[[अथ एकादशप्रपाठके प्रथमोऽर्धः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ ग꣢न्ता꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत꣣ प्र꣡स्था꣢वानो꣣ मा꣡प꣢ स्थात समन्यवः। दृ꣣ढा꣡ चि꣢द्यमयिष्णवः ॥ 11:0401 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ ग॑न्ता॒ मा रि॑षण्यत॒ प्रस्था॑वानो॒ माप॑ स्थाता समन्यवः ।
स्थि॒रा चि॑न्नमयिष्णवः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। ग꣣न्ता। मा꣢। रि꣣षण्यत। प्र꣡स्था꣢꣯वानः। प्र। स्था꣣वानः। मा꣢। अ꣡प꣢꣯। स्था꣣त। समन्यवः। स। मन्यवः। दृढा꣢। चि꣣त्। यमयिष्णवः। ४०१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मरुतः
- सौभरिः काण्वः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र के ‘मरुतः’ देवता हैं। उन्हें सम्बोधन करके कहा गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—सैनिकों के पक्ष में। युद्ध उपस्थित होने पर राष्ट्र के सैनिकों को पुकारा जा रहा है। हे (प्रस्थावानः) रण-प्रस्थान करनेवाले वीर सैनिको ! तुम शत्रुओं से युद्ध करने के लिए (आ गन्त) आओ, न आकर (मा रिषण्यत) राष्ट्र की क्षति मत करो। हे (समन्यवः) मन्युवालो ! हे (दृढा चित्) दृढ रिपुदलों को भी (यमयिष्णवः) रोकने में समर्थ वीरो ! तुम (मा अपस्थात) युद्ध से अलग मत रहो ॥ द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। पूरक-कुम्भक-रेचक आदि की विधि से प्राणायाम का अभ्यास करता हुआ योगसाधक प्राणों को सम्बोधित कर रहा है। हे (प्रस्थावानः) प्राणायाम के लिए प्रस्थित मेरे प्राणो ! तुम (आ गन्त) रेचक प्राणायाम से बाहर जाकर पूरक प्राणायाम के द्वारा पुनः अन्दर आओ, (मा रिषण्यत) हमारे स्वास्थ्य की हानि मत करो। हे (समन्यवः) तेजस्वी प्राणो !(दृढा चित्) दृढ़ता से शरीर में बद्ध भी रोग, मलिनता आदियों को (यमयिष्णवः) दूर करने में समर्थ प्राणो ! तुम (मा अपस्थात) शरीर से बाहर ही स्थित मत हो जाओ, किन्तु पूरक, कुम्भक, रेचक और स्तम्भवृत्ति के व्यापारों द्वारा मेरी प्राणसिद्धि कराओ। भाव यह है कि हम प्राणायाम से विरत न होकर नियम से उसके अभ्यास द्वारा प्रकाश के आवरण का क्षय करके धारणाओं में मन की योग्यता सम्पादित करें ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शत्रुओं से राष्ट्र के आक्रान्त हो जाने पर वीर योद्धाओं को चाहिए कि शत्रुओं को दिशाओं में इधर-उधर भगाकर या धराशायी करके राष्ट्र की कीर्ति को दिग्दिगन्त में फैलायें। इसी प्रकार रोग, मलिनता आदि से शरीर के आक्रान्त होने पर प्राण पूरक, कुम्भक आदि के क्रम से शरीर के स्वास्थ्य का विस्तार कर आयु को लम्बा करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ मरुतो देवताः। तान् सम्बोधयन्नाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—सैनिकपरः। उपस्थिते युद्धे राष्ट्रवीरा आहूयन्ते। हे (प्रस्थावानः) रणप्रस्थानकारिणः मरुतः वीराः सैनिकाः। प्र पूर्वात् तिष्ठतेः ‘आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च। अ० ३।२।७४’ इति वनिप् प्रत्ययः। यूयम् (आ गन्त) आगच्छत शत्रुभिः योद्धुम्, अनागमनेन (मा रिषण्यत) स्वराष्ट्रस्य क्षतिं न कुरुत। ‘दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। अ० ७।४।३६’ इति रिष्टस्य रिषण्भावो निपात्यते क्यचि परतः। हे (समन्यवः) मन्युयुक्ताः ! हे (दृढाचित्) दृढान्यपि रिपुदलानि (यमयिष्णवः) उपरमयितुं समर्था वीराः ! यूयम् (मा अपस्थात) नैव युद्धाद् दूरे तिष्ठत। दृढा इत्यत्र ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शसः शेर्लोपः। प्रस्थावानः, समन्यवः, यमयिष्णवः इति त्रीण्यपि सम्बोधनान्तानि पदानि। चरमयोर्द्वयोरामन्त्रितस्वरो निघातः सम्पद्यते, प्रथमस्य तु पादादित्वात् षाष्ठेन आद्युदात्तत्वम् ॥ अथ द्वितीयः—प्राणपरः। पूरककुम्भकरेचकादिविधिना प्राणायाममभ्यस्यन् योगसाधकः प्राणान् सम्बोधयन्नाह। हे (प्रस्थावानः) प्राणायामाय प्रस्थिताः मदीयाः प्राणाः ! यूयम् (आ गन्त) रेचकप्राणायामेन बहिर्गताः सन्तः पूरकविधिना पुनः आयात, (मा रिषण्यत) नैव स्वास्थ्यहानिं कुरुत। हे (समन्यवः) सतेजस्काः, हे (दृढा चित्) शरीरे दृढं बद्धान्यपि रोगमालिन्यादीनि (यमयिष्णवः) उपरमयितुं क्षमाः प्राणाः ! (मा अपस्थात) शरीराद् बहिरेव स्थिता न भवत, किन्तु पूरक-कुम्भक-रेचक-स्तम्भवृत्तिव्यापारद्वारेण मम प्राणसिद्धिं कारयत। वयं प्राणायामाद् विरता न भूत्वा नियमेन तदभ्यासद्वारा प्रकाशावरणक्षयं विधाय धारणासु मनसो योग्यतां सम्पादयेमेति भावः२ ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - राष्ट्रे शत्रुभिराक्रान्ते सति वीरैर्योद्धृभिः शत्रून् कान्दिशीकान् विद्राव्य धराशायिनो वा विधाय राष्ट्रस्य कीर्तिर्दिग्दिगन्तेषु विस्तारणीया। तथैव शरीरे रोगमालिन्यादिभिरुपद्रुते सति प्राणाः पूरककुम्भकादिक्रमेण शरीरस्य स्वास्थ्यं विस्तार्य दीर्घमायुः प्रतन्वन्तुतराम् ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२०।१ ‘दृढा चिद्यमयिष्णवः’ इत्यत्र ‘स्थिरा चिन्नमयिष्णवः’ इति पाठः। २. द्रष्टव्यम्—योग० २।४९-५३।
11_0401 आ गन्ता - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०१-१। बृहत्कम्॥ बृहत्ककुभ्मरुतः॥
आ꣤꣯ग꣥न्ता꣤॥ मा꣢꣯रिष꣡ण्याऽ२३ता꣢। प्रा꣡स्था꣯वा꣢꣯नो꣯मा꣡꣯पस्था꣢꣯त। सा꣡म꣪न्यावाऽ᳒२ः᳒॥ दृ꣡ढाची꣢ऽ३द्या꣢ऽ३॥ म꣤योवा꣥। ष्णा꣤ऽ५वोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ या꣢ह्य꣣य꣢उ। मिन्द꣣वे꣡ऽश्व꣢पते꣣ गो꣡प꣢त꣣ उ꣡र्व꣢रापते। सोम꣢ꣳ सोमपते पिब ॥ 12:0402 ॥
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आ या॑ही॒म इन्द॒वोऽश्व॑पते॒ गोप॑त॒ उर्व॑रापते ।
सोमं॑ सोमपते पिब ॥
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पदपाठः
आ꣢। या꣣हि। अय꣢म्। इ꣡न्द꣢꣯वे। अ꣡श्व꣢꣯पते। अ꣡श्व꣢꣯। प꣣ते। गो꣡प꣢꣯ते। गो। प꣣ते। उ꣡र्व꣢꣯रापते। उ꣡र्व꣢꣯रा। प꣣ते। सो꣡म꣢꣯म्। सो꣣मपते। सोम। पते। पिब। ४०२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः काण्वः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा आदि का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अश्वपते) घोड़ों के अथवा अश्व नाम से प्रसिद्ध अग्नि, बादल आदि के अधीश्वर, (गोपते) गाय पशुओं के अथवा सूर्यकिरणों के अधीश्वर, (उर्वरापते) उपजाऊ भूमियों के अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) यह आप (इन्दवे) आनन्दरस के प्रवाह के लिए (आ याहि) आओ, मेरे हृदय में प्रकट होवो। हे (सोमपते) मेरे मनरूप चन्द्रमा के अधीश्वर ! आप (सोमम्) मेरे श्रद्धारस का (पिब) पान करो ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (अश्वपते) इन्द्रिय रूप घोड़ों के स्वामी, (गोपते) वाणियों और प्राणों के स्वामी, (उर्वरापते) ऋद्धि-सिद्धि की उपजाऊ बुद्धि के स्वामी मेरे अन्तरात्मन् ! (अयम्) यह तू (इन्दवे) परमेश्वरोपासना का आनन्द पाने के लिए (आ याहि) तैयार हो। हे (सोमपते) मन के स्वामी ! तू (सोमम्) ब्रह्मानन्द-रस का (पिब) पान कर ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, ‘पते’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास और ‘सोम’ की आवृत्ति में यमक है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो जीवात्मा शरीरस्थ मन, बुद्धि, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि का तथा ज्ञान, कर्म आदि का अधिष्ठाता है, उसे चाहिए कि नित्य जगदीश्वर की उपासना से ब्रह्मानन्द-रस को प्राप्त करे ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मजीवात्मादीनाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अश्वपते) अश्वपशूनाम् अ्श्वनाम्ना ख्यातानाम् अग्निपर्जन्यादीनां२ वा अधीश्वर, (गोपते) गवां धेनूनाम् आदित्यकिरणानां वा अधीश्वर, (उर्वरापते) बहुसस्योत्पादनसमर्थानां भूमीनाम् अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! (अयम्) एष त्वम् (इन्दवे) आनन्दरसप्रवाहाय (आयाहि) आगच्छ, हृदये प्रकटीभव। हे (सोमपते३) मम मनश्चन्द्रस्य अधीश्वर ! त्वम् (सोमम्) मदीयं श्रद्धारसम् (पिब) आस्वादय ॥ अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे (अश्वपते) शरीरस्थे नियुक्तानाम् इन्द्रियरूपाणामश्वानां स्वामिन् ! आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। इन्द्रियाणि हयानाहुः। कठ० ३।३,४। (गोपते) गवां वाचां प्राणानां वा स्वामिन् ! गौरिति वाङ्नाम। निघं० १।११। प्राणो हि गौः। श० ४।३।४।२५। (उर्वरापते) ऋद्धिसिद्ध्युत्पादनक्षमायाः बुद्धेः स्वामिन् मम अन्तरात्मन् ! (अयम्) एष त्वम् (इन्दवे) परमात्मोपासनाया आनन्दं प्राप्तुम् (आयाहि) सन्नद्धो भव। हे (सोमपते) सोमस्य मनसः स्वामिन् ! त्वम् (सोमम्) ब्रह्मानन्दरसम् (पिब) आस्वादय ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः, ‘पते’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः, सोमावृत्तौ च यमकम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यो जीवात्मा देहस्थान् मनोबुद्धिप्राणचक्षुःश्रोत्रादीन् ज्ञानकर्मादींश्चाधितिष्ठति तेन नित्यं जगदीश्वरोपासनया ब्रह्मानन्दरसोऽधिगन्तव्यः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२१।३ ‘आ याह्ययमिन्दवे’ इत्यत्र ‘आयाहीम इन्दवो’ इति पाठः। २. ‘प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम्’ ऋ० १०।१८८।१; ‘प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः’ ऋ० ५।८३।६ इति प्रामाण्याद् अग्निः पर्जन्यश्चाश्वो नाम। ३. अत्र चत्वारि पदानि सम्बोधनान्तानि। तेषु ‘सोमपते’ इत्यत्र ‘आमन्त्रितस्य च’ ८।१।१९ इति निघातः। ‘अश्वपते’ इत्यत्र पादादित्वान्न निघातः, किन्तु षाष्ठेन ‘आमन्त्रितस्य च’ ६।१।१९८ इत्यनेन आद्युदात्तत्वम्। ‘गोपते, उर्वरापते’ इत्यत्रापि ‘आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्’ ८।१।७२ इति न्यायेन पदात्परत्वाभावान्न निघातः, किन्तु आद्युदात्तत्वमेव।
12_0402 आ याह्ययउ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०२-१। सौयवसानि त्रीणि॥ त्रयाणां सूयवसः ककुबिन्द्रः॥
आ꣤꣯या꣥꣯ही꣤॥ अ꣢य꣡मिन्दवे꣯। श्वपाऽ२३ता꣢इ। गो꣡पत꣢उ। र्वा꣡रा꣢ऽ१पाताऽ२३४इ॥ सो꣣꣯मा꣢ऽ३म्॥ सो꣡꣯माऽ२३। पा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ पी꣣ऽ२३४बा꣥॥
12_0402 आ याह्ययउ - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४०२-२।
आ꣤꣯या꣥꣯हिया꣤॥ या꣢ऽ३मा꣡इन्दा꣢ऽ३वे꣢। आ꣡श्वप꣢ते꣯गो꣡꣯पते꣢꣯। ऊ꣡। र्व꣪राऽ२३हा꣢ऽ३इ। पा꣢ऽ३ता꣢इ॥ सो꣡ऽ२३४मꣳहा꣥इ॥ सो꣡। म। पते꣢ऽ३हा꣢ऽ३इ। पा꣡ऽ२३४इबा। ए꣥꣯हियाऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
12_0402 आ याह्ययउ - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४०२-३।
आ꣥꣯या꣯ह्ययमिन्दाऽ६वा꣥इ॥ अ꣢श्वा꣡पा꣢ऽ१ताऽ᳒२᳒इ। गो꣯पा꣡ताऊ꣢ऽ३। र्व꣡राऽ२᳐पा꣣ऽ२३४ता꣥इ॥ सो꣡मꣳसोमा꣢ऽ३१॥ प꣢ता꣡इ। पिबा꣢ऽ३ओ꣡ऽ२३४वा꣥॥ ऊ꣣ऽ२३४पा꣥। ऊ꣤पा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्व꣡या꣢ ह स्विद्यु꣣जा꣢ व꣣यं꣡ प्रति꣢꣯ श्व꣣स꣡न्तं꣢ वृषभ ब्रुवीमहि। स꣣ꣳस्थे꣡ जन꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः ॥ 13:0403 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वया॑ ह स्विद्यु॒जा व॒यं प्रति॑ श्व॒सन्तं॑ वृषभ ब्रुवीमहि ।
सं॒स्थे जन॑स्य॒ गोम॑तः ॥
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पदपाठः
