[[अथ त्रयोदशप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
[[अथ द्वितीयः खण्डः]]
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प्र꣡ सोमा꣢꣯सो मद꣣च्यु꣢तः꣣ श्र꣡व꣢से नो म꣣घो꣡ना꣢ म् । सु꣣ता꣢ वि꣣द꣡थे꣢ अक्र मुः ॥ 41:0477 ॥
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प्र सोमा॑सो मद॒च्युतः॒ श्रव॑से नो म॒घोनः॑ ।
सु॒ता वि॒दथे॑ अक्रमुः ॥
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पदपाठः
प्र꣢। सो꣡मा꣢꣯सः। म꣣दच्यु꣡तः꣢। म꣣द। च्यु꣡तः꣢꣯। श्र꣡व꣢꣯से। नः꣣। मघो꣡ना꣢म्। सु꣣ताः꣢। वि꣣द꣡थे꣢। अ꣣क्रमुः। ४७७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- श्यावाश्वः आत्रेयः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में दिव्य आनन्दरसों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुताः) रसागार परमात्मा से अभिषुत, (मदच्युतः) उत्साहवर्षी (सोमासः) दिव्य आनन्द-रस (मघोनाम्) हम ऐश्वर्यवानों के (श्रवसे) यश के लिए (विदथे) हमारे जीवन-यज्ञ में (प्र अक्रमुः) व्याप्त हो रहे हैं ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा के साथ योग से जो दिव्य आनन्दरस प्राप्त होता है वह मानव के सम्पूर्ण जीवन-यज्ञ में व्याप्त होकर उसे यशस्वी बनाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ दिव्यानन्दरसान् वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुताः) रसागारात् परमात्मनः अभिषुताः (मदच्युतः) उत्साहवर्षिणः (सोमासः) दिव्यानन्दरसाः (मघोनाम्) ऐश्वर्यवताम् (नः) अस्माकम् (श्रवसे) यशसे (विदथे) अस्माकं जीवनयज्ञे। विदथ इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७। (प्र अक्रमुः) प्रकर्षेण पदं निदधति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मना सह योगेन यो दिव्यानन्दरसः प्राप्यते स मानवस्य समग्रं जीवनयज्ञमभिव्याप्तं तं यशस्विनं करोति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।३२।१, ‘मघोनाम्’ इत्यत्र ‘मघोनः’ इति पाठः। साम० ७६९।
41_0477 प्र सोमासो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७७-१। सौभरे द्वे॥ द्वयोः सुभरिर्गायत्री सोमः॥
प्र꣢सो᳐मा꣣ऽ२३४साः꣥॥ म꣢दच्यु꣡तः꣢। औ꣡ऽ२३हो꣯वा꣢ऽ३। श्र꣡वाऽ२᳐सा꣣ऽ२३४ इनाः꣥। ओ꣡इम꣪घोनाऽ᳒२᳒म्॥ सु꣡ताऽ२३ः॥ वा꣡ऽ२᳐इदा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ थे꣢꣯अक्रमू꣣ ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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प्र꣡ सोमा꣢꣯सो विप꣣श्चि꣢तो꣣ऽपो꣡ न꣢यन्त ऊ꣣र्म꣡यः꣢। व꣡ना꣢नि महि꣣षा꣡ इ꣢व ॥ 42:0478 ॥
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प्र सोमा॑सो विप॒श्चितो॒ऽपां न य॑न्त्यू॒र्मयः॑ ।
वना॑नि महि॒षा इ॑व ॥
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पदपाठः
प्र꣢। सो꣡मा꣢꣯सः। वि꣣पश्चि꣡तः꣢। वि꣣पः। चि꣡तः꣢꣯। अ꣣पः꣢। न꣣यन्ते। ऊर्म꣡यः꣢। व꣡ना꣢꣯नि। म꣣हिषाः꣢। इ꣣व। ४७८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- त्रित आप्त्यः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि दिव्य आनन्दरस की तरङ्गें क्या करती हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (ऊर्मयः) तरङ्गरूप, (विपश्चितः) बुद्धिवर्धक, (सोमासः) परमात्मा से प्रस्रुत आनन्दरस (अपः) कर्मों को (प्र नयन्ते) उत्कृष्ट मार्ग में प्रेरित कर देते हैं, (वनानि) अन्तरिक्षस्थ जलों को (महिषाः इव) जैसे माध्यमिक देवगण पवन (प्र नयन्ते) वेग से प्रेरित करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - योगियों का योग सिद्ध हो जाने पर दिव्य आनन्दरस की तरङ्गों से उनके कर्म भी परम उत्कृष्ट हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ दिव्यानन्दरसतरङ्गाः किं कुर्वन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (ऊर्मयः) तरङ्गरूपाः (विपश्चितः) बुद्धिवर्धकाः (सोमासः) परमात्मनः प्रस्रुताः आनन्दरसाः (अपः) कर्म। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (प्र नयन्ते) प्रकृष्टमार्गे प्रेरयन्ति (वनानि) अन्तरिक्षस्थानि उदकानि। वनमित्युदकनाम। निघं० १।१२। (महिषाः इव) महान्तो माध्यमिका वायवः यथा प्र नयन्ते वेगेन प्रेरयन्ति, तद्वत्। महिष इति महन्नाम। निघं० ३।३। ‘अ॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षा अ॑गृभ्णत॒। ऋ० ६।८।४’ इत्यस्य व्याख्याने महिषा माध्यमिका देवगणा इत्याह निरुक्तकारः। निरु० ७।२६ ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - योगिनां योगे सिद्धे सति दिव्यानन्दरसतरङ्गैस्तेषां कर्माण्यपि परमोत्कृष्टानि जायन्ते ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।३३।१ ‘ऽपां यन्त्यूर्मयः’ इति पाठः। साम० ७६४।
42_0478 प्र सोमासो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७८-१।
प्र꣥सो꣯मा꣯साः॥ वा꣡इपश्चि꣢तः। आ꣡पो꣢ऽ१नायाऽ᳒२᳒। ता꣡ऊ꣯र्म꣢यः॥ वा꣡ना꣢ऽ१ निमाऽ᳒२᳒। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। हि꣡षा꣢꣯इव। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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प꣡व꣢स्वेन्दो꣣ वृ꣡षा꣢ सु꣣तः꣢ कृ꣣धी꣡ नो꣢ य꣣श꣢सो꣣ ज꣡ने꣢। वि꣢श्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षो꣢ जहि ॥ 43:0479 ॥
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पव॑स्वेन्दो॒ वृषा॑ सु॒तः कृ॒धी नो॑ य॒शसो॒ जने॑ ।
विश्वा॒ अप॒ द्विषो॑ जहि ॥
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पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। इ꣣न्दो। वृ꣡षा꣢꣯। सु꣣तः꣢। कृ꣣धी꣢। नः꣣। यश꣡सः꣢। ज꣡ने꣢꣯। वि꣡श्वाः꣢꣯। अ꣡प꣢꣯। द्वि꣡षः꣢꣯। ज꣣हि। ४७९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) चन्द्रमा के समान आह्लादक और सोमवल्ली के समान रसागार परमात्मन् ! (वृषा) बादल के समान वर्षा करनेवाले आप (सुतः) हृदय में अभिषुत होकर (पवस्व) हमें पवित्र कीजिए। (जने) जनसमाज में (नः) हमें (यशसः) यशस्वी (कृधि) कीजिए। (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को और काम-क्रोधादि की द्वेषकर्त्री सेनाओं को (अप जहि) विनष्ट कीजिए ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्मरूप सोम से प्रवाहित होती हुई दिव्य आनन्द की धाराएँ योगसाधकों को यशस्वी और शत्रुरहित कर देती हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) चन्द्रवदाह्लादक सोमवल्लीव रसागार परमात्मन् ! (वृषा) पर्जन्य इव वर्षकः त्वम् (सुतः) हृदयेऽभिषुतः सन् (पवस्व) अस्मान् पुनीहि, (जने) जनसमाजे (नः) अस्मान् (यशसः) यशस्विनः। अत्र मतुबर्थीयस्य लोपः। (कृधि) कुरु। संहितायां छान्दसं दीर्घत्वम्। (विश्वाः) समस्ताः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः कामक्रोधादीनां द्वेष्ट्रीः सेनाश्च (अपजहि) विध्वंसय ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्मरूपात् सोमात् प्रस्यन्दमाना दिव्यानन्दधारा योगसाधकान् कीर्तिभाजो निःसपत्नांश्च कुर्वन्ति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।२८, साम० ७७८।
43_0479 पवस्वेन्दो वृषा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७९-१। वृषकाणि त्रीणि॥ त्रयाणामिन्द्रो गायत्री सोमः॥
