[[अथ चतुर्दशप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣢री꣣तो꣡ षि꣢ञ्चता सु꣣त꣢꣫ꣳ सोमो꣣ य꣡ उ꣢त्त꣣म꣢ ह꣣विः꣢। द꣣धन्वा꣡ꣳ यो नर्यो꣢꣯ अ꣣प्स्वा꣢ऽ३न्त꣢उा सु꣣षा꣢व꣣ सो꣢म꣣म꣡द्रि꣢भिः ॥ 26:0512 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तं सोमो॒ य उ॑त्त॒मं ह॒विः ।
द॒ध॒न्वाँ यो नर्यो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। इ꣣तः꣢। सि꣣ञ्चत। सुत꣢म्। सो꣡मः꣢꣯। यः। उ꣣त्तम꣢म्। ह꣣विः꣢। द꣣धन्वा꣢न्। यः। न꣡र्यः꣢꣯। अ꣣प्सु꣢। अ꣣न्तः꣢। आ। सु꣣षा꣡व꣢। सो꣡म꣢꣯म्। अ꣡द्रि꣢꣯भिः। अ। द्रि꣣भिः। ५१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्यों को सोम के सेचनार्थ प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—सोम ओधधि के रस के पक्ष में। हे मनुष्यो ! (यः सोमः) जो सोमरस (उत्तमम्) उत्तम (हविः) हव्य अथवा भोज्य है, उस (सुतम्) अभिषुत सोमरस को (इतः) इस यज्ञवेदि से अथवा भोजनालय से (परि सिञ्चत) यज्ञाग्नि अथवा जाठराग्नि में चारों ओर सींचो। (नर्यः) मनुष्यों का हितकर्मा (यः) जो सोमरस (दधन्वान्) यजमान को अथवा पीनेवाले को धारण करता है और जिस (सोमम्) सोमरस को अभिषोता (अद्रिभिः) यज्ञिय सिलबट्टों से, तीव्रता कम करने के लिए (अप्सु अन्तः) जलों के अन्दर (आ सुषाव) अभिषुत करता है ॥ द्वितीय—अध्यात्मपक्ष में। हे मनुष्यो ! (यः सोमः) जो भक्तिरस, उपासनायज्ञ में (उत्तमं हविः) उत्कृष्टतम हवि है, उस (सुतम्) अभिषुत भक्तिरस को, तुम (इतः) इस हृदय से (परि सिञ्चत) चारों ओर प्रवाहित करो, (नर्यः) मनुष्यों का हितकर्ता (यः) जो भक्तिरस, (दधन्वान्) उपासक को धारण करता है, और जिस (सोमम्) भक्तिरस को, उपासनायज्ञ का यजमान आत्मा (अद्रिभिः) ध्यानरूप सिलबट्टों से (अप्सुः अन्तः) प्राणों के अन्दर (आ सुषाव) अभिषुत करता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे बाह्य यज्ञ में अथवा भोजन में सोम ओषधि का रस सिलबट्टों द्वारा अभिषुत करके जलों में मिलाया जाता है, वैसे ही अध्यात्मयज्ञ में भक्तिरस को ध्यानरूप सिलबट्टों से अभिषुत करके अपने जीवन का अङ्ग बनाना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जनान् सोमं सेक्तुं प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सोमौषधिरसपक्षे। हे मनुष्याः ! (यः सोमः) य सोमरसः (उत्तमम्) उत्कृष्टतमम् (हविः) हव्यं भोज्यं वा अस्ति तम् (सुतम्) अभिषुतं सोमरसम् (इतः२) अस्मात् यज्ञवेदिस्थलाद् भोजनालयाद् वा (परि सिञ्चत) यज्ञाग्नौ जाठराग्नौ वा परितः जुहुत। संहितायाम् ‘ऋचि तुनुघमक्षुतङ्कुत्रोरुष्याणाम्’ अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः। (नर्यः) नृभ्यो हितः (यः) सोमरसः (दधन्वान्) यजमानं पातारं वा धृतवान्। धन धान्ये जुहोत्यादिः। अत्र धारणार्थः। लिटि क्वसौ रूपम्। यं च (सोमम्) सोमरसम्, अभिषोता (अद्रिभिः) ग्रावभिः अभिषवपाषाणैः, तीव्रताया न्यूनीकरणाय (अप्सु अन्तः) जलेषु मध्ये (आ सुषाव) अभिषुणोति३ ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे मनुष्याः ! (यः सोमः) यो भक्तिरसः, उपासनायज्ञे (उत्तमं हविः) उत्कृष्टतमं हव्यम् अस्ति तम् (सुतम्) अभिषुतं भक्तिरसम्, यूयम् (इतः) अस्मात् हृदयात् (परि सिञ्चत) परितः प्रवाहयत, (नर्यः) नराणां हितकर्ता (यः) भक्तिरसः (दधन्वान्) उपासितारं धृतवान् भवति, यं च (सोमम्) भक्तिरसम्, उपासनायज्ञस्य यजमानः आत्मा (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः अभिषवपाषाणैः (अप्सु अन्तः) प्राणेषु मध्ये (आ सुषाव) आ सुनोति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा ब्राह्मयज्ञे भोजने वा सोमौषधिरसो ग्रावभिरभिषुत्य जलेषु सम्मिश्र्यते तथैवाध्यात्मयज्ञे भक्तिरसो ध्यानरूपैर्ग्रावभिरभिषुत्य स्वजीवनाङ्गतां नेयः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१, य० १९।