[[अथ सप्तदशप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
[[अथ दशमः खण्डः]]
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इ꣢न्द्र꣣म꣡च्छ꣢ सु꣣ता꣢ इ꣣मे꣡ वृष꣢꣯णं यन्तु꣣ ह꣡र꣢यः। श्रु꣣ष्टे꣢ जा꣣ता꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वः स्व꣣र्वि꣡दः꣢ ॥ 22:0566 ॥
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इन्द्र॒मच्छ॑ सु॒ता इ॒मे वृष॑णं यन्तु॒ हर॑यः ।
श्रु॒ष्टी जा॒तास॒ इन्द॑वः स्व॒र्विदः॑ ॥
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पदपाठः
इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣡च्छ꣢꣯। सु꣣ताः꣢। इ꣣मे꣢। वृ꣡ष꣢꣯णम्। य꣣न्तु। ह꣡र꣢꣯यः। श्रु꣣ष्टे꣢। जा꣣ता꣡सः꣢। इ꣡न्द꣢꣯वः। स्व꣣र्वि꣡दः꣢। स्वः꣣। वि꣡दः꣢꣯। ५६६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अग्निश्चाक्षुषः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में ब्रह्मानन्दरस का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुताः) प्रवाहित किये गये (इमे) ये (हरयः) दुःखहारी ब्रह्मानन्दरस (वृषणम्) बलवान् (इन्द्रम्) जीवात्मा की (अच्छ) ओर (यन्तु) जाएँ। (जातासः) उत्पन्न हुए वे (इन्दवः) उपासक को भिगो देनेवाले ब्रह्मानन्दरस (श्रुष्टे) शीघ्र ही (स्वर्विदः) दिव्य प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हों ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - वे जीवात्मा धन्य हैं, जो परमात्मा की उपासना से ब्रह्मानन्दरस प्राप्त करते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुताः) अभिषुताः (इमे) एते (हरयः) दुःखहर्तारो ब्रह्मानन्दरसाः (वृषणम्) बलिनम् (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (अच्छ) प्रति (यन्तु) गच्छन्तु। किञ्च (जातासः) जाताः उत्पन्नाः ते (इन्दवः) उपासकस्य क्लेदकाः ब्रह्मानन्दरसाः (श्रुष्टे) सद्य एव। श्रुष्टीति क्षिप्रनाम, आशु अष्टीति। निरु० ६।१३। श्रुष्टे इत्यपि तत्पर्यायो बोध्यः। (स्वर्विदः) दिव्यप्रकाशस्य लम्भकाः, भवन्त्विति शेषः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - धन्यास्ते जीवात्मानो ये परमात्मोपासनया ब्रह्मानन्दरसं प्राप्नुवन्ति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. वैदिकयन्त्रालयमुद्रितायां सामसंहितायां तु इन्द्रो देवता निर्दिष्टः। २. ऋ० ९।१०६।१ ‘श्रुष्टे’ इत्यत्र ‘श्रुष्टी’ इति पाठः। साम० ६९४।
22_0566 इन्द्रमच्छ सुता - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६६-१। पदे द्वे॥ द्वयोर्वसिष्ठ उष्णिक् इन्द्रः॥
इ꣥न्द्रमच्छा॥ सु꣢ता꣡इमा꣢᳐। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥। वृ꣡षणं꣢य। तू꣡ह꣪रया꣢᳐। औ꣣꣯हो ऽ२३४वा꣥॥ श्रु꣢ष्टा꣡इजा꣢꣯ता꣡। स꣢इ꣣न्द꣢वाः꣡॥ सु꣢व꣡र्वाऽ२३इदा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५ इ॥ डा॥
22_0566 इन्द्रमच्छ सुता - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६६-२।
इ꣥न्द्रमच्छा॥ सु꣢ता꣡इमा꣢ऽ᳐३इ। ता꣡ई꣢ऽ᳐३मा꣢इ। वृ꣡षणं꣢य। तू꣡ह꣪रयाऽ᳒२ः᳒। हा꣡रा꣢ऽ᳐३याः꣢। श्रुष्टे꣯जा꣯ता꣯ऽ३सा꣡इ꣪न्दवाऽ᳒२ः᳒॥ आ꣡इन्दा꣢ऽ᳐३वा꣢ऽ᳐३ः॥ सु꣡वरा꣢ऽ᳐३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ वि꣢दो꣯विऽ᳐३दा꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-६। प-११। मा-११॥ २ (क) ११२५॥
22_0566 इन्द्रमच्छ सुता - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५६६-३। अनुपदे द्वे॥ द्वयोर्वसिष्ठ उष्णिक् इन्द्रः॥
इ꣤न्द्र꣥म्। इन्द्रा꣤म्॥ अ꣢च्छऽ᳐३सू꣡ता꣢ऽ१इमेऽ᳒२᳒। आ꣡इमेऽ᳒२᳒। वृ꣡षणं꣢य। तू꣡ह꣪रयाऽ᳒२ः᳒। रा꣡याऽ᳒२ः᳒। श्रुष्टे꣯जा꣯ता꣯ऽ३सा꣡इ꣪न्दवाऽ᳒२ः᳒॥ दा꣡वाऽ२३ः॥ सु꣡वरा꣢ऽ᳐३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ वि꣢दोऽ᳐३वि꣡दाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-५। प-१२। मा-७॥ ३ (फौ) ११२६॥
22_0566 इन्द्रमच्छ सुता - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५६६-४।
इ꣣न्द्र꣤म꣣च्छ꣤सुता꣣꣯इ꣤मे꣣꣯वृष꣤णं꣥यन्तुहा। हो꣢ऽ᳐३४३। र꣢य꣣आ꣢॥ श्रू꣡ष्टा꣢उवा। जा꣡ता꣢उवाऽ३४॥ सइ꣣न्द꣤व꣥स्सुवा। हो꣢॥ विद꣣ओ꣢ऽ᳐३४५इ॥ डा॥
22_0566 इन्द्रमच्छ सुता - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५६६-५। पौष्कलम्॥ प्रजापतिः उष्णिक् इन्द्रः॥
इ꣢न्द्र꣡मा꣢ऽ᳐३च्छ꣤सु꣥। ता꣢᳐ई꣣ऽ२३४मा꣥इ॥ वृ꣢षा꣡णं꣢या꣡। तूहा꣢᳐रा꣣ऽ२३४याः꣥॥ श्रु꣢ष्टा꣡इजा꣯ता। स꣪ईऽ२᳐न्दा꣣ऽ२३४५वाऽ६५६ः॥ सु꣢वर्वि꣡दा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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प्र꣡ ध꣢न्वा सोम꣣ जा꣡गृ꣢वि꣣रि꣡न्द्रा꣢येन्दो꣣ प꣡रि꣢ स्रव। द्यु꣣म꣢न्त꣣ꣳ शु꣢ष्म꣣मा꣡ भ꣢र स्व꣣र्वि꣡द꣢म् ॥ 23:0567 ॥
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प्र ध॑न्वा सोम॒ जागृ॑वि॒रिन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ।
द्यु॒मन्तं॒ शुष्म॒मा भ॑रा स्व॒र्विद॑म् ॥
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पदपाठः
प्र꣢। ध꣣न्व। सोम। जा꣡गृ꣢꣯विः। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। इ꣣न्दो। प꣡रि꣢꣯। स्र꣣व। द्युम꣡न्त꣢म्। शु꣡ष्म꣢꣯म्। आ। भ꣣र। स्वर्वि꣡द꣢म्। स्वः꣣। वि꣡द꣢꣯म्। ५६७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- चक्षुर्मानवः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (जागृविः) जागरूक आप (प्र धन्व) सक्रिय होवो। हे (इन्दो) भक्तों को आनन्दरस से भिगोनेवाले ! आप (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिस्रव) परिस्रुत होवो। उसे (द्युमन्तम्) देदीप्यमान, (स्वर्विदम्) विवेकख्यातिरूप दिव्य प्रकाश को प्राप्त करानेवाला (शुष्मम्) बल (आ भर) प्रदान करो ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनोयोग से उपासना किया गया परमेश्वर उपासकों को ज्योति-प्रदायक अध्यात्मबल प्रदान करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (जागृविः) जागरूकः त्वम् (प्र धन्व) प्रकर्षेण सक्रियो भव। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। संहितायाम् ‘द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५’ इति दीर्घः। हे (इन्दो) भक्तानाम् आनन्दरसेन क्लेदक ! त्वम् (इन्द्राय) जीवात्मने (परिस्रव) परिक्षर। तस्मै (द्युमन्तम्) देदीप्यमानम् (स्वर्विदम्) विवेकख्यातिरूपस्य दिव्यप्रकाशस्य लम्भकम् (शुष्मम्) बलम्। शुष्म इति बलनाम। निघं० २।९। (आ भर) आहर ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनोयोगेनोपासितः परमेश्वर उपासकानां ज्योतिष्प्रदमध्यात्मबलं प्रयच्छति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०६।४ ‘भर’ इत्यत्र ‘भरा’ इति पाठः।
