[[अथ पञ्चदशप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त꣢वा꣣ह꣡ꣳ सो꣢म रारण स꣣ख्य꣡ इ꣢न्दो दि꣣वे꣡दि꣢वे। पु꣣रू꣡णि꣢ बभ्रो꣣ नि꣡ च꣢रन्ति꣣ मा꣡मव꣢꣯ परि꣣धी꣢꣫ꣳरति꣣ ता꣡ꣳ इ꣢हि ॥ 30:0516 ॥
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तवा॒हं सो॑म रारण +++(=सन्तुष्टवान्)+++
स॒ख्य इ॑न्दो दि॒वेदि॑वे ।
पु॒रूणि॑ +++(=बहूनि)+++ बभ्रो॒ +++(=बभ्रुवर्णः)+++ नि च॑रन्ति॒ +++(राक्षसाः)+++
माम् अव॑ +++(रक्षोभ्यः)+++
+++(तव मत्स्व इति साम्नि)+++
परि॒धीँर् अति॒ ताँ इ॑हि +++(=अतिगच्छ)+++ १९
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त꣡व꣢꣯। अ꣣ह꣢म्। सो꣣म। रारण। सख्ये꣢। स꣣। ख्ये꣢। इ꣣न्दो। दिवे꣡दि꣢वे। दि꣣वे꣢। दि꣣वे। पु꣣रू꣡णि꣢। ब꣣भ्रो। नि꣢। च꣣रन्ति। मा꣢म्। अ꣡व꣢꣯। प꣣रिधी꣢न्। प꣣रि। धी꣢न्। अ꣡ति꣢꣯। तान्। इ꣣हि। ५१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के सखित्व की याचना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) चन्द्रमा के समान आह्लादक तथा सोम ओषधि के समान रसागार (इन्दो) रस से आर्द्र करनेवाले परमात्मन् ! (अहम्) मैं उपासक (तव सख्ये) तेरी मित्रता में (दिवेदिवे) प्रतिदिन (रारण) रमूँ। हे (बभ्रो) भरणपोषणकर्ता परमेश ! (पुरूणि) बहुत-से काम, क्रोध आदि राक्षस (माम्) मुझ तेरे उपासक को (नि अव चरन्ति) उद्विग्न कर रहे हैं, (परिधीन्) घेरनेवाले (तान्) उन राक्षसों को (अति इहि) पराजित कर दो ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा की मित्रता से मनुष्य सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, असत्य, अन्याय आदि शत्रुओं को पराजित कर उन्नति के मार्ग में प्रवृत्त होता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः सख्यं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) चन्द्रवदाह्लादक सोमौषधिवद् रसागार (इन्दो) रसेन क्लेदयितः परमात्मन् ! (अहम्) उपासकः (तव सख्ये) त्वदीये सखित्वे (दिवे दिवे) दिने दिने (रारण) रमेय। रण शब्दे रमणार्थेऽपि प्रयुज्यते। यथा रणाय रमणीयाय। निरु० ९।२७। लिङर्थे लिट्, अभ्यासस्य छान्दसो दीर्घः। हे (बभ्रो) भरणपोषणकर्तः परमेश ! बिभर्तीति बभ्रुः। ‘कुर्भ्रश्च’ उ० १।२२ इति कु प्रत्ययः धातोर्द्वित्वं च। (पुरूणि) बहूनि कामक्रोधादीनि रक्षांसि (माम्) तवोपासकम् (नि अव चरन्ति) उद्वेजयन्ति, (परिधीन्) परिवारकान् (तान्) राक्षसान् (अति इहि) अतिक्रमस्व पराजयस्व ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मनः सख्येन मनुष्यः सर्वान् परिवारकान् कामक्रोधलोभमोहहिंसाऽसत्याऽन्यायादीन् शत्रून् जित्वोन्नतिपथे प्रवर्तते ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१९, साम० ९२२।
30_0516 तवाहं सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१६-१। वैष्णवे द्वे॥ द्वयोर्विष्णुर्बृहती सोमः॥ (वैष्णवाद्यम्)।
त꣥वा꣯हꣳसो॥ म꣢राऽ᳒२᳒रणा꣡। रण। सख्यइन्दो꣯दिवाऽ᳒२᳒इदिवा꣡इ। दिवे꣯। पुरू꣯णिबभ्रो꣯निचरन्तिमाऽ᳒२᳒मवा꣡। अव॥ परिधीꣳ꣯रतिताऽ᳒२ꣳ᳒इहा꣡ऽ२३इ। आ꣡ऽ२᳐इ। हा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-८। प-१२। मा-६॥ १ (ठ्लू) ९८४॥
30_0516 तवाहं सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१६-२। वैष्णवोत्तरम्॥
त꣤वा꣥꣯। तवा꣤॥ अ꣢हꣳ꣡सो꣯मरा꣯रण। सख्याई꣢ऽ᳐३न्दो꣢। दिवा꣡औ꣢ऽ᳐३हो꣢। दा꣡इवेऽ᳒२᳒। पुरू꣡꣯णिबभ्रो꣯निचरन्तिमा꣢ऽ१मा꣢ऽ᳐३वा꣢॥ परा꣡औ꣢ऽ᳐३हो꣢॥ धा꣡इꣳरति꣢तो꣡ऽ२३४वा꣥।
30_0516 तवाहं सोम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१६-३। आङ्गिरसानि त्रीणि॥ त्रयाणामङ्गिरसो बृहती सोमः॥
त꣥वा꣯हꣳसो꣯माऽ६रा꣥꣯रणा॥ सा꣢ख्या᳐ई꣣ऽ२३४न्दो꣥। दि꣢वे᳐दा꣣ऽ२३४इवे꣥। पु꣤रू꣣꣯णि꣤ बभ्रो꣯नि꣣च꣤र꣥न्तिमा꣯म्। आ꣡वाऽ२३४हा꣥इ॥ पा꣤री꣥धा꣤इꣳरा꣥। ति꣢तो꣡ऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५इहोऽ६"हा꣥इ॥ दी-६। प-८। मा-७॥ ३ (गे) ९८६॥
30_0516 तवाहं सोम - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१६-४।
त꣤वा꣥꣯हꣳ꣤सो꣥꣯मरौ꣯। हो꣤ऽ५रणा꣤॥ सा꣡ख्य꣢इ꣡न्दोऽ२᳐॥ दि꣣वा꣢ऽ३४५इ। दी꣣ऽ२३४वे꣥। पू꣡रूऽ᳒२᳒णा꣡इबाऽ᳒२᳒। भ्रो꣡꣯निचराऽ२᳐। ति꣣मा꣢ऽ३४५म्। आ꣣ऽ२३४वा꣥॥ पा꣡रीऽ᳒२᳒धा꣡इꣳराऽ२᳐॥ ति꣣ताꣳ꣢ऽ३४५॥ ई꣣ऽ२३४ही꣥॥ दी-४। प-१२। मा-५॥ ४ (थु) ९८७॥
30_0516 तवाहं सोम - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५१६-५।
त꣣वा꣤꣯हꣳ꣣सो꣤꣯म꣥रा꣯रण। सख्यइ꣢न्दो꣣꣯दि꣤वे꣯दि꣥वाइ॥ स꣢ख्य꣡इन्दो꣯दि꣢वे꣡꣯दाऽ२३ इवे꣢। पुरू꣡꣯णिबभ्रो꣯निचरन्ति꣢मा꣡꣯माऽ२३वा꣢॥ परा꣡इधाऽ२३इꣳरा꣢॥ तिता꣡ऽ२३ꣳ इहा꣢ऽ᳐३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-१०। प-८। मा-९॥ ५ (बो) ९८८॥
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मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः सुहस्त्या समु꣣द्रे꣡ वाच꣢꣯मिन्वसि। र꣣यिं꣢ पि꣣श꣡ङ्गं꣢ बहु꣣लं꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣢हं꣣ प꣡व꣢माना꣣꣬भ्य꣢꣯र्षसि ॥ 31:0517 ॥
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मृ॒ज्यमा॑नः सुहस्त्य समु॒द्रे वाच॑मिन्वसि ।
र॒यिं पि॒शङ्गं॑ बहु॒लं पु॑रु॒स्पृहं॒ पव॑माना॒भ्य॑र्षसि ॥
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पदपाठः
मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः। सु꣣हस्त्या। सु। हस्त्य। समुद्रे꣢। स꣣म्। उद्रे꣢। वा꣡च꣢꣯म्। इ꣣न्वसि। रयि꣢म्। पि꣣श꣡ङ्ग꣢म्। ब꣣हुल꣢म्। पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म्। पु꣣रु। स्पृ꣡ह꣢꣯म्। प꣡व꣢꣯मान। अ꣣भि꣢। अ꣣र्षसि। ५१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि उपासना किया हुआ परमेश्वर क्या करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सुहस्त्य) उत्तम ऐश्वर्योंवाले रसागार सोम परमात्मन् ! (मृज्यमानः) स्तुतियों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (समुद्रे) उपासक के हृदयान्तरिक्ष में (वाचम्) सत्प्रेरणारूप वाणी को (इन्वसि) प्रेरित करते हो। हे (पवमान) पवित्रता देनेवाले जगदीश्वर ! आप (बहुलम्) बहुत सारे (पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य अथवा बहुतों से चाहने योग्य (पिशङ्गं रयिम्) पीले धन सुवर्ण को अथवा तेज से युक्त आध्यात्मिक धन सत्य, अहिंसा आदि को (अभ्यर्षसि) प्रदान करते हो ॥७॥ इस मन्त्र में द्वितीय और चतुर्थ पादों में अन्त्यानुप्रास अलङ्कार है, पवर्ग जिनके बाद आता है, ऐसे अनेक अनुस्वारों के सहप्रयोग में वृत्त्यनुप्रास है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सबके हृदय में स्थित परमेश्वर दिव्य संदेश निरन्तर देता रहता है, वही जीवन को पवित्र करता हुआ तेजोमय आध्यात्मिक और भौतिक धन भी प्रदान करता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथोपासितः परमेश्वरः किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सुहस्त्य) हस्ते भवानि हस्त्यानि ऐश्वर्याणि, शोभनानि हस्त्यानि यस्य तादृश शोभनैश्वर्य सोम रसागार परमात्मन् ! छन्दसि ‘अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। (मृज्यमानः) स्तुतिभिः अलङ्क्रियमाणः त्वम्। मृजू शौचालङ्कारयोः, चुरादिः। (समुद्रे) उपासकस्य हृदयान्तरिक्षे। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३ (वाचम्) सत्प्रेरणात्मिकां वाणीम् (इन्वसि) प्रेरयसि। इन्वति गतिकर्मा। निघं० २।१४। हे (पवमान) पवित्रतादायक जगदीश्वर ! त्वम् (बहुलम्) प्रचुरम्, (पुरुस्पृहम्) बहु बहुभिर्वा स्पृहणीयम् (पिशङ्गं रयिम्) पिङ्गलवर्णं धनं हिरण्यम् यद्वा तेजोयुक्तम् आध्यात्मिकं धनं सत्याहिंसादिकम् (अभ्यर्षसि) अभिगमयसि प्रयच्छसीत्यर्थः ॥७॥ अत्र द्वितीयचतुर्थपादयोरन्त्यानुप्रासः, पवर्गपराणामनेकेषामनु- स्वाराणां सह प्रयोगे च वृत्त्यनुप्रासः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वेषां हृदि स्थितः परमेश्वरो दिव्यसन्देशं निरन्तरं प्रयच्छति, स एव जीवनं पवित्रं कुर्वन् तेजोमयम् आध्यात्मिकं भौतिकं चापि धनं प्रददाति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।२१ ‘सुहस्त्या’ इत्यत्र ‘सुहस्त्य’ इति पाठः।
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-१। औक्ष्णोरंध्राणि त्रीणि॥ (स्वारम्)। त्रयाणामुक्ष्णोरन्ध्रो बृहती सोमः॥
मृ꣥ज्यमा꣯नाः॥ सु꣢हस्तियाऽ᳐३। सा꣡मू꣢ऽ᳐३द्रा꣤इवा꣥। च꣢मिन्वसाऽ᳐३इ। रा꣡यी꣢ऽ३᳐म्पा꣤इशा꣥। गं꣢बहुलाऽ᳐३म्। पू꣡रूऽ२᳐स्पॄ꣣ऽ२३४हा꣥म्॥ प꣡वमा꣢꣯। ना꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣢॥ भियो꣡ऽ२३४वा꣥। षा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥ दी-२। प-१२। मा-७॥ ६ (छे) ९८९॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-२।
मृ꣥ज्यमा꣯नाः॥ सु꣢हस्ता꣡याऽ᳒२᳒। स꣡मुद्रे꣢꣯वा꣯। चा꣡मि꣪न्वासाऽ२३४इ॥ र꣣या꣢᳐ ऽ᳐३४इम्पि꣣शा꣢। गं꣡बहुलंपूरु꣪स्पृहाऽ᳒२᳒म्॥ प꣡वाऽ२३। मा꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भि꣡या꣰꣯ऽ२र्षसी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-३।
मृ꣥ज्यमा꣯नाः॥ सु꣢ह। स्ति꣡या। सा꣢ऽ१मूऽ᳒२᳒द्रा꣡इवाऽ᳒२᳒। चमि। न्व꣡साइ। रा꣢ऽ१यीऽ᳒२᳒म्पा꣡इशाऽ᳒२᳒। गं꣡बहु꣢लं꣡पुरु꣢। स्पृ꣡हाम्॥ पा꣢ऽ१वाऽ᳒२᳒मा꣡नाऽ२३॥ भा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ षा꣣ऽ२३४सी꣥॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-४। आग्नेयानि त्रीणि॥ त्रयाणामग्निर्बृहती सोमः॥
मृ꣥ज्याऽ६ए꣥॥ मा꣡꣯नस्सुहस्तियाऔ꣢ऽ᳐३हो꣢। समुद्रे꣡꣯वा꣯चमिन्वसाऔ꣢ऽ᳐३हो꣢। रयिं꣡पिशङ्गंबहुलंपुरुस्पृहाऔ꣢ऽ᳐३हो꣢॥ पव꣡माऽ२३ना꣢ऽ᳐३॥ भि꣢यो꣡ऽ२३४वा꣥। षा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥ दी-३। प-७। मा-५॥ ९ (ठु) ९९२॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-५।
मृ꣥ज्य꣤मा꣥꣯नस्सुहस्त्यो꣤। वाहा꣥इ॥ स꣢मुद्रा꣡इवा। च꣪मीऽ२᳐न्वा꣣ऽ२३४सी꣥। र꣣या꣢ऽ᳐३४इम्पि꣣शा꣢। गं꣡बहु꣢लम्। पू꣡रु꣪स्पृहाऽ२३४म्॥ प꣣वा꣢ऽ३४मा꣣꣯ना꣢ऽ᳐३॥ भि꣢यो꣡ऽ२३४वा꣥। षा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥ दी-२। प-१०। मा-६॥ १० (ञू) ९९३॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-६।
मृ꣤ज्यमा꣯नाऽ५स्सुहस्ति꣤या॥ स꣡मूऽ᳒२᳒द्रा꣡इवाऽ᳒२᳒। च꣡माऽ᳒२᳒इन्वा꣡सीऽ᳒२᳒। रयिं꣡पिशङ्गंबहुलं
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-७। ऐडमौक्ष्णोरन्ध्रम्॥ उक्ष्णोरन्ध्रो बृहती सोमः॥
मृ꣥ज्य꣤मा꣥꣯नस्सुहस्त्या꣯। समुद्रे꣯वो꣤वा꣥॥ चा꣡मिन्व꣢सि। रा꣡यिं꣪पिशा꣢ऽ᳐३। हा꣢ऽ३हा꣢॥ गं꣡बहु꣢लं꣡पुरु꣢स्पृ꣡ह꣢म्। प꣡वमाना꣢ऽ३। हा꣢ऽ᳐३हा꣢॥ भिय꣡र्षाऽ२३ सा꣢ऽ᳐३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-३। प-११। मा-३॥ १२ (टि) ९९५॥
31_0517 मृज्यमानः सुहस्त्या - 08 ...{Loading}...
