प्रत्यक्षपशुद्योतनम्

प्रत्यक्षपशुद्योतनम्

॥ श्रीभुवनेश्वरीजयति॥

आशुतोष भट्ट

आशुतोष भट्ट

पिष्टपशुपरीक्षात्मकः

॥ श्रीभुवनेश्वरीजयति॥

पिष्टपशुपरीक्षात्मकः

प्रत्यक्षपशुद्योतनम्

प्रत्यक्षपशुद्योतनम्

आशुतोषभट्ट

आशुतोषभट्ट

सम्पादक

भूमिका

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म (श॰ब्रा॰ १.७.१.५) श्रेष्ठतमाय कर्मणे (माध्यन्दिनसंहिता १.१)

इत्यादि श्रुतियों द्वारा अन्य विहितकर्मों की अपेक्षा याग का श्रेष्ठत्व ज्ञात होता है। अक्षय्यं

ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति (शतपथ २.६.३.१) अपाम सोमममृता अभूम

(ऋ॰ ८.४८.३) वाक्यों में भी यागजन्यापूर्व का चिरकालस्थायित्व प्रतिपादित किया गया

है। स्वाध्यायेन व्रतहोमस्त्रविद्येनेज्यया सुतैः । महायज्ञश्च यज्ञश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥

( मनु २.२८ ) तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन मानेन तपसाऽनाशकेन

( बृहदारण्यक ४.४.२२ ) यागप्रायश्चितादि अनुष्ठानों से ही वैराग्य एवं

ब्रह्मज्ञानप्राप्तियोग्यता निष्पन्न होती है, अतः स्वर्गापवर्गप्राप्ति के इच्छुकों द्वारा यागादिधर्म

अवश्य अनुष्ठेय हैं यह सिद्धान्त है।

पूर्वकाल में वेदाधिकारी त्रैवर्णिक बाल्यकाल में ही गुरुकुलवास, वेदाध्ययनद्वारा धर्मज्ञान

प्राप्त करते थे, त्रैवर्णिकेतर भी अपने कुलपुरुषों द्वारा क्या कर्तव्य है क्या नहीं? इस

विषय में असंदिग्ध ज्ञान प्राप्त करते थे किन्तु वर्तमान परिस्थिति पूर्णतः विपरीत है, जीवन

के उत्तरकाल में व्यक्ति को धर्म के प्रति जिज्ञासा होती है, तब तक वे भिन्न-भिन्न भ्रामक

माध्यमों एवं अपनी अपरिपक्वबुद्धि से ही कर्तव्य-अकर्तव्यविषय में पूर्वाग्रह पोषित कर

चुके होते हैं। अतः स्वबुद्धि के प्रतिकूलांश यदि शास्त्रों में प्राप्त हों तो वे उन्हें प्रक्षिप्त कहने

लगते हैं अथवा उनके काल्पनिक अर्थ करते हैं। प्रकृत प्रसंग में इसका एक उदाहरण

दर्शाते हैं- सैकड़ों माध्यमों से भ्रमित हो चुका कोई व्यक्ति यदि धर्म के विषय में जिज्ञासा

करे एवं उसे पश्वालभन श्रुत हों तो वेददूषकों के साहित्य में पूर्व से ही आलभन का अर्थ

स्पर्श, मांस का अर्थ फल का कोमल भाग इत्यादि है यह वर्णित है। इसे स्वबुद्धि के

अनुकूल पाकर कोई अनभिज्ञ स्वीकार कर ही लेगा ,उसे यह तो ज्ञात ही नहीं कि जहाँ

पशुप्रयोग विवक्षित है वहाँ वपा,हृदय,लोहित,यकृत इत्यादि शब्द भी उपस्थित हैं। यही

स्थिति अधिकांश व्यक्तियों की है, शास्त्र के नाम पर स्वबुद्धयनुकूल उन्हें कुछ भी परोसा

जाए चाहे वह कितना ही प्रमाणविहीन क्यों न हो वे ग्रहण कर लेते हैं।

कालक्रम से वैदिक ज्ञान-विज्ञान के विलुप्त होने के कारण धर्मानुष्ठानों के विषय में अत्यन्त

भ्रमात्मक स्थिति संसार में व्याप्त है, लोकापवादभय से अथवा स्वयं ही पूर्वाग्रहग्रस्त होने

के कारण वेदाध्ययनसंपन्नजन भी विशुद्धसिद्धान्त के प्रतिपादन में संकोच करते हैं, ऐसी

स्थिति में अध्ययनविहीनों द्वारा धर्मविरुद्धप्रचार विस्मयकारक नहीं। इस प्रकार ही

किञ्चित अनधीत सम्प्रदायविहीन नास्तिकगण वेदों में पशुयाग का अस्तित्व नहीं है यह

कहते हैं, अधीतनास्तिक तो बौद्धजैनादिसदृश अहिंसाबुद्धि के कारण पशुविधान को

स्वीकार कर उसके स्थान पर पिष्टपशु का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। जिस प्रकार से

स्वर्णघट,स्वर्णवलय एवं सुवर्णार्थियों के मध्य सुवर्णघट नष्ट कर वलयनिर्मित हुआ देख

वलयार्थी आनन्दित होता है, घटार्थी रुष्ट होता है एवं सुवर्णार्थी न ही रुष्ट होता है न ही

प्रसन्न , समान प्रकार से वैदिकयागों में पशुप्रयोग देखकर स्वर्गार्थी प्रसन्न होता है

,वैराग्यवान मोक्षार्थी तो प्रसन्न अथवा क्रुद्ध कुछ नहीं होता किन्तु वेदश्रद्धाविहीननास्तिक

अवश्य ही क्रोधित होते हैं,श्री कुमारिलभट्ट ने कहा भी है-

पशुहिंसादिसम्बन्धे यज्ञे तुष्यन्ति हि द्विजाः ।

तेभ्य एव हि यज्ञेभ्यः शाक्याः क्रुध्यन्ति पीडिताः॥ (तन्त्रवार्तिक,स्मृत्यधिकरण )

वर्तमान में विस्मयकारी समय उपस्थित है जहाँ व्यक्ति वेदैकसमधिगम्य वेदतात्पर्यरूप

धर्मब्रह्म का परित्याग कर वेदवाक्यों के नाना असम्बद्ध वैज्ञानिक,दार्शनिक, ऐतिहासिक

अर्थों की कल्पना करते हैं। इस प्रकार शब्दार्थमर्यादा के त्याग से “यह ही उपरोक्त

वेदवाक्य का अर्थ है” इस प्रकार का निश्चय असम्भव हो जाता है। पुरुष ही स्वप्रतिभा के

अनुसार वेदार्थ की कल्पना करें इस पक्ष में बौद्धों द्वारा आक्षेप भी किया गया है-

तेनाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ ।

खादेच्छवमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रमा।। (प्रमाणवार्तिकस्वार्थानुमानपरिच्छेद)

अर्थात यदि वेद शब्दार्थ से ज्ञात न होने वाले किसी अलौकिक अर्थ को ही बताते हैं तो

“अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः” इस श्रुति का “श्व(कुक्कुर) के मांस का भक्षण करो”

यह अर्थ नहीं है इसमें क्या प्रमाण है?

मीमांसक तो इसके उत्तर में अविशिष्टस्तु वाक्यार्थः(१.२.४०) लोके प्रयुज्यमानानां वेदे

च पदानामर्थः। स यथैव लोके विवक्षितः, तथैव वेदेऽपि भवितुमर्हति (शबरभाष्य)

लौकिक एवं वैदिकशब्दों के अर्थ समान हैं यह सिद्धान्त देते हैं। इस कारण ही

पिकनेमाधिकरण में नेम,पिक इत्यादि शब्दों का म्लेच्छों द्वारा प्रयुक्त अर्थ लिया जाए

अथवा व्याकरण के नियमों के आधार पर यौगिकार्थ किया जाए ऐसा विकल्प उपस्थित

होने पर प्रथम विकल्प से नेम,पिक इत्यादि शब्दों का म्लेच्छों में प्रसिद्ध अर्ध,कोयल अर्थ

ही ग्रहण किया गया है। अतः संज्ञपन,आलभन,वपा,हृदय,पशु इत्यादि लोकप्रसिद्ध पदों के

प्रकरणविहित मुख्यार्थ का परित्याग कर अन्यार्थकल्पना युक्त नहीं है ।

बौद्धों के प्रादुर्भाव के समय बौद्धचार्वाकादि एवं वैदिकधर्मनिष्ठ आचार्यों का संघर्ष हुआ।

बौद्धों ने वर्णव्यवस्था, यज्ञीय पशुहिंसा इत्यादि पर प्रश्न उपस्थापित किए। यदि

आधुनिकों का पक्ष ही शुद्धशास्त्रीयपक्ष होता तो उस समय भी आचार्य कह सकते थे कि

‘वर्ण कर्म से परिवर्तित होता है ’, ‘पशु के स्थान पिष्टपशु का प्रयोग शास्त्र में वर्णित है’,

“सात्विक व्यक्तियों के लिए पशुहिंसा विहित नहीं है” इत्यादि किन्तु उन्होंने तो ऐसे प्रलाप

किए बिना ही यज्ञादि में पशुप्रयोग का समर्थन किया एवं बौद्धादिकों को शास्त्रार्थ में

परास्त कर वेदोक्त धर्म की रक्षा भी की। तन्त्रवार्तिक में उक्त भी है -

शोभा सौकर्य हेतुक्तिकलिकालवशेन वा ।

यज्ञोक्तपशुहिंसादित्यागभ्रान्तिमवाप्नुयुः ॥

यदि बौद्धादिस्मृतियों का निराकरण नहीं किया गया तो शोभा,सुविधा इत्यादि से प्रभावित

होकर अथवा तो कलिकाल के प्रभाव से ही इस भूमि के व्यक्ति वेदोक्त पशुहिंसा आदि

धर्मों के त्याग की भ्रान्ति की कल्पना कर लेंगे।

आस्तिकों को तो वैदिकयज्ञों में पशुप्रयोग से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, ईश्वर द्वारा

ही समस्तसृष्टि की गुणकर्मानुरूप रचना की जाती है, किस पदार्थ का क्या प्रयोजन है यह

भी निश्चित ही है,यज्ञीयप्रयोग के लिए ईश्वर द्वारा पशु,वृक्ष इत्यादि का निर्माण किया गया

है , तादृश प्रयोग में पश्वादि का उत्कर्ष ही है। वेद का प्रामाण्य स्थापित होने पर वेदविहित

विधियों का प्रामाण्य भी स्वतः स्थापित हो जाता है। यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ ते य॒युस्तत्र॑

त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ।(माध्यन्दिनसंहिता २३.१६) सवितैवैनᳪं᳭ स्वर्गेलोके दधाति'

( शतपथ १३.२.७.१२) के अनुसार यज्ञीयपशु वह स्थान प्राप्त करता है जहाँ अत्यन्त

पुण्यकर्म सम्पादन करने वाले मनुष्य जाते हैं। कष्टमय पशुयोनि में विचरण करने वाले

पशु को जिसे अन्न भी सुलभ नहीं है, उसे यदि किंचित कष्ट देकर सुखमयलोक प्रदान

किया जाए तो वह उसपर अनुग्रह ही है इस कारण “अनुग्राहकत्वविशिष्ट

प्राणवियोगानुकूलव्यापार” होने के कारण वह अहिंसा ही सिद्ध होती है।

विचार करना चाहिए कि मशकपिपीलिकादि प्राणियों की अज्ञात हिंसा पर भी प्रायश्चित

का विधान करने वाले महर्षियों द्वारा क्यों पशुयाग का ग्रहण किया गया? सर्वप्राणियों के

अनुग्राहक भगवान श्रीरामकृष्णद्वारा भी क्यों अनेकों पशुयाग किए गए? स्पष्ट ही है कि

यदि यज्ञीयपशु का उत्कर्ष पशुयाग में नहीं होता तो वह वेदविहित,शिष्टानुष्ठित नहीं होता।

कोई भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध करने में सक्षम नहीं है कि “यज्ञीयपशु

स्वर्गलोक को प्राप्त नहीं होता”, स्वतः प्रामाण्य का निरूपण पूर्वग्रन्थ में कर चुके हैं।

नारायणपण्डित द्वारा “पिष्टपशुमीमांसा” नामक लघुनिबन्ध पिष्टपशुयागसमर्थन में रचित

है , यद्यपि पिष्टपशुखण्डनम् ,पिष्टपशुखण्डनवाक्यार्थदीपिका इत्यादि ग्रन्थ सुने जाते हैं

किंतु वे सभी अमुद्रित एवं अनुपलब्ध हैं। अतः प्रकृतग्रन्थ में संक्षिप्तरूप से पिष्टपशु के

विषय में विचार किया गया है यदि उत्तर में कुछ प्राप्त होता है तो ग्रन्थविस्तार किया

जाएगा।

अश्विनशुक्लप्रतिपदा, वि०स० २०८१

(१) यज्ञस्वरूपविवेचन

(२) अध्वरपदार्थ

(३) कल्पसूत्रों का ज्येष्ठप्रामाण्य

(४) पुराणों का विधिज्ञापकाभाव

(५) भागवतपुराणवचन का तात्पर्यार्थ

(६) उक्तविषय में धर्मप्रदीपकार का मत

(७) देवीभागवतवचनविमर्श

(८) पशुहिंसा का उपाधियुक्तत्व

(९) ऐतरेयश्रुति प्रत्यक्षपशुनिषेधपरक नहीं

(१०) शतपथश्रुति का तात्पर्य

(११) उपरिचरवसूपाख्यान की लुप्तशास्त्रमूलकता

(१२) उपरिचरवसु के पांचरात्रनिष्ठत्व की शंका

(१३) नीलकण्ठचतुर्धरमतसमीक्षा

(१४) कलिवर्ज्यादि व्यवस्था

(१५) छाग का अग्निषोमीयत्व

(१६) मनुस्मृतिवचन अभिप्रेतार्थ का साधक नहीं

(१७) शांख्यायनगृह्यसूत्र श्रौतविधिपरक नहीं

(१८) वरुणप्रघास का अतिदेशाभाव

(१९) पिष्टपशु सूत्रब्राह्मणविरुद्ध

(२०) प्रमाणाध्याय

विषयानुक्रमणिका

१-२

२-४

४-५

५-११

१२-१५

१५-१८

१८-१९

१९-२१

२१-२४

२५-२७

२७-३१

३१-३४

३४-३६

३६-३९

३९-४१

४१-४२

४२-४४

४४-४६

४७-५०

५१-५९

काण्डद्वयोपपाद्याय कर्मब्रह्मस्वरूपिणे ।

स्वर्गापवर्गरूपाय यज्ञेशाय नमो नमः ॥

मंगलाचरणम्

काण्डद्वय (पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा) द्वारा प्रतिपादित होने वाले,कर्म एवं ब्रह्मस्वरूपी

तथा स्वर्ग एवं मोक्षस्वरूप यज्ञरूपी भगवान को नमस्कार है।

यज्ञस्वरूपविवेचन

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म (शतपथब्राह्मण १.७.१.५) श्रेष्ठतमाय कर्मणे (माध्यन्दिनसंहिता

१.१) इत्यादि श्रुतियों द्वारा अन्यकर्मों की अपेक्षा यज्ञ का श्रेष्ठत्व सिद्ध होता है। यज्ञ का

श्रेष्ठत्व सृष्टिप्रक्रियाधार होने के कारण है , साथ ही विधिपूर्वक अनुष्ठित होने पर यज्ञ मात्र

यजमान को ही स्वर्ग,पुत्र,पशु,वित्त इत्यादि अभीष्टों प्राप्ति नहीं करवाता अपितु स्वोत्कर्ष

में अक्षम भोगयोनि यज्ञीयपशुओं की भी स्वर्गादि उत्तमलोकों में गति सम्भव करता है।

ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य, शूद्रादि सभी जातियों का पालन यज्ञ द्वारा होता है,कोई यज्ञ का

अनुष्ठाता होता है,कोई ऋत्विक तो कोई यज्ञोपयोगी उपकरणों एवं सामग्री का निर्माता।

मात्र समाज की ही नहीं अपितु यज्ञप्रक्रिया के आधार पर ब्रह्माण्ड की भी स्थिति है,

पृच्छामि त्वा भुवनस्यनाभिमित्याह । यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः । ( तैत्तिरीयब्राह्मण

३.९.५.५) यज्ञः सर्वस्य लोकस्यमध्यस्थानीयः,कर्माधीनत्वात्सर्वजगद्‌व्यवहारस्य

(सायणभाष्य) सृष्टिकर्ता प्रजापति में अन्यजीवों की अपेक्षा विशेषता तब ही सन्निहित हो

सकती है यदि उनके द्वारा धर्मानुष्ठान किया गया हो, धर्मानुष्ठान यागादिरूप है। इस प्रकार

सृष्ट्योत्पादक प्रजापति, सृष्टि की स्थिति में सहयोगी देव इन्द्र,वरुण,मरुत इत्यादि की

तद्तदलोकों में स्थिति यज्ञ के ही कारण है।

सर्वज्ञवन्निषेध्या च स्रष्टुः सद्भावकल्पना ।

न च धर्मादृते तस्य भवेल्लोकाद्विशिष्टता ॥ (तन्त्रवार्तिक, सम्बन्धाक्षेपपरिहार,११४)

अतः यज्ञ एक अतिमहत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जिसकी विधि का निर्णय सम्यकरुपेण

वेदाध्ययनसम्पन्न, याज्ञिकपरम्पराप्राप्त, मीमांसेत्यादिशास्त्राध्ययनसम्पन्न व्यक्तियों द्वारा

ही सम्भव है।

यज्ञों के विभिन्न प्रभेद लोक में प्रचलित हैं यथा श्रौतयज्ञ,स्मार्त्तयज्ञ, पौराणिक एवं

तान्त्रिकयज्ञ। श्रौतयज्ञ अग्निहोत्र,दर्शपूर्णमास,ज्योतिष्टोम,चातुर्मास इत्यादि हैं जिनका वर्णन

वेद के ब्राह्मणभाग एवं श्रौतसूत्रों में प्राप्त होता है, स्मार्त्तयज्ञ गृह्यसूत्रवर्णित औपासन

अष्टकादि हैं , चण्डीहोम इत्यादि पौराणिक एवं तान्त्रिकयाग पुराणशास्त्र,तन्त्रेत्यादि में

वर्णित हैं।

विधिपूर्वक उपनयनसंस्कार के पश्चात वेदाध्ययनसम्पन्नतापूर्वक समावर्तनसंस्कारसंपन्न

पातित्यादिदोषरहित पुरुष को विवाह के पश्चात स्मार्ताग्नि के आधान का अधिकार प्राप्त

होता है, स्मार्ताग्नि के आधान के पश्चात व्यक्ति सप्तकपाकसंस्थाओं में अधिकृत होता है

(१) औपासन (२) वैश्वदेव (३)पार्वणश्राद्ध (४) अष्टकाश्राद्ध (५) मासिश्राद्ध (६)

श्रवणाकर्म (७) शूलगव। स्मार्ताग्निपरिग्रह के पश्चात ही व्यक्ति को श्रौताग्न्याधान का

अधिकार प्राप्त होता है। इसके पश्चात ही व्यक्ति श्रौतयागों के अनुष्ठान की पात्रता प्राप्त

करता है। श्रौतयागों में अग्निहोत्र प्रातः-सायंकाल अनुष्ठेय है, दर्शपूर्णमास

निरूढ़पशुबन्ध,चातुर्मास्य इत्यादि भी तिथिविशेषों में अवश्य करणीय होते हैं। अग्निहोत्रादि

समस्त वैदिकयज्ञों की विधियाँ श्रौतसूत्रों,ब्राह्मणग्रन्थों एवं याज्ञिकों की परम्परा से प्राप्त हैं

अन्य कोई भी शास्त्र उक्तविधियों का विधायक नहीं। वेद के मन्त्रभाग का व्याख्यान एवं

यज्ञविधिनिर्देश ऐतरेय;शतपथ,तैत्तिरीय,पंचविंश इत्यादि ब्राह्मणग्रन्थों में उपलब्ध है,

तत्पश्चात श्रौतसूत्रों का क्रम आता है, ब्राह्मणवाक्यों अथवा श्रौतसूत्रों की विधियों में सन्देह

होने पर पूर्वमीमांसाशास्त्र की शरण ली जाती है, यह ही वेदार्थज्ञान की प्रक्रिया है।

पारम्परिकाचार्यों में सायण,उव्वट,महीधर, वेंकटमाधव,स्कंदस्वामी,भट्टभास्कर,

षड्गुरूशिष्य,हरिस्वामी के भाष्य उपलब्ध हैं, यह सभी आचार्य षड्ंगवेदनिष्णात एवं

श्रौतस्मार्त्तकर्मों के अनुष्ठाता रहे हैं अतः इनके भाष्य वेदार्थपरिज्ञान के लिए नितान्त

आवश्यक हैं,आधुनिकों के परम्पराविरुद्ध एवं अश्रुतकल्पनायुक्त व्याख्यान उपेक्षणीय हैं।

स्मृतिइतिहासपुराणादिशास्त्रों के मन्त्रब्राह्मणश्रौतसूत्रविरुद्ध वचन प्रमाण नहीं होते एवं

वेदाविरुद्ध वचन ही प्रमाण होते हैं। यह सामान्यनिरूपण संपन्न हुआ।

अध्वरपदार्थ

यज्ञ के लिए बहुधा अध्वर शब्दप्रयोग वेदों में श्रुत होता है। अध्वर (यज्ञ)से सम्बन्धित होने

के कारण ही यजुर्वेद को अध्वर्युवेद एवं पूर्वमीमांसा को अध्वरमीमांसा भी कहते हैं। अध्वर

शब्द का मुख्यार्थ हिंसारहित ही है। इस आधार पर अनेक व्यक्ति शंका करते हैं कि यज्ञ में

पश्वालभन विहित नहीं क्योंकि यज्ञ को अध्वर कहा गया है। यह शंका उचित नहीं हैं

क्योंकि यज्ञीयपशु का वध उपकारक होने के कारण वस्तुतः वध न होकर अवध ही है, इस

अभिप्राय से ही मनुस्मृति में कहा गया है-

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।

यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ॥ ५.३९ ॥

यहाँ पर सांख्ययोगानुयायी शंका करें कि अनुदरी कन्या के समान अवध पद में अल्पार्थक

नञ् समास है, अतः इस कारण वैदिकपशुहिंसादिकर्मों में अल्पपाप है जो अत्यल्पप्रायश्चित

द्वारा शमनयोग्य है तो वह ठीक नहीं, यहाँ अधर्म की भांति निषेधार्थ में ही नञ् समास है

ऐसा न मानने पर यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः इस श्लोकोपक्रम की संगति नहीं लगती।

निरुक्तशास्त्रवर्णित अध्वरपद की व्याख्या करते हुए दुर्गाचार्य ने पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया है-

नन्वत्र हन्यन्ते पशवश्छिद्यन्ते तृणवनस्पतयोऽय कथमहिंस्रः?

अर्थात यज्ञ में पशु का वध होता है एवं तृण,वनस्पति इत्यादि का छेदन होता है तो यह यज्ञ

अध्वर अहिंसात्मक किस प्रकार से है?

