[[अथ त्रयोदशप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
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य꣢स्ते꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣स्ते꣡ना꣢ पव꣣स्वा꣡न्ध꣢सा। दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥ 34:0470 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यस्ते॒ मदो॒ वरे॑ण्य॒स्तेना॑ पव॒स्वान्ध॑सा ।
दे॒वा॒वीर॑घशंस॒हा ॥
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पदपाठः
यः꣢। ते꣣। म꣡दः꣢꣯। व꣡रे꣢꣯ण्यः। ते꣡न꣢꣯। प꣣वस्व। अ꣡न्ध꣢꣯सा। दे꣣वावीः꣢। दे꣣व। अवीः꣢। अ꣣घशँसहा꣢। अ꣢घशँस। हा꣢। ४७०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप सोम से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवित्रतादायक परमात्म-सोम ! (यः ते) जो तेरा (वरेण्यः) वरणीय (मदः) आनन्द-रस है, (तेन अन्धसा) उस रस के साथ (पवस्व) प्रवाहित हो, और प्रवाहित होकर (देवावीः) सन्मार्ग में प्रवृत्त करने के द्वारा मन, इन्द्रिय आदि देवों का रक्षक तथा (अघशंसहा) पापप्रशंसक भावों का विनाशक बन ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसनिधि परमात्मा की उपासना से जो आनन्दरस प्राप्त होता है, उससे शरीर के सब मन, इन्द्रियाँ आदि कुटिल मार्ग को छोड़कर सरलगामी बन जाते हैं और पापप्रशंसक भाव पराजित हो जाते हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवित्रतादायक परमात्मसोम ! (यः ते) यस्तव (वरेण्यः) वरणीयः (मदः) आनन्दरसः अस्ति (तेन अन्धसा) तेन रसेन। तेना इति संहितायां छान्दसो दीर्घः। (पवस्व) प्रवाहितो भव। प्रवाहितो भूत्वा च (देवावीः) मन-इन्द्रियादीनां देवानां सन्मार्गप्रवर्तनेन रक्षकः। ‘अवितॄस्तृतन्त्रिभ्यः’ उ० ३।१५८ इति अव धातोः ई प्रत्यये अवी इति सिध्यति। देवानाम् अवीः देवावीः। (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां भावानां हन्ता च भवेति शेषः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसनिधेः परमात्मन उपासनेन य आनन्दरसः प्राप्यते तेन शरीरस्य सर्वाणि मनइन्द्रियादीनि वक्रपथं विहाय ऋजुगामीनि जायन्ते पापप्रशंसका भावाश्च पराजीयन्ते ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।१९, साम० ८१५।
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लिखितम्
४७०-१। भासम्॥ अत्रिर्गायत्री सोमः॥
या꣤स्ता꣥इ॥ मा꣡दो। वारा꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। णी꣣ऽ२३४याः꣥। ता꣤इना꣥॥ पा꣡वा।
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लिखितम्
४७०-२। सोम साम॥ सोमो गायत्री सोमः॥
य꣤स्तेम꣥दाः॥ व꣢रा᳐इणि꣣याः꣢। ता꣡इनापावा꣢ऽ३स्वा꣢ऽ३। अ꣢न्ध꣣सा꣢॥ दा꣡इवावाइरा꣢ऽ३४। हा꣥उ॥ घ꣤शाऽ५ꣳसहा। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-नास्ति। प-९। मा-८॥ २ (लै) ८४६॥
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लिखितम्
४७०-३। प्राजापत्यम्॥ प्रजापतिर्गायत्री सोमः॥
य꣣स्ता꣢ऽ३२᳐इमा꣣ऽ२३४दाः꣥॥ व꣢रा꣡इणाया꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४ वा꣥। हा꣢इ। ता꣡इना꣯प꣢व। स्वआ꣡न्धासा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢इ॥ दा꣡इवावाइरा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। हा꣢ऽ३इ॥ घा꣡ऽ२᳐ शा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ स꣢हो꣯रयिऽ३ष्ठा꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ दी-४। प-१९। मा-१२॥ ३ (धा) ८४७॥
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लिखितम्
४७०-४। सोमसाम॥ सोमो गायत्री सोमः॥
य꣢स्ता꣡इमाऽ२३दो꣤꣯वरे꣥꣯णियाः॥ ता꣡इना꣯प꣢व। स्वआ꣡न्धा꣢ऽ१साऽ᳒२᳒॥ दा꣡इवाऽ᳒२᳒वा꣡इराऽ२३॥ घ꣢शो꣡ऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५होऽ६"हा꣥इ॥
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लिखितम्
४७०-५। भासम्॥ अत्रिर्गायत्री सोमः॥
य꣥स्ते꣯। मा꣢ऽ३दो꣤। वा꣥। ई꣤या꣥॥ रा꣡इणा꣢ऽ१याऽ᳒२ः᳒। ता꣡इना꣯प꣢व। स्व। औ꣭ऽ३हो꣢꣯। वा꣣꣯हा꣢। ध꣡साऽ᳒२᳒॥ दा꣡इवाऽ२३॥ वा꣡ऽ२᳐इरा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ घ꣢शꣳ स꣣हा꣢ऽ१॥
