वैदिक यज्ञों का सचित्र कोश
मूल लेखक
स्व॰ एच॰ जी॰ रानाडे
अनुवादक
प्रो॰ मनोज कुमार मिश्र
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानितविश्वविद्यालय) नई दिल्ली
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र
नई दिल्ली
प्रकाशक ः
ILLUSTRATED DICTIONARY OF
VEDIC RITUALS
Editor H.G. RANADE
Translated by
Prof. Manoj Kumar Mishra Rashtriya Sanskrit Sansthan (Deemed University) New Delhi
प्रकाशकीय
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रिय कला केन्द्र दृश्य कलाओं के शास्त्रीय एवं प्रायोगिक पक्षों का प्रमुख संसाधन केन्द्र है। यहाँ सन्दर्भ- ग्रन्थ, शब्दावलियाँ, शब्दकोश, मूल ग्रन्थ, विश्वकोश तथा अन्य अनुसन्धान एवं प्रकाशन परियोजनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति के परम्परागत कला-कौशल एवं ज्ञान पद्धतियों तथा आधुनिक विज्ञान, दर्शन एवं प्रौद्योगिकी में परस्पर बौद्धिक संवाद की अभिवृद्धि को रेखांकित किया जाता है। इस केन्द्र का कलाकोश संविभाग अपनी प्रकाशन शृंखलाओं द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कृतसंकल्प है। कला की आधारभूत संकल्पनाओं का एक बहुखण्डीय कोश कलातत्त्वकोश ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित किया जाता है। कलामूलशास्त्र शृंखला में भारतीय कलाओं के मूलभूत ग्रन्थों का समीक्षात्मक संस्करण सानुवाद एवं सटिप्पण रूप में प्रकाशित हो रहा है। कलासमालोचन में भारतीय कला विषयक आलोचनात्मक साहित्य एवं इसी विषय के मूर्धन्य विद्वानों के अप्राप्य एवं दुर्लभ लेखों का पुनर्मुद्रण किया जाता है तथा चतुर्थ शृंखला, भारतीय कलाओं के विश्वकोश के निर्माण की रूपरेखा तैयार की जा रही है।
इसी प्रसंग में भारतीय बौद्धिक एवं शास्त्रीय परम्पराओं को परिपुष्ट करने का जो कार्य कलामूलशास्त्र शृंखला द्वारा किया जा रहा है वह अप्रतिम है। इस शृंखला में वैदिक वाङ्मय, पुराण, संगीतशास्त्र, वास्तुशास्त्र, काव्यशास्त्र इत्यादि विषयों के साथ- साथ क्षेत्रीय भाषाओं के कला सम्बन्धी मूलग्रन्थ प्रकाशित किए जाते हैं। साथ ही इस शृंखला की एक आनुषंगिक शृंखला में कुछ ऐसे ग्रन्थों के प्रकाशन की भी योजना बनी, जो इन मूल ग्रन्थों के सम्यक् अवबोध में सहायक सिद्ध हों। इस कड़ी में महामहोपाध्याय प्रो. गया चरण त्रिपाठी प्रणीत ‘कम्यूनिकेशन्स विद गॉड’, डॉ. बिन्दु चावला द्वारा संगृहीत एवं संपादित **‘कनवर्सेशन विद पण्डित अमरनाथ’ **एवं प्रो. एच.जी. रानाडे द्वारा संकलित एवं सम्पादित **‘इलस्ट्रेटेड डिक्शनरी आॅफ रिचुअल्स’ **आदि ग्रन्थ अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। इनमें से **‘कनवर्सेशन विद पण्डित अमरनाथ’ **में प्रसिद्ध संगीतज्ञ पण्डित अमरनाथ के साथ वार्तालाप निबद्ध है। **‘कम्यूनिकेशन्स विद गॉड’ **में प्रो. त्रिपाठी ने उड़ीसा के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की शास्त्रीय परम्पराओं तथा प्रयोग पद्धतियों का सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है।
प्रो. एच.जी. रानाडे ने अपनी **‘इलस्ट्रेटेड डिक्शनरी आॅफ वैदिक रिचुअल्स’ **के माध्यम से एक ऐसा कोश प्रस्तुत किया है, जो कलामूलशास्त्र शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित वैदिक वाङ्मय के काण्वशतपथब्राह्मण, लाट्यायनश्रौतसूत्र, बौधायनश्रौतसूत्र एवं पुष्पसूत्र प्रभृति ग्रन्थों में आगत जटिल पारिभाषिक शब्दों एवं संकल्पनाओं की सरल व्याख्या, बहुशः चित्र संहित हमारे समक्ष प्रस्तुत कर, विषय की जटिलता को कम करके उसे बोधगम्य बनाता है। इस ग्रन्थ का मुद्रण वर्ष २००६ में हुआ था और तभी से इसकी विद्वत्वर्ग में लोकप्रियता के संकेत केन्द्र को मिलने लगे थे। अत एव यह निर्णय लिया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों एवं विद्वानों में इस बहुमूल्य ग्रन्थ का प्रचार-प्रसार करने हेतु इसका हिन्दी में अनुवाद करवाया जाए। इस महत् कार्य का प्रणयन डॉ. मनोज कुमार मिश्र ने जिस दक्षता के साथ किया, उसके लिए उन्हें मेरी हार्दिक बधाई। साथ ही कलाकोश संविभाग के विभागाध्यक्ष एवं विद्वद्वृन्द भी मेरी सराहना के पात्र हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ का सुचारु मुद्रण सुनिश्चित करवाया।
आशा है यह **वैदिक यज्ञों का सचित्र कोश **विद्वत्समुदाय में आदर के साथ स्वीकार्य होगा। दिनांक ः २१ मार्च २०१२
वी.बी. प्यारेलाल
संयुक्त संचिव, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली
विषयसूची
प्रकाशकीय v-vi
आत्मनिवेदन ix-x
भूमिका xi-xvi
शब्द-संक्षेप xvii-xxii
ग्रन्थ-सूची xxiii-xxvi
महत्त्वपूर्ण मन्त्रों की सूची xxvii-xxxiv
चित्र-सूची xxxv-xxxviii
आत्मनिवेदन
प्रस्तुत **‘वैदिक यज्ञों का सचित्र कोश’ **डेक्कन कालेज, पुणे के स्वनामधन्य आचार्यचर स्व. एच. जी. रानाडे द्वारा अनुस्यूत ‘Illustrated Dictionary of Vedic Rituals’का हिन्दी-अनुवाद है। आंग्ल भाषा से अनभिज्ञ अथवा इस भाषा से स्वल्प परिचित विद्वज्जनों एवं वैदिक संस्कृति के जिज्ञासुओं की सुविधा एवं ज्ञानपिपासा के शमन के लिए **‘**इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र, नई दिल्ली के कलाकोश-विभाग की कलामूलशास्त्र परियोजना के अन्तर्गत यह कष्टसाध्य कार्य मुझें सौंपा गया। प्रस्तुत अनुवाद-कार्य को प्रारम्भ करने से पहले मेरे सम्मुख दो चुनौतीपूर्ण लक्ष्य थे- प्रथम यह कि मूल लेखक के वास्तविक अभिप्राय को सुधीवृन्द के लिए सुगम बनाना एवं द्वितीय यह कि प्रस्तुत कार्य केवल एवं केवल अनुवाद मात्र न रह जाय, अपितु इसमे कुछ नवीनता एवं मौलिकता का भी समावेश हो। मैंने दोनों के बीच अपने सामर्थ्यानुसार मञ्जुल समञ्जसता स्थापित करने का प्रयास किया है।
अनुवाद की कठिनता एवं मेरी सीमाबद्धता के कारण निरङ्कुश स्वातन्त्र्य असम्भवप्राय था, फिर भी मैंने राजभाषा- संस्करण को और अधिक प्रामाणिक एवं उपयोगी बनाने के लिए कतिपय स्वोपज्ञ बातों का निर्वेशन किया है1. जहाँ तक सम्भव हुआ है संगृहीत शब्दों की संक्षिप्त व्याकरणिक संघटना को प्रदर्शित करने का यत्न किया गया है,
