकृत्वा ॥
भा०टी० विवाहके दिन वरके पितानेनित्यक्रियासंध्योपासन पंचमहायज्ञादि मातृपूजा पूर्वक आभ्युदयिक (नांदिश्राद्ध ) कर्ना चाहिये \।\। कन्याका पिताभी स्नानकर पवित्रहो नित्यक्रिया कर धोतवस्त्र धार षोडशमातृपूजा नांदिमुखश्राद्धकर पूजनकालमे मण्डपमे पश्चिमाभि मुखहो ऊर्द्ध्वजानु प्राङ्मुख बैठे वरको संबोधन करस्वस्तिवाचन कलश पूजन गणेशादि पूजनकरे ॥ विवाहमें अवश्य नांदिमुख श्राद्धके कर्नेमे प्रमाण (कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशेनववेश्मनि ॥ चूडाकर्मणिबालानांनामकर्मादिके तथा ॥ सीमन्तोन्नयनेचैव पुत्रादिमुखदर्शने ) इत्यादि बहुतप्रमाण है (सर्ववृद्धौहि पितरःपूजनीयाःप्रयत्नतः) इति शातातपः । इसकी प्रक्रिया श्राद्धविवेकमे लिखीहै ॥ याज्ञवल्क्यजी सूक्ष्मतासे लिखते है ॥ एवंप्रदक्षिणावृत्कोवृद्धौ नान्दीमुखान्पितॄन् । यजेत दधिकर्कन्धुमिश्रान्पिण्डान्यवः क्रियेति ॥ प्रथमाध्याये श्राद्धप्रकरण \।
साधुभवानास्तामितिप्रजापतिऋषिर्ब्रह्मादेवतायजुश्छं
दोवरार्चनेविनियोगः। ॐसाधुभवानास्तामर्चयिष्या
मोभवंतमितिब्रूयात् । ॐअचर्येतिवरणोक्तेवरोपवेश
नार्थेशुद्धमासनंदत्वाविष्टरमादायॐ विष्टरोविष्टरोवि
ष्टरइत्यनेनोक्तेॐविष्टरःप्रतिगृह्यतामितिदातावदेत् ।
ॐविष्टंरप्रतिगृह्णामीत्यभिधायवरोविष्टरंगृहीत्वा ॥
भा०टी० साधुभवान् इस मंत्रका प्रजापति ऋषि ब्रह्मादेवता य जुछंद वरके पूजनमे विनियोग है विनियोग विनामंत्रोच्चरणमे दोष लिखतेहै ( विनियोगंविनामंत्रः पङ्केगौरिवसीदति ) इसलिये मंत्रोच्चारणके प्रथम विनियोग कर्नाचाहिये इस्का लक्षण जैसे (ऋषिछंदोदेवतानां चकर्मणिविनियोजनं । विनियोगःसआदिष्टो मंत्रेमंत्रे प्रयुज्यते[ मंत्रार्थ]आपसाधु–श्रेष्ठवृत्तिवालेहोमे हमतुमारेको पूजन कर्तेहै ॥पूजनीय पट्६पुरुष होते है जैसे पारस्करजी लिखते है ( पडर्ध्याभवन्त्याचार्य ऋषित्वग्वैवाह्यो राजा प्रियः स्नातकइति प्रति संवत्सरानर्हयेयुर्यक्ष्यमाणा स्त्वृत्विजइति) याज्ञवल्क्य स्मृतिमे जैसे (प्रतिसंवत्सरंत्वर्ध्यास्नातकाऽऽचार्य्यपार्थिवाः।प्रियोविवाह्यश्वयज्ञंप्रत्यर्त्विजःपुनः ) अर्थात् स्नातक १ गुरु २ राजा ३ मित्र ४ वर ५ ऋत्विक् ६ यह पूज्यहोते है ॥पूजनकरें ऐसे वरकहनेके अनंतर बैठने लिये वरको शुद्धआसनदेकर विष्टरको हाथमेलै विष्टरो विष्टरो विष्टरः । ऐसे कहकर विष्टरग्रहणकी जिये दातावरको यह कहे । विष्टरग्रहण कर्ता हु ऐसे वरकह विष्टर हाथमेले आगेका मंत्रपढे ॥ ॥ विष्टरका लक्षणलिखेहे पंचाशताभवेद्ब्रह्मा तदर्धेनतुविष्टरः । उर्द्ध्वृकेशोभवेद्ब्रह्मालम्बकेशस्तु विष्टरः ॥दक्षिणा वर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः ॥ विष्टरं सर्वयज्ञेषु लक्षणं परिकीर्तितम् ॥
वर्ष्मोस्मीत्याथर्वणऋषिर्विष्टरोदेवताऽनुष्टुप्छन्दःउ
पवेशनेविनियोगः ॥ ॐवर्ष्मोस्मिसमानानामुद्यता
मिवसूर्यः।इमंतमभितिष्ठामियोमाकश्चाभिदासाती॥
इत्यनेनआसनेउत्तराग्रविष्टरोपरिवरउपशति ॥
भा०टी० (वर्ष्मोस्मि ) इसमंत्रका अथर्वणऋषि अनुष्टुप्छन्दविष्टर देवता वरके बैठनेमे विनियोगहै ॥ [ मंत्रार्थ ] जैसे नक्षत्रतारा गणके मध्यसे सूर्य भगवान् श्रेष्ठहै तद्वत् अपनि जातिसे हम श्रेष्ठ है जो मेरा तिरस्कार कर्नेको यत्न कर्ता है उस्को और इस विष्टरको पादमे रखकर, स्थित है इस मंत्र से उत्तराभिमुख विष्टरपर बैठजावे ॥
ओंपाद्यंपाद्यंपाद्यमित्यनेनोक्तेपांद्यप्रतिगृह्यतामिति
दातावदेत् । पाद्यंप्रतिगृह्णामीत्यभिधायवरः । ओंवि
राजोदोहोसिविराजोदोहमशीयमयिपाद्यायैविराजोदो
हः ॥ इतिदक्षिणंचरणंप्रक्षाल्यानेनैवक्रमेणवामचरण
प्रक्षालनम् ॥
भा०टी० पाद्यं पाद्यं पाद्यं ऐसे अन्यपुरुषके कहने अनंतर पाद्यग्रहणकी जिये यह दाता कहे पश्चात् पाद्यको ग्रहण कर्त्ता हुयह वर कहे ॥ विराजो दोहोसि इस मंत्रका प्रजापति ऋषि अनुष्टुपूछन्द जलदेवता पादको प्रक्षालनमे विनियोग है [ मंत्रार्थ ] हे जल तुम विशिष्टदीप्ति परमात्माका दोहनाम रससार रूप हो इस लिये हे जल?आपको ग्रहण कर्तेहै किञ्च हे विराजोदोह अर्थात् मंत्र संस्कृत जल मेरे चरण के प्रक्षालन योग्यहो ॥ मंत्रपाठ सहित दक्षिपाद धोवे । अनंतर वामपाद धोवे । इहा मंत्रके अंत में विधान
नहि ॥ और ब्राह्मण वरका प्रथम दक्षिणपाद प्रक्षालन कर्ना (धोणा) और क्षत्री वैश्योका प्रथम वामचरण प्रक्षालन कर्ना चाहिये, प्रमाण ०गृह्यसूत्रे (सव्यंपादं प्रक्षाल्य दक्षिणं प्रक्षालयति ब्राह्मणश्वेद्दक्षिणं प्रथमं ) और भी ( ब्राह्मणो दक्षिणं पादं पूर्वं प्रक्षालयेत्सदा ।क्षत्रादिः प्रथमं वाममितिधर्मानुशासनम् ) यह पद्मपुराणमे लिखाहै॥
ततः पूर्ववद्विष्टरान्तरंगृहीत्वाचरणयोरधस्तात्उत्तरा
ग्रंवरः कुर्यात् । ततो दूर्वाक्षतफलपुष्पचंदनयुतार्घपा
त्रंगृहीत्वायजमानः ॥ ॐअर्घइत्यादिविष्णुऋषिस्त्रि
ष्टुप्छन्दोविष्णुर्देवताअर्घदानविनियोगः। ॐअर्घो
ऽऽर्घो ऽर्घइत्युक्तेऽन्येनार्घःप्रतिगृह्यतामितिदातावदे
त् । ॐअर्घंप्रतिगृह्णामीत्यभिधाय । वरोयजमानह
स्तादर्घंगृहीत्वा । आपःस्थइत्यादिमंत्रस्यसिन्धु
द्वीपऋषिरनुष्टुप्छन्दोर्घाक्षतादिधारणे विनियोगः ॥
ॐआपःस्थयुष्माभिःसर्वान्कामानवाप्नुवानीतिशि
रसिकिञ्चिदक्षतादिकंधृत्वा ॥
भा०टी० पूर्वोक्तवत् और विष्टरको उत्तराय चर्णोके नीचे रखकर इस्के अनंतर दूर्वा ( नवीनतृण) अक्षत तण्डुल चंदन पुष्पयुक्त यजमान अर्घपात्रको लेकर ॥ ॐ अर्घइस मंत्रका विष्णुऋषि त्रिष्टुप्छंद विष्णुदेवता अर्घके दानमे विनियोगहै ॥ यथार्थज्ञान होनेसे उत्तम दान होताहै इसलिये विष्टर पाद्य अर्घ्यआचमनीय आदिका तीन तीनवार उच्चारण कर्ना चाहिये प्रमाणती गृह्यसू
त्रमे जैसे लिखा है (अन्यस्त्रिस्त्रिः प्राह विष्टरादीनि ) अर्घ ॥ १ ॥ २ ॥॥ ३ ॥ है यजमानवाक्यके अनंतर अर्घको वर स्वीकार कर यजमानके हाथसे लेकर ॥ आपःस्थ इस मंत्रका सिंधुदीपऋषि अनुष्टुप्छंद अर्घअक्षतधारणमे विनियोगहै ॥ [ मंत्रार्थ ] हे जलदेवता जिस हेतुसे तुम अमृत दुग्ध दधि मधु फल पुष्प पत्र यव अन्नादि सर्ववस्तुमे व्याप्तहै इस लिये तुमारे आश्रयहो हम संपूर्ण कामनाको प्राप्तहोमेइस मंत्रसे किंचित् शिरमे अक्षतधारण करे ॥
समुद्रंवइत्यादिमंत्रस्याथर्वणऋषिर्बृहतीछन्दोवरुणो
देवताऽर्घजलप्रवाहेविनियोगः ।ॐसमुद्भवःप्रहिणो
मिस्वांयोनिमभिगच्छत । अरिष्टास्माकंवीरामापरा
सेचिमत्पयः ॥ ४ ॥ इत्यर्घपात्रस्थजलमैशान्यांत्य
जन्पठेत् । ततआचमनीयमादाययजमानआचमनी
यमाचमनीयमाचमनीयमित्यन्येनोक्तेआचमनीयंप्र
तिगृह्यतामितिदातावेदत् ॥ आचमनीयंप्रतिगृह्णामी
त्यमिधायवरोयजमानहस्तादाचमनीयं गृहीत्वा ॥
भा०टी० समुद्रंव इस मंत्रका अथर्वण ऋषि बृहती छंद वरुणदेवता अर्घजलके गेरनेमे विनियुक्तहे [ मंत्रार्थ ] हे जलदेवता सिद्ध किया अर्थ जिन्होंने ऐसे तुमको समुद्रमे प्राप्त करताहु । अर्थात् कारणताको प्राप्तकर्ताहै इसलिये मेरे करप्रेरित तुम ( स्वांयोनिं ) अर्थात् समुद्रको प्राप्त होमे किञ्च तुमारे प्रसन्नतासे हमारे भाई शूरवीर और हमारे पुत्र ( अरिष्टा ) अर्थात् आरोग्य रहे और मेरी पूजाके योग्य जल मत नष्टहो अर्थात् सदा रहे औ-
र मेभी पूजाको प्राप्त होमा ॥इस मंत्रको ईशानदिक्मे त्यागन कर्ता जलको पढे इसके अनंतर आचमनीयको यजमान लेकर ॥आचमनीय इस मंत्रका आपस्तम्ब ऋषि उष्णिक्छन्द जलदेवता आचमनीयके देनेमै विनियोगहै ॥यह आचमनीयहै३ ऐसे अन्य पुरुषके वचनसे आचमनीय ग्रहण करो यह दातावरको कहे पश्वात्वर आचमनीय ग्रहण कर्ता हु यह कहकर यजमानहाथसे आचमनी लेकर ॥
आमागन्नितिपरमेष्टीऋषिर्बृहतीछन्दआपोदेवताअ
पामुपस्पर्शनेविनियोगः ॥ ॐआमागन्यसासँ
सृजवर्च्चसातम्माकुरुप्रियंप्रजानामधिपतिंपशूनाम
रिष्टंतनूनां ॥ इत्यनेनसकृदाचामेत्द्वितूष्णींआचा
मेत् । ततोयजमानःकांस्यपात्रस्थदधिमधुघृतानि
समादायान्येन कांस्यपात्रेण पिधाय कराभ्यामादा
यामधुपर्केति मधुच्छन्द ऋषि र्बृहतीछन्दो मधुभुक्
देवता मधुपर्कदाने विनियोगः ॥ ॐमधुपर्को मधुप
र्को मधुपर्क इत्यनेनोक्ते ॐमधुपर्कःप्रतिगृह्यतामि
तिवदेत् ॐमधुपर्कं प्रतिगृह्णामीत्यभिधायैववरः ।
ॐमित्रस्येति प्रजापतिऋषिःपंक्तिच्छन्दो मित्रोदेव
ता मधुपर्कदर्शने विनियोगः। ॐमित्रस्यत्वा चक्षु
षाप्रतीक्ष्य इतिदातृकरस्थमवे मधुपर्कं निरीक्ष्य दे
वस्यत्वेति ब्रह्माऋषि र्गायत्रीछन्दः सविता देवता म
धुपर्क ग्रहणे विनियोगः ॥
यजुर्वे० अ० ६ मं १
ॐदे॒वस्य॑त्वासवि॒तुँप्र॑स॒वेऽश्विन
र्बा॒हुभ्यांम्पूष्णोहस्ता॑भ्यांप्रतिगृ
ण्हामि । इत्यभिधायवरोमधुपर्कं
गृहीत्वावामहस्ते कृत्वा ॥
भा०टी० आमागन् इस मंत्रका परमेष्ठी ऋषि-बृहतीछंद जलदेवता जलके स्पर्शन कर्नेमे विनियोगहै ॥ [ मंत्रार्थ ] हेवरुणदेव तुमारे आश्रित मुझको आप यशस्वि अर्थात् यश संयुक्त करो किञ्चब्रह्मतेजसे युक्तकरोअर्थात् क्षत्री वैश्यकोभी स्वेतजसे युक्त करो ॥ और महात्मा पुरुषोंकी मित्रतासे तथा पशुओंका मालिक और सुखी करो इस मंत्रसे वर एक आचमन करे फिर दो चुपचाप (तूष्णीसे) आचमन करे अनंतर यजमान कांस्यपात्रमें दधि मधु घृत को पाकर ऊपरसे अन्यकांस्यपात्रसे बंद कर हाथमे लेवे मधुपर्क इसमंत्रका मधुच्छन्द ऋषि, बृहतीछंद मधुभुग्देवता, मधुपर्कके देनेमे विनियोगहै॥ मधुपर्कके बनानेमे पराशरजी लिखते है । कि (सर्पिरेकगुणंत्रोक्तं शोधितंद्विगुणंमधु ।मधुपर्कविधौप्रोक्तं सर्पिषा चसमं दधि) अर्थात् घृत एक गुणा शहत दो गुण दधि एक गुण होना चाहिये ॥मधुपर्कग्रहण करे, अनंतर ग्रहण कर्ता हू यह वरयजमानसे कहे । मित्रस्य इसमंत्रका प्रजापति ऋषि. पक्तिछंद.
मित्रदेवतामधुपर्कदर्शनमे विनियुक्तहै [ मंत्रार्थ ] हे मधुमर्क तुमारेको मित्रदेवके नेत्रोसे देखता हु ॥इस मंत्रसे दाताके हाथमेही स्थित मधुमर्कको देखे ॥ देवस्यत्वा इसमंत्रका ब्रह्माऋषि गायत्रीछन्द सूर्यदेवता मधुपर्ककेग्रहण कर्नमे विनियुक्तहै ॥ [ मंत्रार्थ ] हेमधुपर्क सवितानामदेवता की, आज्ञासे हम तुमारेको, अश्विनीकुमारकी बाहु तथा पूष्णः, अर्थात्सूर्यदेवके हाथोसे ग्रहणकर्ते है ॥आशय यहहै कि सूर्यदेवकी कृपासे, अश्विनीकुमारने दियाहै बली जिनको ऐस बाहुओंस तद्वत् सूर्य के हाथोसे ग्रहण कर्ताहै ॥इसमंत्रको पढकर वर मधुपर्क ग्रहण कर वामहाथ में रखकर ॥
ॐनमःश्यावेतिप्रजापतिर्ऋषिर्गायत्रीछन्दःसविता
देवतामधुपर्कालोडनेविनियोगः ॥ ॐनमःश्यावा
स्यायान्नशनेयत्तआविद्धंतत्तेनिष्कृन्तामीतिअनामि
कयात्रिःप्रदक्षिणमालोड्यअनामिकाङ्गुष्ठाभ्यांभूमौ
किञ्चिन्निक्षिप्यपुनस्तथैवद्विःप्रत्येकंनिक्षिपेत् ॥तत
आचारान्मधुपर्कंकिञ्चित्कन्यायैद्रष्टुंदद्यात् ॥ ॐ
यन्मधुनइत्यस्यकौत्सऋषिर्जगतीछन्दःमधुपर्कोदे
वतामधुपर्कप्राशनेविनियोगःॐयन्मधुनोमधव्यंपर
मँरूपमन्नाद्यं ॥ तेनाऽहंमधुनोमधव्येनपरमेणरूपे
णान्नाद्येनपरमोमधव्योन्नादोसानि २ इत्यनेनवार
त्रयंमधुपर्कप्राशनंप्रतिप्राशनान्तेचैतन्मंत्रपाठः ॥
ततोमधुपर्कशेषमसंचरेदेशेधारयेत् ॥
भा०टी० नमःश्यावेति इस मंत्रका प्रजापति ऋषि गायत्रीछंद सवितादेवता मधुपर्कके आलोडनमे विनियोगहै ॥[मंत्रार्थ] हे जठदाग्नेकपिश अर्थात् धूम्रवर्णहै जिस्का और अन्नके पचानेवाले तुमको प्रणाम कर्ते है और जो मेने भोजनकालमे निषिद्ध पदार्थ भक्षणकिया वह निकालताहुं ॥इसमंत्रको पढ अनामिकासे तीनवार प्रदक्षिणा क्रमसे आलोडन कर और अनामिका अंगुष्ठसे पृथिवीपर किंचित् २ तीनवार मधुपर्क गेरे अनन्तर लोकाचारसे मधुपर्क किंचित् कन्याके लिये देखनेको भेजे ।यन्मधुन इसमंत्रका कौत्सऋषि जगती छंद मधुपर्कदेवता प्राशनकर्नेमे विनियुक्तहै ॥[ मंत्रार्थ ] हे देवगणो ! जो मकरंदका परम उत्कृाष्टरूप (अन्नाद्यं ) अर्थात् अन्नादिवत् प्राणधारक तिसपर उत्कृष्ट अर्थात् शरीरमेव्याप्तसर्वरूपको प्राप्त हुए रसकर्के मैं सभसे श्रेष्ठमधुपर्क के योग्य अन्तके भोगनेवाला होमा ॥इसमंत्रको पढ तीन वार मधुपर्क प्राशनकरे मंत्रपाठके अनंतर प्राशन कर्ना ॥ शेष रहा मधुपर्क शुद्धभूमि जिस्पर पाद ना आवे वहा गेरदेवे ॥इस स्थान सूत्रकारके बहुतमतहै कि शेष मधुपर्क जोपूर्वस्त्रीका पुत्रहो उस्को देना वा पूर्वदिशा असंचर स्थानमे गेरदेना वा संपूर्ण आप पीना अथवाशेष अपने विद्यर्थि को देना यथासूत्रं (मधुमतीभिर्वा प्रत्यृचं पुत्रायान्तेवासिन उच्छिष्टंदद्यात्सर्वंवा प्राश्नीयात्प्राग्वासंचरेनिनयेदिति) ॥
ततस्त्रिराचामेद्वरःवाङ्मअस्येअस्तु ॥ नसोर्मेप्राणोऽ
स्तुअक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तुकर्णयोर्मेश्रोत्रमस्तुबाव्होर्मेव
लमस्तुऊर्वोर्मेओजोऽस्तुअरिष्टानिमेऽङ्गानितनूस्त
न्वामेसन्तु ॥इतिप्रत्येकंसर्वगात्राणिसंस्पृशेत् ॥
भा० टी० सजलहाथसे अंगन्यासकरे [ मंत्रार्थ ] वाक्(वाणी ) देवता मेरे मुखमे हो और नासिकामे प्राण हो नेत्रोमे चक्षुरिंद्रय हो कर्णोमे श्रोत्रेंद्रिये हो बाहुमे बलहो और उरुवोमे ओजहो तथा मेरे संपूर्ण अंग अरिष्ट अर्थात् अरोग्य होइस मंत्र से एक २ अंगके क्रमसे स्पर्श कर्ना ॥अब जैसे अंगुलीसे चाहिये वह क्रमलिखते है ॥कराग्र अंगुली तीन १ तर्जनि अंगुष्ठ २ मध्यमा अंगुष्ठ ३ आनामिकांगुष्ठ० ४ अष्ठकनिष्ठका ५ सर्वांगुलि निमीलन ६ यह क्रमपूर्वक रीती है ॥
ततोयजमानद्वारागौर्गैर्गोरितिपाठः ॥ अत्रवरयज
मानाभ्यांतृणछेदनमाचारोनतुविधिः ॥ अतएवप
द्धतिषु ॥ ततोवरस्तृणंयजमानेनसहगृहीत्वाऽग्रिममं
त्रंपठेत् ॥मातारुद्राणामितिमंत्रस्यब्रह्माऋषिस्त्रिष्टु
प्छन्दःशौरिर्देवताऽभिमन्त्रणेविनियोगः ॥ ॐमाता
रुद्राणांदुहितावसूनाँस्वसादित्यानाममृतस्यनाभिः
॥ प्रनुवोचंचिकितुषेजनायमागामनागामदितिवधि
ष्टममचाऽमुष्यचपाप्माहतः ॥ ॐउत्सृजततृणान्य
त्तूद्धृत्योत्सृजेत्इतिब्रूयात् ॥उत्सृजेत्तुतामितितृणं
छिन्द्यादित्युत्सृजेत्यजेत् ॥
भा० टी० तदनंतर यजमानद्वारा गौर्गौर्गौ, यह तीनवार कहाना ईहा वर यजमानका तृणछेदन आचार है नहि विधि
इसलिये पद्धतिओमें वरयजमानके साथ अग्रिम मंत्रपढे । मातारुद्राणां इस मंत्रका ब्रह्मा ऋषि त्रिष्टुप्छंद सौरि देवता अभिमंत्रणमें विनियोगहै [ मंत्रार्थ ] श्री महारुद्रजी नन्दिकेश्वररूप कर ऋषियोंसे भयभीत हुए गौके गर्भद्वारा प्रगटभये इसलिये रुद्रोकी माताहै ॥देवदानवोको समुद्रमंथनसे श्रांतहुआको देखकर विष्णुने समुद्रमंथनद्वारा उत्पन्नकी। इसलिये विष्णु और विष्णुके अंश होनेसे वसुवोकि पुत्रीहै ॥इसलिये वैष्णवी सुरभी माता यह कहते है और नारायणके पुत्र होनेसे आदित्यनाम देवोकी भागेनी है ॥(नारायणाद्द्वादशादित्या इतिश्रुतेः ) अमृत दुग्धकी नाभीअर्थात् उत्पत्तिस्थानह ॥ और मेरे कर अवध्यनोहै परंतु मेरे और यजमानके पापही नष्टहो । हिंसा करर्नेमे प्रायश्चित्त लिखाहै । ( ब्राह्मणं गां तथा कन्यां हन्यादज्ञानतोपियः । निरये भुज्यते तावद्यावदिन्द्राश्वतुर्दश ) इसलिये त्याग देनी चाहिये॥ ॐ मनमे कह कर ( उत्सृजततृणान्यत्तु ) यह ऊंचे स्वरसे कहे शंका कर्ते है कि गवालम्भभी गौणपक्षहै तो कैसी व्यवस्था चाहिये । इसपर उत्तरकि गवालम्भनको अस्वर्ग्यं और लोक विरुद्ध होनेसे और यह वार्तानाममात्र कहनेसेभी प्रायश्चित्ति होनेसे निषेधहै ॥प्रमाण( याज्ञवल्क्य स्मृति ।अ. १) अस्व लोकविद्विष्टं धर्ममप्याचरेन्नतु ) अर्थ जो अंतमे दुखदायक और लोकविरुद्ध धर्मको भी ना करे और यह महापातकहे जैसे मनुजी लिखते है ( नपरं पातकं घोरं कलौगोहत्ययासमं ) नाममात्रसे प्रायश्वित्तपाराशरजो कहतेहै ( कलौवाङ्मात्रगोमेधो निरये प्राप्नु-
यान्नरं । पितृभिःसहधर्मात्मा नैवकुर्यादतश्वतम् ) और कलियुगमे यह वर्जितहै ( गोमेधोनरमेधश्वविवाहेगोर्वधस्तथा । परक्षेत्रेसुतोत्पत्तिः कलावेतानि वर्जयेत् ॥ ) इस लिये गौको त्यागदो यह तृणको भक्षण करे और हमारेको पुष्टि हो ॥
ततोवेदिकायांतुषकेशशर्कराभस्मादिरहितांचतुरस्र
भूमिंकुशैःपरिसमुह्यतानैशान्यांपरित्यज्यगोमयोद
केनोपलिप्यस्फ्येनस्रुवेणवाप्रागग्रप्रादेशमितमुत्तरो
त्तरक्रमेणत्रिरुल्लिख्योल्लेखनक्रमेणा ऽनामिकांगुष्ठा
भ्यांमृदमुद्धृत्यजलेनाभ्युक्ष्यतत्रतूष्णींकांस्यपात्र
स्थंविहितंवन्हिंप्राङ्मुखःप्रत्यङ्मुखमुपसमाधायत
द्रक्षार्थंकञ्चिन्नियुज्यकौतुकागाराद्वरःकन्यामानीय
मण्डपउपवेश्यअथैनांवासःपरिधापयति ॥
भा० टी० गोरुत्सर्गानन्तर कुशकण्डिका लिखतेहै–तुषकेश शर्करा ( रेत ) भस्मादि निषिद्ध वस्तुसे रहित चारो कोणसे हस्तपरिमाण वेदिबना उस्को सवत्सा गोकैगोवरसे लेपन कर खड्गवा स्रुवेसे पूर्वाभिमुख प्रादेश मात्र दक्षिणसे उत्तरकी तरफ तीनवार लिख और रेखा क्रमसै तीनवार अनामिकाअंगुष्ठसे मृत्तिका निकाल शुद्ध जलसे अभ्युक्षण कर अनंतर कांस्यपात्रमे अग्निरखकर उपरसे बंद कर तूष्णीं हो प्रत्यङ्मुख बैठ प्राङ्मुख अग्निस्थापन कर उसके रक्षाके लिये समिधा रखे । और कौतुकागारसे वर कन्याको लेकर मण्डपमे बैठाल कन्याकोवस्त्र पहनावे आगेकेमंत्रसे।
ॐजरांगच्छेतिमंत्रस्यप्रजापतिर्ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दस्तं
तवोदेवतावस्त्रपरिधानेविनियोगः ॥ ॐजरांगच्छपरि
धत्स्ववासोभवाकृष्टीनामभिशस्तिपावा ।शतंच
जीवशरदःसुवर्च्चारयिञ्चपुत्राननुसंव्ययस्वायुष्मती
दंपरिधत्स्ववासः ॥ इतिमंत्रेणपरिधानवस्त्रंपरिधाप
येत् । वरः ॥ अथोत्तरीयंवासःसमादायवरोऽग्रिममं
त्रेणपरिधापयेत् ।याऽअकृन्तन्नवयन्याअतन्वत
याश्चदेवीइत्यादिमंत्रस्यप्रजापतिर्ऋषिर्जगतीछंदोवि
धात्र्योदेवतावस्त्रधारणेविनियोगः ॥ ॐयाअकृन्तन्नव
यन्याअतन्वतयाश्चदेव्यस्तन्तूनभितस्ततंथ ।ता
स्तादेवीर्जरसेसंव्ययस्वायुष्मतीदंपरिधत्स्ववासः ॥
इतिमंत्रेणअहतवासोधौतंवासौत्रेणाछादयीतेतिश्रु
त्यनुसारेणवरोप्येतादृशवाससीअत्रपरिधत्तेपरिधा
स्यैइत्यादिमंत्राभ्याम् ॥
भा०टी० (जरांगच्छ) इस मंत्रका प्रजापतिऋषि त्रिष्टुप्छन्द तन्तुदेवता वस्त्रके पहनानेमै विनियुक्तहै।[मंत्रार्थ]हे आयुष्मती अर्थात्संपूर्णायुयुक्त तुम हमारे साथ निर्दोष जरा अर्थात् बुढापनको प्राप्तहो ॥और मेरे मनको अच्छी प्रतीत होने वाली हो और क्रूरता कपटताको त्याग श्वशुरादी संबधियोसे संकुचित होकर सौम्यस्वभाववाली हो वा स्त्रियोके मध्यसे तुम श्रेष्ठ हो ॥और शतवर्ष अर्थात् पूर्णायु पर्यन्त मेरे साथ प्राणधारण करो यह पूर्वोक्तसे जानना चाहिये ॥और पतिव्रताहो धर्मसे बडे तेज वाली होकर
