१४३ ...{Loading}...
०१ तं वाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम पृथु॒ज्रय॑मश्विना॒ संग॑तिं॒ गोः।
यः सू॒र्यां वह॑ति वन्धुरा॒युर्गिर्वा॑हसं पुरु॒तमं॑ वसू॒युम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम पृथु॒ज्रय॑मश्विना॒ संग॑तिं॒ गोः।
यः सू॒र्यां वह॑ति वन्धुरा॒युर्गिर्वा॑हसं पुरु॒तमं॑ वसू॒युम् ॥
०१ तं वाम् ...{Loading}...
Griffith
We invocate this day your car, far-spreading, O Asvins, even the gathering of the sunlight, Car praised in hymns, most ample, rich in treasure, fitted with seats, the car that beareth Surya.
पदपाठः
तम्। वा॒म्। रथ॑म्। व॒यम्। अ॒द्य। हु॒वे॒म॒। पृ॒थु॒ऽज्रय॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। सम्ऽग॑तिम्। गोः। यः। सू॒र्याम्। वह॑ति। ब॒न्धु॒रऽयुः। गिर्वा॑हसम्। पु॒रु॒ऽतम॑म्। व॒सु॒ऽयुम्। १४३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (वयम्) हम (अद्य) आज (वाम्) तुम दोनों के (पृथुज्रयम्) बड़ी गतिवाले, (गोः) पृथिवी की (संगतिम्) संगति करनेवाले, (गिर्वाहसम्) विज्ञान से चलनेवाले, (पुरुतमम्) अत्यन्त बड़े, (वसूयुम्) बहुत धनवाले (तम्) उस (रथम्) रमणीय रथ को (हुवेम) ग्रहण करें, (यः) जो (वन्धुरायुः) यन्त्रों के बन्धनोंवाला [रथ] (सूर्याम्) सूर्य की धूप को (वहति) प्राप्त होता है [रखता है] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री विज्ञानियों से ऐसे रथ यान-विमान आदि बनवावें, जो भानुताप [सूर्य की धूप] आदि से चलें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: मन्त्र १-७ ऋग्वेद में हैं-४।४४।१-७ ॥ १−(तम्) (वाम्) युवयोः (रथम्) रमणीयं यानम् (वयम्) (अद्य) संहितायां दीर्घः। अस्मिन् दिने (हुवेम) आदद्याम (पृथुज्रयम्) ज्रयतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४, ततः-अच्। बहुगतियुक्तम् (अश्विना) अथ० २।२९।६। अश्विना राजानौ पुण्यकृतावित्यैतिहासिकाः-निरु० १२।१। हे चतुरराजामात्यौ (संगतिम्) गमेः-क्तिच्। संगन्तारम् (गोः) पृथिव्याः (यः) रथः (सूर्याम्) सूर्यस्य कान्तिम्। भानुतापम् (वहति) प्राप्नोति। धारयति (वन्धुरायुः) मद्गुरादयश्च। उ० १।४१। बन्ध बन्धने-उरच्+युजिर् योगे-डु। यन्त्राणां बन्धनयुक्तः (गिर्वाहसम्) अथ० २०।३।४। गॄ विज्ञापने विज्ञाने शब्दे च-क्विप्+वह प्रापणे-असुन्। विज्ञानेन गतिशीलम् (पुरुतमम्) अतिशयेन विशालम् (वसूयुम्) छान्दसो दीर्घः। बहुधनयुक्तम् ॥
०२ युवं श्रियमश्विना
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यु॒वं श्रिय॑मश्विना दे॒वता॒ तां दिवो॑ नपाता वनथः॒ शची॑भिः।
यु॒वोर्वपु॑र॒भि पृक्षः॑ सचन्ते॒ वह॑न्ति॒ यत्क॑कु॒हासो॒ रथे॑ वाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒वं श्रिय॑मश्विना दे॒वता॒ तां दिवो॑ नपाता वनथः॒ शची॑भिः।
यु॒वोर्वपु॑र॒भि पृक्षः॑ सचन्ते॒ वह॑न्ति॒ यत्क॑कु॒हासो॒ रथे॑ वाम् ॥
०२ युवं श्रियमश्विना ...{Loading}...