प꣤वस्वे꣯न्दोऽ५वृषा꣯सु꣤ताः॥ कृ꣢धी꣡꣯नो꣯यशसो꣯जनाये꣢ऽ३॥ वा꣢इश्वा᳐आ꣣ऽ २३४पा꣥॥ द्वा꣡ऽ२᳐इषा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ जा꣣ऽ२३४ही꣥॥ दी-७। प-५। मा-३॥ ३ (ञु) ८८५॥
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वृ꣢षा꣣ ह्य꣡सि꣢ भा꣣नु꣡ना꣢ द्यु꣣म꣡न्तं꣢ त्वा हवामहे। प꣡व꣢मान स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् ॥ 44:0480 ॥
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वृषा॒ ह्यसि॑ भा॒नुना॑ द्यु॒मन्तं॑ त्वा हवामहे ।
पव॑मान स्वा॒ध्यः॑ ॥
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पदपाठः
वृ꣡षा꣢꣯। हि। अ꣡सि꣢꣯। भा꣣नुना꣢। द्यु꣣म꣡न्त꣢म्। त्वा꣣। हवामहे। प꣡व꣢꣯मान। स्व꣣र्दृ꣡श꣢म्। स्वः꣣। दृ꣡श꣢꣯म्। ४८०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पवमान) पवित्रता देनेवाले रसागार परमात्मन् ! आप (हि) क्योंकि (भानुना) अपने तेज से (वृषा) आनन्द-रस की वृष्टि करनेवाले (असि) हो, इसलिए (द्युमन्तम्) देदीप्यमान, (स्वर्दृशम्) मोक्षसुख को दर्शानेवाले (त्वा) आपको, हम (हवामहे) पुकारते हैं ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सूर्य अपने तेज से जल की वर्षा करता है, वैसे ही परमेश्वर आनन्द-रस का वर्षक होता है। उस रसनिधि, रसवर्षक, तेजस्वी, तेज-वर्द्धक, आनन्दमय, मोक्षानन्द का दर्शन करानेवाले परमेश्वर की सबको उपासना करनी चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानमाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पवमान) चित्तशोधक पवित्रकर्तः रसागार परमात्मन् ! त्वम् (हि) यस्मात् (भानुना) स्वतेजसा (वृषा) आनन्दरसवर्षकः (असि) विद्यसे। तस्मात् (द्युमन्तम्) देदीप्यमानम्, (स्वर्दृशम्) स्वः मोक्षसुखं दर्शयतीति स्वर्दृक् तम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (हवामहे) आह्वयामः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सूर्यः स्वतेजसा जलस्य वृष्टिं करोति तथा परमेश्वर आनन्दरसस्य वर्षको भवति। स रसनिधी रसवर्षकस्तेजोवर्धक आनन्दमयो मोक्षानन्ददर्शकः परमेश्वरः सर्वैरुपास्यः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६५।४, ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। ‘स्वर्दृशम्’ इत्यत्र ‘स्वाध्यः’ इति पाठः। साम० ७८४।
44_0480 वृषा ह्यसि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८०-१।
वृ꣤षा꣥꣯हिया꣤॥ सि꣢भा꣡꣯नूऽ२३ना꣢। द्युम꣡न्तन्त्वा꣯हावा꣢ऽ१माहाऽ२३४इ॥ प꣣वा꣢ऽ३॥ मा꣡नसु꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥॥ दॄ꣣ऽ२३४शा꣥म्॥ दी-३। प-६। मा-२॥ ४ (टा) ८८६॥
44_0480 वृषा ह्यसि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८०-२।
वृ꣤षा꣯हियाऽ५सिभा꣯नु꣤ना॥ द्यु꣢म꣡न्तन्त्वा꣢꣯ह꣡वा꣰꣯ऽ२महे꣯। हाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒। हो꣭ऽ३वा꣢᳐। प꣡वमा꣢꣯नसुवर्दृ꣡श꣢म्। हाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒। हो꣭ऽ३वा꣢᳐॥ हु꣣वो꣢ऽ३४५इ॥ डा॥
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इ꣡न्दुः꣢ पविष्ट꣣ चे꣡त꣢नः प्रि꣣यः꣡ क꣢वी꣣नां꣢ म꣣तिः꣢। सृ꣣ज꣡दश्व꣢꣯ꣳ र꣣थी꣡रि꣢व ॥ 45:0481 ॥
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इन्दुः॑ पविष्ट॒ चेत॑नः प्रि॒यः क॑वी॒नां म॒ती ।
सृ॒जदश्वं॑ र॒थीरि॑व ॥
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पदपाठः
इ꣡न्दुः꣢꣯। प꣣विष्ट। चे꣡त꣢꣯नः। प्रि꣣यः꣢। क꣣वीना꣢म्। म꣣तिः꣢। सृ꣣ज꣢त्। अ꣡श्व꣢꣯म्। र꣣थीः꣢। इ꣣व। ४८१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कश्यपो मारीचः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चेतनः) चेतना प्रदान करनेवाला, (कवीनां प्रियः) मेधावियों का प्रिय, (मतिः) ज्ञाता, (इन्दुः) चन्द्रमा के समान आह्लादक, सोमलता के समान रसागार परमेश्वर (पविष्ट) अन्तःकरण को पवित्र करता है और (अश्वम्) प्राण को (सृजत्) ऊर्ध्वारोहण के लिए प्रेरित कर देता है, (रथीः इव) जैसे सारथि (अश्वम्) रथ में नियुक्त घोड़े को (सृजत्) चलने के लिए प्रेरित करता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना किया हुआ परमात्मा-रूप सोम योगी के चित्त को पवित्र करके उसके प्राणों को योगसिद्धियों के प्राप्त्यर्थ ऊर्ध्वारोहण के लिए प्रेरित कर देता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चेतनः) चेतयिता, (कवीनां प्रियः) मेधाविनां प्रेमपात्रभूतः, (मतिः) मन्ता (इन्दुः) चन्द्रवदाह्लादकः सोमलतावद् रसागारश्च परमेश्वरः (पविष्ट) अन्तःकरणं पुनाति। अत्र लोडर्थे लुङ्, अडभावश्छान्दसः। (अश्वम्) प्राणं च (सृजत्) ऊर्ध्वारोहणाय प्रेरयति। सृज विसर्गे, लेटि रूपम्। (रथीः इव) यथा सारथिः (अश्वम्) रथे नियुक्तं घोटकम् (सृजत्) गन्तुं प्रेरयति तद्वत् ॥५॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - समुपासितः परमात्मसोमो योगिनश्चित्तं पवित्रीकृत्य तस्य प्राणान् योगसिद्धीः प्राप्तुम् ऊर्ध्वारोहणाय प्रेरयति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६४।१०, ‘मतिः’ इत्यत्र ‘मती’ इति पाठः।
45_0481 इन्दुः पविष्ट - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८१-१। बाभ्रोस्सामानि त्रीणि॥ कौम्भ्यस्य वा। त्रयाणां बभ्रुर्गायत्री सोमः॥
इ꣣न्दु꣢रौ꣣꣯हो꣤वाहा꣥इ। पा꣤वी꣥॥ ष्ट꣢चा꣡ऽ२꣮इ। तनो꣣ऽ२३४हा꣥। हा꣢꣯हो꣡इ। हो꣭ऽ३हा꣢। प्रियाᳲ꣡क꣢वी꣯। ना꣡꣯म्म। ति꣢रो꣣ऽ२३४हा꣥। हा꣢꣯हो꣡इ। हो꣭ऽ३हा꣢॥ सृ꣡जा ऽ२꣮त्। अश्वो꣣ऽ२३४हा꣥। हा꣢꣯हो꣡इ। हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३॥ रा꣡ऽ२᳐था꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४वा꣥॥
45_0481 इन्दुः पविष्ट - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८१-२।
इ꣤न्दुᳲ꣥पविष्टचे꣤꣯त꣥नᳲप्रियᳲ꣤क꣥वा꣤इ॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्। नाम्मा꣣ऽ२३४ तीः꣥॥ सृ꣡जादाऽ२३श्वा꣢म्॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ३। रा꣡ऽ२᳐था꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४वा꣥॥
45_0481 इन्दुः पविष्ट - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४८१-३।
इ꣤न्दुᳲ꣥पविष्टचे꣤꣯त꣥नᳲप्रियᳲ꣤क꣥वी꣯ना꣤꣯म्म꣥ति꣤स्सृ꣥। जा꣤ऽ५दश्वा꣤म्॥ ओ꣡वाऽ२३। ओ꣡वाऽ२३॥ रा꣡ऽ२᳐था꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४वा꣥॥
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अ꣡सृ꣢क्षत꣣ प्र꣢ वा꣣जि꣡नो꣢ ग꣣व्या꣡ सोमा꣢꣯सो अश्व꣣या꣢। शु꣣क्रा꣡सो꣢ वीर꣣या꣡शवः꣢꣯ ॥ 46:0482 ॥
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असृ॑क्षत॒ प्र वा॒जिनो॑ ग॒व्या सोमा॑सो अश्व॒या ।
शु॒क्रासो॑ वीर॒याशवः॑ ॥
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पदपाठः
