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सायण-भाष्यम्
’ अश्विना ’ इति द्वादशर्च तृतीयं सूक्तम् । तत्र आश्विनस्तृचः प्रातरनुवाकस्य आश्विने क्रतौ विनियुक्तः । तथा च सूत्रितम्-’ अथाश्विन एषो उषा प्रातर्युजेति चतस्रोऽश्विना यज्वरीरिषः (आश्व. श्रौ. ४. १५) इति ।
Jamison Brereton
3
Aśvins (1–3), Indra (4–6), All Gods (7–9), Sarasvatī (10–12)
Madhuchandas Vaiśvāmitra
12 verses: gāyatrī, arranged in tr̥cas
See the introduction to the preceding hymn. This hymn is the continuation and conclusion of the Praügaśastra and follows the order of divinities discussed in the introduction to I.2. As in I.2, the contents are fairly banal—urging each god or divine group to come and enjoy our sacrificial offerings.
In both I.2 and I.3 the tr̥cas contain internal repetitions that unify them, though these unifying devices are of an elementary type. There are also less apparent link ages between tr̥cas created by verbal repetitions in the last verse of one tr̥ca and the first of the next. So, for example, I.2.6c and 7c mention our “insight” (dhī́). The last
pāda (c) of I.3 begins ā́ yātam and 4a has ā́ yāhi “drive here,” both imperatives to the same root. And 6c and 7c refer to sutá “pressed soma,” though there is no obvi ous link between the third tr̥ca of I.3 and the last one to Sarasvatī.
Jamison Brereton Notes
(Praügaśastra continued) As in I.2 the recipients of the various tṛcas are emphatically signalled. In vss.
1-3 to the Aśvins, the voc. áśvinā opens the first two verses, while their alternative name nāsatyā opens the second pāda of the third. The voc. índra opens all three verses of the next tṛca (4-6). The Viśvedevāḥ tṛca contains three instances of that phrase: the voc. in 7b, nominatives opening vss. 8 and 9. The final tṛca to Sarasvatī likewise contains three occurrences of her name in the nominative, but all three end their pādas (10a, 11c, 12a).
01 अश्विना यज्वरीरिषो - गायत्री
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अ᳓श्विना य᳓ज्वरीर् इ᳓षो
द्र᳓वत्पाणी शु᳓भस् पती
पु᳓रुभुजा चनस्य᳓तम्
मूलम् ...{Loading}...
अश्वि॑ना॒ यज्व॑री॒रिषो॒ द्रव॑त्पाणी॒ शुभ॑स्पती ।
पुरु॑भुजा चन॒स्यत॑म् ॥
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अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - अश्विनौ
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
अ᳓श्विना य᳓ज्वरीर् इ᳓षो
द्र᳓वत्पाणी शु᳓भस् पती
पु᳓रुभुजा चनस्य᳓तम्
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Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
áśvinā ← aśvín- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
íṣaḥ ← íṣ- (nominal stem)
{case:ACC, gender:F, number:PL}
yájvarīḥ ← yájvan- (nominal stem)
{case:ACC, gender:F, number:PL}
drávatpāṇī ← dravátpāṇi- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
patī ← páti- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
śúbhaḥ ← śúbh- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:PL}
canasyátam ← √canasy- (root)
{number:DU, person:2, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
púrubhujā ← purubhuj- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
पद-पाठः
अश्वि॑ना । यज्व॑रीः । इषः॑ । द्रव॑त्पाणी॒ इति॒ द्रव॑त्ऽपाणी । शुभः॑ । प॒ती॒ इति॑ ।
पुरु॑ऽभुजा । च॒न॒स्यत॑म् ॥
Hellwig Grammar
- aśvinā ← aśvin
- [noun], vocative, dual, masculine
- “Asvins; two.”
- yajvarīr ← yajvarīḥ ← yajvan
- [noun], accusative, plural, feminine
- iṣo ← iṣaḥ ← iṣ
- [noun], accusative, plural, feminine
- “refreshment; enjoyment; stores.”
- dravatpāṇī ← dravat ← dru
- [verb noun]
- “liquefy; melt; melt; flee; run; run; vanish; run; rush; dissolve; dissolve.”
- dravatpāṇī ← pāṇī ← pāṇi
- [noun], vocative, dual, masculine
- “hand; hoof; pāṇi [word].”
- śubhas ← śubh
- [noun], genitive, singular, feminine
- patī ← pati
- [noun], vocative, dual, masculine
- “husband; overlord; king; deity; īśvara; ruler; pati [word]; commanding officer; leader; owner; mayor; lord.”
- purubhujā ← puru
- [noun]
- “many; much(a); very.”
- purubhujā ← bhujā ← bhuj
- [noun], vocative, dual, masculine
- “eating; consuming.”
- canasyatam ← canasy
- [verb], dual, Present imperative
सायण-भाष्यम्
हे अश्विनौ युवाम् इषः हविर्लक्षणान्यन्नानि चनस्यतम् इच्छतं भुञ्जाथामित्यर्थः । यद्यपि चनःशब्दोऽन्नवाची तथापि इषः इत्यनेन सह नास्ति पुनरुक्तिदोषः, इच्छामुपलक्षयितुं प्रयुक्तत्वात् । ‘वक्तव्यमुवाच’, ‘समूलकाषं कषति’ इत्यादौ यथा पुनरुक्त्यभावस्तद्वत् । कीदृशीरिषः । यज्वरीः योगनिष्पादिकाः। कीदृशावश्विनौ। द्रवत्पाणी हविर्ग्रहणाय द्रवद्भ्यां धावद्यां पाणिभ्यामुपेतौ। शुभस्पती शोभनस्य कर्मणः पालकौ । पुरुभुजा विस्तीर्णभुजौ बहुभोजिनौ वा ॥ अश्विना। ‘आमन्त्रितस्य’ (पा. सू. ६. १. १९८ ) इति षाष्टिकमाद्युदात्तत्वम् । यज्वरीः । यागकरणानामप्यन्नानाम् ‘असिश्छिनत्ति’ इतिवत् स्वव्यापारे कर्तृत्वविवक्षया “ सुयजोर्ङ्वनिप् ’ ( पा. सू. ३. २. १०३ ) इति ङ्वनिप्प्रत्ययः । ‘वनो र च’ (पा. सू. ४. १. ७) इति ङीप् । तसंनियोगेन रेफादेशः । प्रत्ययद्वयस्य ‘अनुदात्तौ सुप्पितौ ’ ( पा. सू. ३. १. ४ ) इत्यनुदात्तत्वात् धातुस्वर एवावशिष्यते । इषःशब्दे शसोऽनुदात्तत्वात् प्रातिपदिकस्वर एव शिष्यते । द्रवन्तौ धावन्तौ पाणी ययोस्तयोः संबोधनं द्रवत्पाणी इति । तस्यामन्त्रिताद्युदात्तत्वं न पुनराष्टमिको निघातः ‘अपादादौ इति प्रतिषेधात् । इषः इति पूर्वपदस्य ‘सुबामन्त्रिते॰ ’ (पा. सू. २. १. २ ) इति पराङ्गवद्भावेन ‘मित्रावरुणावृतावृधौ’ इतिवत् अपादादित्त्वमिति चेत्, न । तत्र सामानाधिकरण्येन परस्परान्वयात् । इह तु इषः इवत्पाणी इत्यनयोः सरस्वतिशुतुद्रिपदवत् असामर्थ्येन प्रयुक्तत्वात् । शुभः इति ‘शुभ शुम्भ दीप्तौ’ इत्यस्य संपदादित्वात् भावे क्विबन्तस्य षष्ठ्येकवचनम् । ‘षष्ठ्याः पतिपुत्र’ (पा. सू. ८. ३. ५३ ) इति विसर्जनीयस्य सत्वम् । तस्य पती इत्यामन्त्रिते परतः पराङ्गयद्भावात् आमन्त्रिताद्युदात्तत्वम् । न पुनराष्टमिको निघातः । तस्मिन् कर्तव्ये द्रवत्पाणी इति पूर्वस्यामन्त्रितस्य ‘आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्’ (पा. सू. ८. १. ७२ ) इत्यविद्यमानवद्भावेन पादादित्वात् ‘अपादादौ ’ इति प्रतिषेधात् ॥ ननु • मित्रावरुणावृतावृधौ ’ इतिवत् ’ नामन्त्रिते समानाधिकरणे’ ( पा. सू. ८. १. ७३) इत्यविद्यमानवद्भावप्रतिषेधेन भवितव्यमिति चेत्, न । मित्रावरुणपदं हि सामान्यवचनमिति युक्तः तस्याविद्यमानवत्त्वप्रतिषेधः । द्रवत्पाणी पदं तु न तथेति वैषम्यात् । पुरुभुजा पुरू विस्तीर्णौ भुजौ ययोस्तौ । आमन्त्रिताद्युदात्तत्वम् । ‘सुपां सुलुक्° ’ ( पा. सू. ७. १. ३९ ) इति डादेशः । पुरु बहु भुञ्जाते इति वा । चनस्यतम् इत्यत्र ‘चायतेरन्ने ह्रस्वश्च’ (उ. सू. ४.६३९) इति ’ चायृ पूजानिशामनयोः इत्यस्य असुन्प्रत्यये आकारस्य ह्रस्वे चानुकृष्टे नुडागमे च ( उ. सु. ४. ६३६) ‘लोपो व्योर्वलि ’ (पा.सू. ६. १. ६६ ) इति यकारलोपे चनःशब्दोऽन्ननामसु पठितः (निरु० ६. १६ )। तत् आत्मनः इच्छतीति ‘सुप आत्मनः क्यप् ’ (पा. सू. ३. १.८)। ‘सनाद्यन्ताः ‘(पा. सू. ३. १. ३२) इति धातुत्वात् लोण्मध्यमद्विवचनम् । क्यचः प्रत्ययस्वरेणोदात्तत्वम् । शपा एकादेशे कृते एका देश उदात्तेनोदात्तः ’ ( पा. सू. ८. २. ५ ) इत्युदात्तः । उपर्याख्यातस्य लसार्वधातुकानुदात्तवे स्वरितत्त्वम् । न च ’ तिङ्ङतिङः’ (पा. सू. ८. १. २८) इति निघातः । पूर्वस्यामन्त्रितस्याविद्यमानवद्भावेन पदादपरत्वात् पादादित्वाद्वा तदप्राप्तेः ॥
Wilson
English translation:
“Aśvins, cherishers of pious acts, long-armed, accept with outstretched hands the sacrificial viands.”
Jamison Brereton
O Aśvins, quick-handed lords of beauty, in the sacrificial refreshments find your delight, you two providing many enjoyments.
Griffith
YE Asvins, rich in treasure, Lords of splendour, having nimble hands,
Accept the sacrificial food.
Geldner
Asvin! Traget nach den Opfergebeten begleiteten Labsalen Verlangen, ihr flinkhändigen Meister der Schönheit, ihr Vielnützenden!
Grassmann
O Ritter, nehmet gnädig an des Opfers Tränke, Glanzesherrn, Weitwaltende, mit schneller Hand.
Elizarenkova
О Ашвины, возрадуйтесь
Жертвенным возлияниям,
О быстрорукие повелители красоты, многорадостные!
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल को अश्वि नाम से लिया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओं को (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो। अब अश्विनौ शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं-(या सुरथा) हम लोग अच्छी अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को, कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों की सिद्धि होती है, तथा (देवा) जो कि शिल्पविद्या में अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और (दिविस्पृशा) सूर्य्य के प्रकाश से युक्त अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियों से मनुष्यों को पहुँचानेवाले होते हैं, (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। (न हि वामस्ति) मनुष्य लोग जहाँ-जहाँ साधे हुए अग्नि और जल के सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं, वहाँ सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है। (अथा०) इस निरुक्त में जो कि द्युस्थान शब्द है, उससे प्रकाश में रहनेवाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य अग्नि जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, उन पदार्थों में दो-दो के योग को अश्वि कहते हैं, वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं, उनमें से यहाँ अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है, क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रस से तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है। इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है। इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं। (तथाऽश्विनौ) जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने के लिये शिल्पविद्या के व्यवहारों अर्थात् कारीगरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोड़े जाते हैं, तब सब कलाओं के साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले, तथा जब उक्त कलाओं से ताड़ित अर्थात् चलाये जाते हैं, तब अपने चलने से उन सवारियों को चलानेवाले होते हैं, उन अश्वियों को तुर्फरी भी कहते हैं, क्योकि तुर्फरी शब्द के अर्थ से वे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं। इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जल से परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं। उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं, उनके जाने-आने के लिये होते हैं॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे विद्वांसो ! युष्माभिर्द्रवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजावश्विनौ यज्वरीरिषश्च चनस्यतम्॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
तत्रादावश्विनावुपदिश्येते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) जलाग्नी। अत्र सुपामित्याकारादेशः। या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑। अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे॥ (ऋ०१.२२.२) न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। (ऋ०१.२२.४) वयं यौ सुरथौ शोभना रथा सिद्ध्यन्ति याभ्यां तौ, रथीतमा भूयांसो रथा विद्यन्ते ययोस्तौ रथी, अतिशयेन रथी रथीतमौ देवौ शिल्पविद्यायां दिव्यगुणप्रकाशकौ, दिविस्पृशा विमानादियानैः सूर्य्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे मनुष्यादीन् स्पर्शयन्तौ, उभा उभौ ता तौ हवामहे गृह्णीमः॥१॥ यत्र मनुष्या वां तयोरश्विनोः साधियित्वा चलितयोः सम्बन्धयुक्तेन रथेन हि यतो गच्छन्ति तत्र सोमिनः सोमविद्यासम्पादिनो गृहं विद्याधिकरणं दूरं नैव भवतीति यावत्॥२॥ अथातो द्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद्ध्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभस्तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके ……..हि मध्यमो ज्योतिर्भाग आदित्यः। (निरु०१२.१)। तथाऽश्विनौ चापि भर्त्तारौ जर्भरी भर्त्तारावित्यर्थस्तुर्फरीतु हन्तारौ। (निरु०१३.५। तयोः काल ऊर्ध्वमर्द्धरात्रात् प्रकाशीभावस्यानुविष्टम्भमनु तमो भागः। (निरु०१२.१)। (अथातो०) अत्र द्युस्थानोक्तत्वात् प्रकाशस्थाः प्रकाशयुक्ताः सूर्य्याग्निविद्युदादयो गृह्यन्ते, तत्र यावश्विनौ द्वौ द्वौ सम्प्रयुज्येते यौ च सर्वेषां पदार्थानां मध्ये गमनशीलौ भवतः। तयोर्मध्यादस्मिन् मन्त्रेऽश्विशब्देनाग्निजले गृह्येते। कुतः? यद्यस्माज्जलमश्वैः स्वकीयवेगादिगुणै रसेन सर्वं जगद्व्यश्नुते व्याप्तवदस्ति। तथाऽन्योऽग्निः स्वकीयैः प्रकाशवेगादिभिरश्वैः सर्वं जगद्व्यश्नुते तस्मादग्निजलयोरश्विसंज्ञा जायते। तथैव स्वकीयस्वकीयगुणैर्द्यावापृथिव्यादीनां द्वन्द्वानामप्यश्विसंज्ञा भवतीति विज्ञेयम्। शिल्पविद्याव्यवहारे यानादिषु युक्त्या योजितौ सर्वकलायन्त्रयानधारकौ यन्त्रकलाभिस्ताडितौ चेत्तदाहननेन गमयितारौ च तुर्फरीशब्देन यानेषु शीघ्रं वेगादिगुणप्रापयितारौ भवतः। अश्विनाविति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेनापि गमनप्राप्तिनिमित्ते अश्विनौ गृह्येते। (यज्वरीः) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून् (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्य्यप्रकाशस्य पालकौ। ‘शुभ शुंभ दीप्तौ’ एतस्य रूपमिदम्। (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुञ्जि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ। पुर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) भुगिति क्विप्प्रत्ययान्तः प्रयोगः। सम्पदादिभ्यः क्विप्। रोगाख्यायां। (अष्टा०३.३.१०८) इत्यस्य व्याख्याने। (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्। चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययान्ताच्चनस्शब्दात् क्यच्प्रत्ययान्तस्य नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचनेऽयं प्रयोगः॥१॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्रेश्वरः शिल्पविद्यासाधनमुपदिशति। यतो मनुष्याः कलायन्त्ररचनेन विमानादियानानि सम्यक् साधयित्वा जगति स्वोपकारपरोपकारनिष्पादनेन सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयुः॥१॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - विषयः
दुसऱ्या सूक्तात विद्येचा प्रकाश, क्रियांचा हेतू असलेल्या अश्वि शब्दाचा अर्थ, ते सिद्ध करणाऱ्या विद्वानांचे लक्षण व विद्वान होण्याचा हेतू, सरस्वती शब्दाने सर्व विद्याप्राप्तीचे निमित्त असणारी वाणी प्रकाशयुक्त असते हे जाणून घ्यावे. दुसऱ्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर तिसऱ्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती आहे.
