[[अथ षष्ठप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
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अ꣡रं꣢ त इन्द्र꣣ श्र꣡व꣢से ग꣣मे꣡म꣢ शूर꣣ त्वा꣡व꣢तः। अ꣡र꣢ꣳ शक्र꣣ प꣡रे꣢मणि ॥ 16:0209 ॥
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पदपाठः
अ꣡र꣢꣯म्। ते꣣। इन्द्र। श्र꣡व꣢꣯से। ग꣣मे꣡म꣢। शू꣣र। त्वा꣡व꣢꣯तः। अ꣡र꣢꣯म्। श꣣क्र। प꣡रे꣢꣯मणि। २०९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा से प्रार्थना की गई है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शूर) विक्रमी (इन्द्र) ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! हम (त्वावतः) जिसके तुल्य अन्य कोई न होने से जो तू अपने समान ही है, ऐसे (ते) तेरे (श्रवसे) यश को पाने के लिए अथवा यशोगान के लिए (अरम्) पर्याप्तरूप से, तुझे (गमेम) प्राप्त करें। हे (शक्र) शक्तिशालिन्, सब कार्यों को करने में समर्थ जगदीश्वर ! हम (परेमणि) जिससे तेरा साक्षात्कार होता है, उस परा विद्या में (अरम्) पर्याप्तरूप में (गमेम) पारंगत हों ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अनुपम परमेश्वर का कीर्तिगान करने और उसके स्वरूप का हस्तामलकवत् साक्षात्कार करने में सबको प्रवृत्त होना चाहिए। केवल अपरा नामक विद्या की प्राप्ति से ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिए, प्रत्युत परा विद्या भी सीखनी चाहिए ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रं परमात्मानं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शूर) विक्रमशालिन् (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! वयम् (त्वावतः१) त्वत्सदृशस्य (ते) तव (श्रवसे२) यशसे, त्वदीयं यशः प्राप्तुं, त्वदीयं यशो गातुं वेत्यर्थः। श्रवः श्रवणीयं यशः। निरु० ११।९। (अरम्) अलम् पर्याप्तम्, रलयोरभेदः। त्वाम् (गमेम) गच्छेम, प्राप्नुयाम। अत्र गम्लृधातोर्लिङि बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुकि गच्छादेशाभावः। हे (शक्र) शक्तिशालिन् सर्वकर्मक्षम जगदीश्वर ! शक्लृ शक्तौ धातोः स्फायितञ्चिवञ्चिशकि० उ० २।१३ इति रक् प्रत्ययः। वयम् (परेमणि३) परत्वे, अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते मु० उप० २।५ इति लक्षणलक्षितायां पराविद्यायामित्यर्थः। परस्य भावः परेमा तस्मिन् परेमणि। जनिमृङ्भ्यामिमनिन् उ० ४।१५० इत्यत्र परशब्दस्य पाठाभावेऽपि बाहुलकाद् औणादिकः इमनिन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (अरम्) पर्याप्तम्, गमेम पारंगता भवेम ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अनुपमस्य परमेश्वरस्य कीर्तिं गातुं परमं स्वरूपं च हस्तामलकवत् साक्षात्कर्तुं सर्वैः प्रवर्तितव्यम्, न केवलमपराख्याया विद्यायाः प्राप्त्या सन्तोष्टव्यम्, प्रत्युत पराविद्याप्यधिगन्तव्या ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. द्रष्टव्यम्—१९३ संख्यकमन्त्रेऽस्य शब्दस्य व्याख्यानम्। २. ते तव श्रवसे श्रवणीयां त्वदीयां कीर्तिं श्रोतुम्—इति सा०। ३. अयं शब्दो वेदेषु न क्वचिदन्यत्र प्रयुक्तः। “परम् उत्कृष्टं स्वर्गाख्यं स्थानम्। तत्र गम्यते येन सः परेमा यज्ञः ज्योतिष्टोमादिः तत्रेत्यर्थः”—इति वि०। पॄ पालनपूरणयोः इत्यस्मात् परेमा, तस्मिन्निमित्ते तद्रक्षणार्थं च अरं गमेमहि—इति भ०। परेमणि, परत्वे उत्कर्षनिमित्तम्—इति सा०। परेमणि परमुत्कृष्टं मोक्षपदं गम्यते येन तस्मिन् समाधौ—इति तुलसी। परात् परस्मिंस्त्वयि अरम् अलं तिष्ठेम, त्वय्येव वयमनुरक्ता भवेम—इति भगवदाचार्यः। पर अभीष्ट मोक्षस्वरूप के निमित्त—इति ब्रह्ममुनिः।
16_0209 अरं त - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०९-१। आभीशवम्॥ अभीशुः गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥रन्तइन्द्रश्रवसे꣯ए। ए॥ ग꣢मा꣡इमशू꣢꣯रत्वा꣡꣯वता꣢ऽ३ः। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ अ꣡राꣳशा꣢ऽ१क्राऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ परा꣡इमाऽ२३णा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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धा꣣ना꣡व꣢न्तं कर꣣म्भि꣡ण꣢मपू꣣प꣡व꣢न्तमु꣣क्थि꣡न꣢म्। इ꣡न्द्र꣢ प्रा꣣त꣡र्जु꣢षस्व नः ॥ 17:0210 ॥
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धा॒नाव॑न्तं कर॒म्भिण॑मपू॒पव॑न्तमु॒क्थिन॑म् ।
इन्द्र॑ प्रा॒तर्जु॑षस्व नः ॥
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पदपाठः
धा꣣ना꣡व꣢न्तम्। क꣣रम्भि꣡ण꣢म्। अ꣣पूप꣡व꣢न्तम्। उ꣣क्थि꣡न꣢म्। इ꣡न्द्र꣢꣯। प्रा꣣तः꣢। जु꣣षस्व। नः। २१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और विद्वान् अतिथि को बुलाया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—विद्वान् अतिथि के पक्ष में।हे (इन्द्र) विद्वन् ! आप (प्रातः) इस प्रभातकाल में (नः) हमारे (धानावन्तम्) भुने हुए जवों से युक्त, (करम्भिणम्) घृतमिश्रित सत्तुओं से युक्त, (अपूपवन्तम्) घी मिले जौ या चावल के पूड़ों से युक्त और(उक्थिनम्) वेदमन्त्रों के स्तोत्रों से युक्त यज्ञ में (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक आइए ॥ द्वितीय—अध्यात्म-पक्ष में।हे (इन्द्र) परमात्मन् ! आप (प्रातः) प्रभात-वेला में (नः) हमारे (धानावन्तम्) धारणा, ध्यान, समाधियों से युक्त अर्थात् उपासनाकाण्ड से युक्त, (करम्भिणम्) कर्मकाण्ड से युक्त, (अपूपवन्तम्) ज्ञानकाण्ड से युक्त और(उक्थिनम्) सामगान से युक्त उपासना-यज्ञ को (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि वे जौ, सत्तू, पूड़े आदि सुगन्धित, मधुर, पुष्टिप्रद तथा आरोग्यदायक द्रव्यों का अग्नि में होम करके वायुमण्डल को स्वच्छ करें। इसी प्रकार ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड का आश्रय लेकर सामगान करते हुए परमात्मा की पूजा करें। इससे अभ्युदय और मोक्ष को साधें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा विद्वानतिथिश्चाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—विद्वत्परः। हे (इन्द्र) विद्वन् ! त्वम् (प्रातः) प्रभातकालेऽस्मिन् (नः) अस्माकम् (धानावन्तम्) धानाः भृष्टयवाः तद्वन्तम्, (करम्भिणम्) करम्भो घृतमिश्रिताः सक्तवः तद्वन्तम्, (अपूपवन्तम्) अपूपः घृतमिश्रो यवमयस्तण्डुलमयो वा पुरोडाशः तद्वन्तम्, (उक्थिनम्) स्तोत्रवन्तम् यज्ञम्। उच्यते इति उक्थः स्तोत्रम्। ततो मत्वर्थे इनिः प्रत्ययः। त्वम् (जुषस्व) प्रीतिपूर्वकं सेवस्व। जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन्, त्वम् (प्रातः) प्रभातवेलायाम् (नः) अस्माकम् (धानावन्तम्) धानाः धारणाध्यानसमाधयः तद्वन्तम्, उपासनाकाण्डयुक्तम् इत्यर्थः। (करम्भिणम्) करम्भः कर्मकाण्डं तद्वन्तम्। करोतेर्बाहुलकाद् औणादिकोऽम्भच् प्रत्ययः। (अपूपवन्तम्) अपूपो ज्ञानकाण्डं, तद्वन्तम्। आप्नोति व्याप्नोति जिज्ञासून् इत्यपूपो ज्ञानम्। (उक्थिनम्) सामगानयुक्तम् उपासनायज्ञम् (जुषस्व) प्रीतिपूर्वकं (सेवस्व) ॥७॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैर्मनुष्यैर्यवसक्त्वपूपादीनि सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यकराणि द्रव्याण्यग्नौ हुत्वा वायुमण्डलं स्वच्छं विधेयम्। तथैव ज्ञानकर्मोपासनाकाण्डमाश्रित्य सामगानं कुर्वद्भिः परमात्मा पूजनीयः। एतेन चाभ्युदयनिः श्रेयसयोः सिद्धिः साधनीया ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ३।५२।१, य० २०।२९। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये राजविषये, यजुर्भाष्ये च विद्वद्विषये व्याख्यातः।
17_0210 धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१०-१। पौषम्॥ पूषा गायत्रीन्द्रः॥
धा꣥꣯ना꣯व꣣न्तं꣢क꣣र꣤म्भि꣥णाम्॥ अ꣡पू꣯पवन्तमू꣢ऽ१क्थी꣢ऽ३ना꣢म्॥ इन्द्रा᳐प्रा꣣ऽ२३४ताः꣥। ओ꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ जु꣤षोवा꣥। स्वा꣤ऽ५नोऽ६"हा꣥इ॥
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अ꣣पां꣡ फेने꣢꣯न꣣ न꣡मु꣢चे꣣ शि꣡र꣢ इ꣣न्द्रो꣡द꣢वर्तयः। वि꣢श्वा꣣ य꣡दज꣢꣯य꣣ स्पृ꣡धः꣢ ॥ 18:0211 ॥
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अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चेः॒ शिर॑ इ॒न्द्रोद॑वर्तयः ।
विश्वा॒ यदज॑यः॒ स्पृधः॑ ॥
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पदपाठः
अ꣣पा꣢म्। फे꣡ने꣢꣯न। न꣡मु꣢꣯चेः। न। मु꣣चेः। शि꣡रः꣢꣯। इ꣣न्द्र। उ꣢त्। अ꣣वर्तयः। वि꣡श्वाः꣢꣯। यत्। अ꣡ज꣢꣯यः। स्पृ꣡धः꣢꣯। २११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा, जीवात्मा, वैद्य, राजा और सेनापति किस प्रकार नमुचि का संहार करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् व जीवात्मन् ! तुम (अपां फेनेन) पानी के झाग के समान स्वच्छ सात्त्विक चित्त की तरङ्ग से (नमुचेः) न छोड़नेवाले, प्रत्युत दृढ़ता से अपना पैर जमा लेनेवाले पाप के(शिरः) सिर को अर्थात् ऊँचे उठे प्रभाव को (उदवर्तयः) पृथक् कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) पापरूप नमुचि के सहायक काम-क्रोध आदि शत्रुओं की स्पर्धाशील सेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥ द्वितीय—आयुर्वेद के पक्ष में।हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य ! आप (अपां फेनेन) समुद्रफेन रूप औषध से (नमुचेः) शरीर को न छोड़नेवाले, दृढ़ता से जमे रोग के (शिरः) हानिकारक प्रभाव को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) स्पर्धालु, रोग-सहचर वेदना, वमन, मूर्छा आदि उत्पातों को (अजयः) जीतते हो ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में।हे (इन्द्र) वीर राजन् ! आप (अपाम्) राष्ट्र में व्याप्त प्रजाओं के (फेनेन) कर-रूप से प्राप्त तथा चक्रवृद्धि ब्याज आदि से बढ़े हुए धन से (नमुचेः) राष्ट्र को न छोड़नेवाले, प्रत्युत राष्ट्र में व्याप्त होकर स्थित दुःख, दरिद्रता आदि के (शिरः) सिर को, उग्रता को (उदवर्तयः) उच्छिन्न कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) समस्त (स्पृधः) हिंसा, रक्तपात, लूट-पाट, ठगी, तस्कर-व्यापार आदि स्पर्धालु वैरियों को (अजयः) पराजित कर देते हो ॥ चतुर्थ—सेनापति के पक्ष में। हे (इन्द्र) सूर्यवत् विद्यमान शत्रुविदारक सेनापति ! आप (अपां फेनेन) जलों के झाग के समान उज्ज्वल शस्त्रास्त्र-समूह के द्वारा (नमुचेः) न छोड़नेवाले शत्रु के (शिरः) सिर को (उदवर्तयः) धड़ से अलग कर देते हो, (यत्) जब (विश्वाः) सब (स्पृधः) स्पर्धा करनेवाली शत्रुसेनाओं को (अजयः) जीतते हो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे कोई वैद्यराज समुद्रफेन औषध से रोग को नष्ट करता है, जैसे राजा प्रजा से कर-रूप में प्राप्त हुए धन से प्रजा के दुःखों को दूर करता है और जैसे सेनापति शस्त्रास्त्र-समूह से शत्रु का सिर काटता है, वैसे ही परमेश्वर और जीवात्मा मनुष्य के मन की सात्त्विक वृत्तियों से पाप को उन्मूलित करते हैं ॥८॥ यहाँ सायणाचार्य ने यह इतिहास प्रदर्शित किया है—पहले कभी इन्द्र असुरों को जीतकर भी नमुचि नामक असुर को पकड़ने में असमर्थ रहा। उल्टे नमुचि ने ही युद्ध करते हुए इन्द्र को पकड़ लिया। पकड़े हुए इन्द्र को नमुचि ने कहा कि तुझे मैं इस शर्त पर छोड़ सकता हूँ कि तू मुझे कभी न दिन में मारे, न रात में, न सूखे हथियार से मारे, न गीले हथियार से। जब इन्द्र ने यह शर्त मान ली तब नमुचि ने उसे छोड़ दिया। उससे छूटे हुए इन्द्र ने दिन-रात की सन्धि में झाग से उसका सिर काटा (क्योंकि दिन-रात की सन्धि न दिन कहलाती है, न रात, और झाग भी न सूखा होता है, न गीला)।’’ यह इतिहास दिखाकर सायण कहते हैं कि यही विषय इस ऋचा में प्रतिपादित है। विवरणकार माधव ने भी ऐसा ही इतिहास वर्णित किया है। असल में तो यह कल्पित कथानक है, सचमुच घटित कोई इतिहास नहीं है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मा, जीवात्मा, भिषग्, राजा च कथं नमुचिं घ्नन्तीत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् जीवात्मन् वा ! त्वम् (अपां फेनेन) जलफेनवत् स्वच्छेन सात्त्विकचित्ततरङ्गेण (नमुचेः) न मुञ्चति, किन्तु सुदृढं बध्नातीति नमुचिः पाप्मा तस्य। पाप्मा वै नमुचिः। श० १२।७।३।४। (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धवदुन्नतं प्रभावम् (उदवर्त्तयः२) उच्छिनत्सि। उत् पूर्वो वृतु वर्तने णिजन्तः, लडर्थे लङ्। (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) पापाचरणस्य सहायभूताः कामक्रोधादिशत्रूणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि। जि जये धातोः कालसामान्ये लङ् ॥ अथ द्वितीयः—आयुर्वेदपरः। हे (इन्द्र) रोगविदारक वैद्य३ ! त्वम् (अपां फेनेन) समुद्रफेनरूपेण भेषजेन (नमुचेः) शरीरे दृढमवस्थितस्य रोगस्य (शिरः) हिंसकं प्रभावम्। शृणाति हिनस्तीति शिरः, शॄ हिंसायाम् क्र्यादिः। (उदवर्तयः) उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) रोगसहचराणां वेदनावमनमूर्च्छादीनामुत्पातानां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि ॥ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। हे (इन्द्र) वीर राजन् ! त्वम् (अपां) राष्ट्रे व्याप्तानां प्रजानाम्, (फेनेन४) कररूपतया प्राप्तेन चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितेन धनेन। स्फायी वृद्धौ धातोः फेनमीनौ उ० ३।३ इति नक् प्रत्ययो धातोः फे आदेशश्च निपात्यते। (नमुचेः) राष्ट्रं न मुञ्चतः प्रत्युत व्याप्य स्थितस्य दुःखदारिद्र्यदुर्भिक्षमहारोगादेः (शिरः) मूर्धानम्, मूर्धोपलक्षितम् उग्रत्वम् (उदवर्तयः) उद् वर्तयसि उच्छिनत्सि, (यत्) यदा (विश्वाः) समस्ताः (स्पृधः) हिंसारक्तपातलुण्ठनवञ्चनतस्करत्वादीनां वैरिणां स्पर्धमानाः सेनाः (अजयः) जयसि पराभवसि ॥ अथ चतुर्थः—सेनाध्यक्षपरः। हे (इन्द्र) सूर्य इव वर्तमान शत्रुविदारक सेनेश ! त्वम् (अपां फेनेन) जलानां फेनवद् विद्यमानेन उज्ज्वलेन शस्त्रास्त्रसमूहेन (नमुचेः)आक्रमणं न मुञ्चतः शत्रोः (शिरः) मूर्धानम् (उदवर्तयः) कबन्धात् पृथक् करोषि, (यत्) यदा (विश्वाः) सर्वाः (स्पृधः) स्पर्धमानाः रिपुसेनाः (अजयः) पराजयसे ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः। उपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा कश्चिद् वैद्यराजः अपां फेनेन भेषजेन रोगं हन्ति, यथा वा राजा प्रजायाः सकाशात् कररूपतया प्राप्तेन वर्धितेन च धनेन प्रजाया दुःखं दूरीकरोति, यथा वा सेनाध्यक्षः शस्त्रास्त्रजालेन शत्रोः शिरः कर्तयति, तथैव परमेश्वरो जीवात्मा वा मनुष्यस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिः पाप्मानमुच्छिनत्ति ॥८॥ अत्र सायणाचार्य इममितिहासं प्रदर्शयति—“पुराकिलेन्द्रोऽसुरान् जित्वा नमुचिमसुरं ग्रहीतुं न शशाक। स च युध्यमानस्तेनासुरेण जगृहे। स च गृहीतमिन्द्रमेवमवोचत् त्वां विसृजामि रात्रावह्नि च शुष्केणार्द्रेण चायुधेन यदि मां मा हिंसीरिति। स इन्द्रस्तेन विसृष्टः सन् अहोरात्रयोः सन्धौ शुष्कार्द्रविलक्षणेन फेनेन तस्य शिरश्चिच्छेद। अयमर्थोऽस्यां प्रतिपाद्यते” इति। विवरणकारेणापि तादृश एवेतिहासो वर्णितः। वस्तुतस्तु कल्पितं कथानकमेतन्न सत्यमेव घटितः कश्चिदितिहास इति बोध्यम् ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१४।१३, य० १९।७१, ऋषिः शङ्खः। अथ० २०।२९।३। २. उदवर्तयः उद्वर्तितवान् छिन्नवानित्यर्थः—इति वि०। उद्वर्तनं विशरणम्—इति भ०। शरीरादुद्गतमवर्तयः अच्छैत्सीरित्यर्थः—इति सा०। ३. (इन्द्र) आयुर्वेदविद्यायुक्त इति ऋ० २।११।११ भाष्ये द०। ४. (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् इति ऋ० १।१०४।३ भाष्ये द०। ५. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मन्त्रमेतम् अथ सेनेशः कीदृशः स्यादिति विषये व्याचष्टे। यथा सूर्यो मेघम् उच्छिनत्ति तथा सेनेशः सर्वाः शत्रुसेना उच्छिन्द्यादिति तदीयः—अभिप्रायः।
18_0211 अपां फेनेन - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२११-१। इन्द्रस्य क्षुरपवि॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥पां꣤꣯फे꣯ने꣥꣯नन꣤मु꣥चेः꣤॥ शि꣡रइ꣢। द्रो꣡त्। अ꣪वाऽ२᳐र्त्ता꣣ऽ२३४याः꣥॥ वा꣡इश्वाऽ२३ः॥ या꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ज꣢यस्पृ꣡धा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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इ꣣मे꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣡माआः सु꣣ता꣢सो꣣ ये꣢ च꣣ सो꣡त्वाः꣢। ते꣡षां꣢ मत्स्व प्रभूवसो ॥ 19:0212 ॥
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पदपाठः