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लिखितम्
५६७-१। ऐषिराणि पञ्च॥ इषिर उष्णिक् इन्द्रः॥
प्र꣢धन्वा꣡꣯सौ꣯होइ। औ꣢ऽ᳐३होऽ२३४वा꣥। म꣢जा꣡꣯गृ꣢विः॥ इन्द्रा꣯ये꣡꣯न्दौ꣯होइ। औ꣢ऽ᳐३होऽ२३४वा꣥। प꣡रिस्र꣢व॥ द्युमन्तꣳ꣡शौ꣯होइ। औ꣢ऽ᳐३होऽ२३४वा꣥। ष्म꣢मा꣡꣯भ꣢र॥ सुवर्वि꣡दौ꣯होइ। औ꣢ऽ᳐३होऽ२३४५वाऽ६५६॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
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लिखितम्
५६७-२।
प्र꣢धन्वा꣡꣯सौ꣯हो। वा꣢ऽ᳐३हो꣡। म꣢जा꣯गॄ꣡वीऽ᳒२ः᳒॥ इन्द्रा꣯ये꣡꣯न्दौ꣯हो। वा꣢ऽ᳐३हो꣡इ। प꣢रिस्रा꣡वाऽ᳒२᳒॥ द्युमन्तꣳ꣡शौ꣯हो। वा꣢ऽ᳐३हो꣡। ष्म꣢मा꣯भा꣡राऽ᳒२᳒॥ सुवर्वि꣡दौ꣯हो। वा꣢ऽ३᳐ हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥ दी-११। प-१३। मा-३॥ ७ (ग्वि) ११३०॥
23_0567 प्र धन्वा - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५६७-३।
औ꣢꣯हौ꣡꣯होइ। प्र꣢धन्वा꣡सोऽ᳒२᳒। औ꣯हौ꣡꣯हो। म꣢जा꣯गॄ꣡वीऽ᳒२ः᳒॥ औ꣯꣯हौ꣡꣯होइ। इ꣢न्द्रा꣯ या꣡इन्दोऽ᳒२᳒।
23_0567 प्र धन्वा - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५६७-४।
हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। हु꣡वाऽ२३हो꣡इ। प्र꣢धन्वा꣡सोऽ᳒२᳒। मजा꣯गॄ꣡वीऽ᳒२ः᳒॥ इन्द्रा꣯या꣡इन्दोऽ᳒२᳒। परिस्रा꣡वाऽ᳒२᳒॥ द्युमन्ताꣳ꣡शूऽ᳒२᳒। ष्ममा꣯भा꣡राऽ᳒२᳒॥ सुवर्वा꣡ इदाऽ᳒२᳒म्। हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। हु꣡वाऽ२३हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४ पा꣥॥
23_0567 प्र धन्वा - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५६७-५।
प्र꣢ध꣡न्वाऽ२३सो꣤꣯मजा꣥꣯गृवीः॥ इ꣡न्द्राऽ२᳐या꣣ऽ२३४इन्दो꣥। ओ꣡इ। पा꣢ऽ᳐३ रा꣡इस्रा꣢ऽ᳐३वा꣢॥ द्यु꣡माऽ२᳐न्ता꣣ऽ२३४ꣳशू꣥॥ ओ꣡। ष्म꣪माऽ२᳐भा꣣ऽ२३४५राऽ६५६॥ सु꣢वर्वि꣡दाऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
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स꣡खा꣢य꣣ आ꣡ नि षी꣢꣯दत पुना꣣ना꣢य꣣ प्र꣡ गा꣢यत। शि꣢शुं꣣ न꣢ य꣣ज्ञैः꣡ परि꣢꣯ भूषत श्रि꣣ये꣢ ॥ 24:0568 ॥
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सखा॑य॒ आ नि षी॑दत पुना॒नाय॒ प्र गा॑यत ।
शिशुं॒ न य॒ज्ञैः परि॑ भूषत श्रि॒ये ॥
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पदपाठः
स꣡खा꣢꣯यः। स। खा꣣यः। आ꣢। नि। सी꣣दत। पुनाना꣡य꣢। प्र। गा꣣यत। शि꣡शुम्। न। य꣣ज्ञैः꣢। प꣡रि꣢꣯। भू꣣षत। श्रिये꣢। ५६८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- पर्वतनारदौ काण्वौ
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
उपासनायज्ञ में मित्रों को निमन्त्रित किया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सखायः) मित्रो ! तुम (आ निषीदत) आकर उपासनायज्ञ में बैठो। (पुनानाय) हृदय को पवित्र करनेवाले परमात्मारूप सोम के लिए (प्र गायत) भक्ति-भरे वेदमन्त्रों को गाओ। उस परमात्मारूप सोम को (श्रिये) शोभा के लिए (यज्ञैः) उपासनायज्ञों से (शिशुं न) शिशु के समान (परिभूषत) चारों ओर से अलङ्कृत करो अर्थात् जैसे शोभा के लिए शिशु को अलङ्कार-वस्त्र आदियों से अलङ्कृत करते हैं, वैसे ही शोभापूर्वक अपने आत्मा में प्रतिष्ठापित करने के लिए परमात्मा को उपासना-यज्ञों से अलङ्कृत करो ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। निषीदत, प्रगायत, परिभूषत इन अनेक क्रियाओं का एक कारक से योग होने से कारण दीपकालङ्कार भी है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना-योग द्वारा रसागार परमात्मा को साक्षात् करके सबको आनन्दरस का उपभोग करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथोपासनायज्ञे सखीन् निमन्त्रयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सखायः) सुहृदः ! यूयम् (आ निषीदत) समेत्य उपासनायज्ञे उपविशत, (पुनानाय) हृदयस्य पवित्रतां कुर्वाणाय परमात्मसोमाय (प्र गायत) भक्तिभावभरितान् वेदमन्त्रान् गायत। किञ्च तं परमात्मसोमम् (श्रिये) शोभायै (यज्ञैः) उपासनायज्ञैः (शिशुं न) शिशुमिव (परिभूषत) परितः अलङ्कुरुत। यथा शोभासम्पादनाय शिशुम् आभरणवस्त्रादिभिरलङ्कुर्वन्ति तथा शोभापूर्वकं स्वात्मनि प्रतिष्ठापनाय परमात्मानम् उपासनायज्ञैरलङ्कुरुतेति भावः ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘निषीदत, प्रगायत, परिभूषत’ इत्यनेकक्रियाणामेककारकयोगाच्च दीपकालङ्कारोऽपि ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासनायोगेन रसागारं परमात्मानं साक्षात्कृत्य सर्वैरानन्दरस उपभोक्तव्यः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०४।१, साम० ११५७।
24_0568 सखाय आ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६८-१। शौक्तानि पञ्च॥ शुक्तिः उष्णिक् सोमः॥
स꣢खा꣯ऽ३या꣡आऽ᳒२᳒। निषी꣡꣯दता॥ पुना꣯नाऽ२३या꣢। प्रगा꣡꣯यता॥ शिशु न्नाऽ२३या꣢॥ ज्ञैᳲ꣯परा꣡इभूऽ᳒२᳒। षता꣡श्राऽ२३या꣢ऽ᳐३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
24_0568 सखाय आ - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६८-२।
सा꣤खा꣥या꣤आ꣥॥ नि꣢षी᳐दा꣣ऽ२३४ता꣥। पु꣡नाऽ२᳐ना꣣ऽ२३४या꣥। प्रा꣡ऽ२᳐गा꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा। या꣣ऽ२३४ता꣥॥ शि꣢शू꣡न्न꣢या꣡। ज्ञैᳲ꣢꣯प꣣रि꣢भू꣡ऽ२३॥ षा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ श्रि꣢येऽ१॥
24_0568 सखाय आ - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५६८-३।
स꣤खा꣥꣯यआ꣤꣯नि। षी꣥꣯दाऽ६ता꣥॥ पु꣢ना꣯ना꣡꣯यप्रगा꣯याता॥ शिशुन्नयज्ञैᳲ꣯ पराऽ᳒२᳒इ॥ भू꣡꣯षाऽ२३ता꣢ऽ᳐३। श्रा꣡ऽ२३या꣢ऽ᳐३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
24_0568 सखाय आ - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५६८-४। ७
