[[अथ पावमानगानम्]]
[[अथ द्वादशप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः। ]]
[[पञ्चमोऽध्यायः]]
[[अथ प्रथमः खण्डः]]
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पवमानकाण्डम्
उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या द꣢꣯दे। उ꣣ग्र꣢꣫ꣳ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥ 31:0467 ॥
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उ॒च्चा ते जा॒तम् (=जन्म) अन्ध॑सो (=रसस्य)
दि॒वि षद् (=सत्) भूमि(ः) आ द॑दे ।
उ॒ग्रं शर्म॒ महि॒ (=महत्) श्रवः॑ (=अन्नम्)।।
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पदपाठः
उ꣣च्चा꣢। उ꣣त्। चा꣢। ते꣣। जात꣢म्। अ꣡न्ध꣢꣯सः। दि꣣वि꣢। सत्। भू꣡मि꣢꣯। आ। द꣣दे। उग्र꣢म्। श꣡र्म꣢। म꣡हि꣢꣯। श्र꣡वः꣢꣯। ४६७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में ऊपर से नीचे की ओर सोम का प्रवाह वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम ! पवित्रकर्ता रसागार परमेश्वर ! (ते) तेरा (अन्धसः) आनन्दरस का (जातम्) समूह (उच्चा) उच्च है, (दिवि सत्) प्रकाशमान आनन्दमय कोश में विद्यमान उसको (भूमि) भूमि अर्थात् भूमि पर स्थित मनुष्य (आददे) ग्रहण करता है। उस आनन्दरस से (उग्रं शर्म) तीव्र कल्याण, और (महि श्रवः) महान् यश, प्राप्त होता है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे ऊपर अन्तरिक्ष में विद्यमान बादल के रस को अथवा चन्द्रमा की चाँदनी के रस को ग्रहण कर भूमि सस्यश्यामला हो जाती है, वैसे ही उच्च आनन्दमयकोश में अभिषुत होते हुए ब्रह्मानन्द-रस का पान कर सामान्य मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्र प्रथमम् उपरिष्टादधः सोमः प्रवहतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे पवमान सोम ! पवित्रकर्तः रसागार परमेश्वर ! (ते) तव (अन्धसः) आनन्दरसस्य (जातम्) समूहः (उच्चा) उच्चम् अस्ति। (दिवि सत्) द्योतमाने आनन्दमयकोशे विद्यमानं तत् (भूमि) भूमिष्ठो जनः। अत्र ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेर्लुक्। (आददे) गृह्णाति। तेन अन्धसा आनन्दरसेन (उग्रं शर्म) प्रबलं कल्याणम् (महि श्रवः) महद् यशश्च, प्राप्यते इति शेषः ॥१॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपर्यन्तरिक्षे विद्यमानं पर्जन्यरसं चन्द्रमसः सौम्यप्रकाशरूपं रसं वा गृहीत्वा यथा भूमिः सस्य-श्यामला जायते, तथैवानन्दमयकोशेऽभिषूयमाणं ब्रह्मानन्दरसं पीत्वा सामान्यो जनः कृतार्थतां भजते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।१० ‘सद्’ इत्यत्र ‘षद्’ इति पाठः। य० २६।१६ ऋषिः महीयवः। साम० ६७२। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्। एष च तत्र तत्कृतो भावार्थः—‘विद्वद्भिर्मनुष्यैः सूर्यकिरणवायुमन्त्यन्नादि- युक्तानि महान्त्युच्चानि गृहाणि रचयित्वा तत्र निवासेन सुखं भोक्तव्यम्’—इति। देवता च तत्र तेन अग्निः स्वीकृता।
