[[अथ पञ्चमप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः। ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्न꣢꣯व॥ 35:0179 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रो॑ दधी॒चो अ॒स्थभि॑र्वृ॒त्राण्यप्र॑तिष्कुतः ।
ज॒घान॑ नव॒तीर्नव॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रः꣢꣯। द꣣धीचः꣢। अ꣣स्थ꣡भिः꣢। वृ꣣त्रा꣡णि꣢। अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः। अ। प्र꣣तिष्कुतः। जघा꣡न꣢। न꣣वतीः꣢। न꣡व꣢꣯। १७९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि रात्रि में जो निशाचर प्रकट हो जाते हैं, उनका वध कैसे होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अप्रतिष्कुतः) आन्तरिक देवासुर-संग्राम में असुरों से प्रतिकार न किया गया अथवा असुरों के मुकाबले में पराजित न होता हुआ (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा व परमात्मा (दधीचः) ध्यान में संलग्न मन को (अस्थभिः) अस्थि-तुल्य सुदृढ़ सात्त्विक वृत्तियों से (नवतीः नव) निन्यानवे (वृत्राणि) घेरनेवाले निशाचरों को (जघान) नष्ट कर देता है। निन्यानवे निशाचर हैं—दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, आठ चक्र, अन्तःकरणचतुष्टय और शरीर—इन तैंतीस साधनों से भूतकाल में किये गये, वर्तमान में किये जा रहे तथा भविष्य में किये जानेवाले पाप। उन सबको जीवात्मा और परमात्मा सावधान मन की सात्त्विक वृत्तियों से नष्ट कर देते हैं ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पूर्व के दो मन्त्रों में रात्रि का और उसके निवारणार्थ उषा के प्रादुर्भाव का क्रमशः वर्णन किया गया था। इस मन्त्र में रात्रियों में उत्पन्न होनेवाले निशाचरों के विनाश का वर्णन है कि इन्द्र दध्यङ् की हड्डियों से उन्हें मार देता है। यह इन्द्र मनुष्य के शरीर में विद्यमान जीवात्मा और हृदय में स्थित परमात्मा है। दध्यङ् मन है। उस मन की सात्त्विक वृत्ति रूप हड्डियों से उन निशाचरों का वध हो जाता है ॥५॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार माधव ने इस प्रकार इतिहास प्रदर्शित किया है—कालकंज नामक असुर थे। उन असुरों से सताये जाते हुए देव ब्रह्मा के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, कालकंज असुर हमें सता रहे हैं, उनके मारने का उपाय कीजिए। यह सुनकर उसने देवों को कहा—दधीचि नाम का ऋषि है, उसके पास जाकर उसे कहो, वह मारने का उपाय कर देगा। यह सुनकर वे वैसा ही करना स्वीकार करके उस दधीचि के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, हमारे अस्त्रों को असुरों का पुरोहित शुक्र चुरा लेता है, उससे उनकी रक्षा कीजिए। उस ऋषि ने उनसे कहा कि इन अस्त्रों को मेरे मुख में डाल दो। तब मरुद्गणों सहित इन्द्र आदि देवों ने अस्त्र उसके मुख में डाल दिये। फिर समय आने पर जब देवासुरसंग्राम उपस्थित हुआ तब ऋषि के पास पहुँच देव बोले—भगवन्, अब वे अस्त्र हमें दे दीजिए। तब ऋषि ने कहा—वे तो पच गये। अब वे पुनः नहीं मिल सकते। तब प्रजापति आदि देव बोले—भगवन्, प्राणत्याग कर दीजिए। यह सुनकर उसने प्राणत्याग कर दिया। तब दधीचि की अस्थियों से इन्द्र ने वृत्रों का वध किया । सायण ने शाट्यायनियों का उल्लेख करते हुए उनके नाम से यह इतिहास लिखा है—अथर्वा के पुत्र दधीचि जब जीवित थे तब उनके देखने से ही असुर पराजित हो जाते थे। फिर जब वे स्वर्गवासी हो गये तब भूमि असुरों से भर गयी। तब इन्द्र ने उन असुरों से युद्ध करने में स्वयं को असमर्थ पाकर जब उस ऋषि की खोज की तब उसने सुना कि वे तो स्वर्ग चले गये। तब वहाँ के लोगों से पूछा कि क्या उन ऋषि का कोई अङ्ग बचा हुआ है? उन लोगों ने उसे बतलाया कि उसका घोड़ेवाला सिर अवशिष्ट है, जिस सिर से उसने अश्वि देवों को मधुविद्या का प्रवचन किया था, पर हम यह नहीं जानते कि वह कहाँ है। तब इन्द्र ने उसने कहा कि उसे खोजो। उन्होंने उसे खोजा और शर्यणावत् सरोवर में, जो कुरुक्षेत्र के जघनार्ध में प्रवाहित होता है, उसे पाकर ले आये। उसके सिर की अस्थियों से इन्द्र ने असुरों का वध किया। कुछ नवीन पात्रों को कल्पित कर पुराण, महाभारत आदियों में भी कुछ-कुछ भेद से इस प्रकार की कथाएँ वर्णित हैं। ये सब कथाएँ इसी मन्त्र को आधार बनाकर रची गयी हैं। वे वास्तविक नहीं, अपितु आलङ्कारिक ही जाननी चाहिएँ। आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक क्षेत्रों में सर्वत्र ही देवासुरसंग्राम चल रहा है। मनुष्य के मन में दिव्य प्रवृत्तियों और आसुरी प्रवृत्तियों का संग्राम आध्यात्मिक क्षेत्र का संग्राम है, जैसा हमारे द्वारा कृत इस मन्त्र की व्याख्या में स्पष्ट है। इन्द्र परमेश्वर दध्यङ् सूर्य की अस्थियों से अर्थात् अस्थिसदृश किरणों से मेघों का और रोग आदियों का वध करता है, यह अधिदैवत व्याख्या है। इन्द्र राजा दध्यङ् सेनापति की अस्थियों अर्थात् अस्थियों के समान सुदृढ़ शस्त्रास्त्रों से शत्रुओं का संहार करता है, यह अधिभूत व्याख्या है। वेदों में दध्यङ् नाम के किसी ऐतिहासिक मुनिविशेष की गाथा का होना तो संभव ही नहीं है, क्योंकि वेद सभी ऐतिहासिक मुनियों से पूर्व ही विद्यमान थे और पूर्ववर्ती वेद में परवर्तियों का इतिहास कैसे हो सकता है? ऋषि दयानन्द ने ऋग्भाष्य (ऋ० १।८४।१३) में इस मन्त्र की व्याख्या में सूर्य के दृष्टान्त से सेनापति का कृत्य वर्णित किया है। वहाँ उन द्वारा प्रदर्शित भावार्थ यह है—यहाँ वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। मनुष्यों को उसे ही सेनापति बनाना चाहिए जो सूर्य के समान दुष्ट शत्रुओं का हन्ता और अपनी सेना का रक्षक हो ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
निशायां ये निशाचराः प्रादुर्भवन्ति ते कथं हन्यन्ते इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अप्रतिष्कुतः२) आन्तरिके देवासुरसंग्रामे असुरैः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वा। अप्रतिष्कुतः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वेति निरुक्तम्। ६।१६। (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा परमात्मा वा (दधीचः) ध्यानतत्परस्य मनसः। दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा। निरु० १२।३३। (अस्थभिः) अस्थिवत् सुदृढाभिः सात्त्विकवृत्तिभिः। अस्थिभिः इति प्राप्ते छन्दस्यपि दृश्यते। अ० ७।१।७६ इति इकारस्य अनङादेशः। (नवतीः नव३) नवोत्तरां नवतिं एकोनशतमित्यर्थः। (वृत्राणि) आवरकान् निशाचरान् (जघान) हतवान् हन्ति वा। नवनवतिर्निशाचरास्तावत्—दशेन्द्रियाणि, दश प्राणाः, अष्टौ चक्राणि, अन्तःकरणचतुष्टयम् शरीरं चेति त्रयंस्त्रिंशत्साधनैः कृतानि, क्रियमाणानि करिष्यमाणानि च भूतवर्त्तमानभविष्यत्कालिकानि पापानि, तानि इन्द्रो जीवात्मा परमात्मा च सावधानस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिर्हन्ति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पूर्वतनयोर्द्वयोर्मन्त्रयोर्निशायास्तन्निराकरणार्थम् उषसः प्रादुर्भावस्य च क्रमेण वर्णनं कृतम्। अस्मिन् मन्त्रे निशासु जायमानानां पापरूपाणां निशाचराणां ध्वंसो वर्ण्यते—इन्द्रो दधीचोऽस्थिभिस्तान् हन्तीति। अयमिन्द्रो नाम मनुष्यदेहे विद्यमानो जीवात्मा हृदये स्थितः परमात्मा च। दध्यङ् च मनः। तस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिरूपैरस्थिभिस्ते निशाचराः हन्यन्ते ॥५॥ एतन्मन्त्रस्य व्याख्याने विवरणकृता माधवेनेत्थमितिहासः प्रादर्शि—“अत्रेतिहासमाचक्षते। कालकञ्जा नाम असुराः। तैरसुरैर्बाध्यमाना देवा ब्रह्माणमुपगम्योक्तवन्तः। भगवन् कालकञ्जैरसुरैर्बाध्यामहे। तेषां मारणोपायं विधत्स्वेति। तच्छ्रुत्वा स तानुवाच दधीचिर्नाम ऋषिः। तमुपगम्य ब्रूत। स मारणोपायं विधास्यतीति। ते तच्छ्रुत्वा तथेत्यङ्गीकृत्य तं दधीचिमुपगम्य उक्तवन्तः—भगवन्नस्मदीयान्यस्त्राणि शुक्रस्तेषाम् असुराणाम् पुरोधा अपहरति, तानि रक्षस्व। ततः स ऋषिस्तानुवाच—मम मुखे प्रक्षिपध्वम्। तत इन्द्रादिभिर्दैवैः समरुद्गणैस्तस्य मुख प्रक्षिप्तानि। पुनः कालेन देवासुरसंग्रामे पर्युपस्थिते एत्य देवा ऊचुः—भगवन् तान्यस्त्राणि प्रयच्छस्वास्माकम्। ततस्तेनोक्तम्—तानि मे जीर्णानि। न तानि पुनः प्राप्तुं शक्यानि। ततः प्रजापतिमुखा देवा ऊचुः—भगवन् ! प्राणत्यागं कुरुष्वेति। तत्छ्रुत्वा पुनः कृतश्च तेन प्राणत्यागः। तस्य दधीचः स्वभूतैरस्थिभिरिन्द्रो वृत्राणि जघान इति।” सायणस्तु ब्रूते—अत्र शाट्यायनिन इतिहासमाचक्षते। आथर्वणस्य दधीचो जीवतो दर्शनेन असुरा पराबभूवुः। अथ तस्मिन् स्वर्गते असुरैः पूर्णा पृथिव्यभवत्। अथेन्द्रस्तैरसुरैः सह योद्धुमशक्नुवंस्तमृषिमन्विच्छन् स्वर्गं गत इति शुश्राव। अथ पप्रच्छ तत्रत्यान् इह किमस्य किञ्चित् परिशिष्टमङ्गमस्ति ? इति। तस्मा अवोचन्—अस्त्येतद् आश्वं शीर्षं, येन शिरसा अश्विभ्यां मधुविद्यां प्राब्रवीत्, तत्तु न विद्मः तद्यत्राभवदिति। पुनरिन्द्रोऽब्रवीत्—तदन्विच्छतेति। तद् वा अन्वेषिषुः। तच्छर्यणावत्यनुविद्य आजह्रुः। शर्यणावद्ध वै नाम कुरुक्षेत्रस्य जघनार्द्धे सरः स्यन्दते। तस्य शिरसोऽस्थिभिरिन्द्रोऽसुरान् जघानेति। केषाञ्चिन्नूतनानां पात्राणां कल्पनापुरस्सरं पुराण-महाभारतादिष्वपि किञ्चिद्भेदेनैवंविधाः कथा वर्णिताः सन्ति। सर्वा एताः कथा इमं मन्त्रमुपजीव्यैव रचिताः। तास्तु न वास्तविक्यः, प्रत्युतालङ्कारिक्य एव विज्ञेयाः। आध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकेषु क्षेत्रेषु सर्वत्रैव देवासुरसङ्ग्रामः प्रवर्तते। मनुष्यस्य मनसि दिव्यप्रवृत्तीनामासुरप्रवृत्तीनां च संग्राम इत्याध्यात्मम्, यथास्मत्कृते मन्त्रव्याख्याने स्पष्टम्। इन्द्रः परमेश्वरः दधीचः सूर्यस्य अस्थिभिः अस्थिसदृशैः किरणैः मेघान् रोगादींश्च हन्तीत्यधिदैवम्। इन्द्रो राजा दधीचः सेनापतेः अस्थिभिः अस्थिवत् सुदृढैः शस्त्रास्त्रैः शत्रून् हन्तीत्यधिभूतम्। एवमुच्चावचैरभिप्रायैर्ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्तीति बोध्यम्। वेदे दध्यङ्नाम्नः कस्यचिदैतिहासिकस्य मुनिविशेषस्य गाथा तु न संभवति, वेदस्य सर्वेभ्योऽपि मुनिभ्यः पूर्वमेव विद्यमानत्वात्, पूर्ववर्तिनि च वेदे परिवर्तिनामितिहासस्यासंभवाच्च। दयानन्दर्षिणा ऋ० १।८४।१३ भाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने सूर्यदृष्टान्तेन सेनापतिकृत्यं वर्णितम्। एष च मन्त्रस्य तत्कृतो भावार्थः—“अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः स एव सेनापतिः कार्यो यः सूर्यवच्छत्रूणां हन्ता स्वसेनारक्षकोऽस्तीति वेद्यम्” इति ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८४।१३, अथ० २०।४१।१, साम० ९१३। २. अप्रतिस्खलितः—इति वि०। ष्कुञ् आप्रवणे। अप्रत्यागतः केनापि—इति भ०। परैरप्रतिशब्दितः प्रतिकूलशब्दरहितः—इति सा०। ३. नवतीर्नव नवसंख्याका नवतीः दशोत्तराणि अष्टौ शतानि (९०*९) इति विवरणकृतो भरतस्वामिनः सायणस्य चाशयः। तानि च सायणेनेत्थं परिगणितानि—लोकत्रयवर्तिनो देवान् जेतुम् आदावासुरी माया त्रिधा सम्पद्यते। त्रिविधा सा अतीतानागतवर्तमानकालभेदेन तत्कालवर्तिनो जेतुं पुनरपि प्रत्येकं त्रिगुणिता भवति, एवं नव सम्पद्यन्ते। पुनरपि उत्साहादिशक्तित्रयरूपेण त्रैगुण्ये सति सप्तविंशतिः सम्पद्यन्ते। पुनः सात्त्विकादिगुणत्रयभेदेन त्रैगुण्ये सति एकोत्तरा अशीतिः सम्पद्यते। एवं चतुर्भिस्त्रिकैर्गुणिताया मायाया दशसु दिक्षु प्रत्येकमवस्थाने सति नव नवतयः सम्पद्यन्ते इति।
35_0179 इन्द्रो दधीचो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७९-१। त्वष्टुरातिथ्ये द्वे॥ द्वयोस्त्वष्टा गायत्रीन्द्रः॥
इ꣡न्द्रो꣯दधी꣯चो꣯अस्थभिरियाऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢॥ वृत्रा꣡꣯ण्यप्रतिष्कुतइयाऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢॥ जघा꣡꣯ननवती꣯र्नवइयाऽ᳒२᳒॥ ई꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४। औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
35_0179 इन्द्रो दधीचो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१७९-२।
इ꣥न्द्रो꣯दधाइ॥ चो꣢अस्था꣣ऽ२३४भीः꣥। वृ꣢त्रा꣡꣯णिया। प्रा꣢꣯ति꣡ष्कुताः। ज꣢घा꣡꣯नाऽ२३ना꣢᳐॥ व꣣ती꣯र्न꣢वा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣢꣫न्द्रेहि꣣त्स्यन्ध꣢꣯सो꣣ वि꣡श्वे꣢भिः सोम꣣प꣡र्व꣢भिः। म꣣हा꣡ꣳ अ꣢भि꣣ष्टि꣡रोज꣢꣯सा ॥ 36:0180 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः ।
म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्र꣢꣯। आ। इ꣣हि। म꣡त्सि꣢꣯। अ꣡न्ध꣢꣯सः। वि꣡श्वे꣢꣯भिः। सो꣣म꣡पर्व꣢भिः। सो꣣म। प꣡र्व꣢꣯भिः। म꣣हा꣢न्। अ꣣भिष्टिः꣢। ओ꣡ज꣢꣯सा। १८०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और विद्वान् का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुर्गुणों को विदीर्ण तथा सद्गुणों को प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! आप (आ इहि) हमारे जीवन-यज्ञ में आइए, (अन्धसः) हमारे पुरुषार्थरूप अन्न से तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) भक्ति-समारोहों से (मत्सि) प्रसन्न होइए। आप (महान्) महान् और (ओजसा) बल से (अभिष्टिः) हमारे कामादि रिपुओं के प्रति आक्रमण करनेवाले हो ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। हे (इन्द्र) विद्यारूप ऐश्वर्य से युक्त विद्वन् ! आप (आ इहि) आइए, (अन्धसः) सात्त्विक अन्न से, तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) बल बढ़ानेवाली सोम आदि ओषधियों के खण्डों से (मत्सि) तृप्त होइए। आप (महान्) गुणों में महान्, तथा (ओजसा) विद्याबल से (अभिष्टिः) अभीष्ट प्राप्त करानेवाले और समाज के अविद्या, दुराचार आदि दुर्गुणों पर आक्रमण करनेवाले, बनिए ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे पुरुषार्थ और भक्ति से प्रसन्न किया गया परमेश्वर मनुष्यों के काम, कोध्र, हिंसा, उपद्रव आदि सब शत्रुओं को क्षण भर में ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह सात्त्विक एवं पुष्टिप्रद अन्न, ओषधि आदि से परिपुष्ट होकर राष्ट्र से अविद्या आदि दुर्गुणों का शीघ्र ही विनाश करे ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरो विद्वांश्चाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) दुर्गुणविदारक सद्गुणप्रदायक परमेश्वर ! त्वम् (आ इहि) अस्माकं जीवनयज्ञम् आगच्छ, (अन्धसः) अस्मत्पुरुषार्थरूपाद् अन्नात्। अन्धः इति अन्ननाम। निघं० २।७। (विश्वेभिः) समस्तैः (सोमपर्वभिः) भक्तिसमारोहैश्च (मत्सि) हृष्टो भव। मदी हर्षे दिवादिः, लोटि बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३ इति श्यनो लुक्। मद्धि इति प्राप्ते, सर्वे विधयश्छन्दसि विकल्प्यन्ते इति सेर्हिरादेशो न भवति। त्वम् (महान्) महिमवान्, किञ्च (ओजसा) बलेन (अभिष्टिः२) अस्माकं कामादिरिपून् प्रति आक्रान्ता, वर्तसे इति शेषः। अभि पूर्वात् इष गतौ धातोः मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः। अ० ३।३।९६ इति भावे विहितः क्तिन् अत्र बाहुलकात् कर्तरि ज्ञेयः। अभीष्टिः इति प्राप्ते एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्।’ अ० ६।१।९४ वा० इति पररूपम् ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः। हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त विद्वन् ! त्वम् (आ इहि) आगच्छ, (अन्धसः) सात्त्विकाद् अन्नात्, (विश्वेभिः) समस्तैः (सोमपर्वभिः) बलवृद्धिकरीणां सोमाद्योषधीनां खण्डैश्च (मत्सि) तृप्यस्व। त्वम् (महान्) महागुणोपेतः, किञ्च (ओजसा) विद्याबलेन (अभिष्टिः) अभीष्टानां प्रापयिता यद्वा समाजस्य अविद्यादुराचारादिदुर्गुणान् प्रति आक्रान्ता भव इति शेषः ॥६॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा पुरुषार्थेन भक्त्या च प्रसादितः परमेश्वरो मनुष्याणां कामक्रोधहिंसोपद्रवादीन् सर्वान् रिपून् क्षणेनैव विद्रावयति, तथा विद्वान् जनः सात्त्विकपुष्टिप्रदान्नौषध्यादिभिः परिपुष्टः सन् राष्ट्रादविद्यादीन् दुर्गुणान् सद्य एव विद्रावयेत् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।९।१, य० ३३।२५, अथ० २०।७१।७। २. अभिष्टिः आभिमुख्येन यष्टव्यः अभ्येषणशीलो वा शत्रूणाम्—इति वि०। अभिष्टोता अभिगन्ता शत्रूणाम्। अभिपूर्वाद् इषेः गतिकर्मणोऽभिष्टिः—इति भ०। अभीष्टिः शत्रूणामभिभविता—इति सा०। अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्तद्रव्यप्रकाशको वा इति ऋ० १।९।१। भाष्ये, अभियष्टव्यः सर्वतः पूज्यः इति च य० ३३।२५ भाष्ये द०। ३. मन्त्रोऽयं दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये परमेश्वरपक्षे सूर्यपक्षे च, यजुर्भाष्ये च विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।
36_0180 इन्द्रेहित्स्यन्धसो विश्वेभिः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८०-१। पौषम्॥ पूषा गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥न्द्रे꣯हिमा꣯हाउ॥ त्सी꣢ऽ३आ꣡न्धा꣢ऽ३साः꣢। वा꣡इश्वे꣢꣯भिस्सो꣡ऽ२३हा꣢ऽ३। मा꣡प꣢र्वा꣣ऽ२३४भीः꣥। म꣡हाऽ२३ꣳ॥ आ꣡ऽ२᳐भा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ष्टि꣢रो꣡꣯जसा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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आ꣡ तू न꣢꣯ इन्द्र वृत्रहन्न꣣स्मा꣢क꣣म꣢र्ध꣣मा꣡ ग꣢हि। म꣣हा꣢न्म꣣ही꣡भि꣢रू꣣ति꣡भिः꣢ ॥ 37:0181 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ तू न॑ इन्द्र वृत्रहन्न॒स्माक॑म॒र्धमा ग॑हि ।
म॒हान्म॒हीभि॑रू॒तिभिः॑ ॥
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पदपाठः
आ꣢। तु। नः꣣। इन्द्र। वृत्रहन्। वृत्र। हन्। अस्मा꣡क꣢म्। अ꣡र्ध꣢꣯म्। आ। ग꣣हि। महा꣢न्। म꣣ही꣡भिः꣢। ऊ꣣ति꣡भिः꣢। १८१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और विद्वान् आचार्य को पुकारा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृत्रहन्) अविद्या, विघ्न, दुःख, पाप आदिकों के विनाशक (इन्द्र) परमात्मन्, राजन् वा आचार्य ! आप (तु) शीघ्र ही (नः) हमारे समीप (आ) आइए। आप (अस्माकम्) हम स्तोताओं व शिष्यों के (अर्धम्) अपूर्ण जीवन में (आ गहि) आइए। आप (महीभिः) अपनी महान् रक्षाओं से (महान्) महान् हैं ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘महा, मही’ में छेकानुप्रास है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अपूर्ण, बहुत से दोषों से युक्त, विविध विघ्नों से प्रताड़ित मनुष्य अपने जीवन में परमात्मा, राजा और गुरु की सहायता से ही उन्नति कर सकता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मा, राजा विद्वानाचार्यश्चाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृत्रहन्) अविद्याविघ्नदुःखपापादीनां हन्तः (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य वा ! त्वम् (तु) क्षिप्रम्। संहितायाम् ऋचितुनुघ०।’ अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (आ) आगहि, आगच्छ। त्वम् (अस्माकम्) स्तोतॄणाम्, शिष्याणां वा (अर्धम्२) अपूर्ण जीवनम् (आ गहि) आगच्छ। आङ्पूर्वाद् गम्लृ गतौ धातोर्लोटि छान्दसं रूपम्। बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३ इति शपो लुक्, धातोर्मकारलोपः, सेर्हिः। त्वम् (महीभिः) महतीभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (महान्) अतिशयमहिमोपेतः, असि इति शेषः ॥७॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः। महा, मही इति छेकानुप्रासः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अपूर्णो बहुच्छिद्रान्वितो विविधविघ्नप्रताडितो मनुष्यः स्वजीवने परमात्मनो नृपतेर्गुरोर्वा साहाय्येनैवोन्नतिं कर्तुं शक्नोति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ४।३२।१, य० ३३।६५। २. अर्धं वेद्याख्यं स्थानम्—इति वि०। समीपम्—इति भ०, सा०। ३. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा यजुर्भाष्ये च राजप्रजापक्षे व्याख्यातः।
37_0181 आ तू - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८१-१। इन्द्रस्य माया॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रो॥ वृत्रहा वा।
आ꣣꣯तू꣢꣯औ꣣꣯हो꣥꣯॥(द्विः)। न꣢इ꣡न्द्र꣢वृ꣡त्राऽ२३४हा꣥न्। अ꣢स्मा꣡꣯क꣢म꣡र्ध꣢म्। आ꣡꣯गाऽ२३ही꣢। गा꣡हीऽ᳒२᳒॥ मा꣡हाऽ᳒२᳒न्मा꣡हीऽ२३॥ भि꣢रू꣡ऽ२३४वा꣥॥ ता꣤ऽ५इभोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ओ꣢ज꣣स्त꣡द꣢स्य तित्विष उ꣣भे꣢꣫ यत्स꣣म꣡व꣢र्तयत्। इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्मे꣢व꣣ रो꣡द꣣सी ॥ 38:0182 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत् ।
इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ओ꣡जः꣢꣯। तत्। अ꣣स्य। तित्विषे। उभे꣡इ꣢ति। यत्। स꣣म꣡व꣢र्तयत्। स꣣म्। अ꣡व꣢꣯र्तयत्। इ꣡न्द्रः꣢꣯। च꣡र्म꣢꣯। इ꣣व। रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢। १८२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के ओज का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (तत्) वह (अस्य) इस इन्द्र परमेश्वर का (ओजः) ओज अर्थात् महान् बल और तेज (तित्विषे) प्रकाशित हो रहा है, (यत्) जो कि (इन्द्रः) वह शक्तिशाली परमेश्वर (उभे) दोनों (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (चर्म इव) मृगछाला के आसन के समान (समवर्तयत्) सृष्टिकाल में फैलाता है और प्रलयकाल में समेट लेता है ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे कोई योगी सन्ध्योपासना के लिए मृगछाला के आसन को बिछाता है और सन्ध्योपासना समाप्त करके उसे समेट लेता है, वैसे ही परमात्मा अपने ओज से सृष्ट्युत्पत्ति के समय सब जगत् को फैलाता है और प्रलय के समय समेट लेता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मन ओजो वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (तत् अस्य) इन्द्रस्य परमेश्वरस्य (ओजः) महद् बलं तेजो वा (तित्विषे) दीप्यते, प्रकाशते। त्विष दीप्तौ। ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः।’ अ० ३।४।६ इति कालसामान्ये लिट्। (यत् इन्द्रः) असौ शक्तिशाली परमेश्वरः (उभे) द्वे अपि (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०। (चर्म इव) मृगचर्मासनमिव (समवर्तयत्२) सृष्टिकाले प्रसारयति, प्रलयकाले संवेष्टयति च ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा कश्चिद् योगी सन्ध्योपासनार्थं मृगचर्मासनमास्तृणाति, सन्ध्योपासनां समाप्य च तत् परिवेष्टयति, तथैव परमात्मा स्वौजसा सृष्ट्युत्पत्तिकाले सर्वं जगत् प्रसारयति, प्रलयकाले च संकोचयति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६।५, अथ० २०।१०७।२, साम० १६५३। २. समवर्तयत् संवेष्टयति—इति वि०। यथा कश्चित् किञ्चित् चर्म कदाचिद् विस्तारयति कदाचित् संकोचयति, एवं (रोदसी) तदधीने अभूताम्—इति सा०।
38_0182 ओजस्तदस्य तित्विष - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८२-१। इन्द्रस्य सांवर्ते द्वे॥ द्वयोरिन्द्रो गायत्रीन्द्रः॥
हा꣥। हा꣢उवाऽ३। ओ꣡꣯जस्तदस्य꣢तित्विषे꣣ऽ२३४। हा꣥। हा꣢उवा। उभे꣡꣯यत्समवर्त꣢या꣣ऽ२३४त्॥ हा꣥। हा꣢उवाऽ३। इ꣡न्द्रश्चर्मे꣰꣯ऽ२वरो꣡꣯दसी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
38_0182 ओजस्तदस्य तित्विष - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१८२-२।
ओ꣤꣯जस्तदाऽ५स्यतित्वि꣤षाइ॥ उ꣢भे꣡꣯यत्समवर्तयादा꣢ऽ१इन्द्राऽ२३ः॥ चा꣡ऽ२᳐र्मा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। व꣢रो꣡꣯दसी꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣य꣡मु꣢ ते꣣ स꣡म꣢तसि क꣣पो꣡त꣢ इव गर्भ꣣धि꣢म्। व꣢च꣣स्त꣡च्चि꣢न्न ओहसे ॥ 39:0183 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑ इव गर्भ॒धिम् ।
वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣य꣢म्। उ꣣। ते। स꣢म्। अ꣣तसि। कपो꣡तः꣢। इ꣣व। गर्भधि꣣म्। ग꣣र्भ। धि꣢म्। व꣡चः꣢꣯। तत्। चि꣣त्। नः। ओहसे। १८३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनः शेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के साथ अपना स्नेह-सम्बन्ध सूचित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) यह उपासक (उ) सचमुच (तव) तेरा ही है, जिसके पास तू (समतसि) पहुँचता है, (कपोतः) कबूतर (इव) जैसे (गर्भधिम्) अण्डों से नये निकले हुए बच्चों के आवास-स्थान घोंसले में पहुँचता है। (तत् चित्) इसी कारण, (नः) हमारे (वचः) स्नेहमय स्तुति-वचन को, तू (ओहसे) स्वीकार करता है ॥९॥ यास्काचार्य ने इस मन्त्र के प्रथम पाद को ‘उ’ के पदपूरक होने के उदाहरणस्वरूप उद्धृत किया है। निरु० १।१०। इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे कबूतर घोंसले में स्थित शिशुओं के पालन के लिए घोंसले में जाता है, वैसे ही परमेश्वर अपने शिशु उपासकों के पालन के लिए उनके पास जाता है। और, जैसे कबूतर अपने शिशुओं के शब्द को उत्कण्ठापूर्वक सुनता है, वैसे ही परमेश्वर स्तोताओं के स्तुतिवचन को प्रेमपूर्वक सुनता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मना स्वकीयं स्नेहसम्बन्धं सूचयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) एष उपासकः (उ) किल (तव) तवैव वर्तते, यं त्वम् (समतसि) सं प्राप्नोषि। अत सम् पूर्वः अत सातत्यगमने भ्वादिः। (कपोतः) पारावतः (इव) यथा (गर्भधिम्२) गर्भाः अण्डेभ्योऽचिरप्रसूताः शिशवः धीयन्ते यत्र स गर्भधिः नीडः तम् प्राप्नोति। गर्भोपपदात् धा धातोः कर्मण्यधिकरणे च।’ अ० ३।३।३९ इति किः प्रत्ययः. (तत् चित्) तस्मादेव कारणात् (नः) अस्माकम् (वचः) स्नेहमयं स्तुतिवचनम्, त्वम् (ओहसे३) वहसि स्वीकरोषि। वह प्रापणे धातोश्छान्दसे सम्प्रसारणे लघूपधगुणः ॥९॥४ यास्काचार्यः उकारस्य पदपूरकत्वेऽस्य मन्त्रस्य प्रथमं पादमुद्धरति—अ॒यमु॒॑ ते॒ सम॑तसि (ऋ० १।३०।४), अयं ते समतसि। निरु० १।१०। इति। अत्रोपमालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा कपोतो नीडस्थशिशूनां पालनाय नीडं गच्छति, तथैव परमेश्वरः स्वशिशूनामुपासकानां पालनाय तान् गच्छति। यथा च कपोतः शिशूनां जल्पितं सोत्कण्ठं शृणोति, तथैव परमेश्वरः स्तोतॄणां स्तुतिवचनं प्रेम्णा शृणोति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३०।४, अथ० २०।४५।१, साम० १५९९। २. गर्भः धीयते यस्यां सा गर्भधिः कपोतिका—इति० वि०। भ०, सा०, द० एतेषामपि तदेवाभिप्रेतम्। ३. ओहसे, वहेरिदं रूपम्—इति वि०। वहसे—इति भ०। प्राप्नोषि—इति सा०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं शिल्पाग्निपक्षे व्याख्यातः।
39_0183 अयमु ते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८३-१। शौनश्शेपम्, च्यावनं वा॥ शुनश्शेपो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣤या꣣ऽ५मु। ता꣤ऽ३इसा꣢ऽ३मा꣤꣯तसा꣥इ॥ का꣡पो꣯त꣢इ। वगा꣡र्भा꣢ऽ१धीऽ᳒२᳒म्॥ वा꣡चाऽ᳒२᳒स्ता꣡च्चीऽ२३त्॥ न꣢ओ꣡ऽ२३४वा꣥। हा꣤ऽ५सोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢। प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥ 40:0184 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वात॒ आ वा॑तु भेष॒जं श॒म्भु म॑यो॒भु नो॑ हृ॒दे ।
प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
वा꣡तः꣢꣯। आ। वा꣢तु। भेषज꣢म्। शं꣣म्भु꣢। श꣣म्। भु꣢। म꣣योभु꣢। म꣣यः। भु꣢। नः꣣। हृदे꣢। प्र। नः꣣। आ꣡यूँ꣢꣯षि। ता꣣रिषत्। १८४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- उलो वातायनः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में ‘वात’ से भेषज आदि की आकांक्षा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वातः) वायु को चलानेवाला, इन्द्र परमेश्वर, अथवा परमेश्वर द्वारा रचित वायु और प्राण (भेषजम्) औषध को (आ वातु) प्राप्त कराये, (यत्) जो (नः) हमारे (हृदे) हृदय के लिए (शम्भु) रोगों का शमन करनेवाला, और (मयोभु) सुखदायक हो। वह परमेश्वर, वायु और प्राण (नः) हमारे (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्रतारिषत्) बढ़ाये ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘वात, वातु’ में छेकानुप्रास है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ईश्वरप्रणिधानपूर्वक प्राणायाम करने से चित की शुद्धि, हृदय का बल, शरीर का आरोग्य और दीर्घायुष्य प्राप्त होते हैं। इस दशति में इन्द्र परमेश्वर की सहायता से अविद्या, अधर्म के अन्धकार से पूर्ण रात्रि के निवारण का, दिव्य उषा के प्रादुर्भाव का, इन्द्र द्वारा वृत्र के संहार का, परमात्मा, वायु और प्राण से औषध-प्राप्ति का और यथायोग्य राजा एवं आचार्य के भी योगदान का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ द्वितीय प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वाताद् भेषजादिकमाकाङ्क्षते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वातः) वातयति वायुं प्रेरयति यः स वातः इन्द्रः परमेश्वरः, यद्वा वातः इन्द्रेण परमेश्वरेण रचितः वायुः प्राणो वा (भेषजम्) औषधम् (आ वातु) आ गमयतु, यत् (नः) अस्माकम् (हृदे) हृदयाय (शम्भु२) रोगशामकम्। शं रोगाणां शमनं भवत्यस्मादिति शम्भु। (मयोभु) सुखदायकं च, भवेदिति शेषः। मयः इति सुखनाम। निघं० ३।६। मयः सुखं भवत्यस्मादिति मयोभु। स वातः परमेश्वरः वायुः प्राणश्च (नः) अस्माकम् (आयूंषि) आयुषो वर्षाणि (प्रतारिषत्) प्रवर्द्धयेत्। प्र पूर्वः तॄ प्लवनसंतरणयोः धातुर्वर्द्धनार्थः। लेटि, तिपि, तिप इकारस्य लोपे, सिबागमे, अडागमे, सिपश्च णिद्वत्त्वे, वृद्धौ रूपम् ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। वात, वातु इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ईश्वरप्रणिधानपूर्वकं प्राणायामेन चित्तशुद्धिर्हृद्बलं, शरीरारोग्यं, दीर्घायुष्यं च प्राप्यते ॥१०॥ अत्रेन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य साहाय्येनाऽविद्याऽधर्मान्धकारपूर्णाया निशाया अपगमस्य, दिव्योषसः प्रादुर्भावस्य, इन्द्रद्वारा वृत्रसंहारस्य, परमात्मवायुप्राणाद्याद् भेषजप्राप्तेर्वर्णनाद्, यथायोग्यं च नृपतेराचार्यस्य चापि योगदानवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्। इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः। इति द्वितीयाध्याये सप्तमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१८६।१, देवता वायुः। न आयूंषि इत्यत्र ण आयूंषि इति पाठः। २. शम्भु सुखस्य भावयितृ, इदानीं सुखकरमित्यर्थः। मयोभु कालान्तरे च सुखस्य भावयितृ इत्यर्थः। अथवा मयो बलं, तस्य भावयितृ—इति वि०। शं शान्तिरुपद्रवाणाम्, मयः सुखम्—इति भ०। शं रोगशमनम्, मयः सुखम्—इति सा०।
40_0184 वात आ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८४-१। प्रतीचीनेडं काशीतम्॥ काशीतो गायत्रीन्द्रो, वायुर्वा॥
वा꣤꣯त꣥आ꣤꣯वा꣥꣯तु। भा꣤ऽ५इषजा꣤म्॥ शा꣡म्भुम꣢यः। भुनो꣡हृ꣪दाऽ२३४इ। हा꣣꣯हो꣢इ॥ प्र꣡नआ꣯यूꣳषी꣢ऽ३ता꣢॥ रिषा꣡त्। औऽ२३हो꣤वा꣥। ई꣤डा꣥॥
[[अथ अष्टम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣡ꣳ रक्ष꣢꣯न्ति꣣ प्र꣡चे꣢तसो꣣ व꣡रु꣢णो मि꣣त्रो꣡ अ꣢र्य꣣मा꣢। न꣢ किः꣣ स꣡ द꣢भ्यते꣣ ज꣡नः꣢ ॥ 41:0185 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यं रक्ष॑न्ति॒ प्रचे॑तसो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा ।
नू चि॒त्स द॑भ्यते॒ जनः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
य꣢म्। र꣡क्ष꣢꣯न्ति। प्र꣡चे꣢꣯तसः। प्र। चे꣣तसः। व꣡रु꣢꣯णः। मि꣣त्रः꣢। मि꣣। त्रः꣢। अ꣣र्यमा꣢। न। किः꣣। सः꣢। द꣣भ्यते। ज꣡नः꣢꣯। १८५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कण्वो घौरः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में मित्र, वरुण और अर्यमा का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्मपक्ष में। ऋचा का देवता इन्द्र होने से इन्द्र को सम्बोधन अपेक्षित है। हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! (यम्) जिस मनुष्य की (प्रचेतसः) हृदय में सदा जागनेवाले (वरुणः) पाप-निवारण का गुण, (मित्रः) मित्रता का गुण और (अर्यमा) न्यायकारिता का गुण (रक्षन्ति) विपत्तियों से बचाते तथा पालते हैं, (सः) वह (जनः) मनुष्य (नकिः) कभी नहीं (दभ्यते) हिंसित होता है ॥ द्वितीय—राष्ट्रपक्ष में। (यम्) जिस राजा की (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चित्तवाले, प्रकृष्ट विज्ञानवाले, सदा जागरूक (वरुणः) पाशधारी, शस्त्रास्त्रों से युक्त, शत्रुनिवारक, सेनापति के पद पर चुना गया सेनाध्यक्ष, (मित्रः) देश-विदेश में मित्रता के संदेश को फैलानेवाला मैत्रीसचिव, और (अर्यमा) न्यायाधीश वा न्यायमन्त्री (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं, (सः) वह (जनः) राजा (नकिः) कभी भी किसी से नहीं (दभ्यते) पराजित या हिंसित होता है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि पाप-निवारण, मैत्री तथा न्याय के गुणों को अपने हृदय में धारण करें, और राजा को चाहिए कि वह अपने राष्ट्र में सेनाध्यक्ष, मैत्रीसचिव, न्यायाधीश आदि के विविध पदों पर सुयोग्य जनों को ही नियुक्त करे, जिससे शत्रुओं का उच्छेद और प्रजा का उत्कर्ष निरन्तर सिद्ध होते रहें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे मित्रवरुणार्यमविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपरः। ऋचः इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोध्यः। हे इन्द्र मदीय अन्तरात्मन् ! (यम्) जनम् (प्रचेतसः) हृदि सदा जागरूकाः। प्रकृष्टं चेतः संज्ञानं जागरूकत्वं वा येषां ते। चिती संज्ञाने। (वरुणः) पापनिवारको गुणः। यो वारयति पापादीनि स वरुणः। वृञ् आवरणे चुरादिः, कृवृदारिभ्य उनन् उ० ३।५३ इति उनन् प्रत्ययः. (मित्रः) मित्रतायाः गुणः। डुमिञ् प्रक्षेपणे। मिनोति दोषादीन् प्रक्षिपति यो येन वा स मित्रः। अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः उ० ४।१६५ इति क्त्रः प्रत्ययः। (अर्यमा) न्यायकारितायाः गुणश्च। यः अर्यान् श्रेष्ठान् मिमीते यथार्थतया परिच्छिनत्ति सोऽर्यमा। अर्योपपदाद् माङ् माने धातोः श्वन्नुक्षन्पूषन्० उ० १।१५९ इति कनिन्प्रत्ययान्तो निपातः। (रक्षन्ति) विपद्भ्यस्त्रायन्ते पालयन्ति च, (स जनः) असौ मनुष्यः (न किः) न कदापि (दभ्यते) हिंस्यते। दभ्नोतिः हिंसाकर्मा। निघं० २।१९ ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (यम्) इन्द्रं राजानम् (प्रचेतसः) प्रकृष्टचित्ताः, प्रकृष्टविज्ञानाः, सदा जागरूकाः (वरुणः) पाशपाणिः२, शस्त्रास्त्रयुक्तः, शत्रुनिवारकः३, सेनापतित्वे वृतः४ श्रेष्ठः सेनाध्यक्षः मित्रः देशे विदेशे च मैत्रीसन्देशप्रसारकः मैत्रीसचिवः, (अर्यमा५) न्यायाधीशो न्यायमन्त्री वा (रक्षन्ति) त्रायन्ते (सः) असौ (जनः) जातो राजा (नकिः) न कदापि (दभ्यते) पराजीयते हिंस्यते वा ॥१॥६ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैर्मनुष्यैः पापनिवारणस्य मैत्र्या न्यायस्य च गुणाः स्वहृदये धारणीयाः, नृपतिना च स्वराष्ट्रे सेनाध्यक्षत्व-मैत्रीसचिवत्व-न्यायाधीशत्वादिविविधपदेषु सुयोग्या एव जना नियोक्तव्याः, येन शत्रूच्छेदः प्रजोत्कर्षश्च सततं सिध्येताम् ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।४१।१, देवता मित्रवरुणार्यमणः। नकिः इत्यत्र नूचित् इति पाठः। २. शतेन पाशैरभिधेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः। अथ० ४।१६।७। ३. वारयति शत्रूनिति वरुणः। वृञ् आवरणे, चुरादिः। ४. व्रियते इति वरुणः। वृञ् वरणे। ५. (अर्यमा) यः पक्षपातं विहाय न्यायं कर्तु समर्थः इति ऋ० १।४१।१ भाष्ये, योऽर्यान् मन्यते स न्यायाधीशः इति च य० ३६।९ भाष्ये द०। ६. दयानन्दर्षिर्ऋग्वेदभाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने भावार्थमेवमाह—“मनुष्यैः (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः (मित्रः) सर्वमित्रो दूतोऽध्यापकः उपदेष्टा (अर्यमा) धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्तव्यः। तेषां सकाशाद् रक्षणादीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं संपादनीयम्” इति ।
41_0185 यं रक्षन्ति - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८५-१। सौमित्रम्॥ सुमित्रो गायत्रीन्द्रो विश्वेदेवा वा॥
यꣳ꣤रक्ष꣥न्तिप्र꣤चे꣥꣯तसाः꣤॥ व꣡रुणो꣯मित्रो꣯अर्याऽ२᳐३मा꣢। न꣡। काइस्साऽ२३दा꣢॥ हिं꣡माये꣢ऽ३। भ्या꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ जा꣣ऽ२३४नाः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ग꣣व्यो꣢꣫ षु णो꣣ य꣡था꣢ पु꣣रा꣢श्व꣣यो꣡त र꣢꣯थ꣣या꣢। व꣣रिवस्या꣢ म꣣हो꣡ना꣢म् ॥ 42:0186 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ग॒व्यो षु णो॒ यथा॑ पु॒राश्व॒योत र॑थ॒या ।
व॒रि॒व॒स्य म॑हामह ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ग꣣व्य꣢। उ꣣। सु꣢। नः꣣। य꣡था꣢꣯। पु꣣रा꣢। अ꣣श्वया꣢। उ꣣त꣢। र꣣थया꣢। व꣣रिवस्या꣢। म꣣हो꣡ना꣢म्। १८६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र ! परमैश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मन् और राजन् ! आप (गव्या) गायों, भूमियों, वाक्शक्तियों, विद्युद्विद्याओं और अध्यात्मप्रकाश की किरणों को प्रदान करने की इच्छा से (उ सु) और (अश्वया) घोड़ों, प्राण-बलों, अग्नि तथा सूर्य की विद्याओं को प्रदान करने की इच्छा से, (उत) और (रथया) भूमि, जल व अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों एवं मानव-देह-रूप रथों को प्रदान करने की इच्छा से, तथा (महोनाम्) हम महानों को (वरिवस्या) धन प्रदान करने की इच्छा से (यथा पुरा) पहले के समान अब भी (नः) हमारे पास आइये ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की कृपा से, राजा की सुव्यवस्था से और अपने पुरुषार्थ से मनुष्यों को दुधारू गौएँ, बलवान् घोड़े, तेल-गैस-बिजली-सूर्यताप आदि से चलाये जानेवाले भूमि, जल और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यान, वाणी का बल, प्राण-बल, अग्नि-वायु-बिजली एवं सूर्य की विद्याएँ, अध्यात्म-प्रकाश और चक्रवर्ती राज्य प्राप्त करने चाहिएँ ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मानं राजानं च प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमैश्वर्यशालिन् परब्रह्म परमात्मन् राजन् वा ! त्वम् (गव्या२) गवाम् धेनूनां भूमीनां वाक्छक्तीनां, विद्युद्विद्यानाम् अध्यात्मप्रकाशकिरणानां च प्रदानेच्छया, (उ सु) अथ च (अश्वया) अश्वानाम् वाजिनां प्राणबलानाम् अग्निसूर्यविद्यादीनां च प्रदानेच्छया, (उत) अपि च (रथया) रथानाम् भूजलान्तरिक्षयानानां मानवदेहानां च प्रदानेच्छया, किञ्च (महोनाम्३) महताम् अस्माकम् (वरिवस्या४) वरिवो धनं तत्प्रदानेच्छया (यथा पुरा) पूर्वमिव साम्प्रतमपि (नः) अस्मान् आगहि आगच्छ इति शेषः ॥ गवां प्रदानेच्छा गव्या, अश्वानां प्रदानेच्छा अश्वया, रथानां प्रदानेच्छा रथया, वरिवसां धनानां प्रदानेच्छा वरिवस्या। वरिवस् इति धननाम। निघं० २।१०। सर्वत्र छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्।’ अ० ३।१।८ वा० इति परेच्छार्थे क्यच्। न च्छन्दस्यपुत्रस्य।’ अ० ७।४।३५ इति ईत्वदीर्घयोर्निषेधः। क्यजन्तेभ्यः अ प्रत्ययात्।’ अ० ३।३।१०२ इति भावे अः प्रत्ययः, ततष्टाप्। तृतीयैकवचने गव्यया, अश्वयया, रथयया, वरिवस्यया इति प्राप्ते सुपां सुलुक्।’ अ० ७।१।३९ इति तृतीयाया लुक्, पूर्वसवर्णदीर्घो वा। (गव्या)—गौः इति पृथिवीनाम, वाङ्नाम, रश्मिनाम, विद्युन्नाम च। निघं० १।१, १।११, १।५, निरु० ११।३८। (अश्वया)—अश्वः इति अग्निसूर्ययोरपि नाम, प्र नू॒नं जा॒तवे॑दस॒मश्वऺ हिनोत वा॒जिन॑म्।’ ऋ० १०।१८८।१, अग्निरेष यदश्वः।’ श० ६।३।३।२२, असौ वा आदित्यो अश्वः।’ तै० ब्रा० ३।९।२३।२, असौ वा आदित्य एषोऽश्वः।’ श० ७।३।२।१० इत्यादिप्रामाण्यात्। (महोनाम्)—महस् इति महन्नाम। निघं० ३।३। महसाम् इति प्राप्ते नुडागमश्छान्दसः। अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्य कृपया, राज्ञः सुव्यवस्थया, निजपुरुषार्थेन च मनुष्यैर्दोग्ध्र्यो धेनवो, बलवन्तोऽश्वास्तैलवायुविद्युत्सौरतापादिना सञ्चाल्यमानानि भूजलान्तरिक्षयानानि, वाग्बलं, प्राणबलम्, अग्निवायुविद्युदादित्यविद्या अध्यात्मप्रकाशश्चक्रवर्तिराज्यं च प्राप्तव्यानि ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४६।१०, ऋषिः वशोऽश्व्यः। वरिवस्य महामह इति तृतीयः पादः। २. गव्या गव्यया गवीच्छ्या, रथया रथेच्छया, अश्वया अश्वेच्छया वयं त्वां स्तुमः इति वाक्यशेषः—इति वि०। गवादिभ्यः शसो यादेशः सुपां सुलुक् इत्यादिना। गव्या गाः सु सुष्ठु नः अस्मभ्यं वरिवस्य प्रयच्छ। अश्वया अश्वान्, रथया रथान्—इति भ०। अस्माकं गवामिच्छया…. वरिवस्य परिचर आगच्छ, अश्वया अश्वप्रदानेच्छया, रथया रथेच्छया—इति सा०। ३. महोनाम्। महो धनं हविर्लक्षणम्, तद्वताम्—इति भ०। धनानाम्—इति सा०। ४. ऋग्वेदे वरिवस्य इति तिङन्तं पदमस्ति। तदनुसृत्य भरतसायणाभ्यां सामवेदेऽपि तिङन्तं स्वीकृतम्। तथापि पदपाठे वरिवस्या इति पाठात् पदकारस्येदं क्रियापदं न सम्मतम्, यतः पदपाठे दीर्घान्तं क्रियापदं सर्वत्र पदकारो ह्रस्वान्तं प्रदर्शयति, स्वरे तु नः विशेषः। विवरणकारस्तु वरिवस्या। वरिवस्यः परिचरणीयः, तस्मात् सम्बुद्ध्येकवचनम्, तस्य स्थाने सुपां सुलुक् इति आकारः। हे परिचरणीय इत्यर्थः इति व्याचख्यौ। तच्चिन्त्यं, सम्बुद्धिस्वराभावात्। सम्बुद्धौ तु पादादित्वात् षाष्ठेन आमन्त्रितस्य च इति सूत्रेण आद्युदात्तेन भाव्यम्।
42_0186 गव्यो षु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८६-१। श्यावाश्वे द्वे॥ द्वयोश्श्यावाश्वोः गायत्रीन्द्रः॥
ग꣥व्यो꣤꣯षुणो꣥꣯य꣤था꣥꣯पुरा꣤॥ अ꣢श्वयो꣯त꣡रथा। याव꣢रिवस्या꣡॥ म꣢। हो꣡꣯माऽ२३। हो꣯ना꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा। ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
42_0186 गव्यो षु - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१८६-२।ग꣥व्यो꣯षुणो꣯यथा꣯पुराऽ६ए꣥॥ अ꣢श्वयोऽ१त। रथाऽ᳒२᳒। या꣡॥ व꣢रि꣡वाऽ᳒२᳒स्या꣡। म꣢हो꣡꣯। महोऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣मा꣡स्त꣢ इन्द्र꣣ पृ꣡श्न꣢यो घृ꣣तं꣡ दु꣢हत आ꣣शि꣡र꣢म्। ए꣣ना꣢मृ꣣त꣡स्य꣢ पि꣣प्यु꣡षीः꣢ ॥ 43:0187 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒मास्त॑ इन्द्र॒ पृश्न॑यो घृ॒तं दु॑हत आ॒शिर॑म् ।
ए॒नामृ॒तस्य॑ पि॒प्युषीः॑ ॥
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पदपाठः
इ꣣माः꣢। ते꣣। इन्द्र। पृ꣡श्न꣢꣯यः। घृ꣣त꣢म्। दु꣣हते। आशि꣡र꣢म्। आ꣣। शिर꣢꣯म्। ए꣣ना꣢म्। ऋ꣣त꣡स्य꣢। पि꣣प्यु꣡षीः꣢। १८७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र की पृश्नियाँ क्या करती हैं, इसका वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—यज्ञ के पक्ष में। हे (इन्द्र) गोपालक यजमान ! (ऋतस्य) यज्ञ की (पिप्युषीः) बढ़ानेवाली (इमाः) ये (ते) तेरी (पृश्नयः) यज्ञ के उपयोग में आनेवाली अनेक रंगोंवाली गायें (घृतम्) घी और (एनाम् आशिरम्) इस दूध को (दुहते) प्रदान करती हैं ॥ द्वितीय—अध्यात्म-पक्ष में। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ऋतस्य) सत्य का (पिप्युषीः) पान करानेवाली (इमाः) ये (पृश्नयः) वेद-माताएँ (ते) तेरे लिए (घृतम्) तेज-रूप घी को अर्थात् ब्रह्मवर्चस को और (एनाम् आशिरम्) इस परिपक्व आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, विद्या आदि के दूध को (दुहते) प्रदान करती हैं ॥ तृतीय—वर्षा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमाः) ये (ते) आपकी रची हुई (पृश्नयः) रंग-बिरंगी मेघमालाएँ (आशिरम्) सूर्य के ताप से भाप बने हुए (घृतम्) जल को (दुहते) बरसाती हैं और (एनाम्) इस भूमि को (ऋतस्य) वृष्टिजल का (पिप्युषीः) पान करानेवाली होती हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे यजमान की गायें यज्ञार्थ घी और दूध देती हैं, मेघमालाएँ खेती आदि के लिए वर्षाजल-रूप दूध बरसाती हैं, वैसे ही वेद-माताएँ जीव के लिए ब्रह्मवर्चस-रूप घी और आयु-प्राण आदि रूप दूध देती हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य पृश्नयः किं कुर्वन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—यज्ञपरः। हे (इन्द्र) गोपालक (यजमान) ! यजमानो वै स्वे यज्ञ इन्द्रः। श० ८।५।३।८। (ऋतस्य) यज्ञस्य। ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे इति निरुक्तम्। ६।२२। (पिप्युषीः) पिप्युष्यः वर्धयित्र्यः। ओप्यायी वृद्धौ धातोर्लिटः क्वसौ लिड्यङोश्च।’ अ० ६।१।२९ इति प्यायः पीभावे स्त्रियरूपम्। (इमाः) एताः (ते) तव (पृश्नयः२) नानावर्णा धर्मदुहो गावः (घृतम्) आज्यम्, (एनाम् आशिरम्३) एतत् पयश्च। (आशीः) पयोनाम इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दु॒दु॒ह्रे ॥ ऋ० ८।६९।६ इति प्रामाण्यात्। आशीराश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा इति निरुक्तम्। ६।८। (दुहते) प्रयच्छन्ति ॥४ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ऋतस्य) सत्यस्य (पिप्युषीः) पाययित्र्यः। पीङ् पाने धातोर्लिटि क्वसौ रूपम्। (इमाः) एताः (पृश्नयः) वेदमातरः (ते) तुभ्यम् (घृतम्) तेजोरूपम् आज्यम्, ब्रह्मवर्चसमित्यर्थः। तेजो वै घृतम्। तै० सं० २।२।९।६। (एनाम् आशिरम्) एतत् परिपक्वम् आयुष्प्राणप्रजापशुकीर्तिविद्यादिरूपं दुग्धं च (दुहते) प्रयच्छन्ति। किं तावद् वेदमातॄणां दुग्धमिति स्वयमेव वर्णयति श्रुतिः—“स्तु॒ता मया॑ वर॒दा वेद॑मा॒ता प्रचो॑दयन्तां पावमा॒नी द्वि॒जाना॑म्। आयुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां प॒शुं की॒र्तिं द्रवि॑णं ब्रह्मवर्च॒सम्। मह्यं॑ द॒त्त्वा व्र॑जत ब्रह्मलो॒कम्।” अथ० १९।७१ इति ॥ अथ तृतीयः—वृष्टिपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमाः) एताः (ते) तव, त्वद्रचिता इत्यर्थः (पृश्नयः) नानावर्णा मेघमालाः (आशिरम्) परिपक्वं, सूर्यतापेन वाष्पीभूतम्। अत्र आङ्पूर्वः श्रीञ् पाके धातुर्बोध्यः। (घृतम्) उदकम्। घृतम् इत्युदकनाम, जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः। निरु० ७।२४। (दुहते) वर्षन्ति, किञ्च (एनाम्) एतां भूमिम् (ऋतस्य) उदकस्य। ऋतमित्युदकनाम। निघं० १।१२। (पिप्युषीः) पाययित्र्यः, भवन्तीति शेषः ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा यजमानस्य गावो यज्ञार्थं घृतं पयश्च दुहन्ति, मेघमालाः कृष्याद्यर्थं वृष्टिजलरूपं पयो दुहन्ति, तथैव वेदमातारो जीवाय ब्रह्मवर्चसरूपं घृतम् आयुष्प्राणादिरूपं पयश्च प्रयच्छन्ति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६।१९। २. पृश्नयो गावः—इति भ०। प्राष्टवर्णा गावः—इति सा०। स्तुतयः—इति वि०। ३. सोममिश्रं दधि आशिरम्—इति वि, भ०। एनाम् आशिरम् आश्रयणद्रव्यं पयः—इति सा०। ४. एनां भूमिम् ऋतस्य ऋतेन उदकेन पिप्युषीः पूरयन्त्यः यज्ञसाधनद्वारेण वृष्टिम् उत्पादयन्त्यः—इति भा०।
43_0187 इमास्त इन्द्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८७-१। शैखण्डिनम्॥ शिखण्डी गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥मा꣯स्तई॥ द्र꣢पृ꣡श्नयो꣯घृतंदू꣭ऽ३हा꣢। औ꣣꣯हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३इ। ता꣡आऽ२᳐शा꣣ऽ२३४इरा꣥म्॥ ए꣣꣯ना꣢ऽ३४मृ꣣ता꣢ऽ३॥ स्य꣢पो꣡ऽ२३४वा꣥। प्यू꣤ऽ५षोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣या꣢ धि꣣या꣡ च꣢ गव्य꣣या꣡ पुरु꣢꣯णामन्पुरुष्टुत। य꣡त्सोमे꣢꣯सोम꣣ आ꣡भु꣢वः ॥ 44:0188 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒या धि॒या च॑ गव्य॒या पुरु॑णाम॒न्पुरु॑ष्टुत ।
यत्सोमे॑सोम॒ आभ॑वः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣या꣢। धि꣣या꣢। च꣣। गव्यया꣢। पु꣡रु꣢꣯णामन्। पु꣡रु꣢꣯। ना꣣मन्। पुरुष्टुत। पुरु। स्तुत। य꣢त्। सो꣡मे꣢꣯सोमे। सो꣡मे꣢꣯। सो꣣मे। आ꣡भु꣢꣯वः। आ꣣। अ꣡भु꣢꣯वः। १८८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा की प्राप्ति का उपाय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरुणामन्) सर्वान्तर्यामिन् एवं वेदों में शक्र, वृत्रहा, मघवान्, शचीपति आदि अनेक नामों से वर्णित, (पुरुष्टुत) बहुस्तुत इन्द्र परमात्मन् ! (अया) इस (गव्यया) आत्मा-रूप सूर्य की किरणों को पाने की कामनावाली (धिया) बुद्धि तथा ध्यान-शृङ्खला से (च) ही, यह संभव है (यत्) कि, आप (सोमेसोमे) हमारे प्राण-प्राण में, प्रत्येक श्वास में (आभुवः) व्याप्त हो जाओ ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदि हम तमोगुण से ढकी हुई आत्मसूर्य की किरणों को निश्चयात्मक बुद्धि और ध्यान से पुनः पाने का यत्न करें, तभी यह संभव है कि परमेश्वर हमारे प्राण-प्राण में, श्वास-श्वास में और रोम-रोम में व्याप्त हो जाए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मप्राप्त्युपायं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरुणामन्२) सर्वान्तर्यामिन्, वेदेषु शक्रवृत्रहमघवच्छचीपत्यादिबहुनामभिर्वर्णित वा ! पुरुषु बहुषु पदार्थेषु नमति व्याप्नोति यः सः यद्वा पुरूणि बहूनि नामानि यस्य सः पुरुणामा, तत्सम्बुद्धौ। (पुरुष्टुत) बहुस्तुत इन्द्र परमात्मन् ! (अया) अनया (गव्यया३) गोकामया, गावः आत्मसूर्यकिरणाः तत्प्राप्तिकामया इत्यर्थः (धिया) बुद्ध्या ध्यानशृङ्खलया वा (च) एव, एतत् संभवति (यत्) यत् त्वम् (सोमेसोमे) अस्माकं प्राणेप्राणे, प्रतिश्वासमित्यर्थः। प्राणः सोमः। श० ७।३।१।२। (आभुवः) आभवेः व्याप्नुयाः इति। आङ्पूर्वाद् भवतेर्लेटि रूपम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदि वयं तमोगुणेनावृतान् आत्मसूर्यस्य किरणान् निश्चयात्मिक्या बुद्ध्या ध्यानेन च पुनः प्राप्तुं प्रयतेमहि, तदैवैतत् संभवति यत् परमेश्वरोऽस्माकं प्राणं प्राणं, श्वासं श्वासं, रोम रोम च व्याप्नुयादिति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।१७, ऋषिः सुकक्षः। आभुवः इत्यत्र आभयः इति पाठः। २. पुर्विति बहुनाम, नमतिः प्रह्वीभावे। बहवः शत्रवः यं प्रति नमन्ति स पुरुनामा, तस्य सम्बोधनं पुरुनामन्, बहूनां शत्रूणां प्रह्वीकर्तः इत्यर्थः—इति वि०। पुरुरूप बहुनामेत्येव वा—इति भ०। बहुविधशक्रवृत्रहादिनामोपेत, यद्वा बहुस्तुतिमन्, नमयति स्तुत्यं देवं वशं नयतीति नाम स्तोत्रम्—इति सा०। ३. अया अनया धिया प्रज्ञया त्वां स्तुमः इति वाक्यशेषः। गव्यया गविच्छया—इति वि०। अया अनया धिया स्तुत्या त्वां स्तुमः इति शेषः। च इति पूरणः। गव्यया गोकामनया—इति भ०। अया अनया ईदृश्या गव्यया गाः आत्मनः इच्छन्त्या धिया बुद्ध्या युक्ता भवेम—इति सा०।
44_0188 अया धिया - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८८-१। वैतहव्यम्॥ वीतहव्यो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥या꣯धिया꣯चगव्याऽ६या꣥॥ पु꣡रुणा꣢ऽ३। म꣢᳐न्पू꣣ऽ२३४रू꣥। ष्टू꣡तौ꣢। वाऽ३२॥ यत्सो꣯मे꣯ऽ३सो꣢꣯म꣣आ꣢॥ या꣡त्सो꣯मे꣰꣯ऽ२सो꣡꣯। म꣢ओ꣡ऽ२३४वा꣥। भू꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
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पा꣣वका꣢ नः꣣ स꣡र꣢स्वती꣣ वा꣡जे꣢भिर्वा꣣जि꣡नी꣢वती। य꣣ज्ञं꣡ व꣢ष्टु धि꣣या꣡व꣢सु ॥ 45:0189 ॥
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पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती ।
य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः ॥
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पदपाठः
पा꣣वका꣢। नः꣣। स꣡र꣢꣯स्वती। वा꣡जे꣢꣯भिः। वा꣣जि꣡नी꣢वती। य꣣ज्ञ꣢म्। व꣣ष्टु। धिया꣡व꣢सुः। धि꣣या꣢। व꣣सुः। १८९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में वाणी और विदुषी का विषय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—वेदवाणी के पक्ष में। ऋचा का देवता इन्द्र होने से इन्द्र को सम्बोधन किया जाना चाहिए। हे इन्द्र परमेश्वर ! आपकी (वाजिनीवती) क्रियामयी अथवा कर्म का उपदेश देनेवाली (सरस्वती) ज्ञानमयी वेदवाणी (वाजेभिः) विज्ञान-रूप बलों से (नः) हमें (पावका) पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) ज्ञान और कर्म के उपदेश से बसानेवाली वह (यज्ञम्) हमारे जीवन-यज्ञ को (वष्टु) भली-भाँति चलाये, संस्कृत करे ॥ द्वितीय—गुरुओं की वाणी के पक्ष में। गुरुजन कामना कर रहे हैं। हे इन्द्र परमात्मन् ! आपकी कृपा से (नः) हमारी (वाजिनीवती) विद्या से पूर्ण (सरस्वती) वाणी (वाजेभिः) सदाचार-रूप धनों से (पावका) शिष्यों को पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) बुद्धिपूर्वक शिष्यों में ज्ञान को बसानेवाली वह (यज्ञम्) शिक्षा-रूप यज्ञ का (वष्टु) भलीभाँति वहन करे ॥ तृतीय—विदुषी के पक्ष में। हे (इन्द्र) ! हे विद्वान् गृहपति ! (वाजिनीवती) क्रियाशील (सरस्वती) विदुषी माता (वाजेभिः) सात्त्विक, स्वास्थ्यकर अन्न आदि भोज्य पदार्थों, बल-प्रदानों और सदाचार की शिक्षाओं से (नः) हम सन्तानों के (पावका) शरीर और मन को पवित्र करनेवाली हो। (धियावसुः) बोध-प्रदान के द्वारा बसानेवाली वह (यज्ञम्) गृहस्थ-यज्ञ को (वष्टु) वहन करने की कामना रखे ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे परमेश्वर की वेदवाणी श्रोताओं का हित-साधन करती है, और जैसे गुरुओं की वाणी शिष्यों का हित-साधन करती है, वैसे ही विदुषी माताएँ सन्तानों का हित सिद्ध करें ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वाग्विषयं विदुषीविषयं चाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—वेदवाक्पक्षे। ऋचः इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोध्यः। हे इन्द्र परमेश्वर ! त्वदीया (वाजिनीवती२) क्रियामयी कर्मोपदेशिका वा। वाजोबलं यास्वस्ति ताः वाजिन्यः क्रियाः, तद्वती। (सरस्वती) ज्ञानमयी वेदवाणी। सरस्वती इति वाङ्नामसु पठितम्। (वाजेभिः) वाजैः विज्ञानबलैः (नः) अस्माकम् (पावका३) पाविका पावयित्री, भवतु इति शेषः। पावकादीनां छन्दस्युपसंख्यानम्। अ० ७।३।४५ वा० इत्यनेन प्रत्ययस्थात् कात्० अ० ७।३।४४ इति प्राप्तस्य इकारस्य निषेधः। (धियावसुः४) धिया ज्ञानक्रमोपदेशेन वासयित्री सा। धीः इति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं० २।१, ३।९। वाग् वै धियावसुः। ऐ० आ० १।११४। धिया इत्यत्र सावेकाचः अ० ६।१।१६८ इति विभक्तिरुदात्ता। तृतीयातत्पुरुषत्वात् तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीया अ० ६।२।२ इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (यज्ञम्) अस्माकं जीवनयज्ञम् (वष्टु) निर्वहतु, संस्करोतु। वश कान्तौ। यज्ञं वष्टु इति यदाह यज्ञं वहतु इत्येव तदाह। ऐ० आ० १।१।४ ॥ अथ द्वितीयः—गुरुवाक्पक्षे। गुरवः कामयन्ते। हे इन्द्र परमात्मन् ! त्वत्कृपया (नः) अस्माकम् (वाजिनीवती) विद्यावती५ (सरस्वती६) वाणी (वाजेभिः) सदाचारधनैः (पावका) शिष्याणां पावयित्री, भवत्विति शेषः। (धियावसुः) धिया बुद्धिपूर्वकं शिष्येषु ज्ञानस्य वासयित्री सा (यज्ञम्) शिक्षायज्ञम् (वष्टु) सम्यग् निर्वहतु ॥ अथ तृतीयः—विदुषीपक्षे। हे इन्द्र विद्वन् गृहपते ! (वाजिनीवती) क्रियाशीला (सरस्वती७) विदुषी माता। सरः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्याः सा सरस्वती। (वाजेभिः) सात्त्विकैः स्वास्थ्यकरैः अन्नादिभिः भोज्यपदार्थैः, बलप्रदानैः, सदाचारशिक्षणैश्च (नः) सन्तानानामस्माकम् (पावका) देहस्य मनसश्च पावयित्री, भवतु। (धियावसुः) बोधप्रदानेन वासयित्री सा (यज्ञम्) गृहस्थयज्ञम् (वष्टु) निर्वोढुं कामयताम् ॥५॥८ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याचष्टे—पावका नः सरस्वती अन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः। निरु० ११।२६ इति ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा परमेश्वरस्य वेदवाणी श्रोतॄणां हितं साध्नोति, यथा वा गुरूणां वाणी शिष्याणां हितं साध्नोति, तथैव विदुष्यो मातरः सन्तानानां हितं साध्नुयुः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३।१०, य० २०।८४, उभयत्र देवता सरस्वती। २. वाजेभिः मदीयैः रत्नैः हविर्लक्षणैर्वा अन्नैः वाजिनीवती अन्नवती इत्यर्थः। अथवा—वाजः बलं वेगो वा, तद् यस्यां विद्यते सा वाजिनी सेना तद्वती—इति वि०। वाजसमूहः वाजिनी तद्वती—इति भ०। वाजोऽन्नमास्विति वाजिन्यः क्रियाः। अत इनिठनौ। अ० ५।२।११५ इति इनिप्रत्ययः. ताः क्रिया यस्याः सन्ति सा सरस्वती वाजिनीवती—इति ऋ० १।३।१० भाष्ये सा०। वाजिनीवती सर्वविद्यासिद्धक्रियायुक्ता। वाजिनः क्रियाप्राप्तिहेतवो व्यवहारास्तद्वती। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।६। अनेन वाजिनीति गमनार्था प्राप्त्यर्था च क्रिया गृह्यते कृति तत्रैव ऋग्भाष्ये द०। ३. तुलनीयम्—स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। अथ० १९।७१।१ इति। ४. धीः वसुभूता यस्यां सा धियावसुः कर्मधना प्रज्ञाधना वा। अथवा वसुरित्येतद् वस आच्छादने इत्येतस्येदं रूपम्। प्रज्ञया आच्छादयित्री सर्वस्य जगतः—इति वि०। (धियावसुः) शुद्धकर्मणा सह वासप्रापिका। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। अ० ६।३।१४ अनेन तृतीयातत्पुरुषे विभक्त्यलुक्—इति ऋ० १।३।१० भाष्ये द०। ५. (वाजिनीवती) प्रशस्तविद्यायुक्ता इति य० २०।८४ भाष्ये द०। ६. (सरस्वती) सरसः प्रशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक्। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९ अनेन गत्यर्थात् सृ धातोरसुन् प्रत्ययः। सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत् सरः। अस्मात् प्रशंसायां मतुप् इति ऋ० १।३।१० भाष्ये द०। ७. (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता (विदुषी स्त्री)—इति य० २०।८५ भाष्ये द०। ८. दयानन्दर्षिर्ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च मन्त्रमिमं वाक्पक्षे व्याख्यातवान्।
45_0189 पावका नः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८९-१। भारद्वाजम्॥ भरद्वाजो गायत्रीन्द्रः॥ सरस्वती वा।
पा꣥꣯वका꣯नई꣤या꣥॥ स꣢रा꣡स्वा꣢ऽ१तीऽ᳒२᳒। वा꣡जे꣯भि꣢र्वा꣯। जिना꣡इवा꣢ऽ१तीऽ᳒२᳒॥ य꣡ज्ञाऽ२३म्॥ वा꣡ऽ२᳐ष्टू꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ धि꣢या꣡꣯वसू꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क꣢ इ꣣मं नाहु꣢꣯षी꣣ष्वा꣢꣫ इन्द्र꣣ꣳ सो꣡म꣢स्य तर्पयात्। स꣢ नो꣣ व꣢सू꣣न्या꣡ भ꣢रात् ॥ 46:0190 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
कः꣢। इ꣣म꣢म्। ना꣡हु꣢꣯षीषु। आ। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। सो꣡म꣢꣯स्य। त꣣र्पयात्। सः꣢। नः꣣। व꣡सू꣢꣯नि। आ। भ꣣रात्। १९०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमरस से तृप्त करने का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नाहुषीषु) मानवीय प्रजाओं में (कः) कौन धन्य मनुष्य (इमम्) इस, गुणों के आधार (इन्द्रम्) परमात्मा, राजा, आचार्य एवं अतिथि आदि को (सोमस्य) सोम से अर्थात् श्रद्धा-रस, ज्ञान-रस, उपासना-रस, कर्म-रस, ब्रह्म-रस, क्षत्र-रस, ब्रह्मचर्य-रस, धर्म-रस, कीर्त-रस आदि से (आ तर्पयात्) चारों ओर से तृप्त करेगा, जिससे (सः) तृप्त किया हुआ वह (नः) हमारे लिए (वसूनि) सब प्रकार के ऐश्वर्यों को (आ भरात्) लाये ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की उपासना, श्रद्धा, ज्ञान-संग्रह, कर्म, ब्रह्मचर्य, तपस्या, श्रम, धर्म, वैराग्य, व्रत-पालन आदि श्रेष्ठ आचारों से ही परमात्मा, राजा, आचार्य आदि प्रसन्न होते हैं और प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य सोमरसतर्पणविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नाहुषीषु) मानुषीषु प्रजासु। नहुष इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। नह्यन्ते बध्यन्ते कर्मपाशैरिति नहुषाः१ मनुष्याः। णह बन्धने पृनहिकलिभ्य उषच्। उ० ४।७५ इति उषच् प्रत्ययः। (कः) को धन्यो जनः (इमम्) एतम् गुणगणाधारम् (इन्द्रम्) परमात्मानं, राजानम्, आचार्यम्, अतिथिं वा (सोमस्य) सोमेन श्रद्धारसेन, ज्ञानरसेन, उपासनारसेन, कर्मरसेन, ब्रह्मरसेन, क्षत्ररसेन, ब्रह्मचर्यरसेन, धर्मरसेन, यशोरसेन वा। अत्र तृतीयार्थे षष्ठी प्रयुक्ता। (आ तर्पयात्) समन्तात् तर्पयिष्यति, येन (सः) तर्पितोऽसौ (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) सर्वविधानि ऐश्वर्याणि (आ भरात्) आहरेत्। तर्पयात्, भरात् इत्युभयत्रापि क्रमेण तृप तृप्तौ, हृञ् हरणे धातोर्लेटि, लेटोऽडाटौ। अ० ३।४।९४ इत्याडागमः। भरात् इत्यत्र हृग्रहोर्भश्छन्दसि इति वार्तिकेन हस्य भः ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरोपासनया, श्रद्धया, ज्ञानसंग्रहेण, कर्मणा, ब्रह्मचर्येण, तपसा, श्रमेण, धर्मेण, वैराग्येण, व्रतपालनेन इत्यादिभिः शुभाचरणैरेव परमात्मनृपत्याचार्यप्रभृतयः सर्वेऽपि प्रसीदन्ति पुष्कलमैश्वर्यं च प्रयच्छन्ति ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. नहुषः शुभाशुभकर्मबद्धो मनुष्यः इति ऋ० १।२२।८ भाष्ये द०। नहुष इति मनुष्यनाम, तेषु भवाः ज्योतिष्टोमाद्याः क्रियाः नाहुष्यः—इति वि०। मानुषीषु प्रजासु—इति भ०।
46_0190 क इमम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९०-१। आरुणस्य वैतहव्यस्य साम, सौभरं वा॥ अरुणो वीतहव्यः गायत्रीन्द्रः॥
क꣤इ꣥म꣤म्। उ꣥हु꣤वाहा꣥इ॥ ना꣢꣯हुऽ३षा꣡इषू꣢ऽ१वाऽ᳒२᳒। आ꣡इन्द्रꣳसो꣯म꣢। स्यता꣡र्पा꣢ऽ१याऽ᳒२᳒त्। स꣡नो꣰꣯ऽ२व꣡सू꣢꣯। निया꣡भा꣢ऽ१राऽ᳒२᳒त्॥ स꣡नो꣰꣯ऽ२व꣡सू꣢꣯नि॥ आ꣡ऽ२३। भरा꣢उवा। आ꣡꣯गहि꣢ये꣡꣯हिताइमे꣢ऽ१॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म्। ए꣢꣫दं ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥ 47:0191 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम् ।
एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। या꣣हि। सुषुम꣢। हि। ते꣣। इ꣡न्द्र꣢꣯। सो꣡म꣢꣯म्। पि꣡ब꣢꣯। इ꣣म꣢म्। आ। इ꣣द꣢म्। ब꣣र्हिः꣢। स꣣दः। म꣡म꣢꣯। १९१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमपानार्थ बुलाया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (आयाहि) आइए, (ते) आपके लिए, हमने (सुषुम हि) सोमरस को अभिषुत किया है, अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना आदि के रस को निष्पादित किया है। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर ! (इमम्) इस हमारे द्वारा समर्पित किए जाते हुए (सोमम्) श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना, राजदेय कर, सोम ओषधि आदि के रस को (पिब) पीजिए। (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन, राज्यासन अथवा कुशा के आसन पर (आ सदः) बैठिए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिए कि वे हृदय में परमात्मा को प्रकाशित कर उसकी पूजा करें और राजा, आचार्य, उपदेशक, संन्यासी आदि को बुलाकर यथायोग्य उनका सत्कार करें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः सोमरसं पातुमाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (आयाहि) आगच्छ, (ते) त्वदर्थम्, वयम् (सुषुम हि) सोमम् अभिषुतवन्तः किल, श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनादिरसं निष्पादितवन्तः इत्यर्थः। षुञ् अभिषवे, लिट्, सुषुविम इति प्राप्ते इडभावश्छान्दसः। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर वा ! (इमम्) एतं समर्प्यमाणम् (सोमम्) श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनाराजदेयकरसोमौषधिरसादिकम् (पिब) आस्वादय। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (इदम्) एतत् (मम) मदीयम् (बर्हिः) हृदयासनं, राज्यासनं, दर्भासनं वा (आ सदः२) आसीद। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु, लोडर्थे लुङि बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। अ० ६।४।७५ इत्यडागमो न ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैर्जनैः परमात्मानं हृदि प्रकाश्य स पूजनीयो, नृपत्याचार्योपदेशकसंन्यासिप्रभृतींश्चाहूय ते यथायोग्यं सत्करणीयाः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१७।१, अथ० २०।३।१, ३८।१, ४७।७, साम० ६६६। २. विवरणकारस्तु सदः सदसि मम स्वभूते वेद्याख्ये स्थाने इत्याह। तत्तु स्वरविरुद्धम् तिङ्स्वरत्वात्। आसदः आसीद—इति भ०। आसीद अभिनिषीद—इति सा०।
47_0191 आ याहि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९१-१। सौभरम्॥ सुभरिर्गायत्रीन्द्रः॥आ꣥꣯या꣯हिसू॥ षु꣢मा꣡हा꣢ऽ१इतेऽ᳒२᳒। षुमा꣡हा꣢ऽ१इतेऽ᳒२᳒। आ꣡इंद्रसोम꣢म्। पिबा꣡इम꣢म्। पिबा꣡आ꣢ऽ१इमाऽ२᳐म्॥ ए꣣꣯दंब꣢र्हा꣡इः॥ स꣢दो꣡꣯माऽ२३मा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
म꣡हि꣢ त्री꣣णा꣡मव꣢꣯रस्तु द्यु꣣क्षं꣢ मि꣣त्र꣡स्या꣢र्य꣣म्णः꣢। दु꣣राध꣢र्षं꣣ व꣡रु꣢णस्य ॥ 48:0192 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
महि॑ त्री॒णामवो॑ऽस्तु द्यु॒क्षं मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः ।
दु॒रा॒धर्षं॒ वरु॑णस्य ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
म꣡हि꣢꣯। त्री꣣णा꣢म्। अवरि꣡ति꣢। अ꣣स्तु। द्युक्ष꣢म्। द्यु꣣। क्ष꣢म्। मि꣣त्र꣡स्य꣢। मि꣣। त्र꣡स्य꣢꣯। अ꣣र्यम्णः꣢। दु꣣रा꣡धर्ष꣢म्। दुः꣣। आध꣡र्ष꣢म्। व꣡रु꣢꣯णस्य। १९२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सत्यधृतिर्वारुणिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मित्र, वरुण और अर्यमा से रक्षण की याचना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्म और अधिदैवत पक्ष में। ऋचा का देवता इन्द्र होने से इन्द्र को सम्बोधन अपेक्षित है। हे इन्द्र परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर ! आपकी कृपा से (मित्रस्य) अकाल-मृत्यु से रक्षा करनेवाले वायु और जीवात्मा का, (अर्यम्णः) अपने आकर्षण से पृथिवी आदि लोकों का नियन्त्रण करनेवाले सूर्यलोक का तथा इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखनेवाले मन का, और (वरुणस्य) आच्छादक मेघ का तथा प्राण का, (त्रीणाम्) इन तीनों का (महत्) महान्, (द्युक्षम्) तेज को निवास करानेवाला और (दुराधर्षम्) दुष्पराजेय, दृढ़ (अवः) रक्षण (अस्तु) हमें प्राप्त हो ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (इन्द्र) प्रजा के कष्टों को दूर करने तथा सुख प्रदान करनेवाले राजन् ! आपकी व्यवस्था से (मित्रस्य) सबके मित्र शिक्षाध्यक्ष का, (अर्यम्णः) श्रेष्ठों और दुष्टों के साथ यथायोग्य व्यवहार करनेवाले न्यायाध्यक्ष का, और (वरुणस्य) पाशधारी, शस्त्रास्त्रयुक्त, धनुर्वेद में कुशल सेनाध्यक्ष का, (त्रीणाम्) इन तीनों का (महि) महान्, (द्युक्षम्) राजनीति के प्रकाश से पूर्ण, (दुराधर्षम्) दुष्पराजेय (अवः) रक्षण (अस्तु) हम प्रजाजनों को प्राप्त हो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा के अनुशासन में शरीरस्थ आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण आदि और बाह्य सूर्य, पवन, बादल आदि तथा राजा के अनुशासन में सब राजमन्त्री एवं अन्य राज्याधिकारी अपना-अपना रक्षण आदि हमें प्रदान करें, जिससे हम उत्कर्ष के लिए प्रयत्न करते हुए समस्त प्रेय और श्रेय को प्राप्त कर सकें ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मित्रवरुणार्यम्णां रक्षणं याचमान आह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्माधिदैवतः। ऋच इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोध्यः। हे इन्द्र परमैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर ! तव कृपया (मित्रस्य२) अकालमरणाद् रक्षकस्य वायोः जीवात्मनो वा। मित्रः प्रमीतेस्त्रायते। निरु० १०।२१। (अर्यम्णः) यः ऋच्छति नियच्छत्याकर्षणेन पृथिव्यादीन् सोऽर्यमा सूर्यलोकः तस्य, इन्द्रियाणां नियन्तुः मनसो वा, (वरुणस्य) आच्छादकस्य मेघस्य, प्राणस्य वा, (त्रीणाम्) एतेषां त्रयाणाम्। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति त्रेस्त्रयः। ७।१।५३ इत्यनेम प्राप्तः त्रेस्त्रयादेशो न। (महि) महत् (द्युक्षम्) द्यां तेजः क्षाययति निवासयतीति तादृशम्, (दुराधर्षम्) दुःखेनाधर्षितुं योग्यम्, दृढम् (अवः) रक्षणम् (अस्तु) अस्मान् प्राप्नोतु ॥ संहितायाम् अवरस्तु इत्यत्र अम्नरूधरवरित्युभयथा छन्दसि। अ० ८।२।७० इत्यनेन अवस् शब्दस्य सकारो रेफमापद्यते ॥३ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र प्रजाया दुःखविदारक सुखप्रदातः राजन् ! तव व्यवस्थया (मित्रस्य) मित्रभूतस्य शिक्षाध्यक्षस्य, (अर्यम्णः) श्रेष्ठैर्दुष्टैश्च जनैर्यो यथायोग्यं व्यवहरति तस्य न्यायाध्यक्षस्य, (वरुणस्य) पाशपाणेः शस्त्रास्त्रयुक्तस्य धनुर्वेदकुशलस्य सेनाध्यक्षस्य (त्रीणाम्) एतेषां त्रयाणाम् (महि) महत् (द्युक्षम्४) राजनीतिप्रकाशपूर्णम्। द्यौः राजविद्याप्रकाशः क्षियति निवसति अत्र तादृशम्। (दुराधर्षम्) दुष्प्रधर्षम्, दुर्जय्यम्, (अवः) रक्षणम् (अस्तु) अस्मान् प्रजाजनान् प्राप्नोतु ॥८॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मानुशासने शरीराभ्यन्तरस्था आत्ममनोबुद्धिप्राणादयो बाह्याः सूर्यपवनपर्जन्यादयश्च, राजानुशासने च सर्वे राजमन्त्रिण इतरे राज्याधिकारिणश्च स्वकीयं रक्षणादिकमस्मभ्यं प्रयच्छन्तु, येन वयमुत्कर्षाय प्रयतमानाः समस्तं प्रेयः श्रेयश्च प्राप्नुयाम ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१८५।१, य० ३।३१, देवता आदित्यः (स्वस्त्ययनम्)। २. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मित्रशब्देन बाह्याभ्यन्तरस्थं प्राणम्, अर्यमशब्देन सूर्यलोकं, वरुणशब्देन च वायुं जलं च गृहीतवान्। ३. द्रष्टव्यम्—ऋक्तन्त्रप्रातिशाख्यम्। उभयथा भुवोऽम्नः ऊधरवः।’ ३।७।४। भुवः, अम्नः, ऊधः, अवः एते उभयथा उभयप्रकारेण विसर्जनीयरूपेण रेफरूपेण वा वर्तन्ते (विवरणम्)। ४. (द्युक्षम्) द्यौर्नीतिः प्रकाशः क्षियति निवसति यस्मिंस्तत्—इति य० ३।३१ भाष्ये द०। ५. मित्रवरुणार्यम्णां स्वरूपं निर्वचनादिकं च १८५ संख्यकस्य मन्त्रस्य भाष्ये द्रष्टव्यम्।
48_0192 महि त्रीणामवरस्तु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९२-१। पाष्ठौहे द्वे॥ पष्ठवाड्गायत्रीन्द्रः॥ (मित्रावरुणोऽर्यमा)।
म꣣हा꣢इ᳐त्रा꣣ऽ२३४इणा꣥म्॥ अ꣡वाऽ᳒२᳒र꣡स्तू। द्यु꣣क्षं꣢मा꣣ऽ२३४इत्रा꣥॥ स्या꣡ऽ᳒२᳒र्य꣡म्णाः॥ दु꣣रा꣢᳐धा꣣ऽ२३४र्षा꣥म्॥ व꣢रौ꣡꣯होऽ२३४। वा꣥। णा꣤ऽ५स्योऽ६"हा꣥इ॥
48_0192 महि त्रीणामवरस्तु - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१९२-२।
म꣥हित्री꣯णा꣯मवरस्तूऽ६ए꣥॥ द्यु꣢क्षं꣡मित्रस्या꣯र्यम्णाः॥ दु꣢रा꣡꣯धाऽ२३र्षा꣢म्॥ वरौ꣡होऽ᳒२᳒। हि꣡म्माऽ᳒२᳒। ण। स्यो꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ हा꣢꣯ओ꣡वा꣢। ओ꣡वा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वा꣡व꣢तः पुरूवसो व꣣य꣡मि꣢न्द्र प्रणेतः। स्म꣡सि꣢ स्थातर्हरीणाम् ॥ 49:0193 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वाव॑तः+++(=त्वादृशस्य)+++ पुरूवसो व॒यमि॑न्द्र प्रणेतः ।
स्मसि॑+++(=स्मः)+++ स्थातर्हरीणाम् +++(=अश्वानां हिरण्यकेशानाम् वा!)+++ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्वा꣡व꣢꣯तः। पु꣣रूवसो। पुरु। वसो। वय꣣म्। इ꣣न्द्र। प्रणेतः। प्र। नेतरि꣡ति। स्म꣡सि꣢꣯। स्था꣣तः। हरीणाम्। १९३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा और विद्वान् को सम्बोधन किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरूवसो) बहुत धनी, (प्रणेतः) उत्कृष्ट नेता, (हरीणाम्) आकर्षणगुणयुक्त पृथिवी-सूर्य आदि लोकों के, अथवा विषयों की ओर ले जानेवाली इन्द्रियों के, अथवा सवारी देनेवाले विमान आदि यानों के (स्थातः) अधिष्ठाता (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन् व विद्वन् ! (वयम्) हम मनुष्य (त्वावतः) तुझ जैसे किसी अन्य के न होने के कारण जो तू तुझ जैसा ही है, ऐसे तुझ अद्वितीय के (स्मसि) हो गये हैं ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेष है। ‘त्वावतः’ में ‘कमल कमल के समान है’ इत्यादि के सदृश अनन्वय अलङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - संसार में बिखरे हुए सब धनों का स्वामी, सबका नेता, सूर्य-आदि लोकों का अधिष्ठाता, अनुपम परमेश्वर जैसे सबका वन्दनीय है, वैसे ही बहुत से ज्ञान, कर्म आदि धनों का स्वामी, मार्गप्रदर्शक, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं प्राण, मन, बुद्धि आदि का अधिष्ठाता जीवात्मा भी सबसे सेवनीय है। उसी प्रकार वेग से यात्रा करानेवाले विमान आदियों के निर्माण और चलाने में कुशल, विविध विद्याओं में पारङ्गत, शिल्पशास्त्र के वेत्ता विद्वान् भी मनुष्यों द्वारा सेवनीय है ॥९॥ इस दशति में इन्द्र से सम्बद्ध वरुण, मित्र और अर्यमा के रक्षण की प्रार्थना होने से, इन्द्र की गौओं की प्रशंसा होने से, इन्द्र से गाय, अश्व आदि की याचना होने से, इन्द्र की सरस्वती का आह्वान होने से, इन्द्र का स्तुतिगान होने से तथा इन्द्र नाम से राजा, विद्वान्, आचार्य आदि का भी विषय वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की पाँचवी दशति समाप्त ॥ यह द्वितीय प्रपाठक सम्पूर्ण हुआ ॥ द्वितीय अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा, जीवात्मा, विद्वांश्च सम्बोध्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरूवसो) पुरु-वसो बहुधन। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७ इति पूर्वपदान्तस्य दीर्घः। (प्रणेतः) प्रकृष्ट नायक। प्रनेतः, उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य। अ० ८।४।१४ इति नस्य णत्वम्। (हरीणाम्) आकर्षणगुणयुक्तानां पृथिवीसूर्यादिलोकानाम् यद्वा विषयेषु हरणशीलानाम् इन्द्रियाणाम्, यद्वा वहनशीलानां विमानादियानानाम् (स्थातः२) अधिष्ठातः (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, विद्वन् वा ! (वयम्) मनुष्याः (त्वावतः) त्वत्सदृशस्य तव। त्वत्सदृशस्य कस्यचिद् उपमानस्य जगत्यभावात् त्वं त्वत्सदृश एवासि, तादृशस्य तवेत्यर्थः। त्वमिव इति त्वावान्, तस्य त्वावतः। युष्मदस्मदोः सादृश्ये वतुब् वाच्यः। अ० ५।२।३९ वा० इति युष्मच्छब्दात् सादृश्यार्थे वतुप्। मपर्यन्तस्य त्वादेशे आ सर्वनाम्नः। अ० ६।३।९१ इति दकारस्याऽऽकारः। (स्मसि) स्मः। अत्र इदन्तो मसि। अ० ७।१।४६ इति मसः इकारागमः ॥९॥ अत्र श्लेषः। त्वावतः तव इत्यत्र राजीवमिव राजीवम् इत्यादिवद् अनन्वयालङ्कारः३ ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जगति विकीर्णानां सर्वेषां धनानां स्वामी, सर्वेषां नेता, सूर्यादिलोकानामधिष्ठाताऽनुपमः परमेश्वरो यथा सर्वेषां वन्द्यस्तथा बहुज्ञानकर्मादिधनो, मार्गप्रदर्शको, ज्ञानेन्द्रियाणां कर्मेन्द्रियाणां, प्राणमनोबुद्ध्यादीनामधिष्ठाताऽद्वितीयो जीवात्माऽपि सर्वैः सेवनीयः. तथैव वेगेन हरणशीलानां विमानादीनां निर्माणचालनकुशलो विविधविद्यापारंगतः शिल्पशास्त्रविद् विद्वानपि जनैरुपसेव्यः ॥९॥ अत्रेन्द्रसम्बद्धानां वरुणमित्रार्यम्णां रक्षणप्रार्थनाद्, इन्द्रस्य गवां प्रशंसनाद्, इन्द्रतो गवाश्वादीनां प्रार्थनाद्, इन्द्रस्य सरस्वत्या आह्वानाद्, इन्द्रस्तुतिगानाद्, इन्द्रनाम्ना नृपविद्वदाचार्यादीनामपि विषयस्य वर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे पञ्चमी दशतिः। समाप्तश्चार्य द्वितीयः—प्रपाठकः ॥ इति द्वितीयाध्यायेऽष्टमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४६।१, ऋषिः वशोऽश्व्यः। २. हे स्थातः अधिष्ठातः—इति वि०, भ०, सा०। ३. उपमानोपमेयत्वमेकस्यैव त्वनन्वयः। सा० द० १०।२६ इति तल्लक्षणात्।
49_0193 त्वावतः पुरूवसो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९३-१। धुरासाकमश्वम्॥ साकमश्वो गायत्रीन्द्रः॥
त्वा꣡꣯वतो꣢ऽ३। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ॥ पुरू꣯व꣢सोऽ३। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ। व꣢य꣡मिन्द्रा꣢ऽ३। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ। प्रणे꣯ता꣢ऽ३ः। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ॥ स्मसिस्था꣢꣯ताऽ३ः। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१इ॥ हरी꣯णा꣢ऽ३म्। हौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१२३४५इ॥ डा॥
[[अथ नवम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣡त्त्वा꣢ मन्दन्तु꣣ सो꣡माः꣢ कृणु꣣ष्व꣡ राधो꣢꣯ अद्रिवः। अ꣡व꣢ ब्रह्म꣣द्वि꣡षो꣢ जहि ॥ 01:0194 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उत्त्वा॑ मन्दन्तु॒ स्तोमाः॑ कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः ।
अव॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ जहि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣢त्। त्वा꣣। मन्दन्तु। सो꣡माः꣢꣯। कृ꣣णुष्व꣢। रा꣡धः꣢꣯। अ꣣द्रिवः। अ। द्रिवः। अ꣡व꣢꣯। ब्र꣣ह्मद्वि꣡षः꣢। ब्र꣣ह्म। द्वि꣡षः꣢꣯। ज꣣हिः। १९४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रगाथः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र सोमरस से प्रसन्न होकर क्या करे।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सोमाः) हमारे द्वारा अभिषुत श्रद्धारस, ज्ञानरस और कर्मरस (त्वा) तुझे (उत् मन्दन्तु) अत्यधिक आनन्दित करें। हे (अद्रिवः) मेघों के स्वामिन् ! वर्षा करनेवाले ! तू हमारे लिए (राधः) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धारणा, ध्यान, समाधि, योगसिद्धि आदि आध्यात्मिक ऐश्वर्य (कृणुष्व) प्रदान कर। (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मविरोधी काम, क्रोध, नास्तिकता आदि मानसिक शत्रुओं को (अवजहि) मार गिरा ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (सोमाः) वीर-रस (त्वा) तुझे (उत् मन्दन्तु) उत्साहित करें। हे (अद्रिवः) वज्रधारी, विविध शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित, धनुर्वेद में पारङ्गत राजन् ! तू प्रजाओं के लिए (राधः) सब प्रकार के धनधान्यादि (कृणुष्व) उत्पन्न कर, प्रदान कर। (ब्रह्मद्विषः) ईश्वरविरोधी, विद्या-विरोधी, सत्यविरोधी, धर्मविरोधी, न्यायविरोधी एवं प्रजाविरोधी डाकू, चोर आदियों को (अवजहि) विनष्ट कर ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासना किया हुआ परमेश्वर और वीर-रसों से उत्साहित राजा प्रजाओं के ऊपर भौतिक व आध्यात्मिक सम्पत्तियों की वर्षा करते हैं और ब्रह्मद्वेषी शत्रुओं को विनष्ट करते हैं। इसलिए सबको परमेश्वर की उपासना करना और राजा का सत्कार करना तथा उसे प्रोत्साहित करना उचित है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः सोमरसैः प्रहृष्टः सन् किं कुर्यादित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सोमाः) अस्माभिरभिषुताः श्रद्धारसा ज्ञानरसाः कर्मरसाश्च (त्वा) त्वाम् (उत् मन्दन्तु२) उत्कृष्टतया आनन्दयन्तु। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, अन्तर्णीतण्यर्थः। परस्मैपदं छान्दसम्। हे (अद्रिवः) मेघानां स्वामिन् वृष्टिकर्तः। अद्रिः इति मेघनाम। निघं० १।१०। ततो मतुप्। अद्रयो मेघा अस्य सन्तीति अद्रिवान्। छन्दसीरः। अ० ८।२।१५ इति मतुपो मकारस्य वत्वम्। सम्बुद्धौ मतुवसो रु सम्बद्धौ छन्दसि। अ० ८।३।१ इति नकारस्य रुः आदेशः। त्वमस्मभ्यम् (राधः) अहिंसासत्यास्तेयधारणाध्यानसमाधियोगसिद्ध्यादिकम् आध्यात्मिकम् ऐश्वर्यम्। राधस् इति धननाम। निघं० २।१०। (कृणुष्व) प्रदेहि, (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मविरोधिनः कामक्रोधनास्तिकत्वादीन् मानसान् रिपून् (अवजहि) अवपातय ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे इन्द्र राजन् ! (सोमाः) वीररसाः३ (त्वा) त्वाम् (उत् मन्दन्तु) उद्धर्षयन्तु उत्साहयन्तु। हे (अद्रिवः) वज्रवन्, विविधशस्त्रास्त्रसज्जित, धनुर्वेदपारंगत राजन् ! त्वं प्रजाभ्यः (राधः) सर्वविधं धनधान्यादिकम् (कृणुष्व) उत्पादय, प्रदेहि वा। (ब्रह्मद्विषः) ईश्वरविरोधिनो विद्याविरोधिनः सत्यविरोधिनो धर्मविरोधिनो न्यायविरोधिनः प्रजाविरोधिनश्च दस्युतस्करादीन् (अवजहि) विनाशय ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासितः परमेश्वरो वीररसैरुत्साहितो राजा च प्रजानामुपरि भौतिकाध्यात्मिकसम्पदां वृष्टिं करोति, ब्रह्मद्विषः शत्रूंश्च दण्डयति हिनस्ति वा। अतः सर्वैः परमेश्वर उपासनीयो राजा च सत्करणीयः प्रोत्साहनीयश्च ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६४।१, अथ० २०।९३।१, साम० १३५४। २. मदी हर्षे, मद तृप्तौ इत्यस्य वेदं रूपम्। मदिश्चान्तर्णीतण्यर्थो द्रष्टव्यः। मदयन्तु हर्षयन्तु तर्पयन्तु वेत्यर्थः—इति वि०। उत् अधिकं मन्दन्तु मोदयन्तु—इति भ०। ३. (सोमम्) वीररसादिकम्—इति ऋ० १।४७।३ भाष्ये द०।
01_0194 उत्त्वा मन्दन्तु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९४-१। यामम्॥ यमो गायत्रीन्द्रः॥
उ꣥त्वा꣯मन्दन्तुसो꣯हो꣤माः꣥॥ कृ꣢णौ꣡꣯हो। ष्व꣢रौ꣡꣯हो। धा꣢꣯अ꣡द्रिवाः॥ अ। वब्राऽ२३ह्मा꣢॥ द्वि꣡षाऽ᳒२ः᳒। हाऽ᳒२᳒इ। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३१ये꣢ऽ३। जा꣡ऽ२᳐हा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। ए꣢ऽ᳐३। य꣡यूऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
गि꣡र्व꣢णः पा꣣हि꣡ नः꣢ सु꣣तं꣢꣫ मधो꣣र्धा꣡रा꣢भिरज्यसे। इ꣢न्द्र꣣ त्वा꣡दा꣢त꣣मि꣡द्यशः꣢꣯ ॥ 02:0195 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
गिर्व॑णः पा॒हि नः॑ सु॒तं मधो॒र्धारा॑भिरज्यसे ।
इन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
गि꣡र्व꣢꣯णः। गिः। व꣣नः। पाहि꣢। नः꣣। सुत꣢म्। म꣡धोः꣢꣯। धा꣡रा꣢꣯भिः। अ꣣ज्यसे। इ꣡न्द्र꣢꣯। त्वा꣡दा꣢꣯तम्। त्वा। दा꣣तम्। इ꣢त्। य꣡शः꣢꣯। १९५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और गुरु से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों व आदरवचनों से सेवनीय वा याचनीय परमात्मन् अथवा आचार्यप्रवर ! आप (नः) हमारे (सुतम्) अर्जित ज्ञानरस की अर्थात् विविध विद्याओं के विज्ञान की (पाहि) रक्षा कीजिए। आप (मधोः) मधुर ज्ञानराशि की (धाराभिः) धाराओं से (अज्यसे) सिक्त है। (इन्द्र) हे ज्ञानैश्वर्य से सम्पन्न परमात्मन् वा आचार्यप्रवर ! (त्वादातम्) आपके द्वारा शोधित, शोधन द्वारा धवलीकृत (इत्) ही (यशः) विविध विद्याओं एवं सदाचार से समुत्पन्न कीर्ति, हमें प्राप्त हो। अथवा, हे परमात्मन् अथवा आचार्यप्रवर ! (यशः) तप, ब्रह्मचर्य, विद्वत्ता, व्रतपालन आदि से उत्पन्न होनेवाली कीर्ति (त्वादातम् इत्) आपके द्वारा ही हमें दातव्य है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गुरुकुल में अध्ययन कर रहे शिष्य आचार्य से प्रार्थना करते हैं कि हे आचार्यप्रवर ! आप अगाध पाण्डित्य के खजाने और शिक्षणकला में परम प्रवीण हैं। आप भ्रान्ति, अपूर्णता आदि दोषों से रहित स्वच्छ ज्ञान हमारे अन्दर प्रवाहित कीजिए और उसे स्थिर कर दीजिए। तभी हमारा उज्ज्वल यश सर्वत्र फैलेगा। सम्पूर्ण विद्याओं से भासित, स्वच्छ ज्ञान की निधि परमात्मा से भी वैसी ही प्रार्थना की गयी है। वही यश वस्तुतः यश है, जो परमात्मा के आशीर्वाद से धवल हुआ हो ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा गुरुश्च प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः२) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः आदरवचनैर्वा वननीय संसेव्य याचनीय वा परमात्मन् आचार्य वा ! त्वम् (नः) अस्माकम् (सुतम्) अभिषुतम् अर्जितं ज्ञानरसं विविधविद्याविज्ञानम् (पाहि) रक्ष। त्वम् (मधोः) मधुरस्य ज्ञानराशेः (धाराभिः) प्रवाहैः (अज्यसे) संसिक्तोऽसि, अगाधज्ञानविज्ञानराशेः सागरोऽसीत्यर्थः। अज गतिक्षेपणयोः। गतिरत्र संसेचनमभिप्रेतम्। (इन्द्र) हे ज्ञानैश्वर्यवन् परमात्मन् आचार्य वा ! (त्वादातम्) त्वया दातं शोधितं, संशोध्य धवलीकृतम्। दातम् इति दैप् शोधने धातोर्निष्ठायां रूपम्। ततो युष्मद्दातपदयोः समासः। (इत्) एव (यशः) विविधविद्यासदाचरणसमुत्पन्नं कीर्तिजातम् नः अस्तु इति शेषः। यद्वा, हे परमात्मन् आचार्यप्रवर वा ! (यशः) तपोब्रह्मचर्यवैदुष्यव्रतपालनादिजन्यं कीर्तिजातम् (त्वादातम्३ इत्) त्वयैव दातव्यमस्ति, तत् त्वं देहीत्यर्थः। त्वादातम् त्वया दातव्यम् इति निरुक्तम्। ४।४ ॥२॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गुरुकुलेऽधीयानाश्छात्रा आचार्यं प्रार्थयन्ते यद् भो आचार्यप्रवर ! त्वमगाधपाण्डित्यनिधिः शिक्षणकलायां च परमप्रवीणोऽसि। भ्रान्त्यपूर्णतादिदोषैर्निर्मुक्तं स्वच्छं ज्ञानमस्मदभ्यन्तरे प्रवाहय, स्थिरं च कुरु। तदैवास्माकं धवलं यशः सर्वत्र प्रसरिष्यति। तथैव समग्रविद्याविद्योतितः स्वच्छज्ञाननिधिः परमात्मापि प्रार्थ्यते। तदेव यशो वस्तुतत्वेन यशोऽस्ति यत् परमात्मन आशीर्वादेन धवलितं भवति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ३।४०।६, अथ० २०।६।६। २. द्रष्टव्यम्—१६५ संख्यकमन्त्रस्य भाष्यम्। ३. त्वादातम् त्वया दत्तम्—इति वि०, भ०। त्वया शोधितं विशदीकृतम्—इति सा०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणाऽयं मन्त्रो राजप्रजापक्षे व्याख्यातः।
02_0195 गिर्वणः पाहि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९५-१। आङ्गिरसं हरिश्रीनिधनम्॥ अङ्गिरा गायत्रीन्द्रः॥
गि꣤र्व꣥णᳲपा꣯हि꣤न꣥स्सुत꣤म्। गिर्व꣥णᳲपा꣤॥ हि꣡नस्सुताऽ᳒२᳒म्। म꣡धो꣯र्धा꣯रा꣯भि꣢रा꣡होऽ᳒२᳒। ज्या꣡सेऽ२३। हा꣢उवा॥ इ꣡न्द्रात्वाऽ२३दा꣢। तमा꣡ये꣢ऽ३त्। या꣡ऽ२᳐शा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ह꣢रिऽ३श्री꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣡दा꣢ व꣣ इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्कृ꣢ष꣣दा꣢꣫ उपो꣣ नु꣡ स स꣢꣯प꣣र्य꣢न्। न꣢ दे꣣वो꣢ वृ꣣तः꣢꣯ शूर꣣ इ꣡न्द्रः꣢ ॥ 03:0196 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
स꣡दा꣢꣯। वः꣣। इ꣡न्द्रः꣢꣯। च꣡र्कृ꣢꣯षत्। आ। उ꣡प꣢꣯। उ꣣। नु꣢। सः। स꣣पर्य꣢न्। न। दे꣣वः꣢। वृ꣣तः꣢। शू꣡रः꣢꣯। इ꣡न्द्रः꣢꣯। १९६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा के वरण का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्यो ! (सदा) हमेशा (वः) तुम्हें, जो (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य जन (आ चर्कृषत्) अतिशय बार-बार कर्मों में प्रेरित करे, और (उप उ) समीप आकर (नु) शीघ्र ही (सः) वह (सपर्यन्) तुम्हारा सत्कार करे, प्रेम से तुम्हें शुभ कर्मों के लिए साधुवाद और प्रोत्साहन प्रदान करे, वैसा (देवः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाला (शूरः) वीर (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य मनुष्य (वृतः न) तुमने अभी तक नेता रूप में या राजा रूप में वरा नहीं है? बिना वरे पूर्वोक्त लाभ कैसे मिल सकते हैं? अतः अवश्य ही उसका वरण करो ॥३॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे वरण किया हुआ परमेश्वर मनुष्यों को पुरुषार्थ में प्रवृत्त करता है और शुभ कर्म करनेवालों को साधुवाद देकर उत्साहित करता है, वैसे ही प्रजाओं द्वारा चुना गया राजा प्रजाओं के लिए करे ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरस्य नृपतेश्च वरणविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे जनाः ! (सदा) सर्वदा (वः) युष्मान् यः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (आ१ चर्कृषत्२) अतिशयेन पुनः पुनः कर्मसु प्रेरयेत्। कृष विलेखने धातोर्यङ्लुगन्ताल्लेटि रूपम्। यद्वा डुकृञ् करणे धातोर्णिजन्ताद् यङ्लुगन्ताल्लेटि सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमे रूपम्। (उप उ) उपेत्य च (नु) क्षिप्रम्। नु इति क्षिप्रनाम। निघं० २।१५। (सः) असौ (सपर्यन्) युष्मान् सत्कुर्वन्, प्रेम्णा युष्मभ्यं शुभकर्मार्थं साधुवादं प्रोत्साहनं च प्रयच्छन् भवेत्, तादृशं (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः (शूरः) वीरः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (वृतः न३) युष्माभिर्नेतृत्वेन राजत्वेन वा स्वीकृतो न ? वरणाभावे कथं पूर्वोक्ता लाभाः स्युः ? अतोऽवश्यं स वरणीय इति भावः ॥३॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा वृतः परमेश्वरो जनान् पुरुषार्थे प्रवर्तयति, शुभकर्मकारिणश्च साधुवादेन समुत्साहयति, तथैव प्रजाभिर्निर्वाचितो राजा प्रजाभ्यः कुर्यात् ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. आ उप उ नु चत्वारोऽप्येते पादपूरणाः—इति वि०। २. चर्कृषत् अत्यर्थं करोति, पुनः पुनर्वा करोति। किम् ! उच्यते। बलं पुष्टिं हिरण्यं दीर्घं च जीवितम्—इति वि०। आचर्कृषत् आ करोतु, भृशं करोतु। करोतेः यङ्लुकि पञ्चमलकारान्तः चर्कृषदिति। आकरणम् आनयनम्, उपो उप समीपे—इति भ०। ३. न शब्द उपरिष्टादुपचारत्वादुपमार्थीयः, परिचरन्निव—इति वि०। तत्तु चिन्त्यम्, यतो द्वितीयपादसमाप्तौ विरामानन्तरं तृतीयपादादौ प्रयुक्तो न शब्दः सपर्यन् इत्यतः सम्बन्धमुपपादयितुं नार्हतीति। न वृतः न वारितः केनचित्—इति भ०। सायणेन तु न इत्यस्य स्थाने नः इति पाठं मत्वा व्याख्यातम्, तदपि चिन्त्यं कुत्रापि नः इति पाठस्यानुपलम्भात्।
03_0196 सदा व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९६-१। वैरूपम्॥ विरूपो गायत्रीन्द्रः॥
सा꣤दा꣥॥ व꣢इन्द्राऽ३ः। च꣢र्कृ꣣षा꣤दा꣥। उ꣢पो꣯नुसाऽ३ः। सा꣡पर्य꣢न्॥ न꣣दे꣢꣯वा꣡ऽ२३ः॥ वृता꣢ऽ३४३ः। शू꣢ऽ३४३। रा꣢ऽ३आ꣤ऽ५इन्द्रा"ऽ६५६ः॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ त्वा꣢ विश꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः समु꣣द्र꣡मि꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः। न꣢꣫ त्वामि꣣न्द्रा꣡ति꣢ रिच्यते ॥ 04:0197 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः ।
न त्वामि॒न्द्राति॑ रिच्यते ॥
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पदपाठः
आ꣢। त्वा꣣। विशन्तु। इ꣡न्द꣢꣯वः। स꣣मुद्र꣢म्। स꣣म्। उद्र꣢म्। इ꣣व। सि꣡न्ध꣢꣯वः। न। त्वाम्। इ꣣न्द्र। अ꣡ति꣢꣯। रि꣣च्यते। १९७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्ष आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्दवः) चन्द्र-किरणों के सदृश आह्लादक मेरे स्तुतिरूप सोम (त्वा) तुझ परमेश्वर को (आ विशन्तु) प्राप्त करें, (सिन्धवः) नदियाँ (समुद्रम् इव) जैसे समुद्र को प्राप्त करती हैं। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् दुःखविदारक, सुखदाता परमात्मन् ! (त्वाम्) तुझसे, कोई भी (न अतिरिच्यते) महिमा में अधिक नहीं है ॥४॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे नदियाँ रत्नाकर समुद्र को प्राप्त करके रत्नों से मण्डित हो जाती हैं, वैसे ही सब प्रजाएँ स्तुति द्वारा गुण-रूप रत्नों के खजाने परमेश्वर को प्राप्त करके गुणों की निधि हो जाएँ ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मस्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्दवः) चन्द्रकिरणवदाह्लादकाः मदीयाः स्तुतिरूपाः सोमाः (त्वा) त्वां परमेश्वरम् (आ विशन्तु) प्रविशन्तु, प्राप्नुवन्तु, (सिन्धवः) स्यन्दमानाः नद्यः (समुद्रम् इव) यथा समुद्रम् आ विशन्ति प्राप्नुवन्ति। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् दुःखविदारक सुखप्रदायक परमात्मन् ! (त्वाम्) अनुपमं भवन्तम् कश्चित् (न अतिरिच्यते) न अतिशेते, महिम्ना त्वत्तोऽधिकतरो न भवतीत्यर्थः ॥४॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा नद्यो रत्नाकरं प्राप्य रत्नमण्डिता जायन्ते, तथा सर्वाः प्रजाः स्तुत्या गुणरत्ननिधानं परमेश्वरं प्राप्य गुणानां निधयो भवन्तु ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।२२, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। साम० १६६०।
04_0197 आ त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९७-१। आसितं सिन्धुषाम वा॥ आसितो गायत्रीन्द्रः॥
आ꣥꣯त्वा꣯विशन्त्विन्दाऽ६वाः꣥॥ स꣢मुद्र꣡मिव꣢सि꣡न्ध꣢वः। समुद्र꣡मि। व꣢सि꣡न्धाऽ२३वाः꣢। न꣡त्वा꣯मिन्द्रा꣯तिरि꣢च्यते꣯॥ नत्वा꣡꣯माऽ२३इन्द्रा꣢॥ तिरि꣡च्याऽ२३ता꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣢न्द्र꣣मि꣢द्गा꣣थि꣡नो꣢ बृ꣣ह꣡दिन्द्र꣢꣯म꣣र्के꣡भि꣢र꣣र्कि꣡णः꣢। इ꣢न्द्रं꣣ वा꣡णी꣢रनूषत ॥ 05:0198 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॒म् इद् गा॒थिनो॑+++(=गायकाः)+++ बृ॒हद्+++(साम्ना)+++
इन्द्र॑म् अ॒र्केभि॑र्+++(←अर्च्, ऋक्)+++ अ॒र्किणः॑ ।
इन्द्रं॒ वाणी॑र्+++(→यजूंषि)+++ अनूषत+++(←णु स्तुतौ)+++ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्र꣢꣯म्। इत्। गा꣣थि꣡नः꣢। बृ꣣ह꣢त्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣र्के꣡भिः। अ꣣र्कि꣡णः꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। वा꣡णीः꣢꣯। अ꣣नूषत। १९८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सबके द्वारा इन्द्र की स्तुति किया जाना वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रम्) महान् परमेश्वर की (इत्) ही (गाथिनः) सामगान करनेवाले उद्गाता लोग, (इन्द्रम्) उसी महान् परमेश्वर की (अर्केभिः) वेदमन्त्रों द्वारा (अर्किणः) मन्त्रपाठी होता लोग स्तुति करते हैं। और (वाणीः) अन्य जनों की वाणियाँ भी (इन्द्रम्) उसी महान् परमेश्वर की (बृहत्) बहुत अधिक (अनूषत) स्तुति करती हैं ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमैश्वर्यवान्, दुःख-दरिद्रता का मिटानेवाला, सुख-सम्पत्ति का प्रदाता, धर्मात्माओं का प्रशंसक, कुकर्मियों का विध्वंसक, समस्त गुण-गणों का खजाना, सद्गुणों का आधान करनेवाला परमात्मा ही सब मनुष्यों से वन्दना किये जाने योग्य है। उसी की सामगान से और वेद-मन्त्रों के पाठ आदि से स्तुति करनी चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सर्वेषामिन्द्रस्तोतृत्वमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रम्) महान्तं परमेश्वरम् (इत्) एव (गाथिनः) सामगानकर्तारः उद्गातारः। गै शब्दे धातोः ‘उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४ इति थन् प्रत्यये गाथः। गाथः सामगानं येषामस्तीति ते गाथिनः। (इन्द्रम्) तमेव महान्तं परमेश्वरम् (अर्केभिः२) अर्कैः वेदमन्त्रैः। अर्को मन्त्रो भवति यदेनेन अर्चन्ति। निरु० ५।४। अर्कैः इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।१० इति भिस ऐसादेशो न। (अर्किणः) मन्त्रपाठिनो होतारः, (इन्द्रम्) तमेव च महान्तं परमेश्वरम् (वाणीः३) अन्येषामपि जनानां वाण्यः (बृहत्४) बहु (अनूषत) अनाविषुः स्तुवन्ति। णु स्तुतौ धातोः कालसामान्ये लुङ्। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। छान्दसं रूपम् ॥५॥५
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमैश्वर्यवान्, दुःखदारिद्र्यविदारकः, सुखसम्पत्प्रदाता, धार्मिकाणां प्रशंसकः, कुकर्मणां विद्रावकः, सकलगुणनिधिः, सद्गुणाधायकः परमात्मैव सर्वजनवन्दनीयोऽस्ति। स एव सामगानेन मन्त्रपाठादिना च स्तोतव्यः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।७।१, अथ० २०।३८।४, ४७।४, ७०।७, साम० ७९६। २. (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सत्यभाषणादिभिः शिल्पविद्यासाधकैः कर्मभिः मन्त्रैश्च—इति ऋ० १।७।१ भाष्ये द०। ३. वाणीभिः यज्ञलक्षणाभिर्वाग्भिः—इति वि०। वाण्यः सर्वाः—इति भ०। ये त्ववशिष्टा अध्यर्यवः ते वाणीः वाग्भिर्यजूरूपाभिः—इति सा०। वाणीः वेदचतुष्टयीः—इति ऋ० १।७।१। भाष्ये द०। ४. बृहन्नाम्ना महता वा—इति वि०। बृहन्तमिति वा बृहता साम्ना इति वा—इति भ०। ‘त्वामिद्धि हवामहे’ इत्यस्यामृच्युत्पन्नेन बृहन्नामकेन साम्ना—इति सा०। बृहत् महान्तम्। अत्र ‘सुपां सुलुक्’ इत्यमो लुक् इति ऋग्भाष्ये द०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणाऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने प्रथमेन इन्द्रशब्देन परमेश्वरः, द्वितीयेन सूर्यः, तृतीयेन च महाबलवान् वायुर्गृहीतः।
05_0198 इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९८-१। यमस्य इन्द्रस्य वा अर्कः (अर्कम्)॥ यमो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥न्द्रमि꣣द्गा꣢꣯थि꣣नो꣤꣯बृ꣥हात्॥ इ꣢न्द्रा꣡म꣢र्का꣡इ। भि꣢रर्कि꣡णाः॥ इन्द्रंवाणी꣢ऽ३ः। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ अ꣤नूऽ५षता। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्र꣢ इ꣣षे꣡ द꣢दातु न ऋभु꣣क्ष꣡ण꣢मृ꣣भु꣢ꣳर꣣यि꣢म्। वा꣣जी꣡ द꣢दातु वा꣣जि꣡न꣢म् ॥ 06:0199 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॑ इ॒षे द॑दातु न ऋभु॒क्षण॑मृ॒भुं र॒यिम् ।
वा॒जी द॑दातु वा॒जिन॑म् ॥
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पदपाठः
इ꣡न्द्रः꣢꣯। इ꣣षे꣢। द꣣दातु। नः। ऋभुक्ष꣡ण꣢म्। ऋ꣣भु। क्ष꣡ण꣢꣯म्। ऋ꣣भु꣢म्। ऋ꣣। भु꣢म्। र꣣यि꣢म्। वा꣣जी꣢। द꣣दातु। वाजि꣡न꣢म्। १९९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्ष आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र हमें क्या-क्या दे, इसकी प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रः) सब ऐश्वर्यों का खजाना और सब ऐश्वर्य प्रदान करने में समर्थ परमेश्वर (इषे) राष्ट्र की प्रगति, अभ्युदय, अभीष्टसिद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए (नः) हमें (ऋभुम्) अति तेजस्वी, सत्य से भासमान, सत्यनिष्ठ, मेधावी, विद्वान् ब्राह्मण और (ऋभुक्षणम्) मेधावियों का निवासक, महान् (रयिम्) धन (ददातु) प्रदान करे। (वाजी) बलवान् वह (वाजिनम्) बली, राष्ट्ररक्षाकुशल क्षत्रिय (ददातु) प्रदान करे ॥६॥ इस मन्त्र में ‘ददातु’ और ‘ऋभु’ शब्दों की पुनरुक्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है। ‘वाजी, वाजि’ में छेकानुप्रास है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की कृपा से हमारे राष्ट्र में सत्यशील, उपदेशकुशल, मेधावी, विज्ञानवान्, ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण, बली, धनुर्विद्या में पारङ्गत, रोगों से आक्रान्त न होनेवाले, महारथी, राष्ट्ररक्षा में समर्थ, विजयशील शूरवीर क्षत्रिय और कृषि एवं व्यापार में प्रवीण, धनवान्, दानशील वैश्य उत्पन्न हों। सब राष्ट्रवासी धनपति होकर प्रगति और अभ्युदय को प्राप्त करते हुए आनन्द के साथ धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष के लिए प्रयत्न करते रहें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रोऽस्मभ्यं किं किं ददात्विति प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रः) सर्वैश्वर्यनिधिः सर्वैश्वर्यप्रदानक्षमः परमेश्वरः (इषे) राष्ट्रस्य प्रगतये, अभ्युदयाय, अभीष्टसिद्धये, निःश्रेयसस्य च प्राप्तये। इष गतौ दिवादिः, इषु इच्छायाम् तुदादिः। भावे क्विप् प्रत्ययः। (नः) अस्मभ्यम् (ऋभुम्) उरु भान्तम्, ऋतेन भान्तम्, ऋतेन भवन्तं वा मेधाविनं विद्वांसं ब्राह्मणम्। ऋभुः इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। ऋभवः उरु भान्तीति वा, ऋतेन भान्तीति वा, ऋतेन भवन्तीति वा। निरु० ११।१६। (ऋभुक्षणम्) यः ऋभून् मेधाविनः क्षाययति निवासयति तम्२, महान्तम्। ऋभुपूर्वः क्षि निवासगत्योः तुदादिः। ऋभुक्षा इति महन्नाम। निघं० ३।३। (रयिम्३) धनं च। रयिः इति धननाम। निघं० २।१०। (ददातु) प्रयच्छतु। (वाजी) बलवान् सः। वाज इति बलनाम। निघं० २।९। (वाजिनम्) बलवन्तं राष्ट्ररक्षाकुशलं क्षत्रियम् (ददातु) प्रयच्छतु। यथोक्तमन्यत्रापि—“आ ब्रह्म॑न् ब्राह्म॒णो ब्र॑ह्मवर्च॒सी जा॑यता॒मा रा॒ष्ट्रे रा॑ज॒न्यः᳕ शूर॑ इष॒व्यो॒ऽतिव्या॒धी म॑हार॒थो जा॑यता॒म्।” य० २२।२२ इति ॥६॥ अत्र ‘ददातु, ऋभु’ इत्यनयोःपुनरुक्तौ लाटानुप्रासोऽलङ्कारः। ‘वाजी, वाजि’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेशकृपयाऽस्माकं राष्ट्रे सत्यशीला उपदेशकुशला मेधाविनो विज्ञानवन्तो ब्रह्मवर्चस्विनो ब्राह्मणाः, बलवन्तो धनुर्विद्यापारंगता अतिव्याधयो महारथा राष्ट्ररक्षणक्षमा विजयशीलाः शूराः क्षत्रियाः, कृषिव्यापारप्रवीणा धनवन्तो दानशीला वैश्याश्च जायन्ताम्। सर्वे राष्ट्रवासिनो रयीणां पतयो भूत्वा प्रगतिमभ्युदयं च प्राप्नुवन्तः सानन्दं धर्मपूर्वकं जीवनं यापयन्तो निःश्रेयसाय प्रयतेरन् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।३४, ऋषिः सुकक्षः, देवता इन्द्रः ऋभवश्च। २. अयमर्थः ऋ० १।१११।४ इत्यस्य दयानन्दभाष्याद् गृहीतः। ३. ऋभुक्षणं महान्तम् ऋभुं मेधाविनं रयिं पुत्रलक्षणं च धनम्—इति वि०। सायणेन, वैकल्पिकत्वेन भरतस्वामिनापि च सुधन्वनः पुत्रस्य ऋभोः पक्षेऽपि व्याख्यातम्।
06_0199 इन्द्र इषे - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९९-१। सौमित्रे द्वे॥ द्वयोः सुमित्रो गायत्रीन्द्रः॥ ऋभुर्वा।
इ꣤न्द्र꣥इषे꣤꣯द꣥दा꣯तुनः। ओ꣤हाइ॥ ऋ꣢भु। क्ष꣡णाऽ२᳐म्। ऋ꣣भुꣳ꣢᳐रा꣣ऽ२३४यी꣥म्। वा꣢꣯जी꣯ददातु꣣वा꣢ऽ३। वा꣢꣯जी꣡꣯ददा। तु꣢वो꣡ऽ२३४वा꣥। जा꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
06_0199 इन्द्र इषे - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१९९-२।
इ꣥न्द्रइषे꣯ददा꣯तुनाऽ६ए꣥॥ ऋ꣢भुक्ष꣡णमृ꣢। भूऽ᳒२᳒१२३म्। रयी꣢ऽ३४३म्॥ वा꣡ऽ२३जी꣢॥ ददाऽ᳒२᳒ओ꣡ऽ२३। तु꣤वोवा꣥। जा꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ म꣣ह꣢द्भ꣣य꣢म꣣भी꣡ षदप꣢꣯ चुच्यवत्। स꣢꣫ हि स्थि꣢रो꣡ विच꣢꣯र्षणिः ॥ 07:0200 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग म॒हद्भ॒यम॒भी षदप॑ चुच्यवत् ।
स हि स्थि॒रो विच॑र्षणिः ॥
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पदपाठः
इ꣡न्द्रः꣢꣯। अ꣣ङ्ग꣢। म꣣ह꣢त्। भ꣣य꣢म्। अ꣣भि꣢। सत्। अ꣡प꣢꣯। चु꣣च्यवत्। सः꣢। हि। स्थि꣣रः꣢। वि꣡च꣢꣯र्षणिः। वि। च꣣र्षणिः। २००।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गृत्समदः शौनकः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र से भय-मुक्त करने की प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) विघ्नविदारक, सिद्धिप्रदाता परमेश्वर (अभि सत्) अभिभूत करनेवाले (महत्) बड़े भारी (भयम्) विपत्तियों से उत्पन्न, काम-क्रोध आदि शत्रुओं के उत्पीड़न से उत्पन्न अथवा जन्म-मरण से उत्पन्न भय को (अप चुच्यवत्) पूर्णतः दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह परमेश्वर (स्थिरः) भयों से उद्विग्न न होनेवाला, स्थिरमति, और (विचर्षणिः) भय-निवारण के उपायों का द्रष्टा और दर्शानेवाला है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) अन्धकार का विदारक, प्रकाशप्रदाता सूर्य (अभि सत्) अभिभूत या उद्विग्न करनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) रोगों से उत्पन्न, बाघ आदि हिंसक जन्तुओं से उत्पन्न, पृथिवी आदि ग्रह-उपग्रहों की टक्कर की आशंका से उत्पन्न इत्यादि प्रकार के भयों को (अपचुच्यवत्) दूर करता है, (हि) क्योंकि (सः) वह सूर्य (स्थिरः) आकर्षणशक्ति के द्वारा आकाश में स्थिर अर्थात् केवल अपनी धुरी पर ही घूमने के कारण स्थानान्तर गति से रहित, और (विचर्षणिः) प्रकाश के दान द्वारा सबको पदार्थों का दर्शन करानेवाला है ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) परम धनी, शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाला, प्रजाओं को सुख-सम्पदा देनेवाला राजा अथवा सेनापति (अभि सत्) राष्ट्र में व्याप्त होनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) राष्ट्र के अन्दर के तथा बाहरी शत्रुओं से उत्पन्न किए गये भय को (अपचुच्यवत्) दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह (स्थिरः) अपने पद पर अडिग, और (विचर्षणिः) गुप्तचर रूपी आँखों से अपने राष्ट्र में होनेवाले तथा शत्रु-राष्ट्र में होनेवाले सब घटनाचक्र का विशेष रूप से द्रष्टा है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - कभी काम, क्रोध आदि रिपुओं से उत्पन्न होनेवाला भय, कभी दुर्भिक्ष, नदियों की बाढ़, संक्रामक रोग आदि का भय, कभी मानवीय विपत्तियों का भय, कभी बाघ आदि हिंसक जन्तुओं का भय, कभी पड़ोसी शत्रु राष्ट्रों का भय, कभी चोरों, लुटेरों, ठगों, हत्यारों आदि का भय, कभी जन्म-मृत्यु के चक्र का भय मनुष्यों को व्याकुल किए रखता है। स्थिर सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिर प्रकाशक सूर्य और स्थिर गुप्तचर-रूप आँखोंवाला राजा उस सब प्रकार के भय से मुक्त कर दे, जिससे सब लोग सब ओर से निर्भय होते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकें ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रं भयान्मुक्तिं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (अङ्ग१) हे भद्र ! (इन्द्रः) विघ्नविदारकः सिद्धिप्रदाता परमेश्वरः (अभि सत्२) अभिभवत्, (महत्) विपुलम् (भयम्) विपज्जन्यं, कामक्रोधादिशत्रूत्पीडनजन्यं, जन्म-मरणजन्यं वा त्रासम् (अप चुच्यवत्) भृशम् अपच्यावयेत्। च्युङ् गतौ धातोर्यङ्लुगन्तस्य लेटि रूपम्। (हि) यस्मात् (सः) परमेश्वरः (स्थिरः) भयैरनुद्विग्नः स्थिरमतिः, (विचर्षणिः) भयनिवारणोपायानां द्रष्टा दर्शयिता च, वर्तते इति शेषः। विचर्षणिः इति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११ ॥ अथ द्वितीयः—सूर्यपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) तमोविदारकः प्रकाशप्रदाता सूर्यः (अभि सत्) अभिभवत् उद्वेजनकारि, (महत्) विपुलम् (भयम्) रोगजन्यं, व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यम्, आशङ्कितपृथिव्यादिग्रहोपग्रहसंघट्टजन्यम् एवमादिप्रकारकं भीतिसमूहम् (अपचुच्यवत्) अपच्यावयति, (हि) यस्मात् (सः) असौ सूर्यः (स्थिरः) आकर्षणद्वारा गगने स्थिरः, स्वधुरि एव भ्रमणशीलत्वात् स्थानान्तरगतिरहितः, (विचर्षणिः) प्रकाशप्रदानेन सर्वेषां दर्शयिता चास्ति ॥३ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, शत्रुविदारकः, प्रजानां सुखसम्पत्प्रदाता राजा सेनापतिर्वा (अभि सत्) राष्ट्रेऽभिव्याप्यमानम्, (महत्) विस्तीर्णम् (भयम्) आन्तरिकबाह्यशत्रुकर्तृकं प्रतारणलुण्ठनबन्धनहिंसनविप्लवराजविद्रोहादिजन्यं त्रासम् (अप चुच्यवत्) दूरीकुर्यात्, (हि) यस्मात् (सः) असौ (स्थिरः) स्वपदे ध्रुवः, (विचर्षणिः) चारचक्षुर्भिः स्वराष्ट्रजातस्य शत्रुराष्ट्रजातस्य च निखिलस्यापि वृत्तस्य विशेषरूपेण द्रष्टा च विद्यते ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - कदाचित् कामक्रोधादिरिपुजन्यं भयं, कदाचिद् दुर्भिक्षनद्यापूरसंक्रामकरोगादिजन्यं भयं, कदाचिन्मानवीयविपज्जन्यं भयं, कदाचिद् व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यं भयं, कदाचित् प्रतिवेशिशत्रुराष्ट्रजन्यं भयं, कदाचित् स्तेनलुण्ठकवञ्चकघातकादिजन्यं भयं, कदाचिज्जन्ममरणचक्रजन्यं भयं मनुष्यानुद्वेजयति। स्थिरः सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिरः प्रकाशकः सूर्यः, स्थिरश्चारचक्षू राजा च तस्मात् सर्वविधादपि भयाद् विमोचयेद्, येन सर्वे जनाः सर्वतो निर्भयाः सन्तोऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुं शक्नुयुः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० २।४१।१०, अथ २०।२०।५, ५७।८। २. अङ्ग क्षिप्रम्—इति वि०, भ०, सा०। ३. अभि सत् आभिमुख्येन सीदत्, पर्युपस्थितम्—इति वि०। अभितः सम्भवदिति वा अभिभवदिति वा—इति भ०। सायणस्तु क्रियापदत्वेन शत्रन्तत्वेन चोभयथापि व्याचष्टे—अभीषत् अभिभवति, यद्वा अभीषद् अभिभवद् इति। ४. तुलनीयम्—ऋग्भाष्येऽस्य मन्त्रस्य दयानन्दभाष्यम्। तत्र चैष भावार्थ उक्तः—“यदि ब्रह्माण्डे सूर्यो न स्यात् तर्हि कस्यापि भयं न निवर्तेत। यदि सूर्यलोकः स्वपरिधौ स्थिरो दर्शको न भवेत् तर्हि तुल्याकर्षणं दर्शनं च न भवेद्” इति।
07_0200 इन्द्रो अङ्ग - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२००-१। इन्द्रस्याभयङ्करम्॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥न्द्रो꣯अङ्गा॥ म꣢ह꣡द्भाऽ२३या꣢म्। आ꣡भी꣯ष꣢द। पचु꣡च्याऽ२३वा꣢ऽ३४त्। स꣣हा꣢ऽ३४इस्थि꣣रा꣢ऽ३ः। वि꣤चोवा꣥। षा꣤ऽ५णोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा सु꣣ते꣡सु꣢ते꣣ न꣡क्ष꣢न्ते गिर्वणो꣣ गि꣡रः꣢। गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥ 08:0201 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒मा उ॑ त्वा सु॒तेसु॑ते॒ नक्ष॑न्ते गिर्वणो॒ गिरः॑ ।
व॒त्सं गावो॒ न धे॒नवः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣣माः꣢। उ꣣। त्वा। सुते꣡सु꣢ते। सु꣣ते꣢। सु꣣ते। न꣡क्ष꣢꣯न्ते। गि꣣र्वणः। गिः। वनः। गि꣡रः꣢꣯। गा꣡वः꣢꣯। व꣣त्स꣢म्। न। धे꣣न꣡वः꣢। २०१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में स्तोता जन परमात्मा को कह रहे हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों से सेवनीय वा याचनीय परमैश्वर्यवन् इन्द्र परमात्मन् ! (इमाः उ) ये हमसे उच्चारण की जाती हुई (गिरः) वेदवाणियाँ अथवा स्तुतिवाणियाँ (सुतेसुते) प्रत्येक ज्ञान, कर्म और उपासना के व्यवहार में (त्वा) आपको (नक्षन्ते) प्राप्त होती हैं, (धेनवः) अपना दूध पिलानेवाली या अपने दूध से तृप्त करनेवाली (गावः) गौएँ (वत्सं न) जैसे बछड़े को प्राप्त होती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे पौसे हुए पयोधरोंवाली नवप्रसूत गौएँ अपना दूध पिलाने के लिए शीघ्रता से बछड़े के पास जाती हैं, वैसे ही हमारी रस बहानेवाली, अर्थपूर्ण स्तुतिवाणियाँ प्रत्येक ज्ञानयज्ञ में, प्रत्येक कर्मयज्ञ में और प्रत्येक उपासनायज्ञ में परमात्मा के समीप पहुँचें ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्तोतारः परमात्मानमाहुः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः२) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः वन्यते सेव्यते याच्यते वा यः स गिर्वणाः, तथाविध हे इन्द्र परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (इमाः उ) एताः खलु अस्मदुच्चार्यमाणाः (गिरः) वेदवाचः स्तुतिवाचो वा (सुतेसुते) प्रतिज्ञानकर्मोपासनाव्यवहारम्३ (त्वा) त्वाम् (नक्षन्ते) प्राप्नुवन्ति। नक्षतिः गतिकर्मा व्याप्तिकर्मा च। निघं० २।१४, २।१८। (धेनवः) स्वपयसः पाययित्र्यः, दुग्धदानेन प्रीणयित्र्यो वा। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वा। निरु० ११।४३। (गावः) पयस्विन्यः (वत्सं न) यथा वत्सं नक्षन्ते प्राप्नुवन्ति ॥८॥४ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा प्रस्नुवत्पयोधरा नवप्रसूता गावः पयः पाययितुं त्वरया वत्सं प्राप्नुवन्ति, तथैवास्मदीयाः प्रस्नुवद्रसा अर्थगर्भाः स्तुतिवाचः प्रतिज्ञानयज्ञं, प्रतिकर्मयज्ञं, प्रत्युपासनायज्ञं च परमात्मानमुपतिष्ठेरन् ॥८॥५
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४५।२८, ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। वत्सं गावो न धेनवः इति तृतीयः पादः। २. द्रष्टव्यम् १६५ संख्यकमन्त्रस्य भाष्यम्। ३. (सुतम्) कर्मोपासनाज्ञानरूपं व्यवहारम् इति ऋ० १।३।८ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं शुद्धाचारान् प्रत्यस्माकं वाचः प्रयान्तु इति विषये व्याख्यातवान्। ५. यथा अचिरप्रसूता गावः स्नेहार्द्रेण मनसा वत्सं व्याप्नुवन्ति तद्वत् त्वां हे इन्द्र अस्मदीयाः स्तुतयः व्याप्नुवन्तीत्यर्थः—इति वि०।
08_0201 इमा उ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०१-१। त्वाष्ट्रीसाम॥ त्वष्टा गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥मा꣯उत्वा॥ सु꣢ताइसु꣡ताइ। नक्षन्ताऽ२३इगी꣢ऽ३४ः। वनः꣥। गा꣢ऽ३इराः꣢॥ गा꣡꣯वोवा꣢ऽ३त्सा꣢ऽ३म्॥ न꣢धो꣡ऽ२३४वा꣥। ना꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣢न्द्रा꣣ नु꣢ पू꣣ष꣡णा꣢ व꣣य꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ स्व꣣स्त꣡ये꣢। हु꣣वे꣢म꣣ वा꣡ज꣢सातये ॥ 09:0202 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा॒ नु पू॒षणा॑ व॒यं स॒ख्याय॑ स्व॒स्तये॑ ।
हु॒वेम॒ वाज॑सातये ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रा꣢꣯। नु। पू꣣ष꣡णा꣢। व꣣य꣢म्। स꣣ख्या꣡य꣢। स꣣। ख्या꣡य꣢꣯। स्व꣣स्त꣡ये꣢। सु꣣। अस्त꣡ये꣢। हु꣣वे꣡म꣢। वा꣡ज꣢꣯सातये। वा꣡ज꣢꣯। सा꣣तये। २०२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि हम कल्याणार्थ किसे पुकारें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वयम्) हम प्रजाजन (इन्द्रा-पूषणा) परमात्मा-जीवात्मा, प्राण-अपान, राजा-सेनापति, क्षत्रिय-वैश्य और विद्युत्-वायु को (नु) शीघ्र ही (सख्याय) मित्रता के लिए (स्वस्तये) अविनाश, उत्तम अस्तित्व एवं कल्याण के लिए, और (वाजसातये) अन्न, धन, बल, वेग, विज्ञान, प्राणशक्ति को प्राप्त करानेवाले आन्तरिक और बाह्य संग्राम में सफलता के लिए (हुवेम) पुकारें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्य के जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में मनोभूमि में और बाहर की भूमि पर संग्राम होते हैं। उनमें परमात्मा-जीवात्मा, प्राण-अपान, राजा-सेनापति, क्षत्रिय-वैश्य और विद्युत्-वायु की मित्रता का जो वरण करते हैं, वे विजयी होते हैं ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्वस्तये वयं कमाह्वयेमेत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वयम्) प्रजाजनाः (इन्द्रा-पूषणा) परमात्म-जीवात्मानौ, प्राणापानौ, नृपति-सेनापती, क्षत्रियवैश्यौ, विद्युद-वायू वा। द्वन्द्वसमासे देवता- द्वन्द्वे च। अ० ६।३।२६ इति पूर्वपदस्य आनङ्। मध्ये नु इत्यनेन व्यवधानं छान्दसम्। पूषणा इत्यत्र सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इति द्वितीयाद्विवचनस्य आकारः। (नु) क्षिप्रम् (सख्याय) मैत्रीभावाय, (स्वस्तये) अविनाशाय, अभिपूजिताय अस्तित्वाय, कल्याणाय वा। स्वस्तीत्यविनाशिनाम। अस्तिरभिपूजितः स्वस्ति। निरु० ३।२२। किञ्च (वाजसातये२) संग्रामाय, संग्रामे साफल्याय इत्यर्थः। वाजसातिरिति संग्रामनाम। निघं० २।१७। वाजानाम् अन्नधनबलवेगविज्ञानप्राणशक्त्या- त्मशक्त्यादीनां सातिः प्राप्तिः यस्मिन् स वाजसातिः संग्रामः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (हुवेम) आह्वयेम ॥९॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यस्य जीवने प्रतिक्षेत्रं मनोभूमौ बहिर्भूमौ च देवासुरसंग्रामा जायन्ते। तत्र परमात्म-जीवात्मनोः, प्राणापानयोः, नृपतिसेनापत्योः, क्षत्रियविशोः, विद्युद्वाय्वोश्च सख्यं ये वृण्वन्ति ते विजयिनो भवन्ति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।५७।१, ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। देवते इन्द्रापूषणौ। २. वाजः अन्नम्, तस्य च सातये सम्भजनाय, तस्य लाभार्थमित्यर्थः—इति वि०। वाजस्य अन्नस्य बलस्य वा सातये सम्भजनाय—इति सा०। अन्नादीनां विभागो यस्मिंस्तस्मै—इति ऋग्भाष्ये द०। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमैश्वर्ययुक्तस्य पोषकस्य च जनस्य सख्यविषये व्याख्यातवान्।
09_0202 इन्द्रा नु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०२-१। पौषम्॥ पूषा गायत्रीन्द्रः॥ (इन्द्रापूषणौ वा)।
इ꣥न्द्रा꣯नुपू॥ ष꣢णा꣡꣯वाऽ२३या꣢म्। सा꣡ख्या꣯य꣢। सुव꣡स्ताऽ२३या꣢इ॥ हू꣡वेऽ᳒२᳒मा꣡वाऽ२३। ज꣢सो꣡ऽ२३४वा꣥॥ ता꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥
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न꣡ कि꣢ इन्द्र꣣ त्व꣡दुत्त꣢꣯रं꣣ न꣡ ज्यायो꣢꣯ अस्ति वृत्रहन्। न꣢ क्ये꣣वं꣢꣫ यथा꣣ त्व꣢म् ॥ 10:0203 ॥
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नकि॑रिन्द्र॒ त्वदुत्त॑रो॒ न ज्यायाँ॑ अस्ति वृत्रहन् ।
नकि॑रे॒वा यथा॒ त्वम् ॥
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पदपाठः
न꣢। कि꣣। इन्द्र। त्व꣢त्। उ꣡त्त꣢꣯रम्। न। ज्या꣡यः꣢꣯। अ꣣स्ति। वृत्रहन्। वृत्र। हन्। न꣢। कि꣣। एव꣢म्। य꣡था꣢꣯। त्वम्। २०३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वत्) तुझसे (उत्तरः) गुणों में अधिक प्रशस्त (न कि) कोई नहीं है। हे (वृत्रहन्) विघ्नों के विनाशक ! (न) न ही कोई (ज्यायः) तुझसे आयु में अधिक बड़ा (अस्ति) है। (न कि) न ही (एवम्) ऐसा है, (यथा) जैसा (त्वम्) तू है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अति विशाल भी इस ब्रह्माण्ड में जिससे अधिक गुणवान् और जिससे अधिक वृद्ध दूसरा कोई नहीं है, उस जगदीश्वर की सबको श्रद्धा से पूजा करनी चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र परमात्मा के प्रति ज्ञान, कर्म, उपासनारूप सोम अर्पण करने, उसका स्तुति-गान करने, उससे धन की याचना करने, उसका महत्त्व वर्णन करने और इन्द्र नाम से आचार्य, राजा तथा सूर्य का भी वर्णन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य परमात्मनो महत्त्वं प्रतिपादयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वत्) त्वामपेक्ष्य (उत्तरम्) गुणैः प्रशस्यतरम् (न कि) नैव किमपि अस्ति। हे (वृत्रहन्) विघ्नविनाशक ! (न) नैव किमपि (ज्यायः) आयुषि वृद्धतरम्। अत्र ईयसुन् प्रत्यये वृद्धस्य च। अ० ५।३।६२ इत्यनेन वृद्धस्य ज्य इत्यादेशः। (न कि) नैव (एवम्) एतादृशम् अस्ति (यथा) यादृशः (त्वम्) त्वम् असि। उक्तं च श्वेताश्वतरेऽपि—न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते। श्वेता० ६।८ इति ॥१०॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सुविशालेऽप्यस्मिन् ब्रह्माण्डे यस्माद् गुणवत्तरं वृद्धतरं वा किञ्चिन्नास्ति, स जगदीश्वरः सर्वैः श्रद्धया संपूजनीयः ॥१०॥ अत्रेन्द्रं प्रति ज्ञानकर्मोपासनारूपसोमार्पणात्, तत्स्तुतिगानात्, ततो रयियाचनात्, तन्महत्त्ववर्णनाद्, इन्द्रनाम्नाऽऽचार्यनृपतिसूर्याणां चापि वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे प्रथमा दशतिः। इति द्वितीयाध्याये नवमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ४।३०।१, नकिरिन्द्र त्वदुत्तरो न ज्यायाँ अस्ति वृत्रहन्। नकिरेवा यथा त्वम् ॥ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् यः सर्वेभ्यः श्रेष्ठो भवेत् तमेव राजानं कुरुत इति विषये व्याख्यातवान्।
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लिखितम्
२०३-१। इन्द्राण्यास्साम॥ इन्द्राणी गायत्रीन्द्रः॥
न꣤। क्येनाकी꣥॥ आ꣡इन्द्रत्वदुत्तराम्। न꣢ज्या꣡꣯यो꣰꣯ऽ२। अ꣡स्ताऽ२३इवॄ꣢। हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्। त्रा꣣ऽ२३४हा꣥न्॥ न꣡क्ये꣢꣯। वं꣡याऽ२३था꣢॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ३४३। तू꣢᳐ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥
[[अथ दशम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त꣣र꣡णिं꣢ वो꣣ ज꣡ना꣢नां त्र꣣दं꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः। स꣣मान꣢मु꣣ प्र꣡ श꣢ꣳसिषम् ॥ 11:0204 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त॒रणिं॑ वो॒ जना॑नां त्र॒दं वाज॑स्य॒ गोम॑तः ।
स॒मा॒नमु॒ प्र शं॑सिषम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त꣣र꣡णि꣢म्। वः꣣। ज꣡ना꣢꣯नाम्। त्र꣣द꣢म्। वा꣡ज꣢꣯स्य। गो꣡म꣢꣯तः। स꣣मा꣢नम्। स꣣म्। आन꣢म्। उ꣣। प्र꣢। शँ꣣सिषम्। २०४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- त्रिशोकः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा, सूर्य और राजा की प्रशंसा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्यो ! (जनानां वः) आप जन्मधारियों का (तरणिम्) नौकारूप अर्थात् नाव के समान तारक, विपत्तिरूप नदियों से पार करनेवाले, (गोमतः) प्रशस्त गौओं से युक्त, प्रशस्त भूमियों से युक्त, प्रशस्त वाणियों से युक्त, प्रशस्त इन्द्रियों से युक्त, प्रशस्त किरणों से युक्त और प्रशस्त अन्तःप्रकाश से युक्त (वाजस्य) ऐश्वर्य के (त्रदम्) प्राप्त करानेवाले इन्द्र नामक परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सूर्य की (समानम् उ) सप्राण होकर, सोत्साह (प्रशंसिषम्) मैं प्रशंसा करता हूँ ॥ पणि लोग इन्द्र की गौओं को चुराकर पर्वत की गुफा में छिपा देते हैं। इन्द्र सरमा को दूती बनाकर अङ्गिरस्, सोम और बृहस्पति की सहायता से गुफा तोड़कर उन्हें छुड़ॎता है, यह वृत्त वेद में बहुत बार वर्णित हुआ है। अध्यात्म-क्षेत्र में गौएँ अन्तःप्रकाश की किरणें या मन की सात्त्विक वृत्तियाँ हैं, इन्द्र परमात्मा अथवा जीवात्मा है, पणि उन गौओं को चुरानेवाली तामसिक मनोवृत्तियाँ हैं। अधिदैवत क्षेत्र में गौएँ किरणें हैं, इन्द्र सूर्य है, पणि मेघ अथवा अन्धकारपूर्ण रात्रियाँ हैं। राष्ट्रिय क्षेत्र में गौएँ गाय पशु या भूमि आदि सम्पत्तियाँ हैं, इन्द्र राष्ट्र का पालक राजा है, और पणि उन सम्पत्तियों का अपहरण करनेवाले लुटेरे शत्रु हैं। इन्द्र नामक परमात्मा, जीवात्मा, सूर्य और राजा उन-उन पणियों को पराजित करके उनकी गुफा को तोड़कर उन गौओं को पुनः प्राप्त करके सत्पात्रों को उनका दान करते हैं। इसी प्रसङ्ग से इस मन्त्र में तृद धातु दानार्थक हो गयी है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। इन्द्र में तरणि (नौका) का आरोप होने से रूपक है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - नौका के समान परमात्मा संसार-सागर से जनों का तारक, जीवात्मा कुमार्ग से इन्द्रियों का तारक, सूर्य अन्धकार या रोग से मनुष्यों का तारक, और राजा से विपत्तियों से प्रजाओं का तारक होता है। ये अपने-अपने क्षेत्र में यथायोग्य दिव्य प्रकाशरूप, दिव्य इन्द्रियरूप, किरणरूप, गायरूप, और भूमिरूप गौओं को शत्रु के अधिकार से वापस लौटानेवाले हैं। अतः इनकी प्रशंसा, गुण-वर्णन और सेवन सबको करना चाहिए॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे परमात्मानं, जीवं, सूर्यं, राजानं च प्रशंसति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्याः ! (जनानां वः) जन्मधारिणां युष्माकम् (तरणिम्) नावम्, नौवत् तारकम्, विपत्सरितः पारयितारम्, (गोमतः) प्रशस्तधेनुयुक्तस्य, प्रशस्तभूमियुक्तस्य, प्रशस्तवाणीयुक्तस्य, प्रशस्तेन्द्रिययुक्तस्य, प्रशस्तकिरणयुक्तस्य, प्रशस्तान्तःप्रकाशयुक्तस्य वा (वाजस्य) ऐश्वर्यस्य (त्रदम्२) तर्दकं, प्रदातारम्, इन्द्रं परमात्मानं, राजानं, सूर्यं वा। तृदिर् हिंसानादरयोः। अत्र दानार्थः। तृणत्ति ददातीति त्रदः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। अ० ३।१।१३५ इति कः प्रत्ययः। प्रत्ययस्वरेणान्तोदात्तत्वम्। अहम् (समानम् उ) सप्राणम्३ सोत्साहम् (प्रशंसिषम्) प्रशंसामि उद्बोधयामि वा। शंसु स्तुतौ, छन्दसि लुङ्लङ्लिटः अ० ३।४।६ इति कालसामान्ये लुङ्, बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि अ० ६।४।७५ इत्यडभावः। पणय इन्द्रस्य गा अपहृत्य पर्वतगुहायां प्रच्छादयन्ति, इन्द्रश्च सरमां दूतीं विधाय अङ्गिरसां सोमस्य, बृहस्पतेश्च साहाय्येन गुहामातृद्य ता विमोचयतीति वृत्तं वेदे बहुशो वर्णितम्४। अध्यात्मक्षेत्रे गावोऽन्तःप्रकाशस्य किरणाः मनसः सात्त्विकवृत्तयो वा, इन्द्रः परमात्मा जीवात्मा वा, पणयश्च, तासां गवामपहारिकास्तामस्यो मनोवृत्तयः। अधिदैवतक्षेत्रे गावः किरणाः, इन्द्रः सूर्यः, पणयश्च मेघाः तमःपूर्णा रात्रयो वा। राष्ट्रियक्षेत्रे गावः धेनुपृथिव्यादयः सम्पदः, इन्द्रो राष्ट्रपालको राजा, पणयश्च तासां सम्पदामपहर्त्तारो लुण्ठकाः शत्रवः सन्ति। इन्द्रः परमात्मा, जीवात्मा, सूर्यो, राजा च तांस्तान् पणीन् पराजित्य तद्गुहां विभिद्य ता गाः पुनः प्राप्य सत्पात्रेभ्यो ददाति। अस्मादेव प्रसङ्गादत्र तृद धातुर्दानार्थः सञ्जातः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। इन्द्रे तरणित्वारोपाच्च रूपकम् ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - तरणिवत् परमात्मा संसारसागराज्जनानां तारकः, जीवात्मा कुमार्गादिन्द्रियाणां तारकः, सूर्योऽन्धकाराद् रोगाद् वा मनुष्याणां तारकः, राजा च विपद्भ्यः प्रजानां तारको भवति। एते स्वस्वक्षेत्रे यथायोग्यं दिव्यप्रकाशरूपाणां, दिव्येन्द्रियरूपाणां, किरणरूपाणां, धेनुरूपाणां, पृथिवीरूपाणां वा गवां शत्रुसकाशादाहर्त्तारो भवन्ति। अत एतेषां प्रशंसा, गुणवर्णनं सेवनं च सर्वैः कार्यम् ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४५।२८। २. त्रदं तर्दनं प्रकाशयितारं दातारं वा—इति भ०। त्रदं तर्दयितारं हिंसितारमित्यर्थः—इति वि०। सायणस्तु ‘त्रदं शत्रूणां तर्दयितारं, गोमतः पशुमतः वाजस्य अन्नस्य दातारम्’ इति व्याचष्टे। तत्र दातारम् इत्यध्याहारः। केचित्तु त्राता दाता च त्रदः इति व्याचख्युः। परं पदपाठेऽविभज्य दर्शनात् त्रश्च दश्चेति द्व्योः पदयोः समासो न पदकारसम्मतः। ३. पदपाठे सम् आनम् इति पदच्छेदादत्र संपूर्वः अन प्राणने धातुर्विज्ञेयः। ४. द्रष्टव्यम्—ऋक्सूक्तम् ४।२८, १०।१०८। रिरिचतुः क्षाश्चित् ततृदाना ऋ० ४।२८।५ इत्यत्र तु तृद् धातुरेव प्रयुक्तः, प्रस्तुते मन्त्रेऽपि त्रदम् इत्यत्र स एव धातुः।
11_0204 तरणिं वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०४-१। श्यावाश्वं तारणं वा॥ श्यावाश्वो गायत्रीन्द्रः॥
त꣥रणिंवाः॥ ज꣡नाऽ२३ना꣢म्। त्रदं꣡वा꣯जा꣢ऽ३हा꣢ऽ३। स्या꣡गो꣢᳐मा꣣ऽ२३४ताः꣥॥ स꣢मा꣡꣯नाऽ२३मू꣢॥ प्र꣤शाऽ५ꣳसिषाम्। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣡सृ꣢ग्रमिन्द्र ते꣣ गि꣢रः꣣ प्र꣢ति꣣ त्वा꣡मु꣢꣯दहासत। स꣣जो꣡षा꣢ वृष꣣भं꣡ पति꣢꣯म् ॥ 12:0205 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिरः॒ प्रति॒ त्वामुद॑हासत ।
अजो॑षा वृष॒भं पति॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡सृ꣢꣯ग्रम्। इ꣣न्द्र। ते। गि꣡रः꣢꣯। प्र꣡ति꣢꣯। त्वाम्। उत्। अ꣣हासत। सजो꣡षाः꣢। स꣣। जो꣡षाः꣢꣯। वृ꣣षभ꣢म्। प꣡ति꣢꣯म्। २०५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) पूजनीय जगदीश्वर ! मैं (ते) आपके लिए, आपकी स्तुति के लिए (गिरः) वेदवाणियों को (असृग्रम्) उच्चारित करता हूँ (सजोषाः) प्रीतिपूर्वक उच्चारण की गई वे वेदवाणियाँ (वृषभम्) सब अभीष्टों की वर्षा करनेवाले (पतिम्) पालनकर्ता (त्वां प्रति) आपको लक्ष्य करके (उद् अहासत) उठ रही हैं, उत्कण्ठा-पूर्वक आपको पाने का यत्न कर रही हैं ॥२॥ यहाँ प्रीतिमयी भार्या जैसे वर्षक पति को पाने के लिए उत्कण्ठापूर्वक जाती है, तो यह उपमा शब्द-शक्ति से ध्वनित हो रही है। उससे उपासक के प्रेम का अतिशय द्योतित होता है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदि परमात्मा की प्रीतिपूर्वक वेदवाणियों से स्तुति की जाती है, तो वह अवश्य प्रसन्न होता है और स्तोता के लिए यथायोग्य अभीष्ट धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की वर्षा करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः स्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) महनीय जगदीश्वर ! अहम् (ते) तुभ्यम् (गिरः) वेदवाचः (असृग्रम्) सृजामि, प्रोच्चारयामि। असृजम् इति प्राप्ते बहुलं छन्दसि। अ० ७।१।८ अनेन सृज धातो रुडागमः। वर्णव्यत्ययेन जकारस्थाने गकारः, लडर्थे लङ् च। (सजोषाः२) जोषेण प्रीत्या सह वर्त्तमानाः, प्रीतिपूर्वकम् उच्चारितास्ताः वेदवाचः। जोषणं जोषः। जुषी प्रीतिसेवनयोः धातोः इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। अ० ३।१।१३५ इति कः। सह-जोषपदयोः समासे वोपसर्जनस्य। अ० ६।३।८२ इति सहस्य सादेशः। (वृषभम्) सर्वाभीष्टवर्षकम् (पतिम्) पालकम् (त्वां प्रति) त्वामुद्दिश्य (उद्-अहासत) उद्गच्छन्ति सोत्कण्ठं त्वां प्राप्तुं यतन्ते। अत्र ओहाङ् गतौ इत्यस्माल्लडर्थे लुङ्। अत्र प्रीतिमती भार्या यथा वर्षकं पतिं प्राप्तुं सोत्कं यातीति शब्दशक्त्या ध्वन्यते। तेन प्रेमातिशयो द्योत्यते ॥२॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदि परमात्मा प्रीतिपूर्वकं वेदवाग्भिः स्तूयते तर्हि सोऽवश्यं प्रसीदति, स्तोत्रे यथायोग्यमभीष्टान् धर्मार्थकाममोक्षांश्च वर्षति ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।९।४, अथ० २०।७१।१०, उभयत्र अजोषा इति पाठः। २. वेदेषु सजोषस् इत्यसुन्प्रत्ययान्तं सकारान्तमेव बाहुल्येन प्रयुज्यते। प्रथमाबहुवचने तत्र सजोषसः इति रूपं भवति। अत्र तु कप्रत्ययान्तस्य सजोषशब्दस्य स्त्रियां टापि प्रथमाबहुवचनान्तं ज्ञेयम्। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये वेदवाक्परमेव व्याख्यातवान्।
12_0205 असृग्रमिन्द्र ते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०५-१। वैरूपम्॥ विरूपो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥सृग्रमा꣯इन्द्राऽ६ते꣥꣯गिराः॥ प्रा꣡तीऽ᳒२᳒त्वा꣡मूऽ᳒२᳒त्। अहा꣯। स꣡ता॥ सा꣢ऽ१जोऽ᳒२᳒षा꣡वाऽ᳒२᳒॥ षभाऽ᳒२᳒म्प꣡ति꣢म्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा।
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु꣣नीथो꣢ घा꣣ स꣢꣫ मर्त्यो꣣ यं꣢ म꣣रु꣢तो꣣ य꣡म꣢र्य꣣मा꣢। मि꣣त्रा꣢꣫स्पान्त्य꣣द्रु꣡हः꣢ ॥ 13:0206 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॒नी॒थो घा॒ स मर्त्यो॒ यं म॒रुतो॒ यम॑र्य॒मा ।
मि॒त्रः पान्त्य॒द्रुहः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सु꣣नीथः꣢। सु꣣। नीथः꣢। घ꣣। सः꣢। म꣡र्त्यः꣢꣯। यम्। म꣣रु꣡तः꣢। यम्। अ꣣र्यमा꣢। मि꣣त्राः꣢। मि꣣। त्राः꣢। पा꣡न्ति꣢꣯। अ꣣द्रु꣡हः। अ꣣। द्रु꣡हः꣢꣯। २०६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मित्र, मरुत् और अर्यमा का विषय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्म पक्ष में।हे इन्द्र परमात्मन् ! (सः) वह (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (घ) निश्चय ही (सुनीथः) शुभ नीति से युक्त अथवा प्रशस्त हो जाता है, (यम्) जिसे (मरुतः) प्राण, (यम्) जिसे (अर्यमा) श्रेष्ठ विचारों का सम्मानकारी आत्मा, और जिसे (अद्रुहः) द्रोह न करनेवाले (मित्राः) मित्रभूत मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आँख, कान, त्वचा, नासिका और जिह्वा (पान्ति) रक्षित-पालित करते हैं ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (सः) वह (मर्त्यः) प्रजाजन (घ) निश्चय ही (सुनीथः) सन्मार्ग पर चलनेवाला, सदाचारपरायण हो जाता है (यम्) जिसे (मरुतः) वीर क्षत्रिय, (यम्) जिसे (अर्यमा) धार्मिक न्यायाधीश और (अद्रुहः) राजद्रोह या प्रजाद्रोह न करनेवाले (मित्राः) मित्रभूत अन्य राज्याधिकारी-गण (पान्ति) विपत्तियों से बचाते तथा पालित-पोषित करते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - इस जगत् या राष्ट्र में बहुत से लोग योग्य मार्गदर्शन को न पाकर सन्मार्ग से च्युत हो जाते हैं। परन्तु जीवात्मा, प्राण आदि अध्यात्म-मार्ग पर चलते हुए जिस मनुष्य पर अनुग्रह करते हैं, तथा राष्ट्र में राज्याधिकारी जिसकी सहायता करते हैं, वह निरन्तर प्रगति के पथ पर दौड़ता हुआ लक्ष्य-सिद्धि को पाने में समर्थ हो जाता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मित्रमरुदर्यमविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सः) असौ (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (घ) निश्चयेन। संहितायां ‘ऋचितुनुघ अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः। (सुनीथः२) शुभनीतियुक्तः प्रशस्यो वा जायते। णीञ् प्रापणे धातोः हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२ इति क्थन्। शोभनः नीथः नयः अस्यास्तीति सुनीथः। सुनीथ इति प्रशस्यनाम। निघं० ३।८। (यम्) मर्त्यम् (मरुतः) प्राणाः, (यम्) मर्त्यम् (अर्यमा) अर्याणां श्रेष्ठविचाराणां संमानकर्ता आत्मा, (अद्रुहः) अद्रोग्धारः (मित्राः) सुहृद्भूता मनोबुद्धिचित्ताहंकाराश्चक्षुः- श्रोत्रत्वग्घ्राणरसनाश्च (पान्ति) रक्षन्ति पालयन्ति वा ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! (सः) असौ (मर्त्यः) प्रजाजनः (घ) निश्चयेन (सुनीथः) सन्मार्गगन्ता सदाचारपरायणः जायते। नयति देशाद् देशान्तरमिति नीथो मार्गः। अत्र नैतिको मार्गो ग्राह्यः। (यम् मरुतः) वीराः क्षत्रियाः, (यम् अर्यमा) धार्मिको न्यायाधीशः, (अद्रुहः) राजद्रोहं प्रजाद्रोहं वाऽनाचरन्तः (मित्राः) मित्रभूताः अन्ये राज्याधिकारिणश्च (पान्ति) विपद्भ्यो रक्षन्ति पालयन्ति च ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अस्मिन् जगति राष्ट्रे वा बहवो जना योग्यमार्गदर्शनमलभमानाः सन्मार्गाच्च्यवन्ते। परं जीवात्मप्राणादयोऽध्यात्ममार्गे क्रममाणं यं जनमनुगृह्णन्ति, राष्ट्रे च राज्याधिकारिणो यस्य साहाय्यं कुर्वन्ति, स निरन्तरं प्रगतिपथमनुधावन् लक्ष्यसिद्धिं प्राप्तुं क्षमते ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४६।४ ऋषिः दशोऽश्व्यः। मित्रः पान्त्यद्रुहः इति पाठः। २. सुनीथः सुप्रशस्तः—इति वि०। सुमार्गः—इति भ०। सुयज्ञः सुनयनो वा इति सा०।
13_0206 सुनीथो घा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०६-१। सौमित्रम्॥ कौत्सं वा। सुमित्रो गायत्रीन्द्रः॥
सु꣤नी꣯थो꣯घाऽ५समर्ति꣤याः॥ य꣡म्मरुतो꣰꣯ऽ२य꣡मर्य꣢मा꣡꣯। मि꣢त्रा꣡꣯स्पां꣯त्य꣢द्रु꣡हः꣢॥ ऊ꣡। ऊ। वा꣢꣯हाऽ३१उवाऽ᳒२᳒। अ꣡ति꣢द्वि꣡षा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣢द्वी꣣डा꣡वि꣢न्द्र꣣ य꣢त्स्थि꣣रे꣡ यत्पर्शा꣣ने꣣ प꣡रा꣢भृतम्। व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भर꣢꣯ ॥ 14:0207 ॥
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यद्वी॒ळावि॑न्द्र॒ यत्स्थि॒रे यत्पर्शा॑ने॒ परा॑भृतम् ।
वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥
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पदपाठः
य꣢त्। वी꣣डौ꣢। इ꣣न्द्र। य꣢त्। स्थि꣣रे꣢। यत्। प꣡र्शा꣢꣯ने। प꣡रा꣢꣯भृतम्। प꣡रा꣢꣯। भृ꣣तम्। व꣡सु꣢꣯। स्पा꣣र्ह꣢म्। तत्। आ। भ꣣र। २०७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- त्रिशोकः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि किस प्रकार का धन हमें प्राप्त करना चाहिए।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमेश्वर, राजन् और आचार्य ! (यत्) जो दृढ़तारूप धन (वीडौ) दृढ़ लोहे, पत्थर, हीरे आदि में, (यत्) जो स्थिरतारूप धन (स्थिरे) अविचल सूर्य, पर्वत आदि में और (यत्) जो परोपकाररूप धन (पर्शाने) सींचनेवाले बादल में (पराभृतम्) निहित है, (तत्) वह (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) धन (आभर) हमें प्राप्त कराइए ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - दृढ़तारूप गुण से ही लोहा, पत्थर, हीरा आदि पदार्थ कीर्तिशाली हैं। स्थिरतारूप गुण से ही सूर्य, पर्वत आदि गर्व से सिर उठाए खड़े हैं। सींचने-बरसने रूप गुणों से ही बादलों की सब प्रशंसा करते हैं। वह दृढ़ता का, स्थिरता का और सींचने-बरसाने का गुण हमें भी प्राप्त करना चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ किंप्रकारकं धनमस्माभिः प्राप्तव्यमित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमेश्वर, राजन्, आचार्य वा ! (यत्) दृढतारूपं धनम् (वीडौ) दृढे लोहपाषाणहीरकादौ, (यत्) स्थिरतारूपं धनम् (स्थिरे) अविचले सूर्यपर्वतादौ, (यत्) परोपकाररूपं धनम् (पर्शाने२) सेचके मेघे। पृषु सेचने धातोः शानच्। मूर्धन्यस्य तालव्यादेशश्छान्दसः। पर्शान इति मेघनाम। निघं० १।१०। (पराभृतम्) निहितं वर्तते, (तत् स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) धनम्, अस्मभ्यम् (आभर) आहर ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - दृढतारूपेण गुणेनैव लोहपाषाणहीरकादयः पदार्थाः कीर्तिमन्तः सन्ति। स्थिरतारूपेण गुणेनैव सूर्यपर्वतादयो गर्वोन्नता विद्यन्ते। सेचनवर्षणरूपेण गुणेनैव मेघाः सर्वैः संस्तूयन्ते। स दृढतारूपः, स्थिरतारूपः, सेचनवर्षणरूपश्च गुणोऽस्माभिरपि प्राप्तव्यः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४५।४१, साम० १०७२, अथ० २०।४३।२। २. पर्शाने कूपादौ—इति वि०। निश्चले—इति भ०। विमर्शक्षमे—इति सा०।
14_0207 यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०७-१। तौभम्॥ तुभो गायत्रीन्द्रः॥
औ꣢꣯हो꣯वा꣯औ꣯हो꣣ऽ२३४वा꣥। ओऽ६हा꣥। य꣢द्वी꣯डा꣯वीऽ३न्द्रा꣤ऽ३य꣢त्स्थि꣣रा꣥इ॥ औ꣢꣯हो꣯वा꣯औ꣯हो꣣ऽ२३४वा꣥। ओऽ६हा꣥। य꣢त्पर्शा꣯नेऽ३पा꣤ऽ३रा꣢꣯भृ꣣त꣥म्॥ औ꣢꣯हो꣯वा꣯औ꣯हो꣣ऽ२३४वा꣥। ओऽ६हा꣥। व꣢सुस्पा꣯र्हाऽ३न्ता꣤ऽ३दा꣢꣯भ꣣र꣥॥ औ꣢꣯हो꣯वा꣯औ꣯हो꣣ऽ२३४वा꣥। ओऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
श्रु꣣तं꣡ वो꣢ वृत्र꣣ह꣡न्त꣢मं꣣ प्र꣡ शर्धं꣢꣯ चर्षणी꣣ना꣢म्। आ꣣शि꣢षे꣣ रा꣡ध꣢से म꣣हे꣢ ॥ 15:0208 ॥
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श्रु॒तं वो॑ वृत्र॒हन्त॑मं॒ प्र शर्धं॑ चर्षणी॒नाम् ।
आ शु॑षे॒ राध॑से म॒हे ॥
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पदपाठः
श्रु꣣त꣢म्। वः꣣। वृत्रह꣡न्त꣢मम्। वृ꣣त्र। ह꣡न्त꣢꣯मम्। प्र। श꣡र्ध꣢꣯म्। च꣣र्षणीना꣢म्। आ꣣शि꣡षे꣣। आ꣣। शि꣡षे꣢꣯। रा꣡ध꣢꣯से। म꣣हे꣢। २०८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्ष आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम कैसे इन्द्र की किस प्रयोजन के लिए स्तुति करें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मित्रो ! (श्रुतम्) सर्वत्र प्रख्यात, (वः) तुम्हारे (वृत्रहन्तमम्) पाप, विघ्न, अविद्या आदि को अतिशय विनष्ट करनेवाले, (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (प्र शर्धम्) अतिशय बल एवं उत्साह के प्रदाता परमेश्वर, राजा या आचार्य की (राधसे) ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए व कार्यसिद्धि के लिए, और (महे) महत्ता तथा पूज्यता की प्राप्ति के लिए, मैं (आशिषे) स्तुति करता हूँ ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो मनुष्य जगदीश्वर, राजा व आचार्य को उनके गुण-कर्मों का वर्णन करते हुए स्मरण करते हैं और उनकी सेवा करते हैं, वे अविद्या, पाप, विघ्न, विपत्ति आदि को पार करके सब कल्याणों के भाजन बनते हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वयं कीदृशम् इन्द्रं कस्मै प्रयोजनाय स्तुवीमहीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे सखायः ! (श्रुतम्) सर्वत्र प्रख्यातम् (वः) युष्माकम् (वृत्रहन्तमम्) वृत्राणां पापविघ्नाविद्यादोनाम् अतिशयेन हन्तारम्, (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्। चर्षणय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (प्र शर्धम्) प्रकर्षेण बलोत्साहप्रदम्, इन्द्रं परमात्मानं राजानम् आचार्यं वा। शर्धति उत्साहयतीति शर्धस्तम्। शर्धतिः उत्साहकर्मा। निरु० ४।१९। (राधसे) ऐश्वर्याय कार्यसिद्ध्यर्थ वा। राधस् इति धननाम। निघं० २।१०। संसिद्ध्यर्थकाद् राध धातोर्निष्पन्नत्वात् कार्यसिद्धिवाचकमपि। (महे) महत्त्वपूज्यत्वप्राप्तये च। महि वृद्धौ, मह पूजायाम् वा धातोर्भावे क्विप्। अहम् (आशिषे२) स्तौमि। शिष असर्वोपयोगे, शिष्लृ विशेषणे वा धातोर्लडर्थे लिटि उत्तमैकवचने रूपम्। अत्र स्तुत्यर्थो ज्ञेयः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये जना जगदीश्वरं नृपतिमाचार्यं वा तत्तद्गुणकर्मवर्णनपूर्वकं स्मरन्ति सेवन्ते च तेऽविद्यापापविघ्नविपदादिभ्यः पारं गत्वा सर्वश्रेयोभागिनो जायन्ते ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।१६, आशुषे इति पाठः। २. आशिषे अधिगच्छामि प्रार्थये इत्यर्थः—इति वि०। आशिषे इति श्वयतेरर्थनाकर्मणः शवतेः श्रयतेः वा लटि रूपम्, अभिगच्छामि—इति भ०। अश्नोतेर्लेटि उत्तमे इटि सिप् प्रत्ययः। छन्दस्यपि दृश्यते पा० ६।४।७३ इत्याडागमः—इति सा०।
15_0208 श्रुतं वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०८-१। श्रौतम्॥ श्रुतो गायत्रीन्द्रः॥श्रु꣥ता꣤म्॥ वो꣡꣯वृत्रहन्तमम्। प्रशर्द्धञ्चर्ष꣢णा꣡ऽ२३इना꣢म्॥ आ꣯शा꣡इषाऽ२३-इरा꣢॥ ध꣣से꣯म꣢हा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