स्रोतो ऽत्र । …
पादबद्धमंत्रोंका गान
ऋग्वेद और अथर्ववेद में पावबद्धमंत्र हैँ, और उनका गान होता है। “ऋचा” रूपी स्त्री और “सामगान” रूपी पुरुषका विवाह हुआ है। “पति-पत्नी” के समान साम और ऋचाका सम्बन्ध है। उपनिषदोंने इनका एक और भी सम्बन्ध दिखाया है, वह इसप्रकार है
“वाक् च प्राणश् च, ऋक् च साम च। (छां. उ. १२१५) “
वाग् एव सा प्राणो ऽमुस् तत् साम ॥ (छां. उ. १७३१) " वाणी और प्राण क्रमशः ऋक् और साम हैं।
वाणी ऋचा है और प्राण साम है।”
वाणी और प्राणका जैसा सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध ऋचा और सामका है।
स्वर-मण्डल
ऋचाका अर्थ है चरणयुक्त-मंत्र। इन मंत्रोंका षड्ज, मध्यम आदि स्वरों में आलाप होता है । इसलिए कहा है -
गीतिषु सामाख्या ॥ ( जै. सू. २११३३६)
वेदमंत्रोंके गानकी संज्ञा " साम" है।
न केवल मंत्रपाठकोही “साम” संज्ञा है और न केवल गानेकी ही, अपितु इन दोनोंके मिश्रण को ही “साम" संज्ञा है।
शालावत्य वाल्भ्यके संवादमें कहा है—
का साम्नो गतिर् इति ? स्वर इति होवाच । (छो. उ. ११८५४)
सामकी गति क्या है ? स्वर - आलाप - ही सामको गति है ।
स्वर अथवा आलापके बिना साम नहीं होता तथा
तस्य तस्य साम्रो यः स्वं वेद, भवति हास्यं स्वं, तस्य स्वर एव स्वम् । (बृ. उ. ११३।२५ )
“सापका स्वरूप आलाए है।” इस सामके स्वरमण्डलोंकी गणना नारदीय-शिक्षामें इसप्रकार की गई है-
सप्तस्वराः त्रयो ग्रामाः
मूर्छनास् त्वेकविंशतिः ।
ताना एकोनपंचाशत्
इत्य् एतत् स्वरमण्डलम् ॥
और भी कहा है -
यः सामगानां प्रथमः
स वेणोर् मध्यमः स्वरः ।
यो द्वितीयः स गांधारः,
तृतीयस् त्व् ऋषभः स्मृतः ।
चतुर्थः षड्ज इत्याहुः
पंचमो धैवतो भवेत् ।
षष्टो निषादो निशेयः,
सप्तमः पंचमः स्मृतः ॥ (नारदीय-शिक्षा)
+++(१ म, २ ग, ३ ऋ, ४ ष। ५ ध ६ नि ७ प)+++
इस नारदीय-शिक्षामें धवत और निषादका स्थान - परिवर्तन दिखता है+++(5)+++, उसका विचार संगीतज करें। ये स्वर सामांकके अनुसार +++(व्यत्यासो ऽवधेयः)+++ ऐसे होते हैं -
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अतिक्रुष्टः पंचमः । प।
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१ प्रथमः (वेणोः ) । मध्यमः। म।
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२ द्वितीयः गांधारः। ग।
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३ तृतीयः ऋषभः। रे।
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४ चतुर्थः षड्जः । सा।
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५ पंचमः (मन्द्रः) निषादः । नि।
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६ षष्ठः (अतिस्वार्यः) धैवतः । ध ।
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७ सप्तमः पंचमः । प।
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( क्रुष्टः ) तद् योसौ क्रुष्टतम इव साम्नः स्वरस् तं देवा उपजीवन्ति ।। प।
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१ योऽवरेषां प्रथमस् तं मनुष्या उपजीवन्ति । म ।
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२ यो द्वितीयस् तं गन्धर्वाप्सरसः उपजीवन्ति । ग।
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३ यस् तृतीयस् तं पशवः ( वृषभः ऋषभः ) उपजीवन्ति ।रे।
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४ यश् चतुर्थस् तं पितरो ये चाण्डेषु शेरते । सा ।
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५ या पंचमस् तम् असुर-रक्षांसि (निषादः) उपजीवन्ति । नि।
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अन्त्यः । योऽन्त्यस् तमोषधयो वनस्पतयश्चान्यज् जगत् ( सामविधान ब्राह्मणे ) । ध।
सामगानके ये स्वरमण्डल हैं। उदगाता इन स्वरों में साम गान करते हैं।
