वाराहगृह्यसूत्रम्

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**वाराहगृह्यसूत्र की विषयसूची। **

** विषय-** पृष्ठसंख्या
१ जातकर्म … … … …
२ नामकरण… … … …
३ पुत्राभिमर्शन… … … …
४ अन्नप्राशन… … … …
५ चूडाकरण… … … …
६ उपनयन… … … …
७ ब्रह्मचारित्रतनि … … … …
८ श्रावणी कर्म… … … …
९ चातुर्होत्रिक दीक्षा… … … …
१० गोदान… … … …
११ विवाह… … … …
१२ विवाह प्रवदत कर्म… … … …
१३ विवाह अर्ध्यदान… … … …
१४ कन्यादान… … … …
१५ पाणिग्रहण… … … …
१६ योकत्र वर्शन… … … …
१७ रथारोहण… … … …
१८ गृहमवेश… … … …
१६ पुंसवन… … … …
२० वैश्वदेवकर्म… … … …
२१ परिशिष्ट… … … …
२२ पाकयज्ञ… … … …

॥श्रीगणेशायनमः \।\।

अथ वाराहगृह्यसूत्रम् \।

प्राङ्मुखमुद्ङ्मुखं वा सूतिकालयं कल्पयित्वा “ध्रुवं” प्रपद्ये शुभं प्रपद्ये” इति काले प्रपादयेत्॥१॥ “रेतो मूत्र”-मिति च्यावनीभ्यां दक्षिणकुक्षिमभिमृशेत्॥२॥ श्रावयेद्वा पुत्रं जातमन्वक्षं स्नातं न मातोपहन्यात् आमन्त्रप्रयोगात्॥३॥ अग्नेवाहितस्य परिसमूढस्य परिस्तीर्नस्य पश्चादहते वाससि कुमारं प्राक्शिरसमुत्तानं संवेश्य पालाशस्य मध्यमवर्णं प्रवेष्ट्य तेनास्यकर्णावाजपेत्॥४॥ “भूस्त्वयि दधामी"ति दक्षिणे “भुवस्त्वयि दधामी”ति सव्ये “स्वस्त्वयि दधामी"ति दक्षिणे भूर्भुवः स्वस्त्वयि दधामी”ति सव्ये॥५॥ अथैनमभिमन्त्रयेत्- “अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव॥६॥ वेदो वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्। अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादधिजायसे॥७॥आत्मा वैपुत्रनामासि स जीव शरदः शतमिति यत्र शेते तद्भिभृशेत्॥८॥वेद ते भूमिर्हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्॥९॥वेदामृतस्य देवानहं पुत्रमहंहृद” मित्याज्यं संस्कृत्य ब्राह्मणमामन्त्र्य समिधमाधायाघारावाघार्याज्यभागौहुत्वा व्याहृतिभिश्चतस्रभाज्याहुतीर्जु

हुयात्॥१०॥जयाभ्यातानानां राष्ट्रभृतश्चैके॥११॥कांस्ये चमसे वाहुतिसंपातानवनीय तस्मिन्सुवर्णंसंनिघृष्य

व्याहृतिभिःकुमारंचतुः प्राशयेदत्यन्तमेके सुवर्णप्राशनमुद्के निघृष्य आद्वादशवर्षताया “इषं ‘पिन्वोर्जं पिन्वेति”स्तनौ प्रदापयेत्॥१२॥दक्षिणंपूर्वं सव्यं पश्चात् स्विष्टकृतं हुत्वा प्रायश्चित्ताहुतीश्च समिधमाधाय पर्युक्षति॥१३॥एष कर्मान्तो बहिर्द्वारेऽग्निर्नित्यः॥१४॥कणसर्षपथवानां होमः॥१५॥व्याहृतिभिर्जुहुयात्॥१६॥अप्रतिरथं जपेत्॥१७॥“इन्द्रो भूतस्ये” ति षडर्चं चसूतिकालयं यथाकालं समन्तादुदकेन परिषिंचेत्॥१०॥ इति वाराहगृह्यसूत्रे प्रथमःखण्डः॥१॥

** **भा० टी०—पूर्व मुँह या उत्तर मुंह का सूतिका घर जो बच्चे जनने के लिये गर्भवती स्त्री के लिये होता है तय्यार करावे। श्रौर जब प्रसव होने का निकटतम काल वे तब " ध्रुवं प्रपद्ये शुभं प्रपद्ये” मंत्र को पढ़कर विधिपूर्वक गर्भिणी स्त्री को ‘सूतिकालय’ में प्रवेश करावे॥और जब स्त्री को प्रसवार्थ पेट में वेदना होने लगे तब “रेतो मूत्रमिति०"इत्यादिमंत्रों से स्त्री के पेट के दक्षिण भाग को स्पर्श करे। और जब सूतिका कोसन्तान पैदा होजावे तो " पुत्र उत्पन्न हुआ " ऐसा सुनावे और जब तकजात कर्म सम्बन्धि क्रियायें मंत्र पूर्वक न हो जावें तब तक माता उस बच्चेको अपने गोद में न लेवे। बच्चे को स्नान करावे तो भले ही करादेवे परन्तुमाता के गोद में उसे न देवे। जहां होम करना हो उस स्थान को साफकर ( पांचभू संस्कार करके ) अग्निस्थापन कर उसके पश्चिम भाग मेंकुशा बिछाकर उस पर कुमार को नये चीरे अखण्ड वस्त्र पर पूर्वशिर औरउत्तान कर सुला कर ढाक के पत्तों में से बीच के पत्ते को लपेट कर उसका

एकछोर बच्चे के कान में एक अपने मुख में लगाके - “भूस्त्वमिं”इत्यादि मंत्र को दहिने कान में पढ़े और “भुवस्त्वं”मंत्र को बायें कानमें पढ़े, फिर ‘‘स्वस्त्वं” मंत्र को दहिने कान में और भूर्भुवः॥मंत्रको बांयें कान में पढ़े॥इसके अनन्तर इस कुमार को अभिमन्त्रण करं. — “अश्माभव०” इत्यादि मंत्र पढ़ कर जहां कुमार शयन करता हो वहां उसको स्पर्श करे॥“वेदतें” इत्यादि मंत्रको पढ कर श्राज्यका संस्कार कर ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर समिधा इकट्ठा कर घी का ढार दे।की दो आहुती देकर व्याहृति मंत्रों से चार आहुती देवे। कोई २ प्राचार्य का मत है कि जयाभ्यातन और राष्ट्रभृत मंत्रों से भी होम करे॥और कांसे के कटोरे में या प्रणीता के समान चमस पात्र में आहुती सम्पात को लेकर उसमें सोने को घिस कर व्याहृति मंत्रों से कुमार को चार वार चटावे। कोई २ प्राचार्य कहते हैं कि अनेक वार चटावे॥और सोने को पानी में घिसकर कुमार को १२ वर्ष की उमर तक चटावे॥और “इषं पिन्वां”मंत्र को पढ़ कर कुमार को दोनों स्तन दूध पीने इस भांति देवे कि पहले दहिना स्तन पीछे बायां स्तन देवे॥अनन्तर स्विष्टकृत आहुती देकर प्रायश्चित्तकी करे और समिध डालकर इसका जलसे पर्युक्षण करे॥यह कर्मान्त विधि द्वार के बाहर नित्य अग्नि में करे।और कण, सरसो, और जब से होम करे।व्याहृतियों से होम करे।“अप्रतिरथ”का जप करें’।“इन्द्रो भूतस्य और डर्च मंत्रों का भी जप करे।सूतिकालय को यथा समयचारों ओर जल से सींचे॥१-१८॥प्रथम खण्ड समाप्त हुआ॥

एवमेव दशम्यां कृत्वा पिता माता च पुत्रस्य नामदध्याताम्॥१॥ घोषवदाद्यन्तरन्तस्थंदीर्घाभिनिष्ठानान्तं कृतं न तद्धितं द्वयक्षरं चतुरक्षरंवा त्यक्त पितृनामधेयान्नक्षत्रदेवतेष्टनामानो वा॥२॥ द्विनामा तु ब्राह्मणो नामैवं कन्याया अकारव्यवधानमाकारान्तमयुग्माक्षरं नदीन क्षत्र

चन्द्रसूर्यपूषादेवदत्तरक्षितावर्जम्॥३॥नवनीतेन पाणीप्रलिप्य “सोमस्य त्वा द्युम्नेने”त्येनमभिभृशेत॥४॥ सर्वेषु कुमारकर्मसु आग्नेयः स्थालीपाकः प्रजापत्यो वासर्वत्रानादेशेऽग्निः पुंसामर्यमा स्त्रीणाम्॥५॥ संवत्सरंमातापितरौ न मांसमश्नीयाताम्॥६॥ इति वाराहगृह्येद्वितीयः खण्डः॥२॥

जातकर्म से लेकर दशवें दिन पूर्वोक्त प्रकार विधि पूर्वक होम कृत्यकरके पिता और माता अपने पुत्र का नाम करण संस्कार करे अर्थात् पुत्रका नाम धरे। जिस के नाम का आदि अक्षर घोषवत् ( ग, घ, ङ,। ज,झ, ञ। ड, ढ, ण,।द, ध, न,। ब, भ, म,।और ह ) ये अक्षर अन्तस्थ( य, र, ल,व ) अक्षर नामके बीच में हों और विसर्जनीय ( ः ) अन्त मेंहों-नाम कृदन्त हो तद्धितान्त न हो-नाम दो या चार अक्षर का हो और पुत्रके नाम के साथही पीछे पिता का नाम भी लगाया जाय, परन्तुअभिवादन में पिता के नाम को छोड़ देवे। जिस तिथि या नक्षत्र में पुत्रका जन्म हो उसके देवता सम्बन्धी या नक्षत्र सम्बन्धी नाम यश के लियेअच्छे हैं। परन्तु देवता और पिता का साक्षात् नाम न घरे॥दो नामब्राह्मण का अर्थात् पुत्र का धरे। परन्तु कन्या का केवल एक ही नाम हो।कन्या के नाम में आकार व्यवधान हो और अन्त में आ-कार और वेजोड़वा विषम संख्यक ( ३, ५ आदि) अक्षर हों। नदी, नक्षत्र, चन्द्र, सूय्र्य,पूषा, देवदत्त-इन से रक्षिता नाम न घरे-और न इन के नामों से नाम धरे।

फिर धोये हुए हाथों में मक्खन लगाके अग्नि में तपा के और बच्चेको स्पर्श करने की आज्ञा ब्राह्मण से लेकर।सोमस्य०”मंत्र को पढ़करकुमार को स्पर्श करे।सबही कुमार के कर्मों में"आग्नेयस्थालीपाक” याप्राजापत्य स्थाली पाक-करे। कुमार कर्मों में जहां २ के नाम कापय्र्याय वाची कोई शब्द उपदिष्ट न हो वहां-कुमार के कम्मों में “अग्निः “ग्रहण करना और कुमारी के कर्म्मोमें “अर्यमा”समझना॥इसके अनन्तरकुमार के माता पिता एक वर्ष तक मांस न खावें॥१-६॥दूसरा खण्डसमाप्त हुआ॥२॥

** पुत्रस्य जाते दन्ते यजेताग्निं गवाऽपशुना वा॥१॥विप्रोषितः प्रत्येत्यपुत्रस्य मूर्धानं त्रिराजिघ्रेत्—“पशूनां त्वा हिंकारेणाभिजिघ्रामी”ति॥२॥ जातकर्मवद्धस्ताङ्गुलींप्रवेष्ट्य तेनास्य कर्णावाजपेत्॥३॥ अथैनमभिमन्त्रयते “अश्माभवे”ति“अग्निधन्वन्तरीे”इति॥४॥ पुत्रवच्छागमेषाभ्यामिष्ट्वादीर्घाणां व्याहृतिभिः कुमारं चतुः प्राशयेत्॥५॥ “आयुर्दा देवेति”च कुमारकर्मणि शुक्लउदगयने पुष्पे नक्षत्रे नवमीवर्जं सर्वे ऋतवो विवाहेमाघचैत्रौ मासौ परिहाप्योत्तरं च नैवाद्यमन्वारम्भयित्वाहवनम्॥इति वाराहगृह्ये तृतीयः खण्डः॥३॥**

पुत्रकोदान्त निकल जाने पर पशु द्वारा अग्नि निमित्त यज्ञ करें यापशु रहित अन्नादि से ही करे।जब पिता प्रवास से घरपर आवे तो पुत्र केशिरमें अपना मुख लगाकर –“पशुनांत्वां०” मंत्र को पढ़ता हुआ तीन वारसूंघे।जात कर्म की भांति हाथ की अङ्गुली को कुमार के कान में,प्रवेशकरा कर ‘अश्माभव०” मंत्र का जप करे। और पुत्र वाला-व्यक्ति छागऔर भेड द्वारा यज्ञ कर व्याहृतियों को पढ़कर कुमार को चार वार यज्ञ सेबचे मांस के बड़े टुकड़ों को चटावे। और “आयुर्घ० मंत्र भी पढे। कुमारकर्म-मेंशुक्लपक्ष, उत्तरायण, पुष्य नक्षत्र, नवमी तिथिको छोड़कर सबहीऋतु श्रेष्ठ हैं। विवाह के लिये माघ, और चैत्र मास को छोड़कर–शेषमहीनों में कृष्ण पक्ष को छोड़ कर विवाह विहित है, परन्तु विवाह के आरम्भिक काय्र्य में हवन करे॥१-६॥यह तीसरा खण्ड पूरा हुआ॥३॥

तृतीयवर्षस्य जटाः कुर्वन्ति यथा वा कुलकल्पः॥१॥ अग्निमुपसमाधाय परिसमुह्य पर्युक्ष्य परिस्तीर्थ दक्षिणतोऽग्नेब्राह्मणमुपवेश्योत्तरत उदकपात्रं शमीशमकवत्॥२॥ अथैनमभिमन्त्रयते“हिरण्यवर्णाः शुचय”इति चतसृभिः” या ओषषय”इत्यनुवाकेन, “शं नोदेवीरभिष्ट”यइति, “शं न आपो धन्वन्या”इति द्वाभ्यामिति च॥३॥ तासामुदकार्थान्कुर्वीत पर्युक्षणे अभ्युन्दने स्नापनेच॥४॥आज्यं संस्कृत्य ब्राह्मणमामन्त्र्यसमिधमाधायाघारावाधार्याज्यभागौ हुत्वा “अग्न आयूंषिपवस” इति सप्तभिः सप्त जुहुयात्॥५॥ “आयुर्दादेवेति”च ये केशिनः प्रथमे सत्रमासत येभिरावृतं यदिदंविराजति॥६॥ तेभ्यो जुहोम्यायुषे दीर्घायुत्वाय स्वस्तय”इति व्याहृतिभिश्चोक्तः कर्मान्तः पूर्वेण॥७॥ शीतेन वाउदकेनेत्युष्णेन वा उदकेनेति तप्ता इतराभिः संसृज्य “आद्रदानवस्थजीवदानवस्थोन्दतोषमावदे” त्यपोभिमन्त्र्य“अदितिः केशान् वपत्वाप उन्दन्तु जीवसे॥८॥दीर्घायुत्वाय स्वस्तय”इति दक्षिणं केशान्तमभ्युन्दति॥९॥ “ओषधे त्रायस्वैनं”इति दक्षिणस्मिन्केशान्ते ऊर्ध्वाग्रंदर्भमन्तर्दधाति॥१०॥स्वधिते मैनं हिंसीरिति क्षुरेणाभिनिधाति॥११॥ येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्यराज्ञो वरुणस्य विद्वान्॥१२॥ तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्यायुष्मानयं जरदष्टिर्यथासहमसाविति प्रवपति॥१३॥

दाक्षणतो मातान्या वाऽविधवा आनडुहेनगोमयेन आभूमिगतान्केशान् परिगृह्णीयात्॥१४॥मा ते केशान्अनुगाद्वर्च एतत्तथा धाता दधातु ते॥१५॥ तुभ्यमिन्द्रोवरुणो बृहस्पतिः सविता वर्च आदधुः"रिति प्रवपतोऽनुमन्त्रयते॥१६॥तेन धर्मेण पुनरपोभिमन्त्र्यापरं केशान्तमभ्युन्यात्॥१७॥ उत्तरं च अन्यौ तु प्रवपनौ॥१८॥“येन पूषा बृहस्पतेरग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत्॥१९॥तेन ते वपाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय स्वस्तय” इति पश्चात्॥२०॥येन भूयश्चरत्ययं ज्योक्च पश्यति सूर्यम्॥२१॥तेन ते वपाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय सुश्लोक्याय सुवर्चस” इत्युत्तरतः॥२२॥ यत्तुरेण वर्तपता सुपेशया बसर्वपसिकेशान् शुन्धशिशरो मुखं मास्यायुः प्रमोषीरिति लोहायसंतुरं केशवापाय प्रयच्छति॥२३॥ यथार्थ केशयत्नात्कुर्वन्ति् दक्षिणतः कपर्दो वसिष्ठानां उभयतोऽत्रिभार्गवकाश्यपानां पञ्चचूडाङ्गिरसां शिखिनोऽन्ये वाजिमेके मङ्गलार्थम्।त्रायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्रायुषं अस्त्रायुषम्। यद्देवानां त्रायुषंतन्मे अस्तु शतायुषमि” तिशिरःप्रभृति परिंगृह्य गोमयेन केशानुत्तरपूर्वस्यां गृहस्यामुव्यामन्तरा गेहात्पलद् निद्ध्यात्॥२४॥अतिरिक्त वा वपनेउपत्वाय केशान्वरुणस्य राज्ञो बृहस्पतिः सविता विष्णुरिंद्रःतेभ्यो निधानं महदन्वविन्दन्नन्तरा द्यावापृथिव्योरवन्युरि”ति॥२५॥कर्त्रे वरं ददाति॥२६॥पमगुणं

तिलपिशितं च केशवापाय प्रयच्छति॥२७॥ संवत्सरंमाता नाम्लाय धारयेद्रोषाय नाश्नीयात्॥२८॥लवणवर्ज तूष्णीम्॥२९॥कन्याया आहुतिवर्जं विदुषो ब्राह्मणार्थसिद्धिं वाचयेत्॥३०॥ एवमुत्तरेषु॥३१॥इति वाराहगृह्ये चतुर्थः खण्डः॥४॥

बालक के तीसरे वर्ष के अधिक भाग बीत जाने पर जब उत्तरायणशुक्लपक्ष हो, तब नवमी तिथि को छोड़कर चूड़ा करण करावे।या जिसकुल में जिस उमर में मुण्डन कराने की प्रथा चली आई हो और एक शिखादक्षिण भाग में या उत्तर भाग में शिखा रखने की रीति हो उसी प्रकारया चूड़ा रखकर मुण्डन करावे मुण्डन संस्कार के लिये अग्नि को स्थापनकर वेदीका परिसमूहन, पर्युतण करके अग्नि के पास कुशाओं को बिछाकरके दक्षिण भाग में ब्राह्मण को बिठना कर उनके उत्तर भाग मेंजलपात्र और शमी की लकड़ी या उसके समान दूसरी यज्ञिय वृत्त कीलकड़ी रक्खे॥अनन्तर इसके, कुमार को ‘हिरण्यवर्णाः ”इत्यादि चारऋचाओं से “या ओषधयं”इस अनुवाक से “शंनोदेवीं ”मंत्र से, “शंन”इन दो मन्त्रों से यथा प्रयोजन जल से पर्युक्षगा करे, भिंगोये और स्नानकरावे ज्य का संस्कार कर ब्राह्मण को निमन्त्रण देकर समिधाओं कोडाल कर घीका ढार देकर आज्यभाग की दो आहुती कर’ अन आयुषिं ”इत्यादि सोतमन्त्रों से सात आहुती करे॥“आयुर्दा”मंत्र से भी और“ये केशिन०”इत्यादि मंत्र से और व्याहृतियों से भीतब कर्म कीसमाप्ति करे जैसा पहिले कहा गया है। इसके पश्चात् शीतल जल, उष्णजल और शीतल जल को गर्म में मिलाकर आद्रदानवस्थ०इत्यादि मंत्र से जल को अभिमंत्रित करके “अदितिः”मंत्र से कुमार केशिर के दहिने बालों के अन्तको भिंगोवे।“ओषधें”मंत्र से दहिने बालोंके अन्त में बालों के बीच दाभ रक्खे॥स्वधिते मैनं हिंसी”० मंत्र पढ़के

