[[अथ नवमप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
श्रु꣣धी꣡ हवं꣢꣯ तिर꣣श्च्या꣢꣫ इन्द्र꣣ य꣡स्त्वा꣢ सप꣣र्य꣡ति꣢। सु꣣वी꣡र्य꣢स्य꣣ गो꣡म꣢तो रा꣣य꣡स्पू꣡र्धि म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि ॥ 05:0346 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
श्रु॒धी हवं॑ तिर॒श्च्या इन्द्र॒ यस्त्वा॑ सप॒र्यति॑ ।
सु॒वीर्य॑स्य॒ गोम॑तो रा॒यस्पू॑र्धि म॒हाँ अ॑सि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
श्रु꣣धि꣢। ह꣡व꣢꣯म्। ति꣣रश्च्याः꣢। ति꣣रः। च्याः꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯। यः। त्वा꣣। सपर्य꣡ति꣢। सु꣣वीर्य꣢स्य। सु꣣। वी꣡र्य꣢꣯स्य। गो꣡म꣢꣯तः। रा꣣यः꣢। पू꣣र्धि। महा꣢न्। अ꣣सि। ३४६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- तिरश्चीराङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः इन्द्र से धनों की प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) भक्तवत्सल परमात्मन् ! (यः) जो मनुष्य (त्वा) आपकी (सपर्यति) आराधना करता है, उस (तिरश्च्याः) आपको प्राप्त होकर पुरुषार्थ करनेवाले अथवा लम्बे जटिल मार्ग को छोड़कर बाण के समान चीरते हुए आगे बढ़ते चले जानेवाले मनुष्य के (हवम्) आह्वान को, आप (श्रुधि) सुनिए अर्थात् पूर्ण कीजिए। साथ ही उसके लिए (गोमतः) प्रशस्त गाय, पृथिवी, वाणी आदि से युक्त (रायः) विद्या, आरोग्य, चक्रवर्ती राज्य आदि ऐश्वर्य की (पूर्धि) पूर्ति कीजिए। आप (महान्) महान्, उदार हृदयवाले (असि) हैं ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो श्रद्धावनत होकर परमेश्वर की पूजा करता है, उससे प्रेरणा लेकर पुरुषार्थ करता है और लम्बे मार्ग पर जाने से शक्ति तथा समय का व्यय न करके लक्ष्य के प्रति बाण के समान सीधा चलता चला जाता है, उसे सब सम्पत्तियाँ शीघ्र ही हस्तगत हो जाती हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनरपीन्द्रं धनानि प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) भक्तवत्सल परमात्मन् ! (यः) जनः (त्वा) त्वाम् (सपर्यति) आराध्नोति, तस्य (तिरश्च्याः) तिरः त्वां प्राप्तः सन् अञ्चति कर्मण्यो भवतीति तिरश्चीः तस्य, अथवा यः सुदीर्घं जटिलं मार्गमुपेक्ष्य शरवत् तिरोऽञ्चति स तिरश्चीः तस्य। यथाह श्रुतिः ‘नाहमतो॒ निर॑या दु॒र्गहै॒तत् ति॑र॒श्चता॑ पा॒श्वान्निर्ग॑माणि’ ऋ० ४।१८।२ इति। तिरः सतः इति प्राप्तस्य। निरु० ३।२०। ‘अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्।’ अ० ६।१।१७० इति विभक्तिरुदात्ता। (हवम्) आह्वानम् (श्रुधि) शृणु, पूरयेत्यर्थः। ‘श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। अ० ६।४।१०२’ इति हेर्धिः। ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घः। किं च, तस्मै (सुवीर्यस्य) सुपराक्रमयुक्तस्य। बहुव्रीहौ ‘वीरवीर्यौ च। अ० ६।२।१२०’ इति वीर्यशब्दस्याद्युदात्तत्वम्। (गोमतः) प्रशस्तधेनुपृथिवीवागादियुक्तस्य (रायः२) विद्यारोग्यचक्रवर्तिराज्यादिरूपस्य ऐश्वर्यस्य। ‘ऊडिदम्पदाद्यप्पुम्रैद्युभ्यः।’ अ० ६।१।१७१ इति रैशब्दादुत्तरा विभक्तिरुदात्ता। (पूर्धि) पूर्ति कुरु। त्वम् (महान्) उदारहृदयः (असि) वर्त्तसे ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः श्रद्धावनतः सन् परमेश्वरं पूजयति, ततः प्रेरणां गृहीत्वा पुरुषार्थं करोति, सुदीर्घे मार्गे शक्तिं कालं चानपव्ययीकृत्य शरवत् तिरो लक्ष्यं प्रति गच्छति, तस्य सर्वाः सम्पदः सद्य एव हस्तगता भवन्ति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९५।४, साम० ८८३। २. पूरयतेः योगे करणे प्रायः षष्ठ्येव दृश्यते—इति भ०।
05_0346 श्रुधी हवम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३४६-१। तैरश्च्ये द्वे॥ द्वयोः तिरश्च्यऽनुष्टुबिन्द्रः॥
श्रु꣥धी꣤॥ हा꣡वाऽ᳒२ꣳ᳒हा꣡वाऽ᳒२᳒म्। तिरश्चि꣡याः। इ꣢न्द्र꣡याऽ२३स्त्वा꣢। स꣡पौ꣭ऽ३हो꣢। र्य꣡ती꣭ऽ३या꣢॥ सुवी꣡꣯र्यस्यगो꣯मताः॥ रा꣢꣯या꣡स्पूऽ२३र्द्धी꣢॥ महाꣳ꣡ऽ२३। अ꣢सि꣣या꣢ऽ३४३॥ ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
05_0346 श्रुधी हवम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३४६-२। तैरश्च्यम्॥
श्रु꣥धी꣯हा꣢ऽ३व꣤न्ति꣥र꣤श्चियाः꣥॥ इ꣢न्द्रा꣡य꣢स्त्वा꣡। स꣢प꣣र्य꣢ता꣡ये꣢ऽ३४। सुवी꣥꣯। रि꣣या꣢᳐। स्या꣣ऽ२३४गो꣥। मा꣡ताऽ᳒२ः᳒॥ रा꣡यास्पूर्द्धी꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ म꣤हाꣳऽ५असी। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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अ꣡सा꣢वि꣣ सो꣡म꣢ इन्द्र ते꣣ श꣡वि꣢ष्ठ धृष्ण꣣वा꣡ ग꣢हि। आ꣡ त्वा꣢ पृणक्त्विन्द्रि꣣य꣢ꣳ रजः꣣ सू꣢र्यो꣣ न꣢ र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥ 06:0347 ॥
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असा॑वि॒ सोम॑ इन्द्र ते॒,
शवि॑ष्ठ धृष्ण॒व्! आ ग॑हि+++(=गच्छ)+++ ।
आ त्वा॑ पृणक्त्व्+++(=पूरयतु)+++ इन्द्रि॒यं+++(=वीर्यं)+++
रजः॒ सूर्यो॒ न र॒श्मिभिः॑ ॥
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पदपाठः
अ꣡सा꣢꣯वि। सो꣡मः꣢꣯। इ꣣न्द्र। ते। श꣡वि꣢꣯ष्ठ। धृ꣣ष्णो। आ꣢। ग꣣हि। आ꣢। त्वा꣣। पृणक्तु। इन्द्रिय꣢म्। र꣡जः꣢꣯। सू꣡र्यः꣢꣯। न। र꣣श्मि꣡भिः꣢। ३४७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमपान के लिए पुकारा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! (ते) तेरे लिए (सोमः) ज्ञान, उत्साह आदि का रस (असावि) मेरे द्वारा अभिषुत किया गया है। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (धृष्णो) कामादि शत्रुओं को परास्त करनेवाले ! (आ गहि) तू रसपान के लिए आ, अर्थात् अभिमुख हो। (इन्द्रियम्) ज्ञान की साधन-भूत मेरी मन, चक्षु आदि इन्द्रिय (रश्मिभिः) ज्ञान-प्रकाशों से (त्वा) तुझे (आ पृणक्तु) भरपूर करें, (सूर्यः) सूर्य (न) जैसे (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (रजः) पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि लोक को भरपूर करता है ॥ अथवा, सोम से योगदर्शन १।४७ में प्रोक्त अध्यात्मप्रसाद अभिप्रेत है। इन्द्रिय से अभीष्ट है अध्यात्मप्रसाद में उत्पन्न, योग० १।४८ में प्रोक्त ऋतम्भरा प्रज्ञा। वह प्रज्ञा तुझ आत्मा को रश्मियों अर्थात् निर्बीजसमाधि के प्रकाशों से पूर्ण करे, यह आशय ग्रहण करना चाहिए ॥ द्वितीय—सेनाध्यक्ष आदि वीर मनुष्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) वीर नरपुंगव सेनाध्यक्ष ! (ते) तेरे लिए अर्थात् तेरे पीने के लिए, हम प्रजाजनों ने (सोमः) सोम आदि ओषधियों का रस (असावि) निचोड़ा है। उसके पानार्थ, हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (धृष्णो) शत्रुधर्षक वीर ! तू (आ गहि) आ। (इन्द्रियम्) मनरूप आन्तरिक इन्द्रिय (त्वा) तुझे (रश्मिभिः) उत्साह की किरणों से (पृणक्तु) भर देवे, जैसे सूर्य अपनी किरणों से भूमण्डल आदि को भर देता है, इत्यादि शेष पूर्ववत् अर्थ जानना चाहिए ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमा अलङ्कार हैं ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सबको चाहिए कि अपने आत्मा को उद्बोधन देकर ज्ञान, कर्म, योगसिद्धि आदि का संचय करें। इसी प्रकार राष्ट्र के कर्णधार सेनापति आदि वीरता का संचय करके राष्ट्र की रक्षा करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रं सोमपानायाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—जीवात्मपरः। हे (इन्द्र) मदीय अन्तरात्मन् ! (ते) तुभ्यम् (सोमः) ज्ञानोत्साहादिरसः (असावि) मया अभिषूयते। हे (शविष्ठ२) बलिष्ठ (धृष्णो) कामादिरिपूणां प्रसहनशील ! (आ गहि) त्वम् रसपानाय आगच्छ, अभिमुखो भवेत्यर्थः। (इन्द्रियम्) ज्ञानसाधनं मदीयं मनश्चक्षुरादिकम् (रश्मिभिः) ज्ञानप्रकाशैः (त्वा) त्वाम् (आ पृणक्तु३) आ पूरयतु। पृची सम्पकार्थे पठितः, आङ्पूर्वोऽत्र पूरणे वर्तते। (सूर्यः) आदित्यः (न) यथा (रश्मिभिः) स्वदीधितिभिः (रजः) पृथिव्यन्तरिक्षादिकं लोकम्। लोका रजांस्युच्यन्ते। निरु० ४।१९। आपृणक्ति आपूरयति ॥ यद्वा, सोमः अध्यात्मप्रसादप्रवाहः, निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः योग० १।४७ इति योगदर्शनोक्तः। (इन्द्रियम्) अध्यात्मप्रसादे समुत्पन्ना ऋतम्भरा प्रज्ञा, ‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा’ योग० १।४८ इत्युक्तेः। सा प्रज्ञा (इन्द्रम्) आत्मानं त्वाम् (रश्मिभिः) निर्बीजसमाधिप्रकाशैः (आ पृणक्तु) पूरयतु, इत्यर्थोऽध्यवसेयः ॥ अथ द्वितीयः—सेनाध्यक्षादिवीरजनपक्षे। हे (इन्द्र) वीर नरपुंगव सेनाध्यक्ष ! (ते) तुभ्यम्, तव पानायेत्यर्थः, अस्माभिः प्रजाजनैः (सोमः) सोमाद्योषधिरसः (असावि) अभिषुतोऽस्ति, तस्य पानाय हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (धृष्णो) शत्रुधर्षक वीर ! त्वम् (आगहि) आयाहि। (इन्द्रियम्) मनोरूपम् (त्वा) त्वाम् (रश्मिभिः) उत्साहकिरणैः (पृणक्तु) पूरयतु, यथा सूर्यः स्वकिरणैः भूमण्डलादिकं पूरयतीति। शिष्टं पूर्ववत् ॥६॥४ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैः स्वात्मानमुद्बोध्य ज्ञानकर्मयोगसिद्ध्यादिसञ्चयः कार्यः। तथैव राष्ट्रस्य कर्णधारैः सेनापत्यादिभिर्वीरतां सञ्चित्य राष्ट्ररक्षा विधेया ॥६॥५
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८४।१, साम० १०२८। २. (शविष्ठ) बहु शवो बलं विद्यते यस्य स शवस्वान्, सोऽतिशयितः तत्सम्बुद्धौ। अत्र शवश्शब्दाद् भूम्न्यर्थे मतुप्, तत इष्ठन्। ‘विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५’ इति मतुपो लुक्, ‘टेः’ अ० ६।४।१५५ अनेन टिलोपः। इति य० ६।३७ भाष्ये द०। ३. पृणिः पूरणार्थः। आपूरयतु त्वामित्यर्थः—इति वि०। भरतसायणयोरपि तदेव सम्मतम्। ४. (सोमः) उत्तमोऽनेकविधरोगनाशक ओषधिरसः। (पृणक्तु) सम्पर्कं करोतु। (इन्द्रियम्) मनः। इति मन्त्रस्यास्य ऋग्भाष्ये द०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् सेनाध्यक्षपक्षे व्याख्यातवान्।
06_0347 असावि सोम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३४७-१। महावैश्वामित्रम्॥ विश्वामित्रोऽनुष्टुबिन्द्रः॥ सूर्यो वा।
अ꣣सा꣤꣯विसो꣣꣯म꣤इ꣥न्द्रते꣯। शा꣢विष्ठा꣣ऽ२३४धॄ꣥॥ ष्णो꣢ऽ३आ꣡गा꣢ऽ३ही꣢। आ꣡त्वा꣢꣯पृणा꣡ऽ२३हा꣢ऽ३। क्तु꣡ईऽ२᳐न्द्रा꣣ऽ२३४या꣥म्॥ र꣡जाः। सूर्यौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ न꣤राऽ५श्मिभीः॥ हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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ए꣡न्द्र꣢ याहि꣣ ह꣡रि꣢भि꣣रु꣢प꣣ क꣡ण्व꣢स्य सुष्टु꣣ति꣢म्। दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥ 07:0348 ॥
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एन्द्र॑ याहि॒ हरि॑भि॒रुप॒ कण्व॑स्य सुष्टु॒तिम् ।
दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
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पदपाठः
आ꣢। इ꣣न्द्र। याहि। ह꣡रि꣢꣯भिः। उ꣡प꣢꣯। क꣡ण्व꣢꣯स्य। सु꣣ष्टुति꣢म्। सु꣣। स्तुति꣢म्। दि꣣वः꣢। अ꣣मु꣡ष्य꣢। शा꣡स꣢꣯तः। दि꣡व꣢꣯म्। य꣣य꣢। दि꣣वावसो। दिवा। वसो। ३४८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नीपातिथिः काण्वः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जगदीश्वर का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (हरिभिः) अपनी अध्यात्म-प्रकाश की किरणों के साथ (कण्वस्य) मुझ मेधावी की (सुस्तुतिम्) शुभ स्तुति को (उप आयाहि) समीपता से प्राप्त कीजिए। आगे स्तोता अपने आत्मा को कहता है—हे (दिवावसो) दीप्तिधन के इच्छुक मेरे अन्तरात्मन् ! तू (शासतः) शासक, (अमुष्य) चर्म-चक्षुओं से न दीखनेवाले उस (दिवः) दीप्तिमान् परमात्मा के (दिवम्) प्रकाशक तेज को (यय) प्राप्त कर ॥७॥ इस मन्त्र में ‘दिवो, दिवं, दिवा’ में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदि हमारी स्तुति हृदय से निकली है, तो परमेश्वर उसे सुनता ही है। हमें भी उसका सान्निध्य प्राप्त कर उसके तेज से तेजस्वी बनना चाहिए ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना जगदीश्वरमाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! त्वम् (हरिभिः) स्वकीयैः अध्यात्मप्रकाशकिरणैः सह। हरयः सुपर्णाः हरणा आदित्यरश्मयः इति निरुक्तम्, ७।२४। (कण्वस्य) मेधाविनो मम। कण्व इति मेधाविनाम, निघं० ३।१५। (सुस्तुतिम्) शोभनां स्तुतिम् (उप आयाहि) उपागच्छ। अथ स्तोता स्वात्मानमाह। हे (दिवावसो२) दीप्तिधनेच्छो मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) चर्मचक्षुर्भिरदृश्यमानस्य तस्य (दिवः) द्योतमानस्य परमात्मनः (दिवम्) प्रकाशकं तेजः (यय) प्राप्नुहि। या प्रापणे धातोः ‘याहि’ इति प्राप्ते छान्दसं रूपमिदम्। यद्वा यय धातुः पृथक् कल्पनीया ॥७॥ अत्र ‘दिवो, दिवं, दिवा’ इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तुतिरस्माकं हार्दिकी चेत् तदा परमेश्वरस्तां शृणोत्येव। अस्माभिस्तत्सान्निध्यं प्राप्य तत्तेजसा तेजस्विभिर्भाव्यम् ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।३४।१, साम० १८०७। २. दिवावसो दीप्तधन—इति वि०। दीप्त्यावासक—इति भ०। दीप्तहविष्क इन्द्र—इति सा०।
07_0348 एन्द्र याहि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३४८-१। काण्वे द्वे॥ द्वयोः कण्वोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
ए꣥꣯न्द्रा꣢ऽ३या꣤꣯हि꣥ह꣤रिभा꣥इः॥ उ꣢पाकण्वाऽ३। स्या꣡सु꣢ष्टू꣣ऽ२३४ती꣥म्। दि꣢वो꣯अमूऽ३। ष्या꣡शा꣢᳐सा꣣ऽ२३४ताः꣥॥ दा꣡इवंय꣢याऽ३१उवाऽ२३॥ दा꣡ऽ२३इवा꣤ऽ३। वा꣢ऽ३४५सोऽ६"हा꣥इ॥
07_0348 एन्द्र याहि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३४८-२।
ए꣤꣯न्द्र꣥या꣯हि ह꣤रि꣥भिः। उहु꣤वाहा꣥इ॥ उ꣡पकण्वस्य꣢सु꣡ष्टुति꣢म्। उहु꣡वाऽ२३हा꣢इ। दिवो꣡꣯अमू꣢ऽ३। ष्या꣡शा꣢᳐सा꣣ऽ२३४ताः꣥॥ दा꣡इवंय꣣या꣢उ। वाऽ३॥ देऽ२३४वा꣥। व꣤सोऽ५हा। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢ त्वा꣣ गि꣡रो꣢ र꣣थी꣡रि꣣वा꣡स्थुः꣢ सु꣣ते꣡षु꣢ गिर्वणः। अ꣣भि꣢ त्वा꣣ स꣡म꣢नूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥ 08:0349 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ त्वा॒ गिरो॑ र॒थीरि॒वास्थुः॑ सु॒तेषु॑ गिर्वणः ।
अ॒भि त्वा॒ सम॑नूष॒तेन्द्र॑ व॒त्सं न मा॒तरः॑ ॥
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पदपाठः
आ꣢। त्वा꣣। गि꣡रः꣢꣯। र꣣थीः꣢। इव। अ꣡स्थुः꣢꣯। सु꣣ते꣡षु꣢। गि꣣र्वणः। गिः। वनः। अभि꣢। त्वा꣣। स꣢म्। अ꣣नूषत। गा꣡वः꣢꣯। व꣣त्स꣢म्। न। धे꣣न꣡वः꣢। ३४९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- तिरश्चीराङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की स्तुति का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) वाणियों से सेवनीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञान-कर्म-श्रद्धा रूप सोमरसों के अभिषुत हो जाने पर (गिरः) मेरी वाणियाँ (त्वा) तेरे पास (आ अस्थुः) आकर स्थित हो गयी हैं, रथीः (इव) जैसे रथ-स्वामी रथ पर स्थित होता है। वे मेरी वाणियाँ (त्वा अभि) तेरे अभिमुख होकर (समनूषत) भली-भाँति स्तुति कर रही हैं, (धेनवः गावः) दूध पिलानेवाली प्रीतियुक्त गौएँ (वत्सं न) जैसे बछड़े के अभिमुख होकर रंभाती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में दो उपमालङ्कारों की संसृष्टि और अनुप्रास अलङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रथी जन जैसे रथ का आश्रय लेते हैं, वैसे स्तोताओं की वाणियाँ परमात्मा का आश्रय लें, और उसके सम्मुख हो ऐसे प्रेम से उसकी स्तुति करें जैसे गौएँ बछड़े को सम्मुख पाकर रंभाती हैं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जगदीश्वरस्य स्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) गीर्भिः वननीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञानकर्मश्रद्धारूपेषु सोमरसेषु अभिषुतेषु सत्सु (गिरः) मदीयाः वाचः (त्वा) त्वाम् (आ अस्थुः) आश्रितवत्यः सन्ति, (रथीः इव) यथा रथवान् रथमाश्रयते तद्वत्। रथ शब्दात् ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१२२’ इति वार्तिकेन मतुबर्थे ई प्रत्ययः। ताश्च मदीया गिरः (त्वा अभि) त्वामभिमुखीभूय (समनूषत) समनुविषुः, सम्यक् शब्दायन्ते, स्तुवन्तीत्यर्थः। संपूर्वात् णू स्तवने धातोर्लडर्थे लुङि ‘संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः’ इति गुणादेशाभावे व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (धेनवः) पयःपायिन्यः प्रीतियुक्ता वा। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वेति निरुक्तम्, ११।४३। (गावः) पयस्विन्यः (वत्सं न) वत्समभिमुखीभूय यथा शब्दायन्ते, हम्भारवं कुर्वन्ति तद्वत् ॥८॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिरनुप्रासश्च ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - रथिनो रथमिव स्तोतॄणां गिरः परमात्मानमुपस्थाय धेनवो वत्समिव तमभिमुखीभूय तं प्रेम्णा स्तुवन्तु ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९५।१, ‘अभि त्वा समनूषतेन्द्र वत्सं न मातरः’ इत्युत्तरार्धपाठः।
08_0349 आ त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३४९-१। वैश्वामित्रम्॥ विश्वामित्रोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
