08 7.8

यज्ञस्यायुर्‌ असि। का०सं० ५.३; ३२.३।
यज्ञस्यायुषि प्रयुज्यताम्‌। तै०ब्रा० ३.७.४.१४२; आ०श्रौ०सू० १.१४.३२।
यज्ञ सविष्टो मे संतिष्ठस्व। आप०श्रौ०सू० ४.१६.१५।
यज्ञः सस्यानाम्‌ उत सुक्षितानाम्‌। तै०ब्रा० २.५.५.१२।
यज्ञः (जांचें- तृप्यन्तु)। आ०गृ०सू० ३.४.१; शां०गृ०सू० ४.९.३।
यज्ञात्‌ तं निर्‌ भजामो योऽस्मान्‌ द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। अ०वे० १०.५.३१।
यज्ञाद्‌ एत सन्न्‌ अपुरोगवासः। शां०श्रौ०सू० १२.१९.२२. देखें- जज्ञा नेत।
यज्ञानां रथ्ये वयम्‌। ऋ०वे० ८.४४.२७१।
यज्ञानां केतुम्‌ ईमहे। ऋ०वे० ८.४४.१०३।
यज्ञानां अध्वरश्रियम्‌। ऋ०वे० १.४४.३४।
यज्ञन्‌ मन्त्रपरिक्रमान्‌। कौशि०सू० ७३.१९२।
यज्ञ-यज्ञा वः समना तुतुर्वणिः। ऋ०वे० १.१६८.११।
यज्ञा-यज्ञा वो अग्नये। ऋ०वे० ६.४८.११; सा०वे० १.३५१; २.५३१; वा०सं० २७.४२१; मै०सं० २.१३.९१: १५९.१०; का०सं० ३९.१२१; ऐ०ब्रा०
३.३५.६; पं०वि०ब्रा० ८.६.५; ११.५.२; १८.१.७; आप०श्रौ०सू० ५.२०.६; शां०श्रौ०सू० ७.२५.१०; ८.६.५; आ०श्रौ०सू० १७.९.११; मा०श्रौ०सू० ६.२.३; सा०वि०ब्रा० १.४.३. प्रतीकः यज्ञाऽयज्ञा। ऋ०वि० २.२२.२. यज्ञा-यज्ञियम्‌ की तरह निर्देशित (जांचें- सूक्तम्‌)। शां०श्रौ०सू० ७.२५.१०. देखें- यज्ञ वो, तथा वयो यज्ञा
यज्ञायज्ञियं पुछम्‌। वा०सं० १२.४; तै०सं० ४.१.१०.५; मै०सं० २.७.८: ८५.२; का०सं० १६.८; शत०ब्रा० ६.७.२.६।
यज्ञायज्ञीयं पुछम्‌। वा०सं० १२.४; तै०सं० ४.१.१०.५; मै०सं० २.७.८: ८५.२; का०सं० १६.८; शत०ब्रा० ६.७.२.६।
यज्ञायज्ञीयं प्रतिष्ठा। शां०श्रौ०सू० ६.३.८।
यज्ञायते वा पशुषो न (मै०सं० नु) वाजान्‌। ऋ०वे० ५.४१.१४; मै०सं० ४.१४.१०४: २३१.१०; कौ०ब्रा० २३.३।
यज्ञा यथा अपूर्व। पं०वि०ब्रा० २१.९.१६. भाष्य इत्य्‌ अनुष्टुप्‌।
यज्ञाय वः पन्नेजनीः सादयामि। तै०सं० ३.५.६.२।
यज्ञाय शिक्ष गृणते सखिभ्यः। ऋ०वे० ३.३०.१५२।
यज्ञाय सन्त्व्‌ अद्रयः। सा०वे० २.४९३। देखें- यज्ञं हिन्वन्त्य्‌ अद्रिभिः।
यज्ञाय स्तीर्णबर्हिषे वि वो मदे। ऋ०वे० १०.२१.१३; आ०श्रौ०सू० ७.११. १४३, १७३। देखें- यज्ञेषु स्तीर्ण०।
यज्ञाय स्वाहा। तै०सं० ७.४.२१.१;। का०सं०अश्व० ४.१०; तै०ब्रा० ३.१.६.७; १२.२.५।
यज्ञायापि दधाम्य्‌ अहम्‌। तै०ब्रा० ३.७.४.१७२; आ०श्रौ०सू० १.१४.३२।
यज्ञायुधैर्‌ आज्येनातिषक्ता। अ०वे० १२.३.२३४।
यज्ञायुर्‌ अनुसंचरान्‌। तै०ब्रा० ३.७.४.९२; आ०श्रौ०सू० १.६.१२. तुल०- यज्ञस्यायुर्‌ अनु
०।
यज्ञारिष्टो मे संतिष्ठस्व। आप०श्रौ०सू० ४.१६.१५।
यज्ञाव्‌ एतौ स्मृताव्‌ उभौ। कौशि०सू० ७३.१६४।
यज्ञा वो अग्नये। पं०वि०ब्रा० ८.६.६१; ७.१. देखें- यज्ञा-यज्ञा वो।
यज्ञासाहं दुव इषे। ऋ०वे० १०.२०.७१।
यज्ञासो यन्तु संयतः। ऋ०वे० ८.२३.१०२।
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः (आप०श्रौ०सू० वितताः पुरुत्रा)। का०श्रौ०सू० २५.१.११२; आप०श्रौ०सू० ३.१३.१२; २४.१२.६२; कौशि०सू० ९७.८२।
यज्ञिया यज्ञं विचयन्ति शं च। तै०ब्रा० ३.७.६.४३; आप०श्रौ०सू० ४.५.५३।
यज्ञिया यज्ञकृत स्थ। तै०सं० ३.२.४.१३।
यज्ञिया यज्ञं प्रति देवयद्‌भ्यः। का०सं० ३१.१४२. देखें- यज्ञं-यज्ञं प्रति।
यज्ञियासि। वा०सं० ४.१९; तै०सं० १.२.४.२; ६.१.७.५; मै०सं० १.२.४: १३.४; ३.७.५: ८१.१८; का०सं० २.५; २४.३; शत०ब्रा० ३.२.४.१६।
यज्ञियासो हवामहे। वा०सं० ४.५४; तै०सं० १.२.१.२४; मै०सं० १.२.२४: ११.१२; शत०ब्रा० ३.१.३.२४४।
यज्ञियैः केतुभिः सह। तै०ब्रा० १.२.१.९४; आ०श्रौ०सू० २.१.१७४; वै०सू० ५.७४; आप०श्रौ०सू० ५.१.२४; मा०श्रौ०सू० १.५.१.९४।
यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। वा०सं० ३४.२२।
यज्ञे कोकपितुस्‌ तव। शत०ब्रा० १३.५.४.१७२।
यज्ञे जागृत। तै०सं० १.३.१२.१; आप०श्रौ०सू० ११.२१.६।
यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे। ऋ०वे० १०.१३०.६२।
यज्ञे दिवो नृषदने पृथिव्याः। ऋ०वे० ७.९७.११. प्रतीकः यज्ञे दिवः। आ०श्रौ०सू० ७.९.३; शां०श्रौ०सू० १२.१२.१३. तुल०- बृहदा० ६.२५, २६ (ँ)।
यज्ञेन गातुम्‌ अप्तुरो विविद्रिरे। ऋ०वे० २.२१.५१।
यज्ञेन गातुम्‌ अव इछमानः। ऋ०वे० ६.६.१२।
यज्ञेन तपसा सह। अ०वे० १२.१.३९४।
यज्ञेन त्वाम्‌ उपशिक्षेम शक्र। का०सं० ४०.५४; आ०श्रौ०सू० १६.३४.४४।
यज्ञेन देवताभ्यः। अ०वे० १२.४.३२२।
यज्ञेन पयसा सह। वा०सं० १२.१०३२:। तै०सं० ४.२.७.१२; मै०सं० २.७.१४२: ९५.४; का०सं० १६.१४२; ३६.१५२; ३७.९२; शत०ब्रा० ७.३.१.२१;
तै०ब्रा० ३.७.९.४४; तै०आ० ४.२१.१४।
यज्ञेन मघवान्‌। तै०सं० ४.४.८.१; का०सं० ३९.११।
यज्ञेन यज्ञम्‌ अयजन्त देवाः। ऋ०वे० १.१६४.५०१; १०.९०.१६१; अ०वे० ७.५.११; वा०सं० ३१.१६१; तै०सं० ३.५.११.५१; मै०सं० ४.१०.३१; १४८. १६; ४.१४.२: २१८.२; का०सं० १५.१२१; ऐ०ब्रा० १.१६.३५¹; का०ब्रा० ८.२; शत०ब्रा० १०.२.२.२; तै०आ० ३.१२.७¹; आ०श्रौ०सू० २.१६.७; नि० १२.४११. प्रतीकः यज्ञेन यज्ञम्‌। शां०श्रौ०सू० ५.१५.५; वै०सू० १३.१३; मा०श्रौ०सू० ५.१.३.४।
यज्ञेन यज्ञम्‌ अव यज्ञियः सन्‌। ऋ०वे० ३.२.१२३।
यज्ञेन यज्ञः संततः। आप०श्रौ०सू० २.१४.१३. तुल०- प्राणेन प्राणः।
यज्ञेन वर्धत जातवेदसम्‌। ऋ०वे० २.२.११; ऐ०ब्रा० ४.३२.११; कौ०ब्रा० १९.९; २०.३. प्रतीकः यज्ञेन वर्धत। आ०श्रौ०सू० ७.४.१३; शां०श्रौ०सू०
६.४.११; ११.२.११; १४.५६.१५; १६.२०.१६. तुल०- बृहदा० ४.६५।
यज्ञेन वाचः पदवीयम्‌ आयन्‌। ऋ०वे० १०.७१.३१; आ०श्रौ०सू० ३.८.१।
यज्ञेन्द्रम्‌ अवसा चक्रे अर्वाक्‌। ऋ०वे० ३.३२.१३१।
यज्ञे पत्नी श्रद्दधानेह युक्ता। गो०ब्रा० १.५.२४४।
यज्ञे पवित्रं पोतृतमम्‌। तै०ब्रा० ३.७.४.११३; आ०श्रौ०सू० १.६.१०३।
यज्ञे बर्हिषि वेद्याम्‌। ऐ०ब्रा० २.२२.५२; आ०श्रौ०सू० ५.२.८२।
यज्ञेभिर्‌ अद्‌भुतक्रतुम्‌। ऋ०वे० ८.२३.८१।
यज्ञेभिर्‌ गीर्भिर्‌ ईडते। ऋ०वे० ६.२.२२।
यज्ञेभिर्‌ गीर्भिर्‌ विश्वमनुषाम्‌ मरुताम्‌ इयक्षसि। ऋ०वे० ८.४६.१७३४। संदेहात्मक छन्द, गीर्भिर के बाद विभाजित होना था
यज्ञेभिर्‌ यज्ञवाहसम्‌। ऋ०वे० ८.१२.२०१।
यज्ञेभिः सूनो सहसो यजासि। ऋ०वे० ६.४.१२; तै०सं० ४.३.१३.३२।
यज्ञे-यज्ञ उपस्तुता। ऋ०वे० १.१३६.११।
यज्ञे-यज्ञे न उद्‌ अव। ऋ०वे० ५.५.९३; तै०सं० ३.१.११.२३।
यज्ञे-यज्ञे स मर्त्यः। ऋ०वे० १०.९३.२१।
यज्ञे-यज्ञे ह सवना भूरण्यथः। ऋ०वे० ८.५९ (वा० ११).१३।
