[[अथ पञ्चमप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢। तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥ 17:0161 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि त्वा॑ वृषभा सु॒ते सु॒तं सृ॑जामि पी॒तये॑ ।
तृ॒म्पा व्य॑श्नुही॒ मद॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣भि꣢। त्वा꣣। वृषभ। सुते꣢। सु꣣त꣢म्। सृ꣣जामि। पीत꣡ये꣢। तृ꣣म्प꣢। वि। अ꣣श्नुहि। म꣡द꣢꣯म्। १६१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- त्रिशोकः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य को सम्बोधन कर कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मा के पक्ष में। हे (वृषभ) सुखशान्ति की वर्षा करनेवाले परमात्मन् ! (सुते) इस उपासना-यज्ञ में (पीतये) आपके पीने अर्थात् स्वीकार करने के लिए (सुतम्) निष्पादित भक्तिरस को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) समर्पित करता हूँ, आप इससे (तृम्प) तृप्त हों। अपने भक्त को अपने प्रेम में डूबे हुए हृदयवाला देखकर (मदम्) आनन्द को (वि अश्नुहि) प्राप्त करें, जैसे पिता पुत्र को अपने प्रति श्रद्धालु देखकर प्रमुदित होता है ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। गुरुकुल में अपने बालक को आचार्य के हाथों में सौंपते हुए पिता कह रहा है—हे (वृषभ) ज्ञान-वर्षक आचार्यप्रवर ! (सुते) इस अध्ययन-अध्यापन रूप सत्र के प्रवृत्त होने पर (पीतये) विद्यारस के पान के लिए (सुतम्) अपने पुत्र को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) छोड़ता हूँ अर्थात् आपके अधीन करता हूँ। आगे पुत्र को कहता है—हे पुत्र ! तू आचार्य के अधीन रहकर (तृम्प) ज्ञानरस से तृप्तिलाभ कर, (मदम्) आनन्दप्रद सदाचार को भी (वि अश्नुहि) प्राप्त कर, इस प्रकार आचार्य से विद्या की शिक्षा और व्रतपालन की शिक्षा ग्रहण करके विद्यास्नातक और व्रतस्नातक बन ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष और ‘सुते-सुतं’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे परमेश्वर भूमि पर मेघ-जल और उपासकों के हृदय में सुख-शान्ति की वर्षा करता है, वैसे ही आचार्य शिष्य के हृदय में विद्या और सदाचार को बरसाता है। अतः सबको परमेश्वर की उपासना और आचार्य की सेवा करनी चाहिए ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानमाचार्यञ्च सम्बोध्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (वृषभ) सुखशान्तिवर्षणशील परमात्मन् ! (सुते) प्रवृत्तेऽस्मिन्नुपासनायज्ञे (पीतये) त्वत्पानाय (सुतम्) अभिषुतं भक्तिरसम् (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (सृजामि) समर्पयामि। त्वमेतेन (तृम्प) तृप्तिं लभस्व। तृम्प तृप्तौ। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। त्वद्भक्तं त्वत्प्रेमपरिप्लुतहृदयं वीक्ष्य (मदम्) आनन्दम् (वि अश्नुहि) प्राप्नुहि। यथा पिता पुत्रं स्वं प्रति श्रद्धालुं वीक्ष्य प्रमोदते तद्वदित्याशयः। संहितायां वृषभा इत्यत्र व्यश्नुही इत्यत्र च अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। गुरुकुले बालकम् आचार्यहस्तयोः समर्पयन् पिता (ब्रूते)—हे (वृषभ) ज्ञानवर्षक आचार्य ! (सुते) प्रवृत्तेऽस्मिन् अध्ययनाध्यापनसत्रे (पीतये) विद्यारसस्य पानाय (सुतम्) स्वकीयं पुत्रम् (त्वा अभि) त्वां प्रति (सृजामि) विसृजामि, त्वदधीनं करोमीत्यर्थः। अथ बालकं प्रत्याह—हे सुत ! त्वम् आचार्याधीनो भूत्वा (तृम्प) ज्ञानरसपानेन तृप्तिं लभस्व, (मदम्) आनन्दप्रदं सदाचारं चापि (वि अश्नुहि) प्राप्नुहि। आचार्यस्य सकाशाद् विद्याशिक्षां व्रतशिक्षां च गृहीत्वा विद्यास्नातको व्रतस्नातकश्च भवेत्यर्थः ॥७॥ अत्र श्लेषः, सुते-सुतं इत्यत्र च छेकानुप्रासोऽलङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरः पृथिव्यां मेघजलमुपासकानां हृदये च सुखशान्तिं वर्षति, तथैवाचार्यः शिष्यस्य हृदये विद्यां सदाचारं च वर्षति। अतः सर्वे परमेश्वरस्योपासनामाचार्यस्य सेवां च कुर्वन्तु ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।४५।२२, अथ० २०।२२।१, साम० ७३१।
17_0161 अभि त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६१-१। आर्षभानि सैन्धुक्षितानि वा वाध्र्यश्वानि वा त्रीणि॥ त्रयाणामृषभो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥भि꣤त्वा꣥꣯वृषभा꣯सुता꣤इ॥ सू꣡तꣳसृ꣢जा꣯। मिपा꣡इता꣢ऽ१याऽ᳒२᳒इ॥ तृम्पा꣡वा꣢ऽ१याऽ२꣮॥ श्नुहाऽ३१उवाये꣢ऽ३॥ माऽ२३४दा꣥म्॥
17_0161 अभि त्वा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६१-२।
अ꣥भित्वा꣯वृषभा꣯सुते꣯अभ्या꣯हाउ॥ त्वा꣢꣯वृऽ३षा꣡भा꣢ऽ१सूताऽ᳒२᳒इ। सू꣡तꣳसृ꣢जा꣯। मिपा꣡इता꣢ऽ१याऽ२᳐इ॥ तृ꣣म्पा꣢ऽ३हो꣡इ। वि꣣या꣢ऽ३हो꣡॥ श्नु꣢ही꣡꣯माऽ२३दा꣢ऽ३४३म्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
17_0161 अभि त्वा - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६१-३।अ꣥भि꣤त्वा꣥꣯वृषभा꣯सुते꣤꣯। सु꣥तꣳसृजो꣤वा꣥॥ मि꣢पी꣯ता꣡याऽ᳒२᳒इ। सुतꣳ꣡सृजा꣢꣯मि। पी꣡꣯ताऽ२३या꣢इ॥ त्रा꣡ऽ२३म्पा꣢ऽ३॥ वा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ श्नु꣢ही꣯म꣡दा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣡ इ꣢न्द्र चम꣣से꣡ष्वा सोम꣢꣯श्च꣣मू꣡षु꣢ ते सु꣣तः꣢। पि꣢बेद꣢꣯स्य꣣ त्व꣡मी꣢शिषे ॥ 18:0162 ॥
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य इ॑न्द्र चम॒सेष्वा सोम॑श्च॒मूषु॑ ते सु॒तः ।
पिबेद॑स्य॒ त्वमी॑शिषे ॥
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पदपाठः
यः꣢। इ꣢न्द्र। चमसे꣡षु꣢। आ। सो꣡मः꣢꣯। च꣣मू꣡षु꣢। ते꣣। सुतः꣢। पि꣡ब꣢꣯। इत्। अ꣣स्य। त्व꣢म्। ई꣣शिषे। १६२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कुसीदी काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा और राजा को कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा और जीवात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुःखविदारक, सुखप्रदाता परमात्मन् अथवा शक्तिशाली जीवात्मन् ! (यः) जो यह (सोमः) भक्तिरस अथवा ज्ञानरस और कर्मरस (चमसेषु) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूप चमसपात्रों में, और (चमूषु) प्राण-मन-बुद्धिरूप अधिषवणफलकों में (आ सुतः) चारों ओर से अभिषुत किया हुआ तैयार है, (तम्) उसे (पिब इत्) अवश्य पान कर, (अस्य) इस भक्तिरस का और इस ज्ञान एवं कर्म के रस का हे परमात्मन् और हे जीवात्मन् ! (त्वम्) तू (ईशिषे) अधीश्वर है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रु को दलन करने में समर्थ पराक्रमशाली राजन् ! (यः) जो यह (ते) आपके (चमसेषु) मेघों के समान ज्ञान की वर्षा करनेवाले ब्राह्मणों में, और (चमूषु) आपकी क्षत्रिय सेनाओं में (सोमः) क्रमशः ब्रह्मरूप और क्षत्ररूप सोमरस (आ सुतः) अभिषुत है, उसका (पिब इत्) अवश्य पान कीजिए अर्थात् आप भी ब्रह्मबल और क्षत्रबल से युक्त होइए। (अस्य) इस ब्रह्मक्षत्ररूप सोम के (त्वम्) आप (ईशिषे) अधीश्वर हो जाइए ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा स्तोताओं के भक्तिरूप सोमरूप को, जीवात्मा ज्ञान और कर्मरूप सोमरस को तथा राजा ब्रह्म-क्षत्र-रूप सोम-रस को यदि ग्रहण कर लें, तो स्तोताओं, जीवों और राष्ट्रों का बड़ा कल्याण हो सकता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा जीवात्मा राजा वा प्रोच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मजीवात्मपरः। हे (इन्द्रः) दुःखविदारक सुखप्रदातः परमात्मन्, शक्तिशालिन् जीवात्मन् वा ! (यः) योऽयं पुरतः उपस्थितः (सोमः) भक्तिरसो ज्ञानकर्मरसो वा (चमसेषु) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपेषु चमसपात्रेषु, (चमूषु) प्राणमनोबुद्धिरूपेषु अधिषवणफलकेषु च (आ सुतः) मया आ समन्तात् अभिषुतोऽस्ति, तम् (पिब इत्) अवश्यमास्वादय। (अस्य) भक्तिरसरूपस्य ज्ञानकर्मरूपस्य च सोमस्य (त्वम् ईशिषे) अधीश्वरोऽसि। अत्र अधीगर्थदयेषां कर्मणि अ० २।३।५२ इति कर्मणि षष्ठी ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (इन्द्र) शत्रुदलनसमर्थ पराक्रमशालिन् राजन् ! (यः) योऽयम् (ते) तव (चमसेषु) मेघेषु, मेघवत् ज्ञानवर्षकेषु ब्राह्मणेषु। चमस इति मेघनाम। निघं० १।१०। (चमूषु) क्षत्रियसेनासु च (सोमः) क्रमशो ब्रह्मबलरूपः क्षत्रबलरूपश्च सोमरसः। सोमो वै ब्राह्मणः। तां० ब्रा० २३।१६।५, क्षत्रं सोमः। ऐ० ब्रा० २।३८। (आसुतः) अभिषुतोऽस्ति, तम् (पिब इत्) स्वाभ्यन्तरेऽपि अवश्यं गृहाण, त्वं स्वयमपि ब्रह्मक्षत्रबलयुक्तो भवेत्यर्थः। (अस्य) ब्रह्मक्षत्ररूपस्य सोमस्य (त्वम् ईशिषे) अधीश्वरो भव ॥८॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा स्तोतॄणां भक्तिरूपं, जीवात्मा ज्ञानकर्मरूपं, राजा च ब्रह्मक्षत्ररूपं सोमरसं यदि गृह्णीयात्, तदा स्तोतॄणां जीवानां राष्ट्राणां च महत् कल्याणं जायेत ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।८२।७।
18_0162 य इन्द्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६२-१। कौत्से पाञ्चवाजे वा दाशवाजे वा द्वे, ऐडं कौत्सम्॥ द्वयोः कुत्सो गायत्रीन्द्रः॥
या꣣ही꣢न्द्रा꣡ऽ२३। च꣤म꣥से꣤꣯षुवा꣯ईया꣥॥ सो꣡꣯मश्च꣢मू꣡꣯षुते꣢꣯सुतः꣡। सोमश्च꣢मू꣯। षुता꣡इसूऽ२३ताः꣢॥ पा꣡इबे꣢ऽ३द्धा꣢इ। आ꣡स्या꣢ऽ३हा꣢इ॥ त्वमी꣡꣯शाऽ२३इषा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
18_0162 य इन्द्र - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६२-२।
य꣥इन्द्रचा꣯माऽ६से꣥꣯षुवा॥ सो꣡꣯मश्चमू꣯षुता꣢ऽ१इसू꣢ऽ३ताः꣢। सो꣯मश्चमूऽ३। षू꣢ऽ३ता꣡इसू꣢ऽ३ताः꣢॥ आ꣡ऽ२꣮इ। पिबे꣯दस्यो꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ त्व꣣मा꣢ऽ३इशा꣤ऽ५"इषाऽ६५६इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो꣡गे꣢योगे त꣣व꣡स्त꣢रं꣣ वा꣡जे꣢वाजे हवामहे। स꣡खा꣢य꣣ इ꣡न्द्र꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥ 19:0163 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
(रथादि)योगे॑योगे त॒वस्(=गति[वत्])त॑र॒व्ँ