२ ऋषिः भारद्वाजः, साम० १३१३। २. परीतो षिञ्चत। संहितायां सिञ्चतौ परे ओकारश्छान्दसः। तथा हि, ‘तो षि’ ७।१ इति हि ऋक्तन्त्रप्रातिशाख्यम्। ‘इदं च रूपग्रहणम्। इतः सिञ्चत’ इत्यत्र सकारप्राप्तस्य विसर्जनीयस्य ग्रहणादोकारप्राप्तिः। परि इतः सिञ्चत, ‘परीतो षिञ्चत’। इति च तत्र विवरणम्। ३. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सोमौषधिविषये व्याख्यातवान्। तथाहि तत्र तत्कृतो भावार्थः—“मनुष्यैरुत्तमा ओषधीर्जले संस्थाप्य मथित्वाऽऽसवं निस्सार्यानेन यथायोग्यं जाठराग्निं सेचित्वा बलारोग्ये वर्द्धनीये” इति।
26_0512 परीतो षिञ्चता - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-१। अच्छिद्रम्॥ विश्वामित्रो बृहती सोमः॥
प꣥री꣯तो꣯षी॥ च꣢ताऽ३᳐१उवाऽ२३। सूऽ२३४ता꣥म्। सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ ह꣢वीः꣡॥ सो꣥꣯मो꣯यऊ। त꣢माऽ३१उवाऽ२३। हाऽ२३४वीः꣥। द꣢धन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ द꣥धन्वाꣳ꣯याः॥ न꣡र्यो꣰꣯ऽ२। आ꣡। प्सु꣢वाऽ३१उवाऽ२३। ताऽ२३४ रा꣥। सु꣢षा꣡꣯वसो꣯ममद्रिभी꣣ऽ२३४ः॥ सु꣥षा꣯वसो॥ म꣢माऽ३१उवाऽ२३॥ द्राऽ२३४ इभीः꣥॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-२। रयिष्ठम्॥ इन्द्रो बृहती सोमः॥प꣥री꣯तो꣯षी॥ च꣢ता꣡सू꣢ऽ३ता꣢म्। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३४। हा꣥। हा꣢उवा। सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢वीः꣡॥ सो꣥꣯मो꣯यऊ॥ त꣢माꣳ꣡ हा꣢ऽ३वीः꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३४। हा꣥। हा꣢उवा। दधन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ द꣥धन्वाꣳ꣯याः॥ न꣡र्यो꣰꣯ऽ२᳐। आ꣡। प्सू꣢ऽ३आ꣡न्ता꣢ऽ३रा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३४। हा꣥। हा꣢उवा। सुषा꣡꣯वसो꣯ममद्रिभी꣣ऽ२३४ः॥ सु꣥षा꣯वसो॥ म꣢मा꣡द्री꣢ऽ३भा꣢इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३४। हा꣥। हा꣢उवाऽ३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-३। भारद्वाजे द्वे॥ द्वयोर्भरद्वाजो बृहती सोमः॥
औ꣥꣯हो꣯इपरी꣯तो꣯षी॥ च꣢ता꣯सुत꣡म्। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ᳐। आ꣭ऽ३। औ꣢꣯हो ऽ३वा꣢। सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢विः꣡। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ। आ꣭ऽ३। औ꣢꣯होऽ३वा꣢॥ दधन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ। आ꣭ऽ३। औ꣢꣯होऽ३वा꣢॥ सुषा꣡꣯वसो꣯ममद्रिभिः꣢। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣣꣯हो꣢इ। आ꣡ऽ२३४। उ꣥हुवाऽ६हा꣥उ॥ वा॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-४।
प꣤। र्येपारी꣥॥ तो꣢꣯षि꣡ञ्चता꣰꣯ऽ२सुत꣡म्। आउवाऽ२३। हा꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢। सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢विः꣡। आउवाऽ२३। हा꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢। दधन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡उ। वाऽ२३। हा꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢॥ सुषा꣡꣯वाऽ२३ सो꣢ऽ३। हा꣢꣯उ꣣हा꣢꣯उ꣣। हो꣭ऽ३वा꣢॥ म꣣म꣢। द्रा꣡ऽ२३४इभाइ। उ꣥हुवाऽ६"हा꣥उ॥ वा॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-५। आभीशवे द्वे॥ द्वयोरभीशुर्बहती सोमः॥
प꣥री꣯तो꣯षिञ्चता꣯सुतम्। ए॥ सो꣢꣯मो꣯यउऽ३त्ता꣡म꣪ꣳहाविः꣢᳐॥ दा꣣ऽ२३४धा꣥। हा꣢इ। न्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सूअ꣪न्तारा꣢᳐॥ सू꣣ऽ२३४षा꣥। हा꣢इ॥ वा꣡सो꣯म꣢मो꣡ऽ२३४वा꣥। द्रा꣤ऽ५इभोऽ६"हा꣥इ॥ दी-९। प-१०। मा-९॥ ५ (नो) ९५८॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-६। आभीशवोत्तरम्॥
