[[अथ सप्तदशप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
[[अथ एकादशः खण्डः]]
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प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तम꣣ इ꣡न्द्रा꣢य सोम क्रतु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ म꣡दः꣢। म꣡हि꣢ द्यु꣣क्ष꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ ॥ 34:0578 ॥
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पव॑स्व॒ मधु॑मत्तम॒ इन्द्रा॑य सोम क्रतु॒वित्त॑मो॒ मदः॑ ।
महि॑ द्यु॒क्षत॑मो॒ मदः॑ ॥
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पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। म꣡धु꣢꣯मत्तमः। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। सो꣣म। क्रतुवि꣡त्त꣢मः। क्र꣣तु। वि꣡त्त꣢꣯मः। म꣡दः꣢꣯। म꣡हि꣢꣯। द्यु꣣क्ष꣡त꣢मः। द्यु꣣क्ष꣡। तमः꣢꣯। म꣡दः꣢꣯। ५७८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- गौरवीतिः शाक्त्यः
- ककुप्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) सबसे अधिक मधुर, (क्रतुवित्तमः) सबसे अधिक प्रज्ञा और कर्म को प्राप्त करानेवाले, और (मदः) हर्षप्रदाता आप (इन्द्राय) मेरे आत्मा के लिए (पवस्व) आनन्द-रस को प्रवाहित कीजिए। (मदः) आपसे दिया हुआ आनन्द (महि) अत्यधिक (द्युक्षतमः) तेज का निवास करानेवाला होता है ॥१॥ इस मन्त्र में ‘तमो मदः’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। ‘तम, तमो, तमो’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अत्यन्त मधुर, ज्ञान तथा कर्म के उपदेशक, आनन्ददाता परमात्मा का ध्यान कर-करके योगीजन अपार आनन्दरस से परिपूर्ण हो जाते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः, (क्रतुवित्तमः) अतिशयेन कर्मणः प्रज्ञायाश्च लम्भकः (मदः) हर्षकरश्च त्वम् (इन्द्राय) मदीयाय आत्मने (पवस्व) प्रस्रव, आनन्दरसं प्रवाहय। (मदः) त्वज्जनितः आनन्दः (महि) अत्यर्थम्। महि यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणमेतत्। (द्युक्षतमः) अतिशयेन तेजसो निवासकः भवति। द्यां दीप्तिं क्षाययति निवासयतीति द्युक्षः, अतिशयेन द्युक्षः द्युक्षतमः ॥१॥ ‘तमो मदः’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः। ‘तम, तमो, तमो’ इत्यत्र च वृत्त्यनुप्रासः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मधुरमधुरं ज्ञानकर्मोपदेष्टारमानन्दप्रदं परमात्मानं ध्यायं ध्यायं योगिनो निरतिशयानन्दरसनिर्भरा जायन्ते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. वैदिकयन्त्रालयमुद्रितायां सामसंहितायां तु अष्टम्या उरुराङ्गिरसः ऋषिर्निर्दिष्टः। २. ऋ० ९।१०८।१, साम० ६९२।
34_0578 पवस्व मधुमत्तम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७८-१। वासिष्ठम्॥ वसिष्ठः ककुप्सोमः॥
पा꣤वा꣥॥ स्व꣡माधुमा। तामा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। ई꣣ऽ२३४न्द्रा꣥। य꣢सो꣯मक्रतु वि꣡त्तमो꣢꣯म꣡दा꣢ऽ᳐३ः॥ ओ꣡इ। माहा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ द्यु꣢क्ष꣡तमो꣢꣯म꣡दा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
34_0578 पवस्व मधुमत्तम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७८-२। सफे द्वे॥ द्वयोर्देवाः ककुप् इन्द्रसोमौ॥
पा꣢ऽ᳐३४। वस्व꣥म꣤। धु꣥मत्ताऽ६माः꣥॥ आ꣡इन्द्राऽ᳒२᳒। यसो꣡माऽ᳒२᳒। क्रतु꣡वाइ त्ता꣢ऽ३मो꣤ऽ३। मा꣢ऽ३दाः꣢॥ म꣡हिद्युक्षाता꣢ऽ᳐३मो꣤ऽ३॥ मा꣢ऽ३४५दोऽ६"हा꣥इ॥
34_0578 पवस्व मधुमत्तम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५७८-३।
प꣤व꣥स्वम꣤धु꣥मा꣯। इ꣤हा॥ त꣡मः। इन्द्रा꣯यसो꣯मक्रतुवित्त꣢मो꣡꣯माऽ२३दाः꣢। इ꣡हा꣢॥ महा꣡इद्यूऽ२३क्षा꣢। इ꣡हा꣢॥ तमो꣡꣯माऽ२३दा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
34_0578 पवस्व मधुमत्तम - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५७८-४। वासिष्ठम्॥ वसिष्ठः ककुप्सोमेन्द्रौ॥
प꣤व꣥स्वमा꣤꣯। एऽ५। धु꣤मा॥ त꣡माः। इ꣢न्द्रा꣯यसोऽ᳐३। हा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣢। मा꣡क्रातूवीऽ२३दा꣢ऽ᳐३। हा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ᳐३४। त꣣मो꣢ऽ᳐३४म꣣दाः꣢॥ म꣡हाये꣢ऽ᳐३॥ द्यू꣡ऽ२᳐क्षा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ त꣢मो꣯म꣡दा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