ताकि कल्पशास्त्र में प्रयुक्त शब्दों का भाषाशास्त्रीय अध्ययन करने वाले अध्येताओं एवं अनुसन्धानप्रवणों के लिए
यह ग्रन्थ उपयोगी हो सके।
- आवश्यकतानुगुण सम्बद्ध पाणिनीय व्याकरणसूत्रों को भी उद्धृत किया गया है। यद्यपि अधिक अवकाश न होने
के कारण विस्तार में जाना सम्भव नहीं हो पाया।
- हिन्दीभाषी क्षेत्र में लोकप्रियता के कारण कात्यायन-श्रौतसूत्र से उद्धरण प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत किये गये हैं।
क्वचित्-क्वचित् विषय को स्पष्ट करने के लिए का श्रौ. सू. की **‘सरलावृत्ति’ **की भी यथेष्ट सहायता ली गयी है।
- मूल में कहीं-कहीं अनवधानता अथवा टङ्कणदोषवशात् कतिपय त्रुटियां दृष्टिगत हुईं, यावच्छक्य उनको परिमार्जित
करने का प्रयत्न किया गया है।
| __5. | कुछ स्थलों पर शब्दों के चयन में उनकी संघटना अथवा अर्थ के विषय में मूल लेखक से मेरा वैषम्य है। इस सन्दर्भ में एक-दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-‘अच्य’ प्रो. रानाडे ने इस शब्द को Gerund मानते हुए इसका अर्थ- ‘Having bent (the Knee)= (घुटने को) मोड़कर, ऐसा किया है। लेकिन यह तथ्य ध्यातव्य है कि यह शब्द ‘अच्य’ नहीं अपितु ‘आच्य’ है। धातु की |
| __(i) | |
सोपसर्गता (आ उपसर्ग) के कारण ही **‘ल्यप्’ **की प्रवृत्ति हुई है (समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्, पा. 7.1.37)। **‘आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य’ **(ऋ. वे. 10.15.6) इस ऋचा में भी **‘आच्य’ **शब्द की ही प्रयुक्ति है।
(ii) **‘उक्ष्णवेष्टित’ **मूल लेखक ने इसका अर्थ ‘Encircled or Covered with the skin of Ajagar snake’
(अजगर के चर्म से घिरा हुआ अथवा आवृत)। किन्तु मैंने प्रमाणप्रस्तुति-पूर्वक इस शब्द का अर्थ **‘बैल के चर्म से घिरा हुआ अथवा ढका हुआ’ **किया है।
(iii) **‘निलेढ्य’ **(निर्लेढ्य) प्रो. रानाडे इस पद को भी Gerund मानकर इसका अनुवाद ‘Having licked (the
remanants of Agnihotra oblation)= (अग्निहोत्र के हविश्शेष को) चाटकर, इस प्रकार किया है। वस्तुतः **‘नि’ **अथवा **‘निर्’ **उपसर्गपूर्वक **‘लिह्’ **धातु से **‘ल्यप्’ **प्रत्यय जुड़ने पर **‘निलिह्य’ **अथवा **‘निर्लिह्य’ **शब्द
( x )
निष्पन्न होता है। निलेढ्य अथवा **‘निर्लेढ्य’ **शब्द संरचनात्मक रूप से कभी भी ल्यबन्त नहीं हो सकता। उन्होने कात्यायन-श्रौतसूत्र के जिस सूत्र से इस शब्द को लिया है, उस सूत्र- **‘उत्सृप्य निर्लेढ्याचम्योत्सिञ्चति……’ **में दृष्ट **‘निलेढ्याचम्य’ **का सन्धिच्छेद **‘निलेढ्य+आचम्य’ **इस प्रकार न करके **‘निर्लेढि+आचम्य’ **इस रूप में करना चाहिए। **‘निलेढि’ **अथवा **‘निर्लेढि’ **नि अथवा निर् उपसर्गपूर्वक **‘लिह्’ **धातु के लट् लकार के प्र. पु. ए. व. का रूप है। इस प्रकार से न तो व्याकरण की दृष्टि से एवं न ही अर्थ की दृष्टि से कोई विसंगति होगी।
इस अर्थ के सन्दर्भ में मूल लेखक (कोशकार) प्रो. रानाडे जी से भी विस्तृत चर्चा हुई। मेरी उद्भावनाओं का श्रवण कर वे अत्यन्त आह्लादित हुए। दुर्भाग्यवश आज वह पाञ्चभौतिक शरीर से हमारे बीच नहीं रहे। यदि वे जीवित होते, तो इस पुस्तक के प्रकाशन-पर्व पर अपार प्रसन्नता का अनुभव करते। किन्तु विकराल काल की कुटिल गति को कौन रोक सकता है।
इस कार्य के परम पवित्र पर्यवसान के अवसर पर मैं **‘इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र’ **के प्रति हार्दिक कार्तज्ञ्य प्रकट करता हूँ। इस सुप्रतिष्ठ संस्थान के अधिकारियों ने न केवल मुझे इस गम्भीर कार्य को निष्पन्न करने के योग्य समझा अपितु एतदर्थ प्रचोदित एवं प्रोत्साहित भी करते रहे। परमश्रद्धेय गुरुवर्य प्रो. गयाचरण त्रिपाठी; डॉ. नारायण दत्त शर्मा, अग्रजकल्प डॉ. विजयशङ्कर शुक्ल एवं पं. विद्याप्रसाद मिश्र का विशेषोल्लेखपूर्वक इनके प्रति सादर आभार प्रकट करता हूँ।
यदि मेरे प्रस्तुत प्रयास से वैदिक साहित्य एवं संस्कृति के अध्येताओं का कुछ उपकार हुआ, तो मैं अपने को सफलमनोरथ मानूंगा। कोई भी मानवीय कृति पूर्णतया निर्दोष नहीं हो सकती, अतः सुधीसमाज से सप्रणति निवेदन है कि इस कृति में यदि कहीं न्यूनता दीख पड़े, तो मुझे अवश्य अवगत कराने की कृपा करे। आपकी सम्मतियों का मैं सदैव स्वागत करने के लिए तत्पर रहूँगा।
विद्याचणचरणचञ्चरीक मनोज कुमार मिश्र
भूमिका
प्रस्तुत **‘वैदिक यज्ञों का सचित्र कोश’ **निम्नलिखित अर्थों में एतद्विषयक पूर्ववर्ती कार्यों का वैशिष्ट्ययुक्त ईषत्संशोधित रूप है-
१. यह अपने संगत कोशीय सामग्रियों की प्रविष्टियों में अधिक व्यापक है। जहाँ पूर्ववर्ती कृतियाँः- श्रौतपदार्थनिर्वचन (जोशीसम्पादित) 1931, Vocabulaire du Rituel Vedique (L. Renou) 1954 -पेरिस, एवं Dictionary of Vedic Ritual, C.B. Sen (1978) मुश्किल से एक हजार शब्दों का विवरण प्रस्तुत करते हैं, वहीं इस कोश में तकनीकी महत्त्व के लगभग 5000 शब्दों की प्रविष्टियां हैं।
- पूर्ववर्ती कोश मुश्किल से किसी अथवा अधिक से अधिक कुछ ही उदाहरणात्मक व्याख्यान प्रस्तुत करते हैं, जो कोशीय सामग्री के तकनीकी वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हैं। रेनू एवं सेन वैदिक कर्मकाण्ड में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का सीमित संख्या में चित्र प्रस्तुत करते हैं, जैसे कि विभिन्न प्रकार के कलछियों का एवं इसी प्रकार अन्य पात्रों का। अन्य कृतियां, जैसे- ‘यज्ञायुधानि’ (धर्माधिकारी टी.एन्.) वैदिक संशोधन मण्डल, 1992 (पुणे), एवं मीमांसा विद्यालय पुणे द्वारा पहले से प्रकाशित Picture Album (चित्र-संग्रह) चित्रों के आधिक्य के समावेश से युक्त हैं, किन्तु ये कृतियाँ इन कर्मकाण्डीय उपकरणों के कार्यान्विति के पक्ष पर प्रकाश नहीं डालते। उदाहरणार्थ ‘जुहू’ एवं ‘उपभृत्’ नाम की कलछियाँ पृथक् रूप से अगल-बगल प्रदर्शित की गई हैं। फिलहाल यह दिखाना आवश्यक है कि ‘उपभृत्’ जो कि समर्थक कलछी है, ‘जुहू’ के नीचे रखी गई है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि आहुति प्रदान करने के लिए केवल ‘जुहू’ का ही प्रयोग किया जाता है, और इस उद्देश्य के लिए कभी भी उपभृत् का प्रयोग नहीं किया जाता।