प꣥री꣯तो꣯षिञ्चता꣯सुतम्। ए। ए। सो꣢꣯मो꣯यउऽ३त्ता꣡म꣪ꣳहाविः꣢᳐॥ दा꣣ऽ२३४ धा꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ न्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सूअ꣪न्तारा꣢᳐॥ सू꣣ऽ२३४षा꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ वा꣡सो꣯म꣢मो꣡ऽ२३४वा꣥। द्रा꣤ऽ५इभोऽ६"हा꣥इ॥ दी-९। प-११। मा-९॥ ६ (तो) ९५९॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-७। माण्डवे द्वे॥ द्वयोर्मण्डुर्बृहती सोमः॥प꣤री꣥꣯तो꣤꣯षि꣥ञ्चता꣯सुत꣤म्। इहा॥ सो꣡꣯मो꣯यउत्त꣢मꣳ꣡हाऽ२३वीः꣢। इ꣡हा꣢। दध न्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सु꣢व꣡न्ताऽ२३रा꣢। इ꣡हा꣢॥ सुषा꣡꣯वाऽ२३सो꣢। इ꣡हा꣢॥ ममा꣡ऽ२३। द्रा꣡ऽ२᳐इभा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४हा꣥॥ दी-११। प-११। मा-६॥ ७ (कू) ९६०॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 08 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-८।
इ꣤हा। परी꣥꣯तो꣤꣯षि꣥ञ्चता꣯सुत꣤म्। इहा॥ सो꣡꣯मो꣯यउत्त꣢मꣳ꣡हाऽ२३वीः꣢। इ꣡हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३४पा꣥। द꣢धन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सु꣢व꣡न्ताऽ२३रा꣢। इ꣡हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३४पा꣥॥ सु꣢षा꣡꣯वाऽ२३सो꣢। इ꣡हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३४पा꣥। म꣢म꣡द्राऽ२३इभीः꣢। इ꣡हा꣢उवाऽ३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-९। प-१५। मा-१०॥ ८ (न्लौ) ९६१॥
26_0512 परीतो षिञ्चता - 09 ...{Loading}...
लिखितम्
५१२-९। अभिवाससाम॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
प꣤री꣥꣯तो꣤꣯षि꣥ञ्चता꣯सुता꣤म्॥ सो꣢꣯मो꣡꣯य꣢उ꣡। त꣢मꣳ꣣ह꣢वा꣡इः। दाधा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥। न्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सु꣢व꣡न्ताऽ२३रा꣢॥ सुषा꣡꣯वाऽ२३सो꣢॥ मा꣡मद्रि꣢भिः। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-९। प-११। मा-८॥ ९ (तै) ९६२॥
५१२-१०। परिवाससाम॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
प꣤री꣥꣯तो꣤꣯षि꣥ञ्चता꣯सुत꣤म्। ओ꣥ऽ६वा꣥॥ सो꣡꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢विः꣡। दधान्वाꣳ यो꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢इ। न꣡र्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ सुषावासो꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢॥ मा꣡मद्रि꣢भिः। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-७। प-१२। मा-६॥ १० (छू) ९६३॥
५१२-११। वैष्णवम्॥ वेणुर्बहती सोमः॥
प꣤री꣥꣯तो꣤꣯षि꣥ञ्च। ता꣤ऽ५सुता꣤म्॥ सो꣡꣯मो꣯यउत्तामाऽ᳒२᳒१२म्। हा꣡वीऽ᳒२ः᳒। दधन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣯अप्सुवाऽ᳒२᳒१२। ता꣡राऽ᳒२᳒॥ सुषा꣡꣯वाऽ२३सो꣢ऽ३॥ म꣢मो꣡ऽ२३४ वा꣥। द्रा꣤ऽ५इभोऽ६"हा꣥इ॥ दी-८। प-९। मा-७॥ ११ (ढे) ९६४॥
५१२-१२। सौमक्रतवीयम्, माण्डवं वा॥ सोमक्रतुर्बृहती सोमः॥प꣡री꣯तो꣯षाऽ᳒२᳒इ। च꣡ता꣯सुताऽ᳒२᳒म्। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हि꣢हाऽ᳒२᳒इ। उ꣡वाऽ᳒२᳒इ। ई꣭ऽ३या꣢॥ सो꣡꣯मो꣯यऊऽ᳒२᳒। त꣡मꣳहवीऽ᳒२ः᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हि꣢ हाऽ᳒२᳒इ। उ꣡वाऽ᳒२᳒इ। ई꣭ऽ३या꣢। द꣡धन्वाꣳ꣯यो꣯नर्योऽ᳒२᳒। प्सु꣡वन्तराऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हि꣢हाऽ᳒२᳒इ। उ꣡वाऽ᳒२᳒इ। ई꣭ऽ३या꣢॥ सु꣡षा꣯वसोऽ᳒२᳒। म꣡मद्रिभाऽ᳒२᳒इ। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हीऽ᳒२᳒। ऐ꣡꣯हि꣢हाऽ᳒२᳒इ। उ꣡वाऽ᳒२᳒इ। ई꣭ऽ३या꣢᳐ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-२०। प-३०। मा-१४॥ १२ (मी) ९६५॥
५१२-१३। गूर्द्दः॥ प्रजापतिर्बृहती सोमः॥
उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। उ꣣पा꣢ऽ᳐३१। उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। प꣢री꣯तो꣯षि᳐ञ्च꣣ता꣢꣯सु꣣त꣢᳐म्॥ उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। उ꣣पा꣢ऽ᳐३१। उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। सो꣢꣯मो꣯यउत्त꣣मꣳ꣢ह꣣विः꣢᳐॥ उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। उ꣣पा꣢ऽ᳐३१। उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। द꣢धन्वाꣳ꣯यो꣯नर्यो꣯ऽ३प्सु꣢वन्त꣣रा꣢꣯॥ उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। उ꣣पा꣢ऽ᳐३१। उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। सु꣢षा꣯वसो꣯ म꣣म꣢द्रि꣣भिः꣢᳐। उ꣣पा꣢᳐उ꣣प꣥। उ꣣पा꣢ऽ᳐३१। उ꣣पा꣢ऽ३᳐ऊ꣤ऽ५पाऽ६५६। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
५१२-१४। प्रतोदः॥ कश्यपो बृहती सोमः॥
हा꣥उहाउहाउवा। प꣡री꣯तो꣯षिञ्च꣢ता꣯सुत꣡म्। उपा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥१॥
(१५) अङ्गिरसां गोष्ठः॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
हा꣥उहाउहाउवा। प꣡री꣯तो꣯षिञ्च꣢ता꣯सुत꣡म्। इहा। उपा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥२॥
(१६) पुꣳस्ति॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
हा꣥उहाउहाउवा। प꣡री꣯तो꣯षिञ्च꣢ता꣯सुत꣡म्। श्रवो꣯बृ꣢ह꣡त्। उपा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥३॥
(१७) महारौरवम्॥ रुरुर्बृहती सोमः॥हा꣥उहाउहाउवा। प꣡री꣯तो꣯षिञ्च꣢ता꣯सुत꣡म्॥ सो꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢विः꣡॥ द꣢धन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ सुषा꣯वसो꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡। हा꣥उहाउहाउवा॥ ए꣢ऽ᳐३। म꣢म꣡द्रिभी꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-२०। प-१९। मा-२३॥ १४ (भि) ९६७॥
५१२-१५। महायौधाजयम्॥ युधाजिद्बृहती सोमः॥
हा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥। हा꣢उवा। प꣡री꣯तो꣯ षिञ्च꣢ता꣯सुत꣡म्॥ सो꣯मो꣰꣯ऽ२य꣡उत्त꣢मꣳ꣡ह꣢विः꣡॥ द꣢धन्वाꣳ꣡꣯यो꣯नर्यो꣰꣯ऽ२प्सु꣡वन्त꣢रा꣡꣯॥ सुषा꣯वसो꣯ममा। हा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥। हा꣢उवा᳐ ऽ३॥ द्रा꣢ऽ३इभी꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-११। प-१३। मा-१३॥ १५ (गिं) ९६८॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢। ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥ 27:0513 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ सो॑म सुवा॒नो अद्रि॑भिस्ति॒रो वारा॑ण्य॒व्यया॑ ।
जनो॒ न पु॒रि च॒म्वो॑र्विश॒द्धरिः॒ सदो॒ वने॑षु दधिषे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ। सो꣣म। स्वानः꣢। अ꣡द्रि꣢꣯भिः। अ। द्रि꣣भिः। तिरः꣢। वा꣡रा꣢꣯णि। अ꣣व्य꣡या꣢। ज꣡नः꣢꣯। न। पु꣣रि꣢। च꣣म्वोः꣢꣯। वि꣣शत्। ह꣡रिः꣢꣯। स꣡दः꣢꣯। व꣡ने꣢꣯षु। द꣣ध्रिषे। ५१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा को सम्बोधित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) परमात्मरूप सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूप यज्ञिय सिलबट्टों से (आ स्वानः) अभिषुत होता हुआ तू (अव्यया वाराणि तिरः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के समान शुद्धचित्तवृत्तियों से छनकर क्षरित होता है। शुद्ध चित्तवृत्तिरूप दशापवित्रों से क्षरित (हरिः) दुःख पाप आदि का हर्ता वह रसागार परमेश्वर (चम्वोः) अधिषवणफलकों के तुल्य बुद्धि और मन में (विशत्) प्रवेश करता है, (जनः न) जैसे मनुष्य (पुरि) नगरी में प्रवेश करता है। तदनन्तर हे परमात्म-सोम ! तू (वनेषु) प्राणों में (सदः) स्थिति को (दध्रिषे) धारण करता है ॥३॥ इस मन्त्र में ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ में उपमालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे यज्ञिय सिलबट्टों से अभिषुत, भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्रों द्वारा क्षारित सोमलता का रस द्रोणकलशों में प्रविष्ट होकर जल से मिल जाता है, वैसे ही आनन्दरसागार परमेश्वर जब ध्यानों द्वारा अभिषुत, शुद्ध चित्तवृत्तियों से क्षारित और बुद्धि तथा आत्मा में प्रविष्ट होकर प्राणों में अभिव्याप्त हो जाता है, तभी साधक की उपासना सफल होती है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा सम्बोध्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) परमात्म-सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः अभिषवपाषाणैः (आ स्वानः) आसूयमानः त्वम् (अव्यया वाराणि तिरः) अविबालजनितदशापवित्रमध्यादिव शुद्धचित्तवृत्तिमध्यात् क्षरितो भवसि। अविभ्यो जातानि अव्यानि। ‘सुपां सुलुक्०’ इति द्वितीयाबहुवचनस्य याऽऽदेशे ‘अव्यया’ इति। अथ परोक्षकृतमाह। शुद्धचित्तवृत्तिरूपदशापवित्रमध्यात् क्षरितः (हरिः) दुःखपापादिहर्ता स रसागारः परमेश्वरः (चम्वोः) अधिषवणफलकयोरिव बुद्ध्यात्मनोः (विशत्) निविशति, (जनः न) मनुष्यो यथा (पुरि) नगर्यां विशति तद्वत्। अथ पुनः प्रत्यक्षकृतमाह। ततश्च हे सोम परमात्मन् ! त्वं (वनेषु) उदकेषु, अम्मयेषु प्राणेषु। वनमित्युदकनाम। निघं० १।१२। आपो वै प्राणाः। श० ३।८।२।४। (सदः) स्थितिम् (दध्रिषे) धारयसि। डुधाञ् धारणपोषणयोः। लडर्थे लिटि सिपि दधिषे इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः ॥३॥ अत्र ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ इत्यत्रोपमा ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा ग्रावभिरभिषुतोऽविबालमयैर्दशापवित्रैः क्षारितः सोमौषधिरसो द्रोणकलशयोः प्रविष्टो जलेन मिश्रितो जायते तथैवानन्दरसागारः परमेश्वरो यदा ध्यानैरभिषुतः शुद्धचित्तवृत्तिभिः क्षारितः बुद्ध्यात्मनोः प्रविष्टः सन् प्राणानभिव्याप्नोति तदैव साधकस्योपासना सफलीभवति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१० ‘स्वानो, दध्रिषे’ इत्यत्र क्रमेण ‘सुवानो, दधिषे’ इति पाठः। साम० १६८९।
27_0513 आ सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१३-१। आश्वानि चत्वारि॥ चतुर्णामश्वो बृहत्यश्वः ईश्वरो वा॥
आ꣣ऽ२३४सो꣥॥ म꣢स्वा꣯नो꣯ऽ३आ꣡। द्राइभा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। ति꣢रो꣡꣯वा꣯रा꣰꣯ऽ२ णिअव्य꣡याऽ२३। जा꣡ना꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। ना꣡पा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। रि꣡चमुवो꣰꣯ऽ२र्विश द्ध꣡रीऽ२३ः॥
27_0513 आ सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१३-२। सोम साम॥
हा꣥꣯वा꣯सो꣯मस्वा॥ नो꣢अ᳐द्रा꣣ऽ२३४इभीः꣥। ति꣢रो᳐वा꣣ऽ२३४रा꣥। णि꣢या᳐ऽ३१ उवाऽ२३। व्याऽ२३४या꣥॥ ज꣢नो᳐ना꣣ऽ२३४पू꣥॥ रा꣢इचा᳐मू꣣ऽ२३४वोः꣥। वि꣢शा᳐ ऽ३१उवाऽ२३। हाऽ२३४रीः꣥॥ स꣢दो᳐वा꣣ऽ२३४ने꣥॥ षु꣢दा᳐ऽ३१उवाऽ२३॥ ध्रीऽ २३४षे꣥॥
27_0513 आ सोम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१३-३।
आ꣤꣯सो꣥꣯मस्वा꣯नो꣤꣯अद्रि꣥भा꣤इः॥ ति꣢रो꣡꣯वा꣯रा꣯णिआव्या꣢ऽ१याऽ᳒२᳒। ज꣡नो꣯नपुरि चामू꣢ऽ१वोऽ᳒२ः᳒। विशा꣡द्धा꣢ऽ१रीऽ२ः᳐॥ स꣣दो꣯व꣢ना꣡इ॥ षूऽ२᳐द꣣ध्रि꣢षो꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
27_0513 आ सोम - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१३-४।आ꣣꣯सो꣤꣯मस्वा꣯नो꣣꣯अद्रि꣤भिः꣥। तिरो꣯वा꣢ऽ᳐३रा꣤꣯णि꣥अ꣤व्यया꣥॥ ज꣡नो꣯नपुरिचमुवो꣯ र्वि꣢श꣡द्धरिः। औऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। हो꣭ऽ३वा꣢॥ स꣡दो꣯वने꣯षु꣢दौऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। हो꣭ऽ३वा꣢॥ ध्रिषा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-१०। प-१३। मा-७॥ १९ (वे) ९७२॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡ सो꣢म दे꣣व꣡वी꣢तये꣣ सि꣢न्धु꣣र्न꣡ पि꣢प्ये꣣ अ꣡र्ण꣢सा। अ꣣ꣳशोः꣡ पय꣢꣯सा मदि꣣रो꣡ न जागृ꣢꣯वि꣣र꣢च्छा को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥ 28:0514 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र सो॑म दे॒ववी॑तये॒ सिन्धु॒र्न पि॑प्ये॒ अर्ण॑सा ।