अ꣡सृ꣢꣯क्षत। प्र। वा꣣जि꣡नः꣢। ग꣣व्या꣢। सो꣡मा꣢꣯सः। अ꣣श्वया꣢। शु꣣क्रा꣡सः꣢। वी꣣रया꣢। आ꣣श꣡वः꣢। ४८२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कश्यपो मारीचः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में भक्तिरस को अभिषुत करने का प्रयोजन वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वाजिनः) सबल, (शुक्रासः) पवित्र, (आशवः) वेगवान् (सोमासः) प्रभु-भक्ति के रस (गव्या) अन्तःप्रकाश-प्राप्ति की इच्छा से, (अश्वया) प्राणों की ऊर्ध्वप्रेरणा की इच्छा से, और (वीरया) वीरता-प्राप्ति की इच्छा से (प्र असृक्षत) मेरे द्वारा प्रवाहित किये गये हैं ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अन्तःकरण में भगवद्भक्ति के रस को प्रवाहित करने से अन्तः-प्रकाश की स्फूर्ति, प्राणों का ऊर्ध्वारोहण और दिव्यकर्मों में उत्साह पैदा होता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ भक्तिरसाभिषवस्य प्रयोजनमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वाजिनः) सबलाः, (शुक्रासः) पवित्राः, (आशवः) वेगवन्तः (सोमासः) परमात्मभक्तिरसाः (गव्या) अन्तःप्रकाशप्राप्तीच्छया, (अश्वया) प्राणानामूर्ध्वप्रेरणेच्छया, (वीरया) वीरत्वप्राप्तीच्छया च (प्र असृक्षत) मया प्रकर्षेण सृज्यन्ते अभिषूयन्ते। सृज विसर्गे धातोः कर्मणि छान्दसं रूपम्। गव्या, अश्वया, वीरया इत्यत्र गो-अश्व-वीर- शब्देभ्यः आत्मन इच्छायां क्यच्, ‘अ प्रत्ययात्’ ३।३।१०२, इति अ प्रत्ययः, स्त्रियां टाबन्तस्य अश्वयया, गव्ययया, वीरयया इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुगिति’ तृतीयाया लुक् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अन्तःकरणे भगवद्भक्तिरसप्रवाहेणान्तःप्रकाशस्फुरणं प्राणानामूर्ध्वारोहो दिव्यकर्मसु चोत्साहः प्रवर्तते ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६४।४, साम० १०३४।
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लिखितम्
४८२-१। कार्तवेशस्य सामानि त्रीणि॥ त्रयाणां कृतवेशोगायत्री सोमः॥
अ꣥सृक्षा꣢ऽ३ता꣤प्र꣥वा꣤꣯जिनाः꣥॥ गा꣡व्याऽ᳒२᳒सो꣡माऽ᳒२᳒। सो꣯अ। श्व꣡या॥ शू꣢ऽ१ क्राऽ᳒२᳒सो꣡वीऽ᳒२᳒॥ रयाऽ᳒२᳒श꣡वः꣢। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-२। प-८। मा-४॥ ९ (जी) ८९१॥
46_0482 असृक्षत प्र - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८२-२।
अ꣥सृक्षताऱप्राऽ६वा꣥꣯जिनाः॥ ग꣢व्या꣡꣯सोऱमाऱसोऱअश्वयाऽ२३हो꣡इ॥ शु꣢क्रा꣡꣯सोऱ वा꣢ऽ३१इ॥ र꣢या꣡ऽ२३। शा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ग्वा꣣ऽ२३४भीः꣥॥
46_0482 असृक्षत प्र - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४८२-३।
अ꣣सृ꣤क्षतप्र꣣वा꣤꣯जिनः꣥। ए꣢ऽ᳐३। ग꣤व्यासो꣥꣯मा॥ सो꣢ऽ३आ꣡श्वा꣢ऽ३या꣢॥ शु꣡क्रा ऽ२᳐सो꣣ऽ२३४वी꣥॥ र꣢यो꣡ऽ२३४वा꣥। शा꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡ आ꣢यु꣣ष꣡गिन्द्रं꣢꣯ गच्छतु ते꣣ म꣡दः꣢। वा꣣यु꣡मा रो꣢꣯ह꣣ ध꣡र्म꣢णा ॥ 47:0483 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑स्व देवायु॒षगिन्द्रं॑ गच्छतु ते॒ मदः॑ ।
वा॒युमा रो॑ह॒ धर्म॑णा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। दे꣣वः꣢। आ꣣युष꣢क्। आ꣣यु। स꣢क्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। गच्छतु। ते। म꣡दः꣢꣯। वा꣣युम्। आ। रो꣣ह। ध꣡र्म꣢꣯णा। ४८३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- निध्रुविः काश्यपः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मारूप सोम से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम ! हे पवित्रताकारी रसागार परब्रह्म ! (देवः) दिव्यगुणवाले आप (आयुषक्) उपासक मनुष्यों में समवेत होकर (पवस्व) प्रस्रुत होवो, आनन्द-रस को प्रवाहित करो। (ते मदः) आपका आनन्द-रस (इन्द्रम्) आत्मा को (गच्छतु) प्राप्त हो। आप (धर्मणा) अपने धारक बल से (वायुम्) मेरे प्राण पर (आरोह) आरूढ़ होवो, अर्थात् मेरे प्राण भी आपकी तरङ्ग से तरङ्गित हों ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा-रूप सोम से झरा हुआ आनन्द-रस तभी प्रभावकारी होता है, जब वह आत्मा, प्राण आदि में पूर्णतः व्याप जाता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम ! हे पवित्रतासम्पादक रसागार परब्रह्म ! (देवः) दिव्यगुणः त्वम् (आयुषक्२) आयुषु उपासकेषु मनुष्येषु सक्तं यथा स्यात् तथा। आयवः इति मनुष्यनाम। निघं० २।३, षच समवाये। (पवस्व) प्रस्रव, आनन्दरसं प्रवाहय। (ते मदः) त्वज्जनितः आनन्दरसः (इन्द्रम्) आत्मानम् (गच्छतु) प्राप्नोतु। त्वम् (धर्मणा) स्वकीयधारकबलेन (वायुम्) प्राणम् (आरोह) आरूढो भव, मदीयाः प्राणा अपि त्वत्तरङ्गेण तरङ्गिता भवेयुरिति भावः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मरूपात् सोमात् प्रस्रुत आनन्दरसस्तदैव प्रभावकारी जायते यदा स आत्मप्राणादीन् पूर्णतो व्याप्नोति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६३।२२, ‘देवायुषगिन्द्रं’ इति पाठः। साम० १२३५। २. आयुषु मनुष्येषु सक्तः, मनुष्यैः सेव्यमानः इति वा—इति भ०। अनुषक्तं यथा भवति तथा—इति सा०। सत्यव्रतसामश्रमिणस्तु विवरणकारनाम्ना आहुः—“सचते रूपम्। आनुषक् आयुषक् इति शाखाभेदेन पठ्यते ‘आनुषगिति नामानुपूर्वस्य अनुषक्तो भवति’—इति वि०।” इति। परं मुद्रिते विवरणकारभाष्ये ‘आयुषक् सुजनमनाः’ इत्युपलभ्यते। ‘आयु-सक्’ इति पदपाठाद् भरतस्वामिव्याख्यानमेव समञ्जसं प्रतिभाति।
47_0483 पवस्व देव - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८३-१। शाम्मदे द्वे॥ द्वयोः शम्मद्गायत्रीन्द्रवायू॥
पा꣤व꣥स्वा꣤दे꣥॥ व꣣या꣢ऽ३। वा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। यू꣣ऽ२३४षा꣥क्। आ꣤इन्द्रं꣥ ग꣤च्छा꣥। तु꣣ता꣢ऽ३इ। तू꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। मा꣣ऽ२३४दाः꣥॥ वा꣢꣯यूऽ᳒२ꣳ᳒होऽ१इ। आऽ२३रो꣢᳐। ह꣣धा꣢ऽ३। हा꣡ऽ२᳐धा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ मा꣣ऽ२३४णा꣥॥
47_0483 पवस्व देव - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८३-२।
प꣣व꣤स्व꣥दे꣯वऐऱ। ही꣢ऐ᳐ही꣣ऽ२३४या꣥॥ आ꣡꣯युषागैऽ᳒२᳒ही꣡ऐऽ᳒२᳒ही꣭ऽ३या꣢। इ꣡न्द्रंगच्छतु तेऱमदऐऽ᳒२᳒ही꣡ऐऽ᳒२᳒ही꣭ऽ३या꣢॥ वा꣡यूमारो꣢ऽ३१२३॥ ह꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। मा꣤ऽ५णोऽ६" हा꣥इ॥ दी-४। प-७। मा-६॥ १३ (थृ) ८९५॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢मानो अजीजनद्दि꣣व꣢श्चि꣣त्रं꣡ न त꣢꣯न्य꣣तु꣢म्। ज्यो꣡ति꣢र्वैश्वान꣣रं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥ 48:0484 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑मानो अजीजनद्दि॒वश्चि॒त्रं न त॑न्य॒तुम् ।
ज्योति॑र्वैश्वान॒रं बृ॒हत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡व꣢꣯मानः। अ꣣जीजनत्। दिवः꣢। चि꣣त्र꣢म्। न। त꣣न्यतु꣢म्। ज्यो꣡तिः꣢। वै꣣श्वानर꣢म्। वै꣣श्व। नर꣢म्। बृ꣣ह꣢त्। ४८४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्राप्त ज्योति का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पवमानः) पवित्रतादायक सोम परमेश्वर (दिवः) आकाश की (चित्रम्) चित्र-विचित्र (तन्यतुं न) विद्युत् के समान (बृहत्) विस्तीर्ण (वैश्वानरम्) विश्व का नेतृत्व करनेवाली (ज्योतिः) दिव्य ज्योति को (अजीजनत्) उत्पन्न कर देता है ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ईश्वर की आराधना से हृदय में विद्युत् के समान अद्भुत ज्योति परिस्फुरित हो जाती है, जिससे मनुष्य विवेकख्याति प्राप्त कर लेता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमाख्यात् परमात्मनः प्राप्तं ज्योतिर्वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पवमानः) पवित्रतादायकः सोमः परमेश्वरः (दिवः) आकाशस्य (चित्रम्) चित्ररूपम् (तन्यतुम् न) विद्युतमिव (बृहत्) विस्तीर्णम् (वैश्वानरम्) विश्वनेतृत्वकारि। यद् विश्वं नृणाति नयति तद् वैश्वानरम्। (ज्योतिः) दिव्यं तेजः (अजीजनत्) जनयति ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ईश्वराराधनेन हृदि विद्युदिव अद्भुतं ज्योतिः परिस्फुरति, येन विवेकख्यातिं लभते जनः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।१६। साम० ८८९।