धन और पुत्राको प्राप्त हो ॥यहमेरे करके दिया हुआ वस्त्र धारण कर ॥इहा परिधत्स्वपढ़ प्रथम आशंसामे दूसरा प्रेरणामे होनेसे पुनरुक्ति दोष नहि ॥इस मंत्रसे वर कन्याको अधोवस्त्र पहनावे ॥ • ॥ याअकृन्तन्न इस मंत्रका प्रजापति ऋषिजगती छंद विधात्रीदेवता ।वस्त्रके धारणमे विनियुक्तहै [ मंत्रार्थ ] जो देवि इस वस्त्रको कातती भई औरजो वयति अर्थात् विनती भई और जो २ देवी सूत्रको तनुती भई तुरी वेमादिसे उस २ सामर्थ्यके देने वाली देवीलोग निर्दोष दीर्घकाल जीवनके लिये तुमारेको वस्त्र पहनाति है ॥इस हेतसे हे आयुष्मति इस वस्त्रको उत्तरीय होनेसे धारण करो ॥ इस मंत्रसे नवीन वस्त्र आप धोता हुआ धारणकरावे । न कि रजकादिसे धौत होवे इस श्रुति अनुसार वरभीअधो वस्त्र उत्तरीय वस्त्रको धारण करे परिधास्यै इत्यादिमंत्रोसे॥
परिधास्यैइत्यादिमंत्रस्याथर्वणऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः
तन्तवोदेवतावासःपरिधानेविनियोगः । ॐपरिधा
स्यैयशोधास्यैदीर्घायुष्ट्वायजरदष्टिरशिमः ।शतञ्जी
वामिशरदःपुरुचीरायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये । इति
पठित्वावरःपरिधत्ते (अथोत्तरीयमाच्छादयतोतिसूत्रं
ॐयशसेइत्यादिमंत्रस्यप्रजापतिर्ऋषिर्जगतीछन्दोवि
धात्र्योदेवतावासोधारणेविनियोगः ॥ ॐयश
सामाद्यावापृथिवीयशसेन्द्रायबृहस्पतिःयशोभगश्च
माविदद्यशोमाप्रतिपद्यतामितिपठित्वोत्तरीयंपरि
धत्ते ॥ ततःकन्यायावरस्यचद्विराचमनम् ।
भा० टी० (परिधास्यै ) इस मंत्रका अथर्वणऋषि त्रिष्टुप्छन्द तन्तुदेवता ।वस्त्रके धारणमे विनियेगहै [ मंत्रार्थ ] हे वस्त्रदेवता तुमारेको अनेक श्रेष्ठवस्त्र धारणके लिये तथा यशकीर्तिके लिये और निर्दुष्ट चिरकाल जीवनके लिये । तुमारी कृपासे पूर्णायुकेभोगने वाला मै बहुपुत्र धनादि युक्त धनके देनेवाले तुमको धारण कर्ताहू और तुमारे संबंधसे शतवर्ष जीवित रहा इसमंत्रका पढकर अधोवस्त्र धारण करे ॥आगेके मंत्रसे उत्तरीय जैसे यशमा इस मंत्र का प्रजापतिऋषि जगतीछन्द विधात्री देवता वस्त्रधारणमे विनियोगहै ॥[ मंत्रार्थ ] हे वस्त्रदेवता यशसे युक्त आकाश पृथिवी तथा यशयुक्त इंद्र बृहस्पति तद्वत् यशयुक्त सूर्य मुझको जाने और उन्हकर सम्पादन किया यश मुझको प्राप्तहो इसमंत्रसेउत्तरीय धारण करे अनंतर कन्या और वरको दोवार आचमन कर्ना चाहिये एक अधोवस्त्र धारण कर द्वितीय उत्तरीय धारण कर प्रमाण जैसे याज्ञवल्क्यस्मृति अध्याय १८ आचांतःपुनराचामेद्वासो विपरिधायच अर्थ आचमन किया हुआ फिर आचमन करे वस्त्रको धारण कर्केभी इति ॥
ततःकन्याप्रदेनपरस्परंसमञ्जेथामितिप्रेषितयोः पर
स्परंसम्मुखीकरणम् ॥समञ्जत्वितिमंत्रस्यअथर्वण
ऋषिरनुष्टुप्छन्दोविश्वेदेवादेवतामैत्रीकरणेविनियो
गः ॥ ॐसमञ्जन्तुविश्वेदेवाःसमापोदृदयानिनौ ॥
सम्मातरिश्वासंधातासमुदेष्ट्रीदधातुनः ॥ इतिवरःपठे-
त् ॥ ततः कन्याप्रदकर्तृकग्रन्थिबन्धनम् ॥ हस्तले
पनंशाखोच्चारणम् ॥
भा०टी० अनंतर यजमानद्वारा कन्या वरकी मैत्री कराणि समंजंतु इस मंत्रका अथर्वणऋषि अनुष्टुप्छन्द विश्वेदेवा देवता मैत्री कर्नेमे विनियुक्तहै ॥ [ मंत्रार्थ ] हे कन्ये संपूर्ण देवता तथा शुद्ध जलसे तुह्मारे हमारे मनको गुणातिशय द्वारा संस्कार करे अर्थात् दुष्टवासनासे रहित शुद्ध करे तद्वत् अनुकूल प्रजापति और उपदेशके कर्नेवाली सावित्री ( गायत्री ) देवताभीहमारी तुमारी बुद्धि धर्म अर्थ काम मोक्षमे लगावे ॥इस मंत्रको वर पडे ॥ x शंका कर्तेहै की वरको कन्या इस शब्दसे कहना उचित नाहिकिउनकी जो पुरुष स्त्रीको माता वा भगिनो वा कन्या कहे उसको प्रायश्चित्त कर्ना लिखाहै । उत्तर यद्यपि तुमारा कथन सत्यहै तथाइसकाल पर्यन्त और स्त्रीयोंकी वत यहभी कन्याही थी वरकाभी कुछ संबध नहिथा और वाग्दानके अनंतरभीकन्याही कही जाति है यथा प्रमाण( वरदानोचिताकन्या) फिर पाणिग्रहणके अनंतर यह वधूशब्दसे कही जावेगी ( स्वसत्वनिवृत्तपरसत्वोपादानात्) इस न्यायसे हम प्रमाण सूत्रकारकाभीदेते है ( सुमङ्गलीरियंवधूरिमाँसमेतपश्य तसौभाग्यमस्यैदत्वायाथास्तंविपरे तनेति) और नारदस्मृतिकाभीप्रमाण जैसे (दशवर्षाभवेत्कन्या सम्प्रदानेवधूर्भवेत् । साङ्गुष्ठग्रहणेभार्य्या पत्नीचातुर्थ कर्मणि ॥) अनंतर यजमानद्वारा द्रव्य पुष्प अक्षतादि कन्याके वस्त्रमे रखकर बांध वस्त्रसे वरके वस्त्रसे बांधे जिस्को लोक गठचीतन कहते है प्रमाणभी जैसे
योगियाज्ञवल्क्यजीका ( कन्यकासुदशेपार्श्वे द्रव्यपुष्पाक्षतानिच । निक्षिप्यतानिसंबद्ध्वावरवस्त्रेणसंयुजेत् ॥ वस्त्रैःसंयोज्यतौपूर्वकन्या दानंसमाचरेत् । दानेनयुक्तयोःपश्चाद्विदध्यात्पाणिपीडनम् ) इति । अनंतर हाथोमे कन्याके उद्वर्तन ( उवटना लगाना) ॥
अथकन्यादानम् ॥ दाताशंखस्थदूर्वातक्षफलपुष्पचं
न्दनजलान्यादाय ॥ अथकन्याप्रदः जामातृदक्षिण
करोपरिकन्यादक्षिणकरंनिधाय ॥दाताऽहंवरुणोरा
जाद्रव्यमादित्यदैवतम् ॥विप्रोसौविष्णुरूपेणप्रति
गृह्णात्वयंविधिः ॥ इतिदातापठेत् ॥ गोत्रोच्चारणंच
कुर्यात् ॥विप्रातिरिक्तपक्षेविप्रोसावित्यत्रवरासावि
तिपठेत् ॥ ॐस्वस्तीतिवचनमुक्त्वाद्यौस्त्वाददातु
पृथिवीत्वाप्रतिगृण्हात्वितिमंत्रेणकन्याहस्तंवरःप्रति
गृह्णीयात् ॥ ततःकन्याप्रदःअद्यकृतैतत्कन्यादान
यथोचितफलावाप्तयेकन्यादानप्रतिष्ठार्थमिदंहिरण्य
मग्निदैवतममुकगोत्रायाऽमुकशर्मणेब्राह्मणायवरायद
क्षिणांतुभ्यमहंसम्प्रददे इतिदक्षिणांगोमिथुनंवादाद्य
त् ॥ ततःस्वस्तीतिवरःप्रतिब्रूयात् ॥
भा०टी० वस्त्रग्रंथि बंधनके अनंतर कन्यादान लिखते है यजमान शंखमे दूर्वाक्षता फलपुष्प चंदन जल लेकर दाता वरके दक्षिणहाथपर कन्याका दक्षिणहाथराखे पूर्वोक्त ( मंत्रार्थ ) वरुणरूपमैंयजमान और सूर्य संकल्प रूप यह द्रव्य विष्णुरूप वर यह
विधि ग्रहणकरे इसमंत्रको दाता पढे स्वस्ति हो ऐसे कहे \ मंत्रार्थ ) आकाश तुमारेको देताहै और पृथिवी ग्रहण कर्ती है। इस मंत्र से कन्याका हाथ वर ग्रहणकरे अनंतर आजकिये कन्यादानकी शास्त्रविहित स्वर्गादि प्राशिके लिये य सुवर्ण अग्निदेव संबंधिअमुकशर्माहि वरको दक्षिणासे देताहै वा गौउदो वत्ससहित देताहै ॥इसके अनंतर तुमको कल्याण हो एसे वर कहें । और संकल्पकी विधि बृहत्पाराशरजी लिखते है (कन्यादानसमारम्भेदाताशङ्खे समाददेत् । दूर्वाक्षत फलं पुष्पं चंदनं जलमेव च । इत्यादि संपूर्ण विधानको विस्तृतके भयसे नहि लिखते॥ और संकल्पपूर्व कन्यादानका लिखा हुआ हे पृ० पत्र में ॥स्वस्तीति [ इसस्थान आचारसे और संबंधि पुरुषभी सुवर्ण कर रजत ताम्र गौउ महिषी ग्राम पृथिवी यौतुक होनेसे कन्याको यथाशक्ति देते है ।कइ होमके अनंतर कई २ वधू वरके विसर्जन अनंतर खट्टादि दानकर्तेहै ॥यह सव अपने२देशाचारसे व्यवस्था जाननी जिस देशमे जैसे हो तैसेहीकर्ना (इससे मुनियोके मतभी बहुत लिखते है ( कन्याप्रदानन्तविधायतातस्तद्दक्षिणांगोमिथुनं सुवर्णं । दत्वाप्रदद्याद्वरणं वरार्थं वस्त्राणिपात्राणिविभूषणानि ॥ तत्रैवदयानिबहुश्रुताजगुर्वाल्मीकि जाबालिपराशराद्या।होमान्तआहुर्भुगुनारदाद्या विसर्जनेव्यासमरीचिकौत्साः) इत्यादि ॥और देशाचारमे प्रमाण (ग्रामवचनंच कुर्युर्विवाहश्मशानयोर्गामंप्राविशता) दितिवचनात्तस्मात्तयो र्ग्रामप्रमाणमितिश्रुतेः ॥अर्थ कि ॥ विवाहकीकर्तव्यतामे और श्मसान अर्थात् प्रेत क्रियामे ग्राममे प्रवेश कर ग्राम वचन करे इस
श्रुतिसे अपने २ देशरीति और कुलरीति और ग्रामरीति परंतु जो धर्मविरुद्ध ना होवे उन्को करे ।
यजुर्वेद अध्या ७ ।मूल मंत्र ४८ ॥
ॐको॑दा॒त्कस्मा॑ऽअदा॒त्कामो॑दा॒त्
कामा॑यादात् । कामो॑दा॒ताकाम॑÷
प्रतिगृह्णही॒ताकामै॒तत्ते॑ ॥ इतिवरः
पठेत् ॥
ततस्तांपाणौगृहीत्वा । ॐयदैविमनसादूरंदिशोनुपवमानो वा । हिरण्यपर्णेवै कर्णः । सत्वामनमनसांकरोतु ॥ श्रीअ मुकदेवीइतिपठन्निष्कामति । ततोवेदिदक्षिणस्यांदिशिवारि पूर्णदृढकलशंऊर्दंतिष्ठतोमौनिनः पुरुषस्यस्कन्धेअभिषेक पर्यन्तंधारयेत् । ततः परस्परंसमीक्षेथां-इतिकन्याप्रैषानंतरं-
ॐ[अघो॑रच॒क्षु6रप॑ति॒घ्नेधि॑शि॒वाप॒
शुभ्य॑ सु॒मनः॒सु॒वर्चाः÷ ॥ वी॒र॒सु॒र्दे॒
वकामास्यो॒नाशुन्नो॒भवृद्विपदेशं॒च
तु॑ष्पदे ।
सोमः॑प्रथुमोवि॑विदे7गंध॒र्वोवि॑विद॒
उत्त॑रः । तृतीयो॑अ॒ग्नि॒ष्ट॒पति॑स्तु॒रीय
स्तेमनुष्य॒जाः ।सोमो॑ददद्गन्ध॒र्वा8
य॑गन्ध॒र्वोद॑ददग्नये॑। र॒यिंच॑पु॒त्रांश्चा॑
दाद॒ग्रिर्मद्यु॒मथो॑ इ॒माम् ॥
सानः पूषाशिवतमामेरयसानऊरू
उशतीविहर ।यस्यामुशन्तःप्रहरामशे
पंयस्यामुकामाबहवोनिविष्टयै । इति
वरपठितमन्त्रान्तेपरस्परंतिरीक्षणं ।
भा० टी० कोदातेति [ मंत्रार्थ ] प्रश्न. कोन देताहै उत्तर. काम अर्थात इच्छाहि देती है । जिससे कामही देता और कामही लेनेवाला इस लिये यह पत्नी प्रतिग्रह उस काम ( संकल्प ) के लिये है ॥ बली है सर्वसे और धन्यहै कि जो क्षत्रियादि जो दान मरण पर्यंतभी नहि लेते अधिकारके ना होनेसे यह उन्कोभी दान महाकन्यारूपी देती है ॥ यह इच्छा की स्तुतिपर मंत्र है \। इस मंत्र को प्रथम वर पढे पीछेसे वधूको हस्तसे ग्रहण कर यदेषि इस मंत्रको
पडे [ मंत्रार्थ ] प्राच्यादिसे लक्षित वायुकी न्याई तुमारेको पिता गृहसे दूर लेजाता है वह वायु और हिरण्यवर्ण सूर्य वैकर्ण अग्नि अर्थात् दिक्वायुसूर्य अग्न्यादि देव मुझमे लगाहै हृदय जिस्का ऐसी तुमको करे ।इस मंत्र के अंतमे वर कन्याका नाम लेवे। आत्मनाम गुरोर्नामेति आगे नाम कभी ना ग्रहण करे अनंतर दक्षिणदिशामे जलपूर्ण कलश स्कंध ( कांधेपर ) रखकर अभिषेक पर्यन्त दृढ पुरुष स्थित रहैउठकर ॥ तुम आपसमे देखे यह यजमान कहे ( मंत्रार्थ ) हे कन्ये तुम सौम्यदृष्टिवाली हो और (अपतिघ्नी) अर्थात्पतिके अर्थके नाशकर्नेवाली मत हो इस विवाह संस्कारके अनंतर पशुवत् जो आश्रित पुरुष उन्मे हित कर्नवाली हो और प्रसन्न चिनवाली सुंदर प्रतापवाली । मत्पुत्र और वीरपुत्रोके पैदा कर्नेवाली (देवकामा) देवान अग्न्यादीन पूजार्थ कामयति इच्छतीति ) अर्थात् देवता ओमे तथा पित्रोमे श्रद्धावाली हो (स्योना) मुखी हमारेको कल्याण देनेवाली हौं ॥ सिद्धांत यह है कि तुमाऐसे हमको सर्वदा लाभहो ॥ ( मंत्रार्थ ) कन्यास्तुतिका. हेकन्ये प्रथम रक्षाकर्नवाला चंद्रमा जन्मदिनसे सार्द्धद्वय वर्ष ( अर्थात् २ \। अढाई वर्षपर्यंत तुमारी पुष्टि कर्ता हुआ तिरके अनंतर गंधर्व अर्थात् सूर्य पांचवर्ष पर्यंत तुमारेको पडाता हुआ इस लिये सूर्य तुमारा दूसरा पति (पाति रक्षति ) इति पतिः अर्थात् रक्षाकरनेवाला अनंतर पांचवर्ष लेकर सातवर्ष तक अग्नि तुमारेको शुद्धता सर्व काममे देता हुआ इससे अभि तीसरा पति रक्षाकर्नेवाला भया॥ प्रमाण जैसे ( पूर्वंस्त्रियः सुरैर्भुक्ताः सोमगन्धर्ववन्हिभिः । प्रतिपोष्याध्या
प्यसंशोध्यपरित्यक्तांनरोभजेत् ॥ अर्थ जन्मदिनसे ले साडेसात वर्षमे अढाई२ ॥ वर्ष क्रमसे सोम चंद्रमा सूर्य अग्नि देवने क्रमसे (भूक्ताः) रक्षाकी \। भुज पालनाम्यवहारयोः । इस धातुसे क्तप्रत्यय के आनेसे बहुवचनान्त होनेसे भुक्ता यह शब्द सिद्ध होता है। और क्रममे पुष्टकर तथा पढाकर और शुद्धकरके त्यागको हुई स्त्रियोंकोनर भजते है अर्थात् सेवन कर्त्त है भजसेवायां इस धातुसे लिङ्लकारके आनेस यासकेस्थानमे ईय तिप आदि आने से रूप अजेत्व नता है \। इस लिये साडेसात वर्ष के नंतर ज्योतिषशास्रमे दोष लिखा है विवाह कनेका ॥ [ मंत्रार्थ ] चंद्रमा ३० मासमे पुष्टकर सूर्यको देता नया सूर्यजी ३० महीने के अनंतर दक्षता पांडित्यको देकर अनिके समर्पण कर्ता जया वह अग्निदेव इस स्त्रीको साथ पुत्रोके धनके धमके शुद्धकर मुझदेता है प्रमाणती जैस याज्ञवल्क्यस्मृति अध्याय १ सोमःशौचंददावासांगन्धर्वश्वशुभांगिरं। पावकःसर्वमेध्यत्वमेध्यावैयोपितःस्मृताइत्यादि।अर्थ पूर्वोतही है इसलिये ही सर्व स्त्रीको विना पढाये स्त्रीयोको ऐसी चातुर्यता होती है कि जो विद्वान लोकहै उनकीभी बुद्धि नष्टकर अपने आधीन करलेती है और नृत्यादिकलामे ऐसी कुशल होती है की जो नहि कही जाती यह विनामूर्यके अंतःकरणमे उपदेश कर्नके कैसे होता है \। अब चन्द्रमाका कार्य देखे की जो पुरुष गांधर्वविद्यामे दिनरात्र अभ्यास कर्ते है वहि स्त्रीका स्वाभाविक राग श्रवण कर संकुचित हो जाते है तो कहिये वह किस गन्धर्वकी शिष्य वनकर शिक्षाको प्राप्त होती है इत्यादि बहुत गुण है जो पुरुषको जन्मभरमे भी ना आमे बु-
द्धिवान पुरुष सर्व जानते है ।इस अपनी तर्कके सिद्ध कर्नेकेलिये शास्त्र के प्रमाण देते है ’ आहाराद्विगुणःस्त्रीणां बुद्धिस्तासांचतुर्गुणा।षड्गुणो व्यवसायश्चकामश्वाष्टगुणःस्मृतः॥ स्त्रीयाश्चरित्रं पुरुषस्यभाग्यंदेवो नजानातिकथंमनुष्यः ॥ स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीषुसंदृश्यतेकिमुत याः परिबोधवत्यः ॥ प्रागंतरिक्षगमनात्स्वम पत्यजातमन्यैर्द्विजैपरभृताः खलुपोषयन्ति ॥ अर्थ ‘दुष्यन्तराजा कहताहै कि विना सिक्षाके चातुर्ग्यता जो पशु पक्षियोकी स्त्री है उन्मे देखते है ।जैसे कोकिल अपने पुत्रोको कागादिसे पुष्टकरातीहै तो हम मनुष्योकीस्त्रीमेक्या कहै यह प्रसंग शकुंतलानाटकमे विस्तारसे है ॥ इति ॥
( मंत्रार्थ सान इति ) जगतका चक्षु सूर्य देव कल्पाणयुक्त इस्को हमारेमे अनुरक्त करे ।यह स्त्री हमारेस सुखऔर पुत्रोकों इच्छा कर्तीभई उरु अर्थात् जंघाको पसारे और हम स्त्रीकीयोनिसे सुख और पुत्रोको इच्छा कर्ते भये शेफ अर्थात् लिंगको प्रवेशन करे ॥ जिसमे धर्म पुत्र रतिमुखादिरूप बहुत गुण होते है ( निविष्ट्यै) अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्मद्वारा अंतःकर्ण शुद्ध होनेसे मुक्तिके लिये भाव यह है कि धर्म अर्थ काम मोक्षका साधन पतिव्रता स्त्री है ( प्रमाण याज्ञवल्क्यस्मृति अ०१ –लोकानंत्यंदिवःप्राप्तिःपुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः । यस्मात्तस्मात्स्त्रियःसेव्याः कर्तव्याश्वसुरक्षिता ) इति ॥
विशेषद्रष्टव्य—जिनको अर्थमे कुछ भ्रांति हो वह ऋग्वेदकेचिन्हसे भाष्य देखे और सूत्र ब्राह्मण मिलावे तो उन्का हमारेपर
अत्युपकार होगा और ( दशास्यांपुत्रानाधेहिपतिमेकादशंकृधि ) इन्कोभी देखे तो अच्छाही है अन्यथा हमगप्पाष्टक नहिमानते और विस्तारके भयसे बहुत लिखते नहि ॥
क्षेपक
ऋग्वेद मंडल १० सू० ८५ मं० ॥ २५ ॥
इ॒मांत्वमि॑न्द्रमीढ्वःसुपु॒त्रां सुभगां॑
कृणु। दशा॑स्यांपु॒त्रानााधे॑हि॒पति॑
मेकाद॒शंकृ॑धि ॥
( अर्थ ) हे परमेश्वर इस्की सौभाग्ययुक्त साथ पुत्रोके वृद्धिकरे और इस्मे दशपुत्र उत्पन्न हो उन्को और साथ. १० पुत्रोकेसहित ११ मपतिकी वृद्धि करो धनादिसे ॥ इस अर्थमे जिनको संदेह पडे वह उपर लिखत चिह्न से ऋग्वेदमें देखे \।\।
ततोग्निंप्रदक्षिणीकृत्यपश्चादग्नेरहतवस्त्रवेष्टितंतृणपू
लकंकटंवानिवेश्यतदुपरिदक्षिणचरणंदत्वावधूं
दक्षिणतः कृत्वातामुपवेश्यपुष्पचंदनताम्बूलान्यादा
य॥ओंतत्सदद्यकर्तव्यविवाहहोमकर्मणिकृताऽकृता
वेक्षणरूपब्रह्मकर्मकर्तुममुक गोत्रममुक शर्माणंब्राह्मण
मेभिः पुष्पचंदनताम्बूलवासोभिः ब्रह्मत्वेनत्वामहंवृणे
इतिब्रह्माणंवृणुयात् ॥ वृतोस्मीतिप्रतिवचनं ॥ यथा
विहितंकर्म्मकुर्वितिवरेणोक्तेकरवाणीतिब्रह्माब्रूया
त् ॥ ततोवरोऽग्नेर्दक्षिणतः ब्रह्माणमग्निप्रदक्षिणक्र
मेणानीयअत्रत्वंमेब्रह्माभवेत्याभिधायकल्पितासनेस
मुपवेशयेत् ॥
भा०टी० परस्पर निरीक्षण के अनंतर अग्निको प्रदक्षिणा कर आग्निके पश्चिम भागमे अहत (नादग्ध) वस्त्रवेष्टन कर तृणपूलक वा कट (सक) रखकर उस्केउपर दक्षिणपाद देकर अर्थात् उल्लांघन ना करवधूको दक्षिण भागमे लेकर उस्का वामपाद रखकर विठाय पुष्प चंदन तांबूल ( पान ) हाथमे ले । आज कर्तव्यविवाहके होमकर्ममे कर्मकी शुद्धि अशुद्धि की परीक्षा इत्यादि जो ब्रह्माका जो कर्मउस्केलिये अमुक गोत्र अमुक ब्राह्मण ब्रह्मा समझकर आपको वर्ण कर्ता हु ॥हमने वर्णी लई यह ब्रह्मा कहे ।तुम यथावत् कर्म करो ऐसे वर कथनके अनन्तर कर्ता हु ऐसे ब्रह्माजी कहे अनंतर अग्निप्रदक्षिण क्रमसे ब्रह्माकोलैजाय तुम कर्मसाक्षी मुझका ब्रह्मा हो ऐसे कह अग्निसे दक्षिणभागमें आसनपर विठलावे अर्थात् वरणवृक्षसे बने हुए काष्ठके पीठपर कुशाविछाय पूर्वोत्तर क्रमसे उसपर कर्मके तत्वको जाननेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण बैठावे यदि ऐसा नामिले तो पचास कुशोका ब्रह्मा रचकर बिठावे ॥
ततःप्रणीतापात्रंपुरतः9कृत्वावारिणापरिपूर्यकुशैरा
च्छाद्यब्रह्मणोमुखमवलोक्यअग्नेरुत्तरतःकुशोपरिनि
दध्यात् ॥ ततः परिस्तरणंवर्हिषश्चतुर्थभागमादाय
आग्नेयादीशानांतंत्रह्मणोऽग्निपर्यन्तंनैर्ऋत्याद्वायव्या
न्तमग्नितःप्रणीतापर्यन्तंततोऽग्नेरुत्तरतःपश्चिमदिशि
पवित्रछेदनार्थंकुशत्रयंपवित्रकरणार्थंसाग्रमनंतर्गर्भ
कुशपत्रद्वयंप्रोक्षणीपात्रंआज्यस्थालीसंमार्ज्जनार्थंकु
शत्रयंसमिधस्तिस्रःस्रुवआज्यंपट्पञ्चाशदुत्तरमुष्टि
द्वयावच्छिन्नतण्डुलपूर्णपात्रंपूर्वपूर्वदिशिक्रमेणासा
दनीयम् ॥
भा०टी० ब्रह्माजीकी वर्णीके अनंतर प्रणीतापात्रको मुखके बराबर आगे कर जल पूर्ण कुशासे आछादन कर सादी होनसे ब्रह्माजीको देख अग्रिकी उत्तरकोणमे कुशापर स्थित करदे । अनंतर कुशमुष्टिका चौथाभाग ले अग्निअग्निकोणसे ईशानकोण पर्यन्त ब्रह्मासे अग्निपर्यन्त नैर्ऋतिकोणसे वायुकोणपर्यन्त पूर्वाग्र उत्तराग्रकुशा विछावे । अनंतर अग्निकी उत्तर तरफ पश्चिममे पवित्र छेदन लिये तीन कुशापवित्रकर्नेके लिये साथ अग्रके और मध्यपत्रसे रहित दो कुशपत्र ।प्रोक्षणीपात्र आज्यस्थाली संमार्जनके लिये तीन कुशा उपयमनके लिये वेणीरूप तीन कुशा । तीन समिधा स्रुवा घृत पुष्ट ब्राह्मण तृप्तिकारक वा २५६ मुष्टिप्रमाण तंडुलपूर्णपात्र आगे २ पूर्वदिशामे क्रमसे रखने चाहिये ॥नीचे लिये लक्षण पात्रोके सर्व जानने ॥
( १ ) प्रणीताका—लक्षण वरणवृक्षका १२ अंगुलदीर्घ ४ अंगुल विस्तार और खोदा हुआ प्रणीतापात्र होता है ॥
( २ ) प्रोक्षणीपात्र–लक्षण देवलोक्त oप्रणीतानैर्ऋतेभागेतद्वायव्यगोचरे । वारणंसंविजानीयात्सर्वकर्मसुकारयेत् ॥ सर्वसंशोधनार्थोदपात्रंवारणमिष्यते। द्वादशाङ्गुलि दीर्घंचकरतलोन्मितखातकं ।पद्मपत्रसमाकारंमुकुलाकारमेववा ॥
( ३ ) आज्यस्थालीकालक्षण–तैजसी मृन्मयीवापि आज्यस्थालीप्रकीर्तिता । द्वादशाङ्गुलविस्तीर्णाप्रादेशोच्चाप्रमाणतः ॥
( ४ ) चरुस्थालीकालक्षण–चरुस्थालीतथैवापिदीर्घोच्चातुप्रमाणतः।नानयोरन्तरंयस्माद्द्रव्यसंस्कारणार्थकइति ॥
( ५ ) संन्मार्जनकुशमेप्रमाण–स्रुवसम्मार्जनार्थन्तुकुशत्रयमुदीरिततम् । इतिव्यासस्मृतौ
(६)उपयमनकुशाकाप्रमाण–उपयमनार्थमाख्यातास्त्रिपण्नवमिताःकुशाः। वेणीरूपानिरोधार्थानिरोधेबहुःभिसुखं इतिभृगुवचनात् ॥
(७) समिधा३मेप्रमाण पालाशजंप्रादेशमात्रंदैर्घ्येणस्थूलता ।कनिष्ठिकासमंध्यात्वाविधिमग्नौक्षिपेच्चतत्इतिपराशरः
(८) स्रुववाब्रह्महस्तलक्षण–स्रुवस्तुब्रह्महस्ताख्यःस्कन्धान्तोबाहुरुच्यते । स्वाहाकारस्वधाकारवषट्कारसमान्वितः॥ दण्डाकारोभवेन्मूलेस्यादरत्न्यांतुतत्समः।सकङ्कणस्तुदण्डाग्रहस्ताकारस्ततोबहिः ॥अष्टांगुलिपरीमाणंमूलाभ्यंतरतस्त्यजेत् ॥ दशाङ्गुलिपरीमाणंमूलाभ्यंततस्त्यजेत् ।