इसके उत्तर में कहते हैं

उच्यते । अभ्युदय एव हि सः । एवं हिं श्रूयते हिरण्यशरीर ऊर्ध्वः स्वर्गं लोकमेष्यतीत्यथ।

(ऐतरेय २.३)

यज्ञीयपशुवध,वनस्पतिछेदन इस कारण ही अहिंसा है क्योंकि वह तद्तद प्राणियों के

अभ्युदय के लिए है। इस कारण ही श्रुति में सुना जाता है कि मृतपशु हिरण्यमयशरीर से

उच्च स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

यज्ञ का नाम अध्वर क्यों हुआ इस सम्बन्ध में शतपथब्राह्मण में एक आख्यायिका वर्णित है-

तं वा एतम् । अध्वरवन्तं त्रिचमन्वाह देवान्ह वै यज्ञेन यजमानान्त्सपत्ना असुरा दुधूर्षां

चक्रुस्ते दुधूर्षन्त एव न शेकुर्धूर्वितुं तेपराबभूवुस्तस्माद्यज्ञोऽध्वरो नाम दुधूर्षन्ह वा एनं

सपत्नः पराभवति यस्यैवं विदुषोऽध्वरवन्तं त्रिचमन्वाहुर्यावद्वेव सौम्येनाध्वरेणेष्ट्वाजयति

तावज्जयति (शतपथ १.४.१.४०)

जब देवतागण यज्ञ कर रहे थे तो असुरों ने यज्ञ का विध्वंस करना चाहा किन्तु विध्वंस की

इच्छा करते हुए भी वे विध्वंस न कर सके,वे पराभूत हुए। इस कारण ही यज्ञ का नाम

अध्वर हुआ। जो इस रहस्य को जानता है एवं अध्वरशब्द वाले ऋचत्रय को पढ़ता है वह

सौम्य-अध्वर को कर अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।

श्रीसायणाचार्य द्वारा भी उपरोक्त द्विविधार्थों का समर्थन किया गया है-

अग्ने॒ यं य॒ज्ञम॑ध्व॒रं वि॒श्वतः॑ परि॒भूरसि॑ । (ऋग्वेदसंहिता १.१.४)

सायणभाष्य - कीदृशं यज्ञम् । “अध्वरं हिंसारहितम् । न ह्यग्निना सर्वतः पालितं यज्ञं

राक्षसादयो हिंसितुं प्रभवन्ति ॥

अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । (अथर्ववेदसंहिता १.४.१)

तथा च- ‘अग्नीषोमीयं पशुम् आलभेत’ इति विशेषशास्त्रविहितविषयपरिहारेण ‘न हिंस्याद्’

इति सामान्यशास्त्रं व्यर्थहिंसामेवअवलम्बत इति वैधहिंसाया निषिद्धत्वाभावात्

नानर्थहेतुत्वम् । एतदेवाभिप्रेत्य उक्तम् “अध्वर” इति ।

कल्पसूत्रों का ज्येष्ठप्रामाण्य

यानीहाऽगमशास्त्राणि याश्च काश्च प्रवृत्तयः ।

तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम् ॥ (महाभारत, अनुशासनपर्व १२२.४)

इत्यादि वचनों के अनुसार संसार में जितने भी शास्त्र एवं प्रवृत्तियाँ हैं वे वेद को सम्मुख

रखकर ही प्रवृत्त हुए हैं। इस प्रकार सर्वशास्त्रमूल वेदशास्त्र के विरुद्ध होने पर

वेदविरुद्धशास्त्रवचनों का अप्रामाण्य भी प्रसक्त होता है।

धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ।

द्वितीयं धर्मशास्त्राणि तृतीयं लोकसंग्रहः ॥ (महाभारत)

जो व्यक्ति धर्मतत्व के विषय में जिज्ञासा रखते हैं उनके लिए वेद से श्रेष्ठ अन्य कोई प्रमाण

नहीं। धर्म के विषय में मन्वादिधर्मशास्त्रदूसरी कोटि के तथा लोकव्यवहार तीसरी श्रेणी का

प्रमाण है।

अन्यान्य शास्त्रों में ग्रन्थों के प्रामाण्य से सम्बन्धित वचन उपलब्ध हैं-

विरोधो यत्र तु भवेत्त्रयाणां च परस्परम् ।

श्रुतिस्तत्र प्रमाणं स्याद्‌ द्वयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ (देवीभागवत ११.१.२२)

श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते ।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ (व्यासस्मृति १.४)

अर्थात जिस स्थल पर श्रुति,स्मृति एवं पुराणों में परस्परविरोध हो उस स्थल पर श्रुति ही

सर्वश्रेष्ठ प्रमाण होती है एवं स्मृति एवं पुराण में विरोध होने पर स्मृतियाँ वर(ज्येष्ठ) प्रमाण

हैं। यहाँ पर स्मृति पद का अर्थ वेदांग एवं धर्मशास्त्रेत्यादि ग्रहण करना चाहिए। स्मृतियों के

मध्य कल्पसूत्रों का प्रामाण्य सर्वाधिक है कारण यह है कि वे प्रत्यक्षश्रुतिमूलक हैं, अर्थात

श्रुत्युक्तविधि का ही कल्पसूत्र वर्णन करते हैं।

श्रौतानां कर्मणां क्ॡप्ति कल्पसूत्रं तदुच्यते ।

तथैव गृह्यकल्पानां स्मार्तानामुपसङ्ग्रहः ॥

शाखानां विप्रकीर्णत्वात्पुरुषाणां प्रमादतः ।

नानाप्रकरणस्थत्वात्स्मृतेर्मूलं न लक्ष्यते ॥ (पुलस्त्यस्मृति)

श्रौतकर्मों के द्रव्यादि पदार्थों का संग्रह कल्पसूत्र कहलाता है। उस प्रकार ही गृह्यकल्पों

(गृह्यसूत्रों) में स्मार्त्तकर्मों का संग्रह किया गया है। शाखाओं के विप्रकीर्ण होने के कारण

एवं काल के प्रभाव से पुरुषों की बुद्धि में प्रमाद के कारण अनेक प्रकरण स्थलों में स्मृति

का मूल वेदवचन उपलब्ध नहीं होता है। इस कारण ही कल्पसूत्रों का ज्येष्ठ प्रामाण्यसिद्ध

होता है क्योंकि वे प्रत्यक्षश्रुति मूलक हैं, यह विषय ही आचारेन्दु,हेमाद्रि इत्यादि में वर्णित

है। क्योंकि स्मृतियों का मूल भी श्रुति ही है इस कारण यदि प्रत्यक्षश्रुतिमूलक कल्पसूत्रों

से ही स्मृतियाँ विरुद्ध हों तो वे अप्रमाण होती हैं।

पुराणों का विधिज्ञापकाभाव

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ॥

बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥

इस वाक्य के आधार पर अनेक व्यक्ति अर्थ करते हैं कि “इतिहास पुराणों के माध्यम से ही

वेदार्थ का निर्णय अथवा वेदार्थचिन्तन करना चाहिए”किन्तु वेदार्थविचार, वेदार्थनिर्णय

पुराणों का कार्य नहीं है अपितु पूर्वोत्तरमीमांसा इत्यादि का ही कार्य है ,अतः याज्ञिक

विधियों एवं औपनिषदिक ज्ञान के निर्णय के लिए श्रौतसूत्र,व्याकरण एवं पूर्वोत्तरमीमांसा

का ज्ञान ही अपेक्षित है एवं देव,ऋषि,अप्सरा,गन्धर्व इत्यादि योनियों,

भूभुवस्वमहजनतपेत्यादि लोकों की स्थिति,व्रतादिधर्मों, पुरावृत्तों, वेदवर्णित

आख्यायिकाओं एवं विधिनिषेधादि के महत्व के वर्णन के लिए पुराणों की आवश्यकता है।

वेदार्थनिर्णय के लिए पुराण नहीं बने हैं अपितु पूर्वनिर्णीत वेदार्थ के ही जनसामान्य तक

विस्तार के लिए पुराणों की रचना हुई है।

ब्रह्मसूत्र में देवताओं के ब्रह्मविद्याधिकार सम्बन्धी अधिकरण (१.३.३१) में मीमांसकों का

पूर्वपक्ष प्रदर्शित किया गया है कि

“इतिहासपुराणमपिपौरुषेयत्वात्प्रमाणान्तरमूलमाकाङ्क्षति । अर्थवादा अपि

विधिनैकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थाः सन्तो न पार्थगर्थ्येनदेवादीनां विग्रहादिसद्भावे

कारणभावं प्रतिपद्यन्ते ।” देवताओं का विग्रह है इस विषय में इतिहास-पुराण प्रमाण नहीं

हो सकते क्योंकि वे पौरुषेयवाक्य हैं इस कारण उन्हें प्रमाणान्तर अपेक्षित है। अर्थवाद

इत्यादि भी विधि की स्तुति के लिए ही प्रमाण होते हैं स्वतन्त्र रूप से देवविग्रह की सत्ता वे

नहीं सिद्ध कर सकते,मन्त्र भी प्रयोगाभिधानवाची हैं अत: वे भी देवादि के विग्रह की सत्ता

का स्वतन्त्र रूप से विधान नहीं कर सकते।

पुराणादि तो असंख्य स्थलों पर देवताविग्रह की सत्ता स्पष्ट करते हैं, एक पुराण ही कम से

कम सहस्रों बार देवताओं के विग्रह का वर्णन करता होगा, भगवानशंकराचार्य भी सीधे ही

सकते थे कि “इतिहासपुराण के माध्यम से वेदार्थ निर्णय करना चाहिए” ऐसा महाभारत में

लिखा गया है,उनमें देवताओं का विग्रह प्राप्त है ही अत: देवताओं का विग्रह सिद्ध होता है।

किन्तु उन्होंने क्या किया? पहले तो श्रुति एवं तर्कों के आधार पर देवताओं के विग्रह का

अस्तित्व सिद्ध किया एवं तत्पश्चात “इतिहासपुराणमपिव्याख्यातेन

मार्गेणसम्भवन्मन्त्रार्थवादमूलकत्वात् प्रभवति देवताविग्रहादि साधयितुम् “ अर्थात

इतिहास पुराण इत्यादि मन्त्र एवं अर्थवाद के उपजीवक होकर ही देवविग्रहादि का साधन

करते हैं यह पूर्वमीमांसकपक्ष का ही अनुवाद किया अर्थात पुराणादि को प्रामाण्य के लिए

वेदवचनों की अपेक्षा है। तात्पर्य यह हुआ कि वेदसमर्थित पुराणवचन जो किसी

विधि,निषेध अथवा आख्यायिका के मूल हैं वे ही प्रमाण होते हैं। जो साक्षात वेद के विरुद्ध

अर्थ का प्रतिपादन करते हों वे कैसे स्वार्थ में प्रमाण हो सकते हैं। वेद पशुयाग से स्वर्ग की

प्राप्ति कहता है तो ऐसी स्थिति में वैदिकपशुयाग को तामस बताने वाले, सकाम

अश्वमेधकर्ता को नरकप्राप्ति बताने वाले निर्मूल वचन नहीं।

पुराणों के कुछ स्थल वेदविरुद्ध नहीं होते तो यह व्यवस्था ही किस प्रकार सम्भव होती ?

श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते ।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ (व्यासस्मृति १.४)

अतः सिद्धांत यही है कि सहस्रों पुराणवचन भी आ जाएँ तो भी वे एक प्रत्यक्षश्रुति का

बाध नहीं कर सकते।

देवीभागवत का ही वचन है-

प्रत्यक्षश्रुतिरुद्धं यत्तत्प्रमाणं भवेन्न च ॥११.१. २५ ॥

जो वाक्य प्रत्यक्षश्रुति के विरुद्ध हो वह प्रमाण नहीं होता।

यही विषय मीमांसकों से ने भी कहा है

प्रत्यक्षया श्रुत्या हिंसाया विहितत्वात्तद्विरुद्धत्वादेषामर्थवादमात्रत्वमिति ।

(न्यायरत्नाकर १.२.२७६) प्रत्यक्ष श्रुति द्वारा पशुवध के विहित होने से इतिहासपुराण

इत्यादि के वचन अहिंसाप्रसंशात्मक अर्थवाद मात्र हैं।

पुराणेषु क्वचिच्चैव तन्त्रदृष्टं यथातथम् ।

धर्मं वदन्ति तं धर्मं गृह्णीयान्न कथञ्चन ॥

वेदाविरोधि चेत्तन्त्रं तत्प्रमाणं न संशयः । (११.१.२३-२४)

पुराणेत्यादि में तन्त्रदृष्टि से भी कुछ वाक्य कह दिए जाते हैं , यदि वेद उसका समर्थन करे

तो ही वे धर्म हैं अन्यथा नहीं। यदि तन्त्र वेद अविरोधी है तो ही वह ग्रहण करने योग्य है।

यह बलि का सात्विक,राजसिक तामसिक विभाग तन्त्रदृष्टि से ही हैं जहां सात्विकविकल्प

विहित है, वेद में अविहित होने से यह विभाग सम्भव नहीं।

तस्मान्मुमुक्षुर्धर्मार्थं सर्वथा वेदमाश्रयेत् ।

राजाज्ञा च यथा लोके हन्यते न कदाचन ॥

सर्वेशान्या ममाज्ञा सा श्रुतिस्त्याज्या कथं नृभिः । (७.३९.१९-२०)

इस कारण मुमुक्षुओं को धर्मज्ञान के लिए सर्वदा वेद का ही आश्रयण करना चाहिए। जिस

प्रकार से लोक में राजाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता उस प्रकार ही मुझ सम्पूर्ण संसार की

परमेश्वरी की श्रुतिरूपीआज्ञा का उल्लंघन कैसे हो सकता है?

अतएव धर्मविषये स्मृतिपुराणविप्रतिपत्तौ स्मृतीनां प्राबल्यं तत्र तासां तात्पर्यत इति,

तत्त्वज्ञानविषये पुराणप्राबल्यमिति विवेकः ॥(विद्यारण्यस्वामी सूतसंहिता १.१.४१)

अर्थात धर्म के विषय में स्मृतियाँ पुराण से प्रबल हैं, ईश्वरज्ञान के विषय में पुराणों का

प्राबल्य है,ऐसी व्यवस्था है। यह विषय कूर्मपुराण में भी वर्णित है-

पुराणं धर्मशास्त्रं च वेदानामुपबृंहणम् ।

एकस्माद् ब्रह्मविज्ञानं धर्मज्ञानं तथैकतः ॥(कूर्मपुराण २.२४.१९)

पुराण किस प्रकार से वेदार्थ का कथन करता है? (१) साक्षात मन्त्रों का व्याख्यान कर

(२) मन्त्रविनियोग को निर्दिष्ट कर (३) किसी स्थान पर यज्ञविशेष की विधि वर्णित कर

(४) यज्ञीयपदार्थों का निर्देश कर अथवा (५) वेदोक्त देवताओं,लोकों,सामान्यधर्मों को

वर्णित कर?

प्रथमकल्प ठीक नहीं क्योंकि सम्प्रति वेद का व्याख्यान पुराण हो ऐसा मन्दमतियों को भी

अभीष्ट नहीं, दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं क्योंकि पुराणों में वैदिकमन्त्रों का स्मार्त एवं

पौराणिककर्मों में विनियोग तो दृष्ट होता है किंतु वैदिकयज्ञों के विषय में वे विनियोग का

कथन करते हों ऐसा नहीं,प्रबल प्रमाणान्तर ब्राह्मणवाक्यों एवं कल्पसूत्रों द्वारा विनियोग

प्राप्त है ही (३) ज्योतिष्टोम,सोमयाग इत्यादि यज्ञविशेषों की विधि भी पुराणों में नहीं पाई

जाती जिस कारण किसी यज्ञविशेष के किए पुराणोक्तविधि का आश्रयण लिया जाए (४)

चतुर्थविकल्प भी ठीक नहीं “यज्ञीयपदार्थों का सामान्यनिर्देश असम्भव है, सैकड़ों यज्ञ

हैं,प्रत्येक यज्ञ के पात्र,चितियाँ,द्रव्य-देवता भिन्न भिन्न हैं, अतः “पशु के स्थान पर अन्न

का प्रयोग करो” इस कथनमात्र से सम्पूर्ण यज्ञों की विधि का निर्देश नहीं हो सकता।

पञ्चमकल्प मानने पर पुराणवेदोक्त कर्मकाण्ड के परिज्ञान के विषय में उपयोगी नहीं

हैं,यह मानना ही पड़ेगा। प्रत्येकयज्ञ में पिष्टपशु प्रयुक्त होना ही यदि सम्भव होता तो क्यों

मीमांसा में एक भी स्थल पर पिष्टपशु की चर्चा नहीं है अपितु मीमांसक पिष्टपशुयाग का

खण्डन ही करते हैं, क्यों सायण,उव्वट इत्यादि भाष्यकारों ने सम्पूर्ण वेदसंहिताओं पर

भाष्य लिखकर भी पिष्टपशुओं का उल्लेख नहीं किया? क्यों परमकारुणिक

वेदव्यास,वशिष्ठ,विश्वामित्र इत्यादि ऋषियों के कृपाप्राप्त युद्धिष्ठिर,श्रीराम,श्रीदशरथ

इत्यादि ने स्वयं के यज्ञों में पिष्टपशुओं के स्थान पर प्रत्यक्षपशु का उपयोग किया? अतः

शास्त्र,याज्ञिकपरम्परा उभयपक्षसमर्थनविहीन यह पिष्टपशुविधायक पक्ष है। पुराणादि की

मीमांसाकल्पसूत्रेत्यादि से कदापि तुल्यता नहीं हो सकती इस सन्दर्भ में उक्त वचन

अनुशीलन योग्य हैं-

मयादिसूत्रकस्यापि मीमांसायुग्मकस्य च ।

अथात इति तत्सूत्रद्वयस्यापि क्रमेण वै ॥

तत्समत्वेन विहितोपदेशो वेदकर्मणि ।

तस्मादेतानि सर्वाणि ह्यलङ्घ्यान्येव सर्वदा ।

पुराणधर्मशास्त्रादिशास्त्राणि निखिलान्यपि ॥

न तैस्समानीति बुधाः प्रवदन्ति यतस्तु हि ।

नोपदिष्टानि तानि स्युः प्रतिसंवत्सरं परम् ॥ (लौगाक्षिस्मृति)

साध्य,साधन,अधिकारी एवं इतिकर्तव्यता इन सबका निर्देश वेद ही करता है। पुराणों से

इतिकर्तव्यता का निर्देश नहीं होता। वेद ने कह दिया कि “ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो

यजेत्” स्वर्ग यहाँ पर साध्य है,ज्योतिष्टोम यहाँ पर साधन है, स्वर्गप्राप्तिफलेच्छुकव्यक्ति

मुख्य अधिकारी है। इतिकर्तव्यता रूप में वेदिनिर्माण,पुरोड़ाश का निर्माण, पशु का

आलभन इत्यादि अनेक प्रकल्प विहित है। जब वेद ही स्वर्गफलप्राप्ति के इच्छुकव्यक्ति

को ज्योतिष्टोम एवं इतिकर्तव्यता रूप से विहित आलभन इत्यादि कहने का निर्देश दे रहा

है तो कामनापूर्वक किए गए पशुसम्बन्धी वैदिक यज्ञों को तामस बताना,उनको नरक

प्राप्ति का हेतु बताना प्रलापमात्र है। कामनापूर्वक विधिपूर्वक किए गए यज्ञ में मन्त्रों से

संस्कृत पशु को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी एवं निष्कामपूर्वक किए गए कर्म में स्वर्गप्राप्ति

होगी ऐसा भेद भी नहीं बन सकता, पशु के स्वर्गादिगमन में केवल विधि ही असाधारण

कारण है। अन्यथा विधिहीन पशुवध यदि निष्कामपूर्वक भी किया गया हो तो वह पशु को

उत्तमलोक की प्राप्ति नहीं करवाएगा। इस रीति से विधिपूर्वक किया गया पशुवध यदि

पशु को स्वर्गलोक की प्राप्ति करवा रहा है तो वह कामनया अथवा निष्काम किया जाए

वह पशु पर “अनुग्राहक व्यापार” ही है, एवं उक्तरीत्या अहिंसा है। इस कारण वैदिकार्थ

के विपरीत ,यज्ञों द्वारा नरकप्राप्तिवर्णन सम्बन्धी पुराणवचनों का तात्पर्य मुमुक्षुओं को

स्वर्गप्राप्ति इष्ट नहीं होनी चाहिए एवं निष्कामकर्म की प्रसंशा में ही मानना पड़ेगा अन्यथा

प्रत्यक्षश्रुति से विरोध होने के कारण वे सब वचन अप्रमाणकोटि में जाएँगे।

आस्तिकों के मध्य प्रसिद्धि ही है कि न हि “शब्दशतमपि घटं पटयितुमीष्टे” सैकड़ों

शब्दप्रमाण भी मिलकर घट को पट नहीं बना सकते, अर्थात सैकड़ों वाक्य कहें कि घट पट

है तो घट का पट होना सम्भव नहीं है इस कारण यह मानना होता है कि श्रुति का तात्पर्य

कुछ भिन्न है। यह कहने का कारण क्या है? क्योंकि घट प्रत्यक्ष है इस कारण अनेकों

शब्दप्रमाण भी उसे पट कहें तो उसका बाध सम्भव नहीं। श्रुति प्रत्यक्ष होती है

स्मृतिपुराणादि श्रुति द्वारा अनुमेय हैं। पशु के अवयवों के होम की सैकड़ों प्रत्यक्षश्रुतियाँ

उपलब्ध हैं अतः सैकड़ों श्रुत्यनुमेय ग्रन्थ उसे निन्दित कहें उसमें विकल्प का वर्णन करें वह

सम्भव नहीं।

अनेक व्यक्ति “पुराणं ब्रह्मसम्मतम्” इत्यादि कहकर पुराण वेदसम्मत है इस कारण उनमें

प्रतिपादित सिद्धान्त वेदवत ही हैं कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं जब तत्परक श्रुतियों से

अतत्परकश्रुतिवचन का बाध होता है तो ऐसी स्थिति में स्मृतिकोटि के शास्त्रों को प्रवेश

का अवकाश ही कहाँ है। प्रतिपाद्यविषय के आधार पर ही ग्रन्थों की व्यवस्था है,वैदिकयज्ञों

की विधि पुराणों का प्रतिपाद्यविषय नहीं है, यहाँ तक की सन्ध्यावन्दनेत्यादि स्मार्तकर्मों की

पुराणोक्तविधियाँ भी स्ववेदशाखानिष्ठों के लिए ग्राह्य नहीं है। “अथातोदर्शपूर्णमासौ

व्याख्यास्यामः(आपस्तम्ब १.१.१) यज्ञं व्याख्यास्यामः (शाङ्खायनश्रौतसूत्रम् १.१.१)

अथैतस्य समाम्नायस्य वितानेयोगापत्तिं वक्ष्यामः(आश्वलायन १.१.१),

अथातोऽधिकारः,फलयुक्तानि कर्माणि (कात्यायन १.१.२), अथ विधिं

वक्ष्यामः(कौशिकसूत्र १.१.१), अथ विध्यव्यपदेशे सर्वक्रत्वधिकारः (द्राह्यायणश्रौतसूत्र

१.१.१) कहकर स्पष्टरूप से अपना प्रतिपाद्यविषय कहकर प्रत्येक स्थल पर यज्ञ का निर्देश

करने वाले श्रौतसूत्र यज्ञ के विषय में प्रमाण होंगे अथवा एक भी श्रौतयज्ञ की विधि का

निर्देश न करने वाले पुराणेत्यादि। शास्त्रों का तो स्पष्ट निर्देश है कि मुख्यतः

वेदाधिकारविहीन स्त्रीशूद्रों के हित के लिए ही पुराणों की रचनाहुई है -

स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम् ।

तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृतानि च ॥ (देवीभागवत १.१३.२१)

महाभारत में ग्रन्थवर्णनावसर पर स्पष्टरूप से कल्पों का प्रतिपाद्य क्या है इसका वर्णन है-

यज्ञपात्रपवित्रार्थं द्रव्यसम्भारणाय च।

सर्वयज्ञविकल्पाय पुरा कल्पं प्रकीर्तितम् ॥ (महाभारत)

१०

यज्ञ के पात्रों की शुद्धि, यज्ञ की वस्तुएँ एकत्रित करने तथा यज्ञों की वैकल्पिक पद्धतियों

की जानकारी पाने के लिये कल्पशास्त्र कीरचना की गई। यहाँ पर विकल्प के ज्ञान के

लिए भी कल्पसूत्रों का ही आश्रणय लेना चाहिए यह प्रतिपादित है।

वेदमूलतया तानि प्रवृत्तान्यपि सत्तम ।

वदन्ति वेदबाह्यार्थं कदाचिच्च क्वचित्क्वचित् ॥

भाति प्रत्यक्षवेदेन यद् विरुद्धतया शुक ।

वैदिकैस् तत्परित्याज्यं नैव ग्राह्यं कदाचन॥ (पराशरोपपुराण ८.२६.२७)

पुराण इत्यादि शास्त्रों की प्रवृत्ति वेदमूलतया ही हुई है। पुराणादि कभी कुछ वेदविरुद्ध

अर्थ का भी प्रतिपादन कर देते हैं। इस कारण यदि कोई विषय प्रत्यक्षश्रुति से विरुद्ध

प्रतीत होता है तो वह वैदिकों द्वारा त्याग करने योग्य ही है।

विषयव्यवस्थानाच् च यथाविषयं प्रामाण्यम्। मन्त्रब्राह्मणस्य

विषयोऽन्यच्चेतिहासपुराणधर्मशास्त्राणाम् इति। यज्ञो मन्त्रब्राह्मणस्य, लोकवृत्तम्

इतिहासपुराणस्य, लोकव्यवहारव्यवस्थानं धर्मशास्त्रस्य विषयः। (न्याय ४.१.६१

वात्स्यायनभाष्य)

विषयों की व्यवस्था के अनुसार ही पुराणादि का स्वविषय में ही प्रामाण्य है। मन्त्रब्राह्मण

का विषय अन्य है तथा इतिहासपुराणधर्मशास्त्रों का विषय अन्य। यज्ञ मन्त्रब्राह्मण का

विषय है, लोकवृत्त इतिहासपुराण का, लोकव्यवहार की व्यवस्था धर्मशास्त्रों का। यह

पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित है।

११

भागवतपुराणवचन का तात्पर्यार्थ

यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायाः तथा पशोरालभनं न हिंसा ।

एवं व्यवायः प्रजया न रत्या इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम् ॥ (भागवत ११.५.१३)

अनेक व्यक्ति उपरोक्त भागवतवचन का यह अर्थ करते हैं कि सौत्रामणि में सुरा का घ्राण

ही विहित है भक्षण नहीं इस प्रकार ही यज्ञादि में पशु का आलभन (स्पर्श) ही विहित है

हिंसा नहीं किन्तु यह अर्थ प्रकरणविरुद्ध है। श्लोकार्थ यह ही है कि सौत्रामणि में सुरा का

जिस प्रकार से घ्राण विहित है उस प्रकार से ही यज्ञादि में पशुओं का आलभनविहित है

अन्यप्रकारक हिंसा नहीं। इस प्रकार ही सन्तानोत्पत्ति के लिए ही शास्त्रों में स्त्रीगमन का

विधान है,क्रीड़ा के लिए नहीं। उपरोक्त श्लोक पर श्रीधरस्वामीकृतटीका निम्न है-

यद्यस्मात्सुराया घ्राणभक्षोऽवघ्राणं स एव विहितः, न पानम् । तथा पशोरप्यालभनमेव

विहितं, न तु हिंसा। अयमर्थः देवतोद्देशेनयत्पशुहननं तदालभनं ‘वायव्यं श्वेतमालभेत’

इत्यादिश्रुतेर्न तु हिंसा ‘या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसेति कीर्त्यते’। इति वचनात् ।

भक्षणोद्देशेन तु क्रियमाणं हननं लौकिकवद्धिंसैव । अत्र ह्यालभनमेव विहितं, न तु

हिंसा। अतो न यथेष्टभक्षणाभ्यनुज्ञेत्यर्थः। व्यवायोऽपि प्रजया निमित्तभूतया, न तु रत्यै