Griffith
Asvins, ye gained that glory by your Godhead, ye Sons of Heaven, by your own might and power. Food followeth close upon your bright appearing when stately horses in your chariot draw you.
पदपाठः
यु॒वम्। श्रिय॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। दे॒वता॑। ताम्। दिवः॑। न॒पा॒ता॒। व॒न॒थः॒। शची॑भिः। यु॒वोः। वपुः॑। अ॒भि। पृक्षः॑। स॒च॒न्ते॒। वह॑न्ति। यत्। क॒कु॒हासः॑। रथे॑। वा॒म्। १४३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) हे व्यवहार के (नपाता) न गिरानेवाले (अश्विना) दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (देवता) दिव्य गुणवाले (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) बुद्धियों से (ताम्) उस (श्रियम्) लक्ष्मी का (वनुथः) सेवन करते हो, (यत्) जिस [लक्ष्मी] के लिये (पृक्षः) अनेक अन्न (युवोः) तुम दोनों के (वपुः) शरीर को (अभि) सब ओर से (सचन्ते) सींचते हैं और [जिसके लिये] (ककुहासः) बड़े विद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों को (रथे) रमणीय रथ में (वहन्ति) ले चलते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग विज्ञान द्वारा यान-विमान आदि बनाकर राज्य की सम्पत्ति बढ़ावें और अन्न आदि प्राप्त करके राजा और प्रजा को सुखी करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(युवम्) युवाम् (श्रियम्) लक्ष्मीम् (अश्विना) म० १। हे चतुरराजमन्त्रिणौ (देवता) भृमृदृशि०। उ० ३।११०। दिवु क्रीडादिषु-अतच्, विभक्तेराकारः। दिव्यगुणसम्पन्नौ (ताम्) वक्ष्यमाणाम् (दिवः) व्यवहारस्य (नपाता) अथ० १।१३।२। नञ्+पत अधःपतने णिच्-क्विप्, नञः प्रकृतिभावः। न पातयितारौ। रक्षकौ (वनथः) संभजेथे। संसेवेथे (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (युवोः) युवयोः (वपुः) शरीरम् (अभि) अभितः (पृक्षः) पृची सम्पर्के-क्विप्, धातोः कुगागमः, बहुवचनम्। पृक्षः अन्ननाम-निघ० २।७। अन्नानि (सचन्ते) षच सेचने। सिञ्चन्ति (वहन्ति) नयन्ति (यत्) यस्यै श्रिये (ककुहासः) क+कु+हन हिंसागत्योः-डप्रत्ययः। कस्य सुखस्य कुं भूमिं स्थानं प्राप्नोतीति ककहः, असुगागमः। ककह इति महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तो विद्वांसः-दयानन्दभाष्ये ऋ० १।४६।३। (रथे) रमणीये याने (वाम्) युवाम् ॥
०३ को वामद्या
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को वा॑म॒द्या क॑रते रा॒तह॑व्य ऊ॒तये॑ वा सुत॒पेया॑य वा॒र्कैः।
ऋ॒तस्य॑ वा व॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॒ नमो॑ येमा॒नो अ॑श्वि॒ना व॑वर्तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को वा॑म॒द्या क॑रते रा॒तह॑व्य ऊ॒तये॑ वा सुत॒पेया॑य वा॒र्कैः।
ऋ॒तस्य॑ वा व॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॒ नमो॑ येमा॒नो अ॑श्वि॒ना व॑वर्तत् ॥
०३ को वामद्या ...{Loading}...
Griffith
Who bringeth you to-day for help with offered oblations, or with hymns to drink the juices? Who, for the sacrifice’s ancient lover, turneth you hither, Asvins, offering homage?