34_0578 पवस्व मधुमत्तम - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५७८-५। सफम्॥ देवाः ककुप्सोमः॥
प꣢व꣡स्वा꣢ऽ᳐३म꣤धु꣥। म꣢त्ता꣣ऽ२३४माः꣥॥ इ꣢न्द्रा꣡꣯य꣢सो꣡माऽ᳒२᳒। क्रतु꣡वाइत्ता꣢ऽ᳐३ मो꣤ऽ३। मा꣢ऽ३᳐२३४दाः꣥॥ म꣢हा꣡इ॥ द्युक्षाता꣢ऽ᳐३मो꣤ऽ३। मा꣢ऽ᳐३४५दोऽ६"हा꣥इ॥
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अ꣣भि꣢ द्यु꣣म्नं꣢ बृ꣣ह꣢꣫द्यश꣣ इ꣡ष꣢स्पते दिदी꣣हि꣡ दे꣢व देव꣣यु꣢म्। वि꣡ कोशं꣢꣯ मध्य꣣मं꣡ यु꣢व ॥ 35:0579 ॥
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अ॒भि द्यु॒म्नं बृ॒हद्यश॒ इष॑स्पते दिदी॒हि दे॑व देव॒युः ।
वि कोशं॑ मध्य॒मं यु॑व ॥
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पदपाठः
अ꣣भि꣢। द्यु꣣म्न꣢म्। बृ꣣ह꣢त्। य꣡शः꣢꣯। इ꣡षः꣢꣯। प꣣ते। दिदीहि꣢। दे꣣व। देवयु꣢म्। वि। को꣡श꣢꣯म्। म꣣ध्यम꣢म्। यु꣣व। ५७९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- ऊर्ध्वसद्मा आङ्गिरसः
- ककुप्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इषः पते) अन्न, रस, धन, बल, विज्ञान आदि के स्वामी सोम परमात्मन् ! आप (द्युम्नम्) तेज को और (बृहद् यशः) महान् यश को (अभि) हमें प्राप्त कराइये। हे (देव) दान करने, चमकने, चमकाने आदि दिव्य कर्मों से युक्त भगवन् ! आप (देवयुम्) दिव्य गुणों के अभिलाषी मुझे (दिदीहि) दिव्य गुणों से प्रकाशित कर दीजिए। मेरे (मध्यमम्) मध्यम (कोशम्) कोश को, अर्थात् मध्यस्थ मनोमय कोश को (वि युव) खोल दीजिए, जिससे उपरले विज्ञानमय तथा आनन्दमय कोश में पहुँच सकूँ ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे मेघरूप मध्यम कोश के खुलने से ही ऊपर का सूर्यप्रकाश प्राप्त हो सकता है, वैसे ही कोशों में मध्यस्थ मनोमय कोश के खुलने से ही विज्ञानमय और आनन्दमय कोश की विपुल समृद्धि प्राप्त की जा सकती है, अन्यथा योग का साधक मनोमय भूमिका में ही रमता रहता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इषः पते) अन्नरसधनबलविज्ञानादीनाम् अधिपते सोम परमात्मन् ! त्वम् (द्युम्नम्) तेजः। द्युम्नं द्योततेः। निरु० ५।५। (बृहद् यशः) महतीं कीर्तिं च (अभि) अस्मान् अभिप्रापय। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। हे (देव) दानदीपनद्योतनादिदिव्यकर्मन् भगवन् ! त्वम् (देवयुम्) दिव्यगुणान् कामयमानं माम्। देवान् आत्मनः कामयते इति देवयुः। क्यचि ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उ प्रत्ययः। (दिदीहि) दिव्यगुणैः प्रकाशय। दीदयतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। किञ्च, (मध्यमम्) मध्यस्थम् (कोशम्) मनोमयरूपम् (वि युव) वियोजय, समुद्घाटय। येन तत उपरितनं विज्ञानमयमानन्दमयं च कोशमारोढुं प्रभवेयम् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा मेघरूपस्य मध्यमकोशस्यापावरणेनैव ऊर्ध्वस्थः सूर्यप्रकाशः प्राप्तुं शक्यते, तथैव मध्यस्थस्य मनोमयकोशस्यापावृत्त्यैव विज्ञानमयस्याऽऽनन्दमयस्य च कोशस्य विपुला समृद्धिरधिगन्तुं पार्यते, अन्यथा योगसाधको मनोमयभूमिकास्वेव रममाणस्तिष्ठति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।९ ‘देवयुम्’ इत्यत्र ‘देवयुः’ इति पाठः। साम० १०११।
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लिखितम्
५७९-१। ऐषिराणि चत्वारि॥ चतुर्णांमिषिरः ककुप्सोमः॥
अ꣢भा꣡इ। द्यु꣢म्ना᳐ऽ३म्बॄ꣤ऽ३ह꣢द्य꣣शः꣥॥ इ꣢षाः꣡। प꣢ते꣯दिदी꣯हिदेऽ᳐३वा꣤ऽ३ दे꣢꣯व꣣यु꣥म्॥ वि꣢को꣡। श꣢म्म॥ ध्य꣣मा꣢ऽ᳐३म्यू꣤ऽ५वा"ऽ६५६॥ दी-३। प-७। मा-४॥ ६ (ठी) ११६८॥
35_0579 अभि द्युम्नम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७९-२।
अ꣥। भे꣤द्यूम्ना꣥म्॥ बृ꣢हा꣡द्या꣢ऽ१शाऽ᳒२ः᳒। इ꣡षास्पताइ। दीदी꣢᳐हा꣣ऽ२३४इदे꣥। व꣣दा꣢इ᳐वा꣣ऽ२३४यू꣥म्॥ वि꣢कौवा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ श꣡म्मध्य꣢माऽ३१उवाऽ२३॥ यूऽ२३४वा꣥॥ दी-नास्ति। प-९। मा-८॥ ७ (लै) ११६९॥
35_0579 अभि द्युम्नम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५७९-३।
अ꣥भि꣤द्यु꣥म्न꣤म्बृ꣥ह꣤त्। इहा॥ य꣡शः। इषस्पते꣯दिदी꣯हिदे꣯व꣢दे꣡꣯वाऽ२३यू꣢म्॥
35_0579 अभि द्युम्नम् - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५७९-४।
अ꣥भिद्युम्नंबॄऽ६ह꣥द्यशाः॥ इ꣢षस्प꣡ताइ। दि꣢दी꣯हि꣡दाइ। वा꣢꣯दे꣡꣯वयूम्। विको꣯ शम्मध्यमाऽ२३ꣳहो꣡इ। यूऽ२३४वा। ए꣥꣯हियाऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ सो꣢ता꣣ प꣡रि꣢ षिञ्च꣣ता꣢श्वं꣣ न꣡ स्तोम꣢꣯म꣣प्तु꣡र꣢ꣳरज꣣स्तु꣡र꣢म्। व꣣नप्रक्ष꣡मु꣢द꣣प्रु꣡त꣢म् ॥ 36:0580 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ सो॑ता॒ परि॑ षिञ्च॒ताश्वं॒ न स्तोम॑म॒प्तुरं॑ रज॒स्तुर॑म् ।