त्व꣡या꣢꣯। ह꣣। स्वित्। युजा꣢। व꣣य꣢म्। प्र꣡ति꣢꣯। श्व꣣स꣡न्त꣢म्। वृ꣣षभ। ब्रुवीमहि। सँस्थे꣢। स꣣म्। स्थे꣢। ज꣡न꣢꣯स्य। गो꣡म꣢꣯तः। ४०३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः काण्वः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि इन्द्र को सहायक पाकर हम क्या करें।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृषभ) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले परमात्मन् ! (गोमतः जनस्य) ज्ञान-किरणों अथवा अध्यात्म-किरणों से युक्त आत्मा के (संस्थे) उपासना-यज्ञ में अथवा देवासुरसंग्राम में (श्वसन्तम्) हमारी हिंसा करने के लिए तैयार व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि तथा दुःख, दौर्मनस्य आदि विघ्न-समूह का (त्वया ह स्वित्) तुझ ही (युजा) सहायक के द्वारा, हम (प्रति ब्रुवीमहि) प्रतिकार करें ॥ राज-प्रजा पक्ष में भी योजना करनी चाहिए। गोपालक प्रजाजनों की गौओं को चुराने का यदि कोई प्रयत्न करे, तो राजकीय सहायता से युद्ध में उसका प्रतिकार करना उचित है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अध्यात्म-प्रकाश से युक्त आत्मा को जो पुनः मोहान्धकार में डालना चाहते हैं, उनका परमेश्वर की सहायता से बलपूर्वक प्रतिरोध करना चाहिए। इसी प्रकार गो-सेवकों की गायों का वध करने की जो चेष्टा करते हैं, उन पर राजदण्ड और प्रजादण्ड गिराना चाहिए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रं सहायं लब्ध्वा वयं किं कुर्यामेत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (वृषभ) कामवर्षिन् परमात्मन् ! (गोमतः जनस्य) ज्ञानकिरणैः अध्यात्मकिरणैर्वा युक्तस्य जीवात्मनः (संस्थे२) उपासनायज्ञे देवासुरसंग्रामे वा। संतिष्ठन्ते हविष्प्रदानाय जना यत्र स संस्थो यज्ञः, यद्वा संतिष्ठन्ते जनाः परस्परं प्रहरणाय यत्र स संस्थः संग्रामः। (श्वसन्तम्) जिघांसन्तं व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादिकं दुःखदौर्मनस्यादिकं च विघ्नसमूहम्। श्वसितिः हन्तिकर्मा। निघं० २।१९। (त्वया ह स्वित्) त्वयैव खलु (युजा) सहायेन (वयम्) त्वदुपासकाः (प्रति ब्रुवीमहि) प्रत्युत्तरं दद्याम, प्रतिकुर्याम इत्यर्थः ॥ राजप्रजापक्षेऽपि योजनीयम्। गोमतः प्रजाजनस्य गा अपहर्तुं यदि कश्चित् प्रयतते तर्हि राजसाहाय्येन युद्धे तत्प्रतीकारो विधेयः ॥५॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अध्यात्मप्रकाशयुक्तमात्मानं ये पुनर्मोहान्धकारे पातयितुमुद्युञ्जते ते परमेश्वरस्य साहाय्येन बलात् प्रतिरोद्धव्याः, तथैव गोसेवकानां गा हन्तुं ये चेष्टन्ते तेषामुपरि राजदण्डः प्रजादण्डश्च पातनीयः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ८।२१।११। २. संतिष्ठन्ते यत्र योद्धारः स संस्थः संग्रामः, तस्मिन्। जनस्य गोमतः गोषु ह्रियमाणासु चोरैः सह यः संग्रामः तस्मिन् कृते हन्याम इत्यर्थः—इति वि०। संस्थे संस्थाने युद्धे इत्यर्थः—इति भ०। संस्थे स्थाने युद्धे—इति सा०।
13_0403 त्वया ह - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०३-१। धेनुषाम॥ मरुतः ककुबिन्द्रः॥
त्व꣥या꣯हस्वीत्॥ यू꣡जा꣯व꣢यम्। प्रा꣡ति꣪श्वासाऽ᳒२᳒। तं꣡वृष꣢भ। ब्रू꣡वी꣢ऽ१माहाऽ२३४इ॥ सꣳ꣣स्था꣢ऽ३इ॥ जा꣡नस्य꣢गो꣡ऽ२३४वा꣥॥ मा꣣ऽ२३४ताः꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स꣡ प꣢वस्व꣣ य꣢꣫ आवि꣣थे꣡न्द्रं꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे। व꣣व्रिवा꣡ꣳसं꣢ म꣣ही꣢र꣣पः꣢ ॥ 08:0494 ॥
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स प॑वस्व॒ य आवि॒थेन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे ।
व॒व्रि॒वांसं॑ म॒हीर॒पः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सः꣢। प꣣वस्व। यः꣢। आ꣡वि꣢꣯थ। इ꣡न्द्र꣢꣯म्। वृ꣣त्रा꣡य꣢। ह꣡न्त꣢꣯वे। व꣣व्रिवाँ꣡स꣢म्। म꣣हीः꣢। अ꣣पः꣢। ४९४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पवमानः सोमः
- अहमीयुराङ्गिरसः
- गायत्री
- षड्जः
- पावमानं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पापरूप वृत्र के वध का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे वीर-रस के भण्डार सोम परमेश्वर ! (सः) वह प्रसिद्ध आप, हमारे पास (पवस्व) अपनी रक्षा-शक्ति के साथ आओ, (यः) जो आप (महीः अपः) बड़ी धर्मरूप धाराओं को (वव्रिवांसम्) वरण करनेवाले (इन्द्रम्) जीवात्मा को (वृत्राय हन्तवे) अधर्म, पाप आदि के विनाशार्थ (आविथ) प्राप्त होते हो ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देवासुरसंग्राम में विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रेरणा पाकर पुरुषार्थ करना चाहिए ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पापवृत्रस्य वधविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे वीररसनिधे सोम परमेश्वर ! (सः) प्रसिद्धः त्वम्, अस्मान् (पवस्व) स्वकीयया रक्षया सह समागच्छ, (यः) यस्त्वम् (महीः अपः) महतीः धर्मधाराः (वव्रिवांसम्) वृतवन्तम्। वृणोतेर्लिटः क्वसौ रूपम्। (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (वृत्राय हन्तवे) अधर्मपापादिकस्य हननाय (आविथ) प्राप्नोषि। अवतेर्गत्यर्थस्य लिटि रूपम् ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - देवासुरसंग्रामे विजयं लब्धुं परमेश्वरात् प्रेरणां लब्ध्वा पुरुषार्थः कार्यः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ९।६१।२२।
08_0494 स पवस्व - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४९४-१। वार्त्रघ्नम्॥ इन्द्रो गायत्रीन्द्रो वृत्रहा॥
स꣣हो꣢ऽ३४३इ। प꣢व꣣स्व꣥॥ य꣡आऽ᳒२᳒विथा꣡। इ꣢न्द्रं꣡वृत्रा꣢ऽ३। या꣡ह꣢न्ता꣣ऽ२३४ वे꣥। ओ꣡वा꣢ऽ३ओ꣤वा꣥॥ व꣢व्रि꣡वाऽ२३ꣳसा꣢म्॥ मा꣡ही꣢꣯रपा꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वं꣡ न꣢ इ꣣न्द्रा꣡ भ꣢र꣣ ओ꣡जो꣢ नृ꣣म्ण꣡ꣳ श꣢तक्रतो विचर्षणे। आ꣢ वी꣣रं꣡ पृ꣢तना꣣स꣡ह꣢म् ॥ 15:0405 ॥
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त्वं न॑ इ॒न्द्रा भ॑रँ॒ ओजो॑ नृ॒म्णं श॑तक्रतो विचर्षणे ।
आ वी॒रं पृ॑तना॒षह॑म् ॥
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पदपाठः
त्व꣢म्। नः꣣। इन्द्र। आ꣢। भ꣣र। ओ꣡जः꣢꣯। नृ꣣म्ण꣢म्। श꣣तक्रतो। शत। क्रतो। विचर्षणे। वि। चर्षणे। आ꣢। वी꣣र꣢म्। पृ꣣तनास꣡ह꣢म्। पृ꣣तना। स꣡ह꣢꣯म्। ४०५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेध आङ्गिरसः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम द्वारा परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुत ज्ञानी, बहुत कर्मों को करनेवाले, (विचर्षणे) विशेष द्रष्टा (इन्द्र) वीर, परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर वा राजन् ! (त्वम्) आप (नः) हमें (ओजः) ब्रह्मवर्चस, और (नृम्णम्) धन (आभर) प्रदान कीजिए। साथ ही (पृतनासहम्) शत्रुसेनाओं को पराजित करनेवाला (वीरम्) वीर योद्धा (आभर) प्रदान कीजिए ॥७॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा की कृपा से और राजा के प्रयत्न से हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण, शूरवीर क्षत्रिय और धनी वैश्य उत्पन्न हों और सब प्रजाजन भी बलवान्, धनवान् तथा वीर पुत्रोंवाले हों ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मानं राजानं च प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ बहुकर्मन् वा (विचर्षणे) विशेषेण द्रष्टः, विचर्षणिः इति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। (इन्द्र) वीर परमैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर राजन् वा ! (त्वम् नः) अस्मभ्यम् (ओजः) ब्रह्मवर्चसम् (नृम्णम्) धनं च। नृम्णमिति धननाम। निघं० २।१०। (आभर) आहर, किञ्च (पृतनासहम्) पृतनाः शत्रुसेनाः सहते पराजयते यस्तम् (वीरम्) विक्रमशालिनं योद्धारम् (आभर) आहर ॥७॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मकृपया राज्ञः प्रयत्नेन चास्माकं राष्ट्रे ब्रह्मवर्चस्विनो ब्राह्मणाः, शूराः क्षत्रियाः, धनवन्तो वैश्याश्चोत्पद्येरन्। किञ्च सर्वे प्रजाजना अपि बलवन्तो, धनवन्तः, वीरपुत्रवन्तश्च भवेयुः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९८।१०, अथ० २०।१०८।१। उभयत्र ‘भर, पृतनासहम्’ एतयोः स्थाने क्रमेण ‘भरँ, पृतनाषहम्’ इति पाठः। साम० ११६९।
15_0405 त्वं न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०५-१। आभरे द्वे॥ द्वयोरिन्द्रः ककुबिन्द्रः॥
त्व꣤न्न꣥ई꣤॥ द्र꣢आ꣡꣯भाऽ२३रा꣢। ओ꣡जो꣯नृ꣢म्णम्। शा꣡तक्रता꣢ऽ३उ। वी꣡च꣢र्षा꣣ऽ२३४णा꣥इ॥ आ꣡वी꣯रंपा꣢ऽ३हा꣢ऽ३॥ ता꣡ऽ२᳐ना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ सा꣣ऽ२३४हा꣥म्॥
15_0405 त्वं न - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४०५-२।
त्व꣤न्न꣥इन्द्रा꣤॥ आ꣡꣯भाऽ२३रा꣢। ओ꣡जो꣯नृ꣢म्णम्। शा꣡तक्रता꣢ऽ३उ। वी꣡च꣢र्षा꣣ऽ२३४णा꣥इ॥ आ꣢꣯वी꣡꣯राऽ२३म्पा꣢॥ त꣣ना꣯स꣢हा꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢धा꣣꣬ ही꣢꣯न्द्र गिर्वण꣣ उ꣡प꣢ त्वा꣣ का꣡म꣢ ई꣣म꣡हे꣢ ससृ꣣ग्म꣡हे꣢। उ꣣दे꣢व꣣ ग्म꣡न्त꣢ उ꣣द꣡भिः꣢ ॥ 16:0406 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अधा॒ ही॑न्द्र गिर्वण॒ उप॑ त्वा॒ कामा॑न्म॒हः स॑सृ॒ज्महे॑ ।
उ॒देव॒ यन्त॑ उ॒दभिः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡ध꣢꣯। हि। इ꣣न्द्र। गिर्वणः। गिः। वनः। उ꣡प꣢꣯। त्वा꣣। का꣡मे꣢꣯। ई꣣म꣡हे꣢। स꣣सृग्म꣡हे꣢। उ꣣दा꣢। इ꣣व। ग्म꣡न्त꣢꣯। उ꣣द꣡भिः꣢। ४०६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- नृमेध आङ्गिरसः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों से संसेवनीय (इन्द्र) परमधनी परमेश्वर ! (अध हि) इस समय, हम (कामे) मनोरथों की पूर्ति हेतु (त्वा) आपको (उप ईमहे) समीपता से प्राप्त करते हैं, तथा (ससृग्महे) आपसे संसर्ग करते हैं (उदा इव) जैसे जलमार्ग से (ग्मन्तः) जाते हुए लोग (उदभिः) जलों से संसर्ग को प्राप्त करते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘महे’ की आवृत्ति में यमक और ‘उदे, उद’ में छेकानुप्रास है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे नदी के कम गहराईवाले जल को पैरों से चलकर और गहरे जल को तैरकर पार करते हुए लोग जल के संसर्ग को प्राप्त होते हैं और गीले हो जाते हैं, वैसे ही परमेश्वर के समीप पहुँच हम उससे संसृष्ट होकर उसके संसर्ग द्वारा प्राप्त आनन्दरस से सराबोर हो जाएँ ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (गिर्वणः) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः वननीय संभजनीय (इन्द्र) परमधन परमेश ! (अध हि) अथ खलु वयम्। ‘अधा’ इति संहितायां ‘निपातस्य च। अ० ६।३।१३६’ इत्यनेन दीर्घः। (कामे) मनोरथे निमित्ते। निमित्तसप्तम्येषा। मनोरथप्रपूर्त्यर्थमित्यर्थः। (त्वा) त्वाम् (उप ईमहे) उपगच्छामः, (ससृग्महे) संसृज्यामहे च त्वया सह। सृज विसर्गे धातोः ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ रूपम्। (उदा इव) यथा उदकेन, जलमार्गेण (ग्मन्तः) गच्छन्तो जनाः (उदभिः) जलैः संसृज्यन्ते तथेत्यर्थः ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘महे’ इत्यस्यावृत्तौ यमकम्, ‘उदे-उद’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा नद्या गाधं जलं पद्भ्याम् अगाधं च तरणेन पारयन्तो जना जलेन संसृज्यन्ते आर्द्राश्च भवन्ति, तथैव परमेश्वरमुपगम्य वयं तेन संसृज्य तत्संसर्गप्राप्तेनानन्दरसेन क्लिद्येमहि ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।९८।७, अथ० २०।१००।१ उभयत्र ‘काम ईमहे ससृग्महे’ इत्यत्र ‘कामान् महः ससृज्महे’ इति ‘ग्मन्त’ इत्यत्र च ‘यन्त’ इति पाठः। साम० ७१०।