दशांगुलीपरिमाणमारभ्याकङ्कणावधि ॥ हस्तमात्रंभवेद्धस्तस्रुवइत्यभिधीयते ॥ खादिरःशैंशिपोवापिह्यन्योवापुण्यवृक्षजः ॥ धावकोपिसमाख्यातोहोमार्थेमुनिभिःकृतः ॥ इतिकात्यायनः ॥
(९) घृतलक्षणम्– तथाचस्मृतिः। गव्यमाज्यंजुहुयात्तदभावेमाहिषंस्मृतम्॥तथाचश्रुतिःगव्यमाज्यंजुहुया-त्तदभावेमाहिषेयमिति॥
( १० ) चरुलक्षणम्–व्रीहितंदुलसंसिद्धोमुख्यःप्रोक्तःसुरर्षिभिः । इत्याचारचंद्रोदये ॥
( ११) पर्यग्निकेलक्षणमेश्रुति–पर्यग्निंकुर्वन्ज्वलदुल्मुकमादायप्रदक्षिणमाज्यचर्वोः समंताद्भ्रामयेत्इति॥
१२ समिधालक्षणं-पलाशखदिराश्वत्थशम्युदुम्बरजासमित्। अपामार्गकदूर्वाग्निंकुशाश्चेत्यपरेविदुः॥ सत्वचःसमिधः
स्थाप्याऋजुश्लक्ष्णाः समास्तथा। शस्तादशाङ्खलास्तास्तुद्वादशांगुलिकास्तुताः॥ आर्द्राःपक्वाः समच्छेदास्तर्ज्जन्यंगुलि
वर्तुलाः। अपाटिताश्चविशिखाः कृमिदोषविवर्जिताः॥ ईदृशीहोमयेत्प्राज्ञःप्राप्रोतिविपुलांश्रियं ॥ इतिव्यासकात्यायन वसिष्ठगौतम भरद्वाजाः ॥
अथतस्यामेवदिशिअसाधारणवस्तून्युपकल्पनीयानितत्रशमीपलाशमिश्राःलाजादृषदुपलंकुमारीभ्राता
सूर्यःदृढपुरुषः ॥ अन्यदपितदुपयुक्तमालेपनादिद्र
व्यं ॥ततःपवित्रछेदनकुशैःपवित्रेछित्वाततःसपवित्र
करेणप्रणीतोदकंत्रिःप्रोक्षणीपात्रेनिधायअनामिकां
गुष्ठाभ्यांउत्तराग्रेपवित्रेगृहीत्वात्रिरुद्दिंगनंप्रणीतोद
केनप्रोक्षणीजलेनयथासादितवस्तुसेचनं ॥ ततोऽ
ग्रिप्रणीतयोर्मध्येप्रोक्षणीपात्रनिधानं ॥आज्यस्था
ल्यामाज्यनिर्वापः ॥ ततोऽधिश्रयणं ॥ ततोज्वलत्तू
णादिनाहविर्वेष्टयित्वा-प्रदक्षिणक्रमेणवह्नौतत्प्रक्षेपः
पर्यग्निकरणं ॥ ततःस्रुवप्रतपनंकृत्वासम्मार्जनकुशा
नामग्रैरंतरतोमूलैर्वाह्यतः ॥स्रुवंसंमृज्यप्रणीतोदके
नाभ्युक्ष्यपुनःप्रतप्यस्रुवंदक्षिणतोनिदध्यात् । ततः
आज्यस्याग्नेरवतारणंततआज्येप्रोक्षणीवदुत्पवनं ॥
अवेक्ष्यसत्यपद्रव्येतन्निरसनं ॥ पुनः प्रोक्षणीवदुत्प
वनम् ॥
भा०टी०अनंतर तिस दिशामे और सर्ववस्तु स्थापन कर्नी जैसे शमी जंडी पलाशसे युक्त लाजा (फलिया) शिला वट्टा कन्याका भाई देखनेलिये सूर्य मजबूत पुरुष और भी जो कामकी वस्तुहो वहभी पास रखले पवित्र कुशासे पवित्रको छेदन कर फिर साथ पवित्रके हाथसे प्रणीताके जलको तीनवार प्रोक्षणीपात्रमें रखकर अनामिका और अगुंष्ठसे उत्तराग्र पवित्रग्रहणकर तीनवार ऊपरको जल फैंकना प्रणीता और प्रोक्षणीका जलमिलाय
सर्ववस्तुको सिञ्चन कर्ना अनंतर अग्नि और प्रणीताके मध्यमे प्रोक्षणीपात्र रखना आज्यस्थालीमे आज्यपाना और अग्निपर रखणी जलते तृणसे हविर्वेष्टनकरप्रदक्षिण क्रमसे तृणको अग्रिमे गेरदेना जलती चमातीसे प्रदक्षिण क्रमसे घृत चरुके चारो पार्श्वमेफेरनी ॥ अनंतर स्रुव तथा संमार्जन कुशाके अग्रभागसे अनंतर मूलसे बाहिरसे स्रुवको पोच प्रणीतोदकसे अभ्युक्षण कर (सिंचन) फिर तपाय दक्षिणभागमे राखे । पुनः घृत अग्निसे उतार आज्यका प्रोक्षणीवत् उत्पवन करना यदि निषिद्धवस्तु हो तो निकालदेनी पुनःप्रोक्षणीवत् उत्पवन कनी ॥
ततःउपयमनकुशानादायउत्तिष्ठन्प्रजापतिंमनसाध्या
त्वातूष्णीमग्नौघृताक्तास्तिस्रःसमिधःक्षिपेत् ॥ ततउ
पविश्यसपवित्रप्रोक्षणीउदकेनप्रदक्षिणक्रमेणाग्निपर्यु
क्षणंकृत्वाप्रणीतापात्रेपवित्रेनिधायपातितदक्षिणजा
नुःकुशेनब्रह्मणान्वारब्धःसमिद्धतमेग्नौस्रुवेणाज्याहु
तीर्जुहोति ॥ तत्राघारादारभ्यद्वादशाहुतिपुतत्तदाहु
त्यनंतरंस्रुवावस्थितहुतशेषघृतस्यप्रोक्षणीपात्रेप्रक्षे
पः ॥ ॐप्रजापतयेस्वाहाइतिमनसा-इदंप्रजापतये ०॥
ओमिन्द्रायस्वाहा–इदमिंद्रा० ॥ इत्याघारौ–ओंअ
ग्नयेस्वाहा–इदमग्नये ० ।ओंसोमायस्वाहा–इदंसो
माय० ॥ इत्याज्यभागौ ॥ओंभूःस्वाहा इदमग्नये०
॥ ओंभुवःस्वाहा इदंवायवे ०॥ ऑस्वःस्वाहा इदं०
सूर्याय एतामहाव्यादृतयः ॥
भा०टी० अनंतर उपयमन कुशाको लै उठकर मनसे प्रजापतिका ध्यान कर्ता हुआ चुपचापसे घृतयुक्त पूर्वोक्त तीन समिधा अग्रिमे गेरदेवें ॥ अनंतर वैठ कर साथ पवित्र प्रोक्षणी जलसे प्रदक्षिणा क्रमसे अग्निको पर्युक्षण कर प्रणीतापात्रमे पवित्रे रख दक्षिणजानु निमाय कुशाद्वारा ब्रह्मासे संयुक्त हो वडी जलती अग्निमे स्रुवसे धृतका आहुति हवन करता है स्रुवसे लगे हुए घृतको प्रोक्षणीपात्रमे फेकना ॥ प्रजापतये ० इदं प्र० यह मनमे कर आहुति देणीॐ इंद्राय इदमिंद्राय० । यह आधार संज्ञक है ॐअन इदम सोमा० इदंसो० यह आज्यभाग संज्ञकहै ॥ ॐभूः–इदं अ० ॐ भुवः–इदं वा० । ॐ स्वः –इदंसूर्या० यह महाव्याहृति है ।
शुक्लयजु० अध्यायo २१ मंत्र ३ ॥
ॐत्वन्नो॑ऽग्ने॒वरु॑णस्यव्वि॒द्वान्दे॒वस्य॒
हेडोअव॑यासिसीष्ठात्<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695733101Screenshot2023-09-26182810.png"/>॥ यजि॑ष्ठो॒व
न्न्हि॑तम॒<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695733224Screenshot2023-09-26182810.png"/>शोशु॑चानो॒ विश्वा॒द्वेष॑<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695733300Screenshot2023-09-26183128.png"/>
सि॒प्रमु॑ मुग्ध्य॒स्मत्स्वाहा ॥ इदमग्नी
वरुणाभ्याम् ॥
शुक्लयजु० अध्याय २१ \। मंत्र ४ ॥
ॐसत्वन्नो॑ऽग्नेऽव॒मोभ॑वो॒तीनोदि॑ष्ठो
ऽअ॒स्याउ॒षसो॒व्युष्टौ । अव॑य॒क्ष्वनो॒
व्वरु॑णँ॒ररा॑णोव्वी॒हिमृ॑डी॒कँ स॒हवो॑न
एधिस्वाहा । इदमग्नीवरुणाभ्यां० ॥
ॐ अयाश्चाग्नेस्यनभिशस्तिपा ( वा ) श्वसत्यमित्व मयाअसि । अयानोयज्ञंवहास्ययानोभेषजँस्वाहा इदमग्नये० ॥
ॐ येतेशतंवरुणयेसहस्रंयज्ञियाः पाशाविततामहान्तः । तेभिर्न्नोऽद्यसवितोतविष्णुर्विश्वेमुञ्चन्तुमरुतः स्वर्काः स्वाहा ॥इदं वरुणायसवित्रेविष्णवेविश्वेभ्यो मरुद्भ्यःस्वर्केभ्यः ॥
भा०टी०त्वन्ना और सत्वन्नो इन मंत्रोका वामदेव ऋषि त्रिष्टुपूछंद अग्नि और वरुणदेवता सर्व प्रायश्चित्तमे विनियोगहै । ( अयाश्वाने ) इस मंत्रका वामदेवऋषि त्रिष्टुपूछंद अग्नीदेवता प्रायश्चित्तहवनम विनियोग है \।\। ( येतेशतं ) इस मंत्रका शुनःक्षेपॠपित्रिष्टुपूछंद वरुणदं वतावरुणसंबंधिशापके मोचनमे विनियोग है। अव इनके अर्थ क्रमसे लिखते है \।\। ( त्वन्नइति ) हे अग्नेतुम इस कर्ममे वैगुण हो नेसे वरुणदेवके क्रोधको हरण करो कैसे तुम सर्व कर्मम साक्षि चतुर
हो ओर सबसे उत्तमहो और सबदेवताओंको यज्ञका भाग देनेवा लेहो प्रकाशमान हो इस लिये मंदबुद्धिवाले हमको जान हमारेसे की हुई अवज्ञा अनादरको क्षमा कर सर्वप्रकारसे कल्याण देवो ॥ ॥ १॥( मंत्रार्थ-सत्वन्नइति ) हे अग्रे तुम सबको पालना कर्नेवाले है \। इस लिये आजदिन के प्रातःकालसे लेकर मुझकी रक्षा करो । नहि केवल रक्षा किंतु हमारे कर बुलाये तुम सुखपूर्वक आकर सुखदेनेवाला चरु यज्ञके मालिक वरुणदेवताको देकर पूजन करो \। जिससे वरुण देवी प्रसन्न हो हमारेको सुखदे ॥ २ ॥
[ मं० अयाश्वानइति ] हे अने तुम सर्वांतर्यामि और प्रायश्चि तद्वारा सर्वप्राणीको शुद्ध कर्नेवाले और शुभकेदाता हमारे कि ये हुए यज्ञको कृपाल होनेसे इंद्रादिदेवताओं को देनेवाले इस लि ये हमकोनी भेषज अर्थात् सुखके देनेवाला दुःखविनाशक अपूर्वं सुखदेव ॥ ३ ॥ ( मंत्रार्थ येतेशत मिति ) हे वरुण यज्ञके विघ्नसे पैदाहुये वडे २ भारी महान कठिन जो तुमारे शतसंख्याक और सहस्र संख्याक पा शहै वह पापरूपपाश हमारे सविता सूर्य विष्णुरूप इंद्र और सर्वदेव ता और वायु सुंदर हृदयवाले आदित्य हमारे पापोको नष्ट करें। ४ ।
शु॒क्लयजु० अ० १२ ( मूल ) मंत्र १२ ॥
उदु॑त्त॒मं व्व॑रुण॒पाश॑ म॒स्म्मदवा॑ध॒मं
विम॑ध्य॒म<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695734517Screenshot2023-09-26183128.png"/>श्श्र॑थाय \। अथा॑व्व॒य
मा॑दित्यव्व॒तेतवाना॑गसो॒ऽअदि॑तये
स्यामस्वाहा ।इदंवरुणाय ।
एताः सर्वप्रायश्चित्तसंज्ञकाः ॥ ५ ॥
ततोऽन्वारब्धंविना ॐ प्रजापतयेस्वाहा । इदंप्रजाप
तये० ॥ॐ अग्नयेस्विष्टकृतेस्वाहा इदमग्रयेस्विष्टकृ
ते० ॥ उदकोपस्पर्शनम् ॥ अथराष्ट्रभृत्यः ॥
भा०टी० उत्तम मध्यम अधम यह तीन वरुणके पाश है ( मंत्रार्थ ) हे वरुण जो तुमारा उत्तम पाश है उससे हमारी रक्षा करो । जो मध्यम पाश है उससेभी हमारी रक्षा करों पाशको शिथिलकरो हे वरुण हम ब्रह्मचर्य से तुमारेसे निरपराध होकर दोनतासे रहित होते है ।‘दीनतायां दितिप्रोक्ता दितिस्यादैत्यमातरि \। इस वचन से दितिनाम दीनताका ॥अनंतर अन्वारब्धविना । प्रजापतये ० । इदं प्र०अग्नयेस्विष्टकते • इदम • स्विष्टकृते • यह दो आहुतिदे जलको हाथ लगावै । इसके अनंतरराष्ट्रभृत्यनाम आहुति लिखते है ।
तत्र द्वादश मन्त्रा यथा
शुक्लयजु० अध्याय १८ मंत्र ३८
ॐऋ॒ता॒षाड्डतधा॑मा॒र्ग्न॑न्ध॒र्ध÷स
नंऽइ॒दम्बह्म॑क्ष॒त्रम्पा॑तुतस्म्मै॒स्वाहा॒
वाट् ॥ इदमृतासाहेऋतधाम्रेऽग्नये
गंधर्वाय० ॥
ॐऋ॒ता॒षाड्ड॒तधा॑मा॒ग्निर्ग्ग॑न्ध॒र्व्वस्त
स्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒मुदो॒नाम॑ताभ्य
÷स्वाहा \। इदमोषधिभ्योऽप्सरो
भ्योमुद्भयः ० ॥
( यजु० अध्याय १८ मंत्र ३९ ॥
स॒<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695735454Screenshot2023-09-26183128.png"/>हि॒तोव्विश्वसा॑मा॒सूर्य्योगन्ध॒र्व्व<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695735556Screenshot2023-09-26182810.png"/>सन॑ऽइ॒दम्ब्रह्म॑क्ष॒त्रम्पा॑तु॒तस्मै॒स्वाहावाट् \।\। इद<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695735615Screenshot2023-09-26183128.png"/>स<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695735615Screenshot2023-09-26183128.png"/>सहितायविश्व
साम्रेसूर्यायगन्धर्व्वाय० ॥
०॥
( यजु० अध्याय १८ मंत्र ३९ )
सुं<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695735615Screenshot2023-09-26183128.png"/>हि॒तोव्वि॒श्वसा॑मा॒सूर्य्योगन्धु
र्व्वस्तस्य॒मरी॑चयोऽप्स॒रस॑ऽआ॒यु
वो॒नाम॑ताभ्य÷स्वाहा ॥ इदंमरीचिभ्योप्सरोभ्यआयुवोभ्य० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ०४०
ॐसु॒षु॒म्णँसूर्य्य॑रश्म्मिश्श्च॒न्द्रमा॑ गन्ध॒र्व्वँसन॑ऽइ॒दंबह्म॑क्ष॒त्रंपा॑तु॒तस्मै॒ स्वाहा॒ बाट् ॥ इदंसुषुम्णाय सूर्य्यरश्मये चंद्रमसेगंधर्वाय०
यजु ० अध्याय १८ मंत्र ४०
ॐसु॒षु॒म्म्णः सूर्य्य॑रश्म्मिश्श्च॒न्द्रमा॑गन्ध॒र्व्वस्तस्य॒नक्ष॑त्राण्यप्स॒रसो॑भे॒ कुर॑यो॒नाम॑ताभ्यःस्वाहा ॥ इदंनक्ष त्रेभ्योऽप्सरोभ्योभेकुरिभ्य० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ४१
ॲइ॒षि॒रोव्वि॒श्वव्य॑चा॒व्वातो॑गन्ध॒र्व्व
सन॑ऽइ॒दम्बह्म॑क्ष॒त्रम्पा॑तुस्मै॒स्वाहा॒
वाट् ॥ इदमिषिरायव्विश्वव्यचसे
वाताय० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ४१
अँइ॒षि॒रोव्वि॒श्वव्य॑चा॒व्वातो॑गन्ध॒र्व्वस्तस्यापो॑ऽप्स॒रस॒ऊर्ज्जो॒नाम॑ता
भ्यःस्वाहा ॥ इदमद्भयोऽप्सरोभ्य
ऊर्गभ्यः ० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ४१
ॐभु॒ज्युँसु॑प॒र्णोय॒ज्ञोग॑न्ध॒र्व्व÷सन॑इ॒दम्ब्रह्म॑क्ष॒त्रंपा॑तु॒तस्मै॒स्वाहा वाट् इदं भु
ज्यवेसूपर्णाययज्ञायगन्धर्वाय० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ४१
ॐभु॒ज्युः सु॑प॒र्णोय॒ज्ञोग॑न्ध॒र्व्वस्तस्य॒दक्षि॑णाअप्स॒रस॑स्ता॒वाना॑मताभ्य÷
स्वाहा॥ इदंदक्षिणाभ्योऽप्सरोभ्यस्तावाभ्यः ० ॥
यजु० अध्याय १८ मंत्र ४२
ॐप्र॒जाप॑तिर्व्वि॒श्वक॑र्मा॒मनो॑गन्ध॒र्व्वःसन॑इदंबह्म॑क्ष॒त्रंपा॑तु॒तस्मै॒स्वाहा॒ वाट्।
इदंप्रजापतयेविश्वकर्मणेमनसेगंधर्वाय० ॥
ॐप्र॒जाप॑तिर्व्वि॒श्वक॑म्मा॒॑मनो॑गन्ध॒ र्व्वस्तस्य॑ऽऋक्सा॒मान्य॑प्स॒रसु॒ऽएष॑यो॒नाम॑ताभ्य÷स्वाहा ॥ इदंऋक् सामभ्योऽप्सरोभ्यएषिभ्यः०॥ इतिराष्ट्रभृत् ॥
भा० टी० इन द्वादश मंत्रोंके अर्थ यथा क्रमसेजानने यह x यह चिन्ह होगा वहा पूर्वोक्त अर्थ समझे ॥ [ मंत्रार्थ १ ] जोसत्यके सहनेवाला सत्यका स्थान गंधर्वरूप जो अग्नि उस्को दी हुई
आहुति बहुतहो वह अग्नि हमारा ब्रह्मज्ञान और ( क्षत्र ) वीर्य बलको रक्षा करे ।
( २ ) जो सत्यका स्थान सत्यशील गधर्वरूप अग्नितिस्की औषधी अर्थात् यवगोधूममाषवोहि मुद्रादि सर्व प्राणिको आनंददायक अप्सरा तिस अग्निऔर अप्सराके लिये सुहुत हो (+)इत्यादि ॥
( ३ ) दिनरात्रिका स्वामी गंधर्वरूप जो सूर्यभगवान् संपूर्णसामवेदके जाननेवाले उनके लिये सुहुत हो ( + ) इत्यादि ॥
( ४ ) रात्रिदिनपति गंधर्वरूपी सूर्यजीकी मिश्रितहोनेवाली मरीचिया ( किरणः ) रूप अष्मराहै सो ( + ) इत्यादि \।
( ५ ) निरंत सदैव आनंदके देनेवाले गंधर्वरूपो सूर्यकिरणोंसे वृद्धिको प्राप्त भये जो चंद्रमा भगवान् जी ( + ) इत्यादि \।
( ६ ) तिस गंधर्वरूपी चंद्रमाजीकी ( ईकुरी ) अर्थात् जो एक पिताकी द्विकन्याका एकही पति हो उन्को ईकुरी कहते है (+) प्रमाणभीजैसंगंगाधरजीलिखतेहे(सपितृकाएकपतिका ईकुर्य्यस्ता उदीरि ताः ) ऐसे जोक्षत्र तारका अप्सरा है उसके पतिजो ( + ) इत्यादि ।
(७) जी वायु गमन स्वभार्वऔर सर्व गतगंधर्वरूप है ( + ) इत्यादि ।
( ८) जो वायुरूप गन्धर्व उन्का सर्व वस्तुके देनेवाला जल अप्सराहै( x ) इत्यादि ।
( ९) जो यज्ञरूप गंधर्व है पालन कर्नेवाला और शोभनगतिवाला उस्की जलरूप अप्सराहे उस्के ( x ) इत्यादि \।
( १० ) जो यज्ञरूप गंधर्व है स्तवनरूप उस्की दक्षिणा नाम अप्सराहै उस्के ( x.) इत्यादि ॥
( ११ ) प्रजाका ईश्वर कि जिस्के आश्रय विश्वबनती है ऐसा मनरूप जो गंधर्व है ( + ) इत्यादि \।
( १२ ) जो मनरूप गंधर्व उस्को धर्म अर्थ काम मोक्ष (पुत्रादि) की देनेवाली ऋग्वेद सामवेदरूपी अप्सरा है उसके लिये सुहुतहो वह मन हमारा व्रत ज्ञान वीर्य्यबल वृद्धि करे इत्यादि क्रमसे अर्थ जानना यह राष्ट्रभृतनामसे हवन है ॥
अथजयाहोमः ॥ ॐचित्तंचस्वाहा ॥ इदंचित्ताय ०१
ॐचित्तिश्चस्वाहा इदंचित्त्यै ० २ ॐआकूतंचस्वाहा
इदमाकूताय ०३ॐ आकूतिश्व स्वाहा–इदमाकूत्यै ०४
ॐविज्ञातञ्चस्वाहा–इदविज्ञाताय०५ ॐविज्ञातिश्च
स्वाहा–इदविज्ञात्ये ६ ॐमनश्चस्वाहा–इदंमन
से० ॐशक्कर्यश्वस्वाहा० इदंशकरीभ्यो० ७ ॐदर्श
श्वस्वाहा इदंदशयि० ८ ॐपौर्णमासञ्चस्वाहा - इ
दंपौर्णमासाय० १० ॐबृहच्चस्वाहा–इदंबृहते०
११ रथंतरंचस्वाहा–इदरअंतराय० १२ ॐप्र
जापतिजयानिन्द्रायवृष्णेप्रायच्छदुग्रः पृतनाजयेषु ॥
तस्मैविशः समनमंतसर्वाः सउग्रः सहइहव्योबभूवस्वा
हा १३ इतिजयाहोमः ॥
भा०टी०यह १३ त्रयोदशमंत्र जयानाम होमहै \। इन्मे द्वादश ( १२ ) सुगमगहै \। [ मंत्रार्थ १३ प्रजापति -प्रजाकास्वामि शत्रुओंकि सेनाके नाश कर्नेमे उग्र परमेश्वरजीमें इंद्रको जयानाम-
मंत्रोका उपदेश कर्ते भये । जिस मंत्रोके प्रभावसे इंद्र सर्वका राजा और वर्षाके कर्नेवाला सर्वसे मुख्य ( अग्रणी ) होता भया तद्वत् एसी कृपाशील परमेश्वर मुझकोभी जय देवे॥ और हमारेसे दि हुई आहुति सहुतहो ॥ १३ ॥भाव यहहै कि जिन मंत्रोके उपदेशद्वारा इंद्र ऐश्वर्य्यसे युक्त सर्वसे मुख्य भया इस लिये इन्का जयानाम है ।इति ॥
अथाभ्याताननामहोमः॥ओंअग्निर्भूतानामधिपतिःस
मावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपुरो
धायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥ १॥ इदम
ग्नयेभूतानामधिपतये ० १ ॐइन्द्रोज्येष्ठानामधिपतिः
समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपु
राधायामस्मिन्कर्मण्यस्यामादेवहूत्याँस्वाहा ॥इद
मिन्द्रायज्येष्ठानामधिपतये ०२ ओंयमःपृथिव्याऽअ
धिपतिःसमावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्य
स्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥
इदंयमायपृथिव्याअधिपतये ०३ अत्रणीतोदकस्प
र्शः॥ॐवायुरन्तरिक्षस्याधिपतिःसमावत्वस्मिन्त्रह्मण्य
स्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्य
स्यांदेवहूत्याँस्वाहा॥इदंवायवेऽन्तरिक्षस्याधिपत
ये ० ४ ॐसूर्योदिवाअधिपतिःसमावत्वस्मिन्ब्रह्मण्य
स्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्य
स्यांदेवहूत्याँस्वाहा। इदंसूर्यायदिवाअधिपतये ०५ ॐचंद्रमानक्षत्राणामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामा शिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा॥ इदंचंद्रमसेनक्षत्राणामधिपतये ०६ ॐबृहस्पतिर्ब्रह्मणोधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यां देवहूत्याँस्वाहा॥ इदंबृहस्पतयेब्रह्मणोऽधिपतये ०७ओंमित्रः सत्यानामधिपतिः समावत्वस्मिब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामा-शिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदे वहूत्याँस्वाहा॥ इदंमित्रायसत्यानामधिपतये o८ ॐवरुणोऽपामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यां पुरोधाया- मस्मिन्कर्माण्यस्यांदेव हूत्याँस्वाहा। इदंवरुणायअपामधितपये० ९ ॐ समुद्रःस्रोत्यानामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्कर्मण्य स्यांदेवहूत्या ँस्वहा ॥ इदंसमुद्राय-स्रोत्यानामधिपतये ० १० ॐ अन्नँसाम्राज्यानामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिनक्षत्रे स्यामाशिष्यस्यांपुरोधाया-मस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्या ँस्वाहा।इदमन्नायसाम्राज्यानामधिपतये ० ११ ॐ सोमओषधीनामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रे-स्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मि-न्कर्म्मण्यस्यां-देवहूत्याँस्वाहा - इदंसो
मायओषधीनामधिपतये ० १२ॐ सविताप्रसवानाम
घिपतिःसमावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्य
स्यांपुरोधायामस्मिन्कर्मण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥
इदंसवित्रेप्रसवानामधिपतये ० १३ ॐ रुद्रः पशु नाम
धिपतिःसमावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्य
स्यांपुरोधायामस्मिकर्मण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥ इ
दंरुद्राय पशूनामधिपतये ० १४ अत्रप्रणीतोदकस्पर्शः ॥
ॐ त्वष्टारूपाणामधिपतिः समावत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मि
न्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिकर्मन्यस्यांदे
वहूत्याँस्वाहा ॥ इदंत्वष्ट्रेरूपाणामधिपतये ० १५ॐ
विष्णुः पर्वतानामधिपतिः समावत्वस्मिन्त्रह्मण्यस्मि
नक्षेत्रस्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिन्कर्म्मण्यस्यां
देवहूत्याँस्वाहा ॥ इदं विष्णवेप्रजानामधिपतये ०
१६ ॐ मरुतोगणानामधिपतयःस्तोमावंत्वस्मिन्ब्रह्म
ण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपुरोधायामस्मिकर्मण्य