व॒न॒क्र॒क्षमु॑द॒प्रुत॑म् ॥
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पदपाठः
आ꣢। सो꣣त। प꣡रि꣢꣯। सि꣣ञ्चत। अ꣡श्व꣢꣯म्। न। स्तो꣡म꣢꣯म्। अ꣣प्तु꣡र꣢म्। र꣣जस्तु꣡र꣢म्। व꣣नप्रक्ष꣢म्। व꣣न। प्रक्ष꣢म्। उ꣣दप्रु꣡त꣢म्। उ꣣द। प्रु꣡त꣢꣯म्। ५८०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- ऋजिश्वा भारद्वाजः
- ककुप्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमात्मा की आराधना के लिए प्रेरणा दी गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मित्रो ! तुम (स्तोमम्) समूह रूप में विद्यमान (अप्तुरम्) नदी-नद-समुद्र के जलों में वेग से यान चलाने के साधनभूत, (रजस्तुरम्) अन्तरिक्षलोक में यानों को तेजी से ले जाने में साधनभूत, (वनप्रक्षम्) वनों को जलानेवाले, (उदप्रुतम्) जलों को भाप बनाकर ऊपर ले जानेवाले (अश्वम्) आग, विद्युत् आदि रूप अग्नि को (न) जैसे, शिल्पी लोग (आ सुन्वन्ति) उत्पन्न करते हैं तथा (परि सिञ्चन्ति) जलादि से संयुक्त करते हैं, वैसे ही (स्तोमम्) स्तुति के पात्र, (अप्तुरम्) प्राणों को प्रेरित करनेवाले, (रजस्तुरम्) पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि लोकों को वेग से चलानेवाले, (वनप्रक्षम्) सूर्यकिरणों अथवा मेघ-जलों को भूमण्डल पर सींचनेवाले, (उदप्रुतम्) शरीरस्थ रक्त-जलों को अथवा नदियों के जलों को प्रवाहित करनेवाले सोम परमात्मा को (आ सोत) हृदय में प्रकट करो और (परि सिञ्चत) श्रद्धारसों से सींचो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। आपः, वनम्, उदकम् ये सब निघण्टु (१।१२) में जलवाची पठित होने से तथा निरुक्त (१२।७) में रजस् शब्द के भी जलवाची होने से ‘अप्तुरम्, रजस्तुरम्, वन-प्रक्षम्, उदप्रुतम्’ ये सब समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु प्रदर्शित व्याख्या के अनुसार वस्तुतः भिन्न अर्थवाले हैं, अतः यहाँ पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है। त्, म् आदि की आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। ‘तुरम्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे शिल्पी लोग विद्युत् आदि रूप अग्नि को यानों में संयुक्त करते तथा जल, वायु आदि से सिक्त करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि प्राणों के प्रेरक, द्यावापृथिवी आदि लोकों के धारक, सूर्यकिरणों और मेघजलों के वर्षक परमात्मा को हृदय में संयुक्त कर श्रद्धा-रसों से सीचें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जनान् परमात्माराधनाय प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः यूयम् (स्तोमम्) समूहरूपेण विद्यमानम्, (अप्तुरम्) यः अप्सु नदीनदसमुद्रवर्तिषु उदकेषु तोरयति वेगेन गमयति यानानि तम्। अप्पूर्वकात् तुर त्वरणे धातोर्णिजन्तात् क्विप्। (रजस्तुरम्) यः रजसि अन्तरिक्षलोके तोरयति वेगेन गमयति यानानि तम्, (वनप्रक्षम्) यो वनानि अरण्यानि पृणक्ति संस्पृशति दहति वा तम्। वनपूर्वात् पृची सम्पर्के धातोः बाहुलकाद् औणादिकः सः प्रत्ययः। (उदप्रुतम्) यः उदकं प्रवयति वाष्पीकृत्य ऊर्ध्वं गमयति तम्। उदकपूर्वात् प्रुङ् गतौ धातोः क्विप्। उदकस्य उदभावः। (अश्वम्२) वह्निविद्युदादिरूपम् अग्निम् (न) यथा, शिल्पिनः (आ सुन्वन्ति) उत्पादयन्ति (परि सिञ्चन्ति) जलादिभिः परितः संयोजयन्ति, तथा (स्तोमम्) स्तुतिपात्रम्। स्तूयते इति स्तोमः। ष्टुञ् स्तुतौ धातोः ‘अर्तिस्तुसु०। उ० १।१४०’ इति मन् प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम्। (अप्तुरम्३) यः अपः प्राणान् तोरयति प्रेरयति तम्। आपो वै प्राणाः। श० ३।८।२।४, प्राणा वा आपः। तै० ३।२।५।२। (रजस्तुरम्) यो रजांसि पृथिवीचन्द्रसूर्यनक्षत्रादिलोकान् तोरयति शीघ्रं गमयति तम्, (वनप्रक्षम्) यो वनानि सूर्यरश्मीन् मेघोदकानि च पर्षति सिञ्चति भूमण्डले तम्। वनम् इति रश्मिनाम उदकनाम च। निघं० १।५, १।२२, पृषु सेचने, भ्वादिः। (उदप्रुतम्) यः उदकानि शरीरस्थानि रुधिराणि नदीभवानि जलानि च प्रवयते प्रवाहयति तम् परमात्मसोमम् (आ सोत) आ सुनुत हृदये प्रकटयत। षुञ् अभिषवे, स्वादिः, लोटि ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।