[[अथ षोडशप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
[[अथ नवमः खण्डः]]
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अ꣣भि꣢ प्रि꣣या꣡णि꣢ पवते꣣ च꣡नो꣢हितो꣣ ना꣡मा꣢नि य꣣ह्वो꣢꣫ अधि꣣ ये꣢षु꣣ व꣡र्ध꣢ते। आ꣡ सूर्य꣢꣯स्य बृह꣣तो꣢ बृ꣣ह꣢꣫न्नधि꣣ र꣢थं꣣ वि꣡ष्व꣢ञ्चमरुहद्विचक्ष꣣णः꣢ ॥ 10:0554 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि प्रि॒याणि॑ (उदकानि) पवते॒ चनो॑(=अन्न)हितो॒ नामा॑नि(=नमनशीलानि) य॒ह्वो(=महान्) अधि॒ येषु॒ वर्ध॑ते (अन्तरिक्षस्थः) ।
आ सूर्य॑स्य बृह॒तो बृ॒हन्नधि॒ रथं॒ विष्व॑ञ्चम्(=विष्वग्गमनं)अरुहद्विचक्ष॒णः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣भि꣢। प्रि꣣या꣡णि꣢। प꣣वते। च꣡नो꣢꣯हितः। च꣡नः꣢꣯। हि꣣तः। ना꣡मा꣢꣯नि। य꣣ह्वः꣢। अ꣡धि꣢꣯। ये꣡षु꣢꣯। व꣡र्ध꣢꣯ते। आ। सू꣡र्य꣢꣯स्य। बृ꣣हतः꣢। बृ꣣ह꣢न्। अ꣡धि꣢꣯। र꣡थ꣢꣯म्। वि꣡ष्व꣢꣯ञ्चम्। वि। स्व꣣ञ्चम्। अरुहत्। विचक्षणः꣢। वि꣣। चक्षणः꣢। ५५४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कविर्भार्गवः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चनोहितः) आस्वाद में हितकर, (यह्वः) महान् परमात्मारूप सोम (प्रियाणि) प्रिय, (नामानि) नमनशील हृदयों की (अभि) ओर (पवते)प्रवाहित होता है, (येषु अधि) जिन हृदयों में, यह (वर्द्धते) बढ़ता है। (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा, (बृहन्) बड़ी शक्तिवाला यही परमात्मा (बृहतः) विशाल (सूर्यस्य) सूर्य के (विष्वञ्चम्) विविध उत्कृष्ट गतिवाले (रथम् अधि) रथ के ऊपर (आ अरुहत्) आरूढ़ है, अर्थात् आदित्यमण्डल की कार्य-विधि का सञ्चालन भी वही कर रहा है, जैसा कि वेद में परमात्मा स्वयं कहता है—‘जो आदित्य में पुरुष है, वह मैं ही हूँ’ (य० ४०।२७) ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सूर्य-चन्द्र आदि सकल सृष्टि का सञ्चालक परमेश्वर ध्यान करने पर उपासकों के हृदय में प्रकट हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चनोहितः) चनसि आस्वादे हितः हितकरः। चनः इत्यन्नाम। निरु० ६।१६। (यह्वः) महान् परमात्मसोमः (प्रियाणि) स्निग्धानि (नामानि) नमनशीलानि हृदयानि (अभि) अभिलक्ष्य (पवते) प्रवाहितो भवति, (येषु अधि) येषु हृदयेषु अयम् (वर्द्धते) वृद्धिमाप्नोति। किञ्च (विचक्षणः) विशेषेण द्रष्टा (बृहन्) महाशक्तिः एष परमात्मा (बृहतः) विशालस्य (सूर्यस्य) आदित्यस्य (वि-स्वञ्चम्) विविधतया शोभनगतियुक्तम्। (रथम् अधि) रथस्योपरि (आ अरुहत्) आरूढवानस्ति। स एव सूर्यमण्डलस्य कार्यविधिं सञ्चालयतीत्यर्थः। “योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्” (य० ४०।१७) इति श्रुतेः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वस्याः सूर्यचन्द्रादिसृष्टेः सञ्चालकः परमेश्वरो ध्यातः सन्नुपासकानां हृदये प्रकटीभवति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७५।१, साम० ७००।
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लिखितम्
५५४-१। कावम्॥ (कुत्सो)। कविः जगती सोमसूर्यौ॥
आ꣢भि᳐प्री꣣ऽ२३४या꣥। णी꣢पा᳐वा꣣ऽ२३४ता꣥इ। चा꣢꣯नो꣡꣯हिताऽ२३ः॥ ना꣢मा᳐नी꣣ ऽ२३४या꣥। ह्वो꣢अ᳐धी꣣ऽ२३४ये꣥। षू꣢꣯व꣡र्द्धताये꣢ऽ३॥ आ꣢सू᳐री꣣ऽ२३४या꣥। स्या꣢बॄ᳐हा꣣ ऽ२३४ताः꣥। बॄ꣢꣯ह꣡न्नधाये꣢ऽ३॥ रा꣢थं᳐वा꣣ऽ२३४इश्वा꣥। चा꣢मा᳐रू꣣ऽ२३४हा꣥त्। वि꣢चा᳐ ऽ३१उवाऽ२३॥ क्षाऽ२३४णाः꣥॥ दी-४। प-१३। मा-८॥ १ (दै) १०८९॥
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लिखितम्
५५४-२। ऐडंकावम्॥ कविर्जगती सोमसूर्यौ॥
ए꣤ऽ५। अ꣤भिप्रि꣥याऽ२᳐। णि꣣प꣤वता꣥इ। ए꣤ऽ५। च꣤नो꣯हि꣥ताः॥ ए꣤ऽ५। ना꣤꣯मा꣯नि꣥याऽ२᳐। ह्वो꣣꣯अ꣤धिया꣥इ। ए꣤ऽ५। षु꣤वर्द्ध꣥ताइ॥ ए꣤ऽ५। आ꣤꣯सू꣯रि꣥याऽ२᳐। स्य꣣बृ꣤हताः꣥। ए꣤ऽ५। बृ꣤हन्न꣥धी॥ ए꣤ऽ५। र꣤थंवि꣥श्वाऽ२᳐। च꣣म꣤रुहा꣥त्। ए꣤ऽ५। वि꣤चक्ष꣥णाः। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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लिखितम्
५५४-३। वाजसनि॥ वाजसनिः जगती सोमसूर्यौ॥
अ꣥भ्यौ꣯हो꣯वा꣯हा꣯इप्रिया꣤णी꣥॥ प꣡वता꣢इ᳐चा꣣ऽ२३४नो꣥। हि꣢ताः꣡। ना꣢꣯मा꣡नि꣢यह्वो꣯ अधिये꣯षुवर्द्धता꣡इ॥ आ꣢꣯सू꣡र्य꣢स्यबृहतो꣯बृहन्नधा꣡इ॥ र꣢थ꣡म्। वाइश्व꣢ञ्चमरु꣡ह꣢त्। विचाऽ३᳐१उवाऽ२३॥ क्षा꣢ऽ᳐३णा꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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लिखितम्
५५४-४। वाजजिनी द्वे॥ द्वयोर्वाजजित् (प्रजापतिः) जगती सोमसूर्यौ॥
अ꣢भिप्रि꣡या। णी꣢꣯प꣡वताइ। होइहोवा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ३४। चनो꣥꣯हिताः꣤। हा꣥꣯हो꣤। वाहा꣥इ॥ ना꣢꣯मा꣯नि꣡या। ह्वो꣢꣯अ꣡धियाइ। होइहोवा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ३४। षुव꣥र्द्धता꣤इ। हा꣥꣯हो꣤। वाहा꣥इ॥ आ꣢꣯सू꣯रि꣡या। स्या꣢꣯बृ꣡हताः। होइहोवा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ३४। बृह꣥न्नधी꣤। हा꣥꣯हो꣤। वाहा꣥इ॥ र꣢थंवि꣡श्वा। चा꣢꣯म꣡रुहात्। होइहोवा꣢ऽ᳐३हो꣡ये꣢ऽ३४। विच꣥क्षणाः꣤। हा꣥꣯हो꣤। वा꣥ऽ६हा꣥उ। वा॥ वा꣢꣯जी꣡꣯जिगी꣢ऽ३वाꣳ꣢ऽ१॥ दी-१५। प-२६। मा-१६॥ ४ (पू) १०९२॥
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लिखितम्
५५४-५।
अ꣢भिप्रि꣡या। णी꣢꣯प꣡वताइ। चा꣢꣯नो꣡꣯हिताः। होवा꣢ऽ᳐३हो꣡इ॥ ना꣢꣯मा꣯नि꣡या। ह्वो꣢꣯अ꣡धियाइ। षू꣢꣯व꣡र्द्धताइ। होवा꣢ऽ᳐३हो꣡इ॥ आ꣢꣯सू꣯रि꣡या। स्या꣢꣯बृ꣡हताः। बॄ꣢꣯ह꣡ न्नधाइ। होवा꣢ऽ᳐३हो꣡॥ र꣢थंवि꣡श्वा। चा꣢꣯म꣡रुहात्। वी꣢꣯च꣡क्षणाः। होवा꣢ऽ३हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वा꣢꣯जी꣡꣯जिगी꣢꣯वा꣡꣯विश्वा꣢꣯ध꣡ना꣰꣯ऽ२नी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
10_0554 अभि प्रियाणि - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५५४-६। स्वारंकावम्॥ कविः प्रजापतिर्जगती सोमसूर्यौ॥
अ꣥भ्यो꣤वा॥ प्रि꣢या꣡꣯णिपवताइ। च꣢नो꣯हा꣡इताऽ᳒२ः᳒। ना꣡꣯मा꣯नियह्वो꣯अधियाइ। षु꣢वर्द्धा꣡ताऽ᳒२᳒इ। आ꣡꣯सू꣯र्यस्यबृहतो। बृ꣢हन्ना꣡धीऽ२३॥ रा꣡था꣢ऽ᳐३म्वा꣤इश्वा꣥। च꣢मरू꣡हाऽ२३त्। वा꣡इचा꣢ऽ᳐३क्षा꣤ऽ५णा"ऽ६५६ः॥ दी-७। प-१०। मा-१०॥ ६ (ञौ) १०९४॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣चोद꣡सो꣢ नो धन्व꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः꣣ प्र꣢ स्वा꣣ना꣡सो꣢ बृ꣣ह꣢द्दे꣣वे꣢षु꣣ ह꣡र꣢यः। वि꣡ चि꣢दश्ना꣣ना꣢ इ꣣ष꣢यो꣣ अ꣡रा꣢तयो꣣ऽर्यो꣡ नः꣢ सन्तु꣣ स꣡नि꣢षन्तु नो꣣ धि꣡यः꣢ ॥ 11:0555 ॥
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अ॒चो॒दसो॑ नो धन्व॒न्त्विन्द॑वः॒ प्र सु॑वा॒नासो॑ बृ॒हद्दि॑वेषु॒ हर॑यः ।
वि च॒ नश॑न्न इ॒षो अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त॒ सनि॑षन्त नो॒ धियः॑ ॥
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पदपाठः
अ꣣चोद꣡सः꣢। अ꣣। चोद꣡सः꣢। नः꣣। धन्वन्तु। इ꣡न्द꣢꣯वः। प्र꣢। स्वा꣣ना꣡सः꣢। बृ꣣ह꣢त्। दे꣣वे꣡षु। ह꣡र꣢꣯यः। वि। चि꣣त्। अश्नानाः꣢। इ꣣ष꣡यः꣢। अ꣡रा꣢꣯तयः। अ। रा꣣तयः। अर्यः꣢। नः꣣। सन्तु। स꣡नि꣢꣯षन्तु। नः꣣। धि꣡यः꣢꣯। ५५५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कविर्भार्गवः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्दरस आदि की याचना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अचोदसः) अन्य किसी से अप्रेरित अर्थात् स्वभाव से निकले हुए, (स्वानासः) शब्दकारी अर्थात् दिव्य सन्देश सुनानेवाले, (हरयः) पापहारी (इन्दवः) ब्रह्मानन्दरस (नः) हमारे (देवेषु) राष्ट्र के विद्वानों में और शरीर के मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि में (बृहत्) बहुत अधिक (प्र धन्वन्तु) भली-भाँति प्राप्त हों। (इषयः) केवल भोग की इच्छा करनेवाले, (अश्नानाः) स्वयं खाते रहनेवाले (अरातयः) अदानशील (नः अर्यः) हमारे आत्मिक और बाह्य शत्रु (वि चित् सन्तु) हमसे दूर ही हो जाएँ, और (धियः) सद्विचार (नः) हमें (सनिषन्तु) प्राप्त हों ॥२॥ इस मन्त्र में नकार आदि की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है। ‘नः सन्तु निषन्तु’ में छेकानुप्रास है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हमें चाहिए कि दुर्विचार रूप, कामक्रोधादि रूप और चोर-ठग आदि रूप शत्रुओं को दूर करें, सद्विचारों को पल्लवित करें और ब्रह्मानन्दरसों को अपने आत्मा में प्रवाहित करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ ब्रह्मानन्दरसादीन् प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अचोदसः) अन्येन केनापि अप्रेरिताः स्वभावनिःसृता इत्यर्थः, (स्वानासः) शब्दकारिणः दिव्यसन्देशवाहिनः इत्यर्थः। स्वनन्ति शब्दायन्ते इति स्वानाः, त एव स्वानासः। (हरयः) पापहारिणः (इन्दवः) ब्रह्मानन्दरसाः (नः) अस्माकम् (देवेषु) राष्ट्रस्य विद्वत्सु, शरीरस्य मनोबुद्धीन्द्रियादिषु वा (बृहत्) बहु (प्र धन्वन्तु) प्रकृष्टतया प्राप्नुवन्तु। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। (इषयः) भोगेच्छामात्रपरायणाः। इषु इच्छायाम्। (अश्नानाः) स्वयमेव भुञ्जानाः, (अरातयः) अदानशीलाः (नः अर्यः) अस्माकम् अरयः आध्यात्मिका बाह्याश्च शत्रवः। अत्र ‘जसादिषु छन्दसि वावचनं प्राङ् णौ चङ्युपधायाः। अ० ७।३।१०९ वा०’ इति गुणाभावे यणि रूपम्। (वि चित् सन्तु) अस्मत्तो दूरे एव भवन्तु, (धियः) सद्विचाराश्च (नः) अस्मान् (सनिषन्तु) संभजन्तु। षण सम्भक्तौ भ्वादिः, लोटि सनन्तु इति प्राप्ते बहुलं सिब्विकरणे रूपम् ॥२॥ अत्र नकारादीनामसकृदावर्तनाद् वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः। ‘नः सन्तु, नि षन्तु’ इति च छेकानुप्रासः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अस्माभिर्दुर्विचाररूपाः कामक्रोधादिरूपास्तस्करवञ्चकादिरूपाश्च शत्रवोऽपनेयाः, सद्विचाराः पल्लवनीयाः, ब्रह्मानन्दरसाश्च स्वात्मनि प्रवाहयितव्याः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७९।१, ‘प्र सुवानासो बृहद्दिवेषु हरयः। वि च नशन् च इषो अरातयोऽर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः ॥’ इति पाठः।
11_0555 अचोदसो नो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५५५-१। उद्वद्भार्गवम्॥ भृगुर्जगती सोमो देवाश्च॥
अ꣢चो꣯दा꣡सोऽ२३। नो꣢꣯धनू꣡वाऽ२३। तू꣢꣯इ꣡न्दवाः॥ प्र꣢स्वा꣯ना꣡सोऽ२३। बृ꣢हद्दा꣡इवेऽ२३। षू꣢꣯ह꣡रयाः॥ वि꣢चिदा꣡श्नाऽ२३। ना꣢꣯इषा꣡याऽ२३ः। आ꣢꣯रा꣡꣯तयाः॥ अ꣢र्यो꣯ना꣡स्साऽ२३। तू꣢꣯सना꣡इषाऽ२३। तू꣢꣯नो꣡꣯धिया꣢ऽ३१उ"वाऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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लिखितम्
५५५-२। आङ्गिरसे द्वे॥ द्वयोः अङ्गिरसो जगती सोमो देवाश्च॥
आ꣡चो꣢꣯द꣣सो꣢। नो꣣꣯ध꣤नुवन्तु꣥। इ꣤न्दवाः꣥॥ प्रा꣡स्वा꣢꣯ना꣣꣯सो꣢᳐॥ बृ꣣ह꣤द्दे꣯वे꣯षु꣥। ह꣤रयाः꣥। वा꣡इचि꣢द꣣श्ना꣢᳐। ना꣣꣯इ꣤षयो꣯अ꣥। रा꣤꣯तयाः꣥॥ आ꣡र्यो꣢꣯न꣣स्सा꣢᳐। तु꣣स꣤निष꣥। तु꣤नो ऽ५धियाउ॥ वा॥
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लिखितम्
५५५-३।
हा꣢꣯उहो꣯वा᳐ऽ३हा꣢इ। अचो꣯दसो꣯नो꣯ऽ३धा꣡। नु꣢वाऽ᳐३न्तू꣤ऽ३। इ꣢न्दवा꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢꣯उहो꣯वाऽ᳐३हा꣢इ। प्रस्वा꣯ना꣯सो꣯बॄऽ᳐३हा꣡त्। दे꣢꣯वेऽ᳐३षू꣤ऽ३। ह꣢र᳐या꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢꣯उहो꣯वाऽ᳐३हा꣢इ। विचिदश्ना꣯ना꣯ऽ३आ꣡इ। ष꣢योऽ᳐३आ꣤ऽ३। रा꣢꣯तया꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢꣯उहो꣯वाऽ᳐३हा꣢इ। अर्यो꣯नस्सन्तुऽ᳐३सा꣡। नि꣢षाऽ᳐३न्तू꣤ऽ३। नो꣢꣯धियाऽ᳐३२उवाऽ३꣡४꣡५꣡॥
11_0555 अचोदसो नो - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५५५-४। सामराजे द्वे॥ सामराजो जगती सोमो देवाश्च॥
अ꣥चो꣤हाइ॥ दा꣡सो꣯नो꣯धनुवा। तु꣢इन्दा꣡वाऽ᳒२ः᳒। प्र꣡स्वा꣯ना꣯꣯सो꣯बृहद्दे꣯वाइ। षु꣢हरा꣡याऽ२ः᳐। वि꣣चोऽ२३४हा꣥इ। अ꣣श्नोऽ२३४हा꣥इ। ना꣢꣯इषयः। अ꣣रोऽ२३४हा꣥इ। ता꣡याः꣢॥ अर्यो꣣ऽ२३४हा꣥इ। न꣣स्सोऽ२३४हा꣥॥ तू꣢सा᳐नी꣣ऽ२३४षा꣥। तू꣡ना꣭ऽ३ उवा꣢ऽ᳐३॥ धीऽ२३४याः꣥॥ दी-७। प-१५। मा-१४॥ १० (ञी) १०९८॥
11_0555 अचोदसो नो - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५५५-५। स्वार सामराजम्॥
अ꣥चौ꣯हो꣤वा꣥॥ दा꣡सो꣯नो꣯धनुवा। तु꣢इन्दा꣡वाऽ᳒२ः᳒। प्र꣡स्वा꣯ना꣯सो꣯बृहद्दे꣯वाइ। षु꣢꣢हरा꣡याऽ२३ः। वा꣡इची꣢ऽ३दा꣤श्ना꣥। ना꣢इषा꣣ऽ२३४याः꣥। हो꣢इ᳐। अ꣣रा꣢᳐ता꣣ऽ२३४ याः꣥॥ हो꣢ऽ३इ। आ꣡र्यो꣢ऽ३ना꣤स्सा꣥॥ तू꣢सा᳐नी꣣ऽ२३४षा꣥। हो꣢। तु꣣नो꣢ऽ᳐३धा꣤ऽ५" याऽ६५६ः॥
11_0555 अचोदसो नो - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५५५-६। सिमानान्निषेधः॥
अ꣥चो꣤। वाहा꣥इ॥ दा꣡सो꣯नो꣯धनुवा। तु꣢इन्दा꣡वाऽ᳒२ः᳒। प्रा꣡स्वा꣯ना꣯सो꣯ बृहद्दे꣯वाइ। षु꣢हरा꣡याऽ२३ः। वा꣡ऽ२३इची꣢त्। आ꣡ऽ२३श्ना꣢ऽ३४। ना꣣꣯इ꣤ष꣣यो꣤꣯अरा꣥꣯। ता꣢ऽ३याः꣢॥ आ꣡ऽ२३र्यो꣢॥ ना꣡ऽ२३स्सा꣢ऽ३४। तुस꣣नि꣤ष꣥। तु꣣नो꣢ऽ३धा꣤ऽ५ या"ऽ६५६ः॥
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ए꣣ष꣢꣫ प्र कोशे꣣ म꣡धु꣢माꣳ अचिक्रद꣣दि꣡न्द्र꣢स्य꣣ व꣢ज्रो꣣ व꣡पु꣢षो꣣ व꣡पु꣢ष्टमः। अभ्यृ꣢३ त꣡स्य꣢ सु꣣दु꣡घा꣢ घृत꣣श्चु꣡तो꣢ वा꣣श्रा꣡ अ꣢र्षन्ति꣣ प꣡य꣢सा च घे꣣न꣡वः꣢ ॥ 12:0556 ॥
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ए॒ष प्र कोशे॒ मधु॑माँ अचिक्रद॒दिन्द्र॑स्य॒ वज्रो॒ वपु॑षो॒ वपु॑ष्टरः ।
अ॒भीमृ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ घृत॒श्चुतो॑ वा॒श्रा अ॑र्षन्ति॒ पय॑सेव धे॒नवः॑ ॥
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पदपाठः
ए꣣षः꣢। प्र। को꣡शे꣢꣯। म꣡धु꣢꣯मान्। अ꣣चिक्रदत्। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। व꣡ज्रः꣢꣯। व꣡पु꣢꣯षः। व꣡पु꣢꣯ष्टमः। अ꣣भि꣢꣯। ऋ꣣त꣡स्य꣢। सु꣣दु꣡घाः꣢। सु꣣। दु꣡घाः꣢꣯। घृ꣣तश्चु꣡तः꣢। घृ꣣त। श्चु꣡तः꣢꣯। वा꣣श्राः꣢। अ꣣र्षन्ति। प꣡य꣢꣯सा। च꣣। धेन꣡वः꣢। ५५६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कविर्भार्गवः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा रूप सोम की प्राप्ति का फल वर्णित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एषः) यह (मधुमान्) मधुर परमात्मारूप सोम (कोशे) हमारे मनोमय कोश में (प्र अचिक्रदत्) दिव्य शब्द करा रहा है, जिससे (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (वज्रः) काम, क्रोध आदि रिपुओं के वर्जन का सामर्थ्य (वपुषः वपुष्टमः) दीप्त से दीप्ततम अथवा विशाल से विशालतम हो गया है। (वाश्राः) शब्दायमान (धेनवः) वेदवाणी रूप गौएँ (ऋतस्य) सत्य की (सुदुघाः) उत्तम दोहन करनेवाली और (घृतश्चुतः) तेजरूप घी को क्षरित करनेवाली होती हुई (पयसा) वेदार्थरूप दूध के साथ (अभि अर्षन्ति) हमें प्राप्त हो रही हैं ॥३॥ इस मन्त्र में वेदवाणियों में धेनुओं का और वेदार्थ में दूध का आरोप होने से तथा उपमान द्वारा उपमेय का निगरण हो जाने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब वेदवाणी-रूपिणी गौएँ अपना पवित्र और पवित्रताकारी वेदार्थरूप दूध पिलाती हैं, तब उस दूध से मनुष्य का आत्मा सत्यमय, तेजोमय, अतिशय बलवान्, पवित्र और परिपुष्ट हो जाता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमप्राप्तेः फलं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एषः) अयम् (मधुमान्) मधुररसमयः परमात्मसोमः (कोशे) अस्माकं मनोमयकोशे (प्र अचिक्रदत्) दिव्यं शब्दं कारयति। क्रदतेः शब्दकर्मणो णिचि लुङि रूपम्। येन (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (वज्रः) कामक्रोधादिरिपुगणानां वर्जनसामर्थ्यम् (वपुषः वपुष्टमः२) दीप्तात् दीप्ततमः यद्वा वपुष्मतो वपुष्मत्तमः विशालाद् विशालतमः इत्यर्थः, सञ्जातः। (वाश्राः३) शब्दायमानाः। वाशृ शब्दे। वाशन्ते शब्दायन्ते इति वाश्राः, अत्र ‘स्फायितञ्चि०। उ० २।१२’ इति रक् प्रत्ययः। (धेनवः४) वेदवाग्लक्षणा गावः (ऋतस्य) सत्यस्य (सुदुघाः) सुष्ठु दोग्ध्र्यः, (घृतश्चुतः) तेजोरूपस्य घृतस्य स्रावयित्र्यश्च सत्यः (पयसा च) वेदार्थरूपेण दुग्धेन च सह (अभि अर्षन्ति) अस्मान् प्रति प्राप्नुवन्ति ॥३॥ अत्र वेदवाचि धेनुत्वारोपाद् वेदार्थे च पयस्त्वारोपाद् उपमानेनोपमेयस्य निगरणाच्चातिशयोक्तिरलङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा वेदवाग्रूपा धेनवः पवित्रं पावकं च वेदार्थरूपं स्वकीयं पयः पाययन्ति तदा तेन पयसा मनुष्यस्यात्मा सत्यमयस्तेजोमयो बलवत्तमः पवित्रः परिपुष्टश्च जायते ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७७।१ ‘वपुष्टरः’, ‘अभीमृतस्य’, ‘पयसेव धेनवः’ इति पाठः। २. वपुषः वपुष्टमः दीप्तेः दीप्ततमः—इति वि०। वपुषः वपुष्मतः दीप्तिमतः वपुष्टमः दीप्तिमत्तमः—इति भ०। वपुषः बीजानां वप्तुः अन्यस्मात् वपुष्टमः अतिशयेन वप्ता, बीजावापस्य सोमकर्तृकत्वात्, ‘सोमो वै रेतोधाः’ इति श्रुतेः—इति सा०। ३. वाश्राः कामयमानाः—इति वि० [वश कान्तौ]। शब्दयन्त्यः—इति सा०। ४. धेनवः धेट् पाने। पिबन्त्यः उदकम् आदित्यरश्मयः कामयमानाः। क्षरन्ति पयः धेनवः आदित्यरश्मयश्च—इति वि०। धेनवः आशीर्दुहः—इति भ०। ऋतस्य सत्यफलस्य सोमस्य धाराः इति शेषः। वाश्रा धेनवः इव लुप्तोपममेतत्—इति सा०।