दाभसहित बालों पर छूरा रक्खै॥फिर “येनावपतं” इत्यादि तीन मन्त्रपढ़ २ कर तीन बार कुशा सहित वालों को काटे॥वालक के दहिने भागमें उसकी माता या अन्य कोई सधवा स्त्री कट कर भूमि पर गिरे बालों कोबैल के गोबर पर लेती जावे। “माते केशान्ं”इत्यादि मंत्र केशों कोकाटते समय पढ़ता जावे।उसी प्रकार फिर जल को अभिमन्त्रित कर बचेकेशों को पूर्ववत् भिंगोवे और केशों को भी इसी भांति काटे। “येन पूपां”इत्यादि मंत्र से शिरके पीछे के भाग के केशों को काटे “येन भूयश्चरत्ययं”मंत्र पढ़कर उत्तर भाग के केशों को काटे पुनः “यत्क्षुरेणं”मंत्र पढ़केलोहे के छूरे को नापित को दे देवे और अपनी कुलरीति अनुसार शिखाछोड़कर सब केशों को कटवा देवे ’।चोटी या चूड़ा रखने की भिन्न २ प्रथावशिष्ट गोत्री दाईं और अत्रि भार्गव और काश्यप गोत्री दोनों ओर चूड़ारखते हैं। आङ्गिरस गोत्री पांच चूड़ा रखते हैं अन्य गोत्र वाले शिखामात्र रखते हैं और वाजसनेयी लोग एक ही चूड़ा रखते हैं॥व्यायुषं’इत्यादि मंत्र पढ़ कर सारे शिर को भिंगो कर नाई उस्तरा को सारे शिरपर फेर देवे।तब बालों समेन गोबर को लपेट कर घर के उत्तर पूर्व दिशामें दूर पर जमीन में गाड़ देवे। यदि अतिरिक्त केश कट जावें तो ‘उ’त्वायं”मंत्र का जप करे।और पुरोहित को दक्षिणा देवे। नापित कोकेशर, गुड़, और कूटे हुए तिल देवे। साल भर तक बालक की माताखट्टा न खावे, क्रोध से भोजन न करे, लवण रहित भोजन करे। कन्याका संस्कार विना मंत्र के होगा; परन्तु हवन मन्त्र पूर्वक होंगे विद्वान्ब्राह्मणों सेअर्थसिद्धि कहवावे।इसी प्रकार उत्तर कार्यों में भी॥सू०१-३१॥इति चौथा खण्ड पूरा हुआ॥४॥

** गर्भाष्टमे ब्राह्मणमुपनयेत्॥१॥ षष्टे सप्तमे पञ्चमेवा॥२॥ततो गर्भैकादशेषु क्षत्रियम्॥ गर्भद्वादशेषु वैश्यम्॥३॥प्राक् षोड़शाद्वर्षात् ब्राह्मणस्यापतिता सावित्री॥४॥ आद्विशात् क्षत्रियस्थ॥५॥आचतुर्विंशाद्वैश्यस्य॥६॥अतऊर्ध्वंपतितसावित्रीका भवन्ति॥७॥नैनान्याजयेयुः॥ “नाध्यापयेयु”र्न विवहेयुः॥८॥ अभ्यन्तरं जटाकरणं बहिरुपनयनमुक्तोऽग्निसंस्कारः॥९॥ब्राह्मणस्यकुमारंपर्युप्तिनं स्नातमभ्यक्तशिर- समुपस्पर्शनकल्पेनोपस्पृष्टमग्नेर्दक्षिणतोऽवस्थाप्य “दधिक्राव्णो अकारिषमि”ति कुमारं दधि त्रिः प्राशयेत्॥१०॥ “इयं दुरुक्तात्परिवाधमाना वरुणं पवित्रं पुनती न आगात्॥१९॥प्राणापानाभ्यां बलमाभजन्ती शिवा देवी सुभगा मेखलेयम्॥१२॥ ऋतस्य गोप्त्रीतपसश्चरित्री घ्नती रक्षःसहमाना अरातीः॥१३॥ सा मा समन्तमनुपर्येहिभद्रेधर्त्तारस्ते सुभगे मेखले मारिषामे"ति मौञ्जी त्रिगुणांत्रिःपरिवीतां मेखलामाबध्नीत मौर्वी धनुर्ज्यां क्षत्रियस्य शाणीं वैश्यस्य॥१४॥उपवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपव्ययामी”ति यज्ञोपवीतम्॥१५॥ या अकृन्तन्याअतन्वन्यावन्या वाहरन्॥१६॥याश्चाग्न्या देव्योन्तानभितो ततन्था॥१७॥ तास्त्वा देव्यो जरसे संव्ययन्त्वायुष्मन्निदं परिधत्स्ववासः॥१८॥ परिधत्त वर्चः शतायुषं दीर्घमायुः॥१९॥ शतं च जीव शरदः पुरूचीःसुनिचाय्यो विभजा यजीयान्॥२०॥ इत्यहतं वासआच्छाद्य—“मित्रस्य चक्षुर्धरुणं बलीयस्तेजो यशःश्री स्थविरं समिद्धम्॥२१॥ आनाहनस्यं वसनं जरिष्णुंपरीदं वाज्यजिनं दधेह”मिति कृष्णाजिनं च॥२२॥**

आज्यं संस्कृत्य ब्राह्मणमामन्त्र्य समिधमाधायाघारावाघार्याज्यभागौ हुत्वाष्टौ जटाकरणीयान् जुहुयात्॥२३॥व्याहृतिभिश्चोक्तः कर्मान्तः पूर्वेण॥२४॥“कालाय वां गोत्राय वां मैत्राय वां मैत्राय वामन्नान्द्याय वां अवनेनिजेमी”त्युदकेनाञ्जलिं पूरयित्वा “सुकृताय वामि”ति पाणी प्रक्षाल्य “इदमहं दुर्यमन्यानि प्लावयामो”त्याचम्यनिष्ठीवति॥२५॥ भ्रातृव्याणां सपत्नानामहं भूयासमि”ति द्वितीयम्॥२६॥ प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयंपुत्रमदितेयो विधर्ता॥२७॥ आर्द्रश्चिद्यन्मन्यमानस्तिरश्चिद्राजा चिद्यन्भगं भक्षीमहीत्याहे” त्यादित्यमुपतिष्ठेत॥२८॥ ब्रह्मचर्यमुपागामुपमाहूयस्येति”ब्रूयात्॥२९॥एहि ब्रह्मोपेहि ब्रह्म ब्रह्म त्वा संब्रह्म सन्तमुपनयाम्यहमसा”विति॥३०॥ अथास्याभिवादनीयं नाम गृह्णाति॥३१॥ “देवस्य त्वेति” हस्तं गृह्णाम्यहमसावि”त्यस्यहस्तं दक्षिणेन दक्षिणमुत्तानमभि वाङ्गुष्ठमभि वा लोमानि गृह्णीयात्॥३२॥ ममेवान्वे तु ते मनो मामेवाऽपि त्वमन्विहि॥३३॥ अग्नौ घृतमिव दीप्यतां हृदयंतव यन्मयि”॥३४॥ इत्येनं संप्रेक्षमाणं समीक्षते।

पृष्ठतोऽस्य पाणिमन्वाहृत्य हृदयदेशमन्वारभ्य जपति “प्राणानां ग्रन्थिरसि स ते मा विस्रंसदिति”॥३५॥ ब्रह्मणो ग्रन्थिरसि” इति नाभिदेश॥३६॥गणानांत्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्॥३७॥

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्”इति प्रदक्षिणमग्नि परिणयेत्॥३८॥ पश्चादग्नेः दर्भेषूपविशति दक्षिणतश्च ब्रह्मचारी —“अधीहि भोः”॥३९॥इत्युपविश्य जपति॥४०॥ प्रभुज्य दक्षिणंजानुं पाणी संधाय दर्भहस्ता “वोमि”त्युक्त्वा व्याहृतिभिःसावित्रीं चानुब्रूयात्॥४१॥ एवं काण्डानुवचनेषु॥४२॥ तत्सवितुर्वरेण्यमि”ति गायत्रीं ब्राह्मणाय,“देवो यातिसविता सुरत्न”इति त्रिंष्टुभं क्षत्रियाय, “युंजते मन”इति जगतीं वैश्याय पच्छोर्घर्चशः सर्वामन्ततः॥४३॥पालाशं दण्डं ब्राह्मणाय प्रयच्छति नैयग्रोधं क्षत्रियाय आश्वत्थंवैश्याय॥४४॥ सुश्रवः सुश्रवसं मां कुरु यथा त्वं सुश्रवः सुश्रवा अस्येवमहं सुश्रवः सुश्रवा भूयासं॥४५॥ यथा त्वंदेवानां वेदस्य निधिगोपोस्येवमहंमनुष्याणां ब्रह्मणो निधिगोपो भूयासमिति दण्डं प्रतिगृह्णाति॥४६॥ ऊर्ध्वकपालो ब्राह्मणस्य कमण्डलुपरिमण्डलः क्षत्रियस्य निचलकलो वैश्यस्य॥४७॥ “इमाआपः प्रभराम्ययक्ष्माय यक्ष्मचातनीः॥४८॥ऋतेनापः प्रभरार्म्यमृतेन सहायुषा’’॥४९॥ इतिप्रतिगृह्णा” मीति प्रतिगृह्य भैक्ष्यचर्यं चरेत्॥५०॥ ‛ॐभवति भिक्षां देही’ति ब्राह्मणः॥५१॥ ‘भवतिमध्यां’क्षत्रियः॥५२॥ भवत्यन्तां वैश्यः॥५३॥ चतस्रष्षडष्टौ वाऽविधवा अप्रत्याख्यायिन्यो मातरं प्रथममेके

॥५४॥ गुरवे निवेद्य वाग्यतः प्राग्ग्रामात् सन्ध्यामुपास्ते॥५५॥ तिष्ठन् पूर्वा सावित्रीं त्रिरधीत्य “अध्वनामध्वपतेश्रेष्ठ्य स्वस्त्यस्याध्वनः पारमशीय‘”॥५६॥तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुकमुच्चरत्॥५७॥ पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुवाम शरदः शतम्॥५८॥प्रब्रवाम शरदः शतं अदीनाः स्याम शरदः शतम्॥५९॥भूयश्च शरदः शतात्॥६०॥या मेधा अप्सरस्सु गन्धर्वेषु च यन्मनः॥६१॥दैवी या मानुषी मेधा सा मामाविशतामिहैवे”ति प्रत्येत्याग्निं परिचरेत्॥६२॥इमं स्तोममर्हत इति परिसमूहेत्॥६३॥ एघोस्येधिषीमही”ति समिधमादधाति॥६४॥ समिदसिसमेधिषीमहि”ति द्वितीयम्॥“आपो अद्यान्वचारिषमि” स्युपतिष्ठते॥६५॥ “मा संसृज वर्चसेति” मुखं परिमृजीत “घदग्नेतपसा तपो ब्रह्मचर्यमुपेयमसि॥६६॥प्रिया श्रतस्य भूयासमायुष्मन्तः सुमेधस॥६७॥अग्ने समिधमहारिषं बृहते जातवेदसे॥६८॥ स मे श्रद्धां च मेघां च जातवेदाः प्रयच्छतु स्वाहे”ति समिधमादधाति॥६६॥ तेजसा मा समधि वर्चसा मा समधि ब्रह्मवर्चसेनमासमङ्ग्धि” इति मुखं परिमृजीत॥७०॥ आयुर्दा अग्नेऽसी”ति च यथारूपं गात्राणि संमृशति “इहधृतिरिति”पर्यायैःअंसग्रीवाश्च त्रिरालभ्य “ऋच॑ नो घेही”ति ललाटमभिमृशेत्॥७१॥ आद्यन्तयोः पर्युक्षणम्।गुरवे ब्रह्मणे च वरमुत्तरासङ्गं च ददाति॥७२॥ द्वादशरात्रमक्षारलवणमाशेदक्षरमेके॥७३॥व्युष्टे द्वादशरात्रे षड्रने वा ग्रामात्याचीं वोदीचीं वा दिशमुपनिष्क्रम्यपश्चात्पालाशस्य यज्ञियस्य वा वृक्षस्य सावित्रेण स्थालीपाकेनेष्ट्वाजयप्रभृतिभ्यश्चाज्यस्य पुरस्तात्स्विष्टकृतो मेखलां दण्डं चाप्सु प्रास्पेत्॥७४॥तत्रैव हविश्शेषं भुंजोतेति श्रुतिः॥७५॥ इति वाराहगृह्ये पञ्चमः खण्डः॥

गर्भ से या जन्म से जब ब्राह्मण का बालक आठ वर्ष का हो तो उसका उपनयन ( वेद पढ़ने के लिये गुरु के पास भेजे ) संस्कार करे॥या छठवें सातवें या पांचवें वर्ष में उपनयन करे।इसके पश्चात् क्षत्रिय वर्ण के बालक का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य के बालक का बारहवें वर्ष में उपनयन करे॥यदि कारण वश विहित सयय पर उपनयन न कर सके तो ब्राह्मण के बालक को १६ व वर्ष तक उपनयन करने का अधिकार रहता है, इसी प्रकारक्षत्रिय को २२ वे वर्ष तक और वैश्य को २४ वें वर्ष तक॥इसके पश्चात्ब्राह्मण को १७ वें से, क्षत्रिय को २३ वें से और वैश्य को २५ वें वर्ष सेउपनयन करने का अधिकार नहीं रहता है और समाज बे जनेऊ का होनेसे प्रत्येक वर्ण पतित सावित्रीक हो जाते हैं। ये पतित ब्राह्मणादिकों कायज्ञ न करावे न इनको वेदादि पढ़ावे और न इनसे विवाह सम्बन्ध करे॥

उपनयन संस्कार के भीतर जो चूड़ाकरण का प्रसङ्ग आया है यहविषय इसके पहिले व अलग कहा जा चुका है। शिर मुड़ाये हुए ब्राह्मणकुमार को स्नान कराकर शिर में मक्खन आदि लगा के उपस्पर्शन कीप्रक्रिया से उपस्पर्शन कर अग्नि के दक्षिण भाग में बैठाकर “दधिक्राव्णो०”मंत्र से कुमार को तीन वार दधि चटावे। इसके पश्चात् “इयं दुरुक्तात्परिं”इत्यादि मंत्र पढ़ कर मुंज की मेखला को कुमार के कटि में तीन वार लपेटे।इस तीसरी लपेट में अपने २ प्रवर संख्यानुसार तीन या पांच या सात गांठे

देकर बांध देवे। क्षत्रिय वालक के लिये मेखला गेहा या तांत की होऔर वैश्य के लिये शण की करे। फिर “उपवीतमसि०”मंत्र आचाय्र्यबालक से पढ़वा कर उसको पहना देवे। इसके पश्चात् “या अकृन्तन्या०”इत्यादि मंत्र पढ़ कर चीरदार नया वस्त्र वालक को “पग्धित्स्ववासः”। ऐसा कह कर पहनावे।और “मित्रस्य०”मंत्र पढ़कर कृष्णसार मृग के चर्म को दुपट्टे की जगह धारण करे। तव आज्य का संस्कार कर ब्राह्मणको निमन्त्रण देकर समिधा को डालकर आधार की आहुती देकरआज्यभाग की दो आहुतियां, चूड़ाकरण की आठ आहुतियां देवे। और व्याहृनियोंसे होम कर कर्म की समाप्ति कर देवे, जैसा पहिले कहा गया है। तब “कालाय वां० ”इत्यादि मंत्र पढ़ कर अञ्जलिमें जलभर कर “सुकृताय”मंत्र पढ़कर दोनों हाथों को धोवे। “इदमहं”मंत्र पढ़कर आचमन करके थूके (कुल्ला करे ) और “ भ्रातृव्याणां०”मंत्र से दूसरी वार आचमन करें। इसके पश्चात“प्रातर्जितं”मन्त्र पढ़कर सूर्य भगवान् का उपस्थान करें। तब कुमर “ब्रह्मचर्य०”पढ़े, इसके उत्तर में आचार्य बोलें—“एहि ब्रह्मोपेहि ”इत्यादि। तब आचार्य बालक के अभिवादनीय नाम को बोल कर “देवस्यत्वेति०”मंत्र पढ़ते हुए बालक के दहिने हाथ को पकड़े और ( असौ) पद के स्थान में बालक का नाम ( हे देवदत्त जैसे ) बोले।बोलक के हाथ को इस भांतिपकड़े कि-शिष्य का मुंह पूर्व की ओर आचार्य का पश्चिम की ओर हो।शिष्य बैठा हो, आचार्य खड़े हों, शिष्य का हाथ नीचा और खाली हो—ऐसे शिष्य के दहिने हाथ को किसी माङ्गलिक पदार्थ को अपने दाहिने हाथसे आचार्य पकड़े और “ममेवान्वतु"० इत्यादि मंत्र पढ़े। यों शिष्य आचार्य को देखता रहे और आचार्य शिष्य को देखें और कुमार केदायें कंधे पर सेअपना दहिना हाथ ले जाकर उसके हृदय को स्पर्श करतेहुए “प्राणानां०” मंत्र बोले।“ब्रह्मणो०”पढ़ कर उस की नाभि छूवे।फिर “गणानां ” इत्यादि पढ़कर अग्निकी प्रदक्षिणा क्रम से परिक्रमा करावेऔर अग्नि के पश्चिम भाग में कुश पर आचार्य बैठें और शिष्य को अपनेदहिने भाग में बिठालावेऔर ब्रह्मचारी बैठ कर “अधीहि भोः०” —का जप

करे और दहिने जानु को भूमि पर टेक कर और दोनों हाथ इकट्ठा कर कुश लेकर “ओम्”कह कर व्याहृतियों के साथ सावित्री को कहे। इसीप्रकार काराडानुवचम क्रम से कहे। “तत्सवितुर्वरेण्यम्०”गायत्री कोब्राह्मण के लिये उपदेश देवे। “देवोयाति०” इत्यादि त्रिष्टुभ को क्षत्रिय केलिये “युंजतेमन०” जगती को वैश्य के लिये—इस क्रम से उपदेश करे किपहिले पढ़ २ आधी आधी ऋचा पुनः पूरी ऋचा और अन्तमें पूरी गायत्रीआदि का उपदेश करे। इसके पश्चात् ब्राह्मण के लिये पलाश का दण्डक्षत्रिय के लिये वटवृक्षका दण्ड और वैश्य के लिये पीपर वृक्षका दण्ड होनाचाहिये। “सुश्रवः०” इत्यादि मंत्रों को पढ़कर ब्रह्मचारीको दण्ड देवे देनेचाहिये। ब्राह्मणका दण्ड शिखाके केशों तक ऊंचा, क्षत्रिय का दण्ड मस्तकतक ऊंचा और वैश्यका दण्ड नासिका तक ऊंचा, होना चाहिये। “इमा आपः” इत्यादि मंत्र पढ़कर जल अपने शरीर पर छिड़के और भिक्षामांगे इसकाक्रम “ॐ भवति भिक्षां देहि०“ब्राह्मण बालक कहे और “ भिक्षां भवतिदेहि०” क्षत्रिय कहे और “भिक्षां देहि भवति०” वैश्य कहे। चार छःया आठ सधवा स्त्रियों से भिक्षा मांगे परन्तु ऐसी स्त्रियां हों जो भिक्षा मांगने पर देने से इनकार न करें। उन में से पहिले अपनी माता से भिक्षा मांगे ऐसा कोई २ आचार्य कहते हैं। भिक्षा लाकर गुरु को निवेदन करके ग्राम से पूर्व भाग में चुपचाप रहे, सन्ध्योपासन करे और प्रातः काल तीनवार सावित्री को पढ़कर “अध्वनाम०”इत्यादि मंत्र पढ़कर–तब अग्नि मेंसमिधा डाले। “ इमं० ” मंत्र से परिसमूहन करे और “एघोस्येधि०"मंत्र से अग्नि में समिधा डाले “ समिदसि० ”मंत्र पढ़ कर दूसरी समिधा डाले “आपो अद्यान्व० ”मंत्र से उपस्थान करे। “ मा संसृज०”मंत्र पढ़ कर अपने मुख पर हाथ फेर कर मार्जन करे। “ यदग्ने ”इत्यादि “स्वाहा”तक पढ़कर समिधा को डाले। और “ तेजसा०”इत्यादि मंत्र पढ़कर मुखका मार्जन करे। “आयुर्दा० ”इत्यादि मंत्र पढ़कर शरीर के सब अङ्गों कोस्पर्श करे। “इहधृतिः० ”इत्यादि इस के पर्यायवाची–अंस, ग्रीवा कोतीन वार स्पर्श करे और “ऋचं ”इत्यादि मंत्र से ललाट को स्पर्श करें।