48_0484 पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८४-१। जनित्रे द्वे॥ द्वयोर्वसिष्ठो गायत्री सोमवैश्वानरौ॥
पा꣤वा꣥॥ मा꣡꣯नो। अ꣣जी꣢जा꣣ऽ२३४ना꣥त्। दि꣢व꣡श्चित्राम्। नतन्यतूम्॥ ज्योति꣢र्वैऱश्वा꣡ऽ२३॥ ना꣡ऽ२᳐रा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ बॄ꣣ऽ२३४हा꣥त्॥ दी-४। प-८। मा-५॥ १४ (दु) ८९६॥
48_0484 पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८४-२।
प꣥वमाऱनाः॥ अ꣡जाइजा꣢ऽ३ना꣢त्। दिव꣡श्चि꣢त्रा꣡ऽ२३ꣳहा꣢ऽ३इ। ना꣡त꣢ न्या꣣ऽ२३४तू꣥म्॥ ज्यो꣣ऽ२३४तीः꣥। वा꣣ऽ२३४इश्वा꣥॥ न꣤रोवा꣥। बॄ꣤ऽ५होऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡रि꣢ स्वा꣣ना꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वो꣣ म꣡दा꣢य ब꣣र्ह꣡णा꣢ गि꣣रा꣢। म꣡धो꣢ अर्षन्ति꣣ धा꣡र꣢या ॥ 49:0485 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॑ सुवा॒नास॒ इन्द॑वो॒ मदा॑य ब॒र्हणा॑ गि॒रा ।
सु॒ता अ॑र्षन्ति॒ धार॑या ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। स्वा꣣ना꣡सः꣢। इ꣡न्द꣢꣯वः। म꣡दा꣢꣯य। ब꣣र्ह꣡णा꣢। गि꣣रा꣢। म꣡धो꣢꣯। अ꣣र्षन्ति। धा꣡र꣢꣯या। ४८५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्द-रसों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (मधो) मधुर आनन्द से भरपूर सोम परमात्मन् ! (बर्हणा) श्रेष्ठ (गिरा) स्तुति वाणी के द्वारा (स्वानासः) आपसे झरते हुए (इन्दवः) आनन्द-रस (मदाय) मेरे उत्साह के लिए (धारया) धारा रूप में (परि अर्षन्ति) मेरे अन्तः करण में प्रवेश कर रहे हैं ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - भक्ति में लीन मन से स्तोता जन जब परमात्मा की आराधना करते हैं, तब उन्हें परम आनन्द की अनुभूति होती है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसान् वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (मधो) मधुरानन्द सोम परमात्मन् ! अत्र पादादित्वात् आद्युदात्तः सम्बुद्धिस्वरः। (बर्हणा) बर्हणया श्रेष्ठया। बर्ह प्राधान्ये, भ्वादिः। बर्हणा प्रातिपदिकात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (गिरा) वेदवाचा (स्वानासः) सुवानाः, त्वत्तः अभिषूयमाणाः (इन्दवः) आनन्दरसाः (मदाय) मम हर्षाय, उत्साहायेत्यर्थः (धारया) धारारूपेण (परि अर्षन्ति) मदीयं मानसं प्रविशन्ति। ऋषिर्गत्यर्थः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - भक्तिलीनेन मनसा स्तोतारो यदा परमात्मानमाराध्नुवन्ति तदा तैः परमानन्दोऽनुभूयते ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१०।४, ‘स्वानास’, ‘मधो’ इत्यत्र ‘सुवानास’, ‘सुता’ इति पाठः। साम० ११२२।
49_0485 परि स्वानास - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८५-१। प्रक्रीडास्त्रयः॥ (प्रक्रीडम्)। मरुतो गायत्री सोमः॥
पा꣤री꣥॥ स्वा꣢꣯नाऱसइन्दवोऱमदाऱयब। ह꣡णाऽ२᳐३गिरा꣢ऽ३४। म꣣धो꣢ऽ३४ अ꣣र्षा꣢ऽ३॥ ति꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। रा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥ दी-४। प-६। मा-३॥ १६ (ति) ८९८॥
49_0485 परि स्वानास - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८५-२। संक्रीडम्॥
पा꣤री꣥॥ स्वा꣢꣯ना꣡꣯सइन्दवाउवाऽ२३हो꣡वाऽ२३हाऽ᳒२᳒ई꣡या॥ मदाऱयबर्हणाऱ-गिराउवाऽ२३हो꣡वाऽ२३हाऽ᳒२᳒ई꣡या॥ मधोऱअर्षन्तिधाऱरयाउवाऽ२३हो꣡वाऽ२३ हाऽ᳒२᳒ई꣡याऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
49_0485 परि स्वानास - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४८५-३। निक्रीडम्॥
पा꣣ऽ५रि। स्वाऱना꣤ऽ३सा꣢ऽ३इ꣤न्दवाः꣥॥ म꣡दा꣰꣯ऽ२यबर्ह꣡णा꣰꣯ऽ२गिरा꣡॥ मधोऽ२३र्षा꣢॥ ऊ꣡र्मि꣪रिवाऽ᳒२᳒। ई꣭ऽ३या꣢। ति꣣धाऱर꣢या꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣢रि꣣ प्रा꣡सि꣢ष्यदत्क꣣विः꣡ सिन्धो꣢꣯रू꣣र्मा꣡वधि꣢꣯ श्रि꣣तः꣢। का꣣रुं꣡ बिभ्र꣢꣯त्पुरु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥ 50:0486 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॒ प्रासि॑ष्यदत्क॒विः सिन्धो॑रू॒र्मावधि॑ श्रि॒तः ।
का॒रं बिभ्र॑त्पुरु॒स्पृह॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। प्र। अ꣣सिष्यदत्। कविः꣢। सि꣡न्धोः꣢꣯। ऊ꣣र्मौ꣢। अधि꣢꣯। श्रि꣣तः꣢। का꣣रु꣢म्। बि꣡भ्र꣢꣯त्। पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म्। पुरु। स्पृ꣡ह꣢꣯म्। ४८६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के साथ तरङ्गों के झूले में झूलना वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (कविः) वेदकाव्य का कर्ता, काव्यजनित आनन्द से तरङ्गित हृदयवाला सोम परमेश्वर (सिन्धोः) आनन्दसागर की (ऊर्मौ) लहरों पर (अधिश्रितः) स्थित हुआ (पुरुस्पृहम्) अतिप्रिय (कारुम्) स्तुतिकर्ता जीव को (बिभ्रत्) अपने साथ धारण किये हुए (परि प्रासिष्यदत्) आनन्द की लहरों पर झूल रहा है ॥१०॥ वस्तुतः परमात्मा का झूले आदि से सम्बन्ध न होने के कारण यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सच्चिदानन्दस्वरूप रसमय परमेश्वर अपने सहचर मुझ जीवात्मा का मानो हाथ पकड़े हुए आनन्द-सागर की लहरों पर झूल रहा है। अहो, उसके साथ ऐसा पहले कभी अनुभव में न आया हुआ सुख मैं अनुभव कर रहा हूँ। सचमुच, कृतकृत्य हो गया हूँ। मैंने जीवन की सफलता पा ली है ॥१०॥ इस दशति में भी रसागार सोम परमेश्वर का तथा तज्जनित आनन्द का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीयार्ध की पाँचवीं दशति समाप्त ॥ यह पञ्चम प्रपाठक समाप्त हुआ ॥ पञ्चम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमेन परमात्मना सह तरङ्गदोलारोहणं वर्ण्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (कविः) वेदकाव्यस्य कर्ता, काव्यानन्दतरङ्गितहृदयः सोमः परमेश्वरः (सिन्धोः) आनन्दसागरस्य (ऊर्मौ) तरङ्गे (अधिश्रितः) अधिष्ठितः सन् (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहणीयम् (कारुम्) स्तुतिकर्तारम् जीवम्। कारुरिति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। कारुः कर्ता स्तोमानाम्। निरु० ६।५। (बिभ्रत्) धारयन् (परि प्रासिष्यदत्) आनन्दलहरीषु दोलारोहणम् अनुभवति ॥१०॥ अत्र वस्तुतः परमात्मनो दोलादिसम्बन्धाभावाद् असम्बन्धे सम्बन्धरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सच्चिदानन्दस्वरूपो रसमयः परमेश्वरः स्वसहचरं जीवात्मानं मां हस्ताभ्यामिव धारयन्नानन्दोदधेस्तरङ्गेषु दोलायते। अहो, तेन सह कीदृक् अननुभूतपूर्वम् अवर्णनीयं सुखं मयाऽनुभूयते। सत्यं, कृतकृत्योऽस्मि। लब्धं मया जीवनस्य साफल्यम् ॥१०॥ अत्रापि रसागारस्य सोमस्य परमेश्वरस्य तज्जनितानन्दरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति विदाङ्कुर्वन्तु ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके द्वितीयार्धे पञ्चमी दशतिः। समाप्तोऽयं पञ्चमः प्रपाठकः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये द्वितीयः खण्डः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१४।१, ‘कारुं’ इत्यत्र ‘कारं’ इति पाठः।
50_0486 परि प्रासिष्यदत्कविः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८६-१। औशनम्॥ उशना गायत्री सोमः॥
प꣥रिप्राऱसी॥ ष्य꣢दत्का꣡वीऽ᳒२ः᳒। सि꣡न्धोऱरूऱर्माऱवाधि꣪श्रिताऽ᳒२ः᳒॥ का꣡꣯रूऽ२३म्॥ बा꣡ऽ२᳐इभ्रा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ पु꣢रुस्पृ꣡हा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