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लिखितम्
४६७-१। आजिगम्॥ अजिगो प्रजापतिर्वा गायत्री सोमः॥ओ꣡म्॥ उ꣥च्चा꣤॥ ते꣢꣯जा꣯ऽ३ता꣡म꣪न्धासाऽ᳒२ः᳒। दिवि꣡सद्भू꣯म्या꣯ददाइ॥ उ꣢ग्रꣳ꣡शाऽ२३ र्मा꣢ऽ३॥ मा꣡ऽ२᳐हा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ उ꣢᳐प्। श्रा꣣ऽ२३४वाः꣥॥
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लिखितम्
४६७-२। आभीकम्॥ अङ्गिरसो गायत्री सोमः॥
उ꣢च्चा꣡꣯तेऽ२३४जा꣥। त꣢म꣡न्धाऽ२३४साः꣥। दि꣢वा꣡इसाऽ२३४द्भू꣥॥ मि꣢या꣡꣯ददाइ॥ उ꣢ग्रꣳ꣡शाऽ२३र्मा꣢॥ महा꣡ये꣢ऽ३। श्रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥ दी-४। प-८। मा-५॥ २ (दु) ८१५॥
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लिखितम्
४६७-३। ऋषभः पावमानम्॥ ऋषभो गायत्री सोमः॥
हा꣥꣯हा꣯उच्चा꣯ते꣯जा॥ हा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३इ। ता꣡माऽ२᳐न्धा꣣ऽ२३४साः꣥। दि꣢वि꣡सद्भू꣯ मिया꣢ऽ१दा꣢ऽ३दे꣢॥ उग्रꣳशा꣣ऽ२३४र्मा꣥॥ ओ꣡मो꣢ऽ३। म꣤होवा꣥। श्रा꣤ऽ५वोऽ६" हा꣥इ॥
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लिखितम्
४६७-४। आभीकम्॥ अङ्गिरसो गायत्री सोमः॥
ऊ꣡ऽ२३४च्चा꣯ते꣯जाऽ५। तमौ꣯हो꣤न्धासाः꣥॥ दि꣢वि꣡सद्भू꣯मिया꣢ऽ१दा꣢ऽ३दे꣢॥ उग्रꣳ᳐शा꣣ऽ२३४र्मा꣥॥ मा꣡हा꣭ऽ३उवा꣢ऽ३४३। श्रा꣢ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥ दी-४। प-६। मा-३॥ ४ (ति) ८१७॥
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लिखितम्
४६७-५। बाभ्रवे द्वे॥ द्वयोः बभ्रुर्गायत्री सोमः॥
उ꣥च्चा꣯ते꣯जा॥ त꣢म꣡। धासाऽ२३ः। ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢। दि꣡विस꣢द्भू꣯। मिया꣡दा꣢ऽ१देऽ२३॥ ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢॥ उ꣡ग्राꣳशा꣢ऽ१र्माऽ२३॥ ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢ऽ३। मा꣡ऽ२᳐हा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ श्र꣢वऽ३ई꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-८। प-११। मा-३॥ ५ (टि) ८१८॥
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लिखितम्
४६७-६। ग्वानिधनबाभ्रवम्॥उ꣥च्चा꣯ते꣯जा॥ त꣢म꣡न्धाऽ२३साः꣢। दि꣡विस꣢द्भू꣯। मिया꣡꣯दाऽ२३दा꣢इ॥ ऊ꣡ग्रा꣢ऽ३ꣳहा꣢इ। शा꣡र्मा꣢ऽ३हा꣢इ॥ म꣣हा꣢ऽ३हो꣡ये꣢ऽ३। श्रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ग्वा꣣ऽ२३४भीः꣥॥
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लिखितम्
४६७-७। इन्द्राण्यास्साम॥ इन्द्राणी गायत्री सोमः॥