१४५’ इति तस्य तबादेशः। पित्त्वान्ङित्वाभावे न गुणनिषेधः। विकरणस्य लुक्। (परि सिञ्चत) श्रद्धारसैः सर्वतः सिञ्चत च ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। आपः, वनम्, उदकम् इति सर्वेषां जलनामसु पठितत्वात् (निघं० १।१२), निरुक्ते रजःशब्दस्यापि च जलवाचित्वात् (निरु० १२।७)। ‘अप्तुरम्-रजस्तुरम्-वनप्रक्षम्- उदप्रुतम्’ इति सर्वे समानार्थकाः प्रतीयन्ते, किन्तु वस्तुतः प्रदर्शितव्याख्यानानुसारं ते भिन्नार्थाः, अतः पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः। तकारमकारादीनामावृत्तौ च वृत्त्यनुप्रासः। ‘तुरं-तुरम्’ इत्यत्र लाटानुप्रासः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा शल्पिनो विद्युदाद्यग्निं यानेषु संयोजयन्ति जलवाय्वादिभिश्च सिञ्चन्ति तथा सर्वे मनुष्याः प्राणानां प्रेरकं, द्यावापृथिव्यादिलोकानां धारकं, सूर्यकिरणानां मेघजलानां च वर्षकं परमात्मानं हृदये संयोज्य श्रद्धारसेनाभिषिञ्चेयुः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।७ ‘वनप्रक्ष’ इत्यत्र ‘वनक्रक्ष’ इति पाठः। साम० १३९४। २. ‘प्र नूनं जातवेदसम् अश्वं हिनोत वाजिनम्। ऋ० १०।१८८।१’ इत्याग्नेये जातवेदसे सूक्ते अग्निरश्वः उक्तः। अग्निरेव यदश्वः। श० ६।३।३।२२ इति च ब्राह्मणम्। ३. (अप्तुरम्) योऽपः प्राणान् जलानि वा तोरयति प्रेरयति तम् इति ऋ० ३।२७।११ भाष्ये द०।
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लिखितम्
५८०-१। कार्णश्रवसानि त्रीणि॥ त्रयाणां कर्णश्रवा ककुबश्वः॥
आ꣥꣯सो꣯ता꣯पा॥ रा꣡ऽ२᳐इषा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। चा꣣ऽ२३४ता꣥। अ꣡श्व꣢न्न꣡स्तो꣯ मम꣢प्तु꣡रा꣰꣯ऽ२ꣳरजस्तु꣡रम्॥ ओये꣢ऽ३। वना꣢ऽ᳐३॥ ओ꣡ये꣢ऽ᳐३। प्रक्षा꣢ऽ᳐३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣢दप्रु꣡ता꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ दी-९। प-१०। मा-४॥ १० (नी) ११७२॥
36_0580 आ सोता - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५८०-२।
आ꣥꣯सो꣯ता꣯पा॥ रि꣢षि। च꣡ताऽ᳒२᳒। ऊऽ᳒२᳒। हाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒। अ꣡श्व꣢ न्न꣡स्तो꣯मम꣢। प्तु꣡राऽ᳒२᳒म्। ऊऽ᳒२᳒। हाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒। रज। स्तु꣡राऽ᳒२᳒म्। ऊऽ᳒२᳒। हाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒॥ वन। प्र꣡क्षाऽ᳒२᳒म्। ऊऽ᳒२᳒। हाऽ᳒२᳒इ। ऊ꣡ऽ२᳐॥ उ꣣द꣢। प्रू꣡ऽ२᳐ ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥।
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लिखितम्
५८०-३।
आ꣥꣯सो꣯ता꣯पा॥ रि꣡। षाइ। चता। अश्वान्नस्तो। माम꣢प्तू꣣ऽ२३४रा꣥म्। र꣣जा꣢᳐स्तू꣣ऽ२३४रा꣥म्॥ वनो꣤हाइ॥ प्रा꣡क्षामू꣢ऽ᳐३दा꣢। हि꣡म्माये꣢ऽ३॥ प्रूऽ२३४ ता꣥म्॥
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लिखितम्
५८०-४। वाचस्सामानि त्रीणि॥ त्रयाणां वाक्ककुबश्वः॥
आ꣥꣯सो꣯ता꣯पा꣯रीऽ६षि꣥ञ्चता॥ आ꣡श्वा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। न꣡स्तो꣯मम꣢प्तु꣡रा꣰꣯ऽ२ꣳ रजस्तु꣡राऽ२३म्॥ हो꣡इ। वाना꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ प्र꣢क्ष꣡मुद꣢प्रु꣡ता꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
36_0580 आ सोता - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५८०-५।
आ꣣꣯सो꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ ता꣡꣯पराइषि꣪ञ्चाताऽ᳒२᳒। आ꣡श्वन्न꣢स्तो꣯। मा꣡म꣪प्तूरा ऽ२᳐म्। र꣣जा꣢᳐स्तू꣣ऽ२३४रा꣥म्॥ वनो꣤हाइ॥ प्रा꣡क्षमु꣢दाऽ३१उवाऽ२३॥ प्रूऽ२३४ ता꣥म्॥
36_0580 आ सोता - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५८०-६। वाचस्साम॥
आ꣣꣯सो꣤꣯ता꣥꣯पा। हो꣢᳐। रि꣣षि꣤ञ्चता꣥ऽ६ए꣥॥ आ꣡श्वन्न꣢स्तो꣯। मा꣡म꣪प्तूराऽ᳒२᳒म्। रा꣡जस्तु꣢रम्॥ वा꣡न꣪प्राक्षाऽ२३म्॥ ऊ꣡ऽ२३दा꣤ऽ३। प्रू꣢ऽ᳐३४५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए꣣त꣢मु꣣ त्यं꣡ म꣢द꣣च्यु꣡त꣢ꣳ स꣣ह꣡स्र꣢धारं वृष꣣भं꣡ दिवो꣣दु꣡ह꣢म्। वि꣢श्वा꣣ व꣡सू꣢नि꣣ बि꣡भ्र꣢तम् ॥ 37:0581 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए॒तमु॒ त्यं म॑द॒च्युतं॑ स॒हस्र॑धारं वृष॒भं दिवो॑ दुहुः ।
विश्वा॒ वसू॑नि॒ बिभ्र॑तम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ए꣣त꣢म्। उ꣣। त्य꣢म्। म꣣दच्यु꣡त꣢म्। म꣣द। च्यु꣡त꣢꣯म्। स꣣ह꣡स्र꣢धारम्। स꣣ह꣡स्र꣢। धा꣣रम्। वृषभ꣢म्। दि꣣वोदु꣡ह꣢म्। दि꣣वः। दु꣡ह꣢꣯म्। वि꣡श्वा꣢꣯। व꣡सू꣢꣯नि। बि꣡भ्र꣢꣯तम्। ५८१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कृतयशा आङ्गिरसः
