[[अथ तृतीयप्रपाठके द्वितीयोऽर्धः]]
[[अथ प्रथम खण्डः]]
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०ऐन्द्रं काण्डम्
त꣡द्वो꣢ गाय सु꣣ते꣡ सचा꣢꣯ पुरुहू꣣ता꣢य꣣ स꣡त्व꣢ने। शं꣢꣫ यद्गवे꣣ न꣢ शा꣣कि꣡ने꣢ ॥ 19:0115 ॥
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तद् वो (स्तोतारः) गाय(त) सु॒ते (सोमे) सचा (=सह),
पुरुहू॒ताय॒ (=बह्वाहूताय) सत्व॑ने (=शत्त्रुसादयित्रे)।
शं यद् गवे न शा॒किने (=शक्तिमते)।।
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पदपाठः
त꣢त्। वः꣣। गाय। सुते꣢। स꣡चा꣢꣯। पु꣣रुहूता꣡य꣣। पु꣣रु। हूता꣡य꣢। स꣡त्व꣢꣯ने। शम्। यत्। ग꣡वे꣢꣯। न꣢। शा꣣कि꣡ने꣢। ११५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शंयुर्बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में इन्द्र परमेश्वर के प्रति स्तोत्र-गान के लिए मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे उपासको ! (वः) तुम (सुते) श्रद्धा-रूप सोमरस के अभिषुत होने पर (सचा) साथ मिलकर (पुरुहूताय) बहुत या बहुतों से स्तुति किये गये (सत्वने) बलशाली इन्द्र परमात्मा के लिए (तत्) वह स्तोत्र (गाय) गान करो, (यत्) जो (शाकिने) शाक अर्थात् घास-चारे से युक्त (गवे न) बैल के समान (शाकिने) शक्तिशाली (गवे) स्तोता के लिए (शम्) सुख-शान्ति को देनेवाला हो। आशय यह है कि जैसे बैल के लिए घास-चारा सुखकर होता है, वैसे वह स्तोत्र स्तोता के लिए सुखकर हो ॥१॥ इस मन्त्र में ‘गवे न शाकिने’ में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तुति करने से परमात्मा को कुछ उपलब्धि नहीं होती, प्रत्युत स्तुतिकर्ता को ही आत्मा में सुख, शान्ति और बल प्राप्त होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥३॥ अथ ‘तद्वो गाय’ इत्याद्याया दशतेः तत्रादौ इन्द्रं प्रति स्तोत्राणि गातुं जनाः प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे उपासकाः ! (वः२) यूयम् (सुते) श्रद्धारूपे सोमरसेऽभिषुते सति। षुञ् अभिषवे, निष्ठायां रूपम्। (सचा) संभूय। सचा सहेत्यर्थः। निरु० ५।५। (पुरुहूताय) बहुस्तुताय, बहुभिः स्तुताय वा। पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। हूतः, ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च। (सत्वने३) बलशालिने इन्द्राय परमात्मने (तत्) स्तोत्रम् (गाय) गायत। ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु।’ अ० ७।१।४१ इत्यात्मनेपदे विहितस्तलोपोऽत्र बाहुलकात् परस्मैपदेऽपि भवति। (यत्) स्तोत्रम् (शाकिने) शाको यवसम् अस्यास्तीति शाकी तस्मै (गवे४ न) वृषभाय इव (शाकिने५) शक्तिमते। शक्लृ शक्तौ। शाकः शक्तिरस्यास्तीति शाकी तस्मै। (गवे) स्तोत्रे। गौः इति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। (शम्) सुखशान्तिकरं भवेदिति शेषः। वृषभाय यथा यवसादिकं सुखकरं भवति तथा स्तोत्रं सुखकरं भवेदित्याशयः ॥१॥ अत्र गवे न शाकिने इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - स्तुत्या परमात्मनो न काचिदुपलब्धिर्भवति, प्रत्युत स्तोतुरेवात्मनि सुखं शान्तिर्बलं चोपजायते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४५।२२, साम० १६६६। २. वेदे षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्विव प्रथमायामपि युष्मदो वसादेशो दृश्यते। विवरणकारस्तु वः त्वं गाय इति व्याचष्टे। वः यूयं गाय गायत इति भरतः। ३. सत्वने। षणु दाने इत्यस्यैतद् रूपम्, दात्रे—वि०। दात्रे धनानाम्—भ०। शत्रूणां सादयित्रे यद्वा धनानां सनित्रे दात्रे—सा०। शुद्धान्तःकरणाय इति ऋ० ६।४५।२२ भाष्ये द०। ४. वृषभाय इव—वि०। गवे इव घासः—भ०। यथा गवे यवसं सुखकरं तद्वदित्यर्थः—सा०। ५. शकनः शाकः शक्तिरित्यर्थः, तद्वान् शाकी, तस्मै शाकिने—वि०।
19_0115 तद्वो गाय - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११५-१। मार्गीयवम्॥ मृगयुर्गायत्रीन्द्रः॥
ओ꣡म्॥ त꣥द्वौ꣯हो꣤वा꣥॥ गा꣡याऽ२᳐। सु꣣ता꣢इ᳐सा꣣ऽ२३४चा꣥। पु꣡रुहू꣢꣯ता꣯। यसा꣡त्वा꣢ऽ१नाऽ᳒२᳒इ॥ शं꣡यत्। हा। औ꣢ऽ३हो꣢इ᳐। गा꣣ऽ२३४वा꣥इ॥ ना꣡ऽ२᳐शा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। कि꣡नेऽ२३꣡४꣡५꣡॥
19_0115 तद्वो गाय - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
११५-२।
त꣥द्वो꣯गा꣯या॥ सु꣢ताइसचाऽ᳐३। पू꣡रुऽ२३हू꣯ता꣢ऽ३४। हा꣣꣯हो꣢ऽ३। या꣡स꣢त्वा꣣ऽ२३४ना꣥इ॥ शं꣢य꣡द्गाऽ२३वे꣢॥ नशौऽ᳒२᳒। हौऽ᳒२᳒। हु꣡वोऽ२३४। वा꣥। का꣤ऽ५इनोऽ६"हा꣥इ॥
19_0115 तद्वो गाय - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
११५-३।
त꣥द्वो꣯गा꣯यसुते꣯सचाऽ६ए꣥॥ पु꣢रुहू꣯ता꣡꣯यसत्वने꣢꣯। पु꣡रुहू꣢꣯ता꣯। या꣡स꣪त्त्वाऽ२३ना꣢ऽ३४इ। शंय꣥त्। गौ꣢वा᳐ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ ना꣡ऽ२३शा꣤ऽ३॥ का꣢ऽ᳐३४५इनोऽ६"हा꣥इ॥
19_0115 तद्वो गाय - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
११५-४। ईनिधनं मार्गीयवम्॥ मृगयुः गायत्रीन्द्रः॥
त꣥द्वो꣯गा꣯यसुते꣯सचाऽ६ए꣥॥ पु꣢रुहू꣯ता꣡꣯यसत्वनाइ॥ शंयद्गाऽ२३वे꣢॥ ऐऽ᳒२᳒होऽ१आऽ२३इही꣢। नशा꣡ऽ२३। का꣡ऽ२᳐इना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
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य꣡स्ते꣢ नू꣣न꣡ꣳ श꣡तक्रत꣣वि꣡न्द्र꣢ द्यु꣣म्नि꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢। ते꣡न꣢ नू꣣नं꣡ मदे꣢꣯ मदे ॥ 20:0116 ॥
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यस्ते॑ नू॒नं श॑तक्रत॒विन्द्र॑ द्यु॒म्नित॑मो॒ मदः॑ ।
तेन॑ नू॒नं मदे॑ मदेः ॥
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पदपाठः
यः꣢। ते꣣। नून꣢म्। श꣣तक्रतो। शत। क्रतो। इ꣡न्द्र꣢꣯। द्यु꣣म्नि꣡त꣢मः। म꣡दः꣢꣯। ते꣡न꣢꣯। नू꣣न꣢म्। म꣡दे꣢꣯। म꣣देः। ११६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा से याचना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुत प्रज्ञाओं, कर्मों, यज्ञों और संकल्पोंवाले (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (यः) जो (ते) आपका (नूनम्) निश्चय ही (द्युम्नितमः) सबसे अधिक यशोमय (मदः) आनन्द है, (तेन) उससे (नूनम्) आज हमें भी (मदे) आनन्द में (मदेः) मग्न कर दीजिए ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा का आनन्द-रस जिन्होंने चख लिया है, वे उस रस की कीर्ति को गाते नहीं थकते। वह रस-रूप है यह तत्त्ववेत्ताओं का अनुभव है। सबको चाहिए कि उसके रस को प्राप्त कर अपने आपको धन्य करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रः परमात्मा प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुकर्मन्, बहुयज्ञ, बहुसंकल्प। अत्र शतशब्दो बहुत्वसूचकः। शतमिति बहुनाम। निघं० ३।१। (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (यः ते) तव (नूनम्) निश्चयेन (द्युम्नितमः) यशस्वितमः। द्युम्नं द्योततेः, यशो वाऽन्नं वा। निरु० ५।५। द्युम्नमस्यास्तीति द्युम्नी। अतिशयेन द्युम्नी द्युम्नितमः। (मदः) आनन्दः, अस्ति, (तेन) मदेन आनन्देन (नूनम्) अद्य, अस्मानपि (मदे) आनन्दे (मदेः) मदयेः, मग्नान् कुरु। मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः, लिङि रूपम्। अन्तर्भावितण्यर्थः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मन आनन्दरसो यैरास्वादितस्ते तत्कीर्तिं गायन्तो न श्राम्यन्ति। रसो वै सः इति हि तत्त्वविदामनुभवः। सर्वैस्तद्रसं प्राप्य स्वात्मा धन्यतां नेयः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।१६, ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः।
20_0116 यस्ते नूनम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११६-१। आश्वम्॥ अश्वो गायत्रीन्द्रः॥
य꣤स्ते꣯नू꣯नाऽ५ꣳशतक्र꣤ताउ॥ इ꣡न्द्रद्युम्नितमो꣯माऽ᳒२᳒दाः꣡॥ ते꣢꣯न꣡नू꣯नाऽ२३म्मा꣢॥ दा꣡इमा꣭ऽ३उवा꣢ऽ३॥ देऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
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गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣢ही꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢। उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥ 21:0117 ॥
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गाव॒ उपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑ ।
उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑ ॥
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पदपाठः
गा꣡वः꣢꣯। उ꣡प꣢꣯। व꣣द। अवटे꣢। म꣣ही꣡इति꣢। य꣣ज्ञ꣡स्य꣢। र꣣प्सु꣡दा꣢। र꣣प्सु꣢। दा꣣। उभा꣢। क꣡र्णा꣢꣯। हि꣣रण्य꣡या꣢। ११७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- हर्यतः प्रागाथः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में स्तोताओं को प्रेरणा दी जा रही है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गावः) स्तोताओ ! तुम (अवटे) रसों के कूप-तुल्य परमेश्वर के विषय में (उप वद) महिमा-गान करो। (मही) महान् धरती-आकाश (यज्ञस्य) उस पूजनीय परमेश्वर के (रप्सुदा) स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले हैं। (उभा) दोनों (हिरण्यया) सुनहरे सूर्य और चन्द्रमा, जिन धरती-आकाश के (कर्णा) कर्ण-कुण्डलों के समान हैं ॥३॥ इस मन्त्र में सुनहरे सूर्य-चन्द्र मानो कर्ण-कुण्डल हैं इस कथन में व्यङ्ग्योत्प्रेक्षालङ्कार है। कर्ण-कुण्डलों के अर्थ में कर्णौ के प्रयोग में लक्षणा है। इन्द्र में अवट (कूप) का आरोप होने से रूपक है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो परमेश्वर दया, वीरता, आनन्द आदि रसों के कूप के समान है, उसकी सब मनुष्यों को अपनी वाणियों से महिमा अवश्य गान करनी चाहिए। यद्यपि वह निराकार तथा गोरे, काले, हरे, पीले आदि रूपों से रहित है, तो भी उसके भक्तजन धरती-आकाश के अनेकविध चित्र-विचित्र पदार्थों में उसी के रूप को देखते हैं और उसी की चमक से यह सब-कुछ चमक रहा है, यह बुद्धि करते हैं। इसीलिए धरती-आकाश को उसके स्वरुप-प्रकाशक कहा गया है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्तोतारः प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गावः२) स्तोतारः ! गौः इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। यूयम् (अवटे३) विविधरसानां कूपभूते इन्द्रे परमेश्वरे परमेश्वरमुपजीव्येत्यर्थः। अत्र विषयसप्तमी। अवतः, अवटः इति कूपनामसु पठिते। निघं० २।२३। (उपवद) उपवदत महिमानमुपगायत। अत्र अनात्मनेपदेऽपि छान्दसस्तकारलोपः, व्यत्ययो वा। (मही४) महत्यौ द्यावापृथिव्यौ। मही इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०। मह्यौ इति प्राप्ते सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (यज्ञस्य) यजनीयस्य तस्य इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्य (रप्सु-दा५) रप्सुदे स्वरूपप्रकाशयित्र्यौ स्तः। (उभा) उभौ (हिरण्यया) हिरण्मयौ सूर्याचन्द्रमसौ, ययोः द्यावापृथिव्योः (कर्णा६) कर्णौ, कर्णकुण्डले इव स्तः। रप्सुदा, उभा, कर्णा, हिरण्यया इति सर्वत्र सुपां सुलुक्०।’ अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्य आकारादेशः। हिरण्यया इत्यत्र ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि च्छन्दसि।’ अ० ६।४।१७५ इति निपातनाद् हिरण्यशब्दाद् विहितस्य मयटो मकारस्य लोपः ॥३॥ उभा कर्णा हिरण्यया इत्यत्र व्यङ्ग्योत्प्रेक्षालङ्कारः। कर्णकुण्डले इति विवक्षायां कर्णा इत्यस्य प्रयोगे च लक्षणा। इन्द्रे अवटत्वारोपाच्च रूपकम् ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यः परमेश्वरो दयावीरताऽऽनन्दादिरसानां कूप इव वर्तते, सर्वैर्जनैः स्वकीयाभिः स्तुतिवाग्भिस्तन्महिमाऽवश्यं गेयः। यद्यप्यसौ निराकारः गौरकृष्णहरितपीतादिरूपरहितश्च, तथापि तद्भक्ता द्यावापृथिव्योर्नानाविधेषु चित्रविचित्रेषु पदार्थेषु तस्यैव स्वरूपं निभालयन्ति, तस्यैव भासा सर्वमिदं विभातीति च बुद्धिं कुर्वन्ति। अत एव द्यावापृथिव्यौ तस्य स्वरूपप्रकाशिके वर्णिते ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।७२।१२, देवता १अग्निर्हवींषि वा। य० ३३।१९, ऋषिः पुरुमीढाजमीढौ, देवते इन्द्रवायू, ३३।७१ ऋषिः वसिष्ठः, देवते मित्रावरुणौ। सर्वत्र उपवदावटे इत्यत्र उपावतावतं इति पाठः। सा० १६०२। २. हे गावः मदीया वाचः—इति वि०। गावः गाः धर्मदोग्ध्रीः उपवद उपस्तुहि हे अध्वर्यो—इति भ०। हे गावः धर्मदुघाः—इति सा०। ३. अवट इति अपठितमपि मेघनाम द्रष्टव्यम्—इति वि०। महावीरोऽत्रावट उच्यते। महावीरनिमित्ते—इति भ०। अवटे अवटं महावीरं प्रति—इति सा०। ४. मही शब्दः पदपाठे महीइति इत्येवम् इतिकरणाद् द्विवचनान्त एव। ५. (रप्सुदा) ये रप्सुं रूपं दत्तस्ते इति य० ३३।१९ भाष्ये, सुरूपप्रदे इति च य० ३३।७१ भाष्ये द०। रप्सु इति रूपनाम, ये तद् दत्तः ते रप्सुदे, यज्ञस्य रूपदे इत्यर्थः—इति वि०। रपेः शब्दकर्मणो रपिः स्तुतिः तत्र सदनं रप्सुदा, अकारस्योकारो व्यत्ययात्—इति भ०। रप्सुदा रप्सुदे आरिप्सोः फलदे। रिप्सोः अश्विनोः दातव्ये वा। यद् वा रपणं शब्दनं, रप् मन्त्रः तेन सुदातव्ये। अथवा षुद क्षरणे, रपा मन्त्रेण क्षारणीये दोहनीये गवाजयोः पयसी—इति सा०। ६. उभौ कर्णौ हिरण्ययौ यस्य (मेघस्य)। अस्ति पुनः क्वचिदन्यत्रापि हिरण्यकर्णत्वं मेघस्य ? अस्तीति ब्रूमः, हिरण्यकर्णं मणिग्रीवम् (ऋ० १।१२२।१४) इत्यत्र—इति वि०। अपि च अस्य महावीरस्य उभा उभौ कर्णा कर्णस्थानीयौ द्वौ रुक्मौ हिरण्यया हिरण्मयौ सुवर्णरजतमयौ—इति सा०।
21_0117 गाव उप - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११७-१। ऐटते द्वे॥ द्वयोरिटन्वान् गायत्रीन्द्रः॥
गा꣤꣯वः꣥। ए꣤गावाः꣥॥ उ꣢पव। दाऽ᳐३। वा꣡ऽ२᳐दा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। वा꣣ऽ२३४टे꣥॥ म꣢ही᳐या꣣ऽ२३४ज्ञा꣥॥ स्य꣣रा꣢ऽ३। स्या꣡ऽ२᳐रा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। प्सू꣣ऽ२३४दा꣥॥ उ꣢भा᳐का꣣ऽ२३४र्णा꣥॥ हि꣣रा꣢ऽ३। हा꣡ऽ२᳐इरा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ण्या꣣ऽ२३४या꣥॥
21_0117 गाव उप - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
११७-२।
ओ꣢इ᳐गा꣣ऽ२३४वाः꣥॥ उ꣢पवऽ३दा꣡। वाटा꣢ओ꣣ऽ२३४वा꣥। म꣢ही꣡꣯यज्ञस्य꣢रप्सु꣡दा꣢ऽ३॥ ओ꣢ऊ꣣ऽ२३४भा꣥॥ का꣡र्णा꣢ओ꣣ऽ२३४वा꣥॥ हि꣢रण्य꣡याऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢र꣣म꣡श्वा꣢य गायत꣣ श्रु꣡त꣢कक्षारं गवे। अ꣢र꣣मि꣡न्द्र꣢स्य꣣ धा꣡म्ने꣢ ॥ 22:0118 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अर॒मश्वा॑य गायति श्रु॒तक॑क्षो॒ अरं॒ गवे॑ ।
अर॒मिन्द्र॑स्य॒ धाम्ने॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡र꣢꣯म्। अ꣡श्वा꣢꣯य। गा꣣यत। श्रु꣡तक꣢꣯क्षारम्। श्रु꣡त꣢꣯। क꣣क्ष। अ꣡र꣢꣯म्। ग꣡वे꣢꣯। अ꣡र꣢꣯म्। इ꣡न्द्र꣢꣯स्य। धा꣡म्ने꣢꣯। ११८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में मनुष्यों को प्रेरणा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (श्रुतकक्ष) वेद को अपनी बगल में या मनरूप कोठे में रखनेवाले वेदानुगामी मनुष्य ! तू और तेरे सखा मिलकर (अरम्) पर्याप्तरूप से (अश्वाय) घोड़े, वायु, विद्युत्, अग्नि, बादल, प्राण आदि के लिए (गायत) वाणी को प्रेरित करो अर्थात् इनके गुण-कर्मों का वर्णन करो। (अरम्) पर्याप्त रूप से (गवे) गाय, बैल, द्युलोक, सूर्य, भूमि, चन्द्रमा, जीवात्मा, वाणी, इन्द्रियों आदि के लिए (गायत) वाणी को प्रेरित करो अर्थात् इनके गुण-कर्मों का वर्णन करो। (अरम्) पर्याप्त रूप से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (धाम्ने) तेज के लिए(गायत) वाणी को प्रेरित करो अर्थात् उसके महत्त्व का वर्णन करो ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर की सृष्टि में उसके रचे हुए जो विविध पदार्थ हैं उनका और परमेश्वर के तेज का ज्ञान तथा महत्त्व का वर्णन सबको करना चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जनाः प्रेर्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (श्रुतकक्ष।२) श्रुतो वेदः कक्षे बाहुमूले मनःप्रकोष्ठे वा यस्य तादृश वेदानुगामिन् ! त्वं तव सखायश्च संभूय (अरम्) अलं, पर्याप्तम् (अश्वाय३) अश्वपदवाच्यघोटक-वायु-विद्युद्-अग्नि-पर्जन्य-प्राणादिकाय (गायत) वाचं प्रेरयत, तद्गुणकर्माणि वर्णयत। (अरम्) पर्याप्तम् (गवे) गोपदवाच्यधेनु-वृषभ-द्युलोक-सूर्य-पृथिवी-चन्द्र-जीवात्म-वाग्-इन्द्रियादि- काय (गायत) वाचं प्रेरयत, तद्गुणकर्माणि वर्णयत। (अरम्) पर्याप्तम् (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (धाम्ने) तेजसे (गायत) वाचं प्रेरयत, तन्महत्त्वं वर्णयत ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्य सृष्टौ तद्रचिता ये विविधपदार्थाः सन्ति तेषां पारमेश्वरतेजसश्च ज्ञानं तन्महत्त्ववर्णनं च सर्वैः कार्यम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।२५, गायत श्रुतकक्षारं इत्यत्र गायति श्रुतकक्षो अरं इति पाठः। ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। २. हे श्रुतकक्षाः श्रुतकक्षस्य मम पुत्राः—इति वि०। श्रुतकक्षेति आत्मानमेव सम्बोधयति ऋषिः—इति भ०, एतदेव सायणाभिमतम्। ३. अश्वस्यार्थाय, गोरर्थाय, इन्द्रस्य यत् स्थानं स्वर्गाख्यं तस्य चार्थाय—इति वि०। अश्वान् लब्धुम्…. गोलाभार्थम्,,,, धाम्ने स्थानाय, गृहलाभार्थम्—इति भ०।