यज्ञे या विप्रुषः सन्ति बह्वीः। तै०ब्रा० ३.७.६.२१३; आ०श्रौ०सू० ३.१०.१३।
यज्ञे वा नाम जगृहुः। अ०वे० १०.१.११२।
यज्ञेषु चित्रम्‌ आ भरा विवक्षसे। ऋ०वे० १०.२१.४४।
यज्ञेषु देवम्‌ ईडते। ऋ०वे० १.१५.७३; ५.२१.३४; ६.१६.७३; नि० ८.२३।
यज्ञेषु देववीतमः। ऋ०वे० ९.४९.३२; सा०वे० ८.७८७२।
यज्ञेषु पूर्व्यं गिरा। ऋ०वे० ५.२०.३३।
यज्ञेषु मनुषो विशः। ऋ०वे० ६.१४.२४।
यज्ञेषु मित्रावरुणाव्‌ अकारि। ऋ०वे० ७.६०.१२२।
यज्ञेषु य उ चायवः। ऋ०वे० ३.२४.४३।
यज्ञेषु विप्रराज्ये। ऋ०वे० ८.३.४४; अ०वे० २०.१०४.२४; सा०वे० २.९५८४; वा०सं० ३३.८३४।
यज्ञेषु स्तीर्ण२र्हिषं विवक्षसे। सा०वे० १.४२० देखें-यज्ञाय स्तीर्णं
यज्ञे सौत्रामणी सुते। वा०सं० १९.३१४।
यज्ञे ह्य्‌ अभूतां पोतारौ। तै०ब्रा० ३.७.४.१२३; आप०श्रौ०सू० २.८.६३।
यज्ञैर्‌ अथर्वा प्रथमः पथस्‌ तते। ऋ०वे० १.८३.५१; अ०वे० २०.२५.५१।
यज्ञैर्‌ अथर्वा प्रथमो वि धारयत्‌। ऋ०वे० १०.९२.१०३।
यज्ञैर्‌ इषूः संनममानो अग्ने। ऋ०वे० १०.८७.४१; अ०वे० ८.३.६१।
यज्ञैर्‌ जुहोति हविषा यजुषा (तै०ब्रा० जुहोति यजुषा हविर्भिः)। अ०वे० ७.७०.१२; तै०ब्रा० २.४.२.१२. तुल०- यज्ञैर्‌ विधेम।
यज्ञैर्‌ मर्तो निशितिं वेद्यानट्‌। ऋ०वे० ६.१३.४२।
यज्ञैर्‌ य इन्द्रे दधते दुवांसि। ऋ०वे० ७.२०.६३।
यज्ञैर्‌ यस्‌ त्वा जिघांसति। अ०वे० ८.५.१५२।
यज्ञैर्‌ वा यज्ञवाहसः। ऋ०वे० १.८६.२१; तै०सं० ४.२.११.२१. तुल०- यज्ञैर्‌ वो।
यज्ञैर्‌ विधेम नमसा हविर्भिः। ऋ०वे० २.३५.११.२२; ४.५०.६२; अ०वे० २०.८८.६२; तै०सं० १.८.२२.२२; मै०सं० ४.११.२२: १६६.९; का०सं०
१७.१८२. तुल०- यज्ञैर्‌ जुहोति।
यज्ञैर्‌ वो यज्ञवाहसः। तै०ब्रा० २.४.४.९३। देखें- यज्ञं यद्‌, तथा तुल०- यज्ञैर्‌ वा।
यज्ञैः संमिश्लाः पृषतीभिर्‌ ऋष्टिभिः। ऋ०वे० २.३६.२१; अ०वे० २०.६७.४१; वैता०सू० ३१.२७।
यज्ञो अयं स्वर्‌ इदं यजमानाय स्वाहा। अ०वे० ५.२६.१२४।
यज्ञो गात्राणि। शां०श्रौ०सू० १०.१७.४।
यज्ञो जिगाति चेतनः। ऋ०वे० ३.१२.२२; सा०वे० २.२०२।
यज्ञो दक्षिणतः स्मृतः। गो०ब्रा० २.२.५२।
यज्ञो दक्षिणतः उदक्रामत्‌। अ०वे० १९.१९.६१।
यज्ञो दक्षिणायाम्‌। का०सं० ३४.१६।
यज्ञो दिवं रोहतु। तै०सं० १.६.३.२।
यज्ञो दिवं गछतु। तै०सं० १.६.३.२. देखें- यज्ञो देवान्‌।
यज्ञो देवानां प्रत्य्‌ एति (मै०सं० एतु) सुम्नम्‌। ऋ०वे० १.१०७.११; वा०सं० ८.४१; ३३.६८१; तै०सं० १.४.२२.११; २.१.११.४१; मै०सं० १.३.२६१:
३८.७; ४.१४.१४: २३९.४; का०सं० ४.१०१; शत०ब्रा० ४.३.५.१५१. प्रतीकः यज्ञो देवानाम्‌। का०सं० ११.१२,। तै०ब्रा० २.८.१.६; का०श्रौ०सू० १०.४.६; आप०श्रौ०सू० १३.९.७; मा०श्रौ०सू० २.५.१.२; वृ०हा०सं० ८.६१।
यज्ञो देवान्‌ गछतु। मै०सं० १.४.१: ४८.१; का०सं० ५.३; आ०श्रौ०सू० ४.१२.६. देखें- यज्ञो दिवं गछतु।
यज्ञो देवान्‌ गम्यात्‌। मै०सं० १.४.१: ४८.१; का०सं० ५.३।
यज्ञो देवेभिः सह देवयानः। तै०सं० ३.१.४.३२; का०सं० ३०.८२; मा०श्रौ०सू० १.८.३.३१२।
यज्ञो देवेषु कल्पताम्‌। वा०सं० १९.४५४; मै०सं० ३.११.१०४: १५६.१२; का०सं० ३८.२४; शत०ब्रा० १२.८.१.१९४; तै०ब्रा० २.६.३.४४; आप०श्रौ०सू०
१.९.१२४; शां०गृ०सू० ५.९.४४।
यज्ञो न सप्त धातृभिः। ऋ०वे० ९.१०.३३; सा०वे० २.४७१३।
यज्ञोपवीतम्‌ असि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोप नह्यामि। शां०गृ०सू० २.२.३; पा०गृ०सू० २.२.१० (समा० टिप्पणी देखें- स्पेइजेर्‌, जातकर्म, पृ० २२)।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्‌। पा०गृ०सू० २.२.१०१ (समा० टिप्पणी देखें- स्पेइजेर्‌, जातकर्म, पृ० २२)।
यज्ञोपवीतं बलम्‌ अस्तु तेजः। पा०गृ०सू० २.२.१०४ (समा० टिप्पणी देखें- स्पेइजेर्‌, जातकर्म, पृ०२२)।
यज्ञो बभूव स आ बहूव (मा०श्रौ०सू० स उ वाबभूव)। अ०वे० ७.५.२१; तै०सं० १.६.६.३१; ७.६.७; ३.२.७.२१; शां०श्रौ०सू० ४.१२.१०१;
१०.१३.२३; १५.३.११; मा०श्रौ०सू० १.४.३.१८१. प्रतीकः यज्ञो बभूव। आ०श्रौ०सू० ४.१६.१२।
यज्ञो बृहद्दक्षिण; (प़ढे ०दक्षिणो ?) त्वा पिपर्त। का०सं० ३७.९२।
यज्ञो ब्रह्म एवाँ अप्य्‌ एतु देवान्‌। तै०ब्रा० २.५.५.१४।
यज्ञो भूत्वा यज्ञम्‌ आसीद स्वाँ (आ०श्रौ०सू० ’स्वां‘ का लोप करता है। मा०श्रौ०सू० ’स्वं‘) योनिं जातवेदो (मा०श्रौ०सू० में ’जातवेदो‘ लुप्त है) भूव आजायमानः (तै०ब्रा०।
आ०श्रौ०सू० जो़डता है- सक्षय एहि; मा०श्रौ०सू० जो़डता है- ’स्वक्षय एहि‘)। तै०ब्रा० २.५.८.८; आप०श्रौ०सू० ३.१०.६; आ०श्रौ०सू० ६.२८.११; मा०श्रौ०सू०
१.६.३.३
यज्ञो म आयुर्‌ दधातु। का०सं० ५.३; ३२.३।
यज्ञो मनुः प्रमतिर्‌ नः पिता हि कम्‌। ऋ०वे० १०.१००.५३।
यज्ञो मन्त्रो ब्रह्मोद्यतं वचः। ऋ०वे० १०.५०.६४।
यज्ञो यजुर्भिः। वा०सं० २०.१२; का०सं० ३८.४; शत०ब्रा० १२.८.३०; तै०ब्रा० २.६.५.७. देखें- ब्रह्म त्वा य०।
यज्ञो यज्ञस्य। आप०श्रौ०सू० २.१५.१।
यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्‌ (मै०सं० कल्पते; वा०सं० २२.३३, कल्पतां स्वाहा)। वा०सं० ९.२१; १८.२९; २२.३३; तै०सं० १.७.९.२; ४.७.१०.२; मै०सं०
१.११.३: १६३.१६; का०सं० १४.१; १८.१२; शत०ब्रा० ५.२.१.४।
यज्ञो यत्र पराक्रान्तः। अ०वे० १०.७.१६३।
यज्ञो रायो यज्ञ इशे वसूनाम्‌। तै०ब्रा० २.५.५.११. प्रतीकः यज्ञो रायः। तै०ब्रा० ३.१२.१.१
यज्ञो वर्धताम्‌। आ०मं०पा० २.१०.८ (आ०गृ०सू० ५.१३.१७)।
यज्ञो वितन्तसाय्यः। ऋ०वे० ८.६.२२३; ६८.११३।
यज्ञो विपश्चितश्‌ चन। ऋ०वे० १.१८.७२।
यज्ञोऽसि सर्वतः श्रितः। तै०ब्रा० ३.७.६.११; आप०श्रौ०सू० ४.८.२।
यज्ञो हि त इन्द्र वर्धनो भूत्‌। ऋ०वे० ३.३२.१२१।
यज्ञो हि ष्मेन्द्रं कश्‌ चिद्‌ ऋन्धन्‌। ऋ०वे० १.१७३.१११।
यज्ञो हीडो वो अन्तरः। ऋ०वे० ८.१८.१९१।
यज्ञो येऽप्य्‌ अयज्वानः। तै०आ० १.२७.५व्‌।
यज्ञो अयज्योर्‌ वि भजाति भोजनम्‌। ऋ०वे० २.२६.१४
यज्ञो चाहं द्वेष्मि यश्‌ च माम्‌। तै०ब्रा० ३.७.६.१७२; तै०आ० २.५.२२; आप०श्रौ०सू० ४.११.५२।
यज्ञो जनासो हविष्मन्तः। ऋ०वे० ८.७४.२१; सा०वे० २.९१५१।
यज्ञो जीवम्‌ अश्नवामहै (मै०सं० ०हे)। ऋ०वे० १०.९७.१७३; अ०वे० ६. १०९.२३; वा०सं० १२.९१३; तै०सं० ४.२.६.५३; मै०सं० २.७.१३३: ९४.१४; का०सं० १६.१३३।
यं जोहवीमि पृतना; सु सा;सहिम्‌। अ०वे० ३.२१.३३; मै०सं० २.१३.१३३: १६३.३; का०सं० ४०.३३।
यङ्‌ शक्नवाम तद्‌ अनु प्रवोढुम्‌। मै०सं० ४.१०.२२; १४७.९. देखें- यच्‌ छक्नवाम।