अं॒शोः पय॑सा मदि॒रो न जागृ॑वि॒रच्छा॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। सो꣣म। दे꣡व꣢वीतये। दे꣣व꣢। वी꣣तये। सि꣡न्धुः꣢꣯। न। पि꣣प्ये। अ꣡र्ण꣢꣯सा। अँ꣣शोः꣢। प꣡य꣢꣯सा। म꣣दिरः꣢। न। जा꣡गृ꣢꣯विः। अ꣡च्छ꣢꣯। को꣡श꣢꣯म्। म꣣धुश्चु꣡त꣢म्। म꣣धु। श्चु꣡त꣢꣯म्। ५१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में जीवात्मा को प्रेरणा दी गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) जीवात्मन् ! (देववीतये) दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए, तू (अर्णसा) जल से (सिन्धुः न) महानदी के समान (अर्णसा) ज्ञानरस से (प्र पिप्ये) वृद्धि को प्राप्त कर। (अंशोः) बादल के (पयसा) जल से (मदिरः न) हर्ष को प्राप्त किसान के समान (जागृविः) जागरूक होकर (मधुश्चुतम्) आनन्द को प्रवाहित करनेवाले (कोशम्) आनन्दरस के खजाने परमात्मा के (अच्छ) अभिमुख हो। जैसे किसान जागरूक होकर धान्यरूप मधु के उत्पादक खेत के अभिमुख होता है, यह अभिप्राय है ॥४॥ इस मन्त्र में ‘सिन्धुर्न’ और ‘मदिरो न’ इस प्रकार दो उपमाओं की संसृष्टि है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे बड़ी नदी वर्षा के जल से बढ़ जाती है, वैसे ही मनुष्य ज्ञानरस से बढ़े। जैसे वर्षा से तृप्त किसान जागरूक रहकर खेत से फसल प्राप्त करने का यत्न करता है, वैसे ही मनुष्य ज्ञानरस से तृप्त होकर निरन्तर जागरूक रहकर भक्ति द्वारा परमात्मा के पास से आनन्दरस पाने का प्रयत्न करे ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जीवात्मानं प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) जीवात्मन् ! (देववीतये) दिव्यजीवनस्य प्राप्तये। देवस्य दिव्यजीवनस्य वीतिः प्राप्तिः तस्यै। अयं शब्दो दासीभारादिषु पठितव्यः। तेन अ० ६।२।४२ इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। त्वम् (अर्णसा) जलेन (सिन्धुः न) महानदी इव (अर्णसा) ज्ञानरसेन (प्र पिप्ये) आप्यायस्व। ओप्यायी वृद्धौ धातोर्लोडर्थे लिटि रूपम्। पुरुषव्यत्ययः. ‘लिड्यङोश्च’ अ० ६।१।२९ इति प्यायः पी आदेशः। (अंशोः) पर्जन्यस्य (पयसा) जलेन (मदिरः न) हृष्टः कृषीवलः इव (जागृविः) जागरूकः सन् (मधुश्चुतम्) आनन्दस्राविणम् (कोशम्) आनन्दरसस्य निधिं परमात्मानम् (अच्छ) अभिमुखो भव। यथा कृषीवलो जागरूको भूत्वा मधुश्चुतं सस्योत्पादकं कोशं भूक्षेत्रमभिमुखो जायते तद्वदित्यर्थः ॥४॥ अत्र ‘सिन्धुर्न’ ‘मदिरो न’ इत्युभयोरुपमयोः संसृष्टिः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा महानदी वृष्टिपूरेण वर्धते तथा मनुष्यो ज्ञानरसेन वर्धेत। वृष्ट्या तृप्तः कर्षको यथा जागरूकः सन् क्षेत्रात् सस्यसम्पदं प्राप्तुं यतते तथा मनुष्यो ज्ञानरसेन तृप्तः सततं जागरूको भूत्वा भक्त्या परमात्मनः सकाशानन्दरसं प्राप्तुं प्रयतेत ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।१२, साम० ७६७।
28_0514 प्र सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१४-१। त्रिणिधनमाग्नेयम्॥ अग्निर्बृहती सोमः॥
प्र꣥सो꣯मदा। वा꣢वी᳐ता꣣ऽ२३४या꣥इ। सि꣢न्धू꣡र्नापाइप्य꣢आ᳐ऽ३१उवाऽ२३। णाऽ २३४सा꣥। आꣳ꣢शोᳲ᳐पा꣣ऽ२३४या꣥॥ सा꣢꣯म꣡दाइरो꣯न꣢जा᳐ऽ३१उवाऽ२३। गॄऽ२३४ वीः꣥॥ आ꣢च्छा᳐को꣣ऽ२३४शा꣥म्॥ म꣢धा᳐ऽ३१उवाऽ२३॥ श्चूऽ२३४ता꣥म्॥
28_0514 प्र सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१४-२।