कार्यान्वयन से सम्बद्ध प्रस्तुति का यह प्रकार सम्बद्ध पारिभाषिक शब्द की रचना एवं निर्वचन को इंगित करता है। प्रस्तुत कृति की यही उल्लेखनीय विशिष्टता है।
- प्रस्तुत कोश पूर्वकथित कृतियों की अपेक्षा अधिक सम्पन्नता से वैदिकवाङ्मय के मूलपाठ्य के सन्दर्भों की सुविधा प्रदान करता है। ‘श्रौतपदार्थनिर्वचन’ मूलग्रन्थ के किसी सन्दर्भ को प्रस्तुत नहीं करता। विभिन्न कर्मकाण्डीय शब्दों के लिए इसकी अपनी परिभाषा है। उदाहरणार्थ इष्टि की, इसके ‘पौरोडाशिक भाग’ में ‘सौमिक’ की तुलना की गई है। यह (इष्टि) ऐसा कृत्य है, जो चार ऋत्विजों द्वारा सम्पाद्य है। ये ऋत्विज् हैं- अध्वर्यु, होतृ, ब्रह्मन् एवं अग्नीध्र। इसमें यजमान पांचवाँ होता है। यद्यपि यह परिभाषा सम्यक्तया वैदिक यज्ञों के तथ्यों पर आधृत है, पर ऐसा कोई विशेष वैदिक पाठ्य नहीं है, जो शब्दों की व्याख्या इन शब्दों में करता हो। रेनू एवं सेन की कृतियों में भी मूल ग्रन्थों के सन्दर्भ समाविष्ट नहीं हैं जो निश्चित पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करते हों, उदाहरण के लिए ‘ज्योतिष्मती’ एवं ‘अग्रवती’ के रूप में सङ्केतित ऋचायें सन्दर्भों द्वारा समर्थित नहीं हैं कि वे कहाँ और किस सम्यक् रूप में आम्नात हैं। सेन की कृति- ‘Dictionary of Vedic Ritual’ ( 1978) रेनू की फ्रेञ्च भाषा में निबद्ध कृति- Vocabulair du rituel Vedique (1954) का लगभग आङ्ग्ल रूपान्तरण है। ये दोनों मुख्यरूप से स्रोत के रूप में कैलण्ड एवं हेनरी की पुस्तक ‘L’ agnistoma पर आधृत हैं। यह समझने योग्य है कि उपर्युक्त विद्वज्जनों के पास ‘वैदिक संशोधन मण्डल’ पुणे द्वारा 1960 एवं बाद में प्रकाशित ‘श्रौतकोश’ (संस्कृत एवं अंग्रेजी) की कोई जानकारी नहीं थी। क्रमशः काशिकर एवं दाण्डेकर द्वारा सम्पादित बृहत्काय ‘श्रौतकोश’ (संस्कृत साथ-साथ अंग्रेजी, 3 volumes) में दुर्भाग्यवश वैदिक ग्रन्थों के सन्दर्भ एवं पारिभाषिक शब्दों पर प्रकाशित सामग्रियों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। वे मूल ग्रन्थों के सन्दर्भ दिये बिना अधिकतर प्रतीकात्मक शब्दों (जैसे-ज्योतिष्मती) पर निर्भर रहे। इस कोश में उपर्युक्त न्यूनता को दूर करने का प्रयत्न किया गया है।
( xii )
इस शब्दकोश की सूचना पाँच पक्षों पर आधृत है, जैसा कि बौ.श्रौ.सू. 24.1 में इङ्गित किया गया है, इनके नाम हैं- संहिता, ब्राह्मण, प्रत्यय, न्याय एवं संस्था। स्वाभाविक रूप से अधिक जोर प्रत्यय एवं न्याय पर दिया गया है, जो श्रौत, गृह्य एवं शुल्व सूत्रों के क्षेत्र में सम्मिलित है। शब्दों को मुख्य रूप से विश्वबन्धु के वैदिक पदानुक्रमकोश (Vedic Index) होशियारपुर से सङ्कलित किया गया है किन्तु अन्य अनुसूचियों- जैसे कि ए. मिशेल (A Machael) के ‘øulba Index’ एवं वैदिक ग्रन्थों एवं उनके अन्त में दी गई अनुक्रमणीयों का भी ध्यान रखा गया है। दाण्डेकर का Vedic Bibliography (5 Volms.) प्रविष्टि- शब्दों पर सामग्री को सन्दर्भित करने के लिए अत्यधिक सहायक रहा। ørautako÷a Index (वै.सं.म., पुणे) एवं पी.वी काणे ‘Index of Dharma÷àstra’ (vol. II) का भी अनुशीलन किया गया है।
- शब्दों का विशदन प्रमुख रूप से हस्तनिर्मित रेखाचित्रों एवं विभिन्न वर्षों में भारतवर्ष के विभिन्न स्थलों पर विभिन्न यज्ञों के वास्तविक अनुष्ठान के समय लिये गये छायाचित्रों से किया गया है। छायाचित्र उतारने के कार्य का निष्पादन 1982 में मेरे field work के दौरान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली की वित्तीय सहायता से किया गया। कुछ हस्तचित्रों को पहली बार प्रस्तुत किया गया है, उदाहरण के लिए - ‘आधारमूलम्’ एवं अन्वाधान। जहाँ तक सम्भव हुआ है, ‘सामन्’ के नाम यज्ञीय अवस्थिति के अनुसार दिये गये हैं, जहाँ उनका गायन होता है।
वैदिक कर्मकाण्ड की योजना- प्रचलनात्मक रीति से वैदिक कर्मकाण्ड तीन कोटियों में विभक्त हैः अवश्यकरणीय (नित्य), नैमित्तिक एवं ऐच्छिक (काम्य)। सात हविर्यज्ञ संस्थायें, जिनके नाम हैं-
अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमासेष्टि, चातुर्मास्य, आग्रयण, सौत्रामणी एवं पशुबन्ध (पशुयाग) एवं सात नियमित वार्षिक संस्थायें जिनका परिगणन पृथक् रूप से किया गया है, प्रथम कोटि में परिगणित हैं। नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान यदा-कदा या तो यज्ञीय प्रक्रिया में कतिपय त्रुटियों के प्रक्षालनार्थ अथवा विशिष्ट घटनाओं को उदिद्ष्ट कर किया जाता है। साधारण रूप से इनका सन्निवेश प्रायश्चित्तिक कृत्यों के अन्तर्गत किया गया है। किसी विशिष्ट कामना की पूर्ति को लक्ष्य में रखकर अनुष्ठित होने वाले कृत्यों का वर्णन काम्य के रूप में किया गया है। समय-समय पर (समयानुसार) आहुतियाँ या तो प्रतिदिन दी जाती हैं (अग्निहोत्र), अथवा पक्षानुसार (दर्शपूर्णमास, अर्थात् हर पक्ष में), चार महीने में, ऋतु के अनुसार (चातुर्मास्य) अथवा एक वर्ष में (पशुयाग अथवा सोमयाग)।
यज्ञ में अर्पित किये जाने वाले द्रव्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैदिक यज्ञ तीन प्रकार के हैं ः हविर्यज्ञ (घृत एवं पुरोडाश आदि से साध्य), पशुयज्ञ (पशुद्रव्यक) एवं सोमयज्ञ (सोमरसद्रव्यक)
कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार सामान्य परिपाटी से वैदिक यज्ञों में तीन घटकों की आवश्यकता होती है1. हविस् के रूप में प्रदान किया जाने वाला द्रव्य (द्रव्य)
-
देवता, जिसको उद्दिष्ट कर हविर्दव्य अर्पित किया जाता है (देवता)
-
एवं आहुति देने का कृत्य (त्याग)
दूसरी बात यह कि, श्रौतयज्ञ के अनुष्ठान में कम से कम तीन अग्नियों की आवश्यकता पड़ती है ः आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिण, जबकि गृह्य (घरेलू) कृत्यों का अनुष्ठान केवल एक अग्नि से किया जाता है, जिसे औपासन अथवा आवसध्य अग्नि कहते हैं। तार्किक रूप से, सर्वप्रथम पवित्र अग्नि की स्थापना (अग्न्याधेय) की जाती है, उसके बाद ही अन्य यज्ञों (अग्निहोत्र आदि) का क्रम आता है। आहुति-द्रव्य पर आधृत उपर्युक्त विभाजन को ध्यान में रखकर दर्शपूर्णमास इष्टि, निरूढपशुबन्ध एवं सोमयाग का अधोलिखित रूप में विवरण देना प्रस्तावित है-
