अथ प्रथम प्रपाठके प्रथमोऽर्द्धः
[[अथ प्रथम खण्डः]]
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अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये। नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥ 01:0001 ॥
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([सायणो ऽत्र। भरद्वाजः। गायत्री। अग्निः।])
अग्न आ या॑हि वी॒तये (=हविर्भक्षणाय)
गृणा॒नो (=स्तूयमानः) ह॒व्यदा॑तये (देवेभ्यः) ।
नि होता॑ सत्सि ब॒र्हिषि॑ ।।
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पदपाठः
अ꣡ग्ने꣢꣯। आ। या꣣हि। वीत꣡ये꣢। गृ꣣णानः꣢। ह꣣व्य꣡दा꣢तये। ह꣣व्य꣢। दा꣣तये। नि꣢। हो꣡ता꣢꣯। स꣣त्सि। बर्हि꣡षि꣢। १।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध की प्रथम दशति तथा प्रथम अध्याय का प्रथम खण्ड आरम्भ करते हैं। प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा, विद्वान्, राजा आदि का आह्वान करते हुए कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) सर्वाग्रणी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! आप (गृणानः) कर्तव्यों का उपदेश करते हुए (वीतये) हमारी प्रगति के लिए, हमारे विचारों और कर्मों में व्याप्त होने के लिए, हमारे हृदयों में सद्गुणों को उत्पन्न करने के लिए, हमसे स्नेह करने के लिए, हमारे अन्दर उत्पन्न काम-क्रोध आदि को बाहर फेंकने के लिए और (हव्य-दातये) देय पदार्थ श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ धन आदि के दान के लिए (आ याहि) आइए। (होता) शक्ति आदि के दाता एवं दुर्बलता आदि के हर्ता होकर (बर्हिषि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (नि सत्सि) बैठिए ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। विद्वान् भी अग्नि कहलाता है। इसमें विद्वान् अग्नि है, जो ऋत का संग्रहीता और सत्यमय होता है।’ ऋ० १।१४५।५।, विद्वान् अग्नि है, जो बल प्रदान करता है। ऋ० ३।२५।२ इत्यादि मन्त्र प्रमाण हैं। हे (अग्ने) विद्वन् ! (गृणानः) यज्ञविधि और यज्ञ के लाभों का उपदेश करते हुए आप (वीतये) यज्ञ को प्रगति देने के लिए, और (हव्य-दातये) हवियों को यज्ञाग्नि में देने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) होम के निष्पादक होकर (बर्हिषि) कुशा से बने यज्ञासन पर (नि सत्सि) बैठिए। इस प्रकार हम यजमानों के यज्ञ को निरुपद्रव रूप से संचालित कीजिए। ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। राजा भी अग्नि कहलाता है। इसमें हे नायक ! तुम प्रजापालक, उत्तम दानी को प्रजाएँ राष्ट्रगृह में राजा रूप में अलंकृत करती हैं। ऋ० २।१।८, राजा अग्नि है, जो राष्ट्ररूप गृह का अधिपति और राष्ट्रयज्ञ का ऋत्विज् होता है। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादि प्रमाण है। हे (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! आप (गृणानः) राजनियमों को घोषित करते हुए (वीतये) राष्ट्र को प्रगति देने के लिए, अपने प्रभाव से प्रजाओं में व्याप्त होने के लिए, प्रजाओं में राष्ट्र-भावना और विद्या, न्याय आदि को उत्पन्न करने के लिए तथा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को परास्त करने के लिए, और (हव्य-दातये) राष्ट्रहित के लिए देह, मन, राजकोष आदि सर्वस्व को हवि बनाकर उसका उत्सर्ग करने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) राष्ट्रयज्ञ के निष्पादक होकर (बर्हिषि) राज-सिंहासन पर या राजसभा में (नि सत्सि) बैठिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तये, तये में छेकानुप्रास है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे विद्वान् पुरोहित यज्ञासन पर बैठकर यज्ञ को संचालित करता है, जैसे राजा राजसभा में बैठकर राष्ट्र की उन्नति करता है, वैसे ही परमात्मा रूप अग्नि हमारे हृदयान्तरिक्ष में स्थित होकर हमारा महान् कल्याण कर सकता है, इसलिए सबको उसका आह्वान करना चाहिए। सब लोगों के हृदय में परमात्मा पहले से ही विराजमान है, तो भी लोग क्योंकि उसे भूले रहते हैं, इस कारण वह उनके हृदयों में न होने के बराबर है। इसलिए उसे पुनः बुलाया जा रहा है। आशय यह है कि सब लोग अपने हृदय में उसकी सत्ता का अनुभव करें और उससे सत्कर्म करने की प्रेरणा ग्रहण करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्राद्ये मन्त्रेऽग्निनाम्ना परमात्मविद्वन्नृपादीनाह्वयन्नाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - तत्र प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अग्ने) सर्वाग्रणीः, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (गृणानः) कर्तव्यानि उपदिशन् त्वम्। गॄ शब्दे, शानच्, व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वीतये) अस्माकं प्रगतये, अस्माकं विचारेषु कर्मसु च व्याप्तये, हृदयेषु सद्गुणानां प्रजननाय, अस्मासु स्नेहितुम्, कामक्रोधादीनां च बहिःप्रक्षेपणाय। वी गति-व्याप्ति-प्रजन-कान्ति-असन-खादनेषु इत्यस्मात् मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः’ अ० ३।३।९६ अनेन क्तिन् प्रत्ययः, उदात्तत्वं च। (हव्यदातये)३ होतुं दातुं योग्यं द्रव्यं हव्यं सद्बुद्धि-सत्कर्मसद्धर्म-सद्धनादिकं तस्य दातये दानाय च। हवं दानम् अर्हतीति हव्यम्। छन्दसि च अ० ५।१।६७ इत्यर्हेऽर्थे यः प्रत्ययः। प्रत्ययस्वरेण अन्दोदात्तत्वम्। तस्य दातिः दानम्। दासीभारादित्वात्, अ० ६।२।४२ सूत्रेण पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (आ याहि) आगच्छ। (होता) शक्त्यादिप्रदाता दौर्बल्यादिहर्ता च सन्। हु दानादनयोः आदाने च इति धातोः कर्तरि तृन्। (बर्हिषि) हृदयान्तरिक्षे। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। (नि सत्सि) निषीद। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु इति धातोर्लेट्। बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि सीदादेशाभावः। नि होता सत्सि इति धातूपसर्गयोर्व्यवहितप्रयोगः व्यवहिताश्च अ० १।४।८२ इति नियमेन छान्दसो बोध्यः ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः४। विद्वानप्यग्निरुच्यते, अ॒ग्निर्विद्वाँ॒ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः ऋ० १।१४५।५, अ॒ग्निः स॑नोति वी॒र्याणि वि॒द्वान्। ऋ० ३।२५।२ इत्यादिमन्त्रप्रामाण्यात्। हे (अग्ने) विद्वन्! (गृणानः) यज्ञविधिं यज्ञलाभांश्चोपदिशन् त्वम् (वीतये) यज्ञस्य प्रगतये (हव्यदातये) हविषां यज्ञाग्नौ दानाय च (आ याहि) आगच्छ। (होता) होमनिष्पादकः सन् (बर्हिषि) दर्भासने (नि सत्सि) निषीद। एवं यजमानानामस्माकं यज्ञं निरुपद्रवं सञ्चालयेत्यर्थः ॥ अथ तृतीयः—राजपरः। राजाप्यग्निरुच्यते, त्वाम॑ग्ने॒ दम॒ आ वि॒श्पतिं विश॒स्त्वां राजा॑नं सुवि॒दत्र॑मृञ्जते ऋ० २।१।८, अ॒ग्निर्होता॑ गृहप॑तिः॒ स राजा॒। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादिप्रामाण्यात्। हे (अग्ने) अग्रणी राजन् ! त्वम् (गृणानः) राजनियमान् शब्दयन् घोषयन्, (वीतये) राष्ट्रस्य प्रगतये, स्वप्रभावेन प्रजासु व्याप्तये, प्रजासु राष्ट्रियभावनाया विद्यान्यायादीनां च प्रजननाय, आभ्यन्तराणां बाह्यानां च शत्रूणां निरसनाय वा, (हव्यदातये) राष्ट्रहितार्थं देहं मनो राजकोषादिकं वा सर्वं किञ्चिद् हव्यं कृत्वा तस्य दातये उत्सर्जनाय च (आ याहि) आगच्छ। (होता) राष्ट्रयज्ञस्य निष्पादकः सन् (बर्हिषि) राज्यासने राजसभायां वा (नि सत्सि) निषीद ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। तये, तये इति छेकानुप्रासः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा विद्वान् पुरोहितो यज्ञासने स्थित्वा यज्ञं संचालयति, यथा राजा राजसभायां स्थित्वा राष्ट्रमुन्नयति, तथैव परमात्माग्निरस्माकं हृदयान्तरिक्षे स्थित्वास्माकं महत् कल्याणं कर्तुं शक्नोतीत्यसौ सर्वैराह्वातव्यः। सर्वेषां जनानां हृदये पूर्वमेव विराजमानोऽपि परमात्मा जनैर्विस्मृतत्वादविद्यमानकल्प इति पुनरप्याहूयते। सर्वे जनाः स्वहृदि तस्य सत्तामनुभवेयुः, ततः सत्कर्मसु प्रेरणां च गृह्णीयुरित्याशयः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।१६।१०; साम० ६६०। २. अग्रे प्रतिमन्त्रम् अन्वित शब्दमनुल्लिख्य केवलं पदार्थः इत्येव लेखिष्यते। ३. यद्वा, (हव्यदातये) हव्यानां दातिः दानं यस्य स हव्यदातिः यजमानः इति बहुब्रीहिः तस्मै (गृणानः) उपदिशन् त्वम् तस्य (वीतये) प्रगतये आयाहि इति योजना कार्या। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। यजमानो वै हव्यदातिः। श० १।४।१।२४। ४. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये (ऋ० ६।१६।१०) मन्त्रोऽयं विद्वत्पर एव व्याख्यातः—(अग्ने) विद्वन् ! (आ याहि) आगच्छ (वीतये) विद्यादिशुभगुणव्याप्तये (गृणानः) स्तुवन् (हव्यदातये) दातव्यदानाय (नि) (होता) दाता (सत्सि) समवैषि (बर्हिषि) उत्तमायां सभायाम् इत्यादि।
01_0001 अग्न आ - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१-१। पर्कः॥ गोतमो गायत्र्यग्निः॥
ओ꣤ग्नाइ॥ आ꣢꣯या꣯हीऽ३वो꣡इतोयाऽ᳒२᳒इ। तो꣡याऽ᳒२᳒इ। गृ꣡णा꣯नो꣢꣯ह। व्यदा꣡तोयाऽ᳒२᳒इ। तो꣡याऽ᳒२᳒इ॥ ना꣡इहो꣢꣯ता꣡साऽ२३॥ त्सा꣡ऽ२᳐इबा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ही꣣ऽ२३४षी꣥॥
01_0001 अग्न आ - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१-२। बर्हिष्यम्॥ कश्यपो गायत्र्यग्निः॥
अ꣤ग्न꣥आ꣤꣯या꣥꣯हिवी꣤॥ त꣡याइ। गृणा꣯नो꣯हव्यदा꣯ताऽ२३या꣢इ। नि꣡हो꣯ता꣯ सत्सि꣢ ब꣡र्हाऽ२३इषी꣢॥ ब꣡र्हाऽ२᳐इषा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ ब꣢र्ही᳐ऽ३षी꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
01_0001 अग्न आ - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१-३। पर्कः॥ गोतमो गायत्र्यग्निः॥
अ꣤ग्न꣥आ꣤꣯या꣥꣯हि। वा꣤ऽ५इतया꣤इ॥ गृ꣡णा꣯नो꣯हव्यदा꣢ऽ१ता꣢ऽ३ये꣢॥ निहो᳐ता꣣ऽ२३४सा꣥॥ त्सा꣡ऽ२३इबा꣢ऽ३। हा꣡ऽ२३४इषो꣥ऽ६हा꣥इ॥
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त्व꣡म꣢ग्ने य꣣ज्ञा꣢ना꣣ꣳ हो꣢ता꣣ वि꣡ श्वे꣢षाꣳ हि꣣तः꣢। दे꣣वे꣢भि꣣र्मा꣡नु꣢षे꣣ ज꣡ने꣢ ॥ 02:0002 ॥
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त्वम॑ग्ने य॒ज्ञानां॒ होता॒ विश्वे॑षां हि॒तः ।
दे॒वेभि॒र्मानु॑षे॒ जने॑ ॥
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पदपाठः
त्व꣢म्। अ꣣ग्ने। यज्ञा꣡ना꣢म्। हो꣡ता꣢꣯। वि꣡श्वे꣢꣯षाम्। हि꣣तः꣢। दे꣣वे꣡भिः꣢। मा꣡नु꣢꣯षे। ज꣡ने꣢꣯। २।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
वह परमात्मा ही सब यज्ञों का निष्पादक है, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) आप (विश्वेषाम्) सब (यज्ञानाम्) उपासकों से किये जानेवाले ध्यानरूप यज्ञों के (होता) निष्पादक ऋत्विज् हो, अतः (देवेभिः) विद्वानों के द्वारा (मानुषे) मनुष्यों के (जने) लोक में (हितः) स्थापित अर्थात् प्रचारित किये जाते हो ॥२॥ इस मन्त्र की श्लेष द्वारा सूर्य-पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए। तब परमात्मा सूर्य के समान है, यह उपमा ध्वनित होगी ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सूर्य सौर-लोक में सब अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, दक्षिणायन, उत्तरायण, वर्ष आदि यज्ञों का निष्पादक है, वैसे ही परमात्मा अध्यात्ममार्ग का अवलम्बन करनेवाले जनों से किये जाते हुए सब आन्तरिक यज्ञों को निष्पन्न करके उन योगी जनों को कृतार्थ करता है और जैसे सूर्य अपनी प्रकाशक किरणों से मनुष्य-लोक में अर्थात् पृथिवी पर निहित होता है, वैसे ही परमात्मा विद्वानों से मनुष्य-लोक में प्रचारित किया जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