आरम्भ और समाप्ति में जल छिड़के। गुरु और ब्राह्मण को दक्षिणा देवे। बारह रात्रि तक अक्षार लवण भोजन करे—कोई आचार्य अक्षारपदार्थखाने को कहते हैं। फिर तेरहवें दिन प्रातः काल या छःरात के पश्चात् गांवसे पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में जाकर पलाश या यज्ञियवृक्ष के पश्चिम भागमें सावित्री स्थाली पाक से यज्ञ कर जय प्रभृति मंत्रों से आज्यकी आहुतीकर और स्विष्टकृत की आहुती कर मेखला और दण्ड को जल में छोड़देवे और वहीं हवि का बचा अंश खाजावे—ऐसा श्रुति कहती है॥सू० १—७५॥यह पञ्चम खण्ड पूरा हुआ॥५॥

उपनयनप्रभृति व्रतचारी स्यात्॥१॥ उपनयनेव्रतादेशा व्याख्याताः॥२॥ मार्गवासाः॥३॥ संहतकेशः॥४॥भैक्षाचर्यवृत्तिः॥५॥ सशल्कदण्डः॥६॥सप्तमौञ्जीमेखलां धारयेत्॥७॥ आचार्यस्याप्रतिकूलःसर्वकारी॥८॥यदेनमुपेयात् तदस्मै दद्यात्॥९॥बहूनां येन संयुक्तः॥१०॥ नास्प शय्यामाविशेत्॥११॥न रथमारोहेत्॥१२॥न संविशेत्॥१३॥ न विहारार्थोजल्पेत्॥१४॥ न रुच्चर्थं कंचन धारयेत्॥१५॥ सर्वाणि सांस्पर्शकानि स्त्रीभ्यो वर्जयेत्॥१६॥ न स्नायाद्दण्डवत्॥१७॥ नोदकमभ्युपेयात्॥१८॥ न दिवास्वपेत्॥१९॥ त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्यं चरेत्॥२०॥ इन्द्रियसंयतः॥२१॥ सायं प्रातर्भैक्षाचर्यवृत्तिः॥२२॥सायं प्रातरग्निं परिचरेत्॥२३॥अधःशय्या॥२४॥आचार्याधीनवृत्तिः॥२५॥ तन्निसर्गादशनम्॥२६॥अयाचितमलवणम्॥२७॥ वाग्यतोऽश्नीयात्॥२८॥

मधुमांसे वर्जयेत्॥२९॥ आच्छिन्नवस्त्रां विवृतां स्त्रियन पश्येत्॥३०॥ चौपस्य वृक्षस्य दण्डी स्यात्॥३१॥ नानेन प्रहरेद्गवे न ब्राह्मणाय॥३२॥न नृत्यगीते गच्छेत्॥३३॥ न चैने कुर्यात्॥३४॥ नावलिखेत्॥३५॥ शिखाजटः सर्वजटो वा स्यात्॥३६॥ शाणं क्षौममजिनंवासः॥३७॥ रक्तं वसनम्॥३८॥ कम्बलमैणेयं ब्राह्मणस्य॥३९॥ रौरवं क्षत्रियस्य॥४०॥ आजं वैश्यस्य॥४१॥ एतेन धर्मेण द्वादशवर्षाण्येकवेदे ब्रह्मचर्यं चरेत्॥४२॥ चतुर्विंशति द्वयोः षट्त्रिंशस्त्रयाणाम्॥४३॥ अष्टचत्वारिंशत्सर्वेषाम्॥४४॥ यावद्ग्रहणं वा॥४५॥ मलज्ञुवेलः कृशः स्नात्वा स सर्वं लभेतयत्किंचिन्मनसेप्सितम्॥४६॥ इत्येतेन धर्मेण साध्वधीतो॥४७॥ मन्त्रब्राह्मणान्यधीत्य कल्पं मीमांसां च याज्ञिकोऽधीत्य वक्त्रं पदंस्मृतिं चैच्छिकः॥४८॥ तौ स्नातकौ श्रोत्रियोन्यो वेदपाठी॥४९॥ न तस्य स्नानं उपविश्याचमनं विधीयते॥५०॥ अन्तर्जानु बाहू कृत्वा त्रिराचामेत्॥५१॥ द्विः परिमृजेत्॥५२॥खानि चोपस्पृशेच्छीर्षण्यानि॥५३॥इति वाराहगृह्ये षष्ठःखण्डः॥६॥

यज्ञोपवीत संस्कार होने से लेकर आगे कहे नियमों का पालन करने वाले का नाम ब्रह्मचारी है। उपनयन के प्रकरण में नियमों के पालन के आदेशों का व्याख्यान हो चुका है। मृगचर्म का वस्त्र दुपट्टे के स्थान मेंओढ़े, सब बाल रक्खेयासब कटावे। भिक्षा मांग कर या आचार्य सेभोजन रूप जीविका करे। बक्कल सहित दण्ड धारणा करे। सात मुंजों की

मेखला कटिभाग में धारण करें। आचार्य की से सब कार्य करे।जो कुछ धनादि वस्तु ब्रह्मचारी को मिले उसको गुरु को देवे। यदि अनेक गुरु हों तो जिसके पास विशेष रहता हो उसी को धनादि देवे।गुरु के बिछावन या आसन पर उन के सामने या पीछे में न बैठे। सूत आदि के अच्छे२वस्त्र गुरु के समान न धारण करे।रथ, घोड़ा, हाथी आदि पर बहुतन चढ़े। काम भोग विषयक स्त्रियों की चर्चा या धन सुवर्णं आदि की चर्चान करे न सुने। चित्त को प्रसन्न करने के लिये या अपनी शोभा बढ़ाने केलिये इतर, चन्दन, पुष्प माला आदि कुछ न धारण करे।स्त्री का वर्णनकाव्य सुनना स्त्री के स्तनों को देखना, छूना, खुजलाना, उबटन करना आदि और गाना, बजाना आदि सब कामों को सर्वथा छोड़ देवे। यदि स्नान भी करे तो शरीर को मल २ कर न धोवे और उबटन नकरे किन्तु लकड़ी के समान जल पर तैरता रहे। नित्य कामना से स्नान नकरे, जलाशय में पैठ कर स्नान न करे।किन्तु जलाशय के समीप आचमनआदि करने के लिये जाया करे। दिन को सोया न करे। तीन वेदों के पढ़नेतक ब्रह्मचर्य से रहे। इन्द्रियों को दमन पूर्वक रहे। सायं और प्रातःकालभिक्षा वृत्ति से निर्वाह करे।सायं और प्रातः दोनों समय अग्निहोत्र करे।भूमि पर शयन करे। विना मांगे प्राप्त पदार्थ और लवण रहित मौन होकरभोजन करे। प्राचार्य की आज्ञामें रहे। गुरु की आज्ञा से भोजन करे।शहत और मांस न खावे। स्त्री के शरीर पर से बलात्कार कपड़े हटा करया नंगी स्त्री को न देखे। यज्ञिय वृक्ष का दण्ड ग्रहण करे और उसदण्ड से गौ को न मारे और न ब्राह्मण ही को। नाच और गाने को देखनेसुनने न जावे और न स्वयं नाचे या गावे \। भूमि पर न खाय, किसीपदार्थ से न लिखे। केवल शिखा मात्र रक्खे या सम्पूर्ण शिर में जटा रक्खे।शण, रेशम, मृगचर्म का वस्त्र व्यवहार करे। लाल रंग का वस्त्ररक्खे।ब्राह्मण ब्रह्मचारी मृगछाला का कम्बल रक्खे।रुरु मृग का चर्म क्षत्रियरक्खे।बकरे के ऊन का वस्त्र वैश्य रक्खे।इन नियमों से बारह वर्ष तकएक वेद के पढ़ने में वर्तता हुआ ब्रह्मचारी रहे॥चौबीस वर्ष तक दो वेदों

के और ३६ वर्ष तक तीन वेदों के ४८ वर्ष तक चारो वेदों के पढ़ने में ब्रह्मचारी रहे।या जितने समय तक वेदोंकोपढ़े उनने समय तक उक्त नियमानुसार रहे। ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता है और मलीन शरीर निर्बल पतलाकृश हुआ समावर्त्तन स्नान करता है वह जो २ मन से चाहता है उस सबको प्राप्त कर लेता है। इस उक्त नियमसे जो कुछ पढ़ता है वह पढ़नाठीक सुफल होता है। वेद के मन्त्रभाग और ब्राह्मण भागों को पढ़ करकल्पसूत्र और पूर्वमीमांसा को पढ़ कर व्याकरण को पदपाठ, धर्मशास्त्र कापढ़ना इच्छा पर निर्भर है। ब्रह्मचारी दो प्रकार के होते हैंएक नैष्ठिक दूसरावेद पढ़ने पर समावर्त्तन करने वालाइनमें से नैष्ठिक ब्रह्मचारीआजीवनब्रह्मचर्यत्रतकरने वाला होने से उसको समावर्त्तन स्नान न करना चाहिये।नैष्ठिक ब्रह्मचारी आचमन करे।दोनों जंघों के बीच दोनों हाथ रख केप्रतिदिन तीन वार आचमन करे और दो वार शरीर का मार्जन करे औरशिर में स्थित ज्ञानेन्द्रियों का स्पर्श किया करे॥सूत्र १-५३॥यह छठांखण्ड पूरा हुआ॥६॥

“वर्षासु श्रवणेन स्वाध्यायानुपाकरोति” हस्तेन वा॥१॥ प्रौष्ठपदीमित्येके॥२॥स जुहोति॥३॥ “अप्वानामासितस्यास्ते जोष्ट्रींगमेथम्॥४॥अहमिद्धिपितुःपरिमेधा अमृतस्यजग्रभ। अहंसूर्य इवाजनि स्वाहा॥५॥ सरस्वतीनामासि सरस्वान्नामासि युक्तिर्नामासि योगो नामासिमतिर्नामासि मनोनामासि॥६॥ तस्यास्ते जोष्टीं गमेयम्।तस्यते जोष्टुं गमेयम॥७॥ इति सर्वत्रानुषजति॥८॥युजेस्वाहा॥९॥ प्रयुजे स्वाहा॥१०॥ संयुजे स्वाहा॥११॥ उद्यजेस्वाहा॥१२॥ उद्यज्यमानाय स्वाहा” –इति जयप्रभृतिभिश्चाज्यस्य पुरस्तात् स्विष्टकृतोऽन्तेवासिनां योग

मिच्छन्नथ जपति॥१३॥ ऋतंवदिष्यामि सत्यंवदिष्यामिब्रह्म वदिष्यामि तन्मामवतुतद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु वक्तारं वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरायुर्मपि धेहि वेदस्य वाणीस्थ उपतिष्ठन्तु छन्दांस्युपाकुर्महेऽध्यायान् भुर्भुवः स्वरि”ति दुर्भपाणिः त्रिस्सावित्रीमधीत्यादितस्त्रीननुवाकान् तथाङ्गाना- मेकैकं “को वो युनक्ती” ति च॥१४॥

तस्यानध्यायाः॥१५॥ समूहनवातो वलीकक्षारप्रभृतिवर्षां विद्योतमानस्तनयित्नुरिति” श्रुतिः॥१६॥ आकालिकं देवतुमुलं विद्युद्धन्वोल्कात्यक्षराश्शब्दाः॥१७॥ आचारेणान्येऽर्धपञ्चमासानधीत्य॥१८॥ “पश्चार्धषष्ठान्वा” दक्षिणायनं वाधीत्य अथोत्सृजन्ति॥१९॥ एतेन धर्मेण “ऋतमवादिषं सत्यमवादिषम्॥२०॥ ब्रह्मवादिपषम्॥२१॥तन्मावीत् तद्वक्तारमावीत् आवीन्ममावीत्तद्वक्तारम्॥२२॥वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता॥२३॥ मनो मेवाचि प्रतिष्ठितमाविरायुर्मयि धेहि॥२४॥ वेदस्य वाणीस्थप्रतिश्वसन्तु छन्दांस्युत्सृजामहेऽध्यायान् भूर्भुवः स्वरि” स्यन्तमधीत्य ‘’को वो विमुश्चती”ति च पक्षिणीं रात्रिं नाघीयीतोभयतः पक्षान्वा नात ऊर्ध्वं अभ्रेषु॥ आकालिक विद्युत्स्तनयित्नुवर्षेषु। चाथोपनिषदर्हाः॥२५॥ ब्रह्मचारीसुचरितमेधावीकर्मकृद्धनदःप्रियो विद्यया वा विद्यामन्विच्छंस्तानि तीर्थानि ब्रह्मणो वेदस्य ब्रह्मचारि

त्वादयः ग्रहणे तीर्थान्युपायाः॥२६॥ इति वाराहगृह्येसप्तमः खण्डः॥७॥

वर्षाऋतु में श्रवण नक्षत्र के दिन स्वाध्याय ( वेदादि ) का उपाकरण( विद्यारम्भ ) नामक कर्म करे।या भाद्रमास के किसी तिथि के पूर्वाग्रहमें हस्तनक्षत्र युक्त हो उसी दिन उपाकरण करे–ऐसा किन्हीं आचर्योंका मत है।वह वेदाध्ययन या ब्रह्मयज्ञ का करने वाला अपना नामासि’इत्यादि मंत्रों से आठ आहुति होम आधार और आज्यों केपश्चात् करे। और सरस्वती इत्यादि छः खण्डों में जो २ स्त्रीलिङ्ग हैं ’उनके साथ “तस्यास्ते” जोड़े और “सरस्वान्नामा”आदि पुं नपुंसकलिङ्गोंमें “तस्यतेजो ” इत्यादि जोड़े और सब के अन्त में स्वाहा लगावे॥इसके पश्चात् विद्यार्थियों या दूसरे एक साथ पढ़ने वालों को चाहता हुआस्नातक “युजे स्वाहा”इत्यादि तीन मंत्रों से होम करे।इसके पश्चात् “स्विष्टकृत्”आहुति से पहिले “ऋतं वहिष्यामिं”इत्यादि मंत्रों का जपकरे। फिर दहिने हाथ में कुश लेकर तीन वार गायत्री सावित्री मंत्र पढ़े।और “इषेत्वां”इत्यादि तीन अनुवाक पढ़े। इसके अनन्तर “को वोयुं ”इत्यादि मंत्र पढ़े।अब वेदादि पढ़ने में अनध्यायों को कहेंगे।वेदादिकोंके पढ़ने में कहे जाने वाले अवसरों पर अनध्यायहोंगे आंधीनेपर, छज्जा से पानी वर्षने पर ( इतना वर्षा कम से कम हो जिसमेंछज्जा के छोर से श्रौलाही टपकने लगे ) बिजुली चमकने और बादलगरजने पर भी जब तक चमके या गर्जे तब तक वेद न पढ़े।ज्योतिषशास्त्रमें लिखे अनुसार ग्रहों के जब युद्ध हो तब तक दिन रात वेद न पढ़े।बिजुली, इन्द्रधनुष और बड़े २ उल्का, तारे टूटने पर, शृगाल आदि केकुसमय रोने पर, सामवेद की ध्वनि होने पर अन्य वेदन पढ़े। इनसेभिन्न लोकाचार से समझना।साढ़े चार या साढ़े पांच या छः मास यादक्षिणायन काल तक पढ़ कर तब पढ़ना बन्द रक्खे इसको वेदाध्यायोत्सर्ग कर्म कहते हैं। इस उत्सर्ग कर्म में “ऋतमवादि०”इत्यादि मंत्र का जप

करे। वेदान्त उपनिषद् पढ़ाने योग्य अधिकारी निम्न लिखित सात होते हैं। ब्रह्मचारी सदाचारी बुद्धिमान् आचार्य को प्रिय, धन देनेवाला, विद्या देनेवाला, वेदादि पढ़ाने में निपुण, विद्या के बदले विद्या देनेवाला, ये सब वेदके ज्ञान प्राप्ति में उपाय हैं।सू० १—२६ यह सातवां खण्ड पूरा हुआ॥७॥·

** अथ चातुर्होत्रिकी दीक्षा सम्वत्सरम्॥१॥ आघारावाघार्याज्यभागौ हुत्वा चतुर्होतॄन् स्वकर्मणो जुहुयात्॥२॥ सहपञ्चहोत्रा षड्होत्रा सप्तहोतारमन्ततो हुत्वा व्रतं प्रदायादितो द्वावनुवाकावनुवाचयेत्॥३॥अथाग्निव्रताश्वमेघिकी दीक्षा संवत्सरम्॥ द्वादशरात्रं वा॥४॥ आकूतमग्निमि”ति षड्दुत्वा॥५॥ व्रतं प्रदायादितोऽष्टावनुवाकाननुवाचयेत्॥६॥ त्रिषवणमुदकमाहरेत्॥७॥ त्रीस्त्रीन् कुम्भांस्त्रींश्च समित्फलान् भस्मनि शयीत॥८॥ करीषे सिकतासु भूमौ वा॥ नोदकमभ्युपेयात्॥६॥संवत्सरे समाप्ते॥१०॥ घृतवतापूपेनाग्निमिष्ठा वात्सप्रंवाचयेत्॥११॥ स्मार्तेन यावदध्ययनम्॥१२॥ काण्डव्रतावशेषो होमार्थश्च आद्यन्तयोर्जुहुयात्॥१३॥अथैनंपरिदत्ते “अग्नये त्वा परिददामि॥१४॥वायवे त्वापरिददामि॥१५॥ सूर्याय त्वा परिददामि॥१६॥प्रजापतये त्वा परिदद्दामी”ति॥१७॥ एतेनैवाश्वमेधोव्याख्यातः॥१८॥ नवमेनानुवाकेन हुत्वा दशमेनोपतिष्ठेत॥१९॥ अश्वाय घासमुदकस्थानं उदकं चाभ्युपेयात्॥२०॥ एताभ्यामेव मन्त्राभ्यां त्रैविद्यकं व्रतमुपेयात्**

॥२१॥ रहस्यमध्येष्यतः प्रवर्ग्यः॥२२॥ तस्य व्रतोपायनं समिन्प्रन्त्रश्च॥२३॥ तिष्ठेदहनि रात्रावासीतवाग्यतः॥२४॥ पर्वसु चैवं स्यात्॥२५॥सर्वजटश्चस्यात्॥२६॥ संवत्सराद्वरः प्रवर्ग्योभवति॥२७॥इति वाराहगृह्ये अष्टमः खण्डः॥८॥