स्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥ इदमरुद्भयोगणानामधिपति
भ्यः ० १७ ॐ पितरः पितामहाः परेवरेततास्तताम
हाइहमावंत्वस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्क्षत्रेस्यामाशिष्यस्यांपु
रोधायामस्मिन्कमण्यस्यांदेवहूत्याँस्वाहा ॥ इदं
पितृभ्यः पितामहेभ्यः परेभ्योवरेभ्यस्ततेभ्यस्तताम
हेभ्यः ० १८अत्रप्रणीदतोकस्पर्शः ॥ इत्यभ्यातान
नामहोमः ॥
भा०टी० इन अष्टादश १८ मंत्रोका प्रजापतिऋषि पंक्तिछंद मंत्रोक्तदेवता अभ्याताननाम होममे विनियोगहै ॥इनका अर्थ यथाक्रमसे जानणा ॥
१ ( मंत्रार्थ ) सर्वकास्वामि अग्निदेव मुझको वेदादि अध्यपन कर्ममे और बलवीर्य वर्तमान इस विवाहमे तथा आगे होनेवाली वृद्धिमे तथा देवपूजनादिक कर्ममे मुझकी रक्षा करे यह आहुति अनिके लिये सुहुतहो ॥
( २ ) सबसे बडे जो बृहस्पतिजी उन्का जो अधिपति राजा होनेसे इंद्र सो मुझको o इत्यादि पूर्वोक्त अर्थ जानना १ ७ मंत्रोमेही ।
( ३ ) मर्त्यलोकके प्राणियोको दण्ड देनेवाला इस लिये पृथिवीका स्वामि जो धर्मराजजी वह मुझको इत्यादि + इहा आहुति देकर हाथ प्रक्षालन कर्ने॥
( ४ ) आकाशगामी होनेसे आकाशका स्वामि श्रीवायुदेवताजी मुझको + इत्यादि ॥
( ५ ) संपूर्ण अंधकार नाश कर्नेसे दिनके स्वामि सूर्यनारायण वह मुझको + इत्यादि ॥
( ६ ) अश्विनीसे आदि और दाक्षायण्यादितारका चंद्रमाजीकी स्त्री है इस लिये नक्षत्रोके स्वामि चंद्रमाजी मुझको + इत्यादि ॥
( ७ ) महादेवजीके शिष्यबन अपार व्याकरणादि जान औरअत्युत्तम संस्कृत उच्चारणादिसे बृहस्पतिजीको वेदोका पतित्व उचितंहे वह मुझको + इत्यादि ॥
(८) सत्यपदार्थका स्वामि जोमित्रदेवताजी वह मुझको + इत्यादि ॥प्रमाण जैसे ( मित्रत्वं जायते सनात्सत्यादेवप्रवर्द्धते ।सत्यात्मफलते नित्यं सत्यहेतुर्हि मित्रता ) ॥
( ९ ) जलोका स्वामी वरुणदेवजी मुझको + इत्यादि ॥ प्रमाण जैसे ( जलानांजलजन्तूनां पाशीधात्राधिपःकृतः ) इति ॥
[१०] स्रोत्यनाम जो नल नदी नाले वहनेवाले और गंभीर दुर्वगाह उन्का मालिक समुद्रजी मुझको + इत्यादि ॥
[ ११ ] ( अद्यते अत्तिचभूतानि इति अन्नं ) अर्थात् जिस्को मनुष्यादि भक्षण करे और जो मनुष्यादिको भक्षण करे और उत्पन्न करे तथा पालन करे ऐसा जो अन्न परमेश्वर हस्ति हय ( घोडा ) गृह वाग बगीचा इत्यादि सर्ववस्तुका स्वामी वह मुझको +इत्यादि ॥
( १२ ) सर्वके उत्पन्न कर्नेमे सामर्थ्य सविता देवताजी मुझको + इत्यादि ॥
( १३) ओषधीयोका स्वामी सोमदेवजी मुझको कामधेनुके गर्भद्वारा नंदिकेश्वरका अवतार होनेसे महादेवजीको पशुओंके स्वामी कहा जाता है वह मुझको + इत्यादि ॥
( १४ ) रूपोकास्वामि त्वष्टादेवजी मुझको o
( १५ ) पर्व जो अमावास्यादि चंद्रग्रहणादि दर्श पौर्णमासादि यज्ञोका स्वामिविष्णुपरमात्प्रापरमेश्वरजी मुझकोo
( १७ ) बलि होनेसे देवगणोके स्वामी वायुदेवताजी मुझको o
( १८ ) देवऋषि आंगिरस भार्गव ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शूद्र औ
र जो पिता पितामह प्रपितामहादि सनातन पिरत अग्निष्वात्तादि और आधुनिक जो हमारे गोत्री वह सर्व मुझको + इत्यादि॥ईहाभी प्रणीता जलसे स्पर्श कर्ना जिन २ देवताकी आहुतीके अनंतर जलस्पर्श कर्णा चाहिये वह प्रमाण लिखते है ॥(यमोरुद्रश्चपितरः कालोमृत्युश्वपंचमः ।पंचक्रूराविवाहस्य होमेतच्छान्तिमाचरेत्॥ प्रणीताअप्सुशान्त्यर्थं मनुःस्वायम्भवोऽब्रवीत् ) ॥
जिन अभ्यातानमंत्रोसे देवता असुराको मारते भये इस लिये इन्की अभ्यातान संज्ञाभई तथाच श्रुतिः) यद्देवा अभ्यातानैरसुरानभ्यातन्वतः इति ॥
अथाज्यहोमः ॥ ॐअग्निरैतुप्रथमोदेवतानाँसोस्यैप्र
जांमुंचतुमृत्युपाशात् । तदयाँराजावरुणोनुमन्यतां
यथेयँस्त्रीपौत्रमघन्नरोदात्स्वाहा ।इदमग्नये o ॥ १॥
ॐइमामग्निस्त्रायतांगार्हपत्यःप्रजामस्यैनयतुदीर्घमा
युः ॥अशून्योपस्थाजीवतामस्तुमातापौत्रमानन्द
मभिप्रबुध्यतामियँस्वाहा॥इदमग्नये ०२ स्वस्तिनोऽ
ग्नेदिवापृथिव्याविश्वानिधेह्यऽयथायजत्रा॥यदस्यांमहि
दिविजातंप्रशस्तंतदस्मासुद्रविणंधेहिचित्रँस्वाहा ।
इदमग्नये ०३ सुगन्नुपंथांप्रदिशन्नएहिज्योनिष्मद्धेह्य
जरन्नआयुः । अपेतुमृत्युरमृतंनआगाद्वैवस्वतोनोऽ10
भयंकृणोतुस्वाहा10 ॥ इदमग्नये ०॥ ४ ॥ परंमृत्योऽनु
परेहिपंथांयस्तेऽन्यइतरोदेवयानात् । चक्षुष्मतेशृ
ण्वतेतेब्रवीमिमानःप्रजाँरीरिषोमोतवीरानुस्वाहा ॥
इदंवैवस्वताय० ॥ ५ ॥ अत्रप्रणीतोदकस्पर्शः ॥
ततोवधूमग्रतःकृत्वा वधूवरौप्राङ्मुखौस्थितौभव
तः ॥ ततोवराञ्जलिपुटोपरिसंलग्नवध्वञ्जलिपुटोपरि
संलग्नवध्वञ्जलिघृताभिधारितवधूभ्रातृदत्तशमीप
लाशमिश्रैर्लाजैर्वधूकर्तृकोहोमः ॥
भा०टी० अग्निरैतु इत्यादिचार मंत्रोका प्रजापति ऋषि त्रिष्टुप्छंद मन्त्रोक्तदेवता घृत होममे विनियोगहै ॥[ मंत्रार्थ ] देवताओमे आदि अग्निदेवता आकर इस कन्यामे आगे होनेवाली संतानको मृत्युपाशसे मृत्युसे वचावे वामृत्युपाशको भस्म कर इस्का प्रजापुत्रादि वरुणराजाकीआज्ञासे जैसे यह स्त्रीपुत्र संबंधि दुःखमे ना रोदन करे ऐसी प्रजापुत्रादि संतानको देवे ॥ १ ॥
( इमामग्नि) अग्निहोत्र संबंधि अग्नि इस कन्याकि प्रजापुत्रादिको दीर्घायुको प्राप्त करें पुत्रोसे नहि शून्यगोद ( अंक ) जिस्की वा जीवत् वत्सा हो यह स्त्रीपुत्रपौत्रादि संबंधि आनंदको जाने अर्थात् भोगे ॥ २ ॥
[ स्वस्तिनो ] पूजन कर्नेवालोकी रक्षा कर्नेवाली हे अग्रे पृथिवीसे आदिले स्वर्ग पर्यंत जो कल्याण क्रमको छोड अर्थात् एकदाहि हमारेमे धारणा करो॥और पृथिवी स्वर्गमे पैदाहोनेवाली महिमा वा यश नानाप्रकारके सुवर्ण मोती पद्मराग मरकत प्रवाल रजतादि द्रव्य सर्व मुझको देवो ॥
[ सुगान्न ) सुखपूर्वक जाना आना जिस्मे ऐसा गृह और
सुखपूर्वक चिरकाल जीवन धर्मदानादि कर्नेसे यशसे मुक जरारोगसे रहित आयुदेवो ॥ और अपमृत्य आदि हमारे नष्ट होमें ॥ अमृत आनंद हमारेको मिले धर्मराजभीहमारेको अभय देवे अर्थात्हमारे पापका जो फल नरकादि क्लेश उन्से तुमारी कृपाद्वारा हमको बचावे ॥ यह आहुति अग्निके लिये सुहुतहो ॥
[ परंमृत्यो ] इस मंत्रका संकर्षणऋषि त्रिष्टुपछंद मृत्युदेवता आज्यहोममे विनियोगहै॥हे मृत्युदेव सर्व व्यापारादिके साक्षि और सुननेवाले जिस कारणसे तुमारा देवमार्गसे भिन्न मार्ग है इस लिये अपने मार्गको जावो और हमारेंसे आहुति पूजाले हमारी पुत्रपौत्र भ्रातादि संततीको मतमारे किंतु प्रसन्न हो रक्षा करो हम आपसे यह प्रार्थना कर्ते है ॥५ ॥इस मंत्रसे आहुति देकर जलस्पर्श कर्ना अनंतर वरके आगे वधूको करें पूर्वकी तरफ मुख करहोमे वर वधू हवनके लिये स्थित होमे ॥वरकी अंजलीपर वधूकी अञ्जलीरखकर कुमारीके भ्राताने दि हुई जो घृत शमीके पत्रोसे युक्त लाजा ( फूलिया ) से वधू हवन करे मंत्रपूर्वक ॥
ॐअर्यमणंदेवकन्याअग्निमयक्षत। सनोअर्यमादेवःप्रेतोमुञ्चतुमापतेः स्वाहा॥१॥
इयंनार्य्युपब्रूतेलाजानावपंतिका।आयुष्मानस्तुमेपतिरेधन्तांज्ञातयोममस्वाहा॥॥२॥इमाल्ँलाजानावपाम्यग्नेसमृद्धिकरणंतव ।ममतुभ्यंचसंवननंतदग्निरस्तुमन्यतामिय ँस्वाहा॥ ३॥
अथास्यैदक्षिण ँहस्तगृह्णातिवरः साङ्गुष्ठम् । ॐ गृभ्णामितेसौ
भगत्वायहस्तंमयापत्याजरदष्टिर्यथासः।भगोऽर्यमासवितापुरंधिर्मह्यंत्वादुर्गार्हपत्यायदेवाः॥४॥ अमोहमस्मिसात्वँसात्वमस्यमोऽहं॥सामाहमस्मिऋक्त्वंद्यौरहंपृथीवीत्वम्॥५॥ तावेवविवहावहैसहरेतोदधावहैप्रजांप्रजनयावहैपुत्रान्विंद्यावहैबहून् ॥ ६ ॥
भा०टी० अर्यमणंइत्यादि तीनमंत्रोंका दध्यङ्ङाथर्वणऋषि अनुष्टुपूछंद अग्निदेवता लाजाहोममे विनियोगहै ॥ (मंत्रार्थ)
( अर्यमणं ) यह पूर्वकन्या सूर्यदेवकी पूजनादि कर्ती भई वह सूर्य भगवान् प्रसन्न होकर पितृकुलसे श्वसुर गृहयानेके लिये मोचन करे नहि मुझपतिसे भिन्न करे ॥ १ ॥ यह तीन मंत्र वरकन्यासे कहावे ॥
( इयंनार्य्युप ) संतानप्राप्तिके लिये सूर्यदेवको प्रसन्नकर । लाजाको अग्निमे गेरती हुई यह स्त्री पतिको सुंदरवाणीसे कहती है ।कि मुझका पति वीर्यपुष्टियुक्त चिरायुवाला होवें और मेरे बांधव ज्ञातिके लोक पित्रादि मातुलादि सब वृद्धिको प्राप्त होवें ॥ २ ॥
( इमांल्लाजानू ) हे पति तुमारि समृद्धिके लिये यह लाजा अग्निमे गेरतीहै । और हमारी तुमारी प्रीतिको अग्नि सर्वांतर्यामि अनुमोदन करे अर्थात् तुमारी प्रीति हमसे सदा अवछिन्न रहें ॥ ३ ॥
(अनंतर वर वधूका साथ अंगुष्ठसे हस्तग्रहण करे ) ( मंत्रार्थ) (गुभ्णामि) (हेपत्नितुमारे हाथकोग्रहणकर्ताहै जिस हाथ के ग्रहणकर्नेसे तुम बहुवर्ष जीवितरहो ॥ शंका x आप किसकीआज्ञासे पाणि
ग्रहण कन्याका कर्तेहै । उत्तर-गार्हपत्यादि कमाके कर्नेलिये भगअर्यमा–सविता और संतान तथा आनंदके लिये सुंदररूपवती तुमको मुझे देतेभये इस हेतुसे हम आपको ग्रहण कर्तहै ॥ ४ ॥
( अमोहस्मि ) इस मंत्रका भरद्वाजऋषि उष्णिक्छंद विष्णुदेवता हाथके ग्रहणमे विनियोगहै ॥ अर्थ ।हेपत्निमै अम नाम विष्णुवा वेदत्रयात्मकहू और तुमसानाम लक्ष्मी वा देवीत्रयरूप अर्थात्ब्रह्माणि रुद्राणि वैष्णवीहै ।प्रमाण जैसे ( ओविष्णुरःशिवःप्रोक्तःप्रपंचे अःस्मृतस्तथा।) ( साचलक्ष्मी बुधैःप्रोक्ता ) और वेदानांसामवेदोस्मि इस वाक्यसे मुख्यताहोनेसे मै सामवेदहुं ॥ औरऋक्शब्दको स्त्रीलिंगहोनेसे तुम ऋगवेदहो ( प्रमाण स्त्रियामृक् सामयजुषी इत्यमरः ) और मै आकाशरूप तुम पृथिवी रूपहे ॥ भावार्थ कि जैसे आकाश पृथिवीपर छादितहै तद्वत् मैभीअपने गुणोसे तुमारेपर छादित् रहा अर्थात् तुम हमारे अधीनरहे ॥ और जैसे पृथिवी छेदन भेदनकी हुई और भारसे दबाई हुई अग्निसे दग्धकी हुई शांतिस्वभाव होने से कुछनहि कहती तद्वत् मेरेघर तुम श्वश्रु ( सास ) ननद आदिकर उपालम्भकटु वचनो प्राप्तभई भी उन्को कुछनिषिद्धवाणी ना कहे किन्तुउनकी सेवाकरे ॥इस मंत्रको लेकर दृष्टांतदेतेहै यथा श्रुश्रूषस्व गुरुन्कुरु प्रियजने वृत्तिंसपत्नाजने भर्तुर्विप्रकृता पि रोषणतया मास्मप्रतीपंगमः ॥ भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी यान्त्येवंगृहीणीपदं युवतयोवामाकुलस्याधयः ॥शकुंतलाको श्वश्रुरकुलगमनकालमे इस वेदमंत्रका आशयलेकर भगवान्काश्यपजी शकुंतलाको उपदेश क
र्तेहै कि हे शकुंतले तुम इहासेजाकर अपने श्वसुर साससौहरा पतीस पतयोंहरा इत्यादि जो २ गुरुजन उन्की सेवाकर्णी और सपत्नीमे भी मित्रता भगनीवत्कर्नीयदि तुमाराभर्ता किसीकारणसे तुमपर क्रुद्धहो दुर्वचनभी कहै तो आपने कुछ नहि कहणा परंतु उस्काक्रोध मधुरवचनोसे निवृत्तेकरना और जो परिजन नौकर चाकर दास दासी उन्मेचतुर ( चुस्त ) रहना ( और कोसीकी उन्नती देख शोचनहि कर्नी ) इत्यादिक श्रेष्ठआचारसे स्त्रीया सर्ववस्तु को मालिकप्रिय होतीहै। व्यतिरिक्तस्त्री कुलोमे एकमानसि करोगहोती तथा निरादर को प्रप्तहोतीहै इति ॥ आगेभीस्त्रियोकाआचरण कहेगे ॥
( मंत्रार्थ–तावेव ) तुम हम विवाह अर्थात् ऋषि वाक्यवेदद्वारा मंत्रबलसे कन्याको वरके गोत्रमे मिलाना और पतिभाव कर्नेको विवाह करते है इस्को करे ॥अनंतर विवाहके तुम हम पुत्रोत्पत्ति के लिये वीर्य धारण कर बहुत पुत्रोको प्राप्त हो ॥ ६ ॥
तेसन्तुजरदष्टयःसंप्रियौरोचिष्णूसुमनस्यमानौ ॥ प
श्येमशरदःशतंजीवेमशरदः शतँशुणुयामशरदःश
तमिति ॥ ७ ॥ ॐआरोहेममश्मानमश्मेवत्वँस्थि
राभव॥अभितिष्ठतपृतन्यतोऽवबाधस्वपृतनायतइति ॥
अथगाथांगायति ॥ सरस्वतीप्रेदमवसुभगेवाजिनी
वति॥यांत्वाविश्वस्यभूतस्यप्रजायामस्याग्रतः । । य
स्यांभूतँ समभवद्यस्यांविश्वमिदजगत् । तामद्य
गाथांगास्यामियास्त्रीणामुत्तमंयशइति ॥ अथवधूवरौ अग्निंप्रक्रामयतस्तुभ्यमग्रेइतिमंत्रेणेति ॥
ऋ० मं० १० अ० ७ सू०८५ मंत्र ३८ ।
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तुभ्य॒मग्रेपर्य्यवहन्सूर्याव॑ह॒तुनासह। पुन॒पति॑भ्योजा॒यांदाअंग्नेप्रज
या॑स॒हेतिपठन्। परिक्रामेत् ॥ १० ॥
भा०टी० ते संतु इस मंत्रका प्रजापति ऋषि यजुःछंद विष्णुदेवता हस्तग्रहणमें विनियोग है॥ मंत्रार्थ वह पुत्रपौत्रादि चिरंजीवि होमें और तुमहम प्रेमयुक्त सुमन पुत्रादि सहित शत १०० वर्ष रूपग्रहणमे (देखनेमे) तथा श्रवण कर्नेमे सामर्थ्य जीवित रहे७॥
आरोहेम इस मंत्रका अथर्वण ऋषि अनुष्टुप्छंद वधूदेवता अश्म (शिल) के आरोणहमे विनियोग हैं॥ [मंत्रार्थ] हे पत्नि तुम पाषाणकीवत निश्चिलहों और हमारे शत्रुकी सेनाको उद्यम वालीको निरुद्यम करों ॥८॥
कन्याके पाषाणपर स्थित होनेमे गाथा गायन करे वर॥
सरस्वतिप्रेद इस मंत्रका विश्वावसु ऋषि अनुष्टुप्छंद सरस्वती देवता गाथाके गायनमें विनियुक्त है॥ (मंत्रार्थ) हेवाणिरूप सरस्वती कल्याण गुण विशिष्ट अन्नादिकेदेनेवाली अन्नपूरणे तुम यह वधूरूप द्वंद्वोकी रक्षा करों तुमकोही इस पृथिव्यादिसर्व प्रपंचजातकी कारणरूप प्रकृति कहते है कि जिस्मे विश्वलयको प्राप्त
होती तथा सृष्टिके आदिमे उत्पन्न होती हैं प्रमाण सांख्यतत्वकाैमुदीकारिका ६२ तस्मान्नबध्यतेऽसौन मुच्यते नापिसंसरतिकश्चित्। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रयाप्रकृतिः॥ अर्थ की पूर्वोक्त जो अनुपकारि पुरुषमे उपकार करनेवाली प्रकृति तिस्के अर्थको नष्ट कर आचरण कर्ती है इसलिये पुरुष ना बंधहोता नात्यंत मुक्त होता ना जन्मता मरता है परंतु प्रकृति नानाश्रय मुक्त कर्ती बंधन कर्ती उत्पन्न कर्ती है॥ (असङ्गोयं पुरुषः) यह सांख्य सूत्रमे भी लिखा है॥ विस्तारके भयसे व्याख्यानहि कर्तेहै और हम उस गाथाको गान कर्तेहै जो स्त्रियोकी उत्तम पतिव्रतादि यशहै॥९॥
अनंतर तुभ्यमग्रेइस मंत्रसेमे वधू वर अग्निकी परिक्रमा करें॥ तुभ्यमग्रेइसमंत्रका अथर्वण ऋषि अनुष्टुप् छंद अग्निर्देवता प्रदक्षिणामें विनियोगहें॥ [मंत्रार्थ] हे अग्ने तुमारे लिये ही सोमादिदेवता इस कन्याको ग्रहण कर्ते भये॥ अर्थात् २ वर्ष चंद्रमा पालन कर सोंदर्यताको दे गधंर्वको देता भया वह २वर्ष पालन कर सुंदर कंठ वाणीको दे तुमारेको देता भया तुमभी तद्वत् पालन कर ६ वर्ष पर्यंत और पवित्रताको देकर मुझको देवे अर्थात् हे अग्ने पालनके अनंतर पुत्रादि दे मुझ भर्ताके साथ मिलामें॥
एवंपश्चादग्नेः स्थित्वालाजाहोमसाङ्गुष्ठहस्तग्रहणाश्म
रोहणगाथागानाग्निप्रदक्षिणानिपुनरपिद्विस्तथैवक
र्तव्यानीति॥ एतेननवलाजाहुतयःसाङ्गुष्ठहस्तग्रह
णत्रयेचसंपद्यतेतथाआसनविपर्यः। ततोऽवशिष्टला
जैः कन्याभ्रातृदत्तैरञ्जलिस्थशूर्पकोणेनवधूर्जुहोति॥ ॐभगायस्वाहा–इदंभगाय०॥ अथाग्रेवरःपश्चात्कन्यातूष्णीमेवचतुर्थपरिक्रमणंकुरुतः। ततो वरउपविश्यब्रह्मणा-न्वारब्धःआज्येनप्राजापत्यंजुहुयात्। ॐ प्रजापतयेस्वाहा इदंप्रजापतये० इतिमनसा॥ अत्रप्रोक्षणीपात्रेआहुतिशेषाज्यप्रक्षेपः॥ततआलेपनेनोत्तरकृतसप्तमण्डलेषुसप्तपदा-क्रमणंवरः कारयेत्। वक्ष्यमाणमंत्रैः॥
भा०टी० इस प्रकार अग्निके पीछे स्थित हो लाजा हवन साथ अंगुष्ठके हस्त ग्रहण अश्मारोहण गाथाकागान अग्निकी प्रदक्षिणा फिर दोबार कर्नी चाहिये॥ अर्थात् पूर्वोक्त तीन २ वार कर्तव्यहै॥ और आसनका बदलाना एकवार चाहिये शेषकन्या के भ्राताने दिहुई लाजोसे शूर्पकी कोनसे वधू हवन करे भगायस्वाहा इसमंत्रसे॥ फिर आगे वर पीछे कन्या चुपचापसे चतुर्थ परिक्रमण करे॥ प्रजाप॰इस्को मनसे कहेंऔर इस हवनमे आहुति शेषघृतका प्रोक्षणीपात्रमे प्रक्षेप करें अनंतर आलेपन (वटना) से उत्तरोत्तर क्रम सप्तमण्डलको वर आक्रमण करवावे वधूसें॥
ॐएकमिषेविष्णुस्त्वानयतु॥ द्वेऊर्ज्जेविष्णुस्त्वानयतु॥ त्रीणिरायस्पोषायविष्णुस्त्वानयतु। चत्वारिमायोभवायविष्णुस्त्वानयतु। पञ्चपशुभ्योविष्णुस्त्वानयतु। षट्ऋतुभ्योविष्णुस्त्वानयतु॥ सखेसप्तपदा
भवसामामनुव्रताभवविष्णुस्त्वानयतु॥ ततोऽग्नेःप
श्चादुपविश्यपुरुषस्कंधे स्थितात्कुम्भादाम्रपल्लवेनवजलमानीयतेनवरोवधूमभिषिञ्चति॥ॐआपः शिवाः शिवतमाःशांताःशान्ततमास्तेकृण्वन्तुभेषजमिति।अनेनपुनस्तथैवतस्मा-देवकुम्भात्तथैवानीतजलेन।
य०अ० ११ मं० ५
आपो॒हिष्ठ्ठाम॑यो॒भुव॒स्तानऊर्जेदधातन॥ महेरणा॑य॒चक्ष॑से॥ योवःशि॒वत॑मो॒रस॒स्तस्य॑भाजयते॒हन॑ उ॒शुतीरि॑वमा॒तर॑॥
तस्मा॒ऽअर॑ङ्गमामवोयस्स्य॒क्षया॑य॒जिन्न्व॑थ॥
आपोज॒नय॑थाचन॥
इतितिसृभिर्वधूमात्मानंचाभिषिञ्चति॥ इति ॥
भा०टी० विष्णुरूप मै तुमको अन्नादि प्राप्तिके लिये एकपद आक्रमण कराता है॥प्रसन्न हो वधू यहकहै (धनंधान्यंचमिष्टान्नं व्यञ्जनाद्यंचयद्गृहे। मदधीनंचकर्तव्यं वधूराद्येपदेवदेत्)॥१॥
विष्णुस्वरूप हम बलके लिये द्वितीयपद आक्रमण कराते है॥ फिर वधू यह कहै। कुटुंबंप्रथयिष्यामि ते सदामञ्जुभाषिणी। दुः
खेधीरासुखेहृष्टा द्वितीयेसाब्रवीद्वरम्॥२॥ विष्णुस्वरूप हम धन पुष्टि केलिये तुमारा तृतीय पदाक्रमण कर्ते है (अनंतर वधू यह कहे) ऋतौकालेशुचिःस्नाता क्रीडयामि त्वयासह। नाहंपरपर्तियायांतृतीयेसाब्रवीद्वरम्॥३॥
चतुर्थपदको विष्णुस्वरूप हम सुखकी प्राप्ति लिये आक्रमण कराते है फिर वधू यह कहै। लालयामिचकेशान्तं गन्धमाल्यानुलेपनेः। काञ्चनैर्भूषणैस्तुभ्यं तुरीयेसाब्रवीद्वरम्। विष्णुस्वरूपहम पशुमुख गो महिषी इत्यादिका दुग्ध दधिघृतभक्षणरूप और अश्वादि आरोहण केलिये पंचमपदको आक्रमण कराते है। वधूवाक्यभी यह कहे॥ सखीपरिवृता नित्यं गौर्य्याराधनतत्परा। त्वयिभक्ताभविष्यामि पंचमे सा ब्रवीद्वरम्॥ विष्णु स्व० हम छ(पटू्)ऋतुओके सुख भोगने लिये तुमारा पदा क्रमण कर्ते है वधूवाक्य जैसे-यज्ञेहोमेचदा नादौ भवेयंतववामतः। यत्रत्वंतत्रतिष्ठामि पदेषष्ठे-ऽब्रवीद्वरम्॥६॥
मुझकोआज्ञामे होकर पतिव्रतादि धर्मशीलसे तुम सप्तलोकमे प्रख्यात हो जैसे अरुंधति जानकी इत्यादि पतिव्रता हो अद्यपर्यन्त सप्तलोकमें प्रसिद्ध है॥७॥ इति सप्तपदाक्रमणमैत्रिः॥
अनंतर पश्चिम अग्निके स्थित हो पुरुष स्कंधस्थितघटसे आम्रपत्रसे जल लेकर वर वधूका मस्तक अभिषिंचन कर्ता है(आपः शिवा इत्यादि मंत्रोसे) आपःशिवा इस मंत्रका प्रजापतिऋषि यजुछन्द जलदेवता अभिषेचनमे विनियोग है (मंत्रार्थ) कल्याणहेतु अतिशय से कल्याणकारक और शीतल अतिशय से शान्ति कर्ने वाले जलदेव तुमारेको आरोग्य करें॥ ॥ आपोहिष्ठादि तीन-
मंत्रोका सिन्धुद्वीपऋषि गायत्रीछंद जलदेवता मार्जनमें विनियुक्तहै॥ (मंत्रार्थ) हे जलदेव प्रसिद्ध यश और अनुभव किये तुम मुझको बल केलिये अन्नादि भोगने लिये धारण करे और महान् सुंदर देखने योग्य अत्यंत कल्याणके देनेवाले बलपुष्टि कर्नेवाले दुग्ध घृत स्तन्य पानादिसे माताकी न्याई आप मुझको रस देवें और जिस पापके नाशलिये उत्पन्न कर्ते है तिसरस के लिये हमशीघ्रजाते है॥ हे जलदेव आप मोक्षप्राप्ति केलिये योग्य हमको उत्पन्न करो-अर्थात् तुमारी कृपा और आचरणसे शौचादिसे हमको मोक्षहों॥ प्रमाण जैसे पातंज्जलदर्शन. योगसूत्रमे (शौचात्स्वांगेजुगुप्सा-परैरसंसर्गः) इति॥