[[अथ तृतीयः खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣢म꣣प्तु꣢रं꣣ गो꣡भि꣢र्भ꣣ङ्गं꣡ परि꣢꣯ष्कृतम्। इ꣡न्दुं꣢ दे꣣वा꣡ अ꣡यासिषु ॥ 01:0487 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उपो॒ षु जा॒तम॒प्तुरं॒ गोभि॑र्भ॒ङ्गं परि॑ष्कृतम् ।
इन्दुं॑ दे॒वा अ॑यासिषुः ॥
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पदपाठः
उ꣡प꣢꣯। उ꣣। सु꣢। जा꣣त꣢म्। अ꣣प्तु꣡र꣢म्। गो꣡भिः꣢। भ꣣ङ्ग꣢म्। प꣡रि꣢꣯ष्कृतम्। प꣡रि꣢꣯। कृ꣣तम्। इ꣡न्दु꣢꣯म्। दे꣣वाः꣢। अ꣣यासिषुः। ४८७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि विद्वान् लोग कैसे परमेश्वर का अवलम्ब लेते हैं ॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सु जातम्) सुप्रसिद्ध, (अप्तुरम्) कर्म करने में शीघ्रतायुक्त, (भङ्गम्) दुःखों के भञ्जक, (गोभिः परिष्कृतम्) प्रकाश-किरणों से अलङ्कृत अर्थात् तेजस्वी (इन्दुम्) चाँद के समान आह्लादक, रस से आर्द्र करनेवाले तथा सोम ओषधि के समान रसमय परमात्मा को (देवाः) विद्वान् लोग (उप उ अयासिषुः) निकटता से प्राप्त करते हैं ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर प्रसिद्ध कीर्तिवाला, जगत् की उत्पत्ति, धारण आदि क्रियाओं को करनेवाला, दुःखियों का दुःख दूर करनेवाला, दिव्य तेजों से अलङ्कृत, अपने शान्तिदायक आनन्द-रस में स्नान करानेवाला, चन्द्रमा के समान सुन्दर और सोमलता के समान रस से पूर्ण है, उसकी सबको उपासना करनी चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ विद्वांसः कीदृशं परमेश्वरमवलम्बन्त इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुजातम्) सुख्यातम्, (अप्तुरम्) कर्मसु सत्वरम्, (भङ्गम्) दुःखभञ्जकम्, (गोभिः परिष्कृतम्) प्रकाशरश्मिभिः अलङ्कृतम्, तेजस्विनमिति यावत् (इन्दुम्) चन्द्रवदाह्लादकं, रसेन क्लेदकं, सोमौषधिवद् रसमयं च परमात्मानम् (देवाः) विद्वांसः (उप उ अयासिषुः) उपगच्छन्ति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरः प्रख्यातकीर्तिर्जगत्सर्जनधारणादिक्रियायुक्तो दुःखिनां दुःखद्रावको दिव्यतेजोभिरलङ्कृतः स्वकीयेन शान्तिप्रदेनानन्दरसेन स्नपयिता चन्द्र इव चारुः सोमवल्लीव रसपूर्णश्चास्ति स सर्वैर्जनैरुपासनीयः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।१३, साम० ७६२।
01_0487 उपो षु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८७-१। यामानि त्रीणि॥ त्रयाणां यमो गायत्री देवाः॥इ꣢हाऽ᳒२᳒इहा꣡। उपो꣯षुजा꣯तमाऽ᳒२᳒प्तुरा꣡म्। इहा॥ इ꣢हाऽ᳒२᳒इहा꣡। गो꣯भिर्भङ्गं पराऽ᳒२᳒इष्कृता꣡म्। इहा॥ इ꣢हाऽ᳒२᳒इहा꣡। इन्दुन्दे꣯वा꣯अयाऽ᳒२᳒सि"षूः꣡। इहा꣢ऽ१॥
01_0487 उपो षु - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८७-२।
ऊ꣡पो꣯षुजा꣯तमाऽ᳒२᳒प्तुरा꣡म्। उपा॥ गो꣯भाऽ२३इर्हो꣡इ। भङ्गंपराऽ᳒२᳒इष्कृ ता꣡म्। उपा॥ इन्दूऽ२३ꣳहो꣡इ। दे꣯वा꣯अयाऽ᳒२᳒। सि꣡षु꣢राऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
01_0487 उपो षु - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४८७-३।
उ꣤पो꣥꣯ष्वौ꣤꣯। होइजाता꣥म्॥ आ꣡प्तू꣢ऽ३रा꣢म्। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢ऽ३। गो꣡भि꣢र्भा꣣ ऽ२३४ङ्गा꣥म्॥ ओ꣡इपारि꣪ष्कृताऽ᳒२᳒म्॥ इ꣡न्दूऽ२३म्॥ दे꣯वा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢या꣯सिषू꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु꣣नानो꣡ अ꣢क्रमीद꣣भि꣢꣫ विश्वा꣣ मृ꣢धो꣣ वि꣡च꣢र्षणिः। शु꣣म्भ꣢न्ति꣣ वि꣡प्रं꣢ धी꣣ति꣡भिः꣢ ॥ 02:0488 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु॒ना॒नो अ॑क्रमीद॒भि विश्वा॒ मृधो॒ विच॑र्षणिः ।
शु॒म्भन्ति॒ विप्रं॑ धी॒तिभिः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
पु꣣नानः꣢। अ꣣क्रमीत्। अभि꣢। वि꣡श्वाः꣢꣯। मृ꣡धः꣢꣯। वि꣡च꣢꣯र्षणिः। वि। च꣣र्षणिः। शुम्भ꣡न्ति꣢। वि꣡प्र꣢꣯म्। वि। प्र꣢꣯म्। धीति꣡भिः। ४८८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- बृहन्मतिराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानः) मन को पवित्र करता हुआ (विचर्षणिः) सर्वद्रष्टा परमेश्वर (विश्वाः मृधः) काम, क्रोध आदियों की सब संग्रामकारिणी सेनाओं पर अथवा समस्त हिंसावृत्तियों पर (अभि अक्रमीत्) आक्रमण कर देता है। उस (विप्रम्) मेधावी परमेश्वर को, उपासक जन (धीतिभिः) ध्यानों के द्वारा (शुम्भन्ति) अपने हृदय के अन्दर शोभित करते हैं ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ध्यान किया हुआ परमेश्वर साधक के मार्ग में विघ्नभूत सब आसुरी सेनाओं को पराजित कर चित्त को पवित्र करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मानं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (पुनानः) उपासकानां मनः पवित्रं कुर्वन्, (विचर्षणिः) सर्वद्रष्टा सोमः परमेश्वरः। विचर्षणिः इति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। (विश्वाः मृधः) कामक्रोधादीनां सर्वाः सङ्ग्रामकारिणीः सेनाः, निखिला हिंसावृत्तीर्वा (अभि अक्रमीत्) अभ्याक्रामति। तम् (विप्रम्) मेधाविनं परमेशम्, उपासकाः (धीतिभिः) ध्यानैः (शुम्भन्ति२) स्वहृदयाभ्यन्तरे शोभयन्ति। शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ध्यातः परमेश्वरः साधकस्य मार्गे विघ्नभूताः सर्वा आसुरीः सेनाः पराजित्य चित्तं पवित्रयति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।४०।१, साम० ९२४। २. शुम्भन्ति शोभन्ति अलङ्कुर्वन्ति—इति वि०। दीपयन्ति—इति भ०।
02_0488 पुनानो अक्रमीदभि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८८-१। (अंकतेः साम) वैरूपम्॥ अङ्कतिर्गायत्री सोमः॥
पु꣥नाऱनोऱआ॥ क्रा꣢मी᳐दा꣣ऽ२३४भी꣥। वि꣡श्वाऽ२᳐मा꣣ऽ२३४र्द्धाः꣥। वी꣢च᳐र्षा꣣ ऽ२३४णीः꣥॥ शु꣡म्भाऽ२᳐न्ता꣣ऽ२३४इवी꣥॥ प्रा꣡ऽ२᳐न्धा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ती꣣ऽ२३४ भीः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣣विश꣢न्क꣣ल꣡श꣢ꣳ सु꣣तो꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣡र्ष꣢न्न꣣भि꣡ श्रियः꣢꣯। इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्रा꣢य धीयते ॥ 03:0489 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣣विश꣢न्। आ꣣। विश꣢न्। क꣣ल꣡श꣢म्। सु꣣तः꣢। वि꣡श्वाः꣢꣯। अ꣡र्ष꣢꣯न्। अ꣣भि। श्रि꣡यः꣢꣯। इ꣡न्दुः꣢꣯। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। धी꣣यते। ४८९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- जमदग्निर्भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा सब शोभाओं को प्रदान करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुतः) अभिषुत किया हुआ अर्थात् ध्यान द्वारा प्रकट किया हुआ, (कलशम्) हृदय-रूप द्रोणकलश में (आविशन्) प्रवेश करता हुआ, (विश्वाः) समस्त (श्रियः) शोभाओं को अथवा सद्गुणरूप ऐश्वर्यों को (अर्षन्) प्राप्त कराता हुआ (इन्दुः) चन्द्रमा के समान सौम्य कान्तिवाला और सोम ओषधि के समान रस से परिपूर्ण परमेश्वर (इन्द्राय) जीवात्मा की उन्नति के लिए (धीयते) संमुख स्थापित किया जाता है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा में ध्यान लगाने से जीवात्मा सब प्रकार का उत्कर्ष प्राप्त कर सकता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