- ककुप्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में बताया गया है कि कैसे परमात्मा को श्रद्धारसों से सींचो।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एतम् उ) इस, सबके समीपस्थ, (त्यम्) प्रसिद्ध, (मदच्युतम्) आनन्दस्रावी, (सहस्रधारम्) सत्य, अहिंसा, न्याय, दया आदि गुणों की सहस्र धाराएँ बहानेवाले, (वृषभम्) महाबली, (दिवोदुहम्) आकाशरूपी गाय को दुहनेवाले अर्थात् आकाश से सूर्य-किरणों, मेघजलों आदि की वर्षा करनेवाले, (विश्वा) सब (वसूनि) ऐश्वर्यों को (बिभ्रतम्) धारण करनेवाले सोम परमात्मा को (आ सोत) हृदय में प्रकट करो, तथा (परि षिञ्चत) श्रद्धारसों से सींचो ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि आनन्द की प्राप्ति के लिए रस के भण्डार और सहस्रों धाराओं से रस बरसानेवाले परमात्मा रूप सोम को अपने हृदय में श्रद्धाभाव से धारण करें ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशं सोमाख्यं परमेश्वरं श्रद्धारसैः सिञ्चतेत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एतम् उ) इमं सर्वेषां समीपस्थम्, (त्यम्) प्रसिद्धम्, (मदच्युतम्) आनन्दस्राविणम्, (सहस्रधारम्) सहस्रम् अनेकाः धाराः सत्याहिंसान्यायदयादिगुणानां प्रवाहाः यस्मात् तम्, (वृषभम्) महाबलम्, (दिवोदुहम्) द्युरूपाया धेनोः दोग्धारम्, दिवः सूर्यरश्मिमेघजलादीनां वर्षकमित्यर्थः। अत्र दोहनसम्बन्धाद् दिवि धेनुत्वारोपः कार्यः। (विश्वा) विश्वानि (वसूनि) ऐश्वर्याणि (बिभ्रतम्) धारयन्तम् सोमं परमात्मानम् ‘आसोत परिषिञ्चत’ चेति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते। हृदये प्रकटयत श्रद्धारसैः स्नपयत चेति भावः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यैरानन्दप्राप्तये रसागारः सहस्रधाराभी रसवर्षकश्च परमात्मसोमः स्वहृदि श्रद्धाभावेन धारणीयः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।११ ‘दिवोदुहम्’ इत्यत्र ‘दिवो दुहुः’ इति पाठः।
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लिखितम्
५८१-१। कौल्मलबर्हिषे द्वे॥ द्वयोः कुल्मलबर्हिः ककुप् वृषभः॥
ए꣤ता꣥म्॥ ऊ꣡त्याम्। म꣪दाऽ२᳐च्यू꣣ऽ२३४ता꣥म्। स꣢हा꣡स्रधा꣢। रां꣡वृषभा꣢ ऽ᳐३म्। दि꣡वोऽ२᳐दू꣣ऽ२३४हा꣥म्॥ वि꣡श्वाऽ᳒२᳒होऽ१इ। होइ॥ वाऽ२३सू꣢ऽ᳐३। ना꣡ऽ२᳐इबा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भ्रा꣣ऽ२३४ता꣥म्॥
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लिखितम्
५८१-२।
ए꣤ता꣥मू꣤त्या꣥म्॥ म꣢दाऽ᳐३१उवाऽ२३। च्यूऽ२३४ता꣥म्।
37_0581 एतमु त्यम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५८१-३। सादन्तीयम्॥ (शङ्कु)। प्रजापतिः ककुप् वृषभः॥
ए꣥꣯त꣤मु꣥त्य꣤म्। एऽ५। म꣤दा॥ च्यु꣡ताम्। सहस्रधा꣯रंवृषभंदि꣢वो꣡꣯दूऽ२३ हा꣢म्॥ वा꣡इश्वाऽ᳒२᳒वा꣡सूऽ२३॥ नि꣢बो꣡ऽ२३४वा꣥। भ्रा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
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लिखितम्
५८१-४। कौल्मलबर्हिषाणि त्रीणि॥ त्रयाणां कुल्मलबर्हिः ककुप् वृषभः॥
ए꣥꣯त꣤मु꣥त्य꣤म्। ओहाइ। म꣥दच्यु꣤त꣥म्। ओ꣤हाइ॥ सा꣢ह᳐स्रा꣣ऽ२३४धा꣥। र꣢वा᳐र्षा꣣ऽ२३४भा꣥म्। दि꣢वो꣯दुहमो꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ वि꣡श्वाऽ᳒२᳒होऽ१इ॥ वाऽ२३सू꣢ऽ᳐३। ना꣡ऽ२᳐इबा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भ्रा꣣ऽ२३४ता꣥म्॥ दी-४। प-११। मा-१०॥ १९ (तौ) ११८१॥
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लिखितम्
५८१-५।
ए꣥꣯तामु꣣त्य꣢म꣣दा꣤च्यु꣥ताम्॥ सा꣡हस्रधा꣢। रां꣡वृ꣪षाभाऽ᳒२᳒म्। दिवोऽ᳒२᳒। दु꣡हमोइ॥ विश्वा꣯वसू꣯निबाऽ२३हो꣡इ॥ भ्रात꣢माऽ३१उवाऽ२३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
37_0581 एतमु त्यम् - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५८१-६।
ए꣣꣯ता꣢ऽ३४म्। उत्यम्म꣥दा꣯। च्यू꣤ता꣥म्॥ स꣢ह꣡स्रधा꣯र꣰ऽ२म्वृ। षभ꣡म्। दिवोऽ२३१२३। दू꣡ऽ२३४हा꣥म्॥ वि꣡श्वा꣯वसू꣯निबा꣢ऽ᳐३ओ꣡ये꣢ऽ᳐३॥ भ्रा꣡ऽ२३४ ताम्। ए꣥꣯हियाऽ६हा꣥॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-६। प-१२। मा-७॥ २१ (खे) ११८३॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣡ सु꣢न्वे꣣ यो꣡ वसू꣢꣯नां꣣ यो꣢ रा꣣या꣡मा꣢ने꣣ता꣡ य इडा꣢꣯नाम्। सो꣢मो꣣ यः꣡ सु꣢क्षिती꣣ना꣢म् ॥ 38:0582 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स सु॑न्वे॒ यो वसू॑नां॒ यो रा॒यामा॑ने॒ता य इळा॑नाम् ।