चातुहौत्रिकी दीक्षा–यह कर्म का नाम है। इस चातुर्हौत्रिकी दीक्षा को ब्रह्मचारी एक वर्ष तक करे। आधरकी दो आहुतिदेकर आज्य भाग कीदो आहुति करे और वाचस्पति आदि देवों की संज्ञा चतुर्होता आदि संज्ञा हैं। ब्रह्मचारी अपना कर्म करता हुआ वाचस्पति आदि चार होताओं के लिये दीक्षा के दिनों में आहुति दिया करे और वाक् आदि छः होताओं के साथसप्त होतृक होम करे। अन्त में ब्राह्मणादि दीक्षित को दूध आदि भोजन केलिये नियत वस्तु देकर वेद के आरम्भ के दो अनुवाकों का अनुवाचनकरावे। अब अग्नि की दीक्षा जो एक वर्ष की होती है उसको कहते हैं या १२ दिन की होती है। “प्राकृतमग्निं०”इत्यादि मंत्र से छः आहुति करे।अग्निकाण्ड के आदि से आठ अनुवाकों का अनुवाचन करावे। ब्रह्मचारी ऐसा नित्य २ वर्ष भर या बारहों दिन करे और कुछ विशेष नियम ये हैं। कि सायं प्रातः और मध्याह्न में तीनों सयम तीन २ घड़ा भर २ जलाशय से जल लाया करे और तीन २ समिधा और तीन २ फल भीं लाया करे। जिस जमीन पर कुछ पलाल आदि भी न विछा हो ऐसी शून्य भूमि पर या भस्म बिछी हो या कपडोंका चूरा बिछा हो या बालू बिछाया हो उस पर एक वस्त्र केवल लंगोटी या धोती पहन कर सोया करे। दीक्षा के दिनों में जल में घुस कर स्नान न करे और अन्य प्रकार से भी स्नान न करे। वर्ष भर या १२ दिन के व्रत समाप्त होने पर मालपूआद्वारा प्रधान देवता अग्निके लिये होम करके “वत्स्त्री०” देवता वाले अनुवाक् का जप करे। और जब तक अध्ययन करे स्मार्त्त विधि से वर्त्ते। काराड़ व्रत विशेष और

होम के लिये विधि यह है प्रत और होम की आदि और अन्त में आहुतियां देवे।अव आचार्य ब्रह्मचारी को संकेन कर अनि आदि देवों को समर्पण करते हैं। ‘अग्नये०” इत्यादि मंत्रों से समर्पण करे। इसी प्रकार अश्वमेध का भी व्याख्यान हुआ जानो।बेंत नामक वृक्ष की समिधाओं से अग्निको प्रज्वलित करके नवम अनुवाक्से होम और छठे अनुवाक्से देवता का उपस्थान करे।उसके पश्चात् भोजन के लिये नियत यवागू दीक्षित को यथा योग्य देकर आदि से २१ अनुवकों का अनुवाचन करे।सायं प्रातःऔर मध्याह्न तीनों काल में तीन २ पूजा घास घोड़े के लिये लावे। यह अश्वमेधिकीदीक्षा केवलक्षत्रिय ब्रह्मचारी के लिये है। इस लिये इस दीक्षा से क्षत्रिय ब्रह्मचारी अच्छे प्रकार देव बुद्धि से घोड़े की सेवा भीअपने नियम पालने के समान ही किया करे।घोड़े की सेवार्थ जल के किनारे जावे और जल में न घुस कर बाहर ही से जललेकर घोड़े की सेवा करे।इन्हीं दो मंत्रों से त्रैविधक व्रत को करे।रहस्य नाम वेद के उप निषद्ध भाग को पढ़ना चाहता हो तो वाराह श्रौतसूत्र में लिखे अनुसार ब्रह्मचारी प्रवर्ग्य संभरण कर्म के प्रतिपादक मन्त्र ब्राह्मण को पहिले पढ़े। उसके व्रतोपायन, समिधाआदि के मन्त्र को भी वहीं से पढ़े। दिन में खड़ा रहकर व्यतीत कर और रात्रि में मौत हो बैठ कर और पर्व के दिनों ( १४,८, १५, ३० तिथियोंतथा सूर्य को संकान्ति) में भी ऐसा ही व्रती होकर रहे। सम्पूर्ण शिर में केश रक्खे तो एक वर्ष के पीछे श्रेष्ठ प्रवर्ग्य हो जाता है॥सू० १-२७॥यह अष्टम खण्ड पूरा हुआ॥८॥

षोडशवर्षस्य गोदानम्॥१॥ अग्निं वाऽध्येष्यमाणस्य अग्निगोदानिको मैत्रायणीयजटाकरणेनोक्तमन्त्रविधिः॥२॥ उपस्थ उपकक्षयोश्चाधिको मन्त्रप्रयोगः॥३॥ यत्क्षुरेण मर्चयते”ति भूमौ केशान्निखनेत्॥४॥ अन्ते गां दद्यात्॥५॥ द्वे द्वे गुरुणाऽनुज्ञातः स्नायात्॥६॥ छन्दस्यर्थान् बुध्वा स्नास्यन् गां कारयेत्॥७॥ आचार्य

मर्हयेत्॥८॥ “आपो हिष्ठे”ति तिसृभिः “हिरण्यवर्णाः शुचय”इति चतसृभिः स्नात्वा अहतेवाससी परिददाति॥९॥वस्व्यसिवसुमन्तं मा कुरु॥१०॥ सौवर्चसाय मा तेजसे ब्रह्मवर्चसाय परिददामी"ति,“विश्वजनस्य छायासी”ति छत्रं धारयते॥११॥मालामाबघ्नीते“यामश्विनौधारयेतां बृहस्पतिः पुष्करस्रजम्॥१२॥तां विश्वेदेवैरनुमतां मालामारोपयामी”ति॥१३॥ “तेजोसीति हिरण्यं बिभृयात्॥१४॥ प्रतिष्ठे स्थो देवते द्यावापृथिवी मा मा संताप्तमि” त्युपानहौ॥१५॥ “विष्टम्भोसी”ति धारयेद्वैणवीं यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम्॥१६॥ नित्यव्रतान्याहुराचार्याः “द्विवस्त्रोत ऊर्ध्वं शोभनं वासो भर्तव्यमि"ति श्रुतिः॥१७॥ श्रमन्त्र्य गुरुन् गुरुवधूश्च स्वान् गृहान् व्रजेत्॥१८॥ प्रतिषिद्धमपरया द्वारा निस्सरणं मलवद्राससा सह संभाषा रजस्वदाससा सह शय्यागोगुर्वोर्दुरुक्तवचनमस्थाने शयनं स्मयनं स्थानं यानं गानं स्मरणमिति तानि वर्जयेत्॥१९॥ याजनं वृत्तिरुञ्छशिलमयाचितप्रतिग्रहः साधुभ्यो वा याचितमनायासेन सिध्यमानायां वा वैश्यवृत्ति॥२०॥ स्वाध्यायविरोधिनोऽर्थान्विसृजेत्॥२१॥ इति वाराहगृह्ये नवमः खण्डः॥९॥

जन्म से सोलहवें वर्ष गोदान नाम के शान्त संस्कार करे।या वेदाध्ययन करता हुआ जब आवसथ्यादिका स्थापन विधि पूर्वक करै तब पहिले या पीछे केशान्त संस्कार करे। क्योंकि श्रुति में लिखा है कि महर्षि मैत्रायणीने अग्निस्थापन के समय गोदान संस्कार किया था। उपस्थ ( जननेन्द्रिय ) और दोनों उपकक्षों ( बगल ) के मन्त्र प्रयोग अधिक हैं। “यत् चुरेण”इत्यादि मंत्र पढ़ कर केशों को काट कर भूमि में गाड़ देवे। और अन्त मे आचार्यको दो २ गौयें देवे और गुरु की आज्ञा से समावर्तन स्नान करे। वेदों के अर्थ को भलीभांति समझ कर-तब समावर्त्तन का स्नान करता हुआ गौद्वारा आचार्य की पूजा करे। “आपो हिष्ठा०”इत्यादि तीन और “हिरण्यवर्णाः०”इत्यादि चार ऋचाओं से स्नान करने पर चीरेदार नये २ वस्त्र स्नातक को देते समय “वस्व्यसि”इत्यादि मंत्र पढ़े। और “विश्वजनस्य०”मन्त्र से छाता धारण करे “या मश्विनौ ”मन्त्र पढ़ कर माला धारण करे। “तेजोसि०”मन्त्र से सुवर्ण धारण करे “ प्रतिष्ठे स्थो देवते०”इत्यादि मंत्र से जूते पहने “विष्टम्भोसि०”इत्यादि मन्त्र से बांसकी लाठी और जल सहित कमण्डलु को धारण करे॥स्नातक का नित्य जिन नियमों का पालन करना चाहिये उनको कहते हैंः —दो वस्त्र( एक पहनने और दूसरा ओढने यादुपट्टा) सुन्दर वस्त्र धारण करना चाहिये ऐसा श्रुतिकहती है। यदि पिता से भिन्न गुरु के पास वेद पढ़ने के लिये गुरुकुल में गया हो तो गुरु और गुरु पत्नी से आज्ञालेकर अपनेघर को जावे।अब स्नातक के गृहस्थ के लिये कुछ नियमों को कहते हैं। घर के मुख्य द्वार को छोड़ कर किसी खिड़की आदिसे न निकला करे। मलिन कपड़े वालों को स्पर्श न करे। रजस्वला स्त्री के साथ न सोवे। माता पितादि गुरु जनों के विषय में सामने या पीछे में कटु वाक्य न कहे और न सुने। शयन स्थान से अन्यत्र न सोवे। विना प्रयोजन न हंसे न डोले, निष्प्रयोजन कहीं न ठहरे। गाना, बजाना, नाचना, न करे और न अन्यों के गानादि सुनने देखने को जावे॥यज्ञ कराना, उञ्छशिल (खेत में के गिरे अन्न को चुन चुन कर लेना) और विना मांगे धन स्वीकार करना। या अच्छे लोगों से सुगमता से मांगना भी, या आसानी से सिद्ध होने वाली वैश्य वृत्ति कर जीविका करनी। और स्वाध्याय के विरुद्ध का त्याग करना॥सू० १-२१॥यह नवम खण्ड पूरा हुआ है।

विनीतक्रोधस्सहर्षः महिषींभार्यां विन्देता” नन्यपूर्वां यवीयसीम्॥१॥ असमानप्रवरैर्विवाह॥ऊर्ध्वं सप्तमात्पितृबन्धुभ्यः पञ्चमान्मातृवन्धुभ्यो बीजिनश्च॥२॥ कृत्तिकास्वातिपूर्वैरिति वरयेत्॥३॥ मृगशिरश्श्रविष्ठोत्तराणीत्युपयमेत्॥४॥ पञ्च विवाहकारकाणि भवन्तिवित्तं रूपं विद्या प्रज्ञा बान्धवमिति॥५॥एकालाभे वित्तं विसृजेत्॥६॥ द्वितीयालाभे रूपं तृतीयालाभेविद्यां प्रज्ञायां तु बान्धवा विवदन्ते॥७॥ अनृक्षरा ऋजवःसन्तु पन्थायेभिस्सखायो यन्ति नोवरेयम्॥८॥समर्यमा सं भगो नो मिनीयात् सञ्जास्पत्यं सुयममस्तु देवाः इति वरकान्व्रजतोऽनुमन्त्रयते बन्धुमतीं कन्यामस्पृष्टमैथुनामुपयच्छेतानग्निकाम्॥ श्रेष्ठंविज्ञानमस्यै कुर्यात्॥९॥चतुरो लोष्टानाहरेत्॥१०॥ सीतालोष्टं वेदिलोष्टं गोमयलोष्टं स्मशानलोष्टं च एतेषामेकं गृह्णीष्वेतिब्रूयात्॥११॥स्मशानलोष्टं चेद्गृहणीधात् नोपयच्छेत्॥१२॥ असंसृष्टामधर्मेणोपयच्छेत्॥१३॥ ब्राह्मेण शौल्केन वा॥ शतमिति रथंदद्याद्गोमिथुनं वा उभये॥१४॥ तेजनीष्वासजत्॥१५॥ जन्यान् कौमारिकांश्च॥१६॥ पूर्वे जन्यास्स्युः अपरे कौमारिकाः चतुरो गोमयपिण्डान्कृत्वा द्वावन्येभ्यस्तथान्येभ्य इति प्रयच्छेत्॥१७॥ धनं न इति ब्रूयुः पुत्रपशवो न इति॥१८॥ जन्यं ददामीति॥१९॥ प्रतिगृह्णामीति प्रतिगृह्य त्रिर्ब्रह्मयानि कृतेनासं

**न विसङ्कसेयुः॥२०॥ त्रिरानन्दं मागधो ह्वयेत्॥२१॥ इति वाराहगृह्ये दशमः खण्डः॥१०॥ **

विनीत क्रोध ( जिसने क्रोध को वश में कर लिया है ) हर्ष युक्त पुरुष युवती स्त्री से विवाह करे जो अपनी ही वर्ण की हो और किसी से व्याही न गयी हो॥और जो एक गोत्र और प्रवर की न हा॥पिता और पिता के भाइयों की सातपीढ़ी और माता के भाइयों की पांच पीढ़ी के भीतर की न हो॥कृतिका, स्वाति और पूर्वाफल्गुनी आदि तीनों पूर्वा नक्षत्रों में विवाह के लिये वर को पसन्द करे।और रोहिणी, मृगशिर, श्रवण, धनिष्ठा, और तीनों उत्तरा ये नक्षत्र वाग्दान और विवाह के लिये अच्छेहैं॥कन्या का पिता आदि वर की पांच दशा देखे १ धन २ रूप, ३ विद्या ४ बुद्धि और ५ कुटुम्ब॥रूप से काणा, अन् आदि का निषेध और वान्धव के साथ कुलीनता भी आजाती है।यदि उक्त पांचों गुण वर में नमिलते हों तो, धन को छोड़ देवे क्योंकि धन अनित्य है।विद्या बुद्धि वाले के पास धन हो जाना सुलभ है। दो गुण न मिलते हों तो रूप को भी छोड़ देवे क्योंकि विद्या कुरुपोंका भी रूप है।तीसरा न मिले तो विद्या को भी छोड़ दे क्योंकि बुद्धिमान होगा तो पीछे भी पढ़ सकता है।जो न भी पढ़ सके तो भी बुद्धिमान निर्बुद्धि पठितसे अच्छा है और बुद्धि और कुटुम्ब इन दोनों में कुटुम्ब न होने पर भी बुद्धिमान वर का विवाह कर देवे॥“अनृतरा०”इत्यादि मन्त्रों से वर खोजने के लिये जाने वाले वरकों को अनुमन्त्रण करे। जिसके साथ किसी पुरुष का संयोग न हुआ हो, भाई जिसके विद्यमान हो जो अपने वर्ण की हो, जिसके प्रवर ऋषि से भिन्न हों, जो ठीक युवति अच्छी हो जिसकी छाती के स्तन न उगे हों, न ऋतुमती हुई हो जिसका रूप, लावण्य, वर्ण, अच्छा गोरा हो ऐसी कन्या से विवाह करें।विधवा या वन्ध्यादि गुप्त या अदृष्ट दीपों की परीक्षा के लिये –जुताहुआ खेत होम की वेदी, गौशाला, मरघटकी मट्टी–में से एक ढेला लेकर कन्या से उठवावे–यदि मरघट की मट्टी

उठावे तो उसके साथ विवाह न करे।ब्राह्म या आर्ष विवाह की रीति से उसके साथ विवाह करे।एक बैल एक गौ या दो बैल दो गौ या उनका मूल्य कन्या के पिता को देकर विवाह करना आर्ष कहलाता है।या सौभरी सोना रथ या दो गौ, दो बैल या सोने आदि के भूषण भोजन के वस्तु अन्नादि वस्त्र देकर विवाह करे। ये सब पक्षान्तर में विकल्प हैं। अग्नि से पश्चिम में चार आसन बिछावे।उना आसनों पर निम्न रीति से बैठे–अग्निसे पूर्व में पश्चिमाभिमुख कन्या दाता बैठे। अग्नि से पश्चिम में पूर्वाभिमुख वर बैठे और दाता से उत्तर में पश्चिम को मुख कर कन्या बैठे और से दक्षिण में उत्तर को मुखकर मन्त्र पढ़ने वाला पुरोहित या आचार्यबैठें। उन सबके बीच पूर्वाग्र कुश बिछाकर अक्षतों सहित जल से कांसे का पात्र भरके सोहागिन स्त्री दाता के हाथ में देवे।उस पात्र में सोना डाले। और कन्या का पिता, भाई या नाना जो संरक्षक हो, वह जिस वर से मूल्य न लिया हो ऐसी ब्रह्मदेया कन्या को तीन वार “प्रतिगृह्णामि ” कहकर कन्या को स्वीकार करे।यदि वरसे कुछ धनादि लेकर कन्या के पिता ने विवाह किया हो तो वर सुवर्णादि धन अञ्जलि में ले और कन्या का पिता आदि कन्या का हाथ पकड़ कर कहे कि “धनायत्वा ददामि” और वर अपने हाथों में लिया सुवर्णादि कन्या के पिता को देता हुआ कन्या का हाथ पकड़े और कहे कि “पुत्रेभ्यत्वा प्रतिगृह्णामि”इस प्रकार धन और कन्या का दोनों लौट फेर कर लेवें। चार वार देन लेन की लौट फेर दोनों करें। ऐसे सम्बन्ध को मगधदेशवासी त्रिरानन्द कहते हैं।सू० १—२१॥यह दशम खण्ड पूरा हुआ॥१०॥

** अथ प्रवदने कन्यामुपवसितां स्नातां सुशिरस्कामहताऽनाच्छिन्नदशेन वाससा संवीतां संस्तीर्णस्य पुरस्ताद्विहितानि वादित्राणि विधिवदुपकल्प्य पुरस्तात्स्विष्टकृतः वाचे पथ्यायै पूष्णे पृथिव्यै अग्नये सेनायै धेनायै गायत्र्यै**

त्रिष्टुभे जगत्यै अनुष्टुभे पङ्क्त्यै बिराजे राकायै सिनीवाल्यै कुह्वे,त्वष्ट्रेआशायै सम्पत्त्यै भूत्यै निर्ऋत्यै अनुमत्यै पर्जन्याय अग्नये स्विष्टकृते च जुहुयात्॥१॥ आज्यशेषेण पाणी प्रलिप्यकन्यामुखं संमाष्टि– “प्रियां करो” मि पतये देवराणां श्वशुराय च॥२॥रुच्यैत्वाग्निस्संसृजतु रुचिष्या पतये भव॥३॥ सौभाग्येन त्वा संसृज विला देवी घृतपदीन्द्राण्यग्नायी अश्विनो राड्वागिला द्यौररुन्धती” ति॥४॥ अथ सर्वाणि वादित्राण्यभिमन्त्रयते॥५॥ या चतुर्धा प्रवदत्यग्नौ या वाते या बृहत्युत॥६॥ पशूनां या ब्राह्मणे न्यदधुः शिवा सा प्रवदत्वि“हेति सर्वाणि वा बादित्रायलङ्कृत्य कन्या प्रवादयते॥७॥शुभं वद दुन्दुभे सुप्रजास्स्वाय गोमुख॥८॥प्रक्रीडन्तु कन्यास्सुमनस्यमानास्सहेन्द्राधा सवयसः सनीडाः॥९॥ प्रजापतियों वसति प्रजासु प्रजास्तन्वते सुमनस्यमानाः॥१०॥ स इमां प्रजां रमयतु प्रजात्यै स्वयं च नोरमतां संदधातन॥ इति प्रवदन्ति कालिकानि॥११॥ कन्यामुदकेनाभिषिञ्चेत्॥१२॥ इति वाराहगृह्ये एकादशः खण्डः॥११॥

अब विवाह में बाजे का कर्म कहते हैं। इस कर्म के लिये कन्या कोउपवास रखकर स्नान करा ( शिरसे ) चीरे दार नये वस्त्र पहिनाकर यज्ञार्थअग्नि के पास बिछाये हुए कुशों के पहिले शास्त्र से विहित बाजे गाजे का आयोजन कर स्विष्टकृत आहुति करने के पहिले “वाचे” आदि मंत्रों को पढ़कर आहुतियां करे। और आज्यशेष से दोनों हाथों को लीप कर कन्या