16_0406 अधा हीन्द्र - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०६-१। ऐषिराणि त्रीणि॥ त्रयाणां वायुः ककुबिन्द्रः॥
अ꣤धा꣥꣯हिया꣤॥ द्र꣢गि꣡र्वाऽ२३णाः꣢। उ꣡पत्वा꣢꣯का꣯। मई꣡꣯माऽ२३हा꣢इ। ससृ꣡ग्माऽ२३हा꣢इ॥ ऊ꣡देऽ᳒२᳒॥ वग्मा꣡ऽ२३न्ताः꣢। उ꣡दाऽ२३भा꣢इः। इ꣤डाऽ५भीः। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
16_0406 अधा हीन्द्र - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४०६-२।
अ꣥धा꣯ही꣯न्द्रगिर्वाऽ६णाः꣥॥ ऊ꣡पत्वा꣢꣯का꣯। मा꣡ई꣢ऽ१माहाऽ᳒२᳒इ। सा꣡सृ꣪ग्माहाऽ᳒२᳒इ॥ ऊ꣡दे꣢ऽ१वाग्माऽ२३॥ त꣤ओवा꣥। दा꣤ऽ५भोऽ६"हा꣥इ॥
16_0406 अधा हीन्द्र - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४०६-३।
अ꣥धा꣯ही꣯न्द्रगिर्वणाऽ६ए꣥॥ उ꣡पत्वा꣢꣯का꣯। मा꣡ई꣢ऽ१माहा꣢ऽ३इ। सा꣡सृ꣢ग्मा꣣ऽ२३४हा꣥इ॥ उ꣢दौ꣭ऽ३हो꣢ऽ३। वा꣭ऽ३हा꣢ऽ३॥ ग्मा꣡ऽ२᳐। त꣣ऊ꣢ऽ३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ द꣢भीऽ३रे꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सी꣡द꣢न्तस्ते꣣ व꣢यो꣣ य꣢था꣣ गो꣡श्री꣢ते꣣ म꣡धौ꣢ मदि꣣रे꣢ वि꣣व꣡क्ष꣢णे। अ꣣भि꣡ त्वामि꣢꣯न्द्र नोनुमः ॥ 17:0407 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सीद॑न्तस्ते॒ वयो॑ यथा॒ गोश्री॑ते॒ मधौ॑ मदि॒रे वि॒वक्ष॑णे ।
अ॒भि त्वामि॑न्द्र नोनुमः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
सी꣡द꣢꣯न्तः। ते꣣। व꣡यः꣢꣯। य꣡था꣢꣯। गो꣡श्री꣢꣯ते। गो। श्री꣣ते। म꣡धौ꣢꣯। म꣣दिरे꣢। वि꣣व꣡क्ष꣢णे। अ꣣भि꣢। त्वाम्। इ꣣न्द्र। नोनुमः। ४०७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः काण्वः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पक्षी के दृष्टान्त से परमेश्वर की स्तुति का विषय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) मधुवर्षक परमेश्वर ! (वयः यथा) पक्षियों के समान अर्थात् जैसे जलचर पक्षी जलाशय में एकत्र होते हैं वैसे, हम (ते) आपके (गोश्रीते) गोदुग्ध के समान पवित्र अन्तःप्रकाश से मिश्रित, (मदिरे) हर्षजनक, (विवक्षणे) मुक्ति प्राप्त करानेवाले (मधौ) आनन्दरूप सोमरस में (सीदन्तः) समवेत होकर बैठते हुए (त्वाम् अभि) आपको लक्ष्य करके (नोनुमः) अतिशय पुनः-पुनः स्तुति करते हैं ॥९॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जल-पक्षी जैसे जल के ऊपर मिलकर बैठते हैं और क्रें क्रें करते हैं, वैसे ही प्रेमरसघन परमात्मा के आनन्दरस में समवेत होकर उसके उपासक लोग उसे लक्ष्य कर पुनः- पुनः स्तुतिगीत गाते हैं। जैसे सोमरस में गाय का दूध मिलाया जाता है, वैसे ही परमात्मा के आनन्दरस में दिव्यप्रकाश का संमिश्रण है, यह जानना चाहिए ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पक्षिदृष्टान्तेन परमेशस्तुतिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) मधुवर्षक परमेश ! (वयः२ यथा) पक्षिण इव। वयः इति ‘वि’ शब्दस्य प्रथमाबहुवचनम्। यथा जलचराः पक्षिणो जलाशये समवेता भवन्ति तद्वदित्यर्थः, वयम् (ते) तव (गोश्रीते३) गोपयसा इव पवित्रेण अन्तःप्रकाशेन मिश्रिते (मदिरे) हर्षजनके (विवक्षणे४) मुक्तिप्रापके। वि पूर्वाद् वह धातोरिदं रूपम्। (मधौ) आनन्दरूपे सोमरसे (सीदन्तः) समवेत्य उपविशन्तः (त्वाम् अभि) त्वामभिलक्ष्य (नोनुमः) अतिशयेन पुनः पुनः स्तुमः। णु स्तुतौ धातोर्यङ्लुगन्तोऽयं प्रयोगः ॥९॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जलपक्षिणो यथा जले संभूय तिष्ठन्ति क्रेंकारं च कुर्वन्ति तथैव प्रेमरसघनस्य परमात्मन आनन्दरसे समवेतास्तदुपासकास्तमभिलक्ष्य भूयो भूयः स्तुतिगीतानि गायन्ति। यथा सोमे गोः पयः संमिश्र्यते, तथैवात्र परमात्मन आनन्दरसे दिव्यप्रकाशस्य संमिश्रणं वर्वर्तीति बोद्धव्यम् ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२१।५, ऋषिः सोभरिः काण्वः। २. वयः पक्षिणः। ते यथा सन्ध्यायामेकत्र वृक्षे समन्ताः व्यवतिष्ठन्ते तद्वदेकत्र वेद्याख्ये प्रदेशे व्यवतिष्ठन्तः इत्यर्थः—इति वि०। पक्षिणो यथा वृक्षे सीदन्ति तद्वत् सोमे सीदन्तः वयम्—इति भ०। पक्षिणो यथा एकत्र सङ्घीभूय तिष्ठन्ति तद्वत् सीदन्तो वयम्—इति सा०। ३. पयोभिर्मिश्रिते—इति वि०। गोविकारेण आशिरा पक्वे—इति भ०। गोविकारो दधि पयश्च गोशब्देनोच्यते। तेन दध्ना पयसा च मिश्रिते—इति सा०। ४. वक्तुमिच्छते—इति वि०। विवेकारि—इति भ०।
17_0407 सीदन्तस्ते वयो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०७-१। सीदन्तीये द्वे॥ द्वयोः प्रजापतिः ककुबिन्द्रः॥
सा꣢ऽ᳐३४इ। दन्त꣥स्ते꣯व꣤। यो꣥꣯याऽ६था꣥॥ गो꣢꣯श्रा꣡इते꣢꣯म꣡। धौ꣢꣯मदि꣡राइ। वा꣢ऽ३इव꣤क्ष꣥। णा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡इ॥ अ꣢भि꣡त्वा꣯माइन्द्रा꣢ऽ३नो꣤ऽ३॥ नू꣢ऽ३४५। मा꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
17_0407 सीदन्तस्ते वयो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४०७-२।
सी꣣꣯द꣤न्त꣥स्ते꣯व꣤यः꣥। य꣣था꣢ऽ३। गो꣡ऽ२३४। श्री꣯ते꣥꣯म꣤धौ꣥꣯म। दि꣤रा꣥इ॥ वि꣣वा꣢ऽ३। हा꣢ऽ३। क्षा꣡ऽ२३४णा꣥इ॥ अ꣣भी꣢ऽ३। हो꣢ऽ३इ। त्वा꣡ऽ२३४मी꣥॥ द्र꣣नो꣢ऽ३। नू꣡ऽ२३४माः। उ꣥हुवाऽ६हा꣥उ॥ वा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व꣣य꣢मु꣣ त्वा꣡म꣢पूर्व्य स्थू꣣रं꣢꣫ न कच्चि꣣द्भ꣡र꣢न्तोऽव꣣स्य꣡वः꣢। व꣡ज्रिं꣢चि꣣त्र꣡ꣳ ह꣢वामहे ॥ 18:0408 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑ ।
वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
व꣣य꣢म्। उ꣣। त्वा꣢म्। अ꣣पूर्व्य। अ। पूर्व्य। स्थूर꣢म्। न। कत्। चि꣣त्। भ꣡र꣢꣯न्तः। अ꣣वस्य꣡वः꣢। व꣡ज्रि꣢꣯न्। चि꣣त्र꣢म्। ह꣣वामहे। ४०८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- सौभरिः काण्वः
- ककुप्
- ऋषभः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमेश्वर, आचार्य वा वैद्य का आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अपूर्व्य) अपूर्व गुण-कर्म-स्वभाववाले, (वज्रिन्) शस्त्रधारी के समान दोषनाशक परमेश्वर आचार्य वा वैद्यराज ! (कच्चित्) किसी (स्थूरं न) स्थूल गढ़े आदि के समान (स्थूरम्) मन, चक्षु आदि के स्थूल छिद्र को (भरन्तः) भरना चाहते हुए (अवस्यवः) रक्षा के इच्छुक (वयम्) हम (चित्रम्) पूज्य (त्वाम्) आपको (हवामहे) पुकारते हैं ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे विशाल निर्जल अन्धे कुएँ आदि को भरना चाहते हुए लोग सहायक मित्रों को बुलाते हैं, वैसे ही मन, चक्षु आदियों के रोगरूप या अशक्तिरूप छिद्र को भरने के लिए परमेश्वर, आचार्य वा वैद्य की सहायता पानी चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र का महत्त्व वर्णित होने से, उसकी स्तुति होने से, उसका आह्वान होने से और उससे बल-धन आदि की याचना होने से तथा इन्द्र नाम से राजा, आचार्य, वैद्य आदि के भी कर्तव्य का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में छठा खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमेश्वर आचार्यो भिषग् वाऽऽहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अपूर्व्य२) अपूर्वगुणकर्मस्वभाव, (वज्रिन्) शस्त्रधर इव दोषनाशक परमेश, आचार्य, भिषग् वा ! (कच्चित्) किमपि (स्थूरं३ न) स्थूलं विशालं गर्तादिकम् इव (स्थूरम्) स्थूलं मनश्चक्षुरादीनां छिद्रम् (भरन्तः) पूरयन्तः, पूरयितुमिच्छन्तः सन्तः, (अवस्यवः) त्वद्रक्षणेच्छवः (वयम् चित्रम्) चायनीयं पूज्यम् (त्वाम्) इन्द्रनामानं जगदीशम्, आचार्यं, भिषग्वरं वा (हवामहे) आह्वयामः ॥ उक्तं चान्यत्र “यन्मे॑ छि॒द्रं चक्षु॑षो॒ हृद॑यस्य॒ मन॑सो॒ वाति॑तृण्णं॒ बृह॒स्पति॑र्मे॒ तद्द॑धातु।” य० ३६।२ इति ॥१०॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा विशालं निर्जलम् अन्धकूपादिकम् पूरयितुमिच्छन्तो जनाः सहायकं सखिवर्गम् आह्वयन्ति तथैव मनश्चक्षुरादीनां रोगरूपमशक्तिरूपं च विशालं छिद्रं पूरयितुं परमेश्वरस्य गुरोर्वैद्यस्य च साहाय्यं प्राप्तव्यम् ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य महत्त्ववर्णनात्, तत्स्तवनात्, तदाह्वानात्, ततो बलधनादिप्रार्थनाद्, इन्द्रनाम्ना नृपत्याचार्यवैद्यादीनां चापि कर्तव्यवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति ज्ञेयम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे द्वितीया दशतिः। इति चतुर्थेऽध्याये षष्ठः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।२१।१, ऋषिः सोभरिः काण्वः। अ० २०।१४।१ ऋषिः सोभरिः। उभयत्र ‘वज्रिन्’ इत्यत्र ‘वाजे’ इति पाठः। साम० ७०८। २. अविद्यमानः पूर्वो यस्मात् सः अपूर्वः। अपूर्व एव अपूर्व्यः। स्वार्थिको य प्रत्ययः—इति वि०। ३. स्थूरं न कच्चित् स्थूलमिव किञ्चित् कुसूलादिकं यवादिभिः त्वां भरन्तः पूरयन्तः पूरयिष्यन्तः सोमेन—इति भ०। स्थूरं न यथा भरन्तो व्रीह्यादिभिः गृहं पूरयन्तो जनाः स्थूरं स्थूलं गुणाधिकं कच्चित् कञ्चिन्मानवं यथा ह्वयन्ति तद्वत्—इति सा०।
18_0408 वयमु त्वामपूर्व्य - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०८-१। सौभरे द्वे॥ (पक्थम्)। द्वयोः सुभरिः ककुबिन्द्रः॥
व꣥यमु꣣त्वा꣢꣯म꣣पू꣤꣯र्वि꣥या॥ स्थू꣢꣯र꣡न्नकच्चिद्भरन्तआव꣪स्यावाऽ२३४ः॥ वज्रि꣥न्। चि꣣त्रा꣢ऽ३म्॥ हा꣡ऽ२३वा꣤ऽ३। मा꣢ऽ३४५होऽ६"हा꣥इ॥
18_0408 वयमु त्वामपूर्व्य - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४०८-२। सौभरम्॥
व꣥य꣤मु꣥त्वा꣤꣯म꣥पू꣯र्व्यस्थू꣯र꣤न्नकच्चि꣥द्भरन्तः। ओ꣤वा꣥॥ हा꣢ऽ३हा꣢᳐इ। अ꣣व꣢स्या꣡वाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥ हा꣢ऽ३हा꣢᳐इ। व꣣ज्रिञ्चि꣢त्रा꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥ हा꣢ऽ३हा꣢᳐इ॥ ह꣣वा꣢ऽ३। मा꣡ऽ२३४हाइ। उ꣥हुवाऽ६हा꣥उ॥ वा॥
[[अथ सप्तम खण्डः]]
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्वा꣣दो꣢रि꣣त्था꣡ वि꣢षू꣣व꣢तो꣣ म꣡धोः꣢ पिबन्ति गौ꣣ओयः꣢꣯। या꣡ इन्द्रे꣢꣯ण स꣣या꣡व꣢री꣣र्वृ꣢ष्णा꣣ म꣡द꣢न्ति शो꣣भ꣢था꣣ व꣢स्वी꣣र꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥ 19:0409 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्वा॒दोरि॒त्था+++(त्थं)+++ वि॑षू॒वतो॒+++(=वि+सू+शतृँ)+++
मध्वः॑+++(=मधुरस्य)+++ +++(इन्द्रपीतशेषस्य सोमस्य)+++ पिबन्ति +++(वर्णेन)+++ गौ॒र्यः॑ +++(गावः)+++ ।
या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्+++(=सह यान्त्यो)+++ +++(काम-)+++वृष्णा॒
मद॑न्ति शो॒भसे॒ +++(पयोदानेन)+++ वस्वी॒र्+++(=निवासदात्र्यः)+++ अनु॑ +++(इन्द्रस्य)+++ स्व॒राज्य॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