सोमो॒ यः सु॑क्षिती॒नाम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सः꣢। सु꣣न्वे। यः꣢। व꣡सू꣢꣯नाम्। यः। रा꣣या꣢म्। आ꣣नेता꣢। आ꣣। नेता꣢। यः। इ꣡डा꣢꣯नाम्। सो꣡मः꣢꣯। यः। सु꣣क्षितीना꣢म्। सु꣣। क्षितीना꣢म्। ५८२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- ऋणंचयो राजर्षिः
- यवमध्या गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा कैसा है, इसका वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सः) वह (सोमः) सर्वोत्पादक रसमय परमेश्वर, (सुन्वे) ध्यान द्वारा हृदय में अभिषुत किया जाता है, (यः) जो (वसूनाम्) किरणों का (यः) जो (रायाम्) धनों का, (यः) जो (इडानाम्) भूमियों, वाणियों, अन्नों और गायों का और (यः) जो (सुक्षितीनाम्) श्रेष्ठ मनुष्यों का (आ नेता) प्राप्त करानेवाला है ॥५॥ इस मन्त्र में ‘यः’ की चार बार पुनरुक्ति यह द्योतित करने के लिए है कि वह परमेश्वर ही इन पदार्थों को प्राप्त करानेवाला है, अन्य कोई नहीं। ‘वसूनाम्, रायाम्’ इन दोनों के धनवाची होने के कारण और ‘इडानाम्’, सुक्षितीनाम्’ इनके भूमिवाची होने के कारण प्रथम दृष्टि में एकार्थता प्रतीत होती है, किन्तु व्याख्यात रूप में अर्थ-भेद है। अतः पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर जगत् में दिखायी देनेवाले सभी पदार्थों का उत्पादक और प्राप्त करानेवाला है, उसकी उपासना से सबको आनन्दरस प्राप्त करना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सः) असौ (सोमः) सर्वोत्पादको रसमयः परमेश्वरः (सुन्वे) ध्यानद्वारा हृदि अभिषूयते, (यः वसूनाम्) रश्मीनाम्। वसु इति रश्मिनाम। निघं० १।५। (यः रायान्) धनानाम्, (यः इडानाम्) भूमीनाम्, वाचाम्, अन्नानां गवां च। इडेति पृथिवीनाम, वाङ्नाम, अन्ननाम, गोनाम च। निघं० १।१, १।११, २।७, २।११। (यः) यश्च (सुक्षितीनाम्) श्रेष्ठानां मनुष्याणाम्। क्षितय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (आनेता) प्रापयिता, भवतीति शेषः ॥५॥ अत्र यो य इति चतुष्कृत्वः पुनरुक्तिः स एवैतेषां पदार्थानामानेताऽस्ति नान्यः कोऽपीति द्योतनार्था। प्रथमदृष्ट्या ‘वसूनां-रायाम्’ इत्युभयोर्धनवाचित्वादेकार्थता, एवम् ‘इडानाम्-सुक्षितीनाम्’ इत्युभयोः पृथिवीवाचित्वादेकार्थता प्रतीयते, व्याख्यातप्रकारेण चार्थभेदः, अतः पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरो जगति दृश्यमानानां सर्वेषामेव पदार्थानां जनकः प्रापयिता च वर्तते तदुपासनया सर्वैरानन्दरसः प्राप्तव्यः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।१३।
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लिखितम्
५८२-१। लोमनी द्वे॥ (दीर्घम्)। द्वयोर्भरद्वाजः ककुप् सोमः॥
सा꣤सू꣥॥ न्वे꣡꣯यो꣯वसूऽ२३ना꣢म्। यो꣡राऽ᳒२᳒या꣡माऽ᳒२᳒। ने꣯ता꣯यइ꣡डाऽ२३ना꣢म्॥ सो꣡ऽ२३माः꣢॥ य꣡स्सुक्षि꣢ता꣡ऽ२३४इनो꣥ऽ६"हा꣥इ॥ दी-४। प-६। मा-६॥ २२ (तू) ११८४॥
38_0582 स सुन्वे - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५८२-२।
स꣤सुहा꣥उ॥ न्वे꣡꣯यो꣯वसू꣯नाऽ२३ꣳहा꣢उ। यो꣡राऽ᳒२᳒या꣡माऽ᳒२᳒॥ ने꣯ता꣯यः॥ इ꣡डा꣯नाऽ२३ꣳहा꣢उ॥ सो꣡꣯मो꣯यस्सू꣢ऽ᳐३हा꣢उ॥ क्षि꣣ती꣢꣯ना꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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लिखितम्
५८२-३। सोमसामानि त्रीणि॥ त्रयाणां सोमः ककुप् सोमः॥
सः꣤। स्वेसासू꣥॥ न्वे꣡यो꣯व꣢साऽ३१उवाऽ२३। नाऽ२३꣡४꣡५꣡म्। यो꣡꣯रा꣰꣯ऽ२ या꣡꣯मा꣰꣯ऽ२ने꣯ता꣡꣯य꣢इ꣡डा꣰꣯ऽ२नाऽ᳐३म्॥ सो꣯मौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ य꣡स्सुक्षि꣢ताऽ३१ उवाये꣢ऽ३॥ नाऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ दी-९। प-८। मा-८॥ २४ (दै) ११८६॥
38_0582 स सुन्वे - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५८२-४।
स꣢सु꣡न्वेऽ२३यो꣤꣯वसू꣥꣯नाम्॥ यो꣢꣯रा꣡या꣢ऽ१माऽ२३ने꣢। ता꣯यइ꣡डाऽ२३४५ नाऽ६५६म्॥ सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡स्सुक्षि꣢ती꣯ना꣡म्। सो꣯माऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥दी-८। प-५। मा-५॥ २५ (णु) ११८७॥
38_0582 स सुन्वे - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५८२-५।
स꣤सु꣥न्वे꣯याः꣯। ए꣤वासू꣥॥ नां꣢꣯यो꣡रा꣢ऽ१याऽ२३मा꣢। ने꣯ता꣯यइ꣡डाऽ२३ ना꣢ऽ३४म्॥ सो꣣꣯मा꣢ऽ३ः॥ य꣡स्सुक्षि꣢। ता꣡ऽ२३४५इ॥ ना꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्व꣢ ह्या३ऽ.ङ्ग꣡ दै꣢व्य꣣ प꣡व꣢मान꣣ ज꣡नि꣢मानि द्यु꣣म꣡त्त꣢मः। अ꣣मृतत्वा꣡य꣢ घो꣣ष꣡य꣢न् ॥ 39:0583 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वं ह्य१॒॑ङ्ग दैव्या॒ पव॑मान॒ जनि॑मानि द्यु॒मत्त॑मः ।