आ꣥꣯त्वा꣯गा꣢ऽ३इरो꣤꣯र꣥थी꣤꣯रिवा꣥॥ अ꣢स्थुस्सुते꣯ऽ३षू꣡गि꣪र्वाणा꣭ऽ३ः। ओ꣢ऽ३४वा꣥। ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ अ꣢भित्वा꣯सऽ३मा꣡नू꣢ऽ१षाता꣭ऽ३॥ ओ꣢ऽ३४वा꣥। ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ गा꣡꣯वोवा꣢ऽ३त्सा꣢ऽ३म्। न꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। ना꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए꣢तो꣣ न्वि꣢न्द्र꣣ꣳ स्त꣡वा꣢म शु꣣द्ध꣢ꣳ शु꣣द्धे꣢न꣣ सा꣡म्ना꣢। शु꣣द्धै꣢रु꣣क्थै꣡र्वा꣢वृ꣣ध्वा꣡ꣳ स꣢ꣳ शु꣣द्धै꣢रा꣣शी꣡र्वा꣢न्ममत्तु ॥ 09:0350 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॑म शु॒द्धं शु॒द्धेन॒ साम्ना॑ ।
शु॒द्धैरु॒क्थैर्वा॑वृ॒ध्वांसं॑ शु॒द्ध आ॒शीर्वा॑न्ममत्तु ॥
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पदपाठः
आ꣢। इ꣣त। उ। नु꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। स्त꣡वा꣢꣯म। शु꣣द्ध꣢म्। शु꣣द्धे꣡न꣢। सा꣡म्ना꣢꣯। शु꣣द्धैः꣢। उ꣣क्थैः꣢। वा꣣वृध्वाँ꣡स꣢म्। शु꣣द्धैः꣢। आ꣣शी꣡र्वा꣢न्। आ꣣। शी꣡र्वा꣢꣯न्। म꣣मत्तु। ३५०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर की स्तुति का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे साथियो ! (एत उ) आओ, (नु) शीघ्र ही, तुम और हम मिलकर (शुद्धम् इन्द्रम्) पवित्र जगदीश्वर की (शुद्धेन साम्ना) पवित्र सामगान से (स्तवाम) स्तुति करें। (शुद्धैः) पवित्र (उक्थैः) स्तोत्रों से (वावृध्वांसम्) वृद्धि को प्राप्त हममें से प्रत्येक जन को (आशीर्वान्) आशीषों का अधिपति जगदीश्वर (शुद्धैः) पवित्र आशीर्वादों से (ममत्तु) आनन्दित करे ॥९॥ इस मन्त्र में पूर्वार्ध में ‘शुद्धं, शुद्धे, ‘शुद्धैरु, शुद्धैरा’ में छेकानुप्रास, और उत्तरार्ध में ‘शुद्धै, शुद्धै’ इन निरर्थकों की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। सम्पूर्ण मन्त्र में संयुक्ताक्षरों का वैशिष्ट्य है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तोताओं के द्वारा शुद्ध सामगानों द्वारा प्रेम से स्तुति किया हुआ जगदीश्वर शुद्ध आशीर्वादों से उन्हें बढ़ाता और आनन्दित करता है ॥९॥ इस मन्त्र पर सायणाचार्य ने यह इतिहास प्रदर्शित किया है—पहले कभी इन्द्र वृत्र आदि असुरों का वध करके ब्रह्महत्या आदि के दोष से स्वयं को अशुद्ध मानने लगा। उस दोष के परिहार के लिए इन्द्र ने ऋषियों से कहा कि तुम मुझ अपवित्र को अपने साम से शुद्ध कर दो। तब उन्होंने शोधक साम से और शस्त्रों से उसे परिशुद्ध किया। बाद में शुद्ध हुए उस इन्द्र के लिए याग आदि कर्म में सोम आदि हवियाँ भी दीं।’’ पर इस इतिहास में देवता भी, वध्य को भी मार कर, पाप से लिप्त होते हैं, यह कल्पना की गयी है, जो बड़ी असंगत है ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनर्जगदीश्वरस्य स्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः ! (एत उ) आगच्छत खलु, (नु) क्षिप्रम्, यूयं वयं च संभूय (शुद्धम् इन्द्रम्) पवित्रं जगदीश्वरम् (शुद्धेन साम्ना) पवित्रेण सामगानेन (स्तवाम) स्तुयाम। ष्टुञ् स्तुतौ धातोर्लेटि रूपम्। (शुद्धैः) पवित्रैः (उक्थैः) स्तोत्रैः (वावृध्वांसम्) वृद्धम्, अस्मासु प्रत्येकं जनम्। वृधु वृद्धौ धातोर्लिटः क्वसौ रूपम्। (आशीर्वान्) आशिषामधिपतिः जगदीश्वरः। आशीः आशास्तेः। निरु० ६।८। (शुद्धैः) पवित्रैराशीर्वादैः (ममत्तु) मादयतु आनन्दयतु, मद तृप्तियोगे धातोः ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ रूपम् ॥९॥ अत्र पूर्वार्द्धे ‘शुद्धं, शुद्धे’ ‘शुद्धैरु, शुद्धैरा’ इति छेकानुप्रासः। उत्तरार्द्धे ‘शुद्धै, शुद्धै’ इति निरर्थकयोरावृत्तौ यमकम्। सम्पूर्णे मन्त्रे संयुक्ताक्षरवैशिष्ट्यमपि ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तोतृभिः शुद्धैः सामभिः प्रेम्णा स्तुतो जगदीश्वरः शुद्धैराशीर्वादैस्तान् वर्द्धयत्यानन्दयति च ॥९॥ अत्र सायणाचार्येण इतिहासोऽयं प्रदर्शितः—“पुरा किलेन्द्रो वृत्रादिकानसुरान् हत्वा ब्रह्महत्यादिदोषेणात्मानमपरिशुद्धमित्यमन्यत। तद्दोषपरिहाराय इन्द्र ऋषीनवोचत्, यूयम् अपूतं मां युष्मदीयेन साम्ना शुद्धं कुरुतेति। ततस्ते च शुद्ध्युत्पादकेन साम्ना शस्त्रैश्च परिशुद्धमकार्षुः। पश्चात् पूतायेन्द्राय यागादिकर्मणि सोमादीनि हवींषि च प्रादुरिति।” तत्तु हन्त, देवा अपि, वध्यमपि च हत्वा पाप्मना लिप्यन्त इति महदसमञ्जसं किल ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९५।७, ‘शुद्ध आशीर्वान्’ इति पाठः। साम० १४०२।
09_0350 एतो न्विन्द्रम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५०-१। शुद्धाशुद्धीये द्वे॥ (पदान्त निधनंशुद्धाशुद्धीयम्) द्वयोरिन्द्रोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
ए꣤꣯तो꣥꣯न्वि꣤न्द्रꣳ꣥स्त꣤वा꣥꣯मा꣤॥ शु꣢द्धꣳ꣡शुद्धे꣯न꣢सा꣡ऽ२३म्ना꣢। शुद्धै꣡꣯रुक्थै꣯र्वा꣯वृ꣢ध्वा꣡ऽ२३ꣳ सा꣢म्॥ शुद्धै꣡꣯राऽ२३शी꣢ऽ३॥ र्वा꣡ऽ२᳐न्। म꣣मा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ तू꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
09_0350 एतो न्विन्द्रम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३५०-२। ऐडँशुद्धाशुद्धीयम्॥
ए꣥꣯तो꣯न्विन्द्रꣳस्तवाऽ६मा꣥॥ शु꣢द्धꣳ꣡शुद्धे꣢। न। सा꣡म्नाऽ᳒२᳒॥ शु꣡द्धाइरू꣢ऽ३क्था꣢ऽ३इः। वा꣡꣯वाऽ२᳐र्ध्वा꣣ऽ२३४ꣳसा꣥म्॥ शु꣢द्धै꣡꣯राऽ२३शी꣢॥ र्वा꣡न्मम꣢त्तु। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो꣢ र꣣यिं꣡ वो꣢ र꣣यि꣡न्त꣢मो꣣ यो꣢ द्यु꣣म्नै꣢र्द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः। सो꣡मः꣢ सु꣣तः꣡ स इ꣢꣯न्द्र꣣ ते꣡ऽस्ति꣢ स्वधापते꣣ म꣡दः꣢ ॥ 10:0351 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो र॑यिवो र॒यिन्त॑मो॒ यो द्यु॒म्नैर्द्यु॒म्नव॑त्तमः ।
सोमः॑ सु॒तः स इ॑न्द्र॒ तेऽस्ति॑ स्वधापते॒ मदः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
यः꣢। र꣣यि꣢म्। वः꣣। रयि꣡न्त꣢मः। यः। द्यु꣣म्नैः꣢। द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः। सो꣡मः꣢꣯। सु꣣तः꣢। सः। इ꣣न्द्र। ते। अ꣡स्ति꣢꣯। स्व꣣धापते। स्वधा। पते। म꣡दः꣢꣯। ३५१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- तिरश्चीराङ्गिरसः शंयुर्बार्हस्पत्यो वा
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमेश्वर की आनन्ददायकता का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (रयिन्तमः) अतिशय ऐश्वर्ययुक्त (यः) जो (वः) तुम्हारे लिए (रयिम्) ऐश्वर्य को देता है, और (द्युम्नवत्तमः) अतिशय तेजस्वी (यः) जो (द्युम्नैः) तेजों से, तुम्हें अलङ्कृत करता है, (सः) वह (सुतः) हृदय में प्रकट हुआ (सोमः) चन्द्रमा के समान आह्लादक और सोम ओषधि के समान रसागार परमेश्वर, हे (स्वधापते) अन्नों के स्वामी अर्थात् अन्नादि सांसारिक पदार्थों के भोक्ता (इन्द्र) विद्वन् ! (ते) तुम्हारे लिए (मदः) आनन्ददायक (अस्ति) है ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘रयिं, रयिं’ में लाटानुप्रास अलङ्कार है। ‘तमो, तमः’ ‘द्युम्नै, द्युम्न’ में छेकानुप्रास है। य्, स्, त् और म् की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हृदय में प्रत्यक्ष किया गया परमेश्वर योगी को समस्त आध्यात्मिक ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस और आनन्द प्रदान करता है, अतः सबको यत्नपूर्वक उसका साक्षात्कार करना चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र के महिमागान का वर्णन होने, उसके प्रति श्रद्धारस आदि का अर्पण करने, उससे ऐश्वर्य माँगने, उसका आह्वान होने तथा उसकी स्तुति के लिए प्रेरणा होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में बारहवाँ खण्ड समाप्त ॥ यह तृतीय अध्याय समाप्त हुआ ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरस्यानन्दकरत्वं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (रयिन्तमः२) रयिवत्तमः, अतिशयेन ऐश्वर्ययुक्तः (यः वः) तुभ्यम्। वस् इति बहुवचनस्य विहितो युष्मदादेशश्छन्दस्येकवचनेऽपि बहुशो दृश्यते। (रयिम्) ऐश्वर्यम्, ददातीति शेषः, (द्युम्नवत्तमः) अतिशयेन तेजोयुक्तश्च (यः द्युम्नैः) तेजोभिः, त्वामलङ्करोतीति शेषः, (सः) असौ (सुतः) हृदये प्रकटितः (सोमः) चन्द्रवदाह्लादकः सोमौषधिवद् रसागारश्च परमेश्वरः, हे (स्वधापते) अन्नपते, सांसारिकपदार्थानाम् उपभोक्तः इत्यर्थः, स्वधा इत्यन्ननाम, निघं० २।७। (इन्द्र) विद्वन् ! (ते) तुभ्यम् (मदः) आनन्दकरः (अस्ति) भवति ॥१०॥३ अत्र ‘रयिं-रयिं’ इति लाटानुप्रासः, ‘तमो-तमः’ ‘द्युम्नै-द्युम्न’ इति छेकानुप्रासः। यकार-सकार-तकार-मकाराणां पृथक्-पृथग् असकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासश्च ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हृदि प्रत्यक्षीकृतः परमेश्वरो योगिने सकलमाध्यात्मिकमैश्वर्यं ब्रह्मवर्चसमानन्दं च प्रयच्छतीत्यसौ सर्वैर्यत्नेन साक्षात्करणीयः ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य महिमगानवर्णनात्, तं प्रति श्रद्धारसादीनामर्पणात्, तत ऐश्वर्ययाचनात्, तदाह्वानात्, तत्स्तुत्यर्थ प्रेरणाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विदाङ्कुर्वन्तु। इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः॥ इति तृतीयेऽध्याये द्वादशः खण्डः ॥ समाप्तश्चायं तृतीयोऽध्यायः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४४।१। तत्र ‘रयिं वो’ इत्यत्र ‘रयिवो’ इति निरनुस्वारः समस्तः पाठः। २. रयिशब्दात् व्रीह्यादित्वादिनिः—इति म०। तत्र ‘व्रीह्यादिभ्यश्च। अ० ५।२।११६’ इति पाणिनिसूत्रम्, व्रीह्यादिषु पाठश्चोन्नेयः। नलोपे ‘नाद् घस्य। अ० ८।२।१७’ इति नुडागमः। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘राजादिभिः किं कर्तव्य’मिति विषये व्याख्यातवान्।
10_0351 यो रयिम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५१-१। रयिष्ठे द्वे॥ द्वयोः गोतमोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
यो꣥꣯रयिंवो꣯रया꣯हाउ॥ ता꣣ऽ२३४माः꣥। यो꣡꣯द्युम्नै꣯र्द्युम्नवत्त꣢मः। सो꣡꣯मस्सुतस्सआऽ२३ हो꣡इ। द्र꣪ताऽ᳒२᳒इ। अ꣡स्तिस्वधा꣯पताऽ२३हो꣡ये꣢ऽ३॥ मदोऽ२३४५इ॥ डा॥
10_0351 यो रयिम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३५१-२।
यो꣣꣯र꣤यिं꣣वो꣤꣯र꣥यि। त꣣मोऽ२३४हा꣥इ॥ यो꣣꣯द्यु꣤म्नै꣣꣯र्द्यु꣤म्नव꣥। त꣣मोऽ२३४हा꣥इ॥ सो꣣꣯म꣤स्सुत꣣स्स꣤इ꣥। द्र꣣तोऽ२३४हा꣥इ॥ अ꣣स्ति꣤स्व꣥धा꣯पते꣯। म꣣दोऽ२३४हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
[[अथ प्रथम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡त्य꣢स्मै꣣ पि꣡पी꣢षते꣣ वि꣡श्वा꣢नि वि꣣दु꣡षे꣢ भर। अ꣣रङ्गमा꣢य꣣ ज꣢ग्म꣣ये꣡ऽप꣢श्चादध्व꣣ने꣡ न꣢रः ॥ 11:0352 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
+++(अध्वर्यो!)+++ प्रत्य॑स्मै॒ पिपी॑षते॒ विश्वा॑नि वि॒दुषे॑ भर ।
अ॒रं॒+++(लं॒)+++ग॒माय॒ जग्म॒ये+++(=गमनशीलाय)+++ ऽप॑श्चाद्दघ्वने॒+++(=पुरोगाय)+++ नरे॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣡ति꣢꣯। अ꣣स्मै। पि꣡पी꣢꣯षते। वि꣡श्वा꣢꣯नि। वि꣣दु꣡षे꣢। भर। अरङ्गमा꣡य꣢। अ꣣रम्। गमा꣡य꣢। ज꣡ग्म꣢꣯ये। अ꣡प꣢꣯श्चादध्वने। अ꣡प꣢꣯श्चा। द꣣ध्वने। न꣡रः꣢꣯। । ३५२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ चतुर्थोऽध्यायः प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर और आचार्य के प्रति मनुष्यों का कर्त्तव्य बताया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—जगदीश्वर के पक्ष में। हे नर ! तू (पिपीषते) तेरी मित्रता के प्यासे, (विदुषे) सर्वज्ञ (अरङ्गमाय) पर्याप्तरूप में धनादि प्राप्त करानेवाले, (जग्मये) सहायता के लिए सदा आगे बढ़नेवाले, और (नरः) मनुष्यों को (अ-पश्चा-दध्वने) पीछे न धकेलनेवाले, प्रत्युत सदा विजयार्थ आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करनेवाले इन्द्र जगदीश्वर के लिए (विश्वानि) अपनी सब मित्रताओं को (प्रति भर) भेंट कर ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे राजन् वा प्रजाजन ! तुम (पिपीषते) गुरुकुल चलाने के लिए धनादि पदार्थों के प्यासे, (अरङ्गमाय) विद्या आदि में पारंगत, (जग्मये) क्रियाशील (अ-पश्चा-दध्वने) कभी पग न हटानेवाले, किन्तु सदा आगे बढ़नेवाले (विदुषे) विद्वान् आचार्य के लिए (विश्वानि) सब उत्तम धन आदियों को, और विद्याप्रदान तथा आचार-निर्माण के लिए (नरः) प्रतिभाशाली बालकों को (प्रतिभर) सौंपो ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब राजा-प्रजा आदि को चाहिए कि वे जगदीश्वर के साथ मित्रता करें और विद्वानों को धन, धान्य आदि से सत्कृत करके उन्हें विद्या तथा उपदेश देने के लिए निश्चित कर दें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ चतुर्थोऽध्यायः। अथ जगदीश्वरमाचार्यं च प्रति जनानां कर्त्तव्यमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—जगदीश्वरपरः। हे मनुष्य ! त्वम् (पिपीषते) पिपासते, तव सख्यं प्राप्तुमिच्छते। पीङ् पाने दिवादिः, ततः सनि शतरि रूपम्। (विदुषे) सर्वज्ञाय, (अरङ्गमाय) अरं पर्याप्तं धनादिकं गमयति प्रापयति तस्मै, बहुधनादिवर्षकायेत्यर्थः, (जग्मये) सहायतार्थं सदैव अग्रगामिने। गत्यर्थाद् गम्लृ धातोः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१’ इति किः प्रत्ययः लिड्वद्भावश्च। (नरः) मनुष्यान्। नृ शब्दस्य द्वितीयाबहुवचने रूपम्। (अपश्चादध्वने२) न पश्चा पश्चात् दध्यति प्रेरयतीति तस्मै, सर्वदा विजयार्थं अग्रे गन्तुं समुत्साहयते इत्यर्थः, इन्द्राय जगदीश्वराय। दध्यति गतिकर्मा। निघं० २।१४, तत्र ‘दध्यति’ इत्यपि पाठान्तरम्। पश्चा इति ‘पश्च पश्चा च छन्दसि। अ० ५।३।३३’ इति पश्चादर्थे निपात्यते। (विश्वानि) सर्वाणि स्वकीयानि सख्यानि (प्रति भर) समर्पय, उपायनीकुरु। अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे राजन् प्रजाजन वा ! त्वम् (पिपीषते) गुरुकुलस्य सञ्चालनाय धनादीनां पिपासते, (अरङ्गमाय३) विद्यादेः पर्याप्तं पारङ्गताय, (जग्मये) क्रियाशीलाय (अ-पश्चा-दध्वने) कदापि पश्चात् पदं न निदधानाय, किन्तु सदैव अग्रेसराय (विदुषे) विद्वद्वराय आचार्याय (विश्वानि) सर्वाण्युत्तमानि धनादीनि, विद्याप्रदानायाचारनिर्माणाय च (नरः) नॄंश्च, प्रतिभाशालिनो बालकांश्चेत्यर्थः (प्रतिभर) समर्पय ॥१॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वै राजप्रजादिभिर्जगदीश्वरेण सख्यं योजनीयम्, विद्वांसश्च धनधान्यादिना सत्कृत्य विद्योपदेशप्रदानाय निश्चिन्ताः कर्त्तव्याः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४२।१ ‘अपश्चाद्दध्वने नरे’ इति पाठः। साम० १४४०। २. क्वचित्तु ‘अपश्चादध्वने’ इति पाठः। तद् दध्यते रूपम्। अर्थस्तु स एव। ३. (अरङ्गमाय) यो विद्याया अरं पारं गच्छति तस्मै—इति ऋ० ६।४२।१ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।
11_0352 प्रत्यस्मै पिपीषते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५२-१। कौल्मबर्हिषे द्वे॥ द्वयोः कुल्मबर्हिरनुष्टुबिन्द्रः॥प्र꣥त्यस्मै꣯पिपा꣯हाउ॥ आ꣡इषा꣢ऽ३ता꣢इ। वा꣡इश्वा꣢꣯निवा꣡इ। दूषे꣢ऽ३हा꣢ऽ३इ। भा꣢ऽ३रा꣢। आ꣡रा꣰꣯ऽ२ङ्गमा꣡॥ याजा꣢ऽ३हा꣢ऽ३। ग्मा꣢ऽ३या꣢इ॥ अ꣡पाऽ२३। श्चा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ घ्व꣡ने꣰꣯ऽ२नरा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
11_0352 प्रत्यस्मै पिपीषते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३५२-२।
प्र꣥त्यस्मै꣯पीऽ६पी꣥꣯षताइ॥ वा꣡इश्वा꣢꣯निवा꣡इ। दूषे꣢꣯भा꣡राऽ᳒२᳒। आ꣡रा꣰꣯ऽ२ङ्गमा꣡। यजग्मा॥ याइ। अपश्चा꣯दघ्वनाऽ२३हो꣡इ। न꣢रा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
11_0352 प्रत्यस्मै पिपीषते - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
३५२-३। नानदम्॥ इन्द्रोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
प्र꣣त्य꣤स्मै꣥꣯पि꣤पी꣥꣯। ष꣣ता꣢ऽ३इ। वा꣡ऽ२३४इ। श्वा꣯नि꣥विदुषे꣯। भा꣤रा꣥॥ अ꣤रङ्गमा꣣꣯य꣤ज꣥। ग्म꣣योऽ२३४हा꣥इ॥ आ꣤प꣥श्चा꣤दा꣥॥ घ्व꣢नो꣡ऽ२३४वा꣥। ना꣤ऽ५रोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ नो꣢ वयोवयःश꣣यं꣢ म꣣हा꣡न्तं꣢ गह्वरे꣣ष्ठां꣢ म꣣हा꣡न्तं꣢ पूर्वि꣣ने꣢ष्ठाम्। उ꣣ग्रं꣢꣫ वचो꣣ अ꣡पा꣢वधी ॥ 12:0353 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। नः꣣। वयोवयश्शय꣢म्। व꣣योवयः। शय꣢म्। म꣣हा꣡न्त꣢म्। ग꣣ह्वरेष्ठा꣢म्। ग꣣ह्वरे। स्था꣢म्। म꣣हा꣡न्तं꣢। पू꣣र्विनेष्ठा꣢म्। पू꣣र्विने। स्था꣢म्। उ꣣ग्र꣢म्। व꣡चः꣢꣯। अ꣡प꣢꣯। अ꣣वधीः। ३५३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः, शाकपूतो वा