ओ꣥꣯हा꣯इ। स꣤खा꣥꣯यआ꣤꣯नि। षी꣥꣯दाऽ६ता꣥॥ पु꣢ना꣯नौ꣡꣯होइ। पु꣢ना꣯नौ꣡꣯होये꣢ऽ᳐३। या꣤प्रा꣥या꣤प्रा꣥॥ गा꣢꣯य꣡तौ꣯होइ। गा꣢꣯य꣡तौ꣯होये꣢ऽ᳐३। शा꣤इशूꣳ꣥शा꣤इशू꣥म्॥ न꣢य꣡ज्ञौ꣯होइ। न꣢य꣡ज्ञौ꣯होये꣢ऽ३। पा꣤री꣥। पा꣣रा꣢ऽ᳐३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। भू꣢꣯षतश्रि꣣ये꣢ऽ१॥
24_0568 सखाय आ - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५६८-५। शौक्तम्॥
स꣥खा꣯। य꣣आ꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ नि꣢षा꣡इ। दाता꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। पु꣢ना꣯ना꣡꣯यप्रगा꣰꣯ ऽ᳐२यत॥ शा꣡इशा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ न꣡यज्ञैᳲ꣯परिभू꣢ऽ३। षा꣡ता꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ श्रि꣢येऽ१॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तं꣡ वः꣢ सखायो꣣ म꣡दा꣢य पुना꣣न꣢म꣣भि꣡ गा꣢यत। शि꣢शुं꣣ न꣢ ह꣣व्यैः꣡ स्व꣢दयन्त गू꣣र्ति꣡भिः꣢ ॥ 25:0569 ॥
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तं वः॑ सखायो॒ मदा॑य पुना॒नम॒भि गा॑यत ।
शिशुं॒ न य॒ज्ञैः स्व॑दयन्त गू॒र्तिभिः॑ ॥
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पदपाठः
त꣢म्। वः꣣। सखायः। स। खायः। म꣡दा꣢꣯य। पु꣣नान꣢म्। अ꣣भि꣢। गा꣣यत। शि꣡शु꣢꣯म्। न। ह꣣व्यैः꣢। स्व꣣दयन्त। गूर्ति꣡भिः꣢। ५६९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- पर्वतनारदौ काण्वौ
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय को कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सखायः) मित्रो ! (वः) तुम (पुनानम्) पवित्र करनेवाले (तम्) उस प्रसिद्ध सोम नामक परमात्मा को (अभि) लक्ष्य करके (मदाय) आनन्दप्राप्ति के लिए (गायत) सामगान करो। उपासक जन उस परमात्मा को (हव्यैः) आत्मसमर्पणों द्वारा और (गूर्तिभिः) स्तुतियों तथा उद्यमों द्वारा (स्वदयन्त) प्रसन्न करते हैं, (शिशुं न) जैसे किसी शिशु को (हव्यैः) खिलौने आदि देय पदार्थों द्वारा और (गूर्तिभिः) गोद में उठाने के द्वारा माताएँ प्रसन्न करती हैं ॥४॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आराधना और पुरुषार्थ से प्रसन्न किया हुआ परमेश्वर पवित्रता आदि के सम्पादन द्वारा और आनन्द-प्रदान द्वारा आराधक का हित करता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सखायः) सुहृदः (वः) यूयम् (पुनानम्) पवित्रीकुर्वाणम् (तम्) प्रसिद्धं सोमाख्यं परमात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (मदाय) आनन्दलाभाय (गायत) सामगानं कुरुत। उपासकाः तं परमात्मानम् (हव्यैः) आत्मसमर्पणैः (गूर्तिभिः२) स्तुतिभिः उद्यमैश्च। गॄ शब्दे, गूर उद्यमने, ततः क्तिन्। (स्वदयन्त) प्रसादयन्ति। स्वद आस्वादने, णिजन्तः, लडर्थे लङ्, अडागमाभावश्छान्दसः। (शिशुं न) शिशुं यथा (हव्यैः) देवपदार्थैः क्रीडनकादिभिः (गूर्तिभिः) क्रोडोद्यमनैश्च मातरः प्रसादयन्ति तद्वत् ॥४॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आराधनेन पुरुषार्थेन च प्रसादितः परमेश्वरः पावित्र्यादिसम्पादनद्वारेणानन्दप्रदानेन चाराधकस्य हिताय जायते ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०५।१ ‘हव्यैः’ इत्यत्र ‘यज्ञैः’ इति पाठः। साम० १०९८। २. गूर्तिभिः उद्यमनैः—इति वि०। गूर्तिभिः स्तुतिभिः, गृणातेः गूर्तिः—इति भ०।
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लिखितम्
५६९-१। कार्णश्रवसानि त्रीणि॥ त्रयाणां कर्णश्रवा उष्णिक् सोमः॥
ता꣣ऽ२३४म्वः꣥। सा꣣ऽ२३४खा꣥॥ यो꣢꣯म꣡दाऽ२३या꣢। पू꣡ना꣯न꣢म। भिगा꣡꣯या ऽ२३ता꣢॥ शा꣡इशु꣢न्न꣡ह꣢᳐। व्यै꣣꣯स्स्वद꣢या꣡ऽ२३॥ त꣢गू꣣꣯र्तिभा꣢ऽ᳐३४३इः। ओ꣡ऽ २३४५इ॥ डा॥
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लिखितम्
५६९-२।
ओ꣢इ᳐तं꣣व꣤स्स꣥खा॥ यो꣢꣯म꣡। दाया꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। पु꣢ना꣯न꣡मभिगा꣭ऽ३। आ꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। य꣣ता꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ शि꣡शु꣢न्न꣡ह꣢व्यै꣡꣯स्स्व꣢दयाऽ३। आ꣢᳐। ओ꣣ऽ २३४वा꣥। त꣣गा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ ती꣣ऽ२३४भीः꣥॥ दी-३। प-१२। मा-५॥ १७ (ठु) ११४०॥
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लिखितम्
५६९-३।
तं꣥वस्सखा꣯यो꣯मदाऽ६या꣥॥ पु꣢ना꣯न꣡मभिगा꣰꣯ऽ२यत। शा꣡इशु꣪न्नहा꣢ऽ᳐३। व्यै꣤꣯स्स्व꣥। द꣣या꣢ऽ᳐३॥ ता꣡ऽ२३गू꣤ऽ३॥ ता꣢ऽ᳐३४५इभो"ऽ६हा꣥इ॥ दी-३। प-७। मा-३॥ १८ (फि) ११४१॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रा꣣णा꣡ शिशु꣢꣯र्म꣣ही꣡ना꣢ꣳ हि꣣न्व.?.न्नृ꣣त꣢स्य꣣ दी꣡धि꣢तिम्। वि꣢श्वा꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣡ भु꣢व꣣द꣡ध꣢ द्वि꣣ता꣢ ॥ 26:0570 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क्रा॒णा शिशु॑र्म॒हीनां॑ हि॒न्वन्नृ॒तस्य॒ दीधि॑तिम् ।
विश्वा॒ परि॑ प्रि॒या भु॑व॒दध॑ द्वि॒ता ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्रा꣣णा꣢। प्र꣣। आना꣢। शि꣡शुः꣢꣯। म꣣ही꣡ना꣢म्। हि꣣न्व꣢न्। ऋ꣣त꣡स्य꣢। दी꣡धि꣢꣯तिम्। वि꣡श्वा꣢꣯। प꣡रि꣢꣯। प्रि꣣या꣢। भु꣣वत्। अ꣡ध꣢꣯। द्वि꣣ता꣢। ५७०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- त्रित आप्त्यः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (प्राणा) उपासकों को प्राण के समान प्रिय, (महीनाम्) वेदवाणियों का (शिशुः) शिशु-तुल्य स्तवनीय, हृदय में (ऋतस्य) सत्य के (दीधितिम्) खजाने को या प्रकाश को (हिन्वन्) प्रेरित करता हुआ सोम परमात्मा (विश्वा) सब (प्रिया) प्रिय मन, बुद्धि आदि और अग्नि, जल, वायु आदियों को (परि भुवत्) व्याप्त किये हुए है। (अध) इस कारण (द्विता) अन्दर और बाहर दो प्रकार से महिमा को प्राप्त है ॥५॥ इस मन्त्र में ‘प्राणा’ तथा ‘शिशुः’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीररूप पिण्ड में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र जिसकी महिमा प्रकाशित है, वह जगदीश्वर किसका वन्दनीय नहीं है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (प्राणा२) प्राणः उपासकानां प्राण इव प्रियः। अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति सोराकारादेशः। (महीनाम्) वेदवाचाम्। मही इति वाङ्नाम। निघं० १।११। (शिशुः) शिशुरिव शंसनीयः। शिशुः शंसनीयो भवति। निरु० १०।३७। हृदये (ऋतस्य) सत्यस्य (दीधितिम्) निधानं प्रकाशं वा (हिन्वन्) प्रेरयन् सोमः परमात्मा (विश्वा) सर्वाणि (प्रिया) अस्माकं प्रियाणि मनोबुद्ध्यादीनि अग्निजलवाय्वादीनि च (परि भुवत्) परि व्याप्नोति। (अध) अतः कारणात् (द्विता) द्विधा महिमानं प्राप्नोति, अन्तर्जगति बाह्यजगति च। द्विता द्वैधम्। निरु० ५।३।१९ ॥५॥ अत्र प्राण इव, शिशुरिव इति लुप्तोपमम् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीरपिण्डे ब्रह्माण्डे च सर्वत्र यस्य महिमा प्रकाशते स जगदीश्वरः कस्य न वन्द्यः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०२।१, साम० १०१३। २. प्राणा प्राणभूतः—इति वि०। प्राणा पूर्णः—इति भ०।