लिखितम्
५१७-८। वाजजित्॥ प्रजापतिर्बृहती सोमः॥
मृ꣥ज्य꣤मा꣥꣯नस्सुहा꣤॥ स्ति꣡याऽ᳒२᳒। स꣡मूऽ᳒२᳒हो꣡। द्रे꣯वाऽ᳒२᳒हो꣡। चा꣢꣯मि꣡न्वसाइ। रयाऽ᳒२᳒इꣳहो꣡इ। पिशाऽ᳒२᳒हो꣡। ग꣢म्ब꣡हुलाम्। पू꣢꣯रु꣡स्पृहाम्। पवाऽ᳒२᳒हो꣡। मा꣯नाऽ᳒२᳒ हो꣡। भी꣢꣯य꣡र्षसा꣢ऽ᳐३१उवाऽ२३। वा꣢꣯जी꣡꣯जिगी꣢ऽ᳐३वाꣳ꣢ऽ१॥ दी-८। प-१३। मा-६॥ १३ (डू) ९९६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣भि꣡ सोमा꣢꣯स आ꣣य꣢वः꣣ प꣡व꣢न्ते꣣ म꣢द्यं꣣ म꣡द꣢म्। स꣣मु꣡द्रस्याधि꣢꣯ वि꣣ष्ट꣡पे꣢ मनी꣣षि꣡णो꣢ मत्स꣣रा꣡सो꣢ म꣣दच्यु꣡तः꣢ ॥ 32:0518 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि सोमा॑स आ॒यवः॒ पव॑न्ते॒ मद्यं॒ मद॑म् ।
स॒मु॒द्रस्याधि॑ वि॒ष्टपि॑ मनी॒षिणो॑ मत्स॒रासः॑ स्व॒र्विदः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣भि꣢। सो꣡मा꣢꣯सः। आ꣣य꣡वः꣢। प꣡व꣢꣯न्ते। म꣡द्य꣢꣯म्। म꣡द꣢꣯म्। स꣣मुद्र꣡स्य꣢। स꣣म्। उद्र꣡स्य꣢। अ꣡धि꣢꣯। वि꣣ष्ट꣡पे꣢। म꣣नीषि꣡णः꣢। म꣣त्सरा꣡सः꣢। म꣣दच्यु꣡तः꣢। म꣣द। च्यु꣡तः꣢꣯। ५१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कौन कहाँ आनन्दरस को प्रवाहित करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मनीषिणः) मनन करनेवाले, (मत्सरासः) उल्लासयुक्त, (मदच्युतः) आनन्द बहानेवाले (सोमासः) ब्रह्मानन्द रूप सोमरस का पान किये हुए (आयवः) मनुष्य (समुद्रस्य विष्टपे अधि) राष्ट्ररूप अन्तरिक्ष के लोक में अर्थात् राष्ट्रवासी जनों में (मद्यम्) उल्लासजनक (मदम्) ब्रह्मानन्द-रस को (पवन्ते) प्रवाहित करते हैं ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्वयं ब्रह्मानन्द-रस में मग्न योगी जन अन्यों को भी ब्रह्मानन्द-रस में मग्न क्यों न करें? ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ के कुत्रानन्दरसं प्रवाहयन्तीत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मनीषिणः) मननवन्तः, (मत्सरासः) उल्लासमयाः, (मदच्युतः) आनन्दस्राविणः (सोमासः) पीतब्रह्मानन्दरूपसोमाः। अत्र सोमशब्दस्य सोमवति लक्षणा विज्ञेया, यद्वा सोमासः सोमवन्तः, मतुब्लुक्। (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (समुद्रस्य विष्टपे अधि) राष्ट्ररूपस्य अन्तरिक्षस्य लोके, राष्ट्रवासिषु जनेषु इत्यर्थः। (मद्यम्) उल्लासजनकम् (मदम्) ब्रह्मानन्दरसम् (पवन्ते) प्रवाहयन्ति। ‘मत्सरासः’, ‘सोमासः’ इत्युभयत्र ‘आज्जसेरसुक्’ इति जसोऽसुगागमः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्वयं ब्रह्मानन्दरसे मग्ना योगिनो जना अन्यानपि ब्रह्मानन्दरसमग्नान् कुतो न कुर्युः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१४, ‘विष्टपे’, ‘मदच्युतः’ इत्यत्र क्रमेण ‘विसृपि, स्वर्विदः’ इति पाठः। साम० ८५६।
32_0518 अभि सोमास - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-१। वैश्वदेवे द्वे॥ द्वयोर्विश्वेदेवा गायत्री सोमः॥
हा꣢ऽ३᳐हा꣢इ। अभिसो꣯मा꣯सऽ३᳐आ꣡या꣢ऽ१वाऽ२३ः॥ हा꣢ऽ३᳐हा꣢इ। पवन्ते꣯ मदिऽ३᳐या꣡म्मा꣢ऽ१दाऽ२३म्॥ हा꣢ऽ३᳐हा꣢इ। समुद्रस्या꣯धिविष्टपे꣯मऽ३᳐ना꣡इषा꣢ऽ१ इणाऽ२३ः॥ हा꣢ऽ३᳐हा꣢इ। मत्सरा꣯सो꣯मऽ३दा꣡च्यू꣢ऽ१ताऽ२३ः। हा꣢ऽ३᳐हा꣢ऽ ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-७। प-११। मा-१३॥ १४ (चि) ९९७॥
32_0518 अभि सोमास - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-२।
आ꣤भी꣥सो꣤मा꣥॥ स꣢आऽ३१उवाऽ२३। याऽ२३४वाः꣥। पा꣤व꣥न्ता꣤इमा꣥। दि꣢याऽ३१उवाऽ२३। माऽ२३४दा꣥म्। सा꣤मु꣥द्र꣤स्या꣥॥ धि꣢वि꣡ष्टापे꣯म꣢नाऽ᳐३१ उवाये꣢ऽ᳐३। षीऽ२३४णाः꣥। मा꣤त्सा꣥रा꣤साः꣥॥ म꣢दाऽ३१उवाऽ᳐२३॥ च्यूऽ२३४ ताः꣥॥
32_0518 अभि सोमास - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-३। इन्द्रसामनी द्वे॥ द्वयोरिन्द्रो बृहती सोमः॥
अ꣢भि꣡सो꣢ऽ᳐३मा꣤꣯सआ꣥꣯यवाः॥ प꣡वन्ते꣢꣯म꣡दिय꣢म्म꣡। दा। औ꣢ऽ᳐३हो꣢। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢॥ समुद्र꣡स्या꣯धिवि꣢ष्ट꣡पे꣯म꣢नी꣯षि꣡। णा। औ꣢ऽ᳐३हो꣢। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। मत्सरा꣡꣯सो꣯म꣢दच्यु꣡। ता। औ꣢ऽ᳐३हो꣢॥ आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
32_0518 अभि सोमास - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-४।
अ꣥भि꣤सो꣯मा꣥꣯सआ꣯। हो꣤ऽ५यवाः꣤॥ प꣡वन्ते꣯मद्यम्मदम्पवन्ते꣯म। दि꣢याꣳ꣡ होइ। माऽ२३दा꣢म्॥ समुद्र꣡स्या꣯धिविष्टपे꣯मनी꣯षिणाः। म꣢ना꣡होइ। षाऽ२३ इणाः꣢। मत्सरा꣡꣯सो꣯मदच्युताः। म꣢दा꣡होइ। च्यूऽ२३ता꣢ऽ᳐३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
32_0518 अभि सोमास - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-५। स्वः पृष्ठमाङ्गिरसम्॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
अ꣡भाऽ२᳐इसो꣣꣯मा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤ऽ५सआ꣯य꣤वाः॥ प꣡वाऽ२᳐न्ते꣣꣯मा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤ऽ५दियम्म꣤दाम्। स꣡मूऽ२᳐द्र꣣स्या꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤ऽ५धिविष्ट꣤पाइ। ओ꣡ये꣢ऽ᳐३। मा꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। षी꣣ऽ२३४णाः꣥। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥ म꣣त्स रा꣢꣯सो꣡ऽ२३॥ मा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ च्यू꣣ऽ२३४ताः꣥॥
32_0518 अभि सोमास - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-६। इन्द्रसामानि त्रीणि॥ त्रयाणामिन्द्रो बृहती सोमः॥
औ꣤꣯हो꣥꣯वा꣤। अ꣥भि꣤सो꣯मा꣥꣯सआ꣯य꣤वः꣥। औ꣤꣯हो꣥꣯वा꣤। प꣡वाऽ२᳐। ते꣣꣯मा꣢ऽ३ओ꣤ऽ५ वाऽ६५६।
32_0518 अभि सोमास - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-७।
अ꣥भिसो꣯मा꣯सआ꣯याऽ६वाः꣥। प꣡वाऽ२᳐। ते꣣꣯मा꣢ऽ᳐३ओ꣤ऽ५वाऽ६५६। दि꣢यं-म꣡द꣢म्। स꣡मूऽ२᳐। द्र꣣स्या꣢ऽ३ओ꣤ऽ५वाऽ६५६। धि꣢विष्ट꣡पे꣰꣯ऽ२मनी꣯षि꣡णा꣰꣯ऽ२ः᳐॥ म꣡त्साऽ२᳐॥ रा꣣꣯सा꣢ऽ᳐३ओ꣤ऽ५वाऽ६५६। म꣢दच्यु꣡ता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
32_0518 अभि सोमास - 08 ...{Loading}...
