[[अथ चतुर्दशप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
[[अथ चतुर्थः खण्डः]]
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अ꣡चि꣢क्रद꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रि꣢र्म꣣हान्मि꣣त्रो꣡ न द꣢꣯र्श꣣तः꣢। स꣡ꣳ सूर्ये꣢꣯ण दिद्युते ॥ 11:0497 ॥
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अचि॑क्रद॒द्वृषा॒ हरि॑र्म॒हान्मि॒त्रो न द॑र्श॒तः ।
सं सूर्ये॑ण रोचते ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡चि꣢꣯क्रदत्। वृ꣡षा꣢꣯। ह꣡रिः꣢꣯। म꣣हा꣢न्। मि꣣त्रः꣢। मि꣣। त्रः꣢। न। द꣣र्शतः꣢। सम्। सू꣡र्ये꣢꣯ण। दि꣣द्युते। ४९७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृषा) मनोरथों को पूर्ण करनेवाला, (हरिः) पापहारी सोम परमेश्वर, सबके हृदयों में स्थित हुआ (अचिक्रदत्) शब्द कर रहा है अर्थात् उपदेश व सत्प्रेरणा दे रहा है। (महान्) महान् वह (मित्रः न) मित्र के समान (दर्शतः) दर्शनीय है। वही (सूर्येण) सूर्य से (सम्) संगत हुआ (दिद्युते) प्रकाशित हो रहा है। कहा भी है—‘जो वह आदित्य में पुरुष है, वह मैं ही हूँ’, य० ४०।१७ ॥१॥ इस मन्त्र में ‘अचिक्रदत् वृषा’ यहाँ पर शब्दशक्तिमूलक ध्वनि से ‘वर्षा करनेवाला बादल गर्ज रहा है’ यह दूसरा अर्थ भी सूचित होकर बादल और सोम परमात्मा में उपमानोपमेयभाव को ध्वनित कर रहा है, इसलिए उपमाध्वनि है। ‘मित्रो न दर्शतः’ में वाच्या पूर्णोपमा है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो सूक्ष्मदर्शी लोग हैं, वे सूर्य, पर्जन्य आदि में परमेश्वर के ही दर्शन करते हैं, क्योंकि ताप, प्रकाश, जल बरसाने आदि की सब शक्ति उसी की दी हुई है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृषा) कामवर्षकः (हरिः) पापहर्ता सोमः परमेश्वरः, सर्वेषां हृदि स्थितः सन् (अचिक्रदत्) शब्दायते, उपदिशति, सत्प्रेरणां करोति। क्रदि आह्वाने रोदने च, क्रद इत्येके, स्वार्थे णिचि, लुङि रूपम्। (महान्) महत्त्वोपेतः सः (मित्रः न) सुहृदिव (दर्शतः) दर्शनीयः अस्ति। स एव (सूर्येण) आदित्येन (सम्) संगतः सन् (दिद्युते) प्रकाशते, ‘यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑षः॒ सो᳕ऽसाव॒हम्’ य० ४०।१७ इति श्रुतेः ॥१॥२ ‘अचिक्रदद् वृषा’ इत्यत्र शब्दशक्तिमूलेन ध्वनिना ‘वर्षकः पर्जन्यो गर्जति’ इति द्वितीयेऽप्यर्थे द्योतिते सति पर्जन्यसोमयोरुपमानोपमेयभावो व्यज्यते, तेनोपमाध्वनिः। ‘मित्रो न दर्शतः’ इत्यत्र च वाच्या पूर्णोपमा ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये सूक्ष्मदर्शिनः सन्ति ते सूर्यपर्जन्यादौ परमेश्वरमेव साक्षात्कुर्वते, यतस्तत्र सर्वा तापप्रकाशजलवर्षणादिशक्तिस्तत्प्रदत्तैवास्ते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।२।६, य० ३८।२२ ऋषिः दीर्घतमाः, ‘सं सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः’ इति पाठः, परोष्णिक् छन्दः। साम० १०४२। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्युदग्निपक्षे व्याख्यातवान्।
11_0497 अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९७-१। वार्षाहरम्॥ वृषाहरिर्गायत्री सूर्यः॥
अ꣢चिक्रदाऽ३त्। आ꣡चिक्रदा꣢ऽ३त्। अ꣤चिक्रदाऽ५दे॥ वृ꣢षा꣯हराऽ३इ। वा꣡र्षा꣯हरा꣢ऽ३इ। वृ꣤षा꣯हराऽ५ए। म꣢हा꣯न्मित्राऽ३ः। मा꣡हा꣯न्मित्रा꣢ऽ३ः। म꣤हा꣯ न्मित्राऽ५ए॥ न꣢दर्शताऽ३ः। ना꣡दर्शता꣢ऽ३ः। न꣤दर्शताऽ५ए॥ सꣳ꣢सू꣯रिया ऽ३इ। साꣳ꣡सू꣯रिया꣢ऽ३इ। सꣳ꣤सू꣯रियाऽ५ए। ण꣢दिद्युताऽ३इ। णा꣡दिद्युता꣢ऽ३इ। ण꣤दाऽ५इद्युताउ॥ वा॥
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आ꣢ ते꣣ द꣡क्षं꣢ मयो꣣भु꣢वं꣣ व꣡ह्नि꣢म꣣द्या꣡ वृ꣢णीमहे। पा꣢न्त꣣मा꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥ 12:0498 ॥
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आ ते॒ दक्षं॑ मयो॒भुवं॒ वह्नि॑म॒द्या वृ॑णीमहे ।
पान्त॒मा पु॑रु॒स्पृह॑म् ॥
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पदपाठः
आ꣢। ते꣣। द꣡क्ष꣢꣯म्। म꣣योभु꣡व꣢म्। म꣣यः। भु꣡व꣢꣯म्। व꣡ह्नि꣢꣯म्। अ꣣द्य꣢। अ꣣। द्य꣢। वृ꣣णीमहे। पा꣡न्त꣢꣯म्। आ। पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म्। पु꣣रु। स्पृ꣡ह꣢꣯म्। ४९८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से बल की प्रार्थना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम, हे पवित्रतादायक आनन्दरसमय परमात्मन् ! हम (ते) आपके (मयोभुवम्) सुखदायक, (वह्निम्) लक्ष्य की ओर ले जानेवाले, (पान्तम्) रक्षक, (पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य (दक्षम्) बल को (अद्य) आज (आ वृणीमहे) स्वीकार करते हैं ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा से जो बल और शुभकर्मों में उत्साह प्राप्त होता है, उससे सुख, लक्ष्यपूर्ति और रक्षा की वृद्धि होती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानं बलं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम ! पवित्रतादायक आनन्दरसमय परमात्मन् ! वयम् (ते) तव (मयोभुवम्) सुखदायकम्, (वह्निम्) लक्ष्यं प्रति वाहकम्, (पान्तम्) रक्षकम्, (पुरुस्पृहम्) बहु स्पृहणीयम् (दक्षम्) बलम्। दक्ष इति बलनाम। निघं० २।९। (अद्य) अस्मिन् दिने। संहितायां निपातत्वाद् दीर्घश्छान्दसः। (आ वृणीमहे) स्वीकुर्महे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मनः सकाशाद् यद् बलं शुभकर्मसूत्साहश्च प्राप्यते, तेन सुखं लक्ष्यपूर्ती रक्षा च वर्धते ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६५।२८, ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। साम० ११३७।
12_0498 आ ते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९८-१। वार्शाणि त्रीणि॥ त्रयाणां वृशोगायत्री सोमः॥
आ꣥꣯ते꣯दक्षाम्॥ म꣢यो꣡भू꣢ऽ३वा꣢म्। व꣡ह्नि꣢म। द्या꣡। वृ꣪णीऽ२᳐मा꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ पा꣡न्तमा꣢ऽ३। ई꣭ऽ३या꣢॥ पुरू꣡ऽ२३। स्पॄ꣡ऽ२᳐हा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
12_0498 आ ते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४९८-२।
आ꣢ते᳐दा꣣ऽ२३४क्षा꣥म्। मा꣢यो᳐भू꣣ऽ२३४वा꣥म्॥ व꣣ह्नि꣤मद्या꣣꣯वृ꣤णी꣥꣯। म꣣होऽ २३४हा꣥इ॥ पा꣡न्ता꣢ऽ३मा꣢ऽ३। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३॥ पू꣡ऽ२᳐रू꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ स्पॄ꣣ऽ २३४हा꣥म्॥ दी-४। प-८। मा-५॥ ३ (दु) ९२०॥
12_0498 आ ते - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४९८-३।आ꣣꣯ते꣤꣯द꣣क्ष꣤म्म꣥यः। भु꣣वोऽ२३४हा꣥इ॥ व꣣ह्नि꣤मद्या꣣꣯वृ꣤णी꣥꣯। म꣣होऽ२३४हा꣥इ॥ पा꣡न्ता꣢ऽ१माऽ᳒२᳒॥ पू꣡रुस्पृ꣢हम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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अ꣡ध्व꣢र्यो꣣ अ꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣡ न꣢य। पु꣣नीही꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे ॥ 13:0499 ॥