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लिखितम्
५७०-१। वाचस्सामनी द्वे॥ द्वयोर्वाक् उष्णिक् सोमः॥
प्रा꣤णा꣥॥ शा꣣ऽ२३४इशूः꣥। म꣢हा꣣ऽ२३४इना꣥म्। हि꣡न्वाऽ२᳐ना꣣ऽ२३४र्ता꣥। स्या꣢ऽ᳐३दा꣡इधी꣢ऽ᳐३ती꣢म्॥ वा꣡इश्वा꣢꣯प꣡रि। प्रि꣢या꣣꣯भु꣢वा꣡ऽ२३त्॥ अ꣢ध꣣द्विता꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-२। प-१०। मा-९॥ १९ (ञो) ११४२॥
26_0570 प्राणा शिशुर्महीनाम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७०-२।
प्रा꣤णा꣥प्रा꣤णा꣥॥ शा꣡इशूऽ᳒२᳒श्शा꣡इशूऽ२ः꣮। महाऽ३१उवाये꣢ऽ᳐३। नाऽ२३꣡४꣡५꣡म्। हि꣢न्व꣡न्नार्तस्य꣢दाऽ३१उवाये꣢ऽ३। धीऽ२३४ती꣥म्। वि꣡श्वा꣯पारिप्रि꣢याऽ३१उवा ऽ२३। भूऽ२३४वा꣥त्। अ꣢धौऽ᳒२᳒। हौऽ᳒२᳒। हु꣡वाये꣢ऽ३॥ द्वा꣡ऽ२᳐इता꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-३। प-१३। मा-११॥ २० (ड्ल) ११४३॥
26_0570 प्राणा शिशुर्महीनाम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५७०-३। इन्द्रसामनी द्वे॥ द्वयोरिन्द्र उष्णिक् सोमः॥
प्रा꣤꣯णा꣥꣯शिशूः꣤॥ म꣢हा꣡ऽ२꣮इना꣯म्। औ꣯हो᳐ऽ३वा꣢। हिन्व꣡न्नृतस्यदी꣯धि꣢तिम्॥ वा꣡इश्वा꣢उवा। पा꣡रा꣢उवा॥ प्रियाऽ᳒२᳒भु꣡वत्। अ꣣धा꣢उवाऽ३॥ ए꣢ऽ᳐३। द्वि꣢ताऽ१॥
26_0570 प्राणा शिशुर्महीनाम् - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५७०-४।
प्रा꣥꣯णा꣯। हो꣢ऽ᳐३इ। इ꣤याहा꣥इ॥ शा꣡इशु꣢र्महा꣡इ। नाऽ२३म्। आ꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢। हिन्व꣡न्नृतस्यदी꣯धिताइम्। आ꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢॥ वि꣡श्वा꣯पा। र्या꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢॥ प्रिया꣡ऽ२३। भू꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। अ꣡ध꣢द्वि꣣ता꣢ऽ१॥
26_0570 प्राणा शिशुर्महीनाम् - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५७०-५। मरुतां प्रेङ्खम्॥ मरुत उष्णिक् सोमः॥
प्रा꣥꣯णा꣯। ह꣣हो꣢इ᳐। शा꣣ऽ२३४इशूः꣥। ह꣣हो꣢ऽ᳐३इ। म꣢ही꣡꣯नाऽ२३म्। हो꣡वा꣢ऽ᳐३ हो꣡ये꣢ऽ᳐३४॥ हि꣥न्वन्। ह꣣हो꣢इ᳐। आ꣣ऽ२३४र्ता꣥। ह꣣हो꣢ऽ᳐३। स्य꣢दी꣡꣯धिताऽ२३इम्। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ᳐३४॥ वि꣥श्वा꣯। ह꣣हो꣢इ᳐। पा꣣ऽ२३४री꣥। ह꣣हो꣢ऽ᳐३इ। प्रि꣢या꣡꣯भुवा ऽ२३त्। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ᳐३॥ आ꣡ऽ२३धा꣤ऽ३। द्वा꣢ऽ३४५इतोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣢न्दो꣣ धा꣡रा꣢भि꣣रो꣡ज꣢सा। आ꣢ क꣣ल꣢शं꣣ म꣡धु꣢मान्त्सोम नः सदः ॥ 27:0571 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑स्व दे॒ववी॑तय॒ इन्दो॒ धारा॑भि॒रोज॑सा ।
आ क॒लशं॒ मधु॑मान्त्सोम नः सदः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। दे꣣व꣡वी꣢तये। दे꣣व꣢। वी꣣तये। इ꣡न्दो꣢꣯। धा꣡रा꣢꣯भिः। ओ꣡ज꣢꣯सा। आ। क꣣ल꣡श꣢म्। म꣡धु꣢꣯मान्। सो꣣म। नः। सदः। ५७१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- मनुराप्सवः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्द-रस के झरने की प्रार्थना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्दरस से भिगोनेवाले रसागार परमात्मन् ! आप (देवतीतये) दिव्यगुणों की उत्पत्ति के लिए (धाराभिः) धाराओं के साथ (ओजसा) वेग से (पवस्व) हमारे अन्तः करण में झरो। हे (सोम) जगदीश्वर ! (मधुमान्) मधुर आनन्द से परिपूर्ण आप (नः) हमारे (कलशम्) कलाओं से पूर्ण आत्मा में (आ सदः) आकर स्थित होओ ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेष से भौतिकसोम-परक अर्थ भी ग्राह्य होता है। उससे भौतिक सोम तथा परमात्मा का उपमानोपमेयभाव सूचित होता है। अतः उपनाध्वनि है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सोम ओषधि का रस धाराओं के साथ द्रोणकलश में आता है, वैसे ही मधुर ब्रह्मानन्दरस आत्मा में आये ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसनिर्झरणं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्दरसेन क्लेदयितः रसागार परमात्मन् ! त्वम् (देववीतये) देवानां दिव्यगुणानां वीतिः उत्पत्तिः देववीतिः, तस्यै। देववीतिः इति पदस्य दासीभारादित्वात् ‘कुरुगार्हपत०। अ० ६।२।४२’ इत्यनेन पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (धाराभिः) प्रवाहसन्ततिभिः सह (ओजसा) वेगेन (पवस्व) अस्माकमन्तः-करणे प्रवाहितो भव। हे (सोम) जगदीश्वर ! (मधुमान्) मधुरानन्दोपेतः त्वम् (नः) अस्माकम् (कलशम्) कलाभिः पूर्णम् आत्मानम् (आ सधः) आगत्य स्थितो भव ॥६॥ अत्र श्लेषेण भौतिकसोमपरोऽप्यर्थो ग्राह्यः। तेन सोमपरमात्मनोरुपमानोपमेयभावः सूचितो भवति। तत उपमाध्वनिः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सोमौषधिरसो धाराभिर्द्रोणकलशमागच्छति तथा मधुरो ब्रह्मानन्दरस आत्मकलशं समागच्छेत् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०६।७, साम० १३२६।
27_0571 पवस्व देववीतय - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७१-१। प्राजापत्ये द्वे॥ प्रजापतिः उष्णिक् इन्द्रसोमौ॥
प꣡वस्वदाऽ२᳐इ। व꣣वी꣢᳐ता꣣ऽ२३४या꣥इ॥ आ꣡इन्दो꣯धा꣯राऽ२᳐। भि꣣रो꣢᳐जा꣣ऽ२३४ सा꣥। आ꣡꣯कालशाम्। माधू꣢᳐मा꣣ऽ२३४न्त्सो꣥॥ म꣡नए꣢꣯मा꣡नाऽ२३ः॥ स꣤दाऽ५ए। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
27_0571 पवस्व देववीतय - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७१-२।