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा तथा जनसमाज के प्रति मनुष्य का कर्त्तव्य बताया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मानव ! तू (नः) हम सबके (वयोवयःशयम्) अन्न-अन्न, आयु-आयु, प्राण-प्राण में विद्यमान, (महान्तम्) सर्वव्यापक होने से परिमाण में महान्, (गह्वरेष्ठाम्) हृदय-गुहा में प्रच्छन्न रूप से स्थित, (महान्तम्) गुणों में महान्, (पूर्विणेष्ठाम्) पूर्वजों से रचित भक्तिस्तोत्र, भक्तिकाव्य आदियों में वर्णित इन्द्र परमेश्वर को (आ) अध्यात्मयोग से प्राप्त कर, और (उग्रं वचः) ‘मारो-काटो-छेदो-भेदो’ इत्यादि हिंसा-उपद्रव से उत्पन्न होनेवाले ‘हाय, बड़ा कष्ट है, बड़ी सिर में पीड़ा है, कैसे जीवन धारण करें’ आदि रोग के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाले, और ‘हाय भूखे हैं, प्यासे हैं, कोई भी हमें नहीं पूछता, अन्न का एक दाना मुख में डाल दो, पानी की एक बूँद से जीभ गीली कर दो’ इत्यादि भूख-प्यास से उत्पन्न होनेवाले उग्र वचनों को (अपावधीः) दूर कर ॥२॥ इस मन्त्र में ‘वयो-वयः’ में छेकानुप्रास तथा ‘महान्तं’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि महामहिमाशाली जगदीश्वर की उपासना कर, उसका सर्वत्र प्रचार कर, जनजीवन से सब प्रकार के हाहाकार को समाप्त करके समाज, राष्ट्र और जगत् में शान्ति लायें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं जनसमाजं च प्रति मनुष्यस्य कर्त्तव्यमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मानव ! त्वम् (नः) अस्माकम् (वयोवयःशयम्) वयसि-वयसि, अन्ने-अन्ने, आयुषि-आयुषि, प्राणे-प्राणे वा शेते इति वयोवयःशयः तम्। वयस् इत्यन्ननाम। निघं० २।७। प्राणो वै वयः। ऐ० ब्रा० १।२८। सोपपदात् शीङ् धातोः ‘अधिकरणे शेतेः। अ० ३।२।१५’ इत्यच् प्रत्ययः। (महान्तम्) परिमाणेन विशालं, सर्वव्यापकत्वात्, (गह्वरेष्ठाम्) गह्वरे हृदयगुहायां निलीनः तिष्ठतीति गह्वरेष्ठाः तम्, (महान्तम्) गुणैर्विशालम्, (पूर्विणेष्ठाम्) पूर्वैः पूर्वजैः कृतानि भक्तिस्तोत्रकाव्यादीनि पूर्विणानि तेषु वर्ण्यतया तिष्ठतीति तम्। पूर्वैः कृतमिनयौ च। अ० ४।४।११३’ इति इन प्रत्ययः। इन्द्रं परमात्मानम् (आ) अध्यात्मयोगेन आप्नुहि। तथा चोपनिषद्वर्णः—तं दुर्दर्श गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्। अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति। कठ० उप० २।१२ इति। किं च (उग्रं वचः१) ‘मारय, काटय, छिन्धि, भिन्धि’ इत्यादिकं हिंसोपद्रवजन्यं, ‘हा महत् कष्टं, महती शिरोवेदना, कथं जीवितं धारयेम’ इत्यादिकं व्याधिप्रकोपजन्यं, ‘क्षुधिताः स्मः, पिपासिताः स्मः, न कोऽप्यस्मान् पृच्छति, अन्नकणमेकं मुखे पातय, पानीयबिन्दुना रसनामार्द्रय’ इत्यादिकं क्षुत्पिपासाजन्यम्, एवमादिकम् उग्रं वचनम् (अपावधीः) अपजहि ॥२॥२ अत्र ‘वयो-वयः’ इत्यत्र छेकः, ‘महान्तं’ इत्यस्यावृत्तौ च लाटानुप्रासः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यैर्महामहिमशालिनं जगदीश्वरमुपास्य सर्वत्र प्रचार्य जनजीवनात् सर्वप्रकारं हाहाकारं समाप्य समाजे राष्ट्रे जगति च शान्तिरानेया ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. उग्रं क्षुत्पिपासानिमित्तेन भयङ्करं वचः अस्मदीयं वचनम्, ‘अशनायापिपासे ह त्वा उग्रं वचः’ इति श्रुतेः, अपावधीः अपजहि—इति सा०। २. भरतस्वामिमते अत्र रयिः पुत्रो वा प्रार्थ्यते—“आहर नः अस्मभ्यम् रयिमिति शेषः। (वयोवयःशयम्) वयसि अन्ने यौवनादिषु वा गतं प्राप्तम्। शयतेः शयः। सर्वान्नसाधकमिति वा सर्वावस्थासु अनुगतमिति वा। (महान्तम्) अपरिमितम्। (गह्वरेष्ठाम्) गह्वरे गुहायां तिष्ठतीति गह्वरेष्ठाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च (पा० ३।३।७४) इति चकारात् तिष्ठतेर्विट् प्रत्ययः—अनपह्वार्यमित्यर्थः। महान्तम् इति पुनर्वचनम् अर्थभूयस्त्वाय अत्यर्थं महान्तमिति। (पूर्विणेष्ठाम्) पूर्वसिद्धं पूर्विणम्। ‘गम्भीरेभिः पथिभिः पूर्विणेभिः’ (का० सं० १।६) इति निगमः। पूर्वेषु स्थितम् कुलक्रमागतमिति यावत्। पुत्रो वा अनया प्रार्थ्यते। वयोवयःशयमिति पूर्णायुषमित्युक्तं भवति। गह्वरेष्ठामिति रहस्येषु यज्ञेषु निष्ठितमिति। पूर्विणेष्ठामिति पुरातने मार्गे वेदात्मके निष्ठितमिति ॥ (उग्रं वचः) शत्रुभिरुद्गूर्णम् उद्यतं वचः अभिशंसनादिकम् (अपावधीः) अपजहि। ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः’। पा० ३।४।६ इति लोडर्थे लुङ्” इति।
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लिखितम्
३५३-१। शाकपूतम्॥ शाकपूतिरनुष्टुबिन्द्रः॥
आ꣥꣯नो꣯वयो꣯वयश्शाऽ६या꣥म्॥ म꣢हा꣯न्तङ्गह्वरा꣣ऽ२३४इष्ठा꣥म्। म꣢हा꣯न्तंपू꣯र्विना꣣ऽ२३४ इष्ठा꣥म्॥ उ꣢ग्रं꣡वाऽ२३चाः꣢᳐॥ अ꣣पा꣢ऽ३वा꣤ऽ५"धाऽ६५६इः॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢ त्वा꣣ र꣢थं꣣ य꣢थो꣣त꣡ये꣢ सु꣣म्ना꣡य꣢ वर्तयामसि। तु꣣विकूर्मि꣡मृ꣢ती꣣ष꣢ह꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ शविष्ठ꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥ 13:0354 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ त्वा॒ रथं॒ यथो॒तये॑ सु॒म्नाय॑ वर्तयामसि ।
तु॒वि॒कू॒र्मिमृ॑ती॒षह॒मिन्द्र॒ शवि॑ष्ठ॒ सत्प॑ते ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। त्वा꣣। र꣡थ꣢꣯म्। य꣡था꣢꣯। ऊ꣣त꣡ये꣢। सु꣣म्ना꣡य꣢। व꣣र्तयामसि। तुविकूर्मि꣢म्। तु꣣वि। कूर्मि꣢म्। ऋ꣣तीष꣡ह꣢म्। ऋ꣣ती। स꣡ह꣢꣯म्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। श꣣विष्ठ। स꣡त्प꣢꣯तिम्। सत्। प꣣तिम्। ३५४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रियमेध आङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा को सम्बोधित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) सांसारिक दुःख, विघ्न आदियों से रक्षा के लिए, और (सुम्नाय) ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के लिए, हम (तुविकूर्मिम्) बहुत-से कर्मों के कर्ता, (ऋतीषहम्) शत्रु-सेनाओं के पराजयकर्ता, (सत्पतिम्) सदाचारियों के पालनकर्ता (त्वा) तुझ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमात्मा वा राजा को (आवर्तयामसि) अपनी ओर प्रवृत्त करते हैं, (यथा) जैसे (ऊतये) शत्रुओं से रक्षा के लिए और (सुम्नाय) यात्रा-सुख के लिए (तूविकूर्मिम्) व्यापार आदि द्वारा बहुत-से धनों को उत्पन्न करने में साधनभूत, (ऋतीषहम्) वायु, वर्षा आदि के आघात को सहनेवाले, (सत्पतिम्) बैठे हुए श्रेष्ठ यात्रियों के पालन के साधनभूत (रथम्) भूयान, जलयान, विमान आदि को लोग प्रवृत्त करते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे हवा, धूप, वर्षा आदि से बचाव के लिए और यात्रासुख के लिए रथ प्राप्तव्य होता है, वैसे ही रोग आदि से होनेवाले दुःखों से त्राणार्थ और शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, वर्णाश्रमधर्म की प्रतिष्ठा, शान्तिस्थापना आदि द्वारा योगक्षेम के सुखप्रदानार्थ राजा को तथा त्रिविध तापों से त्राणार्थ और मोक्ष-सुख आदि के प्रदानार्थ परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा राजा च सम्बोध्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) दुःखविघ्नादिभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) ऐहिकपारलौकिकसुखाय च वयम् (तुविकूर्मिम्२) बहूनां कर्मणां कर्तारम्। तुवीति बहुनाम निघं० ३।१। कूर्मिः करोतेर्बाहुलकादौणादिको मिः प्रत्ययः। (ऋतीषहम्३) ऋतीः शत्रुसेनाः सहते अभिभवतीति तम्, (सत्पतिम्) सदाचारिणां पालकम् (त्वा) त्वाम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानं राजानं वा (आवर्तयामसि) अनुकूलं प्रवर्तयामः, (यथा) येन प्रकारेण (ऊतये) शत्रुभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) यात्रासुखाय च (तुविकूर्मिम्) बहूनां धनानां व्यापारादिद्वारा उपार्जने साधनभूतम्, (ऋतीषहम्) वायुवृष्ट्याद्याघातसहम्, (सत्पतिम्) सताम् उपविष्टानां यात्रिणां पालनसाधनीभूतम् (रथम्) भूयान-जलयान-विमानादिकम्, जनाः आवर्तयन्ति प्रवृत्तं कुर्वन्ति ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा वातातपवर्षादिभ्यस्त्राणाय यात्रासुखाय च रथः प्राप्तव्यो भवति, तथैव रोगादिजन्येभ्यो दुःखेभ्यस्त्राणाय शिक्षाचिकित्सान्यायवर्णाश्रमधर्मप्रतिष्ठा- शान्तिस्थापनादिभिर्योगक्षेमसुखप्रदानाय च राजा, त्रिविधतापेभ्यस्त्राणाय मोक्षसुखप्रदानाय च परमात्मा प्राप्तव्यः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६८।१ ‘मिन्द्र शविष्ठ सत्पते’ इति पाठः। साम० १७७१। २. (तूविकूर्मिः) तुविर्बहुविधः कूर्मिः कर्मयोगो यस्य सः—इति ऋ० ३।३०।३ भाष्ये द०। ३. ऋतयः सेनाः गन्तृत्वात्। ता यः सहते अभिभवति सः ऋतीषाट्। तम् ऋतीषहम्। परकीयानां सेनानाम् अभिभवितारमित्यर्थः—इति वि०। ऋतीनाम् अरीणां सोढारम् अभिभवितारम्—इति भ०। हिंसकानाम् अभिभवितारम्—इति सा०।
13_0354 आ त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५४-१। कौल्मलबर्हिषे द्वे॥ द्वयोः कुल्मलबर्हिरनुष्टुबिन्द्रः॥
आ꣥꣯त्वा꣯रथंयथौ꣯हो꣤वा꣥॥ ता꣡या꣢᳐इसू꣣ऽ२३४म्ना꣥। य꣡वर्त्तया꣯मसितुविकूर्मी꣢म्। आ꣣ऽ२३४र्ती꣥। ष꣡ह꣢म्॥ आ꣡इन्द्रा꣢ऽ३ꣳशा꣤वी꣥॥ ष्ठ꣢स꣡त्पाऽ२३ती꣢ऽ३४३म्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
13_0354 आ त्वा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३५४-२।आ꣣꣯त्वा꣤꣯र꣣थँ꣤यथो꣥꣯। त꣣या꣢इ᳐। आ꣣꣯त्वा꣤꣯र꣥थाम्॥ य꣢थो꣡ताया꣢᳐। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥। ई꣣ऽ२३४हा꣥। सु꣢म्ना꣯यवर्त्तऽ३या꣡मसि꣢᳐। औ꣣꣯हो꣢ऽ३१इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ तु꣢विकू꣯र्मिमृऽ३ ता꣡इषह꣢᳐म्। औ꣣꣯हो꣢ऽ३१इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ इ꣢न्द्रꣳ शविष्ठऽ३सा꣡त्पति꣢᳐ म्। औ꣣꣯हो꣢ऽ३१ इ। औऽ२᳐हो꣣ऽ२३४५वाऽ६५६॥ ई꣣ऽ२३४हा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣢ पू꣣र्व्यो꣢ म꣣हो꣡नां꣢ वे꣣नः꣡ क्रतु꣢꣯भिरानजे। य꣢स्य꣣ द्वा꣢रा꣣ म꣡नुः꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वे꣢षु꣣ धि꣡य꣢ आन꣣जे꣢ ॥ 14:0355 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स पू॒र्व्यो म॒हानां॑ वे॒नः क्रतु॑भिरानजे ।
यस्य॒ द्वारा॒ मनु॑ष्पि॒ता दे॒वेषु॒ धिय॑ आन॒जे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सः꣢। पू꣣र्व्यः꣢। म꣣हो꣡ना꣢म्। वे꣣नः꣢। क्र꣡तु꣢꣯भिः। आ꣣नजे। य꣡स्य꣢꣯। द्वा꣡रा꣢꣯। म꣡नुः꣢꣯। पि꣣ता꣢। दे꣣वे꣡षु꣢। धि꣡यः꣢꣯। आ꣣नजे꣢। ३५५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रगाथः काण्वः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (महोनाम्) पूजनीयों में भी (पूर्व्यः) पूज्यता में श्रेष्ठ, (वेनः) मेधावी और कमनीय (सः) वह परमैश्वर्यवान् इन्द्र जगदीश्वर (क्रतुभिः) सृष्टिसञ्चालन आदि कर्मों से (आनजे) व्यक्त होता है, अनुमान किया जाता है, (यस्य द्वारा) जिस जगदीश्वर के द्वारा (मनुः) मननशील (पिता) शरीर का पालक जीवात्मा (देवेषु) शरीरवर्ती मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि में (धियः) उन-उनकी क्रियाओं को (आनजे) प्राप्त कराता है ॥४॥ इस मन्त्र में नकार का अनुप्रास है, ‘नजे’ की आवृत्ति में यमक है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - संसार में दिखायी देनेवाली सूर्यचन्द्रोदय, ऋतुचक्रप्रवर्तन आदि क्रियाएँ किसी कर्ता के बिना नहीं हो सकतीं, अतः परमात्मा का अनुमान कराती हैं। देह का स्वामी जीवात्मा भी परमात्मा की ही सहायता से देह में स्थित मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि में संकल्प, निश्चय, प्राणन, दर्शन, स्पर्शन आदि क्रियाओं को प्रवृत्त करता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य परमात्मनो महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (महोनाम्) पूजनीयानामपि। मह पूजायाम् इति धातोः असुन् प्रत्यये महसामिति प्राप्ते छान्दसो नुडागमः। (पूर्व्यः) पूर्वः, पूज्यतायां श्रेष्ठः। ‘पादार्घाभ्यां च। अ० ५।४।२५’ इत्यत्र चकारेणानुक्तसमुच्चयं मत्वा पूर्वादिभ्यः शब्देभ्यश्छन्दसि स्वार्थे यत् प्रत्ययं विहितवान् काशिकाकारः। (वेनः) मेधावी कान्तो वा। वेन इति मेधाविनाम, निघं० ३।१५। वेनतिः कान्तिकर्मा, निघं० २।६। (सः) असौ इन्द्रः परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (क्रतुभिः) स्वकीयैः कर्मभिः दृश्यमानैः सृष्टिसञ्चालनादिभिः (आनजे) व्यज्यते। (यस्य द्वारा) यस्य जगदीश्वरस्य द्वारेण (मनुः) मनसा मननशीलः (पिता) देहस्य पालकः जीवात्मा (देवेषु) देहवर्तिषु प्रकाशकेषु मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिषु (धियः) तत्तत्क्रियाः। धीः इति कर्मनाम। निघं० २।१। (आनजे) प्रापयति। अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। द्वितीयपादान्ते ‘आनजे’ इत्यत्र व्यक्त्यर्थात् कर्मणि लिट्। चतुर्थपादान्ते च गत्यर्थात् णिजर्थगर्भात् कर्त्तरि लिट्, यत्र यद्वृत्तयोगाद् ‘यद्वृत्तान्नित्यम्। अ० ८।१।६६’ इति निघाताभावः ॥४॥२ अत्र नकारानुप्रासः, ‘नजे’ इत्यस्यावृत्तौ च यमकम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जगति परिदृश्यमानाः सूर्यचन्द्रोदयऋतुचक्रप्रवर्तनादिक्रियाः कञ्चित् कर्तारं विनाऽनुपपद्यमानाः परमात्मानमनुमापयन्ति। देहस्वामी जीवात्मापि परमात्मन एव साहाय्येन देहस्थेषु मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिषु संकल्पाध्यवसायप्राणनदर्शनस्पर्शनादिक्रियाः प्रवर्तयति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६३।१, ‘महोनां’ ‘मनुः पिता’ इत्यत्र क्रमेण ‘महानां’ ‘मनुष्पिता’ इति पाठः। २. महोनाम्, घकारस्य हकारापत्तिः छान्दसी। मघोनां मघवतां धनवतां मध्ये वेनः कान्तः, व्यक्तीकरोत्यात्मानम्। धियः यागविषयाः प्रज्ञाः बुद्धिरित्यर्थः, आनजे, अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु इत्येतस्य गत्यर्थस्य अन्तर्णीतण्यर्थस्य चेदं रूपम्, आगमयति उत्पादयतीत्यर्थः—इति वि०। सः इन्द्रः, पूर्व्यः मुख्यः, महोनाम् महीयमानानां पूज्यानाम्। वेनः प्राज्ञः कमनीयो वा, क्रतुभिः कर्मभिः सर्वैः आनजे प्राप्यते। (अज गतौ)। यस्य इन्द्रस्य द्वारा द्वारभूतेन, मनुः प्रजापतिः, पिता पितृसमः, देवेषु इन्द्रियेषु, धियः प्रज्ञानानि, आनजे निक्षिप्तवान् (अज क्षेपणे)। इन्द्रो हि प्राणाः, तदधिष्ठितानि इन्द्रियाणि ज्ञानानि जनयन्ति। अतः इन्द्रस्य स्वभूतानि इन्द्रियाणि इत्युच्यन्ते—इति भ०।
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लिखितम्
३५५-१। मधुश्चुन्निधनम्॥ प्रजापतिरनुष्टुबिन्द्रः॥
स꣥पू꣯र्व्यो꣯महो꣯नाऽ६मे꣥॥ वे꣢꣯नᳲक्रतूऽ३भा꣡इरा꣯नजे꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। आ꣡इहीऽ᳒२᳒। यस्यद्वा꣯रा꣯ऽ३मा꣡नुᳲपिता꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। आ꣡इहीऽ᳒२᳒॥ दा꣡इवे꣯षुधा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३वा꣢। आ꣡इहीऽ᳒२᳒॥ यआ꣡ऽ२३। ना꣡ऽ२᳐जा꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ म꣢धुश्चु꣡ता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣢दी꣣ व꣡ह꣢न्त्या꣣श꣢वो꣣ भ्रा꣡ज꣢माना र꣢थे꣣ष्वा꣢। पि꣡ब꣢न्तो मदि꣣रं꣢꣯ मधु꣣ त꣢त्र꣣ श्र꣡वा꣢ꣳसि कृण्वते ॥ 15:0356 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
य꣡दि꣢꣯। व꣡ह꣢꣯न्ति। आ꣣श꣡वः꣢। भ्रा꣡ज꣢꣯मानाः। र꣡थे꣢꣯षु। आ। पि꣡ब꣢꣯न्तः। म꣣दिर꣢म्। म꣡धु꣢꣯। त꣡त्र꣢꣯। श्र꣡वाँ꣢꣯सि। कृ꣣ण्वते। ३५६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मरुतः
- श्यावाश्व आत्रेयः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगली ऋचा के ‘मरुतः’ देवता हैं। इसमें इन्द्रसहचारी मरुतों का शरीर में कार्य वर्णित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यदि) जिस समय (रथेषु) देहरूप रथों में (भ्राजमानाः) तेज से दीप्यमान (आशवः) शीघ्रगामी मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रिय रूप शीर्षण्य प्राण (मदिरम्) आनन्दजनक (मधु) अपने-अपने विषयों संकल्प, अध्यवसाय, रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श के मधुर रस को (पिबन्तः) पान करते हुए (आ वहन्ति) रथी जीवात्मा को जीवन-यात्रा कराते हैं, (तत्र) उस समय (श्रवांसि) यशों को (कृण्वते) उत्पन्न करते हैं ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देहरथ में नियुक्त मन, बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियों का ही यह कार्य है कि वे जीवात्मा के ज्ञान में साधन बनकर उसे यशस्वी बनाते हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
मरुतो देवताः। इन्द्रसहचारिणां मरुतां देहे कार्यं वर्ण्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यदि१) यस्मिन् काले। यदि इति निपातो ‘यदा’ वाचकोऽपि दृश्यते। संहितायां निपातत्वाद् दीर्घः। (रथेषु) देहरथेषु (भ्राजमानाः) तेजसा दीप्यमानाः (आशवः) क्षिप्रकारिणः मरुतः मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियात्मकाः शीर्षण्यप्राणाः, (मदिरम्) आनन्दजनकम्। मदी हर्षे धातोः ‘इषिमदिमुदिखिदि० उ० १।५१’ इति किरच् प्रत्ययः। (मधु) स्वस्वविषयाणां संकल्पाध्यवसायरूपरसगन्धशब्दस्पर्शानाम् मधुरं रसम् (पिबन्तः) आस्वादयन्तः (आ वहन्ति) रथिनम् जीवात्मानम् उद्वहन्ति, जीवनयात्रां कारयन्ति, (तत्र) तस्मिन् काले (श्रवांसि) यशांसि (कृण्वते) कुर्वन्ति, जनयन्ति। अयमेवार्थः ऋग्वेदे गायत्रेणोक्तः—य ईं॒ वह॑न्त आ॒शुभिः॒ पिब॑न्तो मदि॒रं मधु॑। अत्र॒ श्रवां॑सि दधिरे ॥ (ऋ० ५।६१।११) इति॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देहरथे नियुक्तानां मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियाणामेवैतत् कार्यं यत्तान्यात्मनो ज्ञाने साधनतां गत्वा तं यशोभाजं कुर्वन्ति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. यदीत्यव्ययं यत्प्रातिपदिकार्थे वर्तते। यदि यत्र देहे—इति भ०।
15_0356 यदी वहन्त्याशवो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५६-१। उषसस्साम॥ उषानुष्टुबिन्द्रः॥
य꣤दी꣥꣯व꣤ह꣥न्त्या꣯श꣤वः꣥। य꣤। द्येयादी꣥॥ ओ꣡इवहन्ताआ꣢ऽ१शावाऽ᳒२ः᳒। ओ꣡इभ्रा꣯जमा꣯ना꣯ रथाइषू꣢ऽ१वाऽ᳒२᳒। ओ꣡इपिबन्तो꣯मदिरांमा꣢ऽ१धूऽ᳒२᳒॥ ओ꣡इ। तत्रश्रवाꣳ꣯सिकोवा꣢ऽ३ओ꣡ऽ २३४वा꣥॥ ण्वा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्य꣡मु꣢ वो꣣ अ꣡प्र꣢हणं गृणी꣣षे꣡ शव꣢꣯स꣣स्प꣡ति꣢म्। इ꣡न्द्रं꣢ विश्वा꣣सा꣢हं꣣ न꣢र꣣ꣳ श꣡चि꣢ष्ठं वि꣣श्व꣡वे꣢दसम् ॥ 16:0357 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्यमु॑ वो॒ अप्र॑हणं गृणी॒षे शव॑स॒स्पति॑म् ।