12_0556 एष प्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५५६-१। वैधृतं वासिष्ठम्॥ वसिष्ठो जगती इन्द्रः॥
ए꣢꣯ष꣡प्रकोशेऽ᳒२᳒। म। धु꣡माꣳऽ२᳐। अ꣣चा꣢इ᳐क्रा꣣ऽ२३४दा꣥त्॥ इ꣢न्द्रा꣡स्य꣢ वा꣡ज्राऽ᳒२ः᳒। व। पु꣡षोऽ२᳐। व꣣पु꣢ष्टा꣣ऽ२३४माः꣥। अ꣢भा꣡ऋ꣢ता꣡स्याऽ᳒२᳒। सु। दु꣡घाऽ२ः᳐। घृ꣣ता꣢᳐श्चू꣣ऽ२३४ताः꣥। वा꣢꣯श्रा꣡꣯अ꣢र्षा꣡न्तीऽ᳒२᳒। प। य꣡साऽ२३। चधा꣢ऽ᳐३इना꣤ऽ५ वा"ऽ६५६ः॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रो꣡ अ꣢यासी꣣दि꣢न्दु꣣रि꣡न्द्र꣢स्य निष्कृ꣣त꣢ꣳ सखा꣣ स꣢ख्यु꣣र्न꣡ प्र मि꣢꣯नाति स꣣ङ्गि꣡र꣢म्। म꣡र्य꣢ इव युव꣣ति꣢भिः꣣ स꣡म꣢र्षति꣣ सो꣡मः꣢ क꣣ल꣡शे꣢ श꣣त꣡या꣢मना प꣣था꣡ ॥ 13:0557 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रो अ॑यासी॒दिन्दु॒रिन्द्र॑स्य निष्कृ॒तं सखा॒ सख्यु॒र्न प्र मि॑नाति सं॒गिर॑म् ।
मर्य॑ इव युव॒तिभिः॒ सम॑र्षति॒ सोमः॑ क॒लशे॑ श॒तया॑म्ना प॒था ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। उ꣣। अयासीत्। इ꣡न्दुः꣢꣯। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। नि꣣ष्कृत꣢म्। निः꣣। कृत꣢म्। स꣡खा꣢꣯। स। खा꣣। स꣡ख्युः꣢꣯। स। ख्युः꣢। न꣢। प्र। मि꣣नाति। सङ्गि꣡र꣢म्। स꣣म्। गि꣡र꣢꣯म्। म꣡र्यः꣢꣯। इ꣣व। युवति꣡भिः꣢। सम्। अ꣣र्षति। सो꣡मः꣢꣯। क꣣लशे꣢। श꣣त꣡या꣢मना। श꣣त꣢। या꣣मना। पथा꣢। ५५७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सिकता निवावरी
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा का मैत्री विषय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्दुः) तेज से दीप्त, श्रद्धारस से परिपूर्ण जीवात्मा (इन्द्रस्य) परमात्मा के (निष्कृतम्) शरण-रूप घर को (प्र उ अयासीत्) प्रयाण करता है। (सखा) मित्र परमेश्वर (सख्युः) अपने मित्र जीवात्मा की (संगिरम्) स्तुति और प्रार्थना को (न प्रमिनाति) विफल नहीं करता, प्रत्युत पूर्ण ही करता है। (मर्यः) मनुष्य (इव) जैसे (शतयामना पथा) बहुत पद्धतियोंवाले व्यवहारमार्ग द्वारा (युवतिभिः) पत्नी, पुत्री, बहिन आदि युवतियों से (समर्षति) मिलता है, वैसे ही (सोमः) जीवात्मा (शतयामना पथा) अनेक साधनोंवाले योगमार्ग द्वारा (कलशे) षोडशकल परमात्मा रूप द्रोणकलश में (युवतिभिः) तरुण शक्तियों से (समर्षति) मिलता है ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेष से सोमरस-परक अर्थ की भी योजना करनी चाहिए। सोमरस और जीवात्मा में उपमानोपमेयभाव व्यञ्जित होता है। सोमरस जैसे दशापवित्र के बहुच्छिद्र मार्ग से द्रोणकलश में पहुँच कर ‘आपः’ रूप युवतियों से मिलता है, वैसे ही जीवात्मा बहुत साधनोंवाले योगमार्ग से परमात्मा को प्राप्त कर शक्तियों से संगत होता है ॥ ‘मर्य इव युवतिभिः’ इत्यादि में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा से साथ मित्रता स्थापित करके मनुष्य का आत्मा कृतकृत्य हो जाता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनो जीवात्मनश्च मैत्रीविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्दुः) तेजसा दीप्तः श्रद्धारसभरितो वा जीवात्मा (इन्द्रस्य) परमात्मनः (निष्कृतम्) शरणरूपं गृहम् (प्र उ अयासीत्) प्रयाति खलु। (सखा) सुहृत् परमात्मा (सख्युः) स्वसुहृदो जीवात्मनः (संगिरम्) स्तुतिं प्रार्थनां च (न प्रमिनाति) न विफलयति, प्रत्युत पूरयत्येव। (मर्यः इव) मनुष्यो यथा (शतयामना पथा) बहुपद्धतिना व्यवहारमार्गेण (युवतिभिः) तरुणीभिः पत्नी-पुत्री-भगिन्यादिभिः सह (समर्षति) संमिलति तथा (सोमः) जीवात्मा (शतयामना पथा) शतसाधनोपेतेन योगमार्गेण (कलशे) परमात्मरूपे द्रोणकलशे (युवतिभिः) तरुणीभिः शक्तिभिः (समर्षति) संगच्छते ॥४॥ अत्र श्लेषेण सोमौषधिरसपरोऽप्यर्थो योजनीयः। ततश्च सोमौषधिरसेन जीवात्मन उपमानोपमेयभावो व्यज्यते। सोमौषधिरसो यथा दशापवित्रस्य बहुच्छिद्रेण मार्गेण द्रोणकलशे अद्भिः सह संगच्छते तथा जीवात्मा बहुसाधने योगमार्गेण परमात्मनि शक्तिभिः संगच्छते इति ॥ ‘मर्य इव युवतिभिः’ इत्यादौ श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मना सह सख्यस्थापनेन मनुष्यस्यात्मा कृतकृत्यो जायते ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८६।१६ ऋषिः सिकता निवावरी। ‘शतयाम्ना’ इति पाठः। अथ० १८।४।६० ऋषिः अथर्वा। ‘प्र वा एतीन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतिं’ इति ‘मर्य इव योषाः समर्षसे’ इति च प्रथमतृतीयचरणयोर्भेदः। साम० ११५२।
13_0557 प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५५७-१। लौशे द्वे॥ द्वयोर्लुशो जगती इन्द्रसोमौ॥
प्रो꣢᳐या꣣ऽ२३४सी꣥त्। इ꣡न्दुरिन्द्राऽ२३। स्या꣤ऽ३नि꣢ष्कृ꣣त꣥म्। स꣣खा꣢꣯स꣣ख्युः꣥। न꣡प्रमिनाऽ२३। ती꣤ऽ३स꣢ङ्गि꣣र꣥म्। म꣣र्य꣢इ꣣व꣥। यु꣡वतिभाऽ२३इः। सा꣤ऽ३म꣢र्ष꣣ति꣥। सो꣣꣯मᳲ꣢क꣣ला꣥। शे꣡꣯शतयाऽ२३। मना꣢ऽ᳐३पा꣤ऽ५था"ऽ६५६॥ दी-७। प-१२। मा-७॥ १४ (ठे) ११०२॥
13_0557 प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५५७-२।
प्रो꣣꣯या꣤꣯सी꣯दि꣣न्दु꣤रि꣣न्द्र꣤स्य꣥निः। कृ꣣ता꣢म्। कृता꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ स꣣खा꣢ऽ३१२३४। सख्यु꣥र्न꣤प्रमि꣥ना꣯तिसम्। गि꣤रा꣥ङ्गि꣤रा꣥म्॥ म꣣र्या꣢ऽ३१२३४ः। इव꣥युवति꣤ भि꣥स्स꣤म꣥। ष꣤ता꣥इष꣤ता꣥इ॥ सो꣣꣯मा꣢ऽ३१२३४ः। कलशे꣥꣯शत꣤या꣥꣯। म꣣ना꣢ऽ᳐३पा꣤ऽ५ था"ऽ६५६॥
13_0557 प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५५७-३। प्रवद्भार्गवम्॥ भृगुः जगती इन्द्रसोमौ॥
प्रो꣢꣯अया꣡꣯साइत्। इ꣢न्दुरि꣡न्द्रा। स्याऽ᳒२᳒नि꣡ष्कृताम्॥ स꣢खा꣯स꣡ख्यूः। न꣢प्र꣡मिना। ताऽ᳒२᳒इस꣡ङ्गिराम्॥ म꣢र्यइ꣡वा। यु꣢वति꣡भाइः। साऽ᳒२᳒म꣡र्षताइ॥ सो꣢꣯मᳲक꣡ला। शे꣢꣯श꣡तया। माऽ᳒२᳒ना꣡꣯पथा꣢ऽ३१उ॥ वाऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-६। प-१३। मा-१२॥ १६ (गा) ११०४॥
13_0557 प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५५७-४। तन्त्रम्॥ विरूपो जगती इन्द्रसोमौ॥
प्रो꣢꣯अया꣡꣯साइत्। इ꣢न्दुरि꣡न्द्रा। स्या꣢꣯नि꣡ष्कृताऽ२३म्॥ सखा꣢꣯स꣣ख्युः꣥। न꣣प्रा꣢᳐मि꣣ना꣥꣯। ति꣣स꣢ङ्गा꣣ऽ२३४इरा꣥म्॥ म꣢र्यइ꣡वा। यु꣢वति꣡भाइः। सा꣢꣯म꣡र्षताये꣢ऽ३॥ सो꣯मᳲ꣢क꣣ला꣥। शे꣣꣯शा꣢᳐त꣣या꣥꣯। म꣣ना꣢ऽ᳐३पा꣤ऽ५था"ऽ६५६॥ दी-९। प-१२। मा-१०॥ १७ (थौ) ११०५॥
13_0557 प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५५७-५। यामम्॥ यमो जगती इन्द्रसमौ॥
आ꣡ऽ᳒२᳒इ। इ꣡या। प्रो꣯अया꣯साइदि꣪न्दुरिन्द्राऽ२३। स्या꣤ऽ३नि꣢ष्कृ꣣त꣥म्॥ स꣡खा꣯सख्यूर्न꣪प्रमिनाऽ२३। ती꣤ऽ३स꣢ङ्गि꣣र꣥म्॥ म꣡र्यइवायु꣪वतिभाऽ२३इः। सा꣤ऽ३ म꣢र्ष꣣ति꣥॥ आ꣡ऽ᳒२᳒इ। इ꣡या। सो꣯मᳲकलाशे꣢ऽ१शतयाऽ२३। मना꣢ऽ᳐३पा꣤ऽ५ था"ऽ६५६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ध꣣र्ता꣡ दि꣣वः꣡ प꣢वते꣣ कृ꣢त्व्यो꣣ र꣢सो꣣ द꣡क्षो꣢ दे꣣वा꣡ना꣢मनु꣣मा꣢द्यो꣣ नृ꣡भिः꣢। ह꣡रिः꣢ सृजा꣣नो꣢꣫ अत्यो꣣ न꣡ सत्व꣢꣯भि꣣र्वृ꣢था꣣ पा꣡जा꣢ꣳसि कृणुषे न꣣दी꣢ष्वा ॥ 14:0558 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ध॒र्ता दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॒ दक्षो॑ दे॒वाना॑मनु॒माद्यो॒ नृभिः॑ ।
हरिः॑ सृजा॒नो अत्यो॒ न सत्व॑भि॒र्वृथा॒ पाजां॑सि कृणुते न॒दीष्वा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ध꣣र्ता꣢। दि꣣वः꣢। प꣣वते। कृ꣡त्व्यः꣢꣯। र꣡सः꣢꣯। द꣡क्षः꣢꣯। दे꣣वा꣡ना꣢म्। अ꣣नुमा꣡द्यः꣢। अ꣣नु। मा꣡द्यः꣢꣯। नृ꣡भिः꣢꣯। ह꣡रिः꣢꣯। सृ꣣जानः꣢। अ꣡त्यः꣢꣯। न। स꣡त्व꣢꣯भिः। वृ꣡था꣢꣯। पा꣡जाँ꣢꣯सि। कृ꣣णुषे। नदी꣡षु꣢। आ। ५५८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कविर्भार्गवः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के कर्मों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (दिवः) द्युलोक अथवा सूर्य का (धर्ता) धारण करनेवाला, (कृत्व्यः) कर्मकुशल, (रसः) आनन्द-रसमय, (देवानाम्) विद्वानों का (दक्षः) बलप्रदाता, (नृभिः) पुरुषार्थी मनुष्यों से (अनुमाद्यः) प्रसन्न किये जाने योग्य परमात्मा (पवते) सब जड़-चेतन जगत् को पवित्र करता है। आगे प्रत्यक्षकृत वर्णन है—(हरिः) आकर्षण के बल से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोकों के नियामक, (सृजानः) जगत् की रचना करनेवाले आप (वृथा) अनायास ही (सत्वभिः) अपने बलों से (नदीषु) नदियों में (पाजांसि) बलों और वेगों को (आ कृणुषे) स्थापित करते हो, (अत्यः न) जैसे घोड़ा रथ आदि में वेगों को स्थापित करता है ॥