के मुखको “प्रिया’ इत्यादि मंत्रों को पढ़कर सम्मार्जन करे।और “यावतुर्धा”०इत्यादि मंत्रों को पढ़कर तब बाजे को प्रतिमन्त्रित करे।या सबवाजों को० अलङ्कन करें “शुभं वद”०इत्यादि मंत्रों को पढ़कर कन्या स्वयं बजावे।तब बाजा बजाने वाले अपने २ बाजे को बजावें। और कन्या को जल से सींचे॥सू० १-१२॥ग्यारहवां खण्ड पूरा हुआ॥११॥

षडर्ध्यार्हाभवन्ति—ऋत्विगाचार्यो विवाह्यो राजा स्नातकः प्रियश्चेति॥१॥ अप्राकरणिकोनापरिसंवत्सरा दर्हयन्ति॥२॥ अन्यत्रयाज्यात्कर्मणो विवाहाच्च॥ नजीवत्पितृकोर्ध्यं प्रतिगृह्णीयात्॥३॥कांस्ये चमसे वा सदध्नि मध्वासिच्यवर्षीयसा पिधायाचमनीयप्रथमैःप्रतिपद्यन्ते॥४॥ विराजो दोहोसि विराजो दोहमशीय मयि दोहः पद्यायै विराजः कल्पयता”मिति॥५॥ एकैकमाह्रियमाणं प्रतीक्षते॥६॥ सावित्रेणविष्टरं प्रतिगृह्य अहं वर्ष्मसदृशानामुद्यतामिव सूर्यः॥७॥ इदमहं तमधरं करोमि यो मा कस्यचिदासती”त्येकस्मिन्नुपविशति॥८॥राष्ट्रभृदसीत्याचार्य आसन्दोमनुमन्त्रयते॥ मात्वा जोषमि” त्यन्यतरमधस्तात्पादयोर्विष्टरमुपकर्षति॥९॥ विष्टरमासीनायैकं त्रिः प्राह॥१०॥ नैव भो “इत्याह॥११॥ नम आर्षेयाय” इति श्रुतिः॥१२॥ स्पृशत्यर्ध्यं पाद्येन पादौ प्रक्षाल्य सावित्रेणोभयतोविष्टरं मधुपर्कं प्रतिगृह्य “अदित्यास्त्वा पृष्ठे सादयामी”ति प्रतिष्ठाप्यावसाद्य “सुपर्णस्यत्वा गरुत्मतश्चक्षुषाऽवेक्षे“इत्यवेक्ष्ये” “नमो रुद्राय पात्रसदे” –इति प्रादे

शेन प्रतिदिशं व्युद्दिश्याङ्गुष्ठेनोपमध्यमया च “मधु वाता ऋतायत” इति तिसृभिस्संसृजति॥१३॥अमृतोपस्तरणमसि”इस्युपस्तरति “सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीश्श्रयतामि”ति मधुपर्कं त्रिः प्राश्नाति भूयिष्ठम्॥१४॥सुहृदेऽवशिष्टं प्रयच्छति॥१५॥ “अमृतापिधानमसीत्या ” चामति॥१६॥ असिपाणिर्गाप्राह “हतो मे पाप्मा पाप्मानं मे हत॥१७॥यां त्वा देवा वसवोऽन्वजीविषुरादित्यानां स्वसारं रुद्रमातरम्॥१८॥ देवीं गामदितिं जनानामारभन्तामर्हतामर्हणाय॥१९॥ ॐ कुरुते”ति संप्रेष्यति॥२०॥ चतुरवरान्ब्राह्मणान् नानागोत्रानित्येकैकं पश्वङ्गं पायसं वा भोजयेत्॥२१॥ यद्युत्सृजेत्–“माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानामृतस्य नाभिः॥२२॥प्रनुवोचं चिकितुषे जनाय मागामनागामदितिं वधिष्ठ॥२३॥ ॐ भूर्भुवस्स्वरों”–इत्युत्सृजतु तृणान्यत्तूदकं पिवतु॥२४॥ अथालङ्करणम्॥२५॥ “अलङ्करणमसि स स्मादलं मे भूयासम्॥२६॥ प्राणापानौ मे तर्पयामि समानव्यानौ मे तर्पयामि उदानरूपे मे तर्पयामि सुचक्षुरहमक्षिभ्यां भूयासं सुवर्चा मुखेन सुश्रुत्कर्णाभ्यां भूयासमि” तियथालिङ्गमङ्गानि संस्पृशति अथ गन्धाच्छादने वाससी परिधास्ये “यशो धास्ये दीर्घायुत्वाय जरष्टिरस्तु शतं जीवेम शरदः पुरूची रायस्पोषमंभिसंव्ययिष्ये” इत्यहतं वासः परिधत्ते यदि पशु

मालभते—शं नो मित्र इति पाणोप्रक्षाल्य यथार्थमालभनमित्येके॥२७॥ इति वाराहगृह्ये द्वादशः खण्डः॥१२॥

ऋत्विज् ( पुरोहित ) १ उपनयन कराके वेद पढ़ाने वाला आचार्य २ जामाता ( व‍र) ३ राजा ( मूर्द्धाभिषिक्त ) ४ स्नातक ( ब्रह्मचर्य समाप्त करने वाला ) ५ और श्वशुर आदि प्रिय व्यक्ति ६। ये छ पुरुष मधुपर्कादि के विधान से पूजने योग्यहोते हैं। विवाह और अग्निष्टोमादि यज्ञों के समय तो मधुपर्क से पूजने का प्रकरण है, वहां तो वर आदि का मधुपर्क विधि से पूजन होना ही इष्ट है।परन्तु विना प्रकरण के दैवात् पुरोहितादि आ जावें तो एक वर्ष में एक हीवार मधुपर्क सेउनकापूजनकरे।अर्थातएकवर्षमेंउनकादोवारापूजन नकरे।यज्ञ कर्म में वरणकियेऋत्विज औरसदस्यलोगभीप्राकरणिकहोते हैं,उससमयउनकेवरण सेपहिलेमधुपर्क से उनका पूजन होना उचित है। जिसका पिता जीवित हो वह मधुपर्क से पूजा में विकल्पित है अर्थात् उसकी पूजा करे या न करे ऐसा श्रुति में लिखा है। उक्त छः ऋत्विज आदि का पूजन निम्न लिखित रीति से करे। कांसे के कटोरे में या प्रणिता के समान चमसपात्र में मधुपर्क और दही मिला के एक बड़े पात्र से ढांप कर आचमनीयजल आदि सहित पूजा के पास पुजक आवे।आचमनादि के लिये लाये एक२ जलादिवस्तुको पूज्य ऋत्विज आदि पुरुष “विराजो दोहोऽसि” इत्यादि मंत्र पढ़ता हुआ देवे।फिर “देवस्यत्वा”इस सविता देवता वाले मंत्र पढ़ के विष्टर को हाथ में लेके “अहं वर्ष्म”मंत्रकोजपे। आचार्यादि पूज्य बैठने को लाये कुर्सी चौकी या सिंहासनादिको देखता हुआ “राष्ट्रभृदसि०

”मन्त्र पढ़े। “मात्वा जोष”इत्यादि मंत्रपढ़ के पूज्य आचार्य आदिदिनों पगों के नीचे विष्टर को दबावे। “आचमनीयम्”“विष्टरः”इन दोनों को हुआ पूजक एक २ वार बोले परन्तु “अर्ध्य पाद्यादि ” देता हुआ “पाद्यं पाद्यं पाद्यम्”इत्यादि प्रकार तीन २ वार कहे।फिर पूज्य “नैव भोः” कहे कि मैं पूजा के योग्य नहीं किन्तु “ नम आर्षेधाय ” मैं ऋषियों को नमस्कार

करता हूँ क्योंकि यहां भी वे ही पूज्य हैं, ऐसा श्रुति में कहा है फिर “अर्घ्य” छुकर ग्रहण करे॥पाक जल से पहिले दहिना फिर वाम पग धोकर “देवस्य त्वा०”

इस सविता देवता वाले मन्त्र से दाता के तीन वार कहने परमधुपर्क को दहिने हाथ में लेकर वाम हाथ में रख के दहिने हाथ की तर्जनी अंगुष्ठ से थोड़ा२ ऊपर को ईशान कोणसे लेकर प्रत्येक दिशा में प्रदक्षिण क्रम से “नमो रुद्राय०"

मंत्र को प्रत्येक दिशा के साथ वार २ पढ़ता हुआ मधुपर्क के छींटा देवे।फिर“मधुवाता ऋतायते०"

इत्यादि तीन ऋचा पढ़ के दहिने हाथ की अनामिका अङ्गुली से मधुपर्क को मिलावे॥फिर “अमृतोप”मंत्र पढके उपस्ताररूप०आचमनपहिले करे॥फिर “ सत्यं यशः”मंत्र को पढ़के तीन वार थोड़ा २ लेकर मधुपर्क को चाटे। एक वार मंत्र पढ़के दो वार चुप चाप। इसके पश्चात् “अमृतापि”मंत्र पढके ऊपर से अभिचोर रूप आचमन करे’। फिर शेष बचे मधुपर्क को अपने किसी प्रिय मित्र को पात्र सहित दे देवे। फिर तलवार हाथ में लेकर “ गौ र्गौ गौः”ऐसा दाता पूजक कहे॥अगर संज्ञपन चाहता हो तो पूज्य आचार्यादि “हतो में पाप्मा०

”इत्यादि प्रैषवाक्य यजमान से कहे। [ मधुपर्क में पशु संज्ञपन सदा से ही विकल्पित है। सत्य युगादि में भी नियत नहीं है पर कलियुग में “लोक विक्रुष्ठ मे वच०

”इत्यादि मनु आदि के वचन अनुसार सर्वथा ही वर्जित है। किसी प्रकार कर्त्तव्य नहीं। ] फिर भिन्न २ गोत्र वाले चार ब्राह्मणों को भोजन करावे “या पशु का अङ्गरूप पायस नाम खीर मधुपर्क पूजन में करा लेवे क्योंकि दूध भी पशु का अंश ही है। और विकल्पित पक्षान्तर में गौ को छोड़ देना चाहे, तो “माता रुद्राणां०

”इत्यादि मन्त्र पढ़के छुड़वा देवे। फिर “अलङ्करणाम्०”

मन्त्र पढ़ के माला आदि आभूषण पहने “प्राणा पानौ०

” मंत्र पढ़के नाक के दोनों छिद्रों को स्पर्श करे॥” समानव्यानौ”मंत्र से नाभिका “ उदान रूपे०

”मंत्र से कण्ठ का “ सुचक्षु०

”मंत्र से दोनों आंखों का “सुवर्चामु०

”मंत्र से मुख का और सुश्रुत कर्णाभ्यां मंत्र से दोनों कानों का स्पर्श करे। पहिले दहिने फिर बायें कान को दहिने हाथ से सर्वत्र स्पर्श करे

स्नातक पुरुष पूर्व कही स्नान विधि से पहिले ही मधुपर्क को प्राशन कर लेने पर विवाह के समय शरीर में चन्दन और सुगन्ध तैल आदि सहिल उबटन लगावे।ऐसा किन्ही आचार्यों का मत है और विवाह के पश्चात् स्नान विधि करे॥और “परिधास्ये०

”मंत्र से चीरदार नई धाती पहिनेऔर “यशसामां०

”मन्त्र से एक चीरेदार नया दुपट्टा ओढ़े। यह बारहवांखण्ड पूरा हुआ॥१२॥

** पश्चादग्नेश्चत्वार्यासनानि उपकल्पयीत॥१॥ तेषूपविशन्ति—पुरस्तात्प्रत्यङ्मुखो दातापश्चात्प्राङ्मुखः प्रतिग्रहीता॥२॥दातुरुत्तरतः प्रत्यङ्मुखी कन्या॥३॥ दक्षिणत उदङ्मुखो मन्त्रकारः॥४॥ तेषां मध्ये प्राङ्मूलान्दर्भानास्तीर्य कांस्यमक्षतोदकेन पूरयित्वा अविधवाऽस्मै प्रयच्छति॥५॥ तत्रहिरण्यमष्टौमङ्गलान्यावेदयति॥६॥ मङ्गलान्युक्त्वा ददामि प्रतिगृह्णाभि इति त्रिर्ब्रह्मदेयापिता भ्राता वादद्यात्॥७॥ सहिरण्यानञ्जलीनावपति॥८॥ “धनायत्वे” ति दाता॥९॥पुत्रेभ्यस्त्वे ”ति प्रतिग्रहीता॥१०॥ तस्मै प्रत्यावपति॥११॥ चतुर्व्यतिहृत्य ददाति॥१२॥ सावित्रेण कन्यां प्रतिगृह्य प्रजापतय इति च “कइदं कस्मा अदादि”तिसर्वत्रानुषजति “कामैतत्ते”इत्यन्तम्॥१३॥ समाना वा आकूतानीति सह जपत्यन्तादनुवाकस्य॥१४॥खेरथस्य खेनसः खे युगस्य शतक्रतो॥१५॥ अपालामिन्द्रस्त्रिःपूर्त्यवकृणोत्सूर्यत्वचं”इति तेनोदकांस्येन कन्यामभिषिश्चेत्॥१६॥इति वाराहगृहये त्रयोदशः खण्डः॥१३॥**

कन्यादान के निमित्त अग्नि के पश्चिमभाग में चार आसन बिछावे। उन में—से पहिले पश्चिमाभिमुख हो दावा उसकेअनन्तर दान लेने वालावर पूर्व मुख हो बैठे। और दांतों के उत्तर भाग में पश्चिमाभिमुखहोकन्याबैठे। और दक्षिणभाग में उत्तरमुख करके कर्म कराने वाले पुरोहित बैठें। उनके बीच मे पूर्व को जड़ कर कुशों को बिछाकर कांसा के पात्र में जल अक्षतऔर सोना भर कर सधवा स्त्री दाता को ८ अङ्गुलि के पदार्थ सहित देवे। कन्या का पिता, भाई या नाना जो उसका संरक्षक हो वह जिसका वर से मूल्य नहीं लिया हो ऐसी ब्रह्मदेया कन्या को तीन वार अक्षतसोना डाले जलपात्र सहिन “ददामि०”

कहकर देवे और वर तीन वार प्रतिगृह्णामि ”कहकर कन्या को स्वीकार करे। यदि कुछ धनादि वर से लेकर कन्या के पिता ने विवाह किया हो तो वर सोना आदि धन अपनी अञ्जली में ले और कन्या का पिता आदि कन्या का हाथ पकड़ कर कहे कि “धनाय त्वा ददामि" और वह अपने हाथों में लिया सोना आदि कन्या के पिता को देता हुआ कन्या का हाथ पकड़े और कहे “पुत्रेभ्यस्त्वा प्रतिगृहामि” इस प्रकार धन और कन्या का दोनों लौट फेर कर लेवें॥यो चार वार देन लेन की लौट फेर दोनों करें॥वर सविता देवता वाले “देवस्यत्वा ”इत्यादि प्रत्येक मन्त्र से कन्या को स्वीकार करेऔर प्रत्येक मन्त्र के अन्त में क इदं से लेकर”कामैतत्तेतक के मन्त्र को सब के साथ जोड लेवे और अनुवा के अन्त तक शेष बचे “समाना वा आकृतानि ” इत्यादि मंत्रों को कन्या के देने लेने वाले सब लोग एक साथ ही जपें। अर्थात् साफ बोलें। वर “खेरथस्थ ’ऋचा पढ़के कांसे पात्र में पूर्व से रक्खेतों सहित जल से कन्या के शिर पर अभिषेक करे। सू० १-१६ यह तेरहवां खण्ड पूरा हुआ॥१३॥

प्रांगुदञ्चीलक्षणमुद्धत्यावोक्ष्य स्थण्डिलं गोमयेनोपलिप्य मण्डलं चतुरस्रं वा अग्नि निर्मथ्याभिमुखं प्रणयेत्॥१॥ तत्र ब्रह्मोपवेशनम्॥२॥ दर्भाणां पवित्रे मन्त्र

बदुत्पाद्येमं “स्तोममर्हत”इत्यग्नि परिसमूह्य पर्युक्ष्य परिस्तीर्थ पञ्चादग्नेरेकवद्बर्हिस्तृणाति॥३॥ उदक् पाक्-कुलन् दर्भान् प्रकृष्य दक्षिणान तथोत्तरान् अग्रेणाग्निं दक्षिणैरुत्तरानवस्तृणाति॥४॥ अग्न्यायतनस्य मध्यमदक्षिणोत्तरप्रदेशेषु उद्गग्रपूर्वाग्रान्परिधीन्परिधाति॥५॥दक्षिणतोग्नेब्रह्मणे संस्तृणाति॥६॥ अपरं यजमानाय पश्चार्धे पत्न्यै” अपरमपरशाखोदकधारयोर्लाजाघारायाश्च पश्चायुगधारस्य च॥७॥ स्योना पृथिवि भवेत्ये” तयाऽवस्थाप्य शमीमयीं शम्यां कृत्वाऽन्तर्गोष्ठेऽग्निमुपसमाधाय भर्ता भार्यामभ्युदानयति॥८॥ वाससोऽन्ते गृहीत्वा" अघोरचक्षुरपतिघ्न्येऽधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः” सुवर्चाः॥९॥वीरसूदेवकामा स्थोना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे। इत्यभिपरिगृह्याभ्युदानयति॥१०॥ उत्तरेण रथं वासो वानुपरिक्रम्यान्तरेण ज्वलनवहनावतिक्रम्य दक्षिणस्यां धुर्युक्तरस्य युगतस्तन्मना हस्तात्कन्यामवस्थाप्य शभ्यामुत्कृष्य हिरण्यमन्तर्घाय “हिरण्यवर्णाः शुचयः”इति तिसृभिरभिषिच्यात्रैव बागशब्दं कुरुतेति प्रेष्यति॥ ११॥ अथास्यै वासः प्रयच्छति॥१२॥ या अतन्वन्यावन्या वा हरन्॥१३॥ याश्चाग्र्या देव्योऽन्तानभितो ततन्थ॥१४॥तास्त्वा देव्यो जरसे संव्ययंत्वायुष्मन्निदं परिधत्स्व वास इत्यहतं वासः परिधाप्यान्वारभ्याघारायाघार्याज्यभागौ हुस्वा “अग्नये जनिविदे स्वाहेत्यु”तरार्धे जुहोति॥१५॥

सोमाय जनिविदे स्वाहेत्यु” त्तरार्धे जुहोति “सोमाय जनिविदे स्वाहेति”दक्षिणार्धे “गन्धर्वाय जनिविदे स्वाहे”ति मध्ये। “युनज्मि त्वे”ति “जातवेदसं कामं युक्तो वहे”ति” जातवेदसं भिषजं, विश्वाग्न”इति चाग्निं नक्षत्रमिष्ट्वानक्षत्रदेवतां अहः अहर्देवतां रात्रिं रात्रिदेवतां ऋतुं ऋतुदेवतां यजेत्॥१६॥ तिथिं तिथिदेवतां विरूपाक्षं च॥१७॥ सोमो दद्द्गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये॥१८॥ रथिं च पुत्रांश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्।अग्निरस्याः प्रथमो जातवेदाः सोस्याः प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्॥१९॥ तदिदं राजा वरुणोनुमन्यतां यथेदं स्त्री पौत्रमगन्म रुद्रियाय स्वाहेति, हिरण्यगर्भ”इत्यष्टाभिः प्रत्युचमाज्याहुतीर्जुहुयात्॥२०॥येन च कर्मणेच्छेत्तत्र जयान् जुहु। यात्॥२१॥ जयानां च श्रुतिस्थां यथोक्ताम्॥२२॥ “आकृत्यै त्वा स्वाहा’ ‘भूत्यै त्वा स्वाहा’॥ प्रयुजे त्वा स्वाहा’॥ नभसे त्वा स्वाहा”॥ “अर्यम् त्वा स्वाहा”॥ समृद्ध्यै त्वा स्वाहा’।‘जयायै त्वा स्वाहा’।‘कामायै त्वा स्वाहा’। इत्यृचा ‘स्तोमं प्रजापतये’इति च॥२३॥ शुचिः प्रत्यङ्मुखः तां समीक्षस्वेत्याह॥२४॥तस्यांसमीक्षमाणायां जपति॥२५॥ मम व्रने ते हृदयं धातु मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु’।‘मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनक्ति माम्। इति॥२६॥ कानामासो’ स्याह॥२७॥ नामधेये प्रोक्ते ‘देवस्य त्वा सवितुः