स्वा꣣दोः꣢। इ꣣त्था꣢। वि꣣षुव꣡तः꣢। वि꣣। सुव꣡तः꣢। म꣡धोः꣢꣯। पि꣣बन्ति। गौ꣡र्यः꣢꣯। याः। इ꣡न्द्रे꣢꣯ण। स꣣या꣡व꣢रीः। स꣣। या꣡व꣢꣯रीः। वृ꣡ष्णा꣢꣯। म꣡द꣢꣯न्ति। शो꣣भ꣡था꣢। व꣡स्वीः꣢꣯। अ꣡नु꣢꣯। स्व꣣रा꣡ज्य꣢म्। स्व꣣। रा꣡ज्य꣢꣯म्। ४०९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में आत्मिक और राष्ट्रिय स्वराज्य की आकांक्षा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—अध्यात्मपक्ष में। (गौर्यः) सात्त्विक चित्तवृत्तियाँ (इत्था) सचमुच (वि-सुवतः) ब्रह्मानन्द को विशेषरूप से अभिषुत करनेवाले जीवात्मा से (स्वादोः) स्वादु (मधोः) मधुर ब्रह्मानन्द-रस का (पिबन्ति) पान करती हैं, (वृष्णा) आनन्दवर्षक (इन्द्रेण) जीवात्मा के (सयावरीः) साथ गति करनेवाली (वस्वीः) सद्गुणों की निवासक (याः) जो चित्तवृत्तियाँ (स्वराज्यम् अनु) आत्मिक स्वराज्य के अनुकूल होकर (शोभथा) शुभ प्रकार से (मदन्ति) हृष्ट होती हैं ॥ द्वितीय—राष्ट्रपक्ष में। (गौर्यः) उद्यमवाली सेनाएँ (इत्था) सत्य ही (वि-सुवतः) विशेषरूप से वीरता की प्रेरणा देनेवाले सेनापति से (स्वादोः) स्वादु (मधोः) मधुर वीररस का (पिबन्ति) पान करती हैं, (वृष्णा) शस्त्रास्त्रवर्षक (इन्द्रेण) शत्रुविदारक सेनापति के (सयावरीः) साथ युद्ध में प्रयाण करनेवाली (वस्वीः) अपनी शूरता से राष्ट्र की निवासक (याः) जो सेनाएँ (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य स्थापित करके (शोभथा) शोभा के साथ (मदन्ति) विजयोल्लास मनाती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे जीवात्माओं को परमात्मा के साथ मेल करके ब्रह्मानन्द को अभिषुत कर, मन, प्राण, इन्द्रिय आदियों के साथ स्वराज्य की अर्चना करनी चाहिए, वैसे ही सेनाओं को शूरता प्राप्त कर सेनापति के साथ सहयोग करके विजय प्राप्त कर स्वराज्य को बढ़ाना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथात्मिकं राष्ट्रियं च स्वराज्यमाकाङ्क्षते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—अध्यात्मपक्षे। (गौर्यः) सात्त्विकचित्तवृत्तयः (इत्था) सत्यमेव (वि-सुवतः२) विशेषेण ब्रह्मानन्दम् अभिषुवतो जीवात्मनः सकाशात्। अत्र विपूर्वात् सुनोतेः शतरि सस्य षत्वे उकारस्य दीर्घश्छान्दसः। (स्वादोः) उत्कृष्टस्वादवतः (मधोः) मधुरस्य ब्रह्मानन्दरसस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति। स्वादोः मधोः इत्यत्र द्वीतायार्थे षष्ठी। (वृष्णा) आनन्दवर्षकेण (इन्द्रेण) जीवात्मना (सयावरीः३) सयावर्यः, सहगमनाः (वस्वीः) निवासयित्र्यः (याः) सात्त्विकचित्तवृत्तयः (स्वराज्यम् अनु) आत्मिकस्वराज्यानुकूलाः सत्यः (शोभथा४) शोभितप्रकारेण (मदन्ति) हृष्यन्ति। वस्वीः, सयावरीः इत्यत्र जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। ‘शोभथा’ इत्यत्र बाहुलकात् प्रकारार्थे थाल् प्रत्यये लित्स्वरः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपक्षे। (गौर्यः५) उद्यमवत्यः सेनाः। गुरन्ते उद्यच्छन्तीति गौर्यः। गुरी उद्यमने तुदादिः। (इत्था) सत्यम् (वि-सुवतः) विशेषेण वीरतां प्रेरयतः सेनापतेः सकाशात् (स्वादोः) उत्कृष्टस्वादवतः (मधोः) मधुरस्य वीररसस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति, (वृष्णा) शस्त्रास्त्रवर्षकेण (इन्द्रेण) शत्रुविदारकेण सेनापतिना (सयावरीः) युद्धे सह प्रयाणवत्यः, (वस्वीः) निजशौर्येण राष्ट्रस्य निवासिकाः (याः) सेनाः (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्यम् अनुष्ठाप्य (शोभथा) शोभितप्रकारेण (मदन्ति) विजयेन हृष्यन्ति ॥१॥६ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा जीवात्मभिः परमात्मना सह योगं संस्थाप्य ब्रह्मानन्दं सुत्वा मनःप्राणेन्द्रियादिभिः सह स्वराज्यमर्चनीयम्, तथैव सेनाभिः शौर्यमर्जयित्वा शूरवीरेण सेनापतिना सहयोगं विधाय विजयं लब्ध्वा स्वराज्यं वर्धनीयम् ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८४।१०, अथ० २०।१०९।१ उभयत्र ‘मधोः’, ‘शोभथा’ अनयोः स्थाने क्रमेण ‘मध्वः’, ‘शोभसे’ इति पाठः। साम० १००५। २. विषूवतः। प्रायशो भाष्यकृद्भिः व्याप्तार्थाद् विषु प्रातिपदिकाद् मतुबन्तमिदं व्याख्यातम्। ‘विषुशब्दः विष्लृ व्याप्तौ इत्यस्य व्याप्तिवचनः। व्याप्तिमतः’—इत वि०। व्याप्तिमतः—इति भ०। सर्वेषु यज्ञेषु व्याप्तियुक्तस्य—इति सा०। पदपाठे ‘वि-सुवतः’ इति विभज्य दर्शनाद् अस्माभिः पदपाठमनुसृत्य व्याख्यातम्। ऋग्वेदीयपदपाठे तु ‘विषुऽवतः’ इत्येव पठितम्, अतस्तत्र तद्व्याख्यानमुचितं भवितुमर्हति। ३. सयावरीः सहगन्त्र्यः। आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च (पा० ३।२।७४) इति वनिप्। ‘वनो र च’ (पा० ४।१।७) इति स्त्रीप्रत्ययो रेफश्च नकारस्य—इति भ०। ४. शोभथा शोभनार्थम्—इति वि०। शोभथाः पुरुषव्यत्ययः, शोभन्ते—इति भ०, तत्तु चिन्त्यं पदकारविरोधात् स्वरविरोधाच्च। ५. शुभ्राः किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः—इति ऋ० १।८४।१० भाष्ये द०। ६. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये’ इति विषये व्याख्यातवान्।
19_0409 स्वादोरित्था विषूवतो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४०९-१। यामम्॥ यमः पंक्तिरिन्द्रः॥
स्वा꣤꣯दो꣣꣯रि꣤त्था꣣꣯वि꣤षू꣥꣯। व꣣ता꣢ऽ३ः। मा꣡ऽ२३४। धोᳲ꣯पि꣥बन्तिगौ꣯। रि꣤याः꣥॥ या꣡꣯इन्द्रे꣯ण꣢। सया꣡꣯वाऽ२३रीः꣢। वृ꣡ष्णा꣢꣯म꣡द꣢। तिशो꣡꣯भाऽ२३था꣢॥ व꣡स्वाइरा꣢ऽ१नूऽ᳒२᳒॥ स्वा꣡रा꣯जि꣢यम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣣त्था꣢꣫ हि सोम꣣ इ꣢꣫न्मदो꣣ ब्रह्म꣢ च꣣का꣢र꣣ वर्ध꣢नम्। शवि꣢ष्ठ वज्रि꣣न्नोज꣢सा पृथि꣣व्या निः श꣢꣯शा꣣ अहि꣣म꣢र्च꣣न्ननु꣢ स्व꣣राज्यम्꣢ ॥ 20:0410 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒त्था हि सोम॒ इन्मदे॑ ब्र॒ह्मा च॒कार॒ वर्ध॑नम् ।
शवि॑ष्ठ वज्रि॒न्नोज॑सा पृथि॒व्या निः श॑शा॒ अहि॒मर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣣त्था꣢। हि। सो꣡मः꣢꣯। इत्। म꣡दः꣢꣯। ब्र꣡ह्म꣢꣯। च꣣का꣡र꣢। व꣡र्ध꣢꣯नम्। श꣡वि꣢꣯ष्ठ। व꣣ज्रिन्। ओ꣡ज꣢꣯सा। पृ꣣थिव्याः꣢। निः। श꣣शाः। अ꣡हि꣢꣯म्। अ꣡र्च꣢꣯न्। अ꣡नु꣢꣯। स्व꣣रा꣡ज्य꣢म्। स्व꣣। रा꣡ज्य꣢꣯म्। ४१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में शरीर और राष्ट्रभूमि से शत्रु को बाहर निकाल देने का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इत्था हि) सचमुच (सोमः) ब्रह्मानन्दरस अथवा वीररस (इत्) निश्चय ही (मदः) हर्षकारी होता है, उससे (ब्रह्म) जीवात्मा वा राजा (वर्धनम्) उन्नति (चकार) करता है। उससे अनुप्राणित होकर हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (वज्रिन्) दुष्टताओं वा दुष्टों पर वज्र-प्रहार करनेवाले जीवात्मन् वा राजन् ! तू (स्वराज्यम्) स्वराज्य की (अनु अर्चन्) अनुकूल अर्चना करता हुआ (ओजसा) अपने बल द्वारा (पृथिव्याः) शरीर से अर्थात् शरीरवर्ती मन, बुद्धि, प्राण व इन्द्रियों से तथा राष्ट्रभूमि से (अहिम्) दुःसंकल्पादिरूप, पापरूप, रोगादिरूप, लुटेरे-चोर-ठग आदि रूप और शत्रुरूप असुर को (निःशशाः) बाहर निकाल दे ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीर में आत्मा और राष्ट्र में राजा ब्रह्मानन्द-रस और वीर-रस का पान कर शरीर और राष्ट्र के शत्रुओं को निःशेष करके वाणी के निर्घोष तथा दुन्दुभिघोष के साथ स्वराज्य की अर्चना करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ शरीराद् राष्ट्रभूमेश्च शत्रुं निस्सारयितुमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (इत्था हि) सत्यमेव (सोमः२) ब्रह्मानन्दरसो वीररसो वा (इत्) निश्चयेन (मदः) हर्षकरो भवति, तेन (ब्रह्म३) जीवात्मा राजा वा। संहितायां दीर्घश्छान्दसः। (वर्धनम्) उन्नतिम् (चकार) करोति। तेन अनु प्राणितः सन् हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (वज्रिन्) दुष्टतासु दुष्टेषु वा वज्रप्रहर्तः इन्द्र जीवात्मन् राजन् वा ! त्वम् (स्वराज्यम्) आत्मराज्यम् (अनु अर्चन्) आनुकूल्येन सत्कुर्वन् (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) शरीरात्, शरीरवर्तिभ्यो मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियेभ्यः इत्यर्थः, राष्ट्रभूमेश्च। पृ॑थि॒वी शरीर॑म्। अथ० ५।९।७ इति श्रुतेः पृथिवीति शरीरनाम। (अहिम्) दुःसंकल्पादिरूपं, पापरूपं, रोगादिरूपं, लुण्ठकतस्करवञ्चकादिरूपम्, शत्रुरूपं च असुरम् (निःशशाः४) निर्गमय। निस् पूर्वात् शश प्लुतगतौ धातोर्णिजर्थगर्भात् लेटि सिपि रूपम् ॥२॥ ५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - शरीरे जीवात्मा राष्ट्रे च राजा ब्रह्मानन्दरसं वीररसं च पीत्वा शरीरस्य राष्ट्रस्य च शत्रून् निःशेष्य वाङ्निर्घोषेण दुन्दुभिघोषेण च स्वराज्यमर्चताम् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८०।१ ‘मदो’ इत्यत्र ‘मदे’ इति पाठः। २. माधवभरतस्वामिसायणाचार्याः ‘सोमे इत्’ इति विच्छिद्य व्याचख्युः। ‘अस्माभिस्तु सोमः इत्’ इति पदपाठोऽनुसृतः। ३. अत्रास्माभिः सामपदपाठोऽनुसृतः। ऋग्वेदीयपदपाठे तु अत्र ‘ब्रह्मा’ इति प्राप्यते। ४. शश प्लुतावित्यस्येदं रूपम् अन्तर्णीतण्यर्थञ्चात्र द्रष्टव्यम्। निर्गमय भूमौ पातयेत्यर्थः—इति वि०। तदेव भरतस्वामिनोऽभिप्रेतम्। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘मनुष्याश्चक्रवर्तिराज्यस्य सामग्रीं विधाय पालनं कृत्वा विद्यासुखोन्नतिं कुर्युः’ इति विषये व्याख्यातवान्।
20_0410 इत्था हि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१०-१। गृत्समदस्य मदौ द्वौ॥ द्वयोः गृत्समदः पंक्तिरिन्द्रः॥इ꣥त्था꣯हिसो॥ म꣢इ꣡न्माऽ२३दाः꣢। ब्र꣡ह्म꣢चका꣡꣯। र꣢व꣡र्द्धाऽ२३ना꣢म्। श꣡विष्ठ꣢व। ज्रिन्नो꣡꣯जाऽ२३सा꣢। पृथिव्या꣡꣯निश्श꣢शा꣯अ꣡हि꣢म्॥ अ꣡र्चाना꣢ऽ१नूऽ᳒२᳒॥ स्वरौ꣡होऽ᳒२᳒। जि꣡यमोऽ२३४५इ॥ डा॥
20_0410 इत्था हि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४१०-२।
इ꣤त्था꣯हिसोऽ५मइन्म꣤दाः॥ ब्र꣡ह्म꣢चका꣡꣯। र꣢व꣡र्द्धाऽ२३ना꣢म्। शाविष्ठा꣣ऽ२३४वा꣥। ज्रि꣢न्नो᳐जा꣣ऽ२३४सा꣥। पृ꣢थिव्या꣡꣯निश्श꣢शा꣯अ꣡हि꣢म्॥ अ꣡र्चा꣢ऽ३न्हो꣡इ। अ꣪नूऽ२३हो꣡॥ स्वारा꣯जि꣢यम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣢न्द्रो꣣ मदा꣢य वावृधे꣣ शव꣢से वृत्र꣣हा नृभिः꣢꣯। त꣢꣯मिन्म꣣ह꣢त्स्वा꣣जि꣢षू꣣तिमर्भे꣢꣯ हवामहे꣣ स वाजे꣢꣯षु꣣ प्र नो꣢ऽविषत् ॥ 21:0411 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑ ।
तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्रः꣢꣯। म꣡दा꣢꣯य। वा꣣वृधे। श꣡व꣢꣯से। वृ꣣त्रहा꣢। वृ꣣त्र। हा꣢। नृ꣡भिः꣢꣯। तम्। इत्। म꣣ह꣡त्सु꣢। आ꣣जि꣡षु꣢। ऊ꣣ति꣢म्। अ꣡र्भे꣢꣯। ह꣣वामहे। सः꣢। वा꣡जे꣢꣯षु। प्र। नः꣣। अविषत्। ४११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सेनापति का युद्ध में विजय के लिए आह्वान किया गया है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (इन्द्रः) वीर परमात्मा, जीवात्मा, राजा वा सेनापति (मदाय) हर्ष प्रदान के लिए, और (शवसे) बल के कर्म करने के लिए (नृभिः) मनुष्यों द्वारा (वावृधे) बढ़ाया या प्रोत्साहित किया जाता है। (तम् इत्) उसी (ऊतिम्) रक्षक को (महत्सु आजिषु) बड़े युद्धों में, और (अर्भे) छोटे युद्ध में, हम (हवामहे) पुकारते हैं। (सः) वह (वाजेषु) युद्धों में (नः) हमारी (प्र अविषत्) उत्तमता से रक्षा करे ॥३॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्द, आत्मबल और शारीरिक बल को पाने के लिए परमात्मा को स्तुति से, जीवात्मा को उत्कृष्ट उद्बोधन से तथा राजा और सेनापति को जयकार से हर्षित करना चाहिए। साधारण या विकट आन्तरिक और बाह्य देवासुरसंग्राम में वे ही हमारे सहायक होते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा, जीवात्मा, राजा, सेनापतिर्वा संग्रामजयार्थमाहूयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (इन्द्रः) वीरः परमात्मा, जीवात्मा, राजा, सेनापतिर्वा (मदाय) हर्षं प्रदातुं (शवसे) बलकर्माणि कर्तुं च (नृभिः) मनुष्यैः (वावृधे२) वर्ध्यते उत्साह्यते वा। वृधु धातोर्ण्यन्ताल्लडर्थे लिटि रूपम्। ‘तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। अ० ६।१।७’ इत्यभ्यासस्य दीर्घः। (तम् इत्) तमेव (ऊतिम्) रक्षकम्। अत्र अवतेर्रक्षणार्थात् कर्तरि क्तिन्। (महत्सु आजिषु) विकटेषु संग्रामेषु। आजिः इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। (अर्भे) अल्पे च संग्रामे (हवामहे) आह्वयामः। (सः) परमात्मा जीवात्मा राजा सेनापतिर्वा (वाजेषु) संग्रामेषु (नः) अस्मान् (प्र अविषत्) प्रकर्षेण रक्षतु। अव धातोर्लेटि तिपि रूपम्। मध्ये ‘सिब्बहुलं लेटि। ३।१।३४’ इति सिबागमः। ‘इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। ३।४।९०’ इति तिप इकारस्य लोपः ॥३॥ ३ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आनन्दम्, आत्मबलं, शरीरबलं च प्राप्तुं परमात्मा स्तुत्या, जीवात्मा प्रोद्बोधनेन, राजा सेनापतिश्च जयकारेण हर्षणीयः। साधारणे विकटे वाऽऽभ्यन्तरे बाह्ये च देवासुरसंग्रामे त एवास्माकं सहायका भवन्ति ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८१।१, अथ० २०।५६।१। उभयत्र ‘षूतिमर्भे’ इत्यस्य स्थाने ‘पूतेमर्भे’ इति पाठः। साम० १००२। २. वावृधे वर्ध्यते। लडर्थे लिट्। वृद्धः क्रियते—इति भ०। वर्धते स्तुतिभिः—इति वि०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं सेनाध्यक्षपक्षे व्याख्यातवान्।