दर्शपूर्णमास इष्टि = यजमान से इस यज्ञ के अनुष्ठान की अपेक्षा होती है, जो सभी प्रकार की इष्टियों की प्रकृति अथवा प्रतिदर्श हैं। इनका अनुष्ठान दो भागों में दो भिन्न-भिन्न तिथियों पर होता। पहले स्थान पर पूर्णमास का अनुष्ठान होता है। दर्शपूर्णमास में दर्श का पूर्व कथन (पूर्व निपात) ‘अल्पाच्कता’ (अल्पाच्तरम्, पा. २.२.३४) के कारण है न कि अनुष्ठान के प्राथम्य के कारण। पूर्णमास इष्टि का अनुष्ठान पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से तीन आहुतियाँ होती हैं। अग्नि देवता के लिए आठ
( xiii )
कपालों पर संस्कृत पुरोडाश, प्रजापति के लिए उपांशु (निम्न स्वर में) घृत की आहुति एवं अग्नीषोम के लिए ग्यारह कपालों पर संस्कृत = सेंका गया पुरोडाश। इसके बाद दर्श का अनुष्ठान प्रतिपद् के दिन (अमावस्या के अनन्तर) किया जाता है। इसमें भी तीन आहुतियाँ होती हैं (इन्द्र के लिए आठ कपालों पर सेंका गया पुरोडाश, इन्द्र अथवा महेन्द्र के लिए दधिद्रव्यक आहुति एवं इन्द्र के लिए एक दुग्धाहुति, उस स्थिति में यदि सान्नाय्य का विधान हो। यदि नहीं, तो विष्णु अथवा अग्नीषोम के लिए निम्न स्वर में घृत की आहुति एवं अग्नि के लिए आहुति के स्थान पर इन्द्राग्नी के लिए बारह कपालों पर संस्कृत पुरोडाश। सामान्य रूप से दोनों इष्टियाँ दो दिनों में अनुष्ठित होती हैं, किन्तु पौर्णमास कृत्य एक दिन में समाहित किये जा सकते हैं। इस प्रकार से समिधाओं को रखने के कृत्य आदि का अनुष्ठान पूर्णमासी के दिन होता है, एवं प्रधान आहुतियों को प्रदान करने का कृत्य प्रतिपदा के दिन सम्पन्न होता है।
मुख्य आहुतियों के पहले दो आघार (पूर्वाघार एवं उत्तराघार क्रमशः प्रजापति एवं इन्द्र के लिए) पाँच पूर्वाहुतियाँ एवं दो आज्यभाग अर्पित किये जाते हैं। मुख्य आहुति के अनन्तर स्विष्टकृत् आहुति एवं तीन उत्तराहुतियाँ प्रदान की जाती हैं। इसके बाद पत्नीसंयाज से सम्बद्ध आहुतियों का क्रम आता है। इन सभी के अतिरिक्त, दो दिवसात्मक दर्शेष्टि में पितरों के लिए चावल का पिण्ड पूर्ववर्ती दिन के मध्याह्नकाल में अर्पित किया जाता है। इष्टि में चार ऋत्विजों की आवश्यकता पड़ती है, जिनके नाम हैं- अध्वर्यु, होता, ब्रह्मा एवं अग्नीध्र। यजमान एवं यजमान-पत्नी इसके अतिरिक्त इष्टि में भागी होते हैं। इस यज्ञ के निमित्त दक्षिणा के
रूप में ‘दक्षिणाग्नि’ पर पकाया गया चावल विहित है। सामान्यतः इस यज्ञ का अनुष्ठान तीस वर्ष लगातार करते रहना होता है। निरूढपशुबन्ध (पशुयाग)
इस यज्ञ का अनुष्ठान प्रत्येक वर्षा ऋतु के दौरान सम्पन्न किया जाना चाहिए। वैकल्पिक (ऐच्छिक) रूप से इसका अनुष्ठान वर्ष में दो बार भी किया जा सकता है अर्थात् क्रमशः उस समय जब सूर्य उत्तरायण में होता एवं उस समय जबकि यह दक्षिणायन में होता है (उदगयनारम्भ एवं दक्षिणायनारम्भ)। इस यज्ञ में वध्य पशु के रूप में अज (बकरे) का विधान है, जिसका समर्पण इन्द्राग्नी अथवा सूर्यदेवता अथवा प्रजापति को उद्दिष्ट कर किया जाता है। प्रतिप्रस्थाता-समेत वरुणप्रघास में कार्य-निर्वहण करने वाले पाँच ऋत्विजों के आतिरिक्त मैत्रावरुण इसमें छठवें ऋत्विज् के रूप में कार्य करता है। इस यज्ञ की प्रकृति (प्रतिदर्श) है सोमयाग का ‘अग्नीषोमीय कृत्य’। पशु-याग में अर्पित किये गये पुरोडाश का सम्बन्ध उसी देवता से है, जिसके लिए अङ्गों की आहुति दी जाती है। इस यज्ञ की दक्षिणा है- एक पशु (बैल आदि) अथवा दुधारू गाय अथवा ऋत्विज् के पसन्द की कोई वस्तु।
सोमयाग - दो सम्भावित अनुक्रम में सोमयाग का अनुष्ठान सम्पन्न किया जा सकता है। यह या तो दर्शपूर्णमासादि इष्टियों के नियमित अनुष्ठान का अनुगमन कर सकता है अथवा इसका अनुष्ठान इन सबके न होने पर भी वसन्त ऋतु में अग्नि के स्थापन के तुरन्त बाद किया जा सकता है। इसमें मुख्य आहुति द्रव्य है सोम की लता से निचोड़ा गया सोमरस। चूंकि सोमलता का ठीक-ठीक पता लगाना कठिन है, अतः सोमलता के स्थान पर समान्यतया स्थानापन्न के रूप में पूतिका लता का उपयाोग किया जाता है।
इस यज्ञ का अनुष्ठान बहुत भारी भरकम प्रक्रिया से किया जाता है, और यह अपनी पूर्णता की प्राप्ति के लिए पाँच दिन का समय लेता है (अर्थात् पाँच दिन में सम्पाद्य है)। इस याग को सम्पन्न करने के लिए सोलह ऋत्विजों की आवश्यकता होती है (चार-चार ऋत्विजों के चार वर्ग होते हैं, जिनका सम्बन्ध क्रमशः चारों वेदों से है। इन चार-चार के चार वर्गों में प्रत्येक में आनुपदिकता है एवं दक्षिणा का वितरण आनुपातिक रूप से होता है। यह ज्योतिष्टोम-याग एक सुत्या दिन वाले (एकाह) सभी सोमयागों की प्रकृति है। यही याग कृत्य के अन्त में प्रयुक्त स्तोम की प्रकृति के आधार पर चार नामों से जाना जाता है। इनमें प्रथम है 12 स्तोत्र एवं शस्त्रों वाला अग्निष्टोम, क्योंकि इसके अन्त में अग्निष्टोम-साम का गायन किया जाता है। इसके बाद में आने वाले तीन अर्थात् उक्थ्य, षोडशी एवं अतिरात्र, जिनमें क्रमशः 15, 16 एवं 29 स्तोत्र एवं शस्त्र होते हैं, इसकी विकृति हैं। इन तीनों का नामकरण भी इनमें प्रत्येक के अन्त में गाये जाने वाले साम के आधार पर है। इन प्रत्येक स्तोत्रों के अनन्तर सङ्गत शस्त्र (सामान्यतः ऋचाओं के एक समूह) का वाचन किया जाता है। मुख्य सुत्या दिन (जो कि पञ्चदिवसात्मक कार्यक्रम का अन्तिम
( xiv )
दिन होता है), में तीन सवन होते हैं। अर्थात् प्रातः, माध्यन्दिन (दोपहर) एवं तृतीय। प्रत्येक सवन में सोमरस के निस्सारण, विभिन्न प्यालों में इसे भरने, और इसे विशिष्ट देवताओं को अर्पित करने के कृत्य का सम्पादन करना पड़ता है। इसके साथ-साथ ही विभिन्न स्तोत्रों का गायन एवं शस्त्रों का वाचन भी होता रहता है। प्रातः एवं माध्यन्दिन सवन में प्रत्येक में पाँच स्तोत्र एवं पाँच शस्त्र होते हैं। इन प्रत्येक सवनों में प्रयुक्त होने वाला पहला स्तोत्र पवमान स्तोत्र के नाम से जाना जाता है। प्रातःकाल यह बहिष्पवमान, महाह्न में माध्यन्दिन पवमान एवं सायंकाल में आर्भव पवमान के नाम से पुकारा जाता है। शेष स्तोत्रों के क्रमशः नाम हैं- आज्य, पृष्ठ, अग्निष्टोम एवं अग्नीमारुत। स्तोत्रों के गायन के कृत्य में - प्रस्तोता, उद्गाता एवं प्रतिहर्ता को लगाया जाता (अर्थात् ये स्तोत्र का गायन करते हैं)। प्रातः सवन का दूसरा शस्त्र ‘प्रउग’ शस्त्र कहलाता है एवं बाद के तीन आज्य शस्त्र कहलाते हैं। माध्यन्दिन सत्र (वेला) में प्रथम शस्त्र मरुत्वतीय के नाम से जाना जाता है एवं बाद वाले ‘निष्केवल्य’ शस्त्र कहलाते हैं। सायंकालिक सत्र (वेला) में प्रथम शस्त्र ‘वैश्वदेव’ और दूसरा अर्थात् अन्तिम आग्निमारुत। वाचन का कार्य संभालते हैं- होता, मैत्रावरुण ब्राह्मणच्छशिन् एवं अच्छावाक। प्रातःकालीन सत्र का आरम्भ होता द्वारा कुछ चुनिन्दा ऋचाओं, जो प्रातरनुवाकशस्त्र (प्रातःकाल पढ़ जाने वाला शस्त्र) कहलाता है, के वाचन से होता है।