यङ्‌ शीभं समवल्गत। मै०सं० २.१३.१२: १५२.९. देखें- नीचे- आच्छीभं।
यत आत्तस्‌ (आ०श्रौ०सू० आर्त्तस्‌) तद्‌ अगन्‌ पुनः। तै०सं० १.५.१०.४२; आ०श्रौ०सू० ३.१४.१०२।
यत इन्द्र भयामहे। ऋ०वे० ८.६१.१३१; अ०वे० १९.१५.११; सा०वे० १.२७४१; २.६७११; पं०वि०ब्रा० १५.४.३.१; तै०ब्रा० ३.७.११.४१; तै०आ० १०.१.९१;
आ०श्रौ०सू० ७.४.४; शां०श्रौ०सू० ६.१३.३; १२.५.२०; आ०श्रौ०सू० ३.१२.११; ९.१२.८; शां०गृ०सू० १.४.२; ६.५.६; महाना० उप० २०.४१; सा०वि०ब्रा० २.३.४. प्रतीकः यतः। ऋ०वि० २.३३.४
यत उ आयन्‌ तद्‌ उद्‌ ईयुर्‌ आविशम्‌। ऋ०वे० २.२४.६४।
यत ऐति मधुकशा रराणा। अ०वे० ९.१.२३।
यत ओषधीभिः पुरुषान्‌ पशूस्‌ च। महाना० उप० १.४३। देखें- यद्‌ इत्यादि
यतः क्षरन्ति सिन्धवः। का०सं० ३६.१५२; तै०ब्रा० २.७.७.६२।
यतः खनेम (तै०सं० ०नाम) तं वयम्‌। वा०सं० ११.१९४; तै०सं० ४.१.२.३४; मै०सं० २.७.२४: ७५.१४; का०सं० १५.२४; शत०ब्रा० २५.८.४३।
यतः परि जार इवाचरन्ती। ऋ०वे० ७.७६.३३; पं०वि०ब्रा० २५.८.४३।
यतः पूर्वां इव सखींर्‌ अनु ह्वय। ऋ०वे० ५.५३.१६३।
यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद। ऋ०वे० १०.७३.१०४।
यतः प्रजा अखिद्रा अजायन्त तस्मै त्वा प्रजापतये विभूदाव्ने ज्योतिष्मते ज्योतिष्मन्तं जुहोमि (का०सं० विभूदाव्ने जुहोमि स्वाहा)। तै०सं० ३.५.८.१; का०सं० २९.५. देखें-
येन प्रजा।
यतः प्रसूता जगतः प्रसूती। तै०आ० १०.१.११; महाना० उप० १.४१।
यतथः सं च नयथः। ऋ०वे० ५.६५.६२।
यतन्ते वृथग्‌ अग्नयः। ऋ०वे० ८.४३.४३; वा०सं० ३३.२३।
यतमाना रश्मिभिः सूर्यस्य। ऋ०वे० १.१२३.१२२. तुल०- अगला।
यतमानो रश्मिभिः सूर्यस्य। ऋ०वे० ५.४.४२. तुल०- पूर्व का।
यतरश्मय उप यन्त्व्‌ अर्वाक्‌। ऋ०वे० ५.६२.४२।
यतश्‌ चुतद्‌ अग्नाव्‌ एव तत्‌। आ०श्रौ०सू० ३.१०.३१३(भ्रष्ट) देखें- अगला यत्र चुश्चुतद्‌, तथा तुल०- द्यौर्‌ यतश्‌।
यत श्चुतद्‌ धुतम्‌ अग्नो तद्‌ अस्तु। का०श्रौ०सू० २५.९.१४३। देखें- नीचे- पूर्व
यतश्‌ चोदेति सूर्यः। शत०ब्रा० १४.४..३.३४१; बृह०उप० १.५.३४१. देखें- यतः सूर्य।
यतस्‌ तत्‌ परिषिच्यते। अ०वे० १०.८.२९४।
यतस्‌ तपः समूहसि। अ०वे० १.१३.२२।
यतस्रुचः सुरुशं विश्वदेव्यम्‌। ऋ०वे० ३.२.५३।
यतस्रुचा बर्हिर्‌ उ तिस्तिराणा। ऋ०वे० १.१०८.४२।
यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। ऋ०वे० १.८३.३२; अ०वे० २०.२५.३२; ऐ०ब्रा० १.२९.११
यतस्व सदस्यैः। वा०सं० ७.४५; तै०सं० १.४.४.३२; ६.६.१.४; मै०सं० १.३७: ४४.१; ४.८.२: १०९.१; का०सं० ४.९; शत०ब्रा० १.३.४.१८; का०श्रौ०सू० १०.२.१८।
यतः सद्य आ च परा च यन्ति। अ०वे० २.२.३४।
यतः सूर्य उदेति। अ०वे० १०.८.१६१. देखें- यतच्‌ चोदेति।
यतः स्वः समीहसे। वा०सं० ३६.२१४।
यतायै यतायै शान्तायै शान्तिवायै भद्रायै भद्रावति स्योनायै शग्मायै शिवायै। कौशि०सू० ३९.९।
यता सुजार्णी रातिनी घृताची। ऋ०वे० ४.६.३१।
यतेमहि स्वराज्ये। ऋ०वे० ५.६६.६४।
यते स्वाहा। वा०सं० २२.८; तै०सं० ७.४.२२.१; मै०सं० ३.१२.३: १६०.१७; का०सं० १.४; ५.१
यतो घृतश्रीर्‌ अतिथिर्‌ अजायत। ऋ०वे० १.१२८.४⁶।
यतो जज्ञ उग्रस्‌ त्वेषनृम्णः। ऋ०वे० १०.१२०.१२; अ०वे० ५.२.१२; २०.१०७.४२; सा०वे० २.८३३२; वा०सं० ३३.८०२; ऐ०आ० १.३.४.२; ५.१.६.५;
आप०श्रौ०सू० २१.२२.३२; मा०श्रौ०सू० ७.२.६२; नि० १४.२४२।
यतो जातः प्रजापतिः। वा०सं० २३.६३४; आ०श्रौ०सू० १०.९.५४; शां०श्रौ०सू० १६.७.१४।
यतो जातम्‌ इदं विषम्‌। अ०वे० ४.६.८४।
यतो जातो (जाबा०उप० जातः प्राणाद्‌) अरोचथाः। ऋ०वे० ३.२९.१०२; अ०वे० ३.२०.१२; वा०सं० ३.१४२; १२.५२२; १५.५६२; तै०सं० १.५.५.२२;
४.२.४.३२; ७.१३.५२; मै०सं० १.५.१२: ६६.४; १.६.१२: ८५.७; का०सं० २.४२; ६.९२; १६.११२; १८.१८२; जै०ब्रा० १.६१२; शत०ब्रा० २.३.४.१३२; ७.१.१.२८; तै०ब्रा० १.२.१.१६२; २.५.८.८२; जाबा०उप० ४२।
यतो जायत उक्थ्यः। ऋ०वे० ३.१०.६२।
यतो जायान्य जायसे। अ०वे० ७.७६.५२।
यतो दष्टं यतो धीतम्‌। अ०वे० ७.५६.३१।
यतो देव दधिषे पूर्वपेयम्‌। का०सं० ४.२४; १३.११४। देखें- यस्य देव इत्यादि।
यतो देवा उदजायन्त विश्वे। ऋ०वे० ४.१८.१२।
यतो देवीः प्रतिपश्याम्य्‌ आपस्‌ ततो मा राद्धिर्‌ आगछतु। सा०मं०ब्रा० २.८.५. प्रतीकः यतो देवीः। गो०गृ०सू० ४.१०.९; खा०गृ०सू० ४.४.१०।
यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः। ऋ०वे० १०.३१.७२; ८१.४२; वा०सं० १७.२०२; तै०सं० ४.६.२.५२; मै०सं० २.१०.२२: १३३.३; का०सं० १८.२२;
तै०ब्रा० २.८.९.६२,७२।
यतो नः प्रुष्णवद्‌ वसु ऋ०वे० ३.१३.४३।
यतो न पुनर्‌ आयति (तै०ब्रा० आप०श्रौ०सू० आयसि)। अ०वे० ६.७५.२३,३४; तै०ब्रा० ३.३.११.४३; आप०श्रौ०सू० ३.१४.२३।
यतो नैषां पुनर्‌ एकश्‌ चनोदयत्‌। अ०वे० ८.४.३३। देखें- यथा नातः।
यतो भगः सविता दाति वार्यम्‌। ऋ०वे० ५.४८.५४।
यतो भयम्‌ अभयं तत्‌ कृधी नः। आप०श्रौ०सू० १४.१७.१³ देखें-अगला
यतो भयम्‌ अभयं तत्‌ नो अस्ति (का०सं०। तै०ब्रा०। आ०श्रौ०सू०। मा०श्रौ०सू० अस्तु)। अ०वे० १९.३.४३; का०सं० ७.१२३; ३५.१३; तै०ब्रा० १.२.१.³; आ०श्रौ०सू० ५.५.८३; मा०श्रौ०सू० १.५.१.१६३। देखें- पूर्व में
यतो भूमिं जनयन्‌ विश्वकर्मा। ऋ०वे० १०.८१.२३; वा०सं० १७.१८३; मै०सं० २.१०.२३: १३३.७. देखें- यद्‌ इद्‌ भूमिं, तथा यदी भूमिं।
यतो मे मध्व्‌ आभृतम्‌। ऋ०वे० १.२५.१७२।
यतो-यत आवर्तते। छा०उप० ४.१७.९१।
यतो-यतः समीहसे। वा०सं० ३६.२२१।
यतो यविष्ठ जज्ञिषे सुशेवः। ऋ०वे० ७.७.३४।
यतो यविष्ठो अजनिष्ट मातुः। ऋ०वे० ७.४.२२।
यतो युञ्जानस्‌ ततो विमुञ्चामि। मा०श्रौ०सू० १.३.४.२८।
यतो वाचो निवर्तन्ते। तै०आ० ८.४.११; ९.११; तै०उप० २.४.११; ९.११।
यतो वातो मनोजवाः। का०सं० ३६.१५१; तै०ब्रा० २.७.७.६१; आप०श्रौ०सू० २२.२६.११
यतो विपान एजति। ऋ०वे० ८.६.२९३।
यतो विष्णुर्‌ विचक्रमे। ऋ०वे० १.२२.१६२; सा०वे० २.१०२४२।
यतो वीरः कर्मण्यः सुदक्षः। ऋ०वे० ३.४.९३; तै०सं० ३.१.११.१३,२; मै०सं० ४.१३.१०३: २१३.६; नृ०पू०उप० २.४३।
यतो व्रतानि पस्पशे। ऋ०वे० १.२२.१९२; अ०वे० ७.२६.६२; सा०वे० २.१०२१२; वा०सं० ६.४२; १३.३३२; तै०सं० १.३.६.२२; मै०सं० १.२.१४२: २३.१८;
का०सं० ३.३२; १६.१६२; शत०ब्रा० ३.७.१.१७२; ७.५.१.२५।
यत्‌ कक्षीवान्‌ संवननम्‌। ऋ०वे० खि० १०.१९१.३१।
यत्‌ कपोतः पदम्‌ अग्नौ कृणोति। ऋ०वे० १०.१६५.४२; मा०गृ०सू० २.१७.१२. देखें- यद्‌ वा कपोतः।