विकाराः
छ सामविकार होते हैं, वे इस प्रकार है – विकार - विश्लेषण - विकर्षण - अभ्यास - विराम - स्तोभ ।
- १ विकार-“अग्ने” का " ओग्नायि" होता है।
- २ विश्लेषण- “वीतये” का “वोयि तोयाषि” होता है।
- ३ विकर्षण- “ये” का " या२३यि" होता है ।
- ४ अभ्यास- बार बार बोलना, जैसे “तोया२यि। तोया२यि” है।
- ५ विराम- जैसे “गृणानो हव्यदातये" को “गृणानोह । व्यदातये” ऐसा बोलते हैं, यद्यपि मूल मंत्रमें “गृणानोह व्यदातये” ऐसा रूप नहीं है, फिर भी गाने के सौकर्यके लिए बीचमें ही तोड दिया जाता है, इसे विराम कहते हैं।
- ६ स्तोभ- ऋचाओंमें न आये हुए अक्षरोंको बोलना। जैसे “औ होवा। हाऊ” इत्यादि।
ऋक्-साम-कलनम्
सामवेद गानरूप निस्-सन्देह है, पर सामवेद जो आज पुस्तकके रूपमें है, वह तो केवल ऋचाओंका संग्रह है। इनमें कभी सामगान नहीं है। जिन मंत्रोंके आधार पर गान होते हैं, वे " योनिमंत्र"है। अर्थात् सामवेदके ये मंत्र गाये नहीं जाते हैं, अपितु इनके आधार पर बने हुए जो गाने हैं, वे गाये जाते हैं। ऋषियोंने इन योनिमंत्रोंके आधार पर हजारों गाने बनाये हैं। वे आज सामगान कहे जाते हैं।
सामवेवमें १८७५ मंत्र है, उन मंत्रों पर करीब करीब ४००० सामगान बने हैं। “कौथुमी” शाखाका यह सामवेद है और इस पर ही चार हजार गाने बने हैं, दूसरी “राणायणी” शाखाका सामवेद दूसरा है, और उन पर भी ४००० गाने पृथक् बने हैं। इसप्रकार सामवेद अनक है और उसके गाने भी अनेक है। ये सामगान जिस ऋषिने बनाये उसके नामसे ये गाने आज भी प्रसिद्ध है, जैसे “गोतमस्य पर्क, कश्यपस्य बार्हिषम्” इत्यादि । ये सब “ग्रामगान, आरण्यकगान, ऊहगान, उह्यगान” आदि नामोसे प्रसिद्ध है।
सामवेवके मंत्र सब ऋग्-वेवसे ही लिए गए हैं, और करीब ६० मंत्र जो ऋग्वेदकी आश्वलायन शाखामें नहीं मिलते - शाङ्ख्यायन शाखामें मिलते हैं।+++(5)+++ तात्पर्य यह कि सामवेद ऋग्वेषके मन्त्रोँका ही संग्रह है। अतः सामवेदमें जो मंत्र है उनके अलावा जो ऋग्वेद या अथर्ववेदमें मंत्र है, उनका भी गान किया जा सकता है अर्थात् जितने पाद-बद्धमंत्र है - उन सब पर सामगान बन सकते हैं।+++(5)+++
मंत्र और सामगान
ऋग्वेदके मंत्र जो सामवेवमें आये हैं, उन पर किस तरह गान बने हैं, वह यहां दिखाते हैं-
ऋग्वेवका मंत्र
अग्न॒ आ या॑हि वी॒तये॑ गृणा॒नो ह॒व्यदा॑तये ।
नि होता॑ सत्सि ब॒र्हिषि॑ ॥ (श ६।१६।१०)
सामयेवका मंत्र ( सामयोनिः)
अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये। नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥ 01:0001 ॥ (ऋ. ६।१६।१० )
इस मंत्रके सामगान
(१) गोतमस्य पर्कम् ।
ओ꣤ग्नाइ॥ आ꣢꣯या꣯हीऽ३वो꣡इतोयाऽ᳒२᳒इ। तो꣡याऽ᳒२᳒इ। गृ꣡णा꣯नो꣢꣯ह। व्यदा꣡तोयाऽ᳒२᳒इ। तो꣡याऽ᳒२᳒इ॥ ना꣡इहो꣢꣯ता꣡साऽ२३॥ त्सा꣡ऽ२᳐इबा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ही꣣ऽ२३४षी꣥॥
(२) कश्यपस्थ बाहिषम्
अ꣤ग्न꣥आ꣤꣯या꣥꣯हिवी꣤॥ त꣡याइ। गृणा꣯नो꣯हव्यदा꣯ताऽ२३या꣢इ। नि꣡हो꣯ता꣯ सत्सि꣢ ब꣡र्हाऽ२३इषी꣢॥ ब꣡र्हाऽ२᳐इषा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ब꣢र्ही᳐ऽ३षी꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
(३) गोतमस्य पर्कम्।
अ꣤ग्न꣥आ꣤꣯या꣥꣯हि। वा꣤ऽ५इतया꣤इ॥ गृ꣡णा꣯नो꣯हव्यदा꣢ऽ१ता꣢ऽ३ये꣢॥ निहो᳐ता꣣ऽ२३४सा꣥॥ त्सा꣡ऽ२३इबा꣢ऽ३। हा꣡ऽ२३४इषो꣥ऽ६हा꣥इ॥
यहां प्रथम ऋग्वेदका एक मंत्र दिया है, वही मंत्र सामवेदमें गाने के लिए लिया गया है। यहां सामयेवके अक्षरोँपर जो अंक है, वे अंक उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरभेद दिखाने वाले हैं। ऋग्वेवमेँ जो स्वर नीचे और ऊपर हैं - उन्हीको सामवेदमें अंकोंके द्वारा दिखाया गया है। जो ऋग्वेवमें अनुदात्तका निदर्शक नीचेकी लकीर (-) है, उसके लिए
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