इन्द्रं॑ विश्वा॒साहं॒ नरं॒ मंहि॑ष्ठं वि॒श्वच॑र्षणिम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्य꣢म्। उ꣣। वः। अ꣡प्र꣢꣯हणम्। अ। प्र꣣हणम्। गृणीषे꣢। श꣡व꣢꣯सः। प꣡ति꣢꣯म्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। विश्वा꣣सा꣡ह꣢म्। वि꣣श्वा। सा꣡ह꣢꣯म्। न꣡र꣢꣯म्। श꣡चि꣢꣯ष्ठम्। वि꣣श्व꣡वे꣢दसम्। वि꣣श्व꣢। वे꣣दसम्। ३५७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शंयुर्बार्हस्पत्यः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्रपदवाच्य परमात्मा और राजा कैसा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे प्रजाजनो ! मैं (वः) तुम्हारे व अपने हितार्थ (त्यम् उ) उस, (अप्रहणम्) किसी से न मारे जा सकने योग्य अथवा अन्याय से किसी को न मारनेवाले, (शवसः पतिम्) बल और सेना के अधिपति, (विश्वासाहम्) सब शत्रुओं वा विघ्नों को परास्त करनेवाले, (नरम्) नेता, (शचिष्ठम्) अतिशय कर्मनिष्ठ, (विश्ववेदसम्) ब्रह्माण्ड वा राष्ट्र के सब घटनाचक्र को जाननेवाले (इन्द्रम्) शूरवीर परमात्मा वा राजा की (गृणीषे) गुण-कर्मों के वर्णन द्वारा स्तुति करता हूँ ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो प्रजाओं का हित चाहते हैं उन मन्त्री, पुरोहित आदियों को चाहिए कि मन्त्रोक्त गुणों से अलङ्कृत जगदीश्वर का गुण-कर्मों के कीर्तन द्वारा और उसकी गरिमा के गान द्वारा सर्वत्र प्रचार करें और वैसे ही गुणी राजा को उसके गुणों के वर्णन द्वारा कर्तव्य के प्रति प्रोत्साहित करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यः परमात्मा राजा च कीदृशोऽस्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे प्रजाजनाः ! अहम् (वः)युष्मभ्यम्, अस्मभ्यं चेत्यपि ध्वन्यते, युष्माकमस्माकं च हितायेत्यर्थः (त्यम् उ) तं प्रख्यातम्, (अप्रहणम्२) न केनापि प्रहन्तुं शक्यम्, यद्वाऽन्यायेन कञ्चित् न घ्नन्तम्। अत्र प्र पूर्वाद् हन्तेः कर्मणि कर्तरि वा क्विप्, नञ्समासः। (शवसः पतिम्) बलस्य सैन्यस्य वा अधीश्वरम्, (विश्वासाहम्) यो विश्वान् शत्रून् विघ्नान् वा सहते अभिभवति तम्। अत्र विश्वपूर्वात् सह धातोः ‘छन्दसि सहः। अ० ३।१।६३’ इति ण्विः ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घश्च। (नरम्) नेतारम्, (शचिष्ठम्) अतिशयेन कर्मनिष्ठम्। अतिशयेन शचीमान् इति शचिष्ठः। अतिशायने इष्ठनि ‘विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५’ इति मतोर्लुक्। (विश्ववेदसम्) यो ब्रह्माण्डस्य राष्ट्रस्य वा विश्वं घटनाचक्रं वेत्ति तम् (इन्द्रम्) शूरं परमात्मानं राजानं वा (गृणीषे) गुणकर्मवर्णनेन स्तौमि। गॄ शब्दे धातोर्लेट्युत्तमैकवचने रूपम्। ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४’ इति सिप् ॥६॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये प्रजानां हितमिच्छन्ति तैरमात्यपुरोहितादिभिः मन्त्रोक्तगुणगणालङ्कृतो जगदीश्वरो गुणकर्मकीर्तनद्वारा तद्गरिम्णो गानद्वारा च सर्वत्र प्रचारणीयस्तादृशो नरेश्वरश्च गुणवर्णनेन कर्त्तव्यं प्रति प्रोत्साहनीयः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४४।४, ‘मंहिष्ठं विश्वचर्षणिम्’ इति चतुर्थः पादः। २. (अप्रहणम्) योऽन्यायेन कञ्चिन्न प्रहन्ति तम्—इति ऋ० ६।४४।४ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
16_0357 त्यमु वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५७-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाजोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
त्य꣣मु꣤वो꣥꣯अ। प्र꣣हा꣢᳐। हा꣣ऽ२३४णा꣥म्॥ गृ꣢णी꣯षे꣡꣯शवसः꣢। प꣡ताइम्। आइन्द्रा꣢ऽ३म्वा꣤इश्वा꣥। स꣡हा꣢ऽ३ꣳहो꣡ये꣢ऽ३४। ना꣥र꣣मो꣢ऽ३इ॥ श꣢चि꣡ष्ठाऽ२३४म्वी꣥॥ श्व꣡वा꣢ऽ३हो꣡ऽ२३४। वा꣥। दा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
द꣣धिक्रा꣡व्णो꣢ अकारिषं जि꣣ष्णो꣡रश्व꣢꣯स्य वा꣣जि꣡नः꣢। सु꣣रभि꣢ नो꣣ मु꣡खा꣢ कर꣣त्प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥ 17:0358 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
+++(pegasus-प्रोष्ठपदासु)+++ द॒धि॒-क्राव्णो॑ अकारिषं
जि॒ष्णोर् अश्व॑स्य वा॒जिनः॑ ।
सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्
प्र ण॒ आयूँ॑षि तारिषत् ।
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पदपाठः
द꣣धिक्रा꣡व्णः꣢। द꣣धि। क्रा꣡व्णः꣢꣯। अ꣣कारिषम्। जिष्णोः꣢। अ꣡श्व꣢꣯स्य। वा꣣जि꣡नः꣢। सु꣣रभि꣢। सु꣣। रभि꣢। नः꣣। मु꣡खा꣢꣯। मु। खा꣣। करत्। प्र꣢। नः꣢। आ꣡यूँ꣢꣯षि। ता꣣रिषत्। ३५८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- दधिक्रा
- वामदेवो गौतमः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र का ‘दधिक्रावा’ अग्निदेवता है। इस नाम से परमात्मा, यज्ञाग्नि और राजा की स्तुति की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) विजयशील तथा विजय प्रदान करनेवाले, (अश्वस्य) सब शुभ गुणों में व्याप्त, (वाजिनः) बल और विज्ञान से युक्त (दधिक्राव्णः) धारक पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि लोकों को अपनी-अपनी धुरी पर अथवा किसी पिण्ड के चारों ओर घुमानेवाले, अथवा स्तोत्र-धारकों, धर्म-धारकों वा सद्गुण-धारकों को कर्मयोगी बनानेवाले जगदीश्वर का (अकारिषम्) स्वागत करता हूँ। स्वागतवचन द्वारा सत्कृत वह जगदीश्वर (नः) हमारे (मुखा) मुखों को (सुरभि) सुगन्धित अर्थात् कटु-वचन, पर-निन्दा आदि से रहित मधुर सत्य-भाषण के सौरभ से सम्पन्न (करत्) करे, और (नः) हमारी (आयूंषि) आयुओं को (प्र तारिषत्) बढ़ाये ॥ द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) रोग आदि पर विजय पानेवाले, (अश्वस्य) फैलने के स्वभाववाले, (वाजिनः) हव्यान्नों से युक्त (दधिक्राव्णः) हवियों को धारण कर रूपान्तरित करके देशान्तर में पहुँचा देनेवाले आहवनीय अग्नि का (अकारिषम्) यज्ञ में उपयोग करता हूँ, अर्थात् उसमें हवियों का होम करता हूँ। आहुति दिया हुआ वह यज्ञाग्नि (नः) हमारे (मुखा) मुख को, अर्थात् मुखवर्ती नासिका-प्रदेश को (सुरभि) सुगन्धित (करत्) कर दे, और (नः आयूंषि प्रतारिषत्) हम अग्निहोत्रियों के आयु के वर्षों को बढ़ाये। अभिप्राय यह है कि नियम से अग्निहोत्र करते हुए हम चिरञ्जीवी हों ॥ अग्नि में होमे हुए सुगन्धित हव्य से सुगन्धित हुआ वायु जब श्वास-प्रश्वास-क्रिया द्वारा फेफड़ों के अन्दर जाता है, तब रक्त को शुद्ध कर, उसमें जीवनदायक तत्त्व समाविष्ट करके, उसकी मलिनता को हरकर बाहर निकाल देता है। वेद में कहा भी है—‘हे वायु, तू अपने साथ औषध अन्दर ला, जो मल है उसे बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है, तू विद्वान् वैद्यों का दूत होकर विचरता है (ऋ० १०।१३७।३)’। एक अन्य मन्त्र में वैद्य कह रहा है—‘हे रोगी ! मैं हवि के द्वारा तुझे जीवन देने के लिए अज्ञात रोग से और राजयक्ष्मा से छुडा दूँगा। यदि तुझे गठिया रोग ने जकड़ लिया है, तो उससे भी वायु और अग्नि तुझे छुड़ा देंगे (ऋ० १०।१६१।१)’ ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। मैं (जिष्णोः) विजयशील (अश्वस्य) अश्व के समान राष्ट्र-रूप रथ को वहन करनेवाले, (वाजिनः) अन्नादि ऐश्वर्यों से युक्त, बलवान् और युद्ध करने में समर्थ, (दधिक्राव्णः) बहुत से लोगों तथा पदार्थों के धारक विमानादि यानों को चलवानेवाले राजा के (अकारिषम्) राजनियमों का पालन करता हूँ। (सः) वह राजा, सदाचारमार्ग में प्रवृत्त करके (नः) हम प्रजाजनों के (मुखा) मुखों को (सुरभि) यश के सौरभ से युक्त (करत्) करे, और (नः) हम प्रजाजनों की (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्रतारिषत्) बढ़ाये। भाव यह है कि आयुर्वेद के शिक्षण, चिकित्सा के सुप्रबन्ध, कृषि-व्यापार-पशुपालन के उत्कर्ष, हिंसा-उपद्रव आदि के निवारण, शत्रुओं के उच्छेद, इस प्रकार के सब उपायों द्वारा राष्ट्रवासियों को अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बचाये ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, तृतीय-चतुर्थ पादों में अन्त्यानुप्रास भी है। दधिक्रावा, अश्व और वाजी इन सबके अश्ववाचक होने से पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु यौगिक अर्थ करने से पुनरुक्ति का परिहार हो जाता है, अतः पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा की स्तुति, अग्निहोत्र और राजनियमों के पालन द्वारा हमें यशःसौरभ और दीर्घायुष्य प्राप्त करना चाहिए ॥७॥ महीधर ने इस मन्त्र पर यजुर्वेदभाष्य में कात्यायन श्रौतसूत्र की अश्वमेधविधि का अनुसरण करते हुए यह लिखा है कि घोड़े के पास सोयी हुई यजमान की प्रथम परिणीत पत्नी महिषी को वहाँ से उठाकर अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता, होता और क्षत्ता नामक ऋत्विज् इस मन्त्र को पढ़ें। साथ ही ‘सुरभि नो मुखा करत्’ की व्याख्या में लिखा है कि अश्लील भाषण से दुर्गन्ध को प्राप्त हुए मुखों को यज्ञ सुगन्धित कर दे। यह सब प्रलापमात्र है। कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो पहले तो अश्लील भाषण करके मुखों को दुर्गन्धयुक्त करे और फिर उसकी शुद्धि का उपाय खोजे? ‘कीचड़ लगाकर फिर उसे धोने की अपेक्षा कीचड़ को हाथ न लगाना ही अधिक अच्छा है’ इस नीति का अनुसरण क्यों न किया जाये?
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
दधिक्रावा अग्निर्देवता। तन्नाम्ना परमात्मानं, यज्ञाग्निं, राजानं च स्तौति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (जिष्णोः) जयशीलस्य विजयप्रदानशीलस्य च, (अश्वस्य) सकलशुभगुणव्याप्तस्य, (वाजिनः) बलविज्ञानवतः (दधिक्राव्णः) यो दधीन् धारकान् पृथिवीचन्द्रसूर्यनक्षत्रादिलोकान् स्वधुरि किञ्चित् पिण्डं परितो वा क्रमयति परिक्रमयतीति तस्य। दधातीति दधिः, दधातेः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७।’ इति किः प्रत्ययः लिड्वच्च। दधिपूर्वात् क्रमु पादविक्षेपे धातोः ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यते। अ० ३।२।७५’ इति वनिप् प्रत्ययः। यद्वा दधीन् स्तोत्रधारकान् धर्मधारकान् सद्गुणधारकान् वा क्रमयति कर्मयोगिनः करोतीति तस्य जगदीश्वरस्य (अकारिषम्) स्वागतं करोमि। अत्र करोतेर्लडर्थे लुङ्। स्वागतवचनेन सत्कृतः स दधिक्रावा जगदीश्वरः (नः) अस्माकं (मुखा) मुखानि (सुरभि) सुरभीणि, कटुवचनपरनिन्दादिरहितमधुरसत्यभाषणसौरभसम्पन्नानि। मुखा, सुरभि इत्युभयत्र ‘शेश्छन्दसि बहुलम्।’ अ० ६।१।७० इति शिलोपः। (करत्) कुर्यात्, (नः) अस्माकम् (आयूंषि) वयोवर्षाणि च (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। (प्र पूर्वस्तरतिर्वर्द्धनार्थः। ‘करत्’ इति करोतेः, ‘तारिषत्’ इति च तॄ प्लवनसंतरणयोः इत्येतस्य लेटि तिपि रूपम्, द्वितीये ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।२४’ इति सिबागमः, तस्य च णिद्वत्त्वाद् वृद्धिः। उभयत्र ‘इतश्च लोपः परमैपदेषु। अ० ३।४।९७’ इति तिप इकारलोपः ॥ अथ द्वितीयः—यज्ञाग्निपरः। अहम् (जिष्णोः) रोगादिजयशीलस्य, (अश्वस्य) व्यापनस्वभावस्य, (वाजिनः) हव्यान्नवतः (दधिक्राव्णः२) दधिः हव्यानि धृतवान् सन् तानि भस्मीकृत्य रूपान्तरं नीत्वा क्रमयति वायुमाध्यमेन देशान्तरं प्रापयतीति तस्य आहवनीयस्याग्नेः (अकारिषम्) यज्ञे उपयोगं करोमि, तस्मिन् हव्यानि जुहोमीत्यर्थः। हुतः स यज्ञाग्निः (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखम्, मुखवर्तिनासिकाप्रदेशम्। अत्र ‘सुपां सुलुक्। अ० ७।१।३९’ इति द्वितीयैकवचनस्य आकारादेशः। (सुरभि) सौरभयुक्तम् (करत्) कुर्यात्, (नः आयूंषि प्रतारिषत्) अग्निहोतॄणामस्माकम् आयुर्वर्षाणि च प्रवर्द्धयेत्, नियमेनाग्नौ होमं कुर्वन्तो वयं चिरं जीवेमेत्यर्थः ॥ अग्नौ हुतेन सुगन्धिना हव्येन सुरभिगन्धिर्वायुर्यदा श्वासप्रश्वासक्रियया फुप्फुसाभ्यन्तरं गच्छति तदा रक्तं संशोध्य तत्र जीवनदायकं तत्त्वं समावेश्य तन्मालिन्यमपहृत्य बहिर्निस्सारयति। तेन स्वास्थ्य-लाभो दीर्घमायुश्च जायते। तथा च श्रुतिः—आ वा॑त वाहि भेष॒जं वि वा॑त वाहि॒ यद्रपः॑। त्वं हि वि॒श्वभे॑षजो दे॒वानां॑ दू॒त ईय॑से (ऋ० १०।१३७।३) इति। ‘मु॒ञ्चामि॑ त्वा ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात्। ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यदि॑ वै॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम्’ (ऋ० १०।१६१।१) इति च। अत्र इन्द्राग्नी वाय्वग्नी इति ज्ञेयम् ॥ अथ तृतीयः—राजपरः। अहम् (जिष्णोः) विजयशीलस्य (अश्वस्य) अश्वरूपस्य, अश्ववद् राष्ट्ररथं वहतः इत्यर्थः, (वाजिनः) अन्नाद्यैश्वर्यवतो, बलवतः, संग्रामसमर्थस्य च। वाज इत्यन्ननाम, बलनाम, संग्रामनाम च। निघं० २।७, २।९, २।१७। वाजी वेजनवान् निरु० २।२८। (दधिक्राव्णः३) यो राज्ये दधीनि बहुजनद्रव्यादिधारकाणि विमानादियानानि क्रमयति सञ्चालयति तस्य नृपतेः (अकारिषम्) राज्यनियमानां पालनं करोमि। (सः) असौ नृपतिः सदाचारमार्गे प्रवर्त्य (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखानि (सुरभि) यशःसौरभवन्ति (करत्) कुर्यात्, किञ्च (नः) अस्माकम् प्रजाजनानाम् (आयूंषि) आयुर्वर्षाणि (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। आयुर्वेदशिक्षणेन, चिकित्सासुप्रबन्धेन, कृषिवाणिज्यपशुपालनोत्कर्षेण, हिंसोपद्रवादिनिवारणेन, शत्रुच्छेदेन एवंविधसकलोपायप्रचारणेन राष्ट्रवासिनोऽकालमृत्युग्रासात् संरक्षेदित्यर्थः ॥७॥४ वेदे ‘दधिक्राः’ ‘दधिक्रावा’ चेत्युभयमपि प्रयुक्तम्। उभयोः प्रत्ययस्यैव भेदः, प्रथमं विट्प्रत्ययान्तं, द्वितीयं च वनिप्प्रत्ययान्तम्। ‘दधिक्राः’ इति पदं यास्काचार्य एवं निर्वक्ति—‘दधिक्रा इत्येतद् दधत् क्रामतीति वा, दधत् क्रन्दतीति वा, दधदाकारी भवतीति वा। तस्याश्ववद् देवतावच्च निगमा भवन्ति (निरु० २।२७)’ इति। तदेव निर्वचनं ‘दधिक्रावा’ इति पदस्यापि तन्मते विज्ञेयम् ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः तृतीयचतुर्थपादयोरन्त्यानुप्रासश्च। ‘दधिक्राव्णः, अश्वस्य, वाजिनः’ इति सर्वेषामश्ववाचित्वात् पुनरुक्तत्वप्रतीतेः, यौगिकत्वेन च तत्परिहारात्, पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मस्तवनेनाग्निहोत्रेण राजनियमपालनेन चास्माभिर्यशःसौरभं दीर्घायुष्यं च प्राप्तव्यम् ॥७॥ यजुर्वेदभाष्ये महीधरः कात्यायनश्रौतसूत्रस्याश्वमेधविधिमनुसरन् ‘महिषीं’ यजमानस्य प्रथमपरिणीतां पत्नीमश्वसमीपसुप्तामुत्थाप्य पुरुषा अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारो मन्त्रं पठेयुरित्याह। किञ्च ‘सुरभि नो मुखा करत्’ इति व्याचक्षाणः ‘अश्लीलभाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि मुखानि सुरभीणि यज्ञः करोत्विति’ प्रतिपादयाञ्चक्रे। तत्सर्वं प्रलपितमात्रम्। कः खलु सुधीर्यः पूर्वमश्लीलभाषणं कृत्वा मुखानि दुर्गन्धतां नयेत्, पश्चाच्च शोधनोपायमन्विष्येत्। ‘प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’ इति न्याय एव किमिति नानुस्रियेत ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ४।३९।४, य० २३।३२ ऋषिः प्रजापतिः, अ० २०।१३७।३। २. दधिक्रावा अग्निविशेषः। ….धारयति क्रामयति देशान्तरं प्रापयति इति दधिक्रावा अग्निः। क्रमेर्वनिप्प्रत्यये ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्’ (पा० ६।७।४१) इति अनुनासिकस्याकारादेशः। दधिक्राव्णो देवस्य परिचरणम् अकारिषम्—इति भ०। ३. (दधिक्रावाणम्) धारकाणां यानानां क्रामयितारं गमयितारम् इति ऋ० ७।४४।३ भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
17_0358 दधिक्राव्णो अकारिषम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५८-१। (दधिक्रम्) दधिक्राव्णम्॥ अग्निरनुष्टुबिनन्द्रः॥ दधिक्रा वा।
ओ꣤हाइ। द꣥धिक्रा꣤꣯व्णो꣥꣯अका꣯रिषम्। ओ꣤हाइ॥ ओ꣡हाइ। जिष्णो꣯रश्वस्यवा꣯जिनाऽ२३हो꣡इ। सु꣢रभि꣡नो꣯मु꣢खा꣡꣯काऽ२३रा꣢त्॥ प्र꣡नाऽ२३हो꣡इ। आ꣯यूऽ२३हो꣡॥ षि꣢ता꣡꣯राऽ२३ इषा꣢ऽ३४३त्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु꣣रां꣢ भि꣣न्दु꣡र्युवा꣢꣯ क꣣वि꣡रमि꣢꣯तौजा अजायत। इ꣢न्द्रो꣣ वि꣡श्व꣢स्य꣣ क꣡र्म꣢णो ध꣣र्त्ता꣢ व꣣ज्री꣡ पु꣢रुष्टु꣣तः꣢ ॥ 18:0359 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पु॒रां भि॒न्दुर्+++(=भेत्ता)+++ युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत ।
इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