स परमात्मैव सर्वेषां यज्ञानां होतास्तीत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परमात्मन् ! त्वम् अतिशयमहिमान्वितः भवान् (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (यज्ञानाम्) उपासकैः क्रियमाणानां ध्यानयज्ञानाम् (होता) निष्पादकः ऋत्विग् असि, अतः (देवेभिः) देवैः, विद्वद्भिः। विद्वांसो हि देवाः। श० ३।७।३।१०। अत्र बहुलं छन्दसि अ० ७।१।१० इति भिस ऐस्भावो न। (मानुषे) मनुष्यसम्बन्धिनि (जने) लोके (हितः) स्थापितः प्रचारितो भवसि। अत्र धा धातोर्निष्ठायां दधातेर्हिः अ० ७।४।४२ इति हिभावः। मन्त्रोऽयं श्लेषेण सूर्यपक्षेऽपि योजनीयः। तथा च परमात्मा सूर्य इवेत्युपमाध्वनिः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सूर्यः सौरलोके सर्वेषाम् अहोरात्र-पक्ष-मास-ऋत्वयन-संवत्सरादियज्ञानां निष्पादको वर्तते, तथैव परमात्माऽध्यात्ममार्गालम्बिभिर्जनैरनुष्ठीयमानान् सर्वानन्तर्यज्ञान् निष्पाद्य तान् योगिनो जनान् कृतार्थयति। यथा च सूर्यो देवैः प्रकाशकैः स्वकीयैः किरणैर्मानुषे लोके पृथिव्यां निहितो जायते, तथैव परमात्मा देवैर्विद्वद्भिर्मनुष्यलोके प्रचार्यते ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।१६।१। सा० १४४७। ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं जगदीश्वरपक्षे व्याख्यातवान्।
02_0002 त्वमग्ने यज्ञानाम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२-१। सौपर्णम्, सुपर्णोः वैश्वमनसम्॥ विश्वमनाः गायत्र्यग्निः॥
त्व꣤म꣥ग्ने꣯यज्ञा꣤꣯ना꣥꣯म्। त्व꣤म꣥ग्ना꣤इ॥ य꣢ज्ञा꣡꣯नाꣳ꣯हो꣯ता꣯। विश्वे꣯षाꣳ꣯हाऽ२३इताः꣢॥ दे꣯वै꣡꣯भाऽ२३इर्मा꣢। नु꣣षे꣯ज꣢ना꣡। औ꣢ऽ३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
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अ꣣ग्निं꣢ दू꣣तं꣡ वृ꣢णीमहे꣣ हो꣡ता꣢रं वि꣣श्व꣡वे꣢दसम्। अ꣣स्य꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सु꣣क्र꣡तु꣢म् ॥ 03:0003 ॥
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अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम् ।
अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥
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पदपाठः
अ꣣ग्नि꣢म्। दू꣣त꣢म्। वृ꣣णीमहे। हो꣡ता꣢꣯रम्। वि꣣श्व꣡वे꣢दसम्। वि꣣श्व꣢। वे꣣दसम्। अस्य꣢। य꣣ज्ञ꣡स्य꣢। सु꣣क्र꣡तु꣢म्। सु꣣। क्र꣡तु꣢꣯म्। ३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
वह परमेश्वर हमारे द्वारा दूतरूप में वरण करने योग्य है, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हम (होतारम्) दिव्य गुणों का आह्वान करनेवाले, (विश्ववेदसम्) विश्व के ज्ञाता, विश्व-भर में विद्यमान तथा सब आध्यात्मिक एवं भौतिक धन के स्रोत, (अस्य) इस अनुष्ठान किये जा रहे (यज्ञस्य) अध्यात्म-यज्ञ के (सुक्रतुम्) सुकर्ता, सुसंचालक ऋत्विग्रूप (अग्निम्) परमात्मा को (दूतं वृणीमहे) दिव्य गुणों के अवतरण में दूतरूप से वरते हैं ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे दूतरूप में वरा हुआ कोई जन हमारे सन्देश को प्रियजन के समीप ले जाकर और प्रियजन के सन्देश को हमारे पास पहुँचाकर उसके साथ हमारा मिलन करा देता है, वैसे ही सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, न्याय, विद्या, श्रद्धा, सुमति इत्यादि दिव्य गुणों के और हमारे बीच में दूत बनकर परमात्मा हमारे पास दिव्य गुणों को बुलाकर लाता है, इसलिए सब उपासकों को उसे दूतरूप में वरण करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
स परमात्माऽस्माभिर्दूतत्वेन वरणीय इत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - वयम् (होतारम्) दिव्यगुणानाम् आह्वातारम्। होतारं ह्वातारम् इति निरुक्तम् ७।१५। अत्र ह्वेञ् धातोस्तृन्, बहुलं छन्दसि अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणम्। (विश्ववेदसम्) विश्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः सर्वज्ञः, यद्वा विश्वस्मिन् विद्यते यः स विश्ववेदाः सर्वव्यापकः, यद्वा विश्वं वेदः आध्यात्मिकं भौतिकं च धनं यस्मात् स विश्ववेदाः, तम्। विद जाने। विद सत्तायाम्। वेद इति धननाम। निघं० २।१०। किञ्च, (अस्य) एतस्य अनुष्ठीयमानस्य (यज्ञस्य) अध्यात्मयागस्य (सुक्रतुम्) सुकर्माणं, सुसञ्चालकम् ऋत्विग्रूपम्। क्रतुरिति कर्मनाम। निघं० २।१। अत्र सोरुत्तरः क्रतुशब्दः क्रत्वादयश्च अ० ६।२।११८ इत्याद्युदात्तः। (अग्निम्) परमात्मानम् (दूतं वृणीमहे) दिव्यगुणावतारे दूतत्वेन स्वीकुर्मः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा हि दूतत्वेन वृतः कश्चिज्जनोऽस्माकं सन्देशं प्रियजनसमीपं नीत्वा, प्रियजनस्य च सन्देशमस्मान् प्रति प्रापय्य तेनास्माकं समागमं कारयति, तथैव सत्याहिंसास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहन्यायविद्याश्रद्धासुमतीत्यादि-दिव्यगुणगणानामस्माकं च मध्ये दौत्यं विधाय परमात्माऽस्मान् प्रति दिव्यगुणानाह्वयतीत्यसौ सर्वैरेवोपासकैर्दूतत्वेन वरणीयः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१२।१। साम० ७९०। अथर्व० २०।१०१।१
03_0003 अग्निं दूतम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
३-१। बृहद्भारद्वाजम्॥ (बृहदाग्नेयं, बृहद्वासौरम्)। भरद्वाजो गायत्र्यग्निः॥
अ꣥ग्निन्दू꣯ताम्॥ वृ꣢णी꣡꣯महाइ। हो꣯ता꣯रांऽ२३वी꣢। श्ववे꣡꣯दसाम्॥ अस्ययाऽ२३ज्ञा꣢। आ꣡। औ꣢ऽ३हो꣯वा꣢॥ स्या꣡सुक्र꣢तुम्। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
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अ꣣ग्नि꣢र्वृ꣣त्रा꣡णि꣢ जङ्घनद् द्रविण꣣स्यु꣡र्वि꣢प꣣न्य꣡या꣢। स꣡मि꣢द्धः शु꣣क्र꣡ आहु꣢꣯तः ॥ 04:0004 ॥
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अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद्द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑ ।
समि॑द्धः शु॒क्र आहु॑तः ॥
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पदपाठः
अ꣣ग्निः꣢। वृ꣣त्रा꣡णि꣢। ज꣣ङ्घनत्। द्रविणस्युः꣢। वि꣣पन्य꣡या꣢। स꣡मि꣢꣯द्धः। सम्। इ꣣द्धः। शुक्रः꣢। आ꣡हु꣢꣯तः। आ। हु꣣तः। ४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
वरण किया हुआ परमात्मा पापों को सर्वथा नष्ट कर दे, यह प्रार्थना करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (द्रविणस्युः) उपासकों को आध्यात्मिक धन और बल देने का अभिलाषी (अग्निः) तेजोमय परमात्मा (विपन्यया) विशेष स्तुति से (समिद्धः) संदीप्त, (शुक्रः) प्रज्वलित और (आहुतः) उपासकों की आत्माहुति से परिपूजित होकर (वृत्राणि) अध्यात्म-प्रकाश के आच्छादक पापों को (जङ्घनत्) अतिशय पुनः-पुनः नष्ट कर दे ॥४॥ श्लेष से यज्ञाग्नि-पक्ष में भी इस मन्त्र की अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - याज्ञिक जनों द्वारा हवियों से आहुत प्रदीप्त यज्ञाग्नि जैसे रोग आदिकों को निःशेषरूप से विनष्ट कर देता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि योगाभ्यासी जनों के द्वारा हार्दिक स्तुति से बार-बार संदीप्त तथा प्राण, इन्द्रिय, आत्मा, मन, बुद्धि आदि की हवियों से आहुत होकर उनके पाप-विचारों को सर्वथा निर्मूल कर देता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
वृतः परमात्मा पापानि भृशं हन्यादिति प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (द्रविणस्युः) उपासकानां द्रविणः आध्यात्मिकं धनं बलं वा कामयमानः। द्रविणम् इति धननामसु बलनामसु च पठितम्। निघं० २।१०, २।९। एष शब्दः सकारान्तोऽपि वेदे प्रयुज्यते, यथा द्रविणोदाः इत्यत्र। द्रविणः परेषां कामयते इति द्रविणस्युः। छन्दसि परेच्छायामिति वक्तव्यम्। अ० ३।१।८ वा० इति परेच्छायां क्यच्। ‘क्याच्छन्दसि अ० ३।२।१७० इत्युप्रत्ययः। दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। अ० ७।४।३६ इति सकारस्य रुत्वाभावो निपात्यते।३ (अग्निः) तेजोमयः परमात्मा (विपन्यया) विशेषस्तुत्या। पनतिरर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। पण व्यवहारे स्तुतौ च। (समिद्धः) संदीप्तः, शुक्रः ज्वलितः। शोचतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। (आहुतः) उपासकानाम् आत्माहुत्या परिपूजितः सन् (वृत्राणि) अध्यात्मप्रकाशाच्छादकानि पापानि। पाप्मा वै वृत्रः। श० ११।१।५।७। (जङ्घनत्) भृशं पुनः पुनर्हन्यात्। यङ्लुगन्ताद् हन्तेः लिङर्थे लेट् ॥४॥ श्लेषेण मन्त्रोऽयं यज्ञाग्निपक्षेऽपि योजनीयः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - याज्ञिकैर्जनैर्हविर्भिराहुतः समिद्धो यज्ञाग्निर्यथा रोगादीन् नितरां विनाशयति तथा परमात्माग्निर्योगाभ्यासिभिर्जनैर्हार्दिकस्तुत्या हृदये भूयो भूयः संदीपितः प्राणेन्द्रियात्ममनोबुद्ध्यादिहविर्भिराहुतः संस्तेषां पापविचारान् सर्वथा निर्मूलयति ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋग्वेदेऽयं मन्त्रो दयानन्दर्षिणा कलायन्त्राणां प्रेरणहेतुर्यानेषु वेगादिक्रियानिमित्तं यो भौतिकोऽग्निस्तत्पक्षे व्याख्यातः। २. ऋ० ६।१६।३४। य० ३३।९। साम० १३९६। दयानन्दर्षिणा अग्नि शब्दाद् ऋग्वेदे विद्युद्रूपोऽग्निः, यजुर्वेदे च सूर्यादिरूपोऽग्निर्गृहीतः। ३. द्रविणशब्दस्य, द्रविणस्भावो निपात्यते इति काशिकावृत्तिः। सायणोऽप्यत्र क्यचि सुगागम इत्याह। द्रविणं धनं, स्यु प्रत्ययो मतुबर्थे, द्रविणवानित्यर्थः। अथवा द्रविणं हविर्लक्षणं धनम् तदिच्छुः द्रविणस्युः हविष्काम इत्यर्थः इति विवरणकारः। द्रविणः धनम्, हविर्लक्षणं धनं कामयमानः। ….द्रविणः शब्दः सकारान्तश्च विद्यते इति भरतस्वामी। द्रविणस्युः द्रविणो धनमिच्छति द्रविणस्यति…हविर्लक्षणं धनमिच्छन् इति य० ३३।९ भाष्ये महीधरः। द्रविणस्युः आत्मनो द्रविण इच्छुः’ इति ऋ० ६।१६।३४ भाष्ये दयानन्दः। एवं भरतस्वामिमहीधरदयानन्दाः सकारान्तत्वेनैव व्याचख्युः।
04_0004 अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
४-१। श्रौतर्षाणि त्रीणि श्रौतर्षम्॥ त्रयाणां श्रुतर्षिः गायत्र्यग्निः॥
अ꣥ग्निर्वृत्रा॥ णा꣡ऽ२᳐इजा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। घा꣣ऽ२३४ना꣥त्। द्र꣢विणस्यु꣡र्विप꣢न्य꣡या꣰꣯ऽ२। ओ꣡इसमिद्धाऽ२३श्शू꣢॥ क्रा꣡या꣯हु꣢तः। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
04_0004 अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद् - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
४-२।अ꣣ग्नि꣢रौ꣣꣯हो꣤वाहा꣥इ। वृत्रा꣤णी꣥॥ जा꣡ङ्घा꣢ऽ३ना꣢त्। औ꣡हो꣢ऽ३वा꣢ऽ३। द्र꣡विणा꣣ऽ२३४स्यूः꣥। ओ꣡इवोइप꣪न्ययाऽ᳒२᳒॥ स꣡माये꣢ऽ३᳐। धा꣡ऽ२᳐श्शू꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। क्र꣢या꣡꣯हुता꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
04_0004 अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद् - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
४-३।
ओ꣤ग्नीः꣥॥ वृ꣢त्रा꣡꣯णिजङ्घनात्। औ꣣꣯हौ꣢हो꣣ऽ२३४वा꣥। द्र꣢विणस्यु꣡र्विप꣢न्य꣡या। औ꣣꣯हौ꣢हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ स꣡मिद्ध꣢श्शुक्र꣡या। औ꣣꣯हौ꣢हो꣣ऽ२३४वा꣥॥ हो꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रे꣡ष्ठं꣢ वो꣣ अ꣡ति꣢थिꣳ स्तु꣣षे꣢ मि꣣त्र꣡मि꣢व प्रि꣣य꣢म्। अ꣢ग्ने꣣ र꣢थं꣣ न꣡ वेद्य꣢꣯म् ॥ 05:0005 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रेष्ठं॑ वो॒ अति॑थिं स्तु॒षे मि॒त्रमि॑व प्रि॒यम् ।
अ॒ग्निं रथं॒ न वेद्य॑म् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्रे꣡ष्ठ꣢꣯म्। वः꣣। अ꣡ति꣢꣯थिम्। स्तु꣣षे꣢। मि꣣त्र꣢म्। मि꣣। त्र꣢म्। इ꣣व। प्रिय꣢म्। अ꣡ग्ने꣢꣯। र꣡थ꣢꣯म्। न। वे꣡द्य꣢꣯म्। ५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- उशना काव्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