प्र꣣सो꣤꣯म꣥दे꣯व꣤वी꣥꣯। त꣣योऽ२३४हा꣥इ॥ सि꣣न्धु꣤र्न꣣पि꣤प्ये꣥꣯अ। ण꣣सोऽ२३४हा꣥इ॥ आꣳ꣡शा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। पा꣡या꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ सा꣤꣯मदिरो꣣꣯न꣤जा꣥꣯। गॄ꣣ऽ२३४। वी꣥ऽ६ र्हा꣥इ॥ आ꣡च्छा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। को꣡शा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ म꣤धूऽ५श्चुताम्। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
28_0514 प्र सोम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१४-३। द्विहिङ्कारं वामदेव्यम्॥ वामदेवो बृहती सोमः॥
प्र꣢सो꣡꣯माऽ२३दे꣤꣯ववी꣥꣯तयाइ॥ सा꣡इन्धुर्नपिप्ये꣯अर्णसाꣳ꣯शोᳲ꣯पयसा꣯मदिरो न꣢जौ꣣꣯हो꣢ऽ३᳐। हि꣡म्माऽ᳒२᳒। गॄ꣡ऽ२३वीः꣢॥ अ꣡च्छा꣯को꣯शाम्म꣢धौ꣣꣯हो꣢ऽ३᳐। हि꣡म्माऽ᳒२᳒॥ श्चुता꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-११। प-१०। मा-६॥ २२ (ङू) ९७५॥
28_0514 प्र सोम - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५१४-४। उत्सेधः॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥
प्र꣣सो꣤꣯मदे꣯व꣣वी꣤꣯त꣥ये꣯। सिन्धुः। न꣣पा꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ प्ये꣢꣯अ꣡र्णसाऽ२꣮। हा᳐ऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ᳐३४पा꣥॥ अꣳ꣣शो꣢ऽ३ᳲप꣤या। औ꣥꣯हो꣤वाहा꣥इ॥ सा꣡मदि꣢रो꣡। न꣢जा꣯गॄ꣡विः꣢। हा᳐ऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ᳐३४पा꣥॥ अ꣣च्छा꣢ऽ३को꣤꣯शम्। औ꣥꣯हो꣤वाहा꣥इ॥ म꣣धू꣢ऽ३᳐श्चू꣤ऽ५ताऽ६५६म्॥ ऊ꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
28_0514 प्र सोम - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
५१४-५। निषेधः॥ अङ्गिरसो बृहती सोमः॥प्र꣥सो꣯मदा꣯इवाऽ६वी꣥꣯तयाइ॥ सि꣢न्धू꣡र्न꣢पा꣡इ। प्ये꣢꣯अर्ण꣡साऽ᳒२᳒। इ꣡हा꣢ऽ᳐३॥ आꣳ꣡शो꣢ऽ᳐३ᳲपा꣤या꣥। हा꣢᳐हो꣣ऽ२३४हा꣥॥ सा꣡मदि꣢रो꣡। न꣢जा꣯गॄ꣡ऽ२३वीः꣢। इ꣡हा꣢ऽ᳐३॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सो꣡म꣢ उ ष्वा꣣णः꣢ सो꣣तृ꣢भि꣣र꣢धि꣣ ष्णु꣢भि꣣र꣡वी꣢नाम्। अ꣡श्व꣢येव ह꣣रि꣡ता꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या म꣣न्द्र꣡या꣢ याति꣣ धा꣡र꣢या ॥ 29:0515 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोम॑ उ षुवा॒णः सो॒तृभि॒रधि॒ ष्णुभि॒रवी॑नाम् ।
अश्व॑येव ह॒रिता॑ याति॒ धार॑या म॒न्द्रया॑ याति॒ धार॑या ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सो꣡मः꣢꣯। उ꣣। स्वानः꣢। सो꣣तृ꣡भिः꣢। अ꣡धि꣢꣯। स्नु꣡भिः꣢꣯। अ꣡वी꣢꣯नाम्। अ꣡श्व꣢꣯या। इ꣣व꣢। हरि꣡ता꣢। या꣣ति। धा꣡र꣢꣯या। म꣣न्द्र꣡या꣢। या꣣ति। धा꣡र꣢꣯या। ५१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोमरस अथवा आनन्दरस किस प्रकार प्रवाहित होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—सोमरस के पक्ष में। (सोतृभिः) सोम-रस निचोड़नेवाले मनुष्यों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊँचे उठाये दशापवित्रों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) सोम ओषधि का रस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) द्रोणकलश में जाता है ॥ द्वितीय—अध्यात्मपक्ष में। (सोतृभिः) परमात्मा के पास से आनन्दरस को अभिषुत करनेवाले उपासकों से (अवीनां स्नुभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित ऊपर उठाये दशापवित्रों के तुल्य मन की समुन्नत सात्त्विक वृत्तियों द्वारा (अधिष्वाणः) अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) आनन्दरस (अश्वया इव) घोड़ी के समान (हरिता) वेगवती (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा को प्राप्त होता है, (मन्द्रया) हर्षकारिणी (धारया) धारा के साथ (याति) आत्मा में पहुँचता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। ‘याति धारया’ की पुनरावृत्ति में लाटानुप्रास है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासक लोग जब तल्लीन मन से परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब अपने आत्मा के अन्दर दिव्य आनन्द के धाराप्रवाह का अनुभव करते हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमरस आनन्दरसो वा कथं प्रवहतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सोमरसपरः। (सोतृभिः) सवनकर्तुभिः जनैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः सानुवत् समुच्छ्रितैः दशापवित्रैः (अधिष्वाणः) अधिषूयमाणः (सोमः) सोमौषधिरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या। हरिता हरितया ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं प्राप्नोति, (मन्द्रया) मदकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) द्रोणकलशं गच्छति ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः (सोतृभिः) परमात्मनः सकाशाद् आनन्दरसं सुन्वद्भिः उपासकैः (अवीनां स्नुभिः) अविबालनिर्मितैः समुच्छ्रितैः दशापवित्रैरिव समुच्छ्रिताभिः मनसां सात्त्विकवृत्तिभिः (अधिष्वाणः) अभिषूयमाणः (सोमः) आनन्दरसः (अश्वया इव) वडवया इव (हरिता) वेगवत्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानं प्राप्नोति, (मन्द्रया) हर्षकारिण्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (याति) आत्मानमुपगच्छति ॥५॥ अत्र श्लेष उपमा चालङ्कारः, ‘याति धारया’ इत्यस्य पुनरावृत्तौ च लाटानुप्रासः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासका यदा तल्लीनेन मनसा परमात्मानं ध्यायन्ति तदा स्वात्मनि दिव्यानन्दधारासम्पातमनुभवन्ति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।८ ‘ष्वाणः’ इत्यत्र ‘षुवाणः’ इति पाठः। साम० ९९७।
29_0515 सोम उ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१५-१। सोम सामानि षट्॥ षण्णां सोमो बृहती सोमः॥
हा꣤उसोमाः꣥॥ उ꣢ष्वा꣯णऽ᳐३स्सो꣡तॄ꣢ऽ१भीऽ᳒२ः᳒। आ꣡धि꣢ष्णु꣡भि꣢र꣡वी꣰꣯ऽ२ना꣯म्। आ꣡श्वौ꣭ऽ३हो꣢॥ ये꣡꣯वहरिता꣯या꣯ता᳐इधा꣢ऽ१रायाऽ᳒२᳒॥ म꣡न्द्राया꣢ऽ᳐३या꣢ऽ३४। हा꣥꣯ओ꣤वा꣥॥ ति꣢धा꣡꣯रया꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
29_0515 सोम उ - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५१५-२।
सो꣥꣯मऊ꣢ऽ᳐३ष्वा꣤꣯ण꣥स्सो꣤꣯तृभा꣥इः॥ आ꣡धिष्णु꣢भिरवी꣯ना꣯म्। आ꣡श्व꣪येऽ२३४वा꣥। ह꣢रि꣡ता꣯या꣯तिधा꣢ऽ१रा꣢ऽ३या꣢॥ मन्द्रा᳐या꣣ऽ२३४या꣥॥ ता꣣ऽ२३४इधा꣥। र꣢या꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-७। प-१०। मा-६॥ २६ (ञू) ९७९॥
29_0515 सोम उ - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५१५-३।
सो꣤꣯म꣥उष्वा꣯ण꣤स्सो꣥꣯तृ꣤भिः꣥। ए꣤ऽ५। अ꣤धी॥ ष्णु꣡भि꣢राऽ᳐३१उवाऽ२३। वीऽ२३४ ना꣥म्॥ आ꣡ऽ२३श्वा꣢॥ ये꣡꣯वहरिता꣯या꣯ति꣢धाऽ३᳐१उवाऽ२३। राऽ२३४या꣥॥ मा꣡ऽ २३न्द्रा꣢॥ या꣡या꣯ति꣢धाऽ᳐३१उवाऽ२३॥ राऽ२३४या꣥॥ दी-७। प-११। मा-६॥ २७ (चू) ९८०॥
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लिखितम्
५१५-४।
सो꣤꣯म꣥उष्वा꣯ण꣤स्सो꣥꣯तृ꣤भिः꣥। ए꣤ऽ५। अ꣤धी॥ ष्णु꣡भि꣢र꣡वी꣰꣯ऽ२। ना꣡म्। आश्वये꣢꣯व। हा꣡रि꣪तायाऽ᳒२᳒। ता꣡इधा꣯र꣢या꣯। मा꣡न्द्रयायौ꣢वा᳐॥ ती꣣ऽ२३४धा꣥। र꣢या꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-७। प-१४। मा-५॥ २८ (झु) ९८१॥
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लिखितम्
५१५-५।सो꣤꣯म꣥उष्वा꣯ण꣤स्सो꣥꣯तृ꣤। भाइ। अधि꣥ष्णु꣤भि꣥र꣤वी꣥꣯। नाम्॥ अ꣡धि꣢ष्णु꣡भि꣢ र꣡वी꣰꣯ऽ२। ना꣡म्। अश्वये꣯वा। ह꣢रि꣡ता꣯या꣯ताऽ२३इधा꣢। रयाऽ३१उवाऽ२३॥ माऽ २३४न्द्रा꣥॥ या꣢या᳐ती꣣ऽ२३४धा꣥॥ र꣣या꣢᳐औ꣣꣯हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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लिखितम्
५१५-६।
सो꣣꣯म꣤उष्वा꣯ण꣣स्सो꣤꣯तृभिः꣥। औ꣭ऽ३हो꣢᳐ऽ३इ। आ꣡ऽ२३४। धिष्णुभि꣥र꣤वी꣥꣯नाम्॥ आ꣡श्वये꣢꣯वहरिता꣯या꣯। तिधा꣡रायौ꣢। वाओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ म꣢न्द्र꣡या꣯याती꣢᳐ऽ३धा꣢॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ᳐३४३। रा꣢ऽ३४५यो"ऽ६हा꣥इ॥