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात ईश्वराने शिल्पविद्या (हस्तकौशल्ययुक्त विद्या) सिद्ध करण्याचा उपदेश केलेला आहे. जिच्याद्वारे माणसांनी कलायुक्त याने तयार करावीत व या जगात स्वतःवर व इतरांवर उपकार करावेत आणि सर्वांना सुखी करावे. ॥ १ ॥
02 अश्विना पुरुदंससा - गायत्री
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अ᳓श्विना पु᳓रुदंससा
न᳓रा श᳓वीरया धिया᳓
धि᳓ष्णिया व᳓नतं गि᳓रः
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अश्वि॑ना॒ पुरु॑दंससा॒ नरा॒ शवी॑रया धि॒या ।
धिष्ण्या॒ वन॑तं॒ गिरः॑ ॥
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अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - अश्विनौ
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
अ᳓श्विना पु᳓रुदंससा
न᳓रा श᳓वीरया धिया᳓
धि᳓ष्णिया व᳓नतं गि᳓रः
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Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
áśvinā ← aśvín- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
púrudaṁsasā ← purudáṁsas- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
dhiyā́ ← dhī́- (nominal stem)
{case:INS, gender:F, number:SG}
nárā ← nár- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
śávīrayā ← śávīra- (nominal stem)
{case:INS, gender:F, number:SG}
dhíṣṇyā ← dhíṣṇya- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
gíraḥ ← gír- ~ gīr- (nominal stem)
{case:ACC, gender:F, number:PL}
vánatam ← √vanⁱ- (root)
{number:DU, person:2, mood:IMP, tense:AOR, voice:ACT}
पद-पाठः
अश्वि॑ना । पुरु॑ऽदंससा । नरा॑ । शवी॑रया । धि॒या ।
धिष्ण्या॑ । वन॑तम् । गिरः॑ ॥
Hellwig Grammar
- aśvinā ← aśvin
- [noun], vocative, dual, masculine
- “Asvins; two.”
- purudaṃsasā ← puru
- [noun]
- “many; much(a); very.”
- purudaṃsasā ← daṃsasā ← daṃsas
- [noun], vocative, dual, masculine
- narā ← nara
- [noun], vocative, dual, masculine
- “man; man; Nara; person; people; Nara; Puruṣa; nara [word]; servant; hero.”
- śavīrayā ← śavīra
- [noun], instrumental, singular, feminine
- dhiyā ← dhī
- [noun], instrumental, singular, feminine
- “intelligence; prayer; mind; insight; idea; hymn; purpose; art; knowledge.”
- dhiṣṇyā ← dhiṣṇyāḥ ← dhiṣṇya
- [noun], vocative, plural, masculine
- “wise; beneficent.”
- vanataṃ ← vanatam ← van
- [verb], dual, Present imperative
- “obtain; gain; desire; get; like; love; overcome.”
- giraḥ ← gir
- [noun], accusative, plural, feminine
- “hymn; praise; voice; words; invocation; command; statement; cry; language.”
सायण-भाष्यम्
अश्विना हे अश्विनौ युवां गिरः अस्मदीयाः स्तुतीः धिया आदरयुक्त्या बुद्ध्या वनतं संभजतं स्वीकुरुतम् । कीदृशावश्विनौ । पुरुदंससा बहुकर्माणौ । षड्विंशतिसंख्याकेषु कर्मनामसु ’ दंसः ’ (नि. २. १. ३ ) इति पठितम् । नरा नेतारौ । धिष्ण्या धार्ष्ट्ययुक्तौ बुद्धिमन्तौ वा । कीदृश्या धिया । शवीरया गतियुक्त्या अप्रतिहतप्रसरयेत्यर्थः । अश्विना इत्याद्यामन्त्रितचतुष्टयस्य षाष्ठिकमामन्त्रिताद्युदात्त्वम् । पादादित्वात् न आष्टमिको निघातः । पुरुदंससा इत्यपि हि पादादिरेव ‘आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्’ (पा. सू. ८. १. ७२ ) इति पूर्वस्याविद्यमानवत्वात् । ‘नामन्त्रिते समानाधिकरणे° ’ ( पा. सू. ८. १. ७३ ) इति पूर्वस्य सामान्यवचनत्वेन अस्य विशेषवचनत्वेन नाविद्यमानवत्त्वमिति चेत्, न । अश्विशब्दवत् पुरुदंसःशब्दस्यापि अश्विनोरेव रूढ्या प्रयुज्यमानतया सामान्यशब्दत्वात् । सामान्यवचनं नाविद्यमानवदित्युक्तेऽर्थात् परस्य विशेषवचनत्वावगमात्। उभयोः सामान्यवचनत्वे पर्यायत्वेन पौनरुक्यात् सहाप्रयोग इति चेत्, न । गुणविशेषसंकीर्तनवत् प्रसिद्धानेकनामविशेषसंबन्धसंकीर्तनस्यापि स्तुत्युपयोगेन सप्रयोजनत्वात्; निष्प्रयोजनपुनर्वचनस्यैव पुनरुक्तत्वात् । अश्विपुरुदंसःशब्दयोरेकार्थवृत्तित्वेऽपि पर्यायत्वादेव प्रवृत्तिनिमित्तभेदाभावेन असामानाधिकरण्यादपि नाविद्यमानवत्त्वप्रतिषेधः । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानामेव ह्येकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् । अश्विशब्दस्याश्वसंबन्धो निमित्तं पुरुदंसःशब्दस्य तु बहुकर्मसंबन्ध इति प्रवृत्तिनिमित्तभेद इति चेत्, न । तद्धि द्वयं व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तं न प्रवृत्तिनिमित्तम् । व्युत्पत्तिनिमित्तभेदमात्रेणापि समानाधिकरण्याभिधाने वृक्षमहीरुहशब्दयोरपि तथात्वप्रसङ्गः । अत एव हि ‘इडे रन्तेऽदिते सरस्वति प्रिये प्रेयसि महि विश्रुत्येतानि ते अघ्निये नामानि ’ ( तै. सं. ७. १. ६. ८) इत्यत्र सहस्रतमीप्रशंसोपयोगित्वेन इडादिशब्दानाम् ’ एतानि ते अघ्निये नामानि ’ इति वचनेन पर्यायाणामपि अनेकविशिष्टनामसंबन्धनिबन्धनस्तुत्यर्थत्वेनैव सहप्रयोगः । स्तुत्युपयोगेनैव व्युत्पत्तिनिमित्तभेदविवक्षायामपि पर्यायत्वेनासामानाधिकरण्यादेव’ नामन्त्रिते° ’ इति निषेधाभावात् ’ आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् ’ इति पूर्वपूर्वस्याविद्यमानवत्त्वात् सर्वेषां षाष्ठिकमाद्युदात्तत्वम् । तद्वत् प्रकृतेऽपि । “ कॄशॄपॄकटिपटिशौटिभ्य ईरन् ’ ( उ. सू. ४. ४७० ) इत्यतः ‘ईरन्’ इत्यनुवृत्तौ ‘बहुलवचनादन्यत्रापि ’ इत्यनेन ‘शु गतौ ’ इति धातोरीरन्प्रत्यये कृते सति नित्त्वात् शवीरयाशब्द आद्युदात्तः । धियेत्यत्र ‘सावेकाचः ’ ( पा. सू. ६. १. १६८ ) इति विभक्तिरुदत्ता । वनतमित्यत्र शपः पित्त्वात् लोण्मध्यमद्विवचनस्य लसार्वधातुकत्वाच्च ‘वन षण संभक्तौ ’ इति धातूदात्तत्वमेव शिष्यते । न च ‘तिङ्ङतिङः’ ( पा. सू. ८. १.२८) इति निघातः, पूर्वामन्त्रितस्याविद्यमानवत्वेन पादादित्वात् । गिरः । सुपोऽनुदात्तत्वे प्रातिपदिकस्वरः शिष्यते ॥
Wilson
English translation:
“Aśvins, abounding in mighty acts, guides (of devotion), endowed with fortitude, listen with unaverted minds to our praises.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Long-armed: purubhuja, also explained as: great eaters
Jamison Brereton
O Aśvins of many wondrous powers, you superior men with powerful insight,
you holy ones, cherish our songs.
Jamison Brereton Notes
śávīra- rendered as ‘powerful’ in the published translation But see disc. below ad I.30.17.
dhíṣṇya- and related forms are obscure and much discussed; indeed Geldner
refuses to translate the word. We generally follow the view of Pinault (UTexas Vedic Workshop), who takes it to mean ‘related to / proper to the holy place’, thence simply ‘holy’.
Griffith
Ye Asvins, rich in wondrous deeds, ye heroes worthy of our praise,
Accept our songs with mighty thought.
Geldner
Asvin! kunstreiche Herren, mit überlegenem Verständnis nehmet die Lobesreden gut auf, ihr flinkhändigen Meister der Schönheit, ihr Vielnützenden!
Grassmann
O thatenreiche Ritter, nehmt mit kräft’gem Geist die Lieder auf, O gabenreiche Männer ihr.
Elizarenkova
О Ашвины, богатые чудесами,
О два мужа, с большим пониманием
Примите благосклонно (наши) голоса, о благоговейные!
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- निचृद्गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर वे अश्वी किस प्रकार के हैं, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं, वे (गिरः) शिल्पविद्यागुणों की बतानेवाली वाणियों को (वनतम्) सेवन करनेवाले हैं, इसलिये इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यहाँ भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग है। इससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उन पुरुषों को चाहिये कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध कर के उन से उपयोग लेवें। सायणाचार्य्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे मनुष्या ! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तौ बुद्ध्या सेवयत॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापकौ (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंपादिनौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातोरीरन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नामसु वायविन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वैः शिल्पिभिस्तौ तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयौ स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। सायणाचार्य्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः। तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति॥२॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - येथेही अग्नी व जलाच्या गुणांना प्रत्यक्ष दर्शविण्यासाठी मध्यम पुरुषाचा प्रयोग केलेला आहे. त्यासाठी सर्व कारागिरांनी अत्यंत कौशल्याने व आपल्या पुरुषार्थाने शिल्पविद्येची सिद्धी होण्यासाठी वरील अश्वींची (अग्नी व जलाची) चांगल्या प्रकारे योजना करावी. जे शिल्पविद्या सिद्ध करण्याची इच्छा बाळगतात त्या पुरुषांनी विद्या व हस्तक्रिया यांनी वरील ‘अश्विं’ना प्रसिद्ध करावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा ॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - पादटिप्पनी
टिप्पणी: सायणाचार्य व विल्सन इत्यादी साहेबांनी मध्यम पुरुषाविषयीचा निरुक्तकाराने सांगितलेला विशेष अभिप्राय न जाणता या मंत्राचा वेगळाच अर्थ लावलेला आहे. ॥ २ ॥
03 दस्रा युवाकवः - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
द᳓स्रा युवा᳓कवः सुता᳓
ना᳓सत्या वृक्त᳓बर्हिषः
आ᳓ यातं रुद्रवर्तनी
मूलम् ...{Loading}...
दस्रा॑ यु॒वाक॑वः सु॒ता नास॑त्या वृ॒क्तब॑र्हिषः ।
आ या॑तं रुद्रवर्तनी ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - अश्विनौ
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
द᳓स्रा युवा᳓कवः सुता᳓
ना᳓सत्या वृक्त᳓बर्हिषः
आ᳓ यातं रुद्रवर्तनी
Vedaweb annotation
Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
dásrā ← dasrá- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
sutā́ḥ ← √su- (root)
{case:NOM, gender:M, number:PL, non-finite:PPP}
yuvā́kavaḥ ← yuvā́ku- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
nā́satyā ← nā́satya- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:DU}
vr̥ktábarhiṣaḥ ← vr̥ktábarhis- (nominal stem)
{case:GEN, number:SG}
ā́ ← ā́ (invariable)
rudravartanī ← rudrávartani- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:DU}
yātam ← √yā- 1 (root)
{number:DU, person:2, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
पद-पाठः
दस्रा॑ । यु॒वाक॑वः । सु॒ताः । नास॑त्या । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः ।
आ । या॒त॒म् । रु॒द्र॒व॒र्त॒नी॒ इति॑ रुद्रऽवर्तनी ॥
Hellwig Grammar
- dasrā ← dasra
- [noun], vocative, dual, masculine
- “Asvins.”
- yuvākavaḥ ← yuvāku
- [noun], nominative, plural, masculine
- “your(a).”
- sutā ← sutāḥ ← suta
- [noun], nominative, plural, masculine
- “Soma.”
- nāsatyā ← nāsatya
- [noun], vocative, dual, masculine
- “Asvins; nāsatya [word].”
- vṛktabarhiṣaḥ ← vṛkta ← vṛj
- [verb noun]
- vṛktabarhiṣaḥ ← barhiṣaḥ ← barhis
- [noun], genitive, singular, masculine
- “Barhis; barhis [word].”
- ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- yātaṃ ← yātam ← yā
- [verb], dual, Present imperative
- “go; enter (a state); travel; disappear; reach; come; campaign; elapse; arrive; drive; reach; leave; run; depart; ride.”
- rudravartanī ← rudravartani
- [noun], vocative, dual, masculine
- “Asvins.”
सायण-भाष्यम्
अत्र अश्विना इत्यनुवर्तते । हे अश्विनौ आ यातम् अस्मिन् कर्मण्यागच्छतम् । किमर्थमिति तदुच्यते । सुताः युष्मदर्थं सोमा अभिषुताः तान् स्वीकर्तुमिति शेषः । कीदृशावश्विनौ। दस्रा दस्रौ शत्रूणामुपक्षपयितारौ । यद्वा। देववैद्यत्वेन रोगाणामुपक्षपयितारौ। ‘अश्विनौ वै देवानां भिषजौ’ (ऐ.बा. १. १८) इति श्रुतेः । नासत्या असत्यमनृतभाषणं तद्रहितौ । अत्र यास्कः-’सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः । सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः’ (निरु. ६. १३ ) इति । रुद्रवर्तनी । रुद्रशब्दस्य रोदनं प्रवृत्तिनिमित्तं ’ यदरोदीत्तद्रुदस्य रुद्रत्वम्’ ( तै. सं. १. ५. १. १ ) इति तैत्तिरीयाः । तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्राः’ इति वाजसनेयिनः । रुद्राणां शत्रुरोदनकारिणां शूरभटानां वर्तनिर्मार्गो धाटीरूपो ययोस्तौ रुद्रवर्तनी । यथा शूरा धाटीमुखेन शत्रून् रोदयन्ति तद्वदेतावित्यर्थः । युवाकवः इत्यभिषुतसोमानां विशेषणम् । वसतीवरीभिरेकधनाभिश्चाद्भिर्मिश्रिता इत्यर्थः। वृक्तबर्हिषः। वृक्तानि मूलैर्वर्जितानि बर्हींष्यास्तरणरूपाणि येषां सोमानां ते वृक्तबर्हिषः । यद्वा । ‘भरताः’ इत्यादिष्वष्टसु ऋत्विङ्नामसु ‘वृक्तबर्हिषः’ ( नि. ३. १८, ४ ) इति । तदानीं तृतीयार्थे प्रथमा । ऋत्विभिरभिषुता इत्यन्वयः ॥ दस्रा। ‘आमन्त्रितस्य°’ ( पा. सू. ६. १. १९८) इत्याद्युदात्तः । युवाकवः । ‘यु मिश्रणे ‘। युवन्ति मिश्रीभवन्ति वसतीवरीप्रभृतिभिः श्रयणद्रव्यैरिति युवाकवः । कटिकुष्यादिषु ( उ. सू. ३. ३५७ ) अगणितस्यापि यौतेः बहुलग्रहणात् काकुप्रत्ययः । तस्य कित्त्वेन गुणाभावादुबङादेशः । प्रत्ययस्वरेण आकार उदात्तः । न विद्यतेऽसत्यमनयोरिति नासत्यौ। ‘नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या’ (पा. सू. ६. ३. ७५ ) इत्यादिना प्रकृतिवद्भावात् नञो नलोपाभावः । पादादित्वेनानिघातादामन्त्रिताद्युदात्तत्वम् । वृक्तबर्हिषः । वृक्तं मूलैर्वर्जित बर्हिरास्तीर्णं येषां सोमानां ते वृक्तबर्हिषः । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरेण क्तप्रत्ययस्वर एव शिष्यते । आ इत्यत्र ‘उपसर्गाश्चाभिवर्जम्’ ( फि.सू. ८१) इत्युदात्तः । रुद्रवर्तनी । ‘आमन्त्रितस्य च ’ ( पा. सू. ८.१ १९ ) इत्यामन्त्रितनिघातः ॥
Wilson
English translation:
“Aśvins, destroyers of foes, exempt from untruth, leaders in the van of heroes, come to the mixed libations sprinkled on the lopped sacred grass.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Darsa = destroyers of foes or diseases; ‘aśvinau vai devānām bhiṣajau–iti sruteḥ’, the two aśvins are verily the physicians of the gods, according to the Veda. rudra-vartani: rudra, from rud, weeping; yad arodīt tad rudrasya rudratvam: in as much as he wept, thence came the property or function of rudra (Taittirīya Saṃhitā 1.5.1.1); hence, Rudra = heroes, they who make their enemies weep;
Vartani = a road or way; in this hymn, it is the front of the way, the van; hence rudra, heroes are in the van of warriors. vṛktabarhiṣaḥ: kuśa grass has the roots cut off and is spread on the vedī (altar) and upon it is added the libation of Soma, or oblation of clarified butter, poured; it is also a seat for the deity or deities invoked to the sacrifice
Jamison Brereton
O wondrous Nāsatyas, the soma-pressings of the man who has twisted the ritual grass are seeking you.