पु꣣रा꣢म्। भि꣣न्दुः꣢। यु꣡वा꣢꣯। क꣣विः꣢। अ꣡मि꣢꣯तौजाः। अ꣡मि꣢꣯त। ओ꣣जाः। अजायत। इ꣡न्द्रः꣢꣯। वि꣡श्व꣢꣯स्य। क꣡र्म꣢꣯णः। ध꣣र्त्ता꣢। व꣣ज्री꣢। पु꣣रुष्टुतः꣢। पु꣣रु। स्तुतः꣢। ३५९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- जेता माधुच्छन्दसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर, सूर्य, राजा आदि की महिमा वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (पुराम्) मन में दृढ़ हुई तमोगुण की नगरियों का (भिन्दुः) विदारक, (युवा) नित्य युवा रहनेवाला अर्थात् अजर-अमर, (कविः) वेदकाव्य का कवि, अथवा क्रान्तदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित तेजवाला, (वज्री) न्याय-दण्ड को धारण करनेवाला, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुत (इन्द्रः) ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि के भ्रमण, ऋतु-निर्माण, नदी-प्रवाह, वर्षा, पाप-पुण्य का फल प्रदान आदि सब कर्मों का (धर्ता) नियामक (अजायत) बना हुआ है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (पुराम्) शत्रु की नगरियों या किलेबन्दियों का (भिन्दुः) तोड़नेवाला, (युवा) तरुण, (कविः) राजनीतिशास्त्र का पण्डित व दूरदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित पराक्रमवाला, (वज्री) विविध शस्त्रास्त्रों का संग्रहकर्ता और उनके प्रयोग में कुशल, (पुरुष्टुतः) अनेकों प्रजाजनों से प्रशंसित (इन्द्रः) शूरवीर राजा वा सेनापति (विश्वस्य कर्मणः) सब राजकाज वा सेनासंगठन-कार्य का (धर्ता) भार उठानेवाला (अजायत) होता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (पुराम्) अन्धकार, बादल, बर्फ आदि नगरियों का (भिन्दुः) विदारणकर्ता, (युवा) पदार्थों को मिलाने और अलग करनेवाला, (कविः) अपनी धुरी पर घूमनेवाला, अथवा पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को अपने चारों ओर घुमानेवाला, (अमितौजाः) अपरिमित बल और प्रकाश वाला, (वज्री) किरणरूप वज्रवाला, (पुरुष्टुतः) बहुत-से खगोलज्योतिष को जाननेवाले विद्वान् वैज्ञानिकों द्वारा वर्णन किया गया (इन्द्रः) सूर्य (विश्वस्य कर्मणः) सौरमण्डल में दिखायी देनेवाले सब प्राकृतिक कर्मों का (धर्ता) धारक (अजायत) बना हुआ है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे राष्ट्र का राजा सब राज्यकार्य का और सेनापति सेना के संगठनकार्य का नेता होता है, अथवा जैसे सूर्य सौरमण्डल का धारणकर्ता है, वैसे ही विविध लोक-लोकान्तरों के समष्टिरूप इस महान् ब्रह्माण्ड में विद्यमान सम्पूर्ण व्यवस्था का करनेवाला राजाधिराज परमेश्वर है, यह सबको जानना चाहिए ॥८॥ इस दशति में इन्द्र की महिमा का वर्णन होने, उसके प्रति आत्मसमर्पण आदि की प्रेरणा होने तथा इन्द्र नाम से राजा, सेनापति, आचार्य आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरनृपसूर्यादीनां महिमानं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (पुराम्) मनसि दृढं बद्धानाम् तमःपुरीणाम् (भिन्दुः) भेत्ता। भिदिर् विदारणे धातोः ‘पॄभिदिव्यधिगृधिधृषिहृषिभ्यः। उ० १।२३’ इति कुः, बाहुलकान्नुमागमः। (युवा) नित्यतरुणः, अजरामरः, (कविः) वेदरूपस्य काव्यस्य कर्ता, क्रान्तदर्शी वा, (अमितौजाः) अपरिमिततेजाः, (वज्री) न्यायदण्डधरः, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुतः (इन्द्रः) ब्रह्माण्डस्य सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्यचन्द्रपृथिव्यादिभ्रमण-ऋतुनिर्माण-सरित्प्रवाह-वृष्टि-पापपुण्यफलप्रदानादिकस्य सकलस्यापि व्यापारस्य (धर्ता) धारकः, नियामकः (अजायत) जातोऽस्ति॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (पुराम्) शत्रुनगरीणाम् शत्रुदुर्गाणां वा (भिन्दुः) भेत्ता, (युवा) यौवनसम्पन्नः, (कविः) राजनीतिशास्त्रस्य पण्डितः, क्रान्तद्रष्टा वा। कविः इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। निरु० १२।१३। (अमितौजाः) अपरिमेयपराक्रमः, (वज्री) विविधानां शस्त्रास्त्राणां संग्रहीता तच्चालनकुशलश्च, (पुरुष्टुतः) बहुभिः प्रजाजनैः कीर्तितः (इन्द्रः) शूरवीरो राजा सेनापतिर्वा (विश्वस्य कर्मणः) सकलस्य राजकार्यस्य सैन्यसंघटनकार्यस्य वा (धर्ता) धारकः (अजायत) जायते॥ अथ तृतीयः—सूर्यपरः। (पुराम्) अन्धकार-मेघ-हिमादिपुरीणाम् (भिन्दुः) भेदकः, (युवा) पदार्थानां मिश्रणामिश्रणकर्ता। यु मिश्रणामिश्रणयोरिति धातोः ‘कनिन् यु-वृषि-तक्षि-राजि-धन्वि-द्यु-प्रतिदिवः। उ० १।१५६’ इति सूत्रेण कनिन् प्रत्ययः। (कविः) यः कवते गच्छति परिक्रामति स्वधुरि, यद्वा कवयति गमयति परिक्रमयति स्वं परितः पृथिवीमङ्गलबुधचन्द्रादिग्रहोपग्रहान् सः। असौ वादित्यः कविः। श० ६।७।२।४। (अमितौजाः) अपरिमितबलः अपरिमितप्रकाशो वा, (वज्री) किरणरूपवज्रवान्, (पुरुष्टुतः) बहुभिः खगोलज्योतिर्विद्भिर्वैज्ञानिकैर्वर्णितः (इन्द्रः) सूर्यः। अथ यः स इद्रोऽसौ स आदित्यः। श० ८।५।३।२। इति प्रामाण्यात्। (विश्वस्य कर्मणः) सौरलोके दृश्यमानस्य सर्वस्य प्राकृतिकस्य व्यापारस्य (धर्ता) धारकः (अजायत) सञ्जातोऽस्ति ॥८॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा राष्ट्रस्य सम्राट् सर्वस्य राज्यकार्यस्य सेनापतिर्वा सैन्यसंघटनकार्यस्य नेता भवति, यथा वा सूर्यः सौरमण्डलस्य धर्ता विद्यते, तथैव विविधलोकलोकान्तरसमष्टिरूपे महति ब्रह्माण्डे विद्यमानायाः सम्पूर्णव्यवस्थायाः कर्ता राजाधिराजः परमेश्वरोऽस्तीति सर्वैर्मन्तव्यम् ॥८॥ अत्रेन्द्रस्य महिमवर्णनात्, तं प्रत्यात्मसमर्पणादिप्रेरणाद्, इन्द्रनाम्ना नृपतिसेनापत्याचार्यादीनां चापि कर्तव्यवर्णनाद् एतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे द्वितीया दशतिः॥ इति चतुर्थेऽध्याये प्रथमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।११।४, साम० १२५०। २. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये सेनापतिविषये सूर्यविषये च व्याख्यातः।
18_0359 पुरां भिन्दुर्युवा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३५९-१। मारुतम्॥ मरुतोऽनुष्टुबिन्द्रः॥पु꣥रां꣯भि꣣न्दु꣢र्यु꣣वा꣤꣯क꣥वीः॥ अ꣡मितौ꣯जा꣯अ꣢जा꣡꣯याऽ२३ता꣢। आ꣡इन्द्रो꣯विश्वा꣢ऽ३। स्या꣡क꣢र्मा꣣ऽ२३४णाः꣥॥ ध꣡र्त्ता। वाज्रौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ पु꣤रूऽ५ष्टुताः। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
[[अथ द्वितीय खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣡प्र꣢ वस्त्रि꣣ष्टु꣢भ꣣मि꣡षं꣢ व꣣न्द꣡द्वी꣢रा꣣ये꣡न्द꣢वे। धि꣣या꣡ वो꣢ मे꣣ध꣡सा꣢तये꣣ पु꣢र꣣न्ध्या꣡ वि꣢वासति ॥ 19:0360 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रप्र॑ वस्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॑ म॒न्दद्वी॑रा॒येन्द॑वे ।
धि॒या वो॑ मे॒धसा॑तये॒ पुरं॒ध्या वि॑वासति ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣡प्र꣢꣯। प्र। प्र꣣। वः। त्रिष्टु꣢भ꣢म्। त्रि꣣। स्तु꣡भ꣢꣯म्। इ꣡ष꣢꣯म्। व꣣न्दद्वी꣡रा꣣य। व꣣न्द꣢त्। वी꣣राय। इ꣡न्द꣢꣯वे। धि꣣या꣢। वः꣣। मेध꣡सा꣢तये। मे꣣ध꣢। सा꣣तये। पु꣡र꣢꣯न्ध्या। पु꣡र꣢꣯म्। ध्या꣣। आ꣢। वि꣣वासति। । ३६०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रियमेध आङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह विषय है कि स्तुति किया हुआ परमेश्वर क्या करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे साथियो ! (वः) तुम लोग (वन्दद्वीराय) वीरजनों से वन्दित (इन्दवे) तेजस्वी, स्नेह की वर्षा करनेवाले और चन्द्रमा के समान आह्लादकारी इन्द्र परमात्मा के लिए (त्रिष्टुभम्) आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों सुखों को स्थिर करानेवाली अथवा ज्ञान, कर्म और उपासना इन तीन से स्थिर होनेवाली (इषम्) प्रीति और श्रद्धा को (प्र प्र) प्रकृष्टरूप से समर्पित करो, समर्पित करो। प्रीति और श्रद्धा से पूजित वह (मेधसातये) योगयज्ञ की पूर्णता के लिए (पुरन्ध्या) पूर्णता प्रदान करनेवाली (धिया) ऋतम्भरा प्रज्ञा से (आ विवासति) सत्कृत अर्थात् संयुक्त करता है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - वीरजन भी अपनी विजय का कारण परमात्मा को ही मानते हुए जिस परमात्मा की बार-बार वन्दना करते हैं, उसकी सभी लोग प्रीति और श्रद्धा के साथ वन्दना क्यों न करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ स्तुतः परमेश्वरः किं करोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः ! (वः) यूयम् (वन्दद्वीराय२) वन्दन्ते वीराः वीरजनाः यं स वन्दद्वीरः तस्मै, वीरजनस्तुतायेत्यर्थः (इन्दवे) दीप्ताय, स्नेहवर्षकाय, चन्द्रवदाह्लादकाय वा इन्द्राय परमात्मने। ‘इन्दुः इन्धेः उनत्तेर्वा’ निरु० १०।४१। (त्रिष्टुभम्३) त्रीणि आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि (सुखानि) स्तोभते स्तभ्नाति या ताम्, यद्वा त्रिभिः ज्ञानकर्मोपासनैः स्तोभ्यते या ताम्। त्रि पूर्वात् स्तभु स्तम्भे धातोः क्विपि रूपम्। (इषम्) प्रीतिं श्रद्धां च (प्र प्र४) प्रार्पयत, प्रार्पयत। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। प्रीत्या श्रद्धया च पूजितः सः (मेधसातये) योगयज्ञस्य पूर्णतायै। मेध इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७। सातिरिति सम्भजनार्थात् षण धातोः क्तिन्नन्तो निपातः। (पुरन्ध्या) पुरं पूर्तिं दधातीति पुरंधिः तया। पॄ पालनपूरणयोः धातोः क्विपि ‘पुर्’ इति जायते, तदुपपदाद् दधातेः किः प्रत्ययः। (धिया) ऋतम्भरया प्रज्ञया (आ विवासति) परिचरति, संयोजयतीत्यर्थः। विवासतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - वीरा अपि स्वविजयस्य कारणं परमात्मानमेव मन्यमाना यं मुहुर्मुहुर्वन्दन्ते स सर्वैरेव प्रीत्या श्रद्धया च कुतो न वन्दनीयः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६९।१ ‘वन्दद्’ इत्यत्र ‘मन्दद्’ इति पाठः। २. वन्दद्वीराय अधिकविक्रान्ताय इत्यर्थः—इति वि०। भरतस्तु मन्दद्वीराय इति पाठं मत्वा व्याख्याति। मादयति वीरान् स्तोतॄनिति मन्दद्वीरः—इति भ०। यो वीरान् स्तौति स वन्दद्वीरः तस्मै—इति सा०। ३. (त्रिष्टुभ्) याऽऽध्यात्मिकाऽऽधिभौतिकाऽऽधिदैविकानि त्रीणि सुखानि स्तोभते स्तभ्नाति सा—इति य० २३।३३ भाष्ये द०। त्रिभिः स्तुतम्, अथवा त्रिष्टुप्छन्दोयुक्तम्, स्तुतिसंयुक्तमित्यर्थः—इति वि०। त्रिस्तोत्रम् इषम् अन्नम्, सोममित्यर्थः। त्रिष्वपि अभिषवेषु पवमानस्य स्तुतिः क्रियते। स्तोभतेः स्तुतिकर्मणः स्तुप्—इति भ०। स्तोभत्रयोपेतम्—इति सा०। ४. ‘प्रसमुपोदः पादपूरणे। अ० ८।१।६’ इति पादपूरणे प्रोपसर्गस्य द्वित्वं विहितम्। वस्तुतस्तु उपसर्गपुनरुक्त्या पुनरुक्ता क्रिया भूयांसमर्थं द्योतयतीति न पादपूरणमात्रं प्रयोजनम्।
19_0360 प्रप्र वस्त्रिष्टुभमिषम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६०-१। वामदेव्यम्॥ वामदेवोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
प्र꣥प्रवस्त्रिष्टुभमिषमो꣯हा꣯ओ꣯हाऽ६ए꣥॥ व꣢न्द꣡द्वीरा꣢। यआ꣡इन्द꣪वेऽ᳒२᳒। ओ꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢। धि꣡या꣯वो꣯मे꣯धसा꣢ऽ१ता꣢ऽ३या꣢इ। ओ꣭ऽ३हा꣢। ओ꣭ऽ३हा꣢ऽ३ए꣢॥ पु꣡रांधी꣢ऽ३या꣢ऽ३। वि꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥। सा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क꣣श्य꣡प꣢स्य स्व꣣र्वि꣢दो꣣ या꣢वा꣣हुः꣢ स꣣यु꣢जा꣣वि꣡ति꣢। य꣢यो꣣र्वि꣢श्व꣣म꣡पि꣢ व्र꣣तं꣢ य꣣ज्ञं꣡ धीरा꣢꣯ नि꣣चा꣡य्य꣢ ॥ 20:0361 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
क꣣श्य꣡प꣢स्य। स्व꣣र्वि꣡दः꣢। स्वः꣣। वि꣡दः꣢꣯। यौ꣢। आ꣣हुः꣢। स꣣यु꣡जौ꣢। स꣣। यु꣡जौ꣢꣯। इ꣡ति꣢꣯। य꣡योः꣢꣯। वि꣡श्व꣢꣯म्। अ꣡पि꣢꣯। व्र꣣त꣢म्। य꣣ज्ञ꣢म्। धी꣡राः꣢꣯। नि꣣चा꣡य्य꣢। नि꣣। चा꣡य्य꣢꣯। ३६१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र के सहयोगियों के विषय में कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—ब्रह्माण्ड के पक्ष में। विद्वान् लोग (यौ) जिन अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को (स्वर्विदः) प्रकाश वा आनन्द को प्राप्त करानेवाले (कश्यपस्य) सर्वद्रष्टा इन्द्र जगदीश्वर के (सयुजौ इति) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिनके (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम् आहुः) यज्ञरूप कहते हैं (तौ) उन अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को (निचाय्य) जानकर, हे मनुष्यो ! तुम (धीराः) पण्डित बनो ॥ इस मन्त्र का देवता इन्द्र होने से ‘कश्यप’ यहाँ इन्द्र का नाम है। वेद में उस इन्द्र के प्रधान सहचारी अग्नि और सोम हैं, क्योंकि अग्नि और सोम के साथ बहुत-से स्थलों में उसका वर्णन मिलता है ॥ जैसे ‘इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्। ऋ० १।२१।६’, ‘इन्द्रा॑ग्नी वृत्रहणा जु॒षेथा॑म् ऋ० ७।९३।१’ में अग्नि इन्द्र का सहचारी है और ‘इन्द्रा॑सोमा यु॒वम॒स्माँ अ॑विष्टम् ऋ० २।३०।६’, ‘इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जत॒म् अथ० ८।४।१’ में सोम इन्द्र कासहचारी है। एक मन्त्र में इन्द्र, अग्नि और सोम तीनों एक साथ मिलते हैं—‘ य॒शा इन्द्रो य॒शा अ॒ग्निर्य॒शाः सोमो॑ अजायत अथ० ६।५८।३। निरुक्त में भी इन्द्र के सहचारी देवों में सर्वप्रथम अग्नि और सोम ही परिगणित हैं (निरु० ७।१०)। यह जगत् अग्नि और सोम से (आग्नेय तत्त्व और सौम्य तत्त्व) से ही बना है। वे ही प्रश्नोपनिषद् में रयि और प्राण नाम से वर्णित किये गये हैं। वहाँ कहा गया है कि कबन्धी कात्यायन ने भगवान् पिप्पलाद के पास जाकर प्रश्न किया कि भगवन्, ये प्रजाएँ कहाँ से उत्पन्न हो गई हैं? उसे उन्होंने उत्तर दिया कि प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की कामना से तप किया और तप करके रयि और प्राण के जोड़े को पैदा किया, इस विचार से कि ये दोनों मिलकर बहुत-सी प्रजाओं को उत्पन्न कर देंगे। वहीं पर प्राण और रयि को सूर्य-चन्द्र, उत्तरायण-दक्षिणायन, शुक्ल-कृष्ण पक्ष तथा अहोरात्र के रूप में वर्णित किया है। शतपथब्राह्मण में भी कहा है कि सूर्य आग्नेय है, चन्द्रमा सौम्य है, दिन आग्नेय है, रात्रि सौम्य है; शुक्लपक्ष आग्नेय है, कृष्णपक्ष सौम्य है (श० १।६।३।२४)। ये ही अग्नि-सोम इन्द्र के सहचररूप में प्रस्तुत मन्त्र में अभिप्रेत हैं, ऐसा समझना चाहिए। इन्द्र परमेश्वर इन्हीं के माध्यम से जगत् को उत्पन्न करता है और उसका सञ्चालन करता है। इनका सब कर्म यज्ञरूप है, यह भी मन्त्र में कहा गया है। अन्यत्र भी वेद अग्नि और सोम की महिमा वर्णित करते हुए कहता है—हे शुभकर्मोंवाले अग्नि और सोम, तुम दोनों ने आकाश में चमकीले पिण्डों को धारण किया है, तुम ही पर्वतों पर बर्फ जम जाने से रुकी हुई नदियों को बहाते हो। हे अग्नि और सोम, तुम दोनों ब्रह्म से वृद्धि पाकर यज्ञ के लिए विशाल लोक को उत्पन्न करते हो। (ऋ० १।९३।५,६)। जो लोग इन्द्र के सहचारी इन अग्नि और सोम का यह वेदप्रतिपादित महत्त्व जान लेते हैं, वे ही पण्डित हैं ॥ द्वितीय—शरीर के पक्ष में। विद्वान् लोग (यौ) जिन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपानरूप अग्नि-सोम को (स्वर्विदः) विवेक-प्रकाश तथा आनन्द प्राप्त करनेवाले (कश्यपस्य) ज्ञान के द्रष्टा जीवात्मारूप इन्द्र के (सयुजौ) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपान के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम्) ज्ञान-यज्ञ अथवा शरीरसञ्चालन-यज्ञ कहते हैं, [तौ] उन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपान को (निचाय्य) भली-भाँति जानकर, प्रयुक्त करके और सबल बनाकर, हे मनुष्यो, तुम (धीराः) ज्ञानबोध से युक्त अथवा शरीर-धारण में समर्थ होवो। अभिप्राय यह है कि बुद्धि और मन का सम्यक् उपयोग करके ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से ज्ञान एकत्र करने में समर्थ होवो और प्राणायाम से प्राणापानों को वश करके शरीर-धारण में समर्थ होवो ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। राजनीतिज्ञ लोग (यौ) जिन सेनाध्यक्ष और राज्यमन्त्री रूप अग्नि और सोम को (स्वर्विदः) प्रजाओं को सुख पहुँचानेवाले, (कश्यपस्य) राजपुरुषों के कार्य और प्रजा के सुख-दुःख के द्रष्टा राजा के (सयुजौ) सहायक (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन सेनाध्यक्ष तथा राजमन्त्री के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) राज्यसञ्चालनरूप तथा शत्रुनिवारणरूप कर्म को (यज्ञम्) राष्ट्रयज्ञ का पूर्तिरूप (आहुः) कहते हैं, उनका (निचाय्य) सत्कार करके, हे प्रजाजनो, तुम (धीराः) धृत राष्ट्रवाले होवो ॥ चतुर्थ—आदित्य और अहोरात्र के पक्ष में।विद्वान् लोग (यौ) जिन दिन-रात्रिरूप अग्नि और सोम को (स्वर्विदः) प्रकाश प्राप्त करानेवाले (कश्यपस्य) पदार्थों का दर्शन करानेवाले अथवा गतिमय पृथिव्यादि लोकों के रक्षक आदित्य के (सयुजौ) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन दिन-रात्रि के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम्) यज्ञात्मक अर्थात् परोपकारात्मक (आहुः) बताते हैं [तौ] उन दिन-रात्रि को (निचाय्य) जानकर, हे मनुष्यो ! तुम भी (धीराः) परोपकार-बुद्धि से युक्त होवो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर के सहचर अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को, जीवात्मा के सहचर मन और बुद्धि अथवा प्राण और अपान को, राजा के सहचर सेनाधीश और अमात्य को तथा सूर्य के सहचर दिन और रात्रि को भली-भाँति जानकर उनसे यथोचित लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य सहयोगिनोर्विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—ब्रह्माण्डपरः। विद्वांसः (यौ) अग्नीषोमौ, अग्नितत्त्वं सोमतत्त्वं च (स्वर्विदः) यः स्वः प्रकाशम् आनन्दं वा वेदयते लम्भयति स स्वर्वित् तस्य (कश्यपस्य) पश्यकस्य सर्वद्रष्टुः इन्द्रस्य परमैश्वर्यशालिनो जगदीश्वरस्य। ‘कश्यपः पश्यको भवति, यत्सर्वं परिपश्यति’ तै० आ० १।८।८। अत्र आद्यन्तविपर्ययः। (सयुजौ) सहयोगिनौ (आहुः) कथयन्ति, (ययोः) ययोश्च अग्नीषोमयोः (विश्वम् अपि) सर्वमपि (व्रतम्) कर्म (यज्ञम्) यज्ञत्वेन आहुः वर्णयन्ति, तौ अग्नीषोमौ, अग्नितत्त्वं सोमतत्त्वं च (निचाय्य) सम्यग् विज्ञाय। चायृ पूजानिशामनयोः, भ्वादिः। हे जनाः यूयम् (धीराः) धीमन्तः पण्डिताः भवतेति शेषः ॥ यत्तदोर्नित्यसम्बन्धाद् अस्मिन् मन्त्रे ‘यौ’ इत्यनेन सह वाक्यपूर्त्त्यै ‘तौ’ इत्यध्याह्रियते ॥ इन्द्रदेवताकत्वादृचः कश्यप इति इन्द्रनाम। वेदे तस्येन्द्रस्य प्रधानसहचरौ अग्नीषोमौ, अग्निना सोमेन च सह बहुत्र तद्वर्णनात्। यथा, इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्। (ऋ० १।२१।६), इन्द्रा॑ग्नी वृत्रहणा जु॒षेथा॑म् (ऋ० ७।९३।१), इत्यग्निना सह। इन्द्रा॑सोमा यु॒वम॒स्माँ अ॑विष्टम् (ऋ० २।३०।६), इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जत॒म् (अथ० ८।४।१) इति च सोमेन सह। एकस्मिन् मन्त्रे इन्द्राग्निसोमास्त्रयोऽपि सहचरिता उपलभ्यन्ते “य॒शा इन्द्रो य॒शा अ॒ग्निर्य॒शाः सोमो॑ अजायत (अथ० ६।५८।२)” इति। निरुक्तेऽपि इन्द्रस्य संस्तविकेषु देवेषु सर्वतः पूर्वम् अग्नीषोमावेव वर्णितौ—“अथास्य संस्तविका देवाः, अग्निः, सोमः, वरुणः, पूषा, बृहस्पतिः, ब्रह्मणस्पतिः, पर्वतः, कुत्सः, विष्णुः, वायुः” इति (निरु० ७।