22_0118 अरमश्वाय गायत - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११८-१। श्रौतकक्षे द्वे॥ द्वयोः श्रुतकक्षो गायत्रीन्द्रः॥
अ꣣रा꣢ऽ३४म्। अश्वा꣯य। गा꣥꣯याऽ६ता꣥॥ श्रू꣡तक꣢। क्षा꣯रा꣡ङ्गावा꣢इ᳐। आ꣣ऽ२३४रा꣥म्। हा꣢ऽ᳐३हा꣢इ॥ इ꣡। द्रास्याऽ२३धा꣢॥ हिं꣡माये꣢ऽ३। म्नो꣢। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४ती꣥॥
22_0118 अरमश्वाय गायत - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
११८-२।
अ꣤र꣥म꣤श्वा꣥꣯यगा꣯यता꣯। रमश्वो꣤वा꣥॥ या꣡गा꣯य꣢त। श्रु꣡त꣢क। क्षा꣡ऽ२३। हा꣢ऽ३हा꣢ऽ३इ। आ꣡राऽ२᳐ङ्गा꣣ऽ२३४वा꣥इ॥ आ꣡रमिन्द्रा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३हा꣢॥ स्या꣡धा꣢꣯म्ना꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे। स꣡ वृषा꣢꣯ वृषभो꣣ भु꣡व꣢त् ॥ 23:0119 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे ।
स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त꣢म्। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। वा꣣जयामसि। महे꣢। वृ꣣त्रा꣡य꣢। ह꣡न्त꣢꣯वे। सः। वृ꣡षा꣢꣯। वृ꣣षभः꣢। भु꣣वत्। ११९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में स्तोता लोग और प्रजाजन कह रहे हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (महे) विशाल, (वृत्राय) सूर्यप्रकाश और जल-वृष्टि को रोकनेवाले मेघ के समान धर्म के बाधक पाप को (हन्तवे) नष्ट करने के लिए (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) महापराक्रमी परमात्मा की हम (वाजयामसि) पूजा करते हैं। (वृषा) वर्षक (सः) वह परमेश्वर (वृषभः) धर्म की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (महे वृत्राय) महान् शत्रु को (हन्तवे) मारने के लिए, हम (तम्) प्रजा से निर्वाचित उस (इन्द्रम्) अत्यन्त वीर राजा को (वाजयामसि) सहायता-प्रदान द्वारा बलवान् बनाते हैं, अथवा उत्साहित करते हैं। (वृषा) मेघतुल्य (सः) वह राजा (वृषभः) शत्रुओं के ऊपर आग्नेयास्त्रों की और प्रजा के ऊपर सुखों की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ इस मन्त्र में वृषा, वृष में छेकानुप्रास अलङ्कार है। वृषा वृषभः दोनों शब्द बैल के वाचक होने से पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार भी है, यौगिक अर्थ करने से प्रतीयमान पुनरुक्ति का समाधान हो जाता है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अनावृष्टि के दिनों में बादल जैसे सूर्य के प्रकाश को और जल को नीचे आने से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, वैसे ही पापविचार और पापकर्म भूमण्डल में प्रसार प्राप्त कर सत्य के प्रकाश को और धर्मरूप स्वच्छ जल को रोककर असत्य का अन्धकार और अधर्मरूप अवर्षण उत्पन्न कर देते हैं। इन्द्र नामक परमेश्वर जैसे मेघरूप वृत्र को मारकर सूर्य के प्रकाश को तथा वर्षाजल को निर्बाधगति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है, वैसे ही पापरूप वृत्र का विनाश कर संसार में सत्य के प्रकाश को और धर्म की वर्षा को मुक्तहस्त से प्रवाहित करे, जिससे सब भूमण्डल-निवासी लोग सत्य-ज्ञान और सत्य-आचरण में तत्पर तथा धार्मिक होकर अत्यन्त सुखी हों। इसी प्रकार राष्ट्र में राजा का भी कर्त्तव्य है कि दुष्ट शत्रुओं को विनष्ट कर सुख उत्पन्न करे ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ स्तोतारः प्रजाजनाश्चाहुः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपक्षे। (महे) महते (वृत्राय) सूर्यप्रकाशस्य जलस्य स (आवरकाय) मेघाय इव धर्मावरकाय पाप्मने। पाप्मा वै (वृत्रः)। श० ११।१।५।७ द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तं पाप्मानमित्यर्थः। वृत्रो वृणोतेः…. यदवृणोत् तद् वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते। निरु० २।७। (हन्तवे) हन्तुम्। तुमर्थे सेसेन्०।’ अ० ३।४।९ इति हन् धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। तस्य नित्यत्वाद् हन्तवे इति पदस्य ञ्नित्यादिर्नित्यम् अ० ६।१।१९७ इत्याद्युदात्तत्वम्। (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) महावीरं परमेश्वरं (वाजयामसि) अर्चयामः। वाजयति अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। इदन्तो मसि अ० ७।१।४६ इति मसः इदन्तत्वम्। (वृषा) वर्षकः (सः) परमेश्वरः (वृषभः२) धर्मस्य वृष्टिकर्त्ता (भुवत्) भवतु। लेटि बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८ इति गुणनिषेधः। अथ द्वितीयः—राजपक्षे। (महे वृत्राय) महते शत्रवे, महान्तं शत्रुमित्यर्थः। (हन्तवे) हन्तुम्, वयम् (तम्) प्रजाभिर्निर्वाचितम् (इन्द्रम्) सुवीरं राजानम् (वाजयामसि३) निजसाहाय्यप्रदानेन बलिनं कुर्मः प्रोत्साहयामो वा। (वृषा) मेघतुल्यः (सः) असौ राजा (वृषभः) शत्रूणामुपरि आग्नेयास्त्राणां वर्षकः प्रजानामुपरि च सुखवर्षकः (भुवत्) भवेत् ॥५॥ अत्र वृषा, वृष इत्यत्र छेकानुप्रासः। वृषा-वृषभः इत्युभयोः बलीवर्दवाचकत्वाद् पुनरुक्तवदाभासोऽपि, यौगिकार्थनिष्पत्त्या च प्रतीयमानायाः पुनरुक्तेः परिहारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अनावृष्टिदिवसेषु मेघो यथा सूर्यप्रकाशं जलं चावृण्वन् भूम्यामन्धकारम् अवर्षणं च जनयति, तथैव पापविचाराः पापकर्माणि च भूमण्डले प्रसारं प्राप्य सत्यस्य प्रकाशं धर्मरूपं स्वच्छोदकं चावृत्याऽसत्यान्धकारम् अधर्मरूपमवर्षणं च जनयन्ति। इन्द्राख्यः परमेश्वरो यथा मेघरूपं वृत्रं हत्वा सूर्य-प्रकाशं वृष्टिजलं च निर्बाधगत्या भूमिं प्रति प्रवाहयति, तथैव स पापरूपं वृत्रं विनाश्य जगति सत्यस्य प्रकाशं धर्मस्य वृष्टिं चोन्मुक्तरूपेण प्रवाहयेत्, येन सर्वे भूमण्डलनिवासिनः सत्यज्ञान-सत्याचारपरायणा धार्मिकाश्च भूत्वा परमसुखिनो भवेयुः। तथैव राष्ट्रे नृपतेरपि कर्त्तव्यं यत्स दुष्टान् शत्रून् हत्वा सुखं जनयेदिति ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।७, अथ० २०।४७।१, २०।१३७।१२—सर्वत्र ऋषिः सुकक्षः। साम० १२२२। २. वृषभः। लुप्तोपमम् इदम्। वृषभ इव। यथा वृषभः रेतसः वर्षिता तद्वद् वर्षिता उदकस्य भवत्वित्यर्थः—इति वि०। ३. वाजिनं बलिनं कुर्मः स्तुतिभिः—इति भ०।
23_0119 तमिन्द्रं वाजयामसि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११९-१। तन्वस्यसाम॥ तन्वः गायत्रीन्द्रः॥
त꣢मि꣡न्द्राऽ२३म्वा꣤꣯जया꣥꣯मसी॥ मा꣡हे꣯वृ꣢त्रा꣯। यहा꣡न्ता꣢ऽ१वेऽ᳒२᳒॥ सवा꣡र्षा꣢ऽ१वाऽ२३॥ ष꣢भो꣡ऽ२३४वा꣥। भू꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
23_0119 तमिन्द्रं वाजयामसि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
११९-२। दावसुनिधनम्॥ दावसुर्गायत्रीन्द्रः॥
त꣢मि꣡न्द्राऽ२३म्वा꣤꣯जया꣯मसिहा꣥उ॥ मा꣡हे꣯वृ꣢त्रा꣯। यहा꣡न्ता꣢ऽ१वेऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हा꣢इ॥ सवा꣡र्षा꣢ऽ१वाऽ२३। हो꣡वा꣢ऽ᳐३हा꣢॥ षभो꣡ऽ२३। भू꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ए꣢ऽ᳐३। दा꣢꣯व꣡सू꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
23_0119 तमिन्द्रं वाजयामसि - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
११९-३। निवेष्ट्वः॥ वसिष्ठो गायत्रीन्द्रः॥