प्रसवेश्विनोर्षाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां हस्तं गृहाम्यसा’विति हस्तं गृहन्नाम गृह्णाति॥२८॥ प्राङ्मुख्याः प्रत्यङ्मुख ऊर्ध्वस्तिष्ठत्वान्नासानायाः दक्षिणमुत्तानं दक्षिणेन नीचारिक्तमरिक्तेन “यथेन्द्रो हस्तमग्रहीत्सविता वरुणो भगः। गृहामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासत्॥ भगोऽर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः। याग्रे वाक्समभवत्पुरा देवासुरेभ्यः। तामद्य गाधां गास्यामो या स्त्रीणामुत्तमं मनः।सरस्वति प्रेदमिव सुभगे वाजिनीवति। या त्वा विश्वस्य भूतस्य भव्यस्यप्रगायाम्यस्था अग्रतः। अमोहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्याअप्यमोहं। द्यौरहं पृथिवीत्वमृक्त्वमसि सामाहं रेतोऽहमस्मि रेतो धत्तं तावेव विवहावहै पुंसे पुत्राय कर्तवै श्रियेपुत्राय वैधवै रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुषीर्यायेति॥२९॥अभिदक्षिणमानीयाग्नेः पश्चात् एतमश्मानमातिष्ठत “मश्मेव युवाँ स्थिरौ भवतम्॥३०॥ कृण्वन्तु विश्वे देवाआयुर्वां शरदः शतमि”ति दक्षिणाभ्यां पद्भ्यामश्मानमा स्थापयतः॥३१॥ “यथेन्द्रः सहेन्द्राण्या अवारुहद्गन्धमादनात्। एवं त्वमस्मादश्मनोऽवरोहस्वसमे पादौ प्रपूर्व्यायुष्मती कन्ये पुत्रवती भवे"त्येवं द्विरास्थापयति॥३२॥चतुः परिणयति समितं सङ्कल्पेथामिति॥३३॥पर्याये पर्याये ब्रह्मा ब्रह्मजपं जपेत्॥३४॥ इति वाराहगृह्ये चतुर्दशः खण्डः॥

यज्ञशाला में कुण्डसे अलगपूर्व को पांच और उत्तर को एक रेखा करके वहां कुछ मट्टी फेक जल सेंचन करके गोलाकार या चौकोण स्थण्डिल वेदी को गोबर से लीपकर अग्निमन्थन करके सम्मुख रक्खे।वहां ब्रह्मा के लिये आसन ठीक करे। दामों के दो प्रादेश मात्र पवित्रों को तीन दाभों से “वैष्णवेस्थः ”मन्त्र द्वारा काढ़कर अग्निदेवता के लिये स्थालीपाक पकावे। “इमं स्तोममर्हत०

”मंत्र से अग्नि सब ओर झाडकर,सब ओर जल सेचन कर कुशों से परिस्तरण करके पश्चिम भाग में एक पर्तपूर्व को अग्रभागकरके एक नुट्ठा कुश विछावे॥अग्नि के सब ओर कुश बिछाने की रीति यह है कि अग्निकुण्ड से उत्तर और दक्षिण में पूर्व को अग्रभाग करके और पूर्व पश्चिम में उत्तर को अग्रभाग करके बिछावे। अग्नि के दक्षिण में ब्रह्मा के लिये और ब्रह्मा से पश्चिम में यजमान के लिये और यजमान से दक्षिण पश्चिम की ओर यजमान की पत्नी के लिये उनके आसन पर कुछ बिछावे।

वेदि से उत्तर और दक्षिण में पूर्व को अग्रभाग करके से पूर्व में उत्तर को तथा पश्चिम में दक्षिणों के साथ मिलते हुए उत्तराग्र बिछावे॥अग्नि से दक्षिण भाग में ब्रह्मा के लिये बिछाये आसन पर और ब्रह्मा से पश्चिम में यजमान के आसन पर और यजमान से पश्चिम में पत्नी के आसन पर कुछ बिछावे। ब्रह्मा, यजमान और पत्नी से दक्षिण में आम का पल्लव शाखा को धारण के लिये और उस्से पश्चिम में जलभरे कलश को धारण करने वाले के लिये कुछ बिछावे और इन से पश्चिम २ को लाजा धारण करने वाली सौभाग्यवती स्त्री और हल का जूआ घरने वाले के लिये कुछ बिछावे।फिर “स्योना पृथिवि०” मन्त्र से शाखा धार आदि चारों को स्थापित करके पहिले से नवनामी हों तो शमी ( छोंकर ) वृक्ष की शम्या प्रादेश मात्र बनाकर गोशाला के भीतर अग्नि को प्रज्वलित करके आगेकही रीति से वर अपनी स्त्री को अग्निके पास लावे। पत्नी के दुपट्टे का छोर पकड़ के “अघोरचक्षु०

”इत्यादि मन्त्र पढ़े पश्चात् दोनों बाहु से उठा कर लावे। खडे हुए रथ या शकट ( छकड़ा ) उत्तर से दक्षिण की ओर

परिक्रमा कर या अग्निऔर गाड़ी के बीच से निकल के युग ( जुआं) के दोनों भाग वैलोंके कन्धों पर रहते हैं उनके बीच को “धुर " कहते हैं उसधुर और शम्या (सैल) के छिद्र के बीच उत्तर को नीचे करके कन्या को स्थिर करके शम्या को छिद्र से निकाल के उस युग छिद्र में सोना घर के “हिरण्यवर्णाः०”इत्यादि तीन ऋचा पढ़ २ के ऊपर से कुशों या आम के पत्तों से कन्या के शिर पर अभिषेक करके और इसी अवसर में “ बाण शब्दं कुरुत”ऐसे वाक्य द्वारा बाजे बजाने की आज्ञा देवे। फिर पत्नीको अग्नि के पास उठाकर लावे और “या अकृन्तनू०” इत्यादि मन्त्र पढ़ के चीरेदार साड़ी पत्नी को पहनाव। उसके पश्चात् पत्नी के अन्यारम्भ करने पर प्रजापति और इन्द्र देवता के लिये दो आघार,अग्नि और सोम देवता के लिये दो आज्य भाग की आहुति देकर “अग्नये जन०”मंत्र से वेदिस्थ प्रज्वलित अग्नि के उत्तरार्द्ध में ‘सोमाम जन०”से दक्षिगार्द्ध में और “गन्धर्वायजन०” से बीच अग्नि में आहुति देवे॥ पश्चात्"युक्तो वह०”यदा कृतं० इन दो मंत्रों से अग्नि देवता को युक्त नाम सन्बोधित करके जिस तिथि में वह काम विवाह होता हो उस दिन जो नक्षत्र हो उस नक्षत्र का जो देवता हो और प्रतिपद आदि जो तिथि हो उसके नाम से और उस तिथि के दवना के नाम से और उस समय जो ऋतु हो उस ऋतु का जो देवता हो उन सबके नाम छः आहुति देवे। फिर “सोमोददद०” इत्यादि ऋचाओं से एक आहुति देकर " हिरण्यगर्भः०”इत्यादि आठऋचाओं से घी की आठआहुति देवे। जिस कर्म्म से कार्य की सिद्धि चहता हो वहां २ जया होम करे। जया संज्ञक आहुतियों की यथोक्त श्रुति हैं कि शत्रु के विनाश के लिये भी जया होम होता है। “आकूत्यै०"इत्यादि जया होम की आठआहुति देकर“ऋचास्तोम०”मन्त्र से नवमीऔर “प्रजापतये”स्वाहा मंत्र से दशमी आहुति देवे॥पवित्र हुआ वर पश्चिम को मुखकरके पत्नी से कहे कि ( समीक्षस्व )मुझे देखो वहपत्नी वर को देखती हो तब वर “मम व्रते ते०” इत्यादि मंत्र को पत्नी कीओर देखता हुआ पढ़े।इसके पश्चात् वर कन्या से कहे कि “कानामासि’’तुम्हारा क्या नाम है ? जब कन्या अपना नाम बोले तब “देवस्यत्वा”०मन्त्र पढके निम्न रीति कन्याका हाथ पकड़े और मन्त्र के अन्त में पढे हुए “असौ " पद की जगह कन्या का नाम सम्बोधतान्त कहे।कन्याका मुख पूर्व को वर का मुख पश्चिम को हो, कन्या बैठी हो और वर खड़ा हो, कन्या का हाथ रीताउत्तान उपर को और वरके दहिने हाथ में कोई फल आदि हो यों अपने दहिने हाथ से कन्या का दहिना हाथ अंगुठा अङ्गुलियों सहित पकड़के “ यथेन्द्रो० ”इत्यादि मन्त्र पढ़े॥अन्य कोई पुरुष कन्या को वर से दक्षिण में और अग्नि से पश्चिम में खड़ी करके कन्या वर दोनों के दहिने पगों को एक पत्थर की शिलापर रखवाताहुआ “ एतमश्मान० ” इत्यादि मन्त्र पढ़े।फिर “ यथेन्द्रः० ”मन्त्र कोपढ़के दोनों के पगों को नीचे उतरवावे।पश्चात् उक्त प्रकार एतमश्मा०मन्त्र से फिर पाषाणशिलापर दोनों के दहिने पगों को धरा के “यथेन्द्रं०”मन्त्र से फिर उतरवावे ऐसे दो वार करके॥ इसके अनन्तर चार वार अग्नि के प्रदक्षिणा परिक्रमा आगेकहेलाजा होम के साथ कन्या वर दोनों करें।और “समितं संकल्पेथां०”मन्त्र का प्रत्येक परिक्रमा के साथ एक वार २ ब्रह्मा जप करे॥सू० १—३४॥यह चौदहवां खण्ड पूरा हुआ॥१४॥

** ततो यथार्थ कर्मसंनिपातो विज्ञेयः॥ अर्शर्यम्णेऽग्नये पूष्णेऽग्नये वरुणाय च व्रीहीन्यवान्वानिरुण्यप्रोक्ष्य लाजाभृज्जति मात्रे प्रयच्छति “सजाताया अविधवायै॥१॥ अथास्यै द्वितीयं वासः प्रयच्छति॥२॥ तेनैव मन्त्रेण॥दर्भरज्ज्वाइन्द्राण्याः सन्नहनमित्यन्तौ समायम्य पुमांसं ग्रन्थिं बध्नाति॥३॥ सं त्वा नह्यामि अद्भिरोषधीभिः। सं त्वा नह्यामि प्रजया धनेन सा सन्नद्धा सुनुहि भागधेयम्”। इत्यन्तरतो वस्त्रस्य योक्त्रेण कन्यां सन्नह्यति॥४॥अथैनामुपकल्पयते०शूर्प लाजाः इषोकाश्मानं अञ्जनम्॥**

चतसृभिः सतूलाभिरित्येकैकयाककुभस्याञ्जनस्थ सन्निकृष्य “वृत्रस्यासि कनीनिके”ति भर्तुर्दक्षिणमक्षि त्रिः प्रथममाङ्क्ते तथा परम्॥५॥ तथा पत्न्याः शेषेण तूष्णीम्॥६॥ दिशि शलाकाः प्रविद्ध्यति। “यानि रक्षांस्यभितो व्रजन्त्यस्या वध्वा अग्निसकाशमागच्छन्त्याः। तेषामहंप्रतिविद्धयामि चक्षुः स्वस्ति यध्वे॥भूतपतिर्दधात्वि”ति॥७॥ लाजाः पश्चादुपसाद्य शमीपर्णैः संसृज्य शूर्पे समं चतुर्धा विभज्याग्रेणाग्निं पर्याहृत्य लाजाधार्यैप्रयच्छति॥८॥ लाजा भ्राता ब्रह्मचारी वा अञ्जलिनाऽञ्जल्योराबपति॥९॥ उपस्तरणाभिधारणैः सम्पातं तावच्छिन्नैर्जुहुत्तः॥१०॥ अर्यमणं नु देवं कन्याऽग्निमयक्षत। सइमां देवो अर्यमा प्रेतो मुश्चातु नामुतः स्वाहा।तुभ्यमग्नेपर्यवहन् सूर्या वहतुना सह। पुनः पतिभ्यो जायां दाअग्ने प्रजया सह।पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा सह वर्चसा।दीर्घायुरस्था यः पतिर्जीवाति शरदः शतम्।इयं नार्युपब्रूते लाजानावपन्ति तौ। दीर्घायुरस्तु मेपतिरेघन्तां ज्ञातयो मम” इति॥११॥ एवं “पुषणं नु देवं वरुणं नु देवम्। येन धौरुग्रा”—इत्यादय उद्वाहे होमाः जयाभ्यातानाः सन्ततिहोमं राष्ट्रभृतश्च॥१२॥ “आकूताय स्वाहे”ति जयाः॥१३॥ प्राचीदिग्वसंत ऋतुरित्याभ्यातानाः॥१४॥ प्राणदपानं सन्तन्वि” ति सन्ततिहोमाः॥१५॥ऋताषाडतधामेति”राष्ट्रभृतश्च

॥१६॥ “त्रातारमिन्द्रविश्वादित्या”इति माङ्गल्ये॥ लाजाः कामेन चतुर्थ स्विष्टकृतमिति॥१७॥अथैनां प्राचीं सप्तपदानि प्रक्रमयति॥१८॥ एकमिषे। द्वे ऊर्जे।त्रीणि प्रजाभ्यः। चत्वारि रायस्पोषाय॥ पञ्च भवाय॥ षडृतुभ्यः॥ सखा सप्तपदी भव। सुमृडीका सरस्वती। मा ते व्योम संदृशि। विष्णुस्त्वामुन्नयत्वि”ति सर्वत्रानुषजति॥१९॥पञ्चादग्नेःरोहिते चर्मण्यानडुहे प्राग्ग्रीचे लोमतो दर्भानास्तीर्य तेषुवधूमुपवेशयति। अपि वा दर्भेष्वेव। “इमं विष्यामिवरुणस्प पाशं यज्जग्रन्थ सविता सत्यधर्मा।धातुश्च योनौसुकृतस्य लोकेऽरिष्टां मा सह पत्या दधातु”। इतियोक्त्रपाशं विषाय वाससोऽन्ते बध्नाति॥२०॥ अनुमतिभ्यां व्याहृतिभिश्च “त्वं नो अग्ने मनो ज्योतिः त्रयस्त्रिंशत्तजन्तवः अयाश्चाग्ने। असीति च शमीमयीस्तिस्रोक्ताः समिधः॥२१॥ समुद्रादूर्मिरि”त्येताभिस्तिसृभिः स्वाहाकारान्ताभिरादधाति॥२२॥अक्षतसक्तूनां दध्नश्च समवदाय “इदं हविः प्रजननं मे”इति च हुत्वा॥२३॥इमं स्तनं मधुमन्तं धयायां प्रपीनमग्ने सलिलस्य मध्ये।उत्सञ्जुषस्व मधुमन्तमूर्मिं समुद्ध्रंसदनमाविवेश स्वाहा” इति परिधिविमोकमभिजुहोति॥२४॥ “अन्नपते”इत्यन्नस्य जुहुयात् बितं मुञ्चामि रशनां विरश्मीन्” इति च हुत्वा पवित्रेऽनुप्रहृत्य आज्येनाभिजुहोति॥२५॥ “एधिषीमही”ति समिधमाधाति॥२३॥“समिदसिसमेधिषी”ति द्विती

याम्॥२७॥ आपो अद्यान्वचारिषमि”त्युपतिष्ठते॥२८॥ कुम्भादुदकेन “पुनन्तु मा पितर”इत्यनुवाकेन मार्जयन्ते॥२९॥ आपोहिष्ठीयाभिरित्येके॥३०॥ वरो दक्षिणा॥३१॥ इति वाराहगृह्ये पञ्चदशः खण्डः॥१५॥

जिस कर्म का जहां प्रयोजन हो उस अवसर में उसका अनुष्ठान करना चाहिये। अर्थात् सूत्रकार किसी अन्यत्र करने के काम को अन्यत्र भी कह देते हैं पर करने वाले को देख कर यथावसर करना चाहिये। अर्यमाग्नि, वृषाग्नि और वरुणाग्नि देवता के लिये लाजा भूजने के अर्थ धन या जौ का ग्रहण करके लाजा भूंजे॥वे भूंजे हुए लाजा या जौ कन्याकी माता को या जो सोहागिन स्त्री हो ऐसी कन्या माता की सहोदर बहिन ( मौसी ) को देवे।इसी के अनन्तर इसी मन्त्र से कन्या को ऊपर सेओढ़ने के लिये दूसग वस्त्र देवे॥ फिर इन्द्रारायाः संहननं०”मंत्र को पढ़ के आचार्य दाभ की रस्सी के दोनों छोर मिला कर प्रदक्षिण रीतिसे गांठ देवे॥ फिर “संत्वा नह्यामिं०”मन्त्र पढ़ के कन्या के कटिभाग मेंपहने हुए साड़ी वस्त्र बीच ( दोनों ओर ऊपर नीचे वस्त्र रहें ) में वह दर्भरज्जु प्रदक्षिण लपेटे।यह पत्नी की दीक्षा के लिये मेंखला है। इसके अनन्तर सूप, खीले, दाभ, या मूंज की चार सीकें, पत्थर की शिला और आंखों में लगाने का सुरमा इन सब को सम्हाल के रक्खे।जिनमें से मूंजऔर अग्रभाग में फूला धुआं लगा हुआ ऐसी पूरी लम्बी दाभ की या मूंज की चार सीकों के छोरे ठीक करके उन में एक एक मेंपहाड़ीःसुरमा लगा के पहिले कन्या एक सींक से वर के दहिने नेत्रमें “वृत्रस्यासि०"मंत्र से तीन वार सुरमा लगावे और इसी प्रकार बांयेनेत्र में दूसरी सींक से लगावे फिर शेष बची दो सीकों से वर पत्नी कीदहिने और बायें नेत्रों में विना मला सुरमा लगावे॥फिर ‘यानि रक्षांसिं०’मन्त्र पढ़ के सब दिशाओं में एक २ सींक ( जिनसे सुरमा लगाया है )प्रदक्षिणक्रम से वर फेंके। इसके पश्चात् लाजा नाम धान की खीलों को