। अतो मनोरथवादिन इमं विशुद्धं स्वधर्मं न विदुरिति ।।

जिस प्रकार से सुरा का अवघ्राण ही विहित है सुरापान नहीं, उस प्रकार पशु का आलभन

ही विहित है हिंसा नहीं। इसका यह अर्थ है कि देवता के उद्देश्य से जो पशु का हनन किया

जाए वह आलभन कहलाता है, “वायव्यं श्वेतमालभेत” इत्यादि श्रुतियों में जो

आलभनविहित है वह हिंसा नहीं है क्योंकि “वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं कही जाती” यह

शास्त्रवचन है। भक्षण के उद्देश्य से किया गया हनन अवश्य ही हिंसा है। इस कारण देवता

के उद्देश्य से आलभन ही विहित है हिंसा नहीं। यथेष्ठ मांसभक्षण की अनुमतिशास्त्रों में

नहीं है यह अर्थ है। स्त्रीसेवन भी प्रजोत्पत्ति के लिये है न कि रतिक्रीड़ा के लिए। अतएव

मनोरथवादी इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते।

अतः उक्तवचन में विहितहिंसा दोषकर नहीं है इस सिद्धान्त की ही पुष्टि होती है न कि वेद में

स्पर्श विहित है वध नहीं इस अर्थ की। श्रीधरीटीका के अनुवादक शिवप्रसादद्विवेदीजी ने

श्रीधरीटीका के विपरीत अर्थ किया है, या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसेतिकीर्त्यते

१२

इस स्पष्ट शास्त्रवचन का वे अर्थ करते हैं कि “वेदों में जो हिंसा कही गई है उसका तात्पर्य

हिंसा में नहीं है”। टीका के वचन देवतोद्देशेनयत्पशुहननं तदालभनं वायव्यं श्वेतमालभेत’

इत्यादिश्रुतेर्न तु हिंसा का अर्थ करते समय वे “न तु हिंसा” वाक्य को विस्मृतकर अर्थ

करते हैं कि देवता के उद्देश्य से जो पशुओं को मारा जाता है वह विहित नहीं है अपितु उनका

आलभन ही विहित है। सिद्धान्तप्रतिपादन के स्थान पर लोकरंजन एवं विद्वताप्रदर्शनमात्र के

लिए लिखे गए ग्रन्थों से ही समाज आज भी धर्मविषयक अंधकार में निमग्न है।

अनेक व्यक्ति प्राचीनबर्हि के उपाख्यान को प्रमाणरूप से प्रस्तुत करते हैं कि देवर्षिनारद द्वारा

प्राचीनबर्हि को कहा गया है -हे नरेश! तुमने यज्ञ में जिन सहस्रों पशुओं का निर्दयतापूर्वक

वध किया है उन्हें आकाश में देखो,यह सब स्वर्ग में तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे

तुम्हारा लौहशृंगों से छेदन करेंगे इत्यादि।

भो भोः प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे ।

संज्ञापिताञ्जीवसङ्‌घान् निर्घृणेन सहस्रशः ॥

एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव ।

सम्परेतमयःकूटैः छिन्दति उत्थितमन्यवः ॥ ( भागवत ४.२५.७-८)

उपरोक्त श्लोकों से यह तो स्पष्ट ही है कि यज्ञ में निहतपशु एवं यज्ञकर्ता यजमान दोनों ही

स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं। वस्तुतः स्वर्ग में लोहशृंग से छेदन इत्यादि की संभावना नहीं है

किन्तु यदि स्वीकार भी कर लें तो यदि स्वर्गीयदिव्यशरीर में अल्पकष्ट का अनुभव कर

सुखपूर्ण स्वर्गलोक प्राप्त होता भी है तब भी वह विधिविहीन वेदविरुद्ध पिष्टपशुयागों से श्रेष्ठ

ही है। जैसा कि यज्ञीयहिंसा में पापजन्यत्व मानने वालों द्वारा कहा भी गया है-

अथ प्रमादतः प्रायश्चित्तमपि नाचरितं प्रधानकर्मविपाकसमये स विपच्यते । तथापि

यावदसावनर्थं सूते तावत् सप्रत्यवमर्षःसहिष्णुतया सह वर्तत इति। मृष्यन्ते हि

पुण्यसम्भारोपनीतस्वर्गसुधामहाह्रदावगाहिनः कुशलाः

पापमात्रोपपादितांदुःखवह्निकणिकाम् । (सांख्यतत्वकौमुदी,२)

परन्तु यदि प्रमादवश यज्ञकर्ता यजमान प्रायश्चित्त नहीं करता तो प्रधानकर्म के

फलकाल(स्वर्गादि) में वह पशुहिंसारूपीपापफल देता है। ऐसा होने पर भी अधर्म यावत्काल

दुष्परिणाम उत्पन्न करता है, वह पापफल सहने योग्य है। दृष्ट भी होता है कि पुण्यसञ्चय

से प्राप्त स्वर्गरूपी अमृतसागर में अवगाहन करने वाले कुशलकर्मा अत्यल्पपाप द्वारा प्राप्त

१३

होने वाली दुःखाग्नि की कणिका को सह लेते हैं। अब उपरोक्तप्रकरण पर विचार करते हैं,

महाराजप्राचीनबर्हि कर्मासक्त थे,उनके प्रति भगवान नारद ने अध्यात्मज्ञान का उपदेश इस

प्रकरण में प्रारम्भ किया-

प्राचीनबर्हिषं क्षत्तः कर्मस्वासक्तमानसम् ।

नारदोऽध्यात्मतत्त्वज्ञः कृपालुः प्रत्यबोधयत् ॥

भगवाननारद ने कहा-

श्रेयस्त्वं कतमद्राजन् कर्मणात्मन ईहसे ।

दुःखहानिः सुखावाप्तिः श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥

हे राजन! कर्म से दुख की आत्यन्तिकनिवृत्ति और सुख ही प्राप्त सम्भव नहीं है अतः तुम

कर्म द्वारा कौन सा श्रेयसिद्ध करना चाहते हो? इसके पश्चात प्राचीनबर्हि द्वारा स्वयं को

कर्मासक्त कहकर ज्ञान द्वारा कर्मबन्धन से मुक्ति का उपाय पूछा गया, उसके उत्तर में ही

प्राचीनबर्हि के मन में कर्मों से निवृत्ति उत्पन्न करने के लिए भगवान नारद द्वारा यज्ञादिकर्मों

के इस प्रकार के फल का वर्णन सम्परेतमयःकूटैः छिन्दति उत्थितमन्यवः इत्यादि श्लोकों

में किया गया है। इस कारण ही भावार्थदीपिकाकार ने लिखा है कि-

कर्मफलेषु वैराग्यमुत्पाद्य ब्रह्मविद्यामुपदेष्टुं योगानुभावेन यज्ञपशून्प्रत्यक्षं प्रदर्थ्यांह-भो

भो इति। संज्ञापितान्मारितान्।

कर्मफलों में वैराग्य को उत्पन्न करके ब्रह्मविद्या का उपदेश देने के लिए अपने योग के

प्रभाव से यज्ञ में मारे गये पशुओं को प्रत्यक्षदिखाकर नारदजी ने भो भो इत्यादि श्लोक को

कहा। अतः उक्तप्रकरण में मुमुक्षुओं के प्रति कर्मफल में आसक्ति के निवारण का ही

उपदेश है। यह यज्ञरूपी धर्म का ही फल है की राजाबर्हि को नारदजी द्वारा आत्मज्ञानोपदेश

प्राप्त हुआ। उक्तवचन का तात्पर्य कर्मों के फल को नाशवान सुखदुःखमिश्रित बताने में ही

है न कि विधिनिषेध में। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ही अनेक पुराणस्थलों में पशुवध

प्रतिपादित है-

तस्माद्‌गोवर्धनः शैलो भवद्भिविविधार्हणः ।

अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यं पशुं हत्वा विधानतः ॥ (ब्रह्मपुराण १८७.५१)

तस्माद् गोवर्द्धनः शैलो भवद्भिर्विविधार्हणैः ।

अर्च्च्यतां पूज्यतां मेध्यान् पशून् हत्वा विधानतः ।(विष्णुपुराण ५.१०.३८)

१४

विशस्यन्तां च पशवो भोज्या ये महिषादयः ।

प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।। (हरिवंशपुराण २.१७.१५)

उक्तविषय में धर्मप्रदीपकार का मत

तर्हि पिष्टपशुविधानं वदन्ति केचित्, कथं तदुपपद्यते? उपपद्यते

वेदेष्वश्रद्धयाऽनभिज्ञतया च । किं राज्ञाऽऽज्ञप्तो दूषणमाधत्तेहिंसन्नपि यं कञ्चन ?

वेदानां वक्ता ईशः, तेन सृष्टयज्ञियं द्रव्यं पशुर्नाम, तद्विधिना जुह्वतोऽपि किं दूषणम् ?

परं च भूषणंविधिपरतन्त्रत्वं द्विजानाम् । ननु भक्षणाय हिनस्तिं यजमान इति चेत्, किं

यथेच्छं भुनक्ति सशास्त्रमथवा ? आद्ये नः यजमान किंतुहिंसकः । द्वितीये

शास्त्रपरतन्त्रत्वाच्छास्त्रार्थता, नःभोजनविषयता पशोः । यथाऽऽलम्भनं

शास्त्रार्थस्तथा हविःप्रतिपत्तित्यरपिशास्त्रार्थः॥

कुछ व्यक्ति पिष्टपशुविधान वर्णित है यह कहते हैं, वह विधान किस प्रकार से उपपन्न होता

है? उत्तर है वेदों में अश्रद्धा से वेदानभिज्ञता से ही पिष्टपशुकल्पना की जाती है। क्या राजा

के आदेश पर व्यक्ति का वध करने पर हिंसा का प्रत्यवाय लगता है? वेदों के वक्ता परमेश्वर

हैं,उनके द्वारा सृष्ट यज्ञीयद्रव्य पशु है, उस विधि के द्वारा याग किया जाए तो क्या दूषण है?

अपितु शास्त्रपरतन्त्रद्विजों के लिए वह भूषण ही है। यदि कहो कि यजमान भक्षण के लिए

पशुओं का वध करता है तो प्रश्न है कि क्या वह यथेच्छा से भक्षण करता है अथवा

शास्त्रविहित होने के कारण? प्रथमविकल्प का पालन करने पर तो वह हिंसक ही है

यजमान नहीं, द्वितीयविकल्प में वह शास्त्र के परतन्त्र है जिस प्रकार पशु का आलम्भन

शास्त्रविहित है उस प्रकार ही हविभक्षण भी शास्त्रप्राप्त ही है।

ननु भागवते यज्ञियाः पशवो लोहशृङ्गा यजमानं हिंसन्तीति श्रूयते, तस्माद्यज्ञवधो

दोषाय, ततः पिष्टपशुरिति चेत्, किमनया कथयायज्ञो निषिध्यते, उत पिष्टपशुर्विधीयते

? आद्य न तथा सामंर्थ्य भागवते, येन वैदिको यज्ञो निषिध्येत । न द्वितीयः;

पिष्टपशुविधानादर्शनात्तत्र । यदीयं हिंसा भवेत् तदा भवे‌पि पिष्टपशुः। यदि विधावपि

दोषास्तदा ज्ञातं बलं विधेः ।

यदि कहा जाए कि भागवत में यज्ञीयपशु यजमान पर लोहशृंग से प्रहार करते हैं यह सुना

जाता है इस कारण यज्ञ में पशुवध दोषकर है अतःपिष्टपशु का आश्रयण लेना

१५

चाहिए तो यह उचित नहीं, क्या इस भागवतोक्तकथा से यज्ञ का निषेध होता है? अथवा

पिष्टपशु का विधान होता है? प्रथमकल्प उचित नहीं क्योंकि भागवत में ऐसा सामर्थ्य नहीं

है कि वह वैदिकयज्ञ का निषेध कर सके। द्वितीय विकल्प भी ठीक नहीं,पिष्टपशु का

विधान उक्तप्रकरण में वर्णित न होने के कारण। यदि यह हिंसा होती है तो पिष्टपशु हो भी

किन्तु विधि दोषपूर्ण हो तब भी विधि(प्रत्यक्षपशु) को ही बलवत्तर जानना चाहिए।

ननु पिष्टपशुवचनान्युपलभ्यन्ते, का गतिस्तेषामिति चेत्, इयं तेषां गतिः । श्रूयते

काचिदाख्यायिका वेदे, कदाचिद्देवासुरसरीसृपमानुषा ब्राह्मणं शरणं जग्मुः, तदा तेन

चतुर्वक्त्रेणोपदिष्टं युगपत् ‘दददद’ इतिः, तदा देवैर्दमः,

असुरैर्दया, सरीसृपैर्दंशः, मानुषैर्दानमिति पृथक्पृथगवबुद्धो धर्मः, तदासुरैर्दयापरैः

कल्पितानि स्वबोधानुकूलानि वचनानिवेदतात्पर्यानभिज्ञतामूलानि “अहिंसा परमो

धर्मः” इति सिद्धान्तप्रतिपालनाय। अत्र वादे याज्ञिकैरयाज्ञिकैर्वा “मा हिंस्या"द्वित्ति

विधिःपालित एव परन्तु याज्ञिकैः पशुःस्वर्ग गमितः, हिंसाच न लब्धा, वैदिकत्वं

व्यक्तीकृतम्, स्वर्गोऽपि जिघृक्ष्यते, अवैदिकैः पशुःपालितः, वेदश्रद्धां शिथिलिता,

अवैदिकत्वमपि व्यक्तीकृतम्, स्वर्गेतरजिघृक्ष्यते स्वर्गो न। वेदप्रामाण्यरूढास्तु याज्ञिका

एव।

यदि कहो कि पिष्टपशुसमर्थकवचन उपलब्ध होते हैं तो उन वचनों की क्या गति होगी?

उसका उत्तर है कि यह उनकी गति है। वेद में आख्यायिका सुनी जाती है कि

देव,असुर,मनुष्य,सरीसृप सभी ब्रह्मा के पास गए,चतुर्मुखब्रह्मा द्वारा उन्हें “दददद” इस

प्रकार का उपदेश दिया गया। देवों ने द पद से दम, असुरों ने दया,मनुष्यों ने दान एवं

सरीसृपों ने दंश अर्थ ग्रहण किया। असुर दयापर होकर स्वयं के बोध के अनुकूल कल्पित

वेदतात्पर्यविरोधी “अहिंसा परमोधर्मः” इत्यादि सिद्धान्तों का अनुपालन करने लगे।

उक्तवाद में याज्ञिक हो अथवा अयाज्ञिक दोनों ने ही “मा हिंस्यात्” इस वैदिकविधि का

पालन किया किन्तु याज्ञिक का पशु स्वर्ग को प्राप्त हुआ, उसे हिंसा की प्राप्ति भी नहीं

हुई,वैदिकत्व भी व्यक्त हुआ एवं स्वर्ग भी उपपन्न हुआ। किन्तु अवैदिकों द्वारा पशु भी

पाला गया, वेद में श्रद्धा भी शिथिल हुई, अवैदिकत्व भी व्यक्त हुआ,स्वर्ग से भिन्न किसी

अन्य लोक की प्राप्ति हुई। वेदप्रामाण्यसमर्थक तो याज्ञिक ही हैं।

१६

ननु किमवैदिकाः पिष्टपशुवादिनः ? सत्यं तथा । कुतः?

ब्राह्मणसूत्रप्रसिद्धपश्वङ्गविभागोपप्लवात् । ननु कल्प्यन्तेऽङ्‌गानि पशोरितिचेत्, अत

एवोच्यत उपप्लव इति । यद्यङ्गानि किं कल्पना ? यदि कल्पना ? कुतो विभागः ?

विभज्याभावात्। यदि कल्पनयाविभागसम्भवः, तहि स्वर्ग तस्य लोहशृङ्गसम्भवः ।

ननु पिंष्टपशुः स्वर्ग नाधिरोहतीति चेत्; यजमानस्यापि सैवगतिरर्थसिद्धा ।

किंपिष्टपशोर्लोहशृङ्गमङ्गीक्रियते अथवा स्वर्गस्त्यज्यते ? ननु

हिंसाभावाल्लोहश्शृङ्गाभाव इति चेत्, असावेव प्रत्यक्षपशौ न्यायः।विधेरनादित्वाद्वक्तुः

सर्वज्ञत्वायज्ञभोक्तुः स्वतन्त्रत्वाद्यजमानस्य विधिपरतन्त्रत्वात्पशोद्रव्येत्वाच्च न

काचिद्हिंसा। भागवतभिप्रायस्तुस्वर्गैषणा त्याच्या मुमुक्षुणेति ।

क्या पिष्टपशुवादी अवैदिक हैं? उत्तर है हाँ। किस प्रकार से? ब्राह्मणभाग एवं सूत्रग्रन्थों में

प्रसिद्ध पशु के अंगों के विभाग के विरोधी होने से। यदि कहो कि पिष्टपशु में पशु के अंगों

की कल्पना हो सकती है, यह ठीक नहीं है इस कारण ही पिष्टपशुवादियों को प्रमाणों का

विरोधी कहा गया है। यदि पिष्टपशु में अंग उपलब्ध हैं तो कल्पना किस प्रकार की? यदि

कल्पना की जाए तो विभाग किस प्रकार से सम्भव है? पिष्टपशु में अंगों का विभाग

असंभव है। यदि कल्पना से विभाग सम्भव हो तो स्वर्ग में पिष्टपशु के लोहशृंग भी सम्भव

ही हैं। यह कहो कि पिष्टपशुस्वर्गगमन नहीं करता तो इस विधिहीन यज्ञ के यजमान की भी

यही गति सिद्ध है। क्या पिष्टपशु लोहशृंगअंगीकृत करता है अथवा स्वर्ग का त्याग करता

है? कहो कि हिंसा के अभाव के कारण ही लोहशृंग का अभाव है तो इस कारण ही

प्रत्यक्षपशु का विधान है। विधि के अनादि होने के कारण,विधिवक्ताईश्वर के सर्वज्ञ होने के

कारण यजमान के विधिपरतन्त्र होने के कारण विहित पशुद्रव्य के उपयोग में कोई हिंसा

नहीं है। भागवतवचन का अभिप्राय यह बताने में ही है कि मुमुक्षुओं को स्वर्गप्राप्ति अभीष्ट

नहीं होनी चाहिए।

तस्मात्पिष्टपशुरवैदिकः कैश्चित्कल्पितः । तस्माद् वेदप्रामाण्यं जानन्तो वैदिकाः

प्राचीनेनपथा ब्राह्मणसूत्रसिद्धेनः गच्छन्तु, नकाल्पनिकेन केनचित् । यतः

सर्वपुराणत्रणेतृव्यासशिष्यापि जैमिनिः पिष्टपशुनामापि न जग्राहेति प्रसिद्धम् ।

तस्मादर्वाचीनैर्वेदप्रविष्टः प्रच्छन्नबौद्धैः कल्पिता तानि पिष्टपशुवचनानि मुग्धैरंप्राप्तऽपि

प्रसङ्ग इति सर्वमनवद्यम्। “यस्य कस्यतरोर्मूलं यस्मै कस्मैश्च रोगिणेः। येन केनापि

१७

दातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति” इति श्लोकमाह्वयति पिष्टपशुः ।

इस कारण यह पिष्टपशु अवैदिकों की कल्पना है। इस कारण वेदप्रामाण्यनिष्ठ वैदिक

सूत्रब्राह्मण द्वारा सिद्ध प्राचीनपथ का ही अनुसरण करें,कल्पित पथ का नहीं। यह तो प्रसिद्ध

ही है कि सर्वपुराणों के प्रणेता व्यास के साक्षातशिष्य श्रीजैमिनि ने भी पिष्टपशु का ग्रहण

अपने दर्शन में नहीं किया। इस कारण ब्राह्मणसूत्रेत्यादि से विरूद्ध होने पर पिष्टपशुओं की

कल्पना वैदिकों के मध्य प्रविष्ट प्रच्छन्नबौद्धों की है। यह पिष्टपशु की कल्पना “इस अथवा

अन्य किसी वृक्ष की जड़ को इसमें अथवा उसमें जमाकर इसको अथवा उसको किसी को

भी दे दिया जाए तो उसका फल यह अथवा वह होगा।” इस प्रकार की ही है।

देवीभागवतवचनविमर्श

मांसाशनं ये कुर्वन्ति तैः कार्यँ पशुहिँसनम्।

महिषाऽजवराहाणां बलिदानं विशिष्यते॥

देवीभागवतमहापुराण के उपरोक्तवचन के आधार पर कुछेक व्यक्ति यह कहते हैं कि “जो

व्यक्ति मांसभक्षी हैं वे ही यज्ञादि में पशुवध करें” अन्य नहीं,अन्यों के लिए पिष्टपशु विहित

है इत्यादि। किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, देवीभागवत का उपरोक्तवचन श्रौतविधिपरक न

होकर पौराणिकतान्त्रिकबलिदानपरक ही है, इस कारण ही अग्रिम श्लोक में कहा गया है-

देव्यग्रे निहता यान्ति पशवः स्वर्गमव्ययम्।

न हिंसा पशुजा तत्र निघ्नतां तत्कृतेऽनघ॥

(देवीभागवतमहापुराण,३.२६.३३)

वैदिकयज्ञों में तो देवी के आगे पशुओं का वध नहीं किया जाता अपितु तंत्रोक्तपूजन में ही

यह सब प्रकल्प हैं। अध्यायारम्भ में भी जनमजेय द्वारा नवरात्रविधान सम्बन्धी प्रश्न हैं-

नवरात्रे तु सम्प्राप्ते किं कर्तव्यं द्विजोत्तम ।

विधानं विधिवद्‌ब्रूहि शरत्काले विशेषतः ॥

मांसाहार का पशुबलि से कोई साक्षातसम्बन्ध भी नहीं है ,जहां विधिवाक्यों द्वारा यजमान

का हविग्रहण विहित है उसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर मांसभक्षण का कोई विधान नहीं

है। गर्धभेष्टि के गर्दभ का मांसभक्षण करता हुआ कोई भी दृष्ट नहीं होता अतः उपरोक्त

वचन से अधिकारी भेद से पिष्टपशुसिद्धि सम्भव नहीं। अतः श्रौतपशुप्रयोग के विरोध में

पशुहिंसानिषेध,अहिंसाप्रसंशा, मांसभक्षणनिषेध सम्बन्धीवाक्यों को प्रस्तुत करना समुचित

नहीं है।

१८

पशुहिंसा उपाधियुक्त है

श्रीदेवीभागवतमहापुराण में शुक का जनक के प्रति प्रश्न है कि पूर्वकाल में राजा शशबिन्दु

ने इतने याग सम्पादित किए कि विन्ध्यपर्वत के समान चर्म का ढेर खड़ा हो गया,वृष्टि के

कारण चर्मण्वती नदी वहाँ से उत्पन्न हुई। वे राजा स्वर्ग को प्राप्त हो गए एवं उनकी लोक

में अचल कीर्ति भी हो गई। इस प्रकार के वेदोक्त धर्मों में मेरी बुद्धि की प्रवृत्ति नहीं होती।

चर्मणां पर्वतो जातो विन्ध्याचलसमः पुनः ।

मेघाम्बुप्लावनाज्जाता नदी चर्मण्वती शुभा ॥

सोऽपि राजा दिवं यातः कीर्तिरस्याचला भुवि ।

एवं धर्मेषु वेदेषु न मे बुद्धिः प्रवर्तते ॥ (१.१८.५५-५६)

इसके उत्तर में जनक कहते हैं कि-

हिंसा यज्ञेषु प्रत्यक्षा साहिंसा परिकीर्तिता ।

उपाधियोगतो हिंसा नान्यथेति विनिर्णयः ॥

यथा चेन्धनसंयोगादग्नौ धूमः प्रवर्तते ।

तद्वियोगात्तथा तस्मिन्निर्धूमत्वं विभाति वै ॥

अहिंसां च तथा विद्धि वेदोक्तां मुनिसत्तम । (१.१८.५७.५८)

वैदिक यज्ञों में जो हिंसा होती है वह वास्तव में अहिंसा ही कहीं जाती है। जो हिंसा

उपाधियुक्त हो वह ही हिंसा कहलाती है अन्यथा नहीं। जिस प्रकार आर्द्र-ईंधनसंयोग से ही

अग्नि धूम में परिवर्तित होती है एवं ईंधन के अभाव में वह धूमरहित होती है। इस प्रकार ही

वेदोक्त हिंसा को भी अहिंसा ही जानना चाहिए।

यह देवीभागवतपुराण में प्रयुक्त उपाधि क्या है? उत्तर है कि नैयायिकरीति में प्रयोजक को

ही उपाधि कहा जाता है। उपाधि का सामान्यलक्षण है “साध्यव्यापकत्वे-सति

साधनाऽव्यापकत्वमुपाधि:” जो धर्म साध्य का व्यापक हो किन्तु साधन का अव्यापक

हो वह उपाधि कहलाता है। जैसे उपर्युक्त पुराणवचन में “ईंधनसंयोग” उपाधि बताई गई

है। अर्थात “जहाँ जहाँ अग्नि है ,वहाँ वहाँ धूम होता है” इस प्रकार का सम्बन्ध वास्तविक

सम्बन्ध न होकर औपाधिक सम्बन्ध होता है क्योंकि जहाँ पर अग्नि के साथ आर्द्र-ईंधन

का संयोग न हो वहाँ पर धूम भी उत्पन्न नहीं होता। अतः आर्द्र-ईंधन संयोग उपर्युक्त

१९

दृष्टान्त में उपाधि है। साधन (हेतु) को कहते हैं,साध्य तो स्पष्ट है ही। उपर्युक्त आर्द्र-ईंधन

संयोग साध्य (धूम) में तो रहता ही है किन्तु साधन (अग्नि) में नहीं रहता। तर्कभाषा में