स सोमः परमात्मा विश्वाः श्रियः प्रयच्छतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सुतः) अभिषुतः, ध्यानद्वारा प्रकटितः, (कलशम्) हृदयरूपं द्रोणकलशम् (आविशन्) प्रविशन्, (विश्वाः) समस्ताः (श्रियः) शोभाः सद्गुणैश्वर्याणि वा (अर्षन्) आर्षयन् प्रापयन्। ऋषी गतौ, तुदादिः। लुप्तणिच्कः प्रयोगः। (इन्दुः) चन्द्रवत् सौम्यकान्तिः सोमौषधिवद् रसपूर्णः परमेश्वरः (इन्द्राय) जीवात्मने तदुन्नतये इत्यर्थः (धीयते) पुरतः स्थाप्यते ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मनि ध्यानेन जीवात्मा सर्वविधमुत्कर्षं प्राप्तुं शक्नोति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६२।१९, ‘शूरो न गोषु तिष्ठति’ इति तृतीयः पादः।
03_0489 आविशन्कलशं सुतो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४८९-१। औशने द्वे॥ द्वयोरुशना गायत्री सोमेन्द्रौ॥
आ꣥꣯विशन्काऱलाऽ६शꣳ꣥सुताः॥ वा꣡इश्वा꣢꣯अ꣡र्ष꣢न्। अभा꣡इश्राया꣢ऽ३ः। ओ꣭ऽ३ हा꣢ऽ३। ओ꣡वा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ इ꣡न्दूऽ२३ः॥ आ꣡ऽ२᳐इन्द्रा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢धीऱयते꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-६। प-९। मा-१०॥ २४ (घौ) ९०६॥
03_0489 आविशन्कलशं सुतो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४८९-२।आ꣤꣯विश꣣न्क꣤लश꣥म्। सु꣣ता꣢ऽ३ः। वा꣤इश्वाः꣥॥ अ꣡र्ष꣢न्। अभा꣡इश्राया꣢᳐। औ꣣꣯हौऱहोऽ२३४वा꣥॥ औ꣡हौ꣢꣯होऽ१इ। इन्दूरा꣢ऽ१इन्द्राऽ᳒२᳒। य। धी꣡꣯याऽ२᳐ता꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥ दी-७। प-११। मा-९॥ २५ (च्चो) ९०७॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡स꣢र्जि꣣ र꣢थ्यो꣣ य꣡था꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ च꣣꣬म्वोः꣢꣯ सु꣣तः꣢। का꣡र्ष्म꣢न्वा꣣जी꣡ न्य꣢क्रमीत् ॥ 04:0490 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अस॑र्जि॒ रथ्यो॑ यथा प॒वित्रे॑ च॒म्वोः॑ सु॒तः ।
कार्ष्म॑न्वा॒जी न्य॑क्रमीत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡स꣢꣯र्जि। र꣡थ्यः꣢꣯। य꣡था꣢꣯। प꣣वि꣡त्रे꣢। च꣣म्वोः꣢꣯। सु꣣तः꣢। का꣡र्ष्म꣢꣯न्। वा꣣जी꣢। नि। अ꣣क्रमीत्। ४९०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- प्रभूवसुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर की आराधना से स्तोता कैसा बल प्राप्त कर लेता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चम्वोः) आत्मा और बुद्धिरूप अधिषवणफलकों में (सुतः) अभिषुत अर्थात् ध्यान द्वारा प्रकटीकृत रसनिधि परमेश्वर (पवित्रे) दशापवित्र के तुल्य पवित्र हृदय में (असर्जि) छोड़ा जाता है, (रथ्यः यथा) जैसे रथ में नियुक्त घोड़ा मार्ग में छोड़ा जाता है। उससे (वाजी) बलवान् हुआ उपासक (कार्ष्मन्) योग-मार्ग में (न्यक्रमीत्) सब विघ्नों को पार कर लेता है, जैसे (वाजी) बलवान् सेनापति (कार्ष्मन्) युद्ध में (न्यक्रमीत्) शत्रु-सेनाओं को परास्त करता है ॥४॥ इस मन्त्र में पूर्वार्द्ध में श्रौति उपमा और उत्तरार्द्ध में श्लेषमूलक लुप्तोपमा है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब हृदय में सोम परमात्मा अवतीर्ण होता है, तब मनुष्य सभी विघ्न-बाधाओं को क्षण-भर में ही परास्त कर लेता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वराराधनेन स्तोता कीदृशं बलं प्राप्नोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चम्वोः) आत्मबुद्धिरूपयोः अधिषवणफलकयोः (सुतः) अभिषुतः, ध्यानेन प्रकटीकृतः सोमः रसनिधिः परमेश्वरः (पवित्रे) दशापवित्रे इव पवित्रे हृदये (असर्जि) विसृष्टोऽस्ति, (रथ्यः यथा) येन प्रकारेण रथनियुक्तः अश्वः मार्गे विसृज्यते तद्वत्। तेन (वाजी) बलवान् सन् उपासकः (कार्ष्मन्) योगमार्गे। कृष्यते विलिख्यते पादाघातैः इति कार्ष्मा मार्गः तस्मिन्। अत्र सप्तम्या लुक्। (न्यक्रमीत्) निक्रमते, योगविघ्नान् उल्लङ्घयते, यथा (वाजी) बलवान् सेनापतिः (कार्ष्मन्) संग्रामे। कृषतः अन्योन्यं विलिखतः उभे सेने यत्र स कार्ष्मा रणः तस्मिन्। (न्यक्रमीत्) शत्रुसेनाः पराजयते ॥४॥ अत्र पूर्वार्द्धे श्रौती उपमा, उत्तरार्द्धे च श्लेषमूला लुप्तोपमा ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा हृदये सोमः परमात्माऽवतरति तदा मनुष्यः सर्वा अपि विघ्नबाधाः क्षणेनैव पराजयते ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।३६।१।
04_0490 असर्जि रथ्यो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९०-१। सोमसाम॥ सोमो गायत्री सोमः॥
अ꣥सर्जिरा॥ थि꣢। यो꣡꣯याऽ२३था꣢। पवि꣡त्रे꣢꣯। चा꣡। मु꣪वोऽ२᳐स्सू꣣ऽ२३४ ताः꣥॥ का꣢꣯र्ष्म꣡न्वाऽ२३जी꣢॥ नि꣡यक्र꣢मा꣡इत्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣢꣫ यद्गावो꣣ न꣡ भूर्ण꣢꣯यस्त्वे꣣षा꣡ अ꣣या꣢सो꣣ अ꣡क्र꣢मुः । घ्न꣡न्तः꣢ कृ꣣ष्णा꣢꣫मप꣣ त्व꣡च꣢म् ॥ 05:0491 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र ये गावो॒ न भूर्ण॑यस्त्वे॒षा अ॒यासो॒ अक्र॑मुः ।
घ्नन्तः॑ कृ॒ष्णामप॒ त्वच॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। यत्। गा꣡वः꣢꣯। न। भू꣡र्ण꣢꣯यः। त्वे꣣षाः꣢। अ꣣या꣡सः꣢। अ꣡क्र꣢꣯मुः। घ्न꣡न्तः꣢꣯। कृ꣣ष्ण꣢म्। अ꣡प꣢꣯। त्व꣡च꣢꣯म्। । ४९१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- मेध्यातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा से प्राप्त आनन्द-रस क्या करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) जब (गावः न) सूर्य-किरणों के समान (भूर्णयः) धारण-पोषण करनेवाले, (त्वेषाः) दीप्तिमान्, (अयासः) क्रियाशील आनन्द-रस रूपी सोम (प्र अक्रमुः) पराक्रम दिखाते हैं, तब (त्वचम्) आवरण डालनेवाली (कृष्णाम्) तमोगुण की काली रात्रि को (ध्नन्तः) नष्ट कर देते हैं ॥५॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ब्रह्मानन्द-रूप रसों का जब योगी जन पान कर लेते हैं, तब सभी मोह-निशाएँ उनके मार्ग से हट जाती हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः प्राप्ता आनन्दरसाः किं कुर्वन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) यदा (गावः न) सूर्यकिरणाः इव (भूर्णयः) धारणपोषणकराः। डुभृञ् धारणपोषणयोः। बिभर्तीति भूर्णिः, ‘घृणिपृश्निपार्ष्णिचूर्णिभूर्णयः।’ उ० ४।५३ इति निः प्रत्ययः। धातोरूत्वम्। (त्वेषाः) दीप्ताः। त्विष दीप्तौ, भ्वादिः। (अयासः) गमनशीलाः सोमाः आनन्दरसाः। अयन्ते गच्छन्तीति अयाः, जसोऽसुगागमः। (प्र अक्रमुः) पराक्रमन्ते, तदा (त्वचम्) संवरणकरीम्। त्वच संवरणे, तुदादिः। (कृष्णाम्) तमोगुणमयीं रात्रिम्। ‘कृष्णा कृष्णवर्णा रात्रिः’ इति निरुक्तम् २।२०। (घ्नन्तः) ध्वसंयन्तो, भवन्तीति शेषः ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ब्रह्मानन्दरसान् यदा योगिनो जनाः पिबन्ति तदा सर्वा अपि मोहनिशास्तेषां मार्गादपयन्ति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।४१।१, ‘यद्’ इत्यत्र ‘ये’ इति पाठः। साम० ८९२।
05_0491 प्र यद्गावो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९१-१। कार्ष्णे द्वे॥ द्वयोः कृष्णो गायत्री सोमः॥
प्र꣤यद्धा꣥उ। गा꣢꣯वोऱनऽ३भू꣡र्णा꣢ऽ१याऽ२३४ः। त्वे꣣꣯षा꣢ऽ३ः। आ꣡या꣰꣯ऽ२सोऱ अक्रमुः॥ घ्नन्ताᳲ꣡काऽ२३र्ष्णा꣢म्। अपा꣡त्वच꣢म्। औऱहो꣡ऽ२᳐हा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
05_0491 प्र यद्गावो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४९१-२।