21_0411 इन्द्रो मदाय - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-१। आभीके द्वे॥ द्वयोराभीकः पंक्तिरिन्द्रः॥
इ꣢न्द्रो꣯मदा꣯यवाऽ३। वा꣤र्द्धा꣥इ॥ श꣢वसे꣯वृत्रहाऽ३। नॄ꣤भीः꣥। त꣢मिन्महत्सुवाऽ३। जा꣤इषू꣥॥ ऊ꣢꣯तिमर्भे꣯हवाऽ३। मा꣤हा꣥इ॥ सा꣤वा꣥। जा꣡इषुप्र꣢नो꣡ऽ२३४वा꣥। वा꣤ऽ५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-२।
इ꣤न्द्रो꣯मदाऽ५यवा꣯वृ꣤धाइ॥ श꣡वसे꣢꣯वृ। त्रहा꣡नॄभी꣢ऽ३४ः। ता꣥म्। इ꣢न्मा᳐हा꣣ऽ२३४त्सु꣥वाऽ६। हा꣥उ॥ जा꣤इषू꣥। ऊ꣡꣯तिमर्भे꣯हवा꣢ऽ१। मा꣢ऽ३हा꣤इ॥ सावा꣥। जा꣡इषुप्र꣢नो꣡ऽ२३४वा꣥। वा꣤ऽ५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-३। आभीशवे द्वे॥ द्वयोरभीशुः पंक्तिरिन्द्रः॥
इ꣤न्द्रो꣯मदाऽ५यवा꣯वृ꣤धाइ॥ श꣡वसे꣢꣯वृ। त्रहाऽ᳒२᳒नृ꣡भिः꣢। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। औ꣯हो꣡वाऽ२३꣡४꣡५꣡। हꣳ꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡। त꣢मि꣡न्मह। त्सु꣢वाऽ᳒२᳒जि꣡षु꣢। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। औ꣯हो꣡वाऽ२३꣡४꣡५꣡। हꣳ꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡। ऊ꣢꣯ति꣡मर्भे꣢꣯। हवाऽ᳒२᳒म꣡हे꣢꣯। आ꣡औ꣢ऽ३हो꣢। औ꣯हो꣡वाऽ२३꣡४꣡५꣡। हꣳ꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥ स꣡वा꣯जे꣯षूप्रा꣢ऽ३नो꣤ऽ३॥ वा꣢ऽ३४५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-४।इ꣤न्द्रो꣥꣯म꣤दा꣥꣯यवा꣯वृधे꣯श꣤व꣥से꣯वॄ꣤॥ त्र꣢हा꣡नॄ꣢ऽ१भीऽ᳒२ः᳒। ता꣡मिन्म꣢ह। त्सू꣡आ꣢ऽ१जिषू꣢ऽ३। ऊ꣡ती꣢᳐मा꣣ऽ२३४र्भा꣥इ। ह꣢वाऽ᳒२᳒मा꣡हाइ॥ सवा꣯जे꣯षूप्रा꣢ऽ३नो꣤ऽ३॥ वा꣢ऽ३४५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-५। बार्हद्गिराणि त्रीणि॥ त्रयाणां बृहद्गिरिः पंक्तिरिन्द्रः॥
इ꣣न्द्रो꣢ऽ३१२३४। मदा॥ य꣡वा꣯वृधे꣯शवाऽ२᳐सा꣣ऽ२३४इवॄ꣥। त्र꣢हा꣭ऽ३। औ꣢꣯होऽ३वा꣢। आ꣭ऽ३। औ꣢᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥। नृ꣤भाइः। त꣡मिन्महत्स्वा꣯जिषू꣯तिमाऽ२३र्भा꣢इ। हवा꣭ऽ३। औ꣢꣯होऽ३वा꣢। आ꣭ऽ३। औ꣢᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥। म꣤हाइ॥ स꣡वा꣯जे꣯षुप्रना꣭ऽ३। औ꣢꣯होऽ३वा꣢। आ꣭ऽ३। औ꣢᳐हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ वा꣤ऽ५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 06 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-६।
इ꣣न्द्रो꣢ऽ३४। मदा꣯य। वा꣥꣯वाऽ६र्द्धा꣥इ॥ श꣡वसे꣢꣯वृ। त्रहा꣡नॄभी꣢ऽ३ः। हा꣤꣯उहौ꣥꣯। हो꣣꣯वा꣢। ता꣡मिन्म꣢ह। त्सू꣡आ꣢ऽ१जिषू꣢ऽ३। हा꣤꣯उहौ꣥꣯। हो꣣꣯वा꣢। ऊ꣡तिम꣢र्भे꣯। हवा꣡माहे꣢ऽ३। हा꣤꣯उहौ꣥꣯। हो꣣꣯वा꣢॥ स꣡वा꣯जे꣯षूप्रा꣢ऽ३नो꣤ऽ३॥ वा꣢ऽ३४५इषोऽ६"हा꣥इ॥
21_0411 इन्द्रो मदाय - 07 ...{Loading}...
लिखितम्
४११-७।
ओ꣥꣯हा꣯इ। इ꣣न्द्रो꣢ऽ३४। मदा꣯य। वा꣥꣯वाऽ६र्द्धा꣥इ॥ श꣡वसे꣢꣯वृ। त्रहा꣡नॄभी꣢ऽ३ः। आ꣤꣯उहौ꣥꣯। हो꣣꣯वा꣢। ता꣡मिन्म꣢ह। त्सू꣡आ꣢ऽ१जिषू꣢ऽ३। आ꣤꣯उहौ꣥꣯। हो꣣꣯वा꣢। ऊ꣯ति꣡मर्भाइ। ह꣢वौ꣯। होऽ३वा꣢। मा꣡हाऽ᳒२᳒इ॥ स꣡वा꣯जे꣯षूप्रा꣢ऽ३नो꣢॥ विषा꣡त्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ꣢न्द्र꣣ तु꣢भ्य꣣मिदद्रि꣣वोऽनु꣢त्तं वज्रिन्वी꣣क्य꣢꣯म्। य꣢꣯द्ध꣣ त्यं꣢ मा꣣यिनं꣢ मृ꣣गं꣢꣫ तव꣣ त्य꣢न्मा꣣ययाव꣢꣯धी꣣र꣢र्च꣣न्ननु꣢ स्व꣣राज्य꣢म् ॥ 22:0412 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॒ तुभ्य॒मिद॑द्रि॒वोऽनु॑त्तं वज्रिन्वी॒र्य॑म् ।
यद्ध॒ त्यं मा॒यिनं॑ मृ॒गं तमु॒ त्वं मा॒यया॑वधी॒रर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
इ꣡न्द्र꣢꣯। तु꣢भ्य꣢꣯म्। इत्। अ꣣द्रिवः। अ। द्रिवः। अ꣡नु꣢꣯त्तम्। अ। नु꣣त्तम्। वज्रिन्। वीर्य꣢꣯म्। यत्। ह꣣। त्य꣢म्। मा꣣यि꣡न꣢म्। मृ꣣ग꣢म्। त꣡व꣢꣯। त्यत्। मा꣣य꣡या꣢। अ꣡व꣢꣯धीः। अ꣡र्च꣢꣯न्। अ꣡नु꣢꣯। स्व꣣रा꣡ज्य꣢म्। स्व꣣। रा꣡ज्य꣢꣯म्। ४१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सेनापति के शौर्य की प्रशंसा की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अद्रिवः) मेघयुक्त अन्तरिक्ष के तुल्य विद्यमान अर्थात् मेघयुक्त अन्तरिक्ष जैसे जल बरसाता है, वैसे सुख बरसानेवाले, (वज्रिन्) शत्रुओं को दण्ड देनेवाले (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, राजन् और सेनापते ! (तुभ्यम् इत्) तेरा ही (अ-नुत्तम्) शत्रुओं से अप्रतिहत (वीर्यम्) शौर्य है। (यत्) जो, तू (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य के अनुकूल (अर्चन्) कर्म करता हुआ (त्यम्) उस कुख्यात (मायिनम्) छलादिदोषयुक्त, (मृगम्) पशुतुल्य शत्रु को (मायया) कौशल से (अवधीः) मार गिराता है, (त्यत्) वह कर्म (तव) तेरा ही है, अन्य कोई उस कर्म को नहीं कर सकता ॥४॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मा को स्मरण कर और जीवात्मा, राजा तथा सेनापति को उद्बोधन देकर, उनके द्वारा समस्त आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं का उन्मूलन करके सबको आत्मा और राष्ट्र के स्वराज्य का उपभोग करना चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनो जीवात्मनो नृपतेः सेनापतेर्वा शौर्यं प्रशस्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अद्रिवः) मेघयुक्तमन्तरिक्षमिव विद्यमान, मेघयुक्तमन्तरिक्षं यथा जलं वर्षति तद्वत् सुखवर्षक इत्यर्थः। अद्रिरिति मेघनाम। निघं० १।१०। हे (वज्रिन्) शत्रुषु दण्डधर (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, राजन्, सेनापते वा ! (तुभ्यम् इत्) तवैव। अत्र ‘षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वाच्यम्। अ० २।३।६२’ वा० इति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (अनुत्तम्) शत्रुभिरप्रतिहतम्। न नुत्तम् अनुत्तम्, नुद प्रेरणे। (वीर्यम्) शौर्यम् अस्ति। (यत्) यत् त्वम् (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्यानुकूलम् (अर्चन्) कर्म कुर्वन् (त्यम्) तम् कुख्यातम्, (मायिनम्) छलादिदोषयुक्तम् (मृगम्) पशुतुल्यम् शत्रुम् (मायया) कौशलेन (अवधीः) हंसि। अत्र लडर्थे लुङ्। (तव त्यत्) तवैव तत् अन्यजनदुर्लभं कर्म वर्वर्ति ॥४॥२ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - परमात्मानं स्मृत्वा जीवात्मानं, नृपतिं, सेनापतिं च समुद्बोध्य तद्द्वारा निखिलानाभ्यन्तरान् बाह्यांश्च रिपूनुन्मूल्य सर्वैरात्मनो राष्ट्रस्य च स्वराज्यमुपभोक्तव्यम् ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८०।७ ‘तव त्यत्’ इत्यत्र ‘तमु त्वं’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘ये प्रजापालनाय सूर्यवत् स्वबलन्यायविद्याः प्रकाश्य कपटिनो जनान् निबध्नन्ति ते राज्यं वर्द्धयितुं करान् प्राप्तुं च शक्नुवन्तीति’ विषये व्याख्यातवान्।
22_0412 इन्द्र तुभ्यमिदद्रिवोऽनुत्तम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१२-१। स्वाराज्यम्॥ इन्द्रः पंक्तिरिन्द्रः॥
इ꣥न्द्रतुभ्यमिदद्रिवाऽ६ए꣥॥ आ꣡नुत्तं꣢वज्रिन्वी꣯रि꣡यम्॥ यद्धात्या꣢ऽ१म्माऽ᳒२᳒। या꣡इनंमृ꣢गम्। त꣡वात्या꣢ऽ१न्माऽ᳒२᳒। या꣡या꣯व꣢धीः꣯॥ अ꣡र्चाना꣢ऽ१नूऽ᳒२᳒॥ स्वा꣡रा꣯जि꣢यम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र꣢ नृ꣣म्ण꣢꣫ꣳहि ते꣣ श꣢वो꣣ हनो꣢ वृ꣣त्रं जया꣢꣯ अ꣣पो꣢ऽर्च꣣न्ननु꣢ स्व꣣राज्य꣢म् ॥ 24:0413 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣢। इ꣣हि। अभि꣢। इ꣣हि। धृष्णुहि꣢। न। ते꣣। व꣡ज्रः꣢꣯। नि। यँ꣣सते। इ꣡न्द्र꣢꣯। नृ꣣म्ण꣢म्। हि। ते꣣। श꣡वः꣢꣯। ह꣡नः꣢꣯। वृ꣣त्र꣢म्। ज꣡याः꣢꣯। अ꣣पः꣢। अ꣡र्च꣢꣯न्। अ꣡नु꣢꣯। स्व꣣रा꣡ज्य꣢म्। स्व꣣। रा꣡ज्य꣢꣯म्। ४१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में जीवात्मा, राजा तथा सेनापति को विजयार्थ प्रोत्साहित किया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) जीवात्मन्, राजन् वा सेनापते ! तू (प्रेहि) आगे बढ़ (अभीहि) आक्रमण कर, (धृष्णुहि) शत्रुओं का पराभव कर। (ते) तेरे (वज्रः) वज्रतुल्य शत्रुविनाश-सामर्थ्य का अथवा शस्त्रास्त्र-समूह का (न नियंसते) अवरोध या प्रतिकार नहीं किया जा सकता। (ते) तेरा (शवः) बल (नृम्णं हि) तेरे लिए धनरूप है। तू (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य के अनुकूल (अर्चन्) कर्म करता हुआ, (वृत्रम्) पाप एवं शत्रु को (हनः) विनष्ट कर दे, (अपः) शत्रु से प्रतिरुद्ध सत्कर्मसमूह को (जयाः) जीत ले ॥५॥ इस मन्त्र में वीर रस है, श्लेषालङ्कार है, अनेक क्रियाओं के साथ एक कारक का योग होने से दीपक भी है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्य का आत्मा, राजा और सेनाध्यक्ष जब अपनी शत्रुओं से दुर्दमनीय महान् शक्ति को पहचान लेते हैं, तब सब आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को धूल में मिलाकर निश्चय ही विजयी होते हैं ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना जीवात्मा राजा सेनापतिश्च विजयाय प्रोत्साह्यन्ते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (इन्द्र) जीवात्मन्, राजन्, सेनापते वा ! त्वम् (प्रेहि) प्रयाहि, (अभीहि) आक्रमस्व, (धृष्णुहि) पराभव शत्रून्। (ते) तव (वज्रः) वज्रतुल्यं रिपुविनाशसामर्थ्यम् शस्त्रास्त्रसमूहो वा (न नियंसते२) न अवरोद्धुं प्रतिकर्तुं वा शक्यते। नि पूर्वाद् यम उपरमे धातोः कर्मणि लेटि रूपम्। (ते) तव (शवः) बलम् (नृम्णं३ हि) त्वत्कृते धनरूपम् अस्ति। नृम्णमिति धननाम। निघं० २।९। त्वम् (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्यानुकूलम् (अर्चन्) कर्म कुर्वन् (वृत्रम्) पापं शत्रुं वा (हनः) जहि। हन्तेर्लेटि मध्यमैकवचने रूपम्। (अपः) मेघेन प्रतिरुद्धं जलसमूहमिव शत्रुभिः प्रतिरुद्धं सत्कर्मसमूहम्। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (जयाः) विजयस्व। जि जये धातोर्लेटि सिपि ‘लेटोऽडाटौ’ इत्याडागमे रूपम् ॥५॥४ अत्र वीरो रसः। श्लेषालङ्कारः, अनेकासु क्रियास्वेककारकयोगाद् दीपकम् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यस्यात्मा, राजा, सेनाध्यक्षश्च यदा स्वकीयां परैर्दुर्दमनीयां महतीं शक्तिं परिचिन्वन्ति तदा सर्वानाभ्यन्तरान् बाह्यांश्च रिपून् धूलिसात् कृत्वा विजयं नूनं लभते ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८०।३। २. न नियम्यते न निवार्यते केनचिदित्यर्थः—इति वि०। ३. इन्द्र नृम्णं हि ते शवः। यस्मात् शत्रुभूतानामपि मनुष्याणाम् अवनामकरं तव शवः बलम्—इति वि०। नृम्णं नृणां नामकम्—इति भ०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘ये राजजनाः सूर्यवत् प्रकाशितकीर्तयः सन्ति ते राज्यैश्वर्यभोगिनो भवन्ती’ति विषये व्याख्यातवान्।
24_0413 इन्द्र नृम्णंहि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१३-१। संघेशीयम् धृष्णुसाम॥ कश्यपः पंक्तिरिन्द्रः॥प्रा꣡इहीऽ᳒२᳒। अभी꣡꣯हिधृष्णुहाऔ꣢ऽ३हो꣢॥ ना꣡ताऽ᳒२᳒इ। व꣡ज्रो꣯नियꣳसताऔ꣢ऽ३हो꣢। आ꣡इन्द्राऽ᳒२᳒। नृम्णꣳ꣡हिते꣯शवाऔ꣢ऽ३हो꣢। हा꣡नाऽ᳒२ः᳒। वृत्रं꣡जया꣯अपाऔ꣢ऽ३हो꣢॥ आ꣡र्चाऽ᳒२᳒ना꣡नूऽ᳒२᳒। स्वा꣡रा꣯जि꣢यम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