उ꣥च्चा꣤꣯ते꣥꣯जा꣯त꣤मा। धा꣡साऽ२३ः। ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢। दि꣡विस꣢द्भू꣯। मिया꣡दा꣢ऽ१ देऽ२३। ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢। उ꣡ग्राꣳशा꣢ऽ१र्माऽ२३। ओ꣡꣯मो꣭ऽ३वा꣢। महा꣡ये꣢ऽ३। श्रा꣡ऽ२᳐ वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥ दी-९। प-११। मा-२॥ ७ (त्ला) ८२०॥
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लिखितम्
४६७-८। शैशवे द्वे॥ द्वयोः शिशुर्गायत्री सोमः॥
उ꣥च्चा꣯ते꣯जा꣯तमन्धा꣤साः꣥॥ दि꣢वि꣡सद्भू꣯म्या꣯ददाइ॥ उ꣢ग्रꣳ꣡शाऽ२३४र्मा꣥॥ म꣣हा꣢ऽ३इश्रा꣤ऽ५वा"ऽ६५६ः॥ दी-५। प-४। मा-४॥ ८ (भी) ८२१॥
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लिखितम्
४६७-९।
उ꣥च्चा꣯ते꣯जा꣯तमन्धाऽ६साः꣥॥ दि꣢वि꣡सद्भू꣯। म्या꣯दाऽ२३दा꣢इ। उ। ग्रꣳ꣡शाऽ२३र्मा꣢॥ म꣡हाऽ᳒२᳒। हाऽ᳒२᳒इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ। श्रवाऽ᳒२ः᳒। हाऽ᳒२᳒इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ॥ इ꣣या꣢ऽ३हो꣡इ। इ꣣योऽ२३४५वाऽ६५६॥ ऊ꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-५। प-१४। मा-८॥ ९ (र्भै) ८२२॥
४६७-१०। दोहसामनी द्वे॥ द्वयोः प्रजापतिर्गायत्री सोमः॥
उ꣣च्चा꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ ते꣡जाऽ२᳐। त꣣मा꣢ऽ३४५। धा꣣ऽ२३४साः꣥। दि꣢वि꣡सद्भू꣯म्या꣯ददे꣢꣯॥ ऊ꣡ग्र꣪ꣳशाऽ२३र्मा꣢॥ म꣣हिश्र꣢वा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
४६७-११। दोहीयसाम॥उ꣥च्चा꣯ते꣯जा꣯तमन्धसो꣯दो꣯हा꣯इदो꣯हाऽ६ए꣥॥ दि꣢वि꣡सद्भू꣯म्या꣯ददे꣢꣯। दो꣭ऽ३हा꣢इ। दो꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢॥ उग्रꣳ꣡शाऽ२३र्मा꣢। दो꣭ऽ३हा꣢इ। दो꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢॥ महि꣡श्राऽ२३ वा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥ दी-१०। प-१०। मा-८॥ ११ (में) ८२४॥
४६७-१२। इन्द्राण्यास्साम॥ इन्द्राणी गायत्री सोमः॥
उ꣣च्चा꣢᳐ते꣣꣯जा꣤꣯तम꣥न्धसाः॥ दि꣢वा꣡इसाऽ२३४द्भू꣥। मि꣢याऽ᳒२᳒द꣡दे꣢꣯। ओ꣡꣯म्। ओ꣭ऽ३वा꣢। ओ꣭ऽ३वा꣢। व꣡वाऽ२३हो꣡इ॥ उ꣢ग्रꣳ꣡शाऽ२३र्मा꣢। ओ꣭ऽ३वा꣢। ओ꣭ऽ३वा꣢। व꣡वाऽ२३हो꣡इ॥ म꣢हि꣣श्र꣢वो꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ य꣢युरे꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-६। प-१४। मा-८॥ १२ (घू) ८२५॥
४६७-१३। आमहीयवम्॥ अमहीयुर्गायत्री सोमः॥
उ꣥च्चा꣯ता꣢ऽ३इजा꣤꣯तम꣥न्धसाः॥ दि꣢वा꣡इसा꣢ऽ१द्भूऽ᳒२᳒। मि꣡याऽ२३ददा꣢इ॥ उग्रꣳ꣡श꣢र्मा꣡॥ महाऽ२३इश्रवा꣢उ। वाऽ३॥ स्तौ꣢꣯षेऽ३꣡४꣡५꣡॥ दी-३। प-७। मा-६॥ १३ (ठू) ८२६॥
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स्वा꣡दि꣢ष्ठया꣣ म꣡दि꣢ष्ठया꣣ प꣡व꣢स्व सोम꣣ धा꣡र꣢या। इ꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे सु꣣तः꣢ ॥ 32:0468 ॥