34_0470 यस्ते मदो - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४७०-६। अध्यर्द्धेडँ सोम साम॥ सोमो गायत्री सोमः॥
य꣥स्ते꣯मदो꣯वरे꣯णियाऽ६ए꣥॥ ते꣢꣯ना꣡꣯पवस्वा꣯न्धसा॥ दे꣢꣯वा꣡꣯वी꣯राऽ२३। हा꣢इ॥ घा꣡शा꣢उवा। सा꣡हा꣢उवाऽ३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-९। प-७। मा-४॥ ६ (थ्ली) ८५०॥
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ति꣣स्रो꣢उ। वाच꣣ उ꣡दी꣢रते꣣ गा꣡वो꣢ मिमन्ति धे꣣न꣡वः꣢। ह꣡रि꣢रेति꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥ 35:0471 ॥
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ति॒स्रो वाच॒ उदी॑रते॒ गावो॑ मिमन्ति धे॒नवः॑ ।
हरि॑रेति॒ कनि॑क्रदत् ॥
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पदपाठः
ति꣣स्रः꣢। वा꣡चः꣢꣯। उत्। ई꣣रते। गा꣡वः꣢꣯। मि꣣मन्ति। धेन꣡वः꣢। ह꣡रिः꣢꣯। ए꣣ति। क꣡नि꣢꣯क्रदत्। ४७१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- त्रित आप्त्यः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्द-रस के झरने का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (तिस्रः वाचः) ऋग्, यजुः, साम रूप तीन वाणियाँ (उदीरते) उठ रही हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो (धेनवः) नवप्रसूत दुधारू (गावः) गौएँ (मिमन्ति) बछड़ों के प्रति रंभा रही हों। (हरिः) कल्मषहारी, आनन्दमय सोमरस का झरना (कनिक्रदत्) झर-झर शब्द करता हुआ (एति) उपासकों की मनोभूमि पर झर रहा है ॥५॥ इस मन्त्र में व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति और अनुप्रास अलङ्कार हैं ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा की आराधना में लीन जन पुनः-पुनः ऋग्, यजुः, साम रूप वाणियों का उच्चारण कर रहे हैं, मानो बछड़ों के प्रति प्रेम में भरी हुई धेनुएँ रंभा रही हों। उपासकों की मनोभूमियाँ रसनिधि परमात्मा के पास से प्रस्नुत आनन्दरस के झरने में नहा रही हैं। अहो, कैसा आनन्दमय वातावरण है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसनिर्झरं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (तिस्रः वाचः) ऋग्यजुःसामलक्षणाः (उदीरते) उद्गच्छन्ति, (धेनवः) नवप्रसूताः प्रस्नुतपयोधराः (गावः) पयस्विन्यः इव (मिमन्ति) तर्णकान् प्रति शब्दायन्ते। माङ् माने शब्दे च। परस्मैपदं छान्दसम्। (हरिः) कल्मषहारी आनन्दमयः सोमरसनिर्झरः। हरिः सोमो हरितवर्णः इति निरुक्तम् ४।१९। (कनिक्रदत्) झर-झर शब्दं कुर्वन् (एति) उपासकानां मानसभुवि निर्झरति। क्रदि आह्वाने रोदने च। ‘दाधर्तिदर्धर्ति० अ० ७।४।६५’ इति क्रन्दर्यङ्लुगन्तस्य शतरि अभ्यासस्य चुत्वाभावो निगागमश्च निपात्यते ॥५॥ अत्र व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा स्वभावोक्तिरनुप्रासश्चालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्माराधने लीना जनाः प्रेम्णा मुहुर्मुहुर्ऋग्यजुःसामलक्षणा वाच उदीरयन्ति। मन्ये वत्सान् प्रति स्नेहाकुला धेनवः शब्दायन्ते। उपासकानां मानसभूमयो रसनिधेः परमात्मनः सकाशात् प्रस्नुतेनानन्दरसनिर्झरेण स्नाता जायन्ते। अहो, कीदृशमानन्दमयं वातावरणं वर्तते ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।३३।४, साम० ८६९।
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लिखितम्
४७१-१। वैष्टम्भे द्वे॥ द्वयोर्विष्टम्भो गायत्री सोमः॥
ति꣥स्रो꣯वा꣯चाः॥ उ꣡दाइ। उ꣢दाऽ३१उ। वाये꣢ऽ३। राऽ२३४ते꣥॥ गा꣯वो꣯ मिमा॥ ति꣢धा꣡इ। ति꣢धाऽ३१उ। वाये꣢ऽ३। नाऽ२३४वाः꣥॥ हरिरे꣯ती॥ क꣢ना꣡इ। क꣢नाऽ३१उ। वाये꣢ऽ३॥ क्राऽ२३४दा꣥त्॥ दी-५। प-१५। मा-९॥ ७ (मो) ८५१॥
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लिखितम्
४७१-२।
ति꣥स्रो꣯वा꣯चाः॥ उ꣡दाइरा꣢ऽ३ते꣢। गा꣡꣯वो꣯मिमन्तिधा꣢ऽ१इना꣢ऽ३वाः꣢। हरिरे꣯ तो꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ का꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ क्रा꣣ऽ२३४दा꣥त्॥ दी-७। प-६। मा-७॥ ८ (चे) ८५२॥
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लिखितम्
४७१-३। पाष्ठौहे द्वे॥ द्वयोः पष्ठवाड् गायत्री सोमः॥
ति꣢स्रो꣯वा꣡चोऽ२३४हा꣥इ॥ उ꣢दी꣯र꣡ताइ। गा꣢꣯वो꣯मि꣡माऽ२३४हा꣥॥ ति꣢धे꣯न꣡वाः॥ ह꣢रिरा꣡इतोऽ२३४हा꣥इ॥ क꣢ना꣡ये꣢ऽ३। क्रा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢स्म꣡भ्यं꣢गा꣯तु वि꣡त्त꣢मा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ दी-८। प-८। मा-७॥ ९ (डे) ८५३॥