१०) ॥ अग्नीषोमात्मकमिदं जगत्। अग्नीषोमौ प्रश्नोपनिषदि रयि-प्राणरूपेण वर्णितौ। “अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य (भगवन्तं पिप्पलादम्) पप्रच्छ—भगवन् ! कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति। तस्मै स होवाच—प्रजाकामो वै प्रजापतिः, स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणं चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति। (प्रश्न० १।३, ४)। तत्रैव प्राणो रयिश्च आदित्य-चन्द्रात्मना, उत्तरायणदक्षिणायनात्मना, शुक्ल-कृष्णपक्षात्मना, अहोरात्रात्मना चापि वर्णितौ (प्रश्न० १।५-१३)। शतपथेऽप्युक्तम्—सूर्य एवाग्नेयः, चन्द्रमाः सौम्यः। अहरेवाग्नेयं रात्रिः सौम्या, य एवापूर्यतेऽर्धमासः स आग्नेयो, योऽपक्षीयते स सौम्यः। (श० १।६।३।२४) इति। एतावेव अग्नीषोमौ इन्द्रस्य सहचरत्वेनास्मिन् मन्त्रेऽभिप्रेतावित्युन्नेयम्। इन्द्रः परमेश्वरः एतयोर्माध्यमेन जगदुत्पादयति सञ्चालयति च। किञ्च एतयोर्विश्वमपि कर्म यज्ञरूपम् इत्यपि मन्त्रे प्रोक्तम्। अन्यत्रापि वेद एतयोर्महिमानं वर्णयन्नाह—“यु॒वमे॒तानि॑ दि॒वि रो॑च॒नान्य॒ग्निश्च॑ सोम॒ सुक्र॑तू अधत्तम्। यु॒वं सिन्धूँ॑र॒भिश॑स्तेरव॒द्यादग्नी॑षोमा॒वमु॑ञ्चतं गृभी॒तान् ॥ अग्नी॑षोमा॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नोरुं य॒ज्ञाय॑ चक्रथुरु लो॒कम्।” ऋ० १।९३।५, ६ ॥ ये तावद् इन्द्रसहयुजोः अग्नीषोमयोर्वेदप्रतिपादितमेतन्महत्त्वं विदन्ति त एव पण्डिता इति मन्तव्यम् ॥ अथ द्वितीयः—शरीरपरः। विद्वांसः (यौ) अग्नीषोमौ बुद्धिमनसी, प्राणापानौ वा। प्राणापानौ अग्नीषोमौ। ऐ० ब्रा० १।८। (स्वर्विदः) यः स्वः विवेकप्रकाशम् आनन्दं वा विन्दते तस्य (कश्यपश्य) द्रष्टुः, ज्ञानस्य ग्रहीतुः इन्द्रस्य जीवात्मनः (सयुजौ)) सहयोगिनौ (आहुः) कथयन्ति, (ययोः) ययोश्च बुद्धिमनसोः प्राणापानयोर्वा (विश्वम् अपि) सर्वमपि (व्रतम्) कर्म (यज्ञम्) ज्ञानयज्ञं देहसञ्चालनयज्ञं वा आहुः कथयन्ति, ते बुद्धिमनसी, तौ प्राणापानौ वा (निचाय्य) सम्यग् बुद्ध्वा, प्रयुज्य सबलीकृत्य च हे जनाः ! यूयम् (धीराः) धीः ज्ञानबोधो येषामस्ति ते धीराः, यद्वा दधति शरीरं ये ते धीराः, तादृशा भवतेति शेषः। धी शब्दान्मतुबर्थे रन् प्रत्ययः, यद्वा धा धातोः ‘सु-सू-धाञ्-गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२५’ इति क्रन् प्रत्ययः। बुद्धिमनसोः सम्यगुपयोगं विधाय ज्ञानेन्द्रियाणां साहाय्येन ज्ञानं सञ्चेतुं क्षमाः, प्राणायामेन च प्राणापानौ वशीकृत्य देहधारणक्षमाः भवतेति भावः ॥ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। राजनीतिज्ञाः विद्वांसः (यौ) अग्नीषोमौ अमात्यसेनाधीशौ। अग्निः सेनाधीशः सोमोऽमात्य इति विज्ञेयम्। (स्वर्विदः) स्वः सुखं प्रजाभ्यो वेदयते लम्भयति यः तस्य (कश्यपश्य) राजपुरुषाणां कार्यस्य, प्रजायाः सुखदुःखादिकस्य च द्रष्टुः इन्द्रस्य राज्ञः (सयुजौ) सहायकौ (आहुः) कथयन्ति, (ययोः) ययोश्च अमात्यसेनाधीशयोः (विश्वम् अपि) सर्वमपि (व्रतम्) राज्यसञ्चालनशत्रुनिवारणादिरूपं कर्म (यज्ञम्) राष्ट्रयज्ञपूर्तिरूपम् आहुः कथयन्ति, तौ (निचाय्य) सम्यक् सत्कृत्य, हे प्रजाजनाः यूयम् (धीराः) धृतराष्ट्राः भवत ॥ अग्नीषोमयोः राज्याधिकारिणोः राजानम् इन्द्रं प्रति सहयोगम् अथर्ववेदः इत्थं वर्णयति—“इ॒दं तद् यु॒ज उत्त॑र॒मिन्द्रं॑ शुम्भा॒म्यष्ट॑ये ॥ अ॒स्मै क्ष॒त्रम॑ग्नीषोमाव॒स्मै धा॑रयतं र॒यिम्। इ॒मं रा॒ष्ट्रस्या॑भीव॒र्गे कृ॑णु॒तं युज उत्त॑रम्। (अथ० ६।५४।१, २)” इति ॥ अथ चतुर्थः—आदित्याहोरात्रपरः। विद्वांसः (यौ) अग्नीषोमौ अहोरात्रौ। अहोरात्रे वा अग्नीषोमौ। कौ० ब्रा० १०।३। (स्वर्विदः) प्रकाशलम्भकस्य (कश्यपस्य) पश्यकस्य पदार्थानां दर्शयितुः यद्वा कशे गतौ साधुः कश्यः गतिमयः पृथिव्यादिलोकः तं पाति रक्षतीति कश्यपः आदित्यात्मा इन्द्रः तस्य। कश गतिशासनयोः भ्वादिः। (सयुजौ) सहयुजौ (आहुः) कथयन्ति। अहोरात्रयोः आदित्याश्रितत्वात्। (ययोः) ययोश्च अहोरात्रयोः (विश्वम् अपि) सर्वम् एव (व्रतम्) कर्म (यज्ञम्) यज्ञात्मकम्, परोपकारात्मकम् आहुः कथयन्ति द्रष्टारो जनाः, तौ अहोरात्रौ (निचाय्य) सम्यक् विज्ञाय, हे जनाः ! यूयम् (धीराः) अहोरात्रवत् परोपकारधीसम्पन्नाः भवत ॥२॥१ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्य सहचरे अग्निसोमतत्त्वे, जीवात्मनः सहचरे बुद्धिमनसी प्राणापानौ वा, नृपस्य सहचरौ अमात्यसेनाधीशौ, आदित्यस्य सहचरौ अहोरात्रौ च सम्यग् विज्ञाय ताभ्यां यथायोग्यं लाभाः सर्वैः प्राप्तव्याः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. भरतस्वामिव्याख्याने तु कश्यपः प्रजापतिरादित्यो वा। तस्य सयुजौ मित्रावरुणौ, ‘अहर्वै मित्रो रात्रिर्वरुणः’ इति, सर्वस्य कालस्य तयोरेवान्तर्भावात्। इन्द्राग्नी वा, तयोरेव सर्वनिर्वाहकत्वात्। अश्विनौ वातयोरादित्यपुत्रत्वप्रसिद्धेः। सायणेन कश्यपः सर्वज्ञः इन्द्रः, तत्सयुजौ च तस्य अश्वौ इति पूर्वं व्याख्याय, तदनु भरतस्वामिनमनुसृत्य कश्यपः प्रजापतिः, तस्य सयुजौ च मित्रावरुणौ इन्द्राग्नी वेत्युक्तम्। वस्तुतस्तु इन्द्र एवास्या ऋचो देवतेत्यस्माभिस्तदनुकूलमेव व्याख्यातम्। इन्द्रस्य बहुषु वाच्यार्थेषु आदित्योऽपि भवतीति आदित्यपरमपि व्याख्यातुमलम्।
20_0361 कश्यपस्य स्वर्विदो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६१-१। काश्यपम्॥ कश्यपोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
क꣥श्यपस्यसुवर्विदाऽ६ए꣥॥ या꣡वा꣯हु꣢स्स। युजा꣡वा꣢ऽ१इतीऽ२३४। य꣣यो꣤꣯र्वि꣣श्व꣤मपि꣥। व्र꣣ता꣢ऽ३म्॥ य꣡ज्ञान्धी꣢ऽ३राः꣢॥ निचा꣡ऽ२३। आ꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡र्च꣢त꣣ प्रा꣡र्च꣢ता नरः꣣ प्रि꣡य꣢मेधासो꣣ अ꣡र्च꣢त। अ꣡र्च꣢न्तु पुत्र꣣का꣢ उ꣣त꣢꣫ पुर꣣मि꣢द् धृ꣣꣬ष्ण्व꣢꣯र्चत ॥ 21:0362 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अर्च॑त॒ प्रार्च॑त +++(नराः)+++
प्रिय॑मेधासो॒ +++(=प्रियमेध-सम्बद्धाः)+++ अर्च॑त ।
अर्च॑न्तु पुत्र॒का उ॒त
पुरं न धृ॒ष्णु +++(=धर्षणशीलः)+++ +अ॑र्चत ।।
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡र्च꣢꣯त। प्र। अ꣣र्चत। नरः। प्रि꣡य꣢꣯मेधासः। प्रि꣡य꣢꣯। मे꣣धासः। अ꣡र्च꣢꣯त। अ꣡र्च꣢꣯न्तु। पु꣣त्रकाः꣢। पु꣣त्। त्रकाः꣢। उ꣣त꣢। पु꣡र꣢꣯म्। इत्। धृ꣣ष्णु꣢। अ꣣र्चत। ३६२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रियमेध आङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्यों को इन्द्र की अर्चनार्थ प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (नरः) नेतृत्वशक्ति से युक्त स्त्री-पुरुषो ! तुम (अर्चत) पूजा करो। हे (प्रियमेधासः) बुद्धिप्रेमी जनो ! (अर्चत) पूजा करो। (पुत्रकाः उत) तुम्हारे पुत्र-पुत्री भी (अर्चन्तु) पूजा करें। (पुरम् इत्) पूर्ति ही करनेवाले, (धृष्णु) अन्तःशत्रुओं तथा विघ्नों के धर्षणकर्ता इन्द्र जगदीश्वर की (अर्चत) पूजा करो ॥३॥ इस मन्त्र में ‘अर्चत’ की पुनरुक्ति अधिकता, निरन्तरता तथा अवश्यकर्तव्यता को द्योतित करने के लिए है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब स्त्रीपुरुषों को चाहिए कि अपने पुत्र-पुत्री आदि परिवार सहित प्रातः-सायं नियम से परमेश्वर की पूजा किया करें। पूजा किया हुआ परमेश्वर पूजकों के मार्ग में आये शत्रुओं तथा विघ्नों को हटाकर उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भरपूर करता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मानवाः इन्द्रस्यार्चनार्थं प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (नरः) नेतृत्वशक्तियुक्ताः स्त्रीपुरुषाः ! यूयम् (अर्चत) सपर्यत, (प्र अर्चत) प्रकर्षेण सपर्यत, हे (प्रियमेधासः) प्रियमनीषाः जनाः ! प्रियमेधः प्रिया अस्य मेधा। निरु० ३।१७। (अर्चत) सपर्यत। (पुत्रकाः उत) युष्माकं पुत्रपुत्र्योऽपि। पुत्रकाश्च पुत्रिकाश्चेत्येकशेषे पुत्रकाः इति। (अर्चन्तु) सपर्यन्तु। (पुरम्२ इत्) पूरकम् एव, न तु रेचकम्। पृणातीति पूः तम्, पॄ पालनपूरणयोरिति धातोः क्विपि रूपम्। (धृष्णु) अन्तःशत्रूणां विघ्नानां वा धर्षणशीलम् इन्द्रं जगदीश्वरम्। धृष्णुम् इति प्राप्ते, ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति विभक्तेर्लुक्। (अर्चत) सपर्यत। अत्र ‘अर्चत’ इति पुनरुक्तिरतिशयस्य, सातत्यस्य, अवश्यकर्तव्यत्वस्य च द्योतनार्था ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैः स्त्रीपुरुषैः पुत्रपुत्र्यादिपरिजनसहितैः प्रातःसायं नियमेन परमेश्वरोऽर्चनीयः। अर्चितः सोऽर्चकानां मार्गे समागतान् शत्रून् विघ्नांश्च निराकृत्य तान् धर्मार्थकाममोक्षैः पूरयति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६९।८, अथ० २०।९२।५ उभयत्र ‘नरः’ इति नास्ति, ‘पुरमित्’ इत्यत्र च ‘पुरं न’ इति पाठः। २. पुरमित् पुरमेव, स्तोतॄणामभिमतस्य पूरकम्—इति सा०। पुरम् इत् धृष्णु, इच्छब्द इवशब्दस्यार्थे, पुरमिव धृष्णु। यथा कश्चित् पुमान् धृष्णुं दृढम् अभिभवनं परकीयानां सेनानाम् अर्चति तद्वदर्चत इत्यर्थः—इति वि०। पुरमित् पुरमिव धृष्णु धर्षकं शत्रूणाम् इन्द्रम् अर्चत—इति भ०।
21_0362 अर्चत प्रार्चता - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६२-१। प्रैयमेधम्॥ प्रियमेधानुष्टुबिन्द्रः॥
अ꣢र्चतप्रा꣯र्चता᳐ना꣣ऽ२३४राः꣥॥ प्रि꣢यमे꣯धाऽ३सो꣤ऽ३अ꣢र्च꣣त꣥। अ꣢र्च꣡न्तुपूऽ२३त्रा꣤ऽ३का꣢꣯उ꣣त꣥॥ पु꣡रमिद्धाऽ२३॥ ष्णुवा꣢ऽ३र्चा꣤ऽ५"ताऽ६५६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣣क्थ꣡मिन्द्रा꣢꣯य꣣ श꣢ꣳस्यं꣣ व꣡र्ध꣢नं पुरुनिः꣣षि꣡धे꣢। श꣣क्रो꣡ यथा꣢꣯ सु꣣ते꣡षु꣢ नो रा꣣र꣡ण꣢त्स꣣ख्ये꣡षु꣢ च ॥ 22:0363 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑ ।
श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त्स॒ख्येषु॑ च ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣣क्थ꣢म्। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। शँ꣡स्य꣢꣯म्। व꣡र्ध꣢꣯नम्। पु꣣रुनि꣣ष्षि꣡धे꣢। पु꣣रु। निष्षि꣡धे꣢। श꣣क्रः꣢। य꣡था꣢꣯। सु꣣ते꣡षु꣢। नः꣣। रार꣡ण꣢त्। स꣣ख्ये꣡षु꣢। स꣣। ख्ये꣡षु꣢꣯। च꣣। ३६३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह विषय है कि किस प्रयोजन से कैसा स्तोत्र इन्द्र के लिए उच्चारण करना चाहिए।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हमें पुत्र, स्त्री, मित्र आदियों सहित (पुरुनिष्षिधे) बहुतों को पाप-पंक से अथवा संकट से उबारनेवाले (इन्द्राय) परम उपदेशक परमात्मा के लिए, ऐसा (उक्थम्) स्तोत्र (शंस्यम्) गान करना चाहिए, जो (वर्धनम्) हम स्तोताओं को बढ़ानेवाला हो, (यथा) जिससे (शक्रः) वह सर्वशक्तिमान् परमात्मा (नः) हम स्तोताओं के (सुतेषु) पुत्रों को (सख्येषु च) और सखाओं को (रारणत्) अतिशय पुनः-पुनः प्रेरणात्मक उपदेश देता रहे ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तुति किया हुआ परमेश्वर स्तोताजनों को और उनके स्तोता पुत्र, मित्र आदि को पुरुषार्थ आदि की शुभ प्रेरणा और सदुपदेश देकर उनकी उन्नति करता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
इन्द्राय केन प्रयोजनेन कीदृशं स्तोत्रं शंसनीयमित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - अस्माभिः पुत्रकलत्रमित्रादिसहितैः (पुरुनिष्षिधे) पुरून् बहून् निष्षेधति निस्सारयति पापपङ्कात् सङ्कटाद् वा यस्तस्मै। पुरूपपदात् निस्पूर्वाद् गत्यर्थात् षिधु धातोः कर्तरि क्विप्। (इन्द्राय) परमोपदेशकाय परमात्मने, तादृशम् (उक्थम्) स्तोत्रम् (शंस्यम्) शंसनीयम्, यत् (वर्धनम्) स्तोतॄणामस्माकं वृद्धिकरं भवेत्, (यथा) येन (शक्रः) स सर्वशक्तिमान् परमात्मा (नः) स्तोतॄणाम् अस्माकम् (सुतेषु२) पुत्रकेषु (सख्येषु३ च) सखिषु च। सख्यं येषामस्तीति ते सख्याः ‘अर्शआदिभ्योऽच्। अ० ५।२।१२७’ इति मत्वर्थे अच् प्रत्ययः। (रारणत्४) अतिशयेन पुनः पुनः प्रेरणात्मकम् उपदेशं दद्यात्। शब्दार्थाद् रणधातोर्यङ्लुगन्ताल्लेटि रूपम् ॥४॥५
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तुतः परमेश्वरः स्तोतृभ्यो जनेभ्यः, स्तोतृभ्यस्तत्पुत्रमित्रादिभ्यश्च पुरुषार्थादेः सत्प्रेरणां सदुपदेशं च दत्त्वा तानुन्नयति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१०।५। २. सुतेषु अभिषुतेषु सोमेषु—इति वि०। पुत्रेषु—इति सा०। उत्पादितेषु स्वकीयसन्तानेषु—इति ऋ० १।१०।५ भाष्ये द०। ३. सखीनां कर्मसु भावेषु पुत्रस्त्रीभृत्यवर्गादिषु वा इति तत्रैव द०। ४. रारणत् अतिशयेन उपदिशति। यङ्लुगन्तस्य रणधातोर्लेट्प्रयोगः—इति तत्रैव द०। रमेरेतद् रूपम्। छान्दसेन मकारस्य णत्वम्। अत्यर्थं रमते—इति वि०। भृशं रमते। रमेर्वर्णव्यत्ययः, रणिर्वा रमेरर्थे वर्तते। यथा रारणत् तथा शस्यम्—इति भ०। यथा येन प्रकारेण रारणत् अतिशयेन शब्दं कुर्यात् तथा शंस्यम्। अस्मदीयेन शस्त्रेण परितुष्ट इन्द्रः नोऽस्माकं पुत्रान् अस्मत्सख्यानि च बहुधा प्रशंसत्वित्यर्थः—इति सा०। ५. दयानन्दर्षिरस्य मन्त्रस्य ऋग्भाष्ये इन्द्रशब्देन सर्वमित्रमैश्वर्येच्छुकं जीवात्मानं, शक्रशब्देन च सर्वशक्तिमन्तं जगदीश्वरं गृहीतवान्।
22_0363 उक्थमिन्द्राय शंस्यम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६३-१। बार्हदुक्थम्॥ बृहदुक्थोऽनुष्टुबिन्द्रः॥
उ꣥क्थमिन्द्रा॥ य꣢शꣳ꣡साऽ२३या꣢म्। वा꣡र्द्धनं꣢पु। रुनि꣡श्शाऽ२३इधा꣢इ। श꣡क्रोया꣢ऽ३था꣢ऽ३। सू꣡ते꣢᳐षू꣣ऽ२३४नाः꣥॥ रा꣢꣯र꣡णाऽ२३त्सा꣢॥ खिया꣡इषूऽ२३चा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि꣣श्वा꣡न꣢रस्य व꣣स्प꣢ति꣣म꣡ना꣢नतस्य꣣ श꣡व꣢सः। ए꣡वै꣢श्च चर्षणी꣣ना꣢मू꣣ती꣡ हु꣢वे꣣ र꣡था꣢नाम् ॥ 23:0364 ॥
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वि॒श्वान॑रस्य व॒स्पति॒मना॑नतस्य॒ शव॑सः ।
एवै॑श्च चर्षणी॒नामू॒ती हु॑वे॒ रथा॑नाम् ॥
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पदपाठः
वि꣣श्वा꣡न꣢रस्य। वि꣣श्व꣢। नर꣣स्य। वः। प꣡ति꣢꣯म्। अ꣡ना꣢꣯नतस्य। अन्। आ꣣नतस्य। श꣡व꣢꣯सः। ए꣡वैः꣢꣯। च꣣। चर्षणीना꣢म्। ऊ꣣ती꣢। हु꣣वे। र꣡था꣢꣯नाम्। ३६४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रियमेध आङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में बलाधिपति परमेश्वर और राजा का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र जगदीश्वर ! (विश्वानरस्य) सब जगत् के सञ्चालक (अनानतस्य) कहीं भी न झुकनेवाले अर्थात् पराजित न होनेवाले (शवसः) बल के (पतिम्) अधीश्वर (वः) आपको (चर्षणीनाम्) मनुष्यों की (एवैः) सत्कामनाओं की पूर्तियों के लिए, और (रथानाम्) उनके शरीररूप रथों को (ऊती) लक्ष्य के प्रति प्रेरित करने तथा रक्षित करने के लिए, मैं (हुवे) पुकारता हूँ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे राजन् ! (विश्वानरस्य) सबसे आगे जानेवाली, (अनानतस्य) शत्रुओं के आगे न झुकनेवाली अर्थात् उनसे पराजित न होनेवाली (शवसः) सेना के (पतिम्) स्वामी (वः) आपको (चर्षणीनाम्) प्रजाजनों की (एवैः) महत्त्वाकांक्षाओं तथा प्रारब्ध कार्यों की पूर्ति के लिए, और (रथानाम्) विमानादि यानों को (ऊती) चलाने के लिए (हुवे) पुकारता हूँ ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जगदीश्वर ही जीवात्माओं को उनकी जीवनयात्रा के लिए कर्मानुसार उत्कृष्ट मानव शरीररूप रथ प्रदान करता है। वैसे ही राजा राष्ट्र में प्रजाजनों की शीघ्र यात्रा के लिए विमानादि रथों का निर्माण कराये ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ बलाधिपतिः परमेश्वरो नृपतिश्चाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे इन्द्र जगदीश्वर ! (विश्वानरस्य) सर्वजगत्संचालकस्य। विश्वं सर्वं जगत् नृणाति नयतीति विश्वानरः। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। नॄ नये क्र्यादिः। (अनानतस्य) क्वचिदपि अपराजितस्य (शवसः) बलस्य (पतिम्) अधीश्वरम् (वः) त्वाम् छन्दसि षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु एकवचनस्यापि युष्मदस्मदोर्वस्नसादेशौ दृश्येते। चर्षणीनाम् मनुष्याणाम् (एवैः) कामैः निमित्तभूतैः। एवैः कामैरिति यास्कः। निरु० १२।२०। तेषां सत्कामानां पूर्त्यर्थमिति भावः, (रथानाम्) तदीयशरीररथानाम् (ऊती) लक्ष्यं प्रति प्रेरणाय रक्षणाय च। गत्यर्थस्य रक्षणार्थस्य च अव धातोः क्तिनि निपातः ‘ऊतिः’ इति। ततः ऊतिशब्दात् चतुर्थ्येकवचने ‘सुपां सुलुक्०। ७।१।३९’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अहम् (हुवे) आह्वयामि ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे राजन् ! विश्वानरस्य सर्वेभ्योऽग्रेसरस्य, (अनानतस्य) शत्रूणां पुरतः अपराजितस्य (शवसः) सैन्यस्य (पतिम्) अधीश्वरम् (वः) त्वाम् (चर्षणीनाम्) प्रजाजनानाम् (एवैः) महत्त्वाकाङ्क्षाणां प्रारब्धानां महतां कार्याणां वा पूर्त्यर्थम्। एवः इति इच्छार्थाद् गत्यर्थाद् वा इण् धातोः वन् प्रत्यये रूपम्। (रथानाम्) विमानादियानानाम् (ऊती) गमनाय च (हुवे) आह्वयामि ॥५॥ मन्त्रमिमं यास्काचार्य एवं व्याख्यातवान्—“विश्वानरस्य आदित्यस्य अनानतस्य शवसो महतो बलस्य, एवैश्च कामैः अयनैः अवनैर्वा, चर्षणीनां मनुष्याणाम्, ऊत्या च पथा रथानाम् इन्द्रमस्मिन् यज्ञे ह्वयामि” इति (निरु० १२।२०)। अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जगदीश्वरो जीवात्मभ्यस्तज्जीवनयात्रार्थं कर्मानुसारमुत्कृष्टान् मानवशरीररथान् प्रददाति। तथैव राजा राष्ट्रे प्रजाजनानां सद्यो यात्रार्थं विमानादिरथान् प्रकल्पयेत् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६८।४।