यत्‌ करोमि तद्‌ ऋध्यताम्‌। कौशि०सू० ४५.१६३। तुल०- अगला एक
यत्‌ कर्मणात्य्‌ अरीरिचम्‌। शत०ब्रा० १४.९.४.२४१; बृह०उप० ६.४.२४१; पा०गृ०सू० १.२.११. देखें- यद्‌ अस्य कर्मणो।
यत्काम इदं जुहोमि तन्‌ मे समृध्यताम्‌। तै०ब्रा० ३.११.२.४. तुल०- पूर्व का एक तथा यत्‌कामास्‌
यत्काम इदम्‌ अभिषिञ्चामि वोऽहम्‌। अ०वे० ६.१२२.५३; १०.९.२७३; ११.१.२७३।
यत्काम कामयमानाः। अ०वे० १९.५२.५१; कौशि०सू० ९२.३०.३११।
यत्कामास्‌ ते जुहुमस्‌ तन्‌ नो अस्तु। ऋ०वे० १०.१२१.१०३; अ०वे० ७.७९.४३; ८०.३३; वा०सं० १०.२०३; २३.६५३; वा०सं०का०२९.३६३; तै०सं०
१.८.१४.२३; ३.२.५.७३; का०सं० १५.८३; श०ब्रा० १.६.१९३; शत०ब्रा० ५.४.२.९३; तै०ब्रा० २.८.१.२३; ३.५.७.१३; तै०आ० (आ०) १०.५४३; सा०मं०ब्रा० २.५.८३; आ०मं०पा० २.२२.१९३; नि० १०.४३३; देखें- यस्मै कं, तथा तुल०- यक्ताम इदं जुहोमि।
यत्‌ कारवे दश वृत्राण्य्‌ अप्रति। ऋ०वे० १.५३.६३; अ०वे० २०.२१.६३।
यत्‌ किं च जगत्यां जगत्‌। वा०सं० ४०.१२; ईश०उप० १२।
यत्‌ किं च (का०सं० चित्‌) तन्वो (तै०सं० ०वां) रपतिः। ऋ०वे० १०.९७.१०४; वा०सं० १२.८४४; तै०सं० ४.२.६.३४; मै०सं० २.७.१३४; ९४.४; का०सं०
१६.१३४।
यत्‌ किं च दुरितं मयि। ऋ०वे० १.२३.२२२; १०.९.८२; वा०सं०का०६.५.५२; तै०आ० १०.२४.१¹. २५.१¹; महाना० उप० १४.३¹ देखें नीचे- अवद्यं च।
यत्‌ किं च पर्वण्य्‌ आसक्तम्‌। अ०वे० १९.४८.३३।
यत्‌ किं च पृथिव्याम्‌ अधि। ऋ०वे० ५.८३.९४। तुल०- अगला।
यत्‌ किं च भूम्याम्‌ अधि। अ०वे० ११.४.४४। तुल०- पूर्व
यत्‌ किं चानृतम्‌ ओदिम (तै०आ० ऊदिम)। मै०सं० ४.१४.१७४ (द्वितीयांश): २४४.९, ११; तै०आ० २.३.१४।
यत्‌ किं चाश्नीत ब्राह्मणाः। ला०श्रौ०सू० २.१२.१७२; कौशि०सू० ९.१.२०२।
यत्‌ किं चासौ मनसा यच्‌ च वाचा। अ०वे० ७.७०.११; तै०ब्रा० २.४.२.११. प्रतीकः यत्‌ किं चासौ मनसा। कौशि०सू० ४८.२७।
यत्‌ किं चाहं त्वायुर्‌ इदं वदामि। ऋ०वे० ६.४७.१०३।
यत्‌ किं चित्‌ तन्वोः देखें- यत्‌ किं च इत्यादि।
यत्‌ किं चिद्‌ (मा०श्रौ०सू० पाठभेद- ’च‘) दुरितं मयि। तै०आ० (आ०) १०.६४४; महाना० उप० १९.१४; मा०श्रौ०सू० १.८.४.४०२. देखें नीचे- अवद्यं च
यत्‌ किं चेदं वरुण दैव्ये जने। ऋ०वे० ७.८९.५१; अ०वे० ६.५१.३१; तै०सं० ३.४.११.६१; मै०सं० ४.१२.६१: १९७.११; का०सं० २३.१२१; आ०श्रौ०सू०
४.११.६. प्रतीकः यत्‌ किम्‌ चेदं वरुण। शां०श्रौ०सू० ९.२६.३ (भाष्य); ऋ०वि० २.२९.१; यत्‌ किं चेदम्‌। तै०ब्रा० २.८.१.६; शां०गृ०सू० ५.२.६; मा०ध०शा० ११.२५२।
यत्‌ किं चेदं विरोचते। अ०वे० १३.१.५५४।
यत्‌ किं चेदं सरीसृपम्‌। अ०वे० १९.४८.३२।
यत्‌ किं चेदं पतयति। अ०वे० १९.४८.३१।
यत्‌ किं चेह करोत्य्‌ अयम्‌। शत०ब्रा० १४.७.२.८४; बृह०उप० ४.४.८४।
यत्‌ कुमारी मन्द्रयते। तै०आ० १.२७.४१।
यत्‌ कुसीदम्‌ अप्रतीत्तं (मै०सं०। मा०श्रौ०सू०। तै०आ० ०तीतं; सा०मं०ब्रा० अप्रदत्तं) मयि (मै०सं०। मा०श्रौ०सू०। तै०आ०। सा०मं०ब्रा०
मयेह)। तै०सं० ३.३.८.११; ४; मै०सं० ४.१४.१७१: २४५.९; तै०आ० २.३.२१; मा०श्रौ०सू० २.५.५.१८१; सा०मं०ब्रा० २.३.२०१. प्रतीकः यत्‌ कुसीदम्‌
अप्रतीत्तम्‌। आप०श्रौ०सू० १३.२४.१५; यत्‌ कुसीदम्‌। गो०गृ०सू० ४.४.२६. देखें- नीचे- अपमित्यम्‌।
यत्‌ कृषते यद्‌ वनुते। अ०वे० १२.२.३६१।
यत्‌ कृष्णो रूपं कृत्वा। तै०ब्रा० ३.७.४.८१; आप०श्रौ०सू० १.६.११।
यत्‌ क्रीडथ मरुत ऋष्टिमन्तः। ऋ०वे० ५.६०.३३; तै०सं० ३.१.११.५३; मै०सं० ४.१२.५३: १९३.१४।
यत्‌ क्षुरेण मर्चयता (मा०श्रौ०सू० वर्तयता) सुतेजसा (आ०गृ०सू०। पा०गृ०सू०। आ०मं०पा०। हि०गृ०सू० सुपेशसा)। अ०वे० ८.२.१७१;
आप०गृ०सू० १.१७.१६१; पा०गृ०सू० २.१.१९१; आ०मं०पा० २.१.७१ (आ०गृ०सू० ४.१०.७); हि०गृ०सू० १.९.१६१; मा०गृ०सू० १.२१.७१. प्रतीकः यत्‌ क्षुरेण। कौशि०सू० ५३.१९; ५५.३।
यत्‌ त अपोदकं विषम्‌। अ०वे० ५.१३.२१. तुल०-। कौशि०सू० २९.२।
यत्‌ त आक्रमणं दिवि। अ०वे० १३.१.४४२।
यत्‌ त आत्मनि तन्वां घोरम्‌ अस्ति। अ०वे० १.१८.३१।
यत्‌ त आस्थितं शम्‌ उ तत्‌ ते अस्तु। तै०ब्रा० ३.७.१३.३३। देखें- यत्‌ ते विरिष्टं।
यत्‌ त इन्द्र बृहद्‌ वयस्‌ तस्मै त्वा विष्णवे त्वा। वा०सं० ७.२२; तै०सं० १.४.१२.१; का०सं० ४.५; मै०सं० १.३.१४: ३५.१४; शत०ब्रा० ४.२.३.१०।
यत्‌ त ऊनं, यद्‌ उ तेऽतिरिक्तम्‌। तै०ब्रा० ३.११.६.१² देखें-नीचे-अग्ने यद्‌ ऊनं तथा तुल०- यत्‌ ते अग्ने न्यूनं।
यत्‌ त ऊनं तत्‌ त आ पूरयति। अ०वे० १२.१.६१३। प्रतीकः यत्‌ त ऊनम्‌। कौशि०सू० ४६.५२; १३७.१३।
यत्‌ त एतन्‌ मुखेऽमतम्‌ (हि०गृ०सू० मतम्‌)। आ०मं०पा० २.२२.२१ (आ०गृ०सू० ८.२३.२); हि०गृ०सू० १.१५.३१।
यत्‌ तच्‌ छरीरम्‌ अशयत्‌। अ०वे० ११.८.१६१।
यत्‌ तत्र मधु तन्‌ मयि। अ०वे० ९.१.१८४।
यत्‌ तत्रैनो अप तत्‌ सुवामि। अ०वे० ६.११९.३४। देखें- यद्‌ अत्रैनो।
यत्‌ तद्‌ आसीद्‌ इदं नु ताच्‌ इति। अ०वे० १२.५.५०२।
यत्‌ तिष्ठति चरति यद्‌ उ च विश्वम्‌ एजति। अ०वे० ७.३०.६२।
यत्‌ तिष्ठथः क्रतुमन्तानु पृक्षे। ऋ०वे० १.१८३.२२।
यत्‌ तुदत्‌ सूर एतशम्‌। ऋ०वे० ८.१.१११।
यत्‌ तृतीयं सवनं रत्नधेयम्‌। ऋ०वे० ४.३५.९१।
यत्‌ ते अग्ने तेजस्‌ तेनाहं तेजस्वी भूयासम्‌। तै०सं० ३.५.३.२; आ०गृ०सू० १.२१.४. प्रतीकः यत्‌ ते अग्ने तेजस्‌ तेनाहम्‌। हि०गृ०सू० १.८.६. तुल०- अग्ने यत्‌ ते तेजस्‌
यत्‌ ते अग्ने न्यूनं यद्‌ उ तेऽतिरिक्तम्‌ आदित्यास्‌ तद्‌ अङ्गिरसश्‌ चिन्वन्तु। तै०ब्रा० ३.१०.३.१. तुल०- यत्‌ त ऊनं यद्‌।
यत्‌ ते अग्ने वर्चस्‌ तेनाहं वर्चस्वी भूयासम्‌। तै०सं० ३.५.३.२; आ०गृ०सू० १.२१.४।
यत्‌ ते अग्ने हरस्‌ तेनाहं हरस्वी भूयासम्‌। तै०सं० ३.५.३.२; आ०गृ०सू० १.२१.४. तुल०- अग्ने यत्‌ ते हरस्‌
यत्‌ ते अङ्गम्‌ अतिहितं पराचैः। अ०वे० १८.२.२६१ प्रतीकः यत्‌ ते अङ्गम्‌। कौशि०सू० ८२.२९; ८५.२६।
यत्‌ ते अन्नं भुवस्पते। अ०वे० १०.५.४५१।
यत्‌ ते अपो यद्‌ ओषधीः। ऋ०वे० १०.५८.७१।
यत्‌ ते अभ्रस्य विद्युतः। ऋ०वे० ५.८४.३¹; का०सं० १०.१२३।
यत्‌ ते अस्मिन्‌ घोर आसन्‌ जुहोमि। का०सं० १६.१२१. देखें नीचे- यद्‌ अद्य ते घोर।
यत्‌ ते काम शर्म त्रिवरूथम्‌ उद्‌भू। अ०वे० ९.२.१६१।
यत्‌ ते कृष्णः शकुन आ तुतोद। ऋ०वे० १०.१६.६१; अ०वे० १८.३.५५१; तै०आ० ६.४.२१. प्रतीकः यत्‌ ते कृष्णः। कौशि०सू० ८०.५; ८३.२०.