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स्वादि॑ष्ठया॒ मदि॑ष्ठया॒ पव॑स्व सोम॒ धार॑या ।
इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒तः ॥
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पदपाठः
स्वा꣡दि꣢꣯ष्ठया। म꣡दि꣢꣯ष्ठया। प꣡व꣢꣯स्व। सो꣣म। धा꣡र꣢꣯या। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। पा꣡त꣢꣯वे। सु꣣तः꣢। ४६८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि वह सोम अपनी धारा से हमें पवित्र करे।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) रसागार परमेश्वर ! तुम (स्वादिष्ठया) स्वादिष्ठ, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रद (धारया) आनन्दधारा से (पवस्व) हमें पवित्र करो। तुम (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान के लिए (सुतः) अभिषुत हो ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अपने अन्तःकरण में बहती हुई पवित्रतासम्पादिनी आनन्द-रस की सरिता को अनुभव करता हुआ उपासक कह रहा है कि परमात्मा-रूप सोम से अभिषुत होता हुआ ब्रह्मानन्द-रस इसी प्रकार मेरे आत्मा के पानार्थ निरन्तर धारा-रूप में प्रवाहित होता रहे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स सोमः स्वधारयाऽस्मान् पुनीयादित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) आनन्दसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (इन्द्राय) मम आत्मने (पातवे२) पातुम्। अत्र पा धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (सुतः) अभिषुतो भव ॥२॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्वान्तःकरणे स्रवन्तीं पावयित्रीमानन्दरसतरङ्गिणीमनुभवन्नुपासको ब्रूते यत् परमात्मरूपात् सोमादभिषूयमाणो ब्रह्मानन्दरस इत्थमेव ममात्मनः पानाय निरन्तरं धारारूपेण प्रस्रवेदिति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।१।१, य० २६।२५, साम० ६८९। २. इन्द्राय इन्द्रार्थम् पातवे पातुम्। असमानकर्तृकेष्वपि छन्दसि तुमर्थीया दृश्यन्ते—इति भ०। ३. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते’ इति विषये व्याख्यातवान्।
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लिखितम्
४६८-१। आजिगम्॥ अजिगो गायत्री सोमेन्द्रौ॥
स्वा꣡꣯दाइष्ठाया꣢। म꣡दाइष्ठाया꣢॥ प꣡वस्व꣢सो꣯। मा꣡धा꣢ऽ१राऽ२३या꣢॥ इ꣡न्द्रायापा꣢। तवा꣡इसूऽ२३ता꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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लिखितम्
४६८-२। सुरूपे द्वे॥ सुरूपर्गायत्री सोमेन्द्रौ॥
स्वा꣢꣯दिष्ठ꣡याऽ᳒२᳒। इ꣡याऽ᳒२᳒इ꣡या। म꣢दिष्ठा꣡याऽ᳒२᳒॥ पवस्व꣡सोऽ᳒२᳒। इ꣡याऽ᳒२᳒इ꣡या। म꣢धा꣯रा꣡याऽ᳒२᳒॥ इन्द्रा꣯य꣡पाऽ᳒२᳒। इ꣡याऽ᳒२᳒इ꣡या॥ त꣢वा꣡इसूऽ२३ता꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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लिखितम्