Drive here, o you who follow the course of the Rudras [=Maruts].
Jamison Brereton Notes
In the compound rudra-vartanī, number is of course neutralized in the first member. The Maruts are regularly called Rudras (without vṛddhi or derivational suffix) after their father. The ‘course of the Rudra/Maruts’ is simply a reference to the midspace (antarikṣa) much frequented by the Maruts, where the Aśvins are now driving.
Griffith
Nasatyas, wonder-workers, yours are these libations with clipt grass:
Come ye whose paths are red with flame.
Geldner
Ihr Meister Nasatya´s, euch gehören die Somatränke des Opferers, der das Barhis umgelegt hat. Kommet herbei, die ihr die Bahn des Rudra wandelt!
Grassmann
Hülfreiche, euer ist der Trank, o treue, auf geweihter Streu, Auf lichten Pfaden kommt herbei.
Elizarenkova
О чудесные, для вас выжаты (соки сомы)
У того, кто разложил жертвенную солому, о Насатьи.
Придите, вы оба, следуя сверкающим путем!
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
फिर भी वे अश्वी किस प्रकार के हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (युवाकवः) एक दूसरी से मिली वा पृथक् क्रियाओं को सिद्ध करने (सुताः) पदार्थविद्या के सार को सिद्ध करके प्रकट करने (वृक्तबर्हिषः) उसके फल को दिखानेवाले विद्वान् लोगो ! (रुद्रवर्त्तनी) जिनका प्राणमार्ग है, वे (दस्रा) दुःखों के नाश करनेवाले (नासत्या) जिनमें एक भी गुण मिथ्या नहीं (आयातम्) जो अनेक प्रकार के व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले हैं, उन पूर्वोक्त अश्वियों को जब विद्या से उपकार में ले आओगे, उस समय तुम उत्तम सुखों को प्राप्त होवोगे॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है कि हे मनुष्य लोगो ! तुमको सब सुखों की सिद्धि के लिये तथा दुःखों के विनाश के लिये शिल्पविद्या में अग्नि और जल का यथावत् उपयोग करना चाहिये॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे सुता युवाकवो वृक्तबर्हिषो विद्वांसः शिल्पविद्याविदो भवन्तो यौ रुद्रवर्त्तनी दस्रौ नासत्यौ पूर्वोक्तावश्विनावायातं समन्ताद् यानानि गमयतस्तौ यदा यूयं साधयिष्यथ तदोत्तमानि सुखानि प्राप्स्यथ॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
पुनस्तावश्विनौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा) दुःखानामुपक्षयकर्त्तारौ। दसु उपक्षये इत्यस्मादौणादिको रक्प्रत्ययः। (युवाकवः) सम्पादितमिश्रितामिश्रितक्रियाः। यु मिश्रणे अमिश्रणे चेत्यस्माद्धातोरौणादिक आकुक् प्रत्ययः। (सुताः) अभिमुख्यतया पदार्थविद्यासारनिष्पादिनः। अत्र बाहुलकात्कर्तृकारक औणादिकः क्तप्रत्ययः। (नासत्या) न विद्यतेऽसत्यं कर्मगुणो वा ययोस्तौ। नभ्राण्नपान्नवेदा०। (अष्टा०६.३.७४) नासत्यौ चाश्विनौ सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः। (निरु०६.१३) (वृक्तबर्हिषः) शिल्पफलनिष्पादिन ऋत्विजः। वृक्तबर्हिष इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८) (आ) समन्तात् (यातम्) गच्छतो गमयतः। अत्र व्यत्ययः, अन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (रुद्रवर्त्तनी) रुद्रस्य प्राणस्य वर्त्तनिर्मार्गो ययोस्तौ॥३॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वरो मनुष्यानुपदिशति-युष्माभिः सर्वसुखशिल्पविद्यासिद्धये दुःखविनाशाय च शिल्पविद्यायामग्नि- जलयोर्यथावदुपयोगः कर्त्तव्य इति॥३॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर माणसांना उपदेश करतो की हे माणसांनो! तुम्ही सर्व सुखाच्या सिद्धीसाठी व दुःखाच्या निवारणासाठी शिल्पविद्येमध्ये अग्नी व जलाचा यथायोग्य उपयोग केला पाहिजे. ॥ ३ ॥
04 इन्द्रा याहि - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ᳓न्द्रा᳓ याहि चित्रभानो
सुता᳓ इमे᳓ तुवाय᳓वः
अ᳓ण्वीभिस् त᳓ना पूता᳓सः
मूलम् ...{Loading}...
इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑ ।
अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - इन्द्रः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
इ᳓न्द्रा᳓ याहि चित्रभानो
सुता᳓ इमे᳓ तुवाय᳓वः
अ᳓ण्वीभिस् त᳓ना पूता᳓सः
Vedaweb annotation
Strata
Normal
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
Morph
ā́ ← ā́ (invariable)
citrabhāno ← citrábhānu- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:SG}
índra ← índra- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:SG}
yāhi ← √yā- 1 (root)
{number:SG, person:2, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
imé ← ayám (pronoun)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
sutā́ḥ ← √su- (root)
{case:NOM, gender:M, number:PL, non-finite:PPP}
tvāyávaḥ ← tvāyú- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
áṇvībhiḥ ← áṇvī- (nominal stem)
{case:INS, gender:F, number:PL}
pūtā́saḥ ← √pū- (root)
{case:NOM, gender:M, number:PL, non-finite:PPP}
tánā ← tán- (nominal stem)
{case:INS, gender:F, number:SG}
पद-पाठः
इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । सु॒ताः । इ॒मे । त्वा॒ऽयवः॑ ।
अण्वी॑भिः । तना॑ । पू॒तासः॑ ॥
Hellwig Grammar
- indrā ← indra
- [noun], vocative, singular, masculine
- “Indra; leader; best; king; first; head; self; indra [word]; Indra; sapphire; fourteen; guru.”
- indrā ← ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- yāhi ← yā
- [verb], singular, Present imperative
- “go; enter (a state); travel; disappear; reach; come; campaign; elapse; arrive; drive; reach; leave; run; depart; ride.”
- citrabhāno ← citra
- [noun]
- “manifold; extraordinary; beautiful; divers(a); varicolored; bright; bright; bright; outstanding; agitated; aglitter(p); brilliant; painted; obvious; patched; bizarre.”
- citrabhāno ← bhāno ← bhānu
- [noun], vocative, singular, masculine
- “sun; Surya; Calotropis gigantea Beng.; sunbeam; beam; luminosity; copper; light; twelve; appearance; Bhānu; flare.”
- sutā ← sutāḥ ← suta
- [noun], nominative, plural, masculine
- “Soma.”
- ime ← idam
- [noun], nominative, plural, masculine
- “this; he,she,it (pers. pron.); here.”
- tvāyavaḥ ← tvāyu
- [noun], nominative, plural, masculine
- aṇvībhis ← aṇvībhiḥ ← aṇu
- [noun], instrumental, plural, feminine
- “small; fine; subtle; thin.”
- tanā ← tan
- [noun], instrumental, singular, feminine
- “continuity; sequence; longevity.”
- pūtāsaḥ ← pū
- [verb noun], nominative, plural
- “purify; filter; blow; purify; purge; sift.”
सायण-भाष्यम्
चित्रभानो चित्रदीप्ते हे इन्द्र अस्मिन् कर्मणि आ याहि आगच्छ । सुताः अभिषुताः इमे सोमाः त्वायवः त्वां कामयमाना वर्तन्ते । अण्वीभिः। ‘अग्रुवः’ इत्यादिषु द्वाविंशतिसंख्याकेष्वङ्गुलिनामसु ‘अण्व्यः’ (नि. २. ५, २) इति पठितम्। ऋत्विजामङ्गुलिभिः सुता इत्यन्वयः । किंच एते सोमाः तना नित्यं पूतासः पूताः शुद्धा दशापवित्रेण बहुधा शोधितत्वात् । इन्द्रशब्दं यास्को बहुधा निर्वक्ति- इन्द्र इरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयतीति वेरां धारयतीति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा तद्यदेनं प्राणैः समैन्धंस्तदिंद्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायत इदंकरणादिस्याग्रायण इदंदर्शनादित्यौपमन्यव इन्दतेर्वैश्वर्यकर्मण इञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दरयिता च यज्वनाम्’ (निरु. १०.८ ) इति । अस्यायमर्थः । ‘दॄ विदारणे’ इति धातुः । इरामन्नमुद्दिश्य तन्निष्पादकजलसिद्ध्यर्थं दृणाति मेघं विदीर्णं करोतीतीन्द्रः। ‘डुदाञ् दाने ’ इति धातुः । इरामन्नं वृष्टिनिष्पादनेन ददातीतीन्द्रः । ‘धाञ् पोषणार्थः’ । इरामन्नं तृप्तिकारणं’ सस्यं दधाति जलप्रदानेन पुष्णातीतीन्द्रः । इरामुत्पादयितुं कर्षकमुखेन भूमिं विदारयतीतीन्द्रः। पूर्वोक्तपोषणमुखेनेरां धारयति विनाशराहित्येन स्थापयतीतीन्द्रः । इन्दुः सोमो वल्लीरसः । तदर्थं यागभूमौ द्रवति धावतीतीन्द्रः । इन्दौ यथोक्ते सोमे रमते क्रीडतीतीन्द्रः। ‘ञिइन्धी दीप्तौ ’ इति धातुः । भूतानि प्राणिदेहान् इन्धे जीवचैतन्यरूपेणान्तः प्रविश्य दीपयतीतीन्द्रः । एतदेवाभिप्रेत्य वाजसनेयिन आमनन्ति– ‘इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः। तं वा एतमिन्धं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते । परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः’ (बृ. उ. ४. २. २ ) इति । तद्यत्’ इत्यादिकं ब्राह्मणान्तरवाक्यम् । तत्तत्र इन्द्रविषये निर्वचनमुच्यते इति शेषः । यद्यस्मात् कारणादेनं परमात्मरूपमिन्द्रं देवं प्राणैः वाक्चक्षुरादीन्द्रियैः प्राणापानादिवायुभिश्च सहितं समैन्धन् उपासका ध्यानेन सम्यक् प्रकाशितवन्तः, तत् तस्मात् कारणात् इन्द्रनाम संपन्नम् । अस्मिन् पक्षे इध्यते दीप्यते इति कर्मणि व्युत्पत्तिः । आग्रायणनामको मुनिः ‘इदंकरणादिन्द्रः’ इति निर्वचनं मन्यते । इन्द्रो हि परमात्मरूपेणेदं जगत्करोति । औपमन्यवनामको मुनिरिदं दर्शनादिन्द्र इति निर्वचनमाह । इदम् इत्यापरोक्ष्यमुच्यते विवेकेन हि परमात्मानमापरोक्ष्येण पश्यति । एतदेवाभिप्रेत्य आरण्यकाण्डे समाम्नायते- स एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यदिदमदर्शमितीँ३ । तस्मादिदन्द्रो नामेन्द्रो ह वै नाम तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः’ ( ऐ. आ. २. ४. ३ ) इति । ‘इदि परमैश्वर्ये’ इति धातुः । स्वमायया जगद्रूपत्वं परमैश्वर्यम् । तद्योगादिन्द्रः। अनेनाभिप्रायेण श्रूयते—‘इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते’ (ऋ. सं. ६. ४७. १८) इति । इनशब्दस्येश्वरवाचकस्य अकारलोप सति नकारान्तम् इन् इति पदं भवति । ‘दॄ भये’ इति धातुः । स च परमेश्वरः शत्रूणां दारयिता भीषयितेतीन्द्रः। द्रु गतौ ’ इति धातुः । शत्रूणां द्रावयिता पलायनं प्रापयितेतीन्द्रः । यज्वनां यागानुष्ठायिनामादरयिता भयस्य परिहर्ता । एवमेतानि निर्वचनानि द्रष्टव्यानीति ॥ इन्द्र इत्यत्र आमन्त्रिताद्युदात्तत्वम् । आ इत्यत्र निपातत्वेनाद्युदात्तः । चित्रभानो। पदात् परत्वादामन्त्रितनिघातः । त्वामिच्छन्तीत्यर्थे युष्मच्छब्दात् ‘सुप आत्मनः क्यच्’ (पा. सू. ३.१.८)। ’ प्रत्ययोत्तरपदयोश्च’ (पा. सू. ७. २. ९८ ) इति मपर्यन्तस्यत्वादेशः । ‘क्याच्छन्दसि ’ (पा. सू. ३. २. १७० ) इति क्यजन्तात् उप्रत्ययः । त्वद्यव इति प्राप्तौ ’ युष्मदस्मदोरनादेशे’ (पा. सू. ७. २. ८६ ) इत्यविभक्तावपि हलादौ व्यत्ययेन आत्वम् । उकारः प्रत्ययस्वरेणाद्युदात्तः । अणुशब्दः सौक्ष्म्यवाचकः तद्योगात् प्रकृतेऽङ्गलीषु वर्तते । वोतो गुणवचनात् ’ (पा. सू. ४. १. ४४ ) इति ङीषि प्राप्ते व्यत्ययेन ङीन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । तना इत्ययं निपातो नित्यमित्यर्थे निपातत्वादाद्युदात्तः । पूतासः । ‘आज्जसेरसुक्’ (पा. सू. ७. १. ५० ) इत्यसुक् ॥
Wilson
English translation:
“Indra, of wonderful splendour, come hither; these libations, ever pure, expressed by the fingers (of the priests) are desirous of you.”
Jamison Brereton
O Indra, drive here!—you of bright radiance. These soma-pressings here are seeking you,
the ones purifed in full measure by delicate (fingers).
Griffith
O Indra marvellously bright, come, these libations long for thee,
Thus by fine fingers purified.
Geldner
Indra! Komm her, du prachtglänzender; nach dir verlangen diese Somatränke, die von den zarten Fingern in einem Zuge geläutert werden.
Grassmann
O Indra komme glänzendhell, die Tränke sehnen sich nach dir, Durch zarte Finger wohl geklärt.
Elizarenkova
О Индра, приди, ярко блистающий!
Эти выжатые (соки сомы) стремятся к тебе,
Очищенные в один прием тонкими (пальцами).