पदपाठः
कः। वा॒म्। अ॒द्य। क॒र॒ते॒। रा॒तऽह॑व्यः। ऊ॒तये॑। वा॒। सु॒त॒ऽपेया॑य। वा॒। अ॒र्कैः। ऋ॒तस्य॑। वा॒। व॒नुषे॑। पू॒र्व्याय॑। नमः॑। ये॒मा॒नः। अ॒श्वि॒ना॒। आ। व॒व॒र्त॒त्। १४३.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (रातहव्यः) देने योग्य को दिये हुए (कः) कौन पुरुष [अर्थात् प्रत्येक मनुष्य] (ऊतये) रक्षा के लिये (वा वा) और (सुतपेयाय) निचोड़े हुए सोम [तत्त्व रस] पीने के लिये (वाम्) तुम दोनों के निमित्त (अर्कैः) सत्कारों के साथ (अद्य) आज (करते) कर्म करता है, (वा) और (ऋतस्य) सत्य ज्ञान के (पूर्व्याय) प्राचीनों में रहनेवाले (वनुषे) सेवन के लिये (नमः) अन्न को (येमानः) खींचता हुआ [कौन अर्थात् प्रत्येक मनुष्य] (आ ववर्तत्) बर्ताव करता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रत्येक मनुष्य चतुर राजा और मन्त्री का आदर करके पूर्वजों के समान सत्य ज्ञान बढ़ाकर अन्न आदि प्राप्त करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(कः) प्रत्येकपुरुषः, इत्यर्थः (वाम्) युवाभ्याम् (अद्य) म० १। (करते) कर्म प्रयत्नं करोति (रातहव्यः) दत्तदातव्यः (ऊतये) रक्षणाय (वा वा) समुच्चये (सुतपेयाय) निष्पादितस्य सोमस्य तत्त्वरसस्य पानाय (अर्कैः) सत्कारैः (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (वा) समुच्चये (वनुषे) जनेरुसिः। उ० २।११। वन संभक्तौ-उसि। संभजनाय। सेवनाय (पूर्व्याय) प्राचीनेषु भवाय (नमः) अन्नम् (येमानः) यमेः कानच्, एत्वमभ्यासलोपश्च, चित्त्वादन्तोदात्तः। नियच्छन्। आकर्षन्। बृंहणन् (अश्विना) म० १ (आ) (ववर्तत्) वर्तते ॥
०४ हिरण्ययेन पुरुभू
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
हि॑र॒ण्यये॑न पुरुभू॒ रथे॑ने॒मं य॒ज्ञं ना॑स॒त्योप॑ यातम्।
पिबा॑थ॒ इन्मधु॑नः सो॒म्यस्य॒ दध॑थो॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
हि॑र॒ण्यये॑न पुरुभू॒ रथे॑ने॒मं य॒ज्ञं ना॑स॒त्योप॑ यातम्।
पिबा॑थ॒ इन्मधु॑नः सो॒म्यस्य॒ दध॑थो॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥
०४ हिरण्ययेन पुरुभू ...{Loading}...
Griffith
Borne on your golden car, ye omnipresent! come to this sacrifice of ours, Nasatyas. Drink of the pleasant liquor of the Soma: give riches to the people who adore you.