४६८-३। सुरूपोत्तरम्॥स्वा꣢꣯दिष्ठ꣡यौहोऽ᳒२᳒। इ꣡या। म꣢दिष्ठा꣡याऽ᳒२᳒॥ पवस्व꣡सौहोऽ᳒२᳒। इ꣡या। म꣢धा꣯रा꣡याऽ᳒२᳒॥ इन्द्रा꣯य꣡पौहोऽ᳒२᳒। इ꣡या॥ त꣢वा꣡इसूऽ२३ता꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५ इ॥ डा॥
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लिखितम्
४६८-४। जमदग्नेः शिल्पे द्वे॥ द्वयोः जमदग्निर्गायत्री सोमेन्द्रौ॥
ओ꣢इ᳐स्वा꣣ऽ२३४दी꣥॥ ष्ठ꣢या꣯ऽ३मा꣡दि꣪ष्ठया꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। प꣡वस्व꣢सो꣯म धा꣡꣯रया꣢ऽ᳐३॥ ओ꣢᳐ई꣣ऽ२३४न्द्रा꣥॥ या꣡ऽ२᳐पा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ त꣢वे꣯सु꣣ता꣢ऽ१ः॥
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लिखितम्
४६८-५।
उ꣣हुवा꣢इ᳐। स्वा꣣ऽ२३४दी꣥॥ ष्ठ꣢या꣯ऽ३मा꣡दि꣪ष्ठया꣢᳐। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। प꣡वस्व꣢ सो꣯मधा꣡꣯रया꣢ऽ᳐३॥ उहुवा꣢इ। इ꣤न्रा꣣ऽऽ५यपा॥ ता꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सू꣣ऽ२३४ताः꣥॥
32_0468 स्वादिष्ठया मदिष्ठया - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४६८-६। सँहितम्॥ सँहितः साध्या देवा गायत्री सोमेन्द्रौ॥
स्वा꣤꣯दाइष्ठ꣥या॥ म꣢दिष्ठयाऽ३। पा꣡वा꣢ऽ३स्वा꣤सो꣥। म꣢धा꣯रयाऽ३॥ आ꣡इन्द्रा꣢ऽ३ या꣤पा꣥ऽ६। हा꣥उ॥ त꣤वाऽ५इसुताउ॥ वा॥ दी-२। प-८। मा-५॥ १९ (जु) ८३२॥
32_0468 स्वादिष्ठया मदिष्ठया - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
४६८-७। शकुलः॥ वसिष्ठो गायत्री सोमेन्द्रौ॥
स्वा꣤꣯दि꣥ष्ठया꣯म꣤दि꣥ष्ठया꣯प꣤व꣥स्वसो꣯मधा꣤꣯र꣥या꣯इ꣤। द्राऽ५यपा꣤॥ त꣢वाऽ᳒२᳒इ। ऊऽ᳒२᳒। तवाऽ᳒२᳒इ। ऊ꣡ऽ२᳐॥ त꣣वा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा। सू꣣ऽ२३४ताः꣥॥ दी-८। प-८। मा-५॥ २० (डु) ८३३॥
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लिखितम्
४६८-८। गङ्भीरम्॥ जमदग्निर्गायत्री सोमेन्द्रौ॥औ꣥꣯हो꣯हि꣯म्(स्थि)हा꣯ए꣤हिया꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ। स्वा꣡꣯दाइष्ठाया꣢᳐। मा꣣ऽ२३४दी꣥॥ ओ꣢इ᳐मा꣣ऽ२३४दी꣥॥ औ꣯हो꣯हि꣯म्(स्थि)हा꣯ए꣤हिया꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ। ष्ठ꣡यापाव꣢। स्वा꣣ऽ२३४सो꣥॥ ओ꣢᳐स्वा꣣ऽ२३४सो꣥॥ औ꣯हो꣯हि꣯म्(स्थि)हा꣯ए꣤हिया꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ। म꣡धारया꣢᳐। ई꣣ऽ२३४न्द्रा꣥। ओ꣢᳐ई꣣ऽ२३४न्द्रा꣥॥ औ꣯हो꣯हि꣯म्(स्थि)हा꣯ए꣤हिया꣥। हा꣢ऽ३हा꣢इ। य꣡पातवा꣢इ। सू꣣ऽ२३४ताः꣥। ओ꣢इ᳐सू꣣ऽ२३४ताः꣥॥ औ꣯हो꣯हि꣯म्(स्थि) हा꣯ए꣤हिया꣥। हा꣢ऽ३हा꣢ऽ३४। औ꣥꣯हो꣯वा। ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
32_0468 स्वादिष्ठया मदिष्ठया - 09 ...{Loading}...