वाजे॑वाजे हवामहे ।
(वयं स्तोतृत्वेन) सखा॑य॒(ः) इन्द्र॑म् ऊ॒तये᳚ ।(५)
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पदपाठः
यो꣡गे꣢꣯योगे। यो꣡गे꣢꣯। यो꣣गे। तव꣡स्त꣢रम्। वा꣡जे꣢꣯वाजे। वा꣡जे꣢꣯। वा꣣जे। हवामहे। स꣡खा꣢꣯यः। स। खा꣣यः। इ꣡न्द्र꣢म्। ऊ꣣त꣡ये꣢। १६३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनः शेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में आत्मरक्षा के लिए इन्द्र को पुकारा जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (योगे योगे) योग को विभिन्न स्तरों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, सविकल्पक-निर्विकल्पक समाधि में (तवस्तरम्) क्रमशः बढ़नेवाले, योग-विघ्नों को नष्ट करनेवाले तथा साधक की उन्नति करनेवाले (इन्द्रम्) सिद्धिप्रदायक परमेश्वर को (सखायः) हम साथी योगी-जन (वाजे वाजे) प्रत्येक आन्तरिक देवासुर-संग्राम में (ऊतये) रक्षा वा विजय-प्राप्ति के लिए (हवामहे) पुकारें ॥ द्वितीय—सेनाध्यक्ष के पक्ष में। (योगे योगे) राष्ट्र के प्रत्येक अप्राप्त की प्राप्तिरूप उत्कर्ष के निमित्त (तवस्तरम्) अतिशय क्रियाशील, बलवृद्ध, विघ्नविनाशक (इन्द्रम्) दुष्ट शत्रुओं के विदारक, विजय-प्रद, धार्मिक, वीर सेनाध्यक्ष को (सखायः) परस्पर सखिभाव से निवास करते हुए हम प्रजाजन (वाजे वाजे) प्रत्येक युद्ध में (ऊतये) रक्षा और विजय की प्राप्ति के लिए (हवामहे) पुकारें, उद्बोधन दें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘योगे योगे, वाजे वाजे’ इस आवृत्ति में छेकानुप्रास है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - योगाभ्यास करते हुए मनुष्य के सम्मुख व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि बहुत से विघ्न आते हैं। ईश्वरप्रणिधान या प्रणवजप से वे हटाये जा सकते हैं। इसलिए जब-जब हमारे अन्तःकरण में देवासुर-संघर्ष प्रवृत्त होता है, तब-तब हम विघ्नों को पराजित करने और योगसिद्धि को प्राप्त करने के लिए बलवृद्ध परमेश्वर को पुकारते हैं। इसी प्रकार राष्ट्र में भी जब-जब शत्रुओं का आक्रमण होता है तब-तब उन्हें जीतने के लिए और राष्ट्र की रक्षा के लिए हम शूरवीर सेनापति को उद्बोधन दें, जिससे राष्ट्र शत्रुरहित और उन्नतिशील हो ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्वात्मरक्षणायेन्द्र आहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (योगेयोगे) योगस्य विभिन्नस्तरेषु यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसविकल्पक-निर्विकल्पकसमाधिषु (तवस्तरम्) तौति वर्द्धते, हिनस्ति विघ्नान्, तावयति वर्द्धयति च साधकं यः स तवाः, अतिशयेन तवाः तवस्तरः तम्। तु गतिवृद्धिहिंसासु सौत्रो धातुः। सर्वधातुभ्योऽसुन् उ० ४।१९० इत्यसुन्। ततोऽतिशायने तरप्। (इन्द्रम्) सिद्धिप्रदं परमेश्वरम् (सखायः) सुहृदो वयम् (वाजे वाजे) सर्वस्मिन्नान्तरिके देवासुरसंग्रामे। वाज इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। (ऊतये) रक्षायै विजयप्राप्तये वा (हवामहे) आह्वयेम। अत्र ह्वेञ् धातोर्लेटि लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्याडागमे कृते बहुलं छन्दसि अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणम् ॥ अथ द्वितीयः—सेनाध्यक्षपरः। (योगेयोगे) अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगस्तस्मिन्, योगे योगे प्रतिराष्ट्रोत्कर्षनिमित्तम् (तवस्तरम्) अतिशयेन गतिमन्तं क्रियाशीलं बलवृद्धं विघ्नविनाशकं च (इन्द्रम्) दुष्टशत्रुविदारकं विजयप्रदं धार्मिकं वीरं सेनाध्यक्षम् (सखायः) परस्परं सखिभावेन निवसन्तः प्रजाजनाः वयम् (वाजे वाजे) युद्धे युद्धे (ऊतये) रक्षणाय विजयप्राप्तये वा (हवामहे) आह्वयेम, उद्बोधयेम ॥९॥२ अत्र श्लेषालंकारः। योगे योगे, वाजे वाजे इत्यावृत्तौ च छेकानुप्रासः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - योगमभ्यस्यतो जनस्य पुरतो व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादयो बहवो विघ्ना उपतिष्ठन्ति। ईश्वरप्रणिधानेन प्रणवजपेन वा ते निवारयितुं शक्यन्ते३। अतो यदा यदाऽस्माकमन्तःकरणे देवासुरसंघर्षः प्रवर्तते तदा तदा वयं विघ्नान् पराजेतुं योगसिद्धिं च प्राप्तुं बलवृद्धं परमेश्वरमाह्वयामः। तथैव राष्ट्रेऽपि यदा यदा शत्रूणामाक्रमणं जायते तदा तदा तेषां विजयाय राष्ट्रस्य च वयं शूरं सेनापतिमुद्बोधयामो येन राष्ट्रं निःसपत्नमुत्कर्षारूढं च भवेत् ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३०।७, य० ११।१४, अथ० २०।२६।१, साम० ७४३। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमात्मपक्षे सेनाध्यक्षपक्षे च यजुर्भाष्ये च राजपक्षे व्याख्यातवान्। ३. द्रष्टव्यम्—योग० १।२७-३२।
19_0163 योगेयोगे तवस्तरम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६३-१। सौमेधानि पूर्वतिथानि वा पौर्वातिथानि वा त्रीणि॥ त्रयाणां सुमेधा गायत्रीन्द्रः॥
यो꣤꣯गे꣥꣯यो꣯गे꣯तव꣤स्त꣥रा꣤म्॥ वा꣡꣯जे꣯वा꣢꣯जे꣯हवा꣯महे꣯॥ सखा꣡꣯याऽ२३ई꣢ऽ३॥ द्र꣢मू꣡ऽ२३४वा꣥। ता꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥
19_0163 योगेयोगे तवस्तरम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६३-२।
यो꣥꣯गे꣯यो꣯गे꣯तवस्ताऽ६रा꣥म्॥ वा꣡꣯जे꣰꣯ऽ२वा꣡꣯जे꣰꣯ऽ२ह꣡वा꣰꣯ऽ२महेऽ३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ॥ सा꣡खाऽ᳒२᳒या꣡ईऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ। द्रमू꣡ऽ२३। ता꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
19_0163 योगेयोगे तवस्तरम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६३-३। सौमेधम्॥यो꣥꣯गे꣯यो꣯गे꣯तवा꣯हा꣯उस्ता꣤रा꣥म्॥ वा꣡जे꣯वा꣢꣯जे꣯। हवाऽ᳒२᳒मा꣡हाइ। हूवाइ। औ꣢ऽ३होऽ२३४वा꣥। सा꣡खा꣢꣯यइ꣡। द्रमूऽ᳒२᳒ता꣡याइ। हूवाइ। औ꣢ऽ३होऽ२३४वा꣥॥ स꣣खा꣯य꣢आ꣡॥ हूवाऽ᳒२᳒इ। औ꣭ऽ३होऽ२३४५वाऽ६५६॥ द्र꣢मूऽ३त꣡येऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢꣫ त्वेता꣣ नि꣡ षी꣢द꣣ते꣡न्द्र꣢म꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯यत। स꣡खा꣢यः꣣ स्तो꣡म꣢वाहसः ॥ 20:0164 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ त्वेता॒ नि षी॑द॒तेन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत ।
सखा॑यः॒ स्तोम॑वाहसः ॥
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पदपाठः
आ꣢। तु। आ। इ꣣त। नि꣢। सी꣣दत। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣भि꣢। प्र। गा꣣यत। स꣡खा꣢꣯यः। स। खा꣣यः। स्तो꣡म꣢꣯वाहसः। स्तो꣡म꣢꣯। वा꣣हसः। १६४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में स्तुतिगीत गाने के लिए सखाओं को निमन्त्रित किया गया है ॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (स्तोमवाहसः) उपास्य के प्रति स्तोत्रों को ले जानेवाले अथवा जनता का नेतृत्व करनेवाले (सखायः) मित्रो ! तुम (तु) शीघ्र ही (आ इत) आओ, (आ निषीदत) आकर उपासना के लिए अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए बैठो, (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान्, दुःखविदारक, सुखप्रद परमात्मा को और राष्ट्र को (अभि) लक्ष्य करके (प्र गायत) गीत गाओ ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सबको उपासनागृह में एकत्र होकर दुःखभंजक, सुखोत्पादक इन्द्र परमेश्वर के प्रति सामगीत गाने चाहिएँ और राष्ट्रोत्थान के लिए कृतसंकल्प होकर तथा कमर कसकर राष्ट्रगीत गाने चाहिएँ ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र नाम से परमात्मा के गुणवर्णनपूर्वक उसके प्रति स्तुतिगीत गाने के लिए और उसे भक्तिरस एवं कर्मरस रूप सोम अर्पित करने के लिए प्रेरणा होने से तथा उपासकों द्वारा उसका आह्वान होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥१०॥ द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की द्वितीय—दशति समाप्त ॥ द्वितीय—अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्तुतिगीतानि गातुं सखायो निमन्त्र्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (स्तोमवाहसः) स्तोमान् स्तोत्राणि वहन्ति उपास्यं प्रति नयन्ति, यद्वा स्तोमं जनसमूहं नयन्ति नेतृत्वेन उत्कर्षं प्रापयन्ति ते। स्तोमपूर्वाद् वह प्रापणे धातोः कर्मण्यण्। जसि आज्जसेरसुक् अ० ७।१।५० इत्यसुगागमः। (सखायः) सुहृदः ! यूयम् (तु२) क्षिप्रम् (आ३ इत) आगच्छत। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (आ निषीदत४) आगत्य च उपासनाकर्मणि राष्ट्रोत्थानकर्मणि वा उपविशत, (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं दुःखविदारकं सुखप्रदं परमात्मानं राष्ट्रं वा (अभि) अभिलक्ष्य (प्रगायत) प्रकृष्टतये गीतानि गायत ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - प्रजाजनैरुपासनागृहे समवेतैर्भूत्वा दुःखभञ्जकं सुखोत्पादकमिन्द्रं परमेश्वरं प्रति सामगीतानि गेयानि, राष्ट्रोत्थानाय च कृतसंकल्पैर्बद्धपरिकरैश्च भूत्वा राष्ट्रगीतानि गातव्यानि ॥१०॥ अत्रेन्द्रनाम्ना परमात्मगुणवर्णनपूर्वकं तं प्रति स्तुतिगीतानि गातुं भक्तिकर्मरसरूपं सोममर्पयितुं च प्रेरणात्, उपासकैश्च तस्याह्वानादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥१०॥ इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे द्वितीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये पञ्चमः खण्डः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।५।१, अथ० २०।६८।११, साम० ७४०। २, ३. आ तु इति पादपूरणौ—इति वि०। तु क्षिप्रम्—इति भ०। तु शब्दः क्षिप्रार्थो निपातः—इति सा०। उपसर्गाभ्यां च आख्यातावृत्तिं सूचयति। हे प्रस्तोत्रादयः आगच्छत, आगच्छत इति प्रत्येकं स्तोतॄनाह्वयति—इति भ०। आ तु आ इत इति द्वाभ्याम् आङ्भ्यां मन्त्रे तु इत शब्दोऽभ्यसनीयः—इति सा०। ४. सर्वे यूयं मिलित्वा परस्परं प्रीत्या मोक्षशिल्पविद्यासम्पादनोद्योगे आ निषीदत। इति ऋ० १।५।१ भाष्ये द०।
20_0164 आ त्वेता - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६४-१। दैवातिथं मैधातिथं वा॥ देवतिथिर्गायत्रीन्द्रः॥
आ꣣꣯तू꣢ऽ३४। ए꣯ता꣯नि। षी꣥꣯दाऽ६ता꣥॥ इ꣢न्द्रम꣡भाइ। प्र꣢गा꣯य꣡ता। साखा꣢꣯यस्तो꣡꣯म। वा। औ꣢ऽ३हो꣢। व꣡वाऽ२᳐हा꣣ऽ२३४साः꣥॥ ह꣢या꣡इ। साखा꣢꣯यस्तो꣡꣯म। वा। औ꣢ऽ३हो꣢॥ हि꣡म्माऽ२३। हा꣢ऽ३४५सोऽ६"हा꣥इ॥
[[अथ षष्ठ खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣द꣡ꣳ ह्यन्वोज꣢꣯सा सु꣣त꣡ꣳ रा꣢धानां पते। पि꣢बा꣣ त्वा꣣ऽ३स्य꣡ गि꣢र्वणः ॥ 21:0165 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दं ह्यन्वोज॑सा सु॒तं रा॑धानां पते ।
पिबा॒ त्व१॒॑स्य गि॑र्वणः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣣द꣢म्। हि। अ꣡नु꣢꣯। ओ꣡ज꣢꣯सा। सु꣣त꣢म्। रा꣣धानाम्। पते। पि꣡ब꣢꣯। तु। अ꣣स्य꣢। गि꣢र्वणः। गिः। वनः। । १६५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- विश्वामित्रो गाथिनः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथमः—मन्त्र में इन्द्र से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (राधानां पते) आध्यात्मिक तथा भौतिक धनों के स्वामी परमात्मन् ! (इदं हि) यह भक्ति और कर्म का सोमरस (ओजसा) सम्पूर्ण बल और वेग के साथ (अनुसुतम्) हमने अनुक्रम से अभिषुत किया है। हे (गिर्वणः) वाणियों द्वारा संभजनीय और याचनीय देव ! आप (तु) शीघ्र ही (अस्य) इस मेरे भक्तिरस को और कर्मरस को (पिब) स्वीकार करें ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमेश्वर ! आप आध्यात्मिक और भौतिक सकल ऋद्धि-सिद्धियों के परम अधिपति हैं। आपके पास किसी वस्तु की कमी नहीं है, तो भी हमारे प्रति प्रेमाधिक्य के कारण ही आप हमारे प्रेमोपहार को स्वीकार करते हैं। हे देव ! आपके लिए हमने सम्पूर्ण बल के साथ भक्तिरस और कर्मरस तैयार किया है। उसे स्वीकार कर हमें अनुगृहीत कीजिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (राधानां पते) आध्यात्मिकानां भौतिकानां च धनानां स्वामिन् इन्द्र परमात्मन् ! राधः इति धननाम। निघं० २।१०। अयं शब्दः सकारान्तोऽकारान्तश्चोभयथापि वेदे प्रयुज्यते। तथापि प्रायशः सकारान्त एव। (इदं हि) एतत् किल भक्तिरसात्मकं कर्मरसात्मकं च सोमतत्त्वम् (ओजसा) सम्पूर्णबलेन सम्पूर्णवेगेन च (अनु सुतम्) अस्माभिरनुक्रमेण अभिषुतम् अस्ति। हे (गिर्वणः२) गीर्भिः संभजनीय याचनीय वा देव ! गिर्वणाः देवो भवति, गीर्भिरेनं वनयन्ति। निरु० ६।१४। गिर् पूर्वात् वन संभक्तौ, वनु याचने वा धातोरौणादिकोऽसुन्। त्वम् (तु३) क्षिप्रम् (अस्य४) इदं भक्तिकर्मरसरूपं वस्तु (पिब) स्वीकुरु। संहितायां द्व्यचोऽस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः ॥१॥५
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमेश्वर ! त्वमाध्यात्मिकीनां भौतिकीनां च सर्वासाम् ऋद्धिसिद्धीनां परमोऽधिपतिर्विद्यसे। त्वं केनापि वस्तुना न हीयसे, तथाप्यस्मान् प्रति प्रेमातिरेककारणादेव त्वस्मदीयं प्रेमोपहारं स्वीकरोषि। हे देव ! त्वत्कृतेऽस्माभिः सम्पूर्णेन बलेन भक्तिरसः कर्मरसश्च सज्जीकृतोऽस्ति। तं स्वीकृत्यास्माननुगृहाण ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ३।५१।१०, साम० ७३७। २. गिर्वणः। गिरः स्तुतयः, ताभिर्यो वन्यते सम्भज्यते स गिर्वणाः। तस्य सम्बोधनं गिर्वणः। सम्भजनीय—इति वि०। गीर्भिर्वेदानां विदुषां च वाणीभिर्वन्यते संसेव्यते यस्तत्संबुद्धौ। इति ऋ० १।१०।१२ भाष्ये, यो गीर्भिर्वन्यते याच्यते तत्संबुद्धौ इति च ऋ० ३।४१।४ भाष्ये द०। ३. तु क्षिप्रम्—इति वि०, भ०, सा०। ४. षष्ठीनिर्देशात् एकदेशमिति वाक्यशेषः—इति वि०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं राजपक्षे व्याख्यातः।
21_0165 इदं ह्यन्वोजसा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६५-१। आङ्गिरसं माधुछन्दसम् वा॥ मधुछन्दा वर्धमाना गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥दाऽ६मे꣥॥ हि꣢यऽ३नू꣡ओ꣢ऽ१जासाऽ᳒२᳒। सू꣡तꣳ꣢रा꣡धा꣢। ना꣡म्पा꣢ऽ१ताऽ᳒२᳒इ। पि꣡बा꣯तुवस्यागि꣪र्वाणाऽ२३४ः॥ पि꣣बा꣢ऽ३४तु꣣वा꣢ऽ३॥ स्या꣡ऽ२᳐गा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वा꣣ऽ२३४णाः꣥॥
21_0165 इदं ह्यन्वोजसा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६५-२। (आङ्गिरसं) क्रौञ्चम् वा॥ क्रौञ्चो वर्धमाना गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥दꣳहियाऽ४औहो꣥॥ नू꣭ऽ३ओ꣢जा꣣ऽ२३४सा꣥। सू꣡तꣳ꣢रा꣡धा꣢। ना꣭ऽ᳐३२म्। पा꣣ऽ२३४ता꣥इ॥ पि꣡बा꣯तुवस्याऽ२३। ग꣤। वाहा꣥इ॥ वा꣡ऽ२३४णाः। ए꣥꣯हियाऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
21_0165 इदं ह्यन्वोजसा - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६५-३। आङ्गिरसं घृतश्चुन्निधनं प्राजापत्यं माधुश्चन्दसं वा॥प्रजापतिर्वर्धमाना गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥दꣳह्यनूऽ६ओ꣥꣯जसा॥ सु꣢तꣳ꣡राधा꣢। ना꣡म्पातौ꣢꣯। हो꣯वाऽ३हा꣢इ। पिबा꣡तुव꣢। स्यगा꣡इर्वाणौ꣢꣯। हो꣯वाऽ३हा꣢इ॥ पिबा꣡तुवौ꣢꣯। हो꣯वाऽ३हा꣢॥ स्यगा꣡ये꣢ऽ३ः। वा꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ घृ꣢तश्चु꣡ता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
म꣣हा꣡ꣳ इन्द्रः꣢꣯ पु꣣र꣡श्च꣢ नो महि꣣त्व꣡म꣢स्तु व꣣ज्रि꣡णे꣢। द्यौ꣡र्न प्र꣢꣯थि꣣ना꣡ शवः꣢꣯ ॥ 22:0166 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑ ।
द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
म꣣हा꣢न्। इ꣡न्द्रः꣢꣯। पु꣣रः꣢। च꣣। नः। महित्व꣢म्। अ꣣स्तु। वज्रि꣡णे꣢। द्यौः। न। प्र꣣थिना꣢। श꣡वः꣢꣯। १६६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा के महत्त्व का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, दुःखविदारक सुखशान्तिप्रदाता परमेश्वर वा राजा (महान्) अतिशय महान् है, (च) और वह (नः) हमारे (पुरः) समक्ष ही है। (वज्रिणे) उस न्यायदण्डधारी का (महित्वम्) महिमागान, जयजयकार (अस्तु) हो। (शवः) उसका बल (प्रथिना) विस्तार में (द्यौः न) विस्तीर्ण सूर्यप्रकाश के समान है ॥२॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - न्यायकारी, परमबली परमेश्वर और राजा का यशोगान करके स्वयं भी सबको न्यायकारी और बलवान् बनना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मनो नृपतेश्च महत्त्वं वर्ण्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, दुःखदारकः, सुखशान्तिप्रदायकः परमेश्वरो नृपतिर्वा (महान्) अतिशयमहिमोपेतो वर्तते, (नः) अस्माकम् (पुरः च) समक्षमेव च विद्यते। (वज्रिणे) न्यायदण्डधराय तस्मै (महित्वम्) महिमगानम्, जयजयकारः। मह्यते पूज्यते सर्वैर्जनैरिति महिः। मह पूजायाम् औणादिकः इन् प्रत्ययः। तस्य भावः महित्वम्। (अस्तु) भवतु। (शवः) तस्य बलम्। शव इति बलनाम। निघं० २।९। (प्रथिना) प्रथिम्ना विस्तारेण। पृथुशब्दात् पृथ्वादिभ्य इमनिज् वा। अ० ५।१।१२२ इति इमनिच् प्रत्ययः। मकारलोपश्छान्दसः। यद्वा प्रथि शब्दस्य तृतीयैकवचने रूपम्। (द्यौः न) विशालः सूर्यप्रकाशः इव अस्ति ॥२॥२ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - न्यायकारिणः परमबलिनः परमेश्वरस्य नृपतेश्च यशोगानेन स्वयमपि न्यायकारिभिर्बलवद्भिश्च सर्वैर्भवितव्यम् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८।५, अथ० २०।७१।१। उभयत्र पुरश्च नो इत्यत्र परश्च नु इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं परमेश्वरपक्षे व्याख्यातः।
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लिखितम्
१६६-१। वाम्राणि प्रैयमेधानि वा त्रीणि॥ त्रयाणां वम्रो गायत्रीन्द्रः॥
म꣤हाꣳइ꣥न्द्राः॥ पु꣢रश्च꣡नो। मा꣢ऽ१हीऽ᳒२᳒त्वा꣡माऽ᳒२᳒। स्तुव। ज्रि꣡णाइ॥ द्यौऽ᳒२᳒र्ना꣡प्राऽ᳒२᳒॥ थिना꣡꣯शाऽ२३वा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
22_0166 महां इन्द्रः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६६-२।
म꣥हा꣯हाꣳ꣯इ꣤न्द्राः꣥॥ पू꣢ऽ३रा꣡श्चा꣢ऽ३नो꣢। म꣡हाऽ२᳐इत्वा꣣ऽ२३४मा꣥। स्तु꣢वौ꣭ऽ३हौ꣢ऽ३। ह꣤वाऽ५ज्रिणाइ। द्यौ꣡꣯र्नप्र। थि꣢ना꣡श꣪वाऽ२३ः॥ द्यौ꣡ऽ२᳐र्ना꣣ऽ२३४प्रा꣥॥ थि꣢नौ꣭ऽ३हौ꣢ऽ३। ह꣤वोवा꣥। शा꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
22_0166 महां इन्द्रः - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६६-३।
म꣤हाꣳ꣯इन्द्राऽ५ᳲपुरश्च꣤नाः॥ मा꣣हि꣢त्वा꣭ऽ३२३२३मा꣢। स्तु꣣व꣢ज्रा꣭ऽ३२३२३इणा꣢इ॥ द्यौ꣯र्ना꣭ऽ३२३२३प्रा꣢॥ थि꣣ना꣯श꣢वा꣭ऽ३२३२३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ तू न꣢꣯ इन्द्र क्षु꣣म꣡न्तं꣢ चि꣣त्रं꣢ ग्रा꣣भ꣡ꣳ सं गृ꣢꣯भाय। म꣣हाहस्ती꣡ दक्षि꣢꣯णेन ॥ 23:0167 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ तू न॑ इन्द्र क्षु॒मन्तं॑ चि॒त्रं ग्रा॒भं सं गृ॑भाय ।
म॒हा॒ह॒स्ती दक्षि॑णेन ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। तु। नः꣢। इन्द्र। क्षुम꣡न्त꣢म्। चि꣣त्र꣢म्। ग्रा꣣भ꣢म्। सम्। गृ꣣भाय। महाहस्ती꣢। म꣣हा। हस्ती꣢। द꣡क्षि꣢꣯णेन। १६७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कुसीदी काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली राजन् ! (महाहस्ती) बड़ी सूँडवाले हाथी के समान विशाल भुजावाले आप (तु) शीघ्र ही (दक्षिणेन) दाहिने हाथ से (नः) हमारे लिए अर्थात् हमें दान करने के लिए (क्षुमन्तम्) प्रशस्त अन्नों से युक्त (चित्रम्) आश्चर्यकारी (ग्राभम्) ग्राह्य धन को (आ) चारों ओर से (संगृभाय) संग्रह कीजिए ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप (तु) शीघ्र ही (नः) हमें देने के लिए (क्षुमन्तम्) भौतिक धन, अन्न आदि से युक्त (चित्रम्) अद्भुत (ग्राभम्) ग्राह्य अध्यात्मसम्पत्ति रूप धन को (संगृभाय) संगृहीत कीजिए, जैसे (महाहस्ती) विशाल भुजाओंवाला कोई मनुष्य (दक्षिणेन) अपने दाहिने हाथ से वस्तुओं का संग्रह करता है, अथवा, जैसे (महाहस्ती) प्रशस्त किरणोंवाला हिरण्यपाणि सूर्य (दक्षिणेन) अपने समृद्ध किरणजाल से भूमि पर स्थित जलों का संग्रह करता है अथवा जैसे (महाहस्ती) विशाल हाथी (दक्षिणेन) अपने बलवान् सूँड-रूप हाथ से विविध वस्तुओं का संग्रह करता है ॥३॥ इस मन्त्र श्लेषालङ्कार है। ‘महाहस्ती’ में लुप्तोपमा है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर और राजा सब प्रजाजनों को पुरुषार्थी करके प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न, विद्यावान्, धार्मिक और योगविद्या के ऐश्वर्य से युक्त करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वरो राजा च प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—राजपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् राजन् ! (महाहस्ती२) महाशुण्डो गज इव महाभुजः त्वम् (तु) क्षिप्रम् (दक्षिणेन) दक्षिणहस्तेन (नः) अस्मभ्यम् (क्षुमन्तम्३) प्रशस्तान्नयुक्तम्। क्षु इत्यन्ननाम। निघं० २।७। (चित्रम्४) अद्भुतम् (ग्राभम्५) ग्राह्यं धनम्। गृह्यते इति ग्राभः। हृग्रहोर्भश्छन्दसि इति वार्तिकेन हस्य भत्वम्। (आ) समन्तात् (सं गृभाय) सं गृहाण। ग्रह उपादाने धातोः छन्दसि शायजपि अ० ३।१।८४ इति श्नः शायजादेशः। हस्य भत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (तु) क्षिप्रमेव (नः) अस्मभ्यं दातुम् (क्षुमन्तम्) भौतिकधनान्नादियुक्तम् (चित्रम्) अद्भुतम् (ग्राभम्) ग्राह्यम् अध्यात्मसंपद्रूपं धनम् (आ) समन्तात् (संगृभाय) संगृहाण, यथा (महाहस्ती) विशालभुजः कश्चिन्मनुष्यः (दक्षिणेन) दक्षिणहस्तेन वस्तूनि संगृह्णाति। यद्वा, यथा (महाहस्ती) महनीयकिरणः हिरण्यपाणिः सविता सूर्यः (दक्षिणेन) समृद्धेन स्वकिरणजालेन भूमिष्ठानि जलानि संगृह्णाति। यद्वा, यथा (महाहस्ती) महागजः (दक्षिणेन) बलवता स्वकीयेन शुण्डादण्डेन खाद्यपेयादीनि वस्तूनि संगृह्णाति ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। महाहस्ती इति च लुप्तोपमम् ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरो राष्ट्रस्य राजा च सर्वान् प्रजाजनान् पुरुषार्थिनो विधाय प्रभूतधनधान्यसम्पन्नान् विद्यावतो धार्मिकान् योगैश्वर्ययुक्ताँश्च विदधातु ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।८१।१, साम० ७२८। २. महाहस्ती। महाँश्चासौ हस्तश्च महाहस्तः। तस्मादिदं तृतीयैकवचनम्। महता हस्तेनेत्यर्थः—इति वि०। महान् हस्तो महाहस्तः। महाहस्तवान् त्वम्—इति भ०। ३. क्षुमन्तम्। क्षु शब्दे इत्येतस्येदं रूपम्। कीर्तिमन्तम्—इति वि०। कीर्तिमन्तं कीर्तिसहितम्—इति भ०। शब्दवन्तं स्तुत्यमित्यर्थः—इति सा०। ४. (चित्रम्) चक्रवर्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादि- योगेनाद्भुतम् इति ऋ० १।९।५ भाष्ये द०। ५. ग्राभं ग्राह्यं ग्रहणयोग्यम्, अभिसंस्कारैः संस्कृतमित्यर्थः।—इति वि०। ग्राभं धनम्। गृह्यते संगृह्यते सर्वैः इति ग्राहः—इति भ०। ग्राहकं ग्रहणार्हं वा धनम्—इति सा०।
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लिखितम्
१६७-१। गौरीविते द्वे॥ द्वयोर्गौरीवितिर्गायत्रीन्द्रः॥
आ꣥꣯तू꣯नआ॥ द्र꣢क्षु꣡माऽ२३न्ता꣢म्। चा꣡इत्रंग्रा꣢꣯भा꣡ऽ२३ꣳहा꣢इ। सं꣡गृऽ᳒२᳒भा꣡या। महा꣢꣯हस्तो꣣ऽ२३४हा꣥इ। द꣡क्षाऽ᳒२᳒इणा꣡इना। महाऽ२३॥ हा꣡ऽ२᳐स्ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ द꣡क्षि꣢णेऽ३ना꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
23_0167 आ तू - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६७-२।
आ꣥꣯तू꣯नइन्द्रक्षुमा꣤न्ता꣥म्। चि꣡त्राऽ२ꣳ᳐ग्रा꣣ऽ२३४भा꣥म्। सं꣢गृभा꣣ऽ२३४या꣥॥ मा꣭ऽ३हा꣢ऽ३॥ हा꣡ऽ२᳐स्ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ द꣡क्षि꣢णे꣯ना꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
23_0167 आ तू - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६७-३। आपाले वा आकूपारे वा द्वे॥ द्वयोराकूपारो गायत्रीन्द्रः॥
आ꣤꣯तू꣯न꣥इ꣤। द्र꣥क्षुमाऽ६न्ता꣥म्॥ चि꣢त्रं꣡ग्रा꣯भꣳसंगृभाऽ᳒२᳒या꣡। चि꣢त्रं꣡ग्रा꣯भꣳसम्। गॄ। औ꣢ऽ३हो꣢इ᳐। भा꣣ऽ२३४या꣥॥ ऐ꣢꣯हो꣡इ। महा꣯हस्ती꣯दक्षाऽ२३हो꣡इ॥ औ꣢꣯हो꣡। वा꣣꣯होऽ२३४वा꣥। णा꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
23_0167 आ तू - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
१६७-४।
आ꣥꣯तू꣯नइन्द्रक्षुमाऽ६न्ता꣥म्॥ चि꣢त्रं꣡ग्रा꣯भꣳसंगृभा꣯या। चि꣢त्रं꣡ग्रा꣯भꣳसम्। गॄऽ२३। ई꣢ऽ३४हा꣥। भा꣣ऽ२३४या꣥॥ ऐ꣢꣯हो꣡इ। महा꣯हस्ती꣯दक्षाऽ२३हो꣡इ। औ꣢꣯हो꣡। वा꣣꣯होऽ२३४वा꣥। णा꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣भि꣡ प्र गोप꣢꣯तिं गि꣣रे꣡न्द्र꣢मर्च꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢। सू꣣नु꣢ꣳ स꣣त्य꣢स्य꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥ 24:0168 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे ।
सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣भि꣢। प्र। गो꣡प꣢꣯तिम्। गो꣢। प꣣तिम्। गिरा꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣र्च। य꣡था꣢꣯। वि꣣दे꣢। सू꣣नु꣢म्। स꣣त्य꣡स्य꣣। स꣡त्प꣢꣯तिम्। सत्। प꣣तिम्। १६८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रियमेधः आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्य को प्रेरणा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्य ! तू (गोपतिम्) सूर्य, पृथिवी आदि लोकों के अथवा राष्ट्रभूमि के स्वामी और पालनकर्ता, (सत्यस्य सूनुम्) सत्य ज्ञान और सत्य कर्म के प्रेरक, (सत्पतिम्) सज्जनों के रक्षक एवं दुष्टों को दण्ड देनेवाले (इन्द्रम्) परमात्मा और राजा को (अभि) लक्ष्य करके (गिरा) वाणी से (प्र अर्च) भली-भाँति स्तुति कर अर्थात् इनके गुण-कर्मों का वर्णन कर, (यथा) जैसे वे (विदे) उस स्तुति को जान लें ॥४॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि वे विविध गुणगणों से विभूषित परमेश्वर और राजा को लक्ष्य करके उनके यथार्थ गुण-कर्म-स्वभावों का ऐसा वर्णन करें कि वे उसे जान लें, क्योंकि स्तोतव्य की स्तुति तभी फलदायक होती है जब वह उसके अन्तःकरण को छू लेती है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मनुष्यं प्रेरयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्य ! त्वम् (गोपतिम्) गोपदवाच्यानां सूर्यपृथिव्यादिलोकानां राष्ट्रभूमेर्वा पतिं स्वामिनं पालकं च, (सत्यस्य सूनुम्) सत्यज्ञानस्य सत्यकर्मणश्च प्रेरकम्। षू प्रेरणे इति धातोः सुवः कित्। उ० ३।३५ इति नुः प्रत्ययः। (सत्पतिम्) सतां सज्जनानां पालयितारम्, असज्जनानां दण्डयितारमित्यर्थादापद्यते, (इन्द्रम्) परमेश्वरं राजानं च (अभि) अभिलक्ष्य (गिरा) वाचा (प्र अर्च) प्रकर्षेण स्तुहि, तद्गुणकर्माणि वर्णय, (यथा) येन प्रकारेण, सः (विदे२) तां स्तुतिं जानाति। विद ज्ञाने धातोश्छान्दसमात्मनेपदम्। लटि वित्ते इति प्राप्ते लोपस्त आत्मनेपदेषु, अ० ७।१।४१ इति तलोपः। विदे इत्यत्र यावद्यथाभ्याम्, अ० ८।१।६६ इति निघाताभावः ॥४॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्याणां योग्यमस्ति यत् ते विविधगुणगणविभूषितं परमेश्वरं राजानं चोद्दिश्य तयोर्यथार्थगुणकर्मस्वभावाँस्तथा वर्णयेयुर्यथा तौ तद् विजानीयाताम्, यतो हि स्तोतव्यस्य स्तुतिस्तदैव फलदायिनी भवति यदा सा तदन्तःकरणं स्पृशति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६९।४, साम० १४८९, अथ० २०।२२।४, ९२।१। २. यथा विदे जानामीत्यर्थः—इति वि०। यथा विदे ज्ञायते त्वया—इति भ०। यथा विदे स यथा स्वात्मानं स्तुतिप्रकारं जानाति, यथा वा यागं प्रति गन्तव्यमिति जानाति अर्च—इति सा०।
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लिखितम्
१६८-१। धुरोस्सामनी द्वे॥ द्वयोर्धुरो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣤भी꣥अ꣤भी꣥॥ प्र꣢गो꣯ऽ३पा꣡तिं꣪गिराऽ᳒२᳒। इ꣡न्द्रमर्चयाथा꣢ऽ१विदाऽ२᳐इ॥ सू꣣꣯नू꣢ऽ३ꣳहो꣡इ। सत्यो꣣ऽ२३४हा꣥॥ स्या꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ प꣢तिऽ३मे꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
24_0168 अभि प्र - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६८-२।
अ꣤भी꣥अ꣤भी꣥॥ प्र꣢गो꣡। प꣢तिं꣣गि꣢रा꣡। इन्द्राम्। अ꣣र्चा꣢या꣣ऽ२३४था꣥। हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ३। आ꣡ऽ२३४इविदाइ॥ सू꣯नुꣳ꣣स꣤त्य꣣स्य꣤सा꣥॥ हि꣭म्ऽ३(स्थि)हि꣢म्ऽ३। ओ꣡ऽ२३४वा꣥॥ पा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
24_0168 अभि प्र - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६८-३। महागौरीवितं गौरीवितं वा॥ शाक्त्यः गौरीवितिर्गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥भि। प्र꣣गो꣢ऽ३। प꣤तिंगि꣥रा॥ इ꣡न्द्रमर्चयथा꣯विदाऽ२३इ। सू꣡नुꣳसत्या꣢ऽ३१२३। स्य꣤साऽ५त्पताइम्॥ सू꣡नुꣳसत्या꣢ऽ३१२३। स्य꣤सोवा꣥। पा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क꣡या꣢ नश्चि꣣त्र꣡ आ भु꣢꣯वदू꣣ती꣢ स꣣दा꣡वृ꣢धः꣣ स꣡खा꣢। क꣢या꣣ श꣡चि꣢ष्ठया वृ꣣ता꣢ ॥ 25:0169 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
कया॑ नश्चि॒त्र (=चयनीयः) आ भु॑वद्
ऊ॒ती (=रक्षणम्/ तर्पणम् [तेन]) स॒दा-वृ॑धः॒ (=वर्धमानः) सखा॑ ।
कया॒ शचि॑ष्ठया (=प्रज्ञावता) वृ॒ता (=वर्तनेन) १
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पदपाठः
क꣡या꣢꣯। नः꣣। चित्रः꣢। आ। भु꣣वत्। ऊती꣢। स꣣दा꣡वृ꣢धः। स꣣दा꣢। वृ꣣धः। स꣣खा꣢꣯। स। खा꣣। क꣡या꣢꣯। श꣡चि꣢꣯ष्ठया। वृ꣣ता꣢। १६९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नामक परमेश्वर और राजा की कृपा का वर्णन किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चित्रः) अद्भुत गुण-कर्म-स्वभाववाला वह इन्द्रनामक परमेश्वर और राजा (कया) कैसी अद्भुत (ऊती) रक्षा के द्वारा, और (कया) कैसी अद्भुत (शचिष्ठया) अतिशय बुद्धिपूर्ण (वृता) विद्यमान क्रिया के द्वारा (नः) हमारा (सदावृधः) सदा बढ़ानेवाला (सखा) सखा (आ भुवत्) बना हुआ है ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे परमेश्वर अपनी विलक्षण रक्षा से और विलक्षण क्रियाशक्ति से सबकी रक्षा और उपकार करता है, वैसे ही राजा प्रजाजनों का रक्षण और उपकार करे ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्राख्यस्य परमात्मनो नृपतेश्च कृपां वर्णयन्नाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चित्रः) अद्भुतगुणकर्मस्वभावः स इन्द्रः परमेश्वरो राजा वा (कया) कया अद्भुतया (ऊतो) ऊत्या रक्षया। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्ण०। अ० ७।१।३९ इति तृतीयैकवचनस्य पूर्वसवर्णदीर्घः। (कया) कया (च) अद्भुतया (शचिष्ठया२) अतिशयेन प्रज्ञावत्या, बुद्धिपूर्वयेत्यर्थः। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। निघं० ३।९। तद्वती शचीमती। ततोऽतिशायने इष्ठनि विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५ इति मतुपो लुक्। (वृता३) वर्तमानया क्रियया। वर्तते या सा वृत्, तया। (नः) अस्माकम् (सदावृधः) सदा वर्धयिता (सखा) सुहृत् (आभुवत्) आ भवति। भुवदिति भूधातोर्लेटि रूपम् ॥५॥४ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा परमेश्वरः स्वकीयया विलक्षणरक्षया विलक्षणक्रियाशक्त्या च सर्वान् रक्षत्युपकरोति च, तथैव राजा प्रजाजनान् रक्षेदुपकुर्याच्च ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ४।३१।१, य० २७।३९, ३६।४, साम० ६८२, अथ० २०।१२४।१। २. शचीति प्रज्ञाकर्मणोर्नाम, प्रज्ञावत्तमया प्रज्ञासहितमनुष्ठीयमानया इत्यर्थः—इति भ०। ३. वर्ततेऽसाविति वृत्, तया वृता वर्तमानयेत्यर्थः—इति वि०। आवृता आवर्तमानेन कर्मणा—इति भ०। ४. एष मन्त्रो दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये राजपक्षे, यजुर्भाष्ये २७।३९ इत्यत्र विद्वत्पक्षे, ३६।४ इत्यत्र च परमेश्वरपक्षे व्याख्यातः।
25_0169 कया नश्चित्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६९-१। वाचस्सामनी द्वे॥ द्वयोर्वाक् गायत्रीन्द्रः॥
क꣥या꣯नश्ची॥ त्र꣢आ꣡भू꣢ऽ३वा꣢त्। ऊ꣯ता꣡इस꣢। दा꣡। वार्द्ध꣢स्सा꣣ऽ२३४खा꣥॥ क꣡याशा꣢ऽ३ची꣢ऽ३॥ ष्ठा꣡ऽ२३या꣤ऽ३। वा꣢ऽ३४५र्तोऽ६"हा꣥इ॥
25_0169 कया नश्चित्र - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६९-२।
हो꣥꣯वा꣯इ। हो꣯वा꣯इकया꣯नश्ची॥ त्र꣢आ꣡भू꣢ऽ३वा꣢ऽ३४त्॥ हो꣥꣯वा꣯इ। हो꣯वा꣯ऊ꣯ती꣯सदा॥ वृ꣢धा꣡स्सा꣢ऽ३खा꣢ऽ३४। हो꣥꣯वा꣯इ। हो꣯वा꣯इकया꣯शचाइ॥ ष्ठ꣢या꣡꣯। वाऽ२᳐र्ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
25_0169 कया नश्चित्र - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६९-३। महावामदेव्यम् वामदेव्यम् वा॥ वामदेवो गायत्रीन्द्रः॥
का꣣ऽ५या꣯। नश्चा꣤ऽ३इत्रा꣢ऽ३आ꣤꣯भुवा꣥त्॥ ऊ꣡। ती꣯स꣢दा꣡꣯वृध꣢स्स꣡। खा। औ꣢ऽ३हो꣯हा꣢इ। क꣡याऽ२३शचा꣢इ᳐॥ ष्ठ꣣यौ꣯हो꣢ऽ३। हि꣡म्माऽ᳒२᳒। वा꣡ऽ२꣮र्तोऽ३५"हा꣢इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्य꣡मु꣢ वः सत्रा꣣सा꣢हं꣣ वि꣡श्वा꣢सु गी꣣र्ष्वा꣡य꣢तम्। आ꣡ च्या꣢वयस्यू꣣त꣡ये꣢ ॥ 26:0170 ॥
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26_0170 त्यमु वः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७०-१। इन्द्रस्य सत्रासाहीये अजितस्य आजिती वा द्वे॥ द्वयोरिन्द्रो गायत्रीन्द्रः॥
त्य꣥मुवाः॥ स꣢त्रा꣯सा꣡हाऽ᳒२᳒म्। वि꣡श्वा꣯सुगी꣯र्षूआ꣢ऽ१याताऽ᳒२᳒म्। आ꣡꣯च्याऽ२३॥ वा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सि꣢यूऽ३त꣡येऽ२३꣡४꣡५꣡॥
26_0170 त्यमु वः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१७०-२। सत्रासाहीयम्॥
त्या꣢ऽ३४म्। उव꣥स्सत्रा꣯सा꣤꣯ह꣥म्। ओऽ६वा꣥॥ वि꣡श्वा꣯सुगी꣯र्ष्वा꣯याऽ᳒२᳒ता꣡म्। आऽ᳒२᳒च्या꣡। वाऽ२३या꣢॥ सि꣡यौ꣭ऽ३हो꣢꣯। वा꣣꣯हा꣢ऽ३४३इ॥ ता꣡ऽ२३४यो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣡द꣢स꣣स्प꣢ति꣣म꣡द्भु꣢तं प्रि꣣य꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ का꣡म्य꣢म् । स꣣निं꣢ मे꣣धा꣡म꣢यासिषम् ॥१७१॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
स꣡द꣢꣯सः। प꣡ति꣢꣯म्। अ꣡द्भु꣢꣯तम्। अत्। भु꣣तम्। प्रिय꣢म्। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। का꣡म्य꣢꣯म्। स꣣नि꣢म्। मे꣣धा꣢म्। अ꣣यासिषम्। १७१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा, सभाध्यक्ष राजा और आचार्य से मेधा की याचना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (अद्भुतम्) आश्चर्यमय गुण-कर्म-स्वभाववाले, (इन्द्रस्य) शरीर के अधिष्ठाता जीवात्मा के (प्रियम्) प्रिय, (काम्यम्) उपासकों के स्पृहणीय, (सनिम्) कृत पाप-पुण्य-रूप कर्मों के फलप्रदाता (सदसः पतिम्) हृदयरूप अथवा ब्रह्माण्डरूप यज्ञसदन के स्वामी परमात्मा से (मेधाम्) धारणावती बुद्धि को (अयासिषम्) माँगता हूँ ॥ द्वितीय—सभाध्यक्ष के पक्ष में। मैं (अद्भुतम्) अन्यों की अपेक्षा विशिष्ट गुण-कर्म-स्वभाववाले, इसीलिए (इन्द्रस्य) परमात्मा के (प्रियम्) प्रिय, (काम्यम्) सब प्रजाजनों द्वारा चाहने योग्य, (सनिम्) राष्ट्र में धन का संविभाग करनेवाले, प्रजाओं को सत्कर्मों का पुरस्कार देनेवाले और असत्कर्मों का यथायोग्य दण्ड देनेवाले (सदसः पतिम्) राष्ट्रसभा के अध्यक्ष राजा से (मेधाम्) विद्याप्रचार और धन की (अयासिषम्) याचना करता हूँ ॥ तृतीय—आचार्य के पक्ष में। मैं (अद्भुतम्) ज्ञान-विज्ञान के अद्भुत भण्डार, (इन्द्रस्य) विद्याप्रचारक राजा के (प्रियम्) प्रिय, (काम्यम्) सब विद्यार्थियों द्वारा चाहने योग्य, (सनिम्) विविध विद्याओं और व्रतों के दाता (सदसः पतिम्) विद्यार्थी-कुल के अध्यक्ष आचार्य से (मेधाम्) विद्याबोध की (अयासिषम्) याचना करता हूँ ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो मनुष्य अद्भुत गुण-कर्म-स्वभाववाले, अद्भुत ज्ञानविज्ञान की राशि, न्यायकारी, प्रिय परमात्मा, सभाध्यक्ष राजा और आचार्य की शरण में जाते हैं, वे मेधावी, शास्त्रवेत्ता, पुण्यकर्ता और धनवान् होकर सुखी होते हैं ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं सभाध्यक्षं राजानम् आचार्यं च मेधां याचमान आह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (अद्भुतम्२) आश्चर्यमयगुणकर्मस्वभावम्, (इन्द्रस्य) शरीराधिष्ठातुर्जीवात्मनः (प्रियम्) प्रेमास्पदम्, (काम्यम्) उपासकानां स्पृहणीयम्, (सनिम्३) कृतानां पापपुण्यरूपाणां कर्मणां फलप्रदातारम्। षण सम्भक्तौ, षणु दाने वा धातोः खनिकष्यज्यसिवसिवनिसनिध्वनिग्रन्थिचरिभ्यश्च उ० ४।१४ इत्यनेन इः प्रत्ययः. (सदसः पतिम्) हृदयरूपस्य ब्रह्माण्डरूपस्य वा यज्ञसदनस्य स्वामिनं परमात्मानम्। षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु अ० ८।३।५३ इति विसर्जनीयस्य सत्वम्। (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (अयासिषम्) याचे। निघण्टौ (३।१९), यामि इत्यस्य याच्ञाकर्मसु पाठात् या धातुर्याचनार्थोऽपि विज्ञेयः। लडर्थे लुङ् ॥ अथ द्वितीयः—सभाध्यक्षपरः। अहम् (अद्भुतम्) इतरापेक्षया विशिष्टगुणकर्मस्वभावम्, अत एव (इन्द्रस्य) परमात्मनः (प्रियम्) स्नेहास्पदम्, (काम्यम्) सर्वैः प्रजाजनैः स्पृहणीयम्, (सनिम्) राष्ट्रे धनस्य संविभक्तारं, प्रजाभ्यः सत्कर्मणां पुरस्कारदातारम्, असत्कर्मणां च यथायोग्यं दण्डदातारं च (सदसः पतिम्४) राष्ट्रसभाया अध्यक्षं राजानाम् (मेधाम्) बुद्धिम् विद्याप्रचारमित्यर्थः, धनं च। मेधा मतौ धीयते। निरु० ३।१९। मेधा इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। (अयासिषम्) याचे ॥ अथ तृतीयः—आचार्यपरः। अहम् (अद्भुतम्) ज्ञानविज्ञानयोः अपूर्वं निधिम्, (इन्द्रस्य) विद्याप्रचारकस्य राज्ञः (प्रियम्) प्रेमार्हम्, (काम्यम्) सर्वैर्विद्यार्थिभिः स्पृहणीयम्, (सनिम्) विविधविद्यानां व्रतानां च दातारम् (सदसः पतिम्) विद्यार्थिकुलस्याध्यक्षम् आचार्यम् (मेधाम्) विद्याबोधम् (अयासिषम्) याचे ॥७॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये मनुष्या अद्भुतगुणकर्मस्वभावम् अद्भुतज्ञानविज्ञानराशिं न्यायकारिणं प्रियं परमात्मानं, सभाध्यक्षं राजानम्, आचार्यं चोपगच्छन्ति ते मेधाविनः शास्त्रज्ञाः पुण्यकर्त्तारो धनवन्तश्च भूत्वा सुखिनो भवन्ति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१८।६, देवता सदसस्पतिः, य० ३२।१३ ऋषिः मेधाकामः, अन्ते स्वाहा इत्यधिकम्। २. इदमपि इतरद् अद्भुतम् अभूतमिव—इति निरु० १।६। अत् भुतम् इति पदकारः। अत् पूर्वाद् भवतेरद्भुतः—इति भ०। अदि भुवो डुतच् उ० ५।१। अनेन भू धातोः अदि उपपदे डुतच् प्रत्ययः—इति ऋ० १।१८।६ भाष्ये—द०। ३. (सनिम्) पापपुण्यानां विभागेन फलदातारम् इति ऋ० १।१८।६ भाष्ये, (सनिम्) सनन्ति संविभजन्ति सत्यासत्ये यया ताम् मेधाम् संगतां प्रज्ञाम् इति च य० ३२।१३ भाष्ये—द०। सनिं निधानम्। कस्य ? सामर्थ्याद् धनस्य—इति वि०। संभजनीयां दात्रीं फलानां, मेधां बुद्धिम्। सनिमिति मेधाविशेषणम्, सन्या मेधया इति बहुशः दर्शनात्—इति भ०। सनिं धनस्य दातारं (सदसस्पतिम्)—इति सा०। ४. (सदसः) सीदन्ति विद्वांसो धार्मिका न्यायाधीशाः यस्मिंस्तत् सदः सभा तस्य, अत्र अधिकरणे असुन् (पतिम्) स्वामिनम् इति ऋ० १।१८।६ भाष्ये—द०। ५. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं ऋग्भाष्ये परमेश्वरपक्षे सभापतिपक्षे च, यजुर्भाष्ये च परमात्मपक्षे व्याख्यातः।
२७ ०१७१ सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७१-१। वामदेव्यम्॥ वामदेवो गायत्रीन्द्रः॥ (मेधाः)।
सा꣤दा꣥॥ स꣡स्पताइम꣪द्भूता꣢। ओ꣣ऽ२३४वा꣥। प्रा꣡या꣢ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ आ꣡इन्द्रा। स्याका꣢मा꣣ऽ२३४५याऽ६५६म्॥ स꣢निं꣡मे꣰꣯ऽ२धा꣡꣯मया꣢꣯सिषा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये꣢ ते꣣प꣡न्था꣢ अ꣣धो꣢ दि꣣वो꣢꣫ येभि꣣र्व्य꣢꣯श्व꣣मै꣡र꣢यः। उ꣣त꣡ श्रो꣢षन्तु नो꣣ भु꣡वः꣢ ॥ 28:0172 ॥
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पदपाठः
ये꣢। ते꣣। प꣡न्थाः꣢꣯। अ꣣धः꣢। दि꣣वः꣢। ये꣡भिः꣢꣯। व्य꣢श्वम्। वि। अ꣣श्वम्। ऐ꣡र꣢꣯यः। उ꣣त꣢। श्रो꣣षन्तु। नः। भु꣡वः꣢꣯। १७२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह विषय वर्णित है कि सब प्रजाएँ आकाशमार्गों को, पृथिव्यादिलोकों के भ्रमण की विद्या को और विमानादि की विद्या को भली-भाँति जानें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र ! लोकलोकान्तरों के व्यवस्थापक परमेश्वर ! (ये) जो (ते) आपके रचे हुए (पन्थाः) मार्ग (दिवः) द्युलोक के (अधः) नीचे, अन्तरिक्ष में हैं (येभिः) जिनसे (व्यश्वम्) बिना घोड़ों के चलनेवाले पृथिवी, चन्द्र, मंगल, बुध आदि ग्रहोपग्रहसमूह को (ऐरयः) आप चलाते हो, उन मार्गों को (नः) हमारी (भुवः) भूलोकवासी प्रजाएँ भी (श्रोषन्तु) सुनें, और सुनकर जानें ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (ये) जो (ते) आपके निर्धारित (पन्थाः) आकाश-मार्ग (दिवः) द्युलोक से (अधः) नीचे अर्थात् भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष में हैं, (येभिः) जिन (व्यश्वम्) बिना घोड़ों से चलनेवाले भूयान, जलयान और विमानों को (ऐरयः) आप चलवाते हैं, उन भूमि-समुद्र-आकाश के मार्गों के विषय में (नः) हमारी (भुवः उत) जन्मधारी राष्ट्रवासी प्रजाएँ भी (श्रोषन्तु) वैज्ञानिकों के मुख से सुनें, और सुनकर भूयान, जलयान, विमान, कृत्रिम उपग्रह आदि के बनाने और चलाने की विद्या को भली-भाँति जानें ॥८॥ अन्तरिक्ष मार्गों का वर्णन अथर्ववेद के एक मन्त्र में इस प्रकार है—जो विद्वान् लोगों के यात्रा करने योग्य बहुत से मार्ग द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में बने हुए हैं, वे मुझे सुलभ हों, जिससे मैं उनसे यात्रा करके विदेशों में दूध-घी बेचकर धन इकट्ठा करके लाऊँ’’, (अथ० ३।१५।२)। समुद्र और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों का वर्णन भी वेद में बहुत स्थलों पर मिलता है, जैसे हे ब्रह्मचर्य द्वारा परिपुष्ट युवक ! जो तेरे लिए सोने जैसी उज्ज्वल नौकाएँ अर्थात् नौका जैसी आकृतिवाले जलपोत और विमान समुद्र में और अन्तरिक्ष में चलते हैं, उनके द्वारा यात्रा करके तू सूर्यपुत्री उषा के तुल्य ब्रह्मचारिणी कन्या को विवाह द्वारा प्राप्त करने के लिए जाता है’’ (ऋ० ६।५८।३)। बिना घोड़ों के चलनेवाले वेगवान् यान का वर्णन वेद में अन्यत्र भी है, यथा—एक तीन पहियोंवाला रथ है, जिसमें न घोड़े जुते हैं, न लगामें हैं, जो बड़ा प्रशंसनीय है और जो आकाश में किसी लोक की परिक्रमा करता है (ऋ० ४।३६।१) ॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर अन्तरिक्ष-मार्ग में सूर्य को और भूमण्डल-चन्द्रमा-मंगल-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनि आदि ग्रहोपग्रहों को जैसा चाहिए, वैसा उनकी धुरी पर या उनकी अपनी-अपनी कक्षाओं में संचालित करता है, और राष्ट्र का कुशल राजा भूयान, जलयान, विमान, कृत्रिम उपग्रह आदिकों को कुशल वैज्ञानिकों के द्वारा चलवाता है। तद्विषयक सारी विद्या राष्ट्रवासियों को पढ़नी-पढ़ानी और प्रयोग करनी चाहिए ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सर्वाः प्रजा अन्तरिक्षमार्गान् पृथिव्यादिलोकभ्रमणविद्यां विमानादिविद्यां च सम्यग् जानन्त्वित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे इन्द्र लोकलोकान्तरव्यस्थापक परमेश्वर ! (ये ते) तव, त्वद्रचिताः (पन्थाः२) मार्गाः (दिवः) द्युलोकात् (अधः) अधस्तात्, अन्तरिक्षे सन्ति, (येभिः) यैः (व्यश्वम्३) विगताश्वं पृथिवीचन्द्रमंगलबुधादिकं ग्रहोपग्रहजातम् (ऐरयः) चालयसि। ईर क्षेपे, चुरादिः, लङ्। तान् पथः (नः) अस्माकम् (भुवः उत) भूलोकवासिन्यः प्रजा अपि (श्रोषन्तु) शृण्वन्तु, श्रुत्वा च विदाङ्कुर्वन्तु। श्रुधातोर्लोटि व्यत्ययेन शपि, सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति बहुलवचनात् सिबागमः ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे इन्द्र राजन् ! (ये ते) तव, त्वन्निर्धारिताः (पन्थाः) आकाशमार्गाः (दिवः) द्युलोकात् (अधः) अधस्तात्, अन्तरिक्षे भुवि च सन्ति, (येभिः) यैः भूसमुद्राकाशमार्गैः (व्यश्वम्) विगताश्वं भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादिकम् (ऐरयः) प्रेरयसि, तान् भूमिसमुद्राकाशमार्गान् (नः) अस्माकम् (भुवः उत) भवन्तीति भुवः जन्मधारिण्यः राष्ट्रवासिन्यः प्रजाः अपि (श्रोषन्तु) वैज्ञानिकेभ्यः सकाशात् शृण्वन्तु, श्रुत्वा च भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादिनिर्माणचालनविद्यां सम्यग् विदन्तु ॥८॥ अन्तरिक्षमार्गाणां वर्णनमस्मिन्नाथर्वणे मन्त्रे द्रष्टव्यम्—ये पन्था॑नो ब॒हवो॑ देव॒याना॑ अन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी सं॒चर॑न्ति। ते मा॑ जुषन्तां॒ पय॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ क्री॒त्वा धन॑मा॒हरा॑णि ॥ अथ० ३।१५।२। समुद्रयानानामन्तरिक्षयानानां चापि वर्णनं वेदे बहुशः प्राप्यते। यथा, “यास्ते॑ पू॒षन्नावो॑ अ॒न्तः स॑मु॒द्रे हि॑र॒ण्ययी॑र॒न्तरि॑क्षे॒ चर॑न्ति। ताभि॑र्यासि दू॒त्यां सूर्य्य॑स्य॒ कामे॑न कृतः॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥” ऋ० ६।५८।३ इति। विगताश्वयानवर्णनं वेदेऽन्यत्रापि श्रुतम्। यथा, अ॒न॒श्वो जा॒तो अ॑नभी॒शुरु॒क्थ्यो॒३रथ॑स्त्रिच॒क्रः परि॑ वर्त॒ते रजः॑ ॥ ऋ० ४।३६।१ इति ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरोऽन्तरिक्षमार्गे सूर्यं भूमण्डल-चन्द्र-मंगल-बुध-गुरु-शुक्र-शन्यादींश्च ग्रहोपग्रहान् यथायथं स्वधुरि स्वकक्षासु वा संचालयति, राष्ट्रस्य कुशलो राजा च भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादींश्च कुशलैर्वैज्ञानिकैश्चालयति। तद्विषयिणी सर्वापि विद्या राष्ट्रवासिभिरध्येतव्या प्रयोक्तव्या च ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. अथ० ७।५५।१। ये ते पन्थानोऽव दिवो येभिर्विश्वमैरयः। तेभिः सुम्नया धेहि नो वसो। इति पाठः। ऋषिः भृगुः, छन्दः विराट् परोष्णिक्। २. वेदेषु पथिन् शब्दस्य प्रथमाबहुवचने पन्थाः पन्थानः, द्वितीयैकवचने च पन्थाम्, पन्थानम् इति वैकल्पिकानि रूपाणि प्रायशः प्रयुक्तानि। ३. व्यश्वम् वेगिताश्वं शीघ्रमित्यर्थः ऐरयः पूर्वकालमपि आगतवानसि—इति वि०। यैः पथिभिः व्यश्वम् ऋजुकम् ऐरयः प्रापयः दिवम्—इति भ०। सायणस्तु विश्वम् इति पाठं मत्वा विश्वं सर्वं जगत् ऐरयः प्राप्तवानसि—इति व्याचष्टे।
28_0172 ये तेपन्था - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७२-१। अश्विनोस्साम॥ अश्विनौ गायत्रीन्द्रः॥
हा꣢इ। आप्सू᳐दा꣣ऽ२३४क्षाः꣥।(द्विः)। ये꣢꣯ते꣯पन्था꣯अऽ३धो꣡दि꣪वाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢इ। आप्सू᳐दा꣣ऽ२३४क्षाः꣥।(द्विः)। ये꣢꣯भिर्व्यश्वऽ३मा꣡इर꣪याऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢इ। उ꣣ता꣢᳐श्रो꣣ऽ२३४षा꣥॥ तु꣢नो꣡ऽ२३। भू꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४ती꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भ꣣द्रं꣡भ꣢द्रं न꣣ आ꣢ भ꣣रे꣢ष꣣मू꣡र्ज꣢ꣳ शतक्रतो। य꣡दि꣢न्द्र मृ꣣ड꣡या꣢सि नः ॥ 29:0173 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भ॒द्रम्भ॑द्रं न॒ आ भ॒रेष॒मूर्जं॑ शतक्रतो ।
यदि॑न्द्र मृ॒ळया॑सि नः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
भ꣣द्र꣡म्भ꣢द्रं। भ꣣द्रम्। भ꣣द्रम्। नः। आ꣢। भ꣣र। इ꣡ष꣢꣯म्। ऊ꣡र्ज꣢꣯म्। श꣣तक्रतो। शत। क्रतो। य꣢त्। इ꣣न्द्र। मृड꣡या꣢सि। नः꣣। १७३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र से भद्र की प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) अनन्त शुभ कर्मों को करनेवाले प्रभु ! तुम (भद्रंभद्रम्) भद्र-भद्र (इषम्) अन्न, धन, विज्ञान आदि और (ऊर्जम्) बल, प्राण, रस आदि (नः) हमारे लिए (आ भर) लाओ। (यत्) क्योंकि, हे (इन्द्र) दयानिधि परमात्मन् ! आप (नः) हमें (मृडयासि) सदा सुखी ही करते हो ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को भद्र-भद्र ही धन आदि का उपार्जन करके अपनी और दूसरों की उन्नति करनी चाहिए ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रो भद्रं प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) असंख्यशुभकर्मणां कर्तः प्रभो ! त्वम् (भद्रंभद्रम्२) अतिशयेन कल्याणकरम् (इषम्३) अन्नधनविज्ञानादिकम्। इषम् इति अन्ननाम। निघं० २।७। इषु इच्छायाम्, इषु गतौ धातोः क्विप्। (ऊर्जम्) बलं, प्राणशक्तिम्, रसं च। ऊर्ज बलप्राणनयोः। ऊर्ग् रसः। श० १।५।४।२। (नः) अस्मभ्यम् (आ भर) आहर। अत्र हृग्रहोर्भश्छन्दसि इति वार्तिकेन हस्य भत्वम्। (यत्) यस्मात्, हे (इन्द्र) दयानिधे परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान् (मृडयासि) सुखयसि। मृड सुखने तुदादौ पठितो वेदे चुरादिरपि प्रयुज्यते। लडर्थे लेटि आडागमः। मृडयतिरुपदयाकर्मा पूजाकर्मा वा इति निरुक्तम् १०।१५ ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यैर्भद्रं भद्रमेव धनादिकमुपार्ज्य सततं स्वेषां परेषां चोन्नतिर्विधेया ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।२८, ऋषिः सुकक्षः। २. भद्रंभद्रम् अतिशयेन शोभनमित्यर्थः—इति वि०। भद्रंभद्रं सर्वं कल्याणं नः अस्मभ्यम् आभर इषं पुष्टिं ऊर्जं रसं च आभर—इति भ०। ३. (इषम्) अन्नं विज्ञानं वा इति ऋ० ७।४८।४ भाष्ये, विज्ञानं धनं वा इति च ऋ० ७।८।७ भाष्ये—द०।
29_0173 भद्रम्भद्रं न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७३-१। गौतमस्य भद्रम्॥ गोतमो गायत्रीन्द्रः॥
भ꣥द्रंभा꣤द्रा꣥म्॥ न꣢आ꣡꣯भाऽ२३रा꣢ऽ३॥ आ꣤इषा꣥मू꣤र्जा꣥म्॥ श꣢त꣡क्राऽ२३ता꣢ऽ३उ॥ या꣤दि꣥न्द्रा꣤मॄ꣥॥ डा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सी꣣ऽ२३४नाः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢स्ति꣣ सो꣡मो꣢ अ꣣य꣢ꣳ सु꣣तः꣡ पिब꣢꣯न्त्यस्य म꣣रु꣡तः꣢। उ꣣त꣢ स्व꣣रा꣡जो꣢ अ꣣श्वि꣡ना꣢॥ 30:0174 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अस्ति॒ सोमो॑ अ॒यं सु॒तः पिब॑न्त्यस्य म॒रुतः॑ ।
उ॒त स्व॒राजो॑ अ॒श्विना॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡स्ति꣢꣯। सो꣡मः꣢꣯। अ꣣य꣢म्। सु꣣तः꣢। पि꣡ब꣢꣯न्ति। अ꣣स्य। मरु꣡तः꣢। उ꣣त꣢। स्व꣣रा꣡जः꣢। स्व꣣। रा꣡जः꣢꣯। अ꣣श्वि꣡ना꣢। १७४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कौन सोम का पान करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मेरे आत्मारूप इन्द्र ! (अयम्) यह (सोमः) भक्तिरस, ज्ञानरस, कर्मरस वीरतारस या सेवा आदि का रस (सुतः) अभिषुत (अस्ति) है। (मरुतः) शरीर में प्राण तथा राष्ट्र में वीर क्षत्रिय जन (उत) और (स्वराजः) शरीर में अपने तेज से शोभायमान मन, बुद्धि, चित और अहंकार तथा राष्ट्र में अपने ब्रह्मवर्चस से देदीप्यमान ब्राह्मणजन और (अश्विना) शरीर में अपने-अपने विषय में व्याप्त होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय तथा राष्ट्र में कृषि-व्यापार एवं शिल्प में व्याप्त होनेवाले वैश्य और शिल्पकार लोग (अस्य) इस पूर्वोक्त सोम रस का (पिबन्ति) यथायोग्य पान करते हैं ॥१०॥ इस मन्त्र मेंश्लेष अलङ्कार है॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीर में मन, बुद्धि, आत्मा, प्राण एवं इन्द्रिय रूप देव तथा राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शिल्पी रूप देव यथायोग्य भक्ति, ज्ञान, कर्म, वीरता, सेवा आदि के सोमरसों का पान करके ही जीवन-संग्राम में सफल होते हैं ॥१०॥ इस दशति में इन्द्रनामक परमेश्वर के प्रति सोम अभिषुत करने का, परमेश्वर की महिमा का और उससे समृद्धि, मेधा आदि की याचना का वर्णन होने से और परमेश्वर की अर्चना के लिए प्रेरणा होने से तथा उसके अधीन रहनेवाले अन्य शारीरिक एवं राष्ट्रिय देवों के सोमपान का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय—अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ के सोमं पिबन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः हे इन्द्र इति सम्बोधनीयम्। हे इन्द्र मदीय आत्मन् ! (अयम्) एषः (सोमः) भक्तिरसः, ज्ञानरसः, कर्मरसः, वीरतारसः, सेवारसो वा (सुतः) अभिषुतः (अस्ति) वर्तते। (मरुतः) शरीरे प्राणाः राष्ट्रे च वीरक्षत्रियाः, (उत) अपि च (स्वराजः) स्वतेजसा राजन्ते इति स्वराजः, शरीरे मनोबुद्धिचित्ताहंकाराः, राष्ट्रे च स्वकीयब्रह्मवर्चसेन देदीप्यमानाः ब्राह्मणाः, (अश्विना) अश्विनौ, शरीरे स्वस्वविषयव्यापिनौ ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ, राष्ट्रे कृषिव्यापारशिल्पव्यापिनौ वैश्यशिल्पकारौ च (अस्य) पूर्वोक्तस्य रसस्य (पिबन्ति) यथायोग्यं पानं कुर्वन्ति ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीरे मनोबुद्ध्यात्मप्राणेन्द्रियरूपा राष्ट्रे च ब्रह्मक्षत्रियविट्शिल्परूपा देवा यथायोग्यं भक्तिज्ञानकर्मवीरतासेवादिसोमरसानां पानं कृत्वैव जीवनसंग्रामे सफला जायन्ते ॥१०॥ अत्रेन्द्राख्यं परमेश्वरं प्रति सोमाभिषवणात्, तन्महत्त्ववर्णनात्, ततः समृद्धिमेधादिप्रार्थनात्, तदर्चनार्थं प्रेरणात्, तदधीनानाम् इतरेषां दैहिकराष्ट्रियदेवानां चापि सोमपानवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थ्येन सह संगतिरस्तीति विजानीत ॥ इति द्वीतीये प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये षष्ठः खण्डः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९४।४, साम० १७८५
30_0174 अस्ति सोमो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७४-१। अश्विनोस्साम॥ सोम साम वा, अश्विनौ गायत्रीन्द्रः॥
अ꣣स्ति꣤सो꣣꣯मो꣤꣯अयꣳ꣣सु꣤तः꣣। अ꣤। स्त्येआस्ती꣥॥ सो꣣꣯मो꣤꣯अयꣳ꣣सु꣤तᳲ꣣पिब꣤न्त्य꣥स्यम। रु꣣तोऽ२३४हा꣥इ॥ उ꣤तस्वराऽ५जो꣤वा꣥॥ श्वा꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
[[अथ सप्तम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ई꣣ङ्ख꣡य꣢न्तीरप꣣स्यु꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ जा꣣त꣡मुपा꣢꣯सते। व꣣न्वाना꣡सः꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥ 31:0175 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ई॒ङ्खय॑न्तीरप॒स्युव॒ इन्द्रं॑ जा॒तमुपा॑सते ।
भे॒जा॒नासः॑ सु॒वीर्य॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ई꣣ङ्ख꣡य꣢न्तीः। अ꣣पस्यु꣡वः꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। जा꣣त꣢म्। उ꣡प꣢꣯। आ꣣सते। वन्वाना꣡सः꣢। सु꣣वी꣡र्य꣢म्। सु꣣। वी꣡र्य꣢꣯म्। १७५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- देवजामयः इन्द्रमातरः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथमः—मन्त्र में परमेश्वर की उपासना और राजा के अभिनन्दन का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (ईङ्खयन्तीः) हर्ष से उछलती हुई, (अपस्युवः) कर्म करने की अभिलाषावाली प्रजाएँ (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ वीर्य से युक्त ऐश्वर्य की (वन्वानासः) चाहना या याचना करती हुईं (जातम् इन्द्रम्) हृदय में प्रादुर्भूत परमेश्वर की (उपासते) उपासना करती हैं, अथवा (जातम् इन्द्रम्) निर्वाचित तथा अभिषिक्त राजा का (उपासते) अभिनन्दन व सेवन करती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - राष्ट्र की प्रजाएँ ऐश्वर्य-प्राप्ति के लिए जैसे राजा का सेवन करती हैं, वैसे ही उन्हें भौतिक तथा आध्यात्मिक सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे इन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्योपासनां नृपस्य चाभिनन्दनं वर्ण्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (ईङ्खयन्तीः२) हर्षेण उत्प्लवन्त्यः। ईखि गतौ भ्वादिः। ईङ्खते गतिकर्मा। निघं०। २।१४। वेदे चुरादिरपि। शतरि स्त्रियां जसि रूपम्। ईङ्खयन्त्यः इति प्राप्ते वा छन्दसि। अ० ६।१।१०६ इति नियमेन पूर्वसवर्णदीर्घः। अत एव (अपस्युवः) अपांसि कर्माणि आत्मनः कामयमानाः प्रजाः। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। ततः क्यचि क्याच्छन्दसि अ० ३।२।१६० इति उ प्रत्ययः। (सुवीर्यम्) श्रेष्ठवीर्योपेतमैश्वर्यम्। शोभनं वीर्यं यत्र तादृशमिति बहुव्रीहौ वीरवीर्यौ च। अ० ६।२।१२० इत्युत्तरपदस्याद्युदात्तत्वम्। (वन्वानासः) इच्छन्त्यः याचमानाः वा सत्यः। वनोतिः इच्छतिकर्मा। निघं० २।६। वनु याचने वा। ततः शानच्। जसि आज्जसेरसुक्। अ० ७।१।५० इत्यसुगागमः। (जातम् इन्द्रम्) हृदये प्रादुर्भूतं परमेश्वरम् निर्वाचितम् अभिषिक्तं च राजानं वा (उपासते) उपस्थानेन अभिनन्दन्ति, स्वागतं ब्रुवन्ति, सेवन्ते वा ॥१॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा राष्ट्रस्य प्रजाभिरैश्वर्यप्राप्तये राजा सेव्यते, तथैव भौतिकाध्यात्मिकसम्पत्प्राप्तये परमेश्वर उपासनीयः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१५३।१, अथ० २०।९३।४। २. ईङ्खयन्त्यः गच्छन्त्यः—इति वि०। प्रेरयन्त्यः इन्द्रम् इतस्ततः चालयन्त्यः—इति भ०। गच्छन्त्यः स्तुत्यादिभिः इन्द्रं प्राप्नुवन्त्यः—इति सा०।
31_0175 ईङ्खयन्तीरपस्युव इन्द्रम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७५-१। त्वाष्ट्री साम॥ त्वष्टा गायत्रीन्द्रः॥ई꣥꣯ङ्खयन्तीः॥ अ꣢पाऽ᳒२᳒स्यू꣡वाऽ᳒२ः᳒। आ꣡इन्द्रंजा꣢꣯तम्। ऊ꣡पा꣢ऽ१साताऽ᳒२᳒इ॥ वन्वा꣡꣯नाऽ२३साः꣢॥ सुवी꣡रिया꣢ऽ३१उवाऽ२३॥ वृ꣢धेऽ१॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न꣡ कि꣢ देवा इनीमसि꣣ न꣡ क्या यो꣢꣯पयामसि। म꣣न्त्र꣡श्रु꣢त्यं चरामसि ॥ 32:0176 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
न꣢। कि꣣। देवाः। इनीमसि। न꣢। कि꣣। आ꣢। यो꣣पयामसि। मन्त्रश्रु꣡त्य꣢म्। म꣣न्त्र। श्रु꣡त्य꣢꣯म्। च꣣रामसि। १७६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोधा ऋषिका
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में प्रजाएँ अपने आचरण की शुद्धि के विषय में प्रतिज्ञा कर रही हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे इन्द्र परमात्मन् अथवा हे इन्द्र राजन् ! (देवाः) हे दिव्य ज्ञान और दिव्य आचरणवाले विद्वज्जनो ! हम (नकि) न तो (इनीमसि) हिंसा करते हैं (नकि) और न ही (आ योपयामसि) छल-छ्द्म करते हैं, अपितु (मन्त्रश्रुत्यम्) वेदमन्त्रों में निर्दिष्ट कर्त्तव्य का ही (चरामसि) पालन करते हैं और करते रहेंगे ॥२॥ इस मन्त्र में तीनों क्रियापदों का एक कारक से सम्बन्ध होने के कारण दीपकालङ्कार है। ‘मसि’ की तीन बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को हिंसा, उपद्रव, चोरी आदि और छल-कपट-ठगी आदि छोड़कर वेदों के अनुसार पवित्र जीवन बिताना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ प्रजाः स्वाचरणशुद्धिं प्रतिजानते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - ऋच इन्द्रदेवताकत्वाद् इन्द्रः सम्बोधनीयः। हे इन्द्र परमात्मन् राजन् वा ! हे (देवाः) दिव्यज्ञाना दिव्याचरणाश्च विद्वांसः ! वयम् (नकि२) नैव (इनीमसि३) हिंसाचरणं कुर्मः। ऋग्वेदे मिनीमसि इति पाठादत्र इण् धातुः क्र्यादिर्हिंसार्थः कल्पनीयः। (नकि) नैव च (आ योपयामसि४) विमोहनं, छलछद्माचरणं, वैक्लव्यं वा कुर्मः। युप विमोहने दिवादिरत्र णिजन्तः प्रयुक्तः। अपितु (मन्त्रश्रुत्यम्) मन्त्रश्रुत्या प्रोक्तं मन्त्रश्रुत्यं वेदमन्त्रनिर्दिष्टं कर्म (चरामसि) आचरामः आचरिष्यामश्च। चर गतिभक्षणयोः। इनीमसि, योपयामसि, चरामसि इति सर्वत्र इदन्तो मसि अ० ७।१।४६ इति मस इकारागमः ॥२॥५ अत्र त्रयाणामपि क्रियापदानामेककारकयोगाद् दीपकालङ्कारः। मसि इत्यस्य त्रिश आवर्तनाद् वृत्त्यनुप्रासश्च ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैर्जनैर्हिंसोपद्रवचौर्यादिकं छलछद्मवञ्चनादिकं च विहाय वेदानुसारेण पवित्रतया जीवनं यापनीयम् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१३४।७, नकिर्देवा मिनीमसि नकिरायोपयामसि। पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि संरभामहे ॥ इति पाठः। २. नकिं नकिः नकि इति त्रीणि नार्थे वर्तन्ते—इति भ०। ३. इनीमसि। मिनातेर्हिंसार्थस्य मकारलोपः—इति वि०। इनातिर्मिनातिना समानार्था हिंसाकर्मा—इति भ०। ४. नकि आयोपयामसि न मिश्रयामः सुष्टुतीर्दुष्टुतीश्च न मिश्रयामः—इति भ०। नकि न च योपयामः अननुष्ठानेन अन्यथानुष्ठानेन वा मोहयामः—इति सा०। ५. हे देवाः न इनीमसि प्राणिबन्धनकर्म पश्वादियागं न कुर्मः, नकि आ योपयामसि यूपनिखननम् अपि न कुर्मः, वृक्षौषध्यादि हिंसामपि न कुर्मः। प्राणिवधं न कुर्मः। किं तर्हि ? मन्त्रश्रुत्यं मन्त्रश्रवणीयं जपाख्यं चरामसि जपं कुर्वन्तश्चरामः। जपमेव कुर्म इत्यर्थः—इति विवरणकृदाशयः।
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लिखितम्
१७६-१। गोधा साम॥ गोधा गायत्रीन्द्रो विश्वेदेवा वा॥
न꣥किदे꣯वाः॥ इ꣢ना꣡इ। इनीमासा꣢ऽ३इ। मा꣡सी꣭ऽ३या꣢। न꣥किया꣯यो॥ प꣢या꣡। पयामासा꣢ऽ३इ। मा꣡सी꣭ऽ३या꣢॥ म꣥न्त्रश्रुत्याम्॥ च꣢रा꣡। चरामासा꣢ऽ३इ। मा꣡सी꣭ऽ३या꣢॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दो꣣षो꣡ आगा꣢꣯द् बृ꣣ह꣡द्गा꣢य꣣ द्यु꣡म꣢द्गामन्नाथर्वण। स्तु꣣हि꣢ दे꣣व꣡ꣳ स꣢वि꣣ता꣡र꣢म् ॥ 33:0177 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
दो꣣षा꣢। उ꣣। आ꣣। अ꣣गात्। बृह꣢त्। गा꣣य। द्यु꣡म꣢꣯द्गामन्। द्यु꣡म꣢꣯त्। गा꣣मन्। आथर्वण। स्तुहि꣢। दे꣣वम्। स꣣वि꣡ता꣢रम्। १७७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- दध्यङ्ङाथर्वणः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्य को परमात्मा और राजा की स्तुति के लिए प्रेरणा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (द्युमद्गामन्) विद्यादिसद्गुणों से प्रकाशित आचरणवाले (आथर्वण) अचंचल वृत्तिवाले अतिशय स्थितप्रज्ञ विद्वन् ! देख, (दोषा उ) अज्ञान, मोह, दुर्व्यसन, दुराचार आदि की अँधियारी रात (अगात्) आ गयी है, इसलिए तू (बृहत्) बहुत अधिक (गाय) गान कर अर्थात् सदुपदेश, शुभ शिक्षा आदि के द्वारा धर्मवाणी को फैला, (देवम्) प्रकाशमय और प्रकाशक (सवितारम्) सद्विद्या आदि के प्रेरक इन्द्र प्रभु की (अर्च) अर्चना कर, अथवा (सवितारम्) सद्विद्या आदि के प्रेरक इन्द्र राजा को (अर्च) उद्बोधन दे । इस ऋचा का देवता इन्द्र होने से ‘सविता’ यहाँ इन्द्र का ही विशेषण जानना चाहिए ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे गगन में उदित हुआ सूर्य अपनी किरणों से घनघोर अन्धकारवाली रात्रि को हटाकर सर्वत्र प्रकाश फैला देता है, वैसे ही मनुष्यों के हृदयों में प्रकट हुआ परमात्मा और राष्ट्र में राजा के पद पर अभिषिक्त हुआ वीर मनुष्य सर्वत्र व्याप्त अधर्म, अज्ञान, दुश्चरित्रता, दुराचार आदि की काली रात को विदीर्ण कर धर्म, विद्या, सच्चरित्रता आदि के उज्ज्वल प्रकाश को चारों ओर फैला देता है। अतः विद्वानों को चाहिए कि वे उस परमात्मा और राजा की उनके गुणों के वर्णन द्वारा पुनः पुनः स्तुति करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मनुष्यः परमात्मानं राजानं च स्तोतुं प्रेर्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (द्युमद्गामन्२) द्युमान् दीप्तिमान् विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः३ गामा गमनम् आचरणं यस्य तथाविध ! द्युमान् द्योतनवान्। निरु० ६।१९। गामा इत्यत्र गाङ् गतौ धातोः सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४६ इति मनिन्। (आथर्वण) अचञ्चलवृत्ते अतिशयस्थितप्रज्ञ विद्वन् ! अथर्वाणोऽथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः। निरु० ११।१९। अथर्वणोऽपत्यम् आथर्वणः। अपत्यार्थे अण् प्रत्ययः४। पश्य, (दोषा५ उ) रात्रिः, अज्ञानमोहदुर्व्यसनदुराचारादीनां तमिस्रा। दोषा इति रात्रिनाम। निघं० २।७। (आ अगात्) आगताऽस्ति। अतस्त्वम् (बृहत्६) प्रचुरम् (गाय) गानं कुरु, सदुपदेशसच्छिक्षादिद्वारेण धर्मवाणीं प्रसारय। (देवम्) प्रकाशमयं प्रकाशकं च (सवितारम्) सद्विद्यादिप्रेरकम् इन्द्रं परमात्मानं राजानं वा (स्तुहि) अर्च, उद्बोधय वा। अत्र इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः सविता इन्द्र एव ज्ञेयः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा गगने प्रकटितः सूर्यः स्वरश्मिभिर्निविडान्धकारपूर्णां निशां निवार्य सर्वत्र प्रकाशं विकिरति, तथैव जनानां हृदयेषु प्रकटितः परमात्मा, राष्ट्रे राजपदेऽभिषिक्तो वीरो मनुष्यश्च सर्वतो व्याप्तामधर्माज्ञानदुश्चारित्र्यकदाचारादेः कृष्णां तमिस्रां विदार्य धर्मविद्यासच्चारित्र्यादेरुज्ज्वलं प्रकाशं प्रसारयति। अतो विद्वद्भिः स परमेश्वरो राजा च गुणवर्णनेन मुहुर्मुहुः स्तोतव्यः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. अथ० ६।१।१। दोषो गाय बृहद् गाय द्युमद् धेहि। आथर्वण स्तुहि देवं सवितारम् ॥ इति पाठः। ऋषिः अथर्वा। देवता सविता। २. कीदृशं स्तुतिरूपम् ? द्युमत् स्वरसौष्ठवयुक्तमित्यर्थः। गामन्। गामान् गाता उच्चारयिता स्तोता। तस्य संबोधनं हे गामन् स्तोतरित्यर्थः—इति वि०। द्युमत् दीप्तिमत् स्तोत्रम्। हे गामन्। गायतीति गामान् स्तोता। हे स्तोतः—इति भ०। तदुभयमपि पदकारविरुद्धम्, तन्मते द्युमद्गामन् इत्यस्य समस्तपदत्वात्। ३. द्युमान् विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः इति ऋ० १।६२।१२ भाष्ये—द०। ४. अपत्यप्रत्यया अपत्यवाचिनः शब्दाश्च येन संयुज्यन्ते तस्याधिक्यं द्योतयन्तीति वैदिकी शैली। यथा अग्निर्वेदे सहसः सूनुः उक्तः अतिशयबलवान् इत्यर्थं व्यनक्ति। लोकभाषायामपि बल का पुतला इत्युक्तौ पुतला शब्दः पुत्र शब्द-स्यैवापभ्रंशः। ५. दोषः दूषयति नाशयति तमांसीति वा, दुनोति उपतपति रक्षांसि इति वा दोषः सविता—इति भ०। ‘दोषः ऋत्विग्—यजमानापराधेन यः कश्चिद् दोषः आगात् आगच्छति, तत्परिहारार्थं सवितारं प्रेरकम् एतन्नामकं देवं स्तुहि। यद्वा दोषः दूषयति नाशयति तमांसीति, दुनोति उपतपति रक्षांसीति वा दोषः स सविता आगात्—इति सा०। तदुभयमपि पदकारविरुद्धम्। तत्र दोषा उ इति पदच्छेदात्। ६. सायणस्तु बृहद्गाय इति समस्तं पदं मन्यते, बृहदाख्यस्य साम्नो गातः इति। तदपि पदकारविरुद्धं स्वरविरुद्धं च।
33_0177 दोषो आगाद् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७७-१। सवितुस्साम॥ सविता गायत्री सविता॥
दो꣤꣯षो꣥꣯आ꣯गा꣤त्॥ बृ꣢ह꣡द्गा꣯या। द्युमद्गाऽ२३मा꣢न्। आ꣡꣯थर्व꣣णा꣢ऽ३॥ स्तु꣢हि꣡। औ꣭ऽ३हो꣢ऽ३४इ॥ दे꣣꣯वा꣢ऽ३म्। स꣤वोवा꣥। ता꣤ऽ५रोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए꣣षो꣢ उ꣣षा꣡ अपू꣢꣯र्व्या꣣꣬ व्यु꣢꣯च्छति प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢। स्तु꣣षे꣡ वा꣢मश्विना बृ꣣ह꣢त् ॥ 34:0178 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए॒षो उ॒षा अपू॑र्व्या॒ व्यु॑च्छति प्रि॒या दि॒वः ।
स्तु॒षे वा॑मश्विना बृ॒हत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ए꣣षा꣢। उ꣣। उषाः꣢। अ꣡पू꣢꣯र्व्या। अ। पू꣣र्व्या। वि꣢। उ꣣च्छति। प्रिया꣢। दि꣣वः꣢। स्तु꣣षे꣢। वा꣣म्। अश्विना। बृह꣢त्। १७८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- प्रस्कण्वः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में रात्रि के हट जाने पर छिटकी हुई उषा का वर्णन किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एषा उ) यह (अपूर्व्या) अपूर्व, (प्रिया) प्रिय (उषाः) उषा के समान प्रकाशमयी धर्म, विद्या आदि की ज्योति (दिवः) द्युतिमान् (इन्द्र) अर्थात् परमेश्वर, आचार्य या राजा के पास से उत्पन्न होकर (व्युच्छति) अधर्म, अज्ञान आदि रूप अन्धकार को विदीर्ण कर छिटक रही है। (अश्विना) हे प्राकृतिक उषा से प्रकाशित द्यावापृथिवी के समान धर्म, ज्ञान आदि से प्रकाशित स्त्री-पुरुषो ! मैं (वाम्) तुम्हारी (बृहत्) बहुत अधिक (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पहले मन्त्र में रात्रि को दूर करने की प्रार्थना की गयी थी। सौभाग्य से उस हृदय-व्यापिनी राष्ट्रव्यापिनी और विश्वव्यापिनी अधर्मरूपिणी या अविद्यारूपिणी रात्रि को हटाकर दिव्य प्रकाशमयी धर्मरूपिणी या विद्यारूपिणी उषा प्रकट हो गयी है। जैसे प्राकृतिक उषा के प्रादुर्भाव से द्यावापृथिवी प्रकाश से भर जाते हैं, वैसे ही इस, विद्या, सच्चरित्रता, आध्यात्मिकता आदि की ज्योति से परिपूर्ण दिव्य उषा के प्रकाश से स्त्री-पुरुष-रूप द्यावापृथिवी दिव्य दीप्ति से देदीप्यमान हो उठे हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ निशाया अपगमे उद्भासिताम् उषसं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (एषा उ) इयं किल (अपूर्व्या२) न पूर्वं कदाचिदनुभूता, अनुपमा। पूर्वस्मिन् काले भवा पूर्व्या, न पूर्व्या अपूर्व्या, भवार्थे यत्। (प्रिया) प्रीतिकरी (उषाः) उषर्वत् प्रकाशमयी धर्मविद्यादिद्युतिः (दिवः) द्योतनात्मकात् इन्द्रात् परमेश्वराद् आचार्याद् नृपतेर्वा, तेषां सकाशादित्यर्थः (वि उच्छति) अधर्माज्ञानादिरूपं तमो विदार्य प्रस्फुरति। (अश्विना) हे अश्विनौ, द्यावापृथिवीवद् उषसः प्रकाशेन व्याप्तौ स्त्रीपुरुषौ ! अहम् (वाम्) युवाम् (बृहत्) प्रभूतम् (स्तुषे) स्तौमि, अभिनन्दामि। ष्टुञ् स्तुतौ धातोर्लेटि उत्तमैकवचने रूपम्। सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमः ॥४॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पूर्वस्मिन् मन्त्रे निशाया अपसारणं प्रार्थितम्। सौभाग्येन तां हृदयव्यापिनीं राष्ट्रव्यापिनीं विश्वव्यापिनीम् अधर्मरूपामविद्यारूपां वा निशां निरस्य दिव्यप्रकाशमयी धर्मरूपा विद्यारूपा वा उषाः प्रादुर्भूतास्ति। यथा प्राकृतिक्या उषसः प्रादुर्भावेन द्यावापृथिव्यौ प्रकाशपरिपूर्णे भवतस्तथैवास्या धर्मविद्यासच्चारित्र्याध्यात्मिकत्वादिज्योतिर्भरिताया दिव्याया उषसः प्रकाशेन स्त्रीपुरुषरूपे द्यावापृथिव्यौ दिव्यदीप्त्या देदीप्यमाने संजाते स्तः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।४६।१, देवते अश्विनौ। साम० १७२८। २. अपूर्वा एव अपूर्व्या, स्वार्थिकस्तद्धितः। प्रथमेत्यर्थः—इति वि०। पूर्वकालभवाः यस्मान्न सन्तीति—सर्वासां हि देवतानां प्रथमा उषाः। एते वा देवाः प्रातर्यावाणो यदग्निरुषा अश्विनौ (ऐ० ब्रा० २।१५) इति ऐतरेयकम्—इति भ०। अपूर्व्या पूर्वेषु मध्यरात्रादिकालेषु विद्यमाना न भवति, किन्त्विदानीन्तना—इति सा०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विदुषीणां पक्षे व्याख्यातः।
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लिखितम्
१७८-१। उषसस्साम॥ उषा गायत्र्यश्विनौ॥ (सविता)।
ए꣥꣯षो꣯उषाः॥ आ꣡पू꣯र्वि꣢या꣯। व्यु꣡च्छ꣢ति। हो꣡वा꣢ऽ३हा꣢इ। प्रिया꣡꣯दाऽ२३इवा꣢ऽ३४ः॥ स्तु꣣षा꣢ऽ३४इवा꣣꣯मा꣢ऽ३॥ श्वि꣢नो꣡ऽ२३४वा꣥। बॄ꣤ऽ५होऽ६"हा꣥इ॥