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लिखितम्
४७१-४।
ति꣥स्रो꣤꣯वा꣯च꣥उ꣤दी꣥꣯रतो꣤। वाहा꣥इ॥ गा꣢꣯वो꣯मिमाऽ३। ती꣡धे꣢᳐ना꣣ऽ२३४वाः꣥॥ हा꣤री꣥रा꣤इती꣥॥ का꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ क्रा꣣ऽ२३४दा꣥त्॥ दी-७। प-७। मा-६॥ १० (छू) ८५४॥
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लिखितम्
४७१-५। क्षुल्लक वैष्टंभम्॥ विष्टंभो गायत्री सोमः॥
ति꣤स्रो꣣ऽ५वा꣯। चा꣤ऽ३उ꣢दी꣣꣯र꣥ताइ॥ गा꣡वो꣯मि꣢म। तिधा꣡इना꣢ऽ१वाऽ२३ः। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ ह꣡राइरा꣢ऽ१इतीऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ कना꣡ये꣢ऽ३। क्रा꣡ऽ२᳐ दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ दी꣣ऽ२३४शाः꣥॥ दी-५। प-१०। मा-१०॥ ११ (मौ) ८५५॥
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लिखितम्
४७१-६। पाष्ठौहम्॥ पष्ठवाड्गायत्री सोमः॥
ति꣤स्रो꣯वा꣯चाऽ५उदी꣯र꣤ताइ॥ गा꣢꣯वो꣡꣯मिमन्ति꣢धे꣡꣯नवः। हरिराऽ२३इती꣢॥ कनौऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। हो꣭ऽ३वा꣢ऽ३॥ क्रा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ हा꣢꣯ओ꣡वा꣢। ओ꣡वा꣣ ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रा꣢येन्दो म꣣रु꣡त्व꣢ते꣣ प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तमः। अ꣣र्क꣢स्य꣣ यो꣡नि꣢मा꣣स꣡द꣢म् ॥ 36:0472 ॥
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इन्द्रा॑येन्दो म॒रुत्व॑ते॒ पव॑स्व॒ मधु॑मत्तमः ।
ऋ॒तस्य॒ योनि॑मा॒सद॑म् ॥
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पदपाठः
इ꣡न्द्रा꣢꣯य। इ꣣न्दो। मरु꣡त्व꣢ते। प꣡व꣢꣯स्व। म꣡धु꣢꣯मत्तमः। अ꣣र्क꣡स्य꣢। यो꣡नि꣢꣯म्। आ꣣स꣡द꣢म्। आ꣣। स꣡दम्। ४७२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- कश्यपो मारीचः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्दु नाम से परमात्मा-रूप-सोम का आह्वान है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) चन्द्रमा के सदृश आह्लादक, रस से आर्द्र करनेवाले रसनिधि परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) अतिशय मधुर आप (मरुत्वते इन्द्राय) प्राणयुक्त मेरे आत्मा के लाभार्थ, (अर्कस्य) उपासक उस आत्मा के (योनिम्) निवासगृह हृदय में (पवस्व) प्राप्त हों ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - समाधि-दशा में रसागार परमेश्वर से प्रवाहित होता हुआ आनन्द-संदोह हृदय में व्याप्त होकर उपासक जीव का महान् कल्याण करता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्दुनाम्ना परमात्मसोम आहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्दो) चन्द्रवदाह्लादक पवित्रतादायक रसेनार्द्रयितः रसनिधे परमात्मन् ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः त्वम् (मरुत्वते इन्द्राय) प्राणसहचराय मम आत्मने, आत्मनो लाभार्थमित्यर्थः। (अर्कस्य) अर्चयितुः आत्मदेवस्य (योनिम्) निवासगृहं हृदयम्। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (आसदम्२) आसत्तुम्। आङ्पूर्वात् षद्लृ धातोः तुमर्थे णमुल् प्रत्ययः। (पवस्व) गच्छ। पूङ् पवने भ्वादिः, पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४ ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - समाधिदशायां रसागारात् परमेश्वरात् स्यन्दमान आनन्दसंदोहो हृदयमभिव्याप्योपासितुर्जीवस्य महत् कल्याणं करोति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६४।२२ ‘अर्कस्य’ इत्यत्र ‘ऋतस्य’ इति पाठः। साम० १०७६। २. आसदम् आसत्तुम् इति भ०। आसदम् उपवेष्टुम् इति सा०। विवरणकार ‘आसदम्’ इति क्रियापदत्वेन व्याचष्टे—आसदम् आसीदम् इति। तत्तु स्वरविरुद्धम्, क्रियापदत्वे निघातप्राप्तेः।
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-१। इषो वृधीयम्॥ प्रजापतिर्गायत्रीन्द्र सोमौ॥