लिखितम्
४६८-९। सँहितः॥ साध्या देवा गायत्री सोमेन्द्रौ॥
स्वा꣤꣯दि꣥ष्ठया꣯म। दा꣤ऽ५इष्ठया꣤॥ प꣢वाऽ᳒२᳒। स्वा꣡ऽ२३सो꣢। म꣡धाऽ᳒२᳒रा꣡या॥ आऽ२३इन्द्रा꣢॥ याऽ᳒२᳒पा꣡। त꣪वाऽ२३॥ हा꣢उवाऽ३॥ सूऽ२३४ताः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वृ꣡षा꣢ पवस्व꣣ धा꣡र꣢या म꣣रु꣡त्व꣢ते च मत्स꣣रः꣢। वि꣢श्वा꣣ द꣡धा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥ 33:0469 ॥
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वृषा॑(=वर्षकः) पवस्व॒ धार॑या म॒रुत्व॑ते (इन्द्राय) च मत्स॒रः (=मदकरः) ।
विश्वा॒ दधा॑न॒ ओज॑सा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
वृ꣡षा꣢꣯। प꣣वस्व। धा꣡र꣢꣯या। म꣣रु꣡त्व꣢ते। च꣣। मत्सरः꣢। वि꣡श्वा꣢꣯। द꣡धा꣢꣯नः। ओ꣡ज꣢꣯सा। ४६९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः सोमरस के धाराप्रवाह का आह्वान है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे परमात्म-सोम ! (वृषा) अध्यात्म-संपत्ति की वर्षा करनेवाला तू (धारया) धारा-रूप में (पवस्व) प्रवाहित हो, (मरुत्वते च) और प्राणों के सहचर आत्मा के लिए (मत्सरः) आनन्ददायक हो। (ओजसा) अपने ओज से (विश्वा) सब आत्मा, मन, बुद्धि आदियों को (दधानः) धारण करनेवाला बन ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब प्राणायाम-साधन और ध्यान के द्वारा रसनिधि परमेश्वर से धारारूप में आनन्द-रस का सन्दोह प्रस्रुत होता है, तब शरीर-राज्य के आत्मा, मन, बुद्धि आदि सभी अङ्ग तृप्त हो जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनरपि सोमरसस्य धाराप्रवाहमाकाङ्क्षते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे परमात्मसोम ! (वृषा) अध्यात्मसंपद्वर्षकस्त्वम् (धारया) धारारूपेण (पवस्व) प्रवह, (मरुत्वते च) प्राणसहचराय जीवात्मने च (मत्सरः) आनन्दस्रावको भवेति शेषः। मदम् आनन्दं सारयतीति मत्सरः२। “मत्सरः सोमो, मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः” इति यास्कः। निरु० २।५। किञ्च (ओजसा) बलेन (विश्वा) विश्वानि आत्ममनोबुद्ध्यादीनि (दधानः) धारयन् भवेति शेषः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा प्राणायामसाधनेन, ध्यानेन च रसनिधेः परमेश्वराद् धारारूपेणानन्दरससंदोहः प्रस्रवति तदा शरीरराज्यस्यात्ममनो- बुद्ध्यादीनि सर्वाण्येवाङ्गानि तृप्यन्ति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६५।१० ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। साम० ८०३। २. मदि धातोरौणादिके सरप्रत्यये रूपम् इति सत्यव्रतसामश्रमिणः।
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लिखितम्
४६९-१। सोम सामनी द्वे॥ द्वयोः सोमो गायत्रीन्द्र सोमौ इन्द्रो वा॥
वृ꣥षा꣯पवा॥ स्व꣢धा꣯रा꣡याऽ᳒२᳒। मरु꣡त्वताइ। चमत्साऽ२३राः꣢॥ वा꣡इश्वा ऽ२३॥ दा꣡ऽ२᳐धा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ न꣢ओ꣡꣯जसा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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लिखितम्
४६९-२।
वृ꣤षाहा꣥उ॥ पा꣣ऽ२३४वा꣥। स्वा꣢धा᳐रा꣣ऽ२३४या꣥। मा꣣ऽ२३४रू꣥। त्वा꣣ऽ२३४ ता꣥इ। चा꣢म᳐त्सा꣣ऽ२३४राः꣥॥ वा꣡इश्वा꣢꣯दधा꣡ऽ२३॥ ना꣡ऽ२᳐ओ꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ जा꣣ऽ२३४सा꣥॥
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लिखितम्
४६९-३। आशुभार्गवम्॥ भृगुर्गायत्रीन्द्र सोमौ इन्द्रो वा॥