तत्सूर्यमुदीक्षसेतिवधूंसंबोधयतिवरः॥ तच्चक्षुरित्यृ
चंपठित्वावधूः सूर्यंपश्येत्॥ मंत्रोयथा॥
यजु अ० ३६ मंत्र २४
तच्चक्षु॑र्द्देवहि॑तम्पु॒रस्ता॑च्छुक्रमुच्चरत्। पश्ये॑मश॒रद॑÷श॒तञ्जीवे॑मशरद॑÷श॒तंÙ शृणुयामश॒रदःश॒तम्प्रब्ब्रवामशरदंः शतमदीनाः त्स्यामशरदःश॒तम्भूय॑श्चशरदःश॒तात्॥
इतिपठित्वासूर्येपश्यति॥ अस्तंगतेसूर्य्येध्रुवमुदीक्षस्वइति प्रैषानन्तरंध्रुवं
पश्यामीतिब्रूयात्।
** तत्रवरपठनीयोमंत्रः॥**
ॐध्रुवमसिध्रुवंत्वापश्यामिध्रुवैधिपोष्यामयिमह्यंत्वादाद्बृहस्पतिर्मयापत्या प्रजावतीसञ्जीवशरदः शतमितिपठेत्॥
भा० टी० सूर्य्यको देखो यह वर वधूको कहे तच्चक्षु इस मंत्रको पढ वधू सूर्य्यको देखे तच्चक्षु इस मंत्रका दध्यङ्गाथर्वण ऋषि अक्षरातीतिपुरउष्णिकछंदः सूर्यदेवता सूर्य्यके उपस्थानमे विनियोगहै॥
(मंत्रार्थ) स्वाहा स्वधाप्रभृति संपूर्ण देवता और पितर जिस्के उदय होनेसे तृप्त होते है ऐसा देवहित और नेत्रोसे होनेसे चक्षु जो सूर्यभगवान् प्रमाण यजु. अध्याय ३१ (चक्षोः सूर्यो अजायत) अर्थ विराड्भगवान् के नेत्रसे सूर्य जो भये॥आदिमे कामादि और अविद्यादि दोषरहित उदयको प्राप्तहो ऊर्ध्वको जाता है उस सूर्यभगवान्को हम शत १०० वर्ष देखे और जीवतरहैकर्णाो से यश श्रवण करे वाणीसे श्रेष्ठस्तुत्यादि करे और अदीन रहकर शत १०० वर्षसे अधिक वीस वर्ष जीवत रहैप्रमाण पूर्णायुमे जैसे बृहज्जातके (समा षष्टिर्द्विघ्नाप्रनुजकरिणांपंचचनिशा) इस प्रमाणसे॥१२०॥वर्ष और पंचरात्र मनुष्यकी पूर्णायुहै रात्रिमे ध्रुवजीको दर्शन करे वरमंत्रको पढे ध्रुवमसि इसमंत्रका परमेष्ठिऋषि पंक्तिछंद प्रजापतिदेवता ध्रुवजीके दर्शनमे विनियुक्त है॥
(मंत्रार्थ) हेध्रुव तुम सदैव रहनेवाले निश्चिल है इसलिये तुमका
दर्शन कर्ते है (भाव) जैसे ध्रुवजी निश्चिलहै तद्वत तुम निश्चिल हो और मेरे पुत्रपौत्रादिके पुष्टिकर्नेवाली हो इस लिये प्रजापति ब्रह्माजी मुझको देते भये मेरेसे युक्त प्रजापति तुम शतवर्षजीवित रहों॥ यदि वधूकीदृष्टिमे ध्रुव ना आवे तो देखतीहुं यह कह दे॥
अथवरो वधूदक्षिणांसस्योपरिहस्तंनीत्वातस्याहृद
यमालभेत। मंत्रोयथा॥ ममव्रतेतेहृदयंदधातुममच्चि
त्तमनुचित्तंतेऽस्तु॥ ममवाचमेकमनाजुषस्वप्रजापतिष्ट्वा
नियुनक्तुमह्यमितिमंत्रेण। अथवधूमभिमन्त्रयतिव
रः॥ सुमङ्गलीरियंवधूरिमा्ँसमेतपश्यत सौभाग्यम
स्यैदत्वायाथास्तंविपरेतनेति॥ अथ स्विष्टकृद्धोमः॥
ॐअग्नयेस्विष्टकृतेस्वाहा इदमग्नयेस्विष्टकृतेº॥
अत्रस्रुवावशिष्टुज्यस्यप्रोक्षणीपात्रेप्रक्षेपःअयञ्चहोमो
ब्रह्मणान्वारब्धकर्तृकः॥ अथसंस्रवप्राशनं। ततआ
चम्यपूर्णपात्रंदक्षिणांब्रह्मणेदद्यात् । ॐअद्यकृतैत
द्विवाहहोमकर्म्माणिआचार्य्यकर्मप्रतिष्टार्थंइदंहिरण्य
मग्निदैवतद्रव्यम्यथानामगोत्रायाऽमुकशर्म्मणेब्राह्म
णाय दक्षिणांतुभ्यमहंसंप्रददे॥ ततोब्रह्मग्रंथिविमोकः
भा०टी०वर वधूके दक्षिण अंसपर हस्तको रख हृदयको स्पर्श करे ममव्रते इसमंत्रका परमेष्ठिऋषित्रिष्टुप्छन्द प्रजापतिदेवता हृदय के स्पर्शमे विनियोगहै(मंत्रार्थ) मेरेशास्त्रविहित नियमाचरणमे तुमारे हृदयको प्रजापति धारण करे और मेरे चित्तके अनुकूल तुमारा चित्तहोवे और मेरे वचनको सुखपूर्वक करो। अनंतर वधूको
अभिमंत्रण करे वर सुमङ्गली इस मंत्रका प्रजापतिऋषि अनुष्टुपूछंद विवाहाधिष्ठातृदेवता अभिमंत्रणमे विनियोगहै॥ (मंत्रार्थ) हे विवाहाधिष्ठातृदेवता गौरी पद्मा शची प्रभृतया यह सुमंगलयुक्त वधूको मिल इसको दृष्टिसे देखे और इस्को सौभाग्य पुत्रपौत्रादि देकर पुनः आनेके लिये जाओ॥ ॐअग्नये स्विष्टकृते इस मंत्रसे आहुति देकर स्रुवालग्न घृतका प्रोक्षणी पात्रमे गेरना और यह होम ब्रह्माका अन्वारब्ध कर कर्ना संश्रव प्राशन कर्ना अनंतर आचमनकर पूर्ण पात्र दक्षिणा ब्रह्माको देवे संकल्पकर ब्रह्मा स्वस्ति कहे॥ अनंतर ब्रह्मग्रंथि खोलदेनी॥
अत्रग्रामवचनंचकुर्युः॥ ॐसुमित्रियानआपओषधयः
सन्तुइतिप्रणीताजलेनपवित्रेगृहीत्वाशिरःसंमृज्यदुर्मि
त्रियास्तस्मैसन्तुयोऽस्माद्वेष्टियञ्चवयंद्विष्मः॥ इत्यै
शान्यांसपवित्रांसजलांप्रणीतांन्युब्जीकुर्यात्॥ तत
स्तरणक्रमेणबर्हिरुथ्थाप्यआज्येनावघार्यवक्ष्यमाणम
न्त्रेणहस्तेनैव जुहुयात् ॥
य०अ० ८ मं० २१
ॐदेवा॑गातुविदोगातुंव्वित्वागातु
मि॑त। मन॑सस्पतऽइ॒मंदेवय॒ज्ञ
स्वाहाव्वातेधाः स्वाहा॥ इति बर्हिर्होमः॥
॥ ततउत्थायवध्वादक्षिणहस्तेनस्पृष्टैः स्रुवस्थघृतपुष्पफलैः पूर्णाहुतिंकुर्यात्॥मूर्द्धानमिति-मंत्रस्यभरद्वाजऋषिर्वैश्वानरोदेवतात्रिष्टुप्छंदःपूर्णाहुतिहोमेविनियोगः॥
यजु अ० ७ मं० २४
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ॐ मूर्द्धानंदि॒वोऽअ॑र॒तिम्पृ॑थि॒व्यावैश्वानरमृतऽआजातमग्निम्।
कविúस॒म्राज॒मति॑थिंजना॑नामा॒सन्नापात्रंजनयन्तदेवाः स्वाहा॑।
इदमग्नये० ॥ ततउपविश्यस्रुवेणभस्मानीयदक्षिणानामिकाग्रेण।
य०अ० ३ मं० ६२
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त्र्या॒युषंज॒मद॑ग्नेः इतिललाटे। कश्यपस्य त्र्यायुषम् इतिग्रीवायां। यद्देवेषु॑त्र्यायुषं इतिदक्षिणबाहुमूले॥
तन्नो॑ऽअस्तुत्र्यायुषम् इतिहृदये॥
अनेनैवक्रमेणवध्वाअपित्र्यायुषंकुर्य्यात्। तत्रतन्नो इत्यत्रतत्तेइतिविशेषः॥
भा०टी० नगरका आचार करे कुलटीति जैसे सुमित्रियान इस मंत्रका वामित्रऋषिअनुष्टुप् छंद मित्रदेवता मार्जनमे विनियुक्त है। [मंत्रार्थ] जल और औषधी हमारेको परमसुख देवे इस मंत्रसे शिरको जलसिञ्चन करै। और जो हमारे से द्वेष कर्ता जिसको हम शत्रु मानते है इस्को जल ओपधीदुःखको दे इस मंत्रसे साथ जलके प्रणीताको साथ जलसे न्युब्ज (पुठो) करे ईशानमे॥ अनंतर पूर्वोक्त आस्तरण क्रमसे कुशाउठाय घृतसे युक्त कर देवागातु मंत्रपढ हाथसे हवन करे॥ [देवागातु इस मंत्रका अर्थ]॥ हेदेवता लोक तुम यज्ञके जाननेवाले है इस लिये विष्णुरूप यज्ञको जान कर सुखपूर्वक जाओ। हे अंतर्यामि ब्रह्मस्वरूप यह यज्ञफल तुमारे अर्पण किया जाताहै तुम वायुको अर्पण करो॥ अनंतर उठकर वधूके दक्षिण हाथसे युक्त स्रुवपर घृत पुष्प फल रख मूर्द्धानं इस मंत्रसे पूर्णाहुति देवे। मूर्द्धानं इस मंत्रका भारद्वाजऋषि अग्निदेवता त्रिष्टुपूछंद पूर्णाहुति होममे विनियुक्त है॥ [मंत्रार्थ] स्वर्गादि लोकसे ऊपर पृथीव्यादि पांचभूतोंसे विरिक्त ब्रह्माण्डको प्रकाश कर्ने वाला ईश्वर सत्यरूप जन्मादि षड्भाव रहित निर्विकार प्रकाशमान सर्वज्ञ परमानंद तीन कालसे रहित सृष्टिलयसेै प्राणियोंका पात्र भूत और जो देवताको उत्पन्न कर स्व स्वव्यापा-
रमै लगाताहै तिस परमेश्वरके लिये यह आहुति सुहुत हों॥ बैठकर स्रुवसे भस्म को लैदक्षिण अनामिकासे ललाट ग्रीवा दक्षिणवा हु ३ हृदयमे ४ यथाक्रम आयुषं इसमंत्रसे लगावे वर और वधूके लगानेमे तन्नो इस स्थान तत्ते यहपढे।
ततआचारात्शणशङ्खशमीपुष्पार्द्राक्षतारोपण
सिंदूरकरणंवरः कुर्यात्॥ अथवेदितोमण्डपमागत्य
दूर्वाक्षतादिग्रहणं॥ ततस्त्रिरात्रमक्षारालवणाशिनौ
अधःशायिनौनिवृत्तमैथुनौभवतः। प्राङ्मुखौवधूवराै
स्थितौभवतः॥ इति श्रीपदक्रमजटाघनाद्यखिलवे
दवेदाङ्गन्यायमीमांसादिशास्त्रसंपन्नअपारमहिमावि
राजित श्रीमच्छ्रीगणेशसूनुश्रीरामदत्तकृतावाजसने
यीयजुर्वेदीयकात्यायनसूत्रवतांविवाहपद्धतिः समा
प्ता॥ शुभंभूयात्। श्री श्री श्रीः॥
भा०टी० आचारसे शण शंख शमी पुष्प भिगेचावलका और सिंधूरका मस्तकपर कन्याके चढाना। और ग्रामके वचनकोवर करे ॥ अनंतर वेदिसे मंडपको आकर दूर्वाक्षत ग्रहण कर्ने वाद तीनरात्र लवण क्षार भोजन मैथुन नहि कर्ना और भूमिशयन प्राङ्मुख होकर बैठना होगा॥ प्रमाण जैसे गृह्यसूत्रमे (त्रिरात्र मक्षारालवणशिनौस्यातामधःशयीताँ संवत्सरंनमिथुनमुपेयातांद्वादशरत्र ँषड्रात्रंत्रिरात्रमन्ततः) इति श्रीगुरुदेवद्विजगोचरणेसवक काव्यनाटक नीति साहित्यज्योतिष चिकित्सादि, प्रवीण शिक्षासू-
त्र व्याकरण छंदयुक्तं शुक्लयजुर्वेदाध्यायी गौतमगोत्र (शोरि) ज्ञातिसम्भृत विपाशाशतद्रुरंतर्गत श्रीमहाराज जगज्जीत सिंहरक्षित राजधानी कर्पूरस्थला निवासी श्रीघनैयारामशमर्णः प्रपौत्रः श्रीतुलसीरामर्शमणः पौत्रः श्रीदैवज्ञदुनिचंद्रात्मज श्रीयुत करुणासिंधु सर्वबंधु श्रीपण्डित विष्णुदत्त वैदिक कृत विवाहपद्धति टीका विक्रमार्कात्ऋषिवेदांक भूमिते १९४७ वर्षे मधुमासे रामनवम्यांतिथौ रात्रौ समाप्तिमगात् तच्च शुभं भूयात् श्रीरामचंद्रप्रसादात् विप्राज्ञयाच॥
प्रार्थना
यदशुद्धमसम्बंद्धमज्ञानाच्चकृतंमया। विद्वद्भिः क्षम्यतांसर्वंबालत्वादयमञ्जलिः॥ सूर्या चन्द्रमसौ यावत् पृथ्वी विश्वस्य धारिणी॥ विवाहपद्धतेष्टीकातावत्तिष्ठतुमेकृता॥ श्रीः नमोगणपतये॥ श्रीः॥
(इति षष्टप्रकरणम्)
अथ सप्तमप्रकरणम् ।
ॐस्वस्तिश्रीगणेशाय नमः॥ अथचतुर्थीकर्मप्रारभ्यते॥ तत्रचतुर्थ्यामपररात्रेचतुर्थीकर्मतच्च- गृहाभ्यन्तरएवकार्य्यं। ततउद्वर्तनादिकृत्वायुगकाष्ठउपवि श्यवधूवरौप्राङ्मुखौभवतः॥ गणपत्यादि- देवतापूजनं॥ ततः कुशकण्डिकाप्रारम्भः॥ तत्रक्रमः॥ जामा तृहस्तपरिमितांवेदींकुशैः परिसमूह्यतान्कुशानैशान्यांनिक्षिप्यगोमयोदकेनोपलिप्यस्फ्येनमुवेणवाप्रा
गग्रप्रादेशमात्रत्रिरुत्तरोत्तरक्रमेणोल्लीख्यउल्लेखनक्रमेण अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामृदमद्धृत्य। जलेना-भ्युक्ष्य तत्रतूष्णींकांस्यपात्रेणाग्निमानीयस्वाभिमुखंनिदध्यात्॥
टीका—विवाहके अनंतर चतुर्थीकर्म लिखते हैं। विवाहकी रात्रिसे चतुर्थरात्रमें चतुर्थीकर्म गृहके अंतरमे कर्ना चाहिये॥ और उद्वर्तन (वटना) आदिकर्म कर युगकाष्ठ अर्थात् हलपजालिपर बैठ स्नान कर शुद्ध वस्त्रकाैशुभवस्त्र आदि धारण कर घरमें प्रवेश हो वधूवर पूर्वमुख होकर बैठे और गणपति षोडश १६ मात्रा नवग्रहादि विवाहवत् सर्वपूजा करे। अनंतर कुशकण्डिका कर्नी। तिसमें विधि यह है॥ जामातृके हस्त ४ सदृशवेदि बनाय कुशोसे समूह न कर वह कुशा ईशानमे प्रक्षेप कर गोमय जलसे लेप देय स्फ्यवास्रुवसे प्रादेशमात्र उत्तर क्रमसे उल्लेखनत्रय रेखाकर इसी प्रकार मृत्तिका प्रक्षेपकरजलसे अभ्युक्षण कर कांस्यपात्रमे तूष्णीं होय अग्रिले अपने सन्मुख वेदिमें स्थित करे॥
ततःपुष्पचन्दनतांबूलवस्त्राण्यादाय।
ॐअस्यांरात्रौ कर्तव्यचतुर्थीकर्महोमकमर्णिकृताऽकृतावेक्षण रूपब्रह्मकर्मकर्तुममुकगोत्रममुकशर्माणंब्राह्मणमेभिःपुष्पचंदनतांबूलवासोभिर्ब्रह्मत्वेनत्वामहंवृणे।
इति ब्रह्माणंवृणुयात्। ॐवृतोस्मीतिप्रतिवचनं। यथाविहितंकर्मकुर्वितिवरेणोक्ते। करवाणीतिब्राह्मणोवदेत्॥ ततोऽग्नेर्दक्षिणतःशुद्धमासनंदत्वातदुपरिप्रागग्रान्कु
शानास्तीर्य्यब्रह्माणमग्निप्रदक्षिणक्रमेणानीयॐअत्रत्वंमेब्रह्माभवइत्यभिधाय। ॐभवानीतिब्राह्मणेनोक्ते। कल्पितासने उदङ्मुखं-ब्रह्माणमुपवेशयेत्॥
भा०टी० अनंतर पुष्प चंदन तांबूल वस्त्रले। इस चतुर्थरात्रिमें कर्ना जो होम उस्की अशुद्धि शुद्धि साक्षीके लिये अमुकगोत्र ब्राह्मण तुमको ब्रह्मा समझकर वर्ण कर्ता है। मैंने वर्णीली। फिर यथा विहितआप कर्म कीजिये यह वर कहै। करताहूं ब्रह्मा कहै। अनंतर दक्षिण अग्निसे शुद्ध आसन देकर ऊपर पूर्वाग्र कुशा बिछाय अग्निकी प्रदक्षिणा कर इहाँ तुम ब्रह्मा होवे। हुआ यह ब्राह्मण कहे। फिर उत्तराभिमुख उस आसनपर ब्रह्माको स्थित करे।
ततः पृथूदकपात्रमग्नेरुत्तरतःप्रतिष्ठाप्यप्रणीतापात्रंपुरतः कृत्वावारिणा-परिपूर्य्यकुशैराच्छाद्यब्रह्मणो-मुखमवलोक्याग्नेरुत्तरतःकुशोपरिनिदध्यात्॥ ततः परिस्तरणं। बर्हिषश्चतुर्थभागमादाय आग्नेयादी-शानान्तं ब्रह्मणोग्नि-पर्यन्तंनैर्ऋत्याद्वायव्यान्तं अग्नितःप्रणीतापर्यन्तं। ततोऽग्नेरुत्तरतः पश्चिमदिशि-पवित्रछेदनार्थंकुशत्रयं पवित्र करणार्थं साग्रमनन्तर्गर्भकुशपत्रद्वयंप्रोक्षणीपात्रं। आज्यस्थाली॥ सम्मार्जनार्थं कुशत्रयंउपयमनार्थंवेणीरूपकुशत्रयं। समिधस्तिस्रः।स्रुवः। आज्यं। षट्पञ्चाशदुत्तरवर- मुष्टिशतद्वयावछिन्नततण्डुलपूर्णपात्रं। एतानिपवित्रछेदनकुशानां
पूर्वपूर्वदिशिक्रमेणासादनीयं॥ ततः पवित्रछेदनकुशैः पवित्रेछित्वाप्रादेशमितपवित्रकरणम् ॥
भा०टी०—अग्निसे उत्तर जलसहित पितलका कुंभ स्थापनकर प्रणीतापात्रको सन्मुखकर जलसे भर कुशोसे आच्छादित कर ब्रह्माजीको देख अग्निसे उत्तर कुशामें स्थित करे॥ अनंतर कुशोका चतुर्थभागले अग्निसे ईशान पर्यंत ब्रह्मासे अनि पर्यंत निर्ऋति कोणसे वायुकोण पर्यंत और समिद्धत अग्रिसे प्रणीता पर्यंत पूर्वोत्तर क्रमसे आस्तरण करे फिर अग्निसे उत्तर पश्चिम दिशामें पवित्र छेदनार्थ कुशत्रय। और पवित्र करणके लिये गर्भपत्र रहित अग्रसहित दो कुशत्रय प्रोक्षणीपात्र आज्यस्थाली। संमार्जन शुद्धिके लिये तीन कुशा उपयम (हस्तग्रहण) के लिये वेणीरूप तीन कुशा। तीन समिधापालाशकी। स्रुव घृत ५६ मुष्टिमित तण्डुलयुक्त पूर्णपात्र। यह पवित्र छेदन कुशाके पूर्व २ स्थितकर्ने क्रमसे॥ अनंतर पवित्र छेदन कुशोसे पवित्रे छेदन कर प्रादेशमात्र पवित्रा बनाये॥
ततःस पवित्र करेणप्रणीतोदकं त्रिःप्रोक्षणीपात्रेनिधाय अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामुत्तराग्रेपवित्रे-धृत्वात्रिरुत्पवनंततः प्रोक्षणीपात्रस्यसव्यहस्तकंरणम्। पवित्रेगृहीत्वात्रिरुद्दिङ्गनं। प्रणीतोदकेन-प्रोक्षणीप्रोक्षणं। ततः प्रोक्षणीजलेनयथासादितवस्तुसेचनम्॥ ततोऽग्नि प्रणीतयोर्मध्येप्रोक्षणी-पात्रंनिधाय॥ आज्यस्थाल्या माज्यनिर्वापः। ततोऽधिश्रयणं। ततोज्वलतृणादि
नाहविर्वेष्टयित्वाप्रदक्षिणक्रमेणपर्यग्निकरणम्। ततः स्रुवंप्रतप्यसम्मार्जनकुशानामग्रैरन्तरतोमूलै-र्बाह्यतः स्रुवसंमार्जनम्॥ प्रणीतोदकेनाभ्युक्ष्यपुनः प्रतप्यस्रुवं दक्षिणतोनिदध्यात्॥
भा०टी—अनंतर सपवित्र हस्तसे प्रणीताके जलको तीनवार प्रोक्षणीपात्रमें प्रक्षेप कर अनामिका अंगुष्ठसे उत्तराग्रपवित्राधारण कर तीनवार ऊर्द्ध्वको पवित्रेसे जल फैंकना फिर प्रोक्षणी पात्रको वाम हस्तमे स्थितकर पवित्रेग्रहण कर तीनवार उद्दिंगन करे॥ और प्रणीताजलसेप्रोक्षणीपात्रको प्रोक्षण कर फिर प्राक्षणी जलसे सर्ववस्तु सिंचन करे। अनंतर अग्निप्रणीतामध्यमें प्रोक्षणीपात्र धरदे आज्यस्थालीमें घृतपाय अग्निमें रख ज्वलततृणसे हविवेष्टन कर प्रदक्षीण क्रमसे पर्यग्निकरण अर्थात् अग्निमे प्रक्षेप करे तृणको॥ फिर स्रुवको तपाय सम्मार्जन कुशाके अग्रभागसे मध्यसे साफ करे और मूलसे ऊपर साफ कर फिर अग्निमें तपाय दक्षिणमें स्थित करे।
ततआज्यस्याग्नेरवतारणम्। तत आज्येप्रोक्षणीवदुत्पवनं। अवेक्ष्यसत्य-पद्रव्येतन्निरसनं। पुनः पूर्ववत्प्रोक्षण्युत्पवनम्। उपयमनकुशान्वामहस्तेनादाय उत्तिष्ठन् प्रजापतिंमनसाध्यात्वातूष्णींघृताक्ताः समिधस्तिस्रः क्षिपेत्॥ ततउपविश्य प्रोक्षणीजलेनाग्निंप्रदक्षिणंपर्युक्ष्यपवित्रंप्रोक्षणी-पात्रेधृत्वाब्रह्मणा-न्वारब्धः
पातितदक्षिणजानुर्जुहुयात्। तत्राघारादारभ्याहुति चतुष्टयेतत्तदाहुत्यनन्तरंस्रुवावस्थिताज्यंप्रोक्षिण्यां-क्षिपेत्। ॐप्रजापतयेस्वाहाइदंप्रजापतये०। इतिमनसा। ॐइन्द्रायस्वाहा। इदमिन्द्राय॰। इत्याषारौ। ॐअग्नयेस्वाहा। इदमग्नये०। ॐ सोमायस्वाहा। इदंसोमाय०॥ इत्याज्यभागौ॥ तत आज्याहुति-पंचतयेस्थालीपाकाहुतौचप्रत्याहुत्यनन्तरंस्रुवावस्थितहुतशेषघृतस्य प्रोक्षणीपात्रे प्रक्षेपः॥
भा०टी० घृतको अग्निसेउतार घृतकोभी प्रोक्षणीवत् उत्पवन कर यदि कुत्सित द्रव्य घृतमें होय तो निकाल फिर पूर्ववत् प्रोक्षणीका उत्पवन कर उपयमन कुशा वामहस्तमें ले उठकर प्रजापतिका मनमें ध्यान कर तूष्णी हो घृतयुक्त तीन समिधा अनिमें प्रक्षेप करे फिर बैठकर प्रोक्षणीजलसे अग्निको प्रदिक्षण क्रमसे पर्युक्षण कर पवित्रा प्रोक्षणीपात्रमें रख ब्रह्मासे अन्वारब्ध अर्थात् कुशामिलाय दक्षिणगोढानिमाय स्रुवसे हवन करे और चार आहुतिके अनंतर स्रुवमेंऽवशिष्ट घृतका प्रोक्षणीपात्रमें प्रक्षेप करे॥ प्रजापतिकी आहुति मनसे कहे इंद्र अग्निसोम यह क्रमसे चार आहुति हवन करे फिर घृतसे जो पंच आहुति और स्थालीपाक आहुतिमे आहुतिके अनंतर स्रुवमें अवशिष्ट घृतका प्रोक्षणीपात्रमें प्रक्षेप कर्ना॥
ततोब्रह्मणान्वारब्धंविना। ॐ अग्नेप्रायश्चित्तेत्वंदेवानांप्रायश्चित्तिरसि। ब्राह्मणस्त्वानाथकाम उपधावा
मियास्यैपतिघ्नीतनूस्तामस्यैनाशयस्वाहा॥ इदमग्रयेनमम। ॐवायोप्राय-श्चित्तेत्वंदेवानांप्रायश्चित्तिरसि-ब्राह्मणस्त्वानाथकामऽउपधा-वामियास्यै-प्रजा-घ्नीतनूस्तामस्यैनाशयस्वाहा॥२॥इदंवायवेनमम॥ ॐ सूर्यप्रायश्चित्ते-त्वदेवानां प्रायश्चित्तिरसिब्राह्मणस्त्वानाथकामऽउपधावामियास्यैपशुघ्नीतनू-स्तामस्यैनाशयस्वाहा॥३॥ इदंसूर्यायनमम॥ ॐ चन्द्रप्रायश्चित्तेत्वं-देवानांप्रायश्चित्तिरसिब्राह्मणस्त्वानाथकामऽउपधावामियास्यैगृहघ्नीतनूस्ता-मस्यैनाशयस्वाहा॥४॥ इदंचंद्रमसेनमम॥ ॐगन्धर्वप्रायश्चित्तेत्वंदेवानां-प्रायश्चित्तिरसिब्राह्मणस्त्वानाथकामऽउपधावामियास्यैयशोघ्नीतन्स्तामस्यै नाशयस्वाहा॥५॥ इदंगन्धर्वायनमम॥
१भा०टी०[मंत्रार्थ–अग्नेप्रायश्चित्ते] हे अग्निदेव प्रायश्चित्तस्वरूप देवताओंके दोषनाशक तुमकोही स्तुतिपूर्वक मै ब्राह्मण प्राप्त होता है। की इस स्त्रीका पति विरोधिक अर्थात् पतिनाशक अंगलक्षण शरीरको नाश करो अस्यै यह चतुर्थ्यर्थमे षष्ठीविभक्ति है॥
२ [मंत्रार्थ–वायोप्रायश्चित्ते] हे वायुदेव इस स्त्रीका जो प्रजाघ्नी संतान विरोधि अर्थात् पुत्रनाशक शरीर (वा अंगविशेष) उस्का नाशकरो॥
३ (मंत्रार्थ–सूर्यप्रायश्चित्ते) हे सूर्यदेव इस स्त्रीका जो पशु विरोधि अर्थात् पशुनाशक शरीर वह नाश करो॥
४ (मंत्रार्थ–चंद्रप्रायश्चित्ते) हे चंद्रमादेव इस स्त्रीका जो गृह विरोधि अर्थात् गृहनाशक शरीर है वह नाश करो॥
५ (मंत्रार्थ–गन्धर्वप्रायश्चित्ते) हे यशकेप्रकाशक गन्धर्वदेव इस स्त्रीका जो यश विरोधि अर्थात्यशनाक शरीर उस्का नाश करो।
चरुमभिघार्यततःस्थालीपाकेनजुहुयात्॥ ॐ प्रजापतयेस्वाहा—इदंप्रजापतये॰॥ इतिमनसा। अग्न्याहुतिनवके-हुतशेषघृतस्यप्रोक्षणीपात्रेप्रक्षेपः॥ अयंचहोमोब्रह्मणा-न्वारब्धकर्तृकः॥ ततआज्यस्थालीपाकाभ्यांस्विष्टकृद्धोमः॥ ॐअग्नयेस्विष्टकृते-स्वाहा–इदमग्नयेस्विष्टकृते॰॥ ततऽऽआज्येन। ॐभूःस्वाहा–इदमग्रये॥ ॐ भुवः स्वाहा–इदंवायवे। ओंस्वःस्वाहाइदंसूर्याय॰॥ एतामहाव्याहृतयः॥
भा०टी० चरुको तप्तकर स्थालीपाकसे हवन करे ॐ प्रजापतये स्वाहा यह मंत्र मनसे कहें॥ अग्नये स्वाहा इस आहुतिसे नव आहुतिपर्यन्त हुतशेष घृतका प्रोक्षणीपात्रमे प्रक्षेप करे॥ यह होम ब्रह्माके अन्वारब्ध कर्तृक होमहै॥
(शुक्लयजुर्वेद अध्याय २१ मंत्र ३)
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ॐत्वन्नो॑ऽअग्नेवरु॑णस्यवि॒द्वान्दे॒वस्य॒हेडोऽअव॑यासिसीष्टा॥ यजिष्ट्रोवन्हितमु शोशु॑चानो॒व्विश्वाद्वे