अज को मारने एवं इसके विशेष अंगों को पशुपुरोडाश के रूप में अर्पित करना भी सुत्या दिन का एक वैशिष्ट्य है। इस कृत्य की प्रक्रिया पूर्व दिन अनुष्ठित होने वाले अग्नीषोमीय पशुयाग की प्रक्रिया पर आधृत है (अर्थात् इसका अनुष्ठान अग्निषोमीय पशुयागवत् होता है)। दक्षिणाा का वितरण दक्षिणहोम के नाम से प्रसिद्ध एक विशिष्ट कृत्य के अनुष्ठान के बाद मध्याह्न के समय किया जाता है। अध्वर्यु द्वारा अर्पित सोमप्यालों के साथ-साथ चमसाध्वर्युओं द्वारा सोमपात्र का अनुष्ठान, ऋत्विजों का प्रसर्पण (पंक्तिबद्ध होकर धीरे-धीरे सरकना) एवं अन्य अवान्तर क्रियायें सुत्या दिन की मनोरञ्जक विशिष्टताएं हैं।
प्रथम चार दिनों का कार्यक्रम निम्नवत् है ः
प्रथम दिन (जो कि सामान्य रूप से वसन्त ऋतु के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि होती है) यजमान आभ्युदयिक के साथ कृत्यों को प्रारम्भ करता है और उसके बाद ऋत्विजों का वरण (चयन) करता है। सर्वप्रथम सोमप्रवाक का चयन किया जाता है, बाद में जो सम्पादित किये जाने वाले सोम-याग में सोलहों ऋत्विजों से यज्ञ-सम्पादित कराने के लिए उनसे सम्पर्क साधता है एवं एतदर्थ उनकी सहमति प्राप्त करता है। उसके बाद यजमान अपने घर में मधुपर्क प्रदान के साथ ऋत्विजों का वरण करता है। इसके पश्चात् वह दो अरणी नाम वाली लकयिड़ों में अग्नि को रखता है एवं यज्ञीय भूमि पर गमन करता है, जहाँ वे यज्ञ-शाला एवं विहार का निर्माण करते हैं और अरणियों से अग्निमन्थन कर अग्नि को तत्तत् अंगीठियों में रख देते हैं। इसके बाद शिर को मुड़ाने एवं (यजमान एवं उसकी पत्नी) के स्नान का क्रम आता है। इसके अनन्तर ‘अग्नाविष्णू’ के लिए ग्यारह कपालों पर संस्कृत एक पुरोडाश से दीक्षणीयेष्टि का अनुष्ठान किया जाता है। इसके बाद (नवनीत, अंगुलियों को मोड़ने आदि के अनुप्रयोग के साथ) दीक्षा के कृत्य सम्पन्न किये जाते हैं। उसके बाद के कृत्य हैं- औद्ग्रभण आहुतियाँ, कृष्णाजिन दीक्षा एवं ऋत्विजों द्वारा यजमान के पवित्रीकरण (अभिषेक) की घोषणा। महावीर- सम्भरण एवं यूपच्छेदन के कृत्यों का सम्पादन भी उसी दिन किया जाता है। यजमान एवं उसकी पत्नी को व्रत के लिए अभिप्रेत दुग्ध पर ही प्रथम तीन दिन निर्वाह करना होता है, अन्तिम दो दिन वह हविष् के अवशिष्ट भाग का ही भोजन करता है। उसे अपने व्यवहार पर संयम रखना होता है।
दूसरे दिन सर्वप्रथम प्रायणीयेष्टि का अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें अदिति के लिए ‘चरु’, पथ्यास्वस्ति, अग्नि, सोम एवं स्विष्टकृत् के लिए घृत के अर्पण का विधान है। इस उद्देश्य के लिए प्रयुक्त ‘चरुस्थाली’ एवं उपवेष (चलाने वाली छड़ी, कोचनी) एक सुरक्षित स्थान (इष्टि के अन्त में) एक सुरक्षित स्थान पर इसलिए रख दिए जाते हैं ताकि बाद में अनुष्ठित होने वाले ‘उदयनीय इष्टि’ में इनकों प्रयोग में लाया जा सके। इसके बाद सोम को खरीदने का और इसे यज्ञशाला में ले आने का क्रम आता है। इस समय (इस स्तर पर) अतिथि (सोमराजा) के सम्मान में विष्णु के लिए नौ कपालों पर संस्कृत एक पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसके आगे यजमान एवं उसकी पत्नी उन सभी कृत्यों में, जिसमें जल की आवश्यकता होती है ‘मदन्ती’ - संज्ञक जल का ही उपयोग करते हैं। आतिथ्या इष्टि के अनन्तर-‘तानूनप्त्र’ कृत्य का अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें सभी कार्यसम्पादक ऋत्विक् घृत का स्पर्श करते हैं, एवं यज्ञ की पूर्ति-पर्यन्त साथ-साथ काम करने एवं आपस में न उलझने का सङ्कल्प लेते हैं।
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यदि यजमान प्रथम बार सोम-याग का अनुष्ठान कर रहा हो, तो इसे इस स्तर पर ‘प्रवर्ग्य’ नाम वाले कृत्य का सम्पादन नहीं करना चाहिए। यदि यजमान प्रवर्ग्य के अनुष्ठान का निश्चय करता है तो कार्यसम्पादक ऋत्विक् क्रमशः गार्हपत्य एवं आहवनीय में उत्तर तरफ दो शर्करा (बालूमिश्रित पत्थर,) के खर = ढूहों को तैयार करते हैं और आहवनीय के दक्षिण तरफ आसन्दी पर दो महावीर पात्रों को रखते हैं। इनमें से एक पात्र घी से भरा जाता है और उसे गार्हपत्य के उत्तर स्थापित खर (ढूह) पर मूंज की घास की आग पर रखकर तप्त करते हैं। साथ ही साथ विभिन्न स्तोत्रों का गायन एवं मन्त्रों का वाचन होता रहता है। रौहिण पुरोडाश की भी आहुति विशिष्ट क्रम में दी जाती है। वे सर्वप्रथम दक्षिणी रौहिण-पुरोडाश को अर्पित करते हैं। इसके बाद अजा (बकरी) एवं गाय के दूध को दुहकर, वे अजा के दुग्ध को महावीर पात्र में अत्यन्त तप्त घृत में उड़ेलते हैँ, जिसके बाद प्रकाश की उग्र दीप्ति उत्पन्न होती है। इसके बाद गाय के दुग्ध को महावीर में उड़ेला जाता है। इसके बाद अग्नि में घर्म की एवं उत्तरी रौहिण-पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसके बाद वह उपसद् इष्टि का अनुष्ठान करता है, जिसमें स्रुव से क्रमशः अग्नि, सोम एवं विष्णु को घृत की आहुति दी जाती है। इन दोनों कृत्यों का पुनः दूसरे दिन के दोपहर के समय, तृतीय दिन के प्रातःकाल एवं मध्याह्न, एवं चौथे दिन के प्रातःकाल में ही दोनों का साथ-साथ अनुष्ठान किया जाता है। प्रर्वग्य एवं उपसद् इष्टियों के अतिरिक्त तृतीय दिन का प्रमुख लक्ष्य है महावेदि का निर्माण, जिसमें अनेक प्रकार के मण्डप होते हैं ः सदस्, हविराधान, आग्नीध्रीय, मार्जालीय शामित्र एवं उत्तरा-वेदि-चत्वर आदि (एवं अग्निवेदि, यदि प्रस्तावित हो)।