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्र:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
परमेश्वर ने अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से अपना और सूर्य्य का उपदेश किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चित्रभानो) हे आश्चर्य्यप्रकाशयुक्त (इन्द्र) परमेश्वर ! आप हमको कृपा करके प्राप्त हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (अण्वीभिः) कारणों के भागों से (तना) सब संसार में विस्तृत (पूतासः) पवित्र और (त्वायवः) आपके उत्पन्न किये हुए व्यवहारों से युक्त (सुताः) उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं, हम लोग जिनसे उपकार लेनेवाले होते हैं, इससे हम लोग आप ही के शरणागत हैं। दूसरा अर्थ-जो सूर्य्य अपने गुणों से सब पदार्थों को प्राप्त होता है, वह (अण्वीभिः) अपनी किरणों से (तना) संसार में विस्तृत (त्वायवः) उसके निमित्त से जीनेवाले (पूतासः) पवित्र (सुताः) संसार के पदार्थ हैं, वही इन उनको प्रकाशयुक्त करता है॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यहाँ श्लेषालङ्कार समझना। जो-जो इस मन्त्र में परमेश्वर और सूर्य्य के गुण और कर्म प्रकाशित किये गये हैं, इनसे परमार्थ और व्यवहार की सिद्धि के लिये अच्छी प्रकार उपयोग लेना सब मनुष्यों को योग्य है॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे चित्रभानो इन्द्र परमेश्वर ! त्वमस्मानायाहि कृपया प्राप्नुहि, येन भवता इमे अण्वीभिस्तना पुष्कलद्रव्यदाः पूतासस्त्वायवः सुता उत्पादिता पदार्था वर्त्तन्ते तैर्गृहीतोपकारानस्मान्सम्पादय। तथा योऽयमिन्द्रः स्वगुणैः सर्वान् पदार्थानायाति प्राप्नोति तेनेमे अण्वीभिः किरणकारणावयवैस्तना विस्तृतप्राप्तिहेतवस्त्वायवस्तन्निमित्तप्राप्तायुषः पूतासः सुताः संसारस्थाः पदार्थाः प्रकाशयुक्ताः क्रियन्ते तैरिति पूर्ववत्॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
इदानीमेतद्विद्योपयोगिनाविन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावुपदिश्येते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमेश्वर सूर्य्यो वा। अत्राह यास्काचार्य्यः—इन्द्र इरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा। तद्यदेनं प्राणैः समैन्धँस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते। इदं करणादित्याग्रायण इदं दर्शनादित्यौपमन्यव इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इदञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दारयिता च यज्वनाम्। (निरु०१०.८) इन्द्राय साम गायत नेन्द्रादृते पवते धाम किंचनेन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्रवोचमिन्द्रे कामा अयंसत। (निरु०७.२)। इराशब्देनान्नं पृथिव्यादिकमुच्यते। तद्दारणात्तद्दानात्तद्धारणात्। चन्द्रलोकस्य प्रकाशाय द्रवणात्तत्र रमणादित्यर्थेनेन्द्रशब्दात् सूर्य्यलोको गृह्यते। तथा सर्वेषां भूतानां प्रकाशनात् प्राणैर्जीवस्योपकरणादस्य सर्वस्य जगत उत्पादनाद् दर्शनहेतोश्च सर्वैश्वर्य्ययोगाद् दुष्टानां शत्रूणां विनाशकाद् दूरे गमकत्वाद् यज्वनां रक्षकत्वाच्चेत्यर्थादिन्द्रशब्देनेश्वरस्य ग्रहणम्। एवं परमेश्वराद्विना किञ्चिदपि वस्तु न पवते। तथा सूर्य्याकर्षणेन विना कश्चिदपि लोको नैव चलति तिष्ठति वा। प्र तु॑विद्यु॒म्नस्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वे॑र्दि॒वो र॑रप्शे महि॒मा पृ॑थि॒व्याः। नास्य॒ शत्रु॒र्न प्र॑ति॒मान॑मस्ति॒ न प्र॑ति॒ष्ठिः पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः॑॥ (ऋ०६.१८.१२) यस्यायं महाप्रकाशस्य वृद्धस्य सर्वपदार्थानां जगदुत्पत्तौ सङ्घर्षकर्त्तुः सहनशीलस्य बहुपदार्थनिर्मातुरिन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतः परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य सृष्टेर्मध्ये महिमा प्रकाशते तस्यास्य न कश्चिच्छत्रुः, न किञ्चित्परिमाणसाधनमर्थादुपमानं नैकत्राधिकरणं चास्ति, इत्यनेनोभावर्थौ गृह्येते।(आयाहि) समन्तात्प्राप्तो भव भवति वा (चित्रभानो) चित्रा आश्चर्यभूता भानवो दीप्तयो यस्य सः (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः (इमे) विद्यमानाः (त्वायवः) त्वां तं वोपेताः। छन्दसीणः। (उणा०१.२) इत्यौणादिके उण्प्रत्यये कृते आयुरिति सिध्यति। त्वदित्यत्र छान्दसो वर्णलोपो वेत्यनेन तकारलोपः। (अण्वीभिः) कारणैः, प्रकाशावयवैः किरणैरङ्गुलिभिर्वा। वोतो गुणवचनात्। (अष्टा०४.१.४४) अनेन ङीषि प्राप्ते व्यत्ययेन ङीन्। (तना) विस्तृतधनप्रदाः। तनेति धननामसु पठितम्। (निरु०२.१०) अत्र सुपां सुलुगित्यनेनाकारादेशः। (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च॥४॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारेणेश्वरस्य सूर्य्यस्य वा यानि कर्माणि प्रकाश्यन्ते तानि परमार्थव्यवहारसिद्धये मनुष्यैः समुपयोक्तव्यानि सन्तीति॥४॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - येथे श्लेषालंकार आहे. या मंत्रात जे जे परमेश्वर व सूर्याचे गुण, कर्म सांगितलेले आहेत त्याचा परमार्थसिद्धीसाठी व व्यवहारसिद्धीसाठी माणसांनी चांगल्या प्रकारे उपयोग करून घ्यावा ॥ ४ ॥
05 इन्द्रा याहि - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ᳓न्द्रा᳓ याहि धिये᳓षितो᳓
वि᳓प्रजूतः सुता᳓वतः
उ᳓प ब्र᳓ह्माणि वाघ᳓तः
मूलम् ...{Loading}...
इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः ।
उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - इन्द्रः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
इ᳓न्द्रा᳓ याहि धिये᳓षितो᳓
वि᳓प्रजूतः सुता᳓वतः
उ᳓प ब्र᳓ह्माणि वाघ᳓तः
Vedaweb annotation
Strata
Normal
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
Morph
ā́ ← ā́ (invariable)
dhiyā́ ← dhī́- (nominal stem)
{case:INS, gender:F, number:SG}
índra ← índra- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:SG}
iṣitáḥ ← √iṣ- 1 (root)
{case:NOM, gender:M, number:SG, non-finite:PPP}
yāhi ← √yā- 1 (root)
{number:SG, person:2, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
sutā́vataḥ ← sutā́vant- (nominal stem)
{case:GEN, gender:M, number:SG}
víprajūtaḥ ← víprajūta- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:SG}
bráhmāṇi ← bráhman- (nominal stem)
{case:ACC, gender:N, number:PL}
úpa ← úpa (invariable)
vāghátaḥ ← vāghát- (nominal stem)
{case:GEN, gender:M, number:SG}
पद-पाठः
इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । धि॒या । इ॒षि॒तः । विप्र॑ऽजूतः । सु॒तऽव॑तः ।
उप॑ । ब्रह्मा॑णि । वा॒घतः॑ ॥
Hellwig Grammar
- indrā ← indra
- [noun], vocative, singular, masculine
- “Indra; leader; best; king; first; head; self; indra [word]; Indra; sapphire; fourteen; guru.”
- indrā ← ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- yāhi ← yā
- [verb], singular, Present imperative
- “go; enter (a state); travel; disappear; reach; come; campaign; elapse; arrive; drive; reach; leave; run; depart; ride.”
- dhiyeṣito ← dhiyā ← dhī
- [noun], instrumental, singular, feminine
- “intelligence; prayer; mind; insight; idea; hymn; purpose; art; knowledge.”
- dhiyeṣito ← iṣitaḥ ← iṣay ← √iṣ
- [verb noun], nominative, singular
- viprajūtaḥ ← vipra
- [noun], masculine
- “Brahmin; poet; singer; priest; guru; Vipra.”
- viprajūtaḥ ← jūtaḥ ← jū
- [verb noun], nominative, singular
- “animate; encourage; impel; inspire.”
- sutāvataḥ ← sutāvat
- [noun], genitive, singular, masculine
- upa
- [adverb]
- “towards; on; next.”
- brahmāṇi ← brahman
- [noun], accusative, plural, neuter
- “brahman; mantra; prayer; spell; Veda; Brahmin; sacred text; final emancipation; hymn; brahman [word]; Brāhmaṇa; study.”
- vāghataḥ ← vāghant
- [noun], genitive, singular, masculine
सायण-भाष्यम्
हे इन्द्र त्वम् आ याहि अस्मिन् कर्मण्यागच्छ। किमर्थम् । ‘वाघतः ऋत्विजः ब्रह्माणि वेदरूपाणि स्तोत्राण्युपैतुम्। कीदृशस्त्वम् । धिया अस्मदीयया प्रज्ञया इषितः प्राप्तः अस्मद्भक्त्या प्रेरित इत्यर्थः । विप्रजूतः । यथा यजमानभक्त्या प्रेरितस्तथान्यैरपि विप्रैर्मेधाविभिर्ऋत्विग्भिः प्रेरितः । कीदृशस्य वाघतः । ‘सुतावतः अभिषुतसोमयुक्तस्य ॥ ‘केतः’ इत्यादिष्वेकादशसु प्रज्ञानामसु ‘धीः ’ (नि.३. ९. ७) इति पठितम् । चतुर्विशतिसंख्याकेषु मेधाविनामसु ‘ विप्रः धीरः ’ ( नि. ३. १५. १) इति पठितम् । ‘भरताः’ इत्यादिष्वष्टसु ऋत्विज्ञामसु ‘वाघतः ’ ( नि. ३. १८. ३) इति पठितम् । इषित इत्यत्र ‘इष गतौ’ इत्यस्मान्निष्ठायामिडागमः । ‘आगमा अनुदात्ताः’ ( पा. म. ३. १.३.७ ) इति इटः अनुदातत्वात् क्तस्वरः शिष्यते । विप्रजूतः । डुवप् बीजसंताने’ इति धातोः ‘ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र’ ( उ. सू. २.१८६ ) इत्यादिना रन्प्रत्ययान्तो विप्रशब्दो निपातितः । निपातनदुपधाया इकारो लघूपधगुणाभावश्च । नित्वादाद्युदात्तः । तैर्जूतः प्राप्तः । ‘जू’(!) इति सौत्रो धातुर्गत्यर्थः ( पा. सू. ३. २. १५० )। ‘श्र्युकः किति’ (पा. सू. ७. २. ११) इति इट्प्रतिषेधः। तृतीया कर्मणि’ ( पा. सू. ६. २. ४८) इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । सुतावतः । छान्दसं दीर्घत्वम् । मतुपोऽनुदात्तत्वात् क्तप्रत्ययस्वर एव शिष्यते । ब्रह्माणि । ‘नब्विषयस्यानिसन्तस्य (फि. सू. २६ ) इत्याद्युदात्तः । वाघच्छब्द ऋत्विङ्नामसु पठितः । प्रातिपदिकस्वरः ॥
Wilson
English translation:
“Indra, apprehended by the understanding and appreciated by the wise, approach and accept the prayers of the priest as he offers the libation.”
Jamison Brereton
O Indra, drive here!—roused by our insight, sped by our inspired poets, to the sacred formulations of the cantor who has the pressed soma.
Jamison Brereton Notes
The peculiarly formed stem vāghát- clearly refers to a ritual officient of some sort, but in the absence of both a set of diagnostic contexts and a convincing etymology, it is hard to narrow his function down. Because his voice (vā́ṇi-) figures in a simile (I.88.6 vāgháto ná vā́ṇiḥ); because he is associated with verbal products, like the bráhmāṇi here; because Vāghats are the agents at vying sacrificial invocations (e.g., I.36.13 vāghádbhir vihváyāmahe; cf. III.8.10, VIII.5.16); and because they are associated with the Aṅgirases, the singers in the Vala myth (X.62.7), we chose to render the term by ‘cantor’, though this is only a guess - esp. since in most of the occurrences the ritual role and priestly activity are pretty generic. The word is also twice applied to the Ṛbhus (I.110.4, III.60.4).
Griffith
Urged by the holy singer, sped by song, come, Indra, to the prayers,
Of the libation-pouring priest.
Geldner
Indra! Komm her, durch unsere Dichtung angespornt, von den Redekundigen zur Eile getrieben, zu den erbaulichen Worten des Priesters, der Soma bereitet hat!
Grassmann
Komm, Indra, durch Gebet gelockt, beeilt vom Sänger zu dem Spruch Des somareichen Opferers.
Elizarenkova
О Индра, приди, поощренный (нашей) мыслью,
Возбужденный вдохновенными (поэтами) на молитвы
Устроителя жертвы, выжавшего (сому)!
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्र:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
ईश्वर ने अगले मन्त्र में अपना प्रकाश किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (धिया) निरन्तर ज्ञानयुक्त बुद्धि वा उत्तम कर्म से (इषितः) प्राप्त होने और (विप्रजूतः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगों के जानने योग्य आप (सुतावतः) पदार्थविद्या के जाननेवाले (ब्रह्माणि) ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ जाना है, तथा (वाघतः) जो यज्ञविद्या के अनुष्ठान से सुख उत्पन्न करनेवाले हैं, इन सबों को कृपा से (उपायाहि) प्राप्त हूजिये॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को उचित है कि जो सब कार्य्यजगत् की उत्पत्ति करने में आदिकारण परमेश्वर है, उसको शुद्ध बुद्धि विज्ञान से साक्षात् करना चाहिये॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे इन्द्र ! धियेषितः विप्रजूतस्त्वं सुतावतो ब्रह्माणि वाघतो विदुष उपायाहि॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमेश्वर ! (आयाहि) प्राप्तो भव (धिया) प्रकृष्टज्ञानयुक्त्या बुद्ध्योत्तमकर्मणा वा (इषितः) प्रापयितव्यः (विप्रजूतः) विप्रैर्मेधाविभिर्विद्वद्भिर्ज्ञातः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (सुतावतः) प्राप्तपदार्थविद्यान् (उप) सामीप्ये (ब्रह्माणि) विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्। ब्रह्म वै ब्राह्मणः। (श०ब्रा०१३.१.५.३) (वाघतः) यज्ञविद्यानुष्ठानेन सुखसम्पादिन ऋत्विजः। वाघत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८)॥५॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्मूलकारणस्येश्वरस्य संस्कृतया बुद्ध्या विज्ञानतः साक्षात्प्राप्तिः कार्य्या। नैवं विनाऽयं केनचिन्मनुष्येण प्राप्तुं शक्य इति॥५॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - संपूर्ण कार्यजगताची उत्पत्ती करणारा आदिकारण परमेश्वर आहे तेव्हा माणसांनी शुद्ध बुद्धी विज्ञानाने त्याचा साक्षात्कार केला पाहिजे. ॥ ५ ॥
06 इन्द्रा याहि - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ᳓न्द्रा᳓ याहि तू᳓तुजान
उ᳓प ब्र᳓ह्माणि हरिवः
सुते᳓ दधिष्व नश् च᳓नः
मूलम् ...{Loading}...
इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः ।
सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - इन्द्रः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
इ᳓न्द्रा᳓ याहि तू᳓तुजान
उ᳓प ब्र᳓ह्माणि हरिवः
सुते᳓ दधिष्व नश् च᳓नः
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Strata
Normal
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).;; Trochaic gāyatrī; see Oldenberg (1888) 25 and Vedic Metre (Arnold, 1905) 165.
Morph
ā́ ← ā́ (invariable)
índra ← índra- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:SG}
tū́tujānaḥ ← √tuj- (root)
{case:NOM, gender:M, number:SG, tense:PRF, voice:MED}
yāhi ← √yā- 1 (root)
{number:SG, person:2, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
bráhmāṇi ← bráhman- (nominal stem)
{case:ACC, gender:N, number:PL}
harivaḥ ← hárivant- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:SG}
úpa ← úpa (invariable)
cánaḥ ← cánas- (nominal stem)
{case:NOM, gender:N, number:SG}
dadhiṣva ← √dhā- 1 (root)
{number:SG, person:2, mood:IMP, tense:PRF, voice:MED}
naḥ ← ahám (pronoun)
{case:ACC, number:PL}
suté ← √su- (root)
{case:LOC, gender:M, number:SG, non-finite:PPP}
पद-पाठः
इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । तूतु॑जानः । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । ह॒रि॒ऽवः॒ ।
सु॒ते । द॒धि॒ष्व॒ । नः॒ । चनः॑ ॥
Hellwig Grammar
- indrā ← indra
- [noun], vocative, singular, masculine
- “Indra; leader; best; king; first; head; self; indra [word]; Indra; sapphire; fourteen; guru.”
- indrā ← ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- yāhi ← yā
- [verb], singular, Present imperative
- “go; enter (a state); travel; disappear; reach; come; campaign; elapse; arrive; drive; reach; leave; run; depart; ride.”
- tūtujāna ← tūtujānaḥ ← tuj
- [verb noun], nominative, singular
- “draw.”
- upa
- [adverb]
- “towards; on; next.”
- brahmāṇi ← brahman
- [noun], accusative, plural, neuter
- “brahman; mantra; prayer; spell; Veda; Brahmin; sacred text; final emancipation; hymn; brahman [word]; Brāhmaṇa; study.”
- harivaḥ ← harivas ← harivat
- [noun], vocative, singular, masculine
- sute ← suta
- [noun], locative, singular, masculine
- “Soma.”
- dadhiṣva ← dhā
- [verb], singular, Perfect imperative
- “put; give; cause; get; hold; make; provide; lend; wear; install; have; enter (a state); supply; hold; take; show.”
- naś ← naḥ ← mad
- [noun], genitive, plural
- “I; mine.”
- canaḥ ← canas
- [noun], accusative, singular, neuter
- “delight.”