इ꣥न्द्रा꣯ये꣯न्दाउ॥ म꣢रुत्व꣡ताइ। प꣢वस्वा꣡माऽ᳒२᳒। धुमत्त꣡माः॥ अ꣢र्क स्या꣡योऽ᳒२᳒॥ निमा꣡ऽ२३। सा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ इ꣢षो꣡꣯वृधे꣢ऽ१॥ दी-५। प-८। मा-४॥ १३ (बी) ८५७॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-२। इन्द्रसाम॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रसोमौ इन्द्रो वा॥
आ꣣ऽ२३४इन्द्रा꣥। या꣣ऽ२३४इन्दो꣥॥ म꣢रू꣡त्वते꣢ऽ३। पाऽ२३४वा꣥। स्वा꣣ऽ २३४मा꣥। धु꣢मा꣡त्तमा꣢ऽ३ः॥ आऽ२३४र्का꣥॥ स्या꣣ऽ२३४यो꣥॥ नि꣢मा꣡꣯स꣢दा꣣ ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-३। वैश्वदेवे द्वे॥ द्वयोर्विश्वेदेवागायत्रीन्द्रासोमौ इन्द्रो वा॥
इ꣢न्द्रा꣯या꣡इन्दोऽ२३। हा꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣢। मरुत्वा꣡तेऽ२३। हा꣡। औ꣢ऽ३ हो꣯वा꣢॥ पवस्वा꣡माऽ२३। हा꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣢। धुमत्ता꣡माऽ२३ः। हा꣡। औ꣢ऽ३ हो꣯वा꣢॥ अर्कस्या꣡योऽ२३। हा꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣢। निमा꣯सा꣡दाऽ२३म्। हा꣡। औ꣢ऽ३ हो꣯वा꣢ऽ३४३॥ ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-८। प-२०। मा-४॥ १५ (णी) ८५९॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-४।
इ꣤न्द्रा꣥꣯ये꣯न्दो꣯। ए꣤ऽ५। म꣤रू॥ त्व꣡ताइ। पवस्वमधु꣢म꣡त्ताऽ२३माः꣢। हुवा꣡इ। हो꣭ऽ३वा꣢॥ अर्का꣡स्याऽ२३यो꣢। हुवा꣡इ। हो꣭ऽ३वा꣢॥ निमा꣡꣯साऽ२३ दा꣢ऽ३४३म्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-५। आग्नेये द्वे॥ द्वयोरग्निर्गायत्रीन्द्रासोमौ इन्द्रो वा॥
इ꣥न्द्रा꣯ये꣯न्दो꣯हाउ॥ म꣢। रू꣡। त्वते꣢ऽ३हा꣢उ। प꣡वस्व꣢मधु। मा꣡। त꣪माऽ२३ हा꣢उ। अ। का꣡। स्य꣪योऽ२३हा꣢ऽ३इ॥ नि꣡माऽ२३। होऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५दोऽ६" हा꣥इ॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-६।
इ꣥न्द्रा꣯ये꣯न्दो꣤वा꣥। ओ꣤वा꣥॥ म꣢रुत्व꣡तोवा꣢। ओ꣡वा꣢। पवस्व꣡मोवा꣢। ओ꣡वा꣢। धुमत्त꣡मोवा꣢। ओ꣡वा꣢ऽ३॥ अ꣤र्काहा꣥उ। स्य꣤योहा꣥उ॥ नि꣢मो꣡वा꣢ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५दोऽ६"हा꣥इ॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-७। वैश्वदेवम्॥ विश्वेदेवा गायत्रीन्द्रासोमौ इन्द्रो वा॥
इ꣤न्द्रा꣥꣯ये꣯न्दो꣯मरु꣤त्व꣥ते꣯। ओ꣤हाइ॥ प꣡वस्व꣢म꣡धु꣢मत्तमः। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३४३। ओ꣢ऽ३४हा꣥॥ आ꣡र्क꣪स्यायोऽ२३॥ ना꣡ऽ२᳐इमा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣢प्। सा꣣ऽ२३४दा꣥म्॥
36_0472 इन्द्रायेन्दो मरुत्वते - 08 ...{Loading}...
लिखितम्
४७२-८। आग्नेयम्॥ अग्निर्गायत्रीन्द्रासोमौ इन्द्रो वा॥
इ꣥न्द्रा꣯ये꣯न्दो꣯मरुत्वाऽ६ता꣥इ॥ प꣡वस्व꣢म। धुमा꣡त्ता꣢ऽ१माऽ२३४ः॥ अ꣥र्कस्य यो꣯निमाऽ६हा꣥उ। सा꣤ऽ५दोऽ६"हा꣥इ॥ दी-४। प-५। मा-४॥ २० (नी) ८६४॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡सा꣢व्य꣣ꣳशु꣡र्मदा꣢꣯या꣣प्सु꣡ दक्षो꣢꣯ गिरि꣣ष्ठाः꣢। श्ये꣣नो꣢꣫ न योनि꣣मा꣡स꣢दत् ॥ 37:0473 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
असा॑व्यं॒शुर्मदा॑या॒प्सु दक्षो॑ गिरि॒ष्ठाः ।
श्ये॒नो न योनि॒मास॑दत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡सा꣢꣯वि। अँ꣣शुः꣢। म꣡दा꣢꣯य। अ꣣प्सु꣢। द꣡क्षः꣢꣯। गि꣣रिष्ठाः꣢। गि꣣रि। स्थाः꣢। श्ये꣣नः꣢। न। यो꣡नि꣢꣯म्। अ। अ꣣सदत्। ४७३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- जमदग्निर्भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्दरस का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (गिरिष्ठाः) पर्वत पर स्थित, (दक्षः) बलप्रद (अंशुः) सोम ओषधि, जैसे (अप्सु) जलों में (असावि) अभिषुत की जाती है, वैसे ही (गिरिष्ठाः) पर्वत के समान उन्नत परब्रह्म में स्थित, (दक्षः) आत्मबल को बढ़ानेवाला (अंशुः) आनन्द-रस (मदाय) हर्ष के लिए (अप्सु) मेरे प्राणों वा कर्मों में (असावि) मेरे द्वारा अभिषुत किया गया है। (श्येनः न) बाज पक्षी, जैसे (योनिम्) अपने घोंसले को प्राप्त होता है, वैसे ही यह आनन्दरस (योनिम्) मेरे हृदय-गृह में (आ असदत्) आकर स्थित हो गया है ॥७॥ इस मन्त्र में पूर्वार्द्ध में श्लिष्ट व्यङ्ग्योपमा तथा उत्तरार्ध में वाच्योपमा अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे बाज आदि पक्षी सायंकाल अपने आवासभूत वृक्ष पर आ जाते हैं, वैसे ही परब्रह्म के पास से झरता हुआ आनन्द-रस हृदय-प्रदेश में आता है और जैसे सोमलता का सोमरस वसतीवरी नामक पात्र में स्थित जल में अभिषुत किया जाता है, वैसे ही आनन्द-रस स्तोता के प्राणों और कर्मों में अभिषुत होता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसो वर्ण्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (गिरिष्ठाः) पर्वते स्थितः। गिरौ तिष्ठतीति गिरिष्ठाः ‘आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति विच् प्रत्ययः। (दक्षः) बलप्रदः (अंशुः) सोमौषधिः। अंशुः शमष्टमात्रो भवति, अननाय शं भवतीति वा। निरु० २।५। यथा (अप्सु) उदकेषु (असावि) सूयते, तथा (गिरिष्ठाः) पर्वतवदुन्नते परब्रह्मणि विद्यमानः (दक्षः) आत्मबलवर्द्धकः (अंशुः) आनन्दरसः (मदाय) हर्षाय (अप्सु) मम प्राणेषु कर्मसु च (असावि) मया अभिषुतोऽस्ति। (श्येनः न) श्येनपक्षी यथा (योनिम्) स्वनीडं प्राप्नोति, तथा एष आनन्दरसः (योनिम्) मम हृदयमन्दिरम् (आ असदत्) आगतोऽस्ति ॥७॥ अत्र पूर्वार्द्धे श्लेषमूलो व्यङ्ग्योपमालङ्कारः। उत्तरार्द्धे वाच्योपमा ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा श्येनादयः पक्षिणः सायंकाले स्वस्वावासभूतं वृक्षं प्रत्यागच्छन्ति तथैव परब्रह्मणः सकाशान्निर्झरन्नानन्दरसो हृदयप्रदेशमभ्यागच्छति। यथा च सोमो वसतीवर्याख्यपात्रस्थे जलेऽभिषूयते तथाऽऽनन्दरसः स्तोतुः प्राणेषु कर्मसु च ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६२।४, साम० १००८।
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-१। शैशवानि चत्वारि॥ शिशुर्गायत्री श्येनसोमौ॥
आ꣤सा꣥॥ वि꣡यꣳशु꣢र्माऽ३१उवाऽ२३। दाऽ२३४या꣥। आ꣤प्सू꣥दा꣤क्षाः꣥। गि꣢राऽ३१उवाये꣢ऽ३। ष्ठाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ श्ये꣢꣯नो꣡꣯नाऽ२३यो꣢। निमाऽ३१उवाऽ२३॥ साऽ२३४दा꣥त्॥ दी-२। प-९। मा-६॥ २१ (झू) ८६५॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-२।
अ꣤सा꣥꣯विया꣤॥ शू꣡र्म꣪दाऽ᳒२᳒। य। आ꣡प्सू꣪दाक्षाऽ᳒२ः᳒। गा꣡इरिष्ठाः꣢꣯॥ श्या꣡इनो꣢ ऽ१नायोऽ२३॥ नि꣢मो꣡ऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५दोऽ६"हा꣥इ॥ दी-२। प-८। मा-५॥ २२ (जु) ८६६॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-३।
अ꣥सा꣯। वि꣣या꣢᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ शू꣡र्म꣪दाया꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। आ꣡प्सा꣢᳐ओ꣣ऽ २३४वा꣥॥ द꣡क्षो꣯गिराइ। ष्ठा꣢ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ श्ये꣢꣯नो꣡꣯नयो꣯निमा꣯स꣢दा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡त्॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-४।
अ꣥सा꣯। वि꣣यौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ शु꣢र्म꣡दायौ꣢। वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। अप्सू। द꣣क्षौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। गि꣡राइ। ष्ठौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥। श्ये꣯नः। न꣣यौ꣢वा᳐ ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ नि꣡मा। सादौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥ दी-२। प-१४। मा-९॥ २४ (झो) ८६८॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-५। च्यावनानि चत्वारि॥ चतुर्णां च्यवनो गायत्री श्येनसोमौ॥
अ꣤सा꣥꣯। व्युहु꣤वाहा꣥इ॥ अꣳ꣢शु꣡र्मदा꣯या꣯प्सुदक्षो꣯गिरिष्ठा꣯उहुवाऽ२३हो꣡इ॥ श्याऽ२३इनो꣢ऽ३॥ ना꣡ऽ२᳐यो꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ नि꣢मा꣡꣯स꣢दा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡त्॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-६।
अ꣤सा꣥꣯व्यꣳशुः꣤। औ꣥꣯हो꣤वाहा꣥इ॥ म꣡दाऽ२३या꣢। आ꣡प्सुद꣢क्षो꣯गिरिष्ठाः꣯। श्या꣡इनोना꣢ऽ३यो꣢ऽ३॥ ना꣡ऽ२᳐इमा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣢प्। सा꣣ऽ२३४दा꣥त्॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-७।
इ꣣हा꣢ऽ३१२३४। इहा꣯। सा꣥꣯व्यꣳशु꣤र्मदा꣥꣯य। इ꣤हा॥ अ꣢प्सु꣡दक्षो꣯गिरिष्ठा꣢ ऽ३४५ः। ई꣣ऽ२३४हा꣥॥ श्ये꣢꣯नो꣡꣯नयोऽ२᳐नि꣣मा꣢ऽ३४५। ई꣣ऽ२३४हा꣥॥ आ꣡ऽ२᳐स꣣दा꣢ ऽ३४५त्॥ ई꣣ऽ२३४हा꣥॥ दी-६। प-१०। मा-२॥ २७ (ङा) ८७१॥
37_0473 असाव्यंशुर्मदायाप्सु दक्षो - 08 ...{Loading}...