उस परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) अग्रणी परमात्मन् ! (प्रेष्ठम्) सबसे अधिक प्रिय (अतिथिम्) अतिथिरूप, (मित्रम् इव) मित्र के समान (प्रियम्) प्रिय, (रथं न) रथ के समान, (वेद्यम्) प्राप्तव्य (वः) आपकी, मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥५॥ यहाँ मित्र के समान प्रिय और रथ के समान प्राप्तव्य में उपमालङ्कार है। अग्नि में अतिथित्व के आरोप में रूपक है ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मित्र जैसे सबको प्रिय होता है, वैसे परमात्मा उपासकों को प्रिय है। रथ जैसे गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए प्राप्तव्य होता है, वैसे ही परमात्मा प्रेय-मार्ग और श्रेय-मार्ग के लक्ष्यभूत ऐहिक और पारलौकिक उत्कर्ष को पाने के लिए सबसे प्राप्त करने योग्य तथा स्तुति करने योग्य है। हृदयप्रदेश में विद्यमान परमात्मा साक्षात् घर में आया हुआ सबसे अधिक प्रिय अतिथि ही है, अतः वह अतिथि के समान सत्कार करने योग्य है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तं परमात्मानमहं स्तौमीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) अग्रणीः परमात्मन् ! (प्रेष्ठम्) प्रियतमम्। प्रियशब्दाद् इष्ठनि प्रियस्थिर० अ० ६।४।१५७ इति प्रियस्य प्रादेशः। (अतिथिम्) अभ्यागतरूपम् (मित्रम् इव) सुहृदमिव (प्रियम्) प्रेमास्पदम्, (रथं न) यानमिव। अत्र न इत्युपमार्थीयः। यथाह निरुक्तकारः— उपरिष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते इति। निरु० १।४। (वेद्यम्२) प्राप्यम्। विद्लृ लाभे इति धातोर्ण्यत् प्रत्ययः। (वः३) त्वाम्। अहम् (स्तुषे) स्तौमि। ष्टुञ् स्तुतौ इत्यस्माल्लेटि सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति सिपि उत्तमैकवचने रूपम् ॥५॥ अत्र मित्रमिव प्रियम्, रथं न वेद्यम् इत्युभयत्रोपमालङ्कारः। अग्नौ अतिथित्वारोपाच्च रूपकम् ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सुहृद् यथा सर्वेषां प्रियो भवति, तथोपासकानां परमात्मा प्रियः। किञ्च, रथो यथा गन्तव्यस्थानं गन्तुं लब्धव्यो भवति, तथैव परमात्मा प्रेयोमार्गस्य श्रेयोमार्गस्य च लक्ष्यम् ऐहिकपारलौकिकोत्कर्षम् अधिगन्तुं सर्वैः प्राप्तव्यः स्तोतव्यश्च। अपिच, हृत्प्रदेशे विद्यमानः परमात्मा साक्षाद् गेहं समायातः प्रेष्ठोऽतिथिरेव। अतः सोऽतिथिवत् सत्करणीयः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।८४।१ अग्ने इत्यस्य स्थाने अग्निं इति पाठः। साम० १२४४। २. कीदृशम् अग्निम्? उच्यते। वेद्यं वेदनार्हम्, ज्ञानार्हमित्यर्थः इति विवरणकारः। रथमिव वेद्यं लम्भनीयम् इति भरतस्वामी। वेद्यम्। वेदो धनं, धनहितं लाभहेतुं, यथा धनेन रथं लभते तद्वत् स्तोतारोऽनेन धनं लभन्ते, तादृशधनलाभकारणम् इति सा०। ३. ‘बहुवचनमिदमेकवचनस्य स्थाने द्रष्टव्यम् इति वि०। वः इति वचनव्यत्ययः, त्वामित्यर्थः इति भ०। वः त्वाम्, पूजार्थे बहुवचनम् इति सा०। यद्यपि बहुवचनस्य वस्नसौ। अ० ८।१।२१ इत्युक्तम्, तथापि छन्दसि एकवचनस्यापि भवतः, बहुत्र तथा प्रयोगदर्शनात्।
05_0005 प्रेष्ठं वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
५-१। औशनम्॥ उशना विराड्गायत्र्यग्निः॥
प्रे꣤꣯ष्ठं꣥वाः꣤॥ अ꣡ताऽ२३इथी꣢म्। स्तौ꣡षे꣯मि꣢त्रम्। इव꣡प्राऽ२३या꣢म्॥ अ꣡ग्नाइरा꣢ऽ३था꣢ऽ३म्॥ ना꣡वाऽ२३हा꣢ऽ३४३इ॥ दा꣡ऽ२३४यो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
05_0005 प्रेष्ठं वो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
५-२। शैरीषम्॥ शिरीषो उशना गायत्र्यग्निः॥
प्रे꣤꣯ष्ठं꣥वः। ओ꣤हाइ॥ अ꣡ताऽ२३इथी꣢म्। स्तुषाइमित्रा᳐ऽ३म्। इ꣡वाऽ२᳐प्रा꣣ऽ२३४या꣥म्॥ औ꣢꣯होऽ१इ। अग्ने꣢꣯रा꣡थाऽ२३म्॥ ना꣡ऽ२३वे꣤ऽ३। दा꣢ऽ३४५योऽ६"हा꣥इ॥
05_0005 प्रेष्ठं वो - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
५-३। औशनम्॥ उशना विराड्गायत्र्यग्निः॥
प्रे꣥꣯ष्ठंवो꣯हाउ॥ अ꣡तिथाइम्। स्तुषे꣯मित्रमिवप्राऽ२३या꣢म्॥ अ꣡ग्नाये꣢ऽ३। रा꣡ऽ२᳐था꣣ऽ२३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ न꣢वे꣡꣯दिया꣣ऽ२᳐३꣡४꣡५꣡म्॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वं꣡ नो꣢ अग्ने꣣ म꣡हो꣢भिः पा꣣हि꣢ विश्व꣢꣯स्या꣣ अ꣡रा꣢तेः। उ꣣त꣢ द्वि꣣षो꣡ मर्त्य꣢꣯स्य ॥ 06:0006 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वं नो॑ अग्ने॒ महो॑भिः पा॒हि विश्व॑स्या॒ अरा॑तेः ।
उ॒त द्वि॒षो मर्त्य॑स्य ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
त्व꣢म्। नः꣢। अग्ने। म꣡हो꣢꣯भिः। पा꣣हि꣢। वि꣡श्व꣢꣯स्य। अ꣡रा꣢꣯तेः। अ। रा꣣तेः। उत꣢। द्वि꣣षः꣢। म꣡र्त्य꣢꣯स्य। ६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- सुदीतिपुरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
परमात्मा हमारी किससे रक्षा करे, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) सबके नायक तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (महोभिः) अपने तेजों से (विश्वस्याः) सब (अ-रातेः) अदान-भावना और शत्रुता से, (उत) और (मर्त्यस्य) मनुष्य के (द्विषः) द्वेष से (नः) हमारी (पाहि) रक्षा कीजिए ॥६॥ इस मन्त्र की श्लेष द्वारा राजा तथा विद्वान् के पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अदानवृत्ति से ग्रस्त मनुष्य अपने पेट की ही पूर्ति करनेवाला होकर सदा स्वार्थ ही के लिए यत्न करता है। उससे कभी सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। दान और परोपकार की तथा मैत्री की भावना से ही पारस्परिक सहयोग द्वारा लक्ष्यपूर्ति हो सकती है। अतः हे जगदीश्वर, हे राजन् और हे विद्वन् ! आप अपने तेजों से, अपने क्षत्रियत्व के प्रतापों से और अपने विद्याप्रतापों से सम्पूर्ण अदान-भावना तथा शत्रुता से हमारी रक्षा कीजिए। और जो मनुष्य हमसे द्वेष करता है तथा द्वेषबुद्धि से हमारी प्रगति में विघ्न उत्पन्न करता है, उसके द्वेष से भी हमारी रक्षा कीजिए, जिससे सूत्र में मणियों के समान परस्पर सांमनस्य में पिरोये रहते हुए हम उन्नत होवें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
परमात्माऽस्मान् कस्माद् रक्षेदित्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) सर्वनायक तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (महोभिः) त्वदीयतेजोभिः (विश्वस्याः) सर्वस्याः (अ-रातेः२) न रातिः अरातिः अदानभावना शत्रुता वा तस्याः। रा दाने, भावे क्तिन्। नञ्तत्पुरुषेऽव्ययस्वरेणाद्युदात्तत्वम्। शत्रुवाचकोऽरातिशब्दः पुंसि, अदानभावनावाचकः शत्रुतावाचको वा स्त्रियामिति बोध्यम्। (उत) अपि च (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (द्विषः) द्वेषात्। द्विष अप्रीतौ इति धातोर्भावे क्विप्। (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष ॥६॥ मन्त्रोऽयं श्लेषेण राजपक्षे विद्वत्पक्षे चापि योजनीयः ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अदानवृत्तिग्रस्तो हि मानवः स्वोदरंभरिः सन् सर्वदा स्वार्थायैव यतते। तेन न कदापि सामाजिक्याध्यात्मिकी चोन्नतिः संभवति। दानपरोपकारयोर्मैत्र्याश्च भावनयैव पारस्परिकसहयोगेन लक्ष्यपूर्तिर्भवितुमर्हति। अतो हे जगदीश्वर राजन् विद्वन् वा ! त्वं नः स्वतेजोभिः, स्वकीयक्षत्रप्रतापैः, स्वविद्याप्रतापैर्वा सर्वस्या अदानवृत्तेः शत्रुतायाश्च पाहि। किञ्च, यो मर्त्योऽस्मान् द्वेष्टि द्वेषबुद्ध्या चास्मदीयप्रगतौ विघ्नमुत्पादयति, तस्य द्वेषादप्यस्मान् रक्ष, येन सूत्रे मणिगणा इव परस्परं सामनस्ये प्रोता वयमुन्नता भवेम ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।७१।१। २. अरातिः शत्रुः। स्त्रीलिङ्गनिर्देशो जात्यपेक्षः। सर्वस्याः शत्रुजातेः सकाशाद् इति वि०। अरातेः सपत्नात्। अरातिशब्दः छन्दसि स्त्रीलिङ्गः। अर्तेररातिः, अभिहन्ता इति भ०। विश्वस्याः बहुविधाद् अरातेः अदातुः सकाशात् अदानाद् वा इति सा०।
06_0006 त्वं नो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
६-१। सांवर्गम्॥ (संवर्गः) साकमश्वः गायत्र्यग्निः॥त्व꣥न्नो꣯या॥ ग्ने꣢꣯म꣡हो꣢꣯भिः। पा꣡꣯होइवी꣢ऽ३श्वा꣢। स्या꣡꣯अरा꣯तेः꣢꣯॥ उ꣡ताद्वा꣢ऽ१इषाऽ᳒२ः᳒॥ म꣡र्त्य꣢स्य। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
06_0006 त्वं नो - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
६-२। वार्त्रघ्नम्॥ साकमश्वः गायत्र्यग्निः॥
त्वां꣤꣯त्वन्नो꣥꣯अग्ने꣯म꣤। हो꣥ऽ६भा꣥इः॥ पा꣢꣯हि꣡विश्वाऔ꣢ऽ३हो꣢। स्या꣡औ꣢ऽ३हो꣢। आ꣡रातेः꣢। उ꣡ताद्वा꣢ऽ१इषाऽ᳒२ः᳒। म꣡र्ताऽ२᳐या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ स्या꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए꣢ह्यू꣣ षु꣡ ब्रवा꣢꣯णि꣣ ते꣡ऽग्न꣢ इ꣣त्थे꣡त꣢रा꣣ गि꣡रः꣢। ए꣣भि꣡र्व꣢र्धास꣣ इ꣡न्दु꣢भिः ॥ 07:0007 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
एह्यू॒ षु ब्रवा॑णि॒ तेऽग्न॑ इ॒त्थेत॑रा॒ गिरः॑ ।
ए॒भिर्व॑र्धास॒ इन्दु॑भिः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। इ꣣हि। उ। सु꣢। ब्र꣡वा꣢꣯णि। ते꣣। अ꣡ग्ने꣢꣯। इ꣣त्था꣢। इ꣡त꣢꣯राः। गि꣡रः꣢꣯। ए꣣भिः꣢। व꣣र्धासे। इ꣡न्दु꣢꣯भिः। ७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
उस परमात्मा की मैं वेदवाणियों से स्तुति करता हूँ, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परमात्मन् ! आप (आ इहि उ) मेरे हृदय-प्रदेश में आइये। मैं (ते) आपके लिए (इत्था) सत्य भाव से (इतराः) सामान्य-विलक्षण (गिरः) वेदवाणियों को (सु) सम्यक् प्रकार से, पूर्ण मनोयोग से (ब्रवाणि) बोलूँ, अर्थात् वेदवाणियों से आपकी स्तुति करूँ। आप (एभिः) इन मेरे द्वारा समर्पित किये जाते हुए (इन्दुभिः) भावपूर्ण भक्तिरस-रूप सोमरसों से (बर्धासे) वृद्धि को प्राप्त करें। जैसे चन्द्र-किरणों से समुद्र और वनस्पति बढ़ते हैं, यह ध्वनित होता है, क्योंकि इन्दु चन्द्र-किरणों का भी वाचक होता है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यकृत वाणियाँ सामान्य होती हैं, पर वेदवाणियाँ परमेश्वरकृत होने के कारण उनसे विलक्षण हैं। उनमें प्रत्येक पद साभिप्राय तथा विविध अर्थों का प्रकाशक है। उपासक लोग यदि उन वाणियों से परमात्मा को भजें और उसके प्रति अपने भक्तिरस-रूप सोमरसों को प्रवाहित करें, तो वह चन्द्र-किरणों से जैसे समुद्र, वनस्पति आदि बढ़ते हैं, वैसे उन भक्तिरसों से तृप्त होकर उन उपासकों के हृदय में अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त करके उन्हें कृतकृत्य कर दे ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तं परमात्मानमहं वेदवाग्भिः स्तौमीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परमात्मन् ! (आ इहि उ) आ याहि तावन्मदीये हृत्प्रदेशे। संहितायाम् ऊ इत्यत्र इकः सुञि अ० ६।३।१३४ इति दीर्घः। अहम् (ते) तुभ्यम् (इत्था) सत्यभावेन। इत्थेति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (इतराः२) सामान्यविलक्षणाः३ गिरः वेदवाचः सु सम्यक्, पूर्णमनोयोगेनेति भावः। संहितायाम् सुञः अ० ८।३।१०७ इति षत्वम्। (ब्रवाणि) वदानि, वेदवाग्भिस्त्वां स्तवानीत्यर्थः। त्वम् (एभिः) एतैः मया समर्प्यमाणैः (इन्दुभिः) भावभरितैर्भक्तिरसरूपैः सोमैः। इन्दुरिति सोम उच्यते। सोमो वा इन्दुः। श० २।२।३।२३। (बर्धासे) वर्धस्व, आप्यायितो भव। इन्दुशब्दस्य श्लिष्टत्वाद् यथा चन्द्रकिरणैः समुद्रा वनस्पतयश्च वर्धन्ते तथेति ध्वन्यते। वृधु वृद्धौ इति धातोर्लेटि लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्याडागमः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यकृता वाचः सामान्याः, वेदवाचस्तु परमेश्वरकृतत्वात् तद्विलक्षणाः। तासु प्रत्येकं पदं साभिप्रायं विविधार्थप्रकाशकं च। उपासका जनाश्चेत् ताभिर्गीर्भिः परमात्मानं भजेरन् तं प्रति स्वकीयान् भक्तिरससोमांश्च प्रवाहयेयुस्तदाऽसौ चन्द्रकिरणैः समुद्रवनस्पत्यादिरिव तैः सोमरसैस्तृप्तिं नीतस्तेषां हृदये परमां वृद्धिं गतस्तान् कृतकृत्यान् विदध्यात् ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।१६।१६। य० २६।१३। साम० ७०५। दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च विद्वत्पक्षे व्याख्यातः। २. इत्था सत्या इत्यर्थः। इतरा अन्या असत्याः इति वि०। इत्था इति निपातः अमुत्रेत्यर्थे च वर्तते। अत्र तु दूरस्य लक्षणा। दूरे सन्त्विति शेषः। इतरा गिरः शत्रूणां सम्बन्धिन्यः दुष्कृता इत्यर्थः। असूर्या ह वा इतरा गिरः (ऐ० ब्रा० ३।४९) इति ह्यैतरेयकम् इति भ०। इत्था इत्थम् अनेन प्रकारेण सुष्ठु ब्रवाणि इत्याशास्यते। ताः स्तुतीः शृण्वित्यर्थः। उ इत्येताः इतराः असुरैः कृताः स्तुतीः शृण्विति शेषः इति सा०। ३. Other; different, that is, more excellent—Griffith.