सायण-भाष्यम्
हरिशब्दः इन्द्रसंबन्धिनोरश्वयोर्नामधेयं ‘हरी इन्द्रस्य रोहितोऽग्नेः ’ (नि. १. १५, १ ) इति तदीयाश्वनामत्वेन पठितत्वात् । हे हरिवः अश्वयुक्त इन्द्र त्वं ब्रह्माणि उपैतुम् आ याहि। कीदृशस्त्वम्। तूतुजानः त्वरमाणः । आगत्य च अस्मिन् सुते सोमाभिषवयुक्ते कर्मणि नः अस्मदीयं चनः अन्नं हविर्लक्षणं दधिष्व धारय स्वीकुर्वित्यर्थः ॥ तूतुजानः । तुजेर्लिंटि’ लिटः कानज्वा’ (पा.सू. ३. २. १०६ ) इति कानजादेशः । ‘तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य ’ ( पा. सू. ६. १. ७) इत्यभ्यासस्य दीर्घत्वम् । अभ्यस्तानामादिः (पा. सू. ६. १. १८९ ) इत्याद्युदात्तत्वम् । हरिव इत्यत्र हरयोऽस्य सन्तीति मतुपि ‘छन्दसीरः ’ ( पा. सू. ८. २. १५) इति मकारस्य वत्वम् । संबुद्धौ ‘ उगिदचाम् ’ ( पा. सू. ७. १. ७० ) इति नुम् । संयोगान्तलोपे ( पा. सू. ८. २. २३ ) नकारस्य ‘मतुवसो रु संबुद्धौ छन्दसि ’ ( पा. सू. ८. ३. १ ) इति रुत्वम् । आष्टमिको निघातः । ब्रह्माणीत्यस्य हरिव इत्यनेनासामर्थ्यात् ’ समर्थः पदविधिः (पा. सू. २. १. १ ) इति नियमात् सुबामन्त्रितपराङ्गवद्भावाभावेन आमन्त्रितनिघाताभावात् आद्युदात्तत्वे सति उप इति अकारस्य सन्नतरः । दधिष्व इत्यत्र दधातेर्लोटि थास् । ‘थासः से’ ( पा. सू. ३. ४. ८० ) ।’ सवाभ्यां वामौ ’ (पा. सू. ३. ४. ९१ ) इत्येकारस्य वादेशः । छन्दस्युभयथा ’ ( पा. सू. ३. ४. ११७ ) इति सार्वधातुकार्धधातुकसंज्ञयोः सत्योः सार्वधातुकत्वेन शपि ( पा. सू. ३ १.६८) तस्य श्लौ च द्विर्भावः ( पा. सू. ६. १. १० ), अर्धधातुकत्वेन इडागमश्च ( पा. सू. ७. २. ३५ ) । “ आतो लोप इटि च’ (पा. सू. ६ ४. ६४) इत्याकारलोपः । चनः । ‘चायतेरन्ने ह्रस्वश्च ’ (उ. सू. ४. ६३९) इत्यसुनन्तः । चकारात् नुडागमे यलोपः ॥ ॥ ५॥
Wilson
English translation:
“Fleet Indra with the tawny coursers, come hither to the prayer (of the priest), and in this libation accept our (proffered) food.”
Jamison Brereton
O Indra, drive here!—thrusting yourself onward to the sacred
formulations, o possessor of fallow bays.
Take delight in our pressed soma.
Griffith
Approach, O Indra, hasting thee, Lord of Bay Horses, to the prayers.
In our libation take delight.
Geldner
Indra! Komm her, dich beeilend, zu den erbaulichen Worten, du Falbenlenker, trage nach unserem Soma Verlangen.
Grassmann
Komm eilend zu den Sprüchen her, o Indra, mit den Füchsen dein, An unserm Soma labe dich.
Elizarenkova
О Индра, приди, поспешая
На молитвы, о хозяин буланых коней!
Одобри нашего выжатого (сому)!
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्र:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
ईश्वर ने अगले मन्त्र में भौतिक वायु का उपदेश किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हरिवः) जो वेगादिगुणयुक्त (तूतुजानः) शीघ्र चलनेवाला (इन्द्र) भौतिक वायु है, वह (सुते) प्रत्यक्ष उत्पन्न वाणी के व्यवहार में हमारे लिये (ब्रह्माणि) वेद के स्तोत्रों को (आयाहि) अच्छी प्रकार प्राप्त करता है, तथा वह (नः) हम लोगों के (चनः) अन्नादि व्यवहार को (दधिष्व) धारण करता है ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो शरीरस्थ प्राण है, वह सब क्रिया का निमित्त होकर खाना पीना पकाना ग्रहण करना और त्यागना आदि क्रियाओं से कर्म का कराने तथा शरीर में रुधिर आदि धातुओं के विभागों को जगह-जगह में पहुँचानेवाला है, क्योंकि वही शरीर आदि की पुष्टि वृद्धि और नाश का हेतु है ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: यो हरिवो वेगवान् तूतुजान इन्द्रो वायुः सुते ब्रह्माण्युपायाहि समन्तात् प्राप्नोति स एव चनो दधिष्व दधते ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
अथेन्द्रशब्देन वायुरुपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) अयं वायुः। विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ इन्द्रे॑ण वा॒युना॑। (ऋ०१.१४.१०) अनेन प्रमाणेनेन्द्रशब्देन वायुर्गृह्यते। (आ) समन्तात् (याहि) याति समन्तात् प्रापयति (तूतुजानः) त्वरमाणः। तूतुजान इति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (उप) सामीप्यम् (ब्रह्माणि) वेदस्थानि स्तोत्राणि (हरिवः) वेगाद्यश्ववान्। हरयो हरणनिमित्ताः प्रशस्ताः किरणा विद्यन्ते यस्य सः। अत्र प्रशंसायां मतुप्। मतुवसो रुः सम्बुद्धौ छन्दसीत्यनेन रुत्वविसर्जनीयौ। छन्दसीरः इत्यनेन वत्वम्। हरी इन्द्रस्य। (निघं०१.१५) (सुते) आभिमुख्यतयोत्पन्ने वाग्व्यवहारे (दधिष्व) दधते (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (चनः) अन्नभोजनादिव्यवहारम् ॥६॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरयं वायुः शरीरस्थः प्राणः सर्वचेष्टानिमित्तोऽन्नपानादानयाचनविसर्जनधातुविभागाभिसरणहेतुर्भूत्वा पुष्टिवृद्धिक्षयकरोऽस्तीति बोध्यम् ॥६॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - शरीरातील प्राण सर्व क्रियांचे निमित्त असून खाणे, पिणे, स्वयंपाक करणे व विसर्जन इत्यादी क्रियांनी कर्म करविणारा व शरीरातील रक्त इत्यादी धातूंच्या विभागांना ठिकठिकाणी पोहोचविणारा असतो (हे कार्य तो करतो. ) तोच शरीर इत्यादींची पुष्टी व नाशाचा हेतू आहे. ॥ ६ ॥
07 ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ओ᳓मासश्+++(=अवितारः)+++ चर्षणी-धृतो
वि᳓श्वे देवास आ᳓ गत+++(=गच्छत)+++ ।
दाश्वां᳓सो+++(←दाशृ दाने)+++ दाशु᳓षः सुत᳓म् +++(प्रति)+++॥
मूलम् ...{Loading}...
ओमा॑सश्चर्षणीधृतो॒ विश्वे॑ देवास॒ आ ग॑त ।
दा॒श्वांसो॑ दा॒शुषः॑ सु॒तम् ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - विश्वे देवाः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
ओ᳓मासश् चर्षणीधृतो
वि᳓श्वे देवास आ᳓ गत
दाश्वां᳓सो दाशु᳓षः सुत᳓म्
Vedaweb annotation
Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
ā́ ← ā́ (invariable)
carṣaṇīdhr̥taḥ ← carṣaṇīdhŕ̥t- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:PL}
ūmāsaḥ ← ū́ma- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:PL}
ā́ ← ā́ (invariable)
devāsaḥ ← devá- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:PL}
gata ← √gam- (root)
{number:PL, person:2, mood:IMP, tense:AOR, voice:ACT}
víśve ← víśva- (nominal stem)
{case:VOC, gender:M, number:PL}
dāśúṣaḥ ← dāśváṁs- (nominal stem)
{case:GEN, number:SG}
dāśvā́ṁsaḥ ← dāśváṁs- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
sutám ← √su- (root)
{case:ACC, gender:M, number:SG, non-finite:PPP}
पद-पाठः
ओमा॑सः । च॒र्ष॒णि॒ऽधृ॒तः॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒सः॒ । आ । ग॒त॒ ।
दा॒श्वांसः॑ । दा॒शुषः॑ । सु॒तम् ॥
Hellwig Grammar
- omāsaś ← omāsaḥ ← oma
- [noun], vocative, plural, masculine
- carṣaṇīdhṛto ← carṣaṇī
- [noun], feminine
- carṣaṇīdhṛto ← dhṛtaḥ ← dhṛt
- [noun], vocative, plural, masculine
- “maintaining.”
- viśve ← viśva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “all(a); whole; complete; each(a); viśva [word]; completely; wholly.”
- devāsa ← devāsaḥ ← deva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “Deva; Hindu deity; king; deity; Indra; deva [word]; God; Jina; Viśvedevās; mercury; natural phenomenon; gambling.”
- ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- gata ← gam
- [verb], plural, Aorist imperative
- “go; situate; enter (a state); travel; disappear; [in]; elapse; leave; reach; vanish; love; walk; approach; issue; hop on; gasify; get; come; die; drain; spread; transform; happen; discharge; ride; to be located; run; detect; refer; go; shall; drive.”
- dāśvāṃso ← dāśvāṃsaḥ ← dāś
- [verb noun], nominative, plural
- “sacrifice; give.”
- dāśuṣaḥ ← dāś
- [verb noun], genitive, singular
- “sacrifice; give.”
- sutam ← suta
- [noun], accusative, singular, masculine
- “Soma.”
सायण-भाष्यम्
हे विश्वे देवासः एतन्नामका देवविशेषाः दाशुषः हविर्दत्तवतो यजमानस्य सुतम् अभिषुतं सोमं प्रति आ गत आगच्छत । ते च देवाः ओमासः रक्षकाः चर्षणीधृतः मनुष्याणां धारकाः दाश्वांसः फलस्य दातारः । ‘मनुष्याः’ इत्यादिषु पञ्चविंशतिसंख्याकेषु मनुष्यनामसु चर्षणिशब्दः ( नि. २. ३. ८) पठितः । ‘अश्विनौ’ इत्यादिष्वेकत्रिंशत्संख्याकेषु देवविशेषनामसु • विश्वेदेवाः साध्याः’ (नि, ५. ६. २७ ) इति पठितम् । एतामृचं यास्क एवं व्याख्यातवान्-‘ अवितारो वावनीया वा मनुष्यधृतः सर्वे च देवा इहागच्छत दत्तवन्तो दत्तवतः सुतमिति तदेतदेकमेव वैश्वदेवं गायत्रं तृचं दशतयीषु विद्यते यत्तु किंचिद्बहुदैवतं तद्वैश्वदेवानां स्थाने युज्यते यदेव विश्वलिङ्गमिति शाकपूणिः । (निरु. १२. ४० ) इति । अत्र विश्वशब्दः सर्वशब्दपर्याय इति यास्कस्य मतम् । देवविशेषस्यैवासधारणं लिङ्गमिति शाकपूणेर्मतम् । अवन्ति इति ओमासः देवाः । ‘मन् ’ इत्यनुवृत्तौ ‘अविसिवि सिशुषिभ्यः कित्’ (उ. सू. १. १४१ ) इति मन्प्रत्ययः । ज्वरत्वरस्रिव्यविभवामुपधायाश्च’ (पा. सू. ६. ४. २०) इति ऊठ् । मनः कित्त्वेऽपि बाहुलकत्वाद्गुणः । ‘आज्ज़सेरसुक्’ (पा. सू. ७. १.५०) इति जसेः असुगागमः। आमन्त्रिताद्युदात्तत्वम्। चर्षणयो मनुष्याः। तान् वृष्टिदानादिना धारयन्तीति चर्षणीधृतः देवाः । पूर्वस्यामन्त्रितस्य सामान्यवचनस्य ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् ’ ( पा. सू. ८. १, ७४ ) इति अविद्यमानवत्वप्रतिषेधात् अपादादित्वेन निघातः । ननु अत एव विद्यमानवत्वात् ‘सुबामन्त्रिते°’ ( पा. सू. २. १. २) इति पराङ्गवत्वेनैकपदीभावात् पदादपरत्वेन कथं निघात इति चेत् , न । ‘वत्करणं स्वाश्रयमपि यथा स्यात् ’ ( पा. म. ८. १.७२ ) इति वचनात् पदभेदप्रयुक्तस्य । निघातस्याप्युपपत्तेः । ऐकपद्येऽप्याद्युदात्तत्वे ’ अनुदात्तं पदमेकवर्जम् ’ (पा. सू. ६. १. १५८ ) इति सुतरामेव निघातो भविष्यति। इत्थमेव तर्हि द्रवत्पाणी शुभस्पती’ इत्यत्रापि पराङ्गवत्त्वेनैकपद्यादुत्तरस्य शेषनिघातप्रसङ्ग इति चेत्, न । तत्र पराङ्गवद्भावस्य परेण ’ आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत् ’ ( पा. सू. ८. १. ७२ ) इत्यविद्यमानवद्भावेन बाधितत्वात् । इह पुनः ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् । इत्यविद्यमानवत्त्वस्य निषेधात् । पूर्वस्याप्यामन्त्रितस्य विद्यमानवत्वात् पराङ्गवत्त्वं स्वीकृतमिति वैषम्यम् । विश्वे । पादादित्वादाद्युदात्तः । गणदेवतावचनश्चात्र विश्वशब्दो न सर्वं शब्दपर्याय इति विशेष्यपरतया सामान्यवचनत्वात् ओमासः इत्यनेन न सामानाधिकरण्यम् । सामानाधिकरण्ये हि पूर्वस्य पादस्य पराङ्गवद्भावे सति ‘मित्रावरुणावृतावृधौ ’ इत्यादाविव अत्राप्यामन्त्रिताद्युदात्तता न स्यात् । विश्वे इत्यस्य विशेषणं देवासः इति । दीव्यन्तीति देवाः प्रकाशवन्तः । ननु अवयवप्रसिद्धेः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी’ (परिभा° ९८) इति रूढ एवार्थों देवशब्दस्य ग्राह्यो न यौगिकः । यौगिकत्वे ह्यवयवार्थानुसंधानव्यवधानेन प्रतिपत्तिर्विक्षिप्ता स्यात् । समुदायप्रसिद्धौ तु न विक्षेप इति चेत्, न । समुदायप्रसिद्धौ हि देवशब्दस्य सामान्यपरतया विशेषवचनत्वाभावात् ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम्’ इत्यनेनानिषिद्धत्वात् विश्वे इत्यस्याविद्यमानवत्वेन शुभस्पती इति पदवत् देवासः इत्यस्यापि आद्युदात्तत्वं स्यात् । स्वरानुसारेण च रूढित्यागेनापि देवशब्दस्य योगस्वीकारो युक्त एव । आ गत आगच्छत । ‘बहुलं छन्दसि’ (पा. सू. २. ४. ७३) इति शपो लुकि सति ‘अनुदात्तोपदेश’ (पा. सू. ६. ४. ३७ ) इत्यादिना मकारलोपः । आङः पदात्परत्वात् निघातः । दाश्वांसः । ‘दाशृ दाने ’ इत्यस्य क्वसौ “ दाश्वान् साह्वान् मीढ्वांश्च ’ (पा. सू. ६. १. १२ ) इति निपातनात् क्रादिनियमप्राप्तः इडागमो (पा. सू. ७. २. १३) द्विर्वचनं च न भवति । प्रत्ययस्वरेण क्वसोरुदात्तत्वम् । दाशुष इत्यत्र ‘वसोः संप्रसारणम् ’ ( पा. सू. ६. ४. १३१ ) इति संप्रसारणम् । ‘ संप्रसारणाच्च’ (पा. सू. ६ १. १०८) इति पूर्वरूपत्वम् । “ आदेशप्रत्यययोः’ (पा. सू. ८. ३. ५९ ) इति षत्वम् ॥
भट्टभास्कर-टीका
हे ओमासः अवितारः प्रजानां रक्षितारः । अवतेर् मन्-प्रत्ययान्तात् ‘ज्वरत्वर’ इत्यादिना ऊठादेशे गुणः, आज्जसेरसुक् ।
चर्षणीधृतः, चर्षणयो मनुष्याः, तेषां प्रतिष्ठाद्यनु प्रदानेन धारयितारः । ‘अन्येषामपि दृश्यते’ इति पूर्वपदस्य दीर्घः, ‘विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम्’ इति पूर्वस्याविद्यमानत्वनिषेधान्निहन्यते ।
विश्वे इति पादादित्वान् न निहन्यते । देवास इति पूर्ववन्निहन्यते, पूर्ववद् असुक् ।
हे इर्दृशा विश्वे देवाः आगत आगच्छत । पूर्ववच्छपो लुक् । आमन्त्रितानामविद्यमानत्वेपि आङः परत्वान्न निहन्यते ।
दाश्वांसो यूयम् । दाशृ दाने, लिटः क्वसुः ‘दाश्वान्साश्वान्’ इति निपातितः । यजमानेभ्यो धनानि दत्तवन्तः दाशुषो ऽस्य यजमानस्य सुतं सोमं प्रत्यागच्छत । अयं हि यजमानो युष्मभ्यं हवींषि दत्तवान् ददाति दास्यति । तेन युष्मदुपकारिणोस्य सुतं प्रति दानशीला यूयं प्रत्यागच्छत ।
यद्वा - चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, यो नाम कश्चिद्युष्मभ्यं हवींषि ददाति तस्मै दाशुषे दाश्वांसो यूयं धनानि दत्तवन्तो यूयम् । यद्वा - ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः’ इत्युभयत्र वर्तमाने लिट् । युष्मभ्यं हवींषि ददतोस्य सुतं प्रति यूयमपि धनानि ददत एवागच्छत इति ॥
Wilson
English translation:
“Universal Gods, protectors and supporters of men, bestowers (of rewards) come to the libation of the worshipper.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Viśvedevas = divinities in genitive ral; sometimes, they are a class connected with the elements
Jamison Brereton
O helpers, supporters of the peoples, you All Gods—come here as pious ones to the pressed soma of the pious man.