५॥ इस मन्त्र में लक्षणावृत्ति से रस का अर्थ रसवान् और दक्ष का अर्थ दक्षकारी है। ‘अत्यो न’ में उपमालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर सारे संसार को रचनेवाला, धारण करनेवाला और बल, वेग आदि देनेवाला है, उसकी सब मनुष्य आराधना क्यों न करें? ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनः कर्माण्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (दिवः) द्युलोकस्य सूर्यस्य वा (धर्ता) धारयिता, (कृत्व्यः२) कर्मसु साधुः, कर्मकुशलः। कृत्वी इति कर्मनाम। निघं० २।१। तत्र साधुः कृत्व्यः। साध्वर्थे यत्। (रसः) आनन्दरसमयः, (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षः) बलप्रदः। दक्ष इति बलनाम। निघं० २।९। (नृभिः) पुरुषार्थिभिः मनुष्यैः (अनुमाद्यः) प्रसाद्यः सोमः परमात्मा (पवते) जडचेतनात्मकं सर्वं जगत् पुनाति। अथ प्रत्यक्षकृतमाह। (हरिः) आकर्षणबलेन सूर्यचन्द्रपृथिव्यादिलोकानां नियन्ता (सृजानः) जगत् रचयन् त्वम् (वृथा) अनायासेन (सत्वभिः) स्वकीयैः बलैः (नदीषु) सरित्सु (पाजांसि) बलानि वेगान् वा। पाजः इति बलनाम। निघं० २।९। (आ कृणुषे) आकरोषि। तदेव उपमिमीते, (अत्यः न) अश्वः इव। अश्वो यथा रथादिषु वेगान् आकृणुते तद्वदित्यर्थः। अत्यः इत्यश्वनाम। निघं० १।१४ ॥५॥ अत्र रसः रसवान् दक्षः दक्षकारी इत्यत्र क्रमेण तद्वति तत्कारिणि च लक्षणा। ‘अत्यो न’ इत्युपमा ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरः सर्वस्य जगतः स्रष्टा धर्ता बलवेगादिप्रदश्चास्ति स सर्वैर्जनैः कुतो नाराधनीयः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७६।१, ‘कृणुषे’ इत्यत्र ‘कृणुते’ इति पाठः। साम० १२२८। २. कृत्व्यान् कर्मसु साधून् इति ऋ० १।१२१।७ भाष्ये दयानन्दः। कृत्व्यः संस्कृतः—इति भ०। कर्तव्यः शोध्य इत्यर्थः—इति सा०।
14_0558 धर्ता दिवः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५५८-१। दास(वात्स) शिरसी द्वे॥ द्वयोर्दसशिरा जगती सोमः॥
ध꣢र्ता꣡दाइवा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए॥ प꣢वते꣯कृत्विऽ३यो꣡रासा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए। द꣢क्षो꣡दाइवा꣢ऽ᳐३। ओ꣤꣯वाऽ५ए॥ ना꣢꣯मनुमा꣯दिऽ३यो꣡नॄभा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए॥ ह꣢रा꣡इस्सार्जा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए॥ नो꣢꣯अतियो꣯नऽ३सा꣡त्वाभा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए। वृ꣢था꣡पाजा꣢ऽ᳐३। ओ꣤꣯वाऽ५ए॥ सि꣢कृणुषाइनदा꣡इषूवा꣢ऽ३। ओ꣤꣯वाऽ५ए। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
14_0558 धर्ता दिवः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५५८-२।
ध꣥र्ता꣯औ꣯हो꣤होहा꣥इ॥ दि꣢वः꣡। पवतेका꣢᳐। औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ᳐३। हा꣢। त्वियो꣡꣯रसो। दक्षो꣯देवा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢। ना꣡꣯मनुमा। दि꣢यो꣡꣯नृभाइः। हराइस्सार्जा꣢᳐॥ औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢। नो꣡꣯अतियो। न꣢स꣡त्वभाइः॥ वृथा꣯पाजा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢॥ सिकृणू꣡षा꣢। औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ᳐३। हा꣢इ᳐। न꣣दी꣯षु꣢वा꣡। औ꣢꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। न꣢दी꣡꣯षुवा꣢ऽ१॥ दी-१८। प-२८। मा-१०॥ २० (डौ) ११०८॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वृ꣡षा꣢ मती꣣नां꣡ प꣢वते विचक्ष꣣णः꣢꣫ सोमो꣣ अ꣡ह्नां꣢ प्रतरी꣣तो꣡षसां꣢꣯ꣳ दि꣣वः꣢। प्रा꣣णा꣡ सिन्धू꣢꣯नाꣳ क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अचिक्रद꣣दि꣡न्द्र꣢स्य꣣ हा꣡र्द्या꣢वि꣣श꣡न्म꣢नी꣣षि꣡भिः꣣ ॥ 15:0559 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वृषा॑ मती॒नां प॑वते विचक्ष॒णः सोमो॒ अह्नः॑ प्रतरी॒तोषसो॑ दि॒वः ।
क्रा॒णा सिन्धू॑नां क॒लशाँ॑ अवीवश॒दिन्द्र॑स्य॒ हार्द्या॑वि॒शन्म॑नी॒षिभिः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
वृ꣡षा꣢꣯। म꣣ती꣢नाम्। प꣣वते। विचक्षणः꣢। वि꣣। चक्षणः꣢। सो꣡मः꣢꣯। अ꣡ह्ना꣢꣯म्। अ। ह्ना꣣म्। प्रतरीता꣢। प्र꣣। तरीता꣢। उ꣣ष꣡सा꣢म्। दि꣣वः꣢। प्रा꣣णा꣢। प्र꣣। आना꣢। सि꣡न्धू꣢꣯नाम्। क꣣ल꣡शा꣢न्। अ꣣चिक्रदत्। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। हा꣡र्दि꣢꣯। आ꣣विश꣢न्। आ꣣। विश꣢न्। म꣣नीषि꣡भिः꣢। ५५९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सिकता निवावरी
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा और दृष्टिप्रदाता (सोमः) परमात्मा (मतीनाम्) प्रज्ञाओं का (वृषा) वर्षक होता हुआ (पवते) उपासकों को प्राप्त होता है । वही (अह्नाम्) दिनों का, (उषसाम्) उषाओं का और (दिवः) सूर्य का (प्रतरीता) संतारक और सञ्चालक होता है। (प्राणा) सबका प्राणभूत वह (सिन्धूनाम्) नदियों के (कलशान्) कल-कल निनाद करनेवाले प्रवाहों को (अचिक्रदत्) शब्दयुक्त करता है। वही (मनीषिभिः) मन को सन्मार्ग में प्रेरित करनेवाले स्तोत्रों से (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (हार्दि) हृत्प्रदेश में (आ विशन्) प्रविष्ट होता है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि सर्वद्रष्टा, सबको विवेक प्रदान करनेवाले, उषा-सूर्य-दिन आदि के व्यवस्थापक, नदियों को कल-कल निनाद करानेवाले परमात्मा को हृदय में धारण करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विचक्षणः२) विशेषेण द्रष्टा दृष्टिप्रदो वा (सोमः) परमात्मा (मतीनाम्) प्रज्ञानाम् (वृषा) वर्षकः सन् (पवते) उपासकान् प्राप्नोति। स एव (अह्नाम्) दिवसानाम्, (उषसाम्) उषःकालानाम्, (दिवः) सूर्यस्य च (प्रतरीता३) सन्तारकः सञ्चालकश्च भवति। (प्राणा४) सर्वेषां प्राणभूतः सः। अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति सोः आकारादेशः। (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (कलशान्) कल-कल-निनादयुक्तान् प्रवाहान् (अचिक्रदत्) शब्दापयति। स एव (मनीषिभिः५) मनः सन्मार्गे प्रेरणशीलैः स्तोत्रैः। मनः ईषन्ते प्रेरयन्तीति मनीषिणः तैः। (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (हार्दि) हृत्प्रदेशे। हृदयवाचिनः हार्द् शब्दस्य सप्तम्येकवचने रूपमिदम्। (आविशन्) प्रविशन्, जायते इति शेषः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वद्रष्टा, सर्वेषां विवेकप्रदः, उषःसूर्यदिवसादीनां व्यवस्थापयिता, नदीनां निनादयिता परमात्मा सर्वैर्जनैर्हृदि धारणीयः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८६।१९ ऋषिः सिकता निवावरी। ‘क्राणा सिन्धूनां कलशाँ अवीवशदिन्द्रस्य’ इति पाठः। अथ० १८।४।५८ ऋषिः अथर्वा। ‘प्राणः सिन्धूनां कलशाँ अचिक्रददिन्द्रस्य हार्दिमाविशन् मनीषया’ इत्युत्तरार्धपाठः। साम० ८२१। २. मतीनां व्रतानाम् विचक्षणः विविधं प्रकाशयिता—इति वि०। मतीनां स्तोत्राणां विचक्षणः विद्रष्टा—इति भ०। मतयः स्तोतारः तेषां वृषा वर्षकः कामानाम्। विचक्षणः विद्रष्टा—इति सा०। ३. प्रतरीता प्रकर्षेण तारयिता—इति वि०। प्रवर्द्धयिता—इति सा०। ४. प्रा पूरणे इत्यस्माद्धातोः, पॄ पालनपूरणयोः इत्यस्माद् वा लिटः कानच्। अभ्यासाभावः छान्दसः। सोराकारादेशे रूपं प्राणा इति। पूर्णः। सिन्धूनां नदीनां पूर्णः इत्यर्थः—इति भ०। सिन्धूनां स्यन्दमानानामुदकानां प्राणा, प्रकर्षेण अनिति चेष्टते इति प्राणा, कर्ता सोमः—इति सा०। ५. मनीषिभिः मनसः ईशित्रीभिः स्तुतिभिः—इति सा०।
15_0559 वृषा मतीनाम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५५९-१। यामानि त्रीणि॥ (ऐडयामम्) त्रयाणां यमो जगती सोमेन्द्रौ॥
वृ꣢षा꣯मा꣡तीऽ२३। ना꣢꣯म्पवा꣡ताऽ२३इ। ए꣢ऽ᳐३। वि꣢चक्षणए᳐ऽ३॥ सो꣢꣯मो꣯ आ꣡ह्नाऽ२३म्। प्र꣢तरा꣡इताऽ२३। ए꣢ऽ᳐३। उ꣢षसा꣯न्दिवए᳐ऽ३॥ प्रा꣢꣯णा꣯सा꣡इन्धू ऽ२३। नां꣢꣯कला꣡शाꣳऽ२३। ए꣢ऽ᳐३। अ꣢चिक्रददेऽ᳐३॥ इ꣢न्द्रस्या꣡हाऽ२३। दि꣢या꣯ वा꣡इशाऽ२३न्। ए꣢ऽ᳐३। म꣢नी꣯षिभिरेऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
15_0559 वृषा मतीनाम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५५९-२।