वृ꣤षा꣥꣯पव꣤। स्व꣥धा꣯राऽ६या꣥॥ मा꣡रुत्वता꣢ऽ३इ। चा꣡माऽ२᳐त्सा꣣ऽ२३४राः꣥॥ वि꣡श्वादा꣢ऽ१धाऽ२᳐॥ न꣣ओ꣢ऽ३। जा꣡ऽ२३४सो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
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लिखितम्
४६९-४। वैश्वदेवे द्वे॥ द्वयोर्विश्वेदेवा गायत्रीन्द्रसोमौ इन्द्रो वा॥आ꣤इवृ꣥षा꣤॥ प꣢वा꣡। इ꣣हा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢। स्वधा꣡꣯राऽ२३४या꣥। म꣢। रू꣡। त्वते꣢ऽ३हा꣢इ। च। मा꣡। त्स꣪राऽ२३हा꣢ऽ३४इ॥ वि꣥श्वा꣯दधा꣯हाउ। नओ꣯जसा꣯ हाउ॥ ओ꣢꣯वाऽ३४३ओ꣢ऽ३४५वाऽ६५६॥ अ꣢स्मे꣡꣯रा꣯या꣰꣯ऽ२उत꣡श्रवाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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लिखितम्
४६९-५।
वृ꣥षा꣯। प꣣वा꣢ऽ३। ए꣤हिया꣥॥ स्व꣢धा꣡ऽ२᳐। र꣣या꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥। मा꣡रू꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ त्व꣡ते꣯चमा꣢ऽ१त्सा꣢ऽ३राः꣢॥ औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१ये꣢ऽ३। औ꣯होऽ२३४५ वाऽ६५६॥ वि꣡श्वा꣢꣯द꣡धा꣢꣯नओ꣡꣯जसा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ दी-१०। प-११। मा-३॥ २७ (पिं) ८४०॥
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लिखितम्
४६९-६। इन्द्र सामनी द्वे॥ द्वयोरिन्द्रो गायत्रीन्द्रसोमौ इन्द्रो वा॥
वृ꣡षापावाऽ२३। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३होऽ२३꣡४꣡५꣡॥ स्व꣡धारायाऽ२३। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३होऽ२३꣡४꣡५꣡। म꣡रूत्वातेऽ२३। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३होऽ२३꣡४꣡५꣡। च꣡मात्सारा ऽ२३ः। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३होऽ२३꣡४꣡५꣡॥ वि꣡श्वादाधाऽ२३। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३ होऽ२३꣡४꣡५꣡। न꣡ओजासाऽ२३। हौ꣡꣯होइ। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३४३॥ ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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लिखितम्
४६९-७।
वृ꣢षा꣡पावा꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥। स्व꣢धा꣡राया꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥॥ म꣢रू꣡त्वाता꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥। च꣢मा꣡त्सारा꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥॥ वि꣢श्वा꣡दाधा꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥॥ न꣢ओ꣡जासा꣢᳐। औ꣣꣯हौ꣯होऽ२३४वा꣥॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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लिखितम्
४६९-८। यौक्ताश्वे द्वे॥ द्वयोर्युक्ताश्वो गायत्री सोमः इन्द्रो वा॥ (यौक्ताश्वाद्यम्)।
औ꣥꣯हो꣤होहा꣥इ। वृ꣤षा꣥॥ प꣢वस्वऽ३धा꣡राया꣢ऽ३। मा꣡रूऽ२᳐त्वा꣣ऽ२३४ता꣥इ। ओ꣡इ। च꣪माऽ२३। च꣡माऽ२᳐त्सा꣣ऽ२३४राः꣥॥ औ꣯हो꣤होहा꣥इ। वि꣤श्वा꣥॥ द꣡धाऽ२᳐ ना꣣ऽ२३४ओ꣥। जा꣢᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ओ꣢इ। ज्वर꣣आ꣢॥ दी-४। प-१३। मा-९॥ ३० (दो) ८४३॥
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लिखितम्
४६९-९। यौक्ताश्वोत्तरम्॥वृ꣥षा꣯औ꣯हो꣤होहा꣥इ॥ प꣢वऽ३स्वा꣡धा꣢ऽ१राया꣢ऽ३। मा꣡रूऽ२᳐त्वा꣣ऽ२३४ता꣥इ। च꣣मा꣢ऽ३। ओ꣡इ। च꣪माऽ२᳐त्सा꣣ऽ२३४राः꣥॥ विश्वा꣯औ꣯हो꣤होहा꣥इ॥ द꣡धाऽ२᳐ ना꣣ऽ२३४ओ꣥। जा꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ओ꣢इ᳐। जू꣣ऽ२३४वा꣥॥