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षा॑Úसिप्रमु॑मुग्ध्य॒स्म्मत्स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम्॰॥१॥
(शुक्ल यजु० अध्याय २१ मंत्र ४॥)
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ॐसत्वन्नो॑ऽअग्ने॒व॒मोभ॑वो॒तीनोदि॑ष्ठोऽअ॒स्याऽउ॒षसव्यु॑ष्टौ॥ अवयक्ष्वनो॒व्वरु॑ण॒ररा॑णोव्वीहिमृंडीकसुहवोनऽएधिस्वाहा॥ इदमग्नये०२
शुक्ल०यजु० अध्याय मंत्र
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ॐअयाश्चाग्ग्नेस्यनभिशस्तिपाश्चसत्वमित्वमयाऽअसि। अयानोयज्ञंव्वहास्ययानोधेवेहिभेषजस्वाहा॥ इदमग्नये०॥३॥
शुक्ल० यजुर्वेद अध्याय मंत्र
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ॐयेतेशतम्व्वरुणयेसहस्रंयज्ञियाः
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पाशाव्विततामहान्तः। तेभिर्नोऽअद्यसवितोत्तविष्णुर्विश्श्वेमुञ्चन्तुमरुतः स्वर्काः स्वाहा॥ इदंवरुणायसवित्रेविष्णवे-विश्वेभ्योदेवेभ्योमरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः०॥ ४ ॥
(शुक्र यजुर्वेद अध्याय २१ मंत्र १२॥
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ॐउदुत्तमम्व्वरुणुपाश॑म॒स्म्मदवाधमँविम॑ध्य॒मÛश्रथाय। अथाव्वयमा॑दित्यव्र॒तेतवाना॑गसो॒ऽअदि॑तये स्यामस्वाहा॥ इदंव्वरुणाय५एताः सर्वप्रायश्चित्तसंज्ञकाः॥
भा०टी० त्वन्नो और सत्वन्नो इस मंत्रोका वामदेवऋषि त्रिष्टुप्छन्द अग्निऔर वरुणदेवता सर्व प्रायश्चित्तमें विनियुक्त है॥ और (येतेशतं) इस मंत्र का शुनःशेषऋषि त्रिष्टुप्छंद वरुणदेवता वरुणसंबधि शापके मोचनमें विनियुक्त है॥(मंत्रार्थत्वन्नोऽअग्नेइति)
हेअग्निदेव तुम इस कर्ममें वैगुण होनेसे वरुणदेवके क्रोधको दूर करो कैसे तुम सर्वकर्ममें साक्षी चतुर हो॥ और सबसे उत्तम हो और सर्वदेवताओंको यज्ञका भाग देनेवाले हो प्रकाशमान हो इसलिये मंदबुद्धिवाले हमको जानकर हमारेसे की हुई अवज्ञा (अनादर) को क्षमाकर सर्व प्रकारसे कल्याण देवो॥१॥ (मंत्रार्थ सत्वन्न इति) हेअग्ने तुम सर्वकी पालना कर्नेवाले है इस लिये आज दिनके प्रातःकालसे लेकर मुझकी रक्षा करो। नहीं केवल रक्षाही किन्तु हमारे कर बुलाये तुम सुखपूर्वक आकर सुख देनेवाला चरुयज्ञके स्वामि वरुणदेवताको देकर पूजन करो। जिसवरुणदेवभी प्रसन्न हो हमारेको सुख दे॥२॥ (मंत्रार्थ–अयाश्चाग्रइति) हे अग्नेतुम सर्वांतर्यामी और प्रायश्चित्तद्वारा सर्वप्राणिको शुद्धकर्नेवाले। और शुभके दाता हमारे किये हुए यज्ञको कृपाल होनेसे इंद्रादि देवताओंको देनेवाले इसलिये हमकोभी भेषज अर्थात्सुखके देनेवाला त्रिविध दुःख11 विनाशक अपूर्व सुख देवो ॥३॥
(मंत्रार्थ–येतेशतमिति) हे वरुणदेव यज्ञके विघ्नसे उत्पन्न सह ए बडे २ भारी महान् कठिन जो तुमारे शतसंख्यक और सहस्रसंख्यक पाशहै। वह पाश पापरूप हमारे सवितासूर्य विष्णुरूप इंद्र और सर्वदेवता और वायुदेव ४९ सुंदर हृदयवाले आदित्य १२ हमारे पापोंको नष्ट करें॥४॥ (मंत्रार्थ–उदुत्तममिति ) उत्तम मध्यम अधम यह तीन वरुणजीके पाश है॥ हे वरुणदेव ज
तुम्हारा उत्तमपाशहै उससे हमारि रक्षा करो। और जो मध्यम पाशहै उससेभी हमारी रक्षा करो पाशको शिथिल करो हे वरुणदेव हम ब्रह्मचर्य से तुमारेसे निरपराध होकर दीनतासे रहित होते है॥(दीनतायांदितिः प्रोक्ता दितिः स्याद्दैत्यमातरि) इस वचनसे दितिनाम दोनताकाभी है॥५॥ यह आहुति सर्व प्रायश्चित्तम है॥
ॐ प्रजापतयेस्वाहा इदंप्रजापतये॰। इतिमनसा॥ इदंप्रजापत्यं ततःसंस्रवप्राशनम्। आचम्य। ॐअस्यांरात्रौकृतै-तच्चतुर्थीहोमकर्मणिकृताऽकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्टार्थमिदंपूर्णपात्रं प्रजापतिदैवतं अमुकगोत्रायामुक शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहंसंप्रददे॥ इति दक्षिणां दद्यात्॥ स्वस्तीतिप्रतिवचनम्॥ ततोब्रह्मग्रंथिविमोकः। ततः सुमित्रियानऽआपऽओषधयःसन्तु। इति पवित्राभ्यां शिरःसंमृज्य। ॐ दुर्म्मित्रियास्तस्म्मैसन्तुयोऽस्मान्द्वेष्टियञ्च-वयंद्विप्मः। इत्यैशान्यांदिशिप्रणीतांन्युब्जीकुर्यात्। ततः स्तरणक्रमेणबर्हिरुत्थाप्यघृताक्तंहस्तेनैवजुहुयात्॥
शुक्ल यजुर्वेद अध्याय ८ मंत्र २१
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ॐदेवा॑गातुविदोगातुंव्वित्वागातुमित। मन॑स॒स्पतऽडमन्दे॑वय॒ज्ञÛस्वाहा॒व्वाति॑धास्वाहा॥
भा०टी०प्रजापतये यह मनसे कह प्रजापति संबंधि हवनकर फिर संभव प्राशन करे॥ इस रात्रिमें कृत चतुर्थीकर्म की संगतासिद्धिके लिये अमुकगोत्र ब्राह्मणको दक्षिणा देताहै ब्राह्मण स्वस्ति कहै। फिर ब्रह्माकी ग्रंथि खोलदेवे। सुमित्रियानऽआप ओषधयः सन्तु इस मंत्रसे शिरको जलसे मार्जन करे। दुर्मित्रिया इस मंत्र से प्रणीताको ईशान कोणमे न्युब्जकरे फिर आस्तरण क्रमसेही कुशाले घृत लगाय देवागातु इस मंत्र से हाथसेही हवन करे[मंत्रार्थ–देवागात्विति] हे देवतालोक तुम यज्ञके जाननेवाले है इसलिये विष्णुरूप यज्ञको जान कर सुखपूर्वक जाओं हे अन्तर्यामि ब्रह्मस्वरूप यह यज्ञका फल तुमारे अर्पण किया जाता है॥ तुम वायुको अर्पण करो॥
आम्रपल्लवेनजलमादायमूर्द्ध्निंवरोवधूमभिषिञ्चति।ॐयातेपतिघ्नीप्रजाघ्नोपशुघ्नीगृहघ्नीयशोघ्नी-
निंदिता
तनूजारघ्नीततएनांकरोमिसाजीर्यत्वंमयासहश्रीअमुकदेव्या। इतिमंत्रेण। ततोवधूंस्थाली-पाकंप्राशयतिवरः। ॐ प्राणैस्तेप्राणान्संधामि ॐअस्थिभिरस्थीनिसंदधामि॥ ॐमा्ँसैस्तेमा्ँसानि-निसंदधामि ॐत्वचातेत्वचंसंदधामि॥ इतिमंत्रचतुष्टयेनप्रतिमंत्रांते-अन्नप्राशयेत्। ततोवधूहृदयं-स्पृष्ट्वावरःपठेत्॥ ॐयत्तेसुशीमेहृदयंदिविचन्द्र-मसिश्रियं। वेदाहंतन्मांतद्विद्यात्पश्येमशरदः शतंजीवेम-शरदः शत्ँशृणुयामशरदः शतमिति॥
भा०टी०आम्रके पत्रसे जल ले वरवधूको यातेपतिघ्नी इस मंत्रसे मार्जनकरे ॥ [मंत्रार्थ-याते] हेस्त्री जो तुमारापतिनाशकपुत्रनाशक पशुनाशक गृहनाशक यशनाशक निंदित शरीरहै सोजीर्णको (नाशको) प्राप्तहोय मुझकाभी जोस्त्रीपुत्र पशु गृह यश नाशक शरीरहै उसके साथ और मै तुमको जारके नाशकर्नेवाली अर्थात्पतिव्रता कर्त्ताहै ॥ अनंतर वधूकोवर प्राणैस्ते इन चतुरमंत्रोसेस्थालीपाक प्राशनकरवाये ॥ (मंत्रार्थ प्राणैस्ते) हे वधू तुम्हारे प्राणोंके साथ मैं अपने प्राण और अस्थियोंसे आपनिअस्थि मांससेमांस त्वचासे त्वचास्थित कर्ताहै अर्थात् तेरे और मेरेमें कुछभेदबुद्धि नहीं है अनन्तर वरवधूके हृदयको स्पर्शकर यत्ते सुशीमें यहमंत्रपढे ॥ (मंत्रार्थ यत्ते सुशीमें) हेवधू जो तुझारे हृदय में चंद्रमासिशोभा लक्ष्मीमें जानता है वह मुझको प्रप्तहो उसको मे शतवर्षपर्यंतदेखा और शतवर्ष जीवतरहा और शतवर्षही श्रवणकरा ॥भावार्थ यह है कि तुमारेसाथ रोगरहित शतवर्षंपर्यंत सुखपूर्वकप्राणाको धरणकरा \।\।
अथकङ्कणमोक्षणादीनियुतग्रंथिविमोकादीनिआचारात्प्राप्तानिकर्तव्यानि॥
मंत्रःकंकणमोचयाम्यद्यरक्षांसिनकदाचनमयिरक्षांस्थिरांदत्वास्वस्थानंगच्छकंकण॥ ततउत्थायवधूदक्षिणहस्तस्ष्टष्टसुवेण घतफलपुष्पपूर्णेनपूर्णाहुतिंजुहुयात् \।\।
(यजु० अध्याय ७ मंत्र २४)
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ॐमूर्द्धान॑दि॒वोऽअ॑र॒तिम्पृ॑थि॒व्यावैश्वानुरमृतऽआजातमुम्निम्। क॒विÛसुम्म्राज॒मति॑थि॒ञ्जना॑नामा॒सन्नापात्रंञ्जनयन्त
-दे॒वाः स्वाहा ॥ इदमग्नये ० ॥
ततः स्रुवेणभस्मानीयदक्षिणानामिकयात्र्यायुषंकुर्य्यात् । यजु० अध्याय ३ मंत्र ६२
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ॐ व्या॒युषंज॒मद॑ग्नेः॥ इति ललाटे।ॐ कश्यपस्यत्र्यायुषम्॥ इति ग्रीवायां ॐयद्दे॒वेषु॑त्र्यायु॒षम्। इतिदक्षिणबाहुमूले॥ ॐ तन्नोअस्तुत्र्यायुषम्। इतिहृदये॥
एवंवध्यापित्र्यायुषङ्कुर्य्यात्। तत्रतन्नोइत्यस्यस्था नेतत्तइतिविशेषः।ततआचार्यायदक्षिणांदद्यात्॥
भूयसींदद्यात्॥ इति श्रीचतुर्थीकर्म समाप्तम्॥
भा०टी० कंकण मोक्षण और युतग्रंथि (खठ्ठचितावा) मोक्षणआचारसे (मंत्रार्थ) में आज कंकणको त्यागता है राक्षस दूरहोये हेकंकण मेरे में दृढ रक्षादे अपने स्थानको यथा सुखजा ओ। फिर उठकरवधूका दक्षिण हाथ स्रुवके साथलगाय घृतफल पुष्पयुक्तपूर्णाहुति वर हवनकरें।मूर्द्धानं इस मंत्र से (मंत्रार्थ मूर्द्धानमिति)स्वर्गादि सप्तलोकसे ऊपर पृथिव्यादिपांचभूतोंसेविरिक्त (रहितब्रह्माण्डको प्रकाश कर्नेवाला ईश्वर सत्यरूप जन्म आदि षड्भावरहित निर्विकार प्रकाशमान् सर्वज्ञ परमानंद तीन कालसे रहित सृष्टि (उत्पत्ति) लय (नाश) से प्राणियोंका पात्र तभू आधारऔर जो देवताओंको उत्पन्नकर स्वरव्यापारमें लगाता है तिस परमेश्वरके लिये यह आहुति सुहुतहो । बैठकर स्रुवसे भस्मले दक्षिण अनामिकासे ललाट १ ग्रीवा २ दक्षिण बाहुमूल ३ हृदयमे४ यथाक्रम त्र्यायुषं इस मंत्र से लगावे इसीप्रकार वधूकेभीलगावे तन्नो स्थान तत्ते यह वधूको कहना॥इतना विशेष हैं ॥
अनंतर आचार्यको दक्षिणा भूयसी देवे ॥
इति श्रीकर्पूरस्थल निवासि गौतमगोत्र (शोरि) अन्वयालंकृत दैवज्ञदुनिचंद्रात्मज पण्डित विष्णुदत्त वैदिककृत चतुर्थी कर्म टीका अद्रिवेदांकभूमिते १९४७ मधुमासे कृष्णपञ्चम्यां गुरुदिने समाप्तिमगातू । साचशुभावहीस्यात्कुलदेव्याः प्रसादात् देवगुरुद्विजाशीर्भिः
॥ श्रीः ॥ शुभम्॥ समाप्तञ्चेदं सप्तमं प्रकरणम्॥
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अथ विवाहमंत्राणांसूचीपत्रम्
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| संख्या | मंत्र | पृष्ठ | संख्या | मंत्र | पृष्ठ |
| १ | साधुभवानास्ताम् | १३४ | २० | अघोरचक्षुः | १५२ |
| २ | वर्ष्मोस्मि | १३६ | २१ | त्वन्नो अग्ने | १६४ |
| ३ | विराजोदोहोसि | १३६ | २२ | सत्वन्नो अग्ने | १६५ |
| ४ | आपःस्थयुष्माभिः | १३७ | २३ | अयाश्चाग्नेः | १६५ |
| ५ | समुद्रंवः | १३८ | २४ | येतेशतम् | १६५ |
| ६ | आमागन्यशसा | १३९ | २५ | उदुत्तमम् | १६६ |
| ७ | देवस्यत्वा | १४० | २६ | ऋताषाडृऋतधामा | १६७ |
| ८ | नमःश्यावाश्यायां | १४१ | २७ | स ँ् हितो | १६७ |
| ९ | यन्मधुनोमधव्यम् | १४१ | २८ | सुषुम्णः | १६९ |
| १० | गौर्गौर्गौः | १४३ | २९ | इषिरोविश्वव्यचा | १६९ |
| ११ | मातारुद्राणाम् | १४३ | ३० | भुज्युःसुपर्णः | १७० |
| १२ | उत्सृजततृणानि | १४३ | ३१ | प्रजापतिर्विश्वकर्मा | १७१ |
| १३ | जरांगच्छ | १४६ | ३२ | चित्तञ्चेति (द्वादश) | १७३ |
| १४ | याअकृंतन् | १४६ | ३३ | प्रजापतिजयानिंद्राय | १७३ |
| १५ | परिधास्यै | १४७ | ३४ | अग्निर्भूतानाम् | १७४ |
| १६ | यशसामाद्यावा | १४७ | ३५ | इन्द्रोज्येष्ठानाम् | १७४ |
| १७ | समंजंतुविश्वेदेवाः | १४७ | ३६ | यमः पृथिव्यां | १७४ |
| १८ | कोदात् | १५२ | ३७ | वायुरंतरिक्षस्य | १७४ |
| १९ | यदैषिमनसा | १५२ | ३८ | ॐसूर्योदिवा | १७४ |
सूचीपत्रम्
| संख्या | मंत्र | पृष्ठ | संख्या | मंत्र | पृष्ठ |
| ३९ | ॐ चंद्रमानक्षत्राणां | १७४ | ५९ | इमाल्ँलाजानावपामि | १८१ |
| ४० | ॐ बृहस्पतिर्ब्रह्मणो | १७४ | ६० | गृभ्णामिते | १८१ |
| ४१ | ॐ मित्रःसत्यानां | १७४ | ६१ | अरोहेममश्मानं | १८४ |
| ४२ | ॐ वरुणोऽपां | १७४ | ६२ | सरस्वतिप्रेदम | १८४ |
| ४३ | ॐ समुद्रःस्रोत्यानां | १७४ | ६३ | तुभ्यमग्ने | १८५ |
| ४४ | अन्नँ साम्राज्यानां | १७४ | ६४ | एकमिषेद्वेउर्जेइत्यादिसप्त | १८७ |
| ४५ | सोमओषधीनां | १७४ | ६५ | आपः शिवाः | ૧૮૮ |
| ४६ | ॐ सविताप्रसवानां | १७४ | ६६ | आपोहिष्ठा | ૧૮૮ |
| ४७ | ॐ रुद्रः पशूनां | १७४ | ६७ | तच्चक्षुः | १९० |
| ४८ | त्वष्टारूपाणां | १७४ | ६८ | ध्रुवमसि | १९१ |
| ४९ | ॐ विष्णुः पर्वतानां | १७४ | ६९ | ममव्रतेते | १९२ |
| ५० | ॐ मरुतोगणानां | १७४ | ७० | सुमंगलीरियं | १९२ |
| ५१ | पितरः पितामहाः | १७६ | ७१ | इहगावोनिषीदंतु | १९२ |
| ५२ | अग्निरैतु | १७९ | ७२ | सुमित्रियादुर्मित्रिया | १९३ |
| ५३ | इमामग्निस्त्रायतां | १७९ | ७३ | देवागातु | १९३ |
| ५४ | स्वस्तिनो अग्ने | १७९ | ७४ | मूर्द्धानम् | १९४ |
| ५५ | सुगन्नुपन्थाम् | १७९ | ७५ | त्र्यायुषम् | १९४ |
| ५६ | परंमृत्यो | १७९ | अथ चतुर्थीकर्ममंत्राः | ||
| ५७ | अर्यमणंदेवम् | १८१ | १ | अग्नेप्रायश्चित्ते | २०२ |
| ५८ | इयंनारी | १८१ |
सूचीपत्रम्
[TABLE]
इति विवाहमंत्राणांसूचीपत्रम्
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अथ अष्टमप्रकरणम्।
(स्त्रीणामाचारे)
ॐ स्वस्ति श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीगुरुवेनमः॥
लोकानंत्यंदिवः प्राप्तिः पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः॥
यस्मात्तस्मात्स्त्रियः सेव्याः कर्तव्याश्चसुरक्षिताः॥
भा०टी० याज्ञवल्क्यस्मृति और मन्वादि धर्मशास्त्र और श्रुतियोंमे स्त्रियोंका स्वीकार रक्षा यह सिद्धहै इस लिये पुत्रपौत्र प्रपौत्रादिद्वारा स्वर्गादिप्राप्तिके लिये स्त्रीयोंका पाणिग्रहण कर्ना चाहिये और स्त्रीयोंको उपदेश कर्ना आचारका तथा भर्ताकी पूजन
अवश्य कर्तव्य है और यहभी याज्ञवल्क्यस्मृति प्रथम अध्यायमेंभीलिखा है की (पतिप्रियहितेयुक्तास्वाचाराविजितेन्द्रिया।सेहकीर्तिमवाप्नोतिप्रेत्यचानुत्तमांगतिम्) अर्थात् जो स्त्रीपतिके प्रियमें तत्पर और शुद्ध आचार युक्त और इंद्रियजित ऐसी स्त्री इसलोकमें कीर्ति यश और परलोक में उत्तमगतिको प्राप्त होती है और भीलिखा है (स्त्रीभिर्भतृवचःकार्यमेषधर्मः परः स्त्रियाः) अर्थात् भर्ताकावचन मानना यही स्त्रीका परम धर्म है॥ अन्यच्च (गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतोगुरुः) अर्थात् ब्राह्मणोंका अग्नि गुरु वर्णोंका ब्राह्मण गुरु स्त्रीकाएक पतिही गुरु होता है अभ्यागत सर्वका गुरु है इत्यादि अनेकप्रमाणोंसे स्त्रियोंका पतिही गुरु है इसलियेपतिकी सेवा और आज्ञा कर्नी आचार शुद्ध रखना यही स्त्रीका मुख्य धर्म है इसलियेकुछ यत्किंचित् स्त्रीयोंका आचार धर्म शास्त्रोक्त लिखते है।जोसौभाग्यवती स्त्री मात्र है उन्को प्रातःकाल सूर्योदय के प्रथम चारघडीके तडके (प्रातःकाल) उठकर नेत्रोंको प्रथम जल स्पर्श करना अनंतर अपने पति के चरणोंपर सिरको धर प्रणाम कर प्रथमपतिके मुखका दर्शन कर्ना पश्चात् शुद्ध (साफ) दर्पणमे अपनामुख देखना पीछेसे भूमीको प्रोक्षण (छिडकन) सम्मार्जन (वहारी) लेपनादिसे घरको शुद्ध करे और पृथिवीकी पूजा कर फिरशूद्रकमलाकरोक्त मंगलपाठ पढकर पतिकी सेवा पाद प्रक्षालनआदिकर फिर वेणी (गूत) को कंकपत्र (कंगी) से शुद्धकरऔर पुष्पादिक धारण कर भाल (मस्तक) में तिलक लगाय
हस्त कर्ण बाहुके भूषणादि धारण कर फिर जिस प्रकार केशादिक जलसे क्लिन्न (गिल्ले) ना होवे तद्वत् स्नान करे इसमें प्रमाणभी जैसे सौभाग्यकल्पद्रुममें लिखाहै \।\।
यथा—
बुद्धाब्राह्मेमुहर्तेनिजपतिचरणौसंप्रणम्यास्यमस्य-प्रेक्ष्यप्रेम्णाथनैजंशुभमुकुरतलेभूमिमभ्यर्च्यपत्नी। प्रातःस्मृत्यादिकृत्वापतिपरिचरणंसंविधायैववेणीं संरच्याधायभालेतिलकमथगलाधोनिमज्जेत्सभूषा॥
और स्कांदमें भी लिखा है (प्रसुप्तञ्च सुखासीनं रममाणं यदृच्छया। आतुरेष्वपि कालेषु पतिंनोत्थापये त्क्वचित्) अर्थात्पति शयनअवस्था में हो वा सुखपूर्वक आराममें होय।वा स्वेच्छापूर्वक आनंद लेताहो॥ अर्थात् अपनी तखलीफमेंभीहोय तबभी पतिको ना उठावे॥ और पतिको सर्व प्रकार से प्रसन्न करें॥और हरिद्रा (हलदी) का मर्दन केशरका स्वीकार सिंदूर कज्जलकूर्पासक (बहुदेवाकंगण) ताम्बूल यह स्त्रियोंको मंगलदायकभूषणहै। और केशोंका संस्कार कर्णके भूषण तथा हस्तोंके भूषण भर्त्ताकी आयुकी वृद्धिकी इच्छावाली स्त्री इन्को मत त्यागे।
प्रमाणं। हरिद्राकुंकमञ्चैवकस्तूरीकज्जलंतथा।
कूर्पासकञ्चतांबूलंमांगल्याभरणंस्त्रियाः॥
केशसंस्कारकबरीकरकर्णविभूषणं।
भर्तुरायुष्यमिच्छंतीदूरयेन्नक्वचित्सती॥
और नियम का जल और पत्रपुष्प आदिजो आज्ञा करे पतिवह आगेरखदे।और भर्ताका उच्छिष्ट सेवन करे ॥ और तीर्थस्नानकी इच्छावाली स्त्री पतिका पादोदकपान करे और शंकर विष्णुसे अधिक स्त्रीको पति होताहे ॥
प्रमाणं। प्रसुप्तञ्चसुखासीनंरममाणंयदृच्छया।
आतुरेष्वपिकालेषुपतिंनोत्थापयेत्क्वचित्॥
हरिद्राकुंकमञ्चैवसिंदूरंकज्जलंतथा।
कूर्पासकञ्चताम्बूलंमाङ्गल्याभरणंस्त्रियः॥
केशसंस्कारकवरीकरकर्णविभूषणम्।
भर्तुरायुष्यमिच्छन्तीदूरयेन्नक्वचित्सती ॥
नियमोदकवह्निञ्चपत्रपुष्पादिकञ्चयत्।
सेवेतभर्तुरुच्छिष्टमिष्टमन्नंचफलादिकम्॥
तीर्थस्नानार्थिनीनारीपतिपादोदकंपिबेत्।
शंकरादपिविष्णोर्वापतिरेकोऽधिकः स्त्रियाः॥
श्रीमद्भागवते -
स्त्रीणाञ्चपतिदेवानांतच्छुश्रूषानुकूलता॥
तद्बन्धुष्वनुवृतिश्चनित्यंतद्व्रतधारणम् ॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यांसेकमण्डलवर्तते॥
स्वयञ्चमण्डितानित्यंपरिमृष्टपरिच्छदा ॥
कामैरुच्चावचैः साध्वीप्रश्रयेणदुमेनच ॥
वाक्यैः सत्यैः प्रियैःप्रेम्णाकालेकालेभजेत्पतिम्॥
संतुष्टालोलुपादक्षाधर्मज्ञाप्रियसत्यवाक् ॥
अप्रमत्ताशुचिःस्त्रिग्धापतिंत्वपतितंभजेत् ॥
यापतिंहरिभावेनभजेच्छ्रीरिवतत्परा॥
हर्यात्मनाहरेर्लोकेपत्याश्रीरिवमोदते॥
दुःशीलोदुर्भगोवृद्धोजडोरोग्यधनोपिवा।
पतिःस्त्रीभिर्नहातव्योलोकेप्सुभिरपातकी॥
अस्वर्ग्यमयशस्यंच फल्गुकृच्छ्रभयावहम्।
जुगुप्सितञ्चसर्वत्र औपपत्यंकुलस्त्रियाः॥
भावार्थ
स्त्रीलोगोका पतिही परम देवहै इस्काही पूजन कर्ना और आज्ञामें रहना और पतिके बंधु माता पिता इन्की सेवा कर्नी पतिव्रत धारण कर्ना और पृथिवीकी शुद्धि संस्कार पूजन और अपनेशरीर में भूषण पुष्प धारण कर्ने श्रेष्ठ कार्यों और वचनोसे प्रतिव्रतास्त्री पतिकी सेवा करे और काल अर्थात् ऋतुकालमेही पतिसेसंभोग करे अन्यथा अतिविषयासक्त नाहोवे। और सदैव संतुष्टहै और सावधान पवित्र स्नेहवती रहे॥यो स्त्री हरिभावसे लक्ष्मीवत् पूजन कर्तीहै विष्णुलोक में वह स्त्री पतिके साथ विष्णुजीवत् आनंद भोगतीहै।यदि पति दुष्ट निर्द्धन वृद्ध मूर्ख जडरोगीभी होय वह लोकपरलोकमें सुख इच्छावती स्त्री न तिरस्कारकरे॥ और स्वर्गके ना देनेवाली यशके नाश कर्ने वाला संपूर्णशास्त्र वेदोंमे निंदित उपपति अर्थात् राज स्त्रीको होता है इसलियेस्त्रियोंको परपुरुषसे एकांत भाषण हास्यविहार अतिनिषिद्ध है। और इसमें याज्ञवल्क्यजीभी लिखते है॥
पितृ मातृ श्वशुर्भ्रातृजामि सम्बंध मातुलैः॥
हीनानस्याद्विनाभर्त्रा गर्हणीयान्यथा भवेत्। पतिप्रिय
हितेयुक्तास्वाचाराविजितेन्द्रिया। सेहकीर्तिमवाप्नोमोदतेचोमयासह॥ रक्षेत्कन्यांपिताविन्नांपतिपुत्रा-स्तुवार्द्धके। अभावेज्ञातयस्तेषांनस्वातंत्र्यंक्वचित्स्त्रियाः॥