त꣥मिन्द्रंवा꣯जया꣯मसीऽ६ए꣥॥ म꣢हाऽ३हा꣢इ। वृत्रा꣯ऽ३या꣡ह꣪न्तवेऽ᳒२᳒। ओऽ᳒२᳒। ईऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢। ओ꣡मोवा꣢॥ सहे꣯वा꣡र्षाऽ᳒२᳒। ओऽ᳒२᳒। ईऽ᳒२᳒ई꣭ऽ३या꣢। ओ꣡मोवा꣢॥ वृष। भो꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ भू꣣ऽ२३४वा꣥त्॥
23_0119 तमिन्द्रं वाजयामसि - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
११९-४। इडानाꣳसंक्षारः॥ इडा गायत्रीन्द्रः॥
औ꣢꣯हो꣯इहुवाऽ३हो꣡इ। त꣢मिन्द्रंवाऽ३जा꣤ऽ३या꣢꣯म꣣सि꣥॥ औ꣢꣯हो꣯इहुवाऽ३हो꣡इ। म꣢हे꣯वृत्राऽ३या꣤ऽ३ह꣢न्त꣣वे꣥꣯॥ औ꣢꣯हो꣯इहुवाऽ३हो꣡इ। स꣣वा꣢र्षा꣣ऽ२३४वॄ꣥॥ ष꣢भो꣡꣯भु꣢वत्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३। ए꣤हीडा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्व꣡मि꣡न्द्र꣣ ब꣢ला꣣द꣢धि꣣ स꣡ह꣢सो जा꣣त꣡ ओज꣢꣯सः। त्व꣡ꣳसन्वृ꣢꣯ष꣣न्वृ꣡षेद꣢꣯सि ॥ 24:0120 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वमि॑न्द्र॒ बला॒दधि॒ सह॑सो जा॒त ओज॑सः ।
त्वं वृ॑ष॒न्वृषेद॑सि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्व꣢म्। इ꣣न्द्र। ब꣡ला꣢꣯त्। अ꣡धि꣢꣯। स꣡ह꣢꣯सः। जा꣣तः꣢। ओ꣡ज꣢꣯सः। त्व꣢म्। सन्। वृ꣣षन्। वृ꣡षा꣢꣯। इत्। अ꣣सि। १२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- देवजामय इन्द्रमातर ऋषिकाः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और राजा की महिमा का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमवीर परमैश्वर्यवन् परमात्मन् और राजन् ! (त्वम्) आप (बलात्) अत्याचारियों के वध और सज्जन लोगों के धारण आदि के हेतु बल के कारण, (सहसः) मनोबलरूप साहस के कारण, और (ओजसः) आत्मबल के कारण (अधिजातः) प्रख्यात हो। (सन्) श्रेष्ठ (त्वम्) आप, हे (वृषन्) सुखों के वर्षक ! (वृषा इत्) वृष्टिकर्ता मेघ ही (असि) हो ॥६॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है। इन्द्र में वर्षक मेघ का आरोप होने से रूपक है। वृष-वृषे में छेकानुप्रास है ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर और राजा के राक्षसवधादिरूप और पृथिवी, सूर्य आदि लोकों के तथा राष्ट्र के धारणरूप बहुत से बल के कार्य प्रसिद्ध हैं। उनका मनोबल और आत्मबल भी अनुपम है। उनका वृषा (बादल) नाम सार्थक है, क्योंकि वे बादल के समान सबके ऊपर सुख की वर्षा करते हैं। ऐसे अत्यन्त महिमाशाली परमेश्वर और राजा का हमें दिन-रात अभिनन्दन करना चाहिए ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्य नृपतेश्च महिमानमाचष्टे।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमवीर परमैश्वर्यवन् परमात्मन् राजन् वा ! (त्वम् बलात्) अत्याचारिवधलोकधारणादिहेतोः बलस्य कारणात्, (सहसः) मनोबलात् साहसात्, (ओजसः२) आत्मबलाच्च हेतोः (अधिजातः) प्रख्यातः असि। (सन्३) श्रेष्ठः (त्वम् वृषन्) हे सुखानां वर्षक ! (वृषा इत्) वर्षकः मेघः एव (असि) वर्तसे ॥६॥ अत्रार्थश्लेषालङ्कारः। इन्द्रे मेघत्वारोपाद् रूपकम्। वृष, वृषे इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरस्य नृपतेश्च राक्षसवधादिरूपाणि, किञ्च पृथिवीसूर्यादिलोकानां राष्ट्रस्य च धारणरूपाणि बहूनि बलकार्याणि प्रसिद्धानि। तयोः मनोबलं आत्मबलं चापि निरुपमम्। तयोर्वृषेति नाम सार्थकम्, यतो हि तौ पर्जन्यवत् सर्वेषामुपरि सुखवृष्टिं कुरुतः। एतादृशौ परममहिमान्वितौ परमेश्वरराजानावस्माभिरहर्निशमभिनन्दनीयौ ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १०।१५३।२, अथ० २०।९३।५। उभयत्र सन् इति नास्ति। २. ओजो नाम बलहेतुः हृदयगतं धैर्यमिति—सा०। ३. सन् इति विवरणकारस्य आमन्त्रितत्वेनाभिमतम्—सन् प्रशस्त इति। तत्तु चिन्त्यम्, आमन्त्रितस्वराभावात्। सन् श्रेष्ठः—इति भ०, सा०।
24_0120 त्वमिन्द्र बलादधि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२०-१। शार्यातानि त्रीणि॥ त्रयाणां शर्यातिर्गायत्रीन्द्रः॥
हा꣥꣯उत्वमिन्द्रा॥ ब꣢ला꣡दधि꣢। हाऽ३उहा꣢उ। स꣡हसो꣢꣯जा꣯। ता꣡ओ꣢ऽ१जसा꣢ऽ३ः। हा꣢ऽ३उहा꣢उ॥ त्वाꣳ꣡सन्वृषा꣢ऽ३न्। हा꣢ऽ३उहा꣢उ॥ वृषा꣡ये꣢ऽ३त्। आ꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वृ꣢धेऽ१॥
24_0120 त्वमिन्द्र बलादधि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२०-२।
त्व꣥मिन्द्रबला꣯दधीऽ६ए꣥॥ स꣡हसो꣢꣯जा꣯। ता꣡ओ꣢ऽ१जसः꣢᳐। इ꣣या꣢ऽ३हो꣡इ। इ꣣या꣢यो꣣ऽ२३४वा꣥॥ त्वाꣳ꣡सन्वृष꣢न्। इ꣣या꣢ऽ३हो꣡इ। इ꣣या꣢यो꣣ऽ२३४वा꣥॥ वृ꣢षा꣡ये꣢ऽ३त्। आ꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ म꣢हेऽ१॥
24_0120 त्वमिन्द्र बलादधि - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१२०-३।
त्व꣤मि꣥न्द्रब꣤ला꣥꣯द꣤धि꣥स꣤ह꣥साः꣤॥ जा꣡ताऽ᳒२ः᳒। ओ꣡꣯जसाऽ२३४ः। इहो꣥꣯इहा꣤॥ त्वाꣳ꣡सन्वृषा꣢ऽ३४न्। इहो꣥꣯इहा꣤॥ वृ꣢षा꣡ये꣢ऽ३त्। आ꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४हा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣫द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत्। च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥ 25:0121 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्यव॑र्तयत् ।
च॒क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
य꣣ज्ञः꣢। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। अ꣣वर्धयत्। य꣢त्। भू꣡मि꣢म्। व्य꣡व꣢꣯र्तयत्। वि꣣। अ꣡व꣢꣯र्तयत्। च꣣क्राणः꣢। ओपश꣢म्। ओ꣣प। श꣢म्। दि꣣वि꣢। १२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में, यज्ञ से ही परमेश्वर की महिमा सर्वत्र फैली हुई है, इस विषय का वर्णन करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यज्ञः) परोपकार के लिए किये जानेवाले महान् कर्म ने (इन्द्रम्) परमात्मा को अर्थात् उसकी महिमा को (अवर्धयत्) बढ़ाया हुआ है। परमात्मा के यज्ञ कर्म का एक दृष्टान्त यह है (यत्) कि (दिवि) द्युलोक में (ओपशम्) सूर्यरूप मुकुट को (चक्राणः) रचनेवाला वह परमात्मा (भूमिम्) भूमि को (व्यवर्तयत्) सूर्य के चारों ओर घुमा रहा है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर यज्ञ का आदर्शरूप है। उसके किये जाते हुए यज्ञ का ही उदाहरण है कि वह द्युलोक में महान् मुकुटमणि सूर्य को संस्थापित करके उसके चारों ओर भूमि को अण्डाकार मार्ग से चक्ररूप में घुमा रहा है, जिससे छहों ऋतुओं का चक्र चलता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ यज्ञेनैव परमेश्वरस्य महिमा सर्वत्र प्रसरतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यज्ञः) परोपकाराय क्रियमाणं महत् कर्म (इन्द्रम्) परमात्मानम्, परमात्मनो महिमानमिति यावत्, (अवर्धयत्) वर्धयति। सामान्यकालार्थे लङ्। यज्ञे निदर्शनमाह—(यत्) यथा (दिवि) द्युलोके (ओपशम्२) सूर्यरूपं किरीटम्। आ आगत्य उपशेते शिरसि विराजते इति ओपशः किरीटम्। (चक्राणः) चक्रिवान् स इन्द्रः। कृधातोर्लिटः कानच्। चित्वात् चितः। अ० ६।१।१६३ इत्यन्तोदात्तत्वम्। (भूमिम्) पृथिवीम् (व्यवर्तयत्) सूर्यं परितो विवर्तयति परिक्रमयति ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरो हि यज्ञस्यादर्शरूपः। तेन क्रियमाणस्य यज्ञस्यैव निदर्शनं विद्यते यत् स द्युलोके महान्तं मुकुटमणिभूतं सूर्यं संस्थाप्य तं परितः पृथिवीम् अण्डाकृतिमार्गेण चक्रतया भ्रमयति, येन षड्ऋतुचक्रं प्रवर्तते ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१४५, अथ० २०।२७।५, साम० १६३९। २. ओपशं गर्जितलक्षणं शब्दम्—इति वि०। ओपशं मेघम्। उपशेरतेऽस्मिन्नापः इति ओपशः—इति भ०। दिवि अन्तरिक्षे मेघम् ओपशम् उपेत्य शयानं चक्राणः कुर्वन्। यद्वा आत्मनि समवेतो वीर्यविशेषः ओपशः, तमन्तरिक्षे कुर्वन्—इति सा०।
25_0121 यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२१-१। इन्द्राण्यास्साम॥ इन्द्राणी गायत्रीन्द्रः॥
य꣥ज्ञइन्द्रमवर्धाऽ६या꣥त्॥ य꣢द्भू꣡꣯मिम्। व्या। व्य꣪वाऽ२᳐र्त्ता꣣ऽ२३४या꣥त्॥ चा꣣ऽ२३४क्रा꣥। णा꣣ऽ२३४ओ꣥। पा꣡श꣢न्दिवि꣡॥ च꣢क्रा꣣꣯ण꣢ओ꣡ऽ२३॥ पा꣡ऽ२᳐शा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ दी꣣ऽ२३४वी꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣡दि꣢न्द्रा꣣हं꣢꣫ यथा꣣ त्व꣡मीशी꣢꣯य꣣ व꣢स्व꣣ ए꣢क꣣ इ꣢त्। स्तो꣣ता꣢ मे꣣ गो꣡स꣢खा स्यात् ॥ 26:0122 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ (=ईश्वरस्स्याम्) वस्व॒ (=धनस्य) एक॒ इत् ।
स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् १