लिखितम्
४७३-८।
अ꣣साऽ२३४। वियꣳ꣥शुः। म꣣दाऽ२३४या꣥ऽ६। हा꣥उ॥ आ꣢प्सू᳐दा꣣ऽ२३४ क्षाः꣥। गि꣢रा꣡इष्ठाऽ२३४हा꣥इ॥ श्या꣡इनोना꣢ऽ३यो꣢ऽ३। ना꣡इमाऽ२३हा꣢ऽ३४३इ। सा꣡ऽ२३४दो꣥ऽ६"हा꣥इ॥ दी-नास्ति। प-९। मा-९॥ २८ (लो) ८७२॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡व꣢स्व दक्ष꣣सा꣡ध꣢नो दे꣣वे꣡भ्यः꣢ पी꣣त꣡ये꣢ हरे। म꣣रु꣡द्भ्यो꣢ वा꣣य꣢वे꣣ म꣡दः꣢ ॥ 38:0474 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पव॑स्व दक्ष॒साध॑नो दे॒वेभ्यः॑ पी॒तये॑ हरे ।
म॒रुद्भ्यो॑ वा॒यवे॒ मदः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡व꣢꣯स्व। द꣣क्षसा꣡ध꣢नः। द꣣क्ष। सा꣡ध꣢꣯नः। दे꣣वे꣡भ्यः꣢। पी꣣त꣡ये꣢। ह꣣रे। मरु꣡द्भ्यः꣢। वा꣣य꣡वे꣢। म꣡दः꣢꣯। ४७४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- दृढच्युत आगस्त्यः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्दरस के झरने की प्रार्थना है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (हरे) उन्नति की ओर ले जानेवाले रसागार परब्रह्म ! (दक्षसाधनः) बल के साधक आप (देवेभ्यः पीतये) विद्वानों द्वारा पान के लिए (पवस्व) आनन्दरस को परिस्रुत करो। उन विद्वानों के (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए तथा (वायवे) गतिशील मन के लिए (मदः) तृप्तिप्रदाता होवो ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्म के पास से जो आनन्द-रस झरता है, वह साधक की ऊर्ध्वयात्रा में सहायक होता है, और उस रस से उसका मन, बुद्धि, प्राण आदि सब-कुछ परमतृप्ति को पा लेता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसस्य प्रस्रवणं प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (हरे) ऊर्ध्वहरणशील रसागार परब्रह्म ! (दक्षसाधनः) बलसाधकस्त्वम् (देवेभ्यः पीतये) विद्वद्भ्यः पानाय (पवस्व) आनन्दरसं परिस्रावय, किञ्च तेषां विदुषाम् (मरुद्भ्यः) प्राणेभ्यः (वायवे) गतिशीलाय मनसे च (मदः) तृप्तिकरो भव ॥ वाति गच्छतीति वायुः। मनसश्च गतिशीलत्वं ‘यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑। दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वसं॑कल्पमस्तु।’ य० ३४।१ इत्यादिवर्णनाद् सिद्धम् ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परब्रह्मणः सकाशाद् य आनन्दरसः प्रस्रवति स साधकस्योर्ध्वयात्रायां सहायको जायते। तेन च रसेन तस्य मनोबुद्धिप्राणादिकं सर्वमेव परमां तृप्तिं भजते ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।२५।१, साम० ९१९।
38_0474 पवस्व दक्षसाधनो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७४-१। प्राजापत्ये द्वे॥ द्वयोः प्रजापतिर्गायत्री मरुद्वायू॥
प꣤व꣥स्वदौ꣯। हौ꣤꣯होवाहा꣥इ॥ क्षा꣡सा꣢꣯धना꣭ऽ३ः। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३४इ। औ꣯हो꣥꣯। वा꣣꣯हा꣢इ। दे꣯वे꣡꣯भ्यᳲ꣢पा꣡इ। त꣢ये꣣꣯ह꣢रा꣭ऽ३इ। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३४इ। औ꣯हो꣥꣯। वा꣣꣯हा꣢इ॥ मरु꣡द्भ्यो꣢꣯वा꣭ऽ३। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३४इ। औ꣯हो꣥꣯। वा꣣꣯हा꣢ऽ३इ॥ या꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ मा꣣ऽ२३४दाः꣥॥
38_0474 पवस्व दक्षसाधनो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४७४-२।
प꣤व꣥स्वदक्षसा꣤꣯ध꣥नः। ओऽ६वा꣥॥ दे꣢꣯वे꣡꣯भ्यᳲपी꣯तयाऽ᳒२᳒ओ꣡इ। ह꣢राऽ᳒२᳒इ॥ मरु꣡द्भ्यो꣢꣯वाऽ᳒२᳒। ओ꣡ऽ२३॥ य꣤वोवा꣥। मा꣤ऽ५दोऽ६"“हा꣥इ॥ दी-५। प-८। मा-५॥ ३० (बु) ८७४॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡रि꣢ स्वा꣣नो꣡ गि꣢रि꣣ष्ठाः꣢ प꣣वि꣢त्रे꣣ सो꣡मो꣢ अक्षरत्। म꣡दे꣢षु सर्व꣣धा꣡ अ꣢सि ॥ 39:0475 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॑ सुवा॒नो गि॑रि॒ष्ठाः प॒वित्रे॒ सोमो॑ अक्षाः ।