23_0364 विश्वानरस्य वस्पतिमनानतस्य - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६४-१। अग्नेर्वैश्वानरस्य सामनी द्वे॥ द्वयोरग्निरनुष्टुबग्निरिन्द्रो वैश्वानरो वा॥
वि꣥श्वा꣯नरा॥ स्य꣢वाऽ᳒२᳒स्पा꣡तीऽ᳒२᳒म्। आ꣡ना꣯न꣢त। स्यशा꣡वा꣢ऽ१साऽ᳒२ः᳒। ए꣡वै꣯श्चा꣢꣯। चर्ष꣡णाऽ᳒२᳒इना꣡म्॥ ऊऽ᳒२᳒ती꣡॥ हु꣢वा꣡इर꣢। था꣡ऽ२३४नो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
23_0364 विश्वानरस्य वस्पतिमनानतस्य - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३६४-२।
वि꣣श्वा꣢ऽ३४। नरस्य꣥वौ꣯। हो꣤स्पाती꣥म्॥ अ꣢ना꣡꣯नता꣢ऽ३। स्या꣡शा꣢᳐वा꣣ऽ२३४साः꣥। ए꣡वै꣯श्चा꣢꣯। चर्ष꣡णाऽ२३४इना꣥म्॥ ऊ꣢꣯ती꣡꣯हु꣢वा꣡इर꣢॥ था꣡ऽ२३४नो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣢ घा꣣ य꣡स्ते꣢ दि꣣वो꣡ नरो꣢꣯ धि꣣या꣡ मर्त꣢꣯स्य꣣ श꣡म꣢तः। ऊ꣣ती꣡ स बृ꣢꣯ह꣣तो꣢ दि꣣वो꣢ द्वि꣣षो꣢꣫ अꣳहो꣣ न꣡ त꣢रति ॥ 24:0365 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ऋध॒द्यस्ते॑ सु॒दान॑वे धि॒या मर्तः॑ श॒शम॑ते ।
ऊ॒ती ष बृ॑ह॒तो दि॒वो द्वि॒षो अंहो॒ न त॑रति ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सः꣢। घ꣣। यः꣢। ते꣣। दिवः꣢। न꣡रः꣢꣯। धि꣣या꣢। म꣡र्त꣢꣯स्य। श꣡म꣢꣯तः। ऊ꣣ती꣢। सः। बृ꣣हतः꣢। दि꣣वः꣢। द्वि꣣षः꣢। अँ꣡हः꣢꣯। न। त꣣रति। ३६५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमेश्वर के ध्यान से क्या फल होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे परम धीमान् इन्द्र परमेश्वर ! (यः नरः) जो मनुष्य (मर्तस्य) मारनेवाले, (शमतः) लौकिक शान्ति को तथा मोक्षरूप परमशान्ति को देनेवाले, (दिवः) कमनीय (ते) आपके (धिया) ध्यान में मग्न होता है, (सः) वह, (सः घ) निश्चय से वही, (बृहतः) महान्, (दिवः) ज्योतिर्मय आपकी (ऊती) रक्षा से (अंहः न) पाप के समान (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को भी (तरति) पार कर लेता है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे मनुष्य मरणधर्मा होने से ‘मर्त्त’ कहलाता है, वैसे ही जगदीश्वर मारनेवाला होने से ‘मर्त्त’ है। वेद में कहा भी है—‘जो मारता है, जो जिलाता है (अथ० १३।३।३)’। मारनेवाला होने से उसके नाम मर्त्त, मृत्यु, शर्व और यम हैं, जन्म देने और प्राण प्रदान करने के कारण वह भव, जनिता, प्राण आदि कहाता है। उसके ध्यान से बल पाकर मनुष्य सब विघ्नों और समस्त शत्रुओं को पार कर सकता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरस्य ध्यानेन किं फलं भवतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमधीमन् जगदीश्वर ! (यः नरः) यो मनुष्यः (मर्त्तस्य) मारयितुः, (शमतः) शमयतः, लौकिकीं शान्तिं मोक्षरूपां परां शान्तिं च प्रयच्छतः, (दिवः) कमनीयस्य। दीव्यतिरत्र कान्तिकर्मा। (ते) तव (धिया) ध्यानेन सचते, (सः) असौ, (सः घ) निश्चयेन स एव, (बृहतः) महतः (दिवः) ज्योतिर्मयस्य तव। दीव्यतिरत्र द्युतिकर्मा। (ऊती) रक्षया (अंहः न) पापाचारम् इव (द्विषः) द्वेषवृत्तीः अपि (तरति) अतिक्रामति। यथा अंहः तरति तथा द्विषोऽपि तरति। अंहश्च द्विषश्च तरतीत्यर्थः। एतेनैव विधिना नकारः समुच्चयार्थोऽपि भवति ॥६॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा मनुष्यो मरणात् मर्त्तः, तथा जगदीश्वरो मारणान्मर्त्त उच्यते। उक्तं च ‘यो मा॒रय॑ति प्रा॒णय॑ति’ (अथ० १३।३।३) इति। स हि मारणान्मर्त्तो मृत्युः शर्वो यमो वा, जननात् प्राणप्रदानाच्च भवः जनिता प्राणश्च उच्यते। तस्य ध्यानेन बलं प्राप्य जनः सर्वान् विघ्नान् समस्तान् शत्रूंश्च समुत्तर्तुं प्रभवति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।२।४, देवता अग्निः। “ऋधद्यस्ते सुदानवे धिया मर्तः शशमते। ऊती ष” इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् ‘ये मनुष्या धर्मात्मभ्यः सुखप्रदाः स्युस्ते यथा धार्मिकाः पापं त्यजन्ति तथैव शत्रूनुल्लङ्घयन्ति’ इति विषये व्याख्यातवान्।
24_0365 स घा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६५-१। शाकपूते द्वे॥ द्वयोः शाकपूतिरनुष्टुबिन्द्रः॥
स꣢घा꣡꣯यस्ता꣢ऽ३इ। ए꣢॥ दिवो꣡꣯नरा꣢ऽ३ः। ए꣢। धिया꣡꣯मर्ता꣢ऽ३। ए꣢। स्यश꣡मता꣢ऽ३ः। ए꣢॥ ऊ꣯ता꣡इसबृ꣢ऽ३। ए꣢। हतो꣡꣯दिवा꣢ऽ३ः। ए꣢॥ द्विषो꣡꣯अꣳहा꣢ऽ३ः। ए꣢। ना꣡तर꣢ति। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
24_0365 स घा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३६५-२।
स꣥घा꣯यस्ताइ॥ दि꣢वो꣯न꣡राः। धि꣢या꣯मा꣡र्ताऽ᳒२᳒। स्यशम꣡ताः॥ ऊ꣢꣯ती꣯सा꣡बृऽ᳒२᳒। हतो꣯दि꣡वाः॥ द्वि꣢षो꣯आꣳ꣡हाऽ᳒२ः᳒॥ ना꣡तर꣢ति। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि꣣भो꣡ष्ट꣢ इन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सो वि꣣भ्वी꣢ रा꣣तिः꣡ श꣢तक्रतो। अ꣡था꣢ नो विश्वचर्षणे द्यु꣣म्न꣡ꣳ सु꣢दत्र मꣳहय ॥ 25:0366 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ॒रोष्ट॑ इन्द्र॒ राध॑सो वि॒भ्वी रा॒तिः श॑तक्रतो ।
अधा॑ नो विश्वचर्षणे द्यु॒म्ना सु॑क्षत्र मंहय ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
वि꣣भोः꣢। वि꣣। भोः꣢। ते꣣। इन्द्र। रा꣡ध꣢꣯सः। वि꣣भ्वी꣢। वि। भ्वी꣢। रा꣣तिः꣢। श꣣तक्रतो। शत। क्रतो। अ꣡थ꣢꣯। नः꣣। विश्वचर्षणे। विश्व। चर्षणे। द्युम्न꣢म्। सु꣣दत्र। सु। दत्र। मँहय। ३६६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अत्रिर्भौमः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र से याचना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुत ज्ञानी तथा बहुत-से कर्मों को करनेवाले (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः ते) व्यापक आपके (राधसः) शम, दम, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक और चाँदी, सोना, हीरा, मोती, मणि, माणिक्य, विद्या, आरोग्य, यश, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन की (रातिः) देन (विभ्वी) बड़ी व्यापक है। (अथ) इस कारण, हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टा ! हे (सुदत्र) शुभ दानी जगदीश्वर ! आप (नः) हमारे लिए (द्युम्नम्) आत्मिक तेज, भौतिक धन और उससे उत्पन्न होनेवाले यश को (मंहय) प्रदान कीजिए ॥ इस मन्त्र की राजा तथा आचार्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। व्यापक धनवाले राजा का धनदान व्यापक होता है, और व्यापक विद्यावाले आचार्य का विद्यादान व्यापक होता है। राजा गुप्तचर रूपी आँखों से सकलद्रष्टा होता है, और आचार्य अपने ज्ञान के बल से सकलद्रष्टा होता है ॥७॥ इस मन्त्र में ‘विभु परमात्मा की देन भी विभु है’ इसमें समालङ्कार व्यङ्ग्य है, क्योंकि समालङ्कार वहाँ होता है, जहाँ अनुरूप वस्तुओं के मिलन की प्रशंसा होती है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो जगदीश्वर, राजा और आचार्य धन, विद्या, तेज, यश आदि की प्रचुर वर्षा करते हैं, वे हमारे लिए भी इनकी धारा को प्रवाहित करें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुकर्मन् (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः) व्यापकस्य (ते) तव (राधसः) शमदमन्यायसत्याहिंसादेः आध्यात्मिकस्य, भौतिकस्य रजतस्वर्णहीरकमुक्तामणिमाणिक्यविद्यारोग्ययशश्चक्रवर्ति-राज्यादेश्च (रातिः) दत्तिः (विभ्वी) व्यापिनी वर्तते। (अथ) अतः कारणात् हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टः ! विश्वचर्षणिरिति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। हे (सुदत्र) शोभनदान जगदीश्वर ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (द्युम्नम्) आध्यात्मिकं तेजो भौतिकं धनं, तज्जन्यं यशश्च। द्युम्नमिति धननाम। निघं० २।१०। द्युम्नं द्योततेः यशो वाऽन्नं वा। निरु० ५।५। (मंहय) प्रयच्छ। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। तत्रैव मंहयतिरपि पठितव्यः ॥ मन्त्रोऽयं नृपतिपक्षे आचार्यपक्षे चापि योजनीयः। विभुधनस्य नृपस्य धनदानं विभु, विभुविद्यस्याचार्यस्य च विद्यादानं विभु भवति। नृपश्चारचक्षुभिर्विश्वद्रष्टा, आचार्यश्च ज्ञानबलेन विश्वद्रष्टा ॥७॥२ अत्र ‘विभोः राधसः रातिरपि विभ्वी’ इति समालङ्कारो ध्वन्यते, ‘समं स्यादानुरूप्येण श्लाघा योग्यस्य वस्तुनः’ (सा० द० १०।७१) इति तल्लक्षणात् ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यो जगदीश्वरो नृपतिराचार्यश्च धनविद्यातेजःकीर्त्यादेः प्रचुरां वृष्टिं करोति सोऽस्मभ्यमपि तद्धारां प्रवाहयेत् ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ५।३८।१ ‘विभोष्ट’, ‘अथा’, ‘द्युम्नं’, ‘सुदत्र’, इत्यत्र क्रमेण ‘उरोष्ट’, ‘अधा’, ‘द्युम्ना’, ‘सुक्षत्र’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
25_0366 विभोष्ट इन्द्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६६-१। वरुणान्याः साम॥ वरुणान्यनुष्टुबिन्द्रः॥
वि꣥भो꣯ष्टइन्द्ररा꣯धाऽ६साः꣥॥ वि꣢भ्वी꣡꣯रा꣰꣯ऽ२ति꣡श्शत꣢क्रतो꣯। शताऽ᳒२᳒क्रा꣡ताउ॥ आथा꣯नो꣢꣯विश्वचर्षणे꣯। श्वचाऽ᳒२᳒र्षा꣡णाइ॥ द्यु꣢म्नꣳ꣡सुद꣢त्रमꣳहय᳐। त्र꣣मा꣢ऽ३ꣳहा꣤ऽ५"याऽ६५६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व꣡य꣢श्चित्ते पत꣣त्रि꣡णो꣢ द्वि꣣पा꣡च्चतु꣢꣯ष्पादर्जुनि। उ꣢षः꣣ प्रा꣡र꣢न्नृ꣣तू꣡ꣳरनु꣢꣯ दि꣣वो꣡ अन्ते꣢꣯भ्य꣣स्प꣡रि꣢ ॥ 26:0367 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वय॑श्चित्ते पत॒त्रिणो॑ द्वि॒पच्चतु॑ष्पदर्जुनि ।
उषः॒ प्रार॑न्नृ॒तूँरनु॑ दि॒वो अन्ते॑भ्य॒स्परि॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
व꣡यः꣢꣯। चि꣣त्। ते। पतत्रि꣡णः꣢। द्वि꣣पा꣢त्। द्वि꣣। पा꣢त्। च꣡तु꣢꣯ष्पात्। च꣡तुः꣢꣯। पा꣣त्। अर्जुनि। उ꣡षः꣢꣯। प्र। आ꣣रन्। ऋतू꣢न्। अ꣡नु꣢꣯। दि꣣वः꣢। अ꣡न्ते꣢꣯भ्यः। परि꣢꣯। ३६७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- उषाः
- प्रस्कण्वः काण्वः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र का देवता उषा है। इसमें यह वर्णित है कि प्राकृतिक उषा के समान आध्यात्मिक उषा के प्रादुर्भाव होने पर कौन क्या करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - जैसे प्रभात में सूर्योदय से पूर्व प्राची दिशा के आकाश में उषा प्रकाशित होती है, वैसे ही अध्यात्म-साधना में तत्पर योगियों के हृदयाकाश में परमात्मारूप सूर्य के उदय से पूर्व उसके आविर्भाव की द्योतक आत्मप्रभारूप उषा खिलती है। उसी को यहाँ उषा नाम से कहा गया है ॥ हे (अर्जुनि) जनमानस में प्रकट होती हुई शुभ्र, सत्त्वगुणप्रधान अध्यात्म-प्रभा ! (दिवः) आत्मलोक के (अन्तेभ्यः परि) प्रान्तों से (ते) तेरे (ऋतून् अनु) आगमनों पर (पतत्रिणः वयः चित्) पंखोंवाले पक्षियों के समान (पतत्रिणः) उत्क्रमणशील, अर्थात् मूलाधार आदि निचले-निचले चक्रों से ऊपर-ऊपर के चक्रों में प्राण के उत्क्रमण के लिए प्रयत्न करनेवाले योगीजन, और (द्विपात्) अपरा और परा विद्या रूप दो प्राप्तव्य पदार्थोंवाले, अथवा, ज्ञान और कर्म रूप दो गन्तव्य मार्गोंवाले, अथवा अभ्युदय और निःश्रेयस रूप दो गन्तव्य मार्गोंवाले, और (चतुष्पात्) मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार इन अन्तः करणचतुष्टयरूप साधनोंवाले, अथवा क्रमशः सुख-दुःख-पुण्य-अपुण्य विषयोंवाली मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा ये चार वृत्तियाँ जिनके चित्तप्रसादन के उपाय हैं वे, अथवा बाह्य-आभ्यन्तर-स्तम्भवृत्ति-बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी ये चार प्राणायाम जिनके प्रकाशावरणक्षय के उपाय हैं वे, अथवा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंवाले मनुष्य (प्रारन्) प्रगति में तत्पर हो जाते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में ‘वयः चित् पतत्रिणः’ में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे प्रभातकालीन प्राकृतिक उषा के खिलने पर पंखयुक्त पक्षी, दोपाये मनुष्य और चौपाये पशु नींद छोड़कर सचेष्ट और प्रयत्नशील होते हैं, वैसे ही आध्यात्मिक उषा के प्रकट होने पर योगमार्ग में प्रवृत्त, आगे-आगे उत्क्रान्ति करनेवाले, दो साधनों या चार साधनोंवाले योगीजन अपने हृदय में और जन-मानस में अध्यात्म-सूर्य के उदय के लिए सचेष्ट हो जाते हैं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
उषाः देवता। प्राकृतिक्या उषस इव आध्यात्मिक्या उषसः प्रादुर्भावे के किं कुर्वन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - यथा प्रभाते सूर्योदयात् पूर्वं प्राच्या अन्तरिक्षे उषाः प्रकाशते तथैव अध्यात्मसाधनारतानां योगिनां हृदयान्तरिक्षे परमात्मसूर्यस्योदयात् प्राक् तदाविर्भावद्योतकाऽऽत्मप्रभारूपिणी उषाः प्रभासते। सैवात्र उषोनाम्ना व्याहृता ॥ हे (अर्जुनि) जनमानसे आविर्भावं भजमाने शुभ्रे सत्त्वगुणप्रधाने अध्यात्मप्रभे ! (दिवः) आत्मलोकस्य (अन्तेभ्यः परि) प्रान्तेभ्यः। अत्र परिः अनर्थकः। ‘अधिपरी अनर्थकौ। अ० १।४।९३’ इति कर्मप्रवचनीयत्वे ‘पञ्चम्यपाङ्परिभिः। अ० २।३।१०’ इति परियोगे पञ्चमी। (ते) तव (ऋतून् अनु) आगमनानि उपलक्ष्य (वयः चित्) पक्षिणः इव। निरुक्ते चिद् इति निपातः उपमार्थे व्याख्यातः। निरु० १।४, ३।१६। (पतत्रिणः) उत्क्रमणशीलाः, मूलाधारादिभ्यः अधोऽधश्चक्रेभ्यः उपर्युपरि चक्रेषु प्राणोत्क्रमणाय प्रयतमाना योगिनः इत्यर्थः, (द्विपात्) द्वौ अपरापराविद्यारूपौ पादौ प्राप्तव्यौ यस्य सः, यद्वा द्वौ ज्ञानयोगकर्मयोगरूपौ पादौ गन्तव्यौ मार्गौ यस्य सः, यद्वा द्वौ अभ्युदयनिःश्रेयसरूपौ पादौ गन्तव्यौ यस्य सः, (चतुष्पात्) चत्वारः पादाः मनोबुद्धिचित्ताहंकारूपम् अन्तःकरणचतुष्ट्यं साधनं यस्य सः, यद्वा मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाः सुखःदुखपुण्यापुण्यविषयाश्चतस्रो वृत्तयः चित्तप्रसादनोपायाः यस्य सः, यद्वा बाह्य-आभ्यन्तर-स्तम्भवृत्ति-बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपिरूपाश्चत्वारः प्राणायामाः प्रकाशावरणक्षयोपायाः यस्य सः, यद्वा धर्मार्थकाममोक्षाश्चत्वारः पुरुषार्था यस्य सः, एते सर्वेऽपि। द्विपात् चतुष्पात् इत्यत्र जातौ एकवचनम्। (प्रारन्) प्रगतितत्पराः जायन्ते। प्र पूर्वाद् ऋ गतौ धातोर्जुहोत्यादेर्लुङि रूपम् ॥८॥२ अत्र ‘वयः चित् पतत्रिणः’ इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा प्रभातकालिक्याः प्राकृतिक्या उषसः प्रादुर्भावे पक्षिणो द्विपादो मनुष्याश्चतुष्पादो मृगाश्च निद्रां विहाय सचेष्टाः प्रयत्नशीलाश्च जायन्ते तथैवाध्यात्मिक्या उषसः प्रादुर्भावे योगमार्गे प्रवृत्ता उत्क्रमणशीला द्विसाधनाश्चतुःसाधना वा योगिनः स्वहृदये जनमानसे चाध्यात्मसूर्यस्योदयाय सचेष्टा भवन्ति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।४९।३। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिममुषस उपमानेन स्त्रियाः कर्तव्यविषये व्याख्यातवान्।
26_0367 वयश्चित्ते पतत्रिणो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६७-१। उषसम् औषसम् वा॥ उषानुष्टुबिन्द्रः॥ उषा वा।
व꣥यश्चा꣢ऽ३इत्ते꣤꣯पत꣥त्रिणाः॥ द्वि꣢पा꣡꣯च्चतुष्पा꣯दर्जुनाये꣢ऽ३। ऊ꣤षᳲ꣥प्रा꣤रा꣥न्। ऋ꣢तूꣳ꣯र꣡नू॥ दि꣢वो꣯आ꣡न्तेऽ२३॥ भा꣡ऽ२३या꣤ऽ३ः। पा꣢ऽ३४५रोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣मी꣡ ये दे꣢꣯वा꣣ स्थ꣢न꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡ रो꣢च꣣ने꣢ दि꣣वः꣢। क꣡द्व꣢ ऋ꣣तं꣢ कद꣣मृ꣢तं꣣ का꣢ प्र꣣त्ना꣢ व꣣ आ꣡हु꣢तिः ॥ 27:0368 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣मी꣡इति꣢। ये दे꣣वाः। स्थ꣡न꣢꣯। स्थ। न꣣। म꣡ध्ये꣢꣯। आ। रो꣣चने꣢। दि꣣वः꣢। कत्। वः꣣। ऋत꣢म्। कत्। अ꣣मृ꣡त꣢म्। अ꣣। मृ꣡त꣢꣯म्। का꣢। प्र꣣त्ना꣢। वः꣢। आ꣡हु꣢꣯तिः। आ। हु꣣तिः। ३६८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वेदेवाः