तुल०-। वि०स्मृ० ५६.१३।
यत्‌ ते केशेषु दौर्भाग्यम्‌। मा०श्रौ०सू० २.१४.२६१; य०ध०सू०। १.२८२१।
यत्‌ ते क्रुद्धः परोवप। का०सं० ८.१४१. देखें- नीचे- यत्‌ त्वा क्रुद्धः।
यत्‌ ते क्रुद्धो धनपतिः। अ०वे० १०.१०.१११।
यत्‌ ते क्रूरं यद्‌ आस्थितं तत्‌ त आप्यायतां निष्ट्‌यायतां तत्‌ ते शुध्यतु (तै०सं०। आप०श्रौ०सू० आप्यायतं तत्‌ त एतेन शुन्धताम्‌)। वा०सं० ६.१५; तै०सं० १.३.९.१; शत०ब्रा० ३.८.२.९-१०; आ०श्रौ०सू० ७.१८.८. प्रतीकः यत्‌ ते क्रूरम्‌। का०श्रौ०सू० ६.६.६. देखें-अगले दो
यत्‌ ते क्रूरं यद्‌ आस्थितं तद्‌ एतेन शुन्धस्व (कौ०सू० तच्‌ छुन्दस्व)। मै०सं० १.२.१६: २६.८; ३.१०.१: १२८.१३. प्रतीकः यत्‌ ते क्रूरं यद्‌
आस्थितम्‌। कौशि०सू० ४४.२३; यत्‌ ते क्‌रूर। मा०श्रौ०सू० १.८.४.४. देखें- पूर्व तथा आगे।
यत्‌ ते क्‌रूरतरं यद्‌ आस्थितं तत्‌ त एतेन कल्पताम्‌। का०सं० ३.६. देखें- पूर्व के दो
यत्‌ ते क्षेमम्‌ अनीनचत्‌। नील०स०उप० ३३।
यत्‌ ते गात्राद्‌ अग्निना पच्यमानात्‌। ऋ०वे० १.१६२.१११; वा०सं० २५.३४१; तै०सं० ४.६.८.४१; मै०सं० ३.१६.११: १८२.१६;। का०सं०अश्व० ६.५१।
यत्‌ ते ग्रावा बाहुच्युतो अचुच्यवुः (वैता०सू० अचुच्योत्‌)। तै०ब्रा० ३.७.१३.११; वैता०सू० २४.११ (अ०वे०). प्रतीकः यत्‌ ते ग्रावा। वैता०सू०
२३.२२. सौम्यः की तरह निर्देशित (जांचें- ऋचः)। गो०ब्रा० २.४.७।
यत्‌ ते ग्राणा चिछिदुः (मा०श्रौ०सू० विछिन्दत्‌) सोम राजन्‌। तै०ब्रा० ३.७.१३.११; वै०सू० २४.११ (अ०वे०पा०); मा०श्रौ०सू० २.५.४.२४१.
प्रतीकः यत्‌ ते ग्राव्‌णा। आ०श्रौ०सू० १३.२०.८।
यत्‌ ते घोरं यत्‌ ते विषं तद्‌ द्विषत्सु नि दध्मस्य्‌ अमुष्मिन्‌। कौशि०सू० १०२.२।
यत्‌ ते चक्षुर्‌ दिवि यत्‌ सुपर्णे। आ०श्रौ०सू० ५.१९.४१. देखें- येन श्येनं।
यत्‌ ते चतस्रः प्रदिशः। ऋ०वे० १०.५८.४१।
यत्‌ ते चन्द्रं कश्यप रोचनावत्‌। अ०वे० १३.३.११. देखें- यत्‌ ते शिल्पतिं।
यत्‌ ते चर्म शतौदने। अ०वे० १०.९.२४१।
यत्‌ ते चितं यद्‌ उ चितं ते अग्ने। का०सं० ४०.५१; तै०ब्रा० ३.११.६.११; आ०श्रौ०सू० १६.३४.४१।
यत्‌ ते जामित्वम्‌ अवरं परस्याः। ऋ०वे० १०.५५.४३।
यत्‌ ते तनूष्व्‌ अनह्यन्त। अ०वे० १९.२०.३१।
यत्‌ ते तपस्‌ तस्मै ते मावृक्षि। तै०सं० १.६.६.१; ७.६.१।
यत्‌ ते तान्तस्य हृदयम्‌ आछिन्दन्‌। तै०ब्रा० १.२.१.७१; आ०श्रौ०सू० ५.२.४१।
यत्‌ तेऽतिरिक्तं तस्मै ते नमः। आ०श्रौ०सू० १.११.५।
यत्‌ ते त्वशं बिभिदुर्‌ यच्‌ च योनिम्‌। तै०ब्रा० ३.७.१३.११।
यत्‌ ते दर्भ जरामृत्युः। अ०वे० १९.३०.११।
यत्‌ ते दित्सु (सा०वे० दिक्षु) प्रराध्यम्‌। ऋ०वे० ५.३९.३१; सा०वे० २.५२४१; आ०श्रौ०सू० ९.९.१२।
यत्‌ ते दिवं यत्‌ पृथिवीम्‌। ऋ०वे० १०.५८.२१।
यत्‌ ते दिवो दुहितर्‌ मर्तभोजनम्‌। ऋ०वे० ७.८१.५३।
यत्‌ ते देवा अकृण्वन्‌ भागधेयम्‌। अ०वे० ७.७९.११; कौशि०सू० ५.६. प्रतीकः यत्‌ ते देवा अकृण्वन्‌। कौशि०सू० ५९.१९; यत्‌ ते देवाः। वैता०सू० १.१६.
देखें- अगला
यत्‌ ते तो देवा अदधुर्‌ भागधेयम्‌। तै०सं० ३.५.१.११; मा०श्रौ०सू० ६.२.३१. प्रतीकः यत्‌ ते देवा अदधुः। तै०सं० ४.४.१०.३; तै०ब्रा० १.५.१.५;
३.१.२.११; आप०श्रौ०सू० ५.२३.४; १७.६.८. देखें- पूर्व का
यत्‌ ते देवी निऋतिर्‌ आबबन्ध। अ०वे० ६.६३.११; तै०सं० ४.२.५.२१; आ०श्रौ०सू० १६.१६.१. प्रतीकः यत्‌ ते देवी। वैता०सू० २८.२७; कौशि०सू०
४६.१९; ५२.३. देखें- यं ते देवी।
यत्‌ ते धीतिं सुमतिम्‌ आवृणीमहे। ऋ०वे० ६.१५.९३; सा०वे० २.९१९३।
यत्‌ ते नक्षत्रं मृगशीर्षम्‌ अस्ति। तै०ब्रा० ३.१.१.३१।
यत्‌ ते नद्धं विश्ववारे। अ०वे० ९.३.२१।
यत्‌ ते नाधृष्टं नाम यज्ञियं (का०सं० नामानाधृष्यं; मै०सं० धामानाधृष्यं) तेन त्वादधे। वा०सं० ५.९ (तृतीयांश); तै०सं० १.२.१२.१ (द्वितीयांश); मै०सं० १.२.८ (तृतीयांश): १७.१०, १२, १५:। का०सं० २.९ (द्वितीयांश); ७.१४। शत०ब्रा० ३.५.१.३२।
यत्‌ ते नाम सुहवं सुप्रणीते। अ०वे० ७.२०.४१; का०सं० १३.१६१. प्रतीकः यत्‌ ते नाम। का०सं० २२.१५।
यत्‌ ते नियानं रजसम्‌। अ०वे० ८.२.१०१।
यत्‌ ते न्यूनं तस्मै त उप। आ०श्रौ०सू० १.११.१५।
यत्‌ ते पराः परावतः। ऋ०वे० १०.५८.१११।
यत्‌ ते पर्वतान्‌ बृहतः। ऋ०वे० १०.५८.९१।
यत्‌ ते पवित्रम्‌ अर्चिवत्‌। ऋ०वे० ९.६७.२४१।
यत्‌ ते पवित्रम्‌ अर्चिषि (आ०श्रौ०सू० अर्चिषा)। ऋ०वे० ९.६७.२३१; वा०सं० १९.४११; मै०सं० ३.११.१०१: १५६.३; का०सं० ३८.२१; तै०ब्रा०
१.४.८.२१; २.५.३.४; आ०श्रौ०सू० २.१२.४; ला०श्रौ०सू० ५.४.१४१; वृ०हा०सं० २.३७.३९; ७.२३९. तुल०- बृहदा० ६.१३२।
यत्‌ ते पावक चकृमा कच्‌ चिद्‌ आगः। आप०श्रौ०सू० ७.६.५१; मा०श्रौ०सू० १.७.३.४०१।
यत्‌ ते पिताबिभः पुरा। अ०वे० १८.४.५६२।
यत्‌ ते पितृभ्यो ददतः। अ०वे० १०.१.१११।
यत्‌ ते पुछं ये ते बालाः। अ०वे० १०.९.२२१।
यत्‌ ते प्रजापते शरणं छन्दस्‌ तत्‌ प्रपद्ये। शां०श्रौ०सू० १.४.५; आ०श्रौ०सू० २४.११.२।
यत्‌ ते प्रजायां पशुषु। अ०वे० १४.२.६२१।
यत्‌ ते भामेन विचकर। मै०सं० १.७.११: १०८.७।
यत्‌ ते भूतं च भव्यं च। ऋ०वे० १०.५८.१२१।
यत्‌ ते भूमिं चतुर्भष्टिम्‌। ऋ०वे० १०.५८.३१।
यत्‌ ते भूमे विखनामि। अ०वे० १२.१.३५१; प्रतीकः ’यत्‌ ते भूमे‘ कौशि०सू० ४६.५१; १३७.१२।
यत्‌ ते मध्यं पृथिवि यच्‌ च नभ्यम्‌। अ०वे० १२.१.१२१।
यत्‌ ते मनस्‌ त्वयि तद्‌ धारयामि। अ०वे० ८.२.३३।
यत्‌ ते मनुर्‌ यद्‌ अनीकं सुमित्रः। ऋ०वे० १०.६९.३१।
यत्‌ ते मन्युपरोप्तस्य। तै०सं० १.५.३.२१; ४.२; मै०सं० १.७.११: १०८.५; का०सं० ८.१४१; आ०श्रौ०सू० ५.२७.१२।
यत्‌ ते मरीचीः प्रवतः। ऋ०वे० १०.५८.६१।
यत्‌ ते महे इत्यादि।: देखें-यत्‌ त्वेमहे।
यत्‌ ते माता यत्‌ ते पिता। अ०वे० ५.३०.५१।
यत्‌ ते मेधः स्वर्‌ ज्योतिस्‌ तस्य ते। शां०श्रौ०सू० ७.५.२२।
यत्‌ ते यकृद्‌ ये मतस्ने। अ०वे० १०.९.१६१।
यत्‌ ते यमं वैवस्वत। ऋ०वे० १०.५८.११. प्रतीकः यत्‌ ते यम। शां०श्रौ०सू० १६.१३.१४; ऋ०वि० ३.११.३. तुल०-बृहदा० ७.८३(ब), ९०।
यत्‌ ते राजञ्‌ (आ०गृ०सू० राजञ्‌) छृतं हविः। ऋ०वे० ९.११४.४१; आ०गृ०सू० ३.५.७; शां०गृ०सू० ४.५.८।
यत्‌ ते रिष्टं यत्‌ ते द्युत्तम्‌। अ०वे० ४.१२.२१।