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पदपाठः
य꣢त्। इ꣣न्द्र। अह꣢म्। य꣡था꣢꣯। त्वम्। ई꣡शी꣢꣯य। व꣡स्वः꣢꣯। ए꣡कः꣢। इत्। स्तो꣣ता꣢। मे꣣। गो꣡सखा꣢꣯। गो। स꣣खा। स्यात्। १२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि यदि मैं परमेश्वर के समान धनपति हो जाऊँ तो क्या करूँ।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) यदि (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (अहम्) आपका उपासक मैं (यथा त्वम्) जैसे आप हैं, वैसे (वस्वः) विद्याधन या भौतिकधन का (एकः इत्) एकमात्र (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ, तो (मे) मेरा (स्तोता) प्रशंसक, शिष्य या सेवक (गोसखा) वेदवाणियों का पण्डित अथवा गाय आदि धन का धनी (स्यात्) हो जाए ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर सम्पूर्ण विद्याधन का और भौतिकधन का एकमात्र परम अधीश्वर है और उससे अपने विद्याधन को वेदरूप में तथा भौतिकधन को सोने, चाँदी, सूर्य, वायु, जल, फल, मूल आदि के रूप में हमें दिया है। वैसे ही मैं भी यदि परमेश्वर की कृपा से विद्यादि धन का और भौतिक धन का अधिपति हो जाऊँ तो मैं भी अपने प्रशंसक शिष्यों को विद्यादान देकर वेदादि श्रेष्ठ शास्त्रों में पण्डित और सेवकों को धन देकर गाय आदि ऐश्वर्यों से भरपूर, अत्यन्त धनी कर दूँ ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
इन्द्रवद् यद्यहमपि धनाधीशो भवेयं तदा किं कुर्यामित्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) यदि (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (अहम्) त्वदुपासकः (यथा त्वम्) त्वमिव (वस्वः) वसुनः विद्याधनस्य भौतिकधनस्य वा। वसुनः इत्येतस्य स्थाने लिङ्गव्यत्ययेन वसोः इति प्राप्ते जसादिषु छन्दसि वावचनं प्राङ् णौ चङ्युपधाया ह्रस्वः। अ० ७।३।१०९ वा० इति ‘घेर्ङिति।’ अ० ७।३।११ इत्यनेन प्राप्तस्य गुणस्य विकल्पनात्तदभावे यणादेशः। (एकः इत्) अद्वितीय एव (ईशीय) अधीश्वरो भवेयम्, तत् तर्हि (मे) मम (स्तोता) प्रशंसकः शिष्यः सेवको वा (गोसखा) गोभिः वेदवाग्भिः सहितः पण्डितः, गवादिधनेन वा सहितो धनिकः (स्यात्) भूयात् ॥८॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरः सम्पूर्णस्य विद्याधनस्य भौतिकधनस्य च एक एव परमाधीश्वरोऽस्ति, स च स्वकीयं विद्याधनं वेदरूपेण, भौतिकधनं च सुवर्णरजतसूर्यपवनजलफलमूलादिरूपेणास्मभ्यं प्रायच्छत्। तथैव यद्यहमपि परमेश्वरकृपया विद्यादिधनस्य भौतिकधनस्य चाधीश्वरो भवेयं, तर्हि अहमपि नूनं स्वप्रशंसकान् शिष्यान् विद्यादानेन वेदादिसच्छास्त्रनिष्णातान्, सेवकाँश्च धनदानेन धेन्वाद्यैश्वर्यसम्पन्नान् परमधनिकान् कुर्याम् ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१४।१, अथ० २०।२७।१, उभयत्र गोषखा इति पाठः। साम० १८३४। २. इयमृक् प्रदाने विलम्बमानम् इन्द्रं प्रति उच्यते—इति भ०। त्वं तु स्तोत्रे मह्यं गवादिप्रदाने विलम्बसे, अहं चेत् त्वमिव धनाधीश्वरो भवेयं तर्हि सद्य एव स्वस्तोतारं गोसखं कुर्यामिति तदीयं तात्पर्यं बोध्यम्।
26_0122 यदिन्द्राहं यथा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२२-१। गौषूक्तम्॥ गौषूक्तिर्गायत्रीन्द्रः॥
य꣤दि꣥न्द्रा꣯हं꣤यथौ꣥꣯। हौ꣤꣯होवाहा꣥इ। तुवा꣤म्॥ ई꣢꣯शी꣡꣯यवस्व꣢औऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। हुवाये꣢। का꣡ईऽ᳒२᳒त्॥ स्तो꣯ता꣡꣯मे꣯गो꣯स꣢खौऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। हुवाये꣢॥ सा꣡याऽ२३त्। हो꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ अ꣢ग्नि꣡रा꣯हु꣢ता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
26_0122 यदिन्द्राहं यथा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२२-२। आश्वसूक्तम्॥ आश्वसूक्तिर्गायत्रीन्द्रः॥
आ꣢औ꣣꣯हो꣤वाहा꣥इ। यदिन्द्रा꣯हाम्॥ य꣢था꣡। त्वम्। ऐ꣢꣯ही꣯यै꣣꣯ही꣢ऽ१। आइशी꣯य꣢वस्वआ꣡इकइत्॥ ऐ꣢꣯ही꣯यै꣣꣯ही꣢ऽ१॥ आऽ᳒२᳒इ। स्तो꣡ताऽ᳒२᳒मा꣡इगोऽ᳒२᳒॥ सखा꣡ऽ२३। सा꣡ऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ शु꣢क्र꣡आ꣯हु꣢ता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प꣡न्य꣢पन्य꣣मि꣡त्सो꣢तार꣣ आ꣡ धा꣢वत꣣ म꣡द्या꣢य। सो꣡मं꣢ वी꣣रा꣢य꣣ शू꣡रा꣢य ॥ 27:0123 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पन्य॑म्पन्य॒मित्सो॑तार॒ आ धा॑वत॒ मद्या॑य ।
सोमं॑ वी॒राय॒ शूरा॑य ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प꣡न्य꣢꣯म्पन्यम्। प꣡न्य꣢꣯म्। प꣣न्यम्। इ꣢त्। सो꣣तारः। आ꣢। धा꣣वत। म꣡द्या꣢꣯य। सो꣡म꣢꣯म्। वी꣣रा꣡य꣢। शू꣡रा꣢꣯य। १२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि कैसा भक्तिरस परमात्मा को अर्पित करना चाहिए।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोतारः) भक्तिरूप सोम-रस को अभिषुत करनेवाले उपासको ! तुम (मद्याय) तृप्ति प्रदान किये जाने योग्य, (वीराय) विशेष रूप से सद्गुणों के प्रेरक, (शूराय) शूर परमात्मा के लिए (पन्यं पन्यम् इत्) प्रशंसनीय-प्रशंसनीय ही (सोमम्) श्रद्धा-रस को (आ धावत) समर्पित करो ॥९॥ इस मन्त्र में ‘पन्यं, पन्यम् तथा राय, राय में छेकानुप्रास और वीराय, शूराय में पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है। य की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वर प्रशंसनीय, हृदय को मोह लेनेवाले श्रद्धा-रस को प्राप्त कर स्तोता के हृदय में सद्गुणों को प्रेरित करता है और अपनी शूरता से उसके दुर्गुणों का संहार करता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशः श्रद्धारसः परमात्मानं प्रत्यर्पणीय इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सोतारः) श्रद्धारूपस्य सोमरसस्य अभिषोतारः उपासकाः ! सुन्वन्तीति सोतारः, षुञ् अभिषवे, कर्त्तरि तृच्। (मद्याय) मादयितव्याय, तर्पणीयाय (वीराय) विशेषेण ईरयित्रे सद्गुणप्रेरकाय। वि पूर्वः ईर क्षेपे, चुरादिः, कर्त्तरि अच् प्रत्ययः. (शूराय) विक्रमशालिने इन्द्राय परमात्मने (पन्यंपन्यम् इत्) स्तुत्यं स्तुत्यम् एव। पण व्यवहारे स्तुतौ च। (सोमम्) श्रद्धारसम् (आ धावत२) आगमयत, समर्पयत। धावु गतिशुद्ध्योः, लुप्तणिच्कं रूपम् ॥९॥ अत्र पन्यं, पन्य इति राय-राय इति च छेकानुप्रासः, वीराय, शूराय इति पुनरुक्तवदाभासः, यकारस्यासकृदावृत्तौ च वृत्यनुप्रासः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमेश्वरः प्रशस्यं हृदयावर्जकं श्रद्धारसं प्राप्य स्तोतुर्हृदये सद्गुणान् प्रेरयति, स्वशूरतया तद्दुर्गुणाँश्च संहरति ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२।२५, साम० १६५७। २. आधावत आसारयत, आभिमुख्येन गमयत—इति वि०। आपुनीत, धावु गतिशुद्ध्योः—इति भ०। अभिगमयत प्रयच्छत इत्यर्थः—इति सा०।
27_0123 पन्यपन्यमित्सोतार आ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२३-१। गौरीवितम्॥ गौरीवितिर्गायत्रीन्द्रः॥
प꣤न्यं꣥पन्यमि꣤त्। सो꣥꣯ताऽ६राः꣥॥ प꣡न्यंपन्यमित्सो꣢ऽ१ता꣢ऽ३राः꣢। आ꣡। धा꣢꣯वत꣣। म꣢दि꣣या꣤या꣥॥ सो꣡मंवी꣢꣯। रा꣡ऽ२३॥ यशू꣢ऽ३रा꣤ऽ५"याऽ६५६॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣दं꣡ व꣢सो सु꣣त꣢꣫मन्धः꣣ पि꣢बा꣣ सु꣡पू꣢र्णमु꣣द꣡र꣢म्। अ꣡ना꣢भयिन्ररि꣣मा꣡ ते꣢ ॥ 28:0124 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दं व॑सो सु॒तम् अन्धः॒ (=अशनीयम्)
पिबा॒ सुपू॑र्णम् उ॒दर॑म् ।
अन्-आ॑भयिन् ररि॒मा (=दद्मः) ते॑ ।।
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣣द꣢म्। व꣣सो। सुत꣢म्। अ꣡न्धः꣢꣯। पि꣡ब꣢꣯। सु꣡पू꣢꣯र्णम्। सु। पू꣣र्णम्। उद꣡र꣢म्। उ꣣। द꣡र꣢꣯म्। अ꣡ना꣢꣯भयिन्। अन्। आ꣣भयिन्। ररिम꣢। ते꣣। १२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि हम विद्वान् अतिथि और परमात्मा का उपहार से सत्कार करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वसो) सद्गुणों के निवासक अतिथि अथवा परमात्मन् ! आप (इदम्) इस हमारे द्वारा समर्पित किये जाते हुए (सुतम्) तैयार (अन्धः) अन्न या भक्तिरस को (सुपूर्णम् उदरम्) खूब पेट भरकर (पिब) पीजिए। हे (अनाभयिन्) निर्भीक ! हम (ते) आपको (ररिम) अर्पित कर रहे हैं ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे कोई विद्वान् अतिथि हमसे दिये जाते हुए अन्न, रस, घी, दूध आदि को पेट भरकर पीता है, वैसे ही हे परमात्मन् ! आप हमारे द्वारा श्रद्धापूर्वक निवेदित किये जाते हुए भक्तिरस को छककर पीजिए। यहाँ निराकार एवं मुख-पेट आदि से रहित भी परमेश्वर के विषय में पेट भरकर पीजिए यह कथन आलङ्कारिक है ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के स्तुतिगान के लिए प्रेरणा, उससे सुख की प्रार्थना और उसकी महिमा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥१०॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