य꣢दु꣣दीर꣢त आ꣣जयो꣢ धृ꣣ष्णवे꣢ धीयते꣣ धन꣢म्। यु꣣ङ्क्ष्वा म꣢द꣣च्यु꣢ता꣣ ह꣢री꣣ क꣢꣫ꣳ हनः꣣ कं वसौ꣢꣯ दधो꣣ऽस्माꣳ इ꣢न्द्र꣣ वसौ꣢ दधः ॥ 25:0414 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यदु॒दीर॑त आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑ ।
यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्माँ इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
य꣢त्। उ꣣दी꣡र꣢ते। उत्। ई꣡र꣢꣯ते। आ꣣ज꣡यः꣢। धृ꣣ष्ण꣡वे꣢। धी꣣यते। ध꣡न꣢꣯म्। युङ्क्ष्व꣢। म꣣दच्यु꣡ता꣢। म꣣द। च्यु꣡ता꣢꣯। हरी꣣इ꣡ति꣢। कम्। ह꣡नः꣢꣯। कं। व꣡सौ꣢꣯। द꣣धः। अस्मा꣢न्। इ꣣न्द्र। व꣡सौ꣢꣯। द꣣धः। ४१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) जब (आजयः) देवासुरसंग्राम (उदीरते) उपस्थित होते हैं, तब (धृष्णवे) जो शत्रु का पराजय कर सकता है, उसे ही (धनम्) ऐश्वर्य (धीयते) मिलता है। इसलिए हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन्, सेनापति अथवा राजन् ! तुम (मदच्युता) शत्रुओं के मद को चूर करनेवाले (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों को अथवा युद्धरथ को चलाने के साधनभूत जल-अग्नि रूप या वायु-विद्युत् रूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व) कार्य में नियुक्त करो। (कम्) किसी को अर्थात् शत्रुजन को (हनः) विनष्ट करो, (कम्) किसी को अर्थात् मित्रजन को (वसौ) ऐश्वर्य में (दधः) स्थापित करो। (अस्मान्) दिव्य कर्मों में संग्लन हम धार्मिक लोगों को (वसौ) ऐश्वर्य में (दधः) स्थापित करो ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आन्तरिक अथवा बाह्य देवासुरसंग्रामों के उपस्थित होने पर सबको चाहिए कि असुरों को पराजित कर, देवों को उत्साहित कर विजयश्री और दिव्य तथा भौतिक सम्पदा प्राप्त करें ॥६॥ इस मन्त्र की व्याख्या में सायणाचार्य ने इस प्रकार इतिहास दर्शाया है—रहूगण का पुत्र गोतम कुरु-सृञ्जय राजाओं का पुरोहित था। उन राजाओं का शत्रुओं के साथ युद्ध होने पर उस ऋषि ने इस मन्त्र से इन्द्र की स्तुति करके स्वपक्षवालों के विजय की प्रार्थना की थी। रहूगण का पुत्र गोतम इस मन्त्र का द्रष्टा ऋषि है। उसके विषय का ही यह इतिहास जानना चाहिए ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (यत्) यदा (आजयः) देवासुरसंग्रामाः (उदीरते) उद्गच्छन्ति, तदा (धृष्णवे) शत्रुपराजयकारिणे (धनम्) ऐश्वर्यम् (धीयते) निधीयते। अतः, हे (इन्द्र) मदीय आत्मन् सेनापते राजन् वा ! त्वम् (मदच्युता) शत्रूणां मदस्य च्यावयितारौ (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ यद्वा युद्धयानहरणसाधनभूतौ जलाग्निरूपौ वायुविद्युद्रूपौ वा अश्वौ (युङ्क्ष्व) कार्यतत्परौ कुरु। (कम्) कञ्चित्, शत्रुजनमिति भावः (हनः) जहि (कम्) कञ्चित्, मित्रजनमिति भावः (वसौ) वसुनि ऐश्वर्ये (दधः) स्थापय। (अस्मान्) दिव्यकर्मसु संलग्नान् धार्मिकान् नः (वसौ) ऐश्वर्ये (दधः) स्थापय। युङ्क्ष्वा इत्यत्र ‘द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३४’ इति दीर्घः। ‘मदच्युता’ इत्यत्र सुपां सुलुगिति औकारस्याकारः। हनः इति दधः इति च क्रमेण हन्तेर्दधातेश्च लेटि सिपि रूपम् ॥६॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - आन्तरेषु बाह्येषु वा देवासुरसंग्रामेषूपस्थितेषु सर्वैरसुरान् पराजित्य देवानुत्साह्य विजयश्रीर्दिव्या भौतिकी वा सम्पच्च प्राप्तव्या ॥६॥ एतन्मन्त्रव्याख्याने सायणाचार्य इत्थमितिहासं प्रदर्शयति—अत्रेदमाख्यानम्। रहूगणपुत्रो गोतमः कुरुसृञ्जयानां राज्ञां पुरोहित आसीत्। तेषां राज्ञां परैः सह युद्धे सति स ऋषिरनेन इन्द्रं स्तुत्वा स्वकीयानां जयं प्रार्थयामासेति। राहूगणो गोतमोऽस्य मन्त्रस्य द्रष्टा ऋषिः, तद्विषयक एवायमितिहासो विज्ञेयः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८१।३, अथ० २०।५६।३। उभयत्र ‘धनम्’, ‘युङ्क्ष्वा’ अनयोः स्थाने क्रमेण ‘धना’, ‘युक्ष्वा’ इति पाठः। साम० १००४। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिरस्या ऋचो व्याख्याने भावार्थमेवमाह—“यदा युद्धानि कर्तव्यानि भवेयुस्तदा सेनापतयो यानशस्त्रास्त्रभोजनाच्छादनसामग्रीरलंकृत्य कांश्चिच्छत्रून् हत्वा काश्चिचन्मित्रान् सत्कृत्य युद्धादिकार्येषु धार्मिकान् संयोज्य युक्त्या योधयित्वा युद्ध्वा च सततं विजयान् प्राप्नुयुः” इति।
25_0414 यदुदीरत आजयो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१४-१। संवेशीयम्॥ मरुतः पंक्तिरिन्द्रः॥
य꣤दुदी꣯राऽ५तआ꣯ज꣤याः॥ धृ꣢ष्ण꣡वे꣰꣯ऽ२धी꣯। यता꣡इधा꣢ऽ१नाऽ᳒२᳒म्। युꣳक्ष्वा꣡꣯मदच्युता꣢ऽ३। हा꣤री꣥। कꣳ꣢ह꣡नᳲकंवसा꣢ऽ३उ। दा꣤धाः꣥। अ꣢स्माꣳ꣡꣯आऽ२३इन्द्रा꣢॥ वसौ꣡꣯दाऽ२३धा꣢ऽ३४३ः। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢क्ष꣣न्नमी꣢मदन्त꣣ ह्यव꣢ प्रि꣣या अ꣢धूषत। अस्तो꣢षत꣣ स्वभा꣢नवो꣣ विप्रा꣣ नवि꣢ष्ठया म꣣ती꣢꣫ योजा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ हरी꣢ ॥ 26:0415 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अक्ष॒न्न्+++(=भुक्तवन्तः)+++, अमी॑मदन्त॒ ह्य् अव॑ प्रि॒या अ॑धूषत+++(=अकम्पयन् [=वक्तुम् अशक्नुवन्])+++ ।
अस्तो॑षत॒+++(=अस्तुवन्)+++ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒
नवि॑ष्ठया म॒ती+++(त्या)+++, +++(अतो रथे)+++ योजा॒+++(=योजय)+++ न्वि् इ॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡क्ष꣢꣯न्। अ꣡मी꣢꣯मदन्त। हि। अ꣡व꣢꣯। प्रि꣣याः꣢। अ꣣धूषत। अ꣡स्तो꣢꣯षत। स्व꣡भा꣢꣯नवः। स्व। भा꣣नवः। वि꣡प्राः꣢꣯। वि। प्राः꣣। न꣡वि꣢꣯ष्ठया। म꣣ती꣢। यो꣡ज꣢꣯। नु। इ꣣न्द्र। ते। ह꣢री꣣इ꣡ति꣢। ४१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में विद्वानों के सत्कार, उनके उपदेश के श्रवण, तदनुकूल आचरण आदि का विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विप्राः) इन विद्वान अतिथियों ने (अक्षन्) भोजन कर लिया है, (अमीमदन्त हि) निश्चय ही ये तृप्त हो गये हैं। (प्रियाः) इन प्रिय अतिथियों ने (अव अधूषत) मुझ आतिथ्यकर्ता के दोषों को प्रकम्पित कर दिया है। (स्वभानवः) स्वकीय तेज से युक्त इन्होंने (नविष्ठया मती) नवीनतम मति के द्वारा (अस्तोषत) स्वस्ति का आशीर्वाद दिया है। अब, (इन्द्र) हे मेरे आत्मन्, तू (नु) शीघ्र ही (ते हरी) अपने ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व) नियुक्त कर अर्थात् विद्वान् अतिथियों के उपदेश पर मनन, चिन्तन और आचरण करने का प्रयत्न कर ॥७॥ इस मन्त्र में अक्षन्, अमीमदन्त, अधूषत, अस्तोषत इन अनेक क्रियाओं में एक कर्तृकारक के योग के कारण दीपक अलङ्कार है। ‘षत’ की एक बार आवृत्ति में छेकानुप्रास है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गृहस्थों से सत्कार पाये हुए अतिथि जन अपने बहुमूल्य उपदेश से उन्हें कृतार्थ करें, और गृहस्थ जन प्रयत्नपूर्वक उसके अनुकूल आचरण करें ॥७॥ इस मन्त्र में यजुर्वेदभाष्य में उवट और महीधर ने कात्यायनश्रौतसूत्र का अनुसरण करते हुए यह व्याख्या की है कि पितृयज्ञ कर्म में जो पितर आये हैं, उन्होंने हमारे दिये हुए हविरूप अन्न को खा लिया है और वे तृप्त हो गये हैं आदि। इस विषय में यह जान लेना चाहिए कि मृत पितरों को भोजन देना आदि वेदसम्मत नहीं है ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ विद्वत्सत्कारतदुपदेशश्रवणतदनुकूलाचरणादिविषयमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (विप्राः) एते विद्वांसोऽतिथयः (अक्षन्) भोजनं कृतवन्तः। अद भक्षणे धातोर्लुङि ‘मन्त्रे घसह्वर०। अ० २।४।८०’ इति च्लेर्लुकि रूपम्। (अमीमदन्त हि) तृप्ताः खलु संजाताः। (प्रियाः) स्निग्धाः एते अतिथयः (अव अधूषत) आतिथेयस्य मम दोषान् कम्पितवन्तः, (स्वभानवः) स्वकीयतेजोयुक्ताः एते (नविष्ठया मती) नवीनतमया मत्या। मति प्रातिपदिकात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (अस्तोषत) स्वस्तिवाचनं च कृतवन्तः। सम्प्रति (इन्द्र) हे मदीय आत्मन्, त्वम् (नु) क्षिप्रम् (ते हरी) स्वकीयौ ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (योज) युङ्क्ष्व, विदुषामुपदेशानुकूलं मन्तुमाचरितुं च प्रयतस्व इत्यर्थः ॥७॥२ अत्र अक्षन्, अमीमदन्त, अधूषत, अस्तोषत इत्यनेकक्रियास्वेककारकयोगाद् दीपकालङ्कारः। ‘षत’ इत्यस्य सकृदावृत्तौ छेकानुप्रासः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - गृहस्थैः सत्कृता विद्वांसोऽतिथयः स्वकीयेन बहुमूल्येन सदुपदेशेन तान् कृतार्थयन्तु, गृहस्थाश्च सप्रयासं तदनुकूलमाचरन्तु ॥७॥ यजुर्वेदभाष्ये उवटो महीधरश्च कात्यायनश्रौतसूत्रमनुसरन्तौ पितृयज्ञाख्ये कर्मणि ये पितरः सन्ति तेऽस्माभिर्दत्तं हविःस्वरूपमन्नम् भक्षितवन्तः तृप्ताश्चेत्यादिरूपेण व्याचक्षाते। तत्रेदमवबोध्यं यन्मृतपितृभ्यो भोजनप्रदानादिकं वेदसम्मतं नास्तीति ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८२।२; य० ३।५१। अथ० १८।४।६१, ऋषिः अथर्वा, देवता यमः, ‘प्रिया’ इत्यत्र ‘प्रियाँ’ इति पाठः। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च—‘मनुष्याः विद्वत्सङ्गेन शास्त्राध्ययनेन च नवीनां नवीनां मतिं क्रियां च जनयन्तु’ इत्यादिविषये व्याख्यातः।
26_0415 अक्षन्नमीमदन्त ह्यव - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१५-१। यामे द्वे॥ यमः पंक्तिरिन्द्रः॥ चित्रा वा। (पितरो वा पूर्वस्य)।
अ꣣क्ष꣤न्न꣣मी꣤꣯म꣥द। त꣣ही꣢ऽ३। आ꣡ऽ२३४। वप्रि꣥या꣤꣯अ꣥धू꣯। ष꣤ता꣥। अ꣡स्तो꣢꣯षतस्व꣡भा꣢꣯नवः। वि꣡प्रा꣯नाऽ२३वी꣢। ष्ठा꣡या꣯म꣢ती꣯। यो꣡꣯जानू꣢ऽ३वा꣢ऽ३इ॥ द्रा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ हा꣣ऽ२३४री꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣢पो꣣ षु शृ꣢णु꣣ही꣢꣫ गिरो꣣ मघ꣢व꣣न्मात꣢था इव। क꣣दा नः꣢ सू꣣नृता꣢वतः꣣ क꣢र꣣ इ꣢द꣣र्थया꣢स꣣ इद्यो꣢꣫जा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ हरी꣢ ॥ 27:0416 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उपो॒ षु शृ॑णु॒ही गिरो॒ मघ॑व॒न्मात॑था इव ।