प꣥वस्वदा॥ व꣢वी꣡꣯तयाइ। इन्दो꣯धाऽ२३रा꣢ऽ३४। भिरो꣯जसा꣥ऽ६ए꣥। आ꣡का꣢ऽ३हा꣢। ला꣡शाऽ᳒२᳒म्॥ मा꣡धू꣢ऽ᳐३हा꣢इ। मा꣡न्त्सोऽ२३॥ म꣢नो꣡ऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५दोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सो꣡मः꣢ पुना꣣न꣢ ऊ꣣र्मि꣢꣫णाव्यं꣣ वा꣡रं꣢ वि꣡ धा꣢वति। अ꣡ग्रे꣢ वा꣣चः꣡ पव꣢꣯मानः꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥ 28:0572 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोमः॑ पुना॒न ऊ॒र्मिणाव्यो॒ वारं॒ वि धा॑वति ।
अग्रे॑ वा॒चः पव॑मानः॒ कनि॑क्रदत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सो꣡मः꣢꣯। पु꣣नानः꣢। ऊ꣣र्मि꣡णा꣢। अ꣡व्य꣢꣯म्। वा꣡र꣢꣯म्। वि। धा꣣वति। अ꣡ग्रे꣢꣯। वा꣣चः꣢। प꣡व꣢꣯मानः। क꣡नि꣢꣯क्रदत्। ५७२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अग्निश्चाक्षुषः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः ब्रह्मानन्दरस का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः) ब्रह्मानन्दरस (पुनानः) उपासक को पवित्र करता हुआ (ऊर्मिणा) लहर के साथ (अव्यं वारम्) भेड़ की ऊन से बने दशापवित्र के तुल्य दोषनिवारक अविनश्वर आत्मा के प्रति (वि धावति) वेग से दौड़ रहा है। (वाचः) प्रोच्चारित स्तुतिवाणी से (अग्रे) पहले ही (पवमानः) धारा रूप से बहता हुआ (कनिक्रदत्) कलकल ध्वनि कर रहा है ॥७॥ इस मन्त्र में ब्रह्मानन्द में कारणभूत स्तुति वाणी के उच्चारण से पूर्व ही ब्रह्मानन्द की उत्पत्ति का वर्णन होने से कारण के पूर्व कार्योदय वर्णित होना रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासकों से ध्यान किया गया परमेश्वर अपने पास से आनन्दरस की प्रचुर धाराओं को उपासकों के हृदय में प्रेरित करता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनर्ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः) ब्रह्मानन्दरसः (पुनानः) उपासकं पवित्रं कुर्वन् (ऊर्मिणा) तरङ्गेण साकम् (अव्यं वारम्) ऊर्णामयदशापवित्रमिव दोषनिवारकम् अविनश्वरं जीवात्मानं प्रति (वि धावति) वेगेन गच्छति। (वाचः) प्रोच्चारितायाः स्तुत्यात्मिकायाः गिरः (अग्रे) पूर्वमेव (पवमानः) धारारूपेण प्रवहन् सः। पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (कनिक्रदत्) कल-कलध्वनिमिव कुर्वन्, अस्तीति शेषः। ‘दाधर्तिदर्धर्ति०। अ० ७।४।६५’ इति क्रन्देर्यङ्लुगन्तात् शतरि निपात्यते ॥७॥ अत्र ब्रह्मानन्दे कारणभूतायाः स्तुतिवाचः उच्चारणात् पूर्वमेव ब्रह्मानन्दप्रवाहस्योदयवर्णनात् कारणात् प्राक् कार्योदयरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासकैर्ध्यातः परमेश्वरः स्वसकाशादानन्दरसस्य प्रचुरा धारा उपासकानां हृदये प्रेरयति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०६।१० ‘ऊर्मिणाव्यं’ इत्यत्र ‘ऊर्मिणाव्यो’ इति पाठः। साम० ९४०।
28_0572 सोमः पुनान - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-१। सुज्ञाने द्वे॥ द्वयोरिन्द्र उष्णिक् सोमः॥
सो꣥꣯मᳲपुना॥ न꣢ऊ꣯र्मि꣡णा। अ꣢व्यंवा꣡राऽ᳒२᳒म्। विधा꣯व꣡ताइ॥ अ꣢ग्रे꣯ वा꣡चाऽ᳒२ः᳒॥ पव꣡। माऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ क꣡निक्र꣢ददे꣯उ꣡पा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
28_0572 सोमः पुनान - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-२।
सो꣥꣯मᳲपुना॥ न꣢ऊ꣯र्मि꣡णोवा꣢ऽ᳐३। ओ꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा। अ꣡व्यंवा꣯रं विधा꣢꣯वति॥ अ꣣ग्रे꣢ऽ᳐३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा। वा꣢꣯चᳲ꣡ पवमा꣢꣯नः॥ क꣣ना꣢ऽ᳐३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ क्रा꣣ऽ२३४ दा꣥त्॥
28_0572 सोमः पुनान - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-३। द्यौते द्वे॥ द्युत उष्णिक् सोमः॥
सो꣤꣯मᳲ꣥पुना꣯न꣤ऊ॥ मि꣡णा। अव्यंवा꣯रंवि꣢धा꣡꣯वाऽ२३ती꣢॥ अ꣡ग्रे꣯वा꣯चाः॥ प꣢व꣡मा꣯नाः। का꣢ऽ᳐३नि꣤क्र꣥॥ दा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡त्॥ दी-७। प-७। मा-४॥ २८ (छी) ११५१॥
28_0572 सोमः पुनान - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-४।
सो꣢꣯मᳲपुना꣯नऊ꣯र्मिणा꣣ऽ२३४ऐ꣥꣯ही॥ अ꣢व्यंवा꣯रंविधा꣯वता꣣ऽ२३४ऐ꣥꣯ही॥ अ꣢ग्रे꣯ वा꣯चᳲपवमा꣯ना꣣ऽ२३४ऐ꣥꣯ही॥ का꣤नी꣥। क्र꣢ददेऽ३४। हि꣥याऽ६हा꣥॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
28_0572 सोमः पुनान - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-५। आतीषादीये द्वे॥ द्वयोः प्रजापतिः उष्णिक् सोमः॥
सो꣣꣯मᳲ꣤पु꣥ना꣯। न꣣ऊ꣢ऽ᳐३२र्मी꣣ऽ२३४णा꣥॥ अ꣡व्यंवा꣢꣯रम्। विधा꣡वति꣢॥ अ꣡ग्रा꣭ऽ३२᳐इ।
28_0572 सोमः पुनान - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५७२-६। आतीषादीयम्॥
सो꣣꣯मᳲ꣤पु꣥ना꣯। हो꣢᳐। न꣣ऊ꣤꣯र्मिणा꣥ऽ६ए꣥॥ अ꣡व्यंवा꣯रंविधा꣢ऽ१वा꣢ऽ३ती꣢। अग्रे᳐वा꣣ ऽ२३४५। चा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ प꣢व꣡माऽ२३ना꣢ऽ३ः॥ का꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ क्र꣢ददे꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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प्र꣡ पु꣢ना꣣ना꣡य꣢ वे꣣ध꣢से꣣ सो꣡मा꣢य꣣ व꣡च꣢ उच्यते। भृ꣣तिं꣡ न भ꣢꣯रा म꣣ति꣡भि꣢र्जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥ 29:0573 ॥
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प्र पु॑ना॒नाय॑ वे॒धसे॒ सोमा॑य॒ वच॒ उद्य॑तम् ।
भृ॒तिं न भ॑रा म॒तिभि॒र्जुजो॑षते ॥
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पदपाठः