चतुर्थ दिवस प्रमुखतः अग्नि एवं सोम को आगे ले जाने (अग्नीषोमप्रणयन), अग्नीषोमीय पशुयाग एवं सायं काल वसतीवरी-संज्ञक जलों के संग्रह के प्रति समर्पित है। यदि यजमान को अपने ‘दुर्ब्राह्मणत्व’ को हटाने के लिए वध्य पशु को अर्पित करना हो, तो उसे ऐसा अग्नीषोमीय कृत्य के पूर्व करना चाहिए।
सोमयाग के कृत्यों का अवसान पाँचवें दिन के अन्त में ‘अवभृथ’ - संज्ञक स्नान के साथ होता है, जिसके बाद उदयनीय, अनुबन्ध्या पशु-याग एवं उद्वासनीय इष्टि विहित है।
द्वादशाह सोमयाग-
द्वादशाह (द्वादशदिवसीय) याग को सत्र एवं अहीन (बहुदिवसीय) दोनों प्रकार के सोमयागों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है। सत्र में सभी ऋत्विज् यजमान के रूप में कार्य करते हैं। प्रधान ऋत्विक् ‘गृहपति’ के नाम से जाना जाता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह यजमान के समस्त कर्तव्यों का निर्वहण करे। किन्तु सभी ऋत्विजों को दीक्षा-क्रम से गुजरना पड़ता है। यदि यज्ञ ‘अहीन’ के प्रकार का हो, तो इसमें एक यजमान हो सकता है एवं ऋत्विक् दक्षिणा प्राप्त करते हैं। सत्र में दक्षिणा के वितरण का विधान नहीं है। इस अनुष्ठान में बारह दिन लगते हैं, प्रत्येक के लिए क्रमशः दीक्षा के कृत्य, उपसद् इष्टि एवं सुत्या का विधान है। यह अग्निवेदि के चयन से सम्बद्ध हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। अध्वर्यु एवं उसके सहायक सत्र के अनुष्ठान के लिए एक विशिष्ट क्रम में अन्य कार्यसम्पादक ऋत्विजों (एवं उनकी पत्नियों) की दीक्षा के कार्य का निष्पादन करते हैं।
सवनीय दिनों के लिए वध्य पशु या तो वही होते जो अग्निष्टोमवत् ‘इन्द्राग्नी’ को अर्पित किये जाते हैं अथवा वे पशु जो स्तोमायन अथवा एकादशिनी के अन्तर्गत नियत हैं, इनके साथ बारहवाँ पुनः अग्नि को अर्पित किया जाता है। बारह दिन के लिए सोम-याग की व्यवस्थिति निम्नवत् है।
प्रथम दिन ‘प्रायणीय दिन’ के नाम से जाना जाता है एवं अतिरात्र याग का अनुष्ठान उसी दिन होता है, उसके बाद पृष्ठ्य षडह (छः दिन) एवं तीन छन्दोम यागों का अनुष्ठान किया जाता है। ग्यारहवाँ दिन ‘अविवाक्य’ के नाम से प्रसिद्ध है। बारहवाँ दिन पुनः एक अतिरात्र होता है और इस समय इसे ‘उदयनीय’ के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रथम ग्यारह दिनों के अनुष्ठान की समाप्ति ‘पत्नीसंयाज’ कृत्यों से होती है।
अग्नि, इन्द्र के नियमित व्यक्तिगत सोमप्यालों एवं सुत्या दिन पर युगल-देवताओं मैत्रावरुण एवं अश्विनौ को अर्पित किये जाने वाले सोमयागों के अतिरिक्त द्वादशाह में अतिग्राह्य, षोडशिन् एवं अंशु-अदाभ्य अतिरिक्त प्याले होते हैं। छन्दों की अदला
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बदली के आधार पर द्वादशाह के आगे दो भेद हो जाते हैं, अर्थात् ‘व्यूढ’ एवं ‘समूढ’ नाम वाले भेद। व्यूढ क्रम में प्रायणीय एवं उदयनीय के अवसर पर ऐन्द्रवायव ग्रह (प्याले) का प्रथम स्थान पर आहरण होता है। शेष दिनों में प्रथम दिन सर्वप्रथम मैत्रावरुण प्याले का आहरण होता है, दूसरे दिन ‘शुक्र’ प्याले, एवं तीसरे एवं चौथे दिन आग्रयण ग्रह (प्याले), पाँचवें दिन ऐन्द्रवायव, छठें एवं सातवें दिन शुक्र, आठवें दिन आग्रयण तथा नवम एवं दशम दिन ऐन्द्रवायव प्याले का। वर्ष भर चलने वाला ‘गवामयन’ संज्ञक याग सत्र की प्रकृति है। इस अवसर पर एक सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।
शब्द-संक्षेप
१. मूल-ग्रन्थ
| __अग्निवे.गृ.सू. अ.वे. अ.वे.(परि.) अ.वे.(प्राय.) आप.ध.सू. आप.गृ.सू. आ.पि.मे. आप.म.ब्रा. आश्व.श्रौ.सू. आश्व.गृ.सू. आप.शु.सू. आप.श्रौ.सू. आर्षे.ब्रा. ऋ.वे. ऋक्.प्रा. ऐ.ब्रा. कर्म प्र. कपि.क.सं. काठ.गृ.सू. काठ.सं. का.हौत्रपरि. का.शु.सू. का.श्रौ.सू. कौशि.सू. कौषी.ब्रा. क्षुद्रसू. | - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - | अग्निवेश-गृहसूत्रअथर्ववेद-संहिता (शौनक)अथर्ववेद-परिशिष्टअथर्ववेद-प्रायश्चित्तआपस्तम्बधर्मसूत्रआपस्तम्बगृह्यसूत्रआपस्तम्ब पितृमेधआपस्तम्ब-मन्त्रब्राह्मणआश्वलायन-श्रौतसूत्रआश्वलायन-गृह्यसूत्रआपस्तम्बशुल्वसूत्रआपस्तम्ब-श्रौतसूत्रआर्षेय ब्राह्मणऋग्वेद-संहिताऋक्प्रातिशाख्यऐतरेय-ब्राह्मणकर्म-प्रदीपकपिष्ठल कठ संहिताकाठक गृह्यसूत्रकाठक-संहिताकात्यायन हौत्रपरिशिष्टकात्यायन शुल्वसूत्रकात्यायन श्रौतसूत्रकौशिक-सूत्रकौषीतकी-ब्राह्मणक्षुद्रसूक्त |
( xviii )
खादि.गृ.सू. - खादिर गृह्यसूत्र
ग्रा.गा. - ग्रामगेयगान
गो.ब्रा. - गोपथब्राह्मण
गौत.पि.मे. - गौतम पितृमेध
गोभि.गृ.सू. - गोभिल गृह्यसूत्र
गोभि.स्मृ. - गोभिलस्मृति
गौ.ध.सू. - गौतम-धर्मसूत्र
जै.उ.ब्रा. - जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण
जै.गृ.सू. - जैमिनीय गृह्यसूत्र
जै.ब्रा. - जैमिनीय ब्राह्मण
जै.श्रौ.सू. - जैमिनीय श्रौतसूत्र
टुप्टी. - टुप्टीका
तन्त्रवा. - तन्त्रवार्तिक
ता.ब्रा. - ताड्यब्राह्मण
तै.आ. - तैत्तिरीय आरण्यक
तै.उ. - तैत्तिरीयोपनिषद्
तै.प्राति. - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य
तै.ब्रा. - तैत्तिरीय ब्राह्मण
तै.सं. - तैत्तिरीय संहिता
द्रा.गृ.सू. - द्राह्यायण-गृह्यसूत्र
द्रा.श्रौ.सू. - द्राह्यायण श्रौतसूत्र
देव.ब्रा. - देवताध्याय-ब्राह्मण
धूर्त - धूर्तस्वामी (आपस्तम्बश्रौतसूत्र-भाष्यकार)
नार.शि. - नारदीयशिक्षा
निदा.सू. - निदान-सूत्र
निरु. (नि.) - निरुक्त
नैषध. - नैषधीयचरितम्
न्यायमञ्ज. - न्यायमञ्जरी
न्यायमा.वि. - न्यायमालाविस्तर
पञ्च.ब्रा. - पञ्चविंश ब्राह्मण
पा.गृ.सू. - पारस्कर-गृह्यसूत्र
पिण्डपि. - पिण्डपितृयाग
( xix )
पुष्प.सू. - पुष्पसूत्र
बाल.भ. - बालमभट्टी
बृ.दे. - बृहद्देवता
बृह.सर्वानु. - बृहत् सर्वानुक्रमणी
बृहदा. उप. - बृहदारण्यक उपनिषद्
बौ.गृ.सू. - बौ(बो)धायन गृह्यसूत्र
बौ.ध.सू. - बौ(बो)धायन-धर्मसूत्र
बौ.पि., बो.पि.मे. - बौ(बो)धायन पितृमेध
बौ.शु.सू. - बौ(बो)धायन शुल्वसूत्र
बौ.श्रौ. सू. - बौ(बो)धायन श्रौतसूत्र
ब्रह्म.सू.भा.(रा.) - ब्रह्मसूत्रभाष्य (रामानुज)
भा.परि. - भारद्वाज-परिशिष्ट
भा.पि.मे. - भारद्वाज-पितृमेध
भा.श्रौ.सू. - भारद्वाज-श्रौतसूत्र
भास्क. - भास्करी
म.स्मृ - मनुस्मृति
मन्वर्थवि. - मन्वर्थविवृति
मश.सू. - मशक सूत्र
महा भा. - महाभारत
मा.शु. - मानव-शुल्वसूत्र
मा.श्रौ.सू. - मानव श्रौतसूत्र