वयं विद्वांसमतिथिं परमात्मानं चोपहारेण सत्कुर्म इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वसो) सद्गुणानां वासयितः अतिथे परमात्मन् वा, त्वम् (इदम्) एतद् अस्माभिः समर्प्यमाणम्, (सुतम्) अभिषुतम्, सज्जीकृतम् (अन्धः) अन्नं श्रद्धारसं वा। अन्धः इत्यन्ननामसु पठितम्। निघं० २।७ अदेर्नुम् धौ च उ० ४।२०७ इति अद् भक्षणे धातोः असुन् प्रत्ययो, नुमागमो, धकारादेशश्च। (सुपूर्णम् उदरम्) उदरम् सुष्ठु पूर्णं यथा स्यात् तथा (पिब) आस्वादय। संहितायाम् द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। हे (अनाभयिन्२) निर्भय ! वयं (ते) तुभ्यम् (ररिम) प्रयच्छामः। रा दाने। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६ इति लडर्थे लिट्। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा कश्चिद् विद्वानतिथिरस्माभिः प्रदीयमानमन्नरसघृतदुग्धादिकं सुपूर्णमुदरं पिबति तथैव हे परमात्मन् ! त्वमस्माभिः श्रद्धया विनिवेद्यमानं भक्तिरसं कणेहत्य पिब। अत्र अकायस्य मुखोदरादिरहितस्यापि परमेश्वरस्य विषये सुपूर्णमुदरं पिब’ इति व्याहार आलङ्कारिक एव ॥१०॥ अत्र परमात्मनः स्तुतिगानार्थं प्रेरणात्, ततः सुखप्रार्थनात्, तन्महिमवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे तृतीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये प्रथमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२।१, साम० ७३४। २. आ समन्ताद् बिभेति आभयी, बिभेतेरौणादिक इनिः, न आभयी अनाभयी, तादृशः—इति सा०।
28_0124 इदं वसो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२४-१। गाराणि त्रीणि॥ त्रयाणां गरो गायत्रीन्द्रः॥
इ꣥दंवसाउ॥ सु꣢त꣡माऽ२३न्धाः꣢। पि꣡बा꣰꣯ऽ२सुपू꣯। णमु꣡दाऽ२३रा꣢ऽ३४म्॥ अ꣣ना꣢ऽ३४भ꣣या꣢ऽ३इन्। र꣤रोवा꣥॥ मा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
28_0124 इदं वसो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२४-२।
इ꣥दा꣤ऽ३म्व꣢सो꣣꣯सु꣤तम꣥न्धाः॥ पि꣢बा꣡꣯सूऽ२३पू꣢ऽ३। ण꣡मूऽ२᳐दा꣣ऽ२३४रा꣥म्॥ आ꣡ऽ२३ना꣢॥ भाऽ᳒२᳒या꣡इन्। र꣪राऽ२३। हा꣢उवाऽ३॥ मा꣡꣯ते꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
28_0124 इदं वसो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१२४-३। गारम्॥
इ꣥दंवसो꣯सुतमन्धाऽ६ए꣥॥ पि꣢बा꣯सुपू꣯ऽ३र्णा꣡मु꣪दरौ꣢꣯। होऽ३वा꣢। पि꣡बा꣯सुपू꣯र्णामु꣪दरौ꣢꣯। होऽ३वा꣢॥ आ꣡नाभा꣢ऽ३यी꣢न्॥ र꣡रिमा꣢꣯ता꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
[[अथ द्वितीय खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣢꣫द्धेद꣣भि꣢ श्रु꣣ता꣡म꣢घं वृष꣣भं꣡ नर्या꣢꣯पसम्। अ꣡स्ता꣢रमेषि सूर्य ॥ 29:0125 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
(सुकक्षः, इन्द्रः, गायत्री।)
उद्घ(=हि) +इद् अ॒भि श्रु॒ताम॑घं(=श्रुतधनम्)++ वृष॒भं(=वर्षितारं याचमानेभ्यो) नर्या॑पसम् (=नरहितकर्माणम्) ।
अस्ता॑रम्(=दानशौण्डम्)++एषि सूर्य(=सारक / सूर्यात्मक [इन्द्र]!) ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣢त्। घ꣣। इ꣢त्। अ꣣भि꣢। श्रु꣣ता꣡म꣢घम्। श्रु꣣त꣢। म꣣घम्। वृषभ꣢म्। न꣡र्या꣢꣯पसम्। न꣡र्य꣢꣯। अ꣣पसम्। अ꣡स्ता꣢꣯रम्। ए꣣षि। सूर्य। १२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्षश्रुतकक्षौ
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मारूप सूर्य किसके प्रति उदित होता है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सूर्य) सूर्य के तुल्य प्रकाशमान और प्रकाशकर्ता, चराचर के अन्तर्यामी, सद्बुद्धि के प्रेरक, तमोगुण को प्रकंपित करनेवाले परमात्मन् ! (त्वम्) आप (घ) निश्चय ही (श्रुतामघम्) वेदादि शास्त्रों का ज्ञान ही जिसका धन है, ऐसे (वृषभम्) विद्या, धन आदि की वर्षा करनेवाले (नर्यापसम्) जनहित के कर्मों में संलग्न, (अस्तारम्) सब विघ्न-बाधाओं को प्रक्षिप्त कर देनेवाले मनुष्य को ही (अभि) लक्ष्य करके (उद् एषि) उदित होते हो, अर्थात् उसके हृदय में प्रकट होते हो ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - भौतिक सूर्य तो विद्वान्-अविद्वान्, दाता-कृपण, परोपकारी-स्वार्थी, जीते-हारे सबके प्रति उदित होता है। परन्तु परमात्मा-रूप सूर्य उन्हीं के हृदय में प्रकाशित होता है जो वेदादि श्रेष्ठ शास्त्रों के श्रवण को ही धन मानते हैं, जो अपने उपार्जित विद्यादि वैभव को और भौतिक धन को बादल के समान सब जगह बरसाते हैं, जिनके कर्म जन-कल्याणकारी होते हैं और जो बड़े से बड़े शत्रु को और बड़ी से बड़ी बाधा को अपने बल से परास्त कर देने का साहस रखते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मरूपः सूर्यः कं प्रत्युदेतीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (सूर्य) सूर्यवत् प्रकाशमान, प्रकाशकर्तः, चराचरान्तर्यामिन्, सद्बुद्धिप्रेरक, तमोगुणप्रकम्पक इन्द्र परमात्मन् ! सूर्यः सर्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्यतेर्वा। निरु० १२।१४। सृ गतौ, षू प्रेरणे, सु-ईर गतौ कम्पने च। राजसूयसूर्य० अ० ३।१।११४ इत्यनेनायं निपातितः। त्वम् (घ) निश्चयेन (श्रुतामघम्२) श्रुतं वेदादिशास्त्रज्ञानमेव मघं धनं यस्य तम्। मघमिति धननामधेयं मंहतेर्दानकर्मणः, निरु० १।६। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। (वृषभम्) विद्याधनादिवर्षकम्, (नर्यापसम्) नर्याणि नरहितकराणि अपांसि कर्माणि यस्य तम्। नरेभ्यो हितानि नर्याणि। नरशब्दात् हितार्थे यत् प्रत्ययः। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (अस्तारम्) सकलविघ्नबाधानां प्रक्षेप्तारम्। असु क्षेपणे धातोः कर्तरि तृच्। एवंगुणविशिष्टमेव जनम् (अभि) अभिलक्ष्य (उत् एषि) उदयं प्राप्नोषि, तदीयहृदये आविर्भवसि इत्यर्थः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - भौतिकः सूर्यः खलु विद्वांसं वा मूर्खं वा, दातारं वा कृपणं वा, परोपकारिणं वा स्वार्थपरायणं वा, विजेतारं वा विजितं वा सर्वान् प्रत्युदेति। परं परमात्मरूपः सूर्यस्तेषामेव हृदये प्रकाशते ये वेदादिसच्छास्त्रश्रवणमेव धनं मन्यन्ते, ये स्वोपार्जितं विद्यादिवैभवं भौतिकं च धनं मेघवत् सर्वत्र वर्षन्ति, येषां कार्याणि सर्वेषां नराणां हितकराणि जायन्ते, ये च महान्तमपि शत्रुं महतीमपि च बाधां स्वबलेन दूरं प्रक्षेप्तुमुत्सहन्ते ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।१, अथ० २०।७।१, उभयत्र ऋषिः सुकक्षः। साम० १४५०। २. श्रुतं मघं यस्य स श्रुतामघः, तं श्रुतामघम्। छान्दसं दीर्घत्वम्। विख्यातधनमित्यर्थः—इति वि०। विश्रुतदानम्—इति भ०। सर्वदा देयत्वेन विख्यातधनम्—इति सा०।
29_0125 उद्धेदभि श्रुतामघम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२५-१। ऐडं सौपर्णम्॥ शरुप्रवेतसं वा। त्रयाणां सुपर्णो गायत्रीन्द्रः॥ (सूर्यः)।
उ꣥द्घे꣯दभ्यो꣤वा꣥॥ श्रू꣡ता꣢᳐मा꣣ऽ२३४घा꣥म्। वृ꣢षा꣡भ꣢न्ना꣡। रि꣪याऽ२᳐पा꣣ऽ२३४सा꣥म्॥ आऽ᳒२᳒स्ता꣡। राऽ२३मे꣢॥ षा꣡इसू꣢꣯रिया꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
29_0125 उद्धेदभि श्रुतामघम् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२५-२। स्वारसौपर्णम्॥ शरुप्रवेतसं वा।
उ꣥द्घे꣯दभिश्रुता꣯माऽ६घा꣥म्॥ वृ꣤षभ꣣न्न꣤र्या꣥꣯। हि꣡म्। पा꣣ऽ२३४सा꣥म्॥ आ꣡स्ता꣢ऽ३उवा꣢॥ रा꣯मा꣡इ। षि꣢सू꣡ऽ२३४वा꣥। रा꣤ऽ५योऽ६"हा꣥इ॥
29_0125 उद्धेदभि श्रुतामघम् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१२५-३। विलम्बसौपर्णम्॥ शरुप्रवेतसं वा।