07_0007 एह्यू षु - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
७-१। शौनश्शेपम्॥ वत्सः गायत्र्यग्निः॥
ए꣥꣯ह्यू꣯षू꣢ऽ३ब्र꣤वा꣯णा꣥ऽ६इता꣥इ॥ अ꣡ग्नइत्थे꣯तरा꣯गाऽ᳒२᳒इराः꣡॥ ए꣢꣯भाऽ᳒२᳒इर्व꣡र्द्धा॥ स꣡याऽ२३हा꣢ऽ᳐३४३इ॥ दू꣡ऽ२३४भो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
07_0007 एह्यू षु - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
७-२। शौनश्शेपम्॥ शौनश्शेपः गायत्र्यग्निः॥
ए꣥꣯ह्यू꣯षुब्रवौ꣯ हो꣤णाइता꣥इ॥ अ꣡ग्नइत्थे꣯तरा꣢ऽ१गी꣢ऽ३राः꣢॥ एभि᳐र्वा꣣ऽ२३४र्द्धा꣥॥ स꣡याऽ२३हा꣢ऽ᳐३४३इ॥ दू꣡ऽ२३४भो꣥ऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣡ ते꣢ व꣣त्सो꣡ मनो꣢꣯ यमत्पर꣣मा꣡च्चि꣢त्स꣣ध꣡स्था꣢त्। अ꣢ग्ने꣣ त्वां꣡ का꣢मये गि꣣रा꣢ ॥ 08:0008 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ ते॑ व॒त्सो मनो॑ यमत्पर॒माच्चि॑त्स॒धस्था॑त् ।
अग्ने॒ त्वाङ्का॑मया गि॒रा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢। ते꣣। वत्सः꣢। म꣡नः꣢꣯। य꣣मत्। परमा꣢त्। चि꣣त्। सध꣡स्था꣢त्। स꣣ध꣢। स्था꣣त्। अ꣡ग्ने꣢꣯। त्वाम्। का꣣मये। गिरा꣢। ८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
मैं तुझ परमात्मा में अपना प्रेम बाँधता हूँ, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) जगत्पिता परमात्मन् ! (ते) तेरा (वत्सः) प्रिय पुत्र (परमात् चित्) सुदूरस्थ भी (सधस्थात्) प्रदेश से (मनः) अपने मन को (आयमत्) लाकर तुझ में केन्द्रित कर रहा है। अर्थात् मैं तेरा प्रिय पुत्र तुझमें मन को केन्द्रित कर रहा हूँ। मैं (गिरा) स्तुति-वाणी से (त्वाम्) तुझ परमात्मा की (कामये) कामना कर रहा हूँ, अर्थात् तेरे प्रेम में आबद्ध हो रहा हूँ ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जब मनुष्य सांसारिक विषयों की निःसारता को देख लेता है, तब दूर-से-दूर भू-प्रदेशों में भटकते हुए अपने मन को सभी प्रदेशों से लौटा कर परमात्मा में ही संलग्न कर लेता है और वाणी से परमात्मा के ही गुण-धर्मों का बारम्बार स्तवन करता है और उसके प्रेम से परिप्लुत हृदयवाला होकर सम्पूर्ण पृथिवी के भी राज्य को उसके समक्ष तुच्छ गिनता है ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अहं परमात्मनि त्वयि प्रेम बध्नामीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) जगत्पितः परमात्मन् ! (ते) तव (वत्सः२) प्रियः पुत्रोऽयम् (परमात् चित्) सुदूरादपि सधस्थात् प्रदेशात्। सह तिष्ठन्ति जनाः पदार्था वा यत्र स सधस्थः सहस्थानं तस्मात्। सधमादस्थयोश्छन्दसि अ० ६।३।९६ इति सहस्य सधादेशः। (मनः) मानसम् (आ यमत्) आयच्छति, आसमन्तादानीय त्वयि केन्द्रितं करोति। अहं तव वत्सस्त्वयि मनः केन्द्रयामीति भावः। यमद् इति यमु उपरमे धातोर्लेटि रूपम्। बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि धातोर्यच्छादेशो न। ततश्च त्वयि केन्द्रितमानसोऽहम् (गिरा) स्तुतिवाचा (त्वाम्) परमात्मानम् (कामये) अभिलषामि, त्वत्प्रेमबद्धो भवामीति भावः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यदा मानवः सांसारिकविषयाणां निःसारतां पश्यति तदा दूरात् सुदूरेषु भूप्रदेशेषु लोक-लोकान्तरेषु च भ्राम्यत् स्वकीयं मनः सर्वेभ्योऽपि प्रदेशेभ्यः प्रतिनिवर्त्य परमात्मन्येव संलगयति, गिरा च परमात्मन एव गुणधर्मान् मुहुर्मुहुः स्तौति, तत्प्रेमपरिप्लुतहृदयश्च सकलाया धरित्र्या राज्यमपि तत्समक्षं तुच्छं गणयति ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।११।७, कामये इत्यस्य स्थाने कामया इति पाठः। य० १२।११५। साम० ११६६। यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं मनुष्यैः सदैव मनः स्ववशं विधेयं वाणी च इति विषये व्याख्यातवान्। २. ऋचोऽस्या द्रष्टा ऋषिरपि वत्स एव। तत्तु तस्य न वास्तविकं नाम, किन्तु मन्त्रवर्णनसौन्दर्याकृष्टः स स्वकीयम् उपनाम वत्स इति चक्रे। तेनैव नाम्ना स प्रसिद्धिं गत इति बोध्यम्।
08_0008 आ ते - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
८-१। वात्से द्वे॥ वत्सो गायत्र्यग्निः॥
आ꣥꣯ते꣯वत्साः॥ म꣡नो꣯य꣢मत्। प꣡रमा꣢꣯त्। चित्स꣡धाऽ२३स्था꣢त्॥ अ꣡ग्नाइ त्वा꣢᳐ऽ३ङ्का꣢᳐ऽ३॥ म꣤योवा꣥। गा꣤ऽ५इरोऽ६"हा꣥इ॥
08_0008 आ ते - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
८-२। काण्वम्॥ कण्वः गायत्र्यग्निः॥आ꣤꣯ते꣥꣯वत्सो꣤꣯मनो꣥꣯यमत्। ऐ꣤याहा꣥इ॥ प꣢रमा꣡꣯च्चित्सधस्था꣯दै꣯याऽ२३हो꣡इया॥ अग्ने꣯त्वां꣯का꣯मयऐ꣯याऽ२३हो꣡इया॥ गि꣢रा꣯। इ꣡डाऽ२३भा꣢ऽ३४३। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वा꣡म꣢ग्ने꣣ पु꣡ष्क꣢रा꣣द꣡ध्यथ꣢꣯र्वा꣣ नि꣡र꣢मन्थत। मू꣣र्ध्नो꣡ विश्व꣢꣯स्य वा꣣घ꣡तः꣢ ॥ 09:0009 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत ।
मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑ ॥
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पदपाठः
त्वा꣢म्। अ꣣ग्ने। पु꣡ष्क꣢꣯रात्। अ꣡धि꣢꣯। अ꣡थ꣢꣯र्वा। निः। अ꣣मन्थत। मूर्ध्नः꣢। वि꣡श्व꣢꣯स्य। वा꣣घ꣡तः꣢। ९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में योगीजन परमात्मा को मस्तिष्क-पुण्डरीक में प्रकट करते हैं, यह विषय है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) चलायमान न होनेवाला स्थितप्रज्ञ योगी (त्वाम्) आपको (विश्वस्य) सकल ज्ञानों के (वाहकात्) वाहक (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) कमलाकार मस्तिष्क में (निरमन्थत) मथकर प्रकट करता है। परमात्मा रूप अग्नि को मथकर प्रकट करने की प्रक्रिया बताते हुए श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है—अपने आत्मा को निचली अरणी बनाकर और ओंकार को उपरली अरणी बनाकर ध्यान-रूप मन्थन के अभ्यास से छिपे हुए परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करे (श्वेता० २।१४)। कमल के पत्ते (पुष्करपर्ण) के ऊपर अग्नि उत्पन्न हुआ था, यह कथा इसी मन्त्र के आधार पर रच ली गयी है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे अरणियों के मन्थन से यज्ञवेदि-रूप कमलपत्र के ऊपर यज्ञाग्नि उत्पन्न की जाती है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ योगियों को ध्यान-रूप मन्थन से कमलाकार मस्तिष्क में परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करना चाहिए ॥९॥१ विवरणकार माधव ने इस मन्त्र के भाष्य में यह इतिहास लिखा है—सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था, तब मातरिश्वा वायु को आकाश में सूक्ष्म अग्नि दिखाई दी। उसने और अथर्वा ऋषि ने उस अग्नि को मथकर प्रकट किया। उसका किया हुआ मन्त्रार्थ साररूप में इस प्रकार है— (अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा ऋषि ने (त्वाम्) तुझे (मूर्ध्नः) प्रधानभूत (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (विश्वस्य वाघतः) सब ऋत्विज् यजमानों के लिए (निरमन्थत) अतिशरूप से मथकर निकाला। वस्तुतः विवरणकार- प्रदत्त कथानक सृष्ट्युत्पत्ति-प्रक्रिया में अग्नि के जन्म का इतिहास समझना चाहिए। आकाश के बाद वायु और वायु के बाद अग्नि, यह उत्पत्ति का क्रम है। उत्पन्न हो जाने के बाद आकाश में सूक्ष्म रूप से अग्नि भी विद्यमान था, उसे अथर्वा परमेश्वर ने पूर्वोत्पन्न वायु के साहचर्य से मथकर प्रकट किया, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। भरतस्वामी के भाष्य का यह आशय है—अथर्वा ने (मूर्ध्नः) धारक, (विश्वस्य वाघतः) सबके निर्वाहक (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से या कमलपत्र से, अग्नि को मथकर निकाला। सायण का अर्थ है—(अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा नाम के ऋषि ने (मूर्ध्नः) मूर्धा के समान धारक (विश्वस्य) सब जगत् के (वाघतः) वाहक (पुष्करात् अधि) पुष्करपर्ण अर्थात् कमलपत्र के ऊपर (त्वाम्) तुझे (निरमन्थत) अरणियों में से उत्पन्न किया। यहाँ भी पुष्करपर्ण सचमुच का कमलपत्र नहीं है, किन्तु यज्ञवेदि का आकाश है और अथर्वा है स्थिर चित्त से यज्ञ करनेवाला यजमान, जो यज्ञकुण्ड में अरणियों से अग्नि उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य जानना चाहिए। उवट ने य० ११।३२ के भाष्य में जल ही पुष्कर है, प्राण अथर्वा है श० ४।२।२।२ यह शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देकर मन्त्रार्थ किया है—तुझे हे अग्नि, (पुष्करात्) जल में से (अथर्वा) सतत गतिमान् प्राण ने (निरमन्थत) मथकर पैदा किया। यही अर्थ महीधर को भी अभिप्रेत है। यहाँ प्राण से प्राणवान् परमेश्वर या विद्वान् मनुष्य, जल से बादल में स्थित जल और अग्नि से विद्युत् जानने चाहिए। अथवा शरीरस्थ प्राण खाये-पिये हुए रसों से जीवनाग्नि को उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य समझना चाहिए। महीधर ने दूसरा वैकल्पिक अर्थ पुष्करपर्ण (कमलपत्र) के ऊपर अग्नि को मथने परक ही किया है। भाष्यकारों ने तात्पर्य प्रकाशित किये बिना ही कथाएँ लिख दी हैं, जो भ्रम की उत्पत्ति का कारण बनी हैं। वस्तुतः अथर्वा नामक किसी ऋषि का इतिहास इस मन्त्र में नहीं है, क्योंकि वेदमन्त्र ईश्वरप्रोक्त हैं तथा सृष्टि के आदि में प्रादूर्भूत हुए थे और पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों के कार्यकलाप का पूर्ववर्ती वेद में वर्णन नहीं हो सकता ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदभाष्य और यजुर्वेदभाष्य में इस मन्त्र की व्याख्या सूर्य आदि से बिजली ग्रहण करने के पक्ष में की है। यथा, ६।१६।१३ के भाष्य में भावार्थ है—हे विद्वान् जनो ! जैसे पदार्थविद्या के जाननेवाले जन सूर्य आदि के समीप से बिजली को ग्रहण करके कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग भी सिद्ध करो। य० १५।२२ के भाष्य का भावार्थ है— मनुष्यों को चाहिए कि विद्वानों के समान आकाश तथा पृथिवी के सकाश से बिजुली का ग्रहण कर आश्चर्य-रूप कर्मों को सिद्ध करें।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
योगिनः परमात्मानं मूर्धपुण्डरीके प्रकटयन्तीत्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) न थर्वति चलति यः सः, स्थितप्रज्ञो योगीत्यर्थः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः निरु० ११।१९। (त्वाम्) भवन्तम् (विश्वस्य) सकलस्य ज्ञानस्य (वाघतः) वाहकात् वाहके इति यावत्। वह प्रापणे इति णिजन्ताच्छतरि हस्य घत्वं छान्दसम्। (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) पुण्डरीकतुल्ये मस्तिष्के। पुष्करम् अन्तरिक्षं, पोषति भूतानि… इदमपि इतरत् पुष्करमेतस्मादेव, पुष्करं वपुष्कारं वपुष्करं वा। निरु० ५।१३। अधियोगे पञ्चमी। (निरमन्थत) मथित्वा जनयति। उक्तं च श्वेताश्वतरे—“स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत् ॥” श्वेता० २।१४। इति। ‘पुष्करपर्णाश्रयेण हि अग्निरुत्पन्नः’ इत्यस्याः कथाया अयमेव मन्त्रो मूलम्। यथोच्यते—त्वामग्ने पुष्करादधीत्याह पुष्करपर्णे ह्येनमुपश्रितमन्वविन्दत्।’ तै० सं० ५।१।४।४। इति ॥९॥२
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा खल्वरणिमन्थनेन यज्ञवेदिपुण्डरीके यज्ञाग्निरुत्पाद्यते, तथैव स्थिरप्रज्ञैर्योगिभिर्ध्यानरूपेण मन्थनेन मूर्धपुण्डरीके परमात्माग्निः प्रकटीकरणीयः ॥९॥ विवरणकारस्त्वाह—“अत्रेतिहासमाचक्षते। सर्वमिदमन्धं तम आसीत्। अथ मातरिश्वा वायुः आकाशे सूक्ष्ममग्निमपश्यत्। स तममथ्नात् अथर्वा च ऋषिरिति”। एष च तन्मन्त्रभाष्यस्य सारः—हे अग्ने, अथर्वा ऋषिः त्वां मूर्ध्नः प्रधानभूतात्, पुष्करात् अन्तरिक्षात्, विश्वस्य सर्वस्य, वाघतः ऋत्विजो यजमानस्य अर्थाय निरमन्थत नितरां मथितवानिति। वस्तुतस्त्वयं सृष्ट्युत्पत्तिप्रक्रियायाम् अग्नेर्जन्मन इतिहासः। आकाशाद् वायुः, वायोरग्निरित्युत्पत्तिक्रमः। आकाशे सूक्ष्मरूपेणाग्निर्विद्यमान आसीत्। तम् अथर्वा परमेश्वरः पूर्वोत्पन्नो वायुश्च तस्मान्निरमन्थत प्रकटीकृतवानित्यभिप्रायो ग्राह्यः। “मूर्ध्नो धारकात् विश्वस्य वाघतः निर्वाहकात्, पुष्कराद् अन्तरिक्षात्, पुष्करपर्णादित्यपरे” इति भरतस्वामिभाष्याशयः। हे अग्ने, अथर्वा एतत्संज्ञ ऋषिः, मूर्ध्नः मूर्धवद् धारकात्, विश्वस्य सर्वस्य जगतः, वाघतः वाहकात्, पुष्कराद् अधि पुष्करे पुष्करपर्णे त्वां निरमन्थत अरण्योः सकाशादजनयदिति सायणीयोऽभिप्रायः। अत्रापि पुष्करपर्णं न कमलपत्रं, किन्तु यज्ञवेद्या आकाशः, अथर्वा च स्थिरचित्तत्वेन यज्ञं कुर्वाणो यजमानः, असौ अरण्योः सकाशादग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। उवटस्तु य० ११।३२ भाष्ये आपो वै पुष्करं प्राणोऽथर्वा। श० ६।४।२।२। इति शातपथीं श्रुतिं प्रमाणीकृत्य त्वां हे अग्ने, पुष्कराद् उदकात् अधि सकाशात् अथर्वा अतनवान् प्राणो निरमन्थत निर्जनितवान् इति व्याचष्टे। तदेव महीधरस्याभिप्रेतम्। तत्र प्राणः प्राणवान् परमेश्वरो विद्वान् वा, उदकानि पर्जन्यस्थानि, अग्निश्च विद्युदिति विज्ञेयम्। यद्वा, शरीरस्थः प्राणो भुक्तपीतेभ्यो रसेभ्यो जीवनाग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। महीधरेण द्वितीयो वैकल्पिकोऽर्थः पुष्करपर्णेऽग्निमन्थनपर एव कृतः। भाष्यकारैस्तात्पर्यप्रकाशनं विनैव कथा लिखिता याः पाठकानां भ्रमोत्पत्तिनिमित्तं संजाताः। वस्तुतस्तु अथर्वनाम्नः कस्यचिद् ऋषेरितिहासोऽस्मिन् मन्त्रे नास्ति, वेदमन्त्राणामीश्वरप्रोक्तत्वात् सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतत्वात् पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनाम् कार्यकलापस्य पूर्ववर्तिनि वेदेऽसंभवत्वाच्च ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ६।१६।१३। य० १५।२२ (ऋषिः परमेष्ठी)। २. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदभाष्ये यजुर्वेदभाष्ये चायं मन्त्रः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युद्ग्रहणपरो व्याख्यातः। यथा—ऋ० ६।१६।१३ मन्त्रभाष्ये भावार्थः—“हे विद्वांसो, यथा पदार्थविद्याविदो जनाः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युतं गृहीत्वा कार्याणि साध्नुवन्ति तथैव यूयमपि साध्नुत” इति। य० १५।२२ मन्त्रभाष्ये च भावार्थः—“मनुष्यैर्विद्वदनुकरणेनाकाशात् पृथिव्याश्च विद्युतं संगृह्याश्चर्य्याणि कर्माणि साधनीयानि।” इति।