वृ꣡षा꣢꣯मती꣯ना꣡꣯म्पव। ताइवा꣢ऽ१इचाऽ२३४। क्ष꣥। णा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ सो꣡꣯मो꣢꣯ अ꣡ह्ना꣢꣯म्प्र꣡तरी꣢꣯। तो꣡षा꣢ऽ१साऽ२३४म्। दि꣥। वा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ प्रा꣢꣯णा꣡꣯सिन्धू꣢꣯नां꣯कल꣡। शाꣳआ꣢ऽ१चाऽ२३४इ। क्र꣥। दा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡त्॥ आ꣡इन्द्रस्य꣢हा꣡꣯र्दिया꣯वि। शान्मा꣢ ऽ१नाऽ२३४इ। षिभा꣥ऽ२उ। वाऽ३꣡४꣡५꣡॥ दी-१३। प-१६। मा-१२॥ २२ (टा) १११०॥
15_0559 वृषा मतीनाम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५५९-३।
वृ꣡षाऽ᳒२᳒म꣡ताऽ᳒२᳒इ। ना꣡꣯म्पवते꣯वि꣢च꣡क्षाऽ२३णाः꣢॥ सो꣡꣯मोऽ᳒२᳒अ꣡ह्नाऽ᳒२᳒म्। प्र꣡तरी꣯ तो꣯ष꣢सा꣡꣯न्दाऽ२३इवाः꣢॥ प्रा꣡꣯णाऽ᳒२᳒सि꣡न्धूऽ᳒२᳒। नां꣡꣯कलशाꣳ꣯अ꣢चि꣡क्राऽ२३दा꣢त्॥ इ꣡न्द्राऽ᳒२᳒स्य꣡हाऽ᳒२᳒। दि꣡या꣯विशन्म꣢नी꣡꣯षाऽ२३इभा꣢ऽ३४३इः॥ ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्रि꣡र꣢स्मै स꣣प्त꣢ धे꣣न꣡वो꣢ दुदुह्रिरे स꣣त्या꣢मा꣣शि꣡रं꣢ पर꣣मे꣡ व्यो꣢मनि। च꣣त्वा꣢र्य꣣न्या꣡ भुव꣢꣯नानि नि꣣र्णि꣢जे꣣ चा꣡रू꣢णि चक्रे꣣ य꣢दृ꣣तै꣡रव꣢꣯र्धत ॥ 16:0560 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्रिर॑स्मै स॒प्त धे॒नवो॑ दुदुह्रे स॒त्यामा॒शिरं॑ पू॒र्व्ये व्यो॑मनि ।
च॒त्वार्य॒न्या भुव॑नानि नि॒र्णिजे॒ चारू॑णि चक्रे॒ यदृ॒तैरव॑र्धत ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्रिः꣢। अ꣣स्मै। सप्त꣢। धे꣣न꣡वः꣢। दु꣣दुह्रिरे। सत्या꣢म्। आ꣣शि꣡र꣢म्। आ꣣। शि꣡र꣢꣯म्। प꣣रमे꣢। व्यो꣢मन्। वि। ओ꣣मनि। चत्वा꣡रि꣢। अ꣣न्या꣢। अ꣣न्। या꣢। भु꣡व꣢꣯नानि। नि꣣र्णि꣡जे꣢। निः꣣। नि꣡जे꣢꣯। चा꣡रू꣢꣯णि। च꣣क्रे। य꣢त्। ऋ꣣तैः꣢। अ꣡व꣢꣯र्धत। ५६०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- रेणुर्वैश्वामित्रः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि स्तोता क्या फल प्राप्त करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (परमे) उत्कृष्ट (व्योमनि) हृदयाकाश में (अस्मै) इस स्तोता के लिए (त्रिः सप्त) इक्कीस छन्दोंवाली (धेनवः) वेदवाणी रूप गौएँ (सत्याम् आशिरम्) सत्य रूप दूध को (दुदुह्रिरे) देती हैं। (यत्) जब यह स्तोता (ऋतैः) सत्य ज्ञानों और सत्य कर्मों से (अवर्द्धत) वृद्धि को प्राप्त करता है, तब (निर्णिजे) अपने आत्मा के शोधन वा पोषण के लिए (चत्वारि) चार (अन्या) अन्य (चारूणि) सुरम्य (भुवनानि) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप भुवनों को (चक्रे) उत्पन्न कर लेता है ॥७॥ धेनु निघण्टु (१।११) में वाणीवाची नामों में पठित है। ताण्ड्य एवं गोपथब्राह्मण में भी कहा है कि ‘वाणी ही धेनु है’ (तां० ब्रा० १८।९।२१, गो० पू० २।२१)। अथवा वेदवाणी में धेनुत्व का आरोप होने से तथा उपमेय का उपमान द्वारा निगरण होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सात गायत्र्यादि छन्द, सात अतिजगत्यादि छन्द और सात कृत्यादि छन्द मिलकर इक्कीस छन्द वेद में होते हैं। उन छन्दोंवाली इक्कीस प्रकार की वेदवाणियाँ मानो साक्षात् गौएँ हैं, जो अपने सेवक को सत्यज्ञानरूप और सत्कर्तव्यबोध रूप दूध देती हैं, जिससे परिपुष्ट हुआ वह धर्मार्थकाम-मोक्षरूप भुवनों में निवास करता हुआ जीवन की सफलता को प्राप्त कर लेता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्तोता किं फलं प्राप्नोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (परमे) उत्कृष्टे (व्योमनि) हृदयाकाशे (अस्मै) स्तोत्रे जनाय (त्रिः सप्त) एकविंशतिसंख्यका एकविंशतिच्छन्दोयुताः (धेनवः) वेदवाग्रूपा गावः (सत्याम् आशिरम्) सत्यरूपं दुग्धम् (दुदुह्रिरे) दुहन्ति। अत्र ‘बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।८’ इति रुडागमः। (यत्) यदा एष (ऋतैः) सत्यैः ज्ञानकर्मभिः (अवर्द्धत) वृद्धिं गच्छति, तदायम् (निर्णिजे) आत्मनः शोधनाय पोषणाय वा। णिजिर् शौचपोषणयोः। चत्वारि चतुःसंख्यकानि (अन्या) अन्यानि (चारूणि) सुरम्याणि (भुवनानि) धर्मार्थकाममोक्षरूपाणि (चक्रे) सम्पादयति ॥७॥२ धेनुः इति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।११। ‘वाग् वै धेनुः’ इति च ब्राह्मणम्, तां० ब्रा० १८।९।२१, गो० पू० २।२१। यद्वा वेदवाचि धेनुत्वारापोद्, उपमेयस्योपमानेन निगरणाच्चातिशयोक्तिरलङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सप्त गायत्र्यादीनि सप्त अतिजगत्यादीनि सप्त च कृत्यादीनि मिलित्वा एकविंशतिश्छन्दांसि भवन्ति। तन्मय्य एकविंशतिविधा वेदवाचः साक्षाद् धेनव इव सन्ति, याः स्वगोपालाय सत्यज्ञानरूपं सत्कर्तव्यबोधरूपं च पयः प्रयच्छन्ति, येन परिपुष्टः स धर्मार्थकाममोक्षरूपेषु चतुर्षु भुवनेषु कृतनिवासो जीवनसाफल्यमधिगच्छति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७०।१ ‘दुदुह्रिरे, परमे’ इत्यत्र क्रमेण ‘दुदुह्रे, पूर्व्ये’ इति पाठः। २. विवरणकार एतामृचमेवं व्याचष्टे—“अस्मै सोमाय सप्त धेनवः सप्त छन्दांसि, त्रिः प्रातःसवनमाध्यन्दिनसवनतृतीयसवनेषु दुदुह्रिरे। अथवा त्रिः त्रिभिः सवनैः सप्त धेनवः सप्त होत्रा वषट्कारिणः—होता, मैत्रावरुणः ब्राह्मणाच्छंसी, पोता, नेष्टा, अच्छावाकः, आग्नीध्रः—एतेषां वाचः दुह्यन्ते। सत्याम् आशिरम् आश्रयणीयं मिश्रणं वा। परमे प्रकृष्टे व्योमनि व्याप्तिस्थाने यज्ञे वा। चत्वारि अग्निष्टोमः, उक्थ्यः, षोडशी, अतिरात्रश्चतुर्थः। अथवा पृथिवी, अन्तरिक्षं द्यौर्दिश इति। अथवा चत्वारो वेदाः। अथवा चत्वारो महर्त्विजः, अथवा चत्वारः समुद्राः। अन्या भुवनानि निर्णिजे चतुर्दश भुवनानि। सप्त भूरादयो लोकाः, सप्त पातालानि। तान्यपि चारूणि चक्रे कृतवान्। केन प्रकारेण ? यद् ऋतैः अन्नैः यज्ञैः सत्यैर्वा अवर्धत। अथवा त्रिः अस्मै सप्त धेनवः सप्त रश्मयः दुदुह्रिरे। अथवा सप्ताश्वाः। अथवा सप्त पावकजिह्वाः, सप्त मातरो वा, सप्त भूरादयो लोकाः, सप्त पातालानि, सप्त सोमसंस्थाः, सप्त समुद्राः, सप्त द्वीपानि, सप्त स्वराः—एताः दुदुह्रिरे। सत्याम् आशिरम् उदकं परमे व्योमनि। चत्वारि अन्या भुवनानि पृथिव्यादीनि चारूणि चक्रे। यद् ऋतैः यज्ञैः अवर्धत इति। अथवा त्रिः अस्मै सप्त धेनवः सप्त प्राणाः शीर्षण्या ईरिताः उत्पत्तिस्थितिप्रलयेषु। सत्याम् अवितथाम्। आशिरं ज्ञानम्। चत्वारि अन्यानि भुवनानि जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयासु अद्वैतावस्थेति। यद् ऋतैर्जनैः अवर्धत विज्ञानाय” इति। अथ भरतः—“त्रिः सप्त एकविंशतिः, धेनवः छन्दांसि माध्यमिकवाग्रूपेण अवतिष्ठन्ते इत्येतत्—‘अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता’ ऋ० १।१६४।२९ इत्यस्यामृचि ज्ञायते। वाचः छन्दांस्यभिव्यक्तिस्थानानीति वाचः छन्दोवृष्टिः। चत्वारि अन्या अन्यानि भुवनानि उदकानि। अस्य निर्णिजे रूपाय भवन्ति। एकं वासतीवरं त्रीणि ऐकधनानीति भुवनचतुष्टयम्। अयं च सोमः चारूणि भद्राणि चक्रे करोति यजमानानाम्, यत् यदा ऋतैः उदकैः अवर्धत वर्धते। तदा चारूणि चक्रे” इति। अथ सायणः—“परमे उत्कृष्टे व्योमनि विविधम् ओम अवनं गमनं देवानामत्रेति व्योमा यज्ञः तस्मिन् स्थिताय। यद्वा परमे व्योमनि अन्तरिक्षे वर्तमानाय। त्रिः सप्त एकविंशतिसंख्याकाः धेनवः प्रीणयित्र्यो गावः….। यद्वा त्रिः सप्त द्वादशमासाः, पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोकाः, असावादित्य एकविंश इति। एतैः सर्वैः सह गोषु पय उत्पाद्यते तद् गावो दुहन्तीति। चत्वारि भुवना उदकानि वसतीवरीस्तिस्रश्चैकधना इति चतुःसंख्यानि…। निर्णिजे निर्णेजनाय परिशोधनाय परिपोषणाय वा…। ऋतैः यज्ञैः” इति।
16_0560 त्रिरस्मै सप्त - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६०-१। मरुतान्धेनु॥ मरुतो जगती सोमः॥
त्रा꣡ऽ२३४इः। अस्मै꣥꣯सप्त꣤धे꣥꣯न꣤वो꣥꣯दुदौ꣯। हो꣤ह्राइरा꣥इ॥ स꣢त्या꣡꣯मा꣯शिरम्परमाइ। वि꣢यो꣯मा꣡नीऽ᳒२᳒। चत्वा꣡꣯र्यन्या꣯भुवना। नि꣢निर्णा꣡इजाऽ२३इ॥ चा꣢रू᳐णा꣣ऽ२३४ इचा꣥॥ क्रे꣢꣯य꣡दृतैः꣢꣯। आ꣡वा꣢ऽ३र्द्धा꣤ऽ५ता"ऽ६५६॥ दी-११। प-१०। मा-९॥ २४ (ङो) १११२॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ सु꣡षु꣢तः꣣ प꣡रि꣢ स्र꣣वा꣡पामी꣢꣯वा भवतु꣣ र꣡क्ष꣢सा स꣣ह꣢। मा꣢ ते꣣ र꣡स꣢स्य मत्सत द्वया꣣वि꣢नो꣣ द्र꣡वि꣢णस्वन्त इ꣣ह꣢ स꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः ॥ 17:0561 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा॑य सोम॒ सुषु॑तः॒ परि॑ स्र॒वापामी॑वा भवतु॒ रक्ष॑सा स॒ह ।