इसे ही स्पष्ट करते हुए बताया गया है-

यद्यपि यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वमपीति भूयोदर्शनं समानमवगम्यते,

तथापि मैत्रीतनयत्वश्यामत्वयोर्न स्वाभाविकःसम्बन्धः किन्त्वोपाधिक एव

शाकाद्यन्नपरिणामस्योपार्थोवद्यमानत्वात् ।तथा हि श्यामत्वे मैत्रीतनयत्वं न प्रयोजकं

किन्तुशाकाद्यन्नपरिणतिभेद एव प्रयोजकः । प्रयोजकश्चोपाधिरित्युच्यते ।

(अनुमानखण्ड)

मैत्री नाम की कोई स्त्री है,उसके पुत्र किंचिद श्यामवर्ण के हैं तो यद्यपि “यत्र यत्र

मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वम्” “जहाँ जहाँ मैत्रीतनयत्व है वहाँ वहाँ श्यामत्व है” यह

सहचारदर्शन “जहाँ जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि है” के समान ही प्रतीत होता है। किन्तु

यह सम्बन्ध स्वाभाविक न होकर औपाधिक ही है। क्योंकि “शाकादि अन्न का परिणाम”

वहाँ पर उपाधि है। यदि गर्भावस्था में मैत्री शाकादि का भक्षण न करे तो अगला पुत्र

श्यामवर्ण का नहीं होगा। इस प्रकार ही अन्य उदाहरण देते हैं कि-

हिंसात्वस्यचाधर्मसाधनत्वेन सह सम्बन्धे निषिद्धत्वमुपाधिः । हिंसा के साथ

अधर्मसाधनत्व के सम्बन्ध में निषिद्धत्व उपाधि है। यदि कोई बौद्धजैनादि अनुमान करें कि

“यत्र यत्र हिंसात्वम्, तत्र तत्र अधर्मत्वम् “ अर्थात “जहाँ जहाँ हिंसा है वहाँ वहाँ अधर्म

है” तो यह अनुमान ठीक नहीं क्योंकि हिंसात्व और अधर्मत्व का यह सम्बन्ध स्वाभाविक

सम्बन्ध न होकर औपाधिक सम्बन्ध ही है, जहाँ “निषिद्धत्व” उपाधि है। हिंसा मात्र हिंसा

होने के कारण अधर्म नहीं होती अपितु शास्त्रवचनद्वारा निषिद्ध होने के कारण अधर्म होती

है अन्यथा प्रजारक्षणार्थ दुष्टशत्रु का वध भी अधर्म ही माना जाएगा। हिंसा में अधर्मत्व की

सिद्धि प्रत्यक्ष,अनुमान,आगम प्रमाण से ही हो सकती है किन्तु धर्माधर्म प्रत्यक्ष का विषय

न होकर अतीन्द्रिय हैं ,अनुमान भी सम्भव नहीं क्योंकि साहचर्यदर्शन वहाँ नहीं होता। इस

कारण मात्र आगम के आधार पर ही धर्माधर्म की सिद्धि सम्भव है, एवं आगमविहित होने

के कारण पशुवध धर्म ही है। पूर्वपक्षी प्रत्यक्ष,अनुमान इत्यादि किसी भी प्रमाण से यह

सिद्ध नहीं कर सकते कि पशु स्वर्ग को प्राप्त नहीं होता।

वस्तुतः “अननुग्राहकत्वविशिष्ट प्राणवियोगानुकूलव्यापार” ही हिंसा है अतः

२०

अनुग्राहकत्वविशिष्ट प्राणवियोगानुकूलव्यापार” को हिंसा नहीं समझना चाहिए। पशु

इत्यादि सत्कर्मों का अनुष्ठान करने के योग्य नहीं है इस कारण उस योनि से उनकी

दिव्यलोक प्राप्ति सम्भव नहीं, यज्ञ में प्रोक्षण,संस्कार एवं आलभन होने पर ही वह

स्वर्गादिलोक को प्राप्त हो सकता है। जिसे अनेक वर्षों तक कीट-पतंग बनकर यातनाएँ

भोगनी हों उसे क्षणिक दुःख देकर भी स्वर्ग का दिव्य सुख प्रदान कर देना क्या पशु पर

अनुग्रह नहीं है? वैदिकधर्मनिष्ठ तो इस कारण ही यज्ञीयपशुवध को हिंसा नहीं मानते किन्तु

वही दूसरी ओर प्रतिदिन अनजाने में चूल्हे,झाड़ू इत्यादि से होने वाली हिंसा जिसपर

सामान्य मनुष्यों का ध्यान भी नहीं जाता उसका भी वे प्रायश्चित करते हैं। अतः सम्यक

पूर्वाग्रहविनिर्मुक्त विचार अपेक्षित है।

(८) ऐतरेयश्रुति प्रत्यक्षपशुनिषेधपरक नहीं

पुरुषं वै देवाः पशुमालभन्त तस्मादालब्धान्मेध उदक्रामत्सोऽश्वम्प्राविशत्तस्मादश्वो

मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त सकिम्पुरुषोऽभवत्तेऽश्वमालभन्त

सोऽश्वादालब्धादुदक्रामत्स गां प्राविशत्तस्माद्गौर्मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त

सगौरमृगोऽभवत्ते गामालभन्त स गोरालब्धादुदक्रामत्सोऽविं

प्राविशत्तस्मादविर्मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त

सगवयोऽभवत्तेऽविमालभन्त सोऽवेरालब्धादुदक्रामत्सोऽजं प्राविशत्तस्मादजो

मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त सउष्ट्रोऽभवत्सोऽजे ज्योक्तमामिवारमत

तस्मादेष एतेषां पशूनां प्रयुक्ततमो यदजस्तेऽजमालभैत सोऽजादालब्धादुदक्रामत् स

इमांप्राविशत्तस्मादियम्मेध्याभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त स शरभोऽभवत्त एत

उत्क्रान्तमेधा अमेध्याः पशवस्तस्मादेतेषांनाश्नीयात्तमस्यामन्वगच्छन्सोऽनुगतो

व्रीहिरभवत्तद्यत्पशौ पुरोळाशमनुनिर्वपन्ति समेधेन नः पशुनेष्टमसत्केवलेन नः

पशुनेष्टमसदितिसमेधेन हास्य पशुनेष्टं भवति य एवं वेद॥ (ऐतरेयब्राह्मण २.८)

अर्थात सर्वप्रथम देवताओं ने पुरुष को पशुरूप बनाकर आलभन किया। पुरुषरूप पशु से

मेध (यज्ञयोग्य हविर्भाग) निकल कर अन्यत्र गया। वह अश्व में प्रवेश कर गया। इस कारण

अश्व यज्ञ की हवि के योग्य हो गया। इसके बाद निकल गये हविर्भागवाले इस पुरुषरूप पशु

को देवताओं ने तिरस्कृत कर दिया। वह तिरस्कृत पुरुषपशु किन्नर हो गया। उन देवताओं

ने गाय काआलभन किया। वह मेध आलभन गाय से निकल कर अन्यत्र चला गया

२१

वह मेध भेड़ में प्रवेश कर गया। इसी कारण भेड़ यज्ञयोग्य पशु हो गया। इसके बाद निकल

गये हविर्भाग वाली गाय को देवताओं ने तिरस्कृत कर दिया। वह तिरस्कृत गो बैल हो गया।

तब देवताओं ने भेड़ का आलभन किया। वह हविर्भाग आलभन की गयी उस भेड़ से

निकल कर अन्यत्र चला गया। वह हविर्भाग अज में प्रविष्ट हो गया। इसी कारण अज यज्ञ

के योग्य हो गया। तब निकल गये हविर्भाग वाले अज (देवताओं ने) तिरस्कृत कर दिया।

वह ऊँट हो गया। वह हविर्भाग बकरे में अत्यधिक दीर्घकाल तक प्रतिष्ठित रहा। इसी कारण

जो बकरा है यह अज पशुओं में अत्यधिक प्रयुक्त हुआ। वह अज शरभ हुआ। उत्क्रान्त

हविर्भाग वाले वे(मनुष्य, अश्व, गो, अवि और अज) पशु यज्ञ के हविर्भाग के योग्य नहीं हैं।

इस कारण इनका मांस नहीं खाना चाहिए। पृथिवी में प्रवेश किये उस हविर्भाग का

देवताओं ने अनुगमन किया। देवताओं द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ वह हविर्भाग धान

हो गया। जो पश्वालभन के पश्चात पुरोडाश का निर्वाप करते हैं ,वह हमारे लिए यज्ञ योग्य

हविर्भाग वाले पशु से ही अभीष्ट होता है। इस प्रकार हम लोगों को अन्य साधन की

निरपेक्षता से मेधपूर्ण पशु ही अभीष्ट होना चाहिए।

पूर्वपक्षी इस वचन के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि अज,अश्व,भेड़

इत्यादि का आलभनविहित नहीं है क्योंकि उक्त श्रुति के अनुसार वे अमेध्य हैं इस कारण

पशुपुरोड़ाश के स्थान पर ब्रीहि,यव का ही प्रयोग विहित है। यह कथन भी उचित नहीं है

उक्तश्रुतिवाक्य से मात्र पुरोड़ाश की प्रसंशा ही द्योतित हो रही है पिष्टपशु का विधान तो

उक्त ही नहीं है। वास्तव में उक्त आख्यायिका से पूर्व ही अध्रिगुप्रैषविधान में पशुसंज्ञपन उक्त

है, उपरोक्त प्रकरण में पुरोड़ाश की प्रशंसा है एवं इसके पश्चात वपा की प्रशंसा में

आख्यायिका है। यदि उपरोक्त आख्यायिका से पशुप्रयोग का निषेध हो तो आख्यायिका के

पूर्व एवं पश्चात विहित पश्वंगो के अवदान की क्या गति होगी? प्रकरण में पशुपुरोड़ाश के

पश्चात ही ब्रीहिपुरोड़ाश का विधान है। कुछ पाश्चात्यरोगपीड़ित व्यक्तियों की कल्पना है कि

सर्वप्रथम वैदिकयज्ञों में पुरुष का आलभन हुआ करता था, उसके पश्चात अश्वमेध का

प्राचुर्य बढ़ा, तत्पश्चात अज का आलभन वैदिकयज्ञों में होने लगा, पशुहिंसा में ग्लानि का

अनुभव करके अन्त में पिष्टपशु अथवा धान्य के पुरोड़ाश का विधान किया जाने लगा।

किन्तु यह सब कल्पना मात्र है सभी यज्ञों की प्रवृत्ति अनादिकाल से है, यागानुष्ठान की

अपौरुषेय विधियों में लेशमात्र भी परिवर्तन सम्भव नहीं। तैत्तिरीयसंहिता में वपायाग

२२

प्राशस्त्य सम्बन्धी आख्यायिका है कि स आत्मनो वपाम् उद् अक्खिदत् ताम् अग्नौ

प्रागृह्णात् ततोऽजस्तूपरः सम् अभवत्… पूर्वकाल में पशुओं का अभाव था, प्रजापति को

इच्छा हुई कि मैं पशुओं को उत्पन्न करूँ, प्रजापति ने अपने हृदय से वपा का निर्वाप किया,

उस वपा की अग्नि में आहुति दी इसके पश्चात तूपर नामक पशु उत्पन्न हुआ। अपने हृदय

से वपानिष्कासन के पश्चात किसी का जीवित रहना संभव नहीं, याग करना तो अत्यन्त

असम्भव है ऐसा आक्षेप प्राप्त होने पर प्रजापतिरात्मनो वपामुदक्खिदद् इस

वाक्यविवरणावसर पर शबरस्वामी ने कहा है- असद्वृत्तान्तान्वाख्यानं, स्तुत्यर्थेन

प्रशंसाया गम्यमानत्वात्। कि यह जो हुआ नहीं उस घटना का व्याख्यान है, क्यों?

वपास्तुति से प्रसंशा जानी जाती है।

इहान्वाख्याने वर्त्तमाने, द्वयं निष्पद्यते- यच्च वृत्तान्तज्ञानं, यच्च कस्मिश्चित् प्ररोचना द्वेषो वा

तत्र वृत्तान्तान्वाख्यानं न प्रवर्तकं, ननिवर्तकं चेति प्रयोजनाभावादनर्थकमित्यविवक्षितम्।

वर्तमान व्याख्यान के उपलब्ध होने पर दो पदार्थों की प्राप्ति होती है-(१) वृत्तान्तज्ञान एवं

दूसरा (२) प्ररोचना अथवा द्वेष। इसमें जो वृत्तान्तज्ञान है वह ना प्रवर्तक है अथवा निवर्तक।

प्ररोचना से किसी कार्य में प्रवृत्ति होती है द्वेष से निवृत्ति। अतः इस कथन की भाँति ही

उपरोक्त वृत्तान्तज्ञान पिष्टपशु का प्रवर्तक नहीं है।

जिस प्रकार से अनाहुतिर्वै जर्तिलाश्च गवीधुकाश्चेति (तैत्तिरीय ५.४.३.२) वाक्य से

आरण्यकतिल एवं आरण्यकगेंहूं हवन के अयोग्य बताये गये हैं किन्तु वास्तव में वे तो

यज्ञोपयोगी हैं तो यह मानना पड़ता है कि “अजाक्षीरेण जुहोति” इस विधि की प्रसंशा के

लिये ही जर्तिलादि की निंदा है। समानप्रकार से “अपशवो वा अन्ये गोऽश्वेभ्यः पशवो

गोअश्वाः,(तैत्तिरीय ५.२.९.४)“ इस वाक्य में गो एवं अश्व के अतिरिक्त सभी पशुओं को

अपशु कहा है एवं मात्र गो एवं अश्व का ही पशुत्व प्रतिपादित है, इसका भी कारण यह है

कि अन्य पशुओं को तद्यज्ञ में अप्रशस्त होने से अपशु कहा जाता है उस प्रकार ही उक्त

यज्ञस्थल पर “त एत उत्क्रान्तमेधा अमेध्याःपशवः” से अश्व, अज इत्यादि का उक्तयज्ञांग

में अप्राशस्तय वर्णित है। अन्य स्थलों पर तो उनका प्राशस्त्य है ही।

देवा वै यज्ञेन श्रमेण तपसाऽऽहुतिभिः स्वर्गं लोकमजयंस्तेषां वपायामेव हुतायां स्वर्गो

लोकः प्राख्यायत ते वपामेवहुत्वाऽनादृत्येतराणि कर्माण्यूर्ध्वाः स्वर्गं लोकमायंस्ततो वै

२३

मनुष्याश्च ऋषयश्च देवानां यज्ञवास्त्भ्यायन्यज्ञस्य किंचिदेषिष्यामः प्रज्ञात्या इति

तेऽभितः परिचरन्त ऐत्पशुमेव निरान्त्रं शयानं तेविदुरियान्वा किल पशुर्यावती वपेति।

स एतावानेव पशुर्यावती वपा। अथ यदेनं तृतीयसवने श्रपयित्वा जुह्वति

भूयसीभिर्नआहुतिभिरिष्टमसत्केवलेन नः पशुनेष्टमसदिति।

भूयसीभिर्हास्याऽऽहुतिभिरिष्टं भवति केवलेन हास्य पशुनेष्टं भवति य एवं वेद॥

(ऐतरेयब्राह्मण २.१३)

अर्थात देवताओं ने ज्योतिष्टोम इत्यादि यज्ञों के द्वारा , तीर्थाटन इत्यादि) श्रमद्वारा,

चान्द्रायण व्रतादि तपस्या द्वारा, और कूष्माण्डादिआहुतियों द्वारा स्वर्ग लोग को प्राप्त कर

लिया। देवताओं के द्वारा याग में आहुति दिये गये वपा में ही स्वर्ग लोक प्रख्यात हुआ।

अतःउन देवताओं ने वपा की ही आहुति देकर और अन्य कर्मों का तिरस्कार करके

ऊर्ध्वमुख होकर स्वर्ग लोक को प्राप्त किया। ततःउसके पश्चात मनुष्य और ऋषिगण

देवताओं के यज्ञ के स्थान पर हम लोग भी यज्ञ सम्बन्धी कुछ प्रकृष्ट ज्ञान का अन्वेषण

करके जाने’ यह विचारकर आये। उन मनुष्यों और ऋषियों ने यज्ञविषयक कुछ जानकारी

प्राप्त करने के लिए यज्ञ स्थल पर सभी ओर विचरण किया। वहाँ उन्होंने निकली हुई

आंतों वाले भूमि पर सोते हुए पशु को पाया। इससे उन मनुष्यों और ऋषियों ने जान लिया

कि जितनी वपा होती है उतना ही पशु है।

उपरोक्त प्रकरण में “वपायामेव हुतायां स्वर्गो लोकः प्राख्यायत “ देवताओं ने वपामात्र

की आहुति देकर एवं “अनादृत्येतराणिकर्माणि” अन्य कर्मों का तिरस्कार कर स्वर्गलोक

में ऊर्ध्वगमन किया यह अर्थप्राप्त है। उक्त अर्थ के आधार पर यदि कोई यह कल्पना करे

कि अन्य सभी कर्मों का त्यागकर केवल पशु की वपा का होम ही स्वर्गप्राप्ति का साधन है

तो क्या वह अर्थ युक्त होगा? इस प्रकार ही पुरोड़ाशसम्बन्धिनीश्रुति का भी तात्पर्य है ,इस

कारण ही तो उपरोक्त श्रुति के अंत में “त्तद्यत्पशौ पुरोळाशमनुनिर्वपन्तिसमेधेन नः

पशुनेष्टमसत्केवलेन नः पशुनेष्टमसदिति समेधेन हास्य पशुनेष्टं भवति य एवं वेद”

(जो पश्वालभन के पश्चात पुरोड़ाशनिर्वाप करते हैं, वह हमारे लिए यज्ञयोग्य हविर्भाग वाले

पशु से ही इष्ट होता ही, इस प्रकार हम लोगों को अन्यसाधन की अपेक्षा केवल मेधपूर्ण

पशु ही इष्ट होता है) कहकर पशुयाग का ही फल बताया गया है।

२४

(९) शतपथश्रुति का तात्पर्य

यदा पिष्टान्यथ लोमानि भवन्ति । यदाप आनयत्यथ त्वग्भवति यदा संयौत्यथ मांसं

भवति संतत इव हि स तर्हि भवति संततमिव हिमांसं यदा शृतोऽथास्थि भवति दारुण

इव हि स तर्हि भवति दारुणमित्यस्थ्यथ यदुद्वासयिष्यन्नभिघारयति तं मज्जानं

दधात्येषो सासम्पद्यदाहुः पाङ्क्तः पशुरिति (शतपथब्राह्मण १.२.३.८)

इस प्रकरणवाक्य के आधार पर भी पूर्वपक्षी कहा करते हैं कि जिस समय पुरोड़ाश को

पीसा जाता है उस समय वह लोम हो जाता हैं,जिस समय जलमिश्रित किया जाता है तो

उसे चर्म कहते हैं, जिस समय गूँथा जाता है तो उसे मांस कहते हैं, जिस समय सेका जाता

है तो अस्थि कहते हैं, जब घी मिला दिया जाए तो वह मज्जा हो जाता है इस प्रकार से

यहाँ पिष्टपशु का विधान है इत्यादि। किन्तु उपरोक्त कथन से पिष्टपशु का खण्डन ही होता

है मण्डन नहीं, सर्वप्रथम दर्शपूर्णमास में तो पशु का आलभन विहित ही नहीं है तो वहाँ पर

पुरोड़ाश का निर्देश दिखाकर अभीष्टसिद्धि सम्भव नहीं। अश्वमेधप्रकरण सोमयागप्रकरण

इत्यादि में पशु के विकल्प के रूप में पुरोडाशविहित है नहीं। पिष्टपशुवादी का अभिमत

पक्ष यहीं पर निरस्त हो जाता है, पूर्वपक्षी का मत था कि यज्ञादि में पिष्टपशु बनाए जाते हैं,

किन्तु क्या यहाँ पिष्टपशु बनाया जा रहा है? पुरोडाश तो आटे का आकारविशेष होता है

जो कपालों में रखा जाता है,न ही वह पशु के आकर का होता है। साथ ही यह भी

विचारणीय है कि जिन स्थलों पर पशुयाग विहित है वहाँ स्पष्ट रूप से लोम,वपा,अस्थि,रक्त

इत्यादि की भिन्न भिन्न आहुतियाँ देने का वर्णन है। पुरोड़ाश को तो

पीसकर,जलमिश्रितकर,गूँथकर,पक्वकर,घृताक्त कर,कपाल में आधान कर ही आहुति में

प्रदान किया जाता है। ऐसी स्थिति में लोम,वपा,अस्थि,रक्त इत्यादि की आहुति वहाँ

सम्भव नहीं हो सकेगी क्योंकि पीसे हुए पुरोड़ाश की, जलमिश्रित पुरोड़ाश की आहुति तो

विहित ही नहीं, पक्वपुरोड़ाश की ही आहुति विहित है।

इस कारण पिष्टपशु इत्यादि का विषय वेद द्वारा अविहित होने से निरर्थक है। विभिन्न अंगों

की भिन्न भिन्न मन्त्रों द्वारा विहित आहुति को किस प्रकार एक ही पुरोड़ाश से सम्पन्न

करवाया जा सकता है, पुरोड़ाश की भिन्न भिन्न अवस्थाओं को लोम,मज्जा,मांस,अस्थि

इत्यादि बताया गया है न किन्तु निर्वाप तो पुरोड़ाश की अन्तिम अवस्था का ही होता

है,अन्यों का नहीं। इस कारण अन्तिम घृताक्तावस्था जिसे कि मज्जा कहा गया है उसकी

२५

आहुति सम्भव होगी ,अन्य मन्त्र एवं अंग अप्राप्त हैं।

वस्तुतः जिस प्रकार अश्वमेधब्राह्मण में उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः ।

सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माश्वस्य मेध्यस्य ।

द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि

मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यहोरात्राणिप्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो मांसानि ।

(बृहदारण्यक १.१.१)

ब्राह्ममुहूर्त यज्ञसम्बन्धीअश्व का शिर है,सूर्य नेत्र है,वायु प्राण है,वैश्वानरअग्नि मुख

है,संवत्सर हृदय है, द्युलोक पृष्ठ है, अंतरिक्ष उदर है इत्यादि प्रकार से अश्व में प्रजापतिदृष्टि

की जाती है क्यों क्योंकि जिस प्रकार से उषा के पश्चात सूर्य दिखाई पड़ता है उस प्रकार

से शिर के पश्चात नेत्र दिखाई पड़ते हैं इस कारण नेत्र सूर्य हैं,प्राण का स्वभाव वायु के

समान है इसलिए वायु को अश्वका प्राण कहा गया है, मुख का अधिष्टातृ देव अग्नि है इस

कारण मुख ही वैश्वानराग्नि रूपता है,अवकाश होने के कारण अन्तरिक्ष ही उदर है। ठीक

इस प्रकार ही लोम की भाँति सूक्ष्म होने के कारण पिष्ट को लोम कहना,जलमिश्रित

करने पर श्लेष्मयुक्त होने के कारण उसे त्वचा कहना इत्यादि संगत होता है। कहीं पर भी

पिष्टपशु का विधान सिद्ध नहीं होता। यहाँ पर विहितपिष्टपुरोड़ाश में भी पशुदृष्टि की जाती

है क्योंकि पशु ही यज्ञ का मुख्यद्रव्य है। ऐतरेयब्राह्मण ज्योतिष्टोमप्रकरण में प्रश्न है कि-

तदाहुर्यदेष हविरेव यत्पशुरथास्य बह्वपैति लोमानि त्वगसृक्कुष्ठिकाः शफा विषाणे

स्कन्दति पिशितं केनास्य तदापूर्यत इति। (२.१०)

आलभन किए गए पशु के विषय में कुछ पूछते हैं कि यह जो पशु है वह हवि ही है,तो

इसके किसी भी अङ्ग का फेंकना उचित नहीं।

इस पशु के बहुत से अङ्गों को फेंक दिया जाता है। लोम, त्वचा रक्त, खुर, सीगें,अधकटा

मांस जो भूमि पर गिर जाता है। तो इन अंगों की पूर्ति किस प्रकार से की जाती है?