प्र꣢य꣡द्गा꣢ऽ३वो꣤꣯नभू꣥꣯र्णयाः॥ त्वा꣡इषाऱअ꣢याऱ। सो꣡अ꣪क्रमूऽ२३ः॥ घ्ना꣡ऽ२३४ न्तो꣯हा꣥इ॥ का꣡ऽ२᳐र्ष्णा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣡प꣢त्व꣡चा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣पघ्न꣡न्प꣢वसे꣣ मृ꣡धः꣢ क्रतु꣣वि꣡त्सो꣢म मत्स꣣रः꣢। नु꣣द꣡स्वादे꣢꣯वयुं꣣ ज꣡न꣢म्॥ 06:0492 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒प॒घ्नन्प॑वसे॒ मृधः॑ क्रतु॒वित्सो॑म मत्स॒रः ।
नु॒दस्वादे॑वयुं॒ जन॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣पघ्न꣢न्। अ꣣प। घ्न꣢न्। प꣣वसे। मृ꣡धः꣢꣯। क्र꣣तुवि꣢त्। क्र꣣तु। वि꣢त्। सो꣣म। मत्सरः꣢। नु꣣द꣡स्व꣢। अ꣡दे꣢꣯वयुम्। अ। दे꣣वयुम्। ज꣡न꣢꣯म्। ४९२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- निध्रुविः काश्यपः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! आप (मृधः) संग्रामकारी काम, क्रोध आदि रिपुओं को (अपघ्नन्) विनष्ट करते हुए (पवसे) हमें पवित्र करते हो। (क्रतुवित्) बुद्धि और कर्म दोनों प्राप्त करानेवाले, (मत्सरः) आनन्द-प्रदाता आप (अदेवयुम्) दिव्य गुणों की कामना न करनेवाले (जनम्) मनुष्य को (नुदस्व) दिव्य गुण प्राप्त करने के लिए प्रेरित करो ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्द-रस के खजाने परमेश्वर की सत्प्रेरणा से अपावन भी पावन और अदिव्य भी दिव्यगुणी हो जाते हैं ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमः परमात्मा प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! त्वम् (मृधः) संग्रामकारिणः कामक्रोधादीन् रिपून् (अपघ्नन्) हिंसन् (पवसे) अस्मान् पुनासि। (क्रतुवित्) प्रज्ञाकर्मलम्भकः, (मत्सरः) आनन्दस्य वाहकः त्वम् (अदेवयुम्) देवान् दिव्यगुणान् आत्मनः कामयते इति देवयुः, न देवयुः अदेवयुः, तम् (जनम्) मनुष्यम् (नुदस्व) दिव्यगुणान् प्राप्तुं प्रेरय, तं देवयुं कुरु इत्यर्थः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्दरसनिधेः परमेश्वरस्य सत्प्रेरणया अपावना अपि पावनाः, अदिव्या अपि दिव्यगुणा भवन्ति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६३।२४, साम० १२३७।
06_0492 अपघ्नन्पवसे मृधः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९२-१। सोमसाम॥ (वैश्वदेवम्)। सोमो गायत्री सोमः॥
अ꣥पघ्नौ꣤꣯। होइपावा꣥॥ सा꣡इमा꣢ऽ१र्द्धाऽ᳒२ः᳒। क्रा꣡तुवि꣢त्सोऱ। ममा꣡त्सा꣢ऽ१ राऽ᳒२ः᳒॥ नु꣡दाऽ२३। स्वा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ व꣢युञ्ज꣡नाऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
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अ꣣या꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या꣣ य꣢या꣣ सू꣢र्य꣣म꣡रो꣢चयः। हि꣣न्वानो꣡ मानु꣢꣯षीर꣣पः꣢ ॥ 07:0493 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒या प॑वस्व॒ धार॑या॒ यया॒ सूर्य॒मरो॑चयः ।
हि॒न्वा॒नो मानु॑षीर॒पः ॥
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पदपाठः
अ꣣या꣢। प꣣वस्व। धा꣡र꣢꣯या। य꣡या꣢꣯। सू꣡र्य꣢꣯म्। अ꣡रो꣢चयः। हि꣣न्वानः꣢। मा꣡नु꣢꣯षीः। अ꣣पः꣢। ४९३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- निध्रुविः काश्यपः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से तेज की धारा माँगी गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे तेज-रूप रस के भण्डार परमेश्वर ! आप (अया) इस (धारया) तेज की धारा के साथ (पवस्व) हमें प्राप्त हो। (यया) जिस तेज की धारा से, आपने (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयः) चमकाया है। आप (मानुषीः अपः) सब मानव प्रजाओं को (हिन्वानः) तेज से तृप्त करो ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर तेज से सूर्य, अग्नि, बिजली आदियों को चमकाता है, उसके दिये हुए तेज से सब मनुष्य तेजस्वी होवें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमं परमात्मनं तेजोधारां प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे तेजोरसस्य अगार सोम परमेश्वर ! त्वम् (अया) अनया। अया एना इत्युपदेशस्य इति निरुक्तम्। ३।२१। (धारया) तेजोधारया (पवस्व) अस्मान् प्रति समागच्छ। पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (यया) तेजोधारया, त्वम् (सूर्यम्) आदित्यम् (अरोचयः) रोचितवानसि। त्वम् (मानुषीः अपः) मनुष्यसम्बन्धिनीः प्रजाः२ (हिन्वानः) तेजसा प्रीणयन् भवेति शेषः। हिवि प्रीणनार्थः भ्वादिः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरस्तेजसा सूर्यवह्निविद्युदादीन् प्रदीपयति, तत्प्रत्तेन तेजसा सर्वे जनास्तेजस्विनो भवन्तु ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।२२। २. ‘आपः जलानीव प्रजाः’ इति ऋ० ५।३४।९ भाष्ये द०।
07_0493 अया पवस्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९३-१। सूर्यसाम॥ (वैश्वदेवम्)। सूर्यो गायत्री सोमः॥ए꣥꣯अयाऱपवा॥ स्व꣢धाऽ᳒२᳒। र꣡या꣢ऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ३४पा꣥। य꣡याऱसूऱर्य मरोऽ᳒२᳒। च꣡या꣢ऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ३४पा꣥॥ हि꣡न्वाऱनोऱमाऱनुषाऽ२३इर्हो꣡इ॥ आप꣢ आऽ३१उवाऽ२३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-७। प-१०। मा-७॥ ३० (ञ्ले) ९१२॥
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स꣡ प꣢वस्व꣣ य꣢꣫ आवि꣣थे꣡न्द्रं꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे। व꣣व्रिवा꣡ꣳसं꣢ म꣣ही꣢र꣣पः꣢ ॥ 08:0494 ॥
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स प॑वस्व॒ य आवि॒थेन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे ।
व॒व्रि॒वांसं॑ म॒हीर॒पः ॥
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पदपाठः
सः꣢। प꣣वस्व। यः꣢। आ꣡वि꣢꣯थ। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। वृ꣣त्रा꣡य꣢। ह꣡न्त꣢꣯वे। व꣣व्रिवाँ꣡स꣢म्। म꣣हीः꣢। अ꣣पः꣢। ४९४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पापरूप वृत्र के वध का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे वीर-रस के भण्डार सोम परमेश्वर ! (सः) वह प्रसिद्ध आप, हमारे पास (पवस्व) अपनी रक्षा-शक्ति के साथ आओ, (यः) जो आप (महीः अपः) बड़ी धर्मरूप धाराओं को (वव्रिवांसम्) वरण करनेवाले (इन्द्रम्) जीवात्मा को (वृत्राय हन्तवे) अधर्म, पाप आदि के विनाशार्थ (आविथ) प्राप्त होते हो ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देवासुरसंग्राम में विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रेरणा पाकर पुरुषार्थ करना चाहिए ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पापवृत्रस्य वधविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे वीररसनिधे सोम परमेश्वर ! (सः) प्रसिद्धः त्वम्, अस्मान् (पवस्व) स्वकीयया रक्षया सह समागच्छ, (यः) यस्त्वम् (महीः अपः) महतीः धर्मधाराः (वव्रिवांसम्) वृतवन्तम्। वृणोतेर्लिटः क्वसौ रूपम्। (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (वृत्राय हन्तवे) अधर्मपापादिकस्य हननाय (आविथ) प्राप्नोषि। अवतेर्गत्यर्थस्य लिटि रूपम् ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देवासुरसंग्रामे विजयं लब्धुं परमेश्वरात् प्रेरणां लब्ध्वा पुरुषार्थः कार्यः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।२२।
08_0494 स पवस्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९४-१। वार्त्रघ्नम्॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रो वृत्रहा॥