मा ते॒ रस॑स्य मत्सत द्वया॒विनो॒ द्रवि॑णस्वन्त इ॒ह स॒न्त्विन्द॑वः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रा꣢꣯य। सो꣣म। सु꣡षु꣢꣯तः। सु। सु꣣तः। प꣡रि꣢꣯। स्र꣣व। अ꣡प꣢꣯। अ꣡मी꣢꣯वा। भ꣣वतु। र꣡क्ष꣢꣯सा। स꣣ह꣢। मा꣢। ते꣣। र꣡स꣢꣯स्य। म꣣त्सत। द्वयावि꣡नः꣢। द्र꣡वि꣢꣯णस्वन्तः। इ꣣ह꣢। स꣣न्तु। इ꣡न्द꣢꣯वः। ५६१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- वेनो भार्गवः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस के प्रवाह की प्रार्थना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) परब्रह्म परमात्मन् ! (सुषुतः) ध्यान द्वारा भली-भाँति निचोड़े हुए तुम (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिस्रव) परिस्रुत होवो, आनन्दरस को प्रवाहित करो। तुम्हारी सहायता से (रक्षसा सह) कामक्रोधादि रूप राक्षस के सहित (अमीवा) मन का सन्ताप रूप रोग (अप भवतु) हमसे दूर हो जाए। (द्वयाविनः) मन में कुछ तथा वाणी में कुछ, इस प्रकार दोहरे आचरणवाले कपटी, धूर्त, ठग लोग (ते) तुम्हारे (रसस्य) आनन्दरस का (मा मत्सत) स्वाद न ले सकें। (इह) हम सरल स्वभाववालों के अन्दर (इन्दवः) आर्द्र करनेवाले ब्रह्मानन्दरस (द्रविणस्वन्तः) समृद्ध और सबल (सन्तु) होवें ॥८॥ इस मन्त्र में सकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सरलवृत्तिवाले मनुष्य ही ब्रह्मानन्दरस के अधिकारी होते हैं, कुटिल वृत्तिवाले और दूसरों को ठगनेवाले लोग नहीं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ ब्रह्मानन्दरसप्रवाहं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) परब्रह्म परमात्मन् ! (सुषुतः) ध्यानेन सम्यक् निष्पीडितः त्वम् (इन्द्राय) जीवात्मने (परिस्रव) परिस्रुतो भव, आनन्दरसं प्रवाहय। त्वत्साहाय्येन (रक्षसा सह) कामक्रोधाद्यात्मकेन राक्षसेन सार्द्धम् (अमीवा) मनस्तापरूपो रोगः (अप भवतु) अस्मत्तः पृथग् जायताम्। (द्वयाविनः२) मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् इति द्विविधाचरणाः कपटिनो धूर्ता वञ्चकाः। द्वयं येषां ते द्वयाविनः। द्वयशब्दात्, ‘छन्दोविन्प्रकरणेऽष्ट्रामेखलाद्वयोभयरुजाहृदयानां दीर्घश्चेति वक्तव्यम्। अ० ५।२।१२२, वा०’ इति वार्तिकेन मत्वर्थे विन् दीर्घश्च। (ते) तव (रसस्य) रसम् मधुरम् आनन्दम् (मा मत्सत) न स्वदितुं शक्नुयुः। मदी हर्षे। लुङ्। माङ्योगे अडागमाभावः। (इह) सरलस्वभावेषु अस्मासु पुनः (इन्दवः) क्लेदनकरा ब्रह्मानन्दरसाः (द्रविणस्वन्तः) ऐश्वर्यवन्तो बलवन्तो वा। द्रविणः धनं बलं वा तद्वन्तः। (सन्तु) भवन्तु, अस्मभ्यं स्वकीयम् ऐश्वर्यं बलं च प्रयच्छन्त्विति भावः ॥८॥ अत्र सकारस्यासकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सरलवृत्तय एव जना ब्रह्मानन्दरसस्याधिकारिणो भवन्ति, न तु कुटिलवृत्तयः परप्रतारकाश्च ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८५।१। २. द्वयाविनो द्वयवन्तः वञ्चकाः। येषां वाच्येकं कर्मणि अन्यत् ते द्वयाविनः—इति भ०। द्वयं सत्यानृतं तेन युक्ताः मायिन इत्यर्थः—इति सा०।
17_0561 इन्द्राय सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६१-१। इन्द्रस्यापामीवम्॥ इन्द्रो जगती इन्द्रसोमौ॥
इ꣢न्द्रा꣡। य꣢सो꣯मसुषुताऽ᳐३ᳲपा꣤ऽ३रि꣢स्र꣣व꣥॥ अ꣢पा꣡। मी꣢꣯वा꣯भवतुराऽ३क्षा꣤ऽ३ सा꣢꣯स꣣ह꣥॥ मा꣢꣯ता꣡इ। र꣢सस्यमत्सताऽ᳐३द्वा꣤ऽ३या꣢꣯वि꣣नः꣥॥ द्र꣢वा꣡इ। ण꣢स्वन्तइहस। तु꣣वा꣢ऽ᳐३इन्दा꣤ऽ५वा"ऽ६५६ः॥ दी-६। प-९। मा-६॥ २५ (घू) १११३॥
17_0561 इन्द्राय सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६१-२। वायोरभिक्रन्दम्॥ वायुः जगती इन्द्रसोमौ॥
इ꣤न्द्रा꣥꣯यसो꣯मसु꣤षु꣥तᳲप꣤र्यौ꣥꣯। हो꣤इस्रावा꣥॥ अ꣡पा꣯मी꣯वा꣯भवतुरक्षसा꣢ऽ१सा꣢ऽ᳐३हा꣢। मा꣡꣯ते꣯रसस्यमत्सतद्वया꣢ऽ१वी꣢ऽ३नो꣢᳐। द्रा꣣ऽ२३४वी꣥। णा꣣ऽ२३४स्वा꣥॥ ता꣡इ꣢ह꣣सा꣢ ऽ᳐३। हा꣡ऽ२३। तुवा꣢ऽ᳐३इन्दा꣤ऽ५वा"ऽ६५६ः॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡सा꣢वि꣣ सो꣡मो꣢ अरु꣢षो꣣꣫ वृषा꣣ ह꣢री꣣ रा꣡जे꣢व द꣣स्मो꣢ अ꣣भि꣡ गा अ꣢꣯भि क्रदत्। पु꣣नानो꣢꣫ वार꣣म꣡त्ये꣢ष्य꣣व्य꣡य꣢ꣳ श्ये꣣नो꣡ न योनिं꣢꣯ घृ꣣त꣡व꣢न्त꣣मा꣡स꣢दत् ॥ 18:0562 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
असा॑वि॒ सोमो॑ अरु॒षो वृषा॒ हरी॒ राजे॑व द॒स्मो अ॒भि गा अ॑चिक्रदत् ।
पु॒ना॒नो वारं॒ पर्ये॑त्य॒व्ययं॑ श्ये॒नो न योनिं॑ घृ॒तव॑न्तमा॒सद॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡सा꣢꣯वि। सो꣡मः꣢꣯। अ꣣रुषः꣢। वृ꣡षा꣢꣯। ह꣡रिः꣢꣯। रा꣡जा꣢꣯। इ꣣व। दस्मः꣢। अ꣣भि꣢। गाः। अ꣣चिक्रदत्। पुनानः꣢। वा꣡र꣢꣯म्। अ꣡ति꣢꣯। ए꣣षि। अव्य꣡य꣢म्। श्ये꣣नः꣢। न। यो꣡नि꣢꣯म्। घृ꣣त꣡व꣢न्तम्। आ। अ꣣सदत्। ५६२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- वसुर्भारद्वाजः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा से प्राप्त आनन्दरस के प्रवाह का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अरुषः) तेजस्वी, (वृषा) सुख आदि की वर्षा करनेवाले, (हरिः) पाप आदि को हरनेवाले (सोमः) आनन्दरस के भण्डार परमात्मा को (असावि) मैंने अपने हृदय में अभिषुत किया है, अर्थात् उससे आनन्दरस को पाया है। (दस्मः) दर्शनीय अथवा दुर्गुणों का संहारक वह परमात्मा (राजा इव) जैसे राजा (गाः अभि) भूमियों अर्थात् भूमिवासियों को लक्ष्य करके (अचिक्रदत्) उपदेश करता है, राजनियमों को घोषित करता है, वैसे ही (गाः अभि) स्तोताओं को लक्ष्य करके (अचिक्रदत्) उपदेश कर रहा है। हे भगवन् ! (पुनानः) पवित्रता देते हुए आप (वारम्) निवारक या बाधक काम-क्रोधादि को (अति) अतिक्रमण करके (अव्ययम्) विनाशरहित जीवात्मा को (एषि) प्राप्त होते हो। (श्येनः न) जैसे वायु (घृतवन्तम्) जलयुक्त (योनिम्) अन्तरिक्ष में (आसदत्) आकर स्थित हुआ है, वैसे ही वह परमात्मा (घृतवन्तम्) घी, जल, दीप्ति आदि से युक्त (योनिम्) ब्रह्माण्ड रूप घर में (आसदत्) स्थित है ॥९॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पहले से ही सबके हृदय में बैठे हुए भी गुप्त रूप में स्थित परमेश्वर का श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि से साक्षात्कार करना चाहिए ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः सकाशात् प्राप्तमानन्दरसप्रवाहं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अरुषः) आरोचमानः। अरुषः इति रूपनाम। निघं० ३।७। ततो मत्वर्थीयः अच् प्रत्ययः। (वृषा) सुखादीनां वर्षकः, (हरिः) पापादीनां हर्ता (सोमः) रसागारः परमात्मा (असावि) मया स्वहृदये अभिषुतः अस्ति। (दस्मः) दर्शनीयः दुर्गुणानामुपक्षपयिता वा सः। दसि दंशनदर्शनयोः। ततः ‘इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५’ इति मक् प्रत्ययः। (राजा इव) सम्राड् यथा (गाः अभि) राष्ट्रभूमीः, राष्ट्रवासिनीः प्रजाः इत्यर्थः, अभिलक्ष्य (अचिक्रदत्) उपदिशति, राजनियमान् उद्घोषयति, तथा (गाः अभि) स्तोतॄन् अभिलक्ष्य। गौः इति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। (अचिक्रदत्) उपदिशति। अथ प्रत्यक्षकृतमाह। हे भगवन् ! (पुनानः) पवित्रतामापादयन् त्वम् (वारम्) निवारकं बाधकं कामक्रोधादिकम् (अति) अतिक्रम्य (अव्ययम्) विनाशरहितं जीवात्मानम् (एषि) प्राप्नोषि। सम्प्रति पुनः परोक्षकृतं ब्रवीति। (श्येनः न) वायुर्यथा। श्येनः इति निरुक्ते मध्यमस्थानीयेषु देवेषु पठितत्वात्। श्येनपक्षिवायुप्राणादिवाचको भवति। (घृतवन्तम्) उदकवन्तम्। घृतम् इत्युदकनाम जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः। निरु० ७।२४। (योनिम्) अन्तरिक्षम्। योनिः अन्तरिक्षं, महानवयवः। निरु० २।८। आसीदति, तथा स परमेश्वरः (घृतवन्तम्) आज्यजलदीप्त्यादियुक्तम् (योनिम्) ब्रह्माण्डगृहम्। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (आसदत्) आतिष्ठति ॥९॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पूर्वमेव सर्वेषां हृदि समुपविष्टोऽपि गूढतया स्थितः परमेश्वरः सर्वैः श्रवणमनननिदिध्यासनादिभिः साक्षात्करणीयः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८२।१ ‘पुनानो वारं पर्येत्यव्ययं श्येनो न योनिं घृतवन्तमासदम्’ इत्युत्तरार्द्धपाठः। साम० १३१६।
18_0562 असावि सोमो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६२-१। यामानि त्रीणि॥ त्रयाणां यमो जगती सोमश्येनौ॥