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अध्व॑र्यो॒ अद्रि॑भिः सु॒तं सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज ।
पु॒नी॒हीन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥
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पदपाठः
अ꣡ध्व꣢꣯र्यो। अ꣡द्रि꣢꣯भिः। अ। द्रि꣣भिः। सुत꣢म्। सो꣡म꣢꣯म्। प꣣वि꣡त्रे꣢। आ। न꣣य। पुनाहि꣢। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। पा꣡त꣢꣯वे। ४९९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- उचथ्य आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में अध्वर्यु को प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अध्वर्यो) यज्ञविधि के निष्पादक अध्वर्यु नामक ऋत्विज् के समान ज्ञानयज्ञ को निष्पन्न करनेवाले मानव ! तू (अद्रिभिः) सिलबट्टों के सदृश ज्ञानेन्द्रियों से (सुतम्) अभिषुत (सोमम्) सोम ओषधि के रस के सदृश ज्ञानरस को (पवित्रे) दशापवित्र के सदृश मन में (आ नय) ला, उस ज्ञान-रूप सोम-रस को (इन्द्राय पातवे) जीवात्मा के पान के लिए (पुनाहि) मनन द्वारा शुद्ध कर ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेष से अभिहित भौतिक सोमपरक द्वितीय अर्थ उपमान-भाव में परिणत हो रहा है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे यज्ञ में पीसने के साधन सिल-बट्टों से अभिषुत सोम दशापवित्र द्वारा छानकर ही पिया और पिलाया जाता है, वैसे ही ज्ञानार्जन की साधनभूत ज्ञानेन्द्रियों से अर्जित ज्ञान को मन से मनन द्वारा शुद्ध करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथाध्वर्युं प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अध्वर्यो) य़ज्ञविधिनिष्पादकोऽध्वर्युरिव ज्ञानयज्ञस्य निष्पादक मानव ! त्वम् (अद्रिभिः) अभिषवणपाषाणैरिव ज्ञानेन्द्रियैः (सुतम्) अभिषुतम् (सोमम्) सोमौषधिरसमिव ज्ञानरसम् (पवित्रे) दशापवित्रे इव मनसि (आनय) आदत्स्व, तं ज्ञानरूपं सोमरसम् (इन्द्राय पातवे) जीवात्मनः पानाय (पुनाहि) पुनीहि, मननद्वारा शोधय। अत्र ‘वा छन्दसि।’ अ० ६।४।८८ इति हेरपित्त्वविकल्पनाद् अपित्त्वाभावे ङिद्वत्त्वस्याप्यभावाद् ईत्वं न भवति ॥३॥२ अत्र श्लेषेणाभिहितो भौतिकसोमपरो द्वितीयोऽर्थ उपमानत्वे पर्यवस्यति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा यज्ञे पेषणसाधनैः पाषाणैरभिषुतः सोमो दशापवित्रद्वारा संशोध्यैव पीयते पाय्यते च तथैव ज्ञानार्जनसाधनैर्ज्ञानेन्द्रियैरर्जितं ज्ञानं मनसा मननद्वारा संशोधनीयम् ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।५१।१ ‘आ सृज’, ‘पुनीहीन्द्राय’ इति पाठः। य० २०।३१ देवता इन्द्रः, ऋषिः प्रजापतिः, ‘पुनीहीन्द्राय’ इति पाठः। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सोमवल्ल्याद्योषधिसारविषये व्याख्यातवान्। तथा हि तत्र तत्कृतो भावार्थः—“वैद्यराजैः शुद्धदेशोत्पन्नौषधिसारान् निर्मायैतद्दानेन सर्वेषां रोगनिवृत्तिः सततं कार्या” इति।
13_0499 अध्वर्यो अद्रिभिः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९९-१। वैरूपे द्वे॥ द्वयोरिन्द्रो गायत्री सोमः॥
अ꣢ध्व꣡र्योऽ२३४आ꣥॥ द्रि꣢भा꣡इस्सू꣢ऽ३ता꣢ऽ३म्। सो꣡꣯माऽ२᳐म्पा꣣ऽ२३४वी꣥। त्रा꣡आ꣢ऽ१नायाऽ᳒२᳒॥ पु꣡नाऽ२३॥ ही꣯न्द्रा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢पा꣡꣯त꣢वे꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
13_0499 अध्वर्यो अद्रिभिः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४९९-२।
अ꣤ध्व꣥र्यौ꣯। हो꣤अद्री꣥॥ भि꣢स्सुत꣡म्। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢ऽ३। सो꣡꣯माऽ२᳐ म्पा꣣ऽ२३४वी꣥। ओ꣡त्राआ꣢ऽ१नायाऽ᳒२᳒॥ पु꣡नाऽ२३॥ हा꣡ऽ२᳐इन्द्रा꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢पा꣡꣯त꣢वे꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्यान्ध꣢꣯सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥ 14:0500 ॥
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तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति॒ धारा॑ सु॒तस्यान्ध॑सः ।
तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
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पदपाठः
त꣡र꣢꣯त्। सः। म꣣न्दी꣢। धा꣣वति। धा꣡रा꣢꣯। सु꣣त꣡स्य꣢। अ꣡न्ध꣢꣯सः। त꣡र꣢꣯त्। सः। म꣣न्दी꣢। धा꣣वति। ५००।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अवत्सारः काश्यपः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब सोम के धाराप्रवाह से क्या फल प्राप्त होता है, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुतस्य) आचार्य के अथवा परमात्मा के पास से अभिषुत (अन्धसः) ज्ञान और कर्म के रस की अथवा आनन्द-रस की (धारा) धारा से (मन्दी) तृप्त हुआ (सः) वह आत्मा (तरत्) दुःख, विघ्न, विपत्ति आदि के सागर को पार कर लेता है, और (धावति) ऐहलौकिक लक्ष्य की ओर वेग से अग्रसर होने लगता है। (मन्दी) ज्ञान और कर्म के रस वा आनन्दरस की धारा से तृप्त हुआ (सः) वह आत्मा (तरत्) दुःखादि के सागर को पार कर लेता है, और (धावति) पारलौकिक लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होने लगता है ॥४॥ इस मन्त्र में ‘तरत् स मन्दी धावति’ की पुनरुक्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गुरु के पास से प्राप्त ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड के रस से तथा परमात्मा के पास से प्राप्त आनन्दरस से तृप्त होकर मनुष्य समस्त ऐहलौकिक एवं पारलौकिक उन्नति करने में समर्थ हो जाता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमधाराप्रवाहेण किमाप्यत इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुतस्य) आचार्यसकाशात् परमात्मसकाशाद् वा अभिषुतस्य (अन्धसः) ज्ञानकर्मरसस्य आनन्दरसस्य वा (धारा) धारया। अत्र तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। (मन्दी) तृप्तिमान् (सः) आत्मा (तरत्) तरति दुःखविघ्नविपदादिसागरम्। तरतेर्लेटि रूपम्। (धावति) वेगेन गच्छति च ऐहलौकिकं लक्ष्यं प्रति। (मन्दी) ज्ञानकर्मरसस्य आनन्दरसस्य वा धारया तृप्तः सन् (सः) असौ आत्मा (तरत्) तरति दुःखादिसागरम्, (धावति) वेगेन गच्छति च पारलौकिकं लक्ष्यं मोक्षं प्रति ॥४॥ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याख्यातवान्—“तरति स पापं सर्वं मन्दी यः स्तौति। धावति गच्छति ऊर्ध्वां गतिम्। धारा सुतस्य अन्धसः, धारयाऽभिषुतस्य सोमस्य मन्त्रपूतस्य वाचा स्तुतस्य” इति (निरु० १३।६)। मन्त्रेऽस्मिन् ‘तरत् स मन्दी धावति’ इत्यस्य पुनरुक्तौ लाटानुप्रासोऽलङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गुरोः सकाशात् प्राप्तेन ज्ञानकाण्डरसेन कर्मकाण्डरसेन च, परमात्मनः सकाशात् प्राप्तेनानन्दरसेन च तृप्तः सन् मनुष्यः सर्वामप्यैहिकीं पारलौकिकीं चोन्नतिं कर्तुं शक्नोति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।५८।१, साम० १०५७।