यत्‌ ते रुद्र दक्षिणा धनुः। तै०सं० ५.५.७.३१।
यत्‌ ते रुद्र पश्चाद्‌ धनुः। तै०सं० ५.५.७.३१।
यत्‌ ते रुद्र पुरो धनुः। तै०सं० ५.५.७.२१; आ०श्रौ०सू० १७.१२.३।
यत्‌ ते रुद्रोत्तराद्‌ धनुः। तै०सं० ५.५.७.३१।
यत्‌ ते रुद्रोपरि धनुः। तै०सं० ५.५.७.४१।
यत्‌ ते वयं पुरुषत्रा यविष्ठ। तै०सं० ४.७.१५.६१. प्रतीकः यत्‌ ते वयम्‌। आप०श्रौ०सू० ९.१२.१०. देखें- यच्‌ चिद्‌ धि ते पुरुषत्रा।
यत्‌ ते वयं प्रमिनाम व्रतानि। ऋ०वे० ८.४८.९३।
यत्‌ ते वर्चो जातवेदः। अ०वे० ३.२२.४१।
यत्‌ ते वासः परिधानम्‌। अ०वे० ८.२.१६१. प्रतीकः यत्‌ ते वासः। वैता०सू० १०.६; कौशि०सू० ५८.१७।
यत्‌ ते विरिष्टं सम्‌ उ तत्‌ त एतत्‌। वैता०सू० २४.१३। देखें- यत्‌ त आस्थितं।
यत्‌ ते विश्वम्‌ इदं जगत्‌। ऋ०वे० १०.५८.१०१।
यत्‌ ते शिक्वः परावधीत्‌। आ०श्रौ०सू० ७.९.९१. देखें- यत्‌ त्वा शिक्वः।
यत्‌ ते शिरो यत्‌ ते मुखम्‌। अ०वे० १०.९.१३१।
यत्‌ ते शिल्पतिं कश्यप रोचनावत्‌। का०सं० ३७.९१; तै०ब्रा० २.७.१५.३१; तै०आ० १.७.११. देखें- यत्‌ ते चन्द्रं।
यत्‌ ते शुक्रं तन्वो रोचते शुचि। ऋ०वे० १.१४०.११३।
यत्‌ ते शुक्र शुक्रं वर्चः शुक्रा तनूः शुक्रं ज्योतिर्‌ अजस्रं तेन मे दीदिहि तेन त्वादधे। तै०ब्रा० १.१.७.२; २.१. २४; आप०श्रौ०सू० ५.१२.१. देखें- आगे, अगला तथा
अगले दो
यत्‌ ते शुक्र शुक्रं ज्योतिः शुक्रं धामाजस्रं तेन त्वादधे। मै०सं० १.६.२: ८७.७; १.६.७: ९७.१२; मा०श्रौ०सू० १.५.४.१३. देखें-पूर्व का तथा अगला
एक
यत्‌ ते शुक्र शुक्रं ज्योतिस्‌ तेन रुचा रुचम्‌ अशीथाः। मै०सं० १.६.१: ८६.३; १.६.६: ९५.१४।
यत्‌ ते शुक्र शुक्रं धाम शुक्रा तनूश्‌ शुक्रं ज्योतिर्‌ अजस्रं यत्‌ तेऽनाधृष्टं नामाधृष्यं तेन त्वादधे। का०सं० ७.१४. देखें- नीचे- पूर्व के दो
यत्‌ ते सधस्थं परमे व्योमन्‌। अ०वे० १३.१.४४३।
यत्‌ ते समुद्रम्‌ अर्णवम्‌। ऋ०वे० १०.५८.५१।
यत्‌ ते सादे महसा शूकृतस्य। ऋ०वे० १.१६२.१७१; वा०सं० २५.४०१; तै०सं० ४.६.९.२१;। का०सं०अश्व० ६.५१।
यत्‌ ते सुजाते हिमवत्सु भेषजम्‌। तै०ब्रा० २.५.६.४१।
यत्‌ ते सुसीमे हृदये (सा०मं०ब्रा०। पा०गृ०सू०। आ०मं०पा०। हि०गृ०सू० ०यम्‌)। कौ०ब्रा०उप० २.१०१। आ०गृ०सू० १.१३.७१; सा०मं०ब्रा०
१.५.१०१; पा०गृ०सू० १.११.९१; आ०मं०पा० २.१३.४१ (आ०गृ०सू० ६.१५.५); हि०गृ०सू० २.३.८१. प्रतीकः यत्‌ ते सुसीमे। गो०गृ०सू० २.८.४; खा०गृ०सू० २.३.४।
यत्‌ ते सूर्यं यद्‌ उषसम्‌। ऋ०वे० १०.५८.८१।
यत्‌ ते सृष्टस्य यतः। तै०ब्रा० १.२.१.७१; आप०श्रौ०सू० ५.२.४१।
यत्‌ ते सोम गवाशिरः। ऋ०वे० १.१८७.९१; का०सं० ४०.८१।
यत्‌ ते सोम दिवि ज्योतिः। वा०सं० ६.३३१; तै०सं० १.४.१.२१; ६.४.४.२; मै०सं० १.३.३: ३१.३; ४.५.४: ६९.३; का०सं० ३.१०१; शत०ब्रा०
३.९.४.१२१; आप०श्रौ०सू० १२.९.१०; मा०श्रौ०सू० २.३.३.५. प्रतीकः यत्‌ ते। का०श्रौ०सू० ९.४.९।
यत्‌ ते सोमादाभ्यं नाम जगृवि तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा। वा०सं० ७.२; तै०सं० १.४.१.२; ३.३.३.२; मै०सं० १.३.४; ३१.११; का०सं० २७.१;
३०.६; शत०ब्रा० ४.१.१.५. प्रतीकः यत्‌ ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि। तै०सं० ३.३.४.२; ६.४.४.३; मै०सं० ४.५.७: ७३.१५; आप०श्रौ०सू० १२.८.३; ११.११; यत्‌ ते सोमादाभ्यम्‌। मा०श्रौ०सू० २.३.३.२२; य ते। का०श्रौ०सू० ९.४.२८।
यत्‌ ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि तस्मै त्वा गृह्णामि। वा०सं० ८.४९; शत०ब्रा० ११.५.९.१०।
यत्‌ तो हासाते अहमुत्तरेषु। तै०ब्रा० २.८.८.१२।
यत्‌ त्वं शीतोऽथो रूरः। अ०वे० ५.२२.१०१।
यत्‌ त्वा क्रुद्धः परोवप (मा०श्रौ०सू० जो़डता है- मन्युना अगले पाद का)। तै०सं० १.५.३.११; ४.२; मै०सं० १.७.११; १०८.३; आ०श्रौ०सू० ५.२७.१२; मा०श्रौ०सू० १.६.५.७. देखें- आगे, तथा यत्‌ ते क्रुद्धः।
यत्‌ त्वा क्रुद्धाः प्रचक्रुः। अ०वे० १२.२.५१. प्रतीकः यत्‌ त्वा क्रुद्धाः। वैता०सू० ५.१३; कौशि०सू० ७०.६. देखें- नीचे- पूर्व का
यत्‌ त्वा गीर्भिर्‌ हवामहे। आ०श्रौ०सू० २.१४.३११; शां०श्रौ०सू० १.१७.१९२।
यत्‌ त्वा तुरीयम्‌ ऋतुभिः। ऋ०वे० १.१५.१०१।
यत्‌ त्वा देव प्रपिबन्ति। ऋ०वे० १०.८५.५१; नि० ११.५१. देखें- यत्‌ त्वा सोम।
यत्‌ त्वा पृछाच्छृतं हविः शमिताः शृतम्‌ इत्य्‌ एव ब्रूतान्‌ न शृतं भगवो न शृतं हि। शत०ब्रा० ३.८.३.४; का०श्रौ०सू० ६.८.१।
यत्‌ त्वा पृछाद्‌ ईजानः। ऋ०वे० ८.२४.३०१।
यत्‌ त्वा भिचेरुः पुरुषः। अ०वे० ५.३०.२१।
यत्‌ त्वा भीते अह्वयेतां वयोधै। ऋ०वे० १०.५५.१२।
यत्‌ त्वा भीते रोदसी अह्वयेताम्‌। ऋ०वे० १०.५४.१२।
यत्‌ त्वा यामि दद्धि तन्‌ न इन्द्र। ऋ०वे० १०.४७.८१।
यत्‌ त्वा शिक्वः परावधीत्‌। अ०वे० १०.६.३१. प्रतीकः यत्‌ त्वा शिक्वः। वैता०सू० १०.३; कौशि०सू० ८.१३. देखें- यत्‌ ते शिक्वः।
यत्‌ त्वा सुन्वन्त ईमहे। ऋ०वे० ८.१३.५२।
यत्‌ त्वा सूर्य स्वर्भानुः। ऋ०वे० ५.४०.५१. तुल०- बृहदा० ५.२८।
यत्‌ त्वा सोम प्रपिबन्ति। अ०वे० १४.१.४१. देखें- यत्‌ त्वा देव।
यत्‌ त्वा स्रुचः समस्थिरन्‌। ऋ०वे० १०.११८.२३।
यत्‌ त्वा हृदा शोचता जोहवीमि। अ०वे० २.१२.३२।
यत्‌ त्वा होतारम्‌ अनजन्‌ मियेधे। ऋ०वे० ३.१९.५१।
यत्‌ त्वेमहे (सा०मं०ब्रा० ते महे) प्रति तन्‌ नो (कौशि०सू० प्रति नस्‌ तज्‌) जुषस्व। ऋ०वे० ७.५४.१३; तै०सं० ३.४.१०.१३; मै०सं० १.५.१३३:
८२.१४; कौशि०सू० ४३.१३३; सा०मं०ब्रा० २.६.१३; पा०गृ०सू० ३.४.७३; आ०मं०पा० २.१५.१८३।
यत्‌ त्वेषयामा नदयन्त पर्वतान्‌। ऋ०वे० १.१६६.५१।
यत्‌ पञ्च मानुषां अनु। ऋ०वे० ८.९.२२; अ०वे० २०.१३९.२२।
यत्‌ परमम्‌ अवमं यच्‌ च मध्यम। अ०वे० १०.७.८१।
यत्‌ पर्जन्यः कृणुते वर्ष्यं नभः। ऋ०वे० ५.८३.३४।
यत्‌ पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति। ऋ०वे० ५.८३.४४; मै०सं० ४.१२.५४: १९३.२; तै०आ० ६.६.२४।
यत्‌ पर्जन्य कङ्‌इक्रदत्‌। ऋ०वे० ५.८३.९१।
यत्‌ पर्जन्यस्तनयन्‌ हन्तिदुष्कृतः। ऋ०वे० ५.८३.२४; नि० १०.११४।
यत्‌ पर्णयघ्न उत वा करञ्जहे। ऋ०वे० १०.४८.८३।
यत्‌ पर्यपश्यत्‌ सरिरस्य मध्ये। तै०ब्रा० १.२.१.४१; आप०श्रौ०सू० ५.२.४१।