- त्रित आप्त्यः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र के देवता ‘विश्वेदेवाः’ हैं। इसमें देवों के विषय में तीन प्रश्न उठाये गये हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (देवाः) अपने-अपने विषय के प्रकाशक ज्ञानेन्द्रियरूप देवो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) उर्ध्वस्थान सिर के (मध्ये) अन्दर (रोचने) रोचमान अपने-अपने गोलक में (आ स्थन) आकर स्थित हुए हो, अथवा, हे (देवाः) प्रकाशक सूर्यकिरणों ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) द्युलोक के (मध्ये) बीच (रोचने) दीप्तिमान् सूर्य में (आ स्थन) आकर स्थित हो, अथवा, हे (देवाः) ज्ञान के प्रकाश से युक्त तथा ज्ञान के प्रकाशक विद्वानो ! (अमी ये) ये जो तुम (दिवः) कीर्ति से प्रकाशित राष्ट्र के (मध्ये) अन्दर (रोचने) यशस्वी पद पर (आ स्थन) नियुक्त हुए हो, उन तुमसे पूछता हूँ कि (कत्) क्या (वः) तुम्हारा (ऋतम्) सत्य है, (कत्) क्या (अमृतम्) अमरतत्त्व है, (का) और क्या (वः) तुम्हारी (प्रत्ना) पुरातन (आहुतिः) होम क्रिया है? ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यहाँ उत्तर दिये बिना ही केवल प्रश्न करके जिज्ञासा उत्पन्न की गयी है कि इन प्रश्नों के उत्तर अपनी प्रतिभा से स्वयं दो। इन प्रश्नों के उत्तर ये हो सकते हैं। सिर में जो ज्ञानेन्द्रियरूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है जीवात्मा में सत्यज्ञान को पहुँचाना, उनका अमृत है वास्तविक इन्द्रियतत्त्व, जो देह के साथ इन्द्रिय-गोलकों के विनष्ट हो जाने पर भी मरता नहीं, प्रत्युत सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रहता है, उनकी सनातन आहुति है शरीररक्षारूप यज्ञ में तथा ज्ञानप्रदानरूप यज्ञ में अपना होम करना। इसी प्रकार द्युलोकस्थ सूर्य में जो किरण-रूप देव स्थित हैं, उनका ऋत है वह सत्यनियम, जिसके अनुसार प्रतिदिन सूर्योदय के साथ वे आकाश और भूमण्डल में व्याप्त होते हैं, उनका अमृत है शुद्ध मेघ-जल, जिसे वे समुद्र आदि से भाप बनाकर ऊपर ले जाते हैं, उनकी सनातन आहुति है मेघजल का पार्थिव अग्नि में होम करना, जिससे पृथिवी पर ओषधि, वनस्पति आदि उगती हैं और प्राणी जीवन धारण करते हैं, अथवा सब ग्रहोपग्रहों में अपना होम करना, जिससे पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि प्रकाशित होते हैं। इसी प्रकार राष्ट्र में जो विद्या दान करनेवाले विद्वान लोग हैं, उनका ऋत है वह सत्यनिष्ठा जिसका अनुसरण कर वे विद्यादान में दत्तचित्त होते हैं; उनका अमृत है वह ज्ञान जिसे वे सत्पात्रों को देते हैं, उनकी सनातन आहुति है अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ में अपना होम करना, इत्यादि सुधी जनों को स्वयं ऊहा कर लेनी चाहिए ॥९॥ विवरणकार माधव ने यह देखकर कि इस ऋचा का ऋषि आप्त का पुत्र त्रित है और देवता ‘विश्वेदेवाः’ है, इस पर निम्नलिखित इतिहास लिखा है-आप्त ऋषि के तीन पुत्र थे, एकत, द्वित और त्रित। उन्होंने यज्ञ करने की इच्छा से यजमानों से गौएँ माँगी और पा लीं। उन्हें लेकर वे घर चल पड़े। जब वे सरस्वती नदी के किनारे-किनारे जा रहे थे तब परले पार बैठे गवादक ने उन्हें देख लिया। वह उठा और सरस्वती के जलों को पार करके रात में उसने उनको डराया। जब वे डरकर भागे तब उनमें से त्रित घास-फूस और लताओं से ढके हुए एक निर्जल कुएँ में गिर पड़ा। कुएँ में गिरने का कारण अन्य कुछ लोग यह बताते हैं कि एकत और द्वित को कम गौएँ मिली थीं, त्रित को बहुत सारी मिल गयी थीं, इसलिए जान-बूझकर उन्होंने त्रित को कुएँ में धकेल दिया था। वहीं उसके मन में आया कि मैंने यज्ञ का संकल्प किया था, अब यदि बिना यज्ञ किये ही मर जाता हूँ तो मेरा कल्याण नहीं होगा, इसलिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि यहाँ कुएँ में पड़ा-पड़ा ही मैं सोम-पान कर लूँ। वह यह विचार कर ही रहा था कि अकस्मात् ही उसने उसी कुएँ में एक लता उतरी हुई देखी। उसने उसे लेकर और यह सोम ही है, ऐसा मन में निश्चय करके अन्य भी यज्ञ-साधनों का मन में संकल्प करके बजरी को सोम कूटने के सिल-बट्टे बनाकर उस लता को अभिषुत किया और अभिषुत करके देवों को पुकारा। पुकारे गये देवों को पुकारे जाने का कारण समझ में न आया, अतः वे आविग्न हो उठे। बृहस्पति ने भी पुकार को सुना और सुनकर वह देवों से बोला कि त्रित का यज्ञ है, वहाँ चलते हैं। तब वे सब देव वहाँ आये। उन्हें आया देखकर कुएँ से उद्धार की इच्छावाले त्रित ने उनकी स्तुति की और उन्हें उपालम्भ दिया कि तुम्हारा सत्यासत्य का विवेक नष्ट हो गया है, तुम बड़े अकृतज्ञ हो कि मुझे इस कुएँ से बाहर नहीं निकालते हो। त्रित का उपालम्भ ही प्रस्तुत ऋचा में प्रकट किया गया है, इत्यादि। यह सब कल्पना-कला का विलास है, वास्तविकता इसमें कुछ भी नहीं है, यह सुधी जन स्वयं ही समझ लें ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
विश्वेदेवाः देवताः। देवानां विषये त्रयः प्रश्ना उत्थाप्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (देवाः) स्वस्वविषयप्रकाशकाः ज्ञानेन्द्रियरूपाः देवाः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) ऊर्ध्वस्थानस्य शिरोभागस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) रोचमाने स्वस्वगोलके (आ स्थन) आगत्य स्थिताः स्थ। अत्र ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५’ इति तनबादेशः। यद्वा, हे (देवाः) प्रकाशकाः सूर्यकिरणाः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) द्युलोकस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) दीप्तिमति आदित्ये (आ स्थन) आगत्य स्थिताः स्थ, यद्वा, हे (देवाः) ज्ञानप्रकाशयुक्ताः ज्ञानस्य प्रकाशकाश्च विद्वांसः ! (अमी ये) इमे ये यूयम् (दिवः) कीर्त्या प्रकाशितस्य राष्ट्रस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (रोचने) यशस्विनि पदे (आ स्थन) नियुक्ताः स्थ, तान् युष्मान् पृच्छामि यत् (कत्) किम् (वः) युष्माकम् (ऋतम्) सत्यम् अस्ति ? (कत्) किम् (अमृतम्) अमरं तत्त्वम् अस्ति ? (का) का च (वः) युष्माकम् (प्रत्ना) पुराणी पूर्वकालादागता (आहुतिः) होमक्रिया अस्ति ? इति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अत्रोत्तरदानं विनैव केवलं प्रश्नान् कृत्वा जिज्ञासा समुत्पाद्यते, यदेते प्रश्नाः स्वयमेव स्वप्रतिभयोत्तरणीया इति। इमानि तावत्तेषामुत्तराणि भवितुमर्हन्ति। शिरसि ये ज्ञानेन्द्रियरूपा देवाः स्थितास्तेषाम् ऋतमस्ति जीवात्मनि सत्यज्ञानप्रापणम्, तेषाममृतमस्ति वास्तविकम् इन्द्रियतत्त्वं यद्देहेन सहेन्द्रियगोलकानां विनाशेऽपि न म्रियते, प्रत्युत सूक्ष्मशरीरे तिष्ठति, तेषामाहुतिर्विद्यते शरीररक्षायज्ञे ज्ञानप्रदानयज्ञे च स्वकीयो होमः। एवमेव, द्युलोकस्थे सूर्य ये किरणरूपा देवाः स्थितास्तेषाम् ऋतमस्ति स सत्यनियमो यमनुसृत्य ते प्रत्यहं सूर्योदयेन साकं गगनं भूमण्डलं च व्याप्नुवन्ति, तेषाममृतमस्ति शुद्धं मेघजलं यत्ते समुद्रादिभ्यो वाष्पीकरणविधिनोर्ध्व नयन्ति, एतेषां प्रत्नाऽऽहुतिर्विद्यते सनातनकालान्मेघजलस्य पार्थिवाग्नौ होमो येन पृथिव्यामोषधिवनस्पत्यादयः प्ररोहन्ति प्राणिनश्च जीवनं धारयन्ति, यद्वा सर्वेषु ग्रहोपग्रहेषु स्वात्मनो होमो येन पृथिवीमङ्गलबुधचन्द्रादयो ज्योतिषा दीप्यन्ते। तथैव राष्ट्रे ये विद्यादातारो विद्वांसः सन्ति तेषाम् ऋतमस्ति सा सत्यनिष्ठा यामनुसृत्य ते विद्यादाने दत्तचित्ता भवन्ति, तेषाममृतमस्ति तज्ज्ञानं यत्ते सत्पात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति, तेषां प्रत्नाऽऽहुतिश्च विद्यते सनातनकालात् प्रचलितेऽध्ययनाध्यापनयज्ञे स्वात्मनो होम इत्यादि सुधीभिः स्वयमेवोह्यम् ॥९॥ विवरणकारोऽस्या ऋचो व्याख्याने ब्रूते—“त्रितस्यार्षम्। वैश्वदेवीयमृक्। अत्रेतिहासमाचक्षते। आप्तस्य ऋषेः त्रयः पुत्रा बभूवुः, एकतः द्वितः त्रित इति। ते यष्टुकामाः याज्यान् यजमानान् गा ययाचिरे लेभिरे च। ता आदाय गृहं जग्मुः। तद् गच्छतः पथा सरस्वत्यास्तीरेण परस्मिन् कूले निषण्णो गवादकः ददर्श। दृष्ट्वा चोत्थाय अभिमुखः सारस्वतीरप अवतीर्य रात्रौ त्रासयामास। तेषां त्रासात् त्रस्यतां त्रितः कूपे निर्जले तृणैर्वल्लीभिश्चावकीर्णे पपात। अन्ये तु पुनः एतदेवेतिहासमन्यथा व्याचक्षते। एकतद्विताभ्यां स्वल्पा गावो लब्धाः त्रितेन च बह्व्यः। तत ईर्ष्यया ताभ्यां कूपे प्रक्षिप्तः इति। तस्य तत्रस्थस्यैव मनः प्रादुरभूत्। कृतयागसङ्कल्पस्य अकृतयागस्य मम मृत्युर्न श्रेयसे। तत्कथमिहस्थ एवाहं सोमं पिबेयमिति। एवं चिन्तयन् यदृच्छया तस्मिन् कूपे वीरुधमुत्तीर्णा ददर्श। स तामादाय सोमोऽयमिति मनसा निश्चित्य यागैश्वर्यमन्यानि अपि यागसाधनानि मना सङ्कल्प्य, शर्करा अभिषवग्राव्णः कृत्वा तां वीरुधमभिसुषाव। अभिषुत्य च देवानाजुहाव। ते देवा आहूताः सन्तः आह्वानकारणम् अनवबुध्यमानाः आविग्ना बभूवुः। तद् बृहस्पतिः शुश्राव। श्रुत्वा च देवानुवाच त्रितस्य यज्ञो वर्तते। तत्र गच्छाम इति। ततस्ते देवाः आजग्मुः। स तानागतान् कूपादुत्तरणार्थी तुष्टाव उपालब्धवांश्च—अमी ये देवा स्थन भवथ, तिष्ठथेत्यर्थः। मध्ये आरोचने दिवः सम्बन्धिनि आदित्यमण्डले। तानहं पृच्छामि। क्व ऋतं सत्यम्, क्व चामृतम्। क्व प्रत्ना पुराणी, चिरन्तनीत्यर्थः, वः युष्माकं प्रत्ना सम्बन्धिनी आहुतिः ? एतदुक्तं भवति—नष्टसत्यासत्यविवेका अकृतज्ञाश्च यूयं, येन मामस्मात् कूपात् नोत्तारयथ इत्युपालम्भः। अयं द्वितीयः पक्षः। अमी ये देवाः स्थन—मध्ये आदित्यमण्डले, आरोचने दिवः द्युलोकादपि दीप्ततरे स्थाने भागं ग्रहीतुमागताः। कत् व ऋतम् ? एतदुक्तं भवति—ऋतम् अन्नम्, तदत्र नास्ति कूपे निर्जले। तत् कत् अमृतं सोमाख्यम्। हविर्धानाः, करम्भः, पुरोडाशः, परीवापः, पयः, उपवसथ्यः, पशुरग्नीषोमीयः, पशुः सवनीयः एवमादिकं हि तत्। अमृतं च क्वात्र विद्यते। कस्मान्मम देवा यागमुद्दिश्य भवन्तोऽत्र समागताः। ततस्तैः कूपादुत्तारितः’’ इति। कल्पनाकलाविलसितमेतत्सर्वं न वास्तविकमिति स्वयमेव सुधियो विभावयन्तु ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. १।१०५।५ ऋषिः त्रित आप्त्यः कुत्स आङ्गिरसो वा। ‘अमी ये देवाः स्थन त्रिष्वारोचने दिवः। कद्व ऋतं कदमृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥’ इति पाठः।
27_0368 अमी ये - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६८-१। देवानां रुचिः॥ रोचनम् वा। रुचिरनुष्टुबिन्द्रः॥ विश्वेदेवा वा।
अ꣥मी꣯ये꣯दे꣯वा꣯स्था꣤ना꣥॥ म꣡ध्यआ꣯रो꣯चने꣯दिवाः। क꣢द्वऋ꣡ताम्। क꣢दमा꣡र्ताऽ᳒२᳒म्॥ का꣡꣯प्रत्ना꣯व꣢आ꣡꣯हूऽ२३ती꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ऋ꣢च꣣ꣳ सा꣡म꣢ यजामहे꣣ या꣢भ्यां꣣ क꣡र्मा꣢णि कृ꣣ण्व꣡ते꣢। वि꣡ ते सद꣢꣯सि राजतो य꣣ज्ञं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ वक्षतः ॥ 28:0369 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ऋ꣡च꣢꣯म्। सा꣡म꣢꣯। य꣣जामहे। या꣡भ्या꣢꣯म्। क꣡र्मा꣢꣯णि। कृ꣣ण्व꣡ते꣢। वि। ते꣡इति꣢। स꣡द꣢꣯सि। रा꣣जतः। यज्ञ꣢म्। दे꣣वे꣡षु꣢। व꣣क्षतः। ३६९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र का देवता ‘ऋक्सामौ’ है, इसमें ऋक् और साम के अध्ययन का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हम (ऋचम्) ऋग्वेद का, और (साम) सामवेद का (यजामहे) अर्थज्ञानपूर्वक तथा गीतिज्ञानपूर्वक अध्ययन करते हैं, और अध्यापन कराते हैं (याभ्याम्) जिनसे अर्थात् जिनका अध्ययन-अध्यापन करके (कर्माणि) तदुक्त कर्मों को वेदपाठी लोग (कृण्वते) करते हैं। (ते) वे ऋग्वेद और सामवेद (सदसि) निवासगृह तथा सभागृह में (राजतः) शोभा पाते हैं, क्योंकि वहाँ उनका पाठ और गान किया जाता है। और वे (देवेषु) विद्वानों में (यज्ञम्) यज्ञ-भावना को (वक्षतः) प्राप्त कराते हैं ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हमें चाहिए कि ऋग्वेद, सामवेद, सामयोनि ऋचा, ऋचा पर किया जानेवाला सामगान, यह सब योग्य गुरुओं से अर्थज्ञानपूर्वक पढ़कर घर में, सभा में और विभिन्न समारोहों के अवसरों पर सस्वर वेदपाठ और सामगान किया करें ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र नाम से और कश्यप नाम से इन्द्र का स्मरण करने से, उसकी अर्चनार्थ प्रेरणा होने से, उसके ध्यान का फल प्रतिपादित होने से, उसके दान की याचना होने से, दिव्य उषा का प्रभाव वर्णित होने से और ऋक् तथा साम के अध्ययन का संकल्प वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
ऋक्सामौ देवते। ऋक्सामाध्ययनविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - वयम् (ऋचम्) ऋग्वेदम् (साम) सामवेदं च (यजामहे) अर्थज्ञानपूर्वकं गीतिज्ञानपूर्वकं च अधीमहे अध्यापयामश्च। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु। संगतिकरणं चात्र अध्ययनं, दानं च अध्यापनम्। (याभ्याम्) ऋक्सामभ्याम्, ययोः अध्ययनेनाध्यापनेन च इत्यर्थः (कर्माणि) तदुक्तानि कर्त्तव्यकर्माणि (कृण्वते) कुर्वन्ति तज्ज्ञाः। (ते) ऋक्साम्नी (सदसि) निवासगृहे सभागृहे च (राजतः) शोभेते, गृहेषु सभासु च तेषां पाठो गानं च क्रियते इत्यर्थः, (देवेषु) विद्वत्सु च (यज्ञम्) यज्ञभावनाम् (वक्षतः) वहतः प्रापयतः। वह प्रापणे धातोर्लेटि रूपम् ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अस्माभिः ऋग्वेदं सामवेदं सामयोनिरूपामृचम् ऋच्यधूढं सामगानं च सर्वमेतद् योग्येभ्यो गुरुभ्योऽर्थज्ञानपूर्वकमधीत्य गृहे सभायां विभिन्नसमारोहेषु च सस्वरं वेदपाठः सामगानं च विधातव्ये ॥१०॥ अत्रेन्द्रनाम्ना कश्यपनाम्ना चेन्द्रस्य स्मरणात्, तदर्चनार्थं प्रेरणात्, तद्ध्यानफलप्रतिपादनात्, तद्दानयाचनात्, दिव्याया उषसः प्रभाववर्णनाद्, ऋक्सामाध्ययनसंकल्पवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. अथ० ७।५४।१ ऋषिः ब्रह्मा, देवते ऋक्साम्नी। ‘कृण्वते’, ‘वि ते’ ‘वक्षतः’ इत्यत्र क्रमेण ‘कुर्वते’, ‘एते’, ‘यच्छतः’ इति पाठः।
28_0369 ऋचं साम - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३६९-१। ऋक्साम्नोस्सामनी द्वे॥ द्वयोः ऋगनुष्टुबिन्द्रः॥
ऋ꣤चꣳ꣥सा꣤꣯म꣥यजा꣤॥ म꣡हाइ। या꣯भ्यां꣯कर्मा꣯णि꣢कृ꣡ण्वाऽ२३ता꣢इ। वि꣡ते꣯सदसि꣢रा꣡꣯जाऽ२३ताः꣢॥ यज्ञं꣡दाऽ२३इवे꣢॥ षू꣡वक्ष꣢तः॥ इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
28_0369 ऋचं साम - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
३६९-२। साम्नस्साम॥ सामानुष्टुबिन्द्रः॥
ऋ꣥चꣳसा꣢ऽ३मा꣤य꣥जा꣤꣯महा꣥इ॥ या꣡भ्यां꣯क꣢र्मा꣯। णिका꣡र्ण्वा꣢ऽ१ताऽ᳒२᳒इ। ण्वा꣡ताऽ᳒२᳒इ। वा꣡इते꣯स꣢द। सिरा꣡जा꣢ऽ१ताऽ᳒२ः᳒। जा꣡ताऽ᳒२ः᳒॥ य꣡ज्ञांदा꣢ऽ१इवेऽ᳒२᳒॥ षू꣡वक्ष꣢तः। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
[[अथ तृतीय खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि꣢श्वाः꣣ पृ꣡त꣢ना अभि꣣भू꣡त꣢रं꣣ न꣡रः꣢ स꣣जू꣡स्त꣢तक्षु꣣रि꣡न्द्रं꣢ जज꣣नु꣡श्च꣢ रा꣣ज꣡से꣢। क्र꣢त्वे꣣ व꣡रे꣢ स्थे꣢म꣢न्या꣣मु꣡री꣢मु꣣तो꣡ग्रमोजि꣢꣯ष्ठं त꣣र꣡सं꣢ तर꣣स्वि꣡न꣢म् ॥ 29:0370 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
विश्वाः॒ पृत॑ना अभि॒भूत॑रं॒ नरं॑ स॒जूस्त॑तक्षु॒रिन्द्रं॑ जज॒नुश्च॑ रा॒जसे॑ ।
क्रत्वा॒ वरि॑ष्ठं॒ वर॑ आ॒मुरि॑मु॒तोग्रमोजि॑ष्ठं त॒वसं॑ तर॒स्विन॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
वि꣡श्वाः꣢꣯। पृ꣡त꣢꣯नाः। अ꣣भिभू꣡त꣢रम्। अ꣣भि। भू꣡त꣢꣯रम्। न꣡रः꣢꣯। स꣣जूः꣢। स꣣। जूः꣢। त꣣तक्षुः। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। ज꣣जनुः꣢। च꣣। राज꣡से꣢। क्र꣡त्वे꣢꣯। व꣡रे꣢꣯। स्थे꣣म꣡नि꣢। आ꣣मु꣡री꣢म्। आ꣣। मु꣡री꣢꣯म्। उ꣣त꣢। उ꣣ग्र꣢म्। ओ꣡जि꣢꣯ष्ठम्। त꣣र꣡स꣢म्। त꣣रस्वि꣡न꣢म्। ३७०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- रेभः काश्यपः
- अति जगती
- निषादः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह वर्णित है कि कैसे परमेश्वर और वीरपुरुष को लोग सम्राट् बनाते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विश्वाः) सब (पृतनाः) शत्रुसेनाओं को (अभिभूतरम्) अतिशय पराजित करने वाले, (वरे) उत्कृष्ट (स्थेमनि) स्थिरता में विद्यमान, (आ मुरीम्) चारों ओर प्रलयकर्ता अथवा विपदाओं के संहारक (उत) और (उग्रम्) प्रचण्ड, (ओजिष्ठम्) सबसे बढ़कर ओजस्वी, (तरसम्) तरने और तराने में समर्थ, (तरस्विनम्) अति बलवान् (इन्द्रम्) परमेश्वर वा वीरपुरुष को (नरः) प्रभुभक्त व राजभक्त लोग (सजूः) इकट्ठे मिलकर (ततक्षुः) स्तुतियों व उत्साह-वचनों से तीक्ष्ण करते हैं (च) और (राजसे) हृदय-साम्राज्य में वा राष्ट्र में राज्य करने के लिए और (क्रत्वे) कर्मयोग की प्रेरणा देने के लिए अथवा कर्म करने के लिए (जजनुः) सम्राट् के पद पर अभिषिक्त करते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘तरसं, तरस्विनम्’ में छेकानुप्रास है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, दुःख, दौर्मनस्य आदि की सेनाओं के पराजेता, अविचल, प्रलयकर्ता, अति ओजस्वी, तारक, बलिष्ठ परमात्मा को उपासकजन अपना हृदय-सम्राट् बनाते हैं, वैसे ही प्रजाजन शत्रुविजयी, दृढ़संकल्पवान् विपत्तिविदारक, संकटों से तरने-तराने में समर्थ शूरवीर मनुष्य को उत्साहित करके राजा के पद पर अभिषिक्त करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशं परमेश्वरं वीरपुरुषं च जनाः सम्राजं जनयन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विश्वाः) समस्ताः (पृतनाः) शत्रुसेनाः (अभिभूतरम्) अतिशयेन अभिभवितारम्, (वरे) उत्कृष्टे (स्थेमनि) स्थैर्ये विद्यमानम्। स्थिरस्य भावः स्थेमा, तस्मिन्। (मुरीम्) समन्ततः प्रलयकर्तारं, विपदां मारयितारं वा, (उत) अपि च (उग्रम्) प्रचण्डम्, (ओजिष्ठम्) अतिशयेन ओजस्विनम्, (तरसम्) तरणसमर्थम्, तारणसमर्थं वा। अत्र ‘अत्यविचमितमि० उ० ३।११७’ इत्यत्र तॄ प्लवनसन्तरणयोः धातोः पाठाभावेऽपि बाहुलकात् असच् प्रत्ययः२। (तरस्विनम्) अतिशयेन बलवन्तम्। तरस् इति बलनाम। निघं० २।९। (इन्द्रम्) परमेश्वरं वीरपुरुषं वा (नरः) उपासका जनाः प्रजाजना वा (सजूः) सजुषः परस्परं संगताः सन्तः। अत्र ‘सुपां सुलुक्० ७।१।३९’ इति जसः सुः। (ततक्षुः) स्तुतिभिरुत्साहकैर्वचनैश्च तीक्ष्णीकुर्वन्ति। (राजसे) हृदयसाम्राज्ये राष्ट्रे वा राज्यं कर्तुम् (क्रत्वे) कर्मयोगाय च। ‘जसादिषु छन्दसि वा वचनम्। अ० ७।३।१८’ वा० इति गुणविकल्पनाद् गुणाभावे यणि रूपम्। (जजनुः च) जनयन्ति च, सम्राट्पदेऽभिषिञ्चन्तीत्यर्थः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘तरसं-तरस्विनम्’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा कामक्रोधलोभमोहदुःखदौर्मनस्यादिसैन्यानामभिभवितारमविचलं प्रलयकर्तारमोजिष्ठं तारकं बलिष्ठं परमात्मानमुपासका जनाः स्वहृदयसम्राजं कुर्वन्ति, तथैव प्रजाजनाः शत्रूणां पराजेतारं दृढसंकल्पं विपद्विदर्तारं संकटेभ्यस्तरणतारणसमर्थं शूरं नरं समुत्साह्य राजपदेऽभिषिञ्चन्तु ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९७।१०, अथ० २०।५४।१ उभयत्र ‘नरः’ इत्यत्र ‘नरं’, उत्तरार्धे च ‘क्रत्वावरिष्ठं वर आमुरिमुतोग्रमोजिष्ठं तवसं तरस्विनम्’ इति पाठः। साम० ९३०। २. द्रष्टव्या, उणादिकोषस्य उक्तसूत्रे दयानन्दटीका—‘बाहुलकात् तरतीति तरसम् मांसं वा’ इति।
29_0370 विश्वाः पृतना - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३७०-१। त्रैशोकम्॥ त्रिशोको जगतीन्द्रः॥वि꣥श्वो꣤हाइ॥ पृ꣡तना꣢꣯अभिभू꣡꣯। त꣢र꣣न्न꣢राः꣡। स꣢जू꣡꣯स्तत꣢क्षुरा꣡इन्द्रञ्ज꣢जनूः꣡। च꣢रा꣯जा꣡सोऽ२३४हा꣥इ। क्र꣢त्वौ꣡꣯होइ। व꣢रौ꣡꣯होइ। स्थे꣯मन्याऽ२᳐मू꣣ऽ२३४री꣥म्॥ उतो꣤हाइ॥ उ꣢ग्र꣡मोऽ२३४जी꣥। ष्ठं꣢ता᳐रा꣣ऽ२३४सा꣥म्। हो꣢इ᳐। त꣣रा꣢ऽ३४। स्विनम्। ओ꣥ऽ६वा꣥॥ ओ꣢इ᳐दी꣣ऽ२३४वा꣥॥