इ꣣मे꣢। ते꣣। इन्द्र। सो꣡माः꣢꣯। सु꣣ता꣡सः꣢। ये। च꣣। सो꣡त्वाः꣢꣯। ते꣡षा꣢꣯म्। म꣣त्स्व। प्रभूवसो। प्रभु। वसो। २१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमरसों के प्रति निमन्त्रित किया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (ते) आपके लिए (इमे) ये वर्तमान काल में प्रस्तुत (सोमाः) हमारे मैत्रीरस हैं, (ये) जो (सुतासः) भूतकाल में भी निष्पादित हो चुके हैं, (सोत्वाः च) और भविष्य में भी निष्पादित होते रहेंगे। हे (प्रभूवसो) प्रचुर रूप से हमारे अन्दर सद्गुणों के बसानेवाले परमात्मन् ! आप (तेषाम्) उनसे (मत्स्व) प्रमुदित हों ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ते) तेरे लिए (इमे) ये वर्तमान काल में प्रस्तुत (सोमाः) ज्ञानरस, कर्मरस और श्रद्धारस हैं, (ये) जो (सुतासः) पहले भूतकाल में भी निष्पादित हो चुके हैं, (सोत्वाः च) और भविष्य में भी निष्पादित किये जानेवाले हैं। हे (प्रभूवसो) मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि को बहुत अधिक बसानेवाले जीवात्मन् ! (तेषाम्) उन रसों से (मत्स्व) तृप्ति प्राप्त कर, अर्थात् ज्ञानवान्, कर्मण्य और श्रद्धावान् बन ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सबको चाहिए कि उपासकों के मन में सद्गुणों को बसानेवाले, दिव्य धन के स्वामी परमेश्वर को सब कालों में मैत्री-रस से सिक्त करें और अपने आत्मा को ज्ञानरसों, कर्मरसों और श्रद्धारसों से तृप्त करें ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः सोमान् प्रत्याहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमे) एते (ते) तुभ्यम् (सोमाः) अस्माकं मैत्रीरसाः, सन्तीति (शेषः), (ये) मैत्रीरसाः (सुतासः) पूर्वमपि अभिषुताः। आज्जसेरसुक्। अ० ७।१।५० इति सुतप्रातिपदिकाज्जसोऽसुगागमः, (सोत्वाः च) इतः परम् अभिषोतव्याः च। षुञ् अभिषवे धातोः ‘कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः। अ० ३।४।१४’ इति त्वन् प्रत्ययः। हे (प्रभूवसो) प्रभूततया सद्गुणानां वासयितः परमात्मन् ! प्रभु प्रचुरं यथा स्यात् तथा वासयतीति प्रभूवसुः। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः, सम्बुद्धिस्वरः। त्वम् (तेषाम्) तैः। तृतीयार्थे षष्ठी। (मत्स्व) प्रमोदस्व। मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः। आत्मनेपदं छान्दसम् ॥ अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ते) तुभ्यम् (इमे) एते (सोमाः) ज्ञानरसाः कर्मरसाः श्रद्धारसाश्च सन्ति, (ये सुतासः) पूर्वम् अभिषुताः, (सोत्वाः च) इतः परम् अभिषोतव्याश्च। हे (प्रभूवसो) मनोबुद्धीन्द्रियादीनां प्रचुरतया वासयितः ! त्वम् (तेषाम्) तैः रसैः (मत्स्व) तृप्तिं लभस्व। ज्ञानवान्, कर्मवान्, श्रद्धावांश्च भवेति भावः ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासकानां मनसि सद्गुणानां वासयिता दिव्यवसुः परमेश्वरः सर्वकालेषु सर्वैर्भक्तिरसेन सेचनीयः, स्वात्मा च ज्ञानरसैः, कर्मरसैः, श्रद्धारसैश्च तर्पणीयः ॥९॥
19_0212 इमे त - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१२-१। सौमित्रे द्वे॥ सुमित्रो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥मे꣯तआ॥ द्र꣢सो꣡꣯माः। होवा꣢ऽ३हो꣡इ। सु꣢ता꣡꣯सो꣯ये꣢ऽ३। चा꣡सो꣢तू꣣ऽ२३४वाः꣥॥ ते꣣ऽ४षा꣥꣯म्। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ मा꣡त्स्वप्र꣢भू꣡ऽ२३४वा꣥॥ वा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तु꣡भ्य꣢ꣳ सु꣣ता꣢सः꣣ सो꣡माः꣢ स्ती꣣र्णं꣢ ब꣣र्हि꣡र्वि꣢भावसो। स्तो꣣तृ꣡भ्य꣢ इन्द्र मृडय ॥ 20:0213 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तुभ्यं॒ सोमाः॑ सु॒ता इ॒मे स्ती॒र्णं ब॒र्हिर्वि॑भावसो ।
स्तो॒तृभ्य॒ इन्द्र॒मा व॑ह ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
तु꣡भ्य꣢꣯म्। सु꣣ता꣡सः꣢। सो꣡माः꣢꣯। स्ती꣣र्ण꣢म्। ब꣣र्हिः꣢। वि꣣भावसो। विभा। वसो। स्तो꣡तृभ्यः꣢। इ꣣न्द्र। मृडय। २१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि परमेश्वर स्तोताओं को सुख प्रदान करे।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (विभावसो) तेज रूप धनवाले परमेश्वर ! (तुभ्यम्) आपके लिए (सोमाः) हमारे प्रीतिरस (सुतासः) निष्पादित किये गये हैं, और (बर्हिः) हृदयरूप आसन (स्तीर्णम्) बिछाया गया है। हृदयासन पर बैठकर, हमारे प्रीतिरूप सोमरसों का पान करके, हे (इन्द्र) परमेश्वर्यशाली परब्रह्म ! आप (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (मृडय) आनन्द प्रदान कीजिए ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की उपासना से और उसके प्रति अपना प्रेमभाव समर्पण करने से उपासकों को ही सुख मिलता है॥१०॥ इस दशति में इन्द्र का तरणि आदि रूप में वर्णन होने से, इन्द्र के सहचारी मित्र, मरुत् और अर्यमा की प्रशंसा होने से, इन्द्र द्वारा जल-फेन आदि साधन से नमुचि का सिर काटने आदि का वर्णन होने से और इन्द्र नाम से विद्वान्, वैद्य, राजा और सेनापति आदि के अर्थों का भी प्रकाश होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरः स्तोतॄन् सुखयेदिति प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (विभावसो) दीप्तिधन परमेश्वर ! (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (सोमाः) अस्माकं प्रीतिरसाः (सुतासः) सुताः अभिषुताः सन्ति, (बर्हिः) हृदयरूपं दर्भासनं च (स्तीर्णम्) प्रसारितम्। स्तॄञ् आच्छादने, क्र्यादिः, निष्ठायां रूपम्। हृदयासने निषद्य अस्माकं प्रीतिरूपान् सोमरसान् पीत्वा च, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परब्रह्म ! त्वम् (स्तोतृभ्यः) स्तुतिं कुर्वद्भ्योऽस्मभ्यम् (मृडय) सुखं प्रयच्छ। मृड सुखने तुदादिर्वेदे चुरादिरपि दृश्यते। ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्योपासनेन तं प्रति स्वप्रीतिसमर्पणेन चोपासकानामेव सुखं जायते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य तरण्यादिरूपेण वर्णनाद्, इन्द्रसहचारिणां मित्रमरुदर्यम्णां प्रशंसनाद्, इन्द्रद्वाराऽपां फेनादिना नमुच्यादेः शिरःकर्तनादिवर्णनात्, सोमं पातुमिन्द्राह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना विद्वद्वैद्यनृपतिसेनापत्यादीनां चाप्यर्थप्रकाशनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विभावनीयम् ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये दशमः खण्डः ॥
20_0213 तुभ्यं सुतासः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१३-१।
तु꣤भ्यꣳहा꣥उ॥ सु꣢ता꣡꣯सस्सो꣯माः꣯। स्ती꣯र्णंबाऽ२३र्हीः꣢। वि꣡भाऽ᳒२᳒होऽ१इ। वाऽ२३सा꣢उ॥ स्तो꣡ता꣢ऽ३उवा꣢ऽ३॥ भ्य꣡आऽ२᳐इ। द्र꣣मॄ꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ डा꣣ऽ२३४या꣥॥
[[अथ एकादश खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢ व꣣ इ꣢न्द्र꣣ कृ꣢विं꣣ य꣡था꣢ वाज꣣य꣡न्तः꣢ श꣣त꣡क्र꣢तुम्। म꣡ꣳहि꣢ष्ठꣳसिञ्च꣣ इ꣡न्दु꣢भिः ॥ 21:0214 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ व॒ इन्द्रं॒ क्रिविं॑ यथा वाज॒यन्तः॑ श॒तक्र॑तुम् ।
मंहि॑ष्ठं सिञ्च॒ इन्दु॑भिः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। वः꣣। इ꣢न्द्र꣢꣯म्। कृ꣡वि꣢꣯म्। य꣡था꣢꣯। वा꣣जय꣡न्तः꣢। श꣣त꣡क्र꣢तुम्। श꣣त꣢। क्र꣣तुम्। मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम्। सि꣣ञ्चे। इ꣡न्दु꣢꣯भिः। । २१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनःशेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में परमात्मा के प्रति मनुष्यों का कर्त्तव्य वर्णित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे साथियो ! (वाजयन्तः) बल, विज्ञान या ऐश्वर्य की इच्छा करते हुए (वः) तुम लोग (शतक्रतुम्) बहुत ज्ञानी और बहुत से कर्मों को करनेवाले, (इन्द्रम्) परमात्मा को (इन्दुभिः) भक्तिरसों से (आ) आसिञ्चित करो। जैसे (वाजयन्तः) अन्नों की उत्पत्ति चाहनेवाले किसान लोग (कृविम्) कृत्रिम कुएँ को खेतों में सिंचाई करने के लिए (इन्दुभिः) जलों से भरते हैं, उसी प्रकार मैं भी (मंहिष्ठम्) अतिशय दानी, सबसे महान् और पूज्यतम उस परमात्मा को (इन्दुभिः) भक्तिरसों से (सिञ्चे) सींचता हूँ ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमात्मा के साथ मित्रता करते हैं, वे सदा आनन्दित होते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं प्रति जनानां कर्तव्यमुच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः ! (वाजयन्तः) वाजं बलम् विज्ञानम् ऐश्वर्यं वा आत्मनः कामयमानाः (वः) यूयम् (शतक्रतुम्) बहुप्रज्ञं बहुकर्माणं वा (इन्द्रम्) परमात्मानम् (इन्दुभिः) भक्तिरूपैः सोमरसैः (आ) आसिञ्चत। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। यथा (वाजयन्तः२) अन्नोत्पत्तिं कामयमानाः कर्षकाः। वाज इत्यन्ननाम। निघं० २।७। (कृविम्३) कृत्रिमं कूपम्। कृविरिति कूपनाम। निघं० ३।१३। (इन्दुभिः) उदकैः सिञ्चन्ति तद्वत्। इन्दुरित्युदकनाम। निघं० १।१२। अहमपि (मंहिष्ठम्) दातृतमम्, महत्तमं पूज्यतमं वा तम् इन्द्रं परमात्मानम्। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। महि वृद्धौ, भ्वादिः। अतिशयेन मंहिता मंहिष्ठः। महयतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। (इन्दुभिः) भक्तिरूपैः सोमरसैः (सिञ्चे) आ सिञ्चामि ॥१॥४ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये परमात्मना सह मैत्रीं विदधति ते सदाऽऽनन्दिता जायन्ते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३०।१। २. भाष्यकारैः ‘वाजयन्तः सिञ्चे’ इत्यत्र व्यत्ययः स्वीकृतः। “वाजयन्तः इति वचनव्यत्ययः। वाजम् अन्नम् इच्छन् अहम्। अथवा आ सिञ्चे इत्यत्र वचनव्यत्ययः। आसिञ्चामः”—इति भ०। अस्मद्व्याख्याने तु व्यत्ययं विनैव कार्यनिर्वाहः। ३. कृविरिति कूपनाम। तत्सामीप्याद् आवाहकोऽपि क्रिविरुच्यते। यथा कश्चिद् आवाहकम् उदकेन आसिञ्चति तद्वदित्यर्थः—इति वि०। कृविं कूपं यथा अद्भिः आसिञ्चति कृत्रिमं तद्वत् इन्दुभिः त्वाम् आसिञ्चामि—इति भ०। कृती छेदने, कृत्यते छिद्यते खन्यते इति कृविः कृषिः। तां जलेन पूरयन्ति तद्वत्—इति सा०। ४. अत्र इन्द्रशब्देन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते इति ऋग्भाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने दयानन्दः। तत्र मन्त्रः कृषीबलस्य वायूनां च दृष्टान्तेन सभाध्यक्षपरो व्याख्यातः।
21_0214 आ व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१४-१। कौत्से द्वे॥ कुत्सो गायत्रीन्द्रः॥
आ꣥꣯वइन्द्राम्॥ कृ꣢विं꣡यथा। वा꣯जयाऽ२३न्ताः꣢। शता꣡क्रतुम्॥ मꣳहिष्ठाऽ२३ꣳसी꣢। चा꣡या꣭ऽ३उवा꣢ऽ३इ॥ दूऽ२३४भीः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡त꣢श्चिदिन्द्र न꣣ उ꣡पा या꣢꣯हि श꣣त꣡वा꣢जया। इ꣣षा꣢ स꣣ह꣡स्र꣢वाजया ॥ 22:0215 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अत॑श्चिदिन्द्र ण॒ उपा या॑हि श॒तवा॑जया ।
इ॒षा स॒हस्र॑वाजया ॥
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पदपाठः
अ꣡तः꣢꣯। चि꣣त्। इन्द्र। नः। उ꣡प꣢꣯। आ। या꣣हि। शत꣡वा꣢जया। श꣣त꣢। वा꣣जया। इषा꣢। स꣣ह꣡स्र꣢वाजया। स꣣ह꣡स्र꣢। वा꣣जया। । २१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्ष आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र किन वस्तुओं के साथ हमें प्राप्त हो।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अतः चित्) इसीलिए, अर्थात् क्योंकि हम पूर्वमन्त्रोक्त रीति से बलादि की कामना करते हुए आपको अपने मैत्रीरसों से सींचते हैं, इस कारण हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! आप (शतवाजया) सैंकड़ों बलों से युक्त और (सहस्रवाजया) सहस्रों विज्ञानों से युक्त (इषा) अभीष्ट आनन्दरस की धारा के साथ (नः) हमें (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक धनपति राजन् ! आप (अतः चित्) इस अपनी राजधानी से (शतवाजया) बहुत बल और वेगवाली तथा (सहस्रवाजया) सहस्र संग्राम करने में समर्थ (इषा) सेना के साथ (नः) शत्रुओं से पीड़ित हम प्रजाजनों को (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥ तृतीय—आचार्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) अविद्या के विदारक और ज्ञान-धन से सम्पन्न आचार्यप्रवर ! (त्वम्) आप (अतः चित्) इस अपनी कुटी से (शतवाजया) प्रचुर बल से युक्त, (सहस्रवाजया) बहुत ज्ञान से युक्त (इषा) ब्रह्मचर्यादि व्रतपालन की प्रेरणा के साथ (नः) हम शिष्यों को (उप आयाहि) प्राप्त हों ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, और उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है। ‘वाजया’ इस भिन्नार्थक शब्द की एक बार आवृत्ति होने से यमक अलङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे राजा बलवती, संग्रामकुशल सेना के साथ प्रजाजनों को और आचार्य बलविद्यायुक्त सदाचार-प्रेरणा के साथ शिष्यों को प्राप्त होता है, वैसे ही परमात्मा बलविज्ञानयुक्त आनन्दरस की धारा के साथ हमें प्राप्त हो ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः कैर्वस्तुभिः सहास्मान् प्राप्नुयादित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (अतः चित्) अत एव, यतः पूर्वमन्त्रोक्तरीत्या वाजं कामयमाना वयं त्वां मैत्रीरसैः सिञ्चामस्तस्मादित्यर्थः, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! त्वम् (शतवाजया) शतबलयुक्तया। वाज इति बलनाम। निघं० २।९। (सहस्रवाजया) सहस्रविज्ञानयुक्तया२ (इषा) एष्टव्यया आनन्दरससंतत्या सह। इषु इच्छायाम्, तुदादिः, ततः क्विप्। तृतीयैकवचने रूपम्। (नः) अस्मान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक धनाधिप राजन् ! त्वम् (अतः चित्) अस्मात् स्वकीयात् राजनगरात्। अत्र चिदिति पूरणः। (शतवाजया) बहुबलवेगयुक्तया, (सहस्रवाजया) सहस्रसंग्रामसमर्थया। वाज इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। (इषा) सेनया३ सह (नः) अस्मान् शत्रुभिः पीडितान् प्रजाजनान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥ अथ तृतीयः—आचार्यपरः। हे (इन्द्र)अविद्याविदारक ज्ञानैश्वर्यसम्पन्न आचार्यप्रवर ! त्वम् (अतः चित्) अस्मात् स्वकीयात् कुटीरात् (शतवाजया) प्रचुरबलयुक्तया, (सहस्रवाजया) बहुज्ञानयुक्तया (इषा) ब्रह्मचर्यादिव्रतपालनप्रेरणया सह (नः) अस्मान् त्वदीयशिष्यान् (उप आयाहि) उपागच्छ ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। उपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते। ‘वाजया’ इति भिन्नार्थकस्य सकृदावृत्तौ यमकालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा राजा बलवत्या संग्रामकुशलया सेनया सह प्रजाजनान्, आचार्यश्च बलविद्यायुक्तया सदाचारप्रेरणया सह शिष्यान् उपागच्छति तथैव परमात्मा बलविज्ञानवत्याऽऽनन्दरसधारया सहास्मानुपेयात् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।१०। २. वाजम् विज्ञानम् इति ऋ० १।११७।१० भाष्ये द०। ३. इषः इष्यन्ते यास्ताः सेनाः, अत्र ‘कृतो बहुलम्’ इति वार्तिकेन कर्मणि क्विप्, इति ऋ० १।९।८ भाष्ये द०। इष गतौ, दिवादिः।
22_0215 अतश्चिदिन्द्र न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१५-१।
अ꣥तश्चिदिन्द्रनउपाऽ६ए꣥॥ आ꣡या꣯हि꣢श। तवा꣡꣯जाऽ२३या꣢ऽ३४॥ इ꣣षा꣢ऽ३४स꣣हा꣢ऽ३॥ स्र꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥। जा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢ बु꣣न्दं꣡ वृ꣢त्र꣣हा꣡ द꣢दे जा꣣तः꣡ पृ꣢च्छ꣣द्वि꣢ मा꣣त꣡र꣢म्। क꣢ उ꣣ग्राः꣡ के ह꣢꣯ शृण्विरे ॥ 23:0216 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ बु॒न्दं वृ॑त्र॒हा द॑दे जा॒तः पृ॑च्छ॒द्वि मा॒तर॑म् ।
क उ॒ग्राः के ह॑ शृण्विरे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। बु꣣न्द꣢म्। वृ꣣त्रहा꣢। वृ꣣त्र। हा꣢। द꣣दे। जातः꣢। पृ꣣च्छात्। वि꣢। मा꣣त꣡र꣢म्। के। उ꣣ग्राः꣢। के। ह꣣। शृण्विरे। २१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- त्रिशोकः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जीवात्मा, मन और परमात्मा का कृत्य वर्णित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—जीव के पक्ष में। (जातः) मानवदेह में जन्मा, (वृत्रहा) दुष्टों के संहार करने में समर्थ जीवात्मा, (बुन्दम्) बाण को शस्त्रास्त्रसमूह को (आददे) ग्रहण करे, और (मातरम्) अपनी माता से (वि पृच्छात्) पूछे कि हे माँ ! (के) कौन लोग (उग्राः) दुष्ट हैं, (के ह) और कौन (शृण्विरे) सद्गुणों और सत्कर्मों से प्रख्यात कीर्तिवाले हैं, यह तुम बताओ, जिससे मैं दुष्टों को दण्डित करूँ और सज्जनों का सम्मान करूँ ॥ द्वितीय—मन के पक्ष में। (जातः) वेग आदि सामर्थ्य में प्रसिद्ध, (वृत्रहा) पापरूप वृत्र का संहार करनेवाला इन्द्र अर्थात् सद्विचाररूप परमैश्वर्यवाला मन (बुन्दम्) शिवसंकल्परूप बाण को (आददे) ग्रहण करे, और(मातरम्) सत्-असत् के विवेक की निर्मात्री बुद्धि से (वि पृच्छात्) पूछे कि (के) कौन से विचार (उग्राः) उत्कट पापवाले हैं (के ह) और कौन से विचार (शृण्विरे) पुण्य से प्रख्यात हैं यह बताओ, जिससे मैं पापात्मक विचारों का खण्डन और पुण्यात्मक विचारों का मण्डन करूँ ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। (जातः) प्रजाओं द्वारा राजा के पद पर अभिषिक्त, (वृत्रहा) राष्ट्र के आन्तरिक और बाह्य शत्रुरूप वृत्रों के संहार में समर्थ राजा (बुन्दम्) बाण को अर्थात् शासनदण्ड को अथवा शस्त्रास्त्रसमूह को (आददे) ग्रहण करे, और (मातरम्) राजा की निर्मात्री जनता से (वि पृच्छात्) विशेषरूप से पूछे कि (के) कौन लोग (उग्राः) प्रचण्ड कोपवाले शत्रु हैं, जो तुम्हें परेशान करते हैं, (के ह) और कौन (शृण्विरे) सद्गुण, सत्कर्म आदि के कारण विश्रुत हैं, प्रख्यात हैं, जो तुम्हारे साथ मित्र के समान आचरण करते हैं। बताओ, जिससे मैं शत्रुओं को दण्डित और मित्रों को सत्कृत करूँ ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जिन्होंने मानव-शरीर धारण किया है, उन वीरों का और राजा का यह कर्तव्य है कि वे दुष्टों को दण्ड देकर पुण्यात्माओं का सत्कार करें। साथ ही सबको चाहिए कि वे मन और बुद्धि की सहायता से पापों को दूर कर पुण्यों का प्रसार करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना जीवात्मनो मनसः परमात्मनश्च कृत्यं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—जीवात्मपरः ! (जातः) मानवदेहे गृहीतजन्मा, (वृत्रहा) दुष्टहननक्षमः जीवः (बुन्दम्) इषुम्, शस्त्रास्त्रसमूहम्। बुन्दः इषुर्भवति, भिन्दो वा भयदो वा भासमानो द्रवतीति वा। निरु० ६।३३। (आददे) आददीत। आङ्पूर्वाद् डुदाञ् दाने धातोः लिङर्थे लिट्। किञ्च (मातरम्) स्वकीयां जननीम् (वि पृच्छात्) विशेषतः पृच्छेत्। पृच्छ धातोर्लेटि ‘लेटोऽडाटौ। अ० ३।४।९४’ इत्याडागमः। यत् हे मातः ! (के) के जनाः (उग्राः) दुष्टाः सन्ति, (के ह) के च शृण्विरे सद्गुणैः सत्कर्मभिश्च श्रूयन्ते, प्रख्यातकीर्तयः सज्जनाः सन्तीति त्वं ब्रूहि, येनाहं दुष्टान् दण्डयेयं सज्जनांश्च मानयेयम् ॥ अथ द्वितीयः—मनःपरः। (जातः) वेगादिसामर्थ्ये प्रसिद्धः (वृत्रहा) पापहन्ता इन्द्रः सद्विचाररूपपरमैश्वर्ययुक्तं मनः। मन एवेन्द्रः। श० १२।९।१।१३। यन्मनः स इन्द्रः। गो० उ० ४।११। (बुन्दम्) शिवसंकल्परूपम् इषुम् (आददे) गृह्णीयात्, किं च (मातरम्) सदसद्विवेकनिर्मात्रीं बुद्धिम् (वि पृच्छात्) विशेषेण पृच्छेत्, यत् (के) कतमे विचाराः (उग्राः) उत्कटपापमयाः सन्ति, (के ह) कतमे च (शृण्विरे) पुण्येन प्रख्याताः सन्तीति ब्रूहि, येनाहं पापात्मकान् विचारान् खण्डयेयम्, पुण्यात्मकांश्च मण्डयेयम् ॥ अथ तृतीयः—राजप्रजापरः। (जातः) उत्पन्नः, प्रजाभिः राजपदेऽभिषिक्तः, (वृत्रहा) राष्ट्रस्याभ्यन्तरान्बाह्यांश्च शत्रून् हन्तुं समर्थो राजा (बुन्दम्२) इषुं, शासनदण्डम् शस्त्रास्त्रसमूहं वेत्यर्थः, (आददे) गृह्णीयात्, (मातरम्) राज्ञो निर्मात्रीम्, जनतां (वि पृच्छात्) विशेषेण पृच्छेत्, यत् (के) के जनाः, (उग्राः) प्रचण्डकोपाः शत्रवः सन्ति, ये युष्मानुद्वेजयन्ति, (के ह) के च (शृण्विरे३) श्रूयन्ते सद्गुणसत्कर्मादिकारणात् प्राप्तख्यातयः सन्ति, ये युष्माभिः सह मित्रवदाचरन्तीति ब्रूहि, येनाहं शत्रून् दण्डयेयं मित्राणि च सत्कुर्याम् ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - धृतमानवशरीराणां वीराणां नृपतेश्च कर्तव्यमेतदस्ति यत् ते दुष्टान् दण्डयित्वा पुण्यात्मनः सत्कुर्युः। मनोबुद्धिसाहाय्येन च सर्वैः पापानि निरस्य पुण्यानि प्रसारणीयानि ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४५।४, ‘पृच्छाद्’ इत्यत्र ‘पृच्छद्’ इति पाठः। २. बुन्दम् इषुम्—इति वि०। बुन्दम्, वृन्देन समानार्थः। दृढं वज्रमित्यर्थः—इति भ०। ३. शृण्विरे श्रूयन्ते विख्याताः—इति वि०। श्रूयन्ते बलादिभिः—इति भ०। वीर्येण विश्रुताः—इति सा०। (शृण्विरे) श्रूयन्ते। अत्र श्रु धातोः ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६’ इति लडर्थे लिट्। ‘छन्दस्युभयथा। अ० ३।४।११७’ इति सार्वधातुकत्वेन श्नुविकरणः, आर्धधातुकत्वाद् यगभावः। विकरणव्यवहितत्वाद् द्वित्वं च न भवति—इति ऋ० १।१५।८ भाष्ये द०।
23_0216 आ बुन्दम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१६-१। औषसम्॥ उषा गायत्रीन्द्रः॥
आ꣥꣯बुन्दंवॄ॥ त्र꣢हा꣡꣯द। दाइ। जातᳲपृच्छा꣢ऽ३त्। वि꣡माऽ२᳐ता꣣ऽ२३४रा꣥म्॥ क꣢उ꣡ग्राऽ२३ᳲके꣢॥ हा꣡शृण्वि꣢रे꣯। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
बृ꣣ब꣡दु꣢क्थꣳहवामहे सृ꣣प्र꣡क꣢रस्नमू꣣त꣡ये꣢। सा꣡धः꣢ कृ꣣ण्व꣢न्त꣣म꣡व꣢से ॥ 24:0217 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
बृ॒बदु॑क्थं हवामहे सृ॒प्रक॑रस्नमू॒तये॑ ।
साधु॑ कृ॒ण्वन्त॒मव॑से ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
बृ꣣ब꣡दु꣢क्थम्। बृ꣣ब꣢त्। उ꣣क्थम्। हवामहे। सृप्र꣡क꣢रस्नम्। सृ꣣प्र꣢। क꣣रस्नम्। ऊत꣡ये꣢। सा꣡धः꣢꣯। कृ꣣ण्व꣡न्त꣢म्। अ꣡व꣢꣯से। २१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम अपनी रक्षा के लिए कैसे परमात्मा और राजा का आह्वान करें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (बृबदुक्थम्) प्रशंसनीय कीर्तिवाले, (सृप्रकरस्नम्) व्यापक कर्मों में निष्णात, और (अवसे) प्रगति के लिए (साधः) सूर्य, वायु, अग्नि, चाँदी, सोना आदि साधन-समूह को (कृण्वन्तम्) उत्पन्न करनेवाले इन्द्र नामक परमात्मा को (ऊतये) रक्षा के लिए (हवामहे) पुकारते हैं ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हम प्रजाजन (बृबदुक्थम्) प्रशंसनीय कीर्तिवाले, (सृप्रकरस्नम्) घुटनों तक लम्बी बाहुओंवाले अथवा शत्रुनिग्रह, प्रजापालन आदि शुभ कर्मों में व्याप्त भुजाओंवाले और (अवसे) प्रजाओं की प्रगति के लिए (साधः) शस्त्रास्त्र-ज्ञानविज्ञान-चिकित्सा आदि की सिद्धि को (कृण्वन्तम्) करनेवाले इन्द्र राजा को (ऊतये) सुरक्षा के लिए (हवामहे) पुकारते हैं ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पुरुषार्थी जन सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की और सुयोग्य राजा की सहायता से ही अपनी और समाज की प्रगति कर सकते हैं, इसलिए सबको उनकी सहायता माँगनी चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वयं स्वरक्षायै कीदृशं परमात्मानं राजानं चाह्वयेमेत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। वयम् (बृबदुक्थम्) प्रशंसनीयकीर्तिम्। बृबदुक्थो महदुक्थो, वक्तव्यमस्मा उक्थमिति वा। निरु० ६।४। (सृप्रकरस्नम्) व्यापकेषु कर्मसु निष्णातम्। सर्पन्ति गच्छन्ति व्याप्नुवन्तीति सृप्राः, सृप्लृ गतौ धातोः ‘स्फायितञ्चि०’ उ० २।१३ इति रक्। क्रियन्ते इति कराः कर्माणि। सृप्रेषु सृप्तेषु विस्तीर्णेषु करेषु कर्मसु स्नातीति तम्। किञ्च (अवसे) प्रगतये। अव रक्षणगत्यादिषु, धातोः ‘तुमर्थे सेसेनसेऽसेन्’ अ० ३।४।९ इति तुमर्थे असेन् प्रत्ययः। नित्त्वात् ‘ञ्नित्यादिर्नित्यम्’ अ० ६।१।१९७ इत्याद्युदात्तत्वम्। (साधः२) सूर्यवाय्वग्निरजतसुवर्णादिरूपं साधनसमूहम्। साध संसिद्धौ धातोः ‘सर्वधातुभ्योऽसुन्’ उ० ४।१९० इत्यसुन्। (कृण्वन्तम्) उपस्थापयन्तम् इन्द्रं परमात्मानम्। कृवि हिंसाकरणयोः स्वादिः, शतरि रूपम्। (ऊतये) रक्षणाय (हवामहे) आह्वयामः ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। वयम् प्रजाजनाः (बृबदुक्थम्) प्रशंसनीयकीर्तिम् (सृप्रकरस्नम्) आजानुबाहुम् यद्वा शत्रुनिग्रहप्रजापालनादिकर्मसु व्याप्तभुजम्। सृप्रौ आजानुलम्बिनौ सत्कर्मसु व्यापनशीलौ वा करस्नौ बाहू यस्य तम्। सृप्रः सर्पणात्। करस्नौ बाहू कर्मणां प्रस्नातारौ। निरु० ६।१७। किञ्च (अवसे) प्रजानां प्रगतये (साधः) शस्त्रास्त्रज्ञानविज्ञानचिकित्सादिसिद्धिम् (कृण्वन्तम्) कुर्वन्तम् इन्द्रं राजानम् (ऊतये) सुरक्षायै (हवामहे) आह्वयामः ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पुरुषार्थिनो जनाः सर्वशक्तिमतः परमेश्वरस्य नृपतेश्च साहाय्येनैव स्वात्मनीनां सामाजिकीं च प्रगतिं कर्त्तुं पारयन्तीति सर्वैः तयोः साहाय्यं प्रार्थनीयम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।३२।१०, ‘साधः’ इत्यत्रः ‘साधु’ इति पाठः। २. विवरणकृद्भरतस्वामिभ्यां तु ऋग्वेदवत् ‘साधु’ इति पाठं मत्वा व्याख्यातम्। ‘साधः साधकं धनं कृण्वन्तं प्रयच्छन्तम्’—इति सा०।
24_0217 बृबदुक्थंहवामहे सृप्रकरस्नमूतये - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१७-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाजो गायत्रीन्द्रः॥बृ꣥बदुक्थꣳहाऽ६वा꣥꣯महाइ॥ सा꣡र्प्राऽ᳒२᳒का꣡राऽ᳒२᳒। स्नमू꣯। त꣡याइ॥ सा꣢ऽ१धाऽ᳒२ᳲ᳒का꣡र्ण्वाऽ२३। त꣢मो꣡ऽ२३४वा꣥। वा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ऋ꣣जुनीती꣢ नो꣣ व꣡रु꣢णो मि꣣त्रो꣡ न꣢यति वि꣣द्वा꣢न्। अ꣣र्यमा꣢ दे꣣वैः꣢ स꣣जो꣡षाः꣢ ॥ 25:0218 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ऋ॒जु॒नी॒ती नो॒ वरु॑णो मि॒त्रो न॑यतु वि॒द्वान् ।
अ॒र्य॒मा दे॒वैः स॒जोषाः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ऋ꣣जुनी꣢ती। ऋ꣣जु। नीती꣢। नः꣣। व꣡रु꣢꣯णः। मि꣣त्रः꣢। मि꣣। त्रः꣢। न꣣यति। विद्वा꣢न्। अ꣣र्यमा꣢। दे꣣वैः꣢। स꣣जो꣡षाः। स꣣। जो꣡षाः꣢꣯। २१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना है कि इन्द्र से अधिष्ठित वरुण, मित्र आदि हमें सरल मार्ग से ले चलें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्म के पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! आपकी सहायता से (देवैः) चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ (सजोषाः) प्रीतिवाला, (विद्वान्) ज्ञानी (वरुणः) पापों से निवारण करनेवाला जीवात्मा, (मित्रः) प्राण, और (अर्यमा) मन (नः) हमें (ऋजुनीती) सरल धर्ममार्ग से (नयति) ले चलें ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (देवैः) अपने-अपने अधिकार में व्यवहार करनेवाले राजपुरुषों के साथ (सजोषाः) प्रीतिवाला अर्थात् अनुकूलता रखनेवाला (विद्वान्) विद्वान् विद्यासभाध्यक्ष, (वरुणः) शत्रुनिवारक, शस्त्रास्त्रधारी सेनाध्यक्ष, (मित्रः) कुत्सित आचरणरूप मृत्यु से त्राण करनेवाला धर्म-सभा का अध्यक्ष और (अर्यमा) न्यायसभा का अध्यक्ष (नः) हम प्रजाजनों को (ऋजुनीती) सरल धर्ममार्ग से (नयति) ले चलें ॥ तृतीय—विद्वान् के पक्ष में। (देवैः) विद्या और व्रत-शिक्षा का दान करनेवाले सब अध्यापकों से (सजोषाः) सामञ्जस्य रखता हुआ (वरुणः) श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाववाला, छात्रों द्वारा आचार्यरूप में वरण किया गया व छात्रों को शिष्यरूप से वरनेवाला, (मित्रः) पापरूप मरण से त्राण करानेवाला, (अर्यमा) न्यायकारी (विद्वान्) विद्वान् आचार्य (नः) हम शिष्यों को (ऋजुनीती) सरल विद्या-दान और व्रत-पालन करने की नीति से (नयति) आगे ले चले, अर्थात् हमें सुयोग्य विद्या-व्रत-स्नातक बनाये ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीर में विद्यमान जीवात्मा, प्राण, मन आदि देव परमात्मा के पास से बल प्राप्त कर मनुष्यों को धर्म-मार्ग से ले जाते हैं। उसी प्रकार राष्ट्र में विद्यासभा, धर्मसभा और न्यायसभा के अध्यक्ष तथा सेना का अध्यक्षप्रजाजनों को धर्ममार्ग में ले चलें । गुरुकुलवासी सुयोग्य अध्यापकों से युक्त, श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाववाला आचार्य भी शिष्यों को धर्म तथा विद्या के मार्ग में ले चले ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
इन्द्राधिष्ठिता वरुणमित्रादयः—अस्मान् सरलमार्गेण नयेयुरित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्रपरमात्मन् ! (देवैः) चक्षुरादिभिरिन्द्रियैः२। दीव्यन्ति व्यवहरन्ति स्वस्वविषयेष्विति देवाः इन्द्रियाणि तैः। (सजोषाः) सप्रीतिः। जुषी प्रीतिसेवनयोः धातोः औणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। जोषसा सह वर्तते इति सजोषाः। समासे ‘वोपसर्जनस्य’ अ० ६।३।८२ इति सहस्य सः। (विद्वान्) ज्ञानवान् (वरुणः) पापेभ्यो निवारणकर्त्ता जीवात्मा, (मित्रः) प्राणः, (अर्यमा) मनः (नः) अस्मान् (ऋजुनीती) ऋजुनीत्या सरलेन धर्ममार्गेण। ‘सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णदीर्घ०’ अ० ७।१।३९ इति तृतीयैकवचने पूर्वसवर्णदीर्घः। (नयति) नयतु।३ णीञ् प्रापणे धातोर्विध्यर्थे लेटि ‘लेटोऽडाटौ’ अ० ३।४।९४ इत्यडागमः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! (देवैः) स्वस्वाधिकारेषु व्यवहरद्भिः राजपुरुषैः (सजोषाः) सप्रीतिः, आनुकूल्यं भजमानः इत्यर्थः (विद्वान्) विपश्चिद् विद्यासभाध्यक्षः, (वरुणः) शत्रुनिवारकः शस्त्रास्त्रपाणिः सेनाध्यक्षः, (मित्रः) कदाचाररूपाद् मरणात् त्राणकर्त्ता धर्मसभाध्यक्षः, मित्रः प्रमीतेस्त्रायते। निरु० १०।२१।४ (अर्यमा) न्यायसभाध्यक्षः (नः) अस्मान् प्रजाजनान् (ऋजुनीती) ऋजुना धर्ममार्गेण (नयति) नयतु ॥ अथ तृतीयः—विद्वत्परः। (देवैः) विद्यया दीप्तैः विद्याव्रतदानशीलैः सर्वैः अध्यापकैः (सजोषाः) सामञ्जस्यं भजमानः (वरुणः) श्रेष्ठगुणकर्मस्वभावः, छात्रैराचार्यत्वेन वृतः छात्राणां शिष्यत्वेन वर्ता वा, (मित्रः) पापरूपात् मरणात् त्राणकर्ता, (अर्यमा) न्यायकारी (विद्वान्) आप्तविद्यः आचार्यः (नः) अस्मान् शिष्यान् (ऋजुनीती) ऋजुः सरला शुद्धा चासौ विद्यानीतिः व्रतनीतिश्च तया (नयति) नयतु। अस्मान् सुयोग्यान् विद्याव्रतस्नातकान् करोतु इत्यर्थः ॥५॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीरे विद्यमाना जीवात्मप्राणमनःप्रभृतयो देवाः परमात्मनः सकाशाद् बलं प्राप्य मनुष्यान् धर्ममार्गेण नयन्ति। तथैव राष्ट्रे विद्याधर्मन्यायसभानामध्यक्षाः सेनाध्यक्षश्च प्रजाजनान् धर्ममार्गे नयन्तु। किञ्च गुरुकुलवासिभिः सुयोग्यैरध्यापकैः समन्वितः श्रेष्ठगुणकर्मस्वभाव आचार्योऽपि शिष्यान् धर्ममार्गे नयतु ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।९०।१, ‘नयति’ इत्यत्र ‘नयतु’ इति पाठः। विश्वेदेवाः देवता। २. देवाः स्वस्वविषयप्रकाशकानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि इति ऋ० ६।९।५ भाष्ये द०। ३. नयतीति पञ्चमलकारान्तम्, नयतु—इति भ०। नयति अभिमतं फलं प्रापयति—इति सा०। ४. पदकारेणापि ‘मि-त्रः’ इति विभजनात् ‘प्रमीतेः त्रायते यः सः’ इत्येवार्थः सूचितः। ५. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्येऽस्य मन्त्रस्य वाचकलुप्तोपमालङ्कारमाश्रित्य परमेश्वरार्थेन सह विद्वत्परोऽर्थः प्रकाशितः।
25_0218 ऋजुनीती नो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१८-१। कौत्सम्॥ कुत्सो गायत्रीन्द्रः॥
ऋ꣥जुनी꣯ती꣤꣯नो꣥꣯व꣤रु꣥णः। इ꣤हा॥ मि꣢त्रो꣡꣯नयति꣢वि꣡द्वाऽ२३न्त्साः꣢। इ꣡हा꣢॥ अर्यमा꣡꣯दाऽ२३इवा꣢इ। इ꣡हा꣢॥ स꣡जोषा꣭ऽ३उवा꣢ऽ३॥ ई꣢ऽ३४हा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दू꣣रा꣢दि꣣हे꣢व꣣ य꣢त्स꣣तो꣢ऽरु꣣ण꣢प्सु꣣र꣡शि꣢श्वितत्। वि꣢ भा꣣नुं꣢ वि꣣श्व꣡था꣢तनत् ॥ 26:0219 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दू॒रादि॒हेव॒ यत्स॒त्य॑रु॒णप्सु॒रशि॑श्वितत् ।
वि भा॒नुं वि॒श्वधा॑तनत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
दू꣣रा꣢त्। दुः꣣। आ꣢त्। इ꣣ह꣢। इ꣣व। य꣢त्। स꣣तः꣢। अ꣣रुण꣡प्सुः꣢। अ꣡शि꣢꣯श्वितत्। वि। भा꣣नु꣢म्। वि꣣श्व꣡था꣢। अ꣣तनत्। । २१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ, मित्रावरुणौ
- ब्रह्मातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सूर्य के प्रकाश से और अध्यात्म-प्रकाश से दूरस्थ पदार्थ भी समीपस्थ के समान दीखते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—खगोल पक्ष में। (अरुणप्सुः) चमकीले रूपवाला सूर्यरूपी इन्द्र (यत्) जब (दूरात्) खगोल में स्थित दूरवर्ती प्रदेश से, मङ्गल-बुध-चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को (इह इव सतः) मानो यहीं समीप में ही स्थित करता हुआ (अशिश्वितत्) चमकाता है, तब (भानुम्) अपने प्रकाश को (विश्वथा) बहुत प्रकार से (वि अतनत्) विस्तीर्ण करता है ॥ द्वितीय—अध्यात्म के पक्ष में। (अरुणप्सुः) तेजस्वी रूपवाला इन्द्र परमेश्वर (यत्) जब, (दूरात्) दूर से अर्थात् व्यवधानयुक्त अथवा दूरस्थ प्रदेश से, पदार्थों को (इह इव सतः) यहाँ समीपस्थ के समान करता हुआ (अशिश्वितत्) योगी के मानस को प्रकाशित करता है, तब (भानुम्) भासमान जीवात्मा को (विश्वथा) सर्व प्रकार से (वि अतनत्) योगैश्वर्य प्राप्त कराकर विस्तीर्ण अर्थात् व्यापक ज्ञानवाला कर देता है ॥६॥ योगाभ्यासी मनुष्य को परमात्मा द्वारा प्रदत्त दिव्य आलोक से सूक्ष्म, ओट में स्थित और दूरस्थ पदार्थों का दूरस्थित ताराव्यूहों का और ध्रुव आदि नक्षत्रों का समीपस्थ वस्तु के समान हस्तामलकवत् साक्षात्कार हो सकता है, यह योगदर्शन में विभूतिपाद में महर्षि पतञ्जलि ने कहा है। योगसिद्धियों के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्द के विचार इसी मन्त्र की संस्कृत टिप्पणी में देखें ॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘दूरस्थित को भी मानो समीप-स्थित करता हुआ’ इसमे उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - चमकीला सूर्य जब अपने प्रकाश को मङ्गल, बुध, बृहस्पति, चन्द्र आदि ग्रहोपग्रहों पर फेंकता है, तब उसके प्रकाश से वे प्रकाशित हो जाते हैं और वह प्रकाश हमारी आँखों पर प्रतिफलित होकर उन दूरस्थित पदार्थों कोभी समीप में स्थित के समान दिखाता है। उसी प्रकार योगाभ्यास से योगियों के मनों में परमात्मा का दिव्य आलोक प्रतिबिम्बित होकर उनके अन्दर वह शक्ति उत्पन्न कर देता है, जिससे वे सूक्ष्म, ओट में स्थित तथा दूरस्थित पदार्थों को भी साक्षात् समीपस्थ के समान देखने लगते हैं ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सूर्यप्रकाशेनाध्यात्मप्रकाशेन च दूरस्था अपि पदार्था अन्तिकस्था इव दृश्यन्त इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—खगोलपरः। (अरुणप्सुः) अरुणः आरोचमानः प्सुः रूपं यस्य सोऽरुणप्सुः इन्द्रः सूर्यः। अरुणः आरोचनः। निरु० ५।२१। प्सुः इति रूपनाम। निघं० ३।७। (यत्) यदा (दूरात्) खगोलस्थाद् दूरवर्तिप्रदेशात्, मङ्गलबुधचन्द्रादीन् ग्रहोपग्रहान् (इह इव सतः) इह समीपे इव विद्यमानान् कुर्वन् (अशिश्वितत्) आरोचयति। श्विता वर्णे धातोर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। यच्छब्दयोगात् ‘तिङ्ङतिङः’ अ० ८।१।२८ इति प्राप्तस्य निघातस्य ‘यद्वृत्तान्नित्यम्। अ० ८।१।६६’ इति प्रतिषेधः। तदा (भानुम्) निजं प्रकाशम् (विश्वथा) बहुप्रकारेण। अत्र ‘प्रकारवचने थाल्। अ० ५।३।२३’ इति थाल् प्रत्ययः, न तु ‘प्रत्नपूर्वविश्वेमात्थाल् छन्दसि। अ० ५।३।१११’ इत्यस्य प्रवृत्तिः, इवार्थाभावात्। (वि-अतनत्) वितनोति विस्तृणाति। तनु विस्तारे स्वादिः, वेदे भ्वादिरपि दृश्यते ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। (अरुणप्सुः) आरोचमानरूपः इन्द्रः परमेश्वरः (यत्) यदा (दूरात्) व्यवहिताद् विप्रकृष्टाद् वा प्रदेशात्, पदार्थान् (इह इव सतः) अत्र समीप इव विद्यमानान् कुर्वन् (अशिश्वितत्) आरोचयति, योगिनो मानसं प्रकाशयति, तदा (भानुम्) भासमानं जीवात्मानम् (विश्वथा) सर्वथा (वि-अतनत्) योगैश्वर्यप्रापणेन विस्तारयति व्यापकज्ञानयुक्तं करोतीत्यर्थः ॥६॥ योगाभ्यासिनो जनस्य परमात्मप्रदत्तेन दिव्यालोकेन सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानां पदार्थानां, दूरस्थानां ताराव्यूहानां, ध्रुवादिनक्षत्राणां च समीपस्थवस्तुवद् हस्तामलसाक्षात्कारो भवितुमर्हतीति योगदर्शने विभूतिपादे महर्षिः पतञ्जलिराह३ ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘दूरादिहेव यत् सतः’ इत्यत्र चोत्प्रेक्षा ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आरोचमानरूपः सूर्यो यदा स्वप्रकाशं मङ्गलबुधबृहस्पतिचन्द्रादिषु ग्रहोपग्रहेषु प्रक्षिपति तदा तत्प्रकाशेन ते प्रकाशिता जायन्ते, प्रकाशश्चास्मच्चक्षुषोः प्रतिफलितः सन् दूरस्थानपि तान्, समीपवर्तिन इव दर्शयति। तथैव योगाभ्यासेन योगिनां मनःसु परमात्मनो दिव्यालोकः प्रतिफलितः सन् तेषु तां शक्तिं जनयति यया ते सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानपि पदार्थान् साक्षादन्तिकस्थानिव पश्यन्ति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।५।१ अश्विनौ देवते। ‘सतोऽरुणप्सु’ ‘विश्वथा’ इत्यत्र ‘सत्यरुणप्सु’ ‘विश्वधा’ इति पाठः। २. माधवभरतस्वामिसायणैः सर्वैरेवास्या ऋचो व्याख्याने उषसः प्रक्रम्य अश्विनोरपसंहृतम्। ऋग्वेदेऽस्या अश्विनौ देवते निर्दिष्टे, ‘सतः’ इत्यस्य स्थाने च ‘सती’ इति स्त्रीलिङ्गः पाठः। तत्र तु ‘दूरादपि इहेव सती अरुणप्सुः उषाः अशिश्विवत्’ इति व्याख्यानमुचितम्। अत्र तु इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः तद्व्याख्यानं न समञ्जसमिति दिक्। ३. द्रष्टव्यम्—योगदर्शनम् ३।१६, १९, २५-२८, ३३, ४१। योगसिद्धीनां विषये महर्षिदयानन्दस्य विचाराः य० १७।६७, ७१ भाष्ये, पूनाप्रवचनस्य ११शप्रवचने च द्रष्टव्याः। तथा हि—‘यदा मनुष्यः स्वात्मना सह परमात्मानं युङ्क्ते तदा अणिमादयः सिद्धयः प्रादुर्भवन्ति। ततोऽव्याहतगत्याभीष्टानि स्थानानि गन्तुं शक्नोति नान्यथा’ इति य० १७।६७ भाष्ये भावार्थः। “योगी विभूति सिद्ध करता है, यह योगशास्त्र में लिखा है। अणिमा आदि विभूतियाँ हैं। ये योगी के चित्त में पैदा होती हैं। सांसारिक लोग जो यह मानते हैं कि योगी के शरीर में पैदा होती हैं, वह ठीक नहीं है।” इति च पूनाप्रवचनम्।
26_0219 दूरादिहेव यत्सतोऽरुणप्सुरशिश्वितत् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२१९-१। औषसम्॥ उषा गायत्रीन्द्रः॥
दू꣢꣯रा꣡꣯दीऽ२३हे꣤꣯वय꣥त्सताः॥ अ꣢रुण꣡प्सुर꣢शि꣡श्वाऽ२३इता꣢त्॥ विभा꣡꣯नूंऽ२३वी꣢॥ श्वा꣡था꣯त꣢नत्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ नो꣢ मित्रावरुणा घृ꣣तै꣡र्गव्यू꣢꣯तिमुक्षतम्। म꣢ध्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि सुक्रतू ॥ 27:0220 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ नो॑ मित्रावरुणा घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम् ।
मध्वा॒ रजां॑सि सुक्रतू ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। नः꣣। मित्रा। मि। त्रा। वरुणा। घृतैः꣢। ग꣡व्यू꣢꣯तिम्। गो। यू꣣तिम्। उक्षतम्। म꣡ध्वा꣢꣯। र꣡जाँ꣢꣯सि। सु꣣क्रतू। सु। क्रतूइ꣡ति꣢। २२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनो जमदग्निर्वा
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र से अधिष्ठित ब्राह्मण और क्षत्रिय को सम्बोधन किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - इन्द्र परमात्मा और इन्द्र राजा के अधिष्ठातृत्व में चलनेवाले हे (मित्रावरुणौ) ब्राह्मण और क्षत्रियो ! तुम दोनों (नः) हमारी (गव्यूतिम्) राष्ट्रभूमि को (घृतैः) घृत आदि पदार्थों से (आ उक्षतम्) सींचो अर्थात् समृद्ध करो। हे (सुक्रतू) उत्तम ज्ञान और कर्म वालो ! तुम दोनों (मध्वा) विद्यामधु के साथ (रजांसि) क्षात्रतेजों को उत्पन्न करो ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा से प्रेरणा और राजा से सहायता पाकर ब्राह्मण और क्षत्रिय राष्ट्र की प्रजाओं में समृद्धि, विद्या, वीरता और क्षात्रतेज को यदि उत्पन्न करते हैं, तो राष्ट्र परम उत्कर्ष को पा सकता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्राधिष्ठितौ ब्राह्मणक्षत्रियौ सम्बोधयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्रेण परमात्मना नृपतिना वाऽधिष्ठितौ२ (मित्रावरुणौ) ब्राह्मणक्षत्रियौ। ब्रह्मैव मित्रः। श० ४।१।४।१, क्षत्रं वै वरुणः। श० २।५।२।६। युवाम् (नः) अस्माकम् (गव्यूतिम्३) राष्ट्रभूमिम्। गवां धेनूनां यूतिः उचितभोजनादिना सत्कारः यत्र सा गव्यूतिः। यौतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। ‘गोर्यूतौ छन्दस्युपसंख्यानम्। अ० ६।१।७९ वा०’ इत्यवादेशः। यूतिः इति ‘ऊतियूतिजूति। अ० ३।३।९७’ इति क्तिन्प्रत्ययान्तो निपातः। (घृतैः) घृतादिपदार्थैः (आ उक्षतम्) आसिञ्चतम्, समृद्धं कुरुतम् इति भावः। उक्ष सेचने, भ्वादिः। हे (सुक्रतू) सुज्ञानकर्माणौ ! युवाम् (मध्वा) विद्यामधुना सह (रजांसि) क्षात्रतेजांसि, उत्पादयतम् इति शेषः। ज्योती रज उच्यते इति निरुक्तम्।४।१९। ॥७॥४
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मनः प्रेरणां नृपतेश्च साहाय्यं प्राप्य ब्राह्मणक्षत्रियौ राष्ट्रस्य प्रजासु समृद्धिं विद्यां, वीरतां, क्षात्रं तेजश्च यदि जनयतस्तर्हि राष्ट्रं परममुत्कर्षं प्राप्तुमर्हति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ३।६२।१६, य० २१।८ उभयत्र मित्रावरुणौ देवते, यजुषि ‘विश्वामित्र’ ऋषिः। साम० ६६३। २. इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः एतद् योजनीयम्। ३. गावो यत्र चरन्ति सा गव्यूतिरुच्यते—इति वि०। गोसञ्चारदेशम् इति भ०। गवां मार्गं गोनिवासस्थानम्—इति सा०। ४. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्येऽध्यापकोपदेशकविषये यजुर्भाष्ये च शिल्पविषये व्याख्यातः।
27_0220 आ नो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२०-१। मित्रावरुणयोः संयोजनम्॥ मित्रावरुणौ गायत्रीन्द्रः॥ मित्रावरुणौ।
आ꣣꣯नो꣤꣯मि꣥त्रा꣯। व꣢रुणाऽ३। औ꣢꣯हो꣡वाऽ२३४॥ घृतै꣣꣯र्गव्यू꣤꣯ति꣥मु। क्ष꣢ताऽ३म्। औ꣢꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒॥ मा꣡ध्वा꣢꣯र꣡जा꣰꣯ऽ२ꣳसिसूऽ३। औ꣢꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒॥ क्रतू꣯। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣢दु꣣ त्ये꣢ सू꣣न꣢वो꣣ गि꣢रः꣣ का꣡ष्ठा꣢ य꣣ज्ञे꣡ष्व꣢त्नत। वा꣣श्रा꣡ अ꣢भि꣣ज्ञु꣡ यात꣢꣯वे ॥ 28:0221 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उदु॒ त्ये सू॒नवो॒ गिरः॒ काष्ठा॒ अज्मे॑ष्वत्नत ।
वा॒श्रा अ॑भि॒ज्ञु यात॑वे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣢त्। उ꣣। त्ये꣢। सू꣣न꣡वः꣢। गि꣡रः꣢꣯। का꣡ष्ठाः꣢꣯। य꣣ज्ञे꣡षु꣢। अ꣣त्नत। वाश्राः꣢। अ꣣भिज्ञु꣢। अ꣣भि। ज्ञु꣢। या꣡त꣢꣯वे। २२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मरुतः
- प्रस्कण्वः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र के अधीन रहनेवाले मरुतों का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—वायुओं के पक्ष में। (सूनवः) परमेश्वररूप अथवा सूर्यरूप इन्द्र के पुत्र (त्ये) वे मरुद्-गण अर्थात् पवन (यज्ञेषु) वृष्टि-यज्ञों में, जब (गिरः) विद्युद्गर्जनाओं को तथा (काष्ठाः) मेघजलों को (उद् अत्नत) विस्तीर्ण करते हैं, अर्थात् बिजली को गर्जाते हैं तथा बादलों के जलों पर आघात करते हैं, तब (वाश्राः) रिमझिम करते हुए वर्षाजल (अभिज्ञु) पृथिवी की ओर (यातवे) जाना आरम्भ कर देते हैं, अर्थात् वर्षा होने लगती है ॥ द्वितीय—सैनिकों के पक्ष में। (सूनवः) सेनापतिरूप इन्द्र के पुत्रों के समान विद्यमान (त्ये) वे सैनिकरूप मरुद्गण (यज्ञेषु) जिनमें मुठभेड़ होती है ऐसे संग्रामयज्ञों में (गिरः) जयघोषों को (उद् अत्नत) आकाश में विस्तीर्ण करते हैं, तथा (काष्ठाः) दिशाओं को (उद् अत्नत) लाँघ जाते हैं। (अभिज्ञु) घुटने झुका-झुकाकर (यातवे) चलने पर, उनके लिए (वाश्राः) उत्साहवर्धक उच्चारण किये जाते हैं ॥ हे मरुतो ! शत्रु को परे भगाने के लिए तुम्हारे हथियार चिरस्थायी हों और शत्रुओं का प्रतिरोध करने के लिए सुदृढ़ हों (ऋ० १।३९।२) इत्यादि वैदिक वर्णन मरुतों का सैनिक होना सूचित करते हैं ॥ तृतीय—अध्यात्म पक्ष में। जीवात्मारूप इन्द्र से सम्बद्ध (त्ये) वे (गिरः) शब्दोच्चारण के साधनभूत (सूनवः) प्रेरक प्राण (यज्ञेषु) योगाभ्यास-रूप यज्ञों में, जब (काष्ठाः) चित्त की दिशाओं को (उद् अत्नत उ) ऊर्ध्व-गामिनी कर देते हैं, तब (अभिज्ञु) घुटने मोड़कर पद्मासन बाँधकर (यातवे) मोक्ष की ओर जाने के लिए, उनके चित्त में (वाश्राः) धर्ममेघ समाधिजन्य वर्षाएँ होती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पवन जैसे आकाश में बिजली की गर्जना करते हैं, वैसे ही सेनापति के अधीन रहनेवाले योद्धा लोग संग्रामरूप यज्ञ में जयघोषों से सब दिशाओं को भरपूर कर दें। जैसे पवन बादलों में स्थित जलों को भूमि पर बरसाते हैं, वैसे ही प्राण योगी की चित्तभूमि में धर्ममेघ समाधि को बरसावें ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्राधीना मरुतो वर्ण्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—वायुपरः। (सूनवः) इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा पुत्राः (त्ये) ते मरुतः पवनाः (यज्ञेषु) वृष्टिरूपेषु अध्वरेषु, यदा (गिरः२) वाचः, स्तनयित्नुशब्दान् (काष्ठाः) मेघस्थाः अपः च। आपोऽपि काष्ठा उच्यन्ते। निरु० २।१५। (उद् अत्नत) उत्तन्वन्ति, स्तनयित्नुगर्जनशब्दान् उत्पादयन्ति मेघजलानि चालयन्ति चेत्यर्थः। ‘अत्नत अतनिषत, निरु० १२।३४।’ तनु विस्तारे, लडर्थे लुङ्, विकरणस्य लुक् छान्दसः। ‘तनिपत्योश्छन्दसि’ अ० ६।४।९९ अनेनोपधालोपः। तदा (वाश्राः) वाशन्ते शब्दायन्ते इति वाश्राः। वाशृ शब्दे धातोरौणादिको रक् प्रत्ययः। रिमझिमशब्दसहिताः आपः इत्यर्थः। वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु। अथ० ४।१५।१ इति वचनात्। (अभिज्ञु३) पृथिव्यभिमुखम् (यातवे) यातुं प्रक्रमन्ते। या प्रापणे धातोस्तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—सैनिकपक्षे। इन्द्रस्य सेनापतेः (सूनवः) पुत्रा इव (त्ये) ते मरुतः सैनिकाः (यज्ञेषु) सङ्गमनीयेषु संग्रामेषु (गिरः) जयघोषान् (उद् अत्नत) आकाशे विस्तारयन्ति, (काष्ठाः) दिशश्च। काष्ठा दिशो भवन्ति क्रान्त्वा स्थिता भवन्ति। निरु० २।१५। (उत् अत्नत) उल्लङ्घयन्ति। (अभिज्ञु) सैनिकपद्धत्या जान्वभिमुखम् (यातवे) प्रयाणाय, तेषां कृते (वाश्राः) वाशृ शब्दे, उत्साहवर्धकाः शब्दाः भवन्तीति शेषः। स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑ ऋ० १।३९।२। इत्यादिवर्णनानि मरुतां सैनिकत्वं सूचयन्ति ॥ अथ तृतीयः—अध्यात्मपरः। इन्द्रेण जीवात्मना संबद्धाः (त्ये) ते (गिरः) शब्दोच्चारणसाधनीभूताः। गीर्यन्ते शब्दा एभिस्ते (गिरः)। (सूनवः४) प्रेरकाः प्राणाः। षू प्रेरणे धातोः ‘सुवः कित्’ उ० ३।३५ इति नु प्रत्ययो ज्ञेयः। (यज्ञेषु) योगाभ्यासरूपेषु, यदा (काष्ठाः) चित्तदिशः (उत् अत्नत उ) ऊर्ध्वं विस्तारयन्ति खलु तदा (अभिज्ञु) जानुनी आकुञ्च्य पद्मासनबन्धपूर्वकम् (यातवे) मोक्षमधिगन्तुं तेषां चित्ते (वाश्राः) धर्ममेघसमाधिजाः वर्षाः भवन्ति। यथोक्तं पातञ्जले योगशास्त्रे “प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिरिति” ४।२९ ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पवना यथा गगने स्तनयित्नुशब्दं कुर्वन्ति, तथैव सेनापतेरधीना योद्धारः संग्रामयज्ञे जयघोषैः सर्वा दिश आपूरयेयुः। यथा पवना भूमौ मेघस्थानि जलानि वर्षन्ति, तथैव प्राणा योगिनश्चित्तभूमौ धर्ममेघसमाधिं वर्षेयुः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३७।१०, ‘यज्ञेष्वत्नत’ इत्यत्र ‘अज्मष्वत्नत’ इति पाठः। मरुतो देवताः। कण्वो घौरः ऋषिः। २. गिरः गर्जितलक्षणा वाचः। काष्ठाश्च वृष्टिलक्षणा आपः—इति वि०। ३. अभिज्ञु अभिज्मां पृथिवीमभि—इति भ०। ४. सूनवः प्रेरका विश्वस्य। षू प्रेरणे—इति भ०। ५. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं वाचकलुप्तोपमामाश्रित्य वायूनामुदाहरणेन राजप्रजाजनविषये व्याख्यातः।
28_0221 उदु त्ये - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२१-१। ऋतुषाम॥ ऋतवो गायत्रीन्द्रो, मरुतो वा॥
उ꣥दुत्ये꣯सू꣯नाऽ६वो꣥꣯गिराः॥ का꣡ष्ठा꣢꣯य। ज्ञा꣡इ। षु꣪वाऽ२᳐त्ना꣣ऽ२३४ता꣥॥ वा꣢꣯श्रा꣡꣯आऽ२३भी꣢ऽ३॥ ज्ञू꣡ऽ२३या꣤ऽ३। ता꣢ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣दं꣢꣫ विष्णु꣣र्व꣡ च꣢क्रमे त्रे꣣धा꣡ नि द꣢꣯धे प꣣द꣢म्। स꣡मू꣢ढमस्य पाꣳसु꣣ले꣢ ॥ 29:0222 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दव्ँ विष्णु॒र् (अग्नि-विद्युत्-सूर्यात्मना) वि च॑क्रमे
(पृथिव्याम् अन्तरिक्षे दिवि च) त्रे॒धा नि द॑धे प॒दम् ।
(तैर् आधारैर् जगत्) सम् ऊ॑ढम् अस्य पाꣳसु॒रे (ले इति साम्नि, पांसुमति [पादे]) ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣣द꣢म्। वि꣡ष्णुः꣢꣯। वि। च꣣क्रमे। त्रेधा꣢। नि। द꣣धे। पद꣢म्। स꣡मू꣢꣯ढम्। सम्। ऊढम्। अस्य। पासुले꣢। २२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विष्णुः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कैसे विष्णु तीन प्रकार से अपने कदम भरता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - यहाँ मन्त्र का देवता इन्द्र है, अतः विष्णु इन्द्र का विशेषण समझना चाहिए। प्रथम—परमात्मा पक्ष में। (विष्णुः) चराचर जगत् में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर (इदम्) इस सब जगत् में (वि चक्रमे) व्यापक है। (त्रेधा) तीन प्रकार से—अर्थात् उत्पादक, धारक और विनाशक इन तीन रूपों में उस जगत् में वह (पदम्) अपने पैर को अर्थात् अपनी सत्ता को (निधदे) रखे हुए है। किन्तु (अस्य) इस परमेश्वर का, वह पैर अर्थात् अस्तित्व (पांसुले) पाञ्चभौतिक इस जगत् में (समूढम्) छिपा हुआ है, चर्म-चक्षुओं से अगोचर है। जैसे धूलिवाले प्रदेश में (समूढम्) छिपा हुआ (पदम्) किसी का पैर दिखाई नहीं देता है, यह यहाँ ध्वनि निकल रही है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (विष्णुः) अपने प्रकाश से सबको व्याप्त करनेवाला सूर्य (इदम्) इस सब ग्रहोपग्रह-चक्र में (विचक्रमे) अपने किरणरूप चरणों को रखे हुए है। (त्रेधा) भूगर्भ, भूतल और आकाश इन तीनों स्थानों पर, उसने (पदम्) अपने किरणसमूह-रूप पैर को (निधदे) रखा हुआ है। किन्तु (पांसुले) धूलिमय भूगर्भ में (अस्य) इस सूर्य का किरणरूप पैर (समूढम्) तर्कणा-गम्य ही है, प्रत्यक्ष नहीं है ॥९॥ यहाँ श्लेषालङ्कार और उपमाध्वनि है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - विष्णु सूर्य अपनी किरणों से व्याप्त होकर सब ग्रहोपग्रहों को प्रकाशित करता है। सूर्य के ही ताप से ओषधि, वनस्पति आदि पकती हैं। सूर्य यद्यपि तीनों स्थानों पर अपने किरण-रूप पैर रखे हुए है, तो भी उसकी किरणें पृथ्वीतल पर और आकाश में ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं, भूगर्भ में भी पहुँचकर कैसे वे मिट्टी के कणों को लोहे, ताँबे, सोने आदि के रूप में परिणत कर देती हैं, यह सबकी आँखें नहीं देख सकतीं, अपितु भूगर्भवेत्ता वैज्ञानिक लोग ही इस रहस्य को जानते हैं। वैसे ही विष्णु परमेश्वर ने अपनी सत्ता से ब्रह्माण्ड को व्याप्त किया हुआ है। वह सब पदार्थों को सृष्टि के आरम्भ में पैदा करता है, पैदा करके धारण करता है और प्रलयकाल में उनका संहार कर देता है। यह तीन रूपोंवाला उसका कार्य तीन प्रकार से पैर रखने के रूप में वर्णन किया गया है। यद्यपि वह सभी जगह अपना पैर रखे हुए है, तो भी जैसे किसी का धूल में छिपा हुआ पैर नहीं दीखता है, वैसे ही उसका सर्वत्र विद्यमान स्वरूप भी दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥९॥ इस दशति में इन्द्र के गुणवर्णनपूर्वक उसका आह्वान करने के कारण, उसके सहायक मित्र, वरुण और अर्यमा के नेतृत्व की याचना के कारण और मित्रावरुण, मरुत् तथा विष्णु के गुणकर्मों का कीर्तन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कथं विष्णुः त्रिधा चरणचङ्क्रमणं कुरुत इत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - ऋच इन्द्रदेवताकत्वाद् विष्णुरितीन्द्रस्य विशेषणं ज्ञेयम्। प्रथमः— परमात्मपरः। (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् यः स इन्द्रः परमेश्वरः। विष्लृ व्याप्तौ जुहोत्यादिः, विश प्रवेशने तुदादिः, वि अशू व्याप्तौ स्वादिः। “विष्णुर्विषितो भवति, विशतेर्वा, व्यश्नोतेर्वा” इति निरुक्तम् १२।१९। (इदम्) एतत् सर्वं जगत् (वि चक्रमे) पादन्यासेन व्याप्तवानस्ति। क्रमु पादविक्षेपे, कालसामान्ये लिट्। (त्रेधा) त्रिप्रकारेण—उत्पादकत्वेन, धारकत्वेन, प्रलायकत्वेन च, तत्र (पदम्) पादम्, सत्ताम् (निदधे) निहितवानस्ति। किन्तु, (अस्य) विष्णोः परमेश्वरस्य, तत् पदम् (पांसुले३) पाञ्चभौतिकेऽस्मिन् जगति। पांसवः पृथिव्यादीनां चतुर्णां भूतानां परमाणव आकाशश्चास्मिन् सन्तीति पांसुलं जगत्। ‘सिध्मादिभ्यश्च’। अ० ५।२।९७ इति मत्वर्थे लच्। (समूढम्) अन्तर्हितं, चर्मचक्षुषोरगोचरं विद्यते। यथा धूलिमये प्रदेशे निगूढं कस्यचित् पदं न दृग्गोचरं भवतीति ध्वन्यते। सम्पूर्वाद् ऊह वितर्के धातोर्निष्ठायां रूपम् ॥ अथ द्वितीयः—सूर्यपरः। (विष्णुः) स्वप्रकाशेन व्यापनशीलः इन्द्रः सूर्यः (इदम्) एतत् सर्वं ग्रहोपग्रहचक्रम् (विचक्रमे) स्वकिरणचरणन्यासेन व्याप्तवानस्ति। (त्रेधा) भूगर्भ-भूतल-गगनरूपेषु त्रिषु स्थानेषु (पदम्) किरणजालम् (निदधे) निहितवानस्ति। किन्तु पांसुले पांसुमये भूगर्भे (अस्य) सूर्यस्य किरणरूपं पदम् (समूढम्४) अन्तर्हितमस्ति, तर्कणीयमेव भवति, न तु प्रत्यक्षमित्यर्थः ॥९॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः, उपमाध्वनिश्च ॥९॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे—यदिदं किञ्च तद् विक्रमते विष्णुः, त्रिधा निधत्ते पदम् त्रेधाभावाय पृथिव्याम् अन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यत इति। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा, पन्नाः शेरत इति वा, पंसनीया भवन्तीति वा। निरु० १२।१९ ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - विष्णुः सूर्यः स्वरश्मिभिर्व्याप्तः सन् सर्वान् ग्रहोपग्रहान् प्रकाशयति। सूर्यस्यैव तापेनौषधिवनस्पत्यादयः पच्यन्ते। सूर्यो यद्यपि त्रिष्वपि स्थानेषु किरणचरणचङ्क्रमणं विधत्ते, तथापि तद्रश्मयः पृथ्वीतले दिवि चैव प्रत्यक्षरूपेण दृश्यन्ते; भूगर्भमपि प्राप्तास्ते कथं मृत्कणान् लोहताम्रसुवर्णादिरूपेण परिणमयन्तीति न सर्वेषां चक्षुर्गोचरं, प्रत्युत भूगर्भविदो वैज्ञानिका एव तद्रहस्यं जानन्ति। तथैव विष्णुः परमेश्वरः स्वसत्तया सकलमपि ब्रह्माण्डं व्याप्नोति। स समस्तपदार्थान् सृष्ट्यारम्भे सृजति, सृष्ट्वा धारयति, प्रलयकाले च संहरतीति त्रिधा तस्य व्यापारस्त्रिधा पादन्यासेन वर्णितः। यद्यपि स सर्वत्रैव स्वपदं निधत्ते तथापि कस्यचित् पांसुविलीनं पदमिव तस्य सर्वत्र विद्यमानमपि पदं दृग्गोचरं न भवति ॥९॥ अत्रेन्द्रगुणवर्णनपूर्वकं तदाह्वानात्, तत्सहायकानां मित्रवरुणार्यम्णां नेतृत्वप्रार्थनाद्, मित्रावरुणयोर्मरुतां विष्णोश्चापि गुणकर्मकीर्तनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विजानीत ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति द्वितीयाध्याय एकादशः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।२२।१७, य० ५।१५, अथ० ७।२६।४, सर्वत्र देवता विष्णुः, ‘पांसुले’ इत्यत्र च ‘पांसुरे’ इति पाठः। साम० १६६९। २. विवरणकृता मन्त्रोऽयं द्विधा व्याख्यातः। ‘इदं त्रैलोक्यं बलिबन्धनकाले विष्णुर्विचक्रमे विविधं चक्रमे क्रान्तवान्’ इत्येकम्। “अथवा विष्णुरादित्यः। स इदं सर्वम् अहरहर्विक्रमन् त्रिधा निदधे पदम् उदयगिरौ, मध्ये च नभसः, अस्तिगिरौ च। अथवा त्रिधा निदधे पदं पृथिव्याम् अग्न्यात्मना, अन्तरिक्षे वैद्युतात्मना, दिवि आदित्यात्मना। तच्च पदत्रयमस्य समूढं पांसुरे इव देशे। अथवा समूढमिति मुहेर्मोहनार्थस्य रूपम्। संमूढं संछन्नम्, यदस्य वैद्युतात्मना पदं तत् संमूढं संछन्नम्” इति द्वितीयम्। व्यचेर्व्याप्तिकर्मणो, विशेर्वा प्रवेशकर्मणः, व्यश्नोतेः व्याप्तिकर्मणो वा विष्णुः—इति भ०। विष्णुः त्रिविक्रमावतारधारी—इति सा०। ३. लुप्तोपममेतद् द्रष्टव्यम्। पांसुरे इव प्रदेशे—इति वि०। पांसुले प्रदेशे—इति भ०। धूलियुक्ते पादस्थाने—इति सा०। ४. यत् सम्यग् ऊह्यते तर्क्यते तर्केण विज्ञायते तत्—इति ऋ० १।२२।१७ भाष्ये द०। ५. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये व्यापकेश्वरपक्षे व्याख्यातः। टिप्पणी चेयमुट्टङ्किता तत्र—“सायणाचार्यादिभिर्विलसनाख्येन चास्य मन्त्रस्यार्थस्य वामनाभिप्रायेण वर्णितत्वात् स पूर्वपश्चिमपर्वतस्थो विष्णुरस्तीति मिथ्यार्थोऽस्तीति वेद्यम्” इति।
29_0222 इदं विष्णुर्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२२-१। विष्णोस्साम॥ विष्णुर्निचृत्गायत्री विष्णुः॥इ꣥दाऽ६मे꣥॥ वि꣡ष्णूऽ२ः᳐। वि꣣च꣢क्रा꣣ऽ२३४मा꣥इ। त्रा꣡इधा꣯नि꣢। दधा꣡इपा꣢ऽ१दाऽ᳒२᳒म्॥ स꣡मूऽ᳒२᳒होऽ१। ढाऽ२३मा꣢ऽ३। स्या꣡ऽ२᳐पा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। सु꣢लेऽ१॥
[[अथ द्वादश खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡ती꣢हि मन्युषा꣣वि꣡ण꣢ꣳ सुषु꣣वा꣢ꣳस꣣मु꣡पे꣢꣯रय। अ꣣स्य꣢ रा꣣तौ꣢ सु꣣तं꣡ पि꣢ब ॥ 30:0223 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अती॑हि मन्युषा॒विणं॑ सुषु॒वांस॑मु॒पार॑णे ।
इ॒मं रा॒तं सु॒तं पि॑ब ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡ति꣢꣯। इ꣣हि। मन्युषावि꣡ण꣢म्। म꣣न्यु। सावि꣡न꣢म्। सु꣣षुवाँ꣡स꣢म्। उ꣡प꣢꣯। आ। ई꣣रय। अस्य꣢। रा꣣तौ꣢। सु꣣त꣢म्। पि꣣ब। २२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह कहा गया है कि इन्द्र किससे सोमरस का पान करे।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (मन्युषाविणम्) जो उदासीन भाव से अर्थात् हृदय में प्रीति रखे बिना उपासना करता है, उसे (अति इहि) लाँघ जाइये। (सुषुवांसम्) हार्दिक प्रीति से उपासनारस अभिषुत करनेवाले को (उप-आ-ईरय) अपने समीप ले आइये। (अस्य) इस यजमान के (रातौ) आत्म-समर्पण-प्रवृत्त होने पर (सुतम्) अभिषुत श्रद्धा रस का (पिब) पान कीजिए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! आप (मन्युषाविणम्) क्रोध उगलनेवाले दुष्ट शत्रु को (अति-इहि)पराजित कीजिए। (सुषुवांसम्) कर-प्रदानरूप सोमयाग करनेवाले प्रजाजन को (उप-आ-ईरय) प्राप्त होकर शुभ कर्मों में प्रेरित कीजिए। (अस्य) इस प्रजाजन के (रातौ) कर-प्रदान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) दिये हुए कर को (पिब) स्वीकार कीजिए। और स्वीकार करके उसे सहस्रगुणित रूप में प्रजा-कल्याण के कार्य में ही व्यय कर दीजिए, जैसे सूर्य भूमिष्ठ रसों को सहस्रगुणित रूप में बरसा देने के लिए ही ग्रहण करता है ॥ तृतीय—अध्ययनाध्यापन के पक्ष में। हे इन्द्र ! विद्युत् के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी ! तू (मन्युषाविणम्) क्रोध, द्वेष आदि से विद्यादान करनेवाले गुरु को (अति-इहि) त्याग दे, उसके पास विद्या पढ़ने के लिए मत जा। (सुषुवांसम्) प्रेम से विद्यादान करनेवाले के पास ही (उप-आ-ईरय) पहुँचकर विद्या पढ़ने के लिए प्रार्थना कर। (अस्य) उस गुरु के (रातौ) विद्यादान के प्रवृत्त होने पर (सुतम्) ज्ञानरस को (पिब) पी । इससे यह अभिप्राय सूचित होता है कि अध्यापक को छात्रों के प्रति दिव्य मन रखते हुए रमण-पद्धति से पढ़ाना चाहिए। अथर्ववेद में छात्रों की ओर से आचार्य को कहा गया है कि हे वाणी के अधिपति तथा विद्याधन के स्वामी आचार्यप्रवर ! आप दिव्य मन के साथ हमारे बीच में पुनः-पुनः आइये और ऐसी रमण-पद्धति से हमें विद्यादान दीजिए कि सुना हुआ शास्त्र कभी भूलें नहीं (अथ० १।१।२) ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर उसके श्रद्धारस को स्वीकार नहीं करता, जो उदासीन मन से देता है। राजा भी शत्रु को नहीं, अपितु कर (टैक्स) देनेवाले प्रजाजन को ही बढ़ाता है। गुरुओं को भी सरल पद्धति से और प्रेमपूर्वक ही छात्रों को पढ़ाना चाहिए, जटिल पद्धति से तथा क्रोध-विद्वेष आदि के वशीभूत होकर नहीं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः कस्य सोमरसं पिबेदित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्र परमेश्वर ! त्वम् (मन्युषाविणम्२) यो मन्युना उन्मनस्त्वेन हार्दिकप्रीतिराहित्येन सुनोति उपास्ते तम् (अति इहि) अतिक्रम्य गच्छ। (सुषुवांसम्) हार्दिकप्रीत्या उपासनारसमभिषुतवन्तम्। षुञ् अभिषवे, लिटः क्वसुः। (उप-आ-ईरय) स्वान्तिके आनय। ईर गतौ कम्पने च, ण्यन्तः। अस्य यजमानस्य (रातौ) आत्मसमर्पणे प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतम् श्रद्धारसम् (पिब) आस्वादय ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! त्वम् (मन्युषाविणम्) क्रोधोद्वमितारं दुष्टशत्रुम् (अति-इहि) पराजयस्व। (सुषुवांसम्) करप्रदानरूपं सोमसवनं कृतवन्तं प्रजाजनम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य शुभकर्मसु प्रेरय। (अस्य) प्रजाजनस्य (रातौ) करप्रदाने प्रवृत्ते सति (सुतम्) अभिषुतं करम् (पिब) स्वीकुरु, स्वीकृत्य च “प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्। “सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः” (रघु० १।१८) इति न्यायेन सहस्रगुणं कृत्वा प्रजाहितायैव व्ययस्व ॥ अथ तृतीयः—अध्ययनाध्यापनपरः। हे इन्द्र विद्युद्वत्तीव्रबुद्धे विद्यैश्वर्यजिज्ञासो विद्यार्थिन्३ ! त्वम् (मन्युषाविणम्) मन्युना कोपविद्वेषादिना सुनोति विद्यां ददाति यस्तं गुरुम् (अति-इहि) अतिक्रमस्व, तत्सकाशे विद्यामध्येतुं मा यासीः। (सुषुवांसम्) यः प्रेम्णा विद्यां ददाति तम् (उप-आ-ईरय) उपेत्य विद्यां दातुं प्रार्थय। (अस्य) प्रेम्णा विद्यादातुः गुरोः (रातौ) विद्यादाने प्रवृत्ते (सुतं) ज्ञानरसं (पिब) आस्वादय। देवेन मनसा रमणपद्धत्या च छात्राणामध्यापनमुचितमिति भावः। यथाह श्रुतिः—“पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मन॑सा स॒ह। वसो॑ष्पते॒ निर॑मय॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम्। अथ० १।१।२” इति ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्तस्य श्रद्धारसं न स्वीकरोति य उदासीनेन मनसा प्रयच्छति। राजापि शत्रुं न, प्रत्युत करप्रदातारं प्रजाजनमेव वर्द्धयति। गुरुभिरपि सरलपद्धत्या प्रेम्णा च छात्राः पाठनीयाः, न तु जटिलपद्धत्या क्रोधविद्वेषादिवशीभूतैर्वा ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।३२।२१ ‘मुपेरय’ इत्यत्र ‘मुपारणे’, ‘अस्य रातौ’ इत्यत्र च ‘इमं रातं’ इति पाठः। २. अति इहि अतीत्य आगच्छेत्यर्थः। मन्युषाविणं दीप्तस्य सोमस्य अभिषोतारं मेधातिथिं मां प्रति—इति वि०। ३. “(इन्द्रम्) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धिम्” इति “(इन्द्र) योगैश्वर्यजिज्ञासो” इति च क्रमेण ऋ० ६।४८।१४ भाष्ये, ऋ० १।१७६।६ भाष्ये च द०।
30_0223 अतीहि मन्युषाविणम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२३-१। कौत्सम्॥ कुत्सो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥ती꣯हिमा। न्यु꣢षाऽ᳒२᳒वा꣡इणाऽ᳒२᳒म्। सुषुवाꣳ꣡साऽ᳒२᳒म्। हो꣡इ। ऊपै꣢ऽ१राया᳐ऽ२। अ꣣स्यरा꣢꣯ता꣡ऽ२३उ। सू꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। पी꣣ऽ२३४बा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क꣢दु꣣ प्र꣡चे꣢तसे म꣣हे꣡ वचो꣢꣯ दे꣣वा꣡य꣢ शस्यते। त꣡दिध्य꣢꣯स्य꣣ व꣡र्ध꣢नम् ॥ 31:0224 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
क꣢त्। उ꣣। प्र꣡चे꣢꣯तसे। प्र। चे꣣तसे। महे꣢। व꣡चः꣢꣯। दे꣣वा꣡य꣢। श꣣स्यते। त꣢त्। इत्। हि। अ꣣स्य। व꣡र्ध꣢꣯नम्। २२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि परमात्मा की स्तुति हम क्यों करें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (कत् उ) किसलिए (प्रचेतसे) प्रकृष्ट ज्ञान वा प्रकृष्ट चित्तवाले, (महे) महान् (देवाय) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाले इन्द्र परमेश्वर के लिए (वचः) स्तुति-वचन (शस्यते) उच्चारण किया जाता है? यह प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर है—(हि) क्योंकि (तत्) वह स्तुति-वचन (अस्य) इस स्तुतिकर्ता यजमान का (वर्धनम्) बढ़ानेवाला होता है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर के लिए जो स्तुति-वचन कहे जाते हैं, उनसे स्तोता की ही वृद्धि और उन्नति होती है, यह जानना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कुतोऽस्माभिर्देवस्य परमात्मनः स्तुतिः कार्येत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (कत्१ उ) किमर्थं खलु (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतो ज्ञानं चित्तं वा यस्य तस्मै, प्रकृष्टज्ञानाय प्रकृष्टचित्ताय वा, (महे) महते, (देवाय) दिव्यगुणकर्मस्वभावाय इन्द्राय परमेश्वराय (वचः) स्तुतिवचनं (शस्यते) उच्चार्यते ? इति प्रश्नः। तदुत्तरं दीयते—(हि) यस्मात् (तत्) तत् स्तुतिवचनम् (इत्) निश्चयेन (अस्य२) स्तोतुर्यजमानस्य (वर्द्धनम्) वृद्धिकरं भवति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वराय यानि स्तुतिवचांस्युदीर्यन्ते तैः स्तोतुरेव वृद्धिरुन्नतिश्च भवतीति विज्ञेयम् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. कत्। किमः उत्तरस्याः पञ्चम्याः अत् आदेशः। कस्मात् कारणात्। उ इति पादपूरणः—इति वि०। २. अस्य देवस्य वर्धनं वृद्धिकरं भवति—इति भ०। अस्य यजमानस्य—इति सा०।
31_0224 कदु प्रचेतसे - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२४-१। काश्यपम्, आप्सरसं वा॥ कश्यपो गायत्रीन्द्रः॥
क꣣दु꣤प्र꣣चे꣤꣯त꣥से꣯। म꣣हा꣢ऽ३इ॥ वा꣡ऽ२३४चो। दे꣥꣯वा꣯हाउ। व꣤चोदे꣥꣯वा। य꣢श꣡स्याऽ२३ता꣢ऽ३४इ॥ त꣣दा꣢ऽ३४इद्धि꣣या꣢ऽ३॥ स्य꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥। धा꣤ऽ५नोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣣क्थं꣢ च꣣ न꣢ श꣣स्य꣡मा꣢नं꣣ ना꣡गो꣢ र꣣यि꣡रा चि꣢꣯केत। न꣡ गा꣢य꣣त्रं꣢ गी꣣य꣡मा꣢नम्॥ 32:0225 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ॒क्थं च॒न श॒स्यमा॑न॒मगो॑र॒रिरा चि॑केत ।
न गा॑य॒त्रं गी॒यमा॑नम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣣क्थ꣢म्। च꣣। न꣢। श꣣स्य꣡मा꣢नम्। न। अ꣡गोः꣢꣯। अ। गोः꣣। रयिः꣢। आ। चि꣣केत। न꣢। गा꣣यत्रम्। गी꣣य꣡मा꣢नम्। २२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह बताते हैं कि किसका किया हुआ भी कार्य व्यर्थ होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अगोः) अश्रद्धालु जन का (न) न तो (शस्यमानम्) उच्चारण किया जाता हुआ (उक्थम् च) स्तोत्र ही, (न) न ही (रयिः) दान किया जाता हुआ धन, (न) न ही (गीयमानम्) गान किया जाता हुआ (गायत्रम्) सामगान (आ चिकेत) कभी किसी से जाना गया है। अतः श्रद्धापूर्वक ही परमेश्वर-विषयक-स्तुति आदि कर्म करना चाहिए ॥३॥ इस मन्त्र में स्तोत्रोच्चारण, गायत्रगान आदि के कारण के होने पर भी उनके ज्ञान-रूप कार्य की अनुत्पत्ति वर्णित होने से विशेषोक्ति अलङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - श्रद्धा-रहित मनुष्य का उच्चारण किया गया भी स्तोत्र अनुच्चारित के समान होता है, दिया हुआ भी दान न दिये हुए के समान होता है और गाया हुआ भी सामगान न गाये हुए के समान होता है। इसलिए श्रद्धा के साथ ही सब शुभ कर्म सम्पादित करने चाहिएँ ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
कस्य कृतमपि कार्यं वृथैव भवतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अगोः२) अस्तोतुः अश्रद्दधानस्य जनस्य। गायतीति गौः वेदपाठी स्तोता। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। यो गायन्नपि श्रद्दधानेन मनसा न गायति सः अगौरित्युच्यते तस्य। (न) नैव (शस्यमानम्) उदीर्यमाणम् (उक्थम् च) स्तोत्रं हि (न) नैव (रयिः३) दीयमानं धनम्, (न) नैव च (गीयमानम्) गानविषयीक्रियमाणम् (गायत्रम्) गायत्रनामकं साम (आचिकेत) आचिकिते, कदापि अवबुद्धं केनचित्। कित ज्ञाने लिट्, कर्मणि परस्मैपदं छान्दसम्। अतः श्रद्धयैव इन्द्रस्तुत्यादिकं कर्म करणीयमिति भावः ॥३॥ अत्र उक्थशंसनगायत्रगानादिरूपे कारणे सत्यपि तज्ज्ञानरूपकार्यानुत्पत्तिवर्णनाद् विशेषोक्तिरलङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - श्रद्धाविहीनस्य जनस्य शस्तमपि स्तोत्रमशस्तमिव भवति, दत्तमपि धनमदत्तमिव भवति, गीतमपि च सामगानमगीतमिव भवति। अतः श्रद्धयैव सर्वाणि शुभकार्याणि सम्पाद्यानि ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२।१४ ‘शस्यमानमगोररिराचिकेत’ इति पाठः। २. नागोः। कुङ् गुङ् अव्यक्ते शब्दे। गुः अव्यक्तभाषी। न गुः अगुः व्यक्तभाषी। न अगुः न व्यक्तभाषी नागुः। तस्य नागोः अव्यक्तभाषिण इत्यर्थः—इति वि०। अगोः गौरहितस्य गोभिः हीनस्य अदक्षिणस्य यजमानस्य—इति भ०। अगोः अस्तोतुः—इति सा०। ३. सायणस्तु ‘अगोः अयिः’ इति विच्छिद्य ‘अयिः अरिः’ व्यत्ययेन यकारः, इति व्याचष्टे। तत्तु पदकारविरुद्धत्वात् चिन्त्यम्।
32_0225 उक्थं च - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२५-१। बार्हदुक्थे द्वे॥ द्वयोर्बृहदुक्थो गायत्रीन्द्रः॥
उ꣥क्थ꣤ञ्च꣥नो꣤हाइ॥ श꣢स्य꣡मा꣯नम्। ना꣯गो꣯राऽ२३यीः꣢। आ꣡꣯चिके꣯ता॥ न꣢गा꣡꣯याऽ२३त्रा꣢म्॥ गी꣯। य꣡माऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्र꣢ उ꣣क्थे꣢भि꣣र्म꣡न्दि꣢ष्ठो꣣ वा꣡जा꣢नां च꣣ वा꣡ज꣢पतिः। ह꣡रि꣢वान्त्सु꣣ता꣢ना꣣ꣳ स꣡खा꣢ ॥ 33:0226 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रः꣢꣯। उ꣣क्थे꣡भिः꣢। म꣡न्दि꣢꣯ष्ठः। वा꣡जा꣢꣯नाम्। च꣣। वा꣡ज꣢꣯पतिः। वा꣡ज꣢꣯। प꣣तिः। ह꣡रि꣢꣯वान्। सु꣣ता꣢ना꣢म्। स꣡खा꣢꣯। स। खा꣣। २२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर कैसा है, और राजा कैसा हो।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, विघ्नों को विदीर्ण करनेवाला, सुख आदि का प्रदाता परमेश्वर (उक्थेभिः) वेदमन्त्रों से (मन्दिष्ठः) अतिशय आनन्दित करनेवाला, (वाजानां च) तथा सब बलों का (वाजपतिः) बलपति, (हरिवान्) प्रशस्त प्राणवाला, और (सुतानाम्) सब पुत्र-पुत्रियों का (सखा) मित्र है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (इन्द्रः) राजा (उक्थेभिः) कीर्तियों से (मन्दिष्ठः) सबको अत्यन्त आनन्द देनेवाला, (वाजानां च) सब प्रकार के अन्नों, धनों, बलों और विज्ञानों का (वाजपतिः) स्वामी, (हरिवान्) जितेन्द्रिय अथवा राज्य में विद्युत् आदि से चलनेवाले तीव्रगामी भूमियान, जलयान और विमानों का प्रबन्ध करनेवाला और (सुतानाम्) पुत्रतुल्य प्रजाजनों का (सखा) मित्र हो ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ‘वाजा, वाज’ में छेकानुप्रास है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे विश्व का सम्राट् परमेश्वर अनेक प्रकार के गुण-समूहों का अग्रणी है, वैसे ही प्रजाओं के बीच जो मनुष्य यशस्वी, यश देनेवाला, धनपति, बलवान्, विज्ञानी, जितेन्द्रिय, सुप्रबन्धक और सबके साथ सौहार्द से बरतनेवाला हो, उसी को राजा के पद पर अभिषिक्त करना चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरः कीदृशोऽस्ति, राजा च कीदृशो भवेदित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, विघ्नविदारकः, सुखादिप्रदाता परमेश्वरः (उक्थेभिः) उक्थैः वेदमन्त्रैः (मन्दिष्ठः) मन्त्राध्येतॄणाम् अतिशयेन हर्षयिता वर्तते। यथा कश्चिन्महाकविः स्वकाव्येन काव्यपाठकान् हर्षयति तथेत्यर्थः। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, तृचि मन्दिता, अतिशयेन मन्दिता इति मन्दिष्ठः, मन्दितृ शब्दादिष्ठनि, ‘तुरिष्ठेमेयस्सु’ अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। (वाजानाम्१ च) बलानां च। वाज इति बलनाम। निघं० २।९। (वाजपतिः) बलपतिः अस्ति। किञ्च (हरिवान्) प्रशस्तप्राणवान् सः। प्रशस्तार्थे मतुप्। प्राणो वै हरिः, स हि हरति। कौ० ब्रा० १७।१। (सुतानाम्) सर्वेषाम् पुत्राणां सर्वासाम् पुत्रीणां च (सखा) मित्रम् अस्ति ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। (इन्द्रः) राजा (उक्थेभिः) यशोभिः (मन्दिष्ठः) अतिशयेन आनन्दजनकः, (वाजानाम् च) सर्वविधानाम् अन्नानां धनानां बलानां विज्ञानानां च (वाजपतिः) अन्नपतिः धनपतिः बलपतिः विज्ञानपतिश्च, (हरिवान्) हरन्ति जनं स्वस्वविषयेषु इति हरयः इन्द्रियाणि तद्वान् प्रशस्तेन्द्रियो जितेन्द्रियो वा, यद्वा हरन्ति वहन्तीति हरयः विद्युदादिभिः सञ्चाल्यमानानि तीव्रवेगानि भूजलान्तरिक्षयानानि तद्वान्, राज्ये तत्प्रबन्धकर्तेत्यर्थः, किञ्च (सुतानाम्) पुत्रतुल्यानां प्रजाजनानाम् (सखा) सुहृद् भवेत् ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘वाजा, वाज’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा विश्वसम्राट् परमेश्वरो विविधगुणगणाग्रणीरस्ति, तथैव प्रजानां मध्ये यो जनः कीर्तिमान् कीर्तिजनको धनपतिर्बलवान् विज्ञानवान् जितेन्द्रियः सुप्रबन्धकः सर्वैः सह सौहार्देन व्यवहर्ता च भवेत् स एव राजपदेऽभिषेचनीयः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. वाजपतिरिति वचनादेव गतार्थत्वे सति पुनः वाजानाम् इति कथनं बलानां व्यापकत्वं सूचयति, सर्वेषां बलानामधिपतिरित्यर्थः। सेयं शैली वेदे बहुत्र प्रयुक्ता, यथा—वसुपते वसूनाम् (ऋ० १०।४७।१), गोपतिं शूर गोनाम् (ऋ० ३।३६।९) इति।
33_0226 इन्द्र उक्थेभिर्मन्दिष्ठो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२६-१।
इ꣥न्द्रउक्थाइ॥ भि꣢र्मा꣡न्दाइष्ठो꣢ऽ३। वा꣡जा꣢᳐ना꣣ऽ२३४ञ्चा꣥। वा꣡꣯जप꣢तिः॥ ह꣡राऽ२᳐इवा꣣ऽ२३४न्त्सू꣥। ता꣡꣯ना꣰꣯ऽ२ꣳस꣡। खा। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢ या꣣ह्यु꣡प꣢ नः सु꣣तं꣡ वाजे꣢꣯भि꣣र्मा꣡ हृ꣢णीयथाः। म꣣हा꣡ꣳ इ꣢व꣣ यु꣡व꣢जानिः ॥ 34:0227 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। या꣣हि। उ꣡प꣢꣯। नः꣣। सुत꣢म्। वा꣡जे꣢꣯भिः। मा। हृ꣣णीयथाः। महा꣢न्। इ꣣व। यु꣡व꣢꣯जानिः। यु꣡व꣢꣯। जा꣣निः। २२७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा को उपासना-यज्ञ में निमन्त्रित किया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मान् ! महान् आप (वाजेभिः) आध्यात्मिकबलरूप तथा योगेश्वर्यरूप उपहारों के साथ (नः) हमारे (सुतम्) प्रारम्भ किये हुए उपासना-यज्ञ में (आ याहि) आइये, (मा हृणीयथाः) रोष वा संकोच मत कीजिए, (इव) जैसे (युवजानिः) युवति पत्नीवाला (महान्) गुणों से महान् कोई पुरुष, बहुमूल्य उपहारों के साथ पत्नी-सहित दूसरों के यज्ञ में जाता है ॥५॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे रूपवती भार्यावाला कोई महान् पुरुष सामान्यजनों के भी निमन्त्रण को स्वीकार कर, उपहार लेकर भार्या के साथ उनके यज्ञ में जाता है, वैसे ही महान् परमात्मा भी हम तुच्छों से भी आयोजित उपासना-यज्ञ में आध्यात्मिक ऐश्वर्य का उपहार लेकर आये ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानमुपासनायज्ञे निमन्त्रयन्नाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् ! महाँस्त्वम् (वाजेभिः) वाजैः आध्यात्मिकबलरूपैर्योगैश्वर्यरूपैश्च उपहारैः सह (नः) अस्माकम् (सुतम्) प्रारब्धमुपासनायज्ञम् (आ याहि) आगच्छ, (मा हृणीयथाः) रोषं संकोचं च (मा) कार्षीः। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च, कण्ड्वादिः। (इव) यथा (युवजानिः) युवतिः तरुणी जाया धर्मपत्नी यस्य तादृशः (महान्) गुणैर्विशालः कश्चित् पुरुषः संकोचं रोषं च विहाय वाजैः बहुमूल्यैरुपहारैः सह भार्यामादाय परेषां यज्ञं गच्छति ॥५॥२ अत्रोपमालङ्कारः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा रूपवद्भार्यः कश्चिन्महान् पुरुषः सामान्यजनानामपि निमन्त्रणं स्वीकृत्योपहारानादाय भार्यया सह तेषां यज्ञं गच्छति, तथैव महानपि परमात्मा तुच्छैरप्यस्माभिरायोजिते उपासनायज्ञे आध्यात्मिकानामैश्वर्याणामुपहारं गृहीत्वा समागच्छेत् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२।१९, ‘ओ षु प्रयाहि वाजेभिर्मा हृणीथा अभ्यस्मान्’ इति तत्र पूर्वार्द्धपाठः। २. एत्य च स्तोकेन अपराधेन मा हृणीयथाः मा क्रोधं गमः, मा रोषीरित्यर्थः। महानिव युवजानिः। युवतिर्जाया यस्य स युवजानिः तरुणभार्यः इत्यर्थः। स यथा तरुण्या भार्याया अपराधेऽपि न रुष्यति, तद्वन्मा रोषीरित्यर्थः—इति वि०। स (युवजानिः) यथा जायामधिगच्छति न च तामधिक्रुध्यति तद्वत्—इति भ०। वाजेभिः अन्दीयैर्हवीरूपैरन्नैः मा हृणीयथा मा ह्रियस्व। तत्र दृष्टान्तः—यथा रूपवद्भार्योपेतः प्रभुः अन्याभिर्नापह्रियते, किन्तु तामेव युवतिं प्रत्यागच्छति तद्वत्—इति सा०।
34_0227 आ याह्युप - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२७-१। कौत्सम्॥ कुत्सो गायत्रीन्द्रः॥
आ꣤꣯या꣥꣯ही꣤। उ꣡पन꣢स्सुत꣡म्। होवा꣢ऽ३हा꣢इ। वा꣡꣯जे꣰꣯ऽ२भिर्मा꣡꣯हृणी꣢꣯यथाऽ३ः। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ। महाꣳ꣡꣯इव꣢यु꣡वाऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢ऽ᳐३इ। जा꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क꣣दा꣡ व꣡सो स्तो꣣त्र꣡ꣳहर्य꣢꣯त꣣ आ꣡ अव꣢꣯ श्म꣣शा꣡ रु꣢ध꣣द्वाः꣢। दी꣣र्घ꣢ꣳसु꣣त꣢म् वा꣣ता꣡प्या꣢य ॥ 35:0228 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क॒दा व॑सो स्तो॒त्रं हर्य॑त॒ आव॑ श्म॒शा रु॑ध॒द्वाः ।
दी॒र्घं सु॒तं वा॒ताप्या॑य ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
क꣣दा꣢। व꣣सो। स्तोत्र꣢म्। ह꣡र्य꣢꣯ते। आ। अ꣡व꣢꣯। श्म꣣शा꣢। रु꣣धत्। वा꣡रिति꣢दी꣣र्घ꣢म्। सु꣣त꣢म्। वा꣣ता꣡प्या꣢य। वा꣣त। आ꣡प्या꣢꣯य। २२८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- दुर्मित्रः कौत्सः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में भौतिक तथा दिव्य वर्षा की कामना करता हुआ कोई कह रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—भौतिक वर्षा के पक्ष में। बहुत समय तक वर्षा न होने पर जल के अभाव से पीड़ित मनुष्य कहता है—हे (वसो) निवासप्रद इन्द्र जगदीश्वर ! वर्षा के लिए (स्तोत्रम्) स्तोत्र को (हर्यते) आपके प्रति पहुँचाते हुए मेरे लिए (कदा) कब (श्मशा) वर्षाजल से परिपूर्ण नदी या नहर (वाः) जल को (आ अवरुधत्) लाकर खेत, जलाशय आदि में रोकेगी? मैनें (वाताप्याय) वर्षा-जल के लिए (दीर्घम्) लम्बे समय तक (सुतम्) वृष्टियज्ञ किया है ॥ द्वितीय—अध्यात्म-वर्षा के पक्ष में। दिव्य आनन्दरस से परिपूर्ण परमेश्वर के पास से आनन्दरस की वर्षा की कामना करता हुआ साधक कह रहा है—हे (वसो) मुझ निर्धन के धन, निवासदाता जगदीश्वर ! आनन्दरस की वर्षा के लिए (स्तोत्रम्) स्तुति को (हर्यते) आपके प्रति पहुँचाते हुए मेरे लिए (कदा) कब (श्मशा) आपके पास से बहती हुई आनन्दरस की धारा (वाः) आनन्दरस को (आ अवरुधत्) लाकर मेरे हृदयरूप क्षेत्र या जलाशय में रोकेगी? हे रसागार ! चिरकालीन दुःख के दावानल से दग्ध मैंने (वाताप्याय) दिव्य आनन्द-जल की वर्षा के लिए (दीर्घम्) लम्बे समय तक (सुतम्) श्रद्धारस प्रस्रुत करते हुए अध्यात्म-यज्ञ निष्पन्न किया है। तो भी आनन्द-रस की वर्षा मुझे क्यों नहीं प्राप्त हो रही है? ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे अनावृष्टि होनेपर वर्षा के लिए लम्बा वृष्टि-यज्ञ किया जाता है, वैसे ही आनन्द-रस का प्यासा मैं आनन्द-रस की वर्षा को पाने के लिए दीर्घ ध्यान-यज्ञ चिरकाल से कर रहा हूँ। तो भी हे प्रभो, क्यों आप आनन्द-वारि नहीं बरसा रहे हैं? बरसाओ, बरसाओ, हे देव, दिव्य आनन्द को बरसाओ। नहीं तो अनेक प्रकार से सांसारिक संतापों से संतप्त हुआ मैं जीवन धारण भी नहीं कर सकूँगा ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ भौतिकीं दिव्यां च वृष्टिं कामयमानः कश्चिदाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—भौतिकवृष्टिपरः। चिरकालीनवृष्टिव्युपरमे सति जलाभावपीडितः कश्चिदाह। हे (वसो) निवासप्रद इन्द्र जगदीश्वर ! वृष्ट्यर्थम् (स्तोत्रम्) स्तोमम् (हर्यते) त्वां प्रति गमयते मह्यम्। हर्य गतिकान्त्योः शतरि चतुर्थ्येकवचने रूपम्। (कदा) कस्मिन् काले (श्मशा२) वृष्ट्युदकपूर्णा नदी कुल्या वा। श्मशा शु अश्नुते इति वा, श्म अश्नुते इति वा। निरु० ५।१२। (वाः) उदकम् (आ अवरुधत्) आनीय क्षेत्रजलाशयादौ अवरोत्स्यति। रुधिर् आवरणे धातोर्लेटि रूपम्। मया (वाताप्याय३) उदकाय। वाताप्यम् उदकं भवति, वात एतदाप्याययति। निरु० ६।२८। (दीर्घम्) दीर्घकालं यावत् (सुतम्) वृष्टियागो निष्पादितः। अथ द्वितीयः—अध्यात्मवृष्टिपरः। दिव्यानन्दरसपूर्णस्य परमेश्वरस्य सकाशादानन्दवृष्टिं कामयमानः कश्चिदाह। हे (वसो) निर्धनस्य मम धनभूत, निवासप्रद जगदीश्वर ! आनन्दरसवर्षणार्थम् (स्तोत्रम्) स्तुतिम् (हर्यते) त्वां प्रति गमयते मह्यम् (कदा) कस्मिन् काले (श्मशा) त्वत्सकाशात् प्रवहन्ती आनन्दवारिधारा (वाः) आनन्दरसम् (आ अवरुधत्) आनीय मदीये हृदयरूपे क्षेत्रे जलाशये वा अवरोत्स्यति ? हे रसागार ! चिरदुःखदावाग्निदग्धेन मया (वाताप्याय) दिव्यानन्दवारिवर्षणाय (दीर्घम्) सुदीर्घकालं यावत् (सुतम्) श्रद्धारसप्रस्रवणपूर्वकम् अध्यात्मयागो निष्पादितः। तथापि किमिति आनन्दवारिवर्षा मां न प्राप्नुवन्ति ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथाऽनावृष्टौ जातायां वर्षणार्थं दीर्घो वृष्टियज्ञोऽनुष्ठीयते तथैवानन्दरसपिपासुरहमानन्दरसवृष्टिमाप्तुं दीर्घं ध्यानयज्ञं चिरादनुतिष्ठन्नस्मि। हे प्रभो ! तथापि किमिति त्वमानन्दवारि न वर्षयसि ? वर्षय, वर्षय, देव ! दिव्यानन्दं वर्षय। अन्यथा बहुविधसांसारिकसंतापसंतप्तोऽहं नोत्सहिष्ये जीवनमपि धारयितुम् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१०५।१ ‘आ अव’ इत्यत्र ‘आव’ इति पाठः। २. श्मशा-शब्देनापि कुल्योच्यते। लुप्तोपमं चेदं द्रष्टव्यम्। श्मशेव कुल्येवोदकम्। एतदुक्तं भवति यथा कुल्या उदकमवरुणद्धि तद्वत् कदा स्तोत्रम् अवरोत्स्यसि, श्रोष्यसीत्यर्थः—इति वि०। श्मशा वायुः। शु आशु अश्नुते इति श्मशा वायुः इति यास्कः। आ अभिमुखम् अवारुधत् अवरुन्धीत वाः उदकम् तव स्तोत्रं हर्यते कामयमानाय यजमानाय—इति भ०। कदा कस्मिन् काले अवारुधत् अवरोत्स्यसि, अवरुध्य च कदा वाः वारयिष्यति। अश्नुते क्षेत्रम् इति श्मशा कुल्या, लुप्तोपमम् एतत्। यथा कुल्येतस्तत उदकान्यवरुणद्धि अवरुध्य च वारयति तथेत्यर्थः—इति सा०। ३. वातं प्राणम् आप्यायति इति वाताप्यम् उदकम्। आपोमयः प्राण इति श्रुतेः—इति भ०। वातेन आप्यते अधस्तान्निपात्यते इति वाताप्यम् उदकम्—इति सा०।
35_0228 कदा वसो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२८-१। कौत्से द्वे॥ द्वयोः कुत्सो भुरिग्गायत्रीन्द्रः॥
ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१इ। कदा꣢꣯व꣣सो꣥꣯। स्तो꣡त्रा꣢ऽ३म्। ह꣢र्य꣣ता꣤आ꣥॥ ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१इ। अ꣣व꣢श्म꣣शा꣥꣯। रु꣣धा꣢दू꣣ऽ२३४वाः꣥॥ ओ꣡ऽ᳒२᳒होऽ१इ। दी꣣꣯र्घꣳ꣢सु꣣त꣥म्॥ वा꣣꣯ता꣢ऽ३४३। पी꣢ऽ३या꣤ऽ५याऽ६५६॥ ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
35_0228 कदा वसो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
२२८-२।
क꣣दा꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥। व꣡सो। स्तोत्रा꣢ऽ३म्। ह꣢र्य꣣ता꣤आ꣥। अ꣡वा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥। श्म꣡शाऽ२᳐। रु꣣धा꣢᳐दू꣣ऽ२३४वाः꣥। दी꣣꣯र्घा꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥। सु꣡ताऽ२३म्। वा꣯ता꣢ऽ३४३। पी꣢ऽ३या꣤ऽ५याऽ६५६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ब्रा꣡ह्म꣢णादिन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सः꣣ पि꣢बा꣣ सो꣡म꣢मृ꣣तू꣡ꣳ रनु꣢꣯। त꣢वे꣣द꣢ꣳस꣣ख्य꣡मस्तृ꣢꣯तम् ॥ 36:0229 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑ ।
तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ब्रा꣡ह्म꣢꣯णात्। इ꣣न्द्र। रा꣡ध꣢꣯सः। पि꣡ब꣢꣯। सो꣡म꣢꣯म्। ऋ꣣तू꣢न्। अ꣡नु꣢꣯। त꣡व꣢꣯। इ꣣द꣢म्। स꣣ख्य꣢म्। स꣣। ख्य꣢म्। अ꣡स्तृ꣢꣯तम्। अ। स्तृ꣣तम्। २२९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य की मित्रता की याचना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप (राधसः) ध्यान-यज्ञ के साधक (ब्राह्मणात्) वेद तथा ईश्वर के ज्ञाता मुझसे (ऋतून् अनु) ऋतुओं के अनुरूप, समयानुसार (सोमम्) मेरे मैत्री-रस का (पिब) पान कीजिए। मेरे साथ (तव) आपकी (इदम्) यह (सख्यम्) मित्रता (अस्तृतम्) अविनष्ट अर्थात् चिरस्थायी रहे ॥ द्वितीय—गुरुशिष्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) विद्युत् के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी ! तू (राधसः) अध्ययन-अध्यापन यज्ञ के साधक (ब्राह्मणात्) ब्रह्मवेत्ता, वेदवेत्ता और ब्राह्मण स्वभाववाले आचार्य से (ऋतून् अनु) प्रत्येक ऋतु में (सोमम्) मेरे ज्ञान-रस को (पिब) पी। (तव) तेरी (इदम्) यह गुरुशिष्य-सम्बन्ध-रूप (सख्यम्) मित्रता (अस्तृतम्) अविनष्ट रहे ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमात्मा और गुरु की मैत्री को प्राप्त करते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मन आचार्यस्य च सख्यं प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (राधसः) ध्यानयज्ञसंसाधकात्। राध्नोतीति राधाः तम्। राध संसिद्धौ धातोः औणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (ब्राह्मणात्२) वेदेश्वरविदः मत्सकाशात्। ब्रह्म वेदम् ईश्वरं वा अधीते वेद वा स ब्राह्मणः ‘तदधीते तद्वेद’ इत्यस्मिन्नर्थे अण् प्रत्ययः। (ऋतून् अनु) ऋत्वनुरूपं यथाकालमित्यर्थः। (सोमम्) मदीयं मैत्रीरसम् (पिब) आस्वादय। मया सह (तव) त्वदीयम् (इदम्) एतत् (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तृतम्) सदाऽविनष्टम्, तिष्ठत्विति शेषः। स्तृणातिः वधकर्मा। निघं० २।१९। अथ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। हे (इन्द्र) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धे विद्यार्थिन् ! त्वम् (राधसः) अध्ययनाध्यापनयज्ञसाधकात् (ब्राह्मणात्) वेदेश्वरविदो ब्राह्मणस्वभावात् आचार्यात् (ऋतून् अनु) ऋतौ ऋतौ (सोमम्) ज्ञानरसम् (पिब) आस्वादय। (तव) त्वदीयम् (इदम्) एतद् गुरुशिष्यसम्बन्धरूपम् (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तृतम्) अविनष्टं तिष्ठतु ॥७॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये परमात्मनो गुरोश्च सख्यं प्राप्नुवन्ति ते सदा सुखिनो भवन्ति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१५।५ ‘तवेदं’ इत्यत्र ‘तवेद्धि’ इति पाठः। २. (ब्राह्मणम्) वेदेश्वरविदम् इति य० ३०।५ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं दयान्दर्षिणा वायुपक्षे व्याख्यातः।
36_0229 ब्राह्मणादिन्द्र राधसः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२२९-१। और्ध्वसद्मनम्॥ ऊर्ध्वसद्मा गायत्रीन्द्रः॥
ब्रा꣥꣯ह्मणा꣯दी॥ द्र꣢रा꣯ध꣡साः। पि꣢बा꣯सो꣡माऽ᳒२᳒म्। ऋतूꣳ꣯र꣡नू॥ त꣢वे꣯दाꣳ꣡साऽ२३॥ ख्या꣡ऽ२३मा꣤ऽ३। स्ता꣢ऽ३४५र्तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व꣣यं꣡ घा꣢ ते꣣ अ꣡पि꣢ स्मसि स्तो꣣ता꣡र꣢ इन्द्र गिर्वणः। त्वं꣡ नो꣢ जिन्व सोमपाः ॥ 37:0230 ॥
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व॒यं घा॑ ते॒ अपि॑ ष्मसि स्तो॒तार॑ इन्द्र गिर्वणः ।
त्वं नो॑ जिन्व सोमपाः ॥
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पदपाठः
व꣣य꣢म्। घ꣣। ते। अ꣡पि꣢꣯। स्म꣣सि। स्तोता꣡रः꣢। इ꣣न्द्र। गिर्वणः। गिः। वनः। त्व꣢म्। नः꣣। जिन्व। सोमपाः। सोम। पाः। २३०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के स्तुति-विषय का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) वेदवाणियों से भजनीय ! (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (वयम्) हम (स्तोतारः) स्तोता लोग (घ) निश्चय ही (ते अपि) तेरे ही (स्मसि) हैं। हे (सोमपाः) हमारे मैत्री-रस का पान करनेवाले ! (त्वम्) तू (नः) हमें (जिन्व) तृप्त कर ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो लोग परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं, परमात्मा भी उन्हें सदा सुखी करता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः स्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः२) गीर्भिः वेदवाग्भिः वननीय संभजनीय (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! वयम् (स्तोतारः) स्तुतिकर्त्तारः (घ) नूनम्। संहितायां ‘ऋचि तु नु घ०’ अ० ६।३।१३६ इति दीर्घः। (ते अपि) तवैव (स्मसि) स्मः भवामः। ‘इदन्तो मसि’ अ० ७।१।४६ इति मस इदन्तत्वम्। हे (सोमपाः) अस्माकं मैत्रीरसस्य पातः ! (त्वम् नः) अस्मान् (जिन्व) प्रीणय। जिवि प्रीणनार्थे भ्वादिः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये परमात्मना सम्बन्धं योजयन्ति परमात्मापि तान् सदा सुखयति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।३२।७ ‘स्मसि’ इत्यत्र ‘ष्मसि’ इति पाठः। २. द्रष्टव्यम्—१६५ संख्यकस्य मन्त्रस्य व्याख्यानम्।
37_0230 वयं घा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२३०-१। और्ध्वसद्मनम्॥ ऊर्ध्वसद्मा गायत्रीन्द्रः॥
व꣥यं꣤घा꣥꣯ते꣯अ꣤पि꣥स्मसा꣤इ॥ स्तो꣢꣯ता꣡꣯रइन्द्रगिर्वणाः। ववाऽ२३हो꣡इ॥ तूव꣪न्नोजीऽ᳒२᳒। व꣡वाऽ२३हो꣡॥ न्व꣢सो꣡ऽ२३। मा꣡ऽ२᳐पा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। ए꣢ऽ᳐३॥ उ꣡पा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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ए꣡न्द्र꣢ पृ꣣क्षु꣡ कासु꣢꣯ चिन्नृ꣣म्णं꣢ त꣣नू꣡षु꣢ धेहि नः। स꣡त्रा꣢जिदुग्र꣣ पौ꣡ꣳ॥ 38:0231 ॥
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पदपाठः
आ꣢। इ꣣न्द्र। पृक्षु꣢। का꣡सु꣢꣯। चि꣣त्। नृम्ण꣢म्। त꣣नू꣡षु꣢। धे꣣हि। नः। स꣡त्रा꣢꣯जित्। स꣡त्रा꣢꣯। जि꣣त्। उग्र। पौँ꣡स्य꣢꣯म्। २३१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनोऽभीपाद् उदलो वा
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से बलादि की प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) शत्रुविदारक तथा दुःखच्छेदक परमात्मन् और राजन् ! आप (कासुचित् पृक्षु) जिन किन्हीं भी देवासुर-संग्रामों में (नः) हमारे (तनूषु) शरीरों में (नृम्णम्) बल (आधेहि) स्थापित कीजिए। हे (सत्राजित्) सत्यजयी अथवा सदाजयी, (उग्र) तीव्र तेजवाले परमात्मन् व राजन् ! आप हममें (पौंस्यम्) धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप पुरुषार्थ को स्थापित कीजिए ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे परमात्मा सभी आन्तरिक और बाह्य संग्रामों में, शत्रुओं को जीतने और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है, वैसे ही राजा भी करे ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं राजानं च बलादिकं प्रार्थयमान आह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) शत्रुविदारक दुःखच्छेदक परमात्मन् राजन् वा ! त्वम् (कासुचित् पृक्षु१) येषु केषुचित् देवासुरसंग्रामेषु। पृच्यन्ते परस्परं संसृज्यन्ते यत्र ताः पृचः संग्रामाः तासु, पृची सम्पर्के धातोः क्विपि रूपम्। (नः) अस्माकम् (तनूषु) शरीरेषु (नृम्णम्) बलं स्फूर्तिं वा। नृम्णमिति बलनाम। निघं० २।९, नृम्णं बलं, नॄन् नतम्। निरु० ११।७५। (आ धेहि) आस्थापय। हे (सत्राजित्२) सत्यजित् सदाजिद् वा ! सत्रा इति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (उग्र) तीव्रतेजस्क परमात्मन् राजन् वा ! त्वम् अस्मासु (पौंस्यम्) आत्मबलं धर्मार्थकाममोक्षरूपं पुरुषार्थ चापि आधेहि। पुंसो भावः कर्म वा पौंस्यम्, ष्यञ् प्रत्ययः। पौस्यमिति बलनाम। निघं० २।९। ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा परमात्मा सर्वेष्वान्तरिकेषु बाह्येषु च संग्रामेषु शत्रून् विजेतुं धर्मार्थकाममोक्षानधिगन्तुं च प्रेरयति तथा राजापि कुर्यात् ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. पृक्षु। पृची सम्पर्के इत्यस्येदं रूपम्। सम्पृच्यन्ते यस्यां यागक्रियायां यजमाना देवैः सह सा पृक्। तासु पृक्षु। यागक्रियासु इत्यर्थः—इति वि०। सङ्ग्रामेषु—इति भ०। सम्पृक्तासु कासुचित्—इति सा०। २. सत्रा शब्दः यद्यपि सत्यनाम, तथापीह सदाशब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः। सदाजिदिति सत्राजित्। सदा शत्रूणां जेता इत्यर्थः—इति वि०। सर्वस्य जेतः—इति भ०। द्वादशाहादिभिः सत्रैः जीयमानो वशीक्रियमाणः सन्—इति सा०।
38_0231 एन्द्र पृक्षु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२३१-१। अभीपादस्य औदलस्य साम॥ उदलो निचृत्गायत्रीन्द्रः॥
ए꣥꣯न्द्रपृक्षुका꣯सुचीऽ६दे꣥॥ नृ꣢म्णाम्। तनू꣯षुऽ३धा꣡इहा꣢ऽ१इनाऽ᳒२ः᳒॥ सा꣡त्रा꣯जि꣢दु॥ ग्रपौ꣡ऽ२३ꣳसिया꣢उ। वाऽ३॥ ऊ꣢ऽ᳐३४पा꣥॥
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ए꣣वा꣡ ह्यसि꣢꣯ वीर꣣यु꣢रे꣣वा꣡ शूर꣢꣯ उ꣣त꣢ स्थि꣣रः꣢। ए꣣वा꣢ ते꣣ रा꣢ध्यं꣣ म꣡नः꣢ ॥ 39:0232 ॥
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ए॒वा ह्यसि॑ वीर॒युरे॒वा शूर॑ उ॒त स्थि॒रः ।
ए॒वा ते॒ राध्यं॒ मनः॑ ॥
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पदपाठः
ए꣣व꣢। हि। अ꣡सि꣢꣯। वी꣣रयुः꣢। ए꣣व꣢। शू꣣रः꣢। उ꣣त꣢। स्थि꣣रः꣢। ए꣣व꣢। ते꣣। रा꣡ध्य꣢꣯म्। म꣡नः꣢꣯। २३२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्ष आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा की स्तुति की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् अथवा राजन् ! (एव हि) सचमुच, आप (वीरयुः) वीरों को चाहनेवाले (असि) हैं। (एव) सचमुच, आप (शूरः) शूरवीर (उत) और (स्थिरः) अविचल हैं। (एव) सचमुच ही (ते) आपका (मनः) मन (राध्यम्) सत्कर्मों आदि द्वारा अनुकूल किये जा सकने योग्य है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे परमेश्वर स्वयं वीर, सुस्थिर और किसी से जीता न जा सकनेवाला होकर संसार में वीरों की ही कामना करता है, ड़रपोकों की नहीं, वैसा ही राजा भी हो ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र को सोमपान के लिए निमन्त्रित करने, उसके सखित्व का महत्त्व वर्णन करने, उससे बल की याचना करने, शूर आदि के रूप में उसकी स्तुति करने तथा इन्द्र शब्द से आचार्य, राजा आदि के भी चरित्र का वर्णन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में बारहवाँ खण्ड समाप्त ॥ यह द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
पुनरिन्द्रनाम्ना परमात्मा राजा च स्तूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् राजन् वा ! (एव२ हि) सत्यमेव। एव इत्यवधारणार्थे। त्वम् (वीरयुः३) वीरान् कामयमानः। क्यचि, ‘क्याच्छन्दसि’ अ० ३।२।१७० इति उ प्रत्ययः. (असि) वर्त्तसे। (एव) सत्यमेव, (त्वम् शूरः) विक्रान्तः, (उत) अपि च (स्थिरः) अविचलः असि। (एव) सत्यमेव (ते) तव (मनः) हृदयम् (राध्यम्४) संसाध्यम्, सत्कर्मादिभिरनुकूलयितुं शक्यम् अस्ति। ‘संहितायाम्’ ‘एवा’ इत्यत्र ‘निपातस्य च’ अ० ६।३।१३६ इति दीर्घः ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा परमेश्वरः स्वयं वीरः सुस्थिरोऽजय्यश्च सन् जगति वीरानेव कामयते, न भीरून्, तथैव राष्ट्रे राजापि भवेत् ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य सोमपानायाह्वानात्, तत्सख्यस्य महत्त्वकीर्तनात्, ततो बलयाचनाच्छूरादिरूपेण च तत्स्तवनात्, इन्द्रशब्देन आचार्यनृपत्यादीनां चापि चरित्रवर्णनाद् एतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्ति ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे चतुर्थी दशतिः। इति द्वितीध्याये द्वादशः खण्डः। समाप्तश्चायं द्वितीयोऽध्यायः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।२८, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। अथ० २०।६०।१, ऋषिः सुकक्षः सुतकक्षो वा। साम० ८२४। २. एव शब्दः पदपूरणः—इति वि०। एव एवम्—इति भ०। ३. वीरा यजमानपुरुषाः तान् कामयते यः स वीरयुः। वीरयतेः युः प्रत्ययः—इति वि०। स्तोत्रकामः—इति भ०। वीरान् युद्धकर्मणि समर्थान् शत्रून् हन्तुं कामयमानः एव असि भवसि खलु—इति सा०। ४. आराधनीयम्—इति वि०। संग्रामधनयोग्यम्—इति भ०। स्तुतिभिराराधनीयम्—इति सा०।
39_0232 एवा ह्यसि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२३२-१। आमहीयवं उक्थ्यामहीयवम् वा॥ अमहीयुर्गायत्रीन्द्रः॥
ए꣥꣯वा꣯हो꣢ऽ३अ꣤सिवी꣥꣯रयूः॥ ए꣢꣯वा꣡शू꣢ऽ१राऽ᳒२ः᳒। उ꣡ताऽ२३स्थिराः꣢। आ꣡इवा꣢꣯ते꣯रा꣡॥ धियाऽ२३म्मना꣢उ। वाऽ३। स्तो꣢꣯षे᳐ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
[[अथ प्रथम खण्डः]]
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ शूर नोनु꣣मो꣡ऽदु꣢ग्धा इव धे꣣न꣡वः꣢। ई꣡शा꣢नम꣣स्य꣡ जग꣢꣯तः स्व꣣र्दृ꣢श꣣मी꣡शा꣢नमिन्द्र त꣣स्थु꣡षः꣢ ॥ 40:0233 ॥
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अ॒भि त्वा॑ शूर नोनु॒मो(=स्तुमः) ऽदु॑ग्धा इव धे॒नवः॑ (सोमपूर्णचमसा वयम्) ।
ईशा॑नम् अ॒स्य जग॑तः(=जङ्गमस्य) स्व॒र्-दृश॒म् ईशा॑नमिन्द्र त॒स्थुषः॑ (=स्थावरस्य) २२
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पदपाठः
अ꣣भि꣢। त्वा꣣। शूर। नोनुमः। अ꣡दु꣢ग्धाः। अ। दु꣣ग्धाः। इव। धेन꣡वः꣢। ई꣡शा꣢꣯नम्। अ꣣स्य꣢। ज꣡ग꣢꣯तः। स्व꣣र्दृ꣡श꣢म्। स्वः꣣। दृ꣡श꣢꣯म्। ई꣡शा꣢꣯नम्। इ꣣न्द्र। तस्थु꣡षः꣢। २३३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
- बृहती
- मध्यमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में गुणवर्णनपूर्वक परमात्मा की स्तुति की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शूर) विक्रमशाली (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर ! (अस्य) इस सामने दिखाई देनेवाले (जगतः) जंगम के (ईशानम्) अधीश्वर और (तस्थुषः) स्थावर के (ईशानम्) अधीश्वर, (स्वर्दृशम्) मोक्ष-सुख का दर्शन करानेवाले (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके, हम प्रजाजन (अदुग्धाः धेनवः इव) न दोही गयीं गायों के समान, अर्थात् न दोही गयीं गायें जैसे अपने बछड़े को देखकर उसे दूध पिलाने के लिए रँभाती हैं, वैसे (नोनुमः) अतिशय बारम्बार आपकी स्तुति कर रहे हैं। आप हमारे लिए वैसे ही प्रिय हैं, जैसे गाय को बछड़ा प्यारा होता है, यह यहाँ ध्वनित हो रहा है ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे गौएँ बछड़े को अपना दूध पिलाकर बदले में सुख प्राप्त करती हैं, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि परमेश्वर से प्रीति जोड़कर सब प्रकार के अभ्युदय एवं निःश्रेयस का सुख प्राप्त करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ गुणवर्णनपूर्वकं परमात्मानं स्तौति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शूर) विक्रमशालिन् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर ! (अस्य) एतस्य पुरो दृश्यमानस्य (जगतः) जङ्गमस्य। जगत् जङ्गमम्। निरु० ९।१३। (ईशानम्) अधीश्वरम्, (तस्थुषः) स्थावरस्य, ष्ठा गतिनिवृत्तौ, लिटः क्वसुः, तस्थिवान्। षष्ठ्येकवचने तस्थुषः। (ईशानम्) अधीश्वरम्, (स्वर्दृशम्२) मोक्षसुखस्य दर्शयितारम् (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य, वयं प्रजाः (अदुग्धाः धेनवः३ इव) दोहनमप्राप्ता गाव इव, अदुग्धा धेनवो यथा वत्सं दृष्ट्वा पयः पाययितुं हम्भारवं कुर्वन्ति तथेत्यर्थः, (नोनुमः) अतिशयेन पुनः पुनः स्तुमः। णु स्तुतौ इत्यस्य यङ्लुकि प्रयोगः। अत्र त्वमस्मदीयो वत्सवत् प्रिय इति ध्वन्यते ॥१॥४ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा धेनवो वत्सं स्वकीयं पयः पाययित्वा विनिमयेन सुखं गृह्णन्ति, तथैव मनुष्यैः परमेश्वरेण सह प्रीतिं संयोज्य सर्वविधमाभ्युदयिकं नैःश्रेयसं च सुखं प्राप्तव्यम् ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ७।३२।२२, य० २७।३५, अथ० २०।१२१।१, साम० ६८०। २. स्वर्दृशम्। स्वः आदित्यः, तमिव यः पश्यति सः स्वर्दृक्। आदित्यमिव सर्वस्य जगतः द्रष्टारमित्यर्थः—इति वि०। स्वर्दृशं सर्वदृशम्—इति भ०, सा०। सुखेन द्रष्टुं योग्यम् इति ऋ० ७।३२।२२ भाष्ये, स्वः सुखं दृश्यते यस्मात् इति च ऋ० ३।२।१४ भाष्ये द०। ३. अचिरप्रसूता गावः धेनुशब्देनोच्यन्ते। ताः यथा आत्मीयं वत्सं स्नेहार्द्रेण मनसा हुंकारादिभिरभिनन्दति तद्वत् स्तुम इत्यर्थः—इति वि०। यथा अदुग्धा धेनवः क्षीरपूर्णोधस्त्वेन वर्तन्ते तद्वत् सोमपूर्णचमसत्वेन वर्तमाना वयम्—इति सा०। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमेश्वरपक्षे यजुर्भाष्ये च राजपक्षे व्याचष्टे।
40_0233 अभि त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२३३-१। भरद्वाजस्यार्कौ द्वौ॥ द्वयोर्भरद्वाजो बृहतीन्द्रः॥ ईशानेन्द्रौ वा।
अ꣥भित्वा꣯शू॥ र꣢नो꣡नु꣪माऽ᳒२ः᳒। ओ꣡इनू꣢ऽ३माः꣢। आ꣡दुग्धा꣢꣯इ। वधा꣡इन꣪वाऽ᳒२ः᳒। ओ꣡इना꣢ऽ३वाः꣢। आ꣡इशा꣯न꣢मस्यजगतः। सुवा꣡र्दृश꣢म्। आ꣡र्दृ꣢ऽ३षा꣢म्॥ आ꣡इशा꣯न꣢मि॥ द्रता꣡स्थुषः꣢। आ꣡ऽ२३। स्थू꣡ऽ२᳐। षा꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ स्थु꣢षस्स्थु꣡षा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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लिखितम्
२३३-२।
अ꣥भित्वा꣢ऽ३शू꣤꣯र꣥नो꣤꣯नुमाः꣥॥ आ꣡दुग्धा꣢꣯इव। धा꣡इनाऽ२३वाः꣢। आ꣡इशा꣯न꣢मस्या꣡जग। ताः। सु꣪वाऽ२᳐र्दृ꣣ऽ२३४शा꣥म्॥ ई꣢꣯शा꣡꣯नाऽ२३मी꣢॥ द्रा꣡तस्थु꣢षः। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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त्वा꣡मिद्धि हवा꣢꣯महे सा꣣तौ꣡ वाज꣢꣯स्य का꣣र꣡वः꣢। त्वां꣢ वृ꣣त्रे꣡ष्वि꣢न्द्र꣣ स꣡त्प꣢तिं꣣ न꣢र꣣स्त्वां꣢꣫ काष्ठा꣣स्व꣡र्व꣢तः ॥ 41:0234 ॥
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त्वामिद्धि हवा॑महे सा॒ता वाज॑स्य का॒रवः॑ ।
त्वां वृ॒त्रेष्वि॑न्द्र॒ सत्प॑तिं॒ नर॒स्त्वां काष्ठा॒स्वर्व॑तः ॥
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पदपाठः
त्वा꣢म्। इत्। हि। ह꣡वा꣢꣯महे। सा꣣तौ꣢। वा꣡ज꣢꣯स्य। का꣣र꣡वः꣢। त्वाम्। वृ꣣त्रे꣡षु꣢। इ꣣न्द्र। स꣡त्प꣢꣯तिम्। सत्। प꣣तिम्। न꣡रः꣢꣯। त्वाम्। का꣡ष्ठा꣢꣯सु। अ꣡र्व꣢꣯तः। २३४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- बृहती
- मध्यमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) विपत्ति के विदारक और सब सम्पत्तियों के दाता परमेश्वर व राजन् ! (कारवः) स्तुतिकर्ता, कर्मयोगी हम लोग (वाजस्य) बल की (सातौ) प्राप्ति के निमित्त (त्वाम् इत् हि) तुझे ही (हवामहे) पुकारते हैं। (नरः) पौरुष से युक्त हम (वृत्रेषु) पापों एवं शत्रुओं का आक्रमण होने पर (सत्पतिम्) सज्जनों के रक्षक (त्वाम्) तुझे पुकारते हैं। (अर्वतः) घोड़े आदि सेनांगों के अथवा आग्नेयास्त्रों और वैद्युतास्त्रों के (काष्ठासु) संग्रामों में भी त्वाम् (तुझे) पुकारते हैं ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर और राजा आदि का आह्वान मनुष्यों को स्वयं कर्मण्य होकर ही करना चाहिए। जब पापरूप या पापीरूप वृत्र आक्रमण करते हैं, अथवा जब दैत्यों के साथ देवपुरुषों का हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, योद्धा इन सेनांगों के द्वारा और आग्नेयास्त्रों या बिजली के अस्त्रों द्वारा घोर भयंकर युद्ध प्रवृत्त होता है, तब परमेश्वर और राजा से सहयोग, प्रेरणा, बल और साहस प्राप्त करके शत्रु को धूल में मिला देना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरं नृपं चाह्वयन्ति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) विपद्विदारक सकलसंपत्प्रदायक परमेश्वर राजन् वा ! (कारवः) स्तुतिकर्तारः, कर्मयोगिनो वयम्। कारुः स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। कर्ता स्तोमानाम्। निरु० ६।६। कर्ता कर्मणामित्यप्युन्नेयम्। डुकृञ् धातोः ‘कृवापाजि’ उ० १।१। इति उण् प्रत्ययः। (वाजस्य) बलस्य (सातौ२) प्राप्तिनिमित्तम् निमित्तार्थे सप्तमी। षण सम्भक्तौ। ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ अ० ३।३।९७ इति क्तिन्नन्तो निपातः। उदात्त इत्यनुवृत्तेः क्तिन उदात्तत्वं च। (त्वाम् इत् हि) त्वामेव खलु (हवामहे) आह्वयामः। ह्वेञ् धातोः ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणे रूपम्। (नरः) पौरुषसंपन्नाः वयम् (वृत्रेषु) पापेषु शत्रुषु वा आक्रामत्सु (सत्पतिम्) सतां रक्षकम् (त्वाम्) परमात्मानं राजानं वा बलप्राप्तये हवामहे। (अर्वतः३) अश्वादिकस्य सेनाङ्गस्य। अर्वा इत्यश्वनाम। निघं० १।१४, अर्वा इत्युपलक्षणमन्येषामपि सेनाङ्गानाम्। यद्वा (अर्वतः) अग्नेः, तदुपलक्षितानाम् आग्नेयास्त्राणां वैद्युतास्त्राणां च। अग्निर्वा अर्वा। तै० ब्रा० १।३।६।४। (काष्ठासु) संग्रामेषु। आज्यन्तोऽपि काष्ठा उच्यते। निरु० २।१५। (त्वाम्) परमात्मानं राजानं वा बलप्राप्तये हवामहे ॥२॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्य नृपादीनां चाह्वानं मनुष्यैः स्वयं कर्मण्यैर्भूत्वा करणीयम्। यदा पापरूपाणि पापिरूपाणि वा वृत्राण्याक्रामन्ति, यदा वा दैत्यैः सह देवानां हस्त्यश्वरथपादातैः सेनाङ्गैराग्नेयास्त्रैर्वैद्युतास्त्रैर्वा घोरं भीषणं युद्धं प्रवर्तते तदा परमेश्वरान्नृपाच्च सहयोगं प्रेरणां बलं साहसं च प्राप्य शत्रुर्धूलिसात् करणीयः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४६।१, अथ० २०।९८।१, उभयत्र ‘सातौ’ इति स्थाने ‘साता’ इति पाठः। य० २७।३७। साम० ८०९। सर्वत्र शंयुः ऋषिः। २. सातिर्लाभः। तस्मादियं निमित्तसप्तमी। निमित्तं च प्रयोजनम्। धनलाभार्थमित्यर्थः—इति वि०। सातौ लाभे निमित्ते—इति भ०। ३. (अर्वता) अश्वादिभिः सेनाङ्गैः—इति ऋ० १।८।२ भाष्ये, ‘अश्वादियुक्तेन’ इति च ऋ० २।२।१० भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये शिल्पविद्याविषये यजुर्भाष्ये च राजधर्मविषये व्याचष्टे।
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लिखितम्
२३४-१। इन्द्रस्य भारद्वाजे द्वे॥ द्वयोर्भरद्वाजो बृहतीन्द्रः॥त्वा꣥꣯मिद्धी॥ ह꣢वाऽ᳒२᳒म꣡हे꣢꣯। आ꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣯हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३᳐४पा꣥॥ सा꣢꣯तौ꣯वा꣯ज। स्याऽ३काऽ᳒२᳒र꣡वः꣢। आ꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣯हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३᳐४पा꣥॥ त्वां꣡꣯वृत्राइषुइ꣢। द्रसाऽ᳒२᳒त्प꣡ति꣢म्। आ꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣯हा꣢उवाऽ३। ऊ꣢ऽ३᳐४पा꣥॥ न꣡रस्त्वां꣯का꣯ष्ठा꣢꣯। सुआऽ᳒२᳒र्व꣡तः꣢। आ꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣯हा꣢उवाऽ३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
41_0234 त्वामिद्धि हवामहे - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
२३४-२।
त्वा꣤꣯मिद्धिहवा꣥꣯महे꣯। सा꣯तौ꣯वा꣯जो꣤वा꣥॥ स्या꣡का꣢ऽ१रावाऽ᳒२ः᳒। त्वां꣡꣯वृत्राइषुइ꣢न्द्रसत्। पा꣡ति꣪न्नाराऽ᳒२ः᳒॥ त्वां꣡꣯काऽ२३ष्ठा꣢॥ सुअ꣡र्वाऽ२३ता꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣भि꣡ प्र वः꣢꣯ सु꣣रा꣡ध꣢स꣣मि꣡न्द्र꣢मर्च꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢। यो꣡ ज꣢रि꣣तृ꣡भ्यो꣢ म꣣घ꣡वा꣢ पुरू꣣व꣡सुः꣢ स꣣ह꣡स्रे꣢णेव꣣ शि꣡क्ष꣢ति ॥ 42:0235 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि प्र वः॑ सु॒राध॑स॒मिन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे ।
यो ज॑रि॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ पुरू॒वसुः॑ स॒हस्रे॑णेव॒ शिक्ष॑ति ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣भि꣢। प्र। वः꣣। सुरा꣡ध꣢सम्। सु꣣। रा꣡ध꣢꣯सम्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣र्च। य꣡था꣢꣯। वि꣣दे꣢। यः। ज꣣रितृ꣡भ्यः꣢। म꣣घ꣡वा꣢। पु꣣रूव꣡सुः꣢। पु꣣रू। व꣡सुः꣢꣯। स꣣ह꣡स्रे꣢ण। इ꣣व। शि꣡क्ष꣢꣯ति। २३५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रस्कण्वः काण्वः
- बृहती
- मध्यमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमेश्वर की अर्चना के लिए प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे साथियो ! (वः) तुम (सुराधसम्) प्रशस्त धनोंवाले और शुभ सफलता को देनेवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर को (अभि) लक्ष्य करके (प्र अर्च) भली-भाँति ऐसी अर्चना करो (यथा) जिससे कि वह अर्चना (विदे) जान ली जाए, (यः) जो प्रसिद्ध (मघवा) ऐश्वर्यवान् (पुरूवसुः) बहुत अधिक बसानेवाला अथवा बहुतों को बसानेवाला परमेश्वर (जरितृभ्यः) स्तोताओं के लिए (सहस्रेण इव) मानो हजार हाथों से (शिक्षति) भौतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति प्रदान करता है ॥३॥ इस मन्त्र में ‘सहस्रेणेव शिक्षति’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि बहुत सम्पत्ति के स्वामी, पुरुषार्थीयों को सफलता देनेवाले, निवासक, भूरि-भूरि सुख-सम्पदा को बरसानेवाले परमेश्वर की श्रद्धा के साथ पूजा करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरस्यार्चनाय जनान् प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः ! (वः२) यूयम् (सुराधसम्) प्रशस्तधनं, शुभसफलतादायकं वा। राधस् इति धननाम। निघं० २।१०। राध संसिद्धौ धातोरौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। संसिद्धिः साफल्यम्। (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (अभि) अभिलक्ष्य तथा (प्र अर्च) प्रकर्षेण अर्चत। अत्र बहुलं छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति अनात्मनेपदेऽपि ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ इति तकारलोपः। (यथा) येन प्रकारेण तदर्चनम् (विदे३) विविदे ज्ञायते। विद ज्ञाने धातोः कर्मणि लडर्थे लिटि द्वित्वाभावश्छान्दसः। कीदृशमिन्द्रमित्याह। (यः) प्रसिद्धः (मघवा४) ऐश्वर्यवान् दानवान् वा, (पुरूवसुः) पुरु बहु, वसुः वासयिता, पुरूणां बहूनां वा वासयिता इन्द्रः परमेश्वरः (जरितृभ्यः) स्तोतृभ्यः। जरिता इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। (सहस्रेण इव) हस्तसहस्रेणेव (शिक्षति) ददाति, भौतिकीमाध्यात्मिकीं च संपदं प्रयच्छति। शिक्षतिर्दानकर्मा। निघं० ३।२० ॥३॥ ‘सहस्रेणेव शिक्षति’ इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - प्रचुरसम्पत्तिशाली पुरुषार्थिनां साफल्यप्रदाता निवासप्रदो भूरिशः सुखसम्पद्वर्षकः परमेश्वरः सर्वैर्मनुष्यैः श्रद्धयाऽभ्यर्चनीयः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४९।१, अथ० २०।५१।१, साम० ८११, सर्वत्र प्रस्कण्वः ऋषिः। २. वः त्वम् अर्च—इति भ०। वः यूयम् अर्चत—इति सा०। ३. यथा विदे। विद्यते ज्ञायते यथा तथा—इति भ०। यथास्माभिर्ज्ञायते—इति सा०। ४. मघवान् धनवान्—इति वि०। मघं दानं मंहतेः। दानवान् नित्यदानः—इति भ०।
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लिखितम्
२३५-१। सान्नते द्वे॥ द्वयोः सन्नतिः बृहतीन्द्रः॥
अ꣥भिप्रवाः॥ सु꣢रा꣡꣯धाऽ२३सा꣢म्। इ꣡न्द्रमर्चयाथा꣢ऽ१विदाऽ२३४इ। यो꣣꣯जा꣢ऽ३४रि꣣तॄ꣢। भ्यो꣡꣯मघवा꣯पूरू꣢ऽ१वासूऽ᳒२ः᳒॥ स꣡हाऽ२३॥ स्रा꣡ऽ२᳐इणा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ व꣢शि꣡क्षती꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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लिखितम्
२३५-२।
अ꣡भाइप्र꣪वाऽ२ः᳐। सु꣣रा꣢धा꣣ऽ२३४सा꣥म्॥ इ꣡न्द्राम꣪र्चाऽ२३। या꣡ऽ२᳐था꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। वी꣣ऽ२३४दे꣥। यो꣡꣯जरि꣢तृ꣡भ्यो꣢꣯मघ꣡वा꣰꣯ऽ२पुरू꣯व꣡सुः꣢॥ सहा॥ स्रे꣯णे꣯वऽ३शा꣡ये꣢ऽ३। क्षा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सु꣢भूऽ३त꣡येऽ२३꣡४꣡५꣡॥
42_0235 अभि प्र - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
२३५-३। श्यैतम्॥ प्रजापतिर्बृहतीन्द्रः॥
अ꣤भि꣣प्रव꣤स्सु꣥रा꣯। ध꣣सा꣢ऽ३४औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ आ꣡इन्द्रम꣢र्च। यथा꣡वि꣪दाऽ२३४इ॥ ओ꣥ऽ६हा꣥। यो꣡꣯जरि꣢तृ꣡भ्यः꣢। मा꣡घाऽ२३वा꣢। पु꣡रूऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४सूः꣥॥ स꣢ह꣡स्रे꣯णाइवा꣢ऽ३शा꣢॥ हि꣡म्माये꣢ऽ३। क्षा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वा꣣ऽ२३४सू꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तं꣡ वो꣢ द꣣स्म꣡मृ꣢ती꣣ष꣢हं꣣ व꣡सो꣢र्मन्दा꣣न꣡मन्ध꣢꣯सः। अ꣣भि꣢ व꣣त्सं꣡ न स्वस꣢꣯रेषु धे꣣न꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्न꣢वामहे ॥ 43:0236 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तं वो॑ द॒स्मम्(=दर्शनीयम्) ऋ॑ती॒(=बाधक)-षहं॒
वसो॑र्(=निवसतः) मन्दा॒नम्(=मोदमानम्) अन्ध॑सः(=अन्नस्य) ।
अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु(=अहस्सु) धे॒नव॒
इन्द्रं॑ गी॒र्भिर् न॑वामहे(=स्तुमः) ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त꣢म्। वः꣣। दस्म꣢म्। ऋ꣣तीष꣡ह꣢म्। ऋ꣣ति। स꣡ह꣢꣯म्। व꣡सोः꣢꣯। म꣣न्दान꣢म्। अ꣡न्ध꣢꣯सः। अ꣣भि꣢। व꣣त्स꣢म्। न। स्व꣡स꣢꣯रेषु। धे꣣न꣡वः꣣। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। गी꣣र्भिः꣢। न꣣वामहे। २३६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नोधा गौतमः
- बृहती
- मध्यमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि वह परमात्मा कैसा है, जिसकी हम स्तुति करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे साथियो ! (वः) तुम्हारे और हमारे (दस्मम्) दर्शनीय अथवा दुःखों का क्षय करनेवाले, (ऋतीषहम्) आक्रान्ता काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करनेवाले, (वसोः) धनभूत (अन्धसः) भक्तिरूप सोमरस से (मन्दानम्) आनन्दित होनेवाले (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) परमेश्वर को (अभि) लक्ष्य करके (स्वसरेषु) दिनों के आविर्भाव-काल में अथवा घरों में (गीर्भिः) वाणियों से, हम (नवामहे) स्तुति करते हैं, (न) जैसे (धेनवः) दूध देनेवाली गौएँ (वत्सम् अभि) बछड़े के प्रति (स्वसरेषु) प्रातः दोहन-वेला में अथवा गोशालाओं में रँभाती है ॥४॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे दिन निकलने पर गोशालाओं में स्थित गौएँ बछड़े को देखकर दूध पिलाने के लिए प्रेम से रँभाने लगती हैं, वैसे ही परमात्मा के प्रति हम प्रजाओं को प्रेम में भरकर स्तुतिगीत गाने चाहिएँ ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स परमात्मा कीदृशोऽस्ति यं वयं स्तुम इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः (वः) युष्माकम्, अस्माकं चेत्यपि द्योत्यते (दस्मम्२) दर्शनीयम्, यद्वा दुःखानामुपक्षयितारम्। दसि दंशनदर्शनयोः, दसु उपक्षये, ‘इषि युधीन्धिदसि’ उ० १।१४५ इति मक् प्रत्ययः। (ऋतीषहम्३) ऋतय आक्रान्तारः शत्रवस्तेषामभिभवितारम्। ऋ गतौ धातोः क्तिनि ऋतिः। ऋतिपूर्वात्, मर्षणार्थाद् अभिभवार्थाद् वा षह धातोः ‘छन्दसि सहः’ अ० ३।२।६३ इति ण्विः। ‘अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३७ इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (वसोः) वसुनः धनभूतात् (अन्धसः) भक्तिरूपात् सोमरसात्। अन्ध इति सोमनाम। निरु० १३।६। (मन्दानम्) आनन्दन्तम् (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (अभि) अभिलक्ष्य (स्वसरेषु४) दिनोदयेषु गृहेषु वा। स्वसराणि अहानि भवन्ति, स्वयंसारीणि, अपि वा स्वरादित्यो भवति स एनानि सारयति। निरु० ५।४। गृहनाम। निघं० ३।४। (गीर्भिः) वाग्भिः, वयम् (नवामहे) स्तुमः। णु स्तुतौ अदादिः, लटि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७३ इति शपो लुक् न, आत्मनेपदं छान्दसम्। (न) यथा। न इत्युपमार्थीयः। निरु० १।४। (धेनवः) पयस्विन्यो गावः (वत्सम् अभि) वत्समभिलक्ष्य (स्वसरेषु) दिनोदयेषु प्रातर्दोहनवेलासु गोष्ठरूपेषु गृहेषु वा नुवन्ति हम्भारवं कुर्वन्ति ॥४॥५ अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा गोष्ठेषु स्थिता गावो दिनारम्भेषु पयः पाययितुं वत्सं प्रति प्रेम्णा हम्भारवं कुर्वन्ति तथैव परमात्मानं प्रति प्रजाभिरस्माभिः प्रेमनिर्भराभिर्भूत्वा स्तुतिगीतानि गेयानि ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।८८।१, य० २६।१, साम० ६८५, अथ० २०।९।१, ४९।४। २. दस्मम् उपक्षयितारं शत्रूणाम्—इति वि०। दर्शनीयम्—इति भ०, सा०। ३. ऋतयः सेनाः गन्तृत्वात्। ता योऽभिभवति स ऋतीषाट्, तम् ऋतीषहम्। परकीयानां सेनानामभिभवितारम् इत्यर्थः—इति वि०। अर्तेः ऋतिः अरिः, अरीणामभिभवितारम्—इति भ०। ऋतयो बाधकाः शत्रवः तेषामभिभवितारम्—इति सा०। य ऋतीन् परपदार्थप्रापकाञ्छत्रून् सहते तम् इति ऋ० ६।१४।४ भाष्ये द०। ४. स्वसरेषु यागगृहेषु—इति वि०। गोष्ठेषु—इति भ०। सूर्यनेतृकेषु दिवसेषु—इति सा०। ५. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मन्त्रमिमं राजप्रजापक्षे व्याचष्टे।
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लिखितम्
२३६-१। प्रजापतेर्नाविकम्॥ प्रजापतिर्बृहतीन्द्रः॥तं꣤वः꣥। ए꣤दास्मा꣥म्॥ ऋ꣢ती꣯ष꣡ह꣢म्। हाऽ᳒२᳒इ। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। इ꣡हा꣢। वा꣡सो꣯र्म꣢न्दा꣯न꣡मन्ध꣢साऽ३ः। हाऽ᳒२᳒इ। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। इ꣡हा꣢। अभि꣡वत्सन्नस्वसरे꣢꣯षुधे꣯न꣡वा꣰꣯ऽ२ः। हाऽ᳒२᳒इ। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। इ꣡हा꣢॥ इ꣡न्द्र꣢म्। हाऽ᳒२᳒इ। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। इ꣡हा꣢। गी꣣꣯र्भा꣢इः᳐। ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वा꣡꣯म᳐हे꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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लिखितम्
२३६-२। अभीवर्तः॥ प्रजापतिर्बृहतीन्द्रः॥
तं꣥वो꣤ऽ३दा꣢ऽ३स्मा꣤मृती꣥꣯षहो꣤वा꣥॥ वा꣡सो꣯र्म꣢न्दा꣯। नमा꣡न्धा꣢ऽ१साऽ᳒२ः᳒। आ꣡भि-वत्सा꣢ऽ३१२३४म्। न꣣स्वस꣤रे꣥꣯। षु꣢धा꣡इना꣢ऽ१वाऽ᳒२ः᳒॥ इन्द्राꣳ꣡गा꣢ऽ१इर्भीऽ२ः᳐॥ न꣣वा꣢ऽ३। मा꣡ऽ२३४५॥ हा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥
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लिखितम्
२३६-३। भागम्॥ भगो बृहतीन्द्रः॥
तं꣣वो꣤꣯दस्म꣣मृ꣤ती꣥꣯। ष꣣हा꣢ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ वा꣡सो꣯र्मन्दा꣯नमन्धासाऽ᳒२ः᳒। आ꣡भिवत्सन्नस्वसरे꣯षूधे꣢ऽ१नावाऽ᳒२ः᳒। ओ꣭ऽ३वा꣢॥ इन्द्रं꣡गाऽ२३४इर्भीः꣥॥ न꣢वा꣡꣯माऽ२३४५हा"ऽ६५६इ॥ भ꣢गाऽ३या꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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लिखितम्
२३६-४। अभीवर्तः॥ इन्द्रो बृहतीन्द्रः॥
त꣣म्वो꣤꣯दस्म꣣मृ꣤ती꣥꣯। ष꣣हा꣢ऽ३म्। वा꣡ऽ२३४। सो꣯र्म꣥न्दा꣯नम। धा꣤साः꣥॥ अ꣢भिवत्सन्नस्वसरे꣯षुऽ३धा꣡इ। नाऽ२३वाः꣢॥ इ꣡न्द्रंगी꣯र्भाइर्न्ना꣢ऽ३वा꣢॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ३। हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्। नवानवो꣣ऽ२३४वा꣥। मा꣤ऽ५होऽ६"हा꣥इ॥
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लिखितम्
२३६-५। नौधसम्॥ नोधा बृहतीन्द्रः॥
ता꣡ऽ२३४म्। वो꣯द꣥स्म꣤मृ꣥ती꣯। षा꣤हा꣥म्॥ व꣢सो꣡꣯र्मन्दा। ना꣢ऽ३मा꣡न्धा꣢ऽ३साः꣢। आ꣡ऽ२३भी꣢। वा꣡त्सन्न꣢। स्व꣡स꣢। रा꣡इ। षूधे꣢ना꣣ऽ२३४वाः꣥। आ꣡ऽ२३इन्द्रा꣢म्॥ गा꣡इर्भिर्न꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥॥ मा꣣ऽ२३४हे꣥॥