09_0009 त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
९-१। अग्नेरार्षेयम्॥ अग्निः गायत्र्यग्निः॥
त्वा꣥꣯मग्ने꣯पू꣯ष्काऽ६रा꣥꣯दधी॥ आ꣡थ꣢र्वा꣯। ना꣡इः। अ꣪माऽ२᳐न्था꣣ऽ२३४ता꣥॥ मू꣣ऽ२३४र्ध्नो꣥। वा꣣ऽ२३४इश्वा꣥। स्य꣤वोवा꣥। घा꣤ऽ५तोऽ६"हा꣥इ॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢ग्ने꣣ वि꣡व꣢स्व꣣दा꣡ भ꣢रा꣣स्म꣡भ्य꣢मू꣣त꣡ये꣢ म꣣हे꣢। दे꣣वो꣡ ह्यसि꣢꣯ नो दृ꣣शे꣢ ॥ 10:0010 ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡ग्ने꣢꣯। वि꣡व꣢꣯स्वत्। वि। व꣣स्वत्। आ꣢। भ꣣र। अस्म꣡भ्य꣢म्। ऊ꣣त꣡ये꣢। म꣣हे꣢। दे꣣वः꣢। हि। अ꣡सि꣢꣯। नः꣢। दृशे꣢। १०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वामदेवः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब परमात्मा के पास से परम ज्योति की प्रार्थना करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परम पिता परमात्मन् ! आप (महे) महान् (ऊतये) रक्षा के लिए (अस्मभ्यम्) हमें (विवस्वत्) अविद्यान्धकार को निवारण करनेवाला अध्यात्म-प्रकाश (आ भर) प्रदान कीजिए। (हि) क्योंकि, आप (नः) हमारे (दृशे) दर्शन के लिए, हमें विवेकदृष्टि प्रदान करने के लिए (हि) निश्चय ही (देवः) प्रकाश देनेवाले (असि) हैं ॥१०॥ श्लेषालङ्कार से मन्त्र की सूर्यपरक अर्थयोजना भी करनी चाहिए ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सूर्यरूप अग्नि जैसे जीवों की रक्षा के लिए अन्धकार-निवारक ज्योति प्रदान करता है, वैसे ही परमेश्वर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, मोह आदि रूप अन्धकार के निवारण के लिए हमें आध्यात्मिक तेज प्रदान करे ॥१०॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में प्रथम दशति समाप्त। प्रथम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मनः सकाशात् परमं ज्योतिः प्रार्थ्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (अग्ने) परमपितः परमात्मन् ! त्वम् (महे) महत्यै। मह पूजायामिति धातोः क्विपि चतुर्थ्यैकवचने रूपम्। (ऊतये) रक्षायै। रक्षणार्थाद् अवतेः ऊतियूतिजूति० अ० ३।३।९७ इत्यनेन क्तिन् स चोदात्तः। ज्वरत्वरस्रिव्यविमवामुपधायाश्च अ० ६।४।२० इति वकारस्योपधायाश्च स्थाने ऊठ्। (अस्मभ्यम्) अस्मदर्थम् (विवस्वत्१) विवासयति तमांसि इति विवस्वत् अविद्यान्धकारनिवारकम् अध्यात्मप्रकाशम् (आ भर) आहर। हृञ् हरणे धातोः हृग्रहोर्भश्छन्दसि अ० ८।२।३२ वा० इति वार्तिकेन हस्य भः। (हि) यस्मात्, त्वम् (नः) अस्माकम् (दृशे) दर्शनाय, विवेकदृष्टिप्रदानाय। दृशे विख्ये च अ० ३।४।११ इति निपातनात् तुमर्थे केप्रत्ययः। (देवः) प्रकाशकः। द्युत्यर्थाद् दिवु धातोः पचाद्यच्। (असि) वर्तते ॥१०॥ श्लेषालङ्कारेण मन्त्रः सूर्यपक्षेऽपि योजनीयः ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - सूर्याग्निर्यथा जीवानां रक्षणाय तमोनिरासकं ज्योतिः प्रयच्छति, तथा परमेश्वरोऽविद्यास्मितारागद्वेषमोहाद्यन्धकारनिरासायास्मभ्यम् आध्यात्मिकं तेजः प्रदद्यात् ॥१०॥ इति प्रथमे प्रपाठके, प्रथमार्धे प्रथमा दशतिः। इति प्रथमेऽध्याये प्रथमः खण्डः।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. विवस्वत् विवासनवत् तमसां विवासनकरम्। किं तत्? सामर्थ्यात् ज्योतिः इति वि०। विवासयत् तमांसि तेजः इति भ०। विवस्वत् स्वर्गादिलोकेषु विशेषेण निवासस्य हेतुभूतमिदं कर्म आभर सम्पादय इति सा०।
10_0010 अग्ने विवस्वदा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१०-१। वाध्र्यश्वम्॥ (वध्र्यश्वोऽनूपो वा) वाध्र्यश्वः। गायत्र्यग्निः॥
अ꣤ग्ने꣥꣯वि꣤व꣥स्वदा꣤꣯भ꣥रो꣤। वाहा꣥इ॥ अ꣢स्मभ्यमू꣯तऽ३या꣡इमहे꣢꣯। ओ꣡। वा꣢ऽ३᳐हा꣢इ। ओ꣡। वा꣢ऽ३᳐हा꣢इ॥ दा꣡इवो꣢ऽ१हियाऽ᳒२᳒। ओ꣡। वा꣢ऽ३हा꣢इ। ओ꣡। वा꣢ऽ३᳐हा꣢ऽ३᳐इ॥ सा꣡ऽ२᳐इना꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा। दृ꣢षेऽ१॥
[[अथ द्वितीयः खण्डः]]
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न꣡म꣢स्ते अग्न꣣ ओ꣡ज꣢से गृ꣣ण꣡न्ति꣢ देव कृ꣣ष्ट꣡यः꣢। अ꣡मै꣢र꣣मि꣡त्र꣢मर्दय ॥ 11:0011 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नम॑स्ते अग्न॒ ओज॑से गृ॒णन्ति॑ देव कृ॒ष्टयः॑ ।
अमै॑र॒मित्र॑मर्दय ॥
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पदपाठः
न꣡मः꣢꣯। ते꣣। अग्ने। ओ꣡ज꣢꣯से। गृ꣣ण꣡न्ति꣢। दे꣣व। कृष्ट꣡यः꣢। अ꣡मैः꣢꣯। अ꣣मि꣡त्र꣢म्। अ꣣। मि꣡त्र꣢꣯म्। अ꣣र्दय। ११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- आयुङ्क्ष्वाहिः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
प्रथम मन्त्र में परमात्मा और राजा की स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (देव) ज्योतिर्मय तथा विद्या आदि ज्योति के देनेवाले (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर अथवा राजन् ! (कृष्टयः) मनुष्य (ते) आपके (ओजसे) बल के लिए (नमः) नमस्कार के वचन (गृणन्ति) उच्चारण करते हैं, अर्थात् बार-बार आपके बल की प्रशंसा करते हैं। आप (अमैः) अपने बलों से (अमित्रम्) शत्रु को (अर्दय) नष्ट कर दीजिए ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर तथा हे राजन् ! कैसा आप में महान् बल है, जिससे आप निःसहायों की रक्षा करते हो और जिस बल के कारण आपके आगे बड़े-बड़े दर्पवालों के भी दर्प चूर हो जाते हैं। आप हमारे अध्यात्ममार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवाले काम, क्रोध आदि षड्रिपुओं को और संसार-मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करनेवाले मानव शत्रु-दल को अपने उन बलों से समूल उच्छिन्न कर दीजिए, जिससे शत्रु-रहित होकर हम निष्कण्टक आत्मिक तथा बाह्य स्वराज्य का भोग करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
तत्रादौ परमात्मानं राजानं वा स्तुवन् प्रार्थयते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (देव) ज्योतिर्मय विद्यादिज्योतिष्प्रदायक वा (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर राजन् वा ! (कृष्टयः२) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (ते) तव (ओजसे) बलाय। ओज इति बलनाम। निघं० २।९ (नमः) नमोवचांसि (गृणन्ति) उच्चारयन्ति। गृ शब्दे, क्र्यादिः। भूयो भूयस्त्वद्बलं प्रशंसन्तीत्यर्थः। त्वम् (अमैः३) तादृशैः स्वकीयैः बलैः। अम गतिशब्दसंभक्तिषु भ्वादिः। अमं भयं बलं वा इति निरुक्तम्। १०।२१ (अमित्रम्) शत्रुम् अर्दय पीडय विनाशय। अर्द हिंसायाम् चुरादिः ॥१॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर राजन् वा ! कीदृशं त्वदीयं महद् बलं येन त्वं निःसहायान् रक्षसि, यत्कारणाच्च त्वत्पुरतो दर्पवतामपि दर्पाः संचूर्यन्ते। त्वमस्माकमध्यात्ममार्गे विघ्नान् जनयन्तं कामक्रोधादिषड्रिपुवर्गं लोकमार्गे च बाधा उपस्थापयन्तं मानवं शत्रुदलं तादृशैः स्वकीयैर्बलैः समूलमुच्छिन्धि, येन निःसपत्नाः सन्तो वयमकण्टकमात्मिकं बाह्यं च स्वराज्यं भुञ्जीमहि ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।७५।१० विरूप ऋषिः। साम० १६४८। २. ‘कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः इति ऋ० १।५२।११ भाष्ये द०। ३. अमैः अनिष्टैः रोगैर्भयैर्वा इति वि०। बलैः रोगैर्वा। अम रोगे इति भ०। बलैः इति सा०।
11_0011 नमस्ते अग्न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
११-१। सांवर्गम्॥ सांवर्गः। अग्निः गायत्र्यग्निः॥
न꣤म꣥स्तौ꣯। हो꣤ग्ना꣥इ॥ ओ꣡जसा꣢ऽ३इ। गृ꣡णाऽ२᳐न्ता꣣ऽ२३४इदे꣥। वा꣡कृ꣪ष्टयाऽ᳒२ः᳒॥ अ꣡माये꣢ऽ३ः॥ आ꣡ऽ२᳐मा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ त्र꣢मर्द᳐या꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दू꣣तं꣡ वो꣢ वि꣣श्व꣡वे꣢दसꣳ हव्य꣣वा꣢ह꣣म꣡म꣢र्त्यम्। य꣡जि꣢ष्ठमृञ्जसे गि꣣रा꣢ ॥ 12:0012 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दू॒तं वो॑ वि॒श्ववे॑दसं हव्य॒वाह॒मम॑र्त्यम् ।
यजि॑ष्ठमृञ्जसे गि॒रा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
दू꣣त꣢म्। वः꣣। विश्व꣡वे꣢दसम्। वि꣣श्व꣢। वे꣣दसम्। हव्यवा꣡ह꣢म्। ह꣣व्य। वा꣡ह꣢꣯म्। अ꣡म꣢꣯र्त्यम्। अ। म꣣र्त्यम्। य꣡जि꣢꣯ष्ठम्। ऋ꣣ञ्जसे। गिरा꣢। १२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वामदेवो गौतमः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
किन गुणोंवालो परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे परमात्मन् ! (दूतम्) दूत अर्थात् सद्गुणों को हमारे पास लाने के लिए दूत के समान आचरण करनेवाले, (विश्ववेदसम्) पूर्वजन्म तथा इस जन्म में किये हुए सब कर्मों को जाननेवाले, (हव्यवाहम्) दातव्य कर्मफल प्राप्त करानेवाले, (अमर्त्यम्) अमर, (यजिष्ठम्) सबसे अधिक यज्ञकर्ता—महान् सृष्टिचक्रप्रवर्तनरूप यज्ञ के संचालक (वः) आपको, मैं (गिरा) वेदवाणी से (ऋञ्जसे) रिझाता हूँ ॥२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, परमेश्वर उसी क्षण उन्हें जान लेता है और समय आने पर उनका फल अवश्य देता है। बुढ़ापे और मृत्यु से रहित, सृष्टि-रूप यज्ञ के परम याज्ञिक परमेश्वर की हमें श्रद्धा के साथ वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सदा वन्दना करनी चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशं परमात्मानमहं स्तौमीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे परमात्मन् ! (दूतम्) दौत्यमापन्नम्, सद्गुणग्रामान् अस्मत्समीपे समानेतुं दूतवदाचरन्तम्, (विश्ववेदसम्) विश्वानि सर्वाणि पूर्वजन्मन्यस्मिन् जन्मनि च कृतानि कर्माणि वेत्तीति विश्ववेदास्तम्, (हव्यवाहम्) हव्यं दातव्यं कर्मफलं वहति प्रापयतीति तम् कर्मफलदातारम्, (अमर्त्यम्) अमरणधर्माणम्, (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम्—महतः सृष्टिचक्रप्रवर्तनयज्ञस्य संचालकं (वः) त्वाम्३। यज धातोस्तृजन्ताद् यष्टृ शब्दादिष्ठनि तुरिष्ठेमेयस्सु। अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। अहम् (गिरा) वेदवाचा (ऋञ्जसे) प्रसाधयामि, अनुनयामि। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ६।२१। लेट्युत्तमैकवचने ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।१४ इति सिप् ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मनुष्यः शुभान्यशुभानि वा यान्यपि कर्माण्याचरति परमेश्वरस्तत्क्षणमेव तानि जानाति, यथाकालं तेषां फलं चावश्यं प्रयच्छति। जरामरणरहितः, सृष्टियज्ञस्य परमयाज्ञिकः परमेश्वरोऽस्माभिः सश्रद्धं वेदमन्त्रोच्चारणपुरस्सरं सदा वन्दनीयः ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. अमेरभिभवार्थात् अमित्रम्—इति भ०। २. ऋ० ४।८।१। ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्युदग्निविषये व्याख्यातवान्। ३. छन्दस्येकवचनेऽपि युष्मदो वसादेशो दृश्यते।
12_0012 दूतं वो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१२-१। वैश्वमनसम्॥ विश्वमनाः गायत्र्यग्निः॥
दू꣥꣯ता꣤ऽ३म्वो꣢ऽ३वि꣤श्ववे꣥꣯दसाम्॥ ह꣢व्यवा꣡꣯हाम्। अ꣪माऽ२᳐र्त्ता꣣ऽ२३४या꣥म्॥ या꣡जिष्ठ꣢म्। ऋ꣡। जसे꣢ऽ३᳐हा꣢इ॥ गिरा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣡प꣢ त्वा जा꣣म꣢यो꣣ गि꣢रो꣣ दे꣡दि꣢शतीर्हवि꣣ष्कृतः꣢। वा꣣यो꣡रनी꣢꣯के अस्थिरन् ॥ 13:0013 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ त्वा जा॒मयो॒ गिरो॒ देदि॑शतीर्हवि॒ष्कृतः॑ ।
वा॒योरनी॑के अस्थिरन् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣡प꣢꣯। त्वा꣣। जाम꣡यः꣢। गि꣡रः꣢꣯। दे꣡दि꣢꣯शतीः। ह꣣विष्कृ꣡तः꣢। ह꣣विः। कृ꣡तः꣢꣯। वा꣣योः꣢। अ꣡नी꣢꣯के। अ꣣स्थिरन्। १३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- प्रयोगो भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
मेरी वाणियाँ परमात्मा की महिमा का वर्णन कर रही हैं, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे अग्ने ! हे ज्योतिर्मय परमात्मन् ! (हविष्कृतः) अपने आत्मा को हवि बनाकर आपको समर्पित करनेवाले मुझ यजमान की (जामयः) बहिनें अर्थात् बहिनों के समान प्रिय और हितकर (गिरः) स्तुति-वाणियाँ (त्वा) आपका (देदिशतीः) पुनः पुनः अधिकाधिक बोध कराती हुई (वायोः) प्राणप्रद आपके (अनीके) समीप (उप अस्थिरन्) उपस्थित हुई हैं ॥३॥ इस मन्त्र में वाणियों में जामित्व (भगिनीत्व) के आरोप से रूपकालङ्कार है ॥३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमात्मन् ! आन्तरिक यज्ञ का अनुष्ठान करने की इच्छावाला मैं श्रद्धालु होकर अपने आत्मा, मन, प्राण आदि को हवि-रूप से आपको समर्पित करता हुआ स्तुति-वाणियों से आपके गुणों का कीर्तन कर रहा हूँ। मेरे प्रेमोपहार को स्वीकार कीजिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
मम गिरः परमात्मनो महिमानं वर्णयन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे अग्ने ज्योतिर्मय परमात्मन् ! (हविष्कृतः) हविष्प्रदातुः—स्वात्मानं हविः कृत्वा तुभ्यं प्रयच्छतो यजमानस्य मम (जामयः) भगिन्यः, भगिनीवत् प्रियाः हितकारिण्यश्चेति भावः। जामिः अन्येऽस्यां जनयन्ति जाम् अपत्यम्, जमतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो निर्गमनप्राया भवति। निरु० ३।६। (गिरः) स्तुतिवाचः (त्वा) त्वाम् (देदिशतीः) अतिशयेन भूयो भूयो बोधयन्त्यः। दिश अतिसर्जने धातोर्यङ्लुकि शतरि स्त्रियां रूपम्। देदिशत्यः इति प्राप्ते वा छन्दसि। अ० ६।१।१०६ इति नियमेन वैकल्पिकः पूर्वसवर्णदीर्घः। (वायोः) प्राणाधायकस्य तव (अनीके) समीपे (उप अस्थिरन्) उपस्थिताः सन्ति ॥३॥ अत्र गीर्षु जामित्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमात्मन् ! अन्तर्यज्ञमनुष्ठातुकामोऽहं श्रद्धाप्रवणो भूत्वा स्वात्ममनः प्राणादिकं हव्यरूपेण तुभ्यं समर्पयन् स्तुतिवाग्भिस्तव गुणान् कीर्तयामि। मदीयं प्रेमोपहारं त्वं स्वीकुरु ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१०२।१३, साम० १५७०।
13_0013 उप त्वा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१३-१। श्नाभम्॥ श्नाभो गायत्र्यग्निः॥
उ꣥पत्वा꣯जा॥ म꣡यो꣰꣯ऽ२गि꣡। र꣢ओ꣡इय꣪यूऽ᳒२ः᳒। दा꣡इदिश꣢ती꣯र्हविष्कृ꣡। त꣢ओ꣡इय꣪यूऽ᳒२ः᳒॥ वा꣯यो꣡꣯राऽ२३नी꣢॥ क꣣या꣢ऽ᳐३स्था꣤ऽ५इराऽ६५६न्॥ अ꣡श्वा꣢ऽ३᳐गा꣡꣯वाऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
श्रुतिरेव गरीयसी
13_0013 उप त्वा - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१३-२। श्नौष्टीयम्॥ श्नौष्टम्। श्नुष्टो गायत्र्यग्निः॥
उ꣥पत्वा꣯जा꣯माऽ६यो꣥꣯गिराः॥ दा꣡इदिश꣢। ता꣡इः। ह꣪वीऽ२᳐ष्का꣣ऽ२३४र्त्ताः꣥॥ वा꣯यो꣯रना꣯हा꣯इका꣤या꣥॥ स्था꣡इरा꣢। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥॥ ई꣤डा꣥॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ꣡प꣢ त्वाग्ने दि꣣वे꣡दि꣢वे꣣ दो꣡षा꣢वस्तर्धि꣣या꣢ व꣣य꣢म्। न꣢मो꣣ भ꣡र꣢न्त꣣ ए꣡म꣢सि ॥ 14:0014 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ त्वा ऽग्ने दि॒वे-दि॑वे॒
दोषा॑वस्तर्(=रात्रावह्नि) धि॒या व॒यम् ।
नमो॒ भर॑न्त॒ एम॑सि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
उ꣡प꣢꣯। त्वा꣣। अग्ने। दिवे꣡दि꣢वे। दि꣣वे꣢। दि꣣वे। दो꣡षा꣢꣯वस्तः। दो꣡षा꣢꣯। व꣣स्तः। धिया꣢। व꣣य꣢म्। न꣡मः꣢꣯। भ꣡र꣢꣯न्तः। आ। इ꣣मसि। १४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा को नमस्कार करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (दोषावस्तः) मोह-रात्रि को निवारण करनेवाले (अग्ने) प्रकाशमय परमात्मन् ! (वयम्) हम उपासक लोग (दिवे दिवे) प्रत्येक ज्ञानप्रकाश के लिए (धिया) ध्यान, बुद्धि और कर्म के साथ (नमः) नम्रता को (भरन्तः) धारण करते हुए (त्वा) आपकी (उप एमसि) उपासना करते हैं ॥४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जो लोग मोह-रात्रि से ढके हुए हैं, उन्हें अपने अन्तःकरण में अध्यात्म-ज्ञान का प्रकाश पाने के लिए नमस्कार की भेंटपूर्वक योगमार्ग का अनुसरण करके ध्यान, बुद्धि और कर्म के साथ परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं नमस्करोति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हे (दोषावस्तः) मोहरात्रिनिवारक ! दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। वस आच्छादने, तृच्। दोषां रात्रिं वस्ते आच्छादयति निवारयति स दोषावस्ता२। तस्य सम्बुद्धौ रूपम्। आमन्त्रितस्वरेणाद्युदात्तत्वम्। (अग्ने) प्रकाशमय परमात्मन् ! (वयम्) उपासकाः (दिवेदिवे) ज्ञानस्य प्रकाशाय। दिवुरत्र द्युत्यर्थः। (धिया) ध्यानेन प्रज्ञया कर्मणा वा। धीशब्दो ध्यानार्थको निरुक्ते प्रोक्तः (निरु० ४।९) निघण्टौ च कर्मनामसु प्रज्ञानामसु च पठितः (निघ० २।१, ३।९)। (नमः) नम्रत्वम् (भरन्तः) धारयन्तः (त्वा) त्वाम् (उप एमसि) उपास्महे। अत्र इदन्तो मसि। (अ० ७।१।४६) इति मस इदन्तत्वम् ॥४॥३
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - ये जना मोहनिशाच्छन्नास्तैः स्वान्तःकरणेऽध्यात्मज्ञानप्रकाशमाप्तुं नमस्कारोपहारपूर्वकं योगमार्गमनुसृत्य ध्यानेन बुद्ध्या कर्मणा च परमेश्वर उपासनीयः ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१।७। २. दोषेति रात्रेर्नाम, वस्ता आच्छादयिता। रात्रौ यः स्वेन ज्योतिषा तमांस्याच्छादयति स दोषावस्ता। तस्य संबोधनं हे दोषावस्तः—इति वि०। हे दोषावस्तः, दोषा रात्रिः तस्या विवासयितः…. इति भ०। अयमेवार्थः यजु० ३।२२ इत्यत्र पठितस्य प्रस्तुतस्यैव मन्त्रस्य दयानन्दभाष्ये कृतः—दोषां रात्रिं वस्ते स्वतेजसाऽच्छाद्य निवारयति सोऽग्निरिति। उवटमहीधरयोर्मतेऽपि तत्र दोषावस्तः इति पदं सम्बोधनान्तमेव। रात्र्यां वसनशीलो दोषावस्ता, तस्य संबोधनं हे दोषावस्तः—इत्युवटः। हे दोषावस्तः रात्रौ वसनशील गार्हपत्य—इति महीधरः। दोषेति रात्रिनाम, वस आच्छादने, रात्रौ स्वेन ज्योतिषा तमसामाच्छादयितः—इति ऋ० १।१।७ भाष्ये स्कन्दः। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमात्मविषये यजुर्भाष्ये च विद्युत्कर्मविषये व्याख्यातवान्। ४. ऋ० १।२७।१०, साम० १६६३।
14_0014 उप त्वाग्ने - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१४-१। वैश्वामित्रम्॥ विश्वामित्रो गायत्र्यग्निः॥
उ꣢पा꣡त्वाऽ२३ग्ने꣤꣯दिवे꣥꣯दिवाइ॥ दो꣡षाऽ᳒२᳒वा꣡स्ताऽ᳒२ः᳒। धिया꣡꣯वयम्॥ नामोऽ᳒२᳒भा꣡राऽ᳒२᳒॥ तये꣡꣯माऽ२३सा꣢ऽ३४३इ। ओ꣡ऽ२३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य। स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥ 15:0015 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
जरा॑(=स्तुति)बोध॒ तद्वि॑विड्ढि(=प्रविश)
वि॒शेवि॑शे य॒ज्ञिया॑य ।
स्तोमं॑(=स्तोत्रं) रु॒द्राय॒(ते) दृशी॑कम्(=दर्शनीयम्) ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
ज꣡रा꣢꣯बोध। ज꣡रा꣢꣯। बो꣣ध। त꣢त्। वि꣣विड्ढि। विशे꣡वि꣢शे। वि꣣शे꣢। वि꣣शे। यज्ञि꣡या꣢य। स्तो꣡म꣢꣯म्। रु꣣द्रा꣡य꣢। दृ꣣शीक꣢म्। १५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- शुनः शेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अगले मन्त्र में परमात्मा के प्रति स्तोत्र का उपहार दिया जा रहा है।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - हम उपासक लोग (विशेविशे) सब मनुष्यों के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य, (रुद्राय) सत्योपदेश प्रदान करनेवाले, अविद्या, अहंकार, दुःख आदि को दूर करनेवाले तथा काम, क्रोध आदि शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा-रूप अग्नि के लिए (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को [उपहाररूप में देते हैं।] हे (जराबोध) स्तुति को तारतम्यरूप से जाननेवाले अथवा स्तुति के द्वारा हृदय में उद्बुद्ध होनेवाले परमात्मन् ! आप (तत्) उस हमारे स्तोत्र को (विविड्ढि) स्वीकार करो। अथवा इस प्रकार अर्थयोजना करनी चाहिए। उपासक स्वयं को कह रहा है—हे (जराबोध) स्तुति करना जाननेवाले मेरे अन्तरात्मन् ! तू (विशे विशे) मन, बुद्धि आदि सब प्रजाओं के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य (रुद्राय) सत्य उपदेश देनेवाले, दुःख आदि को दूर करनेवाले, शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा रूप अग्नि के लिए (तत्) उस प्रभावकारी, (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को (विविड्ढि) कर, अर्थात् उक्त गुणोंवाले परमात्मा की स्तुति कर ॥५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर ! आप सबके पूजायोग्य हैं। आप ही रुद्र होकर हमारे हृदय में सद्गुणों को प्रेरित करते हैं, अविवेक, आलस्य आदिकों को निरस्त करते हैं, अन्तःकरण में जड़ जमाये हुए कामादि शत्रुओं को रुलाते हैं। अतः हम आपको हृदय में जगाने के लिए आपके लिए बहुत-बहुत स्तोत्रों को उपहाररूप में लाते हैं। किसी के स्तोत्र हार्दिक हैं या कृत्रिम हैं, यह आप भले प्रकार जानते हैं। इसलिए हमारे द्वारा किये गये स्तोत्रों की हार्दिकता, दर्शनीयता तथा चारुता को जानकर आप उन्हें कृपा कर स्वीकार कीजिए। हे मेरे अन्तरात्मन् ! तू परमात्मा की स्तुति से कभी विमुख मत हो ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्मानं प्रति स्तोत्रमुपहरति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - वयम् उपासकाः (विशेविशे) सर्वेषां मनुष्याणां (हितार्थम्)। विश इति मनुष्यनाम। निघं० २।२। (यज्ञियाय) यज्ञं पूजामर्हतीति यज्ञियस्तस्मै। अत्र यज्ञर्त्विग्भ्यां घखञौ अ० ५।१।७१ तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम् वा० अनेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्ययः। (रुद्राय) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति१ यस्तस्मै, यद्वा यो रुद् अविद्याहंकारदुःखादिकं द्रावयति२ तस्मै, यद्वा यो रोदयति३ कामक्रोधादीन् रिपून् तस्मै तुभ्यं परमात्माग्नये। अग्निरपि रुद्र उच्यते इति निरुक्तम् १०।७। अग्निर्वे रुद्रः। श० ५।३।१।१०। (दृशीकम्) दर्शनीयम्। अत्र दृशिर् प्रेक्षणे धातोः अनिहृषिभ्यां किच्च। उ० ४।१८ इति बाहुलकाद् औणादिक ईकन् प्रत्ययः किच्च। (स्तोमम्) स्तोत्रम् उपहराम इति शेषः। हे (जराबोध) जरां स्तुतिं बुध्यते तारतम्यतया जानाति यः, यद्वा जरया स्तुत्या बोधो हृदये जागरणं यस्य स जराबोधः, तादृश हे परमात्मन् ! पादादौ आमन्त्रितत्वाद् आमन्त्रितस्य च। अ० ६।१।१९८ इत्याद्युदात्तत्वम्। त्वम् (तत्) अस्माकं स्तुतिकरणम् (विविड्ढि) वेवेड्ढि व्याप्नुहि, स्वीकुरु। अत्र विष्लृ व्याप्तौ धातोः लोण्मध्यमैकवचने णिजां त्रयाणां गुणः श्लौ। अ० ७।४।७५ इति प्राप्तस्य गुणस्य वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाद् गुणाभावः।४ अथवा एवं योज्यम्। उपासकः स्वात्मानमाह। हे (जराबोध४) स्तुतिविज्ञ मदीय अन्तरात्मन् ! जरां स्तुतिप्रकारं बुध्यते जानानीति जराबोधः, तत्संबुद्धौ। त्वम् (विशे विशे) सर्वासां प्रजानां मनोबुद्ध्यादीनां हितार्थम् (यज्ञियाय) पूजार्हाय (रुद्राय) सत्योपदेशप्रदाय, दुःखादिद्रावकाय, शत्रुरोदकाय च परमात्माग्नये (तत्) तं प्रभावकरम् (दृशीकम्) दर्शनीयम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (विविड्ढि५) कुरु, उक्तगुणं परमात्मानं स्तुहीत्यर्थः ॥५॥६ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे—जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणस्तां बोध, तया बोधयितरिति वा, तद् विविड्ढि तत् कुरु, मनुष्यस्य यजनाय, स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम् इति। निरु० १०।८।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे जगदीश्वर ! त्वं सर्वेषां पूजार्होऽसि। त्वमेव रुद्रो भूत्वास्माकं हृदये सद्गुणान् प्रेरयसि, अविवेकालस्यादीन् निरस्यसि, अन्तःकरणे बद्धमूलान् कामादीन् शत्रून् रोदयसि। अतो वयं त्वां हृदि बोधयितुं त्वत्कृते भूरिशः स्तोमानुपहरामः। अस्मत्कृतानां स्तोमानां हार्दिकत्वं, दर्शनीयत्वं, चारुत्वं च विज्ञाय त्वं तान् कृपया स्वीकुरु। हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वं परमात्मस्तुत्या कदापि विमुखो मा भूः ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. (रुद्र) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति तत्सम्बुद्धौ—इति ऋ० १।११४।३ भाष्ये द०। २. (रुद्रम्) यो रुद् रोगं द्रावयति तम्—इति ऋ० ६।४९।१० भाष्ये द०। ३. रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः—इति य० ३।१६ भाष्ये द०। ४. जरास्तुतिः। तां यः स्वयं बुध्यति बोधयति वा देवान् स जराबोधः।…. जराबोध इत्यपि अन्तरात्मनः सम्बोधनम्। प्रैषश्च, हे मदीय अन्तरात्मन्—इति वि०। जरया स्तुत्या बोधयति देवानिति जराबोधः स्तोता। जरतिः स्तुतिकर्मा। हे स्तोतः, आत्मन एव ऋषेरामन्त्रणम्—इति भ०। हे जराबोध जरया स्तुत्या बोध्यमान अग्ने—इति सा०। ५. विविड्ढि वेत्थ जानासि….। अथवा, विविड्ढीति विष्लृ व्याप्तावित्येतस्य रूपम्। अयं च धातुः वेष इति कर्मनामसु पाठात् (निघं० २।१), नाम्नां चाख्यातजत्वात्, कर्मणि च करोत्यर्थस्य सम्भवात् करोत्यर्थोऽपि, न व्याप्त्यर्थ एवेति गम्यते। तत्कुरु इत्यर्थः—इति वि०। यत् बुद्धिस्थं स्तुतिरूपं तद् विविड्ढि, विष्लेर्व्याप्तिकर्मणः लोटि मध्यमपुरुषैकवचनम्, व्याप्नुहि कुरु इत्यर्थः—इति भ०। तद् देवयजनं विविड्ढि प्रविश—इति सा०। ६. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदे मन्त्रोऽयं सेनाधिपतिपक्षे व्याख्यातः—‘(जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्संबुद्धौ। (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै इत्यादि।
15_0015 जराबोध तद्विविड्ढि - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१५-१। जराबोधीये द्वे॥ द्वयोरग्निर्गायत्री रुद्रः॥
जा꣤रा꣥। बो꣡धाऽ᳒२᳒बो꣡धाऽ᳒२᳒। त꣡द्विविड्ढाइ॥ वि꣢शे꣯वा꣡इशेऽ᳒२᳒॥ य꣡ज्ञाऽ२३। या꣯या꣢᳐ऽ३४ औ꣥꣯हो꣯वा॥ स्तो꣡꣯मꣳरु꣢द्रा꣡꣯यदृ꣢शी꣯का꣡म्॥
15_0015 जराबोध तद्विविड्ढि - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१५-२।ज꣥रा꣯बो꣯धो꣤वा꣥॥ ता꣡द्विवि꣢ड्ढा꣡इ। वि꣢शा꣡इवाऽ२᳐३इशे꣢। यज्ञिया꣡꣯या। स्तो꣯माꣳरु꣪द्राऽ२३"या꣤। दृ꣥। शी꣣꣯को꣢ऽ३४५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र꣢ति꣣ त्यं꣡ चारु꣢꣯मध्व꣣रं꣡ गो꣢पी꣣था꣢य꣣ प्र꣡ हू꣢यसे। म꣣रु꣡द्भि꣢रग्न꣣ आ꣡ ग꣢हि ॥ 16:0016 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे ।
म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
प्र꣡ति꣢꣯। त्यम्। चा꣡रु꣢꣯म्। अ꣣ध्वर꣢म्। गो꣣पीथा꣡य꣢। प्र। हू꣣यसे। मरु꣡द्भिः꣢। अ꣣ग्ने। आ꣢। ग꣣हि। १६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- मेधातिथिः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब परमात्मा रूप अग्नि का आह्वान करते हुए कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (त्यम्) उस हमारे द्वारा किये जाते हुए (चारुम्) श्रेष्ठ (अध्वरम्) हिंसा, अधर्म आदि दोषों से रहित उपासनायज्ञ या जीवनयज्ञ के (प्रति) प्रति (गोपीथाय) विषयों में भटकती हुई इन्द्रिय-रूप गौओं की रक्षा के लिए, अथवा हमारे श्रद्धारस-रूप सोमरस के पान के लिए (प्र हूयसे) आप बुलाये जा रहे हो। (अग्ने) हे ज्योतिर्मय परमात्मन् ! आप (मरुद्भिः) प्राणों द्वारा अर्थात् हमसे की जाती हुई प्राणायाम-क्रियाओं द्वारा (आ गहि) हमारे यज्ञ में आओ ॥६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमात्मन् ! जैसे पवनों से प्रज्वलित यज्ञाग्नि नाना ज्वालाओं से नृत्य करती हुई सी यज्ञवेदि में हमारे सम्मुख उपस्थित होती है, वैसे ही हमारे प्राणायामरूप पवनों से प्रज्वलित किये हुए आप हमारे जीवनयज्ञ या उपासनायज्ञ में आओ, और मन, वाणी, चक्षु आदि इन्द्रियों को विषयों से निरन्तर बचाते हुए हमारे श्रद्धारस का रिझकर पान करो ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ परमात्माग्निमाह्वयन्नाह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (त्यम्) तम् अस्माभिः क्रियमाणम् (चारुम्) श्रेष्ठम् (अध्वरम्) हिंसाऽधर्मादिदोषरहितम् उपासनायज्ञं जीवनयज्ञं वा। ‘अध्वर इति यज्ञनाम, ध्वरति हिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेधः इति निरुक्तम् (१।७)। (प्रति) अभिलक्ष्य (गोपीथाय२) गवां विषयगोचरेषु भ्राम्यताम् इन्द्रियाणां पीथाय रक्षणाय, अस्माकं श्रद्धारसरूपस्य सोमस्य पानाय वा। गोपीथाय सोमपानायेति यास्कः। निरु० १०।३५। निशीथगोपीथावगथाः।’ उ० २।९ इति गोपूर्वात् पा रक्षणे पा पाने वा धातोस्थक्प्रत्ययान्तो निपातः। (प्र हूयसे) प्रकर्षेण निमन्त्र्यसे। (अग्ने) हे ज्योतिर्मय परमात्मन् ! त्वम् (मरुद्भिः) प्राणैः, अस्मदनुष्ठीयमानप्राणायामक्रियाभिः (आ गहि) आगच्छ। आङ्पूर्वाद् गम्लृ गतौ धातोर्लोण्मध्यमैकवचने छान्दसं रूपम् ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - हे परमात्मन् ! यथा पवनैः प्रज्वलितोऽग्निर्नानाज्वालाभिर्नृत्यन्निव यज्ञवेद्यामस्मत्संमुखमुपस्थितो भवति, तथैवास्माकं प्राणायामपवनैः प्रदीपितस्त्वं नो जीवनयज्ञमुपासनायज्ञं वा समागच्छ, मनोवाक्चक्षुरादीनीन्द्रियाणि च विषयेभ्यः सततं रक्षन्नस्माकं श्रद्धारसं कणेहत्य पिब ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।१९।१। ऋग्वेदे दयानन्दर्षिणाऽयं मन्त्रो विद्युद्रूपभौति- काग्निपक्षे व्याख्यातः। २. गोपीथाय। गोशब्देनात्र सोम उच्यते, तस्य पानार्थम्—इति वि०। गौः सोमः, गच्छति देवानिति, तस्य पीथाय पानाय—इति भ०। ‘पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय इति ऋ० १।१९।१ भाष्ये द०।
16_0016 प्रति त्यम् - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१६-१। मारुतम्॥ मरुतो गायत्र्यग्निः॥
प्र꣢ति꣡त्याऽ२३ञ्चा꣤꣯रुम꣥ध्वराम्॥ गो꣢꣯पी꣯था꣡꣯। या। प्राहू꣢या꣣ऽ२३४सा꣥इ॥ म꣢रु꣡द्भिः꣢। आ꣡। ग्नाआ꣢꣯गहा꣡। औ꣢ऽ᳐३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣢श्वं꣣ न꣢ त्वा꣣ वा꣡र꣢वन्तं व꣣न्द꣡ध्या꣢ अ꣣ग्निं꣡ नमो꣢꣯भिः। स꣣म्रा꣡ज꣢न्तमध्व꣣रा꣡णा꣢म् ॥ 17:0017 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑(=ल)वन्तं
व॒न्दध्या॑(=वन्दितुम्) अ॒ग्निं नमो॑भिः ।
स॒म्राज॑न्तमध्व॒राणा॑म् (प्रवृत्ताः) ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣡श्व꣢꣯म्। न। त्वा꣣। वा꣡र꣢꣯वन्तम् व꣣न्द꣡ध्यै꣢। अ꣣ग्नि꣢म् न꣡मो꣢꣯भिः। स꣣म्रा꣡ज꣢न्तम्। स꣣म्। रा꣡ज꣢꣯न्तम्। अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म्। १७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- शुनः शेप आजीगर्तिः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अब वन्दना करने के लिए परमात्मा का आह्वान करते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वारवन्तम्) डाँस, मच्छर आदि को निवारण करनेवाले बालों से युक्त (अश्वं न) घोड़े के समान (वारवन्तम्) विपत्तिनिवारण के सामर्थ्यों से युक्त, (अध्वराणाम्) हिंसादि दोषों से रहित यज्ञों के (सम्राजन्तम्) सम्राट् के समान (त्वा) आप (अग्निम्) तेजस्वी परमात्मा को (नमोभिः) नमस्कारों से (वन्दध्यै) वन्दना करने के लिए [(आहुवे) पुकारता हूँ] ॥७॥ अश्वं न त्वा वारवन्तम् में श्लिष्टोपमाङ्कार है। सम्राजन्तम् अध्वराणाम् में लुप्तोपमा है ॥७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - घोड़ा जैसे बालों से डाँस, मच्छर आदि का निवारण करता है, वैसे परमेश्वर अपने निवारणसामर्थ्यों से विपत्ति आदि का निवारण करता है। जैसे सम्राट् का अपने राज्य में सब पर प्रभुत्व होता है, वैसे ही परमात्मा विविध यज्ञों का प्रभु है। अतः ध्यान-यज्ञ में श्रद्धा के साथ सबको उसे पुकारना चाहिए ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ वन्दितुं परमात्मानमाह्वयति।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (वारवन्तम्२) वारैः दंशमशकादिनिवारकैर्बालैः युक्तम् (अश्वम्) वाजिनम् (न) इव (वारवन्तम्) वारैः विपत्तिनिवारणसामर्थ्यैः युक्तम्। वाराः बालाः दंशवारणार्था भवन्ति इति निरुक्तम् १।२०। तथैव वारयति विपदादिकमेभिरिति वाराः निवारणसामर्थ्यानि। (अध्वराणाम्३) हिंसादिदोषवर्जितानां यज्ञानाम् (सम्राजन्तम्) सम्राडिवाचरन्तम्। सम्राडिवाचरतीति सम्राजति, सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब् वा वक्तव्यः। अ० ३।१।११ वा० इत्याचारार्थे क्विप्। शतरि द्वितीयैकवचने सम्राजन्तमिति रूपम्। (त्वा) त्वाम् (अग्निम्) तेजस्विनं परमात्मानम् (नमोभिः) नमस्कारैः (वन्दध्यै) वन्दितुम्। वदि अभिवादनस्तुत्योः। तुमर्थे सेसेनसेऽसेन्क्सेकसेनध्यैअध्यैन्०।’ अ० ३।४।९ इति तुमर्थे अध्यै प्रत्ययः। आहुवे आह्वयामि इत्युत्तरमन्त्रादाकृष्यते ॥७॥ अश्वं न त्वा वारवन्तम् इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। सम्राजन्तम् अध्वराणाम् इत्यत्र लुप्तोपमा ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - अश्वो यथा बालैर्दंशमशकादीन् निवारयति तथा परमेश्वरः स्वनिवारणसामर्थ्यैर्विपदादिकं निवारयति। यथा सम्राट् स्वकीये राज्ये सर्वेषां प्रभुस्तथा परमात्मा विविधयज्ञानां प्रभुः। अतो ध्यानयज्ञे श्रद्धया स सर्वैराह्वातव्यः ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० १।२७।१, साम० १६३४। २. प्रशंसायां मतुप्। प्रशस्तकेसरवन्तम् अश्वमिवेति अर्चिष्ठत्वस्य उपमा—इति भ०। ३. राज्यपालनाग्निहोत्रादिशिल्पान्तानां यज्ञानां मध्ये इति ऋ० १।२७।१ भाष्ये द०। तत्र दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः, भौतिकाग्नेः परमेश्वरस्य चापि संकेतः कृतः।
17_0017 अश्वं न - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१७-१। भार्गवे द्वे॥ वारवन्तीयम्। द्वयोः भृगुः शुनश्शेपो वा गायत्र्यग्निः॥
आ꣡श्वा꣢। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥। ना꣡त्वा꣢। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥॥ वा꣤꣯र꣥वन्तंवन्द꣤ध्या। आ꣡ग्ना꣢। औ꣣꣯होऽ२३४वा꣥॥ न꣤मो꣥꣯भिस्सम्रा꣤꣯ज꣥न्ता꣤म्॥ आ꣡ध्वरा꣢꣯णा꣡म्। औऽ२३हो꣤वा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
17_0017 अश्वं न - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१७-२।
अ꣤श्व꣥न्न꣤त्वा꣥꣯वा꣤꣯र꣥वन्ता꣤म्॥ व꣢न्द꣡ध्या꣯अग्निन्नमो꣯भाइः। स꣢म्म्रा꣡꣯ज꣢। तमा꣡ध्वरा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ इ꣡हा꣣ऽ२३४हा꣥इ। औ꣣꣯हो꣢ऽ३१२᳐। या꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ णा꣣ऽ२३꣡४꣡५꣡म्॥
17_0017 अश्वं न - 03 ...{Loading}...
लिखितम्
१७-३।
अ꣥श्वन्नत्वा꣯औ꣯हो꣤हा꣥इ॥ वा꣢रा᳐वा꣣ऽ२३४न्ता꣥म्। व꣢न्दा꣡ध्याऽ२३४हा꣥इ। अ꣡ग्नाइन्नमा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥। इ꣡हा꣣ऽ२३४हा꣥इ। उ꣢हु᳐वा꣣ऽ२३४भीः꣥॥ स꣢म्म्रा꣡꣯ज꣢। ता꣡म꣪ध्वरा꣢ऽ३४। औ꣣꣯हो꣤꣯वा꣥॥ इ꣡हा꣣ऽ२३४हा꣥इ। औ꣣꣯हो꣢ऽ३᳐१२३४। णाम्। ए꣥꣯हियाऽ६हा꣥। हो꣤ऽ५इ॥ डा॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
औ꣣र्वभृगुव꣡च्छुचि꣢꣯मप्नवान꣣व꣡दा हु꣢꣯वे। अ꣣ग्नि꣡ꣳ स꣢मु꣣द्र꣡वा꣢ससम् ॥ 18:0018 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
औ॒र्व॒भृ॒गु॒वच्छुचि॑मप्नवान॒वदा हु॑वे ।
अ॒ग्निं स॑मु॒द्रवा॑ससम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
औ꣣र्वभृगुव꣢त्। औ꣣र्व। भृगुव꣢त्। शु꣡चि꣢꣯म्। अ꣣प्नवानव꣢त्। आ। हु꣣वे। अग्नि꣢म् स꣣मुद्र꣡वा꣢ससम्। स꣣मुद्र꣢। वा꣣ससम्। १८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- प्रयोगो भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
कैसे परमात्मा का मैं आह्वान करता हूँ, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (और्वभृगुवत्) पार्थिव पदार्थों को तपानेवाले सूर्य के समान, और (अप्नवानवत्) क्रियासेवी वायु के समान (शुचिम्) पवित्र व पवित्रताकारक, और (समुद्रवाससम्) हृदयाकाश में व ब्रह्माण्डाकाश में निवास करनेवाले (अग्निम्) ज्योतिष्मान् तथा ज्योतिष्प्रद परमात्मा को (आहुवे) पुकारता हूँ॥ द्वितीय—विद्युत् के पक्ष में। बिजली के प्रयोग के विषय में कहते हैं। मैं (और्वभृगुवत्) जैसे सूर्य को अर्थात् सूर्य के ताप को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, और (अप्नवानवत्) जैसे पाकादि कर्मों का सेवन करनेवाले पार्थिव अग्नि को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, वैसे ही (शुचिम्) प्रदीप्त, (समुद्रवाससम्) अन्तरिक्षनिवासी (अग्निम्) वैद्युत अग्नि को (आहुवे) प्रकाश के लिए तथा यान आदि में प्रयुक्त करने के लिए अपने समीप लाता हूँ ॥८॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं ॥८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे सूर्य और वायु पवित्र, पवित्रताकारक और सबके जीवनाधार हैं, वैसे ही परमात्मा भी है। जैसे सूर्य और वायु आकाश में निवास करते हैं, वैसे ही परमात्मा हृदयाकाश में और विश्वब्रह्माण्ड के आकाश में निवास करता है। ऐसे परमात्मा का सबको साक्षात्कार करना चाहिए। साथ ही सूर्याग्नि, पार्थिवाग्नि तथा वैद्युत अग्नि के द्वारा यान आदि चलाने चाहिएँ ॥८॥ जैसे और्व ऋषि, भृगु ऋषि और अप्नवान ऋषि शुचि अग्नि को बुलाते हैं, वैसे ही मैं बुला रहा हूँ, यह विवरणकार की व्याख्या है। भरतस्वामी का भी यही अभिप्राय है। सायण ने और्व और भृगु अलग-अलग नाम न मानकर एक और्वभृगु नाम माना है। यह सब व्याख्यान असंगत है, क्योंकि सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत वेदों में पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों का इतिहास नहीं हो सकता॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
अथ कीदृशं परमात्मानमहमाह्वयामीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (और्वभृगुवत्) उर्व्या पृथिव्यां भवाः पदार्था और्वाः, तान् भृज्जति भर्जति वा स और्वभृगुः सूर्यः, तमिव, (अप्नवानवत्) अप्नांसि कर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः गमनशीलो वायुः, तमिव च। अप्न इति कर्मनाम। निघं० २।१। वन सम्भक्तौ। (शुचिम्) पवित्रं पवित्रतादायकं च, शुचिर् पूतीभावे। (समुद्रवाससम्) हृदयाकाशे ब्रह्माण्डकाशे वा निवसन्तम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। वस निवासे। (अग्निम्) ज्योतिष्मन्तं ज्योतिष्प्रदं च परमात्मानम्। (आहुवे) आह्वयामि। ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च। बहुलं छन्दसि। अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणे रूपम्॥ अथ द्वितीयः—विद्युत्परः। विद्युत्प्रयोगविषयमाह। अहम् (और्भृगुवत्) और्वभृगुः सूर्यः तमिव, यथाहं सूर्याग्निमाह्वयामि, सूर्यतापं यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः। (अप्नवानवत्) अप्नांसि) पाकादिकर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः पार्थिवाग्निः, तमिव, यथाहं पार्थिवाग्निमाह्वयामि, यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः, (शुचिम्) दीप्तम्। शुच दीप्तौ। (समुद्रवाससम्२) अन्तरिक्षनिवासिनम् (अग्निम्) वैद्युताग्निम् (आहुवे) आह्वयामि, प्रकाशं प्राप्तुं, यानादिषु च प्रयोक्तुं स्वसकाशम् आनयामि ॥८॥ अत्रोपमा श्लेषश्चालङ्कारः ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा सूर्यो वायुश्च शुचिः, शुचिकारकः, सर्वेषां जीवनाधारश्च, तथैव परमात्मापि। यथा सूर्यो वायुश्चाकाशे निवसति, तथैव परमात्मा हृदयाकाशे विश्वब्रह्माण्डाकाशे च। तादृशः परमात्मा सर्वैः साक्षात्करणीयः, किं च सूर्याग्निना वैद्युताग्निना च यानादीनि चालनीयानि ॥८॥ यथा और्वः ऋषिः यथा च भृगुर्ऋषिः यथा च अप्नवान आह्वयति तद्वदहमपि शुचिम् आहुवे आह्वयामीति वि०। तदेव भरतस्वामिनोऽभिमतम्। सायणमते तु और्वभृगुः इत्येकं नाम। तत्सर्वमसंगतं, सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतेषु वेदेषु पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनामितिहासस्यासंभवात्॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१०२।४। २. समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम, तत्र निवासो यस्य स समुद्रवासाः, तं समुद्रवाससम्, अन्तरिक्षनिवासमित्यर्थः। वैद्युतात्मा ह्यसौ तत्र निवासति—इति वि०। अग्निं समुद्रवाससं वैद्युतमग्निम् आह्वयामि—इति भ०।
18_0018 और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१८-१। सामुद्रे द्वे॥ समुद्रस्य वासो वा। और्वः द्वयोरग्निः गायत्र्यग्निः॥
औ꣥꣯र्वभृगुव꣤त्। ओहाइ॥ शू꣣ऽ२३४ची꣥म्। आ꣡प्नवा꣢꣯न। वदाऽ᳒२᳒हु꣡वाऽ᳒२᳒इ। हु꣡व꣢ओ꣡इ॥ अग्नाऽ᳒२᳒इꣳस꣡मूऽ᳒२᳒॥ स꣡मु꣢ओ꣡। द्र꣢वा꣡ससा꣢ऽ३१उवाऽ२३꣡४꣡५꣡॥
18_0018 और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे - 02 ...{Loading}...