लिखितम्
५१८-८।
अ꣥भिसो꣯मा꣯सआ꣯याऽ६वाः꣥॥ प꣡वन्ताइमा। दि꣪याऽ२᳐म्मा꣣ऽ२३४दा꣥म्। स꣣मुद्र꣢स्या꣡। धि꣢वि꣡ष्टपाइ। मना꣢ऽ᳐३इषा꣤इणाः꣥॥ मा꣡त्स꣢रा꣯सो꣡ऽ२३॥ मा꣡ऽ२᳐ दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ च्यू꣣ऽ२३४ताः꣥॥ दी-६। प-९। मा-१०॥ २१ (घौ) १००४॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ जा꣡गृ꣢वि꣣र꣢व्या꣣ वा꣢रैः꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣यः꣢। त्वं꣡ विप्रो꣢꣯ अभवोऽङ्गिरस्तम꣣ म꣡ध्वा꣢ य꣣ज्ञं꣡ मि꣢मिक्ष णः ॥ 33:0519 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु॒ना॒नः सो॑म॒ जागृ॑वि॒रव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यः ।
त्वं विप्रो॑ अभ॒वोऽङ्गि॑रस्तमो॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्ष नः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
पु꣣नानः꣢। सो꣣म। जा꣡गृ꣢꣯विः। अ꣡व्याः꣢꣯। वा꣡रैः꣢꣯। प꣡रि꣢꣯। प्रि꣣यः꣢। त्वम्। वि꣡प्रः꣢꣯। वि। प्रः꣣। अभवः। अङ्गिरस्तम। म꣡ध्वा꣢꣯। य꣣ज्ञ꣢म्। मि꣣मिक्ष। नः। ५१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम जीवात्मा को उद्बोधित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अङ्गिरस्तम) अतिशय तेजस्वी (सोम) मेरे अन्तरात्मन् ! (जागृविः) जागरूक, (अव्याः वारैः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के सदृश बुद्धि के तर्कों से (परि पुनानः) असत्य के त्याग तथा सत्य के स्वीकार द्वारा स्वयं को पवित्र करता हुआ (प्रियः) सबका प्रिय (त्वम्) तू (विप्रः) ज्ञानी (अभवः) हो गया है। वह तू (नः) हमारे (यज्ञम्) जीवन-यज्ञ को (मध्वा) माधुर्य से (मिमिक्ष) सींचने का प्रयत्न कर ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि वे जागरूक, पवित्र, सबके प्रिय, ज्ञानी, तेजस्वी और मधुर व्यवहार करनेवाले होवें ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं जीवात्मानमुद्बोधयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अङ्गिरस्तम) अतिशयेन तेजस्विन् ! अङ्गारेष्वङ्गिराः इति हि निरुक्तम् ३।१७। (सोम) मदीय अन्तरात्मन् ! (जागृविः) जागरूकः, (अव्याः वारैः) अविबालनिर्मितदशापवित्रैरिव बुद्धेस्तर्कैः (परि पुनानः) असत्यं परित्यज्य सत्यं स्वीकृत्य स्वात्मानं पवित्रं कुर्वन् (प्रियः) सर्वेषां स्नेहभाजनभूतः (त्वम् विप्रः) प्रशस्तज्ञानवान् (अभवः) अजायथाः। स त्वम् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) जीवनयज्ञम् (मध्वा) मधुना, माधुर्येण (मिमिक्ष) सेक्तुं प्रयतस्व। मिह सेचने धातोः सनि लोण्मध्यमैकवचने रूपम् ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यैर्जागरूकैः सर्वेषां प्रियैर्ज्ञानवद्भिस्तेजस्विभिर्मधुरव्यवहारैश्च भवितव्यम् ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।६, ‘जागृविरव्या, अभवोऽङ्गिरस्तम, णः’ इत्यत्र क्रमेण ‘जागृविरव्यो, अभवोऽङ्गिरस्तमः, नः’ इति पाठः।
33_0519 पुनानः सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१९-१। सोमसाम॥ सोमो बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯न꣤स्सो꣥꣯मजा꣤꣯गृ꣥विर꣤व्याः॥ वा꣡꣯रैᳲ꣯पारि꣪प्रियाऽ᳒२ः᳒। त्वं꣡विप्रो꣯अभवो꣯ ङ्गाइराऽ२३४। स्त꣣मा꣢ऽ३॥ मा꣡ध्वा꣢꣯यज्ञा꣡ऽ२३म्। मा꣡ऽ२᳐इमा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ क्षा꣣ऽ२३४णाः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रा꣢य पवते꣣ म꣢दः꣣ सो꣡मो꣢ म꣣रु꣡त्व꣢ते सु꣣तः꣢। स꣣ह꣡स्र꣢धारो꣣ अ꣡त्यव्य꣢꣯मर्षति꣣ त꣡मी꣢ मृजन्त्या꣣य꣡वः꣢ ॥ 34:0520 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा॑य पवते॒ मदः॒ सोमो॑ म॒रुत्व॑ते सु॒तः ।
स॒हस्र॑धारो॒ अत्यव्य॑मर्षति॒ तमी॑ मृजन्त्या॒यवः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रा꣢꣯य। प꣣वते। म꣡दः꣢꣯। सो꣡मः꣢꣯। म꣣रु꣡त्व꣢ते। सु꣣तः꣢। स꣣ह꣡स्र꣢धारः। स꣣ह꣡स्र꣢। धा꣣रः। अ꣡ति꣢꣯। अ꣡व्य꣢꣯म्। अ꣣र्षति। त꣢म्। ई꣣। मृजन्ति। आय꣡वः꣢। ५२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में वह वर्णित है कि सोम परमात्मा किसके लिए झरता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मदः) तृप्ति देनेवाला, (सुतः) ध्यानरूपी सिलबट्टों से अभिषुत (सोमः) रसनिधि परमात्मा (मरुत्वते) प्राण से सहचरित (इन्द्राय) आत्मा के लिए (पवते) झरता है। (सहस्रधारः) अनेकों आनन्दधाराओं से युक्त वह (अव्यम् अति) पार्थिव अन्नमय कोश को पार कर प्राणमय, मनोमय आदि कोशों में (अर्षति) पहुँचता है। (तम् ई) उसे (आयवः) मनुष्य (मृजन्ति) भक्तिपुष्पों से अलङ्कृत करते हैं ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसागार परमेश्वर ध्यानी, भक्तिपरायण जीवात्मा को आनन्द के झरने में स्नान कराता है ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा कस्मै पवत इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मदः) तृप्तिकरः, (सुतः) ध्यानरूपैः ग्रावभिः अभिषुतः (सोमः) रसनिधिः परमात्मा (मरुत्वते) प्राणवते (इन्द्राय) आत्मने (पवते) प्रस्रवति। (सहस्रधारः) सहस्रं बह्व्यः धारा आनन्दधारा यस्य सः (अव्यम् अति) अविः पृथिवी तस्यायम् अव्यः पार्थिवः अन्नमयकोशः तम् अतिक्रम्य, प्राणमयमनोमयादिकोशान् (अर्षति) गच्छति। (तम् ई२) तं किल। ई इति वाक्यालङ्कारे, यद्वा ई ईम् एनम्। (आयवः) मनुष्याः (मृजन्ति) भक्तिप्रसूनैः अलङ्कुर्वन्ति ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसागारः परमेश्वरो ध्यानानुष्ठातारं भक्तिप्रवणं जीवात्मानमानन्दनिर्झरेण स्नपयति ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१७। २. ऋग्वेदे यत्र मूलमन्त्रे ‘ई’ इति पठ्यते तत्र पदकारः ‘ईम्’ इति पठति। परं सामवेदीयपदपाठे ‘ई’ इत्येव प्राप्यते।