अ꣢सा꣯वि꣡सो। मो꣢꣯अ꣡रुषोऽ२३४। वृषा꣥꣯ह꣤राइः॥ रा꣢꣯जे꣯व꣡दा। स्मो꣢꣯अ꣡भिगा ऽ२३४ः। अचि꣥क्र꣤दात्। पु꣢ना꣯नो꣡꣯वा॥ रा꣢꣯म꣡तियाऽ२३४इ। षिअ꣥व्य꣤याम्। श्ये꣢꣯नो꣯न꣡यो। निं꣢घृ꣡तवाऽ२३। त꣤माऽ५सदात्। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-११। प-१४। मा-११॥ २७ (घ) १११५॥
18_0562 असावि सोमो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६२-२।
आ꣢सा᳐वी꣣ऽ२३४सो꣥। मो꣢अ᳐रू꣣ऽ२३४षाः꣥। वा꣢꣯र्षा꣡꣯हराये꣢ऽ३ः॥ रा꣢जे᳐वा꣣ऽ२३४दा꣥। स्मो꣢अभी꣣ऽ२३४गाः꣥। आ꣢꣯चि꣡क्रदाऽ२३त्॥ पू꣢ना᳐नो꣣ऽ२३४वा꣥। रा꣢मा᳐ती꣣ऽ२३४ ये꣥। षी꣢꣯अ꣡व्ययाऽ२३म्॥ श्ये꣢नो᳐ना꣣ऽ२३४यो꣥। नि꣢घा᳐र्त्ता꣣ऽ२३४वा꣥। त꣣मा꣢ऽ᳐३। सा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ दे꣢ऽ३। दि꣡वीऽ२३꣡४꣡५꣡॥
18_0562 असावि सोमो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५६२-३।
अ꣤सा꣥꣯विसो꣤꣯मो꣥꣯अरुषो꣤꣯वृषा꣥꣯ह꣤। राइः॥ रा꣯जे꣥꣯वदस्मो꣤꣯अ꣥भि꣤गा꣯अ꣥चिक्र। दा꣤त्॥ पु꣥ना꣯नो꣤꣯वा꣯र꣥म꣤त्ये꣥꣯ष्यव्य꣤। याम्॥ श्ये꣥꣯नो꣤꣯नयो꣯निं꣥घृत꣤। वा। त꣣मा꣢ऽ᳐३। सा꣡ऽ२᳐ दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। दि꣡वीऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣢ दे꣣व꣢꣫मच्छा꣣ म꣡धु꣢मन्त꣣ इ꣢न्द꣣वो꣡ऽसि꣢ष्यदन्त꣣ गा꣢व꣣ आ꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢। ब꣣र्हिष꣡दो꣢ वच꣣ना꣡व꣢न्त꣣ ऊ꣡ध꣢भिः परि꣣स्रु꣡त꣢मु꣣स्रि꣡या꣢ नि꣣र्णि꣡जं꣢ धिरे ॥ 19:0563 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र दे॒वमच्छा॒ मधु॑मन्त॒ इन्द॒वोऽसि॑ष्यदन्त॒ गाव॒ आ न धे॒नवः॑ ।
ब॒र्हि॒षदो॑ वच॒नाव॑न्त॒ ऊध॑भिः परि॒स्रुत॑मु॒स्रिया॑ नि॒र्णिजं॑ धिरे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। दे꣣व꣢म्। अ꣡च्छ꣢꣯। म꣡धु꣢꣯मन्तः। इ꣡न्द꣢꣯वः। अ꣡सि꣢꣯ष्यदन्त। गा꣡वः꣢꣯। आ। न। धे꣣न꣡वः꣢। ब꣣र्हि꣡षदः꣢। ब꣣र्हि। स꣡दः꣢꣯। व꣣चना꣡व꣢न्तः। ऊ꣡ध꣢꣯भिः। प꣣रिस्रु꣡त꣢म्। प꣣रि। स्रु꣡त꣢꣯म्। उ꣣स्रि꣡याः꣢। उ꣣। स्रि꣡याः꣢꣯। नि꣣र्णि꣡ज꣢म्। निः꣣। नि꣡ज꣢꣯म्। धि꣣रे। ५६३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- वत्सप्रिर्भालन्दः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में विद्वानों का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मधुमन्तः) मधुर व्यवहारवाले (इन्दवः) श्रद्धा-रस से भरपूर विद्वान् जन (देवम् अच्छ) दिव्यगुणों से युक्त परमात्मा को लक्ष्य करके (प्र असिष्यदन्त) श्रद्धारस को प्रवाहित करते हैं, (न) जैसे (धेनवः) तृप्ति प्रदान करनेवाली (गावः) गौएँ (असिष्यदन्त) बछड़ों के प्रति अपने दूध को प्रवाहित करती हैं। (बर्हिषदः) यज्ञिय कुशासन पर स्थित, (वचनावन्तः) स्तुति के उद्गार प्रकट करनेवाले वे विद्वान् लोग (निर्णिजम्) शुद्ध (परिस्रुतम्) उत्पन्न श्रद्धारस को (ऊधभिः) हृदयरूप ऊधसों में (धिरे) धारण करते हैं, जैसे (बर्हिषदः) यज्ञ में स्थित (वचनावत्यः) हम्भा शब्द करनेवाली (उस्रियाः) गौएँ (निर्णिजम्) शुद्ध दूध को (ऊधभिः) ऊधसों में (धिरे) धारण करती हैं ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘गाव आ न धेनवः’ में उपमा और पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है । उत्तरार्द्ध में ‘उस्रियाः’ में लुप्तोपमा है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा के प्रति सब मनुष्यों को उसी प्रकार भक्तिरस क्षरित करना चाहिए, जैसे गौएँ बछड़ों के प्रति दूध क्षरित करती हैं ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मधुमन्तः) मधुरव्यवहारोपेताः (इन्दवः) श्रद्धारसभरिताः विद्वांसः (देवम् अच्छ) दिव्यगुणयुक्तं परमात्मानमभिलक्ष्य (प्र असिष्यदन्त) श्रद्धारसं प्रस्रावयन्ति, (न) यथा (धेनवः) प्रीणयित्र्यः (गावः) पयस्विन्यः (असिष्यदन्त) वत्सं प्रति स्वदुग्धं प्रस्रावयन्ति। (बर्हिषदः) यज्ञिये दर्भासने स्थिताः (वचनावन्तः) स्तुतिमन्तः ते विद्वांसः। उच्यते इति वचना स्तुतिः तद्वन्तः। (निर्णिजम्) शुद्धम् (परिस्रुतम्) उत्पन्नं श्रद्धारसम् (ऊधभिः) हृदयरूपैः आपीनैः (धिरे) धारयन्ति, (उस्रियाः) उस्रिया गावः ताः इव इति लुप्तोपमम्। यथा (बर्हिषदः) यज्ञे स्थिताः (वचनावत्यः) हम्भारवयुक्ताः। गोपक्षे विशेष्यानुसारं लिङ्गं विपरिणेतव्यम्। (उस्रियाः) गावः (परिस्रुतम्) उत्पन्नम् (निर्णिजम्) शुद्धं दुग्धम् (ऊधभिः) आपीनैः (धिरे) धारयन्ति तथेत्यर्थः ॥१०॥ ‘गाव आ न धेनवः’ इत्युपमालङ्कारः पुनरुक्तवदाभासश्च। उत्तरार्द्धे ‘उस्रियाः’ इति लुप्तोपमम् ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मानं प्रति सर्वैर्जनैस्तथैव क्षरद्भक्तिरसैर्भाव्यं यथा गावो वत्सं प्रति प्रस्नुतपयोधरा भवन्ति ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६८।१।
19_0563 प्र देवमच्छा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६३-१। मरुतान्धेनु॥ मरुतो जगती सोमः॥
प्रा꣤दे꣥॥ व꣢म꣡च्छा꣢꣯म꣡धु꣢म। तआऽ᳒२᳒इन्दवाः꣡। आसि꣢ष्या꣣ऽ२३४दा꣥। त꣢गा꣡꣯वआ꣢꣯। नधाऽ᳒२᳒इनवाः꣡। बर्हि꣢षा꣣ऽ२३४दाः꣥। व꣢चना꣡꣯वा꣰꣯ऽ२। तऊऽ᳒२᳒धभा꣡इः॥ पारि꣢स्रू꣣ ऽ२३४ता꣥म्॥ उ꣢स्रि꣡या꣯निर्णिजन्धाइराये꣢ऽ᳐३॥ धाइरा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ धा꣢ऽ᳐३इ रा꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣ञ्ज꣢ते꣣꣬ व्य꣢꣯ञ्जते꣣ स꣡म꣢ञ्जते꣣ क्र꣡तु꣢ꣳ रिहन्ति꣣ म꣢ध्वा꣣꣬ भ्य꣢꣯ञ्जते। सि꣡न्धो꣢रुऽ च्छ्वा꣣से꣢ प꣣त꣡य꣢न्तमु꣣क्ष꣡ण꣢ꣳ हिरण्यपा꣣वाः꣢ प꣣शु꣢म꣣प्सु꣡ गृ꣢भ्णते ॥ 20:0564 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒ञ्जते॒ व्य॑ञ्जते॒ सम॑ञ्जते॒ क्रतुं॑ रिहन्ति॒ मधु॑ना॒भ्य॑ञ्जते ।
सिन्धो॑रुच्छ्वा॒से प॒तय॑न्तमु॒क्षणं॑ हिरण्यपा॒वाः प॒शुमा॑सु गृभ्णते ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣ञ्ज꣡ते꣢। वि। अ꣣ञ्जते। स꣢म्। अ꣣ञ्जते। क्र꣡तु꣢꣯म्। रि꣣हन्ति। म꣡ध्वा꣢꣯। अ꣣भि꣢। अ꣣ञ्जते। सि꣡न्धोः꣢꣯। उ꣣च्छ्वासे꣢। उ꣣त्। श्वासे꣢। प꣣त꣡य꣢न्तम्। उ꣣क्ष꣡ण꣢म्। हि꣣रण्यपावाः꣢। हि꣣रण्य। पावाः꣢। प꣣शु꣢म्। अ꣣प्सु꣢। गृ꣣भ्णते। ५६४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- गृत्समदः शौनकः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में विद्वानों का कर्म वर्णित है ॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - उपासक लोग (क्रतुम्) कर्मवान् और प्रज्ञावान् परमात्मारूप सोम को (अञ्जते) अपने अन्दर व्यक्त करते हैं, (व्यञ्जते) विविध रूपों में व्यक्त करते हैं, (समञ्जते) उसके साथ संगम करते हैं, (रिहन्ति) उसका आस्वादन करते हैं, अर्थात् उससे प्राप्त आनन्दरस का पान करते हैं, (मध्वा) मधुर श्रद्धारस से (अभ्यञ्जते) उसे मानो लिप्त कर देते हैं। (सिन्धोः) आनन्दसागर के (उच्छ्वासे) तरङ्ग-समूह में (पतयन्तम्) मानो झूला झूलते हुए, (उक्षणम्) अपने सखाओं को भी आनन्द की लहरों से सींचते हुए (पशुम्) सर्वद्रष्टा तथा सबको दृष्टि प्रदान करनेवाले परमेश्वर को (हिरण्यपावाः) ज्योति, सत्य और आनन्दामृत से स्वयं को पवित्र करनेवाले वे विद्वान् जन (अप्सु) अपने प्राणों में (गृभ्णते) ग्रहण कर लेते हैं ॥११॥ इस मन्त्र में ‘ञ्जते’ इस अर्थहीन शब्दांश की अनेक बार आवृत्ति होने से यमकालङ्कार है। अञ्जते, व्यञ्जते, समञ्जते, रिहन्ति, अभ्यञ्जते, गृभ्णते इन अनेक क्रियाओं का एक कारक से योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है। ‘समुद्र के उच्छ्वास में उड़ते हुए बैल को जलों में गोता लगवाते हैं, और चिकना करते हैं’ इस वाच्यार्थ के भी प्रतीत होने से प्रहेलिकालङ्कार भी है। ‘अभ्यञ्जते (मानो लिप्त करते हैं) पतयन्तम् (मानो झूला झूलते हुए) में गम्योत्प्रेक्षा है। समुद्र अचेतन होने से उच्छ्वास नहीं छोड़ता अतः उच्छ्वास की तरङ्गसमूह में लक्षणा है, तरङ्गों का ऊर्ध्वगमन व्यङ्ग्य है ॥११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर के उपासक योगी जन उसे हृदय में अभिव्यक्त करके भक्तिरस से मानो स्नान कराकर जब अपने प्राणों का अङ्ग बना लेते हैं, तभी उनकी उपासना सफल होती है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ विदुषां कर्म वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - उपासकाः जनाः (क्रतुम्) क्रतुमन्तं कर्मवन्तं प्रज्ञावन्तं च परमात्मसोमम्। अत्र मत्वर्थीयस्य लुक्। (अञ्जते) स्वात्मनि व्यक्तीकुर्वन्ति, (व्यञ्जते) विविधरूपेषु व्यक्तीकुर्वन्ति, (समञ्जते) तेन सह संमिलन्ति, तम् (रिहन्ति) लिहन्ति, तत आगतम् आनन्दरसमास्वादयन्तीत्यर्थः, (मध्वा) मधुरेण श्रद्धारसेन तम् (अभ्यञ्जते) लिम्पन्तीव। (सिन्धोः) आनन्दसागरस्य (उच्छ्वासे) तरङ्गनिचये (पतयन्तम्) दोलारोहणमिव कुर्वाणम् (उक्षणम्) स्वसखीनपि आनन्दतरङ्गैः सिञ्चन्तम् (पशुम्) द्रष्टारं दर्शयितारं च तं परमेश्वरम्। पशुः पश्यतेः। निरु० ३।