अ॒मृ॒त॒त्वाय॑ घो॒षयः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्व꣢म्। हि। अ꣣ङ्ग꣢। दै꣣व्यम्। प꣡व꣢꣯मान। ज꣡नि꣢꣯मानि। द्यु꣣म꣡त्त꣢मः। अ꣣मृतत्वा꣡य꣢। अ꣣। मृतत्वा꣡य꣢। घो꣣ष꣡य꣢न्। ५८३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- शक्तिर्वासिष्ठः
- ककुप्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा क्या करता है, इसका वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अङ्ग) हे प्रिय (पवमान) पवित्रताकारी सोम परमात्मन् ! (त्वं हि) आप निश्चय ही (दैव्यम्) विद्वानों के हितकर कर्म को धारण करते हो। (द्युमत्तमः) सबसे अधिक देदीप्यमान आप (जनिमानि) जन्मों अर्थात् जन्मधारी विद्वान् सदाचारी मनुष्यों को (अमृतत्वाय) सांसारिक दुःखों से मुक्ति के लिए (घोषयन्) अधिकारी घोषित करते हो ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करता हुआ देव पुरुषों का हित ही सिद्ध करता है। वही मोक्ष के अधिकारी जनों को मोक्ष देकर सत्कृत करता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अङ्ग) हे प्रिय (पवमान) पवित्रतासम्पादक परमात्मसोम ! (त्वम् हि) त्वं खलु (दैव्यम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितं कर्म, धारयसीति शेषः। तदेव निदर्शयति—(द्युमत्तमः) अतिशयेन देदीप्यमानः त्वम् (जनिमानि) जन्मानि, जन्मधारिणो विदुषः सदाचारिणो मनुष्यान् इत्यर्थः। अत्र जनी प्रादुर्भावे धातोः ‘जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१५०’ इति इमनिन् प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम्। (अमृतत्वाय) सांसारिकदुःखविमोक्षाय (घोषयन्) अधिकारित्वेन विज्ञापयन् भवसि ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरो हि कर्मानुसारं फलं प्रयच्छन् देवजनानां हितमेव साधयति। स एव मोक्षाधिकारिणो जनान् मोक्षप्रदानेन सत्करोति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।३ ‘दैव्यं, घोषयन्’ इत्यत्र क्रमेण ‘दैव्या, घोषयः’ इति पाठः। साम० ९३८।
39_0583 त्व ह्या३ऽङ्ग - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५८३-१। शैतोष्माणि चत्वारि॥ चतुर्णां शीतोष्मः ककुप् सोमः॥
त्वꣳ꣥हिया॥ ग꣢दाइवियपवमा꣯नजनिमा꣯नि᳐ऽ३द्यू꣡माऽ᳒२᳒। ता꣡माऽ᳒२ः᳒॥
39_0583 त्व ह्या३ऽङ्ग - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५८३-२।
त्वꣳ꣥हिया॥ ग꣢दा꣡इविय꣢। प꣡वमा꣢꣯न। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हा꣢इ। जनि꣡माऽ२३ नी꣢ऽ३४। द्युम꣥। ता꣢ऽ᳐३माः꣢॥ अ꣡माऽ२३॥ ता꣡ऽ२᳐त्त्वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢घोऽ᳐३ष꣡याऽ२३꣡४꣡५꣡न्॥
39_0583 त्व ह्या३ऽङ्ग - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५८३-३।
त्वꣳ꣤ह्य꣥ङ्गदा꣤॥ वि꣡य। पवमा꣯नजनिमा꣯निद्यु꣢म꣡त्ताऽ२३माः꣢॥ अमा꣡र्ता ऽ२३त्त्वा꣢ऽ᳐३॥ य꣢घो꣡ऽ२३४वा꣥। षा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥ दी-२। प-६। मा-२॥ २९ (चा) ११९१॥
39_0583 त्व ह्या३ऽङ्ग - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५८३-४।
त्वꣳ꣥हो꣢ऽ᳐३अ꣤ङ्ग꣥दै꣤꣯विया꣥॥ प꣢व꣡माऽ᳒२᳒ना꣡। ज꣢नि꣡माऽ᳒२᳒ना꣡ये꣢ऽ᳐३४। द्युम꣥। ता꣢ऽ᳐३माः꣢॥ अ꣡मार्ता꣢ऽ᳐३त्त्वा꣢ऽ३॥ य꣢घो꣡ऽ२३४वा꣥। षा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए꣣ष꣡ स्य धार꣢꣯या सु꣣तो꣢ऽव्यो꣣ वा꣡रे꣢भिः पवते म꣣दि꣡न्त꣢मः। क्री꣡ड꣢न्नू꣣र्मि꣢र꣣पा꣡मि꣢व ॥ 40:0584 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए॒ष स्य धार॑या सु॒तोऽव्यो॒ वारे॑भिः पवते म॒दिन्त॑मः ।
क्रीळ॑न्नू॒र्मिर॒पामि॑व ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ए꣣षः। स्यः। धा꣡र꣢꣯या। सु꣣तः꣢। अ꣡व्याः꣢꣯। वा꣡रे꣢꣯भिः। प꣣वते। मदि꣡न्त꣢मः। क्रीड꣢न्। ऊ꣣र्मिः꣢। अ꣣पा꣢म्। इ꣣व। ५८४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- ऊरुराङ्गिरसः
- ककुप्