उ꣤द्घे꣯द꣥भि꣤श्रु꣥ता꣤꣯म꣥घम्। ई꣤य꣥इ꣤याहा꣥इ॥ वृ꣤षभ꣣न्न꣤र्या꣥꣯। हा꣢ऽ३हा꣢ऽ३इ। पा꣡ऽ२३४सा꣥म्॥ आ꣡स्ता꣢ऽ३उवा꣢ऽ३॥ रा꣡ऽ२᳐मा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ षि꣢सू꣯रिया꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣢द꣣द्य꣡ कच्च꣢꣯ वृत्रहन्नु꣣द꣡गा꣢ अ꣣भि꣡ सू꣢र्य। स꣢र्वं꣣ त꣡दि꣢न्द्र ते꣣ व꣡शे꣢ ॥ 30:0126 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद॒द्य कच्च॑(=किञ्चित्) वृत्र(=जलावरक-मेघ)हन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य ।
सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
य꣢त्। अ꣣द्य꣢। अ꣣। द्य꣢। कत्। च꣣। वृत्रहन्। वृत्र। हन्। उद꣡गाः꣢। उ꣣त्। अ꣡गाः꣢꣯। अ꣣भि꣢। सू꣣र्य। स꣡र्व꣢꣯म्। तत्। इ꣣न्द्र। ते। व꣡शे꣢꣯। १२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सुकक्षश्रुतकक्षौ
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
कौन परमात्मा के वश में होता है, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृत्रहन्) अविद्या, पाप दुराचार आदि, जो धर्म की गति को रोकनेवाले हैं, उनके विनाशक, (सूर्य) प्रकाशमय, प्रकाशदाता (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अद्य) आज, आप (यत् कत् च) जिस किसी भी मनुष्य को अथवा जिस किसी भी मेरे मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि को (अभि) लक्ष्य करके (उदगाः) उदित होते हो, (सर्वं तत्) वे सभी मनुष्य अथवा वे सभी मन, बुद्धि आदि (ते) आपके (वशे) वश में हो जाते हैं ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे भौतिक सूर्य जिन किन्हीं भी पदार्थों के प्रति उदित होता है, वे सभी पदार्थ उसके प्रकाश से परिप्लुत हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य जिसके अन्तःकरण में उदय को प्राप्त होता है, वह उसके दिव्य प्रकाश से परिपूर्ण होकर उसके वश में हो जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
कः परमात्मनो वशे जायत इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृत्रहन्२) अविद्यापापदुराचारादीनां धर्मावरकाणां तमसां हन्तः (सूर्य) ज्योतिर्मय ज्योतिष्प्रद (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अद्य) अस्मिन् दिने, त्वम् (यत् कत् च) यं कमपि मनुष्यम्, यत् किमपि मम मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिकं वा (अभि) अभिलक्ष्य (उदगाः) उदेषि, (सर्वं तत्) सर्वोऽपि स जनः, सर्वमपि तन्मनोबुद्ध्यादिकं वा (ते) तव (वशे) आधीन्ये जायते इति शेषः३ ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा भौतिकः सूर्यो यत्किञ्चिदपि पदार्थजातं प्रत्युदेति तत्सर्वं तत्प्रकाशेन परिप्लुतं भवति, तथैव परमात्मसूर्यो यस्यान्तःकरणे समुदेति स तद्दिव्यप्रकाशेनाप्लुतः सन् तद्वशे सञ्जायते ॥२॥४
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९३।४, अथ० २०।११२।१, उभयत्र ऋषिः सुकक्षः। य० ३३।३५ देवता सूर्यः। २. वृत्रहन् पापानां हन्तः सूर्य—इति भ०। अपामावरकस्य मेघस्य हन्तः—इति सा०। ३. एतन्मन्त्रव्याख्याने भरतस्वामिना सायणेन च शौनकनाम्ना श्लोकोऽयमुद्धृतः—यदद्य कच्चेत्युदिते रवौ स्तुत्वा पुरंदरम्। गृह्णन्नपोहते शत्रुं वश्यं वा कुरुते जगत् ॥ इति ४. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिरस्य मन्त्रस्य भावार्थमेवं प्राह—ये पुरुषाः सूर्यवदविद्यान्धकारं दुष्टतां च निवार्य सर्वं वशीभूतं कुर्वन्ति तेऽभ्युदयं प्राप्नुवन्ति इति।
30_0126 यदद्य कच्च - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२६-१। शाकलम्॥ शकलो गायत्री इन्द्रसूर्यौ॥य꣤दद्यकाऽ५च्चवृत्र꣤हान्॥ उ꣢द꣡गा꣯अभि꣢सू꣡꣯राऽ२३या꣢॥ सा꣡र्वाऽ᳒२᳒म्॥ ता꣡दिन्द्र꣢ता꣡ये꣢ऽ᳐३। हि꣡म्। वा꣢ऽ᳐३४५शोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣡ आन꣢꣯यत्परा꣣व꣢तः꣣ सु꣡नी꣢ती तु꣣र्व꣢शं꣣ य꣡दु꣢म्। इ꣢न्द्रः꣣ स꣢ नो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥ 31:0127 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य आन॑यत्परा॒वतः॒ सुनी॑ती तु॒र्वशं॒ यदु॑म् ।
इन्द्रः॒ स नो॒ युवा॒ सखा॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
यः꣢। आ꣡न꣢꣯यत्। आ꣣। अ꣡न꣢꣯यत्। प꣣राव꣡तः꣢। सु꣡नी꣢꣯ती। सु। नी꣣ति। तुर्व꣡श꣢म्। य꣡दु꣢꣯म्। इ꣡न्द्रः꣢꣯। सः। नः꣣। यु꣡वा꣢꣯। स꣡खा꣢꣯। स। खा꣣। १२७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- भारद्वाजः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर, विद्युत् और राजा के सख्य की प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (यः) जो (परावतः) दूर से भी (यदुम्) यत्नशील मनुष्य को (सुनीती) उत्तम नीति की शिक्षा देकर (तुर्वशम्) अपने समीप (आनयत्) ले आता है, (सः) वह (युवा) सदा युवा की तरह सशक्त रहनेवाला (इन्द्रः) परमेश्वर (नः) हमारा (सखा) सहायक मित्र होवे ॥ द्वितीय—विद्युत् के पक्ष में। (यः) जो विमानादियानों में प्रयोग किया गया विद्युत् (यदुम्) पुरुषार्थी मनुष्य को (परावतः) अत्यन्त दूर देश से भी (तुर्वशम्) मनोवाञ्छित वेग से (सुनीती) उत्तम यात्रा के साथ, अर्थात् कुछ भी यात्रा-कष्ट न होने देकर (आनयत्) देशान्तर में पहुँचा देता है, (सः) वह प्रसिद्ध (युवा) यन्त्रों में प्रयुक्त होकर पदार्थों के संयोजन या वियोजन की क्रिया द्वारा विभिन्न पदार्थों के रचने में साधनभूत (इन्द्रः) विद्युत् (नः) हमारा (सखा) सखा के समान कार्यसाधक होवे ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। (यः) जो राजा (परावतः) अधममार्ग से हटाकर (यदुम्) प्रयत्नशील, उद्योगी, (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले मनुष्य को (सुनीती) उत्तम धर्ममार्ग पर (आनयत्) ले आता है, (सः) वह (युवा) शरीर, मन और आत्मा से युवक (इन्द्रः) अधर्मादि का विदारक राजा (नः) हम प्रजाओं का (सखा) मित्र होवे ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे विमानादि यानों में प्रयुक्त विद्युद्रूप अग्नि सुदूर प्रदेश से भी विमानचालकों की इच्छानुकूल गति से लोगों को देशान्तर में पहुँचा देता है, अथवा जैसे कोई सुयोग्य राजा अधर्ममार्ग पर दूर तक गये हुए लोगों को उससे हटाकर धर्ममार्ग में प्रवृत्त करता है, वैसे ही परमेश्वर उन्नति के लिए प्रयत्न करते हुए भी कभी कुसङ्ग में पड़कर सन्मार्ग से दूर गये हुए मनुष्य को कृपा कर अपने समीप लाकर धार्मिक बना देता है ॥३॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार ने लिखा है कि तुर्वश और यदु नाम के कोई राजपुत्र थे। इसी प्रकार भरतस्वामी और सायण का कथन है कि तुर्वश और यदु नामक दो राजा थे, जिन्हें शत्रुओं ने दूर ले जाकर छोड़ दिया था। उन्हें इन्द्र उत्तम नीति से दूर देश से ले आया था, यह उन सबका अभिप्राय है। यह सब प्रलापमात्र है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में परब्रह्म परमेश्वर से प्रादुर्भूत हुए थे, अतः उनमें परवर्ती किन्हीं राजा आदि का इतिहास नहीं हो सकता। साथ ही वैदिककोष निघण्टु में ‘तुर्वश’ मनुष्यवाची तथा समीपवाची शब्दों में पठित है, और ‘यदु’ भी मनुष्यवाची शब्दों में पठित है, इस कारण भी इन्हें ऐतिहासिक राजा मानना उचित नहीं है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्य विद्युतो राज्ञश्च सख्यं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमेश्वरपरः। (यः परावतः) परागताद् दूरदेशादपि। परावत इति दूरनाम। निघं० ३।२६। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे।’ अ० ५।१।११८, अनेन परा इत्युपसर्गाद् वतिः प्रत्ययः। (यदुम्२) सामीप्याय प्रयतमानं नरम्। यदवः इति मनुष्यनामसु पठितम् निघं० २।३। (सुनीती) उत्तमनीत्या। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्ण०’ अ० ७।१।३९ इति तृतीयैकवचने पूर्वसवर्णदीर्घः। (तुर्वशम्) समीपम्। तुर्वश इत्यन्तिकनामसु पठितम्। निघं० २।