34_0520 इन्द्राय पवते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५२०-१। सोमसाम॥ सोमो बृहतीन्द्रो मरुत्वान्॥
इ꣥न्द्रा꣯यपा॥ व꣢ताऽ᳒२᳒इमा꣡दाऽ᳒२ः᳒। सो꣡꣯मो꣯मरुत्वताऽ᳒२᳒इसू꣡ताऽ᳒२ः᳒। स। हा꣡स्रधा꣢꣯रः।
34_0520 इन्द्राय पवते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५२०-२। स्वᳲपृष्ठमाङ्गिरसम्॥ अङ्गिरसो बृहतीन्द्रो मरुत्वान्॥
इ꣥न्द्रा꣯यपा॥ व꣢ते꣯म꣡दाः। सो꣢꣯मो꣯मा꣡रूऽ᳒२᳒। त्व꣡तेहोऽ᳒२᳒इ। सू꣡ताऽ᳒२ः᳒। स। हा꣡स्रधा꣢꣯रः। अ꣡तिअव्यमा। षाता꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥ त꣡मीहोऽ᳒२᳒इ। मा꣡र्जाऽ᳒२᳒॥ तिआ꣡꣯याऽ२३वा꣢ऽ᳐३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
34_0520 इन्द्राय पवते - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५२०-३। सोमसाम॥ सोमो बृहतीन्द्रो मरुत्वान्॥
इ꣥न्द्रा꣯या꣢ऽ᳐३पा꣤व꣥ता꣤इमदाः꣥॥ सो꣡꣯मो꣯मरुत्वता꣢ऽ१इसू꣢ऽ᳐३ताः꣢। स। हा꣡स्रधा꣢꣯रः॥ अ꣡तिअव्यमा꣢ऽ᳐३। षा꣤ती꣥॥ त꣢मा꣡औ꣢ऽ᳐३हो꣢ऽ᳐३इ। मा꣤र्जा꣥॥ ता꣡ऽ२᳐ या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ या꣣ऽ२३४वाः꣥॥ दी-६। प-१०। मा-१०॥ २५ (ङौ) १००८॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢स्व वाज꣣सा꣡त꣢मो꣣ऽभि꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ वा꣡र्या꣢। त्व꣡ꣳ स꣢मु꣣द्रः꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ विध꣢꣯र्मं दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सोम मत्स꣣रः꣢ ॥ 35:0521 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑स्व॒ वाज॑सातये॒ऽभि विश्वा॑नि॒ काव्या॑ ।
त्वं स॑मु॒द्रं प्र॑थ॒मो वि धा॑रयो दे॒वेभ्यः॑ सोम मत्स॒रः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। वा꣣जसा꣡त꣢मः। वा꣣ज। सा꣡त꣢꣯मः। अ꣣भि꣢। वि꣡श्वा꣢꣯नि। वा꣡र्या꣢꣯। त्वम्। स꣣मुद्रः꣢। स꣣म्। उद्रः꣢। प्र꣣थमे꣢। वि꣡ध꣢꣯र्मन्। वि। ध꣣र्मन्। देवे꣡भ्यः꣢। सो꣣म। मत्सरः꣢। ५२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम नाम से परमात्मा वा राजा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) ऐश्वर्यशाली जगदीश्वर वा राजन् ! (वाजसातमः) ऐश्वर्यों के अतिशय दानी आप (विश्वानि) सब (वार्या) वरणीय ऐश्वर्यों को (अभिपवस्व) प्राप्त कराइये। (त्वम्) आप (समुद्रः) परमेश्वरोचित वा राजोचित बल, वीर्य आदि के समुद्र हो। आप (प्रथमे) श्रेष्ठ (विधर्मन्) विशिष्ट जगद्धारण-यज्ञ में वा प्रजापालन-यज्ञ में (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए (मत्सरः) आनन्ददायक होवो ॥११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे जगदीश्वर जगत् में सब ऐश्वर्यों को देनेवाला है, वैसे राष्ट्र में राजा प्रजाओं को ऐश्वर्य प्रदान करे ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमनाम्ना परमात्मानं राजानं वा प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) ऐश्वर्यशालिन् जगदीश्वर राजन् वा ! (वाजसातमः) ऐश्वर्याणां दातृतमः त्वम्। वाजान् अन्नधनबलादीन् सनोतीति वाजसाः, अतिशयेन वाजसाः वाजसातमः। वाजोपपदात् सनोतेः ‘जनसनखनक्रमगमो विट्। अ० ३।२।६७’ इति विट् प्रत्ययः, ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्। अ० ६।४।४१’ इति नकारस्याकारादेशः। (विश्वानि) सर्वाणि (वार्या) वरणीयानि ऐश्वर्याणि (अभिपवस्व) अभिप्रापय। (त्वम्) परमेश्वरो राजा वा (समुद्रः) परमेश्वरोचितानां राजोचितानां वा बलवीर्यादीनां पारावारः असि। त्वम् (प्रथमे) श्रेष्ठे (विधर्मन्२) विधर्मणि विशिष्टे जगद्धारणयज्ञे प्रजापालनयज्ञे वा। अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति सप्तम्या लुक्। (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (मत्सरः) आनन्दप्रदः, भवेति शेषः ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा जगदीश्वरो जगति सर्वेषामैश्वर्याणां दातास्ति, तथा राष्ट्रे नृपतिः प्रजाभ्यः ऐश्वर्याणि प्रयच्छेत् ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।२३ “पवस्व वाजसातयेऽभि विश्वानि काव्या। त्वं समुद्रं प्रथमो विधारयो देवेभ्यः सोम मत्सरः ॥” इति पाठः। २. विधर्मन् विधर्मणि विविधकर्मधारणे—इति वि०। विधारके यज्ञे—इति भ०। ‘विधर्मन् विशेषेण पोषक’—इति सायणीये व्याख्याने तु स्वरो न सङ्गच्छते।
35_0521 पवस्व वाजसातमोऽभि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५२१-१। सोमसाम॥ देवाः देवताः सोमश्च॥