मी.सू. - मीमांसा-सूत्र
मै.सं. - मैत्रायणी-संहिता
राम.मञ्ज. - रामायण-मञ्जरी
रु. - रुद्रदत्त (आप.श्रौ.सू. के भाष्यकार)
ला.श्रौ.सू. - लाट्यायन श्रौतसूत्र
वशि.ध.सू. - वशिष्ठ धर्मसूत्र
वा.सं. - वाजसनेय-संहिता (माध्यन्दिन)
वाधू.श्रौ.सू. - वाधूल श्रौतसूत्र
वारा.गृ.सू. - वाराह गृह्यसूत्र
वारा.ध.सू. - वाराहधर्मसूत्र
वारा.श्रौ.सू. - वाराह श्रौतसूत्र
विव. - विवरण-टीका (बौधायन श्रौतसूत्र)
( xx )
| विष्णुस्मृ. वीरमि. वैखा.गृ.सू. वैखा.श्रौ.सू. वैज.को. वैता.सू. श.ब्रा. शा.भा. शां.गृ.सू. शाङ्खा.स्मृ. शां.श्रौ.सू. षड्वि.ब्रा. सत्या.श्रौ.सू. सा.वे. सामवि.ब्रा. स्मृ.च. संहितोप.ब्रा. हारल. हि.गृ.सू. हि.ध.सू. हि.पि.मे. हि.श्रौ.सू. | - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - | विष्णुस्मृतिवीरमित्रोदय (याज्ञवल्क्यशिक्षा पर टीका)वैखानस गृह्यसूत्रवैखानस श्रौत्रसूत्रवैजयन्ती कोशवैतान सूत्रशतपथ ब्राह्मणशाबरभाष्यशाङ्खायन गृह्यसूत्रशाङ्खायन स्मृतिशाङ्खायन श्रौतसूत्रषड्विंश ब्राह्मणसत्याषाढ श्रौतसूत्रसामवेद (ग्रामगेय एवं आर्चिक गान)सामविधान ब्राह्मणस्मृतिचन्द्रिकासंहितोपनिषद् ब्राह्मणहारलताहिरण्यकेशि गृह्यसूत्रहिरण्यकेशि-धर्मसूत्रहिरण्यकेशि पितृमेधहिरण्यकेशि-श्रौतसूत्र-सत्याषाढ |
पत्रिकायें एवं अन्य ग्रन्थ
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| __C B S C H/C. H Debour Egge | - - - - | |
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( xxii )
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| विद्या. वेद.केश्. श्रौ.को.(अं.) श्रौ.प.नि. श्रौ.को.(सं.) सं.डि.डे. हा.ओ.सि. हि.आ.ध./हि.ध. | - - - - - - - - | |
3- सामान्य
| __अश्व अनु. आ.प. ए. व. क्रि.वि. टी.भा. द्वि.व. पर.प. प्र.पु. पा.भे. पा.टि. बहु.व. राज. वाज. वाल्यू. वि. सप्त. सम्पा. | - - - - - - - - - - - - - - - - - - | अश्वमेध यज्ञअनुवाद, अनूदितआत्मनेपदएकवचनक्रिया विशेषणटीका, भाष्यद्विवचनपरस्मैपदप्रथम पुरुषपाठभेदपादटिप्पणीबहुवचनराजसूय यज्ञवाजपेयवाल्यूमविशेषणसप्तमी विभक्तिसम्पादित |
ग्रन्थ-सूची
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( xxiv )
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महत्त्वपूर्ण मन्त्रों की सूची
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( xxx )
| अहाव्यग्ने हविरारस्यते अहे दैधिषव्योदतस्तिष्ठान्यस्य अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय आकाशो देवो दैवः सदस्यः आकूत्यै त्वा कामाय त्वा आकूत्यै प्रयुजेऽग्नये स्वाहा | श्रौ.को. (अं.) 1.942 सौत्रामणी सुरायाग में स्विष्टकृत् की याज्या के रूप में पठित।तै.सं. 3.2.4.4 प्रवेश एवं नीचे बैठने के समय उच्चारिततै.ब्रा. 1.1.10.3 नवस्थापित ‘आवसथ्य’ अग्नि के प्रति यजमानकर्तृक प्रार्थना।श्रौ.को. (सं.) 1.37 सदस्य का वरणश्रौ.को. 1.35 अनुष्ठान के लिए ‘आकूति’ देवी के प्रति उद्घोषणा के लिए सम्बोधित।तै.सं. 1.2.2.1 उस समय उच्चारित जिस समय चम्मच से ध्रुवा मे से लेकर दीक्षाहुतियाँअर्पित की जाती हैं।तै.सं. 7.1.6.6 ‘वाजिन्’ के भागग्रहण के मन्त्र के रूप में उच्चारिततै. सं. 3.2.5.3 अग्निष्टोम के तृतीय सत्र में ‘चमसिन्’ लोगों के पुरोडाश के शेष भाग का भक्षण करते समय उच्चारितश्रौ.को. (सं.) 1.36 अध्वर्यु का चयनबौ.श्रौ.सू. 2.13.8 ‘अम्बरीष’ अग्नि में घृत की एक आहुति डालते समय उच्चारित।तै.सं. 1.2.1.1 दीक्षा के पूर्व यजमान के स्नान (अर्थात् अप्सुदीक्षा) के समय उच्चारिततै.सं. 4.1.5.1 प्रायश्चित्त; यदि प्रणीता जल बाहर गिर जाये, तो इसे इस ऋचा से ग्रहणकरते हैं।तै.सं. 3.2.5.3 उस समय उच्चारित जिस समय उपभोग=पान के पश्चात् पानपात्र को पुनः आपूरित किया जाता है।श्रौ.को. (अं.) 1.846 पशुपुरोडाश के लिए पुरानुवाक्या के रूप में पठित।श्रौ.को. (अं.) 1.38 ‘अम्बरीष’ से जलते अंगारों को लेते समय उच्चारित।तै.सं. 1.2.1.2 इसके साथ यजमान प्राग्वंश में प्रवेश करता है।तै.सं. 3.3.2.1 अध्वर्यु इससे एक शस्त्र नियत करता है- भा.श्रौ.सू. 13.3.1.2.श्रौ. को. (अं.) 1.329, इष्टि में द्वितीय आघार के समय पठिततै.सं. 1.2.13.1 घृत को दक्षिणी अग्नि पर रखता है। प्रायश्चित के रूप में भी प्रयुक्त।श्रौ.को. (अं.) 1.370 ‘दर्श’ नामक इष्टि में इन्द्राग्नी के लिए पुरोनुवाक्या के रूप में पठित।श्रौ.को. (सं.) 1.41 गोपितृ यज्ञ में उच्चारण के लिए प्रेरित होने पर उच्चारित।तै.ब्रा. 3.3.8 सूक्तवाक् के लिए पुकार (प्रैष)तै.सं. 3.2.9.1 माध्यन्दिन सत्र में ‘शस्त्र’ के अन्त में उच्चारिततै.सं. 3.2.9.2 तृतीय सत्र (सवन) में ‘शस्त्र’ के अन्त में उच्चारित |
| __आ त्वा विशन्त्विन्दवः आदित्यवद्गणस्य सोम देव ते | |
| __आदित्यो देवो अन्वग्निरुषसाम् आपो अस्मान् मातरः शुन्धन्तु आपो हि ष्ठा मयोभुवः | |
| __आ प्यायस्व समेतु ते | |
| __आ भरतं शिक्षतम् आयुषे वो गृह्णामि आ वो देवास ईमहे इडा देवहूः इत इन्द्रो इदं विष्णुर्विचक्रमे इन्द्राग्नी रोचना दिवः | |
| __इमा म आपः इषिता दैव्या होतारो उक्थं वाचि उक्थं वाचीन्द्राय | |
( xxxi )
( xxxiv )
| युवमेतानि दिवि युवं सुरामम् अश्विना | ऋ.वे. 1.93.5 पौर्णमास में अग्नीषोम के लिए ‘याज्या’ के रूप में पठित।श्रौ.को. (अं.) 1.919 सौत्रामणी सुरायाग की पुरोनुवाक्या के रूप में पठित। |
| __ये यजामहे होत्रा इन्द्रो धाना अत्तु श्रौ.को. (अं.) 11.507 सवनीय पुरोडाश के लिए ‘याज्या’ । | |