१६। (आ अनयत्) आनयति, (सः) असौ (युवा) नित्यतरुणः, यः कदापि बालवद् वृद्धवद् वा शक्तिविकलो न भवति तादृशः, सदा सशक्त इत्यर्थः, (इन्द्रः) परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (सखा) सहायकः सुहृद्, भवतु। अथ द्वितीयः—विद्युत्परः। (यः) विमानादियानेषु प्रयुक्तः सन् (यदुम्) पुरुषार्थिनं जनम् (परावतः) अत्यन्तदूरदेशादपि (तुर्वशम्) इच्छाधीनवेगेन। त्वरा वेगो वशे यथा स्यात् तथा। (सुनीती) सुनीत्या शोभनया यात्रया सह, किञ्चिदपि यात्राकष्टमनुत्पाद्येत्यर्थः, (आनयत्) देशान्तरं प्रापयति, (सः) असौ प्रसिद्धः (युवा३) यन्त्रेषु प्रयुक्तः सन् पदार्थानां संयोजनक्रियया वियोजनक्रियया वा पदार्थान्तराणां रचने साधनभूतः। यु मिश्रणेऽमिश्रणे च इति धातोः कनिन् युवृषितक्षि०’ उ० १।१५६ इति कनिन् प्रत्ययः। युवा प्रयौति कर्माणि। निरु० ४।१९। (इन्द्रः) विद्युत् (नः) अस्माकम् (सखा) सखेव कार्यसाधको भवतु। अथ तृतीयः—राजपरः४। (यः) राजा (परावतः) अधर्ममार्गात् प्रच्याव्य (यदुम्) यतमानम् उद्योगिनम् (तुर्वशम्५) हिंसकानां वशकरं मनुष्यम्। तुर्वश इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (सुनीती) सुनीतौ धर्ममार्गे। अत्र सप्तम्येकवचनस्य पूर्वसवर्णदीर्घः। (आनयत्) आनयति, (सः) असौ (युवा) शरीरेण मनसाऽऽत्मना च युवकः (इन्द्रः) अधर्मविदारको राजा (नः) प्रजानामस्माकम् (सखा) सहायकः भवतु ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा विमानादियानेषु प्रयुक्तो विद्युदग्निः सुदूरादपि प्रदेशाद् विमानादिचालकानामिच्छानुसारिगत्या जनान् देशान्तरं प्रापयति, यथा वा कश्चित् सुयोग्यो राजाऽधर्ममार्गे दूरंगतान् जनाँस्ततो निवर्त्य धर्ममार्गे प्रवर्तयति, तथैव परमेश्वरः उन्नत्यै प्रयतमानमपि कदाचित् कुसङ्गे पतित्वा सन्मार्गाद् दूरंगतं जनं स्वान्तिकमानीय धार्मिकं करोति ॥३॥ अत्र तुर्वशं नाम राजपुत्रं यदुं च इति विवरणकृत्। तथैव तुर्वशं यदुं च राजानौ शत्रुभिः दुरेऽपास्तौ इति भरतस्वामी। तुर्वशं यदुं च एतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिः दूरदेशे प्रक्षिप्तौ इति सायणः। तौ इन्द्रः सुनीत्या दूरदेशादानीतवान् इति सर्वेषामभिप्रायः। तत्सर्वं प्रलपितमात्रम्, वेदानां सृष्ट्यादौ परब्रह्मणः सकाशात् प्रादुर्भूतत्वात् तत्र परवर्तिनां केषाञ्चिद् राजादीनामितिहासस्यासंभवात्, निघण्टौ तुर्वशस्य मनुष्यनामसु अन्तिकनामसु च पठितत्वात्, यदोश्चापि मनुष्यनामसु कीर्तनाच्च ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।४५।१, ऋषिः शंयुः बार्हस्पत्यः। २. अत्र यती प्रयत्ने इत्यस्माद् बाहुलकाणौदिकः उः प्रत्ययः, तकारस्य दकारः इति ऋ० १।३६।१८ भाष्ये द०। ३. युवा यौति मिश्रयति पदार्थैः सह, पदार्थान् वियोजयति वा यः सः इति ऋ० १।१२।६ भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिरपि ऋग्भाष्ये मन्त्रमिमं राजपक्षे व्याख्यातवान्। ५. (तुर्वशेषु) तूर्वन्तीति तुरः तेषां वशकर्तारो मनुष्याः तेषु इति ऋ० १।१०८।८ भाष्ये द०।
31_0127 य आनयत्परावतः - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२७-१। आभरद्वसवे द्वे॥ द्वयोराभरद्वसुर्गायत्रीन्द्रः॥
य꣤आहा꣥उ॥ आ꣡नायाऽ᳒२᳒त्। आ꣡नायाऽ२३त्। पा꣡राऽ२᳐वा꣣ऽ२३४ताः꣥। सु꣡नी꣯तीतूऽ᳒२᳒। सु꣡नी꣯तीतूऽ२३। र्वा꣡शं꣢या꣣ऽ२३४दू꣥म्। इ꣡न्द्रस्सानाऽ᳒२ः᳒। इ꣡न्द्रस्सानाऽ२३ः॥ यू꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सा꣣ऽ२३४खा꣥॥
31_0127 य आनयत्परावतः - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२७-२।
य꣤आ꣯न꣥य꣤त्। प꣥रा꣯वाऽ६ताः꣥॥ सु꣡नी꣯ती꣯तुर्वशां꣢ऽ१या꣢ऽ३दू꣢म्॥ इ꣡न्द्रस्सनो꣯युवा꣢ऽ१सा꣢ऽ३खा꣢। इन्द्रो꣣ऽ२३४ग्ना꣥इ॥ इ꣢न्द्रा꣡औ꣢ऽ३होऽ२३४। ग्ना꣥इ॥ आ꣡इन्द्रो꣢꣯अ। ग्ना꣡ऽ२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ई꣣ऽ२३४न्द्राः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा꣡ न꣢ इन्द्रा꣣भ्या꣢ऽ३दि꣢शः꣣ सू꣡रो꣢ अ꣣क्तु꣡ष्वा य꣢꣯मत् । त्वा꣢ यु꣣जा꣡ व꣢नेम꣣ त꣢त् ॥ 32:0128 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा न॑ इन्द्रा॒भ्या॒३॒॑दिशः॒ सूरो॑ अ॒क्तुष्वा य॑मन् ।
त्वा यु॒जा व॑नेम॒ तत् ॥
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पदपाठः
मा꣢। नः꣣। इन्द्र। अभि꣢। आ꣣दि꣡शः꣢। आ꣣। दि꣡शः꣢꣯। सूरः꣢꣯। अ꣣क्तु꣡षु꣢। आ। य꣣मत्। त्वा꣢। यु꣣जा꣢। व꣣नेम। त꣢त्। १२८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- श्रुतकक्षः
- गायत्री
- षड्जः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना है कि इन्द्र की मैत्री प्राप्त कर हम आक्रान्ता शत्रुओं पर विजय पा लें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् अथवा राजन् ! (आदिशः) किसी भी दिशा से (सूरः) अवसर देखकर चुपके से आजानेवाला काम-क्रोधादि राक्षसगण या चोर आदि का समूह (अक्तुषु) अज्ञान-रात्रियों में अथवा अँधेरी रातों में (नः) हमें (मा) मत (अभि आ यमत्) आक्रान्त करे। यदि आक्रान्त करे तो (त्वा) आप (युजा) सहायक के द्वारा हम (तत्) उस कामादि राक्षसगण को अथवा चोरों के गिरोह को (वनेम) विनष्ट कर दें, समूल उन्मूलन करने में समर्थ हों ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - इस संसार में अज्ञानान्धकार में अथवा अँधियारी रात में पड़े हुए हम लोगों की न्यूनता देखकर जो कोई काम-क्रोधादि या चोर-लुटेरा आदि हम पर आक्रमण कर हमे विनष्ट करना चाहे, उसे परमात्मा और राजा की सहायता से हम धूल में मिला दें ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रस्य सख्यं प्राप्य वयमाक्रान्तॄन् विजयेमहीति प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् राजन् वा ! (आदिशः२) कस्मादपि दिग्भागात् (सूरः३) अवसरं दृष्ट्वाऽकस्मात् सरणशीलः कामक्रोधादिरक्षोगणश्चौरादिवर्गो वा। यथा यास्काचार्येण सूर्य शब्दः सृ गतौ धातोर्निष्पादितस्तथैव सूरशब्दोऽपि तस्मादेव धातोर्निष्पादयितुं शक्यम्। द्रष्टव्यम् निरु० १२।१४। (अक्तुषु) अज्ञानरात्रिषु तिमिरनिशासु वा। अक्तुरिति रात्रिनाम। निघं० १।७। (नः) अस्मान् (मा) न (अभि आ यमत्४) अभ्याक्रामेत्। अभि आङ् पूर्वाद् यम उपरमे धातोर्लेटि बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि यच्छादेशाभावः। लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्यडागमः। यदि च अभ्याक्रामेत् तर्हि (त्वा) त्वया। युष्मदस्तृतीयैकवचने सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (युजा) सहायकेन, वयम् (तत्) रक्षोगणं चौरादिवर्गं वा (वनेम५) हिंस्याम, समूलमुन्मूलयितुं प्रभवेम ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जगत्यस्मिन्नज्ञानतिमिरे तमःपूर्णायां रात्रौ वा निवसतामस्माकं छिद्रं प्रेक्ष्य यः कोऽपि कामक्रोधादिश्चौरलुण्ठकादिर्वाऽऽक्रम्यास्मान् जिघांसति तं परमात्मनो नृपस्य च साहाय्येन वयं धूलिसात् कुर्याम ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९२।३१ ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। २. आभिमुख्येन युद्धार्थं ये आदिश्यन्ते ते अभ्यादिशः आज्ञाकरा इत्यर्थः—इति वि०। आदेष्टा, प्रवृत्तिरोधक आदेशः। यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति। अप स्म तं पथोजहि। ऋ० १।४२।२ इति मन्त्रदर्शनात्—इति भ०। आदिशः आदेष्टा समन्तादायुधानि अतिसृजन्—इति सा०। ३. सूरः प्रेरकः शत्रुः०—इति भ०। सूरः, सृ गतौ, सर्वत्र सरणशीलः राक्षसः—इति सा०। उणादौ तु सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन् उ० २।२५ इति षू धातोः क्रन्। ४. मा आयमत् नाभिगच्छेदयम् इत्यर्थः—भ०। मा अभ्यागमत् आ आभिमुख्येन मा नियन्ताऽऽगन्ता भवतु—इति सा०। ५. वनेम वनतिर्यद्यप्यन्यत्र सम्भजनार्थस्तथापीह हिंसार्थो द्रष्टव्यः। हिंस्याम—इति० वि०। वनेम लभेमहि—इति भ०। वनेम हन्याम, श्रथश्लथक्लथ हिंसार्थाः, वन च इत्यत्र पठितत्वाद् हिंसार्थः—इति सा०।
32_0128 मा न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२८-१। तान्वे द्वे॥ द्वयोस्तन्वो गायत्रीन्द्रः॥
मा꣥꣯नइन्द्रा꣯भिया꣯दा꣤इशाः꣥॥ सू꣡रो꣯अ꣢क्तु। षुवा꣡꣯याऽ२३मा꣢ऽ३४त्॥ तु꣣वा꣢ऽ३४यु꣣जा꣢॥ वना꣡इमाऽ२३ता꣢ऽ३४३त्। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
32_0128 मा न - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१२८-२।
मा꣥꣯ना꣤ऽ३आ꣢ऽ३इन्द्रा꣤꣯भिया꣥꣯दिशाः॥ सू꣢रो᳐आ꣣ऽ२३४क्तू꣥। षू꣢आ᳐या꣣ऽ२३४मा꣥त्॥ त्वा꣡꣯युजा꣯वनौ꣭ऽ३हो꣢॥ मतौऽ᳒२᳒। हु꣡वाइ। औ꣭ऽ३होऽ२३४५वाऽ६५६॥ ए꣢ऽ᳐३। य꣡यूऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