अर्थ–पिता माता सास भ्राता बंधुओंकी स्त्री संबंधि मातुल इन्से रहित विना भर्त्ताके स्त्री ना होवे यदि होय तो निंदित होती है विना भर्ताके॥
और जो स्त्री पतिके प्रियमें हित आचार शुद्ध विजित इंद्रिय सो इस लोकमें सुखको प्राप्त होती है मरनेवाद पार्वतीके लोकमे आनंद पार्वतीसे कर्तीहै॥ और कन्याको पिता रक्षा करे विवाहीकी पति रक्षा करे वृद्धकी पुत्र रक्षा करे इन्के अभावमे ज्ञाति रक्षा करे अर्थात् स्वतंत्र स्त्री नाहो। और वसिष्ठ संहितामे लिखा है।
पितारक्षतिकौमारेभर्त्तारक्षतियौवने। पुत्राश्चस्थाविरेभावेनस्त्रीस्वातंत्र्यमर्हति॥ असत्यसाहसंमाया- मात्सर्यंचलचित्तता। निर्गुणत्वमशौचत्वंस्त्रीणांदोषाः स्वभावजाः॥ अर्थात्झूठबोलना-साहसमायाक्रोधचंचलता निर्गुणअपवित्ररहना यह स्त्रियोंकेस्वाभाविकदोष है॥ अन्यच्च। पानंदुर्जनसंसर्गः पत्त्याचविरहोटनं। स्वप्नश्चान्यगृहेवासोनारीणांदूषणानिषट्॥
अर्थ–मद्यका पीना१बुरी सोभत कुसंगत२पतिसे वियोग कलह३भ्रमण देश स्थानोमें ४ और के गृहमें शयन ५ अन्य गृहमें वास ६ यह षट् दोषोंसे स्त्री दुष्ट हो जाती है कारण इस्में स्वतन्त्रता इस लिये स्त्रियोंको अपने वश्यमें रखना उचित है॥ और मांस
का भक्षण स्त्रीको बडे रोगादि कर्नेवाला होनेसे वर्जनीय है जैसे चिकित्सा शास्त्र भावप्रकाशमें लिखाहै (आमिपस्याशनंयत्नात्प्रमदापरिवर्जयेत्) अर्थ मांसका भक्षण स्त्री अवश्य छोडदे॥ और द्वारदेशमे बैठना अर्थात् प्रति दिन अपने द्वारपर बैठ और सर्व बातमें हास्य हसना और गवाक्ष (झरोखे) से देखना बहुत प्रलाप (वृथा वाद कर्ना) यह कुलस्त्रियोंके दोषहै इस्को व्यास जी लिखते है॥
द्वारोपवेशनंनित्यंगवाक्षेणनिरीक्षणम्। असत्प्रलापोहास्यञ्चदूषणंकुलयोषिताम् ॥
अन्यच्च
स्त्रीशूद्रोऽनुपनीतश्चवेवेदमंत्रान्विवर्जयेत्॥ अर्थस्त्रीशूद्रयहवेदमंत्रोंकोत्यागदे॥ इससेपुराणश्रवणा-ध्ययनतुलसीपूजन हरितालिकात्रतगौरीपूजनयहशूद्र कमलाकरसेदेखे अवश्य कर्तव्य है॥ और भगवानपराशरजीलिखते है। ऋतुस्नातांतुयोभार्य्यांसन्निधौनोपगच्छति। घोरायां भ्रूणहत्यायां-युज्यतेनात्रसंशयः॥ ऋतुस्नातातुया नारीभर्तारंनोपसर्पति। सामृतानरकं यातिविधवाचपुनः पुनः॥
अर्थ - जो स्त्री ऋतु स्नानके अनन्तर अपने भर्तासे संभोग नही कर्ती वह मरनेवाद नरकको प्राप्त होती है और वारंवार विधवा होती है इस प्रकार ऋतुकालमे स्वस्थ हो जो पुरुष स्त्री को नहीं प्राप्त होता वहभी घोर जो भ्रूण हत्या अथवा गर्भ हत्या उस्को
प्राप्त होता है यदि रोगयुक्त हो तो ना जानेसे दोष नहीं होता अन्यथा प्रमादसे जो ना प्राप्त होवे वह पापका अधिकारी अवश्य है इस लिये ऋतुकालमें स्त्रीको भर्तासे संभोग आवश्यक है अन्यथा स्वेच्छासे है॥
पराशरः
दरिद्रंव्याधितंधूर्तंभर्तारंयावमन्यते। साशुनीजायतेमृत्वासूकरीचपुनःपुनः॥
जो स्त्रीनिर्धन वा रोगयुक्त वा मूर्ख भर्ता का प्रमादसे तिरस्कार कर्ती है वह स्त्री मरकर शुनी (कुत्ती) सूकरी का वारंवार जन्मको प्राप्त होती है। इस लिये भर्ताका अपमान स्त्री मात्रको कदाचित् ना कर्ना चाहिये॥
स्मृतिपाराशरः
पत्त्यौजीवतियानारी उपोष्यव्रतमाचरेत्। आयुष्यं हरतेपत्युःसानारीनरकंव्रजेत्॥
अर्थ जो सौभाग्यवती अर्थात् पतिवती स्त्री उपवास व्रत आचरण कर्ती है वह पतिकीआयुको नष्ट कर मरकर नरकको प्राप्त होती है।
मनुः
अपृष्टाचैवभर्तारंयानारीकुरतेव्रतम्। सर्वंतद्राक्षसान् गच्छेदित्येवंमनुरब्रवीत्॥
जो स्त्री भर्ताकी आज्ञा विन व्रत नियम दानादि कर्तीहै उस का फल राक्षसोको मिलता है ऐसे मनुजी कहते है इस स्मृतिमे मनजीका आशय है॥
पाराशरी
नष्टेमृतेप्रव्रजितेक्कीबेचपतितेऽपतौ। पंचस्वापत्सु नारीणांपतिरन्योविधीयते॥
नष्ट मृत संन्यस्त क्लीब पतित इन पंच आपतमे स्त्रीको अन्य पति विधान किया है॥ शंका है कि एक पतिके मरने पर द्वितीयपति उसके मरनेपेंतृतीय चतुर्थ आदि असंख्य स्त्रीको पति कर्तव्य है क्योंकी पराशरजी स्वयं लिखतेहे नष्टे मृते इत्यादि उत्तर यहहै की पति शब्दका क्या अर्थहै यदि तुम कहाैकी पति अर्थात् पाणिग्रहण जिससे कराहोतो हम कहते यहहै की (पतौ) यह रूप सिद्ध कैसे होता है यदि कहै की पति शब्दकी विभक्तिमे (अच्चघे) इस सूत्रसेघि संज्ञकङिको (औत घिको अत्) होकर पतौ सिद्ध भया तो हम कहते है की (पतिसमासे एवधीसंज्ञा) अर्थात् पतिशब्दकी समासमेधी संज्ञाहोती है तो इहा समास नही एकही शब्द है। और केवल पति शब्दका सप्तमी विभक्तिमे (पत्यौ) यह शब्द वनताहै॥ इस लिये इहा असिद्ध असंस्कृत पति शब्दके प्रयोगसे भगवान् पराशर का यही आशयहै। की असंस्कृत अर्थात् जिस्का पाणिग्रहण नाहो केवल वाङ्मात्र से पतिहो अर्थात् वाग्दान मात्र कियाहो उस पतिको नष्ट मृत संन्यस्तरत्क्रीब होनेपर और पति स्त्रीको कर्तव्य है॥ और यह बात आचारसेभि सनातन सिद्धहै॥ यदि आप यह शंका करे की भगवान् पराशरजीने यह अशुद्ध (पतौ) प्रयोग लिखाक्या वह
हमारे तुमारे सदृशथे वह तो आचार्य धर्मशास्त्र के मुख्य है तो इस्का उत्तर देते है कि यह जो आपको पूर्वोक्त कहाहै सो उन्का आशय इस (पतौ) शब्दसे ही मालुम होता है। महाशय वह भगवान् पराशर जीतो ठीक२लिखगयेपरंतु आपकी समझमे ही गडबड है। पराशरजीने अनञ तत्पुरुष समासान्त पति शब्द की संज्ञाकर (अपतौ) यह शब्द सिद्ध संस्कृत लिखा है॥ यथा न पतिः अपति तस्मिन् अपतौ पतिभिन्न पतिसदृशे ईषत्पतावित्यर्थः॥ तस्यच नष्टे मृते सति स्त्रियामन्यो पतिर्विधेय इति॥ ऐसे पराशरजी अपने आशय को लिखते है॥ यदि तुम कहो कि वहा तो क्लीबेचपतितेऽपतौ ऐसे लिखाहै अपतितो लिखा नहि उत्तरमहात्मन् यहां पररूप एडङः पदान्तादिति इस सूत्रसे पतितेअपतौ) अकारका पररूप भयाहै॥ और आगे द्वितीया श्लोकमे भी इस स्मृतिश्लोकके प्रगट कर्ते है॥
मृतेभर्तरियानारीब्रह्मचर्यव्रतेस्थिता ॥
सामृतालभतेस्वर्गंयथातेब्रह्मचारिणः ॥
अर्थ जो स्त्री पतिकी प्रत्युपर ब्रह्मचर्य व्रतको धारण कर्ती वहमृत्यु होनेपर ब्रह्मचारीवत् स्वर्गको प्राप्त होती है इस लिये पतिशब्दसे असंस्कृत् अर्थात् वाग्दान मात्र कहाहै॥ तो उक्तदोषना भया॥ नहि तो पूर्वोक्त व्यर्थहोता है॥ और इस वाक्यकी दृढता के धिये और भी प्रमाण देते है॥
तिस्रः कोढ्योर्धकोटीचयानिलोमानिमानवे ॥
तावत्कालंवसेत्स्वर्गंभर्तारंयानुगच्छति ॥
व्यालग्राहीयथाव्यालंबलादुद्धरतेविलात्॥
तद्वद्भर्तारमादायतेनैवसहमोदते॥
पुरुषेणापिचोक्तायादृष्टावाक्रुद्धचक्षुषा॥
सुप्रसन्नमुखीभर्तुः सानारीधर्मभाजनम्॥
चितौपरिष्वज्यविचेतनंपतिं
प्रियाहियामुञ्चतिदेहमात्मनः।
कृत्वापिपापंशतलक्षमप्यसौ।
पतिंगृहीत्वासुरलोकमाप्नुयात्॥
इत्यादि अनेक प्रमाण सतीविधानके व्यर्थ होते है और दरिद्रं व्याधितंधूर्तं। (पत्यौजीवति)इत्यादि(इमानारीरविधवा ऋ० मंडल१० सू०८५) इत्यादि अनेक वेदमंत्रों से विधवा विवाह औ उपपति स्वीकार (जारसे मैत्री) निषिद्ध है। यह मैने विवाहका अंग समझकर साथ प्रमाणोंके स्पष्ट भाषामे सर्वोपकारके लिये स्त्रियोंका आचार दिङ्मात्र लिखाहै जिन महाशयोंको विशेष आकांक्षाहो वह मन्वादि धर्मशास्त्र ऋग्वेदादिमे अच्छीतरह देखले॥विस्तार भयसे बहुत नही लिखा॥इस्का प्रचार अवश्य धर्माभिलाषी पुरुषोंको उचित है॥इतिश्री कर्पूरस्थल निवासी गौतमगोत्र (शोरि (अन्वयालंकृत दैवज्ञ दुनिचन्द्रात्मज पण्डित विष्णुदत्त वैदिककृत स्त्रीणामाचरः समाप्तः॥ शुभम्॥इत्यष्टमंप्रकरणसमाप्तम् ॥
श्रीः ।
अथ नवमंप्रकरणम्
( रजस्वलाकृत्यम् )
अथ रजस्वलास्वरूपम्
भावप्रकाशे–द्वादशाद्वत्सरादूर्द्ध्वमापंचाशत्समाः स्त्रियाः। मासिमासिभगद्वाराप्रकृत्यैवार्तवंस्रवेत्॥ आर्तवस्त्रावदिवसादृतुः षोडशरात्रयः। गर्भग्रहणयोग्यस्तु सएवसमयः स्मृतः॥
याज्ञवल्क्येनाप्युक्तम्
षोडशर्तुनिशास्त्रीणांतस्मिन्युग्मासुसंविशेत्। ब्रह्मचार्येवपर्वण्याद्याश्चतस्रश्चवर्जयेत्। एवंगच्छन्स्त्रियंक्षामांमघामूलंच-वर्जयेत्। सुस्थइन्दौसकृत्पुत्रंसक्षण्यंजनयेत्पुमान्॥ सर्वासामेवचतुर्वर्णस्त्रीणांलर्ववादिसम्मतः पूर्वोक्तः समयः। ग्रंथांतरेतु विशेषः। तद्यथा। स्रानदिवसादूर्द्ध्वंद्वादश परिमितरात्रावधिर्ब्राह्मण्याः। दशरात्रावधिःक्षत्रियायाः। अष्टरात्रावधिर्वैश्यायाः। षड्रात्रावधिशूद्रायागर्भधारणेशक्तिरिति॥ रजस्वलास्वरूपमुक्त्वा नियमानाहभावमिश्रप्रकाशे॥ आर्तवस्त्रावदिवसाद-हिंसाब्रह्मचारिणी। शयीतदर्भशय्यायांपश्येदपिपतिंनच। करेशरावेपर्णेवाहविष्यंत्र्यहमाचरेत्। अश्रुपातं नखच्छेदमभ्यं-गमनुलेपनम्॥ नेत्रयोरञ्जनंस्नानंदिवास्वापंप्रधावनम्। अत्युच्चशब्दश्रवणंहसनंबहु भाषणम्। आयासंभूमिरवननं-प्रवातञ्चविवर्जेयेत्॥
अयमेवाशयंयथाहभगवान्धन्वन्तरिः सुश्रुते। (ऋतौ प्रथमदिवसात्प्रभृतिब्रह्मचारिणीदिवास्वप्नाश्रुपातस्नानानुलेपना-भ्यङ्गालङ्कारमाल्यनखच्छेदनप्रधावनहसनकथनातिशब्दश्रवणांबरलेखनायासान्परिहरेत्। दर्भसंस्तरशायिनींकर-तलशरावपर्णान्यतमशरावभोजिनींहविष्याशिनींत्र्यहंचभर्तासंरक्षेदिति॥ एतान्नियमानुल्लंघ्ययावर्ततेताम्प्रतिदोषमाह-भावप्रकाशेभावमिश्रः॥ यथा अज्ञानाद्वाप्रमादाद्वालोभाद्वादैवतश्चवा। साचेत्कुर्य्यान्निषिद्वानिगर्भोदोपाँस्तदाप्नुयात्॥ एतस्यारोदनाद्वगर्भो भवेद्विविकृतलोचनः। नखच्छेदेनकुनखीकुष्ठीत्वभ्यंगतोभवेत्॥ अनुलेपात्तथास्नानाद्दुःखशीलो-ऽभ्यञ्जानाददृक्। स्वापशीलोदिवास्वापाच्चञ्चलःस्यात्प्रधावनात्॥ अत्युच्चशब्दश्रवणाद्बधिरःरवलुजायते। तालुदन्तोष्ठ-जिव्हासुश्यावोहसनतोभवेत्॥ प्रलापी भूरिकथनादुन्मत्तस्तुपरिश्रमात्॥ स्खलतेभूमिखननादुन्मत्तोवातसेवनात्॥ अथचतुर्थदिवसान्तरवहति रक्तेगच्छतः पुरुषस्यदोषमावहतिभगवान्सुश्रुतः॥ किञ्चतत्रप्रथमदिवसेऋतुमत्यां-मैथुनगमनमनायुष्यं पुसांभवति। यश्चतत्राधीयतेगर्ब्भःसोऽप्रसवमानोविमुच्यतेप्राणैः॥ द्वितीयेप्येवं (सूतिकागृहेवा) तृतीयेप्येवमसम्पूर्णाङ्गोऽल्पायुश्च भवति॥ यथानद्यांप्रति
स्रोतःह्याविद्रव्यंप्रक्षिप्तंप्रतिनिवर्ततेनोर्ध्वंगच्छतितद्वदेवद्रष्टव्यम्। तस्मान्नियमवतींत्रिरात्रंपरिहरेत्॥ चतुर्थेतुसम्पूर्णा-ङ्गोदीर्घायुश्चभवति॥ अयमेवाशयं भावप्रकाशेभावमिश्रोपिभर्तृकृत्येविशिनष्टि दृष्टान्तेन॥ यथा॥ प्रवहत्सलिलोक्षिप्तं-द्रव्यंगच्छत्यधोयथा॥ तथावहतिरक्तेतुक्षिप्तं वीर्य्यमधोव्रजेत्॥ (अतः) आयुःक्षयभयाद्भर्ताप्रथमेदिवसेस्त्रियम्। द्वितीयेपि दिनेरत्यैत्यजेदृतुमतींतथा॥ तत्रयश्चाहितोगर्भोजायमानोनजीवति। आहितोयस्तृतीयेन्हिस्वल्पायुर्विकलाङ्गकः॥ अत-श्चतुर्थीषष्ठीस्यादष्टमीदशमीतथा। द्वादशीवापिंयारात्रिस्तस्यास्तांविधिनाभजेत्। विधिना कोर्थोगर्भाधानोक्तविधानेन॥ अत्रोत्तरंविद्यादायुरारोग्यमेवच। प्रजासौभाग्यमैश्वर्य्यंबलञ्चाभिगमात्फलं। धर्मशास्त्रेप्रथमरात्रिचतुष्ट्यगमनेनिषेध-माहपाराशरः॥ प्रथमेंऽहनिचाण्डालीद्वितीयेब्रह्मघातनी। तृतीयेरजकी पुंसायथावर्ज्यातथाङ्गना॥ व्याधिमतोचवर्ज्या॥ तत्रस्त्रीणांव्याधयःप्रदरादयस्तदयुक्तानिषिद्धा। तत्रापिविशेषात्योनिरोगिणी अशुद्धगर्भदोषमाविष्करोतिप्रकाशेभाव-मिश्रः॥ दम्पत्योः कुष्ठबाहुल्याद्दुष्टशोणितशुक्रयोः। यदपत्यंतयोर्जातं ज्ञेयंतदपिकुष्ठितमिति॥ गर्भाधानेऽ
योग्यं पुरुषंस्त्रियञ्चाहस एव॥ अत्याशितोऽधृतिःक्षुद्वान्सव्यथाङ्गः पिपासितः। बालोवृद्धोऽन्यवेगार्तस्त्य जेद्रोगीचमैथुनम्॥ रजस्वलाव्याधिमतीविशेषात् योनिरोगिणी॥ वयोधिकाचनिष्कामामलिनागर्भणीतथा॥ एतासां सङ्गमात्पुंसांवैगुण्यानिभवन्तिहि॥
युग्मरात्रीणांफलमाह
युग्मासुपुत्राजायन्तेस्त्रियोऽयुग्मासुरात्रिषु॥ तत्र स्त्रीपुरुषयोःसंभोगेयादृगुक्तस्तादृगुच्यते॥ स्नातश्चंदनलिप्ताङ्गः सुगन्धिः सुमनोर्च्चितः। मुक्तवृष्यः सुवसनःसुवेषःसमलङ्कृतः। ताम्बूलवदनस्तस्यामनुरक्तोऽधिकस्मरः। पुत्रार्थी-पुरुषोनारीमुपेयाच्छयनेशुभे॥ भार्य्यापि॥ पुरुषस्यगुणैर्युक्ताविहितान्यूनभोजना। नारीऋतुमती पुंसासङ्गच्छेत्तु-सुतार्थिनी॥ पूर्वंपश्येदृतुस्नातायादृशं नरमङ्गना॥ तादृशञ्जनयेत्पुत्रंततः पश्येत् पतिंप्रियम्। प्रियमिति-भर्तर्य्यासन्नेपुत्रादिकमपिपश्येत्॥ अतः किंसिद्धम्॥ पतिंस्नेहदृष्ट्यातथापुत्रंपश्येत्असमीपे एषां भास्करंपश्येत्। एवं मंगलशब्दञ्चाश्रौषोत्। मधुरान्नंभक्षयेत्॥ भूषणवस्त्रादिकंसंधार्य्यरात्रौविहि तान्यूनभोजनासुतार्थिनीस्त्रीसुमुहूर्ते संगच्छेत्॥ एतेनदिवसगमननिषिद्धंकर्मकाण्डचिकित्साशास्त्रे॥ यथाच गृह्यसूत्रेभगवान् पारस्करः॥ (यदिदिवामै
थुनंव्रजेत्क्लीबाऽअल्पवीर्याअल्पायुषश्चप्रसूयन्तेतस्मादेतद्वर्जयेत्प्रजाकामोगृहीति) भावप्रकाशचिकित्साशास्त्रेभाव- मिश्रोप्याह। आयुःक्षयभयाद्विद्वान्नान्हिसेवेतकामिनीं। अवशोयदि सेवेततदाग्रीष्मवसन्तयोः। ग्रीष्मवंसन्तयो-रित्यत्रभोगार्थं सेवेन्नतुसुतार्थं अन्यथा तस्मादेतद्वर्जयेत्प्रजाकाम इति व्यर्थं स्यात्॥ आवश्यकेभोगमपि॥ गर्भाधानोक्त-विधिनासङ्गच्छेदित्युक्तेगर्भाधानमुहूर्तमाहमुहूर्तचिंतामणौरामः॥ यथा॥ हस्तानिलाश्विमृगमैत्रवसुध्रुवाख्यैः शक्रान्वितैःशुभतिथौशुभवासरेच॥ स्नायादथार्तववतीमृगपौष्णवायुहस्ताश्विधातृभिरलंलभतेचगर्भम्॥ यथाहस्तस्वाती अश्विनीमृगशिरअनुराधा उत्तरभाद्रपदारोहिणीज्येष्ठाशुभतिथिरिक्तावर्जितशुभवारसौरारार्किविनैषुरजस्वलायास्नानं-विधेयं॥ सुस्नातावस्त्रभूषणसंयुतारात्रौमृगशिररेवतीस्वातिहस्तअश्विनीरोहिणीएषुभेषुगमनात्स्त्रीगर्भंलभते॥
(गमनेनिषेधमाहसएव)
गण्डान्तंत्रिविधंत्यजेन्निधनजन्मर्क्षेचमूलान्तकंदास्रंपौष्णमथोपरागदिवसंपातंतथा वैधृतिं। पित्रोः श्राद्धदिनंदिवाच-परिषघाद्यर्द्धंस्वपत्नींगमे भान्युत्पातहता निमृत्युभवनंजन्मक्षेतःपापभम्॥
तद्यथा
गण्डान्त चतुर्घ टिकात्मकंज्येष्टाशतभिपारेवतीएपां
तथातिथगण्डान्त द्विघटिकात्मकंतथालग्नगण्डान्त
नवांशाईघट्यात्मकं ॥ जन्मर्क्षतअष्टमनक्षत्रंनिधन
संज्ञकंमूलांत्यंअश्विनीरेवतीत थोपरागः सूर्यचन्द्रग्रह
णं \। उपरागोग्रहोराहुग्रस्तेन्विन्दौचपूष्णिच ) व्य
तीपातवैधृतयोगौपितुःश्राद्धदिनंतथादिने परिघा
एतानिनक्षत्रयोगदिवसानिस्व स्त्रियंसंतानार्यगच्छ
च्छतापुरुषेणअवश्यंवर्जनीयानि ॥ ऋतुमतीस्त्री
मनसापिमैथुनचिंतनंनकुर्यात् । उक्तञ्चबृहन्नारदीये ॥
मैथुनंमानसंवापिवाचिकंदेवतार्चनं । वर्जयेच्चनम
स्कारंदेवतानांरजस्वलेति ।
अथरजस्वलायाऋतुशुद्धयनंतरंपतिरेवद्रष्टव्यःअस
समीपेपत्युः पुत्रमुखंद्रष्टव्यंवा सूर्यदर्शनं विधेयंनान्यत्
पुरुषंमनसावाचास्मरेत्चक्षुषानपश्येत् ॥ उक्तमिदं
बृहन्नारदीये - स्नात्वान्यंपुरुषं नारीनपश्येच्चरजस्वला।
ईक्षेतभास्करं देवंब्रह्मकूचंततः पिबेत् ॥ ब्रह्मकूर्चपंच
गव्यंस्त्रानानन्तरंशुद्धयर्थंपातव्यम् ॥ इति श्रीकर्पूरस्थ
लनिवासिगौतमगोत्र ( शोरि ) अन्वयालंकृतदैवज्ञ
दुनिचंद्रात्मजश्रीमच्छ्रीपण्डित विष्णुदत्तवैदिककृतं
रजस्वलाकृत्यंसमाप्तम् ॥ शुभमस्तुश्रीरामचंद्रप्र
सादात् ॥ ( समाप्तंचेदंनवमंप्रकरणम् ॥ )
अथ प्रकीर्णाध्यायः प्रारभ्यते
अथविवाहेलग्नादिद्वादशस्थानेसूर्यादीनांफलमाह॥ अथ सूर्यस्य॥ मृति १ विधनता २ धनं ३सहजसंक्षयः ४ पुत्रसूः ५ प्रियस्यपरमोन्नति ६र्विधवता ७ चिरंजीवितां ८॥ शुभाकृति ९ रशीलता १० विविधलब्धि ११ रर्थक्षयः १२।तनुप्रभृतिभास्करेसतिफलंभवद्योषिताम्॥ अथ चंद्रस्य॥ प्राणस्यच्युति १ रर्थसंप २ दुभयप्रीतिश्च ३ बंधून्नति ४ वैपुत्र्यंच ५ सर्वैरता च ६ नियतंसापत्न्य ७ मात्मव्यथा ८। स्त्रीसूतिः ९ परकर्मकृत् १० स्वमधिका११लब्धिक्षयः १२ संपदां स्यादिंदावुदयात्सुखेतुकथितोबंधुक्षयः कैश्चन॥ २॥ अथभौमस्यफ० पंचत्वञ्च १ दरिद्रता २ सधनता ३ सुभ्रातृवैरं ४ सुतानुत्पत्ति ५ र्दयितोन्नतिः ६ कुचरिता ७ सक्तिश्चरक्तश्रुतिः ८।स्याद्भर्तृप्रतिकूलता ९ ऽऽमिषरुचि १० र्वित्ताप्ति ११ रर्थक्षयो १२ नारीणामुदयादिवर्तिनिमहीपुत्रोविवाहोत्सवे ३ अथबुधस्य फलं॥ सौम्येभर्तृपरायणा १ स्वगृहणी २ स्यात्स्वामिपक्षार्चिता ३बंधुत्वंच ४ सुतान्विताच ५ विगत ६ प्रद्वेषिपक्षातथा। बंध्याचा ७ स्वभिरुज्झितास्तुकृतिनोमाया ९ विनीचक्रमात् १० भूरिद्रव्य ११ वती बहुव्यय १२ परालग्नादिभावस्थिते॥
अथ गुरुफलम्॥
स्वाभीष्टा १ धनभागिनी २ प्रमुदिता ३ द्रव्यान्विता ४ स्वात्मजा ५ नष्टारि ६ दयितोज्झिता ७ च विगतप्राणा ८ रताश्रेयसि ९ ॥ सिद्धार्था १० विभवान्विता ११ चविधना १२ भावेषुमूर्त्यादिषु
अथ शुक्रफलम्
मनोभीष्टाभर्तु १ र्धनचयपरा २ देवररता ३ कुलेष्टा४ सत्पुत्रा ५ विहितबहुवैरा ६ न्यनिरता ७ ॥ व्यसु ८ र्धर्मेष्टास्या ९ कुशलनिरता १० भूरिविभवा ११ निरर्था १२ शुक्रेस्याद्भवतिखलुलग्नप्रभृतिषु॥
अथ शनिफलम्
स्यात्पुंश्चल्य १ धना २ ऽर्थवत्य ३ थयशोहीना४ चहृद्रोगिणी ५ शत्रुघ्ना ६ निजगर्भपाटनरता ७ नीरुक्च ८ भग्नव्रता ९॥दुःशीला १० बहुवित्तसंग्रह परा ११ पानप्रसक्तांगना १२ स्याल्लग्नाद्रविनंदनेन शिखिनास्वर्भानुनाचक्रमात्॥ शनिवत्राहु-केत्वोरपिफलंज्ञेयम्॥
इति श्रीकर्पूरस्थलीयदैवज्ञ दुनिचंद्रात्मज (शोरि )
पण्डितविष्णुदत्तवैदिकसंगृहीतंविवाहकुंडलीस्थि
तग्रहफलंसमाप्तम्॥ समाप्तश्चायंप्रकीर्णोध्यायः॥
शुभमस्तु श्रीरामचंद्रप्रसादात्॥
वंशवर्णनम्
अस्तिमहात्माकिलगौतमोमुनिः।
कर्तास्मृतिशास्त्रपरम्परराणाम्॥
षड्दर्शनेदर्शनमेवपूर्वं।
यस्तर्कशास्त्रेऽकरोन्महर्षिः॥ १ ॥
तस्यान्वयेरत्नविशुद्धवर्णे।
कर्णेश्रुतीनांतद्धर्मतत्परे॥
महत्परेसम्प्रतिसंबभूव
कन्हैयारामात्मजतुलसीरामः॥ २ ॥
महाप्रभावश्चहिसमहात्मा।
गंगा तटेनिर्मलवारिराशे॥
एह्येहि पुत्रेतिहिवत्सलत्वा
दाहूतऽएवाऽविशतहिअङ्के॥ ३ ॥
स्थित्वाक्षणंतत्रहिअङ्कमध्ये।
ध्यात्वाशिवंशङ्करमप्रमेयम्॥
संपश्यतांतत्रहिसाधवानां।
त्यक्त्वातनुंज्योतिरिवाबभूव॥ ४॥
तत्सूनुपश्चाद्धिहतत्प्रभावात्।
संप्राप्तविद्योगरवेसकाशात्॥
संशोभतेदैवविदां हिमध्ये।
दैवज्ञविद्वान्दानचन्द्रनाम्ना॥५॥
तदात्मजेनापिहिवैदिकेन।
अधीतवेदाङ्गचदर्शनेन॥
श्रीविष्णुदत्तेनसुदर्शनेन।
कृताहिटोकासर्वोपकारिणो॥ ६॥
नत्वागुरुंशास्त्रनिविष्टचक्षुं।
दत्तान्वयेरत्नमिवाबभूतम्॥
अभूतपूर्वञ्चहेसंप्रभूतं॥
श्रीरामनाथंसंशास्त्रिणहि॥ ७॥
श्रीकाशीजन्माद्धिहलब्धवर्णं।
विद्यासमूहस्यद्वितीयमोकम्॥
अधीतयेभ्यश्वहिवेदसर्वं।
गोपालशास्त्रिस्वगुरुञ्जमुहुःग्रणौमि॥ ८॥
श्रीहरिभक्तंमहात्मानंशास्त्रिणंप्रणमाम्यहम्।
यस्यसङ्गात्समालब्धंज्ञानंविज्ञानमेवच॥ ९॥
मित्रंहिसाधुरामञ्चविष्णुदासंतथैव च।
अन्यान्स्वाध्यायवर्गान्स्वान्नमस्कृत्यपुनः पुनः॥ १०॥
कर्पूरस्थलेरम्येअद्रिवेदांकभूमिते।
वैक्रमेमधुमासेचकृताटीकामनोरमा॥ ११॥