अग्नि से पश्चिम में घर के उनमें शमी वृक्ष के पत्ते को मिला कर उनकोजूप में चार भाग मिला कर अलग २ रकावे।अग्नि के उत्तर पूर्व से प्रदक्षिणनाके सूप को दक्षिण की ओर खड़ी लाजा धरने वाली रथी को देवे॥कन्या का भाई या ब्रह्मचारी विद्यार्थी कन्या वर दोनों की मिलाई हुईप्रञ्जली में लाजा अपनी अञ्जली में लेकर गिरावे। लाजा गिराने से पहिलेप्रञ्जलीं में उपस्तार रूप घी लगावें फिर लाजा गिरा के खीलों के ऊपरने घी छोड़े वह, “अभिधारणा”कहता है। फिर बीच में न रुकते हुए गार बांध कर “अर्यमणं०”आदि मन्त्रों से दोनों कन्या वर होम करें।‘अर्यमाणानुं”मन्त्र से लेकर “प्रजया सह”मन्त्र तक पहिले वर पढ़े। फेर ‘पुनः पत्नीमूं”मन्त्र को अध्वर्यु पढ़े। “इयंनार्युपब्रूतें०”मन्त्रको कन्या पढ़े। चारों मन्त्रों के पाठ के साथ धीरे २ निरन्तर दोनों कन्यार लाजा गिगते जावें। यह एक आहुति हुई।फिर पूर्व लिखीरिक्रमा दोनों एक बार करें॥परिक्रमा के साथ “समितं”मन्त्र कोपढ़े अर्थात् वहां क्रम यह है कि पहिले वेदि में रेखा करे, अग्नि थापन, दर्भ पवित्र बनाना, अग्नि का परिसमूहन आदि स्थापन तकपात्रस्थापन, लाजा सुवर्ण आदि सूपादि का स्थापन फिर ज्य ग्रहणादि समिद आधान तक पूर्व कहे अनुसार फिर “ऋचाओं"मन्त्र तक आधार होमादि। और हस्त ग्रहण तक करके शिला स्थान लाजा होमादि करे। फिर पूषा और वरुण का ऊह, अर्यमा के स्थान करके “वृषणां नु देवं कन्यां०”इत्यादि मन्त्रों स दो वार लाजा होमरिक्रमा और अश्मारोहण, अवरोहण फिर करें। “येन द्यौरुमां”त्यादि होम विवाह में करे और “आता” इत्यादि पूर्वोक्त जया होमप्राचीन दिगबं” इत्यादि अभ्यातान”प्राणापानंइत्यादि सन्तति’म और “ऋताषाड्” इत्यादि बारह आहुति राष्ट्रभृत् होम भी विवाह मेंरे॥“त्रातारमिन्द्रं” ‘विश्वादित्या’इन दो मन्त्रों से मङ्गल आहुति रे। फिर “अर्यमणमनुं”इत्यादि पूर्वोक्त मन्त्रों में ‘अर्यमा’के स्थान में काम’ शब्द का ऊह करके ‘कामनुदेवं०’चौठी स्विष्ट कृत्त स्थानो

लाजा होम करे॥फिर इस कन्या को एक मिषे० ’इत्यादि के आगे भवसुमृडीका०’मन्त्र से ‘मुन्नमतु’मन्त्र तक मन्त्र सब में लगा २ के एक २ मन्त्र से एक पग पूर्व को चलावे। उसके पश्चात् अग्नि से पश्चिम में लाल बैल के चर्म को पूर्व को शिर और ऊपर को लोम करके विछावे उस परदाभ डाल कर वधू को बैठावे या केवल दाभों पर बैठावे।फिर इमं विष्यामि०’मन्त्र को पढ़ के कन्या के कमर में बान्धी हुई दाभ की रस्सी कोखोल कर ओढ़े हुए वस्त्र के छोर में बान्ध देवे॥फिर ‘अनुमतिं’के लियेदो, तीन व्याहृति और त्वं नो अग्नेमन्त्र से तीन आहुति देवे।इसके पश्चात् शमी वृक्ष की तीन समिधा घी में डुबो के ‘समुद्रा दृं ’इत्यादिस्वाहाकारान्त तीन मन्त्रों से अग्नि में चढ़ावे॥पश्चात् विना कटे जौ केसत्तू और दही में से दो त के अंशदान लेकर ‘इदंहविः प्रं’मन्त्र से होम करके पवित्रों में घी लगा के पवित्रों का होम कर दे और‘विते मुञ्चामिं’इत्यादि मन्त्रों से घी की आहुति करे।पश्चात् ‘एघोऽसिं’मन्त्र से एक और समिदसिं” मन्त्र से दूसरी समिधा अग्नि में चढ़ावें। फिर आपोद्यान्वं” मन्त्र से अग्नि का उपस्थान करे। फिर जल भराघड़ा कलशधारण करने वाले के कलश से दाभ या आम के पत्तों द्वाराजल ले कर ‘आपोहिष्टांआदि तीन मन्त्रों से पत्ती का अभिषेक करे। और श्रेष्ठ गौ दक्षिणा में आचार्य को देवे। सू० १ — ३१॥यह पन्द्रहवांखण्ड पूरा हुआ॥१५॥

** “सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं विपरेतन॥” इति प्रेक्षकान्ब्रजतोऽनुमन्त्रयते॥१॥ अत्रैव सीमन्तं करोति॥२॥ त्रिश्वेतथा शलल्या समूलेन वा दर्भेण॥३॥ “सेनाहनामि‘त्ये”तया॥ अथाभ्यञ्जलि।अभ्यज्य केशान् “सुमनस्यमानाः प्रजावरीर्यशसे अघोराः। शिवा भव भर्तुः श्वशु**

रस्या वदायुष्मती श्वश्रुमती चिरायुः” इति॥४॥ जीवोर्णयोपसमस्यति॥५॥“समस्य केशान्वृजिनानघोरान्शिवा सखिभ्यो भव सर्वाभ्यः।शिवा भव सुकुलोह्यमानाशिवा जनेषु सह वा जनेषु”। इति॥६॥ अथैतौ दधिमधु समश्नुतः॥७॥ यद्वा हविष्यं स्यात्॥८॥ तस्य स्वस्तिवाचयित्वा “समानावाकूतानी”ति सह जपन्ति॥ उभौ सहप्राश्नीतः॥९॥ इति वाराहगृह्ये षोडशः खण्डः॥

जो लोग विवाह देखने को आये हों और फिर लौट कर अपने २ घरको जाते हों उनको देखता हुआ “सुमङ्गली०”मंत्र पढ़े।इसी अवसर मेंवह अपनी पत्नी का सीमंतोन्नयन करे। अर्थात् उसके मांग को भरे। तीनजगह श्वेत चिन्ह वाले सेही के कांटे से या जड़ सहित उखाड़े दाभ केगुच्छे से “सेनाहनाम०”इस ऋचा को पढ़के मांग के केश को दोनोंको करे पश्चात् “अभ्यज्य केशान०”मंत्र पढ़ के बालों में तेललगावे और कंकत से काढ़े।फिर जीते हुए मेढ़ा की ऊन से बनाये डोरेके साथ वालों को “समस्य केशान०”मन्त्र पढ़ के गूंथे अर्थात् वेनीबना के बांध देवे। पश्चात् दोनों पति पत्नी दही और मधु मिला कर एक साथ खावें या हविष्यान्न खावें। खाने से पहिले पुरोहिन आदि से कहे “स्वस्ति ब्रूहि”’तब ब्राह्मण मन्त्र सहित स्वस्ति कहे।फिर ब्राह्मणसहित तीनों “ समानो वां० ”मन्त्र को साथ ही पढ़ें॥फिर पति पत्नीदोनों दही शहत मिला के या हविष्यान्न को साथ २ खावें॥सू०१-६॥ यह सोलहवां खण्ड पूरा हुआ॥१६॥

** पुण्याहे युङ्क्ते॥१॥ “युञ्जन्ति ब्रघ्नमि”ति द्वाभ्यांयुज्यमानमनुमन्त्रयते—दक्षिणमथोत्तरम्॥२॥ अहतेन वाससा दर्भैर्वा रथं समार्ष्टि॥३॥ अङ्कौ न्यङ्कावभितो**

रथम्॥ये ध्वान्ता वाताग्निमभि ये सञ्चरन्ति॥४॥ दूरे हेतिःपतत्री वाजिनी वांस्ते नोऽग्नयः पप्रयः पालयन्तु॥ इतिचक्रेऽभिमन्त्रयते॥५॥ “वनस्पते विड्वङ्ग”इत्यधिष्ठानम्॥सुकिंशुकं शल्मलिं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम्। आरोह सूर्यम्॥६॥अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्वइत्यारोहयति॥७॥ “अनुमायन्तु देवता अनु ब्रह्मसुवीर्यम्। अनु क्षत्रं तु यद्वलमनु मा सैतु यद्यश”इतिप्राक् अभिप्रायाय प्रदक्षिणमावर्तयति॥८॥ “प्रति सायन्तुदेवताः प्रति ब्रह्म सुवीर्यम्। प्रति क्षत्रं तु यद्बलं प्रतिमामैतु यद्यशः”॥ इति यथाऽस्तं यन्तमनुमन्त्रयते॥९॥ “अमङ्गल्यं चे” त्यतिक्रामति॥१०॥ “नमो रुद्राय ग्रामसद”इति “ग्रामे॥ इमा रुद्रायेति” च॥११॥ “नमो रुद्रायैकवृक्षसदे” इस्येकवृक्षे—“ये वृक्षेषु शष्पिञ्जरा”इति च॥१२॥ “नमो रुद्राय श्मशानसद”इति श्मशाने—“ये भूतानामधिपतय”इति च॥१३॥ “नमो रुद्राय चतुष्पथसद“इति चतुष्पथे”ये पथां पथि रक्षम्”इति च। “नमो रुद्राय तीर्थसद”इति तीर्थे। “ये तीर्थानि प्रचरन्तीति च॥१४॥यत्रापस्तरितव्या आसीत्—”अतिसमुद्राय वैणवे सिंधूनां पतये नमः।नमो नदीनां सर्वासांपत्ये विश्वाह्यजुषतां विश्वकर्मणामिदं हविः स्वः स्वाहे” त्यप्सु उदकाञ्जलिं निनयति॥१५॥ अमृतं वा आस्येजुहोम्यायुः प्राणेऽप्यमृतं ब्रह्मणा सह मृत्युं तरति॥१६॥‘‘प्रासहादिति रिष्टिरि”ति जपेत्॥१७॥ यदि रथाक्षः शम्याणिवा रिष्येत अन्यद्वा रथाङ्गं तत्रैवाग्निमुपसमाधायजयप्रभृतिभिर्हुत्वा “सुमङ्गलीरियं वधू”रितिजपेत्। वध्वा वधूं समेत पश्यत॥१८॥व्युत्क्रामपथांजरितांजवेन शिवेनवैश्वानरः” इत्यस्याग्रतः॥१९॥ आचार्यों येन येन पथा प्रयाति तेन तेन सह॥इत्यभावेव व्युत्क्रामतः गोभिः सह॥२०॥अस्तमिते ग्रामं प्रविशंति॥२१॥ ब्राह्मणवचनाद्वा॥२२॥ इति वाराहगृह्ये सप्तदशः खण्डः॥ १७॥

अब शुभ नक्षत्र और शुभ ग्रह युक्त पुराय दिन में अपने घर पत्नी कोले जाने के लिये स्थादि को जोड़े। जब कोई आदि रथ में घोड़े या बैल को जोड़ना हो, तब उसकी ओर देखता हुआ वर “युञ्जन्ति ब्रं”मंत्र पढे, पहिले दहिने को जोड़ते समय फिर बायें को जोड़ते समय अलगदो वार मन्त्र पढ़।इसके पश्चात् कावं”मन्त्र पढके रथ केपहियों का अभिमन्त्रण करे। पहिले दहिने का फिर बांये का। “वनस्पतें”मन्त्र पढके पत्नी को अध्वर्यु आदि के द्वारा रथ पर चढवावे। फिर आप रथपर बैठके “अनुमायन्तुं”मन्त्र पढके पहिले थोड़ा पूर्व कोरथ चलाकर प्रदक्षिण क्रम से जाने के मार्ग पर फेर कर लावे। ठीक घरकोजाने के रास्ते पर रथ चलता हो, तब रथको देखता हुआ “प्रतिमायन्तु देवमन्त्र को पढ़े॥यदि मार्ग में मरघट कूड़ा आदि का ढेर और अनिष्टघृणित अमङ्गल वस्तु के पास होके निकलना पड़े तो “अनुमायन्तुं”इत्यादिमन्त्र का जप करे।यदि ग्राम में होकर निकले तो “नमो रुद्राय ग्राम”और “इमारुद्राय”इन दो मन्त्रों का जप करे।मार्ग में एक वृक्ष पड़े तो“नमो रुद्रायैक वृक्षसदें’और “ये वृक्षषु०”दो मन्त्रों को जपे॥यदि मार्गमें मरघट पड़े तो “नमोरुं०”\। ये भूतानां०”दो मन्त्रों को जपे। यदि

चौराहा पड़े तो “नमो रुद्राय।ये पथां०”मंत्रों को जपे।यदि मार्ग मेंकोई घाट पड़े तो “नमो रुद्राय०”। ये तीर्थानि०”दो मन्त्रों को जपे॥यदि नदी आदि पार उतरने योग्य जलाशय आवे तो अञ्जुली से जलभरकर “समुद्राय वै०” मंत्र पढके जलाशय में अञ्जुली के जलका होम करदेवे।फिर तीन वार अपने शिर आदि अङ्गोपर जल से मार्जन करके “अमृतंवा आस्ये०” मंत्र पढके तीन वार आचमन करे।यदि नौका परचढ़कर पार उतरना हो तो नौका पर चढ़ा हुआ “सुत्रामाणां०”मन्त्र काजप करे॥यदि मार्ग में चलते २ रथकी धुरी सैल या आग आदीकोई रथ का अङग,टूट फूट जावे तो( उसको बढ़ई से बनवाना यह भिन्न लौकिककाम है उसको तो सबही तुल्य करे ) पर विवाह के वेदीका अग्निसाथ(

लाना चाहिये ) लाया हो उसको प्रज्वलित कर आधार, आज्यभाग केपश्चात् जयादि होम करके “सुमङ्गलीरि०”मन्त्र को पत्नी सहित पढे। “इमां समेत०”के स्थान में “वधूं समेतं०”कहे \। फिर स्त्री पुरुष दोनों “व्युत्क्राम पथां०” मंत्रको पढके स्थ से उतरे और अलग २चले।फिरबैठ जावे। सूर्य नारायण के अस्त होने पर और जंगल से गौओं केघर आने के साथ विदा कराके बराती लोग गांव में घुसें। यदि दिन याअधिक रात जाने का समय हो तो ब्राह्मण की आज्ञा लेकर गांव में जावें। सू० १—२२॥यह सत्रहवां खण्ड पूरा हुआ॥१७॥

** अस्मिन्नहस्सन्धौ गृहान् प्रपादयित॥१॥“प्रतिब्रह्मन्नि”ति प्रस्यवरोहति॥२॥ मङ्गलानि प्रादुर्भवन्ति॥३॥गोष्ठात्संतता मूलपराजितं स्तृशाति॥४॥ रथाद्ध्योपसादनात्। “येष्वध्येति प्रवसन् येषु सौमनसं महत्। तेनोपहव्यामहे तेनो जानन्त्वागतम्॥इति तयाऽभ्युपैति॥५॥ “गृहानहं सुमनसः प्रपद्ये वीरं हि वीरवतः सुशेवाः। इरां वहन्तीं घृतमुक्षमाणास्तेष्वहं समना संविशाम”।इत्य**

भ्याहिताग्नि सोदकं सौषधमावसथं प्रतिपद्येत। रेवत्या रोहिग्या मूलेन वा यद्वापुरयोक्तम्॥६॥ पश्चादग्नेः रोहिते चर्मण्यानडुहे प्राग्ग्रीवे लोमतो दर्भानास्तीर्य तेषुवधूमुपवेशयति। अपि वा दर्भेष्वेव॥७॥ अथास्या ब्रह्मचारिणं जीवपितृकं जीवमातृकमुत्सङ्गमुपवेशयेत्॥८॥फलानामञ्जलिं पूरयेत् तिलतण्डुलान्वा॥९॥ “अच्युताध्रुवा ध्रुवपत्नी ध्रुवं पश्येम विश्वत”इति ध्रुवं जीवन्तीसप्तर्षींनरुन्धतीमिति दर्शयित्वा प्राजापत्येन स्थालीपाकेनेष्ट्वाजयप्रभृतिभिश्चाज्यं पुरस्तात्स्विष्टकृतः आज्यशेषे दद्ध्यासिच्य “दधिक्राव्णोऽकारिषमि”ति दुघ्नस्त्रिः प्राश्नाति॥१०॥ चक्रीमिषाऽनडुहः पदं मामेवान्वेतु ते मनो मांच पश्यसि सूर्यं च। अन्येषु मनस्कृथा सोमेनादित्याःचाक्रवाकं संवननं तन्नौ संवननं कृतमित्यवशिष्टं पत्न्यैप्रयच्छति॥१२॥ तूष्णीं सा प्राश्नाति॥१३॥ अपराह्णेपिण्डपितृयज्ञः॥१४॥स व्याख्यातः॥१५॥ संवत्सरं ब्रह्मचर्यें चरतः द्वादशरात्रं वा॥१६॥ अथास्यै गृहान् विसृजेत्॥१७॥योक्त्रपाशं विषाय तौ सन्निपातयेत्॥१८॥ “अपश्यंत्वा मनसा चेकितानं तपसो जातं तपसो विभूतम्। इह प्रजामिह रयिंरराणः प्रजायस्व प्रजया पुत्रकाम। अपश्यं त्वा मनसा दीध्यानां स्वायां तनूं ऋत्विये नाथमानाम्।उप मामुच्चा युवतिर्बभूयाः प्रजायस्व प्रजयापुत्रकामे।प्रजापतिस्तन्वं मे जुषस्व त्वष्टा देवैः सहमान

**इन्द्रः।इन्द्रेण देवैर्वीरुधः संविदानां बहूना पुंसां पितरःस्यावः॥ अहं प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं गर्भमदधामोषधीषु। अहं विश्वेषु भुवनेष्वन्तरहं प्रजाभ्यो बिभर्षिपुत्रान्।” इति स्त्रिया दीव्यत्यासञ्जपति॥१८॥ “करदि”ति “भसद”भि” मृशति॥१९॥ जननी”त्युपजननम्॥२०॥ बृहदिति जातम्॥२१॥एतेन धर्मेण ऋतावृतौसंनिपातयेत्॥२२॥ इति वाराहगृह्ये अष्टादशःखण्डः॥ **

अब वधू के गृहप्रवेश की रीति दिखाते हैं। ठीक सन्ध्या के समयरथ से उतार के बहूको घरमें लावे “प्रतिब्रह्मन्०” मंत्र को पढ़के यजमानबहूको रथ से उतारे।उस समय दही चन्दनादि मंगल वस्तु कोई घरमें सेलावे और मङ्गल सूचक मन्त्रादि का उच्चारण घर में हो॥रथ से लेकर घरके भीतर तक पूर्वको अग्र भाग कर २ बराबर निरन्तर कुश बिछावे औरअध्वर्यु “येष्वध्येति प्र०” मंत्र को पढता हुआ उन बिछाये कुशों पर बहूको घरमें ले चले॥फिर “गृहानहं सुमनसः०”मन्त्र को पढ़ते हुए एक जलभरा पात्र, धान की खीलें आदिऔर विवाह के अग्निको साथ लिए हुएघर में प्रवेश करे।प्रवेश के समय रोहिणी या मूल नक्षत्र हो। या ज्योतिःशास्त्रानुकून मुहूर्त्त हो॥प्रथम से बनाये कुण्ड में अग्निस्थापन करके उसअग्नि से पश्चिम में लाल बैल का चर्म पूर्व को शिर और ऊपर को लोमरख के बिछावे, उस पर दाभ बिछाके उनपर या बैल का चर्म न मिले तोबिछाये हुए केवल दाभों पर बहू को बैठावे॥फिर “सोमेनादित्यां०”मन्त्र पढ़के मृग चर्मादि धारण किये किसी ब्रह्मचारी को इसी बहू के गोद मेंबैठावे॥तब कोई फल जिनमें मिले हों ऐसे तिल और चावलों से ब्रह्मचारीकी अन्जुली भर कर बहू कीं गोदी से उठा देवे।इसके अनन्तर ध्रुवअरुन्धती, जीवन्ती और सप्तऋषि इन नक्षत्रों को बहू को दिखा वे॥