यत्‌ पर्वते न समशीत हर्यतः। ऋ०वे० १.५७.२३; अ०वे० २०.१५.२३।
यत्‌ पर्वतेषु भेषजम्‌। ऋ०वे० ८.२०.२५३।
यत्‌ पर्वतेष्व्‌ ओषधीष्व्‌ अप्सु। ऋ०वे० १.१०८.११२; मै०सं० २.७.११२: ८९.१३; का०सं० १६.११.²।
यत्‌ पर्शाने पराभृतम्‌। ऋ०वे० ८.४५.४१२; अ०वे० २०.४३.२२; सा०वे० १.२०७२; २.४२२२।
यत्‌ पशवः प्र ध्यायत। सा०मं०ब्रा० २.२.८१; गो०गृ०सू० ३.१०.१९. प्रतीकः यत्‌ पशवः। खा०गृ०सू० ३.४.२।
यत्‌ पशुर्‌ मायुम्‌ अकृत। तै०सं० ३.१.४.३१; ५.२; शां०श्रौ०सू० ४.१७.१२१; का०श्रौ०सू० २५.९.१२१; आ०श्रौ०सू० ७.१७.३; मा०श्रौ०सू०
१.८.३.३४१; सा०मं०ब्रा० २.२.१११; गो०गृ०सू० ३.१०.२८. प्रतीकः यत्‌ पशुः। खा०गृ०सू० ३.४.७. देखें- यद्‌ वशा।
यत्‌ पश्यसि चक्षसा सूर्यस्य। ऋ०वे० ७.९८.६२; अ०वे० २०.८७.६२; मै०सं० ४.१४.५२: २२१.१५; तै०ब्रा० २.८.२.६२।
यत्‌ पाकत्रा मनसा दीनदक्षाः। ऋ०वे० १०.२.५१; कौ०ब्रा० २६.६१; तै०ब्रा० ३.७.११.५१; आ०श्रौ०सू० ३.१२.११. प्रतीकः यत्‌ पाकत्रा मनसा। आ०श्रौ०सू० २४.१३.३।
यत्‌ पाञ्चजन्यया विशा। ऋ०वे० ८.६३.७१; ऐ०ब्रा० ५.६.८; कौ०ब्रा० २३.१; आ०श्रौ०सू० ७.१२.९; नि० ३.८. प्रतीकः यत्‌ पाञ्चजन्यया। शां०श्रौ०सू० १०.६.८।
यत्‌ पापं तन्‌ नि वारय। आ०मं०पा० २.९.५।
यत्‌ पार्थिवे सदने वृत्रहन्तम। ऋ०वे० ८.९७.५३।
यत्‌ पार्या युनजते धियस्‌ ताः। ऋ०वे० ७.२७.१२; सा०वे० १.३१८२; तै०सं० १.६.१२.१२; मै०सं० ४.१२.३२: १८४.१७; कौ०ब्रा० २६.१५।
यत्‌ पार्श्वाद्‌ उरसो मे। कौशि०सू० ५८.११।
यत्‌ पितरं मातरं वा जिहिंसिम। का०सं० ९.६२. देखें- यन्‌ मातरं पितरं।
यत्‌ पिबति तस्मै स्वाहा। वा०सं० २२.८; तै०सं० ७.१.१९.३; मै०सं० ३.१२.३: १६१.६;। का०सं०अश्व० १.१०।
यत्‌ पिबामि सं पिबामि। अ०वे० ६.१३.५.२१।
यत्‌ पुण्डरीकं पुरमध्यसंस्थम्‌। तै०आ० १०.१०.३२; महाना० उप० १०.७२।
यत्‌ पुनानो मखस्यसे। ऋ०वे० ९.६.१.२७३; सा०वे० २.५६५३।
यत्‌ पुरुषं व्य्‌ अदधुः। ऋ०वे० १०.९०.१११; अ०वे० १९.६.५१; वा०सं० ३१.१०१; तै०आ० ३.१२.५१।
यत्‌ पुरुषेण हविषा। ऋ०वे० १०.९०.६१। अ०वे० ७.५.४१; १९.६.१०१; वा०सं० ३१.१४१; तै०आ० ३.१२.३१।
यत्‌ पूतं यच्‌ च यज्ञियम्‌ (तै०सं० यद्‌ यज०)। वा०सं० १२.१०४२; तै०सं० ४.२.७.१२; मै०सं० २.७.१४२: ९५.६; का०सं० १६.१४२; शत०ब्रा०
७.३.१.२२।
यत्‌ पूरो कच्‌ च वृष्ण्यम्‌। ऋ०वे० ६.४६.८२।
यत्‌ पूर्तं याश्‌ च दक्षिणाः। वा०सं० १८.६४२; शत०ब्रा० ९.५.१.४९२. देखें- यद्‌ दत्तं या
यत्‌ पूर्वं व्याहार्षं तन्‌ नेन्‌ मोघम्‌ असत्‌। मै०सं० ४.४.६: ५७.१६।
यत्‌ पूर्व्यं मरुतो यच्‌ च नूतनम्‌। ऋ०वे० ५.५५.८१।
यत्‌ पृत्सु तुर्वणे सहः। ऋ०वे० ८.९.१३३; अ०वे० २०.१४१.३३।
यत्‌ पृथिवीं व्युन्दन्ति। ऋ०वे० १.३८.९३; मै०सं० २.४.७३: ४४.१७; का०सं० ११.९३। देखें- पृथिवीं यद्‌।
यत्‌ पृथिवीम्‌ अचरत्‌ तत्‌ प्रविष्टम्‌। तै०ब्रा० ३.७.६.१२१; आ०श्रौ०सू० ४.८.३१।
यत्‌ पृथ्व्या अनामृतम्‌। का०सं० ७.१२१; आप०श्रौ०सू० ५.९.८१; मा०श्रौ०सू० १.५.३.८१; सा०मं०ब्रा० १.५.१११।
यत्‌ पृथिव्यां यद्‌ उराव्‌ (वा०सं०का०। मै०सं०। का०सं० उरा) अन्तरिक्षे। वा०सं० ६.३३२; वा०सं०का०६.८.४२; तै०सं० १.४.१.२२; मै०सं०
१.३.३२: ३१.३; का०सं० ३.१०२; शत०ब्रा० ३.९.४.१२२।
यत्‌ पृथिव्यां (महाना० उप० ०व्या) रजः स्वम्‌। तै०आ० १०.१.१४१; महाना० उप० ५.८१।
यत्‌ पृथिव्या वरिमन्न्‌ आ स्वङ्गुरिः। ऋ०वे० ४.५४.४३।
यत्‌ प्रजा अनुजीवन्ति सर्वाः। का०सं० ३८.१२¹।
यत्‌ प्रज्ञानम्‌ उत चेतो धृतिश्‌ च। वा०सं० ३४.३१।
यत्‌ प्राक्षिणाः पितरं पादगृह्य। ऋ०वे० ४.१८.१२४।
यत्‌ प्राक्‌ स्थो वाजिनीवसू। ऋ०वे० ८.१०.५२।
यत्‌ प्राङ्‌ प्रत्यङ्‌ स्वधया यासि शीभम्‌। अ०वे० १३.२.३१।
यत्‌ प्राण ऋताव्‌ आगते। अ०वे० ११.४.४१।
यत्‌ प्राणत्‌ पृथिवीम्‌ अनु। अ०वे० ११.२.१०¹।
यत्‌ प्राणद्‌ वायुर्‌ अक्षितम्‌। का०सं० ४०.११४; तै०आ० ६.५.२४; आ०श्रौ०सू० १७.२१.८४।
यत्‌ प्राणान्‌ निमिषच्‌ च यत्‌। अ०वे० १०.८.२४।
यत्‌ प्राण स्तनयित्नुना। अ०वे० ११.४.३१।
यत्‌ प्राणान्‌ प्राणयत्‌ पुरि। शत०ब्रा० ७.५.१.२१¹।
यत्‌ प्रायासिष्ट पृषतीभिर्‌ अश्वैः। ऋ०वे० ५.५८.६१।
यत्‌ प्रेषिता वरुणेन। अ०वे० ३.१३.२१; तै०सं० ५.६.१.२१; का०सं० ३९.२१. देखें- संप्रच्युता।
यत्‌ प्रैरत नामधेयं दधानाः। ऋ०वे० १०.७१.१२; ऐ०आ० १.३.३.५।
यत्र ऋषयः प्रथमजाः। अ०वे० १०.७.१४१।
यत्र ऋषयः (तै०सं०। तै०ब्रा०। आप०श्रौ०सू० यत्रर्षयः) प्रथमजा ये पुराणाः (कौशि०सू० प्रथमजाः पुराणाः)। तै०सं० ४.७.१३.१४; ५.७.७.१४;
तै०ब्रा० ३.७.६.९२; आ०श्रौ०सू० ४.७.२२; कौशि०सू० ६८.२६४। देखें- आगे।
यत्र ऋषयो (मै०सं० यत्रा ऋषयो; का०सं० यत्रर्षयो) जग्मुः प्रथमजाः (का०सं० प्रथमाः; मै०सं० प्रथमा ये) पुराणाः। वा०सं० १८.५२४, ५८४; का०सं० १८.१५४;
३१.१४२; ३१.१३२; ४०.१३४; मै०सं० २.१२.३४: १४६.१०; २.१२.४४: १४८.२; शत०ब्रा० ९.४.४.४४; ५.१.४५. देखें- पूर्व का
यत्र कामं निपद्यते। तै०ब्रा० २.५.५.७४। देखें- यथाकामं।
यत्र कामं भरामसि। अ०वे० ९.३.२४४।
यत्र कामाः परागताः। शत०ब्रा० १०.५.४.१६२।
यत्र कामा निकामाश्‌ च। ऋ०वे० ९.११३.१०१।
यत्र क्व च ते मनः। ऋ०वे० ६.१६.१७१; सा०वे० २.५६१. देखें- यत्रो क्व।
यत्र क्व च यज्ञोऽगात्‌ ततो मा द्रविणम्‌ अष्टु। श०ब्रा० १.५.११. देखें- यं कं च।
यत्र गङ्गा च यमुना। ऋ० खि० ९.११३.५१।
यत्र गवां निहिता सप्त नाम (अ०वे० नामा)। ऋ०वे० १.१६४.३४; अ०वे० ९.९.३४।
यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः। अ०वे० ३.२८.१२।
यत्र गावः पिबन्ति नः। ऋ०वे० १.२३.१८२; अ०वे० १.४.३२; अ०वे० २.२०.२३२।
यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। ऋ०वे० १.१५४.६२; वा०सं० ६.३२; का०सं० ३.३२; शत०ब्रा० ३.७.१.१५२; नि० २.७२. देखें- गावो यत्र।
यत्र गोषाता धृषितेषु खादिषु। ऋ०वे० १०.३८.१३।
यत्र ग्रावा पृथुबुध्नः। ऋ०वे० १.२८.११. तुल०- बृहदा० ३.१००।
यत्र ग्रावा वदति तत्र गछतम्‌। ऋ०वे० १.१३५.७२।
यत्र चाभिमृशामसि। आप०मं०पा० २.१३.५३। देखें- यत्र वाभि०।
यत्र चुश्चुतद्‌ अग्नाव्‌ एवैतत्‌। मा०श्रौ०सू० ३.५.१४३। देखें- नीचे- यतश्‌ चुतद्‌ अग्नाव्‌।