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श्रीः ।
अथार्कविवाहः॥
प्रयोगरत्नेमात्स्ये।
ॐस्वस्ति श्रीगणेशायनमः॥ तृतीयांमानुषींनैवच तुर्थींयःसमुद्वहेत्। पुत्रपौत्रादिसंपन्नःकुटुंबीसाग्निकोवरः उद्वहेद्रति-सिद्ध्यर्थंतृतीयांनकदाचन॥ मोहादज्ञानतोवापिर्यादगच्छेत्तुमानुषीं॥नश्यत्येवनसंदेहोगर्गस्य वचनंयथा॥
तत्रैवसंग्रहे—
तृतीयांयद्विचोद्वाहेर्त्तार्हसाविधवाभवेत्। चतुर्थ्यादिविवा हार्थंतृतीयेऽर्कंसमुद्वहेत्॥ आदित्यदिवसेवापिहस्तर्क्षेवा शनैश्चरे। शुभेदिनेवापूर्वाह्णेकुर्यादर्कविवाहकम्॥
व्यासः— स्नात्वालंकृतवासास्तुरक्तगंधादिभूषितम्।सपुष्पफलशाखैकमर्कगुल्मंसमाश्रयेत्॥सलक्षणेनसंयुक्तमर्कं
संस्थाप्ययत्नतः। अर्ककन्याप्रदानार्थमाचार्यंकल्पयेत्पुरा॥अर्कसन्निधिमागत्यतत्रस्वस्त्यादिवाचयेत्।नांदीश्राद्धेहिरण्येन
अष्टवर्गान्प्रपूजयेत्। पूजयेन्मधुपर्केणवरंविप्रस्यहस्ततः।यज्ञोपवीतंवस्त्रंचहस्तकर्णादिभूषणम्। उष्णीषगंध माल्यादिवरायास्मै प्रदापयेत्। स्वशाखोक्तप्रकारेणमधुपर्केसमाचरेत्॥
ब्राह्मे—ग्रामात्प्राच्यामुदीच्यांवासपुष्पफलसंयुतं । परीक्ष्य
यत्नतोधस्तात्स्थण्डिलादियथाविधि॥ कुर्यादितिशेषः॥ कृत्वार्कंपुरतस्तिष्ठन्प्रार्थयेतद्विजोत्तमः। त्रिलोकवासिन्सप्ताश्वछाय-यासहितोरवे॥तृतीयोद्वाहजंदोषंनिवारयसुखंकुरु।तत्राध्यारोप्यदेवेशंछाययासहितंरविं॥वस्त्रैर्माल्यैस्तथा गन्धैस्तन्मंत्रेणैवपूजयेत्। तत्रैव श्वेतवर्णेनतथाकार्पासतंतुभिः। गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्यअब्लिंगैरभिषिच्यच12॥ गुडौदनं तुनैवेद्यंताम्बूलंचसमर्पयेत्।
व्यासः—अर्कंप्रदक्षिणीकुर्वन्जपेन्मंत्रमिमंबुधः। ममप्रीतिकरायेयंमयामृष्टापुरातनी॥ अर्कजाब्रह्मणामृष्टा अस्माकंप्रति रक्षतु॥ पुनःप्रदक्षिणीकुर्यान्मंत्रेणानेनधर्मवित्।नमस्तेमंगलेदेवि नमः सवितुरात्मजे। त्राहिमांकृपयादेविपत्नीत्वंमेइ हागता । अर्कत्वंब्रह्मणासृष्टःसर्वप्राणिहितायच। वृक्षाणामा दिभूतस्त्वंदेवानांप्रीतिवर्द्धनः॥ तृतीयोद्वाहजंपापंमृत्युंचाशुविनाशय। ततश्चकन्यावरणंत्रिपुरुषंकुलमुद्धरेत्।आदित्यःसविताचार्कपुत्रीपौत्रीचनप्त्रिका॥
गोत्रंकाश्यपइत्युक्तंलोकेलौकिकमाचरेत्। सुमुहूर्तेनिरीक्षेतस्वस्तिसूक्तमुदीरयन्। आशिर्भिःसहितैः कुर्यादाचार्यप्रमुखैर्द्विजैः॥अथाचार्यंसमाहूयविधिनातन्मुखाच्च तां। प्रतिगृह्यततोहोमंगृह्योक्त विधिनाचरेत् ।
व्यासः— अर्ककन्यामिमांविप्रयथाशक्तिविभूषितां । गोत्राय
शर्म्मणेतुभ्यंदत्तांविप्रसमाश्रय।अंजल्यक्षतकर्म्माणिकृत्वाकंकणपूर्वकं॥ यावत्पंचवृतासूत्रंतावदर्कंप्रवेष्टयेत्। स्वशाखोक्तेनमंत्रेणगायत्र्यावाथवाजपेत्॥ पंचीकृत्यपुनः सूत्रस्कंधेबध्नातिमंतत्रः॥ बृहत्सामेतिमंत्रेणसूत्ररक्षांप्रकल्पयेत्। अर्क्वस्यपुरतःपश्चादक्षिणोत्तरतस्तथा। कुम्भांश्वनिक्षिपेत्पश्चादाग्नेयादिचतुष्टये।सवस्त्रप्रतिकुम्भंचत्रिसूत्रेणैववेष्टयेत्॥ हरिद्रागन्धसंयुक्तंपूरयेच्छीतलंजलं। प्रतिकुंभं महाविष्णुंसंपूज्यपरमेश्वरं। पाद्यार्घादिनिवेद्यान्तंकुर्यान्नाम्नैवमंत्रवित्॥
अत्रशौनकोक्तोहोमप्रकारः
तृतीयेस्त्रीविवाहेतुसंप्राप्तेपुरुषस्यतु। आर्कंविवाहंवक्ष्यामिशोनकोहंविधानतः॥ अर्कसन्निधिमागत्यतत्रस्वस्त्यादिवाचयेत्।नान्दीश्राद्धंप्रकुर्वीतस्थंडिलंचप्रकल्पयेत्॥ अर्कमभ्यर्च्यसौर्य्याचगंधपुष्पाक्षताभिः॥ सौर्यासूर्यदैवत्यया॥ आकृष्णेनेत्यनया।स्वयंबालंकृतस्तद्वद्वस्त्रमाल्यादिभिःशुभैः। अर्कस्योत्तरदेशेतुसमन्वारन्धएतया॥ एतयार्क कन्यया॥ उल्लेखनादिकंकुर्यादाघारांतमतः परम्। आज्याहुतिंचजुहुयात्संगोभिरनयैकया। यस्मैत्वाकामकामायेत्येतयर्चाततः परं। व्यस्ताभिश्चसमस्ताभिस्ततश्चस्विष्टकृद्भवेत्। परिपेचनपर्यंतमयाश्चेत्यादिकंक्रमात्। प्रार्थना मंत्रादिविशेषमाहव्यासः॥ पुनःप्रदक्षिणंकृत्वामंत्रमेतमुदीरयेत्। मयाकृतमिदंकर्मस्थावरेषुजरायुणा। अर्कापित्या
निनोदेहितत्सर्वंक्षंतुमर्हसि। इत्युक्त्वाशांतिसूक्तानिज प्त्वातंविमृजेत्पुनः॥ गोयुग्मंदक्षिणांदद्यादाचार्यायचभक्ति तः॥इतरेभ्योपिविप्रेभ्योदक्षिणांचापिशक्तितः । तत्सर्वंगुरवेदद्यादंतेपुण्याहमाचरेत्॥
॥ अथप्रयोगविधिः ॥
तृतीयोद्वाहात्प्राग्दिनचतुष्टयाधिकव्यवहितेरविवारेश निवारेहस्तनक्षत्रेशुभदिनांतरेवाग्रामात्प्राच्यामुदीच्यावापु ष्पफलयुतार्काधस्तात्स्थण्डिलंकृत्वाऽर्क पश्चिमतउपविश्यमासपक्षाद्युल्लिख्यममतृतीयमानुषीविवहजदोषापनुत्यर्थमर्क विवाहंकरिष्येइतिसंकल्प्यगणेशपूजास्वस्तिवाचनमातृपूजनवृद्धिश्राद्धाचार्यवरणानिकुर्यात्। तत्रवृद्धिश्राद्धं सुवर्णेन॥ अथाचार्येणपूजितोवरः॥त्रिलोकवासिन्सप्ता श्वछाययासहितोरवे। तृतीयोद्वाहजंदोषंनिवारयसुखंकुरु। इत्यर्कंसंप्रार्थ्याऽर्के आकृष्णेनेतिछाययासहितंरविमावाह्यश्वेतवस्त्रसूत्राभ्यामावेष्ट्यसंपूज्यापोहिष्ठेत्यादिभिरभिषिच्यगुडौनतांबूलादिसमर्प्यप्रदक्षिणीकुर्वन्ममप्रीतिकरायेयंमयासृष्टापुरातनी। अर्कजाब्रह्मणामृष्टाअस्माकंप्रतिरक्षतुइतिपठेत्॥ द्वितीयप्रदक्षिणायांतु।नमस्तेमंगलेदेवि नमःसवितुरात्मजे। त्राहिमांकृपया देविपत्नीत्वंमेइहागता। अर्कत्वंब्रह्मणामृष्टःसर्वप्राणिहितायच। वृक्षाणामादिभूत स्त्वंदेवानांप्रीतिवर्द्धनः। तृतीयोद्वाहजंपापंमृत्युंचाशुविनाशयेति॥ ततआचार्येणमासपक्षाद्युल्लिख्य काश्यपगोत्रामा
दित्यपुत्रींसवितुःपौत्रीमर्कस्यप्रपौत्रीमिमांमर्ककन्यामित्यु क्तेवरःस्वस्तिनंइन्द्रोवृद्धश्रवाइतिसूक्तंपठन्नर्कंनिरीक्षेत। तत आचार्योविप्रैःसहाशिषोदत्वामुकगोत्रामुकशर्म्मणेसंप्रददेइ-इत्यर्ककन्यांदत्वा॥
अर्ककन्यामिमांविप्रयथाशक्तिविभूषितां। गोत्रायशर्म्मणे तुभ्यंदत्तांविप्रसमाश्रयेतिपठेत्। वरस्तुयज्ञोमेकामःसमृद्ध्य तामितिप्रथमांधर्मोमेइतिद्वितीयांयशोमेतृतीयामितित्रीन क्षतांजलीनर्कोपरिक्षिप्त्वागायत्र्या परित्वेत्यादिनावापंचावृता- सूत्रेणार्कमावेष्ट्यतत्सूत्रंपुनः पंचगुणंकृत्वार्कस्यस्कंधेबध्वाबृहत्सामेतिरक्षांपरिकल्प्यार्कस्यदिग्विदिक्ष्वष्टौकुंभान्संस्थाप्य-
वस्त्रेणत्रिसूत्रेणचावेष्ट्यहरिद्रागंधाद्यंतःक्षिप्त्वातेषुनाम्नामहाविष्णुमावाह्यषोडशोपचारैःसंपूज्यस्थंडिलेग्निप्रतिष्ठाप्य आघारावाज्येनेत्यंतमुक्त्वात्रप्रधानंबृहस्थतिमग्निंवायुंसूर्यंप्रजापतिंचाज्येनशेषेणेत्याद्युत्क्वाघारांतेसंगोभिरांगिरसोबृहस्पति-
स्त्रिष्टुप्॥ अर्कविवाहहोमेविनियोगः॥ ॐसंगोभिराङ्गिरसोनक्षमाणोभगइवेदर्यमणंनिनाय। जनेमित्रोनदंपतीअनक्ति- बृहस्पतेवाजयाशूँरि वाजौस्वाहाबृहस्पतयइदंनममेतित्यजेत्। यस्मैत्वाकामदेवोग्निस्त्रिष्टुप्विनियोगःप्राग्वत्।
ॐयस्मैत्वाकामकामायवयंसम्राड्यजामहे॥ तमस्मभ्यंकामंदत्वाथेदंत्वंघृतंपिवस्वाहाअग्नयइदं°॥
ततोव्यस्तसमस्तव्यात्दृतिभिर्दुत्वास्विष्टकृदादिकर्मशे
षंसमाप्यार्कंप्रदक्षिणीकृत्य॥ मयाकृतमिदंकर्मस्थावरेणज रायुणा। अर्कापत्यानिनोदेहितत्सर्वंक्षन्तुमर्हसि॥ इतिप्रार्थ्याचार्य्यायगोयुग्ममन्येभ्यश्चविप्रेभ्योयथाशक्तिदक्षिणांदत्वाशांतिसूक्तंजप्त्वापूजोपस्करानाचार्यायदत्वादिनचतुष्टयमग्निकुंभांश्चरक्षेत्॥ कुंभेषुमहाविष्णुंपूजयेच्च॥
पंचमदिनकृत्यं॥ ब्राह्मे—चतुर्थेदिवसेतीतेपूर्ववत्तांप्रपूज्यच॥ विसृज्यहोममग्निञ्चविधिनामानुषींपरां॥ उद्वहेदन्यथा नैवपुत्रपौत्रसमृद्धिमान्॥इत्यर्कविवाहः समाप्तः॥
श्रीहरिशरणम्
अथ विवाहनिर्णयः॥
श्रीतारानाथतर्कवाचस्पतिभट्टाचार्य्यसंग्रहीतवादार्थ सारांशमादायनिश्चयार्थंप्रमाणानिप्रदर्श्यंते।
तद्यथा॥ईशंनत्वादर्श्यते ऽत्रवेदादिशास्त्रमानतः॥ एकस्यकामतोऽनेकसवर्णापाणिपीडनम्॥ धर्म्मतत्वंबुभुत्सूनांबो धनायैवमत्कृतिः। तेनैवकृतकृत्योऽस्मिनजिगीषास्तिलेश तः॥ पाणिग्रहणिकामंत्रानियतंदारलक्षणम्।तेषांनिष्टातु विज्ञेयाविद्वद्भिः सप्तमेपदे॥ मनुः—पाणिग्रहणसंस्कारःसवर्णा सूपदिश्यते। मनुः—विवाहमात्रंसंस्कारंशूद्रो पिलभतेसदेति॥छांदोगपरिशिष्टे-स्वपितृभ्यः पितादद्यात्सुतसंस्कारकर्म्मणि॥ पिण्डानोद्वहनात्तेषांतदभावेपितत्क्र- मादिति॥विवाहस्य संस्कारत्वेसतितत्रविशेषोवक्ष्यते। बलादपत्दृताकन्याम
न्त्रैर्यंदिनसंस्कृता॥ अन्यस्मैविधिवद्देयायथाकन्यातथैवसे तिपराशरभाष्यादिघृतकात्यायनवचनेनराक्षसा दावपहरणमात्रेकन्यैव।
यथावा—अद्भिर्व्वाचाप्रदत्तायांम्रियेतोर्द्ध्ववरोयदि॥ नचमंत्रोपनीतातुकुमारीपितुरेवेसेति॥
विवा० –उद्वाहतत्वधृतवशिष्ठवचनेनवाङ्मात्रदानेउदकपूर्वदानेवामंत्रसंस्काराभावेअन्यस्मैदेयेतिगम्यते॥
मंत्रसंस्कृतातुसा—शरीरार्द्धंस्मृताजायापुण्यापुण्यफलेसमेति॥अस्थिभिरस्थीनिमाँ्सैर्माँ्सानित्वचात्वचमि त्यादिभिः शरीरार्द्धहराअर्द्धफलभाग्भवतीत्याशयः॥
पतिलक्षणंनिर्णयसिंधौ—यथा-नोदकेनचवाचाचकन्यायाःपतिरुच्यते। पाणिग्रहणसंस्कारात्पतित्वंसप्तमेपदेइति॥ तथाचहारीतः—पाणिग्रहणेनजायात्वंकृत्स्स्नंहिजायापतित्वंसप्तमेपदेइति॥
अथकामार्य्याकार्य्या—अत्रपैठीनसिः–भार्य्याकार्य्यसजातीयाः सर्वेषांश्रेयस्यः स्युरिति॥
केनविवाहेन—गंधर्वादिविवाहेषुशुभोवैवाहिकोविधिः। कर्तव्यचत्रिभिर्वर्णैः समर्थैश्चाग्निसाक्षिकः॥ अत्रत्रिभिरितिवि शेपणात्विप्रस्यात्रनाधिकारइतिविशेषः॥
कोविधिस्तेष्वित्यपेक्षायाम्॥ गांधर्वासुरपैशाचाविवाहाराक्षसश्चयः । पूर्वंपरिश्रयस्तत्रपश्चाद्धोमोविधीयते॥
सवर्णासु—पाणिग्रहणसंस्कारः सवर्णासूपदिश्यतइति
विप्रेणक्षत्रियादिपरिणयने–शरःक्षत्रिययाग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया॥ मनुः॥ तथाचयाज्ञवल्क्यः–पाणिर्ग्राह्यः सवार्णामुगृह्णीयात्क्षत्रियाशरं।वैश्याप्रतोदमादद्याद्वेदनेत्वग्रजन्मनः॥ वस्तुतस्तु—स्वदारनिरतः सदेतिमानववचन-स्यपरदारान्नगच्छेदितिपरिसंख्यापरतायाः सर्व्वैःस्वीकारेणपरदारगमन निषेधात्तव्द्युदासेन अनिषिद्ध स्त्रीगमनंशास्त्रविहितस्त्रीसंस्कारविनानुपपन्नमितिसंस्कार आक्षिप्यते॥ सवर्णायांसंस्कृतायांस्वयमुत्पादयेत्तुयं। औरसंतंविजानायादिति॥ औरसोधर्म्मपत्नाजः। इति याज्ञवल्क्यस्मृतिः
स्त्रीपरिणयनफलम्—अपत्यंधर्म्मकार्य्याणिशुश्रूषारतिरुत्तमा। दाराधीनस्तथास्वर्गः पितृृणामात्मनश्चह॥ मनुः ॥ लोकानंत्यंदिवः प्राप्तिः पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः। यस्मात्तस्मात्स्त्रियः सेव्याः कार्तव्याश्चमुरक्षिताः॥ याज्ञ स्मृ॰ पुत्राम्नोनरकाद्यस्मात् पितरंत्रायतेसुतः॥ तस्मात्पुत्रइतिप्रोक्तइत्यादिपुत्रः पुरुत्रायतेनिपरणाद्वापुंनरकंततस्त्रायतइतिनिरुक्तम्॥ पुत्रेणलोकां-जयतिपौत्रेणानंत्यमश्नुतेइत्यादि॥
कीदृशीस्त्रीस्यादित्याकांक्षायाम्—मनुः॥असपिण्डाचयामातुरसगोत्राचयापितुः। साप्रशस्ताद्विजातीनांदारकर्म्मणिमैथुने
इति॥
तयाहिसहितः सर्वान्पुरुषार्थान् समश्नुते॥ अनाश्रमीनतिष्ठेत्तुदिनमेकमपिद्विजः॥ आश्रमेणविनातिष्ठन्प्रायश्चित्ती
यतेहिसः॥ दक्षः ॥ नगृहंगृहमित्याहुर्गृहिणीगृहमुच्यते॥ तयाहिसहितः सर्वानपुरुषार्थान् समञ्जुते॥ द्वितीयमायुषोभागं-कृतेदारोगृहंवसेदितिमनुः। अथनापुत्रस्यलोकोऽस्तीति॥नैमित्तिकानिकाम्यानिनिपतन्तियथातथा॥ तथातथैवकार्य्याणिन-कालस्तुविधीयते ॥ अथप्रथमभार्यायांसत्यामन्याधिवेतव्येतिनवेतिकांक्षायांमनुः॥ वन्ध्याष्टमेधिवेतव्यादशमेस्त्रीमृतप्रजा॥ एकादशेस्त्रीजननी इत्यादि॥ स्त्रीप्रसूश्चाधिवे तव्यापुरुषद्वेपणीतथाइतियाज्ञवल्क्यः॥ अधिविन्नातुभर्तव्यामहदेनोन्यथाभवेदित्युक्तेवंध्यादीनामपिभूपणवस्त्रादि भिर्भरणंनतुत्यागः पापभयात् अधिविन्नातुयानारीनिर्गच्छेद्रोषितागृहात॥ सासद्यस्तुनिरोद्धव्यात्याज्यावाकुलसन्निधौ॥ एकामूढ्वातुकामार्थ-मन्यांवोढुंयइच्छति।समर्थस्तो पयित्वार्थैः पूर्वोढामपरांवहेत्॥ अप्रजांदशमेवर्षेस्त्रीप्रजांद्वादशेत्यजेत्॥ मृतप्रजांपंचदशेसद्यस्त्वप्रियवादिनीम्॥
अन्यच्च—अथयदिगृहस्थोद्वेभार्य्येविन्देतकथंकुर्य्यादि तिबौधायनमाशंक्ययस्मिन्काले विन्देतोभावग्नीपरिचरेदित्युपक्रम्य
द्वयोर्भार्य्ययोरन्वारब्धयोर्यजमानइति॥
तथाचकात्यायनः—नैकयापिविनाकार्य्यमाधानंभार्य्ययाद्विजैः। अकृतंतद्विजानीयात्सर्वाभिर्नारभेद्यदि॥ एकै कामेवासांसंनह्यादेकैकांगार्हपत्यमीक्षयेत् । एकैकामाज्यमवेक्षयेदिति॥ यदेकस्मिन्यूपेद्वेरशनेपरिवयति । तस्मादे
कोद्वेभार्य्येविन्देतेति। श्रुतिः॥ श्रुतिस्मृतिपुराणानांविरोधोयत्रविद्यते॥ तत्र श्रौतंप्रमाणंस्यात्तयोर्द्वैधेस्मृतिर्वरा। व्यासः—विरोधेत्वनपेक्षेतसतिह्यनुमानमितिजैमिनिसूत्रं॥ तथाचमहाभारते–एकस्यबह्योविहितामहिष्यः कुरुनन्दन। नैकस्याबहवः पुंसः श्रूयन्तेपतयः क्वचित्॥ भार्य्याःकार्य्याः सजातीयाः सर्वेषां श्रेयस्यः स्युरित्यत्रापिबहुवचनम् ।
तथाचकात्यायनः— अग्निहोत्रादिशुश्रूषांबहुभार्य्यःसवर्णया॥ कारयेत्तद्बहुत्वेचज्येष्ठयागर्हितानचेत्॥ सवर्णासुविधौधर्म्येज्येष्ठयानविनेतरेतियाज्ञवल्क्यः॥
तथाचमहाभारते—ददौसदशधर्मायकश्यपायत्रयोदश॥ एकैवभार्य्यास्वीकार्य्याधर्म्मकर्म्मोपयोगिनी।प्रार्थनेचातिरागेचग्राह्यानेकापिचद्विज॥ आद्यायांविद्यमानायांद्वितीयामुद्वहेद्यदि।तदावैवाहिकंकर्मकुर्यादावसथेऽग्निमान्॥ नि०सिं०सदारोऽन्यान्पुनर्दारानुद्वोढुंकारणांतरात्। यदीच्छेदग्निमान् कश्चित्क्वाहोमोस्यविधीयते॥ स्वेग्नावेवभवेद्धोमो-लौकिकेनकदाचन॥ कात्यायनः॥
मात्स्येयथा— उद्वहेंद्रतिसिद्ध्यर्थंतृतीयांन कदाचन॥ मोहादज्ञानतोवापियदिगच्छेत्तुमानुषीम्।नश्यत्येवन-संदेहोगर्गस्यवचनंयथेति॥ तृतीयस्त्रीविवाहेतुसंप्राप्तेपुरुषस्यतु। अर्कंविवाहंवक्ष्यामिशौनकोऽहंविधानतः॥ इत्युपक्रम्य। विसृज्यहौम्यमाग्निंचविधिनामानुषींपराम्।उद्वहेदन्यथानैवपुत्र पौत्रादिवृद्धिमान्॥ विसृज्याग्निंकङ्कणञ्चमानुषीमुद्वहेत्परा
म्। अनेनविधिनायस्तुकुर्यादर्कविवाहकम्॥ पुत्रपौत्रादि संपत्तिश्चतुर्थ्यांलभतेनरः। चतुर्थादिविवार्थंतुतीयेऽर्कंसमुद्वहेत्।ऋणत्रयमपाकृत्यमनोमोक्षेनिवेशयेत्॥ जायमानोवैपुरुषस्त्रिभिर्ऋणैर्ऋणीभवतिब्रह्मचर्येणऋषिभ्यः यज्ञेनदेवेभ्यः प्रजयापितृृभ्यइति॥ एतदुक्तंभवतिनि।दर्शितबहुप्रमाणैरेकपुरुषस्यबहुभार्य्याकरणंसिद्धम्॥ एतद्विषयेकिंस्ववर्ण उतब्राह्मणादिभिरसवर्णाः कार्य्या अत्रकोमुख्यकल्पः कश्चगौणः॥
अत्रोच्यते। यथाहमनुः— सवर्णाग्रेद्विजातीनांप्रशस्तादार कर्म्मणि।कामतस्तुप्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशोवराः॥ शूद्रैवभार्य्याशूद्रस्यसाचस्वाचविशःस्मृते।तेचस्वाचैवराज्ञश्चताश्चस्वाचाग्रजन्मनः॥
तथाहयाज्ञवल्क्यः—तिस्रोवर्णानुपूर्व्येणद्वेतथैकायथाक्रमम्ब्रह्मक्षत्रयविशांभार्य्यास्वाचैवशूद्रजन्मनः॥ भार्य्याः कार्य्याः स्वजातीयाः सर्वेषां श्रेयस्यः स्युरितिमुख्यः कल्पस्तदनुचतस्रोब्राह्मणस्यतिस्रोराजन्यस्यद्वैवैशस्येति॥ सवर्णायांसवर्णासुजायन्तेहिसजातयः। अनिन्द्येषुविवाहेषुपुत्राः सन्तानवर्द्धनाइतियाज्ञवल्क्यपैठीनसिमन्वादिवचनैः स्वजातीयविवाहेषुविशेषफलप्रतिपादनात्मुख्योऽयंकल्पः सर्वैंरभिवंद्यः॥ कामतस्तुप्रवृत्तानामिमाः स्युःक्रमशोवराः। यदिकामात्रागात्वलोभात्क्रमशः प्रवर्तततदाचेमंपक्षमाश्रयेदितिनिष्कर्षः
याज्ञ० स्मृ० अथविवाहभेदानिरूप्यन्ते—ब्राह्मोविवाह
आहूयदीयतेशक्त्यलंकृता। तज्जः पुनात्युभयतः पुरुषानेक विंशतिं॥ यज्ञस्थऋत्विजेचैव आदायार्षस्तुगोद्वयं। चतुर्दशप्रथमजः पुनात्युत्तरजश्वषट्॥ इत्युत्काचरतांधर्मं सहयादीयतेऽथिने।सकायः पावयेतच्चषट्षङ्कश्यान्सहात्मना॥ आसुरोद्रविणादानात्गांधर्वः समयान्मिथः॥ राक्षसोयुद्धहरणात्पैशाचः कन्यकाछलात्॥ पाणिग्राह्यः सवर्णासुगृह्णीयात्क्षत्रियाशरम् ।वैश्याप्रतोदमादद्याद्वेदनेत्वग्रजन्मनः॥
अधिकारिणः कन्यादानस्य॥ पितापितामहोभ्रातास कुल्योजननीतथा ।कन्याप्रदः पूर्वनाशेप्रकृस्थः परः परः॥
अथकतिविधाः पुत्राः— औरसोधर्मपत्नोजस्तत्समः पुत्रिकासुतः। क्षेत्रजः क्षेत्रजातस्तुसगोत्रेणेतरेणवा॥ गृहेप्रच्छन्न उत्पन्नोगूढजस्तुसुतः स्मृतः। दद्यान्मातापितावायंसपुत्रोदत्त कोभवेत्॥ क्रीतश्चताभ्यांविक्रीतः कृत्रिमः स्यात्स्वयंकृतः। दत्तात्मातुस्वयंदत्तोगर्भेविन्नःसहोढजः॥ उत्क्षिप्तोगृह्यतेय स्तुसोऽपविद्धोभवेत्सुतः। इत्याद्युपक्रम्यांते॥ पिण्डदोंशहरश्चैषांपूर्वाभावेपरः परः॥ इत्यादिप्रमाणैः पुरुषस्यबहुस्त्रीत्वंसिद्ध्यते॥ अत्राशंक्यतेयथाबहवः पुरुषस्यस्त्रियएवंस्त्रीणाम पिबहवः पुरुषाः स्युः। अत्रकिंमानं येनपुरुषेणबहवः स्त्रियः कार्य्याः॥ नतुस्त्रियाबहुपुरुषाइतिशङ्क्यमानंप्रत्याह। श्रूयतांभोः॥
तथाचश्रुतिः—यदेकस्मिन्यूपेद्वेरशनेपरिवयति । तस्मादेकोद्वेभार्य्येविन्दते॥ इतिश्रुतिः तस्मादेकोबव्हीर्विन्द
तेतिश्रुतिः॥ तस्मादेकस्यबव्ह्योजायाभवन्तिनैकस्यैबहवः सहपतयइतिश्रुतिः॥
तथाचस्मृतिः। याज्ञवल्क्यः॥ सकृत्प्रदीयतेकन्याहरंस्तांचोरदण्डभाक्॥ मृतेजीवतिवापत्यौयानान्यमुपगच्छति॥ सेहकीर्तिमवाप्नोतिमोदतेचोमयासह॥ इत्यादिश्रुतिस्मृतिनिष्पन्नत्वात्पुरुषस्यैव-बहवस्त्रियोनतुस्त्रीणांबहुपुरुषा अन्यथाव्यभिचारप्रसङ्गः स्यात्॥
यथाहमनुः—आर्षंधर्म्मोंपदेशंचवेदशास्त्राविरोधिना॥ यस्तर्केणानुसंधत्तेतद्धर्मंवेदनेतरः। नतुस्वकपोलकल्पितयुक्तयः॥ इतिश्रुतिस्मृतिपुराणनिष्पन्नंविवाहस्यसंक्षेपतोनिर्णयः कृत।विस्तरस्तुतत्तद्ग्रंथेभ्यो-ज्ञेयइतिशम्॥
इति श्रीकर्पूरस्थलनिवासीगोतमगोत्र ( शोरि ) जात्यालंकृतदैवज्ञदुनिचन्द्रात्मज° पं° विष्णुदत्तवैदिककृतविवाह निर्णयः समाप्तः शुभमस्तु॥
मुद्रितमेतत्स्वकोये श्रीवेङ्कटेश्वरमुद्रालये श्रीकृष्णदासात्मज— गङ्गाविष्णुना खेमराजेन च।
पुस्तकमिलनेका ठिकाना—
गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास— श्रीवेङ्कटेश्वर छापाखाना
खेमराज श्रीकृष्णदास— श्रीवेङ्कटेश्वर छापाखाना
मुंबई.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1695701403Untitled101.png"/>
]
-
“दशतन्तुविधानत इत्यपिपाठः ।” ↩︎
-
“यह मेने उवटभाष्यसे संक्षिप्त अर्थ लिखाहै विशेष अर्थ ब्राह्मण सर्वस्वसे आगे लिखा देखलेगे ।” ↩︎
-
" पद्धत्ति" ↩︎
-
" टीका इतिशेषः ॥" ↩︎
-
“अर्हणवेलाका समयज्योतिषशास्त्रोक्तजानना।” ↩︎
-
“अधोरचक्षुयहमंत्र. अथर्वणवेद. कांड १४ अनु० २ मंत्र १८ लिखाहै ॥” ↩︎
-
“सोमः प्रथमोविविदे-यहमंत्र. ऋग्वेद मंडल १० सूक्त ८५ मंत्र ॥ ४० है ॥” ↩︎
-
" ऋग्वेद. मं० १० सूक्त. ८५ मंत्र ॥ ४१ ॥ १४" ↩︎
-
“प्रणीताका—लक्षण वरणवृक्षका १२ अंगुलदीर्घ ४ अंगुल विस्तार और खोदा हुआ प्रणीतापात्र होता है ॥” ↩︎
-
“अध्यात्मक१आधिभौतिक २आधिदैविकभेदेसदुःखतीन प्रकार केहैइन्केभेदप्रत्युपभेदमत्कृतरामगीताविषमपदीटीकामेसाविस्तृत लिखे है॥” ↩︎
-
“आपो हिष्टेत्यादिभिः ऋग्भिः॥” ↩︎