प्र꣢। पु꣣नाना꣡य꣢। वे꣣ध꣡से꣢। सो꣡मा꣢꣯य। व꣡चः꣢꣯। उ꣣च्यते। भृति꣢म्। न। भ꣣र। मति꣡भिः꣢। जु꣣जो꣡ष꣢ते। ५७३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- द्वित आप्त्यः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के प्रति मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानाय) उपासक के हृदय को पवित्र करनेवाले, (वेधसे) आनन्द के विधायक (सोमाय) रसागार परमात्मा के लिए (वचः) धन्यवाद का वचन (प्र उच्यते) हमारे द्वारा कहा जा रहा है। हे मित्र ! तुम भी (मतिभिः) बुद्धियों से (जुजोषते) तुम्हें तृप्त करनेवाले उस परमात्मा के लिए (भृतिं न) वेतन-रूप या उपहार-रूप धन्यवादादि वचन को (भर) प्रदान करो, अर्थात् कार्य करनेवाले को जैसे कोई बदले में वेतन या उपहार देता है, वैसे ही बुद्धि देनेवाले उसे तुम बदले में धन्यवाद दो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘भृतिं न भर’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर सुमति-प्रदान आदि के द्वारा हमारा उपकार करता है, उसके प्रति हम कृतज्ञता क्यों न प्रकाशित करें ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं प्रति मनुष्यस्य कर्तव्यमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानाय) उपासकस्य हृदयं पवित्रं कुर्वते, (वेधसे) आनन्दस्य विधात्रे (सोमाय) रसागाराय परमात्मने (वचः) धन्यवादवचनम् (प्र उच्यते) अस्माभिः प्रोच्चार्यते। हे सखे ! (मतिभिः) मेधाभिः (जुजोषते) त्वां प्रीणयते तस्मै परमात्मने। जुषी प्रीतिसेवनयोः तुदादिः, शतरि ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३’ इति शपः श्लौ द्वित्वम्। त्वमपि (भृतिं न) वेतनमिव, उपहारमिव वा (भर) आहर। यथा कर्मकराय कश्चिद् वेतनम् उपहारं वा प्रयच्छति तथा मेधाभिः प्रीणयते (तस्मै) त्वं विनिमयरूपेण धन्यवादं प्रदेहीति भावः ॥८॥ ‘भृतिं न भर’ इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरोऽस्मान् सुमतिप्रदानादिभिरुपकरोति तत्कृते वयं कृतज्ञतां कुतो न प्रकाशयेम ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०३।१ ‘उच्यते’ इत्यत्र ‘उद्यतम्’ इति पाठः।
29_0573 प्र पुनानाय - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७३-१। सोमसामानि चत्वारि॥ चतुर्णां सोम उष्णिक् सोमः॥
प्र꣢पु꣡नाऽ२३ना꣤꣯यवे꣥꣯धसाइ॥ हो꣡इ। होइ। सो꣯मा꣯यवचाउ꣪च्याताऽ᳒२᳒इ॥ भृति꣡न्नभराम꣪तिभाऽ᳒२᳒इः॥ जुजो꣡꣯षाऽ२३ता꣢ऽ᳐३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
29_0573 प्र पुनानाय - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७३-२।
प्र꣤पुना꣯नौ꣯होऽ५यवे꣯ध꣤साइ॥ सो꣢꣯मा꣡औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ३४। यवच꣥उच्यता꣤इ॥ भृ꣢ता꣡औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ३४। नभ꣥रा꣯मति꣤भाइः॥ जु꣢जाऽ᳐३१उवाऽ२३॥ षाऽ२३४ते꣥॥
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गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव। शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥ 30:0574 ॥
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गोम॑न्न इन्दो॒ अश्व॑वत्सु॒तः सु॑दक्ष धन्व ।
शुचिं॑ ते॒ वर्ण॒मधि॒ गोषु॑ दीधरम् ॥
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पदपाठः
गो꣡म꣢꣯त्। नः꣣। इन्दो। अ꣡श्व꣢꣯वत्। सु꣣तः꣢। सु꣣दक्ष। सु। दक्ष। धनिव। शु꣡चि꣢꣯म्। च꣣। व꣡र्ण꣢꣯म्। अ꣡धि꣢꣯। गो꣡षु꣢꣯। धा꣣रय। ५७४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- पर्वतनारदौ काण्वौ
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सुदक्ष) अत्यन्त समृद्ध और (इन्दो) जैसे चन्द्रमा समुद्रों की वृद्धि करता है, वैसे ही मनुष्यों की समृद्धि करनेवाले परमात्मन्, राजन् वा आचार्य ! (सुतः) हृदय में प्रकट हुए, राष्ट्र में निर्वाचित हुए अथवा हम समित्पाणि शिष्यों से वरण किये गये आप (नः) हमारे लिए (गोमत्) गायों से अथवा भूमियों से अथवा वेदवाणियों से युक्त और (अश्ववत्) घोड़ों अथवा प्राणों से युक्त ऐश्वर्य को (धनिव) प्राप्त कराइये और (गोषु अधि) राष्ट्र-भूमियों में (शुचिं वर्णं च) पवित्र हृदयवाले ब्राह्मणादि वर्ण को भी, अथवा (गोषु अधि) वाणियों में (शुचिं वर्णं च) पवित्र अक्षर ‘ओम्’ को भी (धारय) धारण कराइये ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर, राजा और आचार्य स्वयं धन, विद्या आदि से सुसमृद्ध होकर कृपापूर्वक हमें भी धन, विद्या आदि प्रदान करें। जिस राष्ट्र में पवित्र हृदयवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण होते हैं और जहाँ प्रजाओं की वाणियों में ओंकाररूप अक्षर जप आदि रूप में निरन्तर विराजमान रहता है, वह राष्ट्र धन्य कहाता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं राजानमाचार्यं च प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सुदक्ष) सुसमृद्ध। दक्षतिः समृद्धिकर्मा। निरु० १।६। (इन्दो) चन्द्रः समुद्राणामिव जनानां समृद्धिकर परमात्मन्, राजन्, आचार्य वा ! (सुतः) हृदये प्रकटितः, राष्ट्रे निर्वाचितः, समित्पाणिभिरस्माभिः शिष्यैः वृतो वा त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (गोमत्) धेनुयुक्तं, पृथिवीयुक्तं वेदवाग्युक्तं च, (अश्ववत्) तुरगयुक्तं प्राणयुक्तं च रयिमिति शेषः (धनिव) धन्वय प्रापय। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। अत्र णिजर्थगर्भः। ततो ‘धन्व’ इति प्राप्ते इकारोपजनश्छान्दसः। ऋग्वेदे ‘धन्व’ इत्येव पाठः। (गोषु अधि) राष्ट्रभूमिषु (शुचिं वर्णं च) पवित्रहृदयं ब्राह्मणादिवर्णं च, यद्वा (गोषु अधि) वाणीषु (शुचिं वर्ण च) पवित्रम् ॐकाररूपम् अक्षरं च (धारय) धेहि ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरो राजाऽऽचार्यो वा स्वयं धनविद्यादिना सुसमृद्धः सन् कृपयास्मभ्यमपि धनज्ञानादिकं प्रयच्छेत्। यस्मिन् राष्ट्रे पवित्रहृदया ब्राह्मणक्षत्रियादयो वर्णा जायन्ते, यत्र प्रजानां वाणीषु ॐकाररूपमक्षरं च जपादिरूपेण सततं विराजते तद् राष्ट्रं खलु धन्यमुच्यते ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०५।४ ‘धनिव’, ‘शुचिं च’, ‘धारय’ इत्यत्र क्रमेण ‘धन्व’, ‘शुचिं ते’, ‘दीधरम्’ इति पाठः। साम० १६११।
30_0574 गोमन्न इन्दो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७४-१।
गो꣣ऽ४म꣥न्नः। हो꣢इ᳐। इ꣣न्दो꣤꣯अश्ववा꣥ऽ६दे꣥॥ सू꣡तस्सुदक्षधा꣢ऽ१नी꣢ऽ᳐३वा꣢। शुचिंचवा꣣ऽ२३४५॥ ण꣢मधिगो꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ षू꣣ऽ२३४धा꣥। र꣢या꣡। औ꣢ऽ३ हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-३। प-११। मा-५॥ ३४ (टु) ११५७॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣स्म꣡भ्यं꣢ त्वा वसु꣣वि꣡द꣢म꣣भि꣡ वाणी꣢꣯रनूषत। गो꣡भि꣢ष्टे꣣ व꣡र्ण꣢म꣣भि꣡ वा꣢सयामसि ॥ 31:0575 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒स्मभ्यं॑ त्वा वसु॒विद॑म॒भि वाणी॑रनूषत ।
गोभि॑ष्टे॒ वर्ण॑म॒भि वा॑सयामसि ॥
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पदपाठः