पदपाठः
हि॒र॒ण्यये॑न। पु॒रु॒भू॒ इति॑ पुरुऽभू। रथे॑न। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। ना॒स॒त्या॒। उप॑। या॒त॒म्। पिबा॑थः। इत्। मधु॑नः। सो॒म्यस्य॑। दध॑थः। रत्न॑म्। वि॒ध॒ते। जना॑य। १४३.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुभू) हे पालन व्यवहारों के विचारनेवाले ! (नासत्या) हे सदा सत्य स्वभाववाले दोनों ! [राजा और मन्त्री] (हिरण्ययेन) ज्योति रखनेवाले [अग्नि आदि प्रकाशबल से चलनेवाले] (रथेन) रमणीय रथ से (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान व्यवहार] को (उप) आदर से (यातम्) प्राप्त होओ, और (मधुनः) उत्तम ज्ञान के (सोम्यस्य) सोम [तत्त्व रस] में उत्पन्न रस का (इत्) अवश्य (पिबाथः) पान करो और (विधते) पुरुषार्थ करते हुए (जनाय) मनुष्य के लिये (रत्नम्) रत्न [सुन्दर धन] (दधथः) दान करो ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री के सुप्रबन्ध से सब प्रजागण विज्ञान के साथ शिल्प विद्या द्वारा रत्नों का संग्रह करके सुखी होवें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(हिरण्ययेन) तेजोमयेन। अग्न्यादिप्रकाशबलयुक्तेन (पुरुभू) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२६। पॄ पालनपूरणयोः-कु+भू चिन्तने-डु। हे पुरूणां पालनव्यवहाराणां भावयितारौ चिन्तयितारौ (रथेन) रमणीयेन यानेन (इमम्) (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (नासत्या) सू० १४०।१। हे सदा सत्यस्वभावौ (उप) पूजायाम् (यातम्) प्राप्नुतम् (पिबाथः) लेटि रूपम्। पानं कुरुतम् (इत्) अवश्यम् (मधुनः) निश्चितज्ञानस्य। मधुज्ञानस्य (सोम्यस्य) सोमे तत्त्वरसे भवस्य रसस्य (दधथः) दध दाने धारणे च-लेट्। दत्तम् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विधते) विध विधाने-शतृ। पुरुषार्थं कुर्वते (जनाय) मनुष्याय ॥
०५ आ नो
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आ नो॑ यातं दि॒वो अच्छा॑ पृथि॒व्या हि॑र॒ण्यये॑न सु॒वृता॒ रथे॑न।
मा वा॑म॒न्ये नि य॑मन्देव॒यन्तः॒ सं यद्द॒दे नाभिः॑ पू॒र्व्या वा॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ नो॑ यातं दि॒वो अच्छा॑ पृथि॒व्या हि॑र॒ण्यये॑न सु॒वृता॒ रथे॑न।
मा वा॑म॒न्ये नि य॑मन्देव॒यन्तः॒ सं यद्द॒दे नाभिः॑ पू॒र्व्या वा॑म् ॥
०५ आ नो ...{Loading}...
Griffith
Come hitherward to us from earth, from heaven, borne on your golden chariot rolling lightly. Suffer not other worshippers to stay you: here are ye bound by earlier bonds of friendship.
पदपाठः
आ। नः॒। या॒त॒म्। दि॒वः। अच्छ॑। पृ॒थि॒व्याः। हि॒र॒ण्यये॑न। सु॒ऽवृता॑। रथे॑न। मा। वा॒म्। अ॒न्ये। नि। य॒म॒न्। दे॒व॒यन्तः॑। सम्। यत्। द॒दे। नाभिः॑। पू॒र्व्या। वा॒म्। १४३.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजा और मन्त्री !] (दिवः) आकाश से और (पृथिव्याः) भूमि से (हिरण्ययेन) ज्योति रखनेवाले [अग्नि आदि प्रकाशबल से चलनेवाले], (सुवृता) शीघ्र घूमनेवाले [चलनेवाले] (रथेन) रमणीय रथ [विमान आदि वाहन] द्वारा (अच्छ) अच्छे प्रकार (नः) हमको (आ यातम्) दोनों प्राप्त होओ, (अन्ये) अन्य (देवयन्तः) पीड़ा देते हुए लोग (वाम्) तुम दोनों को (मा नि यमन्) न रोकें, (यत्) क्योंकि (पूर्व्या) पुरानी (नाभिः) बन्धुता ने (वाम्) तुम दोनों को (संददे) बाँधा है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री आकाश और पृथिवी पर चलनेवाले यान-विमानों द्वारा शत्रुओं से बे-रोक होकर प्रजा की रक्षा करें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(आ) (नः) अस्मान् (यातम्) प्राप्नुतम् (दिवः) आकाशात् (अच्छ) सांहितिको दीर्घः। सम्यक् (पृथिव्याः) भूमेः सकाशात् (हिरण्ययेन) म० ४। (सुवृता) सुवर्तशीलेन। शीघ्रगामिना (रथेन) विमानादियानेन (वाम्) युवाम् (अन्ये) इतरे (मा नि यमन्) न निगृहन्तु (देवयन्तः) दिव अर्दने=पीडने चुरादिः-शतृ। पीडयन्तो जनाः (यत्) यतः (सं ददे) ददातेर्लिट्। सन्दानं बन्धनम्, बन्धे कृतवती (नाभिः) नहो भश्च। उ० ४।१२६। णह बन्धने-इञ्, हस्य भः। बन्धनम् (पूर्व्यः) पूर्व्यं पुराणनाम-निघ० ३।२७। प्राचीना (वाम्) युवाम् ॥