प꣤व꣥स्ववा꣯जसा꣤꣯। इहा। ता꣣ऽ२३४माः꣥। अ꣢भि꣡विश्वा꣢꣯निवा꣡꣯रिया꣢꣯। त्वꣳ꣡साऽ२᳐ मू꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। द्रᳲ꣡प्र꣢थमे꣡꣯विध꣢र्मन्॥ दा꣡इवाये꣢ऽ३॥ भ्या꣡ऽ२᳐स्सो꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ म꣢मत्स꣣रा꣢ऽ१ः॥ दी-१०। प-९। मा-६॥ २६ (भू) १००९॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢माना असृक्षत प꣣वि꣢त्र꣣म꣢ति꣣ धा꣡र꣢या। म꣣रु꣡त्व꣢न्तो मत्स꣣रा꣡ इ꣢न्द्रि꣣या꣡ हया꣢꣯ मे꣣धा꣢म꣣भि꣡ प्रया꣢꣯ꣳसि च ॥ 36:0522 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑माना असृक्षत प॒वित्र॒मति॒ धार॑या ।
म॒रुत्व॑न्तो मत्स॒रा इ॑न्द्रि॒या हया॑ मे॒धाम॒भि प्रयां॑सि च ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡वमा꣢꣯नाः। अ꣣सृक्षत। पवि꣡त्र꣢म्। अ꣡ति꣢꣯। धा꣡र꣢꣯या। म꣣रु꣡त्व꣢न्तः। म꣣त्सराः꣢। इ꣣न्द्रियाः꣢। ह꣡याः꣢꣯। मे꣣धा꣢म्। अ꣣भि꣢। प्र꣡याँ꣢꣯सि। च꣣। ५२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में ज्ञानरसों की प्राप्ति का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पवमानाः) पवित्रता देते हुए ये ज्ञानरूप सोमरस (धारया) धारा रूप में (पवित्रम् अति) पवित्र हृदयरूप दशापवित्र में से छनकर (असृक्षत) आत्मारूप द्रोणकलश में छोड़े जा रहे हैं। (मरुत्वन्तः) प्राणों से युक्त, (मत्सरासः) तृप्तिप्रदाता, (इन्द्रियाः) आत्मा रूप इन्द्र से सेवित, (हयाः) प्राप्त होनेवाले ये ज्ञानरस (मेधाम्) धारणावती बुद्धि को (प्रयांसि च) और आनन्दरसों को (अभि) बरसाते हैं ॥१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मन और प्राण से पवित्र किये गये ज्ञानरस जब आत्मा को प्राप्त होते हैं, तब मेधा और आनन्द के बरसानेवाले होते हैं ॥१२॥ इस दशति में भी सोम परमात्मा और उससे प्राप्त आनन्दधारा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ ज्ञानरसानां प्राप्तिं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पवमानाः) पवित्रतां सम्पादयन्तः एते ज्ञानरसरूपाः सोमाः (धारया) धारारूपेण (पवित्रम् अति) पवित्रहृदयरूपं दशापवित्रमतिक्रम्य (असृक्षत) आत्मरूपे द्रोणकलशे विसृज्यन्ते। (मरुत्वन्तः) प्राणयुक्ताः, (मत्सराः) तृप्तिकराः, (इन्द्रियाः) इन्द्रेण आत्मना जुष्टाः। ‘इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा’ अ० ५।२।८३ इति जुष्टार्थे घच्प्रत्ययान्तो निपातः। (हयाः) गन्तारः। हय गतौ भ्वादिः। एते ज्ञानरसाः (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (प्रयांसि च) आनन्दरसांश्च। प्रय इति उदकनामसु पठितम्, निघं० १।१२। (अभि) अभिवर्षन्ति। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनसा प्राणेन च पूता ज्ञानरसा यदाऽऽत्मानुपतिष्ठन्ते तदा मेधाया आनन्दस्य च वर्षका जायन्ते ॥१२॥ अत्रापि सोमस्य परमात्मनस्तत आगताया आनन्दधारायाश्च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये पञ्चमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।७।१२५।
36_0522 पवमाना असृक्षत - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५२२-१। पवित्रम्॥ आदित्योबृहतीमरुत्वान्त्सोमः॥
प꣤व꣥मा꣯ना꣯असृक्षतपवा꣤इ॥ त्रा꣡मतिधा꣯रया꣯मरुत्वन्तो꣯मत्सरा꣯इन्द्री꣢ऽ३याः꣢॥ हयाः꣡॥ माऽ२३इधा꣢म्॥ अ꣡भाये꣢ऽ३। प्रा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सी꣣ऽ२३४ चा꣥॥
[[अथ षष्ठः खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡ तु द्र꣢꣯व꣣ प꣢रि꣣ को꣢शं꣣ नि꣡ षी꣢द꣣ नृ꣡भिः꣢ पुना꣣नो꣢ अ꣣भि꣡ वाज꣢꣯मर्ष। अ꣢श्वं꣣ न꣡ त्वा꣢ वा꣣जि꣡नं꣢ म꣣र्ज꣢य꣣न्तो꣡ऽच्छा꣢ ब꣣र्ही꣡ र꣢श꣣ना꣡भि꣢र्नयन्ति ॥ 37:0523 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र तु द्र॑व॒ परि॒ कोशं॒ नि षी॑द॒ नृभिः॑ पुना॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष ।
अश्वं॒ न त्वा॑ वा॒जिनं॑ म॒र्जय॒न्तोऽच्छा॑ ब॒र्ही र॑श॒नाभि॑र्नयन्ति ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। तु। द्र꣣व। प꣡रि꣢꣯। को꣡श꣢꣯म्। नि। सी꣣द। नृ꣡भिः꣢꣯। पु꣣नानः꣢। अ꣣भि꣢। वा꣡ज꣢꣯म्। अ꣣र्ष। अ꣡श्व꣢꣯म्। न। त्वा꣣। वाजि꣡न꣢म्। म꣣र्ज꣡य꣢न्तः। अ꣡च्छ꣢꣯। ब꣣र्हिः꣢। र꣣शना꣡भिः꣢। न꣣यन्ति। ५२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- उशना काव्यः
- त्रिष्टुप्
- धैवतः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में जीवात्मा को उद्बोधन दिया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे आत्मन् ! तू (तु) शीघ्र ही (प्र द्रव) उत्कृष्ट दिशा में दौड़, कोशम् आनन्दमय कोश में (परि निषीद) व्याप्त होकर स्थित हो, (नृभिः) आगे ले जानेवाले अपने पौरुषों से (पुनानः) मन, बुद्धि आदि को पवित्र करता हुआ (वाजम् अभि) देवासुरसंग्राम में (अर्ष) असुरों के पराजय के लिए जा। (वाजिनम्) ज्ञानवान् (त्वा) तुझे (मर्जयन्तः) सद्गुणों से अलङ्कृत करते हुए (रशनाभिः) यम-नियम की रस्सियों से नियन्त्रित करके, शिक्षक योगी जन (बर्हिः अच्छ) परब्रह्म के प्रति (नयन्ति) प्रेरित कर रहे हैं, (न) जैसे (वाजिनम्) बलवान् (अश्वम्) घोड़े