लिखितम्
१८-२। (वैधारया ऋषिर्वा)
औ꣥꣯र्वभृगुव꣤च्छुचि꣥म्। ए꣤ऽ५। शु꣤चीम्॥ आ꣡प्नवा꣢꣯न। वदा꣡ऽ२३हुवा꣢इ। हुवा꣡ऽ२३इ। हु꣢व꣣ए꣢॥ अ꣡ग्नाइꣳसा꣢ऽ३मू꣢॥ समू꣡ऽ२३। स꣢मु꣣ए꣢ऽ३। द्रा꣡ऽ२᳐वा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ स꣢साऽ३मे꣡ऽ२३꣡४꣡५꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ꣣ग्नि꣡मि꣢न्धा꣣नो꣡ मन꣢꣯सा꣣ धि꣡य꣢ꣳ सचेत꣣ म꣡र्त्यः꣢। अ꣣ग्नि꣡मि꣢न्धे वि꣣व꣡स्व꣢भिः ॥ 19:0019 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒ग्निमिन्धा॑नो॒ मन॑सा॒ धियं॑ सचेत॒ मर्त्यः॑ ।
अ॒ग्निमी॑धे वि॒वस्व॑भिः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
अ꣣ग्नि꣢म्। इ꣣न्धानः꣢। म꣡न꣢꣯सा। धि꣡य꣢꣯म् स꣣चेत। म꣡र्त्यः꣢꣯। अ꣣ग्नि꣢म्। इ꣣न्धे। वि꣣व꣡स्व꣢भिः। वि꣣। व꣡स्व꣢भिः। १९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- प्रयोगो भार्गवः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
ईश्वर की आराधना के साथ कर्म भी करे, यह कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (मनसा) मन से (अग्निम्) हृदय में छिपे परमात्मा-रूप अग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त अर्थात् प्रकट करता हुआ (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (धियम्) कर्म को (सचेत) सेवे—यह वैदिक प्रेरणा है। उस प्रेरणा से प्रेरित हुआ मैं (विवस्वभिः) अज्ञान को विध्वस्त करनेवाली, आदित्य के समान भासमान मनोवृत्तियों से (अग्निम्) ज्योतिर्मय परमात्माग्नि को तथा कर्म की अग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ, हृदय में प्रकट करता हूँ॥ द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। यज्ञकर्म के लिए प्रेरणा है। (मनसा) श्रद्धा के साथ (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त करता हुआ (मर्त्यः) यजमान मनुष्य (धियम्) यज्ञविधियों को भी (सचेत) करे—यह वेद का आदेश है। तदनुसार मैं भी यज्ञकर्म करने के लिए (विवस्वभिः) प्रातः सूर्यकिरणों के उदय के साथ ही (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ। इससे यह सूचित होता है कि प्रातः यज्ञ का समय सूर्यकिरणों का उदय-काल है ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यहाँ मर्त्य पद साभिप्राय है। मनुष्य मरणधर्मा है, न जाने कब मृत्यु की पकड़ में आ जाये। इसलिए जैसे यज्ञकर्म करने के लिए अग्नि को प्रज्वलित करता है, वैसे ही इसी जन्म में योगाभ्यास से हृदय में परमात्मा को प्रकाशित करके जीवन-पर्यन्त अग्निहोत्र आदि तथा समाज-सेवा आदि कर्मों को करे। यह न समझे कि यदि परमेश्वर का साक्षात्कार कर लिया, तो फिर कर्मों से क्या प्रयोजन, क्योंकि कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे (य० ४०।२), यही वैदिक मार्ग है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
ईश्वराराधनेन साकं कर्मापि कुर्यादित्युच्यते।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - प्रथमः—परमात्मपरः। (मनसा) चित्तेन (अग्निम्) प्रच्छन्नरूपेण हृदये स्थितं परमात्माग्निम् (इन्धानः) प्रदीपयन्, प्रकटयन् (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (धियम्) कर्म। धीरिति कर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (सचेत) सेवेत, इति वैदिकी प्रेरणा। षचतिः सेवनार्थः। निरु० ४।२१। तत्प्रेरणया प्रेरितोऽहम् (विवस्वभिः२) अज्ञानविवासनशीलाभिः, आदित्यवद् भासमानाभिः मनोवृत्तिभिः। विवस्वान् विवासनवान् इति निरुक्तम्। ७।२६। (अग्निम्) ज्योतिर्मयं परमात्माग्निं कर्माग्निं च (इन्धे) प्रदीपयामि, हृदये प्रकटयामि। ञिइन्धी दीप्तौ, लटि उत्तमैकवचने प्रयोगः॥ अथ द्वितीयः—यज्ञाग्निपरः। यज्ञकर्मणे प्रेरयति। (मनसा) श्रद्धया (अग्निम्) यज्ञाग्निम् (इन्धानः) प्रदीपयन् (मर्त्यः) यजमानो मनुष्यः (धियम्) कर्म अपि, यज्ञविधिमपि (सचेत) सेवेत, कुर्यादिति भावः। इति वेदादेशः। तदनुसृत्य, अहमपि यज्ञकर्म कर्तुम् (विवस्वभिः) सूर्यकिरणैः साकम् (अग्निम्) यज्ञाग्निम् इन्धे प्रदीपयामि। एतेन प्रातः सूर्यकिरणाविर्भावकाल एव यज्ञकाल इति सूच्यते ॥९॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - मर्त्यः इति पदं साभिप्रायम्। मरणधर्मा हि मानवः, न जाने कदा मृत्युना गृह्येत। अतो यज्ञकर्म कर्तुं यथाऽग्निं प्रकाशयति तथाऽस्मिन्नेव जन्मनि योगाभ्यासेन हृदये परमात्मानं प्रकाश्य यावज्जीवनमग्निहोत्रादीनि समाजसेवादीनि च वेदविहितानि कर्माण्याचरेत्। नैतन्मन्येत परमेश्वरश्चेत् साक्षात्कृतः कृतं कर्मभिरिति यतः कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (य० ४०।२) इत्येव वैदिकः पन्थाः ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।१०२।२२, अग्निमिन्धे इत्यत्र अग्निमीधे इति पाठः। २. विवस्वभिः तमसां विवासयितृभिः हविर्भिः—इति वि०। विवः धनम्, तद्वद्भिः, हविर्लक्षणधनयुक्तैः काष्ठैः—इति भ०। ऋत्विग्भिरिति सा०।
19_0019 अग्निमिन्धानो मनसा - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
१९-१। असंगम्॥ आसंगः अत्रिः गायत्र्यग्निः॥
अ꣥ग्नि꣤मि꣥न्धा꣯नो꣤꣯मन꣥सौ꣯। हौ꣤꣯होवाहा꣥इ॥ धि꣣यꣳ꣤स꣥चे꣯तमौ꣯। हो꣭ऽ३हा꣢ऽ३। हो꣡ऽ२३४र्तियाः॥ अ꣡ग्नाये꣢ऽ३᳐म्। आ꣡ऽ२᳐इंधा꣣ऽ२३४औ꣥꣯हो꣯वा॥ वि꣢व꣡स्वभी꣣ऽ२३꣡४꣡५ः꣡॥
योनि-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ꣢꣫दित्प्र꣣त्न꣢स्य꣣ रे꣡त꣢सो꣣ ज्यो꣡तिः꣢ पश्यन्ति वास꣣र꣢म्। प꣣रो꣢꣫ यदि꣣ध्य꣡ते꣢ दि꣣वि꣢ ॥ 20:0020 ॥
विश्वास-शाकल-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आदित्प्र॒त्नस्य॒ रेत॑सो॒ ज्योति॑ष्पश्यन्ति वास॒रम् ।
प॒रो यदि॒ध्यते॑ दि॒वा ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
पदपाठः
आ꣢त्। इत्। प्र꣣त्न꣡स्य꣢। रे꣡त꣢꣯सः। ज्यो꣡तिः꣢꣯। प꣣श्यन्ति। वासर꣢म्। प꣣रः꣢। यत्। इ꣣ध्य꣡ते꣢। दि꣣वि꣢। २०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वत्सः काण्वः
- गायत्री
- षड्जः
- आग्नेयं काण्डम्
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
योगी जन कब परमेश्वर की अलौकिक ज्योति का दर्शन करते हैं, इस विषय को कहते हैं।
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (आत् इत्) उसके अनन्तर ही (प्रत्नस्य) सनातन, (रेतसः) वीर्यवान् परमसामर्थ्यशाली परमात्म-सूर्य की (वासरम्) राग, द्वेष, मोह आदि के अन्धकार को दूर करनेवाली, अथवा अणिमा आदि ऐश्वर्यों की निवासक, अथवा दिव्य दिन उत्पन्न कर देनेवाली (ज्योतिः) ज्योति को—योगदर्शनोक्त ज्योतिष्मती वृत्ति को, ज्ञानदीप्ति को या (विवेकख्याति) को, योगीजन (पश्यन्ति) देख पाते हैं, (यत्) जब, वह परमात्म-सूर्य (परः) परे (दिवि) आत्मारूप द्युलोक में (इध्यते) प्रदीप्त हो जाता है ॥१०॥ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - जैसे प्रातःकाल उदित सूर्य जब मध्याह्न के आकाश में पहुँच जाता है, तभी लोग उसके अन्धकार-निवारक, देदीप्यमान, दिन को उत्पन्न करनेवाले सम्पूर्ण प्रभामण्डल को देख पाते हैं, वैसे ही जब योगियों से ध्यान किया गया परमात्मा उनके आत्म-लोक में जगमगाने लगता है, तभी वे उसके राग, द्वेष आदि के विनाशक, योगसिद्धियों के निवासक, जीवन्मुक्तिरूप दिन के जनक दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार करने में समर्थ होते हैं ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन करते हुए उसे रिझाने का, उसके प्रति नमस्कार करने का, उसे स्तोत्र अर्पण करने का, मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति के साथ-साथ कर्म में भी प्रेरित करने का और परम ज्योति के दर्शन का वर्णन है, अतः इस दशति के अर्थ की पूर्व दशति के अर्थ के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में द्वितीय दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - विषयः
योगिनः कदा परमेश्वरस्यालौकिकं ज्योतिः पश्यन्तीत्याह।
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पदार्थः
पदार्थान्वय - (आत् इत्) तदनन्तरमेव (प्रत्नस्य) सनातनस्य। प्रत्न इति पुराणनाम। निघं० ३।२७। (रेतसः२) रेतस्विनः वीर्यवतः परमसामर्थ्यशालिनः अग्नेः परमात्मसूर्यस्य। अत्र मत्वर्थीयस्य लोपः। (वासरम्) रागद्वेषमोहादितमोविवासनशीलं यद्वा अणिमाद्यैश्वर्यनिवासकम्। वासराणि वेसनानि विवासनानि गमनानीति वा इति निरुक्तम् ४।७। वस स्नेहच्छेदापहरणेषु इति धातोः, यद्वा णिजन्ताद् वस निवासे धातोः अर्तिकमिभ्रमिचमिदेविवासिभ्यश्चित्। उ० ३।१३२ इत्यौणादिकः अर प्रत्ययः। यद्वा वासरम् दिव्यदिवसजनकम्। वासरमित्यहर्नाम। निघं० १।९। (ज्योतिः) प्रकाशम् योगदर्शनोक्तां ज्योतिष्मतीं वृत्तिं, ज्ञानदीप्तिं, विवेकख्यातिं३ वा, योगिजनाः (पश्यन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति, (यत्) यदा, असौ (परः) परस्तात् (दिवि) आत्मरूपे द्युलोके (इध्यते) प्रदीप्यते ॥१०॥४ श्लेषेण सूर्यपक्षे ऽपि योजनीयम् ॥१०॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - भावार्थः
भावार्थ - यथा प्रातरुदितः सूर्याग्निर्यदा मध्याह्नाकाशमारोहति तदैव जनास्तस्य तमोनिरासकं देदीप्यमानदिवसाधायकं सम्पूर्णप्रभामण्डलं पश्यन्ति, तथैव यदा योगिभिर्ध्यातः परमात्माग्निस्तेषामात्मलोके देदीप्यते तदैव ते तस्य रागद्वेषादिविनाशकं, योगसिद्धिनिवासकं, जीवन्मुक्तिप्राप्तिरूपदिवसजनकं दिव्यं ज्योतिर्द्रष्टुं पारयन्ति ॥१०॥ अत्र परमात्मनो गुणकर्मस्वभाववर्णनपूर्वकं तत्प्रसादनात्, तं प्रति नमस्करणात्, स्तोमार्पणात, परमेश्वरस्तुत्या सह कर्मण्यपि प्रेरणात्, परमज्योतिर्दर्शनवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति प्रथमे प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार - पादटिप्पनी
टिप्पनी - १. ऋ० ८।६।३०, इन्द्रो देवता। ज्योतिष्पश्यन्ति, दिवा इति पाठः। २. रेतसः गन्तुः (री गतिरेषणयोः अस्मात् स्रुरीभ्यां तुड् वा उ० ४।२००३ इत्यसुन् तुडागमश्च।) यद्वा रेतस् इत्युदकनाम (निघं० १।१२) रेतस्विनः उदकवतः, सामर्थ्यान्मत्वर्थो लक्ष्यते। ईदृशस्य इन्द्रस्य सूर्यात्मनः वासरं नियामकं वासरस्य निवासहेतुभूतं वा—इति सा०। ३. द्रष्टव्यम्—योग० १।३६, २।२८, ३।५४। ४. इयमासन्नमरणे जप्येति बहवृचोपनिषदि श्रूयते (ऐ० आ० ३।२।४।८)। इयं वैश्वानरस्याग्नेः स्तुतिः। वैश्वानरश्च त्रैलोक्यशरीरः परमात्मेति उपनिषदि स्थितम्। आत् इति निपातः अनन्तरमित्यस्मिन् अर्थे वर्तते। इद् इति एवार्थे। आदित् अनन्तरमेव आत्मविज्ञानात्। प्रत्नस्य पुराणस्य। रेतसः कारणात्मनः स्वरूपभूतम्। ज्योतिः वैश्वानराख्यं सूर्यम्। पश्यन्ति विद्वांसः। वासरं विवासकं तमसाम्। परः परस्तात्। इध्यते दीप्यते। दिवि दिव इत्यर्थः, यत् दिवः परस्ताद् इध्यते इति सम्बन्धः। “अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते (छा० उ० ३।१३।७)” इत्यादि श्रूयते—इति भ०।
20_0020 आदित्प्रत्नस्य रेतसो - 01 ...{Loading}...
लिखितम्
२०-१। निधनकामम्॥ प्रजापतिर्गायत्र्यग्निः॥
आ꣤꣯दित्प्रत्नाऽ५स्यरे꣯त꣤साः॥ ज्यो꣡꣯तिᳲपश्यन्तिवा꣯साऽ᳒२᳒रा꣡म्॥ प꣢रो꣡꣯याऽ᳒२᳒दि꣡ध्यताइ॥ दि꣢वि꣡। होइ। होइ। औ꣢꣯हो꣡꣯औ꣢꣯हो꣡वाऽ२३꣡४꣡५꣡हाउ॥ वा॥
[[अथ तृतीय खण्डः]]