इसके उत्तर में श्रुति कहती है कि-

यदेवैतत्पशौ पुरोळाशमनु निर्वपन्ति तेनैवास्य तदापूर्यते ।।२.११

जो यह पशु के आलम्भन के पश्चात पुरोडाश का निर्वाप करते हैं। उस पुरोडाश के निर्वाप

से इस पशु के फेंके गये अङ्ग की आपूर्ति होती है। अतः स्पष्ट है कि ज्योतिष्टोमीय पशु

२६

के त्यक्त अंगों की पूर्ति के लिए,दर्शपूर्णमास में पशु के प्रकरणप्राप्त न होने पर भी पशु

के श्रेष्ठत्व के कारण पुरोडाश में पशुदृष्टि का विधान है, न कि साक्षात पशु के ही विकल्प

के रूप में। उदाहरण के लिए घृत में सुवर्णदृष्टि श्रुतिसम्मत है किन्तु स्वर्णाभूषण निर्माण

में घृताभूषण निर्माण नहीं किया जा सकता,स्वर्णदक्षिणादान के समय घृतदान नहीं किया

जा सकता।

(१०) उपरिचरवसूपाख्यान की लुप्तशास्त्रमूलकता

महाभारत में उपरिचरवसु का उपाख्यान प्राप्त है जिसकी विषयवस्तु यह है कि किसी

काल में देवताओं एवं ऋषियों के मध्य विवाद प्रवर्तित था कि “अजेन यष्टव्यम् में

अजशब्द से क्या ग्राह्य है? छाग अथवा बीज? देवताओं ने छाग इस अर्थ का समर्थन

किया एवं ऋषियों द्वारा “अजसंज्ञानि बीजानि” इस प्रकार से बीज ही अर्थ लगाया गया।

राजा उपरिचर ने देवताओं का पक्ष लिया एवं ऋषियों के द्वारा उन्हें श्राप दिया गया।

तत्पश्चात देवताओं की कृपा से उन्हें वसोर्धाराप्राप्त हुई एवं उपरिचरहोने का वर भी प्राप्त

हुआ। इस कथा के आधार पर व्यक्ति पिष्टपशु का आग्रह करते हैं।

वस्तुतः यदि इस आख्यायिका के आधार पर यदि यज्ञों में पशुवध को निषिद्ध माना जाता

है तो इस आख्यायिका के विरोध में सहस्रों वेद,सूत्र,दर्शन,स्मृति एवं समानकोटिप्रामाण्य

वाले पुराणेतिहासवचन उपलब्ध हैं। अतः पशुवध निषिद्ध मानने वालों का प्रयोजन इस

कथा से सिद्ध नहीं हो सकता। उभयविधि (मुख्यपशु का विकल्प पिष्टपशु) मानने वालों

का भी प्रयोजन इस कथा से सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि ऋषियों ने तो स्पष्ट ही “हिंसा

विहित नहीं है” “धान्य ही विहित है पशु नहीं” इत्यादि कहा है। वास्तव में ऋषियों का

उपरिचर के प्रति प्रश्न था कि-

भो राजन्केन यष्टव्यं पशुना होस्विदौषधैः ।।

एतं नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः ।। (स्कन्दपुराण २.९.६.४२)

भो राजन्केन यष्टव्यमजेनाहोस्विदौषधैः।

एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः।। (महाभारत १२.३४५.१३)

हे राजन! किस द्रव्य से यजन करना चाहिए? अज से अथवा औषधि से? आपका वचन

हम लोगों के प्रति प्रमाणस्वरूप माना गया है अतः कहें।

२७

धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ।।

देवानां तु पशुः पक्षो मतं राजन्वदात्मनः ।। (स्कन्दपुराण २.९.६.४४)

धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप।

देवानां तु पशुः पक्षो मतो राजन्वदस्व नः।। (महाभारत १२.३४५.१५)

अर्थात धान से यजन करना चाहिए यह हमारा(ऋषियों) का पक्ष है एवं देवताओं का पक्ष है

कि पशु से ही यजन करना चाहिए। इन दोनों ही पक्षों के मध्य जो उचित हो वह कहें। स्पष्ट

है कि उपरोक्तवर्णन में औषधि,धान्य एवं पशु यह ही यज्ञीयद्रव्यों के मध्य परिगणित हैं,

पिष्टपशु की तो चर्चा ही उपलब्ध नहीं है।

उपरिचरवसु के अश्वमेध इत्यादि का वर्णन कर कुछ कहते हैं कि यज्ञ में पशुहिंसाविहित

नहीं है,पिष्टपशुविहित है ,किन्तु उपरिचरवसु का वह आचरण वेदाधारित नहीं है। उस

उपाख्यान से पूर्व महाभारत में वर्णन है कि-

युष्मत्कृतमिदं शास्त्रं प्रजापालो वसुस्ततः।

बृहस्पतिसकाशाद्वै प्राप्स्यते द्विजसत्तमाः॥ (महाभारत १२.३४३.४८)

प्रजापालक वसु देवगुरुबृहस्पति के निकट तुम लोगों (चित्रशिखण्डिसंज्ञक सप्तर्षयों)द्वारा

बनाये हुए इस शास्त्र को प्राप्त करेगा।

स हिमद्भावितो राजा मद्भक्तश्च भविष्यति ।

तेन शास्त्रेण लोकेषु क्रियाः सर्वाः करिष्यति ॥ (महाभारत १२.३४३.४९)

वह मेरे प्रति भावयुक्त राजा मेरा भक्त होगा, वह लोक के बीच उस ही शास्त्र

(चिंत्रशिखण्डिल शास्त्र) के अनुसार सब कार्यों का निर्वाह करेगा ।

अस्य प्रवर्तनाच्चैव प्रजावन्तो भविष्यथ।

स च राजश्रिया युक्तो भविष्यति महान्वसुः॥ (महाभारत १२.३४३.५१)

इस शास्त्रके प्रवर्त्तन हेतु से तुम लोग संतानवान् हो जाओगे, प्रजापालक वसु राजा इस

शास्त्र के प्रभावसे महान और श्रीसंयुक्त होगा॥

संस्थिते तु नृपे तस्मिञ्शास्त्रमेतत्सनातनम्।

२८

अन्तर्धास्यति तत्सर्वमेतद्वः कथितं मया॥ (महाभारत १२.३४३.५२)

उक्त राजाके इस लोक से गमन करनेपर यह सनातन शास्त्र लुप्त होगा, यह सब वृत्तान्त

मैंने तुम लोगों के समीप वर्णन किया ॥

अतः उपरिचरवसु ने उक्तशास्त्र की विधि के अनुसार ही सब कार्य किए यह उपरोक्त

आख्यायिका में प्रतिपादित है,आख्यायिकाओं का वेदसमर्थित होने पर ही प्रामाण्यसम्भव

है, वेदविरुद्ध होने पर नहीं। आख्यायिकाओं के माध्यम से विधि की कल्पना सम्भव नहीं है

यह शबरस्वामी द्वारा स्पष्ट किया गया है

रुद्रः किल रुरोद, अतो ऽन्येनापि रोदितव्यम्. उच्चिखेदात्मवपां प्रजापतिः,

अतोऽन्योऽप्य् उत्खिदेद् आत्मनो वपाम्. देवा वैदेवयजनकाले दिशो न प्रज्ञातवन्तः,

अतोऽन्योऽपि दिशो न प्रजानीयाद् इति (१.२.१)

अर्थात यदि रूद्र ने रूदन किया, प्रजापति ने स्वयं की वपा का अवदान किया,

देवयजनकाल में देवताओं को दिशाएं ज्ञात नहीं हुई इत्यादि वचनों के आधार पर कोई ‘रुद्र

रोया अतः मुझे भी रोना चाहिए” “प्रजापति की भाँति मुझे भी स्ववपा पृथक करती

चाहिए” “देवताओं की भाँति मुझे भी दिशाओं का ज्ञान नहीं होना चाहिए” ऐसी विधि की

कल्पना नहीं हो सकती।

सोऽरोदीद् इत्येवमादिषु न प्राप्नोति. कुतः? प्रयोगे हि स्तेयादीनाम् उच्यमाने विरोधः

स्यात्, शब्दार्थस् त्व् अप्रयोगभूतः, तस्माद्उपपद्येत। (१.२.९)

सोऽरोदीद्,स्तेनं मनः इत्यादि में शास्त्रविरोध नहीं प्रसक्त होता क्योंकि यदि

सोऽरोदीद्,स्तेनं मनः इत्यादि से पूर्वोक्तविधि की कल्पना की जाए तो अवश्य ही विरोध

होता है किंतु शब्दार्थ तो विधिरूप नहीं है अतः इन वचनों का प्रामाण्य उपपन्न होता है।

उपरोक्त महाभारतवर्णित आख्यायिका भी किसी विधि को निर्दिष्ट नहीं करती ।

आख्यायिका ही प्रामाण्यरूपेण ग्रहण करनी हो तो युद्धिष्ठिर के अश्वमेध में पशुओं का

संज्ञपन हुआ था ,उस वेदसमर्थित आख्यायिका को ही ग्रहण करना चाहिए।

महाभारत अनुगीतापर्व के यति-अध्वर्युसंवाद में अध्वर्युद्वारा यति के प्रति यज्ञीयपशु की

गति का वर्णन है-

प्रोक्ष्यमाणं पशुं दृष्ट्वा यज्ञकर्मण्यथाब्रवीत् ।

२९

यतिरध्वर्युमासीनो हिंसेयमिति कुत्सयन् ॥ (महाभारत १४.२८.७)

किसी यज्ञ-कर्ममें पशुका प्रोक्षण होता देख वहीं बैठे हुए एक यतिने अध्वर्युसे उसकी

निन्दा करते हुए कहा- ‘यह हिंसा है (अतःइससे पाप होगा)’ ।

तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति ।

श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यदि श्रुतिरियं तथा ॥ (१४.२८.८)

अध्वर्युने यतिको इस प्रकार उत्तर दिया- ‘यह बकरा नष्ट नहीं होगा। यदि ‘पशुर्वे नीयमानः’

इत्यादि श्रुति सत्य है तो यह जीवकल्याणका ही भागी होगा ॥

यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति ।

यदस्य वारिजं किंचिदपस्तत् सम्प्रवेक्ष्यति ॥ (१४.२८.९)

इसके शरीरका जो पार्थिव भाग है, वह पृथ्वीमें विलीन हो जायगा। इसका जो कुछ भी

जलीय भाग है, वह जलमें प्रविष्ट हो जायगा।

सूर्य चक्षुर्दिशः श्रोत्रं प्राणोऽस्य दिवमेव च ।

आगमे वर्तमानस्य न मे दोषोऽस्ति कश्चन ॥(१४.२८.९)

नेत्र सूर्यमें, कान दिशाओंमें और प्राण आकाशमें ही लयको प्राप्त होगा। शास्त्रकी आज्ञाके

अनुसार बर्ताव करनेवाले मुझको कोईदोष नहीं लगेगा।

इसके पश्चात यति और अध्वर्यु में अनेक प्रश्नोत्तर चले एवं अन्त में

उपपत्त्या यतिस्तूष्णीं वर्तमानस्ततः परम्।

अध्वर्युरपि निर्मोहः प्रचचार महामखे।।

अध्वर्युप्रदत्त युक्तियों से वह यति शान्त हो गए एवं अध्वर्यु ने मोहरहित होकर वह यज्ञ

करना प्रारम्भ किया।

वही शान्तिपर्व में भी प्रायश्चितप्रकरण में

वृथापशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत्‌ ।

अनुग्रह: पशूनां हि संस्कारो विधिचोदितः ॥ (१२.३५.२८)

३०

विधिरहित पशुओं का आलभन न करें अथवा करवाएँ। यज्ञ में जो विधियुक्त पशुसंस्कार है

वह तो उनपर अनुग्रह ही है कहकर यागीयपशुवध का समर्थन किया गया है।

अनुशासन पर्व में भी यज्ञीयपशुवध का समर्थन प्राप्त होता है -

पितृदैवतयज्ञेषु प्रोक्षितं हविरुच्यते।

विधिना वेददृष्टेन तद्भुक्त्वेह न दुष्यति।।

यज्ञार्थे पशवः सृष्टा इत्यपि श्रूयते श्रुतिः।

अतोऽन्यथा प्रवृत्तानां राक्षसो विधिरुच्यते।। (महाभारत ,अनुशासनपर्व ११६.१४-१५)

पितृदेवयज्ञों में प्रोक्षित मांस हवि कहलाता है, वेदोक्त विधि का अनुसरण कर हविभक्षण

करने से व्यक्ति दोष को प्राप्त नहीं होता है। वेद में सुना जाता है कि यज्ञ के लिए ही

प्रजापति द्वारा पशुओं की रचना की गई है। वेदोक्तविधि के अतिरिक्त

पशुहिंसा,मांसभक्षणादि में प्रवृत्ति राक्षसीविधि कहलाती है।

(११) उपरिचरवसु के पांचरात्रनिष्ठत्व की शंका

उपरिचरवसु ने अश्वमेध में पिष्टपशु का प्रयोग किया यह वर्णन कुछ प्रतियों में उपलब्ध है-

त्वया पशुर्वारितश्च कृतः पिष्टमयः पशुः।

त्वं देवं पश्यसे नित्यं न पश्येयमहं कथम्।। ( महाभारत १२.३४४.२०)

वैष्णव उपरिचर को पांचरात्रनिष्ठ बताते हैं, उनका कथन प्रमाणविहीन नहीं है। वास्तव में

उपरिचर पांचरात्रनिष्ठ ही है , अतः वे उपाख्यान पांचरात्रनिष्ठ एकान्तिकों को ही

प्रमाणत्वेनग्राह्य हो सकते हैं वेदैकनिष्ठों के लिये तो वे अग्राह्य हैं-

पञ्चरात्रनिष्ठस्य उपरिचरस्य (श्रुतप्रकाशिका),

पञ्चरात्रनिष्ठस्य उपरिचरवसो (चक्रमीमांसा)

सात्वतं विधिमास्थाय प्राक्सूर्यमुखनिःसृतम्।

पूजयामास देवेशं तच्छेषेण पितामहान्॥ (महाभारत १२.३४३.२०)

राजा उपरिचरवसु भगवान सूर्यप्रोक्त सात्वतविधि के अनुसार ही भगवान हरि का पूजन

करते थे एवं शेष पदार्थों से पितरों का तर्पण करते थे।

काम्यनैमित्तिका राजन्यज्ञियाः परमक्रियाः।

३१

सर्वाः सात्वतमास्थाय विधिं चक्रे समाहितः॥ (महाभारत १२.३४३.२५)

काम्यकर्म,नैमित्तिककर्म एवं यज्ञीयक्रियाएँ वे सभी क्रियाएँ सात्वतविधि का आश्रय लेकर

ही उपरिचरवसु ने पूर्ण की।

पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तस्य गेहे महात्मनः।

वरान्नं भगवत्प्रोक्तं भुञ्जते वाऽग्रभोजनम्॥ (१२.३४३.२६)

उनके महल में पांचरात्रागम के ज्ञाता रहा करते थे एवं भगवान को अर्पित अन्न सर्वप्रथम

वे ही ग्रहण किया करते थे।

समानप्रकार का वर्णन स्कन्दपुराण में उपलब्ध है-

तन्त्रोक्तेन विधानेन पञ्चकालसमाहितः ।।

पूजयामास देवेशं तच्छेषेण सुरान्पितॄन्।। (स्कन्दपुराण२.९.५.७)

काम्या नैमित्तिकाजस्रं यज्ञियाः परमाः क्रियाः ।।

सर्वाः सात्वतमास्थाय विधिं चक्रे समाहितः ।।

पञ्चरात्रं महातन्त्रं भगवद्भक्तिपुष्टये ।।

शुश्रावानुदिनं राजा भगवद्भक्तवक्त्रतः ।।

पुनश्चेदिपतिर्भूत्वा भुव्यसौ पितृशापतः ।।

पञ्चरात्रोक्तविधिना भजे हरिमतन्द्रितः ।। (स्कन्दपुराण २.९.५.२१,२२,३३)

अतः स्पष्टवर्णन है कि उपरिचरेत्यादि ने यज्ञादि सभी कर्म पांचरात्रतन्त्रोक्तविधि से किए

,हमारे पूर्वाचार्यों ने भी पिष्टपशु,मुख्यपशु का भेद पांचरात्र,वैदिकभेद से स्वीकार किया है-

पाञ्चरात्राभिमतः पिष्टपशुयाग एव धर्मः, न वैदिकपशुयागोऽपीति खलु

पांचरात्रप्रामाण्यप्रकरणे पिष्टपशुयागमेव धर्मव्यवस्थापयत्युपरिचरवसूपाख्यनादिना ।

कूर्मपुराणं हि तान्त्रिकाणां पांचरात्रानुयायिनां पिष्टपशुयागः, वैदिकानां तु

मुख्यपशुयागइति व्यवस्थापयति । (अद्वैततत्वसुधा)

पांचरात्रोक्त पिष्टपशुयाग ही धर्म है वैदिकपशुयाग नहीं यह व्यवस्था उपरिचरवसु के

आख्यान द्वारा पांचरात्रप्रामाण्याधिकरण में दर्शायी गई है। कूर्मपुराण पांचरात्रानुयायियों

के लिए पिष्टपशुयाग एवं वैदिकों के प्रति मुख्यपशुयाग की व्यवस्था करता है।

३२

अहिंसात्मकास्तु यज्ञा विशिष्टाधिकारिसाध्याः

भगवतोऽतिप्रीणनत्वादपवर्गप्रत्यासन्नाः। अत एव ह्युपरिचरादयःपिष्टपशुभिरिष्टवन्तः।

(गीतातात्पर्यचन्द्रिका १०.२५)

उपरोक्त वचन में उपरिचर की भाँति पिष्टपशुप्रयोग वाले याग विशिष्टाधिकारियों

(पांचरात्रिकों) द्वारा साध्य हैं यह वेदान्तदेशिकद्वारा कहा गया है।

पाञ्चरात्रिकास्तु ‘कुर्याद्धृतपशुं संख्ये कुर्यात्पिष्टपशुं तथा। न त्वेव तु वृथा हन्तुं

पशुमिच्छेत्कदाचन ।।’ (मनु.) इति स्मृत्याप्रत्यक्षपशुवध एव पापाय, न तु

तत्प्रतिनिधिभूतपिष्टपशुसंज्ञपन इति पिष्टपशुयज्ञ एव वैष्णवानामिति वर्णयन्ति।

(तत्वमुक्ताकलाप,सर्वंकषाटीका)

पांचरात्रानुयायी घृतपशु,पिष्टपशु निर्माण सम्बन्धी मनुवचन के आधार पर प्रत्यक्षपशुवध

में पाप एवं पिष्टपशुवध में अहिंसा मानकर वैष्णवों को पिष्टपशुयाग ही करना चाहिए यह

प्रतिपादित करते हैं ऐसा श्रीवरदाचार्य ने लिखा है। मनुस्मृति के उपरोक्त वचन का तात्पर्य

इसके पश्चात बताया जाएगा। वरदाचार्य अन्त में लिखते हैं कि

एतादृशो विचारस्तु नाद्य श्रेयस्करो भवेत्। यतो हि यज्ञविज्ञानं नष्टप्रायं तु मन्महे ।।

भारते तूपरिचरवसूपाख्यानमद्भुतम्। अध्येयं धर्ममर्मज्ञैर्नाधिकं वक्तुमीश्महे ।।

इस प्रकार का विचार आज के समय में श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि यज्ञविज्ञान नष्टप्राय हो

चुका है। महाभारत में उपरिचरवसु का उपाख्यान धर्ममर्मज्ञों को अध्ययन करना

चाहिए,इस विषय में हम और अधिक कहने की इच्छा नहीं रखते। वस्तुतः देश में एक

अग्निहोत्रीब्राह्मण भी उपलब्ध न हो तब भी शुद्धशास्त्रीयवैदिकसिद्धान्त का प्रतिपादन

करना श्रेयस्कर ही है, सज्जनों को लोकापवाद अथवा प्रवृत्तिवैफल्य आदि की चिन्ता से

किसी भी लौकिक अथवा शास्त्रीयविषय के वेदविरुद्ध वर्णन को सहन नहीं करना चाहिए,

वेदप्रामाण्य की रक्षा अपूर्वोत्पादिका है।

हमारे मत में तो एकदेशी आगमशास्त्र के आधार पर वैदिककर्मों में पिष्टपशु का अतिदेश

करना सम्यक नहीं है। पांचरात्रिकयागों में पिष्टपशु विहित हो तो कोई आपत्ति नहीं किन्तु

वैदिकयज्ञों में उसका अतिदेश असम्भव है। इस कारण ही परमवैष्णव वैखानसप्रणेता

विखनामुनि ने भी स्वलिखित श्रौतसूत्रों में कहीं भी पिष्टपशु का ग्रहण नहीं किया। यह

३३

ध्यान में रखकर अनेक श्रीवैष्णवों द्वारा भी वेदैकनिष्ठों के लिये मुख्यपशु की व्यवस्था दी

जाती है-

परमैकान्त्यग्रगण्येन विखनोमुनिना परमैकान्तिनां प्रत्यक्षपशुरेवोक्त

(पञ्चकालक्रियादीप) श्रीनिवासताताचार्य द्वारा भी यागीयपशुमीमांसा नामक ग्रन्थ

लिखकर पिष्टपशुखण्डन किया गया है ऐसा रामानुजीयग्रन्थों में वर्णन है। उपरोक्तवर्णन से

देवीभागवत का पूर्वोक्तवचन भी स्मरण हो जाता है-

पुराणेषु क्वचिच्चैव तन्त्रदृष्टं यथातथम् ।

धर्मं वदन्ति तं धर्मं गृह्णीयान्न कथञ्चन ॥

वेदाविरोधि चेत्तन्त्रं तत्प्रमाणं न संशयः । (११.१.२३-२४)

पुराणेत्यादि में तन्त्रदृष्टि से भी कुछ वाक्य कह दिए जाते हैं , यदि वेद उसका समर्थन करे

तो ही वे धर्म हैं अन्यथा नहीं। यदि तन्त्र वेद अविरोधी है तो ही वह ग्रहण करने योग्य है।

उपरिचरेत्यादि के उपाख्यान तन्त्रप्रसंशा,तन्त्रवर्णन में ही विनियुक्त हैं।

(१२) नीलकण्ठचतुर्धरमतसमीक्षा

श्रीनीलकण्ठचतुर्धर ने स्वकीय भारतभावदीपटीका में उपरिचरवसु उपाख्यान के सन्दर्भ में

लिखा है कि

यदा भगवतोऽत्यर्थमित्यादिरध्यायो वैष्णवानां हिंस्रयज्ञवर्जनार्थः।

अजसंज्ञानि बीजानि तस्मादेष एतेषां पशूनां प्रयुक्ततमो यदजस्तैजमालभन्त

सोऽजादालब्धादुदक्रामत्स इमां प्राविशत्तस्मादियंमेध्याऽभवत्तमस्यामन्ववायन्सोऽनुगतो

ब्रीहिरभवदिति बह्वृचचब्राह्मणम् । सर्वेषां पशूनां स यज्ञो मेध्यताख्यः इमां पृथिवीं

प्रविष्टःअन्ववायन् अन्वेषितवन्तः । इयं श्रुतिः पुरोडाशस्तुतिमात्रपरा न तु

पशुनाममेध्यत्वप्रतिपादनपरा। न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्ततेअपि तु विधेयं स्तोतुमिति

न्यायात् । इति भोगलोलुपानां देवानां मतम् । वीतरागाणां ऋषिणां

तुमानान्तराविसंवादादहिंसाशास्त्रानुग्रहाच्च अवान्तरतात्पर्येण प्रतीयमानोऽर्थों यथा भूत एव

नतु स्वार्थे अप्रमाणम् । यथाहुःसंप्रदायविदः ‘विरोधे गुणवादः स्याद‌नुवादोऽवधारिते ।

भूतार्थवाद‌स्तद्धानादर्थवादत्रिधा मतः’ इति । तत्र यजमानः प्रस्तर

इत्यादिःप्रस्तरयजमानयोरेभदेस्य प्रत्यक्षविरोधात् प्रस्तरस्तुत्यर्थ गुणवादोऽयम्।

‘अग्निहिमस्य भेषजम्’ इति लोकावगतार्थत्वाद‌नुवादः’मेधातिथि ह काण्वायनिं मेषो

३४

भूत्वेन्द्रो जहार’ इत्यादिर्विरोधानुवादयोरभावात् भूतार्थवाद इति वृद्धश्लोकार्थः । न

चात्रापि क्रत्वर्थेनालंभविधिना पुरुषार्थनिषेधस्यविरोधोस्ति अतोऽर्थवादोऽप्ययं

स्वार्थेऽवान्तरतात्पर्यविधया देवताधिकरणन्यायेन प्रामाण्यमश्नुवीत ।

अन्यथाभारतरामायणादीनामपि स्वार्थे प्रामाण्यं विहन्येतेति । तस्मादजस्थस्य

मेधस्य बीजेषु संक्रमाद्वीजान्येवाजसंज्ञानीति युक्तम् ॥

अर्थात यह अध्याय वैष्णवों को हिंसायुक्त यज्ञ नहीं करने चाहिए इस तात्पर्य के लिए

है। अजसंज्ञक बीज होते हैं यह अज इनपशुओं में अत्यधिक प्रयुक्त हुआ.. निकल गये

(हविर्भाग) वाले वे ये (मनुष्य, अश्व, गो, अवि और अज) पशु यज्ञ के (हविर्भाग के)

योग्य नहीं हैं। इस (पृथिवी) में (प्रवेश किये) उस (हविर्भाग) को (देवताओं ने)

अनुगमन किया। (देवताओं द्वारा) अनुगमन कियाजाता हुआ वह (हविर्भाग) धान हो

गया। यह ऋग्वेदब्राह्मण का वचन है। यह श्रुति पुरोड़ाशस्तुतिमात्र के लिए है न कि

पशुओं के अमेध्यत्व का वर्णन करने के लिए क्योंकि “निंदा निन्द्य की निंदा करने को

प्रयुक्त नहीं होती अपितु विधेय की स्तुति करने को प्रयुक्त होती है” , ऐसा भोगलोलुप

देवताओं का पक्ष है। आसक्तिरहित ऋषियों का तो प्रमाणांतर से अविरुद्ध होने के

कारण एवं मा हिंस्यात इत्यादि अहिंसाशास्त्रानुग्रह के बल पर उपर्युक्त वचन का स्वार्थ

में अप्रामाण्य नहीं है यह पक्ष है। यजमानः प्रस्तर इत्यादि वाक्यों में यजमान और

प्रस्तर का अभेद प्रत्यक्ष से विरूद्ध होने पर गुणवाद है,अग्निर्हिमस्य भेषजम् यह

अनुवाद है; मेधातिथि ह काण्वायनं यह भूतार्थवाद है। यहाँ पर क्रत्वर्थ आलम्भन विधि

का पुरुषार्थनिषेध से विरोध नहीं है इस कारण अर्थवाद होने पर भी यह

देवताधिकरणन्याय के सदृश स्वार्थ में अवान्तरतात्पर्य मानकर ग्रहण किया जा सकता

है। अन्यथा महाभारत रामायण का भी स्वार्थ में प्रामाण्य बाधित हो जाएगा। इस

कारण अजस्थ मेध बीजों में संक्रमित हो गया इस कारण अजसंज्ञक बीज ही हैं”

इत्यादि।

ऋग्वेदीयब्राह्मण की उक्त श्रुति की चर्चा पूर्व में कर आए हैं, यज्ञकर्मों में देवतासम्बन्ध

श्रूयमाण होता है अथवा ऋषिसम्बन्ध? यज्ञहविग्राहक एवं यज्ञफलप्रदाता देवता हैं

अथवा ऋषि? अतः यज्ञफल प्राप्त करने के लिए तो देवताओं को ही उनकी इच्छा के

पदार्थ हविरूप में प्रदान करना उचित है क्योंकि वस्तुतः देवता के उद्देश्य से द्रव्यत्याग

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ही यज्ञ है। देवताधिकरणन्याय से भी यही सिद्धान्त द्योतित होता है कि “प्रमाणान्तर से

अविरुद्ध मन्त्र एवं ब्राह्मण का स्वार्थ में प्रामाण्य माना जा सकता है” उदाहरण के लिए

इन्द्र को वज्रहस्त कहने वाले मन्त्र का तात्पर्य इन्द्र को वज्रहस्त कहने में माना जा

सकता है किंतु उपरोक्त प्रकरण में यह सम्भव नहीं,उक्त पशुओं के अमेध्यत्व का वर्णन

बाधित ही है अन्यथा अश्वमेध,ज्योतिष्टोम इत्यादि विधियाँ बाधित होने लगेंगीं। उपरोक्त

प्रकरण में विरोध पुरुषार्थनिषेध अथवा क्रत्वर्थनिषेध में नहीं है , अपितु श्रुत्यन्तरविहित

पशुओं के मेध्यत्व एवं विहितत्व का है।

(१४) छाग का अग्निषोमीयत्व

वसन्ते ज्योतिषा यजेत इस वाक्य के द्वारा वसन्तऋतु प्राप्त होने पर अहिताग्नियों के

लिए ज्योतिष्टोमयाग नैमित्तिकरूप से प्राप्त होता है। पूर्वोक्त अज शब्द का अर्थ अन्न है

इस आधार पर अनेकों का आग्रह रहता है कि ज्योतिष्टोम में अन्न ही विहित है छाग नहीं

किन्तु यह सूत्रब्राह्मणविरुद्ध है। ऋषियों एवं देवताओं के मध्य विवाद अज शब्द का अर्थ

छाग है अथवा अन्न है इस विषय पर था, जब ज्योतिष्टोमविषयक श्रुति ही “अजो

अग्निषोमीयः” कहने के पश्चात “ अग्नये छागस्य वपाया मेदसोऽनुब्रूहि” कहकर इस

विषय में स्पष्ट रूप से छागपशु एवं उसकी वपा का वर्णन कर रही है तो ऐसी स्थिति में

अवकाश का प्रसंग ही नहीं होता। वस्तुतः मीमांसाशास्त्र में विचार किया गया है कि

छागशब्द से अज विवक्षित है अथवा कोई भी पशु विवक्षित है, इस प्रकार ही अन्य

औषधि,अन्न इत्यादि के सम्भावित पूर्वपक्षों को ग्रहण कर लेना चाहिए, सूत्र प्रस्तुत

करते हैं-

पशुचोदनायाम् अनियमोऽविशेषात् ॥ (मीमांसा ६.८.३०)

शबरभाष्य- ज्योतिष्टोमे पशु: अग्नीषोमीयः, यो दीक्षितो यद् अग्नीषोमीयं पशुमालभत

इति। तत्र संदेहः, किं यः कश्चित् पशुर्आलम्भीयः, उत छाग इति?

वक्ष्यमाणेनाभिप्रायेण भवति संशयः. नन्व् एकेषाम् आम्नायते, अजोऽग्नीषोमीय इति।

सर्वशाखाप्रत्ययंचैकं कर्मेति। अत्रोच्यते, प्रतिशाखं भिन्नानि कर्माणीति कृत्वा चिन्ता,

किं तावत् प्राप्तम्? पशुचोदनायाम् अनियमः, उत्सर्गे कर्तव्येद्रव्यं शक्यत उत्स्रष्टुम्, न

पशुत्वम्। द्रव्यं हि साधकम्। अतोऽत्र द्रव्यम् अन्त्रेणोत्सर्गो न संभवतीति द्रव्यम्

उपादीयते. तस्मिन्न्उपादीयमाने ऽनियमः, यत्किंचिद् उत्स्रष्टव्यम् इति। कुत एतत्

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अविशेषात्। न हि पशुत्वसंबद्धेषु कश्चिद् विशेष उपलभ्यते। तस्माद्यः कश्चित् पशुर्

इति।

ज्योतिष्टोम के विषय में सुना जाता है कि “जो यज्ञ में दीक्षित हो वह ज्योतिष्टोमीय पशु का

आलभन करे”। यहाँ पर संदेह होता है कि कोई भी पशु आलभन करने योग्य है अथवा

छाग ही? यदि कहें कि एकशाखा में पठित है कि “अजोऽग्नीषोमीय” एवं सभी शाखाओं

में विहित कर्मों की एकता है तो इसपर कहा जाता है कि यह विचार प्रतिशाखा में विहित

कर्म भिन्न है ऐसा सिद्धान्त रख किया जा रहा है। पशुसम्बन्धी नियम का अभाव है,.

उत्सर्ग करने योग्य में द्रव्य का त्याग किया जा सकता है, पशुत्व का त्याग नहीं किया जा

सकता । द्रव्यसाधक है। अतः यहां द्रव्य के विना उत्सर्ग नहीं हो सकता है इसलिये द्रव्य

का उपादान किया जाता है। उस द्रव्यविशेष के उपादीयमान होने पर नियम नहीं है, जिस

किसी द्रव्य का भी त्याग करना चाहिये। किस हेतु से ? द्रव्यविशेष का निर्देश न होने से।

पशुत्व से सम्बन्धित कुछ विशेष उपलब्ध नहीं होता है। इससे जो कोई भी पशु हो उस का

आलभन किया जा सकता है। इस पूर्वपक्ष के उत्तर में कहते हैं-

छागो वा मन्त्रवर्णात् (मीमांसा ६.८.३१)

वाशब्दः पक्षं व्यावर्तयति नैतदस्ति। यत्र क्वचन द्रव्ये पशुत्वम् उपादेयम् इति। अस्त्य्

उत्स्रष्टव्यस्य नियमकारणं मन्त्रवर्णः. अग्नयेछागस्य वपाया मेदसोऽनुब्रूहीति,

छागप्रकाशनसमर्थो मन्त्रवर्णः समाम्नायते। यदि छागो नोपादेयः,

ततस्तत्प्रकाशनसमर्थस्योपादानम् अनर्थवत्। तेनावगम्यते, छागम् अधिकृत्योत्सर्गं

विदधातीति। मान्त्रवर्णिको द्रव्यनियमविधिर्इति।

वा शब्द से पूर्वपक्ष की व्यावृत्ति करते हैं कि ऐसा नहीं है। त्याग करने योग्यपशु का

नियामक मन्त्रवर्ण है अग्नये छागस्य वपायामेदसोऽनुब्रूहि यह छाग के प्रकाशन में समर्थ

मन्त्रपठित है। यदि छाग उपादेय न हो तो उसके प्रकाशन में समर्थ मन्त्र का उपादान

निरर्थक होगा। इससे यह जाना जाता है कि छाग को उद्देश्य करके ही उत्सर्ग का विधान

है। प्रदेयद्रव्य का नियामक मन्त्रवर्ण है।

रूपाल्लिङ्गाच्च (६,८.३७)

नन्व् अश्वम् उपाददाना नैव मन्त्रवर्णम् अपहास्यामः. स एवाश्वश् छागो भविष्यति.

यश् छिन्नगमनोऽश्वः, स छागः, छिदेर्गमेश्चच्छागशब्दः प्रसिद्धः।

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अग्निषोम में अश्व का ग्रहण करते हुए भी हम मन्त्रवर्ण का त्याग नहीं करेंगे, वह अश्व ही

छागशब्द से वाच्य होता है, छिन्नगमन है जिसका वह छाग है, छिद् और गम् धातु से छाग

शब्द प्रसिद्ध है।

इसका वारण करते हैं-

विकारो नोत्पत्तिकत्वात् (६,८.४०)

इहाश्वादीनां विकारश् छागशब्दः. किंचिद् अत्राश्वादीनाम् उच्चार्यते, किंचिद् अन्यद् एव.

तस्मादश्वोऽपि छाग इति. न, उत्पत्तिकत्वात् औत्पत्तिको हि नामिनाम्नोः संबन्ध इत्य्

उक्तम् नाख्याविकारः संभवतीति। तस्मान् नाश्वश्छागः. अतश्छागएवोपादात्वय इति।

अश्वादि का विकार ही छाग शब्द है इसपर कहते हैं कि औत्पत्तिक होने से संज्ञा-संज्ञी का

सम्बन्ध नित्य है यह पूर्व में कहा जा चुका है,इससे आख्या(छाग शब्द का) का विकार(

अश्वादि अर्थ) होना सम्भव नहीं है। इस कारण छाग ही उपादेय है।

इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि छाग ही अग्निषोम में ग्राह्य है अन्य अन्न,पिष्टपशु इत्यादि

नहीं। कात्यायनश्रौतसूत्र में भी छागं मन्त्राम्नानात् (६.३.१८) यह सूत्र पठित है अर्थात

मन्त्र में आम्नात होने के कारण छाग ही यज्ञीयपशु के रूप में विहित है। इस प्रकरण से

ज्योतिष्टोमादिकृत्येषु तन्मन्त्रोच्चारणेन वै ।

पशुप्राणान् हरेद्विप्रो न बन्धनविधेः क्वचित् ॥

यो मन्त्रसिध्या यज्ञेषु पशुप्राणाग्निहन्ति वै ।

स तु प्रत्यक्षपशुना कुर्याद्यज्ञं सुशोभनम् ।।

मन्त्रसिद्धिविहीनानाँ प्राकृतानां द्विजन्मनाम् ।

पिष्टाकारेण छागेन ज्योतिष्टोमादिकं विधिः ॥

यह उद्धृतस्मृतिवचन भी बाधित हो जाता है। श्रीपतिपण्डिताचार्य ने श्रीकरभाष्य में यह

वचन शातातपस्मृति के नाम से उद्धृत किया है किन्तु उक्तस्मृति प्रायश्चितविषयक है

पशुयज्ञविषयक नहीं, इस कारण उपलब्धस्मृति में यह वचन प्राप्त नहीं होता। यदि इसका

अस्तित्व स्वीकार भी करें तब भी स्वरुमवगुह्याऽसिं प्रयच्छन्नाहैषा ते

प्रज्ञाताऽश्रिरस्त्विति (६.४.१९) इत्यादि असिप्रदानविधि एवं तस्मिन्नेनं निघ्नन्ति

प्रत्यक्शिरसमुदक्पादम् (६.५.१५) सङ्गृह्य मुखं तमयन्त्यवाश्यमानम् (६.५.१६) इत्यादि

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मुखसंग्रहविधि का विरोध उपरोक्तवचन से है। स्मृति भी श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठाता शिष्टस्मरण

के ही कारण प्रमाण हैं, शिष्टों की यज्ञीयप्रक्रिया में ऐसा व्यवहार दृष्ट भी नहीं होता।

(१५) मनुस्मृतिवचन अभिप्रेतार्थ का साधक नहीं

कुर्याद् घृतपशुं सङ्गे कुर्यात् पिष्टपशुं तथा ।

न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत् कदाचन ॥ (मनुस्मृति ५.३७)

इस वचन के आधार पर एवं महाभारत के भी समानार्थक वचनों के आधार पर भी कुछ

वैदिकयज्ञों में पिष्टपशु का विधान है ऐसा कहते हैं।

किन्तु मनुस्मृति का उक्तवचन हमारे ही पक्ष का समर्थक है उपरोक्त वचन वेदभिन्न यज्ञों में

पिष्टपशु का विधान करता है अतः मनु के मत में भी वैदिकयज्ञों में पिष्टपशुप्रयोग सम्भव

नहीं। संग शब्द भी यज्ञों का द्योतक नहीं है।

मेधातिथिभाष्य- सीतायज्ञखण्डियज्ञचण्डिकायागादिषु समाचारप्रमाणेषु, पशुवयः

फलकामस्य न्याय्यः, दृष्टा हिपशुवधोपयाचितकेनातिशयवती सस्यसम्पत्तिरिति

तन्निषेधार्थमाह । सङ्गे प्रस्तावात्पशुवधप्रसंगे घृतपशु कुर्यात् घृतपशुमेव कुर्यात्।

पशुना यष्टव्ये तत्स्थाने घृतेन यजेत देवताः । तद्धि सामान्येन यागद्रव्यम् । अथवा

पिष्टपशु पिष्टमयपशु प्रतिकृति कृत्वा देवताभ्यउपहरेत्, पिष्टन वा पुरोडाशादि कृत्वा ।

“कथमयं वृथा पशुवधः उच्यते । हिंसायां समाचारः प्रमाणम्” ।

ननुस्त्रीशूद्रजनानामवैद्यत्वान्नात्र वेदमूलता शक्या कल्पयितुम् । देवताराधनार्थ तदासे

तदाचरन्ति । न च देवताराधनार्थानि वैदिकानिकर्माणि, गुणत्वेन देवताश्रुतेः ।

अन्वयव्यतिरेकमूलतां चात्रेच्छन्ति, दृश्यते पशुवधोपयाचितकेन फलसम्पत्तिरिति

मन्यमानाः । अतो नवेदमूलता। अन्वयव्यतिरेकावपि भ्रान्तिमात्रम् । असकृद्वाभिचारात्

। अतोऽयं श्लोको न्यायप्राप्तार्थानुवाद एव सौहार्दादाचार्येणपठितः।

अर्थात-यदि कोई ऐसा विचार करे कि “सीतायज्ञ,खण्डियज्ञ,चण्डीयाग इत्यादि लोकाचार

पर आधारितकृत्यों में फलेच्छुकव्यक्ति को पशुवध करना चाहिए क्योंकि लोक में देखा

जाता है कि इस प्रकार के यज्ञों में पशुवध करने पर अच्छी फसल उत्पादित होती है। तो

इसके निषेध में मनुशास्त्र कहता है कि “सीताखण्डिचण्डीयाग के प्रसंग में पशुवध प्राप्त

होने पर घृतपशु का निर्माण करें अथवा तो पशु के स्थान पर घृत से ही देवताओं का यजन

करे। वह भी यागीयद्रव्य ही है। अथवा पशु के आकार की आटे की आकृति बनाकर

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देवताओं को प्रदान करें अथवा पुरोड़ाश द्वारा ही आहुति प्रदान करें। “इन यज्ञों में किए

जाने वाले वध को किस प्रकार से वृथापशुवध कहा जाता है? पशुवध में तो लोकाचार

प्रमाण है” तो इसका उत्तर है कि क्योंकि स्त्रीशूद्र वेदज्ञानरहित हैं अतः उनके इस आचार

में वेदमूलता की कल्पना नहीं की जा सकती, वे तो देवता की आराधना के लिए ही

उपरोक्त यागों को करते हैं किन्तु वैदिककर्मों में देवताराधान रूपी क्रिया नहीं होती क्योंकि

यागदेवता अंगरूप में विहित हैं। वे लोकाचार के अनुष्ठेता भी इन यज्ञों के समर्थन में

किसी वेदमूलता का प्रमाण नहीं कहते अपितु “अमुक ने पशुप्रदान किया अतः उसे उत्तम

फसल की प्राप्ति हुई” इत्यादि अन्वय-व्यतिरेक ही प्रदर्शित करते हैं। अतः इन यज्ञों की

वेदमूलता की कल्पना नहीं की जा सकती। अन्वय-व्यतिरेक भी सर्वत्र अव्यभिचरित न

होने के कारण भ्रममात्र है।

मित्रमिश्रकृत वीरमित्रोदय एवं लक्ष्मीधरकृत कृत्यकल्पतरु में भी इस प्रकार की ही

व्याख्या उपलब्ध है-

यत्र तु अविहिताऽपि हिंसा सीतायज्ञादावाचारतः प्रसक्ता तत्र सङ्गे

लोकाचारप्राप्तसीतायज्ञादौ पशुवधसम्प्रयोगे घृतं पिष्टंवा पशुंकुर्यादित्यर्थ इति

कल्पतरुः । सङ्गे आसक्तौ यदि मांसभक्षणेच्छा तदा घृतमयीं पिष्टमयीं वा

पशुमतिकृर्ति कृत्वाऽपि भक्षयेन्न तुवृथा मांसं भक्षयेदित्यर्थ इति कुल्लूकभट्टः ।

मेधातिथिस्तु सङ्गे पशुवधप्रसङ्गे तेन चण्डिकायागादौ

पशुवधोपयाचितेनसस्यसम्पत्तिदर्शनादाचारात्पशुवधोपस्थितौ तन्निवृत्त्यर्थ पशुस्थाने

घृतं पिष्टं वा पशुं कुर्यान्न तु पशुहिंसामिति कल्पतरु- संवादिनमर्थमाह । केचित्तु-

सङ्गशब्दस्य यज्ञवचनत्वम् । तथाच अग्नीषोमीयादौ पशुना सह विकल्पितः

पिष्टमयः पशुरित्याहुः । तन्न । सङ्गशब्दस्य यागवचनत्वे मानाभावात् । किञ्च

उत्पत्तिशिष्टश्रौतपश्ववरोधेन द्रव्यान्तरस्य स्मृत्या विधातुमशक्यत्वात् । तस्मादुक्तैव

व्याख्या साध्वीयसी ।

जहां वेद द्वारा अविहित हिंसा सीतायज्ञ इत्यादि में आचार के कारण प्राप्त है वहाँ भी

सङ्गे अर्थात् सीतायज्ञादि के अवसर पर पशुवधप्रयोग के समय घृत अथवा पिष्टपशु का

निर्माण करें यह कल्पतरुकार का कहना है। कुल्लूकभट्ट ने तो सङ्गे अर्थात्

आसक्तिप्राप्त होने पर यदि मांसभक्षण की इच्छा हो तो वृथा मांसभक्षण न कर घृतमय

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अथवा पिष्टमयपशु का निर्माण करे यह कहा है (विचारणीय है कि मांसभक्षण की इच्छा

घृतपशुनिर्माण से कैसे शान्त होगी,अतः पूर्वोक्तपक्ष ही उचित है)। इसके पश्चात मेधातिथि

के पूर्वोक्तपक्ष का वर्णन कर कृत्यकल्पतरुकार के पक्ष से समानता प्रदर्शित करते हैं।

वीरमित्रोदयकार पिष्टपशु का खण्डन करते हैं कि-

कुछ व्यक्ति “सङ्गशब्द यज्ञपरक है अतः अग्निषोमीय पशुओं के विकल्प के रूप में

पिष्टपशुविहित है” यह कहते हैं किन्तु यह पक्ष उचित नहीं है सङ्गशब्द के यागशब्द का

वाचक होने में प्रमाण का अभाव है। साथ ही उत्पत्तिविधिवाक्यविहित श्रौतपशु का बाध

करके किसी पिष्टपशु इत्यादि द्रव्यान्तर का विधान स्मृतिशास्त्र द्वारा सम्भव नहीं है।

उपरोक्त प्रकरण में वीरमित्रोदयकार द्वारा स्मृतिशास्त्र भी श्रौतपशु का विकल्प प्रस्तुत

नहीं कर सकता यह सिद्धान्त दिया है किन्तु आधुनिक तो स्मृति से भी अवर कोटि के

पुराणतन्त्रादिद्वारा वैदिकविधान का विकल्प प्रस्तुत करने की कुचेष्टा करते हैं। यहाँ पर

एक विषय ध्यातव्य है कि पशुवध श्रुत्युक्त है ही, सीतायज्ञादि के अनुष्ठाता भी चातुर्वर्ण्य

के व्यक्ति ही हैं तब भी उक्त यज्ञों में पशुवध न हो यह निर्णय महर्षियों ने दिया है, यह

जीवों के प्रति करुणादृष्टि ही है कि जिन कृत्यों में पशुओं की सद्गति तनिक भी शंकायुक्त

हो उन यज्ञों में पशु का विकल्प आचार्यों द्वारा प्रस्तुत किया गया है एवं वैदिकयज्ञों में पशु

की सद्गति सुनिश्चित होने के कारण ही वहाँ पशु का ही विधान किया गया है। जिस प्रकार

से गुरुकुलवास के लिए बालक के गृहत्याग करने पर माता को कष्ट होता ही है किन्तु

बालक के उत्कर्ष के लिए वह अत्यावश्यक है। उस प्रकार ही मशकेत्यादि जीवों के प्रति

भी करुणा से भरे शिष्टों को भले ही यज्ञीयपशु के प्रति भी करुणा उपस्थित हो तब भी

पशुयोनि से उसकी सद्गति के लिए ,श्रुतिबल से उसका आलभन उनके द्वारा परम्परया

अनुष्ठित है।

(१५) शांख्यायनगृह्यसूत्र श्रौतविधिपरक नहीं

शांख्यायनगृह्यसूत्र चतुर्थाध्याय एकोनविंशतिकण्डिका कर्कन्धुपर्णानि मिथुनानां च

यथोपपादं पिष्टस्य कृत्वा (४.१९.२) इत्यादि में पिष्टपशु का उल्लेख है ऐसा कुछ कहते हैं,

स्मार्त्तचैत्रीकर्म में वह उल्लेख हो तो हमें इष्ट ही है। यदि उसके आधार पर श्रौतपशु का

अपलाप करना चाहो तो उल्लेखमात्र होने से क्या सिद्ध होता है, विषय का विहितत्व होना

चाहिए।

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क्या श्रौतयागों में यह विहित है? नहीं। चैत्रपूर्णिमा को किए जाने वाले कर्मविशेष में ही वह

आपके मतानुसार प्राप्त है। गृह्यसूत्र का उक्तप्रकरण किसी श्रौतयज्ञ का व्याख्यान तो

करता नहीं है, गृह्यसूत्र स्मार्त्तकर्मों में ही विनियुज्य हैं यह सर्वस्वीकृतविषय है, गृह्योक्त

विधियों का अतिदेश श्रौतकर्मों में होना सम्भव भी नहीं है। गृह्यसूत्र शाखाविशेष के

अनुयायियों के लिए ही पालनीय हैं, कल्पसूत्राधिकरणन्याय में प्रतिपादित श्रौतकर्मों के

सदृश यहाँ पर सभी शाखाओं की विधियों का उपसंहार नहीं होता है, अपितु

सन्ध्यातर्पणवैश्वदेव इत्यादि प्रत्येककर्म की स्वशाखोक्तविधि ग्रहण की जाती है।

स्वगृह्यचोदितं कर्म द्विजः कुर्वन् कृती भवेत् ।

अन्यथा पतितो भूयात् सर्वधर्मबहिष्कृतः ॥ (बृहन्नारदीयपुराण १.२४.१०)

यः स्वसूत्रमतिक्रम्य परसूत्रेण वर्तते ।

अप्रमाणमृषिं कृत्वा सोऽप्यधर्मेण युज्यते ॥ (विष्णुधर्मोत्तरपुराण २.१२७.४८)

यहाँ तक कि समान गृह्यसूत्र में प्रतिपादित अन्यगृह्यकर्मों में जहां पश्वालभनविहित है उनमें

भी गृह्यसूत्र के उक्तवचन का अतिदेश सम्भव नहीं है। अतः चैत्रीकर्म विधि से भी

पिष्टपशुसिद्धिशक्य नहीं है।

(१६) वरुणप्रघास का अतिदेशाभाव

चातुर्मास्ययागान्तर्गत चारपर्व हैं (१) वैश्वदेव (२) वरुणप्रघास (३) साकमेध (४)

शुनासिरीय। वरुणप्रघास के विषय में प्रकरणवाक्य पठित है अथैता अनृतपशू अनृताद्वै

ताः प्रजा वरुणोऽगृह्णाद्यदेता अनृतपशू अनृतादेवैना वरुणान्मुञ्चति (काठकसंहिता

३६.६) (मैत्रायणीसंहिता १.१०.१२) प्रकरणपठित “अनृतपशू” शब्द से अनेक व्यक्ति

पिष्टपशु का आग्रह करते हैं। ठीक है यदि स्वीकार भी कर लेते हैं कि उपरोक्तप्रकरण में

पिष्टपशु का विधान है तो भी वरुणप्रघास में ही वह मान्य होगा,अन्य यागों में नहीं। जिस

प्रकार से “प्रकृतिवत् विकृतिः कर्तव्या” इस अतिदेशवाक्य से प्रकृतियागों के समान

विकृतियाग करणीय होते हैं,यथा आग्नेययाग के समान सौरयाग तादृश वरुणप्रघास का

अतिदेश किसी वचन से प्राप्त नहीं होता है।

वास्तव में वरुणप्रघास में मेष एवं मेषी प्रत्यक्षपशु का विकल्प नहीं हैं,वे आलभन के लिए

नहीं बनाए जाते अपितु अन्य कारणों से बनाए जाते हैं वह कारण क्या है इसे ब्राह्मणवाक्य

ही बताता है-

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तत्रापि मेषं च मेषीं च कुर्वन्ति । तयोर्मेषे च मेष्यां च यद्यनैडकीरूर्णा विन्देत्ताः प्रणिज्य

निश्लेषयेद्यद्यु अनैडकीर्न विन्देदथो अपिकुशोर्णा एव स्युः । (शतपथ २.५.२.१५)

यज्ञ के पूर्वदिवस पर मेष एवं मेषी का निर्माण करते हैं,यदि एड़क के अतिरिक्त किसी अन्य

भेड़ की ऊन मिले तो उसे मेष एवं मेषी की प्रतिकृति पर चिपका दें। एवं यदि अन्यों की

ऊन न उपलब्ध न हो तो कुशों के अग्र भाग को ही मेष एवं मेषी पर लगा दें।

तद्यन्मेषश्च मेषी च भवतः । एष वै प्रत्यक्षं वरुणस्य पशुर्यन्मेषस्तत्प्रत्यक्षं

वरुणपाशात्प्रजाः प्रमुञ्चति यवमयौ भवतो यवान्हिजक्षुषीर्वरुणोऽगृह्णान्मिथुनौ भवतो

मिथुनादेवैतद्वरुणपाशात्प्रजाः प्रमुञ्चति ।( २.५.२.१६)

मेष-मेषीनिर्माण का कारण बताते हैं- यह जो मेष है वह प्रत्यक्ष ही वरुण का पशु है। मेष

एवं मेषी का निर्माण कर प्रत्यक्ष ही प्रजा को वरुण के पाश से मुक्त करता है। इन्हें यव

(जौ) का इसलिए बनाया जाता है क्योंकि जौ खाते हुए ही वरुण ने इनका ग्रहण किया

था,युगल का निर्माण इसलिए करते हैं क्योंकि युगल से ही प्रजा वरुण के पाश से मुक्त

होती है।

स उत्तरस्यामेव पयस्यायां मेषीमवदधाति । दक्षिणस्यां मेषमेवमिव हि मिथुनं

कॢप्तमुत्तरतो हि स्त्री पुमांसमुपशेते । (२.५.२.१७)

उत्तरी पयस्या पर मेषी को रखता है एवं दक्षिण पयस्या पर मेष को। इस प्रकार ही ठीक

मिथुन मिलता है। स्त्री भी पुरुष के उत्तर में ही शयन करती है।

कात्यायनश्रौतसूत्र मेषमिथुनं च (५.३.६), अनैडकीरूर्णाः प्रक्षाल्याऽऽश्लेषयेत्तयोः

(५.३.७) कुशोर्णा वाऽभावे (५.३.८) में भी यही ब्राह्मणोक्त विधान प्रदर्शित किया गया

है। पूर्वोक्त प्रकार से मारुतीपयस्या में मेष की प्रतिकृति को स्थापित किया जाता है एवं

वारुणीपयस्या में मेषी की किन्तु पयस्या के अनुष्ठान का समय आने पर इन दोनों का

स्थानान्तरण किया जाता है। अंत में जुह्वा एवं स्रुवा पर मेष एवं मेषी का अवदान किया

जाता है। उपरोक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि वे किसी पशु का विकल्प नहीं है एवं न ही

आलभनीय पशु हैं अपितु वरुण के पशु होने के कारण उनकी प्रतिकृति का विधान

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है । इस कारण ही न ही उन्हें मंत्रों से संस्कृत किया जाता है,न ही यूप इत्यादि पर बांधा

जाता है।

कलिवर्ज्यादि व्यवस्था

ननु वृत्तपिष्टादौ पशुत्वाभावात् कथं तत्र पशुशब्दप्रयोगः कथं वा तदनुष्ठानेन

पशुमालभेतेति शास्त्रार्थसिद्धिः स्यादिति चेन्मैवम् ।तमेतमभिषिंचनीये पुरुषं पशुमालेभे

इत्यादौ पुरुषे साक्षान्मन्त्रद्रष्टरि शुनः शेपेपि पशुशब्दप्रयोगात् । न हि तथाविधे

गौण्यपिपशुशब्दो युक्तः । न च तथापि यज्ञसाधनीभूतप्राणिद्रव्यत्वं

तत्राप्यस्त्येवेत्युपपद्यते कथांचित्तत्र प्रयोगो न तु घृतपिष्टादिवदितिवाच्यम् ।

मेषत्वमेषीत्वादिजात्यभाववत्यपि चातुर्मास्ये पिष्टप्रतिकृतौ मेषमध्वर्युः करोति मेषीं

प्रतिप्रस्थातेत्यादौ मेषमेषशिब्दयोःप्रयोगस्य लोकवेदसंमतत्वात् । यदि च तत्र

संस्थानविशेषमादाय तथाविध- प्रयोगः । सममेतत्प्रकृतेऽपि पिष्टादिनापि

छागाद्याकारनिर्मातुं शक्यत्वात् घृतस्यापि घनीभूतस्य पश्वाकृतिसंपादकत्वं युज्यते एव

पिष्ट में पशुत्व का अभाव है,अतः पिष्ट में पशुशब्दप्रयोग नहीं बन सकता एवं उसके द्वारा

“पशुमालभेत” इस विधिवाक्य की सिद्धि भी नहीं हो सकती। इसके उत्तर में नारायणभट्ट ने

कहा है कि ‘पुरुषं पशुमालभेत’ श्रुति में पुरुष को पशु शब्द से कहा गया है। यदि हम कहें

कि “यज्ञसाधनीभूतप्राणिद्रव्यत्व” तो पुरुष में है ही इस कारण उसे पशु कहा गया है तो

उसके उत्तर में कहते हैं कि चातुर्मास्यपर्व के अवसर पर जो पिष्ट के मेष एवं मेषी की

प्रतिकृति बनाई जाती है उनमें मेष एवं मेषी प्रयोग सर्वसम्मत है। यदि कहो कि संस्थाविशेष

(वरुणप्रघास) का आश्रय लेकर ही वह शब्दप्रयोग है तो प्रकृतस्थल में भी पिष्ट के भी छाग

इत्यादि का निर्माण कर घृत के घनीभूत होने पर भी पशु का निर्माण संभव होने पर यहाँ भी

पशुशब्द प्रयोग संभव है। जैसा कि मनुस्मृति में कुर्यातघृतपशु इत्यादि से कहा गया है।

यहाँ पर कहा जाता है कि यवनिर्मित मेष-मेषी प्रसंग में श्रुति उन्हें स्वयं अनृतपशू

अनृतादेवैना वरुणान्मुञ्चति (काठकसंहिता ३६.६) अनृतपशु कहती है अर्थात उनमें

वास्तविकपशुत्व का अभाव है। संस्थाविशेष के आधार पर श्रुतिबालात् उनमें पशुशब्द प्रयोग

समुचित ही है किन्तु प्रकरणाविहित पिष्ट इत्यादि द्वारा निर्मित पशुओं में पशु शब्दप्रयोग कैसे

उपपन्न होगा? क्या आखेटकाल में काष्ठमयमृग एवं वास्तविकमृग के मध्य “मृगत्व” में

शंका उपपन्न हो सकती है? क्या यात्राकाल में काष्ठमयहस्ती एवं वास्तविक हाथी में कौन

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उपयोगी है यह शंका संभव है? ठीक उस प्रकार ही श्रुतयुक्त आलभनकाल में

पशुत्वसिद्धि पिष्टपशु में कथमपि सम्भव नहीं, न ही श्रुति में कहीं ज्योतिष्टोमादि में पिष्ट

एवं आज्य के छाग बनाने का प्रसंग प्राप्त होता है। मनुस्मृति के वचन की चर्चा पूर्व में कर

आए हैं। “अग्निषोमीयं पशुमालभेत” में विधिवाक्यविहितसंज्ञपनयोग्यपशु ही पशु शब्द

से वाच्य है एवं चातुर्मास्य इत्यादि में तद्तदकर्मविहितसंस्कारयोग्यपशु,पिष्टपशु में

संस्कार अवश्य बन सकता हो किन्तु विधिवाक्यनिर्दिष्ट संज्ञपन वहाँ नहीं बन सकता।

नारायण भट्ट ने आगे चलकर कहा है कि “ननु कथं हृदयस्याग्रेऽवद्यत् अथ जिह्वाया

अथ वक्षस इत्यादिशास्त्रानुष्ठानं, नहि तत्रहृदयजिह्वावयवविशेषोऽवगन्तुं शक्यत इति

चेन्न । प्रतिकृतिविशेषनिर्माणप्रवीणैस्तत्तदंगेषु तथाविधजिह्वादिकमपि हि

निर्मातुंशक्यम्। अर्थात हृदय का पहले अवदान करता है तत्पश्चात जिह्वा का तत्पश्चात

वक्ष का इत्यादि शास्त्रानुष्ठान पिष्टपशु में सम्भव नहीं है ऐसी शंका नहीं कर सकते

क्योंकि प्रतिकृतिनिर्माण में कुशल व्यक्ति उन उन अंगों में वैसी जिह्वा इत्यादि का निर्माण

भी कर सकते हैं। इस उपरोक्त चर्चा का खण्डन शबरस्वामी के वाक्य तथाप्य्

अस्योत्सादनप्रदेशं प्रति मुह्येयुः” से हो जाता है कि यदि मांस इत्यादि से हृदय का

निर्माण कर भी दें तब भी पशु के शरीर में हृदय का उत्सादन कहाँ से करना है ऐसा

व्यक्तियों को ज्ञात नहीं रहेगा। वस्तुतः नारायणभट्ट को पिष्टपशुप्रयोग सन्दर्भ में कोई श्रुति

नहीं प्राप्त हुई इस कारण ही तो वे आगे चलकर पुराण,स्मृतियों का प्रामाण्य सिद्ध करते

हैं,इस समर्थन में वे अत्यन्त आश्चर्यजनक वक्तव्य दे देते हैं कि “इत्यादिना भाष्यं

सोल्लुठमुन्मृद्यशाक्यादिस्मृतीनामेव श्रुतिविरोधादप्रामाण्यमिति, स्थापितमिति

संक्षेपः” अर्थात शाक्यादिस्मृतियों का ही श्रुतिविरोध होने पर अप्रामाण्य होता है। जिस

प्रकार “रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत्” वाक्य से दिवाश्राद्ध करना चाहिए यह ज्ञान होता है उस

प्रकार ही वेदों के अविरुद्ध रहने पर शाक्यादि स्मृतियों का प्रामाण्य होगा यह द्योतित होता

है किन्तु ऐसा नहीं है, शाक्यादि स्मृतियाँ चतुर्दशविद्यास्थानों में मान्य ही नहीं है तो उनके

प्रामाण्य का प्रसंग ही उत्पन्न नहीं होता, वेदमूलक जो मन्वादिस्मृतियाँ हैं उनके ही

प्रामाण्य की चर्चा उक्त स्थल पर है। वास्तव में यदि श्रौतयज्ञों में पिष्टपशु का विकल्प भी

शास्त्रनिर्दिष्ट होता तब भी वह दोषयुक्त होता क्योंकि प्रत्यक्षपशु की उपलब्धता प्रचूर है

एवं पशुप्रयोग द्वारा विधि में वैगुण्य की संभावना भी नहीं।

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प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते ।

न साम्परायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् ॥ (मनुस्मृति ११.३०)

जो व्यक्ति प्रथमकल्प का पालन करने में सक्षम होकर भी अनुकल्प का आश्रय ग्रहण

कार्य है। वह दुर्मति कोई पारलौकिक फल प्राप्त नहीं करता। वेद में अश्रद्धा का उदाहरण

ही यह है कि पिष्टपशु के समर्थन में ‘प्रतिकृतिनिर्माण में कुशल व्यक्ति उन उन अंगों में वैसी

जिह्वा इत्यादि का निर्माण भी कर सकते हैं’ इत्यादि अविहित एवं अप्रायोगिक समाधान

दिये जाते हैं किन्तु सरलता से उपलब्ध, वैगुण्यरहित श्रुत्युक्त पशु का ग्रहण नहीं किया

जाता।

कुछ कहते हैं कि हम मुख्यपशु का अपलाप नहीं करते किन्तु कलिवर्ज्यप्रकरण के बल पर

उसके स्थान पर पिष्टपशु का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। किन्तु कलिवर्ज्यप्रकरण का कोई

भी वाक्य कलियुग में पिष्टपशु का विधान करता हो अथवा मुख्यपशुयज्ञ का निषेध करता

हो ऐसा नहीं है।

अश्वालम्भं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम् ।

देवराच्च सुतोत्पत्तिं कलौ पञ्च विवर्जयेत्॥ इत्यादि वाक्यों के आधार पर यदि पशुवध

को निषिद्ध कहो तो यह पक्ष सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि “पंच” संख्या द्वारा अश्वमेध एवं

गोमेध ही उसमें परिगणित हैं, ज्योतिष्टोमादि नित्य याग नहीं। कहो कि “अग्निहोत्रं

गवालम्भं” ऐसा पाठ भी मिलता है तो प्रथम पक्ष में तो यह वाक्य सर्वाधान का ही निषेध

करता है अर्धाधान का नहीं इस पक्ष में ही

अर्धाधानं स्मृतं श्रौतस्मार्त्ताग्न्योस्तु पृथक्कृतिः ।

सर्वाधानं तयोरैक्यकृतिः पूर्वयुगाश्रया ॥ (लौगाक्षि)

यावद्वर्णविभागोऽस्ति यावद्वेदः प्रवर्तते ।

अग्निहोत्रं च सन्न्यासं तावत्कुर्यात्कलौ युगे ॥ (देवल) इत्यादि स्मृतिवचनों की संगति

भी लग जाती है। वस्तुतः कलिवर्ज्य को कुछ आचार्यगण पर्युदास मानते हैं एवं अन्य

प्रतिषेध ही,किसी भी पक्ष में पशुसंज्ञपन कलियुग में निषिद्ध हो यह प्राप्त नहीं होता।

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(१७) पिष्टपशु सूत्रब्राह्मणविरुद्ध

तस्मात् पूषा प्रपिष्टभागोऽदन्तको हि तं (तैत्तिरीय २.६.८.५) के अनुसार पूषा पिष्ट

(पीसे हुए) भाग वाला है इस सम्बन्ध में चरुनिवेशाधिकरण में विचार किया गया है कि

विकृतियागों में पूषणदेवता के निमित्त मात्र चरू का पेषण किया जाए अथवा चरु,पशु एवं

पुरोडाश तीनों का। इस प्रकार की आपत्ति प्राप्त होने पर पूर्वपक्षी कहता है कि तीनों का

ही पेषण करना चाहिए क्योंकि श्रुतिवाक्य में कोई विशेषहवि श्रुत नहीं है। ऐसा पूर्वपक्ष

प्राप्त होने पर उत्तर में कहा जाता है-

चरौवार्थोक्तं पुरोडाशेऽर्थविप्रतिषेधात् पशौ न स्यात् (मीमांसा ३.३.३६)

अर्थात चरू का ही पेषण वाक्य द्वारा प्राप्त है,पुरोडाश तो यवादि के पेषण के पश्चात ही

निष्पन्न होता है तो वह अर्थतः प्राप्त है ही। एवं पशु का पेषण तो सम्भव नहीं है। पशु का

पेषण क्यों सम्भव नहीं है इस उत्तर में कहते हैं-

पशौ च न स्यात्, हृदयादिषु पिष्यमाणेषु तेषाम् आकारविनाशः स्यात्. तत्र को दोषः?

हृदयस्याग्रे ऽवद्यतीति न हृदयाद् अवदायिष्यते, तथान्यद् अप्य् अवदानं न यथाश्रुताद्

अवदास्यते।

ननु शक्यते पिष्टेभ्योऽपि हृदयादिभ्योऽवदातुम्. नेति ब्रूमः, आकारा हृदयादयः, न

मांसानि, उक्तम् एतद् आकृतिः शब्दार्थ इति (शबरभाष्य ३.३.३६)

पशु का पेषणकर्म नहीं बन सकता क्योंकि यदि हृदय इत्यादि का पेषण किया जाए तो

उनके आकार का विनाश हो जाएगा, प्रश्न उठ सकता है कि आकार विनाश में क्या दोष

है? तो उत्तर है कि हृदयस्याग्रेऽवद्यत् (तैत्तिरीयसंहिता ६.३.१०.४) इस श्रुतिवाक्यानुसार

सर्वप्रथम व्यक्ति पशु के हृदय का अवदान करता है,इस प्रकार से न ही हृदय का अवदान

हो सकेगा और न ही अन्य अंगों का। यदि कहें कि पेषण किए हुए मांस से ही हृदय

इत्यादि दे देंगे? तो कहते हैं कि “आकारा हृदयादयः, न मांसानि” हृदय इत्यादि

आकारविशेष है,मात्र मांसपिण्ड वे नहीं हैं। यदि इसपर भी कोई कहे कि पीसे हुए मांस से

ही आहुति के लिए हृदय की आकृति के पिण्ड का निर्माण कर देंगे तो उसपर भी

शबरस्वामी उत्तर देते हैं कि “तथाप्य् अस्योत्सादनप्रदेशं प्रति मुह्येयुः” कि मान भी लें कि

ऐसा सम्भव है तब भी हृदय का उत्सादन कहाँ से करना है ऐसा व्यक्तियों को ज्ञात नहीं

रहेगा।

उपरोक्त प्रकरण से यह ज्ञात हुआ कि (१) उत्सादन प्रदेश का उपलब्ध न होना (२) हृदय

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इत्यादि के आकार का नाश होना यज्ञविधि का बाधक है पिष्टपशु में हृदयादि अंगों का

अभाव है,जिससे कि पिष्टपशु के शरीर से उसे पृथक किया जा सके,मांस के पिष्ट से भी

हृदय का निर्माण भी उत्सादनप्रदेश के अभाव में स्वीकार्य नहीं है ऐसी स्थिति में पिष्ट से

हृदय का निर्माण कल्पनायोग्य भी सिद्ध नहीं होता। इस कारण ही खण्डदेवाचार्य ने लिखा

है कि एवमपि मृद्गवयादौगवयादिशब्दवद्हृदयादिशब्दोऽपि तत्र गौण एव स्यात्

(कुतूहलवृत्ति ३.३.३६)। जिस प्रकार से मृद्गवय कहने पर गवय शब्द गौण है इस प्रकार

ही हृदयादि की आकृति बना लेने पर वह शब्द गौण ही है । हृदयस्याग्रेऽवद्यत् अथ

जिह्वाया (तैत्तिरीय ६.३.१०.४) प्रथम हृदय का अवदान करता है तत्पश्चात जिह्वा का

इत्यादि श्रुतिवाक्यों से पिष्टपशु का विकल्प अयोग्य सिद्ध होता है।

स नैमित्तिकः पशोर्गुणस्याचोदितत्वात् ॥ (मीमांसा ६.८.४१)

उपर्युक्त सूत्र में शबरस्वामी द्वारा “अव्यङ्गं पशुमालभेत” यह श्रुति उद्धृत की गई है

इसका समानार्थक वचन हमें कात्यायनश्रौतसूत्र पन्नदव्यङ्गम् (६.३.१९) में प्राप्त होता

है अर्थात पूर्णांग पशु का ही आलभन करें। पिष्टपशु में अंगों का अभाव होने से वह यज्ञ के

योग्य नहीं।

तत्प्रतिषिध्य प्रकृतिर्नियुज्यते सा चतुस्त्रिंशद्वाच्यत्वात् (मीमांसा ९,४.१८)

षड्विंशतिरस्य वङ्क्रयः(ऐतरेयब्राह्मण २.६),चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोवंङ्क्रीरश्वस्य

स्वधितिः समा।(ऋग्वेदसंहिता १.१६४.१८)

यह श्रुतियाँ शबरभाष्य इत्यादि में उद्धृत हैं। शतपथब्राह्मण में भी चतुस्त्रिंशद्वाजिनो

देवबन्धोरित्यु हैक एतां वङ्क्रीणां पुरस्ताद्दधति (१३.५.१.१८) उपरोक्त चर्चा उपलब्ध

है। उपरोक्तश्रुति में तूपर एवं गोमृग की २६ पसलियाँ एवं अश्व की ३४ पसलियाँ गिनाई

गई हैं। पिष्टपशु में उक्त संख्या वाली पसलियों का अभाव है इस कारण पिष्टपशु

सूत्रब्राह्मण के विरुद्ध सिद्ध होता है।

वनिष्ठुसन्निधानादुरूकेण वपाभिधानम् (९.४.२२)

वनिष्ठुमस्य मा राविष्टोरूकं मन्यमाना (ऐतरेयब्राह्मण ६.७, तैत्तिरीयब्राह्मण ३.६.६.३)

श्रुति में वर्णित है कि “उपरोक्त पशु के वनिष्ठु को उरुक समझकर मत काटो” यहाँ पर

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शंकाप्राप्त है कि उरूक का अर्थ र एवं ल में अभेद होने के कारण उलूक है अथवा वपा है

इसके उत्तर में कहा गया है कि वह वपा ही है। शबरभाष्य में कहा गया है कि न हि

वनिष्ठुर्न लवितव्य एव । वपोद्धरणकाले वपां मन्यमानैर्न लवितव्यः । अर्थात वनिष्ठु को

नहीं पृथक करना है यह तात्पर्य नहीं है अपितु वपापृथक करते समय वनिष्ठु को वपा

समझकर नहीं पृथक करना है। यज्ञीयप्रक्रियाओं में दो समीपस्थित अंगों का भी इतना

स्पष्ट विभाग वर्णित है कि एक को अन्य समझकर न काटा जाए,पिष्टपशु में तो यह

विभाग संभव ही नहीं।

शमिता च शब्दभेदात् (३,७.२८ ) सूत्र में

वैकर्तस्य क्लोमा च शमितुस्तद्ब्राह्मणाय दद्याद्य (ऐतरेय ३१.१) यह श्रुति उद्धृत है

उपरोक्त श्रुति के अनुसार गर्दन का अर्धभाग एवं हृदय का पार्श्वमांसखंड शमिता का भाग

है। उपरोक्त श्रुति में ही जबड़े एवं जिह्वा प्रस्तोता के भाग हैं,ओष्ठ गृहपति एवं पत्नी के भाग

हैं,स्कन्ध पर मण्याकारपिण्ड एवं पसलियाँ ग्रावस्तुत के भाग हैं। पिष्टपशु के हृदय,

ओष्ठ,जिह्वा,पसलियाँ इत्यादि के भाग का भिन्न भिन्न ऋत्विकों को प्रदान करना पिष्टपशु

में उपपन्न होना सम्भव नहीं । आगे चलकर श्रुति किसी भी अन्यप्रकार के विभाग का

निषेध करती है अथ येऽतोऽन्यथा तद्यथा सेलगा वा पापकृतो वा पशुं

विमथ्नीरंस्तादृक्तत्। (ऐतरेयब्राह्मण ३१.५) जो पूर्वोक्त विभागातिरिक्त किसी अन्य प्रकार

का विभाग करते हैं वे विहितकर्मों का अनुष्ठान न कर मात्र उदरपूर्ति करने वाले होते हैं

अथवा पापकर्म करने वाले होते हैं। प्रतिषिद्धकर्म करने वाले दो प्रकार हैं ,जिस प्रकार से

पशुओं का केवल मांसभक्षण के लिए वध करने वाले व्यक्ति हैं उस प्रकार ही यह

अन्यथाविभाग करने वाले हैं। उपरोक्तश्रुति से स्पष्ट है कि विहितपशु का भी

श्रुत्योक्तविधान का लेशमात्र भी अतिक्रमण कर पशुविभाग निषिद्ध है ऐसी स्थिति में

श्रुतिविरुद्ध पिष्टपशु की प्राप्ति ही असंभव है,विभाग का तो प्रश्न ही नहीं सार्थक होता।

निरुढ़पशुबंधनिरूपणावसर पर प्रधानयाग एवं स्विष्टकृतावदान के साधनों की चर्चा की गई

है हृदयं, जिह्वां, क्रोड, सव्यस‌न्थिपूर्वनडकं, पार्श्वे, यकृवृक्कौ, गुदमध्यं, दक्षिणा

श्रोणिरिति जौहवानि (कात्यायनश्रौतसूत्र ६.७.६) के अनुसार पशु का हृदय, जिह्वा, वक्ष

का भुजान्तर भाग, बायीं भुजा के अधोभाग में स्थित प्रथम नड़क ,वाम और दक्षिण दो

४९

पार्श्व, यकृत् और वृक, पक्वाशय और दक्षिण श्रोणि का भाग यह जुहु में प्रदान किए

जाने योग्य प्रधानयाग के साधनहोते हैं। पिष्टपशु में इस प्रकार के अंगों का विभाजन

सम्भव नहीं है एवं न ही कल्पना करने का कोई आधार उपलब्ध है।

अश्वमेधीय अश्व के अंगों के होम के प्रसंग में वपाममभिजुहोति(१३.२.११.३)

स्विष्टकृद्भ्यो लोहितं जुहोति(१३.३.४.२), अश्वशफेनद्वितीयमाहुति

जुहोति(१३.३.४.४)

उपर्युक्त ब्राह्मणवाक्यों में अश्व के खुर,नख,रक्त इत्यादि से आहुति की चर्चा है,पिष्टपशु में

उपरोक्त अंगों का अत्यन्ताभाव है।

रक्षसां भागोऽसि । निरस्तँ रक्षः । (शुक्लयजुर्वेद १६.६) का विनियोग

कात्यायनश्रौतसूत्र में प्राप्त है ‘लोहितेन रक्षसामिति’ (कात्यायन ६.६.८) के अनुसार

कुशमूल को द्विगुणित कर पशु के रक्त से अंजित किया जाता है।

‘इदमहमित्यभितिष्ठति यजमान इति’ (कात्यायन श्रौतसूत्र ६.६.१०) के अनुसार

इदमहँ रक्षोऽधमं तमो नयामि ।(शुक्लयजुर्वेद १६.६) मन्त्र द्वारा यजमान रक्तरंजित

कुश का पैरों से दमन करता है। पिष्टपशु से रक्तस्राव संभव नहीं।

पिष्टपशुग्रहण करने पर न वाऽ उऽएतन् म्रियसे न रिष्यसि देवाँ२ऽ इद् एषि पथिभिः

सुगेभिः। (शुक्लयजुर्वेद २३.१६), हिरण्यशरीरऊर्ध्वः स्वर्गं लोकमेष्यतीत्यथ

(ऐतरेयब्राह्मण २.३) इत्यादि यज्ञीयपशु के स्वर्गगमन का वर्णन करने वाली सैकड़ों

श्रुतियाँ निरवकाश रह जाती है, पिष्टपशु को लोकान्तरप्राप्ति संभव नहीं है, वेदवचनों में

अश्रद्धा के कारण विधिहीन यज्ञ करने वाले यजमान को भी स्वर्गप्राप्ति संभव नहीं है।

५०

प्रमाणाध्याय

उपरोक्त अध्याय में शास्त्रवर्णित पशुप्रयोग सम्बन्धी कुछ वचन वर्णित हैं-

इतिहासपुराणसन्दर्भ

(१) शिवार्थं सर्वदा कार्या पुष्पहिंसा द्विजोत्तमाः।

यज्ञार्थं पशुहिंसा च क्षत्रियैर्दुष्टशासनम्॥ (लिंगपुराण ७८.१४)

(२) मखार्थं ब्रह्मणा सृष्टाः पशु द्रुम मृगौषधीः ।।

निघ्नन्नहिंसको विप्रस्तासामपि शुभा गतिः ।।

पितृदेवक्रतुकृते मधुपर्कार्थमेव च ।।

तत्र हिंसाप्यहिंसा स्याद्धिंसान्यत्र सुदुस्तरा ।।(स्कन्दपुराण ४.१.४०.१९-२०)

(३) चिकित्सकश्च दुःखानि जनयन्हितमाप्नुयात्।

यज्ञार्थं पशुहिंसां च कुर्वन्नपि न लिप्यते।

एवमन्ये सुमनसो हिंसकाः स्वर्गमाप्नुयुः।। (महाभारत १३.२२७.५)

(४) वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थं वै तथौषधीः।

पशूंश्चैव तथा मेध्यान्यज्ञार्थानि हवींषि च।। (महाभारत १२.१२.२१)

(५) ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।।

यज्ञार्थं निधनं प्राप्ता प्राप्नुवन्त्युच्छ्रिताः पुनः ।।

मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि ।।

अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेति कदाचन ।।

एष्वर्थेषु पशून्हन्ति वदतत्त्वार्थविद्द्विजाः ।।

आत्मानं च पशूँश्चैव गमयन्त्युत्तमां गतिम् ।।

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः पूर्वमेव स्वयम्भुवा ।।

यज्ञाश्च भूतैः सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।। (विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३.२५२.३०)

(६) ओषधीनां पशूनाञ्च यज्ञ एव परायणम् ।।

सयूथ्यश्च सकुल्यश्च नाकपृष्ठे महीयते ।।

पशुस्तु प्रोक्षितो यज्ञे तथेवौषधयो द्विजाः ।।

यज्ञोपयुक्ता मोदन्ते त्रिदिवे नात्र संशयः ।। (विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३.२६२.५-६)

(७) तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति ।

श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यदि श्रुतिरियं तथा ॥

५१

यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति ।

यदस्य वारिजं किंचिदपस्तत् सम्प्रवेक्ष्यति ॥

सूर्य चक्षुर्दिशः श्रोत्रं प्राणोऽस्य दिवमेव च ।

आगमे वर्तमानस्य न मे दोषोऽस्ति कश्चन ॥(महाभारत १४.२८.८-१०)

(८) वृथापशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत्‌ ।

अनुग्रह: पशूनां हि संस्कारो विधिचोदितः ॥ (महाभारत १२.३५.२८)

(९) पितृदैवतयज्ञेषु प्रोक्षितं हविरुच्यते।

विधिना वेददृष्टेन तद्भुक्त्वेह न दुष्यति।।

यज्ञार्थे पशवः सृष्टा इत्यपि श्रूयते श्रुतिः।

अतोऽन्यथा प्रवृत्तानां राक्षसो विधिरुच्यते।। (महाभारत ,अनुशासनपर्व ११६.१४-१५)

(१०) हिंसा यज्ञेषु प्रत्यक्षा साहिंसा परिकीर्तिता ।

उपाधियोगतो हिंसा नान्यथेति विनिर्णयः ॥

यथा चेन्धनसंयोगादग्नौ धूमः प्रवर्तते ।

तद्वियोगात्तथा तस्मिन्निर्धूमत्वं विभाति वै ॥

अहिंसां च तथा विद्धि वेदोक्तां मुनिसत्तम । (देवीभागवतपुराण १.१८.५७.५८)

(११) तस्माद्‌गोवर्धनः शैलो भवद्भिविविधार्हणः ।

अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यं पशुं हत्वा विधानतः ॥ (ब्रह्मपुराण १८७.५१)

(१२) तस्माद् गोवर्द्धनः शैलो भवद्भिर्विविधार्हणैः ।

अर्च्च्यतां पूज्यतां मेध्यान् पशून् हत्वा विधानतः ।(विष्णुपुराण ५.१०.३८)

(१३) विशस्यन्तां च पशवो भोज्या ये महिषादयः ।

प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।। (हरिवंशपुराण २.१७.१५)

(१४) अथैकदा पितुः श्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत् ।

मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम्॥ (भागवत ९.९.६)

(१५) चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।

घ्नन्तं ततः पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः॥ (भागवत १०.६९.३५)

(१६) यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।

अतस्त्वां घातयाम्यद्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः॥ (कालिकापुराण ५५.१०)

५२

पद्म एवं विष्णुपुराण में मायामोकृत वेदनिंदाप्रसंग में मायामोह द्वारा असुरों के प्रति

पशुयज्ञनिंदापरकवचन कहे गए हैं-

(१७) तथा तथावदद्धर्मं तत्यजुस्ते यथायथा ।

केचिद्विनिंदां वेदानां देवानामपरे नृप ॥

यज्ञकर्मकलापस्य तथा चान्ये द्विजन्मनाम् ।

नैतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय जायते ॥

हवींष्यनलदग्धानि फलान्यर्हंति कोविदाः ।

निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते ॥

स्वपिता यजमानेन किं वा तत्र न हन्यते । (पद्मपुराण १.१३.३६४-६६७)

(१८) केचिद्विनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज।

यज्ञकर्मकलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम् ।।

नैतदूयुक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय नेष्यते ।

हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम ।।

यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रण भुज्यते ।

शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तदूरं पत्रभुक् पशु ।।

निहतस्य पशोर्यज्ञ स्वर्गप्रात्पिर्यदीष्यते ।

स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ।। (विष्णुपुराण ३.१८.२३-२६)

(१९) पतत्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः ।

ऋत्विक्परमसम्पन्नः श्रपयामास शास्त्रतः ॥

धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः ।

यथाकालं यथान्यायं निर्णुदन् पापमात्मनः ॥

हयस्य यानि चाङ्गानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः ।

अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ताः षोडशर्त्विजः ॥ (वाल्मीकिरामायण १.१४.३४-३६)

(२०) धौम्योऽब्रवीद्‌ भीमसेनं छिन्धि कं वाजिनोऽधुना ।

यथा तुष्येज्जगन्नाथः पुराणपुरुषोत्तमः ॥

वादित्रनादे महति प्रवर्तिते भीमोऽलुनात् तस्य हयस्य शीर्षम् ।

ऊर्ध्वं गतं तच्च शिरो न चाधः

सूर्ये प्रविष्टं किल वह्निरूपम् ॥

५३

शुद्धं ज्ञात्वा हृषीकेशस्तुतोदैनमुरःस्थले ।

बैल्वेन कण्ठकेनापि भिन्नः कृष्णेन पावनः ॥ (जैमिनीयमहाभारत,अश्वमेधपर्व ६४.२३-२५)

(२१) श्रपयित्वा पशूनन्यान्विधिवद्द्विजसत्तमाः।

तं तुरङ्गं यथाशास्त्रमालभन्त द्विजातयः।।

ततः संज्ञप्य तुरगं विधिवद्याजकर्षभाः।

उपसंवेशयांचक्रुस्ततस्तां द्रुपदात्मजाम्।

कलाभिस्तिसृभी राजन्यथाविधि मनस्विनीम्।।

उद्धृत्य तु वपां तस्य यथाशास्त्रं द्विजातयः।

श्रपयामासुरव्यग्रा विधिवद्भरतर्षभ।।

तं वपाधूमगन्धं तु धर्मराजः सहानुजैः।

उपाजिघ्रद्यथासास्त्रं सर्वपापापहं तदा।।

शिष्टान्यङ्गानि यान्यासंस्तस्याश्वस्य नराधिप।

तान्यग्रौ जुहुवुर्धीराः समस्ताः षोडशर्त्विजः।। (महाभारत १४.८९.१-५)

सूत्रसन्दर्भ

(२२) न अमांसो मधुपर्को भवति । (आश्वलायनगृह्यसूत्र १.२४.२६)

(२३) न अमांसो मधुपर्क इति श्रुतिः । (मानवगृह्यसूत्र १.९.२२)

(२४) न त्वेव अमांसः अर्घः स्याद् अधियज्ञमधिविवाहम् कुरूतेत्येव ब्रूयात्।

(पारस्करगृह्यसूत्र १.३.२८-३०)

(२५) न अलोहितो मधुपर्को भवति। (कौशिकगृह्यसूत्र ९२.१६)

(२६) शृतासु वपासुत्तरत उपरिष्टादग्नेर्वेतसशाखायामश्वतूपरगोमृगाणां वपाः सादयति

(आपस्तम्बश्रौतसूत्र २०.१८.१५)

(२७) अश्वस्य लोहितं स्विष्टकृदर्थं निदधाति (आपस्तम्बश्रौतसूत्र २०.१९.१०)

(२८) शफं गोमृगकण्टं च माहेन्द्रस्य स्तोत्रं प्रत्यभिषिञ्चति ।(आपस्तम्बश्रौतसूत्र

२०.१९.११)

(२९) तस्मिन्संज्ञपयन्ति प्रत्यक्शिरसमुदीचीनन्पादम् । (आपस्तम्बश्रौतसूत्र ७.१६.५)

(३०) इषे त्वेति वपामुत्खिद्य घृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्ण्वाथामिति वपया द्विशूलां प्रच्छाद्योर्जे

त्वेति तनिष्ठेऽन्तत एकशूलयोपतृणत्ति। (आपस्तम्बश्रौतसूत्र ७.१९.१)

५४

(३१) उदक् पवित्रे कुम्भ्यां पशुमवधाय शूले प्रणीक्ष्य हृदयं शामित्रे श्रपयति।

(आपस्तम्बश्रौतसूत्र ७.२२.९)

(३२) तस्मिन्नेनं निघ्नन्ति प्रत्यक्शिरसमुदक्पादम् (कात्यायनश्रौतसूत्र ६.५.१५)

(३३) वपामुत्खिद्य वपाश्रपण्यौ प्रोर्णौति घृतेन द्यावापृथिवीति (कात्यायनश्रौतसूत्र ६.६.११)

(३४) मेदोऽस्योद्धरन्ति वपार्थे (कात्यायनश्रौतसूत्र २०.७.७)

(३५) लोहितं चाऽस्य श्रपयन्ति (कात्यायनश्रौतसूत्र २०.७.८)

(३६) प्राजापत्यवपानामुत्तरतः श्रपणं होमो हविषश्च (कात्यायनश्रौतसूत्र २०.७.९)

(३७) स्विष्टकृद्वदनस्पत्यन्तरे शूल्यं हुत्वा देवताऽश्वाङ्गेभ्यो जुहोत्यमुष्मै स्वाहेति प्रतिदेवतं

शादप्रभृतित्वगन्तेभ्यः। (कात्यायनश्रौतसूत्र २०.८.४)

(३८) छागोस्रमेषाः पश्वभिधानाद्यथालिङ्गम् । (कात्यायनश्रौतसूत्र २०.७.१९)

(३९) संज्ञप्ते पशावावर्त्तेरन् । (आश्वलायनश्रौतसूत्र ३.३.६)

(४०) वपायां श्रप्यमाणायां प्रेषितः स्तोकेभ्योऽन्वाह जुष सप्रथस्तममिमं नो यज्ञमिति।

(आश्वलायनश्रौतसूत्र ३.४.१)

(४१) हृदयस्यैवाग्रे द्विरवद्यत्यथ जिह्वाया अथ वक्षसोऽथ तनिम्नोऽथ वृक्ययोरथ (

बौधायनश्रौतसूत्र ४.९.१)

(४२) वरीय आच्छायेषे त्वेति वपामुत्खिदति। (बौधायनश्रौतसूत्र ४.७.४)

वेदसन्दर्भ

(१) ओजिष्ठं ते मध्यतो मेद उद्भृतं प्र ते वयं ददामहे ।

श्चोतन्ति ते वसो स्तोका अधि त्वचि प्रति तान्देवशो विहि ॥ (ऋग्वेदसंहिता ३.२१.५)

सायणभाष्य - हे अग्ने “ओजिष्ठम् अतिशयेन सारयुक्तं “मेदः वपाख्यं हविः “मध्यतः

पशोर्मध्यभागात् ते त्वदर्थम् “उद्भृतम् उद्धृतम्अध्वर्य्वादयः “वयम् अस्मिन् पशौ “ते

तुभ्यं “प्र “ददामहे उद्धृतं तद्वपाख्यं हविः प्रयच्छामः । “वसो सर्वस्य जगतो वासयितर्हे

अग्ने“त्वचि “अधि वपायामुपरि ये “स्तोकाः घृतमिश्रा बिन्दवस्ते “ते त्वदर्थं “श्चोतन्ति

स्रवन्ति । यद्वा ते तव त्वच्यधिज्वालाख्यशरीरस्योपरि श्चोतन्ति।

(२) तुभ्यं श्चोतन्त्यध्रिगो शचीव स्तोकासो अग्ने मेदसो घृतस्य ।

कविशस्तो बृहता भानुनागा हव्या जुषस्व मेधिर ॥ (ऋग्वेदसंहिता ३.२१.४)

सायणभाष्य- तस्मात् “कविशस्तः कविभिः कर्माभिज्ञैर्होत्रादिभिः स्तुतस्त्वं “हता प्रभूतेन

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भानुना तेजसा सहितः सन् “आगाः अस्मदीयं पशुयागमभ्यागच्छ । आगत्य च “मेधिर

प्रज्ञावन्नग्ने “हव्या अस्माभिर्दीयमानानिवपादीनि हवींषि “जुषस्व सेवस्व ॥

(३) यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश यद्वा स्वरौ स्वधितौ रिप्तमस्ति ।

यद्धस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥ (ऋग्वेदसंहिता १.१६२.९)

सायणभाष्य - “स्वधितौ छेदनकाले व अवदानकाले यत् रिप्तमस्ति “शमितुः “हस्तयोः

लिप्तमस्ति । विशसनकाले “यत् च “नखेषुलिप्तम् “ता “सर्वा तानि सर्वाणि हे अश्व “ते

तव संबन्धीनि “देवेष्वस्तु देवेषु संतोषार्थाय भवन्तु ॥

(४) यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति ।

मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु ॥(ऋग्वेदसंहिता

१.१६२.११)

सायणभाष्य - हे अश्व “ते तव “अग्निना “पच्यमानात् गात्रात् “यत् ऊष्मरूपं रसो वा

यत्किंचित् “अवधावति । तथा “निहतस्यनिःशेषेण हतस्य तव यदङ्गं रसरूपं “शूलम्

अभिलक्ष्य अवधावति निर्गच्छति। “तत् तदङ्गं “भूम्यां “मा “आ “श्रिषत् आश्लिष्टं

माभूत् ॥ श्रिषेः पुषादित्वात् अङ्॥ पाकसमये तथा “मा “तृणेषु विशसनसमये दर्भेषु मा

अपगच्छतु ।

(५) चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोर्वङ्क्रीरश्वस्य स्वधितिः समेति ।

अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त ॥ (ऋग्वेदसंहिता १.१६२.१९)

सायणभाष्य -हे विशसनस्य कर्तारः अस्याश्वस्य गात्राणि शरीरावयवान् “अच्छिद्रा

अच्छिद्राणि यथा भवन्ति तथा “वयुना वयुनानिप्रज्ञानानि । वयुनमिति प्रज्ञानाम,

‘वयुनम् अभिख्या ’ ( नि. ३. ९. १०) इति तन्नामसूक्तत्वात् । “कृणोत कुरुत ॥

तप्तनप्तनथनाश्च’ इति तबादेशः ।। हृदयजिह्वावक्षःप्रभृतीनि प्रज्ञाथ मध्ये छिन्नानि मा

कुरुतेत्यर्थः । तदर्थं “परुःपरुः प्रतिपर्व प्रतिहृदयाद्यवयवम्“अनुघुष्य इदमवद्यमिति संशब्द्यैव

“वि “शस्त विशसनं कुरुत ॥ ‘शस् हिंसायाम् ’ ।

(६) वाचं ते शुन्धामि । प्राणं ते शुन्धामि । चक्षुस् ते शुन्धामि ।

५६

श्रोत्रं ते शुन्धामि । नाभिं ते शुन्धामि । मेढ्रं ते शुन्धामि ।

पायुं ते शुन्धामि । चरित्राँस् ते शुन्धामि ॥ (शुक्लयजुर्वेद ६.१४)

महीधरभाष्य-पशोः प्राणाञ्छुन्धति पत्नी मुखं नासिके चक्षुषी कर्णौ नाभिं मेढ्रं पायुं

पादान्सᳪं᳭हृत्य वाचं ते शुन्धामीतिप्रतिमन्त्रमिति’ (का० ६ । ६ । २-३)। पत्नी पशुसमीप

उपविश्य मृतस्य पशोः प्राणान्मुखादीन्यष्टौ प्राणायतनानि प्रतिमन्त्रं शुन्धतिशोधयति

अद्भिः स्पृशतीति सूत्रार्थः ।

(७) घृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्णुवाथाम् । वायो वे स्तोकानाम् । अग्निर् आज्यस्य वेतु

स्वाहा । स्वाहाकृते ऽ ऊर्ध्वनभसं मारुतं गच्छतम् ॥ (शुक्लयजुर्वेद ६.१६)

महीधरभाष्य- ‘वपामुत्खिद्य वपाश्रपण्यौ प्रोर्णोति घृतेन द्यावापृथिवी इति’ ( का० ६ । ६ ।

१२) । पशूदराद्वपां निष्काश्य तया वपयावपाश्रपण्यावाच्छादयेदिति सूत्रार्थः ।

वपाश्रपण्योर्द्यावापृथिव्यावध्यस्ते उच्यते । हे द्यावापृथिवी, युवां

घृतेनोदकेनात्मानंप्रोर्णुवाथामाच्छादयेथां परस्परम् । ‘ऊर्णुञ् आच्छादने’ ।

आहुतिपरिणामाभिप्रायमेतत् । तथा चोक्तं ते वा एते आहुती हुते

उत्क्रामतइत्युपक्रम्याहुतिपरिणाममिदं जगदिति ।

(८) यत् ते गात्राद् अग्निना पच्यमानाद् अभि शूलं निहतस्यावधावति ।

मा तद् भूम्याम् आ श्रिषन् मा तृणेषु देवेभ्यस् तद् उशद्भ्यो रातम् अस्तु ॥

(शुक्लयजुर्वेद २५.३४)

महीधरभाष्य- हे अश्व, अग्निना पच्यमानात्ते तव गात्रात् शरीरात यत् ऊष्मा रसो वा

अवधावति अधस्ताद्गच्छति तथा निहतस्यनिःशेषेण हतस्य यत् अङ्गं शूलमभि अवधावति

शूलेन पाके क्रियमाणे यन्निर्गच्छति तन्निर्गतमूष्माङ्गादिकं भूम्यां मा आश्रिषत्भूम्याश्लिष्टं

मा भूत् ।

(९) ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वं य ऽ ईम् आहुः सुरभिर् निर् हरेति ।

ये चार्वतो माँसभिक्षाम् उपासत ऽ उतो तेषाम् अभिगूर्तिर् न ऽ इन्वतु ॥(शुक्लयजुर्वेद

२५.३५)

महीधरभाष्य- ये जनाः पक्वं वाजिनमश्वं परिपश्यन्ति अयं पक्व इति जानन्ति । य ईम्

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ईमित्यव्ययं चार्थे । ये च इत्याहुः । एवं कथयन्ति । किम् । सुरभिः सुगन्धः पाको जातः

अतो निर्हर अग्नेः सकाशादुत्तारयेति । ये चजनाः अर्वतोऽश्वस्य मांसभिक्षामुपासते

हुतशिष्टमांसयाचनां कुर्वते । उतो अपिच तेषां पाकद्रष्ट्रादिजनानामभिगूर्तिः

उद्यमोनोऽस्मानिन्वतु प्रीणातु ।

(१०) शादं दद्भिर् अवकां दन्तमूलैर् मृदं बर्स्वैस् तेगान् दँष्ट्राभ्याँ सरस्वत्या ऽ

अग्रजिह्वं जिह्वाया ऽ उत्सादम् अवक्रन्देन तालुवाजँ हनुभ्याम्। (शुक्लयजुर्वेद २५.१)

महीधरभाष्य- स्विष्टकृद्वनस्पत्योरन्तरे वनस्पतियागानन्तरं स्विष्टकृद्यागात्पूर्वं शूले श्रपितं

मांसं प्राजापत्योऽश्व इति वचनात्प्रजापतयेहुत्वा अमुष्मै स्वाहेति प्रतिदेवतं

शादादित्वगन्तेभ्यो देवताश्वाङ्गेभ्यो देवताभ्योऽश्वाङ्गेभ्यश्च घृतं जुहुयात् । अनादेशे

घृतस्योक्तवात्।

(११) तेऽब्रुवन् अग्नयः स्विष्टकृतोऽश्वस्य वयमुद्धारमुद्धरामहै तेनासुरानभिभविष्याम

इति ते लोहितमुदहरन्त भ्रातृव्याभिभूत्यैयत्स्विष्टकृद्भ्यो लोहितं जुहोति

भ्रातृव्याभिभूत्यै भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद (शतपथ

१३.३.४.२)

(१२) अश्वशफेन द्वितीयामाहुतिं जुहोति पशवो वा एकशफा रुद्रः स्विष्टकृत्पशूनेव

रुद्रादन्तर्दधाति तस्माद्यत्रैषाऽश्वमेध आहुतिर्हूयतेन तत्र रुद्रः पशूनभिमन्यते।

(शतपथब्राह्मण १३.३.४.४)

(१३) यदा प्राह संज्ञप्तः पशुरिति । अथाध्वर्युराह नेष्टः पत्नीमुदानयेत्युदानयति नेष्टा

पत्नीं पान्नेजनं बिभ्रतीम् ।(शतपथब्राह्मण ३.८.२.१)

(१४) अथ वपामुत्खिदन्ति । तया वपाश्रपण्यौ प्रोर्णौति घृतेन द्यावापृथिवी

प्रोर्णुवाथामिति तदिमे द्यावापृथिवी ऊर्जा रसेनभाजयत्यनयोरूर्जं रसं दधाति ते

रसवत्या उपजीवनीये इमाः प्रजा उपजीवन्ति। (शतपथब्राह्मण ३.८.२.१६)

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(१५) पीवानं मेषमपचन्त वीरा न्युप्ता अक्षा अनु दीव आसन् ।

द्वा धनुं बृहतीमप्स्वन्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता ॥ (ऋग्वेदसंहिता १०.२७.१७)

सायणभाष्य-वीराः प्रजापतेः पुत्रा अङ्गिरसः “पीवानं स्थूलम् । मेदोमांसादियुक्तमित्यर्थः।

“मेषम् अजम् “अपचन्तप्रजापतिरूपस्येन्द्रस्यार्थाय पक्ववन्तोऽभवन् । पशुयागं कुर्वन्त

इत्यर्थः।

स्मृतिसूत्रग्रन्थ

(१) शमिता च शब्दभेदात्। (मीमांसासूत्र ३.७.२८)

(२) अश्वस्य चतुस्त्रिंशत् तस्य वचनाद् वैशेषिकम् ।(मीमांसासूत्र ९.४.१७)

(३) तत्प्रतिषिध्य प्रकृतिर्नियुज्यते सा चतुस्त्रिंशद्वाच्यत्वात् (मीमांसासूत्र ९.४.१८)

(४) छागो वा मन्त्रवर्णात् (मीमांसासूत्र ६.८.३१)

(५) वनिष्ठुसन्निधानेन उरूकेण वपाभिधानम् ।(मीमांसासूत्र ९.४.२२)

(६) अशुद्धमिति चेन्न शब्दात् । (वेदान्तसूत्र ३.१.२५)

(७) मधुपर्के च यज्ञे च पितृ-दैवतकर्मणि ।

अत्रैव पशवो हिंस्या नाऽन्यत्रेत्यब्रवीन् मनुः ॥

एष्वर्थेषु पशून् हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः ।

आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥( मनुस्मृति ५.४१-४२)

(८) वसेत्स नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः ।

संमितानि दुराचारो यो हन्त्यविधिना पशून् ।।(याज्ञवल्क्यस्मृति १.१८० )

मिताक्षरा- अविधिना देवताद्युद्देशमन्तरेण यः पशून्हन्ति स तस्य पशोर्यावन्ति रोमाणि

तावन्ति दिनानि घोरे नरके वसेत् ।

(९) नात्मार्थ पाचयेदन्नं नात्मार्थं घातयेत्पशुम् ।

देवार्थे ब्राह्मणार्थे वा पचमानो न लिप्यते ॥ (यमपैठीनसी)

(१०) पितृदेवतातिथिपूजायामेव पशुं हिंस्यादिति। (वशिष्ठस्मृति)

(११) यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।

यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ॥ (मनुस्मृति ५.३९ )

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