को (मर्जयन्तः) साफ या अलङ्कृत करते हुए योद्धा लोग (रशनाभिः) लगामों से नियन्त्रित करके (बर्हिः अच्छ) संग्राम में (नयन्ति) ले जाते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में उत्तरार्ध में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे बलवान् घोड़े को योद्धा लोग लगामों से नियन्त्रित करके युद्ध में ले जाते हैं, वैसे ही योग-प्रशिक्षक लोग मनुष्य के आत्मा को यम, नियम आदि योग-साधनों से नियन्त्रित करके परब्रहम के प्रति ले जाएँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जीवात्मानमुद्बोधयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे आत्मन् ! त्वम् (तु) क्षिप्रम् (प्र द्रव) प्रकृष्टायां दिशि धाव, (कोशम्) आनन्दमयकोशम् (परि निषीद) अभिव्याप्य स्थितो भव। (नृभिः) नेतृभिः स्वकीयैः पौरुषैः (पुनानः) मनोबुद्ध्यादिकं पवित्रं कुर्वन् (वाजम् अभि) देवासुरसङ्ग्रामं प्रति (अर्ष) असुराणां पराजयार्थं गच्छ। (वाजिनम्) ज्ञानवन्तम् (त्वा) त्वाम् (मर्जयन्तः) सद्गुणैरलङ्कुर्वन्तः। (रशनाभिः) यमनियमरज्जुभिः सन्नियन्त्र्य, शिक्षकाः योगिनः (बर्हिः अच्छ) प्ररब्रह्म२ प्रति। बृंहति वर्द्धते महिमान्वितो भवतीति बर्हिः ब्रह्म। ‘बृंहेर्नलोपश्च’ उ० २।१११ इति इसि प्रत्ययः, नकारलोपश्च। (नयन्ति) प्रेरयन्ति, (न) यथा (वाजिनम्) बलिनम् (अश्वम्) तुरगम् (मर्जयन्तः) शोधयन्तोऽलङ्कुर्वन्तो वा योद्धारः (रशनाभिः) प्रग्रहैः संनियन्त्र्य (बर्हिः अच्छ) संग्रामयज्ञं प्रति नयन्ति प्रापयन्ति ॥१॥ अत्र उत्तरार्द्धे श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा बलवन्तमश्वं साङ्ग्रामिका जना रशनाभिः संनियन्त्र्य संग्रामं प्रति नयन्ति तथा योगप्रशिक्षका जना मनुष्यस्यात्मानं यमनियमादियोगसाधनैः संनियन्त्र्य परब्रह्म प्रति नयन्तु ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।८७।१, साम० ६७७। २. ‘बर्हिः अन्तरिक्षवद् व्यापकं ब्रह्म’ इति य० २९।२९ भाष्ये द०।
37_0523 प्र तु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५२३-१। औशनानि पञ्च॥ उशनास्त्रिष्टुबश्वः अग्निर्वा॥ओ꣢इ᳐प्र꣣तु꣥। इ꣣हा꣢ऽ३१। द्र꣢वा꣡। परिको꣢ऽ᳐३। श꣢न्नि꣣षी꣤दा꣥॥ ओ꣢इ᳐नृ꣣भिः꣥। इ꣣हा꣢ऽ३१। पु꣢ना꣡। नो꣢ऽ᳐३अ꣡भि। वा꣢᳐ज꣣म꣤र्षा꣥॥ ओ꣢᳐अ꣣श्व꣥म्। इ꣣हा꣢ऽ३१। न꣢त्वा꣡। वा꣢ऽ३जि꣡नम्। म꣢र्ज꣣य꣤न्ताः꣥॥ ओ꣢᳐अ꣣च्छ꣥। इ꣣हा꣢ऽ३१। ब꣢र्हा꣡इः। र꣢श꣡ना꣯। भा꣢ऽ३४३इः। ना꣢ऽ᳐३या꣤ऽ५न्ताऽ६"५६इ॥
37_0523 प्र तु - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५२३-२। वृषौशनंसाम॥
प्र꣤तु꣥। ए꣤प्रतू꣥। द्र꣢वा꣡।(द्विः)। परिको꣢ऽ᳐३। श꣢न्नि꣣षी꣤दा꣥॥ नृ꣤भिः꣥। ए꣤नृभीः꣥। पु꣢ना꣡।(द्विः)। नो꣢ऽ᳐३अ꣡भि। वा꣢᳐ज꣣म꣤र्षा꣥॥ अ꣤श्व꣥म्। ए꣤अश्वा꣥म्। न꣢त्वा꣡।(द्विः)। वा꣢ऽ᳐३जि꣡नम्। म꣢र्ज꣣य꣤न्ताः꣥। अ꣤च्छ꣥। ए꣤अच्छा꣥। ब꣢र्हा꣡इ। ब꣢र्हा꣡इः। र꣢शना꣡꣯भिः꣢᳐। न꣣ये꣢ऽ३४। हि꣥याऽ६हा꣥उवा॥ ता꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥ दी-१। प-२६। मा-१५॥ २९ (कु) १०१२॥
37_0523 प्र तु - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५२३-३। जानस्याभीवर्तौ द्वौ॥
प्र꣤तु꣥द्रा꣤॥ वा꣡परिको꣯शाम्। निषी꣢ऽ᳐३दा꣢। सा꣡इदा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣭ऽ३वा꣢। नृ꣡भिᳲपुना꣯नो꣯अभिवा। ज꣪माऽ२३र्षा꣢। आ꣡र्षा꣢। औ꣣꣯हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣭ऽ३वा꣢। अ꣡श्व न्नत्वा꣯वा꣯जिनम्मा। ज꣪याऽ२३न्ताः꣢। या꣡न्ता꣢। औ꣣꣯हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣭ऽ३वा꣢॥ अच्छा꣡꣯ब꣢र्हा꣡इः॥ र꣢शना꣡꣯भिः꣢। न꣣ये꣢ऽ३४। हि꣥याऽ६हा꣥उवा॥ ता꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥
37_0523 प्र तु - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५२३-४।
हा꣥꣯ओऽ६हा꣥। उ꣣हुवा꣢ऽ३४। ओ꣥ऽ६हा꣥। प्र꣢तु꣡द्रवा। परिको꣢ऽ᳐३। श꣢न्नि꣣ षी꣤दा꣥॥नृ꣢भा꣡इᳲपु꣢ना꣡। नो꣢ऽ३अ꣡भि। वा꣢᳐ज꣣म꣤र्षा꣥॥ अ꣢श्व꣡न्नत्वा। वा꣢ऽ᳐३जि꣡नम्। म꣢र्ज꣣य꣤न्ताः꣥॥
37_0523 प्र तु - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५२३-५। त्रिष्टुबौशनम्॥
प्रा꣤तू꣥॥ द्र꣡वापरिको꣯शाम्। निषी꣢ऽ३दा꣢। नृभा꣡इᳲपु꣢ना꣡। नो꣢᳐ऽ३अ꣡भि। वा꣢᳐ज꣣म꣤र्षा꣥॥ अ꣡श्वन्नत्वा꣯वा꣯जिनम्मा। ज꣪याऽ२३न्ताः꣢॥ अच्छा꣡꣯ब꣢र्हा꣡इः। र꣢श꣡ना꣯। भा꣢ऽ᳐३४३इः। ना꣢ऽ३या꣤ऽ५न्ता"ऽ६५६इ॥ दी-५। प-१२। मा-९॥ ३२ (फो) १०१५॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡ काव्य꣢꣯मु꣣श꣡ने꣢व ब्रुवा꣣णो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ ज꣡नि꣢मा विवक्ति। म꣡हि꣢व्रतः꣣ शु꣡चि꣢बन्धुः पाव꣣कः꣢ प꣣दा꣡ व꣢रा꣣हो꣢ अ꣣꣬भ्ये꣢꣯ति꣣ रे꣡भ꣢न्॥ 38:0524 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र काव्य॑मु॒शने॑व ब्रुवा॒णो दे॒वो दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति ।
महि॑व्रतः॒ शुचि॑बन्धुः पाव॒कः प॒दा व॑रा॒हो अ॒भ्ये॑ति॒ रेभ॑न् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। का꣡व्य꣢꣯म्। उ꣣श꣡ना꣢। इ꣣व। ब्रुवाणः꣢। दे꣣वः꣢। दे꣣वा꣡ना꣢म्। ज꣡नि꣢꣯म। वि꣣वक्ति। म꣡हि꣢꣯व्रतः। म꣡हि꣢꣯। व्र꣣तः। शु꣡चि꣢꣯बन्धुः। शु꣡चि꣢꣯। ब꣣न्धुः। पावकः꣢। प꣣दा꣢। व꣣राहः꣢। अ꣣भि꣢। ए꣣ति। रे꣡भ꣢꣯न्। ५२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- बृषगणो वासिष्ठः