14_0500 तरत्स मन्दी - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५००-१। तरन्तस्य साम॥ तरन्तो गायत्री सोमः॥
त꣥रत्समा॥ दी꣢꣯धा꣡वा꣢ऽ१ताऽ२३इ। धा꣡꣯राऽ२᳐सू꣣ऽ२३४ता꣥॥ स्य꣢आ꣡ऽ२३॥ धा꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ त꣡रत्समन्दी꣯धा꣢꣯वती꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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आ꣡ प꣢वस्व सह꣣स्रि꣡ण꣢ꣳ र꣣यि꣡ꣳ सो꣢म सु꣣वी꣡र्य꣢म्। अ꣣स्मे꣡ श्रवा꣢꣯ꣳसि धारय ॥ 15:0501 ॥
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आ प॑वस्व सह॒स्रिणं॑ र॒यिं सो॑म सु॒वीर्य॑म् ।
अ॒स्मे श्रवां॑सि धारय ॥
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पदपाठः
आ꣢। प꣣वस्व। सहस्रि꣡ण꣢म्। र꣣यि꣢म्। सो꣣म। सुवी꣡र्य꣢म्। सु꣣। वी꣡र्य꣢꣯म्। अ꣣स्मे꣡इति꣢। श्र꣡वाँ꣢꣯सि। धा꣣रय। ५०१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- निध्रुविः काश्यपः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा तथा आचार्य से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) सर्वैश्वर्यवान् जगदीश्वर अथवा विद्वन् आचार्य ! आप हमारे लिए (सहस्रिणम्) सहस्रों की संख्यावाले अथवा प्रचुर, (सुवीर्यम्) शुभ बल से युक्त (रयिम्) ऐश्वर्य को अथवा विद्याधन को (आ पवस्व) प्रवाहित कीजिए, और (अस्मे) हममें (श्रवांसि) यशों को (धारय) स्थापित कीजिए ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की कृपा से हम धन, धान्य, सुवर्ण आदि और सत्य, न्याय, बल, वीर्य आदि सब प्रकार के अपार ऐश्वर्य को तथा आचार्य की कृपा से अपार सद्विद्या एवं सदाचार के धन को प्राप्त करें, जिससे हमारी अधिकाधिक कीर्ति सर्वत्र फैले ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानमाचार्यं च प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) सर्वैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर विद्वन् आचार्य वा ! त्वम् अस्मभ्यम् (सहस्रिणम्) सहस्रसंख्यं प्रचुरं वा (सुवीर्यम्) शोभनवीर्योपेतम् (रयिम्) ऐश्वर्यं विद्याधनं वा (आ पवस्व) प्रवाहय। (अस्मे) अस्मासु। अत्र अस्मच्छब्दात् ‘सुपां सुलुक्।’ अ० ७।१।३९ इति सप्तम्याः शे आदेशः। (श्रवांसि) यशांसि (धारय) स्थापय ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेशकृपया वयं धनधान्यहिरण्यादिकं सत्यन्यायबलवीर्यादिकं च सर्वविधमपारमैश्वर्यम् आचार्यकृपया चापारं सद्विद्यासदाचारधनं प्राप्नुयाम येनास्माकं प्रभूता कीर्तिः सर्वत्र प्रसरेत् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६३।१।
15_0501 आ पवस्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०१-१। सोमसाम॥ सोमा गायत्री सोमः॥
आ꣥꣯पवस्वा॥ स꣢हस्रि꣡णाम्। हुवाइ। हुवाऽ२३हो꣡॥ र꣢यिꣳसो꣡꣯मा। सु꣢वी꣯रि꣡याम्। हुवाइ। हुवाऽ२३हो꣡इ॥ अ꣢स्मे꣯श्र꣡वा। सि꣢धा꣯र꣡या। हुवाइ। हुवाऽ२३हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥ दी-७। प-१४। मा-७॥ ८ (झ्वै) ९२५॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡नु꣢ प्र꣣त्ना꣡स꣢ आ꣣य꣡वः꣢ प꣣दं꣡ नवी꣢꣯यो अक्रमुः । रु꣣चे꣡ ज꣢नन्त꣣ सू꣡र्य꣢म् ॥ 16:0502 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अनु॑ प्र॒त्नास॑ आ॒यवः॑ प॒दं नवी॑यो अक्रमुः ।
रु॒चे ज॑नन्त॒ सूर्य॑म् ॥
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पदपाठः
अ꣡नु꣢꣯। प्र꣣त्ना꣡सः꣢। आ꣣य꣡वः꣢। प꣣द꣢꣯म्। न꣡वी꣢꣯यः। अ꣣क्रमुः। रुचे꣢। ज꣣नन्त। सू꣡र्य꣢꣯म्। ५०२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब यह वर्णन है कि परमात्मा की सहायता से मनुष्य क्या प्राप्त कर लेते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - सोम परमात्मा की सहायता से (प्रत्नासः) ज्ञान की दृष्टि से पुरातन अर्थात् ज्ञानवृद्ध मनुष्य (नवीयः) नवीनतर (पदम्) राजमन्त्री, न्यायाधीश आदि के पद को अथवा मोक्षपद को (अनु अक्रमुः) अनुकूलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं, और (रुचे) प्रकाश के लिए, वे सूर्यम् विद्या के सूर्य को अथवा अध्यात्म के सूर्य को (जनन्त) प्रकट कर देते हैं ॥६॥ इस मन्त्र में ‘बूढ़े जीर्ण लोग नवीन पद को प्राप्त करते हैं’ में नवीन पद की प्राप्ति के हेतु के अभाव में भी उसकी प्राप्ति का वर्णन होने से विभावनालङ्कार ध्वनित हो रहा है। ‘मनुष्य सूर्य को उत्पन्न करते हैं’ में मनुष्यों द्वारा सूर्य का उत्पन्न किया जाना असम्भव होने से सूर्य की विद्या-प्रकाश अथवा अध्यात्म-प्रकाश में लक्षणा है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा की कृपा से और अपने पुरुषार्थ से मनुष्य सांसारिक उच्च से उच्च पद को और परम मुक्तिपद को भी प्राप्त करने तथा राष्ट्र और जगत् में ज्ञान-विज्ञान एवं सदाचार के सूर्य को प्रकट करने में समर्थ हो जाते हैं ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनः साहाय्येन जनाः किं प्राप्नुवन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - सोमस्य परमात्मनः साहाय्येन (प्रत्नासः) प्रत्नाः ज्ञानेन पुराणाः (आयवः) मनुष्याः (नवीयः) नूतनतरम् (पदम्) अमात्यन्यायाधीशत्वादिरूपं मोक्षरूपं वा। तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः। ऋ० १।२२।२० इति श्रुतेः। (अनु अक्रमुः) आनुकूल्येन प्राप्नुवन्ति। (रुचे) प्रकाशाय, ते (सूर्यम्) विद्यासूर्यम् अध्यात्मसूर्यं वा (जनन्त) प्रकटयन्ति। जनी प्रादुर्भावे णिजन्तः, लडर्थे लङ्, अडभावः, णेर्लुक् ॥६॥ अत्र ‘प्रत्नासः वृद्धा जीर्णा जनाः नवीयः पदम् अक्रमुः’ इति नवीनतरपदप्राप्तिहेत्वभावेऽपि तत्प्राप्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारो ध्वन्यते। किञ्च, ‘आयवः मनुष्याः सूर्यं जनन्त’ इत्यत्र मनुष्याणां सूर्यजननासंभवात् सूर्यस्य विद्याप्रकाशेऽध्यात्मप्रकाशे वा लक्षणा ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मनः कृपया स्वपुरुषार्थेन च मनुष्याः सांसारिकमुच्चोच्चपदं परमं मुक्तिपदं चापि प्राप्तुं, राष्ट्रे जगति च ज्ञानविज्ञानस्य सदाचारस्य च सूर्यं जनयितुं क्षमन्ते ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।२३।२, ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा।
16_0502 अनु प्रत्नास - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०२-१। सूर्यसाम॥ सूर्यो गायत्री सोमः॥अ꣥नुप्रत्ना꣯सआ꣯याऽ६वाः꣥॥ प꣢द꣡न्नवी꣯यो꣯अक्रमूः॥ रुचाइज꣪ना॥ ता꣢ऽ३ सू꣢। हि꣡म्माये꣢ऽ३॥ रीऽ२३४या꣥म्॥ दी-४। प-६। मा-६॥ ९ (तू) ९२६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡र्षा꣢ सोम द्यु꣣म꣡त्त꣢मो꣣ऽभि꣡ द्रोणा꣢꣯नि꣣ रो꣡रु꣢वत्। सी꣢द꣣न्यो꣢नौ꣣ व꣢ने꣣ष्वा꣢ ॥ 17:0503 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अर्षा॑ सोम द्यु॒मत्त॑मो॒ऽभि द्रोणा॑नि॒ रोरु॑वत् ।