Jamison Brereton Notes
On the voc. of víśva- see comm. ad X.15.6.
Griffith
Ye Visvedevas, who protect, reward, and cherish men, approach
Your worshipper’s drink-offering.
Keith
Ye dread ones, guardians of men,
O All-gods, come ye,
Generous, to the pressed drink of the generous one.
Geldner
Schützende Völker-Erhalter, Allgötter, kommet her, als Spender zum Soma des Spenders!
Grassmann
Vereint, o menschenschirmende, ihr Götter alle, kommt herbei, Ihr frommen, in des frommen Haus.
Elizarenkova
Помощники, охраняющие людей,
О Все-Боги, придите
Милостивыми к выжатому (соме) жертвователя!
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वेदेवा:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
08 विश्वे देवासो - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि᳓श्वे देवा᳓सो अप्तु᳓रः
सुत᳓म् आ᳓ गन्त तू᳓र्णयः
उस्रा᳓ इव स्व᳓सराणि
मूलम् ...{Loading}...
विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒प्तुरः॑ सु॒तमा ग॑न्त॒ तूर्ण॑यः ।
उ॒स्रा इ॑व॒ स्वस॑राणि ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - विश्वे देवाः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
वि᳓श्वे देवा᳓सो अप्तु᳓रः
सुत᳓म् आ᳓ गन्त तू᳓र्णयः
उस्रा᳓ इव स्व᳓सराणि
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Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
aptúraḥ ← aptúr- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
devā́saḥ ← devá- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
víśve ← víśva- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
ā́ ← ā́ (invariable)
ganta ← √gam- (root)
{number:PL, person:2, mood:IMP, tense:AOR, voice:ACT}
sutám ← √su- (root)
{case:ACC, gender:M, number:SG, non-finite:PPP}
tū́rṇayaḥ ← tū́rṇi- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
iva ← iva (invariable)
svásarāṇi ← svásara- (nominal stem)
{case:NOM, gender:N, number:PL}
usrā́ḥ ← usrá- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:PL}
पद-पाठः
विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒प्ऽतुरः॑ । सु॒तम् । आ । ग॒न्त॒ । तूर्ण॑यः ।
उ॒स्राःऽइ॑व । स्वस॑राणि ॥
Hellwig Grammar
- viśve ← viśva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “all(a); whole; complete; each(a); viśva [word]; completely; wholly.”
- devāso ← devāsaḥ ← deva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “Deva; Hindu deity; king; deity; Indra; deva [word]; God; Jina; Viśvedevās; mercury; natural phenomenon; gambling.”
- apturaḥ ← aptur
- [noun], nominative, plural, masculine
- sutam ← suta
- [noun], accusative, singular, masculine
- “Soma.”
- ā
- [adverb]
- “towards; ākāra; until; ā; since; according to; ā [suffix].”
- ganta ← gam
- [verb], plural, Aorist imperative
- “go; situate; enter (a state); travel; disappear; [in]; elapse; leave; reach; vanish; love; walk; approach; issue; hop on; gasify; get; come; die; drain; spread; transform; happen; discharge; ride; to be located; run; detect; refer; go; shall; drive.”
- tūrṇayaḥ ← tūrṇi
- [noun], nominative, plural, masculine
- “agile.”
- usrā ← usrāḥ ← usrā
- [noun], nominative, plural, feminine
- “cow; dawn.”
- iva
- [adverb]
- “like; as it were; somehow; just so.”
- svasarāṇi ← svasara
- [noun], accusative, plural, neuter
- “pasture; stall.”
सायण-भाष्यम्
विश्वे देवासः एतन्नामकगणरूपा देवविशेषाः सुतं सोमम् आ गन्त आगच्छन्तु । कीदृशाः। अप्तुरः तत्तत्काले वृष्टिप्रदा इत्यर्थः। तूर्णयः त्वरायुक्ताः यजमानमनुग्रहीतुमालस्यरहिता इत्यर्थः । विश्वेषां देवानां सोमं प्रति आगमने उस्रा इत्यादिर्दृष्टान्तः । उस्राः सूर्यरश्मयः स्वसराणि अहानि प्रति आलस्यरहिता यथा समागच्छन्ति तद्वत् ।’ खेदयः’ इत्यादिषु पञ्चदशसु रश्मिनामसु उस्रा वसवः (नि. १. ५.९) इति पठितम् । वस्तोः’ इत्यादिषु द्वादशस्वहर्नामसु ‘स्वसराणि घ्रंसः घर्मः’ (नि. १. ९. ५) इति पठितम् । तच्च पदं यास्केन व्याख्यातं- स्वसराण्यहानि भवन्ति स्वयंसारीण्यपि वा स्वरादित्यो भवति स एनानि सारयति । उस्रा इव स्वसराणीत्यपि निगमो भवति । ( निरु. ५. ४ ) इति ॥ देवासः । पचाद्यजन्तः ( पा. सू. ३. १. १३४ ) चित्त्वादन्तोदात्तः । अप्तुरः ‘तुर त्वरणे’ श्लुविकरणी । तुतुरति त्वरयन्तीत्यर्थे ‘क्विप् च ’ ( पा. सू. ३. २. ७६) इति क्विप् । ‘गतिकारकोपपदात्कृत्’ (पा. सू. ६. २. १३९) इत्युत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । आ गन्त । आगच्छन्तु इत्यर्थे व्यत्ययेन मध्यमपुरुषबहुवचनम् ।’ बहुलं छन्दसि’ (पा. सू. २, ४, ७३) इति शपो लुक् । तस्य ‘तप्तनप्तनथनाश्च ’ ( पा. सु. ७. १. ४५ ) इति तबादेशे ‘°अपित् ’ ( पा. सू. १. २. ४ ) इति प्रतिषेधात् अङित्वात् अनुनासिकलोपाभावः । तिङ्ङतिङः’ इति निघातः । ‘ञित्वरा संभ्रमे इति धातोः त्वरन्ते इति तूर्णयः। ‘निः’ इत्यनुवृत्तौ ‘वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्’ (उ.सू.४.४९१) इति निप्रत्ययः । नित्त्वादाद्युदात्तः। उस्रा इव इत्यत्र ‘इवेन विभक्त्यलोपः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च ’ ( पा. सू. २. १. ४. २) इति समासे पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं नित्यम् । सरतीति सरः सूर्यः । पचाद्यच् । स्वः सरो येषां तानि स्वसराणि अहानि ।’ बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्’ (पा. सू. ६. २. १) इति स्वशब्द आद्युदात्तः ॥
Wilson
English translation:
“May the swift-moving universal Gods, the shedders of rain, come to the libation, as the solar rays come diligently tot he days.”
Jamison Brereton
The All Gods crossing the waters—come here to the pressed soma!— like ruddy (cows) to good pastures.
Jamison Brereton Notes
A small grammatical mismatch here: the phrase viśve devā́saḥ and the adjectives modifying it (aptúraḥ, tū́rṇayaḥ) are nominatives and should not be the subject of the imperative ā́ganta. Geldner (and Witzel Gotō) ignore the problem by translating the nom. as voc. (“Ihr Allgötter”). Although the effect is minor, my translation reflects the grammatical disjunction by rendering pāda b as an interjection.
Another question is why 7b contains the same 2nd pl. imperative, except with a different grade of the root: ā́gata vs. ā́ganta. Both forms are reasonably well attested, with 7b a repeated pāda (=II.41.13a, VI.52.7a). Whatever the history of the distinction, the synchronic distribution seems to be metrical, with ā́gata almost always final, providing an iambic cadence in dimeter verse, and ā́ganta found earlier in the verse.
In b tū́rṇayaḥ was carelessly omitted from the tr., which should read “Come here swiftly…”
Griffith
Ye Visvedevas, swift at work, come hither quickly to the draught,
As milch-kine hasten to their stalls.
Geldner
Ihr Allgötter, kommet die Gewässer überschreitend eilig zum Soma wie die Kühe zur Frühweide!
Grassmann
Ihr Götter alle, rasch im Werk, kommt eilend zu dem Soma her, Wie Kühe in die Ställe gehn.
Elizarenkova
О Все-Боги, пересекающие воды,
Придите, быстрые, к выжатому (соме),
Как коровы – на пастбища!
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वेदेवा:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
ईश्वर ने फिर भी उन्हीं विद्वानों का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अप्तुरः) मनुष्यों को शरीर और विद्या आदि का बल देने, और (तूर्णयः) उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले (विश्वेदेवासः) सब विद्वान् लोगो ! जैसे (स्वसराणि) दिनों को प्रकाश करने के लिये (उस्रा इव) सूर्य्य की किरण आती-जाती हैं, वैसे ही तुम भी मनुष्यों के समीप (सुतम्) कर्म, उपासना और ज्ञान को प्रकाश करने के लिये (आगन्त) नित्य आया-जाया करो॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे अप्तुरस्तूर्णयो विश्वेदेवासः यूयं स्वसराणि प्रकाशयितुं उस्राः किरणा इव सुतं कर्मोपासनाज्ञानरूपं व्यवहारं प्रकाशयितुमागन्त नित्यमागच्छत समन्तात्प्राप्नुत॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
पुनस्तानेवोपदिशति।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) समस्ताः (देवासः) विद्यावन्तः (अप्तुरः) मनुष्याणामपः प्राणान् तुतुरति विद्यादिबलानि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च ते। अयं शीघ्रार्थस्य तुरेः क्विबन्तः प्रयोगः। (सुतम्) अन्तःकरणाभिगतं विज्ञानं कर्तुम् (आगन्त) आगच्छत। अयं गमेर्लोटो मध्यमबहुवचने प्रयोगः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७३) इत्यनेन शपो लुकि कृते तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा०७.१.४५) इति तबादेशे पित्वादनुनासिकलोपाभावः। (तूर्णयः) सर्वत्र विद्यां प्रकाशयितुं त्वरमाणाः। ञित्वरा सम्भ्रमे इत्यस्मात् वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। (उणा०४.५३) अत्र नेरनुवर्त्तनात्तूर्णिरिति सिद्धम्। (उस्रा इव) सूर्य्यकिरणा इव। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निरु०१.५) (स्वसराणि) अहानि। स्वसराणीत्यहर्नामसु पठितम्। (निरु०१.९)॥८॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणैतन्मन्त्रेणेयमाज्ञा दत्ता-हे सर्वे विद्वांसो नैव युष्माभिः कदाचिदपि विद्यादिशुभगुणप्रकाशकरणे विलम्बालस्ये कर्त्तव्ये। यथा दिवसे सर्वे मूर्तिमन्तः पदार्थाः प्रकाशिता भवन्ति तथैव युष्माभिरपि सर्वे विद्याविषयाः सदैव प्रकाशिता कार्य्या इति॥८॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वराने जी आज्ञा केलेली आहे ती सर्व विद्वानांनी निश्चयाने जाणून घ्यावी की विद्या इत्यादी शुभगुणांना प्रकाशित करण्यास कुणीही थोडासाही विलंब किंवा आळस करू नये. जसे सूर्य दिवसा सर्व पदार्थांना प्रकाशित करतो तसेच विद्वान लोकांनीही विद्या सदैव प्रकाशित केली पाहिजे. ॥ ८ ॥
09 विश्वे देवासो - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि᳓श्वे देवा᳓सो अस्रि᳓ध
ए᳓हिमायासो अद्रु᳓हः
मे᳓धं जुषन्त व᳓ह्नयः
मूलम् ...{Loading}...
विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुहः॑ ।
मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - विश्वे देवाः
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
वि᳓श्वे देवा᳓सो अस्रि᳓ध
ए᳓हिमायासो अद्रु᳓हः
मे᳓धं जुषन्त व᳓ह्नयः
Vedaweb annotation
Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
asrídhaḥ ← asrídh- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
devā́saḥ ← devá- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
víśve ← víśva- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
adrúhaḥ ← adrúh- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
éhimāyāsaḥ ← éhimāya- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
juṣanta ← √juṣ- (root)
{number:PL, person:3, mood:INJ, tense:AOR, voice:MED}
médham ← médha- (nominal stem)
{case:ACC, gender:M, number:SG}
váhnayaḥ ← váhni- (nominal stem)
{case:NOM, gender:M, number:PL}
पद-पाठः
विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒स्रिधः॑ । एहि॑ऽमायासः । अ॒द्रुहः॑ ।
मेध॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । वह्न॑यः ॥
Hellwig Grammar
- viśve ← viśva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “all(a); whole; complete; each(a); viśva [word]; completely; wholly.”
- devāso ← devāsaḥ ← deva
- [noun], vocative, plural, masculine
- “Deva; Hindu deity; king; deity; Indra; deva [word]; God; Jina; Viśvedevās; mercury; natural phenomenon; gambling.”
- asridha ← asridhaḥ ← asridh
- [noun], vocative, plural, masculine
- “unfailing.”
- ehimāyāso ← ehimāyāsaḥ ← ehimāya
- [noun], vocative, plural, masculine
- adruhaḥ ← adruh
- [noun], vocative, plural, masculine
- “friendly; benign.”
- medhaṃ ← medham ← medha
- [noun], accusative, singular, masculine
- “yajña; juice.”
- juṣanta ← juṣ
- [verb], plural, Present injunctive
- “enjoy; endow; possess; frequent; accompany; induce; consume; approve; affect; attend; befit; blend; contract.”
- vahnayaḥ ← vahni
- [noun], nominative, plural, masculine
- “fire; digestion; Plumbago zeylanica; Agni; vahni; draft horse; three; sacrificial fire; Vahni; gold; southeast; citron; charioteer; leader.”
सायण-भाष्यम्
विश्वे देवासः एतन्नामका देवविशेषाः मेधं हविर्यज्ञसंबद्धं जुषन्त सेवन्ताम् । कीदृशाः । अस्रिधः क्षयरहिताः शोषरहिता वा। एहिमायासः सर्वतो व्याप्तप्रज्ञाः। यद्वा । सौचीकमग्निमप्सु प्रविष्टम् ‘एहि मा यासीः’ इति यदवोचन् तदनुकरणहेतुकोऽयं विश्वेषां देवानां व्यपदेश एहिमायास इति । अद्रुहः द्रोहरहिताः वह्नयः वोढारो धनानां प्रापयितारः ॥ अस्रिधः। स्रिधेः क्षयार्थस्य शोषणार्थस्य वा संपदादिभ्यो भावे क्विपि (पा. सू. ३. ३. १०८. ९) नञा बहुव्रीहिः पूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा ‘नञ्सुभ्याम् ’ (पा. सू. ६. २. १७२ ) इत्युत्तरपदान्तोदात्तत्वम् । एहिमायासः । ‘ईह चेष्टायाम् ॥ आ समन्तात् ईहते इति एहिः । ‘इन् ’ ( उ. सू. ४. ५५७ ) इति सर्वधातुसाधारण इन्प्रत्ययो नित्त्वादाद्युदात्तः । एहिः माया प्रज्ञा येषामिति बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । अथवा । आङ उदात्तादुत्तरस्य इहीति लोण्मध्यमैकवचनस्य ‘तिङ्ङतिङः’ इति निघातः । ‘एकादेश उदात्तेनोदात्तः ’ ( पा. सू. ८, २. ५) इत्येकार उदात्तः । एहीत्येतत् पदयुक्तं ‘मा यासीः’ इत्यत्र ‘माया’ इत्यक्षरद्वयं येषां ते एहिमायासः । पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। अद्रुहः । द्रुह जिघांसायाम् । संपदादित्वाद्भावे क्विपि बहुव्रीहौ ’ नञ्सुभ्याम् ’ इत्युत्तरपदान्तोदात्तत्वम् । मेधम् । ‘मेधृ संगमे च । मेध्यते देवैः संगम्यते इति मेधं हविः। कर्मणि घञ् । ञित्वादाद्युदात्तः । जुषन्त। सेवन्तामित्यर्थे ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः ’ ( पा. सू. ३. ४. ६) इति धातुसंबन्धे लङ् । यत उक्तरूपा विश्वे देवा अतो जुषन्त इति द्रुहादिधात्वर्थैः संबन्धात् ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि ’ ( पा. सू. ६. ४.७५) इत्यडागमाभावः । वह्नयः। ‘निः’ इत्यनुवृत्तौ ‘वहिश्रि’ इत्यादिना विहितस्य निप्रत्ययस्य नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ॥
Wilson
English translation:
“May the universal Gods, who are exempt from decay, omniscient, devoid of malice, and bearers of (riches), accept the sacrifice.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Ehimāyāsaḥ: those who have obtained knowledge universally, sarvataḥ vyāptaprajñaḥ; or, the term may refer to a legend: viśvedevas addressed Agni, Saucika, who had gone into the water, saying ehi, come, mā yāsiḥ, do not go away; hence they got the appellation, ehimāyāsaḥ
Jamison Brereton
The All Gods—unfailing, undeceiving, (with the byword) “come, don’t go!”—
enjoy the ritual offering as its conveyors.