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम का धाराप्रवाह वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—सोम ओषधि के रस के पक्ष में। (एषः) यह (स्यः) वह हमारे द्वारा पर्वत से लाया गया, (अव्याः वारेभिः) भेड़ के बालों से अर्थात् भेड़ की ऊन से निर्मित दशापवित्रों से (सुतः) अभिषुत किया गया, (मदिन्तमः) अतिशय आनन्द उत्पन्न करनेवाला सोमरस (अपाम्) नदियों की (ऊर्मिः इव) लहर के समान (क्रीडन्) क्रीडा करता हुआ (धारया) धारा रूप से (पवते) द्रोणकलश में जा रहा है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (एषः) यह अनुभव किया जाता हुआ (स्यः) वह (अव्याः वारेभिः) भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्रों के तुल्य पवित्रताकारक यम, नियम आदि योगाङ्गों से (सुतः) हृदय में प्रकट किया गया, (मदिन्तमः) अतिशय आनन्द उत्पन्न करनेवाला सोम परमात्मा (अपाम् ऊर्मिः इव) नदियों की लहर के समान (कीडन्) क्रीडा करता हुआ (धारया) आनन्द की धारा के साथ (पवते) मेरे आत्मा में पहुँच रहा है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। जलों की लहर के समान क्रीडा करता हुआ सोम ओषधि का रस जैसे दशापवित्रों से छाना हुआ द्रोणकलश में पहुँचता है, वैसे ही यम, नियम आदि योग-साधनों से हृदय में प्रकट किया गया परमात्मारूप सोम मानो क्रीडा करता हुआ आनन्दप्रवाह के साथ योगियों के आत्मा को प्राप्त होता है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - समाधिस्थ उपासक लोग परमात्मा के पास से अपने आत्मा में वेगपूर्वक आती हुई आनन्दधारा को साक्षात् अनुभव करते हैं ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमो धारया पवते इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सोमौषधिरसपक्षे। (एषः) अयम् (स्यः) सः अस्माभिः पर्वतादानीतः (अव्याः वारेभिः) अवेर्बालैः, अविबालनिर्मितदशापवित्रैरित्यर्थः। (सुतः) अभिषुतः, (मदिन्तमः) अतिशयानन्दजनकः सोमौषधिरसः (अपाम्) उदकानाम् (ऊर्मिः इव) तरङ्गः इव (क्रीडन्) क्रीडां कुर्वन् (धारया) धारारूपेण (पवते) द्रोणकलशं गच्छति। पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपक्षे। (एषः अयम् अनुभूयमानः (स्यः) स प्रसिद्धः (अव्याः वारेभिः) अविबालनिर्मितदशापवित्रैरिव पवित्रताकारकैः यमनियमादिभिर्योगाङ्गैः (सुतः) हृदये प्रकटीकृतः (मदिन्तमः) अतिशयानन्दजनकः सोमः परमात्मा (अपाम् ऊर्मिः इव) नदीनां तरङ्गः इव (क्रीडन्) क्रीडां कुर्वन् (धारया) आनन्दप्रवाहेण सह (पवते) मदीयमात्मानं प्राप्नोति ॥७॥ अत्र श्लेष उपमालङ्कारश्च। अपां तरङ्ग इव क्रीडन् सोमौषधिरसो यथा दशापवित्रैः सुतः सन् द्रोणकलशं प्राप्नोति तथा यमनियमादिभिर्योगसाधनैः हृदये प्रकटीकृतः क्रीडन्निव परमात्मसोम आनन्दप्रवाहेण सार्द्धं योगिनामात्मानमधिगच्छति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - समाधिस्था उपासकाः परमात्मनः सकाशाद् वेगेन स्वात्मानमागच्छन्तीमानन्दधारां साक्षादनुभवन्ति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०८।५।
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लिखितम्
५८४-१। गायत्रपार्श्वम्॥ देवाः ककुप् सोमः॥
ए꣤षाः꣥॥ स्या꣡धा꣯र꣢याऽ३१उवाऽ२३। सूऽ२३४ताः꣥। अ꣡व्या꣰꣯ऽ२वा꣡꣯रे꣯भिᳲ꣢ पवते꣯मदि꣡न्तमः꣢॥ क्री꣯डा꣡नू꣢ऽ१र्मीऽ२ः᳐॥ अ꣣पा꣢ऽ᳐३म्। हि꣡म्ऽ२३(स्थि) बा꣤ऽ३॥ आ꣡इवाऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-६। प-८। मा-८॥ ३१ (गै) ११९३॥
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लिखितम्
५८४-२। सन्तनि॥ देवाः ककुप् यउस्रिया अभिव्रजन्तेति विष्टारपंक्तिः सोमः॥
ए꣤꣯षाहा꣥उ॥ स्या꣡धा꣯र꣢याऽ३१उवाऽ२३। सूऽ२३४ताः꣥। अ꣡व्या꣰꣯ऽ२वा꣡꣯रे꣯भिᳲ꣢ पवते꣯मदि꣡न्तमा꣣ऽ२३ः॥ क्री꣤꣯डन्हा꣥उ॥ ऊ꣡र्मिर꣢पाऽ३१उवाऽ२३॥ ईऽ२३४वा꣥॥ छू॥१॥ य꣡उस्रिया꣰꣯ऽ२अ꣡पिया꣯अन्तरश्मनी꣣ऽ२३॥ नि꣤र्गाहा꣥उ॥ आ꣡कृन्त꣢दा ऽ३१उवाऽ२३॥ जाऽ२३४सा꣥॥ झु॥२॥ अ꣢भि꣡व्रजन्तत्नि꣢षे꣯ग꣡व्यमश्विया꣣ ऽ२३म्॥ व꣤र्मीहा꣥उ॥ वा꣡धृष्ण꣢वाऽ३१उवाऽ२३॥ रूऽ२३४जा꣥॥ घि॥३॥
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लिखितम्
५८४-३। सोमसामानि त्रीणि॥ त्रयाणां सोमः ककुप्सोमः॥
ए꣢꣯ष꣡स्यधा꣯। राया꣢ऽ१सूताऽ२ः᳐॥ अ꣣व्या꣯वा꣢꣯रा꣡इ। भाइᳲपवते꣢꣯। म꣣दिन्त꣢माः꣡॥ क्री꣢꣯ड꣡न्नूऽ२३र्मी꣢ऽ३ः॥ आ꣡ऽ᳐२३पा꣤ऽ३म्। आ꣢ऽ᳐३४५इवोऽ६" हा꣥इ॥
40_0584 एष स्य - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५८४-४।
ए꣢꣯ष꣡स्या꣢ऽ᳐३धा꣤꣯रया꣥꣯सुताः॥ अ꣡व्याहोऽ᳒२᳒इ। वा꣡꣯रे꣯भिᳲपवते꣯मादि꣪न्तामाऽ᳒२ः᳒॥ क्री꣡꣯डाऽ᳒२᳒न्होऽ१इ। ऊऽ२३र्मीः꣢॥ अ꣣पा꣯मि꣢वा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
40_0584 एष स्य - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५८४-५।
ए꣤꣯षस्यधाऽ५रया꣯सु꣤ताः॥ अ꣢व्या꣡꣯वा꣢꣯रा꣡इ। भिᳲ꣢प꣣व꣢ता꣡ऽ२३इ। म꣢दि꣣न्तमाः꣢॥ क्री꣡꣯डन्नू꣯र्मिरपोवा꣢ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥॥ आ꣤ऽ५इवोऽ६"हा꣥इ॥ ओ꣡म्॥अथ आरण्यकगानम्॥