सीद॑ञ्छ्ये॒नो न योनि॒मा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡र्षा꣢꣯। सो꣣म। द्युम꣡त्त꣢मः। अ꣣भि꣢। द्रो꣡णा꣢꣯नि। रो꣡रु꣢वत्। सी꣡द꣢꣯न्। यो꣡नौ꣢꣯। व꣡ने꣢꣯षु। आ। ५०३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा तथा वानप्रस्थ मनुष्य का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (वनेषु) वनों में, वन के लता-कुञ्ज आदियों में, और (योनौ) नगरस्थ घरों में, सर्वत्र (सीदन्) विराजमान होते हुए (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) उपदेश करते हुए (द्रोणानि अभि) हमारे हृदय-रूप द्रोण-कलशों में (अर्ष) आइए ॥ द्वितीय—वानप्रस्थ के पक्ष में। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) वनों में (योनौ) वृक्ष-मूल रूप घर में (आसीदन्) निवास करते हुए, (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) पुनः-पुनः उपदेश करने की इच्छा रखते हुए (द्रोणानि अभि) गृहस्थों से आयोजित यज्ञों में (अर्ष) आइए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे वनों में उगनेवाला सोम वहाँ से लाया जाकर दशापवित्र से छाना जाता हुआ शब्द के साथ द्रोण-कलश में आता है और जैसे रसनिधि परमेश्वर उपदेश देता हुआ स्तोताओं के हृदय में प्रकट होता है, वैसे ही वानप्रस्थ मनुष्य नगरवासियों से आयोजित यज्ञों में उपदेशार्थ आये ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा वानप्रस्थो वाऽऽहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (वनेषु) अरण्येषु, अरण्यस्थेषु लताकुञ्जादिषु, (योनौ) नगरस्थे गृहे च, सर्वत्र इति यावत्। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। जातौ एकवचनम्। (आसीदन्) विराजमानः (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः, त्वम् (रोरुवत्) उपदिशन् (द्रोणानि अभि) अस्माकं हृदयरूपान् द्रोणकलशान् प्रति (अर्ष) आयाहि। ऋ गतौ, लेटि रूपम्। ‘द्व्यचोऽतस्तिङः।’ अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—वानप्रस्थपरः। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) अरण्येषु (योनौ) वृक्षमूलरूपे गृहे, वृक्षमूलनिकेतनः। मनु० ६।२६ इति वचनात्। (आसीदन्) निवसन् (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः त्वम् (रोरुवत्) पुनः पुनः उपदेक्ष्यन् (द्रोणानि अभि) गृहस्थैरायोजितान् यज्ञान् प्रति। यज्ञो वै द्रोणकलशः। श० ४।५।८।५। (अर्ष) गच्छ ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा वनेषु प्ररूढः सोमस्तत आनीतो दशापवित्रेण संशोध्यमानः सशब्दं द्रोणकलशमागच्छति, यथा च रसनिधिः परमेश्वर उपदिशन् स्तोतॄणां हृदयप्रदेशं समेति तथैव वानप्रस्थो नगरवासिभिरायोजितान् यज्ञानुपदेशार्थं गच्छेत् ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६५।१९, ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। ‘सीदञ्छ्येनो न योनिमा’ इति तृतीयः पादः।
17_0503 अर्षा सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०३-१। दार्ढच्युतानि त्रीणि॥ त्रयाणां दृढच्युतिर्गायत्री सोमः॥
अ꣢र्षा꣡॥ इहा। सो꣯मद्युमाऽ᳒२᳒त्तमा꣡। इहा॥ अ꣢भा꣡इ॥ इहा। द्रो꣯णा꣯निरोऽ᳒२᳒ रुवा꣡। इहा॥ सी꣢꣯दा꣡॥ इहा॥ यो꣯नौ꣯वनाऽ᳒२᳒इषुवा꣡॥ इहा꣢ऽ१॥
17_0503 अर्षा सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५०३-२।
अ꣤र्षाहा꣥उ॥ सो꣡꣯मद्युमत्तमो꣯। भिद्रोऽ२३णा꣢। निरा꣡औ꣢ऽ३हो꣢। रू꣡वाऽ२३त्॥ सी꣯दा꣢उवा॥ यो꣡꣯नौवा꣢ऽ३ने꣢। हि꣡म्माये꣢ऽ३॥ षूऽ२३४वा꣥॥
17_0503 अर्षा सोम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५०३-३।
अ꣣र्षा꣤꣯सो꣥꣯मद्युम। त꣣माः꣢᳐। अ꣣र्षा꣤꣯सो꣥꣯मा॥ द्यू꣡मत्त꣢मः। अ꣡भि꣢द्रो꣯णा꣡ऽ२३हा꣢। निरो꣡꣯रुव꣢त्॥ सा꣡इदन्यो꣢꣯ना꣡ऽ२३उहा꣢इ॥ वना꣡इषूऽ२᳐३वा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५ इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वृ꣡षा꣢ सोम द्यु꣣मा꣡ꣳ अ꣢सि꣣ वृ꣡षा꣢ देव꣣ वृ꣡ष꣢व्रतः। वृ꣡षा꣣ ध꣡र्मा꣢णि दध्रिषे ॥ 18:0504 ॥
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वृषा॑ सोम द्यु॒माँ अ॑सि॒ वृषा॑ देव॒ वृष॑व्रतः ।
वृषा॒ धर्मा॑णि दधिषे ॥
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पदपाठः
वृ꣡षा꣢꣯। सो꣣म। द्युमा꣢न्। अ꣣सि। वृ꣡षा꣢꣯। दे꣣व। वृ꣡ष꣢꣯व्रतः। वृ꣡ष꣢꣯। व्र꣣तः। वृ꣡षा꣢꣯। ध꣡र्मा꣢꣯णि। द꣣ध्रिषे। ५०४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कश्यपो मारीचः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम जगदीश्वर की महिमा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसनिधि जगदीश्वर ! (द्युमान्) तेजस्वी आप (वृषा) तेज के वर्षक सूर्य के समान (असि) हो, हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुण आदि की वृष्टि करनेवाले आप (वृषा) वर्षा करनेवाले बादल के समान हो। (वृषा) धर्म की वर्षा करनेवाले आप (धर्माणि) धर्म कर्मों को (दध्रिणे) धारण करते हो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘वृषा’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। ‘वृषा असि’ में लुप्तोपमा है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना किया हुआ परमेश्वर सूर्य और बादल के समान वर्षक होकर धन, धर्म, तेज, शान्ति, सुख आदि की वर्षा से उपासक को कृतार्थ करता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमाख्यस्य जगदीश्वरस्य महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसनिधे जगदीश्वर ! (द्युमान्) द्युतिमान् त्वम् (वृषा) तेजोवर्षकः सूर्यः इव (असि) वर्तसे। हे (देव) दानादिगुणयुक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुणादीनां वर्षणकर्मा त्वम् (वृषा) वर्षकः पर्जन्यः इव असि। (वृषा) धर्मवर्षकः त्वम् (धर्माणि) धर्मकर्माणि (दध्रिषे) धारयसि। धृञ् धारणे, भ्वादिः। लडर्थे लिट् ॥८॥ अत्र ‘वृषा’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः। ‘वृषा असि’ वर्षकः सूर्य इव पर्जन्य इव च वर्तसे इति लुप्तोपमम् ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासितः परमेश्वरः सूर्यवन्मेघवच्च वर्षको भूत्वा धनधर्मतेजःशान्तिसुखादीनां वृष्टिभिरुपासकं कृतार्थयति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६४।१, ‘दध्रिषे’ इत्यत्र ‘दधिषे’ इति पाठः। साम० ७८१।
18_0504 वृषा सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०४-१। वृषकम्॥ इन्द्रो गायत्री सोमः॥
वृ꣥षा꣯सो꣯मा॥ द्यु꣢माऽ᳒२ꣳ᳒आ꣡साऽ᳒२᳒इ। वृ꣡षादेवा꣢ऽ३हा꣢ऽ३इ। वा꣡र्ष꣢व्रा꣣ऽ२३४ ताः꣥॥ वृ꣡षाधर्मा꣢ऽ३॥ ई꣭ऽ३या꣢॥ णा꣡इदध्रि꣢षे꣯। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ २३४५इ॥ डा॥