य॒दा नः॑ सू॒नृता॑वतः॒ कर॒ आद॒र्थया॑स॒ इद्योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣡प꣢꣯। उ꣣। सु꣢। शृ꣣णुहि꣢। गि꣡रः꣢꣯। म꣡घ꣢꣯वन्। मा। अ꣡त꣢꣯थाः। इ꣣व। कदा꣢। नः꣣। सूनृ꣡ता꣢वतः। सु꣣। नृ꣡ता꣢꣯वतः। क꣡रः꣢꣯। इत्। अ꣣र्थ꣡या꣢से। इत्। यो꣡ज꣢꣯। नु। इ꣣न्द्र। ते। ह꣢री꣣इ꣡ति꣢। ४१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- गोतमो राहूगणः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, अपने अन्तरात्मा वा राजा से प्रार्थना की गयी है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (मघवन्) ऐश्वर्यशाली, दानशील परमेश्वर, मेरे अन्तरात्मा अथवा राजन् ! तुम (गिरः) मेरी वाणियों को (सु उप-उ शृणुहि) भली-भाँति समीपता के साथ सुनो। (अतथाः इव) जैसे पहले मेरे अनुकूल थे उसके विपरीत (मा) मत होवो। तुम (कदा) कब (नः) हमें (सूनृतावतः) प्रिय-सत्य वाणियों से युक्त, वेदवाणियों से युक्त, आध्यात्मिक उषा से युक्त तथा आवश्यक भोज्य पदार्थों से युक्त (इत्) निश्चय ही (करः) करोगे? क्यों तुम (अर्थयासे इत्) माँगते ही जा रहे हो, देते नहीं? हे (इन्द्र) शक्तिशाली मेरे अन्तरात्मा ! तुम (नु) शीघ्र ही (ते) अपने (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को (योज) सक्रिय करो तथा श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ कर्म के उपार्जन द्वारा समृद्ध होवो। और, हे (इन्द्र) परमात्मन् ! तुम (ते) अपने (हरी) ऋक्-सामों को (नु) शीघ्र ही (योज) हमारे आत्मा में प्रेरित करो, जिससे सर्वविध ज्ञान और साम-संगीत से सम्पन्न होकर हम उत्कर्ष प्राप्त करें। और, हे (इन्द्र) राजन् ! तुम, हमारे समीप आने के लिए (ते) अपने (हरी) जल-अग्नि, वायु-विद्युत् आदि को (योज) विमान आदि रथों में नियुक्त करो और हमारे समीप आकर हमें अपनी सहायता का भागी करो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैश्वर्यवान्, सफलताप्रदायक परमेश्वर का आह्वान करके तथा अपने अन्तरात्मा और राष्ट्र के राजा को उद्बोधन देकर हम समस्त अभीष्टों को प्राप्त कर सकते हैं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मानं, स्वान्तरात्मानं, राजानं वा प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् दानशील मदीय अन्तरात्मन्, परमेश्वर, राजन् वा ! त्वम् (गिरः) मम वाचः (सु उप-उ शृणुहि) सम्यक् उपशृणु, (अतथाः इव) यादृशः पूर्वं ममानुकूलः आसीः तद्विपरीतः इव (मा) मा भूः। त्वम् (कदा) कस्मिन् काले (नः) अस्मान् (सूनृतावतः) प्रियसत्यवाग्युक्तान्, वेदवाग्युक्तान्, आध्यात्मिक्या उषसा युक्तान्, भोज्यपदार्थयुक्तान् वा। सूनृता इति उषर्नाम अन्ननाम च। निघं० १।८, २।७। (इत्) निश्चयेन (करः) करिष्यसि ? करोतेर्लेटि सिपि रूपम्, विकरणव्यत्ययेन शप्। कुतः त्वम् (अर्थयासे इत्) याचसे एव, न तु ददासि। अर्थयतेर्लेटि रूपम्। हे (इन्द्र) शक्तिशालिन् मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (नु) क्षिप्रम् (ते) तव (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (योज) युङ्क्ष्व, सक्रियान् कुरु, सज्ज्ञानसत्कर्मोपार्जनेन च समृद्धो भव। अथ च, (इन्द्र) हे परमात्मन् ! त्वम् (ते) तव (हरी) ऋक्सामे। ऋक्सामे वै हरी। श० ४।४।३।६। (नु) क्षिप्रम् (योज) अस्माकम् आत्मनि प्रेरय, येन सर्वविधज्ञानेन सामसंगीतेन च सम्पन्ना वयम् उत्कर्षं प्राप्नुयाम। अथ च (इन्द्र) हे राजन् ! त्वम् अस्मत्समीपमागन्तुम् (ते) तव (हरी) जलाग्निवायुविद्युदादिरूपौ अश्वौ (नु) क्षिप्रम् (योज) विमानादिरथेषु नियोजय। अस्मत्समीपं समागत्य चास्मान् गौरवान्वितान् त्वत्साहाय्यभाजश्च कुरु ॥८॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैश्वर्यवन्तं सफलताप्रदायकं परमेश्वरमाहूय, स्वान्तरात्मानं राष्ट्रस्य राजानं च समुद्बोध्य वयं सर्वमभीष्टं प्राप्तुं शक्नुमः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।८२।१, ‘यदा नः सूनृतावतः कर आदर्थयास इद्’ इति पाठः। २. मा तथाः। तनु विस्तारे इत्यस्येदं रूपम्। मा विस्तारं कार्षीः, मा विलम्बिष्ठाः। शीघ्रमागच्छेत्यर्थः—इति वि०। तत्तु पदकारविरुद्धम्। ‘मा मा श्रौषीः अतथाः इव अयथार्था इव परेषां स्तुतीः—इति भ०। अतथा इव पूर्वं यथाविधस्त्वं तद्विपरीतो मा भूः, अस्मासु पूर्वं यथा अनुग्रहबुद्धियुक्तस्तथाविध एव भवेत्यर्थः—इति सा०। शब्दनिष्पत्तिं च सायणः ऋग्भाष्ये (ऋ० १।८२।१) एवं निरूपयति—तथेवाचरति तथाति ‘सर्वप्रातिपदिकेभ्य इत्येके’ का० ३।१।११।२ इति क्विप्। तथातेः अ प्रत्ययः। न तथा इव अतथाः इव। अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् इति। (अतथा इव) प्रतिकूल इव, अत्राचारे क्विप् तदन्ताच्च प्रत्ययः—इत तत्रैव ऋग्भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमाम् परमेश्वरोपासकः सेनेशः कीदृशः स्यादिति विषये व्याख्यातवान्।
27_0416 उपो षु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१६-१। यामम्॥ यमः पंक्तिरिन्द्रः॥
उ꣣पो꣤꣯षु꣣शृ꣤णुही꣣꣯गि꣤रः꣥। ए꣢ऽ३। औ꣢ऽ३हो꣤ऽ५वा॥ मा꣡घ꣢वन्मा꣡꣯। तथाआ꣢ऽ१इवाऽ२३४। क꣣दा꣢ऽ३४न꣣स्सू꣢। ना꣡र्त्ता꣯व꣢तः। क꣡रइ꣢द। था꣡या꣢ऽ१साईऽ२३४त्॥ यो꣣꣯जा꣢ऽ३४नु꣣वा꣢ऽ३इ॥ द्रा꣡ऽ२᳐ता꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ हा꣣ऽ२३४री꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
च꣣न्द्रमा꣢ अ꣣प्स्वा꣢ऽ३ऽन्तरा सु꣢꣯प꣣र्णो धा꣢वते दि꣣वि꣢। न वो꣢ हिरण्यनेमयः प꣣दं वि꣢न्दन्ति विद्युतो वि꣣त्तं मे꣢ अ꣣स्य रो꣢दसी ॥ 28:0417 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
च॒न्द्रमा॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॑प॒र्णो धा॑वते दि॒वि ।
न वो॑ हिरण्यनेमयः प॒दं वि॑न्दन्ति विद्युतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
च꣣न्द्र꣡माः꣢। च꣣न्द्र꣢। माः꣣। अप्सु꣢। अ꣣न्तः꣢। आ। सु꣣पर्णः꣢। सु꣣। पर्णः꣢। धा꣣वते। दिवि꣢। न। वः꣣। हिरण्यनेमयः। हिरण्य। नेमयः। पद꣢म्। वि꣣न्दन्ति। विद्युतः। वि। द्युतः। वित्त꣢म्। मे꣣। अस्य꣢। रो꣣दसीइ꣡ति꣢। ४१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वेदेवाः
- त्रित आप्त्यः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र के विश्वेदेवाः देवता हैं। इसमें सूर्य, चन्द्र आदि की गति के प्रसङ्ग से इन्द्र की महिमा वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में, और (सुपर्णः) किरणरूप सुन्दर पंखोंवाला सूर्य (दिवि) द्युलोक में (आ धावते) चारों ओर दौड़ रहा है, अर्थात् चन्द्रमा अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ पृथिवी और सूर्य के चारों ओर भी घूम रहा है, तथा सूर्य केवल अपनी धुरी पर घूम रहा है, इस बात को सब जानते हैं, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिम् चक्रोंवाले (विद्युतः) विद्योतमान चन्द्र, सूर्य, विद्युत् आदियो ! (वः) तुम्हारे (पदम्) गतिप्रदाता को, कोई भी (न विन्दन्ति) नहीं जानते हैं। हे (रोदसी) स्त्रीपुरुषो अथवा राजा-प्रजाओ ! तुम (मे) मेरी (अस्य) इस बात को (वित्तम्) समझो। अभिप्राय यह है कि उस इन्द्र परमात्मा को साक्षात्कार करने का तुम प्रयत्न करो, जिसकी गति से यह सब-कुछ गतिमान् बना है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यों को प्राकृतिक पदार्थों के गति, प्रकाश आदि विषयक ज्ञान से ही सन्तोष नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भी जानना चाहिए जो इन पदार्थों को पैदा करनेवाला, इन्हें गति, प्रकाश आदि प्रदान करनेवाला और इनकी व्यवस्था करनेवाला है ॥९॥ इस ऋचा की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित- विषयक वही इतिहास लिखा है, जो पूर्व संख्या ३६८ के मन्त्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है। भरत स्वामी ने भिन्न इतिहास दिखाया है—एकत, द्वित और त्रित ये तीनों आप्त के पुत्र थे। वे जब यज्ञ कराकर, गौएँ लेकर लौट रहे थे, तब मरुस्थल में प्यास से व्याकुल होकर, वहाँ एक कुएँ को देखकर वहीं रुक गये और कुएँ में उतरने का विचार करने लगे। पहले त्रित कुएँ में उतर गया। शेष दोनों को बाहर ही पानी मिल गया और वे पानी पीकर तृप्त हो गये तथा कुएँ को एक चक्र से बन्द करके गौएँ लेकर चलते बने। इधर कुएँ में बन्द पड़ा हुआ त्रित देवों की स्तुति करने लगा। वह कुआँ निर्जल था, जिसमें त्रित प्यास से व्याकुल होकर उतरा था। वहीं पड़ा-पड़ा वह रात्रि में चन्द्रमा को देखकर विलाप करने लगा कि चन्द्रमा पानी में स्थित हुआ अन्तरिक्ष में दौड़ रहा है आदि। किसी तरह मेरी प्यास बुझ जाए, इसलिए उसका विलाप है। वह कहता है कि हे आकाश और भूमि, तुम मेरे इस संकट को जानो ॥’’ यहाँ माधव और भरत स्वामी के इतिहासों में अन्तर ही उनके कल्पनाप्रसूत होने में प्रमाण है ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ विश्वेदेवा देवताः। अत्र सूर्यचन्द्रादिगतिप्रसङ्गेनेन्द्रस्य महिमानमाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (चन्द्रमाः) चन्द्रः (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये। आपः इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। (सुपर्णः) किरणरूपचारुपक्षयुक्तः सूर्यश्च (दिवि) द्युलोके (आ धावते) समन्ततो गच्छति, (चन्द्रः) स्वधुरि पृथिवीं सूर्यं च परितः, सूर्यश्च स्वधुरि एव भ्रमतीत्यर्थः, इति सर्वे जानन्ति, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिमचक्राः (विद्युतः) विद्योतमानाः चन्द्रसूर्यनक्षत्रतडिद्वह्न्यादयः, (वः) युष्माकम् (पदम्) गतिप्रदातारम् इन्द्रं परमात्मानम्। पद गतौ, पदयति गमयतीति पदः, तम्। केचिदपि (न विन्दन्ति) न लभन्ते। विद्लृ लाभे तुदादिः, मुचादित्वान्नुम्। हे (रोदसी२) स्त्रीपुरुषौ राजप्रजे वा ! युवाम् (मे अस्य) एतत् कथनम् (वित्तम्) जानीतम्। अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी। तमिन्द्रं परमात्मानं साक्षात्कर्तुं युवां प्रयतेथां यस्य गत्या भासा च सर्वमिदं गतिमत् भास्वच्च तिष्ठतीत्याशयः, अत्र हिरण्यनेमयः, विद्युतः, रोदसी इति सर्वत्र आमन्त्रितनिघातः ॥९॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जनैः प्राकृतिकपदार्थानां गतिद्युत्यादिविषयकज्ञानेनैव न सन्तोष्टव्यं, किन्तु सोऽपि विज्ञातव्यो य एतेषां पदार्थानां जनको गतिद्युत्यादिप्रदाता व्यवस्थापकश्च विद्यते ॥९॥ अस्या ऋचो व्याख्याने विवरणकृता माधवेन ३६८ संख्यकमन्त्रभाष्ये पूर्वप्रदत्तः त्रितविषयक इतिहास एव प्रदर्शितः। भरतस्त्वाह— एकतश्चद्वितश्चैवत्रितश्चाप्तस्य सूनवः। ते याजयित्वा सर्वा गा निवृत्ता मरुधन्वसु ॥ पिपासयार्तास्तत्रैकं कूपं लब्ध्वा हि तत्स्थिताः। अवरोढुं तमिच्छन्तस्त्रितस्तत्रावरूढवान् ॥ इतरौतुबहिर्लब्ध्वा पीत्वोदकमतृप्यताम्। कूपंपिधायचक्रेण तं गा आदाय जग्मतुः ॥ त्रितस्तु कूपे पिहितो देवान् स्तौतीति नः श्रुतम्। स कूपोनिर्जलो नूनंयत्रासौपतितस्तृषा ॥ तस्यचन्द्रमसंरात्रौ पश्यतःपरिदेवना ॥ चन्द्रमा अप्स्वन्तः अम्मये मण्डले स्थितः आधावते दिवि अन्तरिक्षे….।….पिपासा मे शाम्येदिति परिदेवना….हे द्यावाभूमी, वित्तं विजानीत मे मदीयस्य अस्य व्यसनस्य…इति। अत्र माधवभरत- स्वामिनोरितिहासेऽन्तरमेव तत्कल्पनाप्रसूतत्वे प्रमाणम् ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१०५।१ ऋषिः आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा। य० ३३।९०, ‘रयिं पिशङ्गं बहुलं पुरुस्पृह हरिरेति कनिक्रदत्’ इत्युत्तरार्धः। अथ० १८।४।८९, ऋषिः अथर्वा, देवता चन्द्रमाः। २. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ इति ऋ० १।१०५।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं चन्द्रविद्युद्विद्याविषये व्याख्यातवान्।
28_0417 चन्द्रमा अप्स्वाऽ३ऽन्तरा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१७-१। त्रैतानि त्रीणि॥ त्रयाणां त्रितः पंक्तिरिन्द्रो॥ विश्वेदेवाः।
च꣢न्द्र꣡मा꣯आ꣢उवा। प्सुवा꣡न्तारा꣢उवा। सुपर्णो꣡꣯धा꣢उवा॥ वते꣡꣯दिवि। नवो꣯हिरा꣢उवा। ण्यना꣡इमाया꣢उवा। पदं꣡विन्दा꣢उवा। तिवि꣡द्युताः॥ वित्तम्माआ꣢उवा। स्यरो꣡꣯दाऽ२३सा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
28_0417 चन्द्रमा अप्स्वाऽ३ऽन्तरा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४१७-२।च꣤न्द्र꣥मा꣯आ꣤॥ प्सू꣢ऽ३आ꣡न्ता꣢ऽ३रा꣢। सू꣡पर्णो꣢꣯धा꣯व। ता꣡ऽ२३इ। दि꣢वि꣣या꣢। न꣡वो꣰꣯ऽ२हि꣡रण्य꣢ने꣯मयᳲपदं꣡विन्द꣢। तिविद्यू꣡तोऽ२३४हा꣥इ॥ वि꣢त्तꣳ꣡होइ। मआऽ२३हो꣡॥ स्य꣢रो꣡꣯दाऽ२३सा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
28_0417 चन्द्रमा अप्स्वाऽ३ऽन्तरा - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४१७-३।
च꣥न्द्रमा꣢ऽ३आ꣤प्सु꣥व꣤न्तरा꣥॥ सू꣡पर्णो꣢꣯धा꣯। वता꣡इदा꣢ऽ१इवीऽ᳒२᳒। न꣡वो꣰꣯ऽ२हि꣡रण्य꣢ने꣯मयᳲपदं꣡विन्द꣢। तिविद्यू꣡ताऽ२३ः॥ वि꣢त्तꣳ꣡होइ। मआऽ२३हो꣡॥ स्य꣢रो꣡꣯दाऽ२३सा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
28_0417 चन्द्रमा अप्स्वाऽ३ऽन्तरा - 04 ...{Loading}...