मदे॑षु सर्व॒धा अ॑सि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। स्वा꣣नः꣢। गि꣣रिष्ठाः꣢। गि꣣रि। स्थाः꣢। प꣣वि꣡त्रे꣣। सो꣡मः꣢꣯। अ꣣क्षरत्। म꣡दे꣢꣯षु। स꣣र्वधाः꣢। स꣣र्व। धाः꣢। अ꣣सि। ४७५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आनन्दरस के प्रवाह का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (गिरिष्ठाः) पर्वत पर उत्पन्न (सोमः) सोम ओषधि, जैसे (स्वानः) निचोड़ने पर (पवित्रे) दशा-पवित्र में क्षरित होती है, वैसे ही (गिरिष्ठाः) पर्वत के समान उन्नत परब्रह्म में स्थित और (स्वानः) वहाँ से अभिषुत किया जाता हुआ (सोमः) आनन्दरस (पवित्रे) पवित्र हृदय में (अक्षरत्) क्षरित हो रहा है। हे रसागार परमात्मन् ! तुम (मदेषु) आनन्दरसों के क्षरित होने पर (सर्वधाः) सर्वात्मना धारणकर्ता (असि) होते हो ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषमूलक वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब रसनिधि परमात्मा से आनन्दरस हृदय में प्रस्रुत होता है, तब रस से संतृप्त योगी पूर्णतः धृत हो जाता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथानन्दरसप्रवाहं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (गिरिष्ठाः) पर्वतोत्पन्नः (सोमः) सोमौषधिः यथा (स्वानः) सुवानः अभिषूयमाणः सन्। षुञ् अभिषवे स्वादिः, कर्मणि शानच्। छन्दसि बाहुलकाद् उवङभावे यण्। (पवित्रे) दशापवित्रे क्षरति तथा (गिरिष्ठाः) गिरिवदुन्नते परब्रह्मणि स्थितः (स्वानः) तत अभिषूयमाणश्च (सोमः) आनन्दरसः (पवित्रे) पवित्रे हृदये (अक्षरत्) प्रस्रवति। हे आनन्दरसागार परमात्मन् ! त्वम् (मदेषु) आनन्दरसेषु क्षरितेषु सत्सु (सर्वधाः) सर्वेषाम् उपासकानां धारकः (असि) भवसि ॥९॥ अत्र श्लेषमूलो वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा रसनिधेः परमात्मनः सकाशादानन्दरसो हृदये प्रस्रवति तदा रससंतृप्तो योगी सर्वात्मना ध्रियते ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१८।१ ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा। ‘परिसुवानो गिरिष्ठाः पवित्रे सोमो अक्षाः’ इति पाठः। साम० १०९३।
39_0475 परि स्वानो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-१। वैदन्वतानि चत्वारि॥ चतुर्णां विदन्वान्गायत्री सोमः॥
पा꣤री꣥॥ स्वा꣢꣯नो꣯गिरिष्ठाः꣯। पवा꣡ऽ२᳐इत्रे꣣ऽ२३४सो꣥। मो꣢꣯अक्षा꣡राऽ᳒२᳒त्॥ म꣡दाइषूसा꣢ऽ३। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३॥ र्व꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥
39_0475 परि स्वानो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-२।
प꣤। र्येपारी꣥॥ स्वा꣢꣯नो꣯गिरिष्ठाः꣯। पवा꣡ऽ२᳐इत्रे꣣ऽ२३४सो꣥। मो꣢꣯अक्षा꣡राऽ᳒२᳒त्॥ म꣡दाइषूसा꣢ऽ३हा꣢ऽ३॥ र्वा꣡ऽ२᳐धा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। अ꣡सी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
39_0475 परि स्वानो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-३।
पा꣣ऽ५रि। स्वा꣯नो꣤ऽ३गा꣢ऽ३इरि꣤ष्ठाः꣥॥ प꣢वि꣡त्रे꣢꣯सो꣡। मो꣢꣯अ꣣क्ष꣢रा꣡त्। प꣢वि꣡त्रे꣢꣯। सो꣡मोऽ२३। क्षा꣤रा꣥त्। ओ꣡इ। मदौ꣢। वाऽ३४३ओ꣢ऽ३४वा꣥। षुवा꣤॥ स꣢र्वधाः꣡꣯। असाये꣢ऽ३। मा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। षु꣢सर्वधा꣡꣯असी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
39_0475 परि स्वानो - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-४।
औ꣭ऽ३हो꣢इ। इ꣡ह꣢हा꣣꣯ह꣢हा꣡इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥। प꣢राइस्वा꣣ऽ᳐२३४नो꣥। गि꣢रा꣣ऽ२३४इष्ठाः꣥॥ पा꣢वित्रे꣣ऽ२३४सो꣥। मो꣢अक्षा꣣ऽ२३४रा꣥त्॥ म꣢दाइषू꣣ऽ२᳐३४ सा꣥। र्व꣢धाआ꣣ऽ२᳐३४सी꣥॥ औ꣭ऽ३हो꣢इ। इ꣡ह꣢हा꣣꣯ह꣢हा꣡इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४५वा ऽ६५६॥ ए꣢ऽ᳐३। उ꣡पा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
39_0475 परि स्वानो - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-५। आङ्गिरसस्य रजेः पदस्तोभौ द्वौ॥ द्वयोराजिर्गायत्री सोमः॥
प꣤। र्येस्वानाः꣥॥ गा꣡ऽ᳒२᳒इ। रिष्ठाऽ᳒२᳒या꣡। हा꣣꣯हा꣢इ। उ꣡वाऽ२३हो꣡꣡इ। पावित्रेसो꣢। मो꣡अ꣪क्षाराऽ२᳐त्। हा꣣꣯हा꣢इ। उ꣡वाऽ२३हो꣡इ॥ मदाऽ२᳐इषु꣣सा꣢। हा꣣꣯हा꣢इ। उ꣡वाऽ२३हो꣡॥ र्व꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥ दी-३। प-१५। मा-११॥ ३५ (ण) ८७९॥
39_0475 परि स्वानो - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४७५-६।