१६। (हिरण्यपावाः) हिरण्येन ज्योतिषा सत्येन आनन्दामृतेन च स्वात्मानं पुनन्ति ये ते विद्वांसो जनाः। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। श० ४।३।४।२१। सत्यं वै हिरण्यम्। गो० उ० ३।१७। अमृतं वै हिरण्यम्। श० ९।४।४।५। (अप्सु) स्वकीयेषु प्राणेषु। प्राणा वा आपः। तै० ३।२।५।२। (गृभ्णते) गृह्णते। अत्र ग्रह धातोः ‘हृग्रहोर्भश्छन्दसि। अ० ३।१।८४, वा०’ इत्यनेन हस्य भः ॥११॥ ‘ञ्जते’ इति निरर्थकानां सर्वेषां बहुकृत्व आवर्तनात् यमकालङ्कारः। ‘अञ्जते, व्यञ्जते, समञ्जते, रिहन्ति, अभ्यञ्जते, गृभ्णते’ इत्येनकक्रियाणामेककारकसम्बन्धाद् दीपकालङ्कारः। समुद्रस्योच्छ्वासे उड्डीयमानं बलीवर्दं पशुम् उदकेषु गृह्णन्ति चिक्कणीकुर्वन्ति चेत्याद्यर्थस्याप्यभिधानात् प्रहेलिकालङ्कारोऽपि। ‘अभ्यञ्जते लिम्पन्तीव’, ‘पतयन्तं दोलारोहणमिव कुर्वाणम्’ इत्युभयत्र गम्योत्प्रेक्षा। सिन्धोः उच्छ्वासो न भवितुमर्हतीति तस्य तरङ्गनिचये लक्षणा, तरङ्गाणामूर्ध्वगामित्वं व्यङ्ग्यम् ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्योपासका योगिनस्तं हृदयेऽभिव्यज्य स्वभक्तिरसेन स्नपयित्वा स्वकीयानां प्राणानामङ्गतां यदा नयन्ति तदैव तेषामुपासना सफला ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८६।४३ ‘मधुनाभ्यञ्जते’ इति ‘पशुमासु’ इति च पाठः। अथ० १८।३।१८, ऋषिः अथर्वा, देवता यमः, पाठः ऋग्वेदवत्। साम० १६१४।
20_0564 अञ्जते व्यञ्जते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६४-१। काक्षीवतानि(शार्गा११नि) त्रीणि॥ अञ्जतः कक्षीवान् जगती सोमः॥
अ꣢ञ्ज꣡ताइ। वि꣢यञ्ज꣡ताइ। स꣢मञ्जा꣡ताऽ᳒२᳒इ। क्रतुꣳरि꣡हा। ती꣢꣯म꣡धुवा। भि꣢यञ्जा꣡ताऽ᳒२᳒इ। सिन्धो꣯रु꣡च्छ्वा। से꣢꣯प꣡तया। त꣢मुक्षा꣡णाऽ᳒२᳒म्। हिरण्य꣡पा। वाᳲ꣢꣯प꣡शुमा। प्सू꣢꣯गृ꣡भ्णता꣢ऽ᳐३१उवा"ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-५। प-१२। मा-६॥ ३१ (फू) १११९॥
20_0564 अञ्जते व्यञ्जते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६४-२। व्यञ्जतᳲ कक्षीवान्॥
अ꣣ञ्जा꣢ऽ३हो꣡। ते꣢ऽ᳐३हो꣡इ। वि꣢यञ्जतेऽ᳐३सा꣤ऽ३म꣢ञ्ज꣣ता꣥इ॥ क्र꣣तू꣢ऽ३ꣳ हो꣡इ। रि꣣हा꣢ऽ᳐३हो꣡।
20_0564 अञ्जते व्यञ्जते - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५६४-३। समञ्जतᳲ कक्षीवान्॥
हा꣤वाञ्जा꣥॥ ता꣡ऽ२३४इ। वि꣣य꣤ञ्ज꣥ते꣯स꣣म꣤ञ्ज꣥ते꣯। ए꣡हि꣣या꣢। ए꣡हि꣣या꣢ ऽ३४॥ हाउक्रातू꣥म्। रा꣡ऽ२३४इ। हन्तिम꣣धु꣤वा꣯भि꣣य꣤ञ्ज꣥ते꣯। ए꣡हि꣣या꣢। ए꣡हि꣣या꣢ ऽ३४॥ हाउसाइन्धोः꣥। ऊ꣡ऽ२३४त्। श्वा꣯से꣣꣯प꣤त꣣य꣤न्त꣥मुक्ष꣤ण꣥म्। ए꣡हि꣣या꣢। ए꣡हि꣣या꣢ ऽ३४॥ हाउहाइरा꣥। ण्या꣡ऽ२३४। पा꣯वाᳲ꣣꣯प꣤शु꣣म꣤प्सु꣣गृ꣤भ्ण꣥ते꣯। ए꣡हि꣣या꣢। ए꣡हि꣣या꣢ ऽ३४। हा꣥उ। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣣वि꣡त्रं꣢ ते꣣ वि꣡त꣢तं ब्रह्मणस्पते प्र꣣भु꣡र्गात्रा꣢꣯णि꣣ प꣡र्ये꣢षि वि꣣श्व꣡तः꣢। अ꣡त꣢प्ततनू꣣र्न꣢꣫ तदा꣣मो꣡ अ꣢श्नुते शृ꣣ता꣢स꣣ इ꣡द्वह꣢꣯न्तः꣣ सं꣡ तदा꣢꣯शत ॥ 21:0565 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प॒वित्रं॑ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा॑णि॒ पर्ये॑षि वि॒श्वतः॑ ।
अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह॑न्त॒स्तत्समा॑शत ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣣वि꣡त्र꣢म्। ते꣣। वि꣡त꣢꣯तम्। वि। त꣣तम्। ब्रह्मणः। पते। प्रभुः꣢। प्र꣣। भुः꣢। गा꣡त्रा꣢꣯णि। प꣡रि꣢꣯। ए꣣षि। विश्व꣡तः꣢। अ꣡त꣢꣯प्ततनूः। अ꣡त꣢꣯प्त। त꣣नूः। न꣢। तत्। आ꣣मः꣢। अ꣣श्नुते। शृता꣡सः꣢। इत्। व꣡ह꣢꣯न्तः। सम्। तत्। आ꣣शत। ५६५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- पवित्र आङ्गिरसः
- जगती
- निषादः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा की पावकता का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (ब्रह्मणः पते) ब्रह्माण्ड के अथवा ज्ञान के अधिपति सोम परमात्मन् ! (ते) आपका (पवित्रम्) पवित्रता-सम्पादन का गुण (विततम्) सर्वत्र व्याप्त है। (प्रभुः) पवित्रता करने में समर्थ आप (विश्वतः) सब ओर से (गात्राणि) शरीरों अर्थात् शरीरधारियों के पास (पर्येषि) उन्हें पवित्र करने के लिए पहुँचते हो। किन्तु (अतप्ततनूः) जिसने तपस्या से शरीर को तपाया नहीं है, ऐसा (आमः) कच्चा मनुष्य (तत्) उस पवित्रता को (न अश्नुते) प्राप्त नहीं कर पाता। (शृतासः इत्) पके हुए लोग ही (वहन्तः) आपको हृदय में धारण करते हुए (तत्) आपसे होनेवाली पवित्रता को (सम् आशत) भली-भाँति प्राप्त करते हैं ॥१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो लोग तपस्वी हैं, उन्हीं के हृदय और आचरण पवित्र होते हैं ॥१२॥ इस दशति में भी सोम परमात्मा तथा उसके आनन्दरस की प्राप्ति का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनः पावकत्वं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (ब्रह्मणः पते) ब्रह्माण्डस्य ज्ञानस्य वा अधिपते सोम परमात्मन् ! (ते) तव (पवित्रम्) पावकत्वम् (विततम्) सर्वत्र व्याप्तं वर्तते। (प्रभुः) पावित्र्यसम्पादनसमर्थः त्वम् (विश्वतः) सर्वतः (गात्राणि) शरीराणि, शरीरधारिणः इत्यर्थः, (पर्येषि) पावयितुं परिगच्छसि। किन्तु (अतप्ततनूः२) तपस्यया अतप्तशरीरः (आमः) अपरिपक्वः जनः (तत्) पवित्रत्वम् (न अश्नुते) न प्राप्नोति, (शृतासः इत्) परिपक्वाः एव जनाः। श्रा पाके निष्ठायाम् ‘शृतं पाके। अ० ६।१।२७’ इति धातोः शृ भावः। जसोऽसुगागमः। (वहन्तः) त्वां हृदये धारयन्तः सन्तः (तत्) त्वज्जन्यं पवित्रत्वम् (सम् आशत) सम्यक् प्राप्नुवन्ति ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये तपस्विनः सन्ति तेषामेव हृदयान्याचरणानि च पवित्राणि जायन्ते ॥१२॥ अत्रापि सोमस्य परमात्मनस्तदानन्दरसस्य च प्राप्तिवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति षष्ठे प्रपाठके द्वितीयार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये नवमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८३।१ ‘वहन्तस्तत् समाशत’ इति पाठः। साम० ८७५। २. “तप्तमुद्राधारिणां वैष्णवसम्प्रदायविशेषाणां नयेऽयमेव मन्त्रः शरीरे तप्तचक्राद्यङ्कनस्य। तथा च ‘अतप्ततनूः’ शङ्खचक्रादिभिः न तप्ता तनूः अस्य स पुरुषः आमः अपरिपक्वः असंस्कृतः अत एव ‘तत्’ प्रसिद्धं कैवल्यं न अश्नुते इत्यर्थः। वस्तुतोऽस्य विनियोगो ज्योतिष्टोमे तृतीयेऽहनि”—इति सत्यव्रतसामश्रमी। एतद्विषये दयानन्दर्षिकृतसत्यार्थप्रकाशग्रन्थस्यैकादशः समुल्लासोऽपि द्रष्टव्यः।
21_0565 पवित्रं ते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५६५-१। अर्कपुष्पे द्वे॥ द्वयोरादित्यो जगती ब्रह्मणस्पतिः॥
प꣢वि꣡त्रंते꣢꣯वि꣡ततं꣢ब्र꣡ह्मण꣢स्पतेऽ᳐३। हु꣡वेऽ२३। हु꣡वेऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हा꣢ऽ᳐३। हा꣢इ॥ प्रभु꣡र्गा꣯त्रा꣢꣯णिप꣡रिये꣢꣯षिविश्व꣡ताऽ२३ः। हु꣡वेऽ२३। हु꣡वेऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३ हा꣢ऽ᳐३। हा꣢इ॥ अ꣡तप्त꣢तनू꣯र्न्न꣡तदा꣰꣯ऽ२मो꣡꣯अश्नु꣢तेऽ᳐३। हु꣡वेऽ२३। हु꣡वेऽ२३। हो꣡वा꣢ ऽ᳐३हा꣢ऽ᳐३। हा꣢इ॥ शृता꣡꣯स꣢इ꣡द्वह꣢न्तस्स꣡न्तदा꣰꣯ऽ२शत। हु꣡वेऽ२३। हु꣡वेऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हा꣢ऽ᳐३। हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢र्को꣡꣯दे꣯वा꣯ना꣰꣯ऽ२म्परमे꣡꣯वियो꣰꣯ऽ२मा꣣ऽ २३꣡४꣡५꣡न्॥
21_0565 पवित्रं ते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५६५-२। अर्कपुष्पोत्तरम्॥
प꣢वि꣡त्रंते꣢꣯वि꣡ततं꣢ब्र꣡ह्मण꣢स्पतेऽ३। हु꣡वाइ। औ꣢꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒॥ प्रभु꣡र्गा꣯त्रा꣢꣯णि प꣡रिये꣢꣯षिविश्व꣡ताऽ२३ः। हु꣡वाइ। औ꣢꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒॥ अ꣡तप्त꣢तनू꣯र्न्न꣡तदा꣰꣯ऽ२मो꣡꣯अश्नु꣢ते ऽ᳐३। हु꣡वाइ। औ꣢꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒॥ शृता꣡꣯स꣢इ꣡द्वह꣢न्तस्स꣡न्तदा꣰꣯ऽ२शत। हु꣡वाइ। औ꣢꣯। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢र्क꣡स्य꣢दे꣯वाᳲ꣡꣯प꣢रमे꣡꣯वियो꣰꣯ऽ२मा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡न्॥