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इ꣣षे꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या꣣ मृ꣣ज्य꣡मा꣢नो मनी꣣षि꣡भिः꣢ । इ꣡न्दो꣢ रु꣣चा꣡भि गा इ꣢꣯हि ॥ 19:0505 ॥
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इ॒षे प॑वस्व॒ धार॑या मृ॒ज्यमा॑नो मनी॒षिभिः॑ ।
इन्दो॑ रु॒चाभि गा इ॑हि ॥
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पदपाठः
इ꣣षे꣢। प꣣वस्व। धा꣡र꣢꣯या। मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः। म꣣नीषि꣡भिः꣢। इ꣡न्दो꣢꣯। रु꣣चा꣢। अ꣣भि꣢। गाः। इ꣣हि। ५०५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कश्यपो मारीचः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) रस के भण्डार, चन्द्रमा के समान आह्लाददायक परब्रह्म परमेश्वर ! (मनीषिभिः) चिन्तनशील हम उपासकों द्वारा (मृज्यमानः) स्तुतियों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (इषे) इच्छासिद्धि के लिए (धारया) आनन्द की धारा के साथ (पवस्व) हमारे अन्तः करण में प्रवाहित होवो। आप (रुचा) तेज के साथ (गाः अभि) हम स्तोताओं के प्रति (इहि) आओ ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तोताओं से उपासना किया गया रसनिधि परमेश्वर आनन्दरस से उन्हें तृप्त करता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) रसागार चन्द्रवदाह्लादक परब्रह्म परमेश्वर ! (मनीषिभिः) चिन्तनशीलैरुपासकैः अस्माभिः (मृज्यमानः) स्तुतिभिः अलङ्क्रियमाणः त्वम्। मृजू शौचालङ्कारयोः। (इषे) इच्छासिद्धये (धारया) आनन्दप्रवाहसन्तत्या (पवस्व) अस्माकमन्तःकरणे परिस्रव, त्वम् (रुचा) तेजसा सह (गाः अभि) स्तोतॄन् अस्मान् प्रति। गौः इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। (इहि) प्रयाहि ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तोतृभिरुपासितो रसनिधिः परमेश्वरस्तानन्दरसेन तर्पयति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६४।१३, साम० ८४१।
19_0505 इषे पवस्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०५-१। ऐषम्॥ इषो गायत्री सोमः॥इ꣥षे꣯पवा॥ स्व꣢धा꣯रयौ꣯हो꣯वाऽ३हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा। मृ꣢ज्य꣡मा꣰꣯ऽ२नो꣯मनी꣯ षि꣡भिः꣢᳐॥ इ꣣न्दो꣢꣯रु꣣चा꣥꣯॥ अ꣢भिगौ꣯हो꣯वाऽ३हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣡प्। इ꣢ही꣣ ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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म꣣न्द्र꣡या꣢ सोम꣣ धा꣡र꣢या꣣ वृ꣡षा꣢ पवस्व देव꣣युः꣢ । अ꣢व्या꣣ वा꣡रे꣢भिरस्म꣣युः꣢ ॥ 20:0506 ॥
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म॒न्द्रया॑ सोम॒ धार॑या॒ वृषा॑ पवस्व देव॒युः ।
अव्यो॒ वारे॑ष्वस्म॒युः ॥
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पदपाठः
म꣣न्द्र꣡या꣢। सो꣣म। धा꣡र꣢꣯या। वृ꣡षा꣢꣯। प꣣वस्व। देवयुः꣢। अ꣡व्याः꣢꣯। वा꣡रे꣢꣯भिः। अ꣣स्म꣢युः। ५०६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) सोम ओषधि के समान रसागार परमेश्वर ! (वृषा) आनन्द के वर्षक, (देवयुः) हमें दिव्य गुण प्रदान करने के इच्छुक, (अस्मयुः) हमसे प्रीति करनेवाले आप (अव्याः वारेभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के सदृश हमारे मन के सात्त्विक भावों के माध्यम से (मन्द्रया धारया) आनन्दप्रद धारा के साथ (पवस्व) द्रोणकलश के तुल्य हमारे हृदय-कलश में परिस्रुत होवो ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सोम ओषधि का रस भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्र से छनकर द्रोणपात्र में धारारूप से गिरता है, वैसे ही परमेश्वर मन के सात्त्विक भावों के माध्यम से आनन्द-धारा के साथ स्तोता के हृदय-कलश में प्रकट होता है ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनः सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) सोमौषधिरिव रसागार परमेश्वर ! (वृषा) आनन्दवर्षकः, (देवयुः) अस्माकं दिव्यगुणान् कामयमानः त्वम्। देवान् दिव्यगुणान् परेषां कामयते इति देवयुः, ‘छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्। अ० ३।१।८’ वा० इति परेच्छायां क्यच्। ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उ प्रत्ययः। (अस्मयुः) अस्मान् कामयमानः सन् (अव्याः वारेभिः) अविबालनिर्मितैः दशापवित्रैरिव अस्माकं मनसः सात्त्विकैः भावैः, तन्माध्यमेन इत्यर्थः (मन्द्रया धारया) आनन्दप्रदया धारया सह (पवस्व) द्रोणकलशे इव अस्माकं हृदयकलशे परिस्रव ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सोमौषध्या रसोऽविबालनिर्मितदशापवित्रद्वारा द्रोणपात्रे धारया पतति तथैवानन्दरसनिधिः परमेश्वरो मनसः सात्त्विकभावैरानन्दधारया स्तोतुर्हृत्कलशे प्रकटीभवति ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६।१ ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा। ‘अव्यो वारेष्वस्मयुः’ इति पाठः।
20_0506 मन्द्रया सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०६-१। श्यावाश्वम्॥ श्यावाश्वो गायत्री सोमः॥
म꣥न्द्रया꣯सो॥ म꣢धा꣡꣯रया। वृषा꣯पाऽ२३वा꣢। स्वदा꣡इवाऽ२३यूः꣢॥ अ꣡व्या ऽ२३ः॥ वा꣡ऽ२᳐रा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भि꣢रस्म꣣यू꣢ऽ१ः॥ दी-५। प-७। मा-५॥ १५ (फु) ९३२॥
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अ꣣या꣡ सो꣢म सु꣣कृत्य꣡पा꣢ म꣣हा꣢उ।न्त्सन्न꣣꣬भ्य꣢꣯वर्धथाः। म꣣ न्दान꣡ इद्वृ꣢꣯षायसे ॥ 21:0507 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣या꣢। सो꣣म। सुकृत्य꣡या꣢। सु꣣। कृत्य꣡या꣢। म꣣हा꣢न्। सन्। अ꣣भि꣢। अ꣣वर्धथाः। मन्दानः꣢। इत्। वृ꣣षायसे। ५०७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कविर्भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा क्या करता है, यह वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसागार परमेश्वर ! (महान् सन्) महान् होते हुए आप (अया) इस (सुकृत्यया) स्तुति-गान रूप शुभ क्रिया से (अभ्यवर्द्धथाः) हृदय में वृद्धि को प्राप्त हो गये हो। आप (मन्दानः) आनन्द प्रदान करते हुए (इत्) सचमुच (वृषायसे) वृष्टिकर्ता बादल के समान आचरण करते हो, अर्थात् जैसे बादल जल बरसाता हुआ सब प्राणियों को और ओषधि-वनस्पति आदियों को तृप्त करता है, वैसे ही आप आनन्द की वर्षा करके हमें तृप्त करते हो ॥११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे-जैसे स्तोता स्तुतिगान से परमेश्वर की आराधना करता है, वैसे-वैसे परमेश्वर आनन्द की वृष्टि से उसे प्रसन्न करता है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसागार परमेश्वर ! (महान् सन्) पूज्यो भवन् त्वम् (अया) अनया (सुकृत्यया) स्तुतिगानरूपया शोभनक्रियया (अभ्यवर्धथाः) हृदयेऽभिवृद्धिं गतोऽसि। त्वम् (मन्दानः) आनन्दं प्रयच्छन् (इत्) सत्यमेव (वृषायसे) वृषो वर्षको मेघः इवाचरसि, यथा मेघो जलं वर्षन् सर्वान् प्राणिनः ओषधिवनस्पत्यादींश्च तर्पयति तथैव त्वमानन्दवर्षणेनास्मान् तर्पयसीत्यर्थः ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा यथा स्तोता स्तुतिगानेन परमेश्वरमाराध्नोति तथा तथा परमेश्वर आनन्दवर्षणेन तं प्रफुल्लयति ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।४७।१, ‘अया सोमः सुकृत्यया महश्चिदभ्यवर्धत। मन्दान उद्वृषायसे’ ॥ इति पाठः।