स꣣हो꣢ऽ३४३इ। प꣢व꣣स्व꣥॥ य꣡आऽ᳒२᳒विथा꣡। इ꣢न्द्रं꣡वृत्रा꣢ऽ३। या꣡ह꣢न्ता꣣ऽ२३४ वे꣥। ओ꣡वा꣢ऽ३ओ꣤वा꣥॥ व꣢व्रि꣡वाऽ२३ꣳसा꣢म्॥ मा꣡ही꣢꣯रपा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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अ꣣या꣢ वी꣣ती꣡ परि꣢꣯ स्रव꣣ य꣡स्त꣢ इन्दो꣣ म꣢दे꣣ष्वा꣢। अ꣣वा꣡ह꣢न्नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥ 09:0495 ॥
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अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा ।
अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥
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पदपाठः
अ꣣या꣢। वी꣣ती꣢। प꣡रि꣢꣯। स्र꣣व। यः꣢। ते꣣। इन्दो। म꣡दे꣢꣯षु। आ। अ꣣वा꣡ह꣢न्। अ꣣व। अ꣡ह꣢꣯न्। न꣣वतीः꣢। न꣡व꣢꣯। ४९५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
सोमरस से तृप्त हुआ मनुष्य क्या करे, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्दरस वा वीररस के भण्डार परमात्मन् ! आप (अया वीती) इस रीति से (परिस्रव) उपासकों के अन्तःकरण में प्रवाहित होवो, कि (यः) जो उपासक (ते मदेषु) आपसे उत्पन्न किये गये हर्षों में (आ) मग्न हो, वह (नव नवतीः) निन्यानवे वृत्रों को (अवाहन्) विनष्ट कर सके ॥ मनुष्य की औसत आयु वेद के अनुसार सौ वर्ष है। उसमें से नौ या दस मास क्योंकि माता के गर्भ में बीत जाते हैं, इसलिए शेष लगभग निन्यानवे वर्ष वह जीता है। उन निन्यानवे वर्षों में आनेवाले विघ्न निन्यानवे वृत्र कहाते हैं। सोमजनित आनन्द एवं वीरत्व से तृप्त होकर मनुष्य उन सब वृत्रों का संहार करने में समर्थ हो, यह भाव है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर से झरा हुआ आनन्दरस वा वीररस स्तोता को ऐसा आह्लादित कर देता है कि वह जीवन में आनेवाले सभी विघ्नों वा शत्रुओं का संहार कर सकता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमरसेन तृप्तो जनः किं कुर्यादित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) आनन्दरसस्य वीररसस्य वा अगारभूत परमात्मन् ! त्वम् (अया वीती) अनया रीत्या। वी गत्यादिषु, भावे क्तिन्। तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (परिस्रव) उपासकानाम् अन्तःकरणे परिस्यन्द, यथा (यः) उपासकः (ते मदेषु) त्वज्जनितेषु हर्षेषु (आ) आ भवेत् सः (नव नवतीः) वृत्राणां नवनवतिम् (अवाहन्) अवहन्यात्। अत्र लिङर्थे लङ्। शतायुर्वै पुरुषः। तस्य नव मासा दश मासा वा गर्भे व्यतीयन्ते। एवं प्रायेण नवनवतिवर्षाणि स जीवति। तेषु नवनवतिवर्षेषु जायमाना ये विघ्नास्ते नवनवतिर्वृत्राण्युच्यन्ते। तानि मनुष्यः सोमस्य मदे हन्यादिति भावः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरात् प्रस्रुत आनन्दरसो वीररसो वा स्तोतारं तथा मादयति यथा स जीवने समागच्छतः सर्वानेव विघ्नान् शत्रून् वा हन्तुं प्रभवति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।१, साम० १२१०।
09_0495 अया वीती - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९५-१। सोम सामानि त्रीणि॥ त्रयाणां सोमो गायत्री सोमः॥
अ꣥या꣯वी꣯ती॥ पा꣢꣯रि꣡स्रवा। य꣢स्तइ꣡न्दाउ। मा꣢꣯दा꣡इषुवा॥ अवाहा꣢ऽ३ न्ना꣢ऽ३॥ व꣢तो꣡ऽ२३४वा꣥। ना꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥ दी-४। प-७। मा-४॥ ३२ (थी) ९१४॥
09_0495 अया वीती - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४९५-२।
अ꣢या꣡꣯वी꣯ता꣢᳐॥ औ꣣꣯हो꣡वा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣢ऽ३४इ। औ꣢꣯। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ प꣡रिस्र꣢व॥ यस्त꣡इन्दा꣢॥ औ꣣꣯हो꣡वा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣢ऽ३४इ। औ꣢꣯। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ म꣡दे꣰꣯ऽ२षुवा꣡꣯॥ अवा꣯हन्ना꣢᳐॥ औ꣣꣯हो꣡वा꣢᳐। औ꣣꣯हो꣢ऽ३४इ। औ꣢꣯। हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ व꣢ती꣡꣯र्नवाऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-२१। प-२४। मा-४॥ ३३ (घी) ९१५॥
09_0495 अया वीती - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४९५-३।
अ꣤या꣣ऽ५वी꣯। ता꣤ऽ३इपा꣢ऽ३रि꣤स्रवा꣥॥ या꣡स्तइ꣢न्दो꣯। मदा꣡इषू꣢ऽ१वाऽ᳒२᳒॥ अ꣡वाहा꣢ऽ३न्ना꣢᳐॥ व꣣ती꣯र्न꣢वा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-३। प-९। मा-४॥ ३४ (ढी) ९१६॥
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प꣡रि꣢ द्यु꣣क्ष꣡ꣳ सन꣢꣯द्रा꣣यिं꣢꣫ भर꣣द्वा꣡जं꣢ नो꣣ अ꣡न्ध꣣सा। स्वा꣣नो꣡ अ꣢र्ष प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣣ ॥ 10:0496 ॥
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परि॑ द्यु॒क्षः स॒नद्र॑यि॒र्भर॒द्वाजं॑ नो॒ अन्ध॑सा ।
सु॒वा॒नो अ॑र्ष प॒वित्र॒ आ ॥
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पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। द्यु꣣क्ष꣢म्। द्यु꣣। क्ष꣢म्। स꣡न꣢꣯त्। र꣣यि꣢म्। भ꣡र꣢꣯त्। वा꣡ज꣢꣯म्। नः꣣। अ꣡न्ध꣢꣯सा। स्वा꣣नः। अ꣣र्ष। प꣣वि꣡त्रे꣢। आ। ४९६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- उचथ्य आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
परमात्मा-रूप सोम क्या-क्या प्रदान करे, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्ति के निवासक (रयिम्) दिव्य ऐश्वर्य को (सनत्) देते हुए, और (अन्धसा) आनन्द-रस के साथ (नः) हमारे लिए (वाजम्) आत्म-बल को (भरत्) लाते हुए, (स्वानः) झरते हुए, आप (पवित्रे) दशापवित्र के तुल्य पवित्र हृदय में (आ अर्ष) आओ ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासक के हृदय में परमात्मा से झरा आनन्द-रस अनुपम ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस और आत्मबल आदि प्रदान करता है ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा-रूप सोम और उससे झरे हुए आनन्द, वीरता आदि के रस का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमः किं किं प्रयच्छेदित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्तेनिवासकम् (रयिम्) दिव्यम् ऐश्वर्यम् (सनत्) प्रयच्छन्, किञ्च (अन्धसा) आनन्दरसेन सह (नः) अस्मभ्यम् (वाजम्) आत्मबलम् (भरत्) आहरन् (स्वानः) अभिषूयमाणः, निर्झरन्, त्वम्, (पवित्रे) दशापवित्रे इव पवित्रे हृदये (आ अर्ष) आगच्छ ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासकस्य हृदये परमात्मनः सकाशात् प्रस्रुत आनन्दरसोऽनुपममैश्वर्यं ब्रह्मवर्चसम् आत्मबलादिकं च प्रयच्छति ॥१०॥ अत्र परमात्मरूपस्य सोमस्य, ततः प्रस्रुतस्यानन्दवीरत्वादिरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥१०॥ इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्द्धे प्रथमा दशतिः ॥ इतिपञ्चमेऽध्याये तृतीयः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।५२।१, ‘द्युक्षं सनद् रयि’, ‘स्वानो’, इत्यत्र क्रमेण ‘द्युक्षः सनद्रयिः’, ‘सुवानो’ इति पाठः।
10_0496 परि द्युक्षम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९६-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाजो गायत्री सोमः॥प꣥रिद्युक्षाम्॥ ओ꣡इ। सनद्रायीऽ᳒२᳒म्। ओ꣡इ। भरद्वाजाऽ᳒२᳒म्। ओ꣡इ। नो꣯अन्धासाऽ२३४॥ स्वा꣣꣯नो꣢ऽ३४अ꣣र्षा꣢ऽ३॥ प꣤वोवा꣥। त्रा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