०६ नू नो
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नू नो॑ र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ दस्रा॒ मिमा॑थामु॒भये॑ष्व॒स्मे।
नरो॒ यद्वा॑मश्विना॒ स्तोम॒माव॑न्त्स॒धस्तु॑तिमाजमी॒ढासो॑ अग्मन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नू नो॑ र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ दस्रा॒ मिमा॑थामु॒भये॑ष्व॒स्मे।
नरो॒ यद्वा॑मश्विना॒ स्तोम॒माव॑न्त्स॒धस्तु॑तिमाजमी॒ढासो॑ अग्मन् ॥
०६ नू नो ...{Loading}...
Griffith
Now for us both, mete out, O Wonder-Workers, riches exceeding great with store of heroes, Because the men have sent you praise, O Asvins, and Ajamilhas come to the laudation.
पदपाठः
नु। नः॒। र॒यिम्। पु॒रु॒ऽवीर॑म्। बृ॒हन्त॑म्। दस्रा॑। मिमा॑थाम्। उ॒भये॑षु। अ॒स्मे इति॑। नरः॑। यत्। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। स्तोम॑म्। आव॑न्। स॒धऽस्तु॑तिम्। आ॒ज॒ऽमो॒ल्हासः॑। अ॒ग्म॒न्। १४३.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा) हे दर्शनयोग्य (अश्विना) दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (नः) हमारे लिये [अर्थात्] (उभयेषु) दोनों राजजन और प्रजाजनवाले (अस्मे) हम लोगों में (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के प्राप्त करानेवाले (बृहन्तम्) बड़े (रयिम्) धन को (नु) शीघ्र (मिमाथाम्) नापो [दो]। (यत्) क्योंकि (नरः) नरों [नेता लोगों] ने (वाम्) तुम दोनों के लिये (स्तोमम्) प्रशंसा की (आवन्) रक्षा की है, और (आजमीढासः) उन घृत आदि पदार्थों और सुवर्ण आदि धनवालों ने (सधस्तुतिम्) परस्पर कीर्ति (अग्मन्) पाई है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री राजजन और प्रजाजनों का सत्कार करके परस्पर कीर्ति बढ़ावें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(नु) सद्यः (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (पुरुवीरम्) बहवो वीरा यस्मात्तम् (बृहन्तम्) महान्तम् (दस्रा) अथ० ७।७३।२। दस दर्शने-रक्। दर्शनीयौ-निरु० ६।२६। (मिमाथाम्) माङ् माने लोट्। परिमितं कुरुतम्। दत्तम् (उभयेषु) द्वित्वविशिष्टेषु। राजप्रजाजनयुक्तेषु (अस्मे) अस्मासु (नरः) नेतारः (यत्) यतः (वाम्) युवाभ्याम् (अश्विना) म० १। हे चतुरराजामात्यौ (स्तोमम्) प्रशंसाम् (आवन्) अथ० ४।२।६। अव रक्षणगत्यादिषु-लङ्। अरक्षन् (सधस्तुतिम्) सध=सह। परस्परकीर्तिम् (आजमीढासः) आ+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-घञर्थे क+मिह सेचने-क्त। आजम् आज्यं घृतम्। मीढं धनम्-निघ० २।७। घृतादिपदार्थः सुवर्णादिधनं च येषां ते तथाभूताः (अग्मन्) अगमन्। प्राप्नुवन् ॥
०७ इहेह यद्वाम्
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इ॒हेह॒ यद्वां॑ सम॒ना प॑पृ॒क्षे सेयम॒स्मे सु॑म॒तिर्वा॑जरत्ना।
उ॑रु॒ष्यतं॑ जरि॒तारं॑ यु॒वं ह॑ श्रि॒तः कामो॑ नासत्या युव॒द्रिक् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हेह॒ यद्वां॑ सम॒ना प॑पृ॒क्षे सेयम॒स्मे सु॑म॒तिर्वा॑जरत्ना।
उ॑रु॒ष्यतं॑ जरि॒तारं॑ यु॒वं ह॑ श्रि॒तः कामो॑ नासत्या युव॒द्रिक् ॥
०७ इहेह यद्वाम् ...{Loading}...