अ꣣स्म꣡भ्य꣢म्। त्वा꣣। वसुवि꣡द꣢म्। व꣣सु। वि꣡द꣢꣯म्। अ꣣भि꣢। वा꣡णीः꣢। अ꣣नूषत। गो꣡भिः꣢꣯। ते꣣। व꣡र्ण꣢꣯म्। अ꣣भि꣢। वा꣣सयामसि। ५७५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- पर्वतनारदौ काण्वौ
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोमनामक परमात्मा वा वैद्य को कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे सोम परमात्मन् ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (वसुविदम्) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (वाणीः) हमारी वाणियाँ (अनूषत) स्तुति कर रही हैं। हम (गोभिः) वेद-वाणियों द्वारा (ते) आपके (वर्णम्) स्वरूप को (अभिवासयामसि) अपने अन्दर बसाते हैं ॥ द्वितीय—वैद्य के पक्ष में। हे चिकित्सा के लिए सोम आदि ओषधियों का रस अभिषुत करनेवाले वैद्यराज ! (अस्मभ्यम्) हम रोगियों के लिए (वसुविदम्) स्वास्थ्य-सम्पत्ति प्राप्त करानेवाले (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (वाणीः) हम कृतज्ञों की वाणियाँ (अनूषत) आपकी स्तुति कर रही हैं, अर्थात् आपके आयुर्वेद के ज्ञान की प्रशंसा कर रही हैं—यह रोगियों की उक्ति है। आगे वैद्य कहता है—हे त्वचारोग से ग्रस्त रोगी ! (गोभिः) गाय से प्राप्त होनेवाले दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर रूप पञ्च गव्यों से हम (ते) तेरे, तेरी त्वचा के (वर्णम्) स्वाभाविक रंग को (अभिवासयामसि) पुनः तुझमें बसा देते हैं, अर्थात् कुष्ठ आदि रोग के कारण तेरी त्वचा के विकृत हुए रूप को दूर करके त्वचा का स्वाभाविक रंग ला देते हैं। इससे कुष्ठ आदि त्वचा-रोगों की पञ्चगव्य द्वारा चिकित्सा की जाने की सूचना मिलती है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब ऐश्वर्य देनेवाले परमात्मा के सत्य, शिव, सुन्दर, सच्चिदानन्दमय स्वरूप को हमें अपने हृदय में धारण करना चाहिए। इसी प्रकार श्रेष्ठ वैद्यों की बतायी रीति से पञ्चगव्यों द्वारा चिकित्सा से त्वचा आदि के रोग दूर करने चाहिएँ ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमाख्यं परमात्मानं वैद्यं चाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे सोमाख्य परमात्मन् ! (अस्मभ्यम्) नः (वसुविदम्) ऐश्वर्यस्य लम्भकम् (त्वा अभि) त्वाम् अभिलक्ष्य (वाणीः) अस्माकं वाण्यः (अनूषत) स्तुवन्ति। णु स्तुतौ, लडर्थे लुङि छान्दसं रूपम्। वयम् (गोभिः) वेदवाग्भिः (ते) तव (वर्णम्) स्वरूपम् (अभिवासयामसि) स्वात्मनि निवासयामः ॥ अथ द्वितीयः—वैद्यपरः। यः अभिषुणोति सोमाद्योषधीनां रसान् भैषज्यार्थं स सोमो वैद्यः।२ ‘हे वैद्यराज ! (अस्मभ्यम्) रुग्णेभ्यो नः (वसुविदम्) स्वास्थ्यसम्पत्प्रापकम् (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (वाणीः) कृतज्ञानामस्माकं वाचः (अनूषत) स्तुवन्ति, तव आयुर्वेदज्ञानं प्रशंसन्ति’ इत्यातुराणामुक्तिः। अथ वैद्योक्तिः—हे त्वग्रोगग्रस्त जन ! (गोभिः) गोविकारैः पयोदधिघृतमूत्रगोमयलक्षणैः वयम् (ते) तव (वर्णम्) स्वाभाविकं त्वग्रूपम् (अभिवासयामसि) त्वयि निवासयामः, कुष्ठादिरोगवशाद् विकृतं तव त्वग्रूपम् अपनीय स्वाभाविकं त्वग्वर्णं जनयाम इति भावः। एतेन कुष्ठादीनां त्वग्रोगाणां पञ्चगव्येन चिकित्सा सूचिता भवति ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैश्वर्यप्रदस्य परमात्मनः सत्यं शिवं सुन्दरं सच्चिदानन्दमयं स्वरूपमस्माभिः स्वहृदये धारणीयम्। तथैव सद्वैद्योक्तरीत्या पञ्चगव्यचिकित्सया त्वगादीनां रोगा अपनेयाः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०४।४ ऋषी पर्वतनारदौ, द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ। २. सोमम् सोमलताद्योषधिसारपातारम् (वैद्यम्) इति ऋ० २।११।११ भाष्ये द०।
31_0575 अस्मभ्यं त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७५-१।
हा꣤वास्मा꣥॥ भ्या꣣ऽ२३४न्त्वा꣥। वा꣢सू᳐वी꣣ऽ२३४दा꣥म्। अ꣡भाऽ२᳐इवा꣣ऽ२३४ णीः꣥। अ꣣ना꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। षा꣣ऽ२३४ता꣥॥ गो꣡꣯भि꣢ष्टे꣯व꣡॥ ण꣢म꣣भि꣢वा꣡ऽ२३॥ स꣢या꣯मसिहो꣣ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-३। प-१०। मा-५॥ ३५ (णु) ११५८॥
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प꣡व꣢ते हर्य꣣तो꣢꣫ हरि꣣र꣢ति꣣ ह्व꣡रा꣢ꣳसि꣢ र꣡ꣳह्या꣢। अ꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष स्तो꣣तृ꣡भ्यो꣢ वी꣣र꣢व꣣द्य꣡शः꣢ ॥ 32:0576 ॥
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पव॑ते हर्य॒तो हरि॒रति॒ ह्वरां॑सि॒ रंह्या॑ ।
अ॒भ्यर्ष॑न्त्स्तो॒तृभ्यो॑ वी॒रव॒द्यशः॑ ॥
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पदपाठः
प꣡व꣢꣯ते। ह꣣र्यतः꣢। ह꣡रिः꣢꣯। अ꣡ति꣢꣯। ह्व꣡राँ꣢꣯सि। रँ꣡ह्या꣢꣯। अ꣣भि꣢। अ꣣र्ष। स्तोतृ꣡भ्यः꣢। वी꣣र꣡व꣢त्। य꣡शः꣢꣯। ५७६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अग्निश्चाक्षुषः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा रूप सोम से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्य, पुरुषार्थी और तुम्हारी चाहवाला तुम्हारा प्रिय (हरिः) मनुष्य (रंह्या) वेग के साथ (ह्वरांसि) कुटिलता के मार्गों को (अति) अतिक्रमण करके (पवते) सन्मार्गों पर दौड़ रहा है। (त्वम्) तुम स्तोतृभ्यः) तुम्हारे गुण-कर्म-स्वभाव की स्तुति करनेवाले अपने उपासकों को (वीरवत्) वीरभावों अथवा वीर पुत्रों से युक्त (यशः) यश (अभ्यर्ष) प्राप्त कराओ ॥११॥ इस मन्त्र में र्, ह्, आदि की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पुरुषार्थी, कर्मण्य परमेश्वरोपासक मनुष्य अपने जीवन में कुटिलता छोड़कर और सरलता को स्वीकार करके वीरभावों और वीर सन्ततियों से युक्त होता हुआ परम उज्ज्वल यश से चमकता है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्यः पुरुषार्थी, त्वत्कामः, तव प्रियः। हर्य गतिकान्त्योः। ‘भृमृदृशि०। उ० ३।११०’ इत्यतच् प्रत्ययः। चित्त्वादन्तोदात्तत्वम्। (हरिः) मनुष्यः। हरयः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (रंह्या२) वेगेन। रंहिः गतिः। निरु० १०।२९। (ह्वरांसि) कुटिलतायाः मार्गान् (अति) अतिक्रम्य (पवते) सन्मार्गाननुधावति। त्वम् (स्तोतृभ्यः) त्वद्गुणकर्मस्वभाववर्णनपरायणेभ्यः तवोपासकेभ्यः (वीरवत्) वीरभावैर्युक्तं वीरपुत्रैर्वा युक्तम् (यशः) कीर्तिसमूहम् (अभ्यर्ष) अभिप्रापय ॥११॥ अत्र रेफहकारादीनां पृथक् पृथगनेकश आवृत्तौ वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पुरुषार्थी कर्मण्यः परमेश्वरोपासको जना स्वजीवने कौटिल्यं परिहृत्य सरलतां स्वीकृत्य वीरभावैर्वीरसन्ततिभिश्च युक्तः सन् परमोज्ज्वलेन यशसा देदीप्यते ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०५।१३ ‘अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो’ इति पाठः। २. रंहि शब्दस्य स्त्रियां तृतीयैकवचने रूपमिदम्। ‘अत्र तृतीयाया आकारः’ इति सायणीयं वचनं, तत्र ‘सुपां सुलुक्० (७।१।३९) इत्यादिनेति भावः’ इति सत्यव्रतसामश्रमिटिप्पणं च चिन्त्यम्।