Jamison Brereton Notes
I follow the analysis of the hapax éhimāyāsaḥ as a frozen 2nd sg. imperative phrase, “éhi mā́+yāḥ” (“come! don’t go”), transformed into an adjective in the nom. pl. masc. - an analysis that goes back at least to Sāyaṇa. Geldner also follows this analysis, though it is somewhat difficult to excavate from his “willkommen und ungern fortgelassen.” I interpret it as representing the words of the singers’ invitation regularly heard by the VDs. The other currently competing explanations, as a frozen phrase “éhi māyā” [better voc. māye?] “come here, magic” (Oldenberg) or as a deformation of áhi-māya- ‘vielgestaltig’ (Grassmann) [=‘snake-sly’ (J+B)] (BR, followed by Grassmann), fit less well into the content of the hymn, which after all focuses on calling the various gods to the ritual; note the ā́gata, ā́ganta of vss. 7-8 addressed to the same VDs. Support for this analysis may also come from the next hymn (I.4), attributed to the same poet, in which successive vss. (3c, 4a) contain the imperatives ā́gahi ‘come here’ and párehi ‘go away’, with at least the former addressed to the god Indra.
I.3.11-12: Note the contrastive values of the simplex pres. cétantī ‘perceiving, taking note’ and the -áya-pres. (prá) cetayati ‘makes perceived, reveals’ in successive vss.
Griffith
The Visvedevas, changing shape like serpents, fearless, void of guile,
Bearers, accept the sacred draught
Geldner
Ihr Allgötter, ohne Fehl, willkommen und ungern fortgelassen, ohne Falsch, sollen den Lebenssaft genießen, die Wagenführer.
Grassmann
Die vielgestalt’gen Götter all, die holden, treuen, fahrenden, Sie mögen nehmen nun den Trank.
Elizarenkova
Все-Боги, беспорочные,
Желанные, благосклонные,
Пусть насладятся возницы жертвенным напитком!
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वेदेवा:
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
विद्वान् लोग कैसे स्वभाववाले होकर कैसे कर्मों को सेवें, इस विषय को ईश्वर ने अगले मन्त्र में दिखाया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एहिमायासः) हे क्रिया में बुद्धि रखनेवाले (अस्रिधः) दृढ़ ज्ञान से परिपूर्ण (अद्रुहः) द्रोहरहित (वह्नयः) संसार को सुख पहुँचानेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो ! तुम (मेधम्) ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक यथावत् सेवन किया करो॥९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देता है कि-हे विद्वान् लोगो ! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो॥९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: हे एहिमायासोऽस्रिधोऽद्रुहो वह्नयो विश्वेदेवासो भवन्तो मेधं ज्ञानक्रियाभ्यां सेवनीयं यज्ञं जुषन्त संप्रीत्या सेवध्वम्॥९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
एते कीदृशस्वभावा भूत्वा किं सेवेरन्नित्युपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) समस्ताः (देवासः) वेदपारगाः (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः। क्षयार्थस्य नञ्पूर्वकस्य स्रिधेः क्विबन्तस्य रूपम्। (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते। चेष्टार्थस्याङ्पूर्वस्य ईहधातोः सर्वधातुभ्य इन्। (उणा०४.११९) इतीन्प्रत्ययान्तं रूपम्। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम्। मेध इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्। (वह्नयः) सुखस्य वोढारः। अयं वहेर्निप्रत्ययान्तः प्रयोगः वह्नयो वोढारः। (निरु०८.३)॥९॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञापयति-भो विद्वांसः ! परक्षयद्रोहरहिता विशालविद्यया क्रियावन्तो भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यासुखयोः सदा दातारो भवन्त्विति॥९॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देतो की- हे विद्वान लोकांनो! तुम्ही दुसऱ्याचा नाश व विद्रोह न करता ज्ञानवान व कर्मशील बनून सर्व माणसांना सदैव विद्येचे सुख देत राहा. ॥ ९ ॥
10 पावका नः - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पवाका᳓+ नः स᳓रस्वती
वा᳓जेभिर् वाजि᳓नीवती
यज्ञं᳓ वष्टु धिया᳓वसुः
मूलम् ...{Loading}...
पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती ।
य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - सरस्वती
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
पवाका᳓+ नः स᳓रस्वती
वा᳓जेभिर् वाजि᳓नीवती
यज्ञं᳓ वष्टु धिया᳓वसुः
Vedaweb annotation
Strata
Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
naḥ ← ahám (pronoun)
{case:ACC, number:PL}
pāvakā́ ← pāvaká- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
sárasvatī ← sárasvant- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
vā́jebhiḥ ← vā́ja- (nominal stem)
{case:INS, gender:M, number:PL}
vājínīvatī ← vājínīvant- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
dhiyā́vasuḥ ← dhiyā́vasu- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
vaṣṭu ← √vaś- (root)
{number:SG, person:3, mood:IMP, tense:PRS, voice:ACT}
yajñám ← yajñá- (nominal stem)
{case:ACC, gender:M, number:SG}
पद-पाठः
पा॒व॒का । नः॒ । सर॑स्वती । वाजे॑भिः । वा॒जिनी॑ऽवती ।
य॒ज्ञम् । व॒ष्टु॒ । धि॒याऽव॑सुः ॥
Hellwig Grammar
- pāvakā ← pāvaka
- [noun], nominative, singular, feminine
- “pure; purifying; pure; āgneya; clear; bright; bright.”
- naḥ ← mad
- [noun], genitive, plural
- “I; mine.”
- sarasvatī
- [noun], nominative, singular, feminine
- “Sarasvati; Sarasvatī; language; voice; speech; eloquence; balloon vine; river.”
- vājebhir ← vājebhiḥ ← vāja
- [noun], instrumental, plural, masculine
- “prize; Vāja; reward; reward; Ribhus; vigor; strength; contest.”
- vājinīvatī ← vājinīvat
- [noun], nominative, singular, feminine
- “rich; rich in horses.”
- yajñaṃ ← yajñam ← yajña
- [noun], accusative, singular, masculine
- “yajña; religious ceremony; Vishnu; yajña [word]; Yajña; Shiva.”
- vaṣṭu ← vaś
- [verb], singular, Present imperative
- “desire; agree; call; care; like; love.”
- dhiyāvasuḥ ← dhiyāvasu
- [noun], nominative, singular, feminine
- “wise.”
सायण-भाष्यम्
सरस्वती देवी वाजेभिः हविर्लक्षणैरन्नैर्निमित्तभूतैः । यद्वा । यजमानेभ्यो दातव्यैरन्नैर्निमित्तभूतैः । नः अस्मदीयं यज्ञं वष्टु कामयताम् । कामयित्वा च निर्वहत्वित्यर्थः । तथा चारण्यककाण्डे श्रुत्यैव व्याख्यातं – यज्ञं वष्ट्विति यदाह यज्ञं वहत्वित्येव तदाह’ (ऐ. आ. १. १. ४ ) इति । कीदृशी सरस्वती ।“पावका शोधयित्री वाजिनीवती अन्नवत्क्रियावती ‘धियावसुः कर्मप्राप्यधननिमित्तभूता । वाग्देवतायास्तथाविधं धननिमित्तत्वमारण्यककाण्डे श्रुत्या व्याख्यातं-यज्ञं वष्टु धियावसुरिति वाग्वै धियावसुः । ( ऐ. आ. १. १. ४ ) इति । ‘श्येनः सोमः’ इत्यादिषु पञ्चत्रिंशत्संख्याकेषु देवताविशेषवाचिषु पदेषु ‘सरमा सरस्वती ’ (नि. ५. ५. १८) इति पठितम् । एतामृचं यास्क एवं व्याचष्टे- पावका नः सरस्वत्यन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः’ (निरु. ११.२६ ) इति॥ पवनं पावः शुद्धिः । पावं कायतीति पावका । ‘कै गै रै शब्दे ’ । ‘आतोऽनुपसर्गे कः’ (पा. सू. ३. २, ३) इति कप्रत्ययः । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वेनान्तोदात्तत्वम् । यद्वा । पुनातीत्यर्थे ष्वुलि ‘प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्यात इदाप्यसुपः ’ (पा. सू. ७. ३. ४४ ) इति इत्वस्याभावोऽन्तोदात्तत्वं च छान्दसं द्रष्टव्यम् । सरःशब्द सर्तेः असुनन्तत्वादाद्युदात्तः । मतुप्ङीपोः पित्त्वादनुदात्तत्वम् । वाजेभिः । वाजशब्दो वृषादित्वात् (पा. सू. ६. १. २०३ ) आद्युदात्तः । स हि अवृत्कृतत्वात् आकृतिगणः । वाजोऽन्नमास्विति वाजिन्यः क्रियाः । अत इनिठनौ ’ ( पा. सू. ५. २. ११५) इति इनिप्रत्ययः । ताः क्रिया यस्याः सन्ति सा सरस्वती वाजिनीवती । ‘छन्दसीरः ’ (पा. सू. ८. २. १५) इति मतुपो वत्वम् । मतुप्ङीपोः पित्त्वेनानुदात्तत्वात् इनेः प्रत्ययाद्युदात्तत्वमेव शिष्यते । यज्ञम् ।’ यजयाच’ (पा. सू. ३. ३. ९० ) इत्यादिना नङ्प्रत्ययः । प्रत्ययस्वरेणान्तोदात्तः । वष्टु ।’ वश कान्तौ । कान्तिरभिलाषः । ‘अदिप्रभृतिभ्यः शपः’ (पा. सू. २. ४. ७२ ) इति शपो लुक् । निघातः । धियावसुः । धिया कर्मणा वसु यस्याः सकाशाद्भवति सा धियावसुः । ‘सावेकाचः०’ (पा. सू. ६. १. १६८) इति विभक्तिरुदात्ता । ‘ बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम् ’ (पा. सू. ६. २. १) इति विभक्तिस्वर एव शिष्यते । छन्दसस्तृतीयाया अलुक् ॥
Wilson
English translation:
“May Sarasvatī, the purifier, the bestower of food, the recompenser of worship with wealth, be attracted by our offered viands to our rite.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Sarasvatī = vāg-devatā, divinity of speech].
Jamison Brereton
Let pure Sarasvatī, providing prize mares along with prizes,
be eager for our sacrifice, bringing goods through her insight.
Griffith
Wealthy in spoil, enriched with hymns, may bright Sarasvati desire,
With eager love, our sacrifice.
Geldner
Die lautere Sarasvati, an Belohnungen reiche, soll nach unserem Opfer verlangen, die durch Weisheit Schätze gewinnt.
Grassmann
Die glänzende Sarasvati, durch unsre Labung labungsreich, Begehr das Opfer eifervolL
Elizarenkova
Чистая Сарасвати,
Награждающая наградами,
Да возжелает жертвы нашей, мыслью добывающая богатство!
अधिमन्त्रम् (VC)
- सरस्वती
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
विद्वानों को किस प्रकार की वाणी की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में ईश्वर ने कहा है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वाजेभिः) जो सब विद्या की प्राप्ति के निमित्त अन्न आदि पदार्थ हैं, उनके साथ जो (वाजिनीवती) विद्या से सिद्ध की हुई क्रियाओं से युक्त (धियावसुः) शुद्ध कर्म के साथ वास देने और (पावका) पवित्र करनेवाले व्यवहारों को चितानेवाली (सरस्वती) जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान आदि गुण हों, ऐसी उत्तम सब विद्याओं को देनेवाली वाणी है, वह हम लोगों के (यज्ञम्) शिल्पविद्या के महिमा और कर्मरूप यज्ञ को (वष्टु) प्रकाश करनेवाली हो॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि वे ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ से सत्य विद्या और सत्य वचनयुक्त कामों में कुशल और सब के उपकार करनेवाली वाणी को प्राप्त रहें, यह ईश्वर का उपदेश है॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: या वाजेभिर्वाजिनीवती धियावसुः पावका सरस्वती वागस्ति सास्माकं शिल्पविद्यामहिमानं कर्म च यज्ञं वष्टु तत्प्रकाशयित्री भवतु॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
तैः कीदृशी वाक् प्राप्तुमेष्टव्येत्युपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पावका) पावं पवित्रकारकं व्यवहारं काययति शब्दयति या सा। ‘पूञ् पवने’ इत्यस्माद्भावार्थे घञ्। तस्मिन् सति ‘कै शब्दे’ इत्यस्मात् आतोऽनुपसर्गे कः। (अष्टा०३.२.३) इति कप्रत्ययः। उपपदमतिङ्। (अष्टा०२.२.१९) इति समासः। (नः) अस्माकम् (सरस्वती) सरसः प्रशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक्। सर्वधातुभ्योऽसुन्। (उणा०४.१८९) अनेन गत्यर्थात् सृधातोरसुन्प्रत्ययः। सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत्सरः। अस्मात्प्रशंसायां मतुप्। सरस्वतीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (वाजेभिः) सर्वविद्याप्राप्ति-निमित्तैरन्नादिभिः सह। वाज इत्यन्ननामसु पठितम्। (निरु०२.७) (वाजिनीवती) सर्वविद्यासिद्धक्रियायुक्ता। वाजिनः क्रियाप्राप्तिहेतवो व्यवहारास्तद्वती। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेन वाजिनीति गमनार्था प्राप्त्यर्था च क्रिया गृह्यते। (यज्ञम्) शिल्पिविद्यामहिमानं कर्म च। यज्ञो वै महिमा। (श०ब्रा०६.२.३.१८) यज्ञो वै कर्म। (श०ब्रा०१.१.२.१) (वष्टु) कामसिद्धिप्रकाशिका भवतु। (धियावसुः) शुद्धकर्मणा सहवासप्रापिका। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। (अष्टा०६.३.१४) अनेन तृतीयातत्पुरुषे विभक्त्यलुक्। सायणाचार्य्यस्तु बहुव्रीहिसमासमङ्गीकृत्य छान्दसोऽलुगिति प्रतिज्ञातवान्। अत एवैतद् भ्रान्त्या व्याख्यातवान्। इमामृचं निरुक्तकार एवं समाचष्टे-पावका नः सरस्वत्यन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः। (निरु०११.२६) अत्रान्नवतीति विशेषः॥१०॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वरोऽभिवदति-सर्वैर्मनुष्यैः सत्याभ्यां विद्याभाषणाभ्यां युक्ता क्रियाकुशला सर्वोपकारिणी स्वकीया वाणी सदैव सम्भावनीयेति॥१०॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी ईश्वराची प्रार्थना करावी व आपल्या पुरुषार्थाने सत्य विद्या व सत्य वचनयुक्त कामात कुशल व्हावे व सर्वांवर उपकार करणारी वाणी प्राप्त करावी, हाच ईश्वराचा उपदेश आहे. ॥ १० ॥
11 चोदयित्री सूनृतानाम् - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
चोदयित्री᳓ सूनृ᳓तानां
चे᳓तन्ती सुमतीना᳐᳓म्
यज्ञं᳓ दधे स᳓रस्वती
मूलम् ...{Loading}...
चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम् ।
य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - सरस्वती
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
चोदयित्री᳓ सूनृ᳓तानां
चे᳓तन्ती सुमतीना᳐᳓म्
यज्ञं᳓ दधे स᳓रस्वती
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genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
codayitrī́ ← codayitrī́- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
sūnŕ̥tānām ← sūnŕ̥ta- (nominal stem)
{case:GEN, gender:F, number:PL}
cétantī ← √cit- (root)
{case:NOM, gender:F, number:SG, tense:PRS, voice:ACT}
sumatīnā́m ← sumatí- (nominal stem)
{case:GEN, gender:F, number:PL}
dadhe ← √dhā- 1 (root)
{number:SG, person:3, mood:IND, tense:PRS, voice:MED}
sárasvatī ← sárasvant- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
yajñám ← yajñá- (nominal stem)
{case:ACC, gender:M, number:SG}
पद-पाठः
चो॒द॒यि॒त्री । सू॒नृता॑नाम् । चेत॑न्ती । सु॒ऽम॒ती॒नाम् ।
य॒ज्ञम् । द॒धे॒ । सर॑स्वती ॥
Hellwig Grammar
- codayitrī ← codayitṛ
- [noun], nominative, singular, feminine
- sūnṛtānāṃ ← sūnṛtānām ← sūnṛta
- [noun], genitive, plural, neuter
- cetantī ← cit
- [verb noun], nominative, singular
- “notice; observe; attend to; intend.”
- sumatīnām ← sumati
- [noun], genitive, plural, feminine
- “benevolence; favor; Sumati.”
- yajñaṃ ← yajñam ← yajña
- [noun], accusative, singular, masculine
- “yajña; religious ceremony; Vishnu; yajña [word]; Yajña; Shiva.”
- dadhe ← dhā
- [verb], singular, Perfect indicative
- “put; give; cause; get; hold; make; provide; lend; wear; install; have; enter (a state); supply; hold; take; show.”
- sarasvatī
- [noun], nominative, singular, feminine
- “Sarasvati; Sarasvatī; language; voice; speech; eloquence; balloon vine; river.”
सायण-भाष्यम्
या सरस्वती सेयमिमं यज्ञं दधे धारितवती । कीदृशी । सूनृतानां प्रियाणां सत्यवाक्यानां चोदयित्री प्रेरयित्री । सुमतीनां शोभनबुद्धियुक्तानामनुष्ठातॄणां चेतन्ती तदीयमनुष्ठेयं ज्ञापयन्ती ॥ चोदयित्री।चुद प्रेरणे’। ण्यन्तात् तृच् । चित्त्वादन्तोदात्तः । ‘ऋन्नेभ्यो ङीप्’ (पा. सू. ४. १.५) इति ङीप् । तस्य ‘ उदात्तयणो हल्पूर्वात् ’ (पा. सू. ६. १. १७४ ) इत्युदात्तत्वम् । सूनृतानाम् ।’ उने परिहाणे’ इत्यतः ‘ क्विप् च’ (पा. सू. ३. २. ७६ ) इति क्विपि सुतराम् ऊनयति अप्रियम् इति सून् इति प्रियमुच्यते । तच्च तदृतं सत्यं चेति सूनृतम् । परादिश्छन्दसि बहुलम्’ (पा. सू. ६. २. १९९) इत्युत्तरपदाद्युदात्तत्वम् । चेतन्ती । ‘चिती संज्ञाने ‘। अत्र शपो ङीपश्च पित्त्वादनुदात्तत्वम् । शतुश्च अदुपदेशात् लसार्वधातुकस्वरेणानुदात्तत्वम् । धात्वन्तस्वर एव शिष्यते । सुमतिशब्दस्य मतुपि ह्रस्वत्वात् “ नामन्यतरस्याम् ’ (प. सू. ६. १. १७७ ) इति विभक्तेरुदात्तत्वम् ॥
Wilson
English translation:
“Sarasvatī, the inspirer of those who delight in truth, the instrumental uctress of the right-minded, has accepted our sacrifice.”
Jamison Brereton
The impeller of liberal gifts, taking note of good thoughts,
Sarasvatī has received our sacrifice.
Griffith
Inciter of all pleasant songs, inspirer o all gracious thought,
Sarasvati accept our rite
Geldner
Schenkungen anregend, auf Wohlwollen bedacht, hat Sarasvati das Opfer angenommen.
Grassmann
Sarasvati, die Lieder weckt und achtet anf den Lobgesang, Nahm unser Opfer gnädig an.
Elizarenkova
Побуждающая к богатым дарам,
Настроенная на благодеяния,
Сарасвати приняла жертву.
अधिमन्त्रम् (VC)
- सरस्वती
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
ईश्वर ने वह वाणी किस प्रकार की है, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूनृतानाम्) जो मिथ्या वचन के नाश करने, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करने (सुमतीनाम्) अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की (चेतन्ती) समझने तथा (चोदयित्री) शुभगुणों को ग्रहण करानेहारी (सरस्वती) वाणी है, वही (यज्ञम्) सब मनुष्यों के शुभ गुणों के प्रकाश करानेवाले यज्ञ आदि कर्म (दधे) धारण करनेवाली होती है॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्यायुक्त और छल आदि दोषरहित विद्वान् मनुष्यों की सत्य उपदेश करानेवाली यथार्थ वाणी है, वही सब मनुष्यों के सत्य ज्ञान होने के लिये योग्य होती है, अविद्वानों की नहीं॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: या सूनृतानां सुमतीनां विदुषां चेतन्ती चोदयित्री सरस्वत्यस्ति, सैव वेदविद्या संस्कृता वाक् यज्ञं दधे दधाति॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चोदयित्री) शुभगुणग्रहणप्रेरिका (सूनृतानाम्) सुतरामूनयत्यनृतं यत्कर्म तत् सून् तदृतं यथार्थं सत्यं येषां ते सूनृतास्तेषाम्। अत्र ‘ऊन परिहाणे’ अस्मात् क्विप् चेति क्विप्। (चेतन्ती) सम्पादयन्ती सती (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्बुद्धिर्येषां ते सुमतयस्तेषां विदुषाम् (यज्ञम्) पूर्वोक्तम्। (दधे) दधाति। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। (अष्टा०३.४.६) अनेन वर्त्तमाने लिट्। (सरस्वती) वाणी॥११॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या किलाप्तानां सत्यलक्षणा पूर्णविद्यायुक्ता छलादिदोषरहिता यथार्थवाणी वर्त्तते, सा मनुष्याणां सत्यज्ञानाय भवितुमर्हति नेतरेषामिति॥११॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जी आप्त अर्थात पूर्ण विद्यायुक्त व छल कपट इत्यादी दोषांनी रहित, माणसांना सत्य उपदेश करविणारी यथार्थ वाणी आहे, तीच सर्व माणसांना सत्य ज्ञान प्राप्त होण्यायोग्य असते, अविद्वानांची नाही. ॥ ११ ॥
12 महो अर्णः - गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
महो᳓ अ᳓र्णः स᳓रस्वती
प्र᳓ चेतयति केतु᳓ना
धि᳓यो वि᳓श्वा वि᳓ राजति
मूलम् ...{Loading}...
म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑ ।
धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति ॥
सर्वाष् टीकाः ...{Loading}...
अधिमन्त्रम् - sa
- देवता - सरस्वती
- ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
- छन्दः - गायत्री
Thomson & Solcum
महो᳓ अ᳓र्णः स᳓रस्वती
प्र᳓ चेतयति केतु᳓ना
धि᳓यो वि᳓श्वा वि᳓ राजति
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Strophic
Pāda-label
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
genre M;; Oldenberg’s gāyatrī-corpus, cf. Oldenberg (1888: 9f.).
Morph
árṇaḥ ← árṇas- (nominal stem)
{case:NOM, gender:N, number:SG}
maháḥ ← mahás- (nominal stem)
{case:NOM, gender:N, number:SG}
sárasvatī ← sárasvant- (nominal stem)
{case:NOM, gender:F, number:SG}
cetayati ← √cit- (root)
{number:SG, person:3, mood:IND, tense:PRS, voice:ACT}
ketúnā ← ketú- (nominal stem)
{case:INS, gender:M, number:SG}
prá ← prá (invariable)
dhíyaḥ ← dhī́- (nominal stem)
{case:ACC, gender:F, number:PL}
rājati ← √rāj- (root)
{number:SG, person:3, mood:IND, tense:PRS, voice:ACT}
ví ← ví (invariable)
víśvāḥ ← víśva- (nominal stem)
{case:ACC, gender:F, number:PL}
पद-पाठः
म॒हः । अर्णः॑ । सर॑स्वती । प्र । चे॒त॒य॒ति॒ । के॒तुना॑ ।
धियः॑ । विश्वाः॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥
Hellwig Grammar
- maho ← mahaḥ ← mah
- [noun], accusative, singular, neuter
- “great; great; distinguished; much(a); adult; long; high.”
- arṇaḥ ← arṇas
- [noun], accusative, singular, neuter
- “body of water; water.”
- sarasvatī
- [noun], nominative, singular, feminine
- “Sarasvati; Sarasvatī; language; voice; speech; eloquence; balloon vine; river.”
- pra
- [adverb]
- “towards; ahead.”
- cetayati ← cetay ← √cit
- [verb], singular, Present indikative
- “blaze; notice.”
- ketunā ← ketu
- [noun], instrumental, singular, masculine
- “banner; ketu; sunbeam; enemy; sign; Premna spinosa Roxb.; comet; signal; signal; luminosity.”
- dhiyo ← dhiyaḥ ← dhī
- [noun], accusative, plural, feminine
- “intelligence; prayer; mind; insight; idea; hymn; purpose; art; knowledge.”
- viśvā ← viśvāḥ ← viśva
- [noun], accusative, plural, feminine
- “all(a); whole; complete; each(a); viśva [word]; completely; wholly.”
- vi
- [adverb]
- “apart; away; away.”
- rājati ← rāj
- [verb], singular, Present indikative
- “govern; shine; glitter; direct.”
सायण-भाष्यम्
द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च । तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता । अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते। तादृशी सरस्वती केतुना कर्मणा प्रवाहरूपेण महो अर्णः प्रभूतमुदकं प्र चेतयति प्रकर्षेण ज्ञापयति । किं च स्वकीयेन देवतारूपेण विश्वाः धियः सर्वाण्यनुष्ठातृप्रज्ञानानि वि राजति विशेषेण दीपयति । अनुष्ठानविषया बुद्धीः सर्वदोत्पादयतीत्यर्थः । सरस्वत्या द्विरूपत्वं यास्को दर्शयति-’तत्र सरस्वतीत्येतस्य नदीवद्देवतावच्च निगमा भवन्ति’ ( निरु. २. २३ ) इति । एकशतसंख्याकेषूदकनामसु ’ अर्णः क्षोदः ’ ( नि. १. १२. १ ) इति पठितम् । एतामृचं यास्को व्याचष्ट–’महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति’ (निरु. ११. २७ ) इति ॥ महो अर्णः। महदिति तकारस्य व्यत्ययेन सकारः। तस्य रुत्वोत्वगुणाः। प्रातिपदिकस्वरेणान्तोदात्तः । ‘एङः पदान्तादति ’ ( पा. सू. ६. १. १०९ ) इति पूर्वरूपे प्राप्ते ‘प्रकृत्यान्तःपादमव्यपरे’ (पा. सू. ६. १. ११५) इति प्रकृतिभावः । अर्ति इत्यर्णः । ‘उदके नुट् च ’ ( उ. सू. ४. ६३६ ) इत्यसुन्प्रत्ययो नुडागमश्च । केतुना । प्रातिपदिकस्वरेणान्तोदात्तः । विश्वाः । विश्वशब्दः क्वन्प्रत्ययान्त आद्युदात्तः ॥ ॥ ६ ॥ ॥ १ ॥
Wilson
English translation:
“Sarasvatī, makes manifest by her acts a mighty river, and (in her own form) enlightens all understandings.”
Commentary by Sāyaṇa: Ṛgveda-bhāṣya
Sarasvatī is the river in this hymn: dvividhā hi sarasvatī vigrahavaddevatā nadīrūpā ca, tatra sarasvatītyetasya nadīvaddevatāvacca nigamā bhavanti (Nirukta 2.23)
Jamison Brereton
Her great flood does Sarasvatī reveal with her beacon.
She rules over all insights.
Griffith
Sarasvati, the mighty flood,–she with be light illuminates,
She brightens every pious thought.
Geldner
Mit ihrem Banner offenbart Sarasvati ihr große Wasserflut; sie beherrscht alle frommen Gedanken.
Grassmann
Die grosse Meeresflut erhellt Sarasvati mit ihrem Licht, Und lenket jedes Andachtswerk.
Elizarenkova
Великий поток освещает
Сарасвати (своим) знаменем.
Она господствует надо всеми молитвами.
अधिमन्त्रम् (VC)
- सरस्वती
- मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
- गायत्री
- षड्जः
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥१२॥ दो सूक्तों की विद्या का प्रकाश करके इस तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति के निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये। दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने अशुद्ध प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - अन्वयः
अन्वय: या सरस्वती केतुना महदर्णः खलु जलार्णवमिव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियो विराजति विविधतयोत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (महः) महत्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन्नित्यसुन्प्रत्ययः। (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दसमुद्रम्। उदके नुट् च। (उणा०४.१९७) अनेन सूत्रेणार्तेरसुन्प्रत्ययः। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सरस्वती) वाणी (प्र) प्रकृष्टार्थे (चेतयति) सम्यङ् ज्ञापयति (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः (विश्वाः) सर्वाः (वि) विशेषार्थे (राजति) प्रकाशयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति वागर्थेषु विधीयते तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यन्ते वाग्व्याख्याता। (निरु०११.२७)॥१२॥
दयानन्द-सरस्वती (हि) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुना चालितः सूर्य्येण प्रकाशितो जलरत्नोर्मिसहितो महान् समुद्रोऽनेकव्यवहाररत्नप्रदो वर्त्तते तथैवास्याकाशस्थस्य वेदस्थस्य च महतः शब्दसमुद्रस्य प्रकाशहेतुर्वेदवाणी विदुषामुपदेशश्चेतरेषां मनुष्याणां यथार्थतया मेधाविज्ञानप्रदो भवतीति॥१२॥सूक्तद्वयसम्बन्धिनोऽर्थस्योपदेशानन्तरमनेन तृतीयसूक्तेन क्रियाहेतुविषयस्याश्विशब्दार्थमुक्त्वा तत्सिद्धिकर्तॄणां विदुषां स्वरूपलक्षणमुक्त्वा विद्वद्भवनहेतुना सरस्वतीशब्देन सर्वविद्याप्राप्तिनिमित्तार्था वाक् प्रकाशितेति वेदितव्यम्। द्वितीयसूक्तोक्तानां वाय्विन्द्रादीनामर्थानां सम्बन्धे तृतीयसूक्तप्रतिपादितानामश्विविद्वत्सरस्वत्य-र्थानामन्वयाद् द्वितीयसूक्तोक्तार्थेन सहास्य तृतीयसूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्य सूक्तस्यार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथैव वर्णितः। तत्र प्रथमं तस्यायं भ्रमः—‘द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च। तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता। अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते। ’ इत्यनेन कपोलकल्पनयाऽयमर्थो लिखित इति बोध्यम्। एवमेव व्यर्था कल्पनाऽध्यापक- विलसनाख्यादीनामप्यस्ति। ये विद्यामप्राप्य व्याख्यातारो भवन्ति तेषामन्धवत्प्रवृत्तिर्भवतीत्यत्र किमाश्चर्य्यम्॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - भावार्थः
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकोपमेय लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने तरंगित व सूर्याने प्रकाशित झालेला समुद्र आपली रत्ने व तरंग यांनी युक्त असून अनेक व्यवहारांत व रत्नप्राप्तीत फार मोठा मानला जातो. तसेच जी आकाश व अनेक विद्या व गुण असणारी वेदाच्या शब्दरूपी महासागराला प्रकाशित करणारी वेदवाणी व विद्वानांचा उपदेश आहे, तोच साधारण माणसांच्या यथार्थ बुद्धीला वर्धित करणारा असतो. ॥ १२ ॥
सविता जोशी ← दयानन्द-सरस्वती (म) - पादटिप्पनी
टिप्पणी: या सूक्ताचा अर्थ सायणाचार्य इत्यादी नवीन पंडितांनी अयोग्य रीतीने लावलेला आहे. त्यांच्या व्याख्येच्या अगोदर सायणाचार्याचा भ्रम दर्शविला जात आहे. त्यांनी सरस्वती शब्दाचे दोन अर्थ सांगितलेले आहेत. एक अर्थ देहयुक्त देवता व दुसरा नदीरूपी सरस्वती मानलेली आहे. त्यांनी हेही सांगितलेले आहे की, या सूक्तात पहिल्या दोन मंत्रांत शरीर देवरूपी सरस्वतीचे प्रतिपादन केलेले आहे व त्यानंतरच्या या मंत्रात नदीरूपी सरस्वतीचे वर्णन केलेले आहे. जसा हा अर्थ त्यांनी कपोलकल्पित व विपरीत लिहिलेला आहे, त्याचप्रकारे अध्यापक विल्सनची कल्पना व्यर्थ मानली पाहिजे. कारण जी माणसे विद्येविना एखाद्या ग्रंथाची व्याख्या करण्यास प्रवृत्त होतात, त्यांची प्रवृत्ती अंधाप्रमाणे असते.