- त्रिष्टुप्
- धैवतः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोम परमात्मा क्या करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (काव्यम्) काव्य का (प्र ब्रुवाणः) प्रवचन करते हुए (उशना इव) धर्मेच्छु विद्वान् के समान (काव्यम्) वेदरूप काव्य का (प्र ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ (देवः) दान आदि गुणों से युक्त सोम परमात्मा (देवानाम्) प्रकाशक अग्नि, सूर्य, विद्युत् आदि पदार्थों के तथा इन्द्रियों के (जनिम) उत्पत्ति-प्रकार को (प्र विवक्ति) वेद द्वारा भली-भाँति बतलाता है। (महिव्रतः) महान् कर्मोंवाला, (शुचिबन्धुः) पवित्रात्मा जनों से बन्धुत्व स्थापित करनेवाला, (पावकः) मनुष्यों को पवित्र करनेवाला वह जगदीश्वर (रेभन्) गर्जते हुए (वराहः) मेघ के समान (रेभन्) उद्बोधन के शब्द बोलता हुआ (पदा) गन्तव्य सत्पात्र जनों के पास (अभ्येति) पहुँचता है ॥२॥ इस मन्त्र में ‘उशनेव’ में वाच्योपमा और ‘वराहः’ में लुप्तोपमा अलङ्कार है। ‘देवो-देवा’ में छेकानुप्रास है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सोमरस धारापात शब्द करता हुआ पात्रों में जाता है और जैसे मेघ गर्जना करता हुआ भूमि पर बरसता है, वैसे ही सौम्य परमेश्वर जीभ के बिना भी सत्कर्मों का उपदेश करता हुआ स्तोता जनों के पास पहुँचता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (उशना इव२) धर्मकामो विद्वान् इव। वष्टि कामयते धर्मादिप्रचारं स उशना। वश कान्तौ। उशनस् शब्दात् सौ ‘ऋदुशनस्पुरुदंसोऽनेहसां च’ अ० ७।१।९४ इत्यनङ्। (काव्यम्) वेदकाव्यम् (प्र ब्रुवाणः) उपदिशन् (देवः) दानादिगुणयुक्तः सोमः परमेश्वरः (देवानाम्) प्रकाशकानाम् अग्निसूर्यविद्युदादीनाम् इन्द्रियाणां च (जनिम) जन्म, उत्पत्तिप्रकारम्। संहितायां दीर्घश्छान्दसः। (प्र विवक्ति) वेदद्वारा प्रकर्षेण व्याचष्टे। अत्र वचेर्लटि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इति शपः श्लुः।३ (महिव्रतः) महाकर्मा, (शुचिबन्धुः४) शुचयः पवित्रात्मानो जनाः बन्धवो यस्य तथाविधः, (पावकः) जनानां पवित्रयिता स जगदीश्वरः (रेभन्) गर्जन् (वराहः५) वराहारो मेघः इव। वराहो मेघो भवति वराहारः। निरु० ५।४। (रेभन्) उद्बोधनशब्दान् ब्रुवन्। रेभृ शब्दे भ्वादिः। (पदा) पदानि गन्तव्यानि सत्पात्राणि, सत्पात्रभूतान् जनानित्यर्थः (अभ्येति) प्राप्नोति ॥२॥ ‘उशनेव’ इत्यत्र वाच्योपमा। ‘वराहः’ इत्यत्र लुप्तोपमा। ‘देवो-देवा’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सोमरसो धारापातशब्दं कुर्वन् पात्राणि गच्छति, यथा वा मेघो गर्जन् भूमौ वर्षति, तथैव सौम्यः परमेश्वरो रसनां विनापि सत्कर्माण्युपदिशन् स्तोतॄन् जनानुपगच्छति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।९७।७, साम० १११६। २. (उशना) धर्मकामुकः इति ऋ० १।१२१।१२ भाष्ये द०। ३. न त्वत्र व्युपसर्गो वचिः ग्राह्यः पदपाठेऽविभज्य दर्शनात्। ४. बध्नन्ति शत्रूनिति बन्धूनि तेजांसि बलानि वा। दीप्ततेजस्कः—इति सा०। ५. वराहः वराणां धनानाम् आगमयिता सोमः—इति भ०। वरञ्च तदहश्च वराहः। ‘राजाहःसखिभ्यष्टच्’ इति टच् समासान्तः। तस्मिन्नहनि अभिषूयमाणत्वेन तद्वान्। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्।—इति सा०।
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लिखितम्
५२४-१। वाराहाणि चत्वारि॥ चतुर्णां वराहस्त्रिष्टुब्देववराहौ॥प्रा꣤॥ का꣡꣯वियाऽ᳒२᳒म्। उ꣡शनेवाऽ᳒२᳒। ब्रुवा꣡ऽ२३णाः꣢। दे꣡꣯वो꣯देवाऽ᳒२᳒। ना꣡꣯ञ्जनिमाऽ᳒२᳒। विवा꣡ऽ२३क्ती꣢॥ म꣡हिव्राताऽ᳒२ः᳒। शु꣡चिबन्धूऽ᳒२ः᳒। पवा꣡ऽ२३ काः꣢॥ प꣡दा꣯वाराऽ᳒२᳒। हो꣡꣯अभियाऽ२᳐इ। ति꣣रा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡न्॥
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लिखितम्
५२४-२।
प्र꣡का꣯वियाऽ᳒२᳒म्। उ꣡शनेवाऽ᳒२᳒। ब्रुवा꣡णाऽ᳒२ः᳒॥ दे꣡꣯वो꣯देवाऽ᳒२᳒। ना꣡꣯ञ्ज निमाऽ᳒२᳒। विवा꣡क्तीऽ᳒२᳒॥ म꣡हिव्राताऽ᳒२ः᳒। शु꣡चिबन्धूऽ᳒२ः᳒। पवा꣡काऽ᳒२ः᳒॥ प꣡दा꣯ वाराऽ᳒२᳒। हो꣡ऽ२᳐। भि꣣या꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ति꣢रे꣡꣯भा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡न्॥ दी-८। प-१३। मा-७॥ ३४ (डे) १०१७॥
38_0524 प्र काव्यमुशनेव - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५२४-३।
प्र꣢का꣯व्यमुशने꣯वब्रूऽ᳐३वा꣡णो꣢᳐। दे꣣ऽ२३४वाः꣥॥ दे꣢꣯वा꣯ना꣯ञ्जनिमा꣯विऽ᳐३ वा꣡क्ती꣢᳐। मा꣣ऽ२३४ही꣥॥ व्र꣢तश्शुचिबन्धुᳲपऽ३वा꣡कः꣢। पा꣣ऽ२३४दा꣥॥ व꣢रा꣯हो꣯ अभ्ये꣯ति꣡राऽ२३। हा꣢उवाऽ३॥ भाऽ२३꣡४꣡५꣡न्॥ दी-९। प-९। मा-५॥ ३५ (धु) १०१८॥
38_0524 प्र काव्यमुशनेव - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५२४-४। वाराहम्॥
हा꣥꣯उहा꣯उ। हु꣡प्। प्र꣢का꣡꣯वियाम्। उ꣢श꣡ने꣯। व꣢ब्रु꣣वा꣤णाः꣥॥ दे꣢꣯वो꣡꣯दे꣯वा। ना꣢ऽ३ ञ्ज꣡नि। मा꣢᳐वि꣣व꣤क्ती꣥॥ म꣢हि꣡व्रताः। शुचिबा꣢ऽ᳐३। धुᳲ꣢प꣣वा꣤काः꣥॥ हा꣯उहा꣯उ। हु꣡प्। प꣢दा꣡꣯वरा। हो꣢ऽ᳐३अ꣡भि। आ꣢ऽ३४३इ। ती꣢ऽ३रा꣤ऽ५इभा"ऽ६५६न्॥