Griffith
Whene’er I gratified you here together, your grace was given us, O ye rich in booty. Protect, ye twain, the singer of your praises: to you, Nasatyas, is my wish directed.
पदपाठः
इ॒हऽइ॑ह। यत्। वा॒म्। स॒म॒ना। प॒पृ॒क्षे। सा। इयम्। अ॒स्मे। इति॑। सु॒ऽम॒तिः। वा॒ज॒ऽर॒त्ना॒। उ॒रु॒ष्यत॑म्। ज॒रि॒तार॑म्। यु॒वम्। ह॒। श्रि॒तः। कामः॑। ना॒स॒त्या॒। यु॒व॒द्रिक्। १४३.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- पुरमीढाजमीढौ
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वाजरत्ना) हे ज्ञान और धन रखनेवाले दोनों ! [राजा और मन्त्री] (इहेह) यहाँ [राज्य में] ही (यत्) जो (सुमतिः) सुमति [उत्तम बुद्धि] (समना) एक से मनवाले (वाम्) तुम दोनों को (पपृक्षे) छूती है, (सा इयम्) वही [सुमति] (अस्मे) हममें [होवे]। (नासत्या) हे सदा सत्य स्वभाववाले ! [धर्मात्माओ] (युवम्) तुम दोनों (ह) ही (जरितारम्) गुणों की व्याख्या करनेवाले की (उरुष्यतम्) रक्षा करो, (श्रितः) [तुम्हारा] आश्रय लिये हुए (कामः) मेरा मनोरथ (युवद्रिक्) तुम दोनों की ओर देखनेवाला है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री अपनी हितकारिणी बुद्धि का राज्य में विस्तार करके प्रजा की रक्षा करें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद ४।४३।७। में भी है ॥ ७−(इहेह) अस्मिन्नेव राज्ये (यत्) या सुमतिः (वाम्) युवाम् (समना) समान+अन प्राणने-अच्, वा मन ज्ञाने-अच्। समनं समननाद्वा सम्मानाद्वा-निरु० ७।१६। समानमनस्कौ (पपृक्षे) पृची संपर्चने। पृक्ते। संयोजयति (सा) (इयम्) (अस्मे) अस्मासु (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (वाजरत्ना) वाजो बोधी रत्नं धनं च ययोस्तौ। हे ज्ञानेन धनेन च युक्तौ (उरुष्यतम्) उरुष्यति रक्षाकर्मा-निरु० ।२३। रक्षतम् (जरितारम्) स्तोतारं गुणानां व्याख्यातारम् (युवम्) युवाम् (ह) एव (श्रितः) आश्रितः। युवयोराश्रयभूतः (कामः) मनोरथः (नासत्या) म० ४। हे सदा सत्यस्वभावौ। धर्मात्मानौ (युवद्रिक्) दृशिर् