[[अथ चतुर्थप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
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अ꣡पा꣢दु शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः सु꣣द꣡क्ष꣢स्य प्रहो꣣षि꣡णः꣢। इ꣢न्द्रो꣣रि꣢न्द्रो꣣ य꣡वा꣢शिरः ॥ 01:0145 ॥
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अपा॑दु शि॒प्र्यन्ध॑सः सु॒दक्ष॑स्य प्रहो॒षिणः॑ ।
इन्दो॒रिन्द्रो॒ यवा॑शिरः ॥
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पदपाठः
अ꣡पा꣢꣯त्। उ꣣। शिप्री꣢। अ꣡न्ध꣢꣯सः। सु꣣द꣡क्ष꣢स्य। सु꣣। द꣡क्ष꣢꣯स्य। प्र꣣होषि꣡णः꣢। प्र꣣। होषि꣡णः꣢। इ꣢न्दोः꣢꣯। इन्द्रः꣢꣯। य꣡वा꣢꣯शिरः। य꣡व꣢꣯। आ꣣शिरः। १४५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र समर्पणकर्ता के सोमरस को स्वीकार करता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष मे। (शिप्री) सर्वव्यापक (इन्द्रः) परमात्मा (सुदक्षस्य) अतिकुशल, (प्रहोषिणः) प्रकृष्ट रूप से आत्मसमर्पण रूप हवि का होम करनेवाले, (इन्दोः) चन्द्रमा के समान सौम्य उपासक के (यवाशिरः) यवों के तुल्य सात्त्विक ज्ञान और कर्मों के साथ परिपक्व (अन्धसः) भक्ति-रूप सोमरस का (अपात् उ) निश्चय ही पान करता है, अर्थात् ज्ञान-कर्म-पूर्वक की गयी भक्ति को अवश्य स्वीकार करता है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (शिप्री) राजमुकुटधारी (इन्द्रः) राजा (सुदक्षस्य) सुसमृद्ध, (प्रहोषिणः) कर-रूप से राजा के लिए देय भाग को कर-विभाग में देनेवाले, (इन्दोः) राष्ट्र को सींचनेवाले प्रजाजन के (यवाशिरः) जौ, गेहूँ, तिल, चावल, मूँग उड़द आदि सहित (अन्धसः) खाद्य, पेय, वस्त्र, सोना, चाँदी, मुद्रा आदि रूप में प्रदत्त राज-कर को (अपात् उ) अवश्य ग्रहण करता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (शिप्री) किरणोंवाला (इन्द्रः) सूर्य (सुदक्षस्य) अतिशय समृद्ध, (प्रहोषिणः) अपने जल रूप हवि का होम करनेवाले भूमण्डल के (यवाशिरः) संयोगविभागकारी ताप से पककर भापरूप में परिणत होनेवाले (अन्धसः) भोज्यरूप (इन्दोः) जल का (अपात् उ) अवश्य पान करता है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे राजा प्रजाजनों के कररूप उपहार को और सूर्य भूमण्डल के जलरूप उपहार को स्वीकार करता है, वैसे ही परमात्मा उपासकों के ज्ञानकर्ममय भक्तिरस के उपहार को प्रेमपूर्वक स्वीकार करता है ॥१॥ इस मन्त्र की व्याख्या में सायणाचार्य ने जो ‘सुदक्ष’ शब्द से सुदक्ष नाम के ऋषि का ग्रहण किया है, वह अन्य भाष्यकारों के विरुद्ध होने से ही खण्डित हो जाता है, क्योंकि ‘सुदक्ष’ का अर्थ विवरणकार माधव ने ‘भले प्रकार उत्सादित’ और भरतस्वामी ने ‘अतिशय बलवान्’ किया है। इस प्रकार के प्रसिद्धार्थक शब्दों को भी नाम मान लेने पर तो वेदों के सभी सुबन्त पद किसी ऋषि या राजा के नाम हो जाएँगे ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ द्वितीये प्रपाठके द्वितीयोऽर्धः अथाद्ये मन्त्रे इन्द्रः समर्पकस्य सोमरसं स्वीकरोतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (शिप्री) सृप्री सर्वव्यापकः। यथाह निरुक्तकारः—सृप्रः सर्पणात्, सुशिप्रम् एतेन व्याख्यातम् इति। निरु० ६।१७। (इन्द्रः) परमेश्वरः (सुदक्षस्य) सुप्रवीणस्य (प्रहोषिणः२) प्रकर्षेण आत्मसमर्पणरूपं हविः जुह्वतः (इन्दोः) चन्द्रवत् सौम्यस्य उपासकस्य (यवाशिरः) यवैः यवैरिव सात्त्विकैः ज्ञानैः कर्मभिश्च आशीः आश्रपणं पाकः यस्य तस्य, ज्ञानैः कर्मभिश्च सह परिपक्वस्य। आशीः आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा इति निरुक्तम्। ६।८। अत्र अपस्पृधेथामानृचु० अ० ६।१।३६ इति आङ्पूर्वस्य श्रिञ् सेवायाम्, श्रीञ् पाके वा धातोः क्विप् शिरादेशो निपात्यते। (अन्धसः) भक्तिरूपस्य सोमस्य (अपात् उ) पानं करोति खलु, ज्ञानकर्मपूर्विकां भक्तिं स्वीकरोतीत्यर्थः ॥ अथ द्वितीयः-—राजपरः। (शिप्री) राजमुकुटधारी। शिप्राः शीर्षसु। ऋ० ५।५४।११ इति वचनात् शिप्राः शिरस्सु धारणीयाः उष्णीषमुकुटादयः। (इन्द्रः) सम्राट् (सुदक्षस्य) सुसमृद्धस्य (प्रहोषिणः) कररूपेण राजदेयभागं करविभागे प्रयच्छतः (इन्दोः) राष्ट्रसेचकस्य प्रजाजनस्य। उनत्ति राष्ट्रं क्लेदयति सिञ्चतीति इन्दुः। इन्दुः इन्धेः उनत्तेर्वा इति निरुक्तम्। १०।४०। (यवाशिरः) यवैः यवगोधूमतिलतण्डुलमुद्गमाषादिभिः आश्रितस्य सहितस्य (अन्धसः) अन्नस्य, अन्नवाचकः अन्धःशब्दः सर्वेषां भोग्यवस्तूनामुपलक्षणम्, खाद्यपेयपरिधानसुवर्णरजतमुद्रादिरूपस्य करस्य (अपात् उ) पानं ग्रहणं करोति खलु ॥ अथ तृतीयः—सूर्यपरः। (शिप्री) शिप्रयः क्षिप्रगामिनः किरणाः अस्य सन्तीति शिप्री किरणवान्। शिपयोऽत्र रश्मय उच्यन्ते इति निरुक्तम्। ५।८। रेफागमश्छान्दसः। (इन्द्रः) सूर्यः (सुदक्षस्य) सुसमृद्धस्य (प्रहोषिणः) स्वकीयं जलरूपं हविः जुह्वतः भूमण्डलस्य (यवाशिरः) यवेन संयोगविभागकर्त्रा तापेन आशीः आश्रपणं वाष्पीभवनं यस्य स यवाशीः तस्य। यवः इत्यत्र यु मिश्रणामिश्रणयोः इति धातुर्बोध्यः। (अन्धसः) भोज्यरूपस्य (इन्दोः) जलस्य। इन्दुः उदकनाम। निघं० १।१२। (अपात् उ) पानं करोति खलु ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा राजा प्रजाजनानां करोपहारं सूर्यश्च भूमण्डलस्य जलोपहारं तथैव जगदीश्वरः उपासकानां ज्ञानकर्ममयं भक्तिरसोपहारं प्रेम्णा स्वीकरोति ॥१॥ एतन्मन्त्रव्याख्याने सायणाचार्येण सुदक्षस्य एतन्नामकस्य ऋषेः इति यत्प्रोक्तं तदितरभाष्यकारविरुद्धत्वेनैवापास्तम्। सुदक्षस्य सुष्ठु उत्सादितस्य इति विवरणकारः, सुबलस्य इति भरतस्वामी। एतद्विधानां प्रसिद्धार्थकानां शब्दानां नामत्वकल्पने वेदानां सर्वाण्येव सुबन्तपदानि कस्यापि ऋषे राज्ञो वा नामतां प्रपद्येरन्।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।४ ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। २. प्रहोषिणः, जुहोतेर्दानार्थस्येदं रूपम्—इति वि०। स्तुतिमतः—इति भ०। प्रकर्षेण देवान् हविर्भिर्जुह्वतः—इति सा०।
01_0145 अपादु शिप्र्यन्धसः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४५-१। औपगवे द्वे॥ द्वयोः उपगुः गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥पा꣯दुशी॥ प्रि꣢य꣡न्धसाः। सुदक्षाऽ२३स्या꣢। प्रहो꣯षि꣡णः॥ इन्दो꣯राऽ२३इन्द्राः꣢॥ यवा꣡꣯शाऽ२३इराः꣢। ऐ꣯। हि꣡याऽ२᳐इ। हि꣣या꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। उ꣡पा꣢ऽ३१२३꣡४꣡५꣡॥
01_0145 अपादु शिप्र्यन्धसः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१४५-२। औपगवोत्तरम् सौश्रवसम् वा॥
अ꣥पा꣯दू꣢ऽ३शि꣤प्रिय꣥न्धसाः॥ सु꣢द꣡क्षस्यप्रहो꣯षिणाः। इ꣢न्दौऽ᳒२᳒। हौऽ᳒२᳒। हु꣡वाऽ२३इ। आ꣢ऽ᳐३४इन्द्रो꣥॥ यवा꣯शा꣤इराः꣥॥ ऐ꣢꣯। हाऽ᳒२᳒ए꣡ऽ२३। हिया꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। उ꣡पा꣢ऽ३१२३꣡४꣡५꣡॥
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इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा पुरुवसो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नवु꣣र्गि꣡रः꣢। गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥ 02:0146 ॥
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पदपाठः
इ꣣माः꣢। उ꣣। त्वा। पुरूवसो। पुरु। वसो। अभि꣢। प्र। नो꣣नुवुः। गि꣡रः꣢꣯। गा꣡वः꣢꣯। व꣣त्स꣢म्। न। धे꣣न꣡वः꣢। १४६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में उपासक जन परमात्मा को कह रहे हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरूवसो) विद्या, सुवर्ण, सद्गुण आदि बहुत से धनों के स्वामी परमात्मन् ! (इमाः उ) ये हमारे द्वारा उच्चारण की जाती हुई (गिरः) भावपूर्ण स्तुतिवाणियाँ (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (प्र नोनुवुः) प्रकृष्ट रूप से अतिशय पुनः-पुनः शब्दायमान हो रही हैं, (धेनवः) अपना दूध पिलाने के लिए उत्सुक (गावः) गौएँ (वत्सं न) जैसे अपने बछड़े को लक्ष्य करके रँभाती हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर ! जैसे गौएँ अपने प्यारे बछड़े को देखकर पौस कर उसे अपना दूध पिलाने के लिए रँभाती हैं, वैसे ही हमारी रस-भरी स्तुति-वाणियाँ भक्ति-रस को उद्वेल्लित सा करती हुई प्राणों से भी प्रिय आपको वह रस पिलाने के लिए आपके प्रति बहुत अधिक शब्दायमान हो रही हैं और आपकी स्तुति कर रही हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथोपासका जनाः परमात्मानमाहुः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (पुरूवसो) पुरूणि बहूनि वसूनि विद्याहिरण्यसद्गुणादीनि धनानि यस्य स पुरूवसुः, तादृश हे परमात्मन् ! संहितायां पूर्वपदस्य छान्दसो दीर्घः। (इमाः उ) एता हि अस्मदुच्चार्यमाणाः (गिरः) भावभरिताः स्तुतिवाचः (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (प्र नोनुवुः) प्रकर्षेण भृशं पुनः पुनः शब्दायन्ते। णु स्तुतौ धातोर्यङ्लुकि प्रयोगः। (धेनवः२) स्वकीयं पयः पाययितुं समुत्सुकाः। धापयति स्वकीयं पयो या सा धेनुः। धेट् पाने धातोः धेट इच्च। उ० ३।३४ इति नु प्रत्ययः। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वा। निरु० ११।४३। (गावः) क्षीरिण्यः (वत्सं न) यथा वत्सम् अभिलक्ष्य प्र नोनुवन्त हम्भाशब्दं कुर्वन्ति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर ! यथा धेनवः स्वकीयं प्रियं वत्समवलोक्य प्रस्नुतपयोधराः सत्यः तं पयः पाययितुं हम्भारवं कुर्वन्ति, तथैवास्मदीया रसभरिताः स्तुतिवाचः भक्तिरसमुद्वेल्लयन्त्य इव प्राणेभ्योऽपि प्रियं त्वां तं रसं पाययितुं त्वां प्रति भृशं शब्दायन्ते, त्वां स्तुवन्ति च ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४५।२५, २८ ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। इमा उ त्वा शतक्रतोऽभि प्र णोनुवुर्गिरः। इन्द्र वत्सं न मातरः ॥ इमा उ त्वा सुते सुते नक्षन्ते गिर्वणो गिरः। वत्सं गावो न धेनवः ॥ इति द्वयोर्ऋचोः पाठः। २. धेनवः अचिरप्रसूताः—इति वि०। दोग्ध्र्यः—इति भ०।
02_0146 इमा उ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४६-१। त्वाष्ट्रीसाम॥ त्वष्टा गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥मा꣯उत्वा॥ पु꣡रूऽ᳒२᳒वा꣡साऽ᳒२᳒उ। अ꣡भिप्रनो꣯नवूऽ᳒२᳒र्गा꣡इराऽ२ः᳐॥ औ꣣꣯हो꣢ऽ१इ। गा꣢꣯वो꣯वा꣡त्साऽ२३म्॥ ना꣡ऽ२३धे꣤ऽ३। ना꣢ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢꣯पी꣣꣬च्य꣢꣯म्। इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥ 03:0147 ॥
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अत्राह॒+++(=अस्मिन्नेव)+++ गोर्+++(=गन्तुः [चन्द्रमसो])+++ अ॑मन्वत॒
नाम॒ त्वष्टु॑र्+++(=दीप्तस्यादित्यस्य)+++ अपी॒च्य॑म्+++(=अपचितम्, अन्तर्हितम् [रात्रौ])+++ ।
इ॒त्था+++(=इत्थं)+++ च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥
+++(स्वच्छे चंद्रबिंबे सूर्यकिरणाः प्रतिफलन्ति ।)+++
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पदपाठः
अ꣡त्र꣢꣯। अ꣡ह꣢꣯। गोः। अ꣣मन्वत। ना꣡म꣢꣯। त्व꣡ष्टुः꣢꣯। अ꣣पीच्य꣢꣯म्। इ꣣त्था꣢। च꣣न्द्र꣡म꣢सः। च꣣न्द्र꣢। म꣣सः। गृहे꣢। १४७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सूर्य से चन्द्रमा और परमेश्वर से स्तोता का हृदय प्रकाशित होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सूर्य से चन्द्रमा के प्रकाशित होने के पक्ष में। (त्वष्टुः) विच्छेदक, प्रकाश द्वारा शीघ्र व्याप्तिशील, देदीप्यमान सूर्य की (गोः) सुषुम्णनामक रश्मि के (अत्र अह) इस (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डल में (अपीच्यम्) प्रच्छन्न रूप से (नाम) अवस्थान को, विद्वान् लोग (इत्था) सत्य रूप में (अमन्वत) जानते हैं। अर्थात् चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है, इस रहस्य को विद्वान् लोग भली-भाँति समझते हैं ॥ निरुक्त में कहा है कि आदित्य का एक रश्मिसमूह चन्द्रमा में जाकर दीप्त होता है, अर्थात् आदित्य से चन्द्रमा की दीप्ति होती है, जैसा कि वेद में कहा है सुषुम्ण नामक सूर्य रश्मियाँ हैं, चन्द्रमा उन रश्मियों को धारण करने के कारण गन्धर्व है’’ (य० १८।४०)। ‘अत्राह गोरमन्वत’ आदि मन्त्र में ‘गोः’ पद चन्द्रमा को प्रकाशित करनेवाली उन सुषुम्ण नामक सूर्यरश्मियों के लिए ही आया है ॥ द्वितीय—परमात्मापरक अर्थ। (त्वष्टुः) दुःखों के विच्छेदक, सर्वत्र व्यापक, तेज से प्रदीप्त और जगत् के रचयिता इन्द्र नामक परमेश्वर की (गोः) दिव्य प्रकाशरश्मि का (अत्र अह) इस (चन्द्रमसः गृहे) मन रूप चन्द्र के निवासस्थान हृदय में (अपीच्यं नाम) आगमन को, उपासक लोग (इत्था) सत्य रूप में (अमन्वत) अनुभव करते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित होता है, वैसे ही परमेश्वर के प्रकाश से स्तुतिकर्ताओं के हृदय प्रकाशित होते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
सूर्याच्चन्द्रः परमेश्वराच्च स्तोतुर्हृदयं प्रकाशत इत्याह।१
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सूर्याच्चन्द्रप्रकाशनपरः। (त्वष्टुः) विच्छेदकस्य, प्रकाशद्वारा शीघ्रं व्यापनशीलस्य, दीप्तस्य इन्द्रस्य३ सूर्यस्य। त्वक्ष तनूकरणे धातो रूपमिदम्। “त्वष्टा तूर्णमश्नुते इति नैरुक्ताः, त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः, त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः” इति निरुक्तम्। ८।१४। (गोः) सुष्म्णरश्मेः (अत्र अह) अस्मिन् खलु (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डले (अपीच्यम्) अन्तर्हितं यथा स्यात्तथा, प्रच्छन्नरूपेणेत्यर्थः। अपीच्यमिति निर्णीतान्तर्हितनाम। निघं० ३।२५। (नाम) नमनम्, अवस्थानम्, विद्वांसः (इत्था) सत्यम्। इत्थेति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (अमन्वत) मन्वते जानन्ति। मनु अवबोधने, तनादिः, लडर्थे लङ्। चन्द्रमाः सूर्यकिरणं प्रकाशितो भवतीति रहस्यं विद्वांसः सम्यग् विदन्तीति भावः ॥ अत्र निरुक्तम्। “अथाप्यस्य (आदित्यस्य) एको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्यम्, आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवतीति।” सुषु॒म्णः सूर्यर॑श्मिश्च॒न्द्रमा गन्ध॒र्वः य० १८।४० इत्यपि निगमो भवति। सोऽपि गौरुच्यते (निरु० २।६)। “अत्राह॒ गोर॑मन्व॒त”। (ऋ० १।८४।१५)। अत्र ह गोः सममंसतादित्यरश्मयः स्वं नाम अपीच्यम् अपचितम् अपगतम् अपहितम् अन्तर्हितं वाऽमुत्र चन्द्रमसो गृहे (निरु० ४।२४) इति॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (त्वष्टुः) दुःखविच्छेदकस्य, सर्वत्र व्यापकस्य, तेजसा दीप्तस्य, सर्वजगद्रचयितुश्च इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य (गोः) दिव्यप्रकाशरश्मेः। सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यन्ते इति निरुक्तम् २।७। (अत्र अह) अस्मिन् किल (चन्द्रमसः गृहे) मनसो निवासस्थाने हृदये। चन्द्रमसो मनसश्च सम्बन्धो बहुशो वर्णितः। यथा च॒न्द्रमा॒ म॑नसो जा॒तः। ऋ० १०।९०।१३। यत्तन्मन आसीत् स चन्द्रमा अभवत्। जै० उ० ब्रा० २।१।२।२। चन्द्रमा मनः। ऐ० आ० २।१।५। यत्तन्मन एष स चन्द्रमाः। श० १०।३।३।७ इति। (अपीच्यं नाम) अपिगमनम्। नामेति वाक्यालङ्कारे। उपासकाः (इत्था) सत्यतया (अमन्वत) अनुभवन्ति ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सूर्यस्य प्रकाशेन चन्द्रः प्रकाशितो भवति तथैव परमेश्वरस्य प्रकाशेन स्तोतॄणां हृदयानि प्रकाशन्ते ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. अत्र राज्ञः सूर्यवत् कृत्यमुपदिश्यते—इति ऋग्भाष्ये द०। २. ऋ० १।८४।१५, अथ० २०।४१।३, साम० ९१५। ३. ऋचः इन्द्रदेवताकत्वात् त्वष्टुः इतीन्द्रस्य विशेषणं ज्ञेयम्।
03_0147 अत्राह गोरमन्वत - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४७-१। त्वष्टुरातिथ्ये द्वे॥ त्वष्टा गायत्रीन्द्रः॥ (त्वष्टृचन्द्रमसौ वा)।
आ꣤त्रा꣥॥ हा꣢꣯गो꣡꣯रमन्वताउवाऽ२३। हो꣡वाऽ२३हो꣡इ॥ ना꣯मत्वष्टुरपी꣯चियाउवाऽ२३। हो꣡वाऽ२३हो꣡इ॥ इ꣢त्था꣡꣯चन्द्रमसो꣯गृहाउवाऽ२३। हो꣡वाऽ२३हो꣡ऽ२᳐। वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
03_0147 अत्राह गोरमन्वत - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१४७-२।हा꣤वात्रा꣥॥ हा꣢꣯गो꣡꣯रमन्वताउवाऽ२३। हो꣡इयाऽ२३। हाऽ᳒२᳒ऊ꣡वाइ॥ ना꣯मत्वष्टुरपी꣯चियामियाउवाऽ२३हो꣡वाऽ२३हाऽ᳒२᳒ई꣡या॥ इ꣢त्था꣡꣯चन्द्रमसो꣯गृहाउवाऽ२३। हो꣡इयाऽ२३। हाऽ᳒२᳒ऊ꣡वाऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
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य꣢꣫दिन्द्रो꣣ अ꣡न꣢य꣣द्रि꣡तो꣢ म꣣ही꣢र꣣पो꣡ वृष꣢꣯न्तमः। त꣡त्र꣢ पू꣣षा꣡भु꣢व꣣त्स꣡चा꣢ ॥ 04:0148 ॥
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TODO: MISSING
04_0148 यदिन्द्रो अनयद्रितो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४८-१। पौषे द्वे॥ द्वयोः पूषा गायत्रीन्द्र पूषणौ॥
य꣥दिन्द्रो꣯या॥ ना꣡याऽ२३त्। ओ꣡मो꣢ऽ३म्। ओ꣤वा꣥। रि꣡तो꣯मही꣯रापाऽ२३ः। ओ꣡मो꣢ऽ३म्। ओ꣤वा꣥॥ वृ꣡षावृ꣪षाऽ२᳐॥ त꣣मा꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ त꣡त्र꣢पू꣯षा꣡꣯भु꣢वत्स꣡चा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
04_0148 यदिन्द्रो अनयद्रितो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१४८-२।
य꣥दिन्द्रो꣯अनयद्रिताऽ६ए꣥॥ म꣡ही꣯रापाऽ᳒२ः᳒। म꣡ही꣯रापाऽ२३ः॥ वा꣡र्ष꣢न्ता꣣ऽ२३४माः꣥॥ त꣡त्रापूषा꣢ऽ३। पू꣡ऽ२᳐षा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भु꣢वत्स꣡चा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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गौ꣡र्ध꣢यति म꣣रु꣡ता꣣ꣳ श्रव꣣स्यु꣢र्मा꣣ता꣢ म꣣घो꣡ना꣢म् । यु꣣क्ता꣢꣫ वह्नी꣣ र꣡था꣢नाम् ॥ 04:0149 ॥
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पदपाठः
य꣢त्। इ꣡न्द्रः꣢꣯। अ꣡न꣢꣯यत्। रि꣡तः꣢꣯। म꣣हीः꣢। अ꣣पः꣢। वृ꣡ष꣢꣯न्तमः। त꣡त्र꣢꣯। पू꣣षा꣢। अ꣣भुवत्। स꣡चा꣢꣯। १४८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमेश्वर ही सूर्य द्वारा भूमियों और जलों को गति देता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृषन्तमः) अतिशय बलवान् अथवा वृष्टिकर्ता (इन्द्रः) परमेश्वर (यत्) जब (रितः) गति करनेवाली (महीः) पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रह रूप भूमियों को (अनयत्) अपनी-अपनी कक्षाओं में सूर्य के चारों ओर घुमाता है, और (अपः) जलों को (अनयत्) भाप बनाकर ऊपर और वर्षा द्वारा नीचे पहुँचाता है, तब (तत्र) उस कर्म में (पूषा) पुष्टिप्रद सूर्य (सचा) सहायक (अभुवत्) होता है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - महामहिमाशाली जगदीश्वर ही सूर्य, विद्युत्, बादल, आदि को साधन बनाकर सब प्राकृतिक नियमों का संचालन कर रहा है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
परमेश्वर एव सूर्यद्वारा भूमीरपश्च गमयतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृषन्तमः) बलवत्तमः वर्षकतमो वा (इन्द्रः) परमेश्वरः (यत्) यदा (रितः२) गन्त्रीः। रिणन्तीति रितः। रिणातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। क्विपि ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् अ० ६।१।७१ इति तुक्। (महीः) पृथिवीचन्द्रादिग्रहोपग्रहरूपाः भूमीः, (अनयत्) स्वस्वरक्षासु सूर्यं परितो भ्रमयति, (अपः) जलानि च (अनयत्) वाष्पीकरणेन ऊर्ध्वं वर्षणेन च अधः प्रापयति, तदा (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (पूषा) पुष्टिप्रदः सूर्यः (सचा) सहायकः। सचा सह। निरु० ५।५। (अभुवत्) भवति। भू धातोर्लङि छन्दसि गुणाभावे उवङादेशः ॥४॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - महामहिमशालिना जगदीश्वरेणैव सूर्यविद्युत्पर्जन्यपवनादीन् साधनतां नीत्वा सर्वे प्राकृतिकनियमाः सञ्चाल्यन्ते ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।५७।४ देवते इन्द्रापूषणौ। भुवत् इत्यत्र भवत् इति पाठः। २. रितः गन्त्रीः महीः भूमीः, अपः जलानि—इति ऋग्भाष्ये द०। इन्द्रो रितः गतः प्राप्तः सन्नित्यर्थः। महीरपः महान्ति वृष्टिलक्षणान्युदकानि—इति वि०। रितः गन्त्र्यः। रियतेर्गतिकर्मणः क्विपि रूपं रिदिति। महीः महतीः अपः—इति भ०। रितः गच्छतीः महीः महतीः अपः वृष्ट्युदकानि—इति सा०। ३. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये मन्त्रस्यास्य व्याख्याने इन्द्र शब्देन विद्युत्, पूषन् शब्देन च भूमिर्गृहीता।
04_0149 गौर्धयति मरुताम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४९-१। श्यावाश्वे द्वे॥ द्वयोः श्यावाश्वो विराड्गायत्रीन्द्रः॥ मरुतो वा।
गौ꣥꣯र्धयाऽ६ए꣥॥ ति꣢मरुताऽ३म्। श्र꣡वास्यु꣪र्मा꣭ऽ३। ता꣢मघो꣣ऽ२३४ना꣥म्॥ यु꣡क्ताव꣪ह्नाइः॥ र꣣था꣢ऽ३। ना꣡ऽ२᳐मा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥॥
04_0149 गौर्धयति मरुताम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१४९-२।
गौ꣥꣯र्धयतिमरुताऽ६मे꣥॥ श्र꣢वस्यु꣡र्मा꣰꣯ऽ२ता꣡꣯मघो꣯ना꣰꣯ऽ२म्। उहु꣡वाऽ२३हा꣢इ॥ युक्ता꣡꣯वाऽ२३ह्नीः꣢॥ उहु꣡वाऽ२३हा꣢इ᳐। र꣣था꣢꣯ना꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣तं꣢ या꣣हि꣡ म꣢दानां पते। उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥ 06:0150 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ नो॒ हरि॑भिः सु॒तं या॒हि म॑दानां पते ।
उप॑ नो॒ हरि॑भिः सु॒तम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣡प꣢꣯। नः꣣। ह꣡रि꣢꣯भिः। सु꣣त꣢म्। या꣣हि꣢। म꣣दानाम्। पते। उ꣡प꣢꣯। नः꣣। ह꣡रि꣢꣯भिः। सु꣣त꣢म्। १५०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में उपासक परमात्मा को और बालक के माता-पिता आचार्य को कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (मदानां पते) आनन्दों के अधिपति परमात्मन् ! आप (नः) हमारे (हरिभिः) ज्ञान को आहरण करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये ज्ञान को (उप याहि) प्राप्त हों। (नः) हमारे (हरिभिः) कर्म को आहरण करनेवाली कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पादित कर्म को (उप याहि) प्राप्त हों ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे (मदानां पते) हर्षप्रदायक ज्ञानों के अधिपति, विविध विद्याओं में विशारद आचार्यप्रवर ! आप (हरिभिः) ज्ञान का आहरण करानेवाले अन्य गुरुजनों के साथ (नः) हमारे (सुतम्) गुरुकुल में प्रविष्ट पुत्र के (उप याहि) पास पहुँचिए। (हरिभिः) दोषों को हरनेवाले अन्य गुरुओं के साथ (नः) हमारे (सुतम्) गुरुकुल में प्रविष्ट पुत्र के (उप याहि) पास पहुँचिए ॥५॥ इस मन्त्र श्लेषालङ्कार है, ‘उप नः हरिभिः सुतम्’ की आवृत्ति में पादावृत्ति यमक है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासक लोग परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हमारे प्रत्येक ज्ञान और प्रत्येक कर्म में यदि आप व्याप्त हो जाते हैं, तभी हमारा जीवन-यज्ञ सफ़ल होगा। और अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट कर माता-पिता कुलपति से प्रार्थना करते हैं कि आप विद्याओं को पढ़ाने और चरित्र-निर्माण के लिए अन्य गुरुजनों सहित कृपा करके प्रतिदिन हमारे पुत्र के साथ सान्निध्य करते रहना ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
उपासकाः परमात्मानं, बालकस्य मातापितरश्चाचार्यं ब्रुवन्ति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (मदानां पते) आनन्दानाम् अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (हरिभिः) ज्ञानाहरणशीलैः ज्ञानेन्द्रियैः (सुतम्) अभिषुतम् उत्पादितं ज्ञानम् (उप याहि) उपगच्छ। (नः) अस्माकम् (हरिभिः) कर्माहरणशीलैः कर्मेन्द्रियैः सुतम् अभिषुतं कृतं कर्म उप (याहि) उपगच्छ ॥ अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे (मदानां पते) माद्यन्ति हर्षन्ति एभिरिति मदाः ज्ञानानि तेषाम् अधिपते विविधविद्याविशारद इन्द्राख्य आचार्य ! त्वम् (हरिभिः) ज्ञानाहरणशीलैः इतरैः गुरुजनैः सह (नः) अस्माकं (सुतम्) गुरुकुले कृतप्रवेशं पुत्रम् (उप याहि) उपगच्छ। (हरिभिः) दोषहरणशीलैः इतरैः गुरुजनैः सह (नः) अस्माकम् (सुतम्) गुरुकुले कृतप्रवेशं पुत्रम् (उपयाहि) उपगच्छ, प्राप्नुहि ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः उप नः हरिभिः सुतम् इत्यस्यावृत्तौ च पादावृत्ति यमकम् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - उपासका जनाः परमेश्वरं प्रार्थयन्ते यत् अस्माकं प्रतिज्ञानं प्रतिकर्म च त्वं चेद् व्याप्नोषि तदैवास्माकं जीवनयज्ञः सफलः। स्वपुत्रं गुरुकुलं प्रवेश्य मातापितरश्च कुलपतिं प्रार्थयन्ते यत् त्वं विद्याध्ययनाय चरित्रनिर्माणाय चान्यैर्गुरुजनैः सह प्रतिदिनमस्माकं पुत्रेण कृपया सन्निधिं कुरु ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।३१, ऋषिः सुकक्षः। साम० १७९०।
06_0150 उप नो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५०-१। सुतंरयिष्ठीये द्वे॥ द्वयोः प्रजापतिर्निचृत् गायत्रीन्द्रः॥उ꣢प꣡नोऽ२३ह꣤रिभि꣥स्सुतो꣤वा꣥॥ या꣢꣯हि꣡मदा꣢ऽ३ना꣯म्प꣢। ता꣡ऽ२३इ॥ उ꣢प꣣नो꣢ऽ३। हा꣢ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥॥ रा꣣ऽ२३४इभीः꣥। सु꣢ता꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
06_0150 उप नो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५०-२।
उ꣥पनो꣯हा꣯हो꣤हा꣥। रा꣤इभीः꣥॥ सू꣡ऽ२३ता꣢म्। या꣡हिम꣢दा꣯। नां꣡꣯पाऽ२३ता꣢इ॥ उ꣣पा꣢᳐नो꣣ऽ२३४हा꣥॥ रा꣡ऽ२᳐इभा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सु꣢तꣳ꣡रयि꣢ष्ठा꣡ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣ष्टा꣡ होत्रा꣢꣯ असृक्ष꣣ते꣡न्द्रं꣢ वृ꣣ध꣡न्तो꣢ अध्व꣣रे꣢। अ꣡च्छा꣢वभृ꣣थ꣡मोज꣢꣯सा ॥ 07:0151 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒ष्टा होत्रा॑ असृक्ष॒तेन्द्रं॑ वृ॒धासो॑ अध्व॒रे ।
अच्छा॑वभृ॒थमोज॑सा ॥
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पदपाठः
इ꣣ष्टाः꣢। हो꣡त्राः꣢꣯। अ꣣सृक्षत। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। वृ꣣ध꣡न्तः꣢। अ꣣ध्वरे꣢। अ꣡च्छ꣢꣯। अ꣣वभृथ꣢म्। अ꣣व। भृथ꣢म्। ओ꣡ज꣢꣯सा। १५१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यजमानों का व्यवहार वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अध्वरे) हिंसादि दोषों से रहित अग्निहोत्र में, जीवन-यज्ञ में अथवा उपासना-यज्ञ में (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली, दुःखविदारक, मुक्तिदायक परमात्मा को (वृधन्तः) बढ़ाते हुए अर्थात् उत्तरोत्तर हृदय में विकसित करते हुए यजमानगण (ओजसा) बलपूर्वक अर्थात् पूरे प्रयास से (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्त स्नान को लक्ष्य करके अर्थात् हम शीघ्र यज्ञ को पूर्ण करके यज्ञान्त स्नान करें, इस बुद्धि से (इष्टाः) अभीष्ट (होत्राः) आहुतियों को (असृक्षत) छोड़ते हैं ॥ यहाँ यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिए कि राष्ट्रयज्ञ को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए पूरे प्रयत्न से राजा को बढ़ाते हुए अर्थात् अपने सहयोग से शक्तिशाली करते हुए प्रजाजन राष्ट्र के लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अग्निहोत्र, जीवनयज्ञ, ध्यानयज्ञ, राष्ट्रयज्ञ, सभी यज्ञ आहुति देने से, परार्थ त्याग करने से या आत्मबलिदान करने से पूर्णता को प्राप्त होते हैं ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ यजमानानां व्यवहारमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अध्वरे) हिंसादिदोषरहितेऽग्निहोत्रे जीवनयज्ञे उपासनायज्ञे वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशालिनं दुःखविदारकं मुक्तिदायकं परमात्मानम् (वृधन्तः) वर्धयन्तः उत्तरोत्तरं हृदि विकासयन्तो यजमानाः (ओजसा) बलेन, पूर्णप्रयत्नेन (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्तस्नानम् अभिलक्ष्य, वयं सद्यः यज्ञं सम्पूर्य यज्ञान्तस्नानं कुर्यामेति बुद्ध्या (इष्टाः) अभीष्टाः (होत्राः) आहुतीः (असृक्षत) विसृजन्ति, प्रयच्छन्ति। सृज विसर्गे दिवादेर्लुङि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्। लडर्थे लुङ् ॥ राष्ट्रयज्ञं पूर्णतां नेतुं पूर्णप्रयासेन इन्द्रं राजानं वर्धयन्तः स्वसहयोगेन शक्तिशालिनं कुर्वन्तः प्रजाजनाः राष्ट्राय सर्वविधं त्यागं कर्तुमुद्यता भवन्तीत्यर्थोऽप्यनुसन्धेयः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अग्निहोत्रं वा, जीवनयज्ञो वा, ध्यानयज्ञो वा, राष्ट्रयज्ञो वा, सर्वोऽपि यज्ञ आहुतिविसर्जनेन, परार्थत्यागेनात्मबलिदानेन वा पूर्णतां गच्छति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।२३, ऋषिः सुकक्षः,। वृधन्तो इत्यत्र वृधासो इति पाठः।
07_0151 इष्टा होत्रा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५१-१। इष्टाहोत्रीयम्॥ अप्सरसो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥ष्टा꣯हो꣤त्राः꣥॥ आ꣡सृ꣢क्षा꣣ऽ२३४ता꣥। इ꣢न्द्रं꣡वृधा। तो꣪ऽ२᳐ध्वा꣣ऽ२३४रा꣥इ॥ आ꣡च्छा꣢ऽ३᳐वो꣤भॄ꣥॥ थ꣣मो꣢ऽ३जा꣤ऽ५साऽ६५६॥ ए꣢ऽ᳐३। उ꣢दधि꣡र्निधी꣢ऽ१ः॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣ह꣢꣫मिद्धि पि꣣तु꣡ष्परि꣢꣯ मे꣣धा꣢मृ꣣त꣡स्य꣢ ज꣣ग्र꣡ह꣢। अ꣣ह꣡ꣳ सूर्य꣢꣯ इवाजनि ॥ 08:0152 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒हमिद्धि पि॒तुष्परि॑ मे॒धामृ॒तस्य॑ ज॒ग्रभ॑ ।
अ॒हं सूर्य॑ इवाजनि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣ह꣢म्। इत्। हि। पि꣣तुः꣢। प꣡रि꣢꣯। मे꣣धा꣢म्। ऋ꣣त꣡स्य꣢। ज꣣ग्र꣡ह꣢। अ꣣ह꣢म्। सू꣡र्यः꣢꣯। इ꣣व। अजनि। १५२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में उपासक अपनी उपलब्धि का वर्णन कर रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अहम्) मैंने (इत् हि) सचमुच (पितुः परि) पिता इन्द्र परमेश्वर से (ऋतस्य मेधाम्) सत्याचरण की मेधा को अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा को (जग्रह) ग्रहण कर लिया है। उससे प्रकाशमान हुआ (अहम्) अध्यात्मपथ का पथिक मैं (सूर्यः इव) सूर्य के समान (अजनि) हो गया हूँ ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पिता परमेश्वर की उपासना से मनुष्य सत्यज्ञान, सत्य आचरण और ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त करके सूर्य के समान प्रकाशमान होकर मुक्ति उपलब्ध कर सकता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथोपासकः स्वोपलब्धिं वर्णयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (अहम्) परमेश्वरोपासकः (इत् हि) किल (पितुः२ परि) पितुं इन्द्रात् परमेश्वरात्। परि इति पञ्चम्यर्थानुवादी, ‘पञ्चम्याः परावध्यर्थे।’ अ० ८।३।५१ इति विसर्जनीयस्य सत्वम्, ततो मूर्धन्यादेशः। (ऋतस्य मेधाम्) सत्याचरणस्य प्रज्ञाम्, ऋतम्भरां प्रज्ञां वा। निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः। ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। योग० १।४७, ४८ इति योगदर्शने व्याख्यातम्। (जग्रह) गृहीतवानस्मि। ऋतम्भराप्रज्ञाप्रकाशेन प्रकाशमानश्च (अहम्) अध्यात्मपथिकः (सूर्यः इव) आदित्यः इव (अजनि) जातोऽस्मि ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - पितुः परमेश्वरस्योपासनया मनुष्यः सत्यज्ञानं सत्याचरणम् ऋतम्भरां प्रज्ञां च प्राप्य सूर्य इव प्रकाशमानः सन् कैवल्यमधिगन्तुमर्हति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६।१०, अथ० २०।११५।१, उभयत्र जग्रह इत्यस्य स्थाने जग्रभ इति पाठः। साम० १५००। २. अहम् (वत्स ऋषिः) पितुः कण्वस्य सकाशाद्—इति वि०। भरतस्वामिनोऽपि तदेवाभिप्रेतम्। पितुः पालकस्य ऋतस्य सत्यस्यापि तस्येन्द्रस्य मेधाम् अनुग्रहात्मिकां बुद्धिम्—इति सा०।
08_0152 अहमिद्धि पितुष्परि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५२-१। प्रजापतेर्निधनकामं सिन्धुषाम वा॥ प्रजापतिर्गायत्रीन्द्रः॥ सूर्यो वा।
अ꣤हमिद्धाऽ५इपितुᳲप꣤राइ॥ मे꣢꣯धा꣡꣯मृतस्यजग्रहा। अ꣢हꣳ꣡सू꣯र्याः॥ इ꣪वाऽ२३४। हा꣣꣯हो꣢इ॥ ज꣡नि। होइ। होइ। औ꣢꣯हो꣡꣯औ꣢꣯हो꣡वाऽ२३꣡४꣡५꣡हाउ॥ वा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रे꣣व꣡ती꣢र्नः सध꣣मा꣢द꣣ इ꣡न्द्रे꣢ सन्तु तु꣣वि꣡वा꣢जाः। क्षु꣣म꣢न्तो꣣ या꣢भि꣣र्म꣡दे꣢म ॥ 09:0153 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः ।
क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
रे꣣व꣡तीः꣢। नः꣣। सधमा꣡दे꣢। स꣣ध। मा꣡दे꣢꣯। इ꣡न्द्रे꣢꣯। स꣣न्तु। तुवि꣡वा꣢जाः। तु꣣वि꣢। वा꣣जाः। क्षुम꣡न्तः꣢। या꣡भिः꣢꣯। म꣡दे꣢꣯म। १५३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनः शेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा और राजा के संरक्षण में सब सुखी हों।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नः) हमारी (रेवतीः) प्रशस्त ऐश्वर्यवाली प्रजाएँ (सधमादे) जिसके साथ रहते हुए लोग आनन्द प्राप्त करते हैं, ऐसे (इन्द्रे) परमैश्वर्यशाली परमात्मा और राजा के आश्रय में (तुविवाजाः) बहुत बल और विज्ञान से सम्पन्न (सन्तु) होवें, (याभिः) जिन प्रजाओं के साथ (क्षुमन्तः) प्रशस्त अन्नादि भोग्य सामग्री से सम्पन्न, प्रशस्त निवास से सम्पन्न और प्रशस्त कीर्ति से सम्पन्न हम (मदेम) आनन्दित हों ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब प्रजाजनों को चाहिए कि वे इन्द्रनामक परमात्मा और राजा के मार्गदर्शन में सब कार्य करें, जिससे वे रोग, भूख, अकालमृत्यु आदि से पीड़ित न हों, प्रत्युत सब सात्त्विक खाद्य, पेय आदि पदार्थों को और बल, विज्ञान आदि को प्राप्त करते हुए समृद्ध होकर अधिकाधिक आनन्द को उपलब्ध करें ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनो नृपस्य च संरक्षणे सर्वे सुखिनः सन्त्वित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (नः) अस्माकम् (रेवतीः) रयिमत्यः प्रशस्तेन ऐश्वर्येण सम्पन्नाः प्रजाः। रयिः प्रशस्तं धनं विद्यते यासु ताः प्रजाः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। अ० ६।१।३७ वा० अनेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीरः। अ० ८।२।१५ इति मस्य वत्वम्। वा छन्दसि। अ० ६।१।१०६ इति नियमेन पूर्वसवर्णदीर्घः। (सधमादे) सह माद्यन्ति हर्षन्ति जना अत्र इति सधमादः, तस्मिन् (इन्द्रे) परमैश्वर्यशालिनि परमेश्वरे राज्ञि च, तयोराश्रये मार्गदर्शने इति यावत् (तुविवाजाः२) बहुबलाः बहुविज्ञानाश्च। वाज इति बलनाम। निघं० २।९। सन्तु भवन्तु, (याभिः) विड्भिः प्रजाभिः सह (क्षुमन्तः३) प्रशस्तान्नादिभोग्यसम्भारसम्पन्नाः प्रशस्तनिवासवन्तः प्रशस्तकीर्तिमन्तो वा वयम्। क्षु इत्यन्ननाम। निघं० २।७। क्षि निवासगत्योः औणादिको डु प्रत्ययः। (मदेम) आनन्देम। मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः ॥९॥४
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अखिलैरपि प्रजाजनैरिन्द्राख्यस्य परमात्मनो नृपतेश्च मार्गदर्शने सर्वमपि कार्यं विधेयम्, येन ते रोगबुभुक्षाऽकालमरणादिभिर्न पीड्येरन् प्रत्युत समस्तानि सात्त्विकखाद्यपेयादीनि बलविज्ञानादीनि च प्राप्नुवन्तः समृद्धाः सन्तः प्रचुरप्रचुरं मोदमवाप्नुयुः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।३०।१३, अथ० २०।१२२।१, साम० १०८४। २. तुविवाजाः तुवि बहुविधो वाजो विद्याबोधो यासां ताः विशः प्रजाः—इति ऋ० १।३०।१३ भाष्ये द०। प्रभूतान्नाः—इति वि०। बह्वन्नाः—इति भ०। प्रभूतबलाः—इति सा०। ३. क्षुमन्तः। क्षु, क्षु शब्दे इत्यस्येदं रूपम्। शब्दवन्तः कीर्तिमन्तः—इति वि०। कीर्तिमन्तः—इति भ०। अन्नवन्तः—इति सा०। बहुविधं क्षु अन्नं विद्यते येषां ते—इति ऋग्भाष्ये द०। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणाऽयं मन्त्रः प्रजानां परमैश्वर्यप्राप्तिपक्षे व्याख्यातः।
09_0153 रेवतीर्नः सधमाद - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५३-१। रेवत्यः वाजदावर्यो वा॥ वाजदावर्यो प्रजापतिर्गायत्रीन्द्रः॥
रे꣥꣯वती꣯र्नाः॥ स꣡धाऽ२᳐मा꣣ऽ२३४दा꣥इ। इ꣡न्द्राऽ२᳐इसा꣣ऽ२३४न्तू꣥। तु꣢वि꣡वाऽ᳒२᳒जाः꣡॥ क्षूऽ२३मा꣢॥ तोऽ᳒२᳒या꣡। भि꣢र्मो꣡ऽ२३४वा꣥। दा꣤ऽ५इमोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सो꣡मः꣢ पू꣣षा꣡ च꣢ चेततु꣣र्वि꣡श्वा꣢साꣳ सुक्षिती꣣ना꣢म्। दे꣣वत्रा꣢ र꣢थ्यो꣢꣯र्हि꣣ता꣢ ॥ 10:0154 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सो꣡मः꣢꣯। पू꣣षा꣢। च꣣। चेततुः। वि꣡श्वा꣢꣯साम्। सु꣣क्षितीना꣢म्। सु꣣। क्षितीना꣢म्। दे꣣वत्रा꣢। र꣣थ्योः꣢꣯। हि꣣ता꣢। १५४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनःशेप आजीगर्तिः, वामदेवो वा
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में सोम और पूषा के गुण-कर्मों के वर्णन द्वारा इन्द्र परमेश्वर की महिमा प्रकट की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः पूषा च) चन्द्रमा और सूर्य अथवा मन और आत्मा (विश्वासाम् सुक्षितीनाम्) सब उत्कृष्ट प्रजाओं का (चेततुः) उपकार करना जानते हैं, वे (देवत्रा) विद्वज्जनों में (रथ्योः) रथारुढों के समान उन्नति के लिए प्रयत्नशील गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि के (हिता) हितकारी होते हैं ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - इन्द्र नामक परमेश्वर की ही यह महिमा है कि उसकी रची हुई सृष्टि में सौम्य चन्द्रमा और तैजस सूर्य तथा मानव शरीर में सौम्य मन और तैजस आत्मा दोनों प्राण आदि के प्रदान द्वारा सब प्रजाओं का उपकार करते हैं। जैसे रथारूढ़ रथस्वामी और सारथि अथवा रानी और राजा क्रमशः मार्ग को पार करते चलते हैं, वैसे ही जो भी गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं, उनके लिए पूर्वोक्त दोनों चन्द्र-सूर्य और मन-आत्मा परम हितकारी होते हैं ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र और इन्द्र द्वारा रचित भूमि, गाय, वेदवाणी, चन्द्र, सूर्य आदि का महत्त्व वर्णित होने से और इन्द्र के पास से ऋत की मेधा की प्राप्ति का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की प्रथमः—दशति समाप्त ॥ द्वितीय—अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ सोमस्य पूष्णश्च गुणकर्मवर्णनमुखेनेन्द्रस्य महिमानमाचष्टे।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (सोमः पूषा च) सौम्यश्चन्द्रः पोषकः सूर्यश्च, यद्वा चान्द्रमसं मनः सौरः आत्मा च (विश्वासाम् सुक्षितीनाम्) सर्वासां सुप्रजानाम्, सर्वाः सुप्रजा इत्यर्थः। क्षितय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। द्वितीयार्थे षष्ठी। (चेततुः) उपकर्तुं जानीतः। चिती संज्ञाने, लडर्थे लिट्, द्वित्वाभावश्छान्दसः। तौ (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु। देवशब्दात् देवमनुष्य०। अ० ५।४।५६ इति सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (रथ्योः१) रथारूढयोरिव उन्नत्यै प्रयतमानयोः गुरुशिष्ययोः, मातापित्रोः, पितापुत्रयोः, पत्नीयजमानयोः, स्त्रीपुरुषयोः, शास्यशासकयोः (हिता) हितौ हितकारिणौ भवतः। अत्र सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्याकारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्यैवायं महिमा यत् तद्रचितायां सृष्टौ सौम्यश्चन्द्रमास्तैजसः सूर्यश्च, मानवशरीरे च सौम्यं मनस्तैजस आत्मा च उभावपि प्राणादिप्रदानेन सर्वाः प्रजा उपकुरुतः। यथा रथारूढी रथस्वामी सारथिश्च यद्वा राज्ञी राजा च क्रमशोऽध्वानं लङ्घयतस्तथैव यावपि गुरुशिष्यौ वा मातापितरौ वा पितापुत्रौ वा पत्नीयजमानौ वा स्त्रीपुरुषौ वा शास्यशासकौ वा समुत्कर्षाय प्रयतमानौ भवतस्तयोः कृते तौ परमहितावहौ सम्पद्येते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य तद्रचितानां भूमिधेनुवेदवाक्चन्द्रसूर्यादीनां च महत्त्ववर्णनात्, इन्द्रस्य सकाशाद् ऋतस्य मेधायाः प्राप्तिवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः। इति द्वितीयाध्याये चतुर्थः खण्डः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. रथ्योः। रथशब्देनात्र यज्ञ उच्यते, रंहतेर्गतिकर्मणः। रथस्य यज्ञस्य यौ वोढारौ तौ पत्नीयजमानावत्र रथ्यावुच्येते तयोः। यज्ञस्य देवान् प्रति प्रापयित्रोः पत्नीयजमानयोः हिता हितौ—इति वि०। रथनेता रथिः। रथनायकयोः हिता विहितौ प्रजापतिना—इति भ०। सायणस्तु रथ्यः अर्हिता इति पदच्छेदं कृत्वा रथ्यः रथार्हः अर्हिता आरोढा सोमः तादृशः पूषा सूर्यश्च इति व्याचष्टे। तत्तु पदकारविरुद्धम्।
10_0154 सोमः पूषा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५४-१। सौमापौषं गोअश्वीयं वा॥ सोमपूषणावृषी गायत्रीन्द्रः॥सो꣥꣯मᳲपू꣯षा॥ च꣢चा꣡इततुः꣢। अ꣣या꣢᳐यो꣣ऽ२३४वा꣥। वा꣡इश्वा꣯साꣳ꣢꣯सुक्षिती꣯। ना꣡म्। अ꣣या꣢᳐यो꣣ऽ२३४वा꣥॥ दा꣡इव꣪त्राराऽ२३॥ थियो꣢ऽ३र्हा꣤ऽ५इताऽ६५६॥ गा꣡꣯वो꣰꣯ऽ२अ꣡श्वा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
[[अथ पञ्चम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पा꣢न्त꣣मा꣢ वो꣣ अ꣡न्ध꣢स꣣ इ꣡न्द्र꣢म꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯यत। वि꣣श्वासा꣡ह꣢ꣳ श꣣त꣡क्र꣢तुं꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठं चर्षणी꣣ना꣢म् ॥ 11:0155 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पान्त॒मा वो॒ अन्ध॑स॒ इन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत ।
वि॒श्वा॒साहं॑ श॒तक्र॑तुं॒ मंहि॑ष्ठं चर्षणी॒नाम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
पा꣡न्त꣢꣯म्। आ। वः꣣। अ꣡न्ध꣢꣯सः। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣भि꣢। प्र। गा꣣यत। विश्वासा꣡ह꣢म्। वि꣣श्व। सा꣡ह꣢꣯म्। श꣣त꣡क्र꣢तुम्। श꣣त꣢। क्र꣣तुम्। मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम्। च꣣र्षणीना꣢म्। १५५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- अनुष्टुप्
- गान्धारः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथमः—मन्त्र में इन्द्र के महिमागान के लिए मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्यो ! (वः) तुम (अन्धसः) भोग्य वस्तुओं के (आ पान्तम्) सब ओर से रक्षक, (विश्वासाहम्) समस्त शत्रुओं के विजेता, (शतक्रतुम्) बहुत बुद्धिमान्, बहुत कर्मण्य, बहुत से यज्ञों को करनेवाले, (चर्षणीनाम्) मनुष्यों को (मंहिष्ठम्) अतिशय दान करनेवाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली वीर परमात्मा और राजा को (अभि) लक्षित करके (प्र गायत) प्रकृष्ट रूप से गान करो अर्थात् उनके गुण-कर्म-स्वभावों का वर्णन करो ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेष और परिकर अलङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को योग्य है कि वे जगत् के रक्षक, समस्त काम-क्रोधादि रिपुओं के विजेता, असंख्य प्रज्ञाओं, असंख्य कर्मों और असंख्य यज्ञों से युक्त, सब मनुष्यों को विद्या, धन, धर्म आदि का अतिशय दान करनेवाले परमात्मा के और राष्ट्र के रक्षक, शत्रु-सेनाओं को हरानेवाले, विद्वान्, कर्मठ, अनेक यज्ञों के याज्ञिक, प्रजाओं को अतिशय विद्या, आरोग्य, धन आदि देनेवाले राजा के प्रति उनके गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन करनेवाले स्तुति-गीत और उद्बोधन-गीत गायें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य महत्त्वगानार्थं जनाः प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे मनुष्याः ! (वः२) यूयम् (अन्धसः३) भोग्यं वस्तुजातम्। अन्धः इत्यन्ननाम। निघं० २।७। अन्नमिति सर्वेषां भोग्यवस्तूनाम् उपलक्षणम्। द्वितीयार्थे षष्ठी। (आ पान्तम्) समन्ततो रक्षन्तम्। पा रक्षणे इति धातोः शतरि रूपम्। (विश्वासाहम्) समस्तरिपुविजेतारम्। विश्वान् सर्वान् शत्रून् सहते पराभवतीति तादृशम्। अत् विश्वपूर्वात् षह मर्षणे धातोः छन्दसि सहः अ० ३।१।६३ इति ण्विः। अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७ इति दीर्घश्च। (शतक्रतुम्) बहुप्रज्ञं, बहुकर्माणं, बहुयज्ञं वा। शतमिति बहुनाम। निघं० ३।१। क्रतुरिति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं २।१, ३।९। क्रतुर्यज्ञवचनोऽपि प्रसिद्धः। (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्। चर्षणय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (मंहिष्ठम्) दातृतमम्। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशालिनं वीरं परमात्मानं राजानं वा (अभि) अभिलक्ष्य (प्र गायत) प्रकृष्टं गानं कुरुत, तत्तद्गुणकर्मस्वभावान् वर्णयत ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः परिकरश्च।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वेषां मनुष्याणां योग्यमस्ति यत् ते जगद्रक्षकं समस्तकामक्रोधादिरिपुविजेतारम्, असंख्यप्रज्ञम्, असंख्यकर्माणम्, असंख्ययज्ञं, सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्याधनधर्मादीनां दातृतमं परमात्मानं, राष्ट्ररक्षकं, शत्रुसैन्यानां पराजेतारं, विद्वांसं, कर्मठं, बहूनां यज्ञानां यष्टारं, प्रजाभ्योऽतिशयेन विद्याऽऽरोग्यधनादिप्रदायकं राजानं चाभिलक्ष्य तत्तद्गुणकर्मस्वभाववर्णनपराणि स्तुतिगीतान्युद्बोधनगीतानि च गायेयुरिति ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. प्रथमायामृचि ७+८+८+७=३० इत्यक्षरसंख्यायां सामान्यतोऽनुष्टुच्छन्दसि स्वीकर्तव्येऽपि गायत्रीप्रकरणत्वादेषा गायत्री एवाभिमता। सेयं चतुष्पदा त्रिंशदक्षरा गायत्री। ऋ० ८।९२।१, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा, छन्दः विराड् अनुष्टुप्। २. वः यूयम्—इति वि०, भ०, सा०। ३. षष्ठीनिर्देशाच्च एकदेशमिति वाक्यशेषः। सोमलक्षणस्यान्नस्य एकदेशं पान्तम्—इति वि०। आपान्तम् आ पिबन्तम् आपास्यन्तम् अन्धसः अन्नस्य। सोममित्यर्थः—इति भ०। अन्धसः सोमलक्षणम् अन्नम् आपान्तम् आभिमुख्येन पिबन्तम्। पा पाने, छान्दसः शपो लुक्। सर्वे विधयश्छन्दसि विकल्प्यन्ते इति न लोकाव्यय० २।३।६९ इति षष्ठीप्रतिषेधाभावः। ततोऽन्धस इत्यत्र कर्तृ कर्मणोः २।३।६५ इति षष्ठी—इति सा०।
11_0155 पान्तमा वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५५-१। वैतहव्यानि त्रीणि॥ त्रयाणां वीतहव्योऽनुष्टुबिन्द्रः॥
पा꣤꣯न्त꣥मा꣤꣯वो꣥꣯अ꣤न्ध꣥साः꣤॥ इ꣢न्द्रा꣡माभि꣢। प्रगा꣡याता꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢इ। विश्वा꣡साह꣢म्। शता꣡क्रातू꣢ऽ३म्। हा꣢ऽ३हा꣢इ॥ मꣳहा꣡इष्ठञ्चा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢॥ षणा꣡ऽ२᳐इ। ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
11_0155 पान्तमा वो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५५-२।
पा꣤꣯न्त꣥मा꣤꣯वो꣥꣯अ꣤न्ध꣥सः। इ꣤हा॥ इ꣢न्द्रम꣡भाइ। प्र꣢गा꣯य꣡ताऽ᳒२᳒। इ꣡हा꣢। वि꣡श्वा꣯सा꣯हꣳशताऽ᳒२᳒क्रतू꣡म्। इहा꣢॥ मꣳहाऽ᳒२᳒इष्ठञ्चा꣡। इहा꣢। षणाऽ᳒२᳒इना꣡म्॥ इहा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
11_0155 पान्तमा वो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१५५-३। ओकोनिधनं वैतहव्यम्॥
पा꣣ऽ५न्तम्। आ꣤ऽ३वो꣢ऽ३अ꣤न्धसाः꣥॥ आ꣡इन्द्रामभाइ। प्र꣪गाऽ२᳐या꣣ऽ२३४ता꣥। वि꣡श्वाऽ२᳐सा꣣ऽ२३४हा꣥म्॥ शा꣢ऽ३ता꣡क्रा꣢ऽ३तू꣢म्॥ मꣳ꣡हि꣢ष्ठञ्च꣡र्ष꣢। णा꣡ये꣢ऽ३। ना꣡ऽ२᳐मा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ओ꣢ऽ३काऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣢ व꣣ इ꣡न्द्रा꣢य꣣ मा꣡द꣢न꣣ꣳ ह꣡र्य꣢श्वाय गायत। स꣡खा꣢यः सोम꣣पा꣡व्ने꣢ ॥ 12:0156 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र व॒ इन्द्रा॑य॒ माद॑नं॒ हर्य॑श्वाय गायत ।
सखा॑यः सोम॒पाव्ने॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। वः꣣। इ꣡न्द्रा꣢꣯य। मा꣡द꣢꣯नम्। ह꣡र्य꣢꣯श्वाय। ह꣡रि꣢꣯। अ꣣श्वाय। गायत। स꣡खा꣢꣯यः। स। खा꣣यः। सोमपा꣡व्ने꣢। सो꣡म। पा꣡व्ने꣢꣯। १५६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः इन्द्र के प्रति स्तोत्र-गान के लिए प्रजाओं को प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मा के पक्ष में। हे (सखायः) साथियो ! (वः) तुम (हर्यश्वाय) जिसके द्वारा रचित घोड़े पशु या सूर्य-चन्द्र-वायु-बादल प्राण आदि बड़े वेगवान् हैं, ऐसे (सोमपाव्ने) भक्तिरूप सोमरस का पान करनेवाले और चन्द्रादि लोकों के रक्षक (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् परमात्मा के लिए (मादनम्) आनन्ददायक तृप्तिकारी स्तोत्र को (प्र गायत) प्रकृष्ट रूप से गाओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (सखायः) मित्रभूत प्रजाजनो ! (वः) तुम (हर्यश्वाय) जिसके अश्वयान, अग्नियान, वायुयान, विद्युत्-यान आदि बहुत वेगवान् हैं, उस (सोमपाव्ने) राष्ट्र में ब्रह्म-क्षत्र के रक्षक, और यज्ञ के रक्षक (इन्द्राय) ऐश्वर्यशाली शत्रुविदारक राजा के लिए (मादनम्) हर्षप्रद और उत्साहकारी उद्बोधनगीत या विजयगीत (प्र गायत) भली-भाँति गान करो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब सखाओं को मिलकर परमेश्वर के प्रति स्तुति-गीत और प्रजाओं को मिलकर युद्धारम्भ, विजयोत्सव आदि में राजा के प्रति उद्बोधन-गीत तथा विजय-गीत लयपूर्वक गाने चाहिएँ ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
पुनरिन्द्रं प्रति गानाय प्रजाः प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (सखायः) समानख्यानाः सुहृदः ! (वः) यूयम् (हर्यश्वाय) हरयो हरणशीला वेगवन्तः अश्वाः तुरगाः यद्वा अश्वोपलक्षिताः मार्गव्यापनशीलाः सूर्य-चन्द्र-वायु-पर्जन्य-प्राणादयो यस्य यद्रचिताः इत्यर्थः स हर्यश्वः तस्मै, (सोमपाव्ने) भक्तिरूपसोमरसस्य पात्रे, चन्द्रादिलोकानां रक्षकाय वा। सोमपूर्वात् पा पाने, पा रक्षणे वा धातोः आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४ इति वनिप् प्रत्ययः। (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (मादनम्) मदकरं तृप्तिकरं स्तोत्रम् (प्र गायत) प्रकृष्टतया गानविधिपूर्वकमुच्चारयत ॥ अथ द्वितीयः—नृपतिपरः। हे (सखायः) सखिभूताः प्रजाजनाः ! (वः) यूयम् (हर्यश्वाय) हरयो वेगवन्तः अश्वाः तुरगाः, तदुपलक्षितानि अश्वयान-अग्नियान-पवनयान-विद्युद्यानादीनि यस्य स हर्यश्वस्तस्मै (सोमपाव्ने) राष्ट्रे ब्रह्मक्षत्ररक्षकाय यशोरक्षकाय च। सोमो वै ब्राह्मणः। तां० ब्रा० २३।१६।५। क्षत्रं सोमः। ऐ० ब्रा० २।३८। यशो वै सोमः। श० ४।२।४।९। (इन्द्राय) ऐश्वर्यशालिने शत्रुविदारकाय नृपतये (मादनम्) हर्षकरम् उत्साहप्रदं च उद्बोधनगीतं विजयगीतं वा (प्र गायत) प्रोच्चारयत ॥२॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैः सखिभिर्मिलित्वा परमेश्वरं प्रति स्तुतिगीतानि प्रजाभिश्च संभूय युद्धारम्भेषु विजयाद्युत्सवेषु च नृपतिं प्रत्युद्बोधनगीतानि विजयगीतानि वा सलयं गेयानि ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ७।३१।१, साम० ७१६। २. ऋग्भाष्ये (ऋ० ७।३१।१) मन्त्रोऽयं दयानन्दर्षिणा सखिभिर्मित्राय किं कर्त्तव्यमिति विषये व्याख्यातः।
12_0156 प्र व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-१। शाक्त्यानि षट्, शाक्त्ये सामनी द्वे॥ षण्णां शाक्त्यो गायत्रीन्द्रः॥
प्र꣡वइन्द्राऽ२᳐। य꣣मा꣢᳐दा꣣ऽ२३४ना꣥म्॥ प्र꣢वाऽ᳒२᳒इ꣡न्द्रा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४मा꣥। दा꣢ऽ३ना꣢म्॥ हराऽ᳒२᳒अ꣡श्वा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४गा꣥॥ या꣢ऽ३ता꣢॥ सखाऽ᳒२᳒या꣡स्सो। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३। मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
12_0156 प्र व - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-२।
प्र꣡वाऽ᳒२᳒इ꣡न्द्रा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४मा꣥। दा꣢ऽ३ना꣢म्॥ ह꣡राऽ᳒२᳒अ꣡श्वा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४गा꣥। या꣢ऽ३ता꣢॥ स꣡खाऽ᳒२᳒या꣡स्सो। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३॥ मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
12_0156 प्र व - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-३। गौरीविते द्वे॥
प्र꣢वई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢। इ꣡न्द्रो꣯ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢। या꣣ऽ२३४मा꣥। दा꣢ऽ३ना꣢म्॥ हरई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢। आ꣡श्वो꣯ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢। या꣣ऽ२३४गा꣥। या꣢ऽ३ता꣢॥ सखई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢। या꣡स्सो꣯ई꣭ऽ३या꣢। ई꣭ऽ३या꣢ऽ३॥ मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
12_0156 प्र व - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-४।
प्र꣢वौ꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒। इ꣡न्द्रौ꣯होवा꣢। या꣣ऽ२३४मा꣥। दा꣢ऽ३ना꣢म्॥ हरौ꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒। आ꣡श्वौ꣯होवा꣢। या꣣ऽ२३४गा꣥। या꣢ऽ३ता꣢॥ सखौ꣯हो꣡वाऽ᳒२᳒। या꣡स्सौ꣯होवा꣢ऽ३॥ मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
12_0156 प्र व - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-५। शाक्त्यं साम॥
प्र꣢वो꣯दऽ३दा꣡। औ꣢ऽ३हो꣢। इ꣡न्द्रो꣯ददा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४मा꣥। दा꣢ऽ३ना꣢म्॥ हरिदऽ३दा꣡। औ꣢ऽ३हो꣢। आ꣡श्वो꣯ददा। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣣ऽ२३४गा꣥। या꣢ऽ३ता꣢॥ सखिदऽ३दा꣡। औ꣢ऽ३हो꣢। या꣡स्सो꣯ददा। औ꣢ऽ३हो꣢ऽ३॥ मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
12_0156 प्र व - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
१५६-६। गौरीवितम्॥
प्र꣤वः꣥। प्रवाः꣤॥ इ꣢न्द्रा꣯ये꣯न्द्रा꣯। य꣡मादा꣢ऽ१नाऽ᳒२᳒म्। हराइहर्यश्वा꣯। य꣡गाया꣢ऽ१ताऽ᳒२᳒॥ स꣡खा꣯याऽ२३स्सो꣢ऽ३॥ मा꣡पोऽ२३४वा꣥। आ꣤ऽ५व्नोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व꣣य꣡मु꣢ त्वा त꣣दि꣡द꣢र्था꣣ इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣य꣢न्तः꣣ स꣡खा꣢यः। क꣡ण्वा꣢ उ꣣क्थे꣡भि꣢र्जरन्ते ॥ 13:0157 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व॒यमु॑ त्वा त॒दिद॑र्था॒ इन्द्र॑ त्वा॒यन्तः॒ सखा॑यः ।
कण्वा॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
व꣣य꣢म्। उ꣣। त्वा। तदि꣡द꣢र्थाः। त꣣दि꣢त्। अ꣣र्थाः। इ꣡न्द्र꣢꣯। त्वा꣣य꣡न्तः꣢। स꣡खा꣢꣯यः। स। खा꣣यः। क꣡ण्वाः꣢꣯। उ꣣क्थे꣡भिः꣢। ज꣣रन्ते। १५७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम परमात्मा की अर्चना करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वायन्तः) आपके पाने की कामना करते हुए (सखायः) आपके सखा (वयम् उ) हम उपासक लोग (तदिदर्थाः) आपके दर्शन को ही प्रयोजन मानते हुए (त्वा) आपकी स्तुति करते हैं। न केवल हम, प्रत्युत (कण्वाः) सभी मेधावी जन (उक्थेभिः) स्तोत्रों से आपकी (जरन्ते) स्तुति करते हैं ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमानन्दप्रदायक परमेश्वर ! आपके दर्शनों की लालसावाले हम सभी बड़ी उत्सुकता से आपकी चाहना करते हैं और बार-बार भक्ति से गद्गद होकर आपकी स्तुति करते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वयं परमात्मानमर्चयाम इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः। युष्मच्छब्दात् आत्मन इच्छार्थे क्यचि शतरि रूपम्। (सखायः) तव सुहृदः (वयम् उ) वयम् उपासकाः खलु। उ इति वाक्यालङ्कारे पदपूरणे वा। (तदिदर्थाः२) तत् इत् तदेव त्वद्दर्शनमेव अर्थः प्रयोजनं येषां तथाविधाः सन्तः (त्वा) त्वाम् स्तुमः इति शेषः। न केवलं वयम्, प्रत्युत (कण्वाः) सर्वेऽपि मेधाविनः। कण्व इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (उक्थेभिः) उक्थैः स्तोत्रैः त्वाम् (जरन्ते) स्तुवन्ति। जरते अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४ ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमानन्दप्रदायक परमेश्वर ! त्वद्दर्शनलालसाः सर्वे वयमौत्सुक्येन त्वां कामयामहे, पुनः पुनश्च सभक्तिगद्गदं त्वां स्तुवामहे ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२।१६, साम० ७१९, अथ० २०।१८।१। २. तदिदर्थाः। इदिति पादपूरणः। यस्तवार्थो यागादिः स अर्थो येषां ते तदर्थाः, यागपरा इत्यर्थः—इति वि०। स एवार्थः प्रयोजनं येषां ते तदिदर्थाः स्तुत्येकपरार्थाः—इति भ०। यत् त्वद्विषयं स्तोत्रं तदित् तदेवार्थः प्रयोजनं येषां तादृशाः सन्तः—इति सा०।
13_0157 वयमु त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५७-१। काण्वे द्वे॥ द्वयोः कण्वो गायत्रीन्द्रः॥
व꣥यंवा꣤या꣥म्॥ ऊ꣣ऽ२३४त्वा꣥। ता꣢दी᳐दा꣣ऽ२३४र्थाः꣥। इ꣣न्द्र꣤त्वा꣥꣯य꣤न्तः꣥। स꣣खाऽ२३४याः꣥॥ क꣣ण्वा꣢ऽ३१२३४ः॥ उक्थे꣯भि꣥र्जरन्ते꣯। ए꣯हियाऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
13_0157 वयमु त्वा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५७-२। काण्वम्॥
व꣥यमू꣢ऽ३त्वा꣤꣯तदिदर्थाः꣥॥ ऐ꣡꣯हिहाऽ᳒२᳒इ। वय꣡मुत्वा꣯तदिदर्था꣯इन्द्रत्वा꣯-यन्तस्स꣢खा꣡ऽ२३याः꣢॥ का꣣ऽ२३४ण्वाः꣥॥ ऊ꣡। क्थाइ। भि꣢र्जो꣡ऽ२३४वा꣥॥ र꣢न्ताऽ३याऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣡न्द्रा꣢य꣣ म꣡द्व꣢ने सु꣣तं꣡ परि꣢꣯ ष्टोभन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢। अ꣣र्क꣡म꣢र्चन्तु का꣣र꣡वः꣢ ॥ 14:0158 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रा॑य॒ मद्व॑ने सु॒तं परि॑ ष्टोभन्तु नो॒ गिरः॑ ।
अ॒र्कम॑र्चन्तु का॒रवः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रा꣢꣯य। म꣡द्व꣢꣯ने। सु꣣त꣢म्। प꣡रि꣢꣯। स्तो꣡भन्तु। नः। गि꣡रः꣢꣯। अ꣣र्क꣢म्। अ꣣र्चन्तु। कार꣡वः꣢। १५८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा की अर्चना का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मद्वने) आनन्दमय (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् परमात्मा के लिए (सुतम्) अभिषुत भक्तिरूप सोमरस को (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (परिष्टोभन्तु) तरंगित करें। (अर्कम्) उस अर्चनीय देव की (कारवः) अन्य स्तोता जन भी (अर्चन्तु) मिलकर अर्चना करें ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्द प्राप्त करने की कामनावाला मैं प्रेमरस से परिप्लुत हृदयवाला होकर परमानन्दमय परमात्मा के लिए जिन भक्तिरसों को प्रवाहित कर रहा हूँ, उनमें मेरी स्तुति-वाणियाँ मानो तरंगें उत्पन्न कर रही हैं। अन्य स्तोता जन भी उसी प्रकार परमात्मा की अर्चना करें, जिससे सारा ही वातावरण भक्तिमय और संगीत से तरंगित हो जाए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनः परमात्मर्चनविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (मद्वने) आनन्दमयाय। माद्यतीति मद्वा, तस्मै। मदी हर्षे धातोः अन्येभ्योऽपि दृश्यते अ० ३।२।७५ इति क्वनिप्। (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (सुतम्) अभिषुतं भक्तिरूपं सोमरसम् (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः (परिष्टोभन्तु) परिवेल्लयन्तु, तरङ्गयन्तु। स्तोभतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। अर्चनं चात्र तरङ्गणम्। (अर्कम्) अर्चनीयं देवम्। अर्को देवो भवति, यदेनमर्चन्ति। निरु० ५।५। (कारवः) अन्येऽपि स्तोतारः। कारुरिति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। कारुः कर्ता स्तोमानाम्। निरु० ६।५। (अर्चन्तु) संभूय स्तुवन्तु ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्दं प्राप्तुकामोऽहं प्रेमरसपरिप्लुतहृदयः परमानन्दमयाय परमात्मने यान् भक्तिरसान् प्रवाहयामि तेषु मदीयाः स्तुतिवाचस्तरङ्गानिवोत्पादयन्ति। अन्येऽपि स्तोतारस्तथैव परमात्मानमर्चन्तु, येन सर्वमपि वातावरणं भक्तिमयं संगीतैस्तरङ्गितं च सम्पद्येत ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।१९, अथ० २०।११०।१, उभयत्र ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। साम० ७२२।
14_0158 इन्द्राय मद्वने - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५८-१। गौरीविते द्वे॥ द्वयोर्गौरीवितो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣤न्द्रा꣥꣯यम꣤द्व꣥ना꣤इ॥ सु꣢ता꣡म्। इन्द्रा꣯यमद्वने꣯सु꣢ता꣡म्। प꣢रा꣡इष्टोऽ२३भा꣢। तुनो꣡꣯गिरो॥ अर्कमाऽ२३र्चा꣢॥ तुका꣡꣯राऽ२३वा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
14_0158 इन्द्राय मद्वने - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५८-२।
इ꣥न्द्रा꣯यमद्वने꣯हाउ॥ ओ꣡इसू꣢ऽ३ता꣢म्। प꣡रिष्टो꣢꣯। भा꣡। तु꣪नोऽ२३हा꣢इ। गा꣡इराऽ᳒२ः᳒। प꣡रिष्टो꣯भा। तु꣪नोऽ२३हा꣢इ॥ गा꣡इराऽ᳒२ः᳒॥ अ꣡र्काऽ२३म्॥ आ꣡ऽ२᳐र्चा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। तु꣢काऽ३र꣡वाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
14_0158 इन्द्राय मद्वने - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१५८-३। श्रौतकक्षम्॥ श्रुतकक्षो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣤न्द्रा꣥꣯यम꣤द्व꣥ने꣯सुत꣤म्। इ꣥न्द्रा꣯यमो꣤वा꣥॥ द्वा꣢ऽ३ना꣡इसू꣢ऽ३ता꣢म्। प꣡रिष्टो꣢꣯। भा꣡ऽ२३। हा꣢ऽ३हा꣢ऽ३। तू꣡नोऽ२᳐गा꣣ऽ२३४इराः꣥॥ आ꣡र्कमर्चा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢॥ तुका꣡꣯राऽ२३वा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣यं꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣢मो꣣ नि꣡पू꣢तो꣣ अ꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢। ए꣡ही꣢म꣣स्य꣢꣫ द्रवा꣣ पि꣡ब꣢ ॥ 15:0159 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यं त॑ इन्द्र॒ सोमो॒ निपू॑तो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑ ।
एही॑म॒स्य द्रवा॒ पिब॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣य꣢म्। ते꣣। इन्द्र। सो꣡मः꣢꣯। नि꣡पू꣢꣯तः। नि। पू꣣तः। अ꣡धि꣢꣯। ब꣣र्हि꣡षि꣢। आ। इ꣣हि। ईम्। अस्य꣢। द्र꣡व꣢꣯। पि꣡ब꣢꣯। १५९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- इरिम्बिठिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र को रसपान के लिए बुलाया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अयम्) यह (सोमः) श्रद्धारस (तुभ्यम्) तेरे लिए (बर्हिषि अधि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (निपूतः) पूर्णतः पवित्र कर लिया गया है। (एहि) आ, (ईम्) इसके प्रति (द्रव) दौड़, (अस्य) इसके भाग को (पिब) पान कर ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे अन्तरिक्षस्थ मेघ-जल पवित्र होता है, वैसे ही हृदयान्तरिक्ष में स्थित श्रद्धा-रस को तेरे भक्त मैंने पूर्णतः पवित्र कर लिया है। उस मेरे पवित्र श्रद्धा-रस का पान करने के लिए तू शीघ्र ही आ और उत्कंठित होकर पी, जिससे मैं कृतार्थ हो जाउँ। यहाँ परमात्मा के सर्वव्यापक और निरवयव होने के कारण उसमें शीघ्र आने, पीने आदि का व्यवहार नहीं घट सकता, इसलिए आगमन का अर्थ प्रकट होना तथा पीने का अर्थ स्वीकार करना लक्षणावृत्ति से समझना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रो रसं पातुमाकार्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अयम्) एष पुरतो दृश्यमानः (सोमः) श्रद्धारसः (ते) तुभ्यम् (बर्हिषि अधि) हृदयान्तरिक्षे। बर्हिरित्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। (निपूतः) नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। (एहि) आगच्छ, (ईम्) एनं प्रति। ईम् एनम्। निरु० १०।४५। (द्रव) त्वरस्व, (अस्य) एतस्य भागम्। षष्ठी भागद्योतनार्था। (पिब) आस्वादय ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथाऽन्तरिक्षस्थं मेघजलं पवित्रं भवति तथैव हृदयान्तरिक्षस्थो श्रद्धारसस्तव भक्तेन मया नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। तं पवित्रं मम श्रद्धारसं पातुं त्वं सत्वरमागच्छ, सोत्कण्ठं पिब च, येनाहं कृतार्थो भवेयम्। परमात्मनः सर्वव्यापकत्वान्निरवयवत्वाच्च तत्र सत्वरागमनपानादिव्यवहारो न घटत इत्यागमनस्य प्रकटीभावे पानस्य च स्वीकारे लक्षणा बोध्या ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१७।११, साम० ७२५, अथ० २०।५।५।
15_0159 अयं त - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५९-१। सौमित्रे द्वे॥ द्वयोः सुमित्रो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣥यंतआ॥ द्र꣢सो꣡꣯मो। होवा꣢ऽ३हो꣡इ। नि꣢पू꣡꣯तो꣯आ꣢ऽ३। धी꣡ब꣢र्हा꣣ऽ२३४इषी꣥॥ आ꣡इही꣢꣯मस्या꣡ऽ२३॥ द्रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ पी꣣ऽ२३४बा꣥।
15_0159 अयं त - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५९-२।
अ꣥यंतइन्द्रसोऽ४माः꣥॥ नि꣡पू꣯तो꣯अधिबाऽ᳒२᳒र्हा꣡इषीऽ᳒२᳒। ऐ꣯होऽ᳒२᳒इमा꣡स्या॥ द्र꣢वा꣯पा꣡इबाऽ᳒२᳒। आ꣡इही꣯मस्याद्र꣢वाऽ३१उवाऽ२३॥ पीऽ२३४बा꣥॥
15_0159 अयं त - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१५९-३। इहवद्दैवोदासम्॥ दिवोदासो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣤यं꣣त꣤इन्द्रसो꣣ऽ४मः꣥। ना꣡ऽ२३४इ। पू꣯तो꣥꣯अ꣤धि꣥बर्हि꣤षी꣥॥ नि꣡पू꣯तो꣯अधि꣢ब꣡र्हाऽ२३इषी꣢॥ ऐ꣯हो꣡इमाऽ२३स्या꣢॥ द्रवा꣡꣯पाऽ२३४५इबाऽ६५६॥ ई꣣ऽ२३४हा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु꣣रूपकृत्नु꣢मू꣣त꣡ये꣢ सु꣣दु꣡घा꣢मिव गो꣣दु꣡हे꣢। जु꣣हूम꣢सि꣣ द्य꣡वि꣢द्यवि ॥ 16:0160 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुम् +++(इन्द्रं)+++ ऊ॒तये॑+++(=रक्षायै)+++
सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑ ।
जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सु꣣रूपकृत्नुम्। सु꣣रूप। कृत्नु꣢म्। ऊ꣣त꣡ये꣢। सु꣣दु꣡घा꣢म्। सु꣣। दु꣡घा꣢꣯म्। इ꣣व गोदु꣡हे꣢। गो꣣। दु꣡हे꣢꣯। जु꣣हूम꣡सि꣣। द्य꣡वि꣢꣯द्यवि। द्य꣡वि꣢꣯। द्य꣣वि। १६०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, राजा और आचार्य को बुलाया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हम उपासक लोग, प्रजाजन अथवा शिष्यगण (सुरूपकृत्नुम्) सृष्ट्युत्पत्ति-स्थिति आदि सुरूप कर्मों के कर्ता परमात्मा को, प्रजापालन-राष्ट्रनिर्माण आदि सुरूप कर्मों के कर्ता राजा को और विद्याप्रदान-सदाचारनिर्माण आदि सुरूप कर्मों के कर्ता आचार्य को (ऊतये) क्रमशः उपासना के फल की प्राप्ति के लिए, राष्ट्ररक्षा के लिए और विद्याप्राप्ति के लिए (द्यविद्यवि) प्रतिदिन (जुहूमसि) पुकारते हैं, (गोदुहे) गाय दुहनेवाले गोदुग्ध के इच्छुक मनुष्य के लिए (सुदुघाम् इव) जैसे दुधारू गाय को बुलाया जाता है ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेष तथा उपमालङ्कार है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे दूध के इच्छुक लोग दूध प्राप्त करने के लिए दुधारू गाय को बुलाते हैं, वैसे ही उपासक लोग उपासनाजन्य आनन्द की प्राप्ति के लिए परमात्मा को, प्रजाजन राष्ट्र की रक्षा के लिए राजा को और शिष्यजन विद्याग्रहण के लिए आचार्य को प्रतिदिन सत्कारपूर्वक बुलाया करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा नृपतिराचार्यश्चाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - वयम् उपासकाः प्रजाजनाः शिष्याः वा (सुरूपकृत्नुम्२) सुरूपाणां जगद्धारणादिकर्मणां कर्त्तारम् इन्द्रं परमात्मानम्, सुरूपाणां प्रजापालनराष्ट्रनिर्माणादिकर्मणां कर्त्तारम् इन्द्रं राजानम्, सुरूपाणां विद्याप्रदानाचारनिर्माणादिकर्मणां कर्त्तारम् इन्द्रम् आचार्यं वा। कृत्नु इत्यत्र कृ धातोः कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३० इति क्त्नुः प्रत्ययः. (ऊतये) उपासनाफलावाप्तये, राष्ट्ररक्षणाय, विद्याप्राप्तये वा। अव धातोरर्थेषु अवाप्तिः रक्षणम् अवगमश्चापि पठिताः। (द्यविद्यवि) दिनेदिने। नित्यवीप्सयोः अ० ८।१।४ अनेन द्वित्त्वम्। द्यविद्यवि इत्यहर्नाम। निघं० २।३। (जुहूमसि) आह्वयामः। ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च इति धातोः ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ अनेन शपः स्थाने श्लुः। ‘अभ्यस्तस्य च’ अ० ६।१।३३ अनेन सम्प्रसारणम्। सम्प्रसारणाच्च अ० ६।१।१०८ अनेन पूर्वरूपम् हलः अ० ६।४।२ इति दीर्घः। इदन्तो मसि अ० ७।१।४६ इति मसेरिकारागमः। (गोदुहे) गोर्दोग्ध्रे दुग्धादिकमिच्छवे मनुष्याय (सुदुघाम् इव) यथा दोग्ध्रीं गाम् आह्वयन्ति तद्वत् ॥६॥३ अत्र श्लेष उपमालङ्कारश्च ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा दुग्धेच्छुभिर्दुग्धप्राप्तये पयस्विनी गौराहूयते तथैव उपासका उपासनाजन्यानन्दप्राप्तये परमात्मानं, प्रजाजना राष्ट्ररक्षणाय राजानं, शिष्यजनाश्च विद्याग्रहणायाचार्यं प्रतिदिनं सत्कारपूर्वकमाह्वयन्तु ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।४।१, अथ० २०।५७।१, ६८।१, साम० १०८७। २. सुरूपकृत्नुम्। शोभनस्य वृत्रवधादेः कर्मणः कर्त्तारमिन्द्रम्—इति वि०। सुरूपाणां कर्मणां कर्तारम् इन्द्रम्—इति भ०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं परमेश्वरपक्षे व्याख्यातवान्।
16_0160 सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६०-१। शाक्वरवर्णम्॥ शाक्वरवर्णो गायत्रीन्द्रः॥ (प्रजापतिर्वा)।
सू꣤रू꣥॥ प꣢कृ꣡त्नुमू꣯त꣢या꣡इ। सु꣢दु꣡घा꣢꣯म्। इ꣡वगोऽ᳒२᳒। दु꣡ह꣢याऽ३१उवाऽ२३। ऊ꣢ऽ᳐३४पा꣥॥ जु꣢हू꣡꣯माऽ२३सी꣢॥ द्य꣡विद्यवि꣢याऽ३१उवाऽ२३॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
16_0160 सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१६०-२। रैणवम्॥ रेणुर्गायत्रीन्द्रः॥ (प्रजापतिर्वा)।
सु꣥रू꣯हा꣯हाउ॥ प꣢कृ꣡त्नुमूऽ᳒२᳒ता꣡याऽ᳒२᳒इ। सुदु꣡घा꣢꣯म्। इ꣡वगोऽ᳒२᳒। दु꣡हे꣢꣯। ऐ꣯ही꣯यै꣣꣯ही꣢ऽ१॥ जु꣢हौऽ᳒२᳒। हौऽ᳒२᳒। हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। मा꣡सीऽ᳒२᳒॥ द्य꣡विद्यवि॥ ऐ꣢꣯ही꣯यै꣣꣯ही꣢ऽ१॥
16_0160 सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१६०-३। औदले द्वे उदलः वींकम्॥ वींको गायत्रीन्द्रः॥ (प्रजापतिर्वा)।
सु꣢रू꣯पकृत्नूऽ३मू꣡ताऽ२३४या꣥इ॥ ओ꣡इसुरू꣯पकृत्नूमू꣢ऽ१तायाऽ᳒२᳒इ। ओ꣡इसुदुघा꣯मिवागो꣢ऽ१दुहाऽ᳒२᳒इ। जु꣡हू꣯मसाऽ२इ। द्य꣣वि꣢द्या꣣ऽ२३४वी꣥। ऐ꣤ही꣥॥ जू꣡हूऽ᳒२᳒मा꣡सीऽ᳒२᳒॥ द्यवि꣡द्या। वीवीऽ२३। आ꣤औ꣥꣯होइ। आ꣤औ꣥꣯होऽ६वा꣥॥ ए꣢ऽ᳐३। द्य꣢विऽ३ई꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
16_0160 सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
१६०-४। औदलम्॥ उदलो गायत्रीन्द्रः॥ (प्रजापतिर्वा)।
सु꣤रू꣥꣯पकॄ꣤॥ त्नू꣡मूऽ᳒२᳒तया꣡इ। सु꣢दु꣡घा꣯मी꣢ऽ३। वा꣡गो꣢दू꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ सु꣤दु꣥घा꣯मा꣤॥ वा꣡गोऽ᳒२᳒दुहा꣡इ॥ जु꣢हू꣡꣯माऽ२३सी꣢ऽ३। द्या꣡ऽ२३वी꣤ऽ३। द्या꣢ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