32_0576 पवते हर्यतो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७६-१। यशाꣳसि त्रीणि॥ त्रयाणां सोम उष्णिक् सोमः॥
प꣥वते꣯हा॥ र्य꣢तो꣡꣯हरिः। औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ३१इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥। आ꣡ति꣢ह्व꣡रा꣰꣯ ऽ२ꣳसिरꣳ꣡हि꣢या꣯। औ꣣꣯हो꣢ऽ᳐३१इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ अ꣢भ्य꣡र्ष꣢स्तो꣯तृ꣡भ्यो꣢꣯वा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ३१इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। य꣢शो꣯य꣡शा꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
32_0576 पवते हर्यतो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५७६-२।
प꣣वा꣢ऽ३। प꣤वते꣥꣯हा॥ र्य꣢तो꣡꣯हरिः। औ꣢꣯हो꣡इ। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ। आ꣡ति꣢ ह्व꣡रा꣰꣯ऽ२ꣳसिरꣳ꣡हि꣢या꣯। औ꣯हो꣡इ। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ॥ अभ्य꣡र्ष꣢स्तो꣯तृ꣡भ्यो꣢꣯वा꣡। औ꣢꣯हो꣡इ। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢ऽ३॥ रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢शो꣯य꣡शा꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
32_0576 पवते हर्यतो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५७६-३।
प꣣व꣤ते꣥꣯हर्यतः। ह꣣री꣢ऽ᳐३ः। आ꣡ऽ२३४। तिह्वराꣳ꣥꣯सिर꣤। हिया꣥॥ अ꣢भ्य꣡र्षाऽ२३४। स्तो꣯तृ꣥॥ भ्यो꣣꣯वा꣢ऽ᳐३इ॥ रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। या꣣ऽ२३४ शाः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣢रि꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣢त꣣ꣳ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति। अ꣣भि꣢꣫ वाणी꣣र्ऋ꣡ षी꣢णाꣳ स꣣प्ता꣡ नू꣢षत ॥ 33:0577 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म॒व्यये॒ वारे॑ अर्षति ।
अ॒भि वाणी॒रृषी॑णां स॒प्त नू॑षत ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। को꣡श꣢꣯म्। म꣣धुश्चु꣡त꣢म्। म꣣धु। श्चु꣡त꣢꣯म्। सो꣡मः꣢꣯। पु꣣नानः꣢। अ꣣र्षति। अभि꣢। वा꣡णीः꣢꣯। ऋ꣡षी꣢꣯णाम्। स꣣प्त। नू꣢षत। ५७७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- द्वितः आप्त्यः
- उष्णिक्
- ऋषभः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा से आनेवाले आनन्दरस का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानः) अन्तःकरण को पवित्र करता हुआ परमेश्वर अथवा ब्रह्मानन्दरस (मधुश्चुतम्) मधुर श्रद्धारस को प्रस्रुत करनेवाले (कोशम्) मनोमय कोश में (परि अर्षति) व्याप्त हो रहा है। उस परमेश्वर वा ब्रह्मानन्दरस की (ऋषीणां सप्त वाणीः) वेदों की आर्षेय गायत्री आदि सात छन्दोंवाली ऋचाएँ (अभि नूषत) सोम नाम से स्तुति करती हैं ॥ चौबीस अक्षरों से आरम्भ करके क्रमशः चार-चार अक्षरों की वृद्धि करके गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती नामक सात छन्द ऋषि-छन्द कहाते हैं। वे ही यहाँ ‘ऋषीणां सप्त वाणीः’ शब्दों से ग्राह्य हैं ॥१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्म और ब्रह्मानन्द रस की महिमा को गानेवाली वेदवाणियों के साथ अपना मन मिलाकर ब्रह्म के उपासक जन अपने हृदय में ब्रह्मानन्द रस के प्रवाह का अनुभव करें ॥१२॥ इस दशति में सोम परमात्मा के प्रति सामगान की प्रेरणा होने से तथा परमात्मा और उसके आनन्दरस की महिमा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय से संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक, द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय का दशम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः सकाशादागच्छन्तमानन्दरसं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानः) अन्तःकरणस्य पवित्रतां सम्पादयन् (सोमः) प्रेरकः परमेश्वरः ब्रह्मानन्दरसो वा (मधुश्चुतम्) मधुरश्रद्धारसस्राविणम् (कोशम्) मनोमयकोशम् (परि अर्षति) परिगच्छति। तं परमेश्वरं ब्रह्मानन्दरसं वा (ऋषीणां सप्त वाणीः) वेदानाम् आर्षेयगायत्र्यादिसप्तच्छन्दोमय्यः ऋचः। संहितायां ‘सप्ता’ इति छान्दसो दीर्घः। (अभि नूषत) सोमनाम्ना अभिष्टुवन्ति। णू स्तवने धातोर्लडर्थे लङि छान्दसं रूपम्। अडागमाभावः ॥ चतुर्विंशत्यक्षरेभ्य आरभ्य क्रमेण चतुश्चतुर्वृद्ध्या सम्पद्यमानानि गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपङ्क्तित्रिष्टुब्जगत्याख्यानि सप्त च्छन्दासिं ऋषीणां छन्दांस्युच्यन्ते। तान्येवात्र ‘ऋषीणां सप्त वाणीः’ इत्यनेन गृह्यन्ते ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्मणो ब्रह्मानन्दरसस्य च महिमानं गायन्तीभिर्वेदवाग्भिः संमनसो भूत्वा ब्रह्मोपासकाः स्वहृदये ब्रह्मानन्दरसस्य प्रवाहमनुभवेयुः ॥१२॥ अत्र सोमं परमात्मानं प्रति सामानि गातुं प्रेरणात् परमात्मनस्तदानन्दरसस्य च महिमवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये दशमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०३।३ ‘मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति’, ‘सप्त नूषत’ इति पाठः।
33_0577 परि कोशम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५७७-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाज उष्णिक् सोमः॥
प꣢रि꣡को꣢ऽ३शं꣤मधु꣥श्चुताम्॥ सो꣡꣯मᳲपु꣢ना꣯नो꣡꣯अर्ष꣢ति। हो꣡ये꣢ऽ᳐३॥ अ꣢भिवा꣣ ऽ२३४५॥ णी꣢꣯र्ऋ꣡षी꣢꣯णाꣳ꣯स"। प्ता꣡ना꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ षा꣣ऽ२३४ता꣥॥