प꣥र्यौ꣯हो꣯वा꣯हा꣯इस्वा꣤नाः꣥॥ गा꣡ऽ᳒२᳒इ। रिष्ठाऽ᳒२᳒या꣡। ओ꣣ऽ२३४। हा꣣꣯हो꣢᳐इ। हा꣣꣯हा꣢। हो꣡वा꣢। हो꣡वा꣢। पा꣡वित्रेसो꣢। मो꣡अ꣪क्षाराऽ२᳐त्। ओ꣣ऽ२३४। हा꣣꣯हो꣢इ। हा꣣꣯हा꣢। हो꣡वा꣢। हो꣡वा꣢। म꣡दाऽ२᳐इषु꣣सा꣢। ओ꣣ऽ२३४। हा꣣꣯हो꣢᳐इ। हा꣣꣯हा꣢। हो꣡वा꣢। हो꣡वा꣢ऽ३। र्व꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥ दी-१०। प-२३। मा-१०॥ ३६ (वौ) ८८०॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ क꣣वि꣡र्वया꣢꣯ꣳसि न꣣꣬प्त्यो꣢꣯र्हि꣣तः꣢। स्वा꣣नै꣡र्या꣢ति क꣣वि꣡क्र꣢तु ॥ 40:0476 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॑ प्रि॒या दि॒वः क॒विर्वयां॑सि न॒प्त्यो॑र्हि॒तः ।
सु॒वा॒नो या॑ति क॒विक्र॑तुः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡रि꣢꣯। प्रि꣣या꣢। दि꣣वः꣢। क꣣विः꣢। व꣡याँ꣢꣯सि। न꣣प्त्योः꣢। हि꣣तः꣢। स्वा꣣नैः। या꣣ति। कवि꣡क्र꣢तुः। क꣣वि꣢। क्र꣣तुः। ४७६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- असितः काश्यपो देवलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप सोम की रस द्वारा व्याप्ति का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नप्त्योः हितः) द्यावापृथिवी अथवा प्राणापानों का हितकर, (कविः) क्रान्तद्रष्टा, (कविक्रतुः) बुद्धिपूर्ण कर्मोंवाला रसागार सोम परमात्मा (स्वानैः) अभिषुत किये जाते हुए आनन्द-रसों के साथ (दिवः) द्योतमान जीवात्मा के (प्रिया वयांसि) प्रिय मन, बुद्धि आदि लोकों में (परि याति) व्याप्त हो जाता है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसनिधि परमात्मा का दिव्य आनन्द जब आत्मा में व्याप्त होता है, तब आत्मा से सम्बद्ध सब मन, बुद्धि आदि मानो हर्ष से नाच उठते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा रूप पवमान सोम का तथा उसके आनन्दरस का वर्णन होने से और पूर्व दशति में भी इन्द्र, सूर्य, अग्नि, पवमान आदि नामों से परमात्मा का ही वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीयार्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मसोमस्य रसव्याप्तिमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नप्त्योः हितः) द्यावापृथिव्योः प्राणापानयोर्वा हितकरः (कविः) क्रान्तदर्शनः। कविः क्रान्तदर्शनो भवति, कवतेर्वा। निरु० १२।१२। (कविक्रतुः) मेधाविकर्मा सोमः, रसागारः परमेश्वरः (स्वानैः) अभिषूयमाणैः आनन्दरसैः सह (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (प्रिया वयांसि) प्रियान् लोकान् मनोबुद्ध्यादीन् (परियाति) परिगच्छति, व्याप्नोति ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रसनिधेः परमात्मनो दिव्यानन्दो यदाऽऽत्मानं व्याप्नोति तदाऽऽत्मसम्बद्धाः सर्वेऽपि मनोबुद्ध्यादयो हर्षेण नृत्यन्तीव ॥१०॥ अत्र परमात्मरूपस्य पवमानसोमस्य तदानन्दरसस्य च वर्णनात्, पूर्वदशत्यामपीन्द्रसूर्याग्निपवमानादिनामभिः परमात्मन एव वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये प्रथमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९।१, ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा। ‘सुवानो याति’ इति पाठः। साम० ९३५।
40_0476 परि प्रिया - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४७६-१। और्णायवे द्वे॥ द्वयोरूर्णायुर्गायत्री सोमः॥
प꣥रिप्रिया꣯दिवᳲका꣤वीः꣥॥ व꣡याꣳ꣯सिनप्त्यो꣯र्हितः॥ स्वा꣯नै꣯र्याऽ२३ती꣢॥ आ꣡याऽ᳒२᳒। इ꣡याऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢᳐॥ क꣣विक्र꣢तो꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
40_0476 परि प्रिया - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४७६-२। और्णायवोत्तरम्॥
प꣤रिप्रियाऽ५दिवᳲक꣤वाइः॥ व꣡या꣰꣯ऽ२होऽ१वाꣳ꣯सि꣢न꣡प्त्यो꣯वो꣯र्हि꣢तः꣡॥ स्वा꣯नै꣯र्या ऽ२३ती꣢॥ हुवा꣡। होवा꣢। हो꣡वा꣢। हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। ई꣭ऽ३या꣢। क꣣विक्र꣢तो꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣢ऽ३या꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ दी-८। प-११। मा-६॥ ३८ (टू) ८८२॥