लिखितम्
४१७-४। सौपर्णे द्वे॥ द्वयोः सुपर्णः पंक्तिरिन्द्रो॥ विश्वेदेवाः।
च꣥न्द्र꣤मा꣥꣯अप्सुवा꣤। त꣡रा। सुपर्णो꣯धा꣯व꣢ते꣡꣯दाऽ२३इवी꣢। न꣡वाऽ२३हो꣡इ। हिरण्य꣢ने꣯मयᳲपदं꣡विन्द꣢। तिविद्यू꣡ताऽ२३ः॥ वि꣢त्तꣳ꣡होइ। मआऽ२३हो꣡॥ स्य꣢रो꣡ऽ२३। दा꣡ऽ२᳐सा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
28_0417 चन्द्रमा अप्स्वाऽ३ऽन्तरा - 05 ...{Loading}...
लिखितम्
४१७-५।
च꣥न्द्रौ꣤꣯हो꣥꣯मा꣯अप्सु꣤व꣥न्त꣤रा꣯। ओ꣥ऽ६वा꣥॥ सु꣢पर्णो꣡꣯धा꣯वते꣯दाइवाये꣢ऽ३। हो꣡वा꣢ऽ३हो꣡ऽ᳐२इ। हु꣣वा꣢ऽ᳐३꣡४꣡५꣡इ। न꣡वो꣯हाइरण्यनाइमायाऽ२३ः। हो꣡वा꣢ऽ३हो꣡ऽ᳐२इ। हु꣣वा꣢ऽ᳐३꣡४꣡५꣡इ॥ प꣢दं꣡विन्दन्तिवाइद्यूताऽ२३ः। हो꣡वा꣢ऽ३हो꣡ऽ᳐२इ। हु꣣वा꣢ऽ᳐३꣡४꣡५꣡इ॥ वि꣢त्त꣡म्मे꣯अस्यरो꣯दासाये꣢ऽ३। हो꣡वा꣢ऽ३हो꣡ऽ᳐२इ। हु꣣वा꣢ऽ३ओ꣤ऽ५वाऽ६५६॥ ऊ꣢ऽ᳐३२᳐३४पा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रति꣢ प्रि꣣यत꣢म꣣ꣳर꣣थं꣢ वृष꣢णं वसु꣣वाह꣢नम्। स्तो꣣ता वा꣢मश्विना꣣वृ꣢शि꣣ स्तोमे꣢भिर्भूषति꣣ प्र꣢ति꣣ मा꣢ध्वी꣣ मम꣢ श्रुत꣣ꣳ हव꣢म् ॥ 29:0418 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रति॑ प्रि॒यत॑मं॒ रथं॒ वृष॑णं वसु॒वाह॑नम् ।
स्तो॒ता वा॑मश्विना॒वृषिः॒ स्तोमे॑न॒ प्रति॑ भूषति॒ माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣡ति꣢꣯। प्रि꣣य꣡त꣢मम्। र꣡थ꣢꣯म्। वृ꣡ष꣢꣯णम्। व꣣सुवा꣡ह꣢नम्। वसु। वा꣡ह꣢꣯नम्। स्तो꣣ता꣢। वा꣣म्। अश्विनौ। ऋ꣡षिः꣢꣯। स्तो꣡मे꣢꣯भिः। भू꣣षति। प्र꣡ति꣢। माध्वी꣣इ꣡ति꣢। म꣡म꣢꣯। श्रु꣣तम्। ह꣡व꣢꣯म्। ४१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आश्विनौ
- अवस्युरात्रेयः
- पङ्क्तिः
- पञ्चमः
- ऐन्द्रं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र के देवता अश्विनौ हैं। इसमें शरीर-रथ और शिल्प-रथ का विषय वर्णित है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—शरीर-रथ के पक्ष में। हे (अश्विनौ) परमात्मन् और जीवात्मन् ! (प्रियतमम्) सर्वाधिक प्रिय, (वृषणम्) बलवान्, (वसुवाहनम्) वासक इन्द्रियों द्वारा वहन किये जानेवाले (रथम्) शरीररूप रथ को (प्रति) लक्ष्य करके (स्तोता) स्तुतिकर्ता (ऋषिः) तत्त्वार्थद्रष्टा विद्वान् (स्तोमेभिः) तुम्हारे स्तोत्रगानों के साथ (वाम्) तुमसे (प्रतिभूषति) याचना कर रहा है, अर्थात् मैं याचना कर रहा हूँ। हे (माध्वी) मधुर परमात्मन् और जीवात्मन् ! तुम (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (प्रतिश्रुतम्) सुनो। भाव यह है कि मैं आगामी जन्म में मानवशरीर ही प्राप्त करूँ, पशु, पक्षी, सरकनेवाले जन्तु, स्थावर आदि का शरीर नहीं ॥ द्वितीय—शिल्प-रथ के पक्ष में। हे (अश्विनौ) रथों के निर्माता और चालक शिल्पिजनो ! (प्रियतमम्) अतिशय प्रिय, (वृषणम्) शत्रुसेना के ऊपर शस्त्रास्त्रों की वर्षा के साधनभूत, (वसुवाहनम्) धन-धान्य आदि को देशान्तर में पहुँचानेवाले (रथम्) विमानादि यान को (वाम्) तुम्हारा (स्तोता) प्रशंसक (ऋषिः) विद्वान् मनुष्य (स्तोमेभिः) देशान्तर में ले जाये जानेवाले पदार्थ-समूहों से (प्रतिभूषति) अलङ्कृत करता है। हे (माध्वी) मधुर गति की विद्या को जाननेवाले शिल्पी जनो ! तुम (मम) मेरी (हवम्) विमानादि यानों के निर्माण करने तथा उन्हें चलाने विषयक पुकार को (प्रति श्रुतम्) पूर्ण करो ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सब मनुष्यों को ऐसे कर्म करने चाहिएँ, जिससे पुनर्जन्म में मानवशरीर ही प्राप्त हो। इसी प्रकार राष्ट्र में शिल्पविद्या की उन्नति से वेगवान् भूयान, जलयान और अन्तरिक्षयान बनवाने चाहिएँ और देशान्तरगमन, व्यापार, युद्ध आदि में उनका प्रयोग करना चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र की सहयोगिनी गौरियों का, इन्द्र के स्वराज्य का, उसके आह्वान, उद्बोधन और स्तवन का, चन्द्र-सूर्य आदि की गतियों के तत्कर्तृक होने का और उसके द्वारा दातव्य रथ का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथाश्विनौ देवते। देहरथविषयं शिल्परथविषयं चाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—शरीररथपरः। हे (अश्विनौ) परमात्मजीवात्मानौ ! (प्रियतमम्) अतिशयेन प्रियम्, (वृषणम्) बलवन्तम्, (वसुवाहनम्) वसुभिः निवासकैः इन्द्रियैः उह्यते इति वसुवाहनः तम् (रथम्) मानवशरीररूपं शकटम् (प्रति) उद्दिश्य (स्तोता) स्तुतिकर्ता (ऋषिः) तत्त्वद्रष्टा विद्वान् जनः (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः (वाम्) युवाम् (प्रतिभूषति) याचते, ऋषिरहं याचे इत्यर्थः। भूष अलङ्कारे भ्वादिः, अत्र प्रतिपूर्वो याचनार्थो गृह्यते। हे (माध्वी२) मधुरौ परमात्मजीवात्मानौ, युवाम् (मम) मदीयम् (हवम्) आह्वानम् (प्रति श्रुतम्) शृणुतम्। परे जन्मनि मानवशरीरमेवाहं प्राप्नुयाम्, न तु पशुपक्षिसरीसृपस्थावरादिशरीरमित्यर्थः। अत्र ‘श्रुवः शृ च। अ० ३।१।७४’ इत्यनेन प्राप्तः श्नुप्रत्ययः श्रुवः शृ आदेशश्च न भवति, छन्दसि सर्वेषां विधीनां वैकल्पिकत्वात् ॥ अथ द्वितीयः—शिल्परथपरः। हे (अश्विनौ) रथस्य निर्मातृचालकौ३ शिल्पिनौ ! (प्रियतमम्) अतिशयेन प्रियम्, (वृषणम्) शत्रुसेनाया उपरि शस्त्रास्त्रवृष्टिसाधनभूतम्, (वसुवाहनम्) वसूनि धनधान्यादीनि वहति देशान्तरं प्रापयतीति तम् (रथम्) विमानादियानम् (वाम्) युवयोः (स्तोता) प्रशंसकः (ऋषिः) विद्वान् जनः (स्तोमेभिः) देशान्तरं नेतुं योग्यैः पदार्थसमूहैः (प्रतिभूषति) अलङ्करोति। हे (माध्वी) मधुरगतिविद्याविदौ शिल्पिनौ ! युवाम् (मम) मदीयम् (हवम्) रथसाधनचालनरूपम् आह्वानम् (प्रति श्रुतम्) पूरयतम् ॥१०॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सर्वैर्मनुष्यैस्तादृशानि कर्माण्याचरणीयानि यैः पुनर्जन्मनि मानवशरीरमेव प्राप्येत। तथैव राष्ट्रे शिल्पविद्योन्नत्या वेगवन्ति भूजलान्तरिक्षयानानि निर्मापयितव्यानि, देशान्तरगमनव्यापारयुद्धादिषु च प्रयोक्तव्यानि ॥१०॥ अत्रेन्द्रसहयोगिनीनां गौरीणां वर्णनात्, इन्द्रस्य स्वराज्यवर्णनात्, तदाह्वानात्, तदुद्बोधनात्, तत्स्तवनात्, चन्द्रसूर्यादिगतीनां तत्कर्तृकत्वप्रतिपादनात्, तद्दातव्यरथवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे तृतीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये सप्तमः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ५।७५।१ ‘स्तोता वामश्विनावृषिः स्तोमेन प्रतिभूषति’ इत्युत्तरार्धपाठः। साम० १७४३। २. हे माध्वी, मधुपूर्णो दृतिः माध्वः, ‘तस्येदम् पा० ४।३।१२०’ इत्यण्। ‘यो ह वां मधुनो दृतिराहितो रथचर्षणे’ (ऋ० ८।५।१९) इति मन्त्रान्तरदर्शनात्। स ययोरस्ति तौ माध्वी। छन्दसीवनिपौ (वा० ५।२।१०९) इति ईकारो मत्वर्थीयः। तयोः सम्बोधनं हे माध्वी—इति वि०। माध्वी मधुविद्याविदौ—इति भ०। ३. अश्विनौ जलाग्नी इव निर्मातृवोढारौ (शिल्पिचालकौ) इति ऋ० १।१८२।७ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्येऽस्मिन् मन्त्रे दयानन्दर्षिः ‘अश्विनौ’ इति पदेन अध्यापकपरीक्षकौ, ‘रथम्’ इत्यनेन च विमानादियानं गृह्णाति।
29_0418 प्रति प्रियतमंरथम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४१८-१। लौशम्॥ लुशः पंक्तिरश्विनौ॥
प्रा꣡ऽ२३४। तिप्रि꣥य꣤त꣥मम्। रा꣤था꣥म्॥ वा꣡र्षणं꣢व। सुवा꣡꣯हाऽ२३ना꣢म्। स्तो꣡꣯तावा꣢ऽ३मा꣢ऽ३। श्वि꣡नाऽ२᳐वा꣣ऽ२३४र्षीः꣥। स्तो꣡꣯माइभी꣢ऽ३र्भू꣢ऽ३। षा꣡ति꣢प्रा꣣ऽ२३४ती꣥॥ मा꣡꣯ध्वाइमा꣢ऽ३मा꣢ऽ३॥ श्रू꣡ऽ२३ता꣤ऽ३म्। हा꣢ऽ३४५वोऽ६"हा꣥इ॥