सप्तऋषियों के बीच की तारा जीवन्ती कहानी है।वह बहू जब ध्रुवादिको देखनी हो तबवर “अच्युता ध्रुवा०”इत्यादि मंत्र का जप करे।फिरदिन प्रातःकाल प्रजापति देवता के लिये दूध में पूर्व कहे अनुसारस्थाली पाक पकाके उससे “प्रजापतयेस्वाहां०”मन्त्र द्वारा प्रजापति केलिये तूष्णी प्रधान होम करे॥फिर शेष बचे घी में दही मिलाकर इस दहीके साथ शेष बचे स्थालीपाक को “चक्रीवानडुहौ०” मन्त्र पढके यजमानतीन बार खाये और शेष बचे को पत्नी विना मन्त्र तीन वार खावे।फिरउसी दिन दोपहर के पश्चात् श्रौतसूत्र में कहे अनुसार पिण्ड पितृयज्ञकरें। विवाह विधि हो जाने पर स्त्री पुरुष दोनों एक वर्ष या बारह दिन यातीन दिन या एक दिन तक ब्रह्मचारी ( मैथुन न करें ) रहें॥इसी अवसरमें घर के काम काज धन के लेन देन आदिका पत्नी को देवे॥ब्रह्मचर्य की समाप्ति में पूर्वोक्त मंत्र से पत्नी की कटि में बान्धी मेखलाको खोलकर वदयमाण रीति से दोनों समागम करें।समागम से पहिले“अपश्यत्वा मनसा०” मन्त्र को पति को देखनी हुई पत्नी पढ़े फिर “अपश्यंत्वा मनसां”मंत्र को पत्नी के तरफ देखना हुआ पनि पढ़े, फिर प्रजापतिस्तन्वं० ”मन्त्र को पत्नी पढ़े।और “अहंगर्भ मद०”मन्त्र को पति पढ़े। फिर “करत”ऐसा कहकर पुरुष पत्नी के उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श करे। “जननी’ऐसा कहकर अपने उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श करे॥“ बृहत्’कहकरदोनों के संयोग के अन्त में गर्भाशय का स्पर्श करे।इसी रीति से प्रत्येकऋतु काल में दोनों समागम किया करें॥सू० १—२२॥यह अठारहवां खण्ड पूरा हुआ॥१८॥

** अथाऽस्यास्तृतीये गर्भमासे पुंसा नक्षत्रेण यदहश्चन्द्रमा न दृश्यते तदहर्वोपोष्याप्लाव्याहतं वास आच्छाद्यन्यग्रोधावरोहशुङ्गान् उदपेषं दक्षिणस्मिन्नासिकाच्छिद्रे आसिञ्चेत्॥१॥ हिरण्यगर्भोऽद्भ्यः संभूतः॥इत्येताभ्यां॥२॥ अथाऽस्या दक्षिणं कुक्षिमभिमृशेत्—“पुमानग्निः**

**त्यनुषजेत्॥५॥नम इत्यन्ने च ये ब्राह्मणाः प्राच्यांदिश्यर्हन्तु येदेवा यानि भूतानि प्रपद्ये तानि मे स्वस्त्ययनं कुर्वन्विति” दक्षिणस्यां प्रतीच्यां उत्तरस्थासूर्ध्वायां “ये ब्राह्मणा” इति सर्वत्रानुषजेत्॥६॥ स्नेहवदमांसमन्नं भोजयित्वा विदिशो ब्राह्मणानर्थसिद्धं वाचयेत्॥७॥बलिहरणस्यांते यामाशिषमिच्छेत् तामासीत॥८॥ गृहपतिः ॐ अक्षयमन्नमस्त्वित्याह॥९॥ भिक्षां प्रदायसायं भोजनमेव प्रातराशेत्॥१०॥ विप्रोष्य गृहानुपतिष्ठेत्॥११॥ इति वाराहगृहये वैश्वदैविकः खण्डः॥ **

विश्वे देवों के उद्देश्य से पकाया अन्न वैश्वदेव कहता है। उस अन्न सेगृहस्थ सायं प्रातः काल बलि कर्म करे।इन पञ्च महायज्ञों में यहां पहिलेदेव यज्ञ दिखलाते हैं॥१अग्नि, २ सोम, ३ धन्वन्तरि ४ विश्वेदेव, ५ प्रजा्पति और “अग्निस्विष्टकृत” इन छ देवताओं के लिये ” अग्नयेस्वाहा०”इत्यादि प्रकार छः आहुति हविष्यान्न की अग्नि में देवे अब भूतयज्ञकहते हैं—अग्नये नमः, सोमायनमः, इत्यादि मन्त्रों से अग्निस्थान यज्ञशाला में उत्तर २ को छः ग्रास घरे “अद्भ्यो नमः”जलभरे मटका के पास “ ओषधिभ्यो नमः”से ओषधियों के पास वनस्पतिभ्यो नमः”से बीच केखम्भे के पास “गृह्याभ्यो देवताभ्यो नमः”से घर के बीच “ धर्मायाधर्मायनमः” से द्वारपर “मृत्यवकाशाय नमः”से आकाश में बलि फेके। “आन्तर्गोष्ठायनमः से गोशाला के भीतर ‘ ‘बलिर्वैश्रवणाय नमः से घरके बाहर पूर्वमें “विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ”से घरके बीच में।इन्द्राय नमः, इन्द्र पुरुषेभ्योनमः” से घर से पूर्व में यमाय नमः यमपुरुषायनमः “से घर से दक्षिण भाग में एक बलिघरे।वरुणाय नमः।वरुणपुरुषेभ्यो नमः”से घर सेपश्चिम भाग में। “सोमाय नमः।सोमपुरुषेभ्यो नमः”से घर के उत्तरभाग में।ब्रह्मणे नमः। ब्रह्म पुरुषेभ्यो नमः।घरके मध्य भागमें। आपातिकेभ्यो नमः” इत्यादि वाक्यों से ग्यारह बलि पूर्व में घरे। दिवाचारिभ्यो भृतेभ्यो नमः”से दिन में “नक्तंचारिभ्यो मूतेभ्यो नमःसे रात में एक २ बलि बीच में धरे। “धन्वन्तस्ये नमः”से एक वलि धन्वन्तरि की तृप्ति के लिये घरे, जितना वलिकर्म के लिये अन्न लिया था उसमें से शेष बचे अन्न में थोड़ा जल मिलाके अ२सव्य दक्षिणाभिमुख हो घर से दक्षिण में “पितृभ्यः स्वधा’कहकर एक बलि भूमि पर घरे॥फिर यथा विधि अतिथि को भोजन कराके शेष बचे अन्नको पति पत्नी खावें॥पितरों के लिये जो एक बलि है वही पितृयज्ञ कहता है। यह वैश्वदेविक खण्ड पूरा हुआ॥

** अतः परं परिशिष्टं मैत्रायणीयसूत्रस्य गृह्यमगृह्यपुरुषः प्रायश्चित्तानुग्रहिक-हौतृक-शुल्बिक-उत्तरेष्टिक वैष्णव-आध्वर्यविकार्षक-चातुर्होतृकगोनामिक-अकुलपादरहस्य-प्रतिग्रहयमक-वृषोत्सर्ग-प्रश्न द्रविण षट्कारण-प्रधानसान्देहिक-प्रवराध्याय-रुद्राविधान-च्छन्दोनुक्रमणी-अन्तः कल्पप्रवासविधि-प्रातरुपस्थान-भूतोत्पत्तरिति द्वाविंशतिः परिशिष्टसंख्यानाम्॥१॥**

इसके अनन्तर मैत्रायणीय गृह्यशाखा के ( वाराह गृह्यसूत्र के परिशिष्ट को कहते हैं ) परिशिष्ट के विषयों की २२ संख्या है, जैसेगृह्य प्रगृह्य पुरुषः प्रायश्चित्तानुग्रहिक हौतृक, शुल्विक, उत्तरेष्ठिक, वैष्णव, आध्वर्य विकार्षक, चातुर्होतृक गानामिक, अकुल पादरहस्य, प्रतिग्रह यमक, वृषोत्सर्ग, प्रश्न, द्रविण, षट्कारण, प्रधान, सान्देहिक, प्रवराध्याय, रुद्रेविधान, छन्दोनुक्रमण, अन्तःकल्प, प्रवास विधि, प्रातरुपस्थान, और भूतोत्पत्ति॥

गृह्याग्नौ पाकयज्ञान् विहरेत्॥१॥ ह्रस्वत्वात्॥२॥ पाकयज्ञो ह्रस्वं हिपाक इत्याचक्षते॥३॥ दर्शपूर्णमास

प्रकृतिः पाकयज्ञविधिः अप्रयाजानुयाजोऽसामिधेनिकः स्वाहाकारान्ते निगद्य होमाः परतंत्रोत्पत्तिर्दक्षिणाग्नावाहिताग्निः गोमयेन गोचर्भमात्रं चतुरश्रंवा स्थंडिलमुपलिप्येषुमात्रं तस्मिन् लक्षणं- कुर्वीत “सत्यसदसी” ति पश्चार्धादुदीचीं लेखां लिखेत्॥४॥ “ऋतसदसी”ति दक्षिणार्धात् प्राचीं घर्मसदसीत्युत्तरार्धात् प्राचीं मध्ये द्वेतिस्रोवा प्राचीः॥५॥ “ऊर्जस्वती” दक्षिणाम्॥६॥“पयस्वती” त्युत्तराम्“इंद्रायत्वेति”मध्याद्वासर्वाः प्रादेशमात्र्यः दर्भेणावलिखेत्॥८॥ अद्भिः प्रोक्ष्याग्निं सादयति॥९॥ परिसमुह्य पर्युक्ष्य परिस्तीर्थ सूष्णीमध्यावर्हिस्समा प्रागग्रैक्षिारंभैः उदक्संस्थैः प्रयुग्मैर्धात भिस्तृषाति॥१०॥दक्षिणतोऽग्नेःब्राह्मणमुपवेश्योत्तरतःउदकपात्रं वर्हिषः पवित्रे कुरुते॥११॥ समिधावप्रच्छिन्नप्रान्तौ दर्भों प्रादेशमात्रौ “पवित्रे स्थो वैष्णव्य” इत्योषध्या छित्वा “विष्णोर्मनसापूते स्थ”इत्यद्भिः त्रिरुन्मृज्य प्रोक्षणीधर्मैः संस्कृत्य प्रणीताः प्रणीय निर्वपणप्रोक्षणसंचपनमिति यथा दैवतं चरुमधिश्रित्य स्रुक्स्रुवौ प्रमृज्याभ्युक्ष्य अग्नौ प्रताप्यअद्भिरासिच्य अच्छिन्नपात्रेत्याज्यमग्नौ अधिश्रयति॥१२॥ पृश्नेः पयोऽसी ”ति आज्यं निर्वपति॥१३॥ परि वाजपतिरित्याज्यं हविश्च त्रिः पर्यग्नि करोति॥१४॥ देवस्त्वा सवितोत्पुनात्वि” त्याज्यं श्रपयति॥१५॥ तूष्णीमिध्मा बर्हिः प्रोक्ष्य यथाम्नातमभि परिस्तृणाति॥१६॥

परिधीन् परिद्धाति॥१७॥ ओजोसी” त्याज्यमवेक्ष्यपश्चादग्नेःदर्भेष्वासादयति॥१८॥अभिधार्यस्थालीपाकमुत्तरत उद्वासयति॥१९॥सकृदेवेध्ममादाय विरूपाक्षःप्रथमो होमानां ब्राह्मणमामन्त्र्य समिधमादायघारावाघार्याज्यभागौ हुत्वा “युनज्मित्वे”ति च योजयित्वा नह्यति॥२०॥ “युक्तो वह”इति हविर्ज्ञायते॥२१॥ कामं पुरस्ताद्धुरोजुहोति “युक्तो वह जातवेदः पुरस्तादिदंविधिक्रियमाणं यथेह त्वं भिषग्भेषजस्यासि गोप्ता त्वयाप्रसूता गामश्वं पुरुषं सनेमि स्वाहे"ति॥२२॥विश्वाग्नेत्वया वयं धारा उदन्या इव॥अति गाहेमहि द्विष”मिति नक्षत्रमिष्वादेवतां यजेत॥२३॥अहोरात्रमृतुं तिथिं चअभिघार्य यद्देवतं हविः। स्यात् तज्जुहुयाद्यथादेवतम्॥२४॥ यथा देवतयावर्चा आकूताय स्वाहेति जयान्जुहुयात्॥२५॥प्रजापतिः प्रायच्छदिडामग्ने” इति स्विष्टकृतमुत्तरार्धपूर्वार्धे जुहुयात्॥२६॥मेक्षणमुपयामं पवित्रे चान्वादध्यात् “अन्वद्यनो अनुमतिरन्विदनुमते स्वंभूःस्वाहे”ति प्रायश्चित्ताहुतश्च॥२७॥ त्वं नो अग्ने स त्वंनो अग्ने मनो ज्योतिः त्रयस्त्रिंशत्तन्तवः आयाश्चाग्नेसीति” च। इमं स्तनं मधुमन्तं ध्याय प्रपीनमग्ने सलिलमध्ये।उत्संजिषस्व मधुमन्तपूर्वी समुद्य्रंसदनमाविवेशस्वाहे”ति परिधिविमोकमभिजुहोति॥२८॥ “अन्नपत”इत्यन्नस्य जुहुयात॥२९॥ “एधोस्येधिषीमहि स्वाहेति”

समिधमादधाति॥३०॥“समिसि समेधिषी” महीतिद्वितीयाम्॥३१॥बर्हिषि पूर्णपात्रं निनयेत्। एषोऽवभृथः पाकयज्ञानाम्॥३२॥आपोहिष्ठीयाभिर्मार्जयित्वा पर्युक्षेत॥३३॥ वरोदक्षिणा॥३४॥ अश्वं वरं विद्याद्गाामत्येके॥३५॥ इतिवाराहगृह्ये प्रथमः खण्डः संपूर्णः॥

** ॥इति वाराहगृह्यमेकविंशतिखण्डैः समाप्तम्॥ **

पाकयज्ञ छोटे २ होते हैं, इस लिये इनके लिये दूसरे अग्नि के आधानकी आवश्यकता नहीं, गृह्य अग्नि ही में पाकयज्ञों को सम्पादन करे। दर्श और पौर्णमास ( यज्ञ) की प्रकृति पाक-यज्ञविधि है अप्रयाज, अनुयाज, औरअसामधनिके मन्त्रों में “स्वाहा”को जोड़कर निगद (वाक्य) से होम करे,यह बात दूसरे गृह्यसूत्रों से लियी गई है। दक्षिणाग्नि में आहिताग्नि व्यक्तिगौचर्म मात्र भूमि चौकोण या वेदी को गौके गोबर से लीपकर उसपरधनुष की बराबर सत्यसदसि मंत्र से इस प्रकार रेखा खींचे कि पश्चिमभाग आधेमें उत्तर को रेखा खींचे। और “ऋतसदसि०”मं. से दक्षिणआधे में पश्चिम को रेखा खींचे। “धर्म सदसि०”मं. से उत्तर के आधेभाग में पूर्व की ओर रेखा खींचे। दो या तीन रेखा पूर्व की ओर “ऊर्जस्वनि”मं. से दक्षिण को रेखा खींचे। “पयस्वतिं०”मंत्र से उत्तर की ओर रेखाखींचे।या “इन्द्रायत्वा०‘”मन्त्र से बीच से विलस्तभर (प्रादेश परिमाण)सारी रेखाओं को कुश से खींचे। और जल से छोटा देकर अग्निके पासप्रयोजनीय पदार्थों को रक्खे। वेदी को साफ कर जल सींचे और अग्निकेचारो ओर कुशाओं को बिछाकर विना मंत्र समिधा, और बहिको पास मेंरख के पूर्वाग्र कुशाओं को दक्षिगा भाग से आरम्भ कर उत्तर को रख केवे जोड घातओं को बिछावे और अग्रि के दक्षिया भाग में ब्राह्मण को बैठाकर उत्तर भाग में जलपात्र को और बर्हि कुशाको पवित्रे बनावे।जिनकेअग्रभाग टूटे न हों ऐसे दो कुशाओं (प्रादेशपरिमाण के ) “पवित्रे स्थोवैष्णव्य०” मंत्र से कुशा को काट कर “ विष्णोमर्नसापूतेस्थ०”मंत्र से जलसे तीन वार मार्जन कर प्रोक्षणी से संस्कार कर प्रणीता से प्रणयन करनिर्वपण, प्रोक्षण, संवपन” कर्म को यथा दैवत चरु को अग्नि पर चढाकरसुक और स्रुवा को मार्जन कर उसपर जल छिड़क कर अग्नि में तपाकरजल से सींचकर “अच्छिन्न पत्र” मंत्र से अग्नि में तपावे।“पृश्निःपयोसि”मंत्र से आज्य से निर्वापकरे।“परिवाजपतिः”मंत्र से आज्य और हवि को तीनबार अंगारे”को अग्नि के चारो ओर भ्रमण करावे। “देवस्तव”इत्यादि मंत्र से आज्य को आगपर चढ़ावे। और विना मंत्र बहिः कुश को प्रोक्षण कर यथा विधि अग्नि के चारो ओर बिछावे और परिधिको परिधान करे। “ओजोसि”मंत्र से आज्यको देखकर अग्नि केपश्चिमभागमें कुशों पर रक्खे। और अग्नि में घी का ढार देकर स्थालीपाक के उत्तर में छोड़ देवे। और एक ही बार में इध्म को लेकर विरूपाक्षनामक प्रथम होम, ब्राह्मण को आमन्त्रण कर समिधा लेकर घी का दो ढारदेकर ज्यभाग की दो आहुतियां देकर “युनज्मित्वा०”मंत्र जोड़कर आरम्भ करे। “युक्तो वह०”से हविः का ज्ञान होता है। तब इच्छानुसार पहिलेधुरको हवन करे। फिर “युक्तोवह०”इत्यादि मंत्रों से नक्षत्र की पूजा करेंदेवता की पूजा करे। अहोरात्र को, तिथिको आज्य का ढार देकर जिसदेवता के निमित्त हविः हो उनके नाम तथा उनके मंत्र से हवन करे।“आकृताय०”मंत्र से स्विष्टकृत् की आहुति उत्तरार्ध पूर्वार्धभाग में देवे।दर्वा, उपग्राम, पवित्रे इनको अग्नि में डाले। “अन्वधनो०”इत्यादि मंत्र सेऔर “ इमं स्तनं०”मंत्र से परिधि को त्याग करते समय हवन करे।“अन्नपते०”मंत्र से अन्नको हवन करे। “एधासि ” मंत्र से समिधा कीआहुति करे। “समिदसि०”मंत्र से दूसरी समित की आहुति करे औरबर्हिषि तथा पूर्णपात्र को भी अग्नि में डाले। यह कर्म पाक यज्ञों का अवभृथ है। फिर “आपोहिष्ठां”मंत्र से मार्जन कर जल से सींचे।और ब्राह्मणों को दक्षिणा देवे॥कोई २ आचार्य दक्षिणा में घोड़ा, या गौ देना बताते हैं॥इति ठाकुर—उदयनारायण सिंह कृत भषानुवाद सहित वाराह गृह्यसूत्र २१ खण्डों में पूरा हुआ।

                    वाराहगृह्यसूत्र का प्रथम खण्ड पूरा हुआ॥

पुस्तक प्राप्तिस्थानम् ः-

ठा. उदयनारायणसिंह

**शास्त्रप्रकाश भवन; **

मधुरापुर,विद्दूपुर बाजार (मुजफ्फरपुर )\।

वाराहगृह्यसूत्र का शुद्धिपत्र \।

** पंक्ति ** अशुद्ध शुद्ध
दाक्षिणे दक्षिणे
दक्षिणतो दक्षिणतो
२६ अद्विंशात् आद्वाविंशात्
१४ श्रतस्य श्रुतस्य
१२ सयय समय
२० पहिले का पहिले ही
देवे देना देना चाहिये
१७ समय समय
विवाह विवाहः
हा हो
हत हतः
१६ सर्स्मादलं सर्वस्मादलं
धाती धोती
गाधां गाथां
अग्नि अग्नि के
१३ कुछ कुश
१८
१९
२०
१० कटे कूटे
२५ ता तो
१६ अंहं गर्भ अहंगर्भ
१५ वैश्वदेव वैश्वदेवः
सूर्ध्वायां मूर्ध्वायां
२० गानामिक गोनामिक
विद्याद्गाम- विद्याद्गामि-

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