21_0507 अया सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०७-१। अयासोमीयम्॥ अयासोमो गायत्री सोमः॥
अ꣥या꣤ऽ३सो꣢ऽ३म꣤सुकृ꣥त्यया॥ म꣢हा꣡꣯न्त्सन्ना। भ्य꣪वाऽ२᳐र्द्धा꣣ऽ२३४थाः꣥॥ मा꣡न्दा꣢꣯नआ꣡ये꣢ऽ३त्। वृषा꣢ऽ३या꣤ऽ५"साऽ६५६इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣यं꣡ विच꣢꣯र्षणिर्हि꣣तः꣡ पव꣢꣯मानः꣣ स꣡ चे꣢तति। हि꣣न्वान꣡ आप्यं꣢꣯ बृ꣣ह꣢त् ॥ 22:0508॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यं विच॑र्षणिर्हि॒तः पव॑मानः॒ स चे॑तति ।
हि॒न्वा॒न आप्यं॑ बृ॒हत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣य꣢म्। वि꣡च꣢꣯र्षणिः। वि। च꣣र्षणिः। हितः꣢। प꣡व꣢꣯मानः। सः। चे꣣तति। हिन्वानः꣢। आ꣡प्य꣢꣯म्। बृ꣣ह꣢त्। ५०८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- जमदग्निर्भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
कैसा परमात्मा क्या करता है, यह अगले मन्त्र में कहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सः) वह पूर्ववर्णित (विचर्षणिः) विशेष द्रष्टा, (हितः) सबका हितकर्ता (अयम्) यह रसनिधि परमेश्वर (पवमानः) अन्तः करण को शुद्ध करता हुआ (बृहत्) महान् (आप्यम्) बन्धुत्व को (हिन्वानः) निर्वाह करता हुआ (चेतति) बोध दे रहा है ॥१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना किया हुआ परमेश्वर अन्तःकरण को शुद्ध करके, जीवों को जागरूक करके बन्धुत्व का निर्वाह करता है ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशः परमात्मा किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सः) पूर्व-वर्णितः (विचर्षणिः) विशेषद्रष्टा (हितः) सर्वेषां हितकरः (अयम्) एष रसनिधिः परमेश्वरः (पवमानः) अन्तःकरणं शोधयन् (बृहत्) महत् (आप्यम्) आपित्वं बन्धुत्वम् (हिन्वानः) निर्वहन्। हि गतौ वृद्धौ च, भ्वादिः। (चेतति) चेतयति बोधयति। णिज्गर्भोऽयं प्रयोगः ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासितः परमेश्वरोऽन्तःकरणं संशोध्य जीवान् जागरूकान् विधाय बन्धुत्वं निर्वहति ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६२।१०
22_0508 अयं विचर्षणिर्हितः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०८-१। आग्नेयम्॥ अग्निर्गायत्री सोमः॥
आ꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣤꣯होवाहा꣥इ। अयंविचा॥ ष꣢णा꣡इर्हाइता꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣤꣯होवाहा꣥इ॥ पवमा꣯नाः॥ स꣢चा꣡इताता꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣤꣯होवाहा꣥इ॥ हिन्वा꣯नआ॥ पि꣢यौ꣭ऽ३हौ꣢ऽ३। ह꣤वोवा꣥। बॄ꣤ऽ५होऽ६"हा꣥इ॥ दी-८। प-१२। मा-९॥ १७ (ठो) ९३४॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡ न꣢ इन्दो म꣣हे꣡ तु न꣢꣯ ऊ꣣र्मिं꣡ न बिभ्र꣢꣯दर्षसि। अ꣣भि꣢ दे꣣वा꣢ꣳ अ꣣या꣡स्यः꣢ ॥ 23:0509 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र ण॑ इन्दो म॒हे तन॑ ऊ॒र्मिं न बिभ्र॑दर्षसि ।
अ॒भि दे॒वाँ अ॒यास्यः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। नः꣣। इन्दो। महे꣢। तु। नः꣣। ऊर्मि꣢म्। न। बि꣡भ्र꣢꣯त्। अ꣣र्षसि। अभि꣢। दे꣣वा꣢न्। अ꣣या꣡स्यः꣢। ५०९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अयास्य आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्द-रस से आर्द्र करनेवाले रस के सागर परमात्मन् ! (अयास्यः) प्राणप्रिय तू (ऊर्मिं न) मानो लहर को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (नः) हमारी (महे) वृद्धि के लिए (तु) शीघ्र ही (देवान् नः अभि) हम विद्वान् उपासकों को लक्ष्य करके (अर्षसि) प्राप्त हो ॥१३॥ इस मन्त्र में ‘ऊर्मिं न बिभ्रत्’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥१३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना किया गया प्राणप्रिय परमेश्वर अपने प्यारे उपासक को मानो आनन्द की तरङ्गों से आप्लावित कर देता है ॥१३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानमाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्दरसेन क्लेदयितः रससागर परमात्मन्। (अयास्यः२) प्राणप्रियः त्वम्। स प्राणो वा अयास्यः। जै० उ० ब्रा० २।८।८। (ऊर्मिं न) तरङ्गमिव (बिभ्रत्) धारयन् (नः) अस्माकम् (महे) वृद्ध्यै (तु३) क्षिप्रम् (देवान् नः अभि) विदुषः अस्मान् उपासकान् अभिलक्ष्य (अर्षसि) प्राप्नुहि। गत्यर्थाद् ऋषतेर्लेटि रूपम् ॥१३॥ ‘ऊर्मिं न बिभ्रत्’ इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥१३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासितः प्राणप्रियः परमेश्वरः प्रियमुपासकमानन्दतरङ्गैरिव संप्लावयति ॥१३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।४४।१ ‘प्र ण इन्दो महे तने’ इति प्रथमः पादः। २. माधवसायणौ ‘अयास्य’ इति ऋषेर्नाम मत्वा व्याचक्षाते। अयास्यः गमनशील इति वा उपगन्तव्य इति वा—इति भरतः। ३. भरतस्वामिसायणौ ‘तुन’ इति संयुक्तं पाठं मत्वा ‘तुने धनाय’ इति व्याचक्षाते। तत्तु पदकारविरुद्धम्, पदपाठे ‘तु नः’ इति विभज्य दर्शनात्।
23_0509 प्र न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५०९-१। आयास्ये द्वे॥ द्वयोरयास्यो गायत्री सोमः॥
प्र꣣न꣤इ꣥न्दो꣯ऐ꣯। ही꣢ऐ᳐ही꣣ऽ२३४या꣥॥ म꣢हे꣡꣯तुनऐऽ᳒२᳒ही꣡ऐऽ᳒२᳒ही꣭ऽ३या꣢। ऊ꣯र्मि꣡न्न बिभ्रदर्षसऐऽ᳒२᳒ही꣡ऐऽ᳒२᳒ही꣭ऽ३या꣢॥ अ꣡भाये꣢ऽ३॥ दा꣡ऽ२᳐इवा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢या꣡꣯सि꣢या꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-७। प-७। मा-१०॥ १८ (छौ) ९३५॥
23_0509 प्र न - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५०९-२।प्र꣣न꣤इ꣥न्दो꣯। इ꣢याऽ३४३ई꣢ऽ३४या꣥। म꣢हे꣡꣯तुनइयाऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢। ऊ꣯र्मि꣡न्नबिभ्र दर्षसइयाऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢। अ꣡भाये꣢ऽ३॥ दा꣡ऽ२᳐इवा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। अ꣢या꣡꣯ सि꣢या꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-६। प-८। मा-९॥ १९ (गो) ९३६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣पघ्न꣡न्प꣢वते꣣ मृ꣢꣫धोऽप꣣ सो꣢मो꣣ अ꣡रा꣢व्णः। ग꣢च्छ꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य नि꣣ष्कृ꣢तम् ॥ 24:0510 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒प॒घ्नन्प॑वते॒ मृधोऽप॒ सोमो॒ अरा॑व्णः ।
गच्छ॒न्निन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣पघ्न꣢न्। अ꣣प। घ्न꣢न्। प꣣वते। मृ꣡धः꣢꣯। अ꣡प꣢꣯। सो꣡मः꣢꣯। अ꣡रा꣢꣯व्णः। अ। रा꣣व्णः। ग꣡च्छ꣢꣯न्। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। नि꣣ष्कृत꣢म्। निः꣣। कृत꣢म्। ५१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अमहीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा का कर्म वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः) पवित्र रस का भण्डार परमेश्वर (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (निष्कृतम्) संस्कृत किये हुए हृदयरूप घर में (गच्छन्) जाता हुआ, (मृधः) संग्रामकर्ता पापरूप शत्रुओं को (अपघ्नन्) विध्वस्त करता हुआ और (अराव्णः)अदानशील स्वार्थभावों को (अप) विनष्ट करता हुआ (पवते) पवित्रता प्रदान करता है ॥१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब पवित्रतादायक आनन्दरस की धारा को प्रवाहित करता हुआ सोम परमेश्वर साधक के हृदय में प्रकट होता है तब उसका हृदय सब वासनाओं से रहित और स्वार्थवृत्ति से विहीन होकर पवित्र हो जाता है ॥१४॥ इस दशति में सोम परमात्मा तथा उससे उत्पन्न होनेवाली आनन्दरसधारा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनः कर्म वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः) पवित्ररसनिधिः परमेश्वरः (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (निष्कृतम्२) संस्कृतं हृदयरूपं गृहम् (गच्छन्) प्रसर्पन्, (मृधः३) संग्रामकारिणः पापरूपान् शत्रून् (अपघ्नन्) अपध्वंसयन्, (अराव्णः) अदानशीलान् स्वार्थभावांश्च (अप) अपघ्नन् विनाशयन्। उपसर्गावृत्त्या क्रियापदावृत्तिरध्याह्रियते इति वैदिकी शैली। (पवते) पवित्रतां प्रयच्छति ॥१४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा पावकस्यानन्दरसस्य धारां प्रवाहयन् परमेश्वरः साधकस्य हृदये प्रकटीभवति तदा तदीयं हृदयं सर्ववासनारहितं स्वार्थवृत्तिविहीनं च भूत्वा पवित्रं जायते ॥१४॥ अत्र सोमस्य परमात्मनस्तज्जन्याया आनन्दरसधारायाश्च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति विजानीत ॥ इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये चतुर्थः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।२५, साम० १२१३। २. निष्कृतं संस्कृतं द्रोणकलशम्—इति भ०। ३. मृधः संग्रामं पाप्मनो वा—इति वि०। हिंसकान् शत्रून्—इति भ०।
24_0510 अपघ्नन्पवते मृधोऽप - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५१०-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाजो गायत्री सोमेन्द्रौ॥
हो꣢ई꣣ऽ२३४या꣥।(द्विः)। इ꣤याहा꣥इ। अ꣢प꣡घ्नाऽ२३न्पा꣢ऽ३꣡४꣡५꣡॥ हो꣢ई꣣ऽ२३४ या꣥।(द्विः)। इ꣤याहा꣥इ। व꣢ता꣡इ। माऽ२᳐। धा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣡पसो꣯मो꣰꣯ऽ२ अ꣡रा꣰꣯ऽ२व्णाऽ३꣡४꣡५ः꣡॥ हो꣢ई꣣ऽ२३४या꣥।(द्विः)। इ꣤याहा꣥इ। ग꣢च्छ꣡न्नाऽ२३ इन्द्रा꣢ऽ३꣡४꣡५꣡। हो꣢ई꣣ऽ२३४या꣥।(द्विः)। इ꣤याहा꣥इ। स्य꣢ना꣡इः। काऽ२᳐। ता꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
[[अथ पञ्चमः खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ धा꣡र꣢या꣣पो꣡ वसा꣢꣯नो अर्षसि। आ꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ योनि꣢꣯मृ꣣त꣡स्य꣢ सीद꣣स्युत्सो꣢ दे꣣वो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥ 25:0511 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु॒ना॒नः सो॑म॒ धार॑या॒ ऽपो वसा॑नो अर्षसि +++(= पवित्रं गच्छसि)+++।
आ र॑त्न॒धा योनि॑मृ॒तस्य॑ सीद॒स्युत्सो॑ +++(=प्रस्यन्दनशीलः)+++ देव हिर॒ण्ययः॑ ४
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
पु꣣नानः꣢। सो꣣म। धा꣡र꣢꣯या। अ꣣पः꣢। व꣡सा꣢꣯नः। अ꣣र्षसि। आ꣢। र꣣त्नधाः꣢। र꣣त्न। धाः꣢। यो꣡नि꣢꣯म्। ऋ꣣त꣡स्य꣢। सी꣣दसि। उ꣡त्सः꣢꣯। उत्। सः꣣। देवः꣢। हि꣣रण्य꣡यः꣢। ५११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- सप्तर्षयः
- बृहती
- मध्यमः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) पवित्र रस के भण्डार परमात्मन् ! आप (धारया) अपनी आनन्द-धारा से (पुनानः) पवित्रता लाते हुए, (अपः) कर्म को (वसानः) आच्छादित अर्थात् प्रभावित करते हुए (अर्षसि) उपासकों के हृदय में व्याप्त होते हो। (रत्नधाः) रमणीय गुणरूप रत्नों के प्रदाता आप (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) गृहरूप जीवात्मा को (आ सीदसि) प्राप्त होते हो। आप (उत्सः) आनन्द के झरने, (देवः) विद्या, सुख आदि के प्रदाता और (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय तथा यशोमय हो ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पवित्र परमेश्वर अपने उपासकों के हृदयों और कर्मों को पवित्र करता हुआ, उनके आत्मा में निवास करता हुआ, उन्हें आनन्द के झरने में स्नान कराता हुआ, ज्योति से प्रदीप्त करता हुआ यशस्वी बनाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) पवित्ररसागार परमात्मन् ! त्वम् (धारया) स्वकीयया आनन्दधारया (पुनानः) पवित्रतामापादयन्, (अपः) कर्म (वसानः) आच्छादयन्, प्रभावयन्नित्यर्थः (अर्षसि) उपासकानां हृदयं व्याप्नोषि। (रत्नधाः) रमणीयानां गुणानां आधाता त्वम् (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम्, जीवात्मानमित्यर्थः। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (आ सीदसि) प्राप्नोषि। त्वम् (उत्सः) आनन्दनिर्झरः, (देवः) विद्यासुखादीनां दाता, (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः यशोमयश्च, विद्यसे इति शेषः। ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०। यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पवित्रः परमेश्वरः स्वोपासकानां हृदयानि कर्माणि च पावयन् तेषामात्मनि निवसंस्तानानन्दनिर्झरे स्नपयन् ज्योतिषा दीपयन् यशस्विनः करोति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०७।४ ‘देवो’ इत्यत्र ‘देव’ इति पाठः। साम० ६७५।
25_0511 पुनानः सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५११-१। आयास्यम्॥ अयास्यो बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯नस्सो॥ मा꣡ऽ२᳐धा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। रा꣣ऽ२३४या꣥। अ꣢पो꣡꣯वसो꣢꣯नो꣯ अर्षसि॥ आ꣡꣯रात्ना꣢ऽ३धाः꣢। यो꣡꣯नाइमा꣢ऽ३र्त्ता꣢ऽ३। स्या꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। दा꣣ऽ२३४सी꣥॥ उ꣡त्सोदे꣢ऽ३वो꣢ऽ३॥ हा꣡ऽ२᳐इरा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ण्या꣣ऽ२३४ याः꣥॥
25_0511 पुनानः सोम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५११-२। माण्डवम्॥ मण्डुर्बृहती सोमः॥
इ꣡याऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢। पु꣡ना꣯नस्सोऽ२᳐। म꣣धा꣢᳐रा꣣ऽ२३४या꣥॥ अ꣢पो꣡꣯वसा꣯नो꣢꣯ अ꣡र्षाऽ२३सी꣢। आ꣡꣯रत्नधा꣯यो꣯निमृतस्य꣢सी꣡꣯दाऽ२३सी꣢॥ उ꣣त्सो꣯दे꣢꣯वो꣡ऽ२३॥ हा꣡ऽ२᳐ इरा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ण्या꣢ऽ᳐३या꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-१२। प-८। मा-५॥ २२ (जु) ९३९॥
25_0511 पुनानः सोम - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५११-३। अपदासम्॥ वसिष्ठो बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯न꣤स्सो꣥꣯मधा꣤꣯र꣥या꣤॥ अ꣢पो꣡꣯वसा꣢꣯नो꣯अर्ष। स्यो꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢। आ꣡꣯रत्न꣢ धा꣡꣯यो꣯निमृ꣢त꣡स्य꣢सी꣯द। स्यो꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢॥ उ꣡त्सोदा꣢ऽ१इवाऽ᳒२ः᳒। ओ꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢॥ हिर꣡ण्याऽ२᳐३या꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
25_0511 पुनानः सोम - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
५११-४। सोमसाम॥ सोमो बृहती सोमः॥
पु꣤ना꣯नस्सोऽ५मधा꣯र꣤या॥ आ꣡पोऽ᳒२᳒वा꣡साऽ᳒२᳒। नो꣯अ꣡र्षसी। आराऽ᳒२᳒त्ना꣡धाऽ᳒२ः᳒। यो꣯निमा꣡र्त्ताऽ᳒२᳒। स्यसी꣡꣯दसी॥ ऊत्सोऽ᳒२᳒दा꣡इवाऽ᳒२ः᳒॥ हिर꣡ण्याऽ२᳐३या꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-५। प-१०। मा-६॥ २४ (मू) ९४१॥
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लिखितम्
५११-५। ऐडमायास्यम्॥ अयास्यो बृहती सोमः॥
आ꣤इपु꣥ना꣤॥ ना꣡स्सो। म꣢धा꣡꣯रया। आपो꣯वसा꣢ऽ३१। नो꣢꣯अ꣡र्षसी। आरत्नधा꣢ऽ३१ः। यो꣯निमृता। स्य꣢सी꣡꣯दसी॥ ऊत्सोदेवा꣢ऽ३१ः। हि꣢र꣡ण्याऽ२᳐३ या꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-५। प-१२। मा-६॥ २५ (फु) ९४२॥
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लिखितम्
५११-६। माण्डवम्॥ मण्डुर्बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯न꣤स्सो꣥꣯मधा꣤꣯र꣥या꣯। पो꣯वसो꣤वा꣥॥ नो꣡꣯अर्ष꣢सि। आ꣡꣯रत्न꣢। धा꣡उवाऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ। यो꣡꣯निमृ꣢त꣡स्य꣢सी꣯दसि॥ उ꣡त्सो꣢꣯देऱ। वा꣡उवाऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ हिर꣡ण्याऽ२᳐३या꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-११। प-१३। मा-७॥ २६ (गे) ९४३॥
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लिखितम्
५११-७। उद्वत्प्राजापत्यम्॥ प्रजापतिर्बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯न꣤स्सो꣥꣯मधा꣤꣯। होऽ५रया꣤॥ अ꣢पो꣡꣯वसा꣯न꣢आ꣡होऽ᳒२᳒। षा꣡सीऽ᳒२᳒। आ꣡꣯रत्न धा꣯यो꣯निमृतस्य꣢सा꣡होऽ᳒२᳒इ। दा꣡सीऽ᳒२᳒। उ꣡त्साऽ᳒२᳒होऽ१इ। दाऽ२३इवो꣢ऽ३। हि꣢रो꣡ऽ २३४वा꣥। ण्या꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥ दी-८। प-१०। मा-५॥ २७ (णु) ९४४॥
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लिखितम्
५११-८। त्रिणिधनमायास्यम्॥ अयास्यो बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯नस्सो꣯मधा꣯हा꣯उहो꣤वा꣥॥ रा꣡या꣢᳐आ꣣ऽ२३४पो꣥। व꣡साऽ२᳐। न꣣आ꣢ऽ३४५। षा꣣ऽ२३४सी꣥॥ आ꣡꣯रा꣢ऽ᳐३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ त्न꣡धा꣯यो꣯निमृताऽ२᳐। स्य꣣सा꣢ऽ३४५इ। दा꣣ऽ२३४सी꣥॥ उ꣡त्सा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ दा꣡इवोऽ२᳐। हि꣣रा꣢ऽ३४५॥ ण्या꣣ऽ २३४याः꣥॥
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लिखितम्
५११-९। कण्वरथन्तम्॥ कण्वो बृहती सोमः॥
पू꣥꣯ना꣯न꣤स्सो꣥꣯मधा꣤꣯र꣥या꣤॥ अ꣢पो꣡꣯वसा। नो꣢ऽ३आ꣡र्षा꣢ऽ३सी꣢। आ꣯रत्नधा꣯यो꣯नि मृतस्यसी꣯दसा꣣ऽ२३४ऐ꣥꣯ही॥ उ꣢त्सो꣡꣯दाऽ२३४इवाः꣥॥ हि꣢राऽ३१उवाऽ२३॥ ए꣢ऽ᳐३। ण्य꣢य꣣आ꣢॥ दी-११। प-८। मा-६॥ २९ (गू) ९४६॥
५११-१०। तिरश्चीन (द्वि) निधनमायास्यम्॥ अयास्यो बृहती सोमः॥
पु꣤ना꣯न꣣स्सो꣤꣯मधा꣣꣯र꣤या꣥꣯। ए꣢ऽ᳐३। औ꣢ऽ३हो꣤ऽ५वा॥ आ꣡पो꣢ऽ३। व꣡साऽ२᳐। न꣣आ꣢ऽ३४५। षा꣢ऽ३सीऽ᳒२᳒। आ꣡रत्न꣢धाः꣡। योनिमृ꣢ता꣡। स्यासा꣢ऽ३आ꣡। औ꣢ऽ३ हो꣤ऽ३। दाऽ२३४सी꣥॥ उ꣢त्सा꣡औ꣢ऽ३हो꣢॥ दा꣡इवोऽ२᳐। हि꣣रा꣢ऽ३४५॥ ण्या꣢ऽ३ या꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
५११-११। सदोविशीयम्॥ प्रजापतिर्बृहती सोमः॥
पु꣥ना꣯नस्सो꣯मधा꣯रया꣯ओ꣯हा꣯ओ꣯हाऽ६ए꣥। औ꣯हो꣯औ꣯होऽ६वा꣥॥ अ꣢पो꣡꣯वसा꣢꣯नो꣯अर्ष। स्यो꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। आ꣡꣯रत्न꣢धा꣡꣯यो꣯नि मृ꣢त꣡स्य꣢सी꣯द। स्यो꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢॥ उ꣡त्सोदा꣢ऽ१इवाऽ᳒२ः᳒। ओ꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢। औ꣭ऽ३हो꣢इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢॥ हिर꣡। ण्याऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ स꣢दो꣯वि꣡शा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
५११-१२। स्ववासिनी द्वे॥ द्वयोर्जमदग्निर्बृहती सोमः॥
ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१। वाओवा꣢। ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१। वाओवा꣢। ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१। वाओवा꣢ऽ३। ओ꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। पु꣢ना꣯न꣡स्सो꣢꣯मधा꣡꣯रया꣢꣯॥ पो꣡꣯वसा꣢꣯नो꣯अर्षसि। आ꣡꣯रत्न꣢धा꣡꣯यो꣯निमृ꣢त꣡स्य꣢सी꣯दसि॥ उ꣡त्सो꣢꣯दे꣯वाः꣡। ओऽ᳒२᳒होऽ१। वाओवा꣢। ओ꣡ऽ᳒२᳒ होऽ१। वाओवा꣢। ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१। वाओवा꣢ऽ३। ओ꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। हि꣢रण्य꣡याऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-१७। प-२०। मा-११॥ ३२ (ञ) ९४९॥
५११-१३।
ओ꣢ऽ᳐३। हो꣢ऽ१। वाओवा꣢ऽ३। ओ꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। पु꣢ना꣯न꣡स्सो꣢꣯म धा꣡꣯रया꣢꣯। पो꣡꣯वसा꣢꣯नो꣯अर्षसि॥ आ꣡꣯रत्न꣢धा꣡꣯यो꣯निमृ꣢त꣡स्य꣢सी꣯द। स्योऽ३। हो꣢ऽ१। वाओवा꣢ऽ३। ओ꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣡त्सो꣢꣯दे꣯वो꣡꣯हि꣢रण्ययः। इ꣡डाऽ२३ भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-१८। प-१५। मा-७॥ ३३ (णे) ९५०॥
५११-१४। प्लवः॥ वसिष्ठो बृहती सोमः॥
हा꣢᳐। वोऽ३हा꣢। वोऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢इ। पूना᳐ना꣣ऽ२३४ स्सो꣥। मा꣢धा᳐रा꣣ऽ२३४या꣥॥ आ꣢पो᳐वा꣣ऽ२३४सा꣥॥ नो꣢अ᳐र्षा꣣ऽ२३४सी꣥। आ꣢र᳐त्ना꣣ ऽ२३४धाः꣥। यो꣢नी᳐मा꣣ऽ२३४र्त्ता꣥। स्या꣢सी᳐दा꣣ऽ२३४सी꣥॥ ऊ꣢त्सो᳐ दा꣣ऽ२३४इवो꣥। हा꣢इर᳐ण्या꣣ऽ२३४याः꣥। हा꣢᳐। वोऽ३हा꣢। वोऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। अ꣡ति꣢वि꣡श्वा꣢꣯निदुरिता꣡꣯त꣢रे꣯मा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-५। प-२४। मा-६॥ ३४ (भू) ९५१॥
५११-१५। रौरवम्॥ रुरुर्बृहती सोमः॥
पु꣢ना꣯नस्सो꣯माऽ३धा꣡राऽ२३४या꣥॥ आ꣡पो꣯वसा꣯नो꣯अर्षस्या꣯रत्नधा꣯यो꣯निमृतस्य साऽ२᳐इद꣣सा꣢इ। ओ꣡हा꣢ऽ३उवा꣢॥ उ꣡त्सो꣯दे꣯वो꣯हिराऽ२३हा꣢इ। ओ꣡हा꣢ऽ३उवा꣢॥ ण्यया꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-११। प-९। मा-७॥ ३५ (घे) ९५२॥
५११-१६। यौधाजयम्॥ युधाजिद्बृहती सोमः॥
पु꣣ना꣢ऽ३१। ना꣢ऽ᳐३स्सो꣤। म꣥। धा꣢᳐रा꣣ऽ२३४या꣥॥ आ꣡पो꣢ऽ३। व꣡साऽ२᳐। न꣣आ꣢ऽ३४५। षा꣣ऽ२३४सी꣥। आ꣢꣯रा꣡त्न꣢धाः꣡। यो꣢꣯। नि꣡मृताऽ२᳐। स्य꣣सा꣢ऽ३४५इ। दा꣣ऽ२३४सी꣥॥ उ꣢त्साऽ᳒२ः᳒॥ दा꣡इवोऽ२᳐। हि꣣रा꣢ऽ३४५। ण्या꣣ऽ२३४याः꣥॥