| __वसुमद्गणस्य सोम देव ते | तै.सं. 3.2.5.2 इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए मुख्य ऋत्विज् से सम्बद्ध पानपात्र को पकड़ने वाले सोम-रस का पान करते हैं।तै.सं. 1.1.13.1 दर्श में करछुलों को पृथक् करते समय उच्चारित।तै.ब्रा. 1.1.7.1; श्रौ.को. (सं.) 1.47 दक्षिणाग्नि का आधान करते समय उच्चारित।तै.ब्रा. 3.10.9.2 अग्निहोत्र आहुति प्रदान करने के पूर्व जल का स्पर्श करते समयउच्चारित।तै.सं. 1.2.13.3 उत्तरी सोमशकट के निकट कील गाड़ते समय उच्चारित।श्रौ.को. (अं.) 1.370 ‘दर्श’ इष्टि में इन्द्राग्नी के लिए याज्या के रूप में पठित।तै.ब्रा. 1.2.1.1; श्रौ.को. (सं.) 1.40 खुरची हुई मिट्टी पर जल छिड़कते समय पठित।श्रौ.को. (अं.) 1.671 वैश्वदेव पर्व के अन्तर्गत ‘पूषा’ के लिए याज्या के रूप में पठित।तै.सं. 1.6.6.2 गार्हपत्य अग्नि को प्रज्वलित करते समय उच्चारित।तै.ब्रा. 1.2.1.9 ब्रह्मौदन के सम्बन्ध में अग्नि पर समिधा रखते समय उच्चारितऋ.वे. 5.28.5; तै.सं. 2.5.8.6; तै.ब्रा. 3.5.2.3 सामिधेनियों के दौरान पठित, जिसकेबाद अनुयाज के लिए एक को छोड़कर सभी समिधायें आग पर रख दी जाती हैं।श्रौ.को. (अं.) 1.370 पौर्णमास में उपांशु आहुति के लिए याज्या के रूप में पठित।श्रौ.को. (सं.) गोपितृयज्ञ में जल में देखते समय यजमान द्वारा उच्चारित करया जाता है।तै.सं. 1.4.45.2; श्रौ.को. (सं.) 1.41 हृदयशूल संज्ञक कृत्य के पश्चात् चात्वाल परसफाई करते समय उच्चारित, जैसा की गोपितृयज्ञ में भी।श्रौ.को (सं.) 1.47 आहवनीयाधान के समय उच्चारित।तै.ब्रा. 2.1.9.2 प्रातःकालीन अग्निहोत्र की आहुति के समय उच्चारितऋ.वे. 1.91.11 ‘दर्शेष्टि’ में द्वितीय आज्यभाग के लिए पुरोनुवाक्या के लिए पठितश्रौ.को. (अं.) 11.507 सवनीय पुरोडाश के स्विष्टकृत् के लिए याज्या के रूप में प्रयुक्त |
| __वाजस्य मा प्रसवेन (भूर्भुवः) वातः प्राणः विद्युदसि विद्य मे | |
| __विष्णोर्नु कं वीर्याणि श््नथद् वृत्र उत शंनो देवीरभिष्टये शुक्रं ते अन्यत् समिद्धो अग्ने मे दीदिहि समिधाग्निं दुवस्यत समिद्धो अग्न आहुत | |
| __स वेद पुत्रः सिद्धे मे मन्युर्व्याप्प्रे सुमित्रा न आप ओषधयः | |
| __(भूर्भुवः) सुवरर्कश्चक्षु सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः सोम गीर्भिष्ट्वा वयम् हविरग्ने वीहिवौषट् | |
चित्र-सूची
| __अक्षधुरोपाञ्जन अग्निक्षेत्र अग्निचयन अग्निमंथन अग्निष्ठ अग्निसंमार्ग अग्निहोत्रस्थाली अग्निहोत्रहोम अग्निहोत्री गौः अग्नीध्र अग्न्यागार अग्न्युद्धरण अङ्कधारणा अङ्गुलीमानम् अच्छावाक अच्छावाकचमस अञ्जलि अतिक्रमण अतिग्राह्य अत्याधा अत्सरुक अदाभ्य अधरमूलम् अधरारणि अधिवृणक्ति अधिश्रयण | पृ. 7पृ. 12पृ. 12पृ. 15पृ. 19पृ. 20पृ. 23पृ. 23पृ. 24पृ. 25पृ. 27पृ. 28पृ. 30पृ. 33पृ. 36पृ. 36पृ. 40पृ. 41पृ. 41पृ. 47पृ. 48पृ. 48पृ. 49पृ. 50पृ. 52पृ. 52 |
| __अधिषवण-फलक अनक्षसङ्गम् अनन्तर्गर्भ अनस् अन्तर्धान कट अन्वाधान अपिकक्ष अभिघारण अभिज्वालन अभिषेक अभ्यात्मम् अभ्रि अलङ्करण अलजचित् अलेख अवधूनन अवभृथ अवान्तरेडा अंशु (ग्रह) अषाढा अंसाभिमर्शन असिद आकर्षफलक आक्रमण आग्नीध्र चमस आघार | पृ. 53पृ. 59पृ. 63पृ. 70पृ. 89पृ. 91पृ. 96पृ. 100पृ. 101पृ. 104पृ. 106पृ.108पृ. 112पृ. 112पृ. 112पृ. 115पृ. 115पृ. 117पृ. 1पृ. 121पृ. 3पृ. 123पृ. 126पृ. 126पृ. 128पृ. 130 |
( xxxvi )
| आचमन आज्यग्रहण आज्यस्थाली आज्यावेक्षण आज्येडा आदित्यग्रह आप्यायन आश्विन (ग्रह) आसन्दी आहवनीय इडापात्र इडापात्री इडोपाह्वान इध्मबर्हिराहरण इध्मसन्नहन इष्टका इष्टिपरिवेष सोमशकट उखासम्भरण उख्यासन्दी उत्तरारणि उत्तराक्षाभ्यञ्जनम् उत्पवन उदिङ्गन उद्गातृ चमस उद्धरण उपभृत् उपयमनी उपर उपविष्टहोम उपवीत उपवेष | पृ. 130पृ. 132पृ. 133पृ. 134पृ. 134पृ. 136पृ. 138पृ. 145पृ. 145पृ. 147पृ. 149पृ. 150पृ. 151पृ. 151पृ. 152पृ. 153पृ. 154पृ. 156पृ. 157पृ. 158पृ. 50पृ. 160पृ. 161पृ. 163पृ. 164पृ. 165पृ. 169पृ. 170पृ. 171पृ. 172पृ. 173पृ. 173 |
| __उपसर्जनी उपस्तरणम् उपाकरण उभयतः प्रउग उभयतस्तीक्ष्णा उभयतोमुख उलपराजि उलूखल-मुखल ऋतुपात्र ब्राह्मणाच्छंसिन-चमस ऐन्द्रवायवग्रह ओवीली औदुम्बरी औपासन कङ्कचिति कपाल कपालोपधान कुशा कूर्च कूर्मचिति कृष्णविषाणा कृष्णाजिन केशवपन क्षुल्लकाभिषवण ग्रावस्तुत् चक्र चमसाध्वर्यु चषाल चात्र चात्वालकरण जान्वक्न जुहोति | पृ. 175पृ. 175पृ. 177पृ. 178पृ. 178पृ. 179पृ. 179पृ. 179पृ. 120, 184पृ. 187पृ. 190पृ. 191पृ. 192पृ. 193पृ. 194पृ. 196पृ. 196पृ. 205पृ. 206पृ. 206पृ. 207पृ. 208पृ. 208पृ. 211पृ. 220पृ. 223पृ. 227पृ. 228पृ. 230पृ. 230पृ. 237पृ. 238 |
( xxxvii )
| त्सरुक-चमस तानूनप्त्र त्र्यम्बकेष्टि दक्षिणाग्नि दधिग्रह दर्भपुञ्जील दर्वी दशापवित्र दृषद् - उपला देवतीर्थ द्रोणकलश द्रोणचिति धवित्र धिष्णय नाभि निग्राभ्या निराञ्छन नीड नेष्टृचमस पत्नीसंयाज परिप्लवा पशुबन्ध पितृतीर्थ पित्र्या पुरोडाश पोतृ पोतृ-चमस प्रणीता-प्रणयन प्रतपन प्रतिगर प्रतिसरबन्ध | पृ. 227पृ. 242पृ. 247पृ. 248पृ. 249पृ. 250पृ. 250पृ. 251पृ. 172पृ. 255पृ. 257पृ. 257पृ. 259पृ. 260पृ. 263, 265पृ. 267पृ. 269पृ. 271पृ. 272पृ. 278पृ. 283पृ. 289पृ. 243पृ. 294पृ. 296पृ. 300पृ. 300पृ. 302पृ. 303पृ. 303पृ. 306 |
| __प्रमन्थ प्रवर्ग्य प्रवर्ग्यसंभार प्रवर्ग्योद्वासन प्रशास्तृ-चमस प्रसर्पण प्रह्व (मैत्रावरुण) प्रातरनुवाक प्राशित्रपात्र प्रोक्षणी फलक फलीकरण पात्र ब्रह्मन् ऋत्विज् ब्रह्मतीर्थ ब्रह्मचमस ब्राह्मणाच्छासि-चमस मण्डूककर्षण मधुपर्क महावीर मेक्षण मैत्रावरुणाग्रह यजति यजमान-यजमानपत्नी यजमान-चमस यूपवृक्ष यूप यूपावटीय योक्त्र रथचक्र रथचक्रचिति राजासन्दी | पृ. 309पृ. 310पृ. 310पृ. 311पृ. 311पृ. 312पृ. 314पृ. 315पृ. 317पृ. 318पृ. 263पृ. 319पृ. 322पृ. 243पृ. 323पृ. 324पृ. 327पृ. 328पृ. 331पृ. 336पृ. 337पृ. 338पृ. 338पृ. 338पृ. 342पृ. 343पृ. 343पृ. 344पृ. 231पृ. 345पृ. 347 |
( xxxviii )
| रुक्म रुद्राभिषेक रौहिणकपाल वपा वरुणप्रधास उत्तरवेदी वसोर्धारा वाजपेय सामन् वाजपेय-रथस्पर्धा विपुड्ढोम विष्टुति वेदस्तरण वेदि-परिग्रह वेदिमानम् शफ शमीगर्भ शम्या शाखापवित्र शूर्प श्येनचिति | पृ. 348पृ. 348पृ. 349पृ. 352पृ. 353पृ. 355पृ. 356पृ. 356पृ. 362पृ. 365पृ. 368पृ. 368पृ. 369पृ. 376पृ. 377पृ. 377पृ. 379पृ. 382पृ. 384 |
| __षडवत्त पात्र सख्यविसर्जन सङ्कल्प सदस्य चमस सामिधेनी सुब्रह्मण्य सोमभक्ष स्फ्य स्रुक्-सम्मार्जन स्रुच् स्रुग्व्यूहन स्रुव स्वयमातृण्णा सोमविक्रयिन् हविर्धान-मण्डप हविर्निर्वपण हारियोजन ग्रह होतृचमस होतृ | पृ. 386पृ. 391पृ. 391पृ. 394पृ. 407पृ. 409पृ. 325पृ. 415पृ. 416पृ. 416पृ. 373पृ. 416पृ. 417पृ. 411पृ. 419पृ. 420पृ. 421पृ. 422पृ. 423 |
कोशः
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