यत्र जामयः कृणवन्न्‌ अजामि। ऋ०वे० १०.१०.१०२; अ०वे० १८.१.११२; नि० ४.२०२।
यत्र ज्योतिर्‌ अजस्रम्‌। ऋ०वे० ९.११३.७१; आत्मप्र उप० ११।
यत्र तत्‌ परमं पदम्‌। ऋ० खि० ९.११३.११।
यत्र तत्‌ परमाव्यम्‌। ऋ० खि० ९.११३.२१।
यत्र तन्‌ मायया हितम्‌। अ०वे० १०.८.३४४।
यत्र तपः पराक्रम्य। अ०वे० १०७.१११।
यत्र ते दत्तं बहुधा विबन्धुषु। अ०वे० १८.२.५७४। देखें- यथा ते इत्यादि।
यत्र त्वाछावदामसि। अ०वे० ६.१४२.२२।
यत्र देवा अजुषन्त इत्यादिः देखें- यत्र देवासो इत्यादि।
यत्र देवा अमृतम्‌ आनशानाः। अ०वे० २.१.५३; वा०सं० ३२.१०३; तै०आ० १०.१.४३; महाना० उप० २.५३।
यत्र देवा इति ब्रवन्‌। ऋ०वे० ९.३९.१३। देखें- यत्रा इत्यादि।
यत्र देवाँ ऋघायतः। ऋ०वे० ४.३०.५१।
यत्र देवा दधिरे भागधेयम्‌। ऋ०वे० १०.११४.३४। तुल०- तयोर्‌ देवानाम्‌।
यत्र देवानाम्‌ आज्यपानां प्रिया धामानि। वा०सं० २१.४६; मै०सं० ४.१३.७: २०८.१५; का०सं० १८.२१; तै०ब्रा० ३.६.११.३।
यत्र देवानाम्‌ ऋषीणां प्रियं धाम तत्र म इदम्‌ अग्निहोत्रं गमय। जै०ब्रा० १.४०।
यत्र देवा ब्रह्मविदः। अ०वे० १०.७.२४१।
यत्र देवा महात्मानः। ऋ० खि० ९.११३.४१।
यत्र देवाश्‌ च मनुष्याश्‌ च। अ०वे० १०.८.३४१।
यत्र देवासो (का०सं० देवा) अजुषन्त विश्वे। वा०सं० ४.१२; का०सं० २.४२; शत०ब्रा० ३.१.१.११; मा०श्रौ०सू० २.१.१६२. देखें- विश्वे देवा यद्‌।
यत्र देवासो मदन्ति। ऋ०वे० ८.२९.७२।
यत्र देवाः समगछन्त विश्वे। ऋ०वे० १०.८२.६२; वा०सं० १७.३०२; तै०सं० ४.६.२.३२,३४।
यत्र देवाः सम्मपश्यन्त विश्वे। ऋ०वे० १०.७२.५४; वा०सं० १७.२९४; मै०सं० २.१०.३२: १३४.१३; २.१०.३४: १३४.१३; का०सं० १८.१२,१४।
यत्र देवाः सहाग्निना। वा०सं० २०.२५४।
यत्र देवैः सधमादं मदन्ति (मै०सं०। तै०ब्रा० मदेम)। अ०वे० १८.४.१०४; मै०सं० २.१३.२२४: १६७.१७:। तै०ब्रा० ३.१.१.८४। देखें- अथा देवैः इत्यादि। तथा
तुल०- यथा देवैः इत्यादि।
यत्र द्वाव्‌ इव जघना। ऋ०वे० १.२८.२१।
यत्र धारा अनपेताः। वा०सं० १८.६५१; तै०सं० ५.७.७.३१; शत०ब्रा० ९.५.१.५०१।
यत्र धारा मधुमतीः। का०सं० ४०.१३१।
यत्र धीरा मनसा वाचम्‌ अक्रत। ऋ०वे० १०.७१.२२; नि० ४.१०२।
यत्र नः पूर्वे पितरः पदज्ञः। सा०वे० २.७०९३। देखें- येना नः इत्यादि।
यत्र नः पूर्वे पितरः परेताः। मै०सं० २.१२.४४: १४८.५. देखें- नीचे- यत्रा इत्यादि।
यत्र नार्य्‌ अपच्यवम्‌। ऋ०वे० १.२८.३१।
यत्र नावप्रभ्रंशनम्‌। अ०वे० १९.३९.८१।
यत्र निर्वपणं दधुः। शत०ब्रा० ७.५.२.५२४।
यत्र नो अन्य इतरो देवयानात्‌। सा०मं०ब्रा० १.१.१५४। देखें- यस्‌ त एष, यस्‌ ते अन्य, तथा यस्‌ ते स्व।
यत्र पुण्यकृतो जनाः। तै०आ० १.८.५४।
यत्र पूर्वम्‌ अयनं हुतानाम्‌। अ०वे० १८.४.१५४।
यत्र पूर्ववहो हिताः। आ०मं०पा० १.३.४२।
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। ऋ०वे० १.१६४.५०४; १०.९०.१६४; अ०वे० ७.५.१४; वा०सं० ३१.१६४; तै०सं० ३.५.११.५४; मै०सं० ४.१०.३४: १४९.१;
का०सं० १५.१२४; ऐ०ब्रा० १.१६.३७४; शत०ब्रा० १०.२.२.३; तै०आ० ३.१२.७४; नि० १२.४१४।
यत्र पूषा बृहस्पतिः। हि०गृ०सू० २.६.१२१।
यत्र प्राची सरस्वती। ऋ० खि० ९.११३.५२।
यत्र प्रापादि शश उल्कुषीमान्‌। अ०वे० ५.१७.४४।
यत्र प्राप्नोष्य्‌ ओषधे। अ०वे० ४.१९.२¹।
यत्र प्रेप्सन्तीर्‌ अभियन्त्य्‌ आपः। अ०वे० १०.७.६¹।
यत्र प्रेप्सन्तीर्‌ अभियन्त्य्‌ आवृतः। अ०वे० १०.७.४३।
यत्र बाणाः संपतन्ति। ऋ०वे० ६.७५.१७१; सा०वे० २.१२१६१; तै०सं० ४.६.४.५१; आ०गृ०सू० ३.१२.१९. देखें- यत्र वाणाः।
यत्र बृहस्पतेश्‌छागस्य हविषः प्रिया धामानि। का०सं० १८.२१।
यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम्‌। ऋ०वे० ९.११३.१०२।
यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च। वा०सं० २०.२५१।
यत्र ब्रह्मविदो यान्ति। अ०वे० १९.४३.११ऽ८१।
यत्र ब्रह्मा पवमान। ऋ०वे० ९.११३.६१; ऐ०आ० ३.२.४.८।
यत्र भूमेर्‌ जुषसे (तै०आ० भूम्यै वृणसे) तत्र गछ। अ०वे० १८.३.९४; तै०आ० ६.४.२३ (द्वितीयांश)।
यत्र मन्थां विबध्नते। ऋ०वे० १.२८.४१।
यत्र मृत्युर्‌ भवत्य्‌ अन्नम्‌ अस्य। जै०ब्रा० २.७३४ (तृतीयांश) त्रयः पन्थानस्‌ का भाग
यत्र यज्ञो विरिष्यते। गो०ब्रा० २.२.५४।
यत्र-यत्र कामयते सुषारथिः। ऋ०वे० ६.७५.६२; वा०सं० २९.४३२; तै०सं० ४.६.६.२२; मै०सं० ३.१६.३२: १८६.३;। का०सं०अश्व० ६.१२; नि० ९.१६२।
यत्र-यत्र जातवेदः संबभूथ (तै०ब्रा० दोनों मूलपाठ तथा भाष्य त्रुटिपूर्ण, ०बभूव)। तै०ब्रा० १.२.१.२२३; आ०श्रौ०सू० ५.१३.४३। देखें- अगला एक
यत्र-यत्र निहिता वाक्‌ (आ०मं०पा० यत्र-यत्र ते वाङ्‌ नि०) तां ततस्‌-तत (हि०गृ०सू०। आ०मं०पा० तां त) आददे। पा०गृ०सू० ३.१३.६; हि०गृ०सू० १.१५.६;
आ०मं०पा० २.२१.३३।
यत्र-यत्र विभृतो (का०सं० बिभ्रतो) जातवेदाः। अ०वे० १९.३.१३; का०सं० ७.१३३। देखें- पूर्व का एक
यत्र-यत्रासि निहिता। अ०वे० १०.१.२९३।
यत्र यन्ति सुकृतो नापि दुष्कृतः। मै०सं० १.२.१५३: २५.१६; तै०ब्रा० ३.७.७.१४३; १२.५३; आप०श्रौ०सू० ७.१६.७३।
यत्र यन्ति स्रोत्यास्‌ (का०सं० स्रवत्यस्‌) तज्‌ जितं ते। अ०वे० ६.९८.३३; मै०सं० ४.१२.२३: १८१.१०; तै०सं० २.४.१४.१३; का०सं० ८.१७३।
यत्र यन्त्य्‌ ऋतवो यत्रार्तवाः। अ०वे० १०.७.५३।
यत्र यातयते यमः। तै०आ० १.८.५२।
यत्र राजभिर्‌ दशभिर्‌ निबाधितम्‌। ऋ०वे० ७.८३.६३।
यत्र राजा वैवस्वतः। ऋ०वे० ९.११३.८१।
यत्रर्षयः इत्यादि। देखें- यत्र ऋषयः; यत्रर्षयो इत्यादिः देखें- यत्र ऋषयो
यत्र लोकांश्‌ च कोशांश्‌ च। अ०वे० १०.७.१०१।
यत्र लोकास्‌ तनुत्यजाः। ऋ० खि० ९.११३.३१।
यत्र वः प्रेङ्‌खा हरित अर्जुना उत। अ०वे० ४.३७.४३।
यत्र वनस्पतेः प्रिया पाथांसि। वा०सं० २१.४६; मै०सं० ४.१३.७: २०८.१४; का०सं० १८.२१; तै०ब्रा० ३.६.११.३।
यत्र वयं वदामसि (हि०गृ०सू० वदामः)। आ०मं०पा० २.१३.५२; हि०गृ०सू० २.४.५२।
यत्र वरुणस्य प्रिया धामानि। वा०सं० २१.४६।
यत्र वष्टि प्र तद्‌ अश्नोति धन्वना। ऋ०वे० २.२४.८२।
यत्र वह्निर्‌ अभिहितः। ऋ०वे० ५.५०.४१।
यत्र वाजी तनयो वीडुपाणिः। ऋ०वे० ७.१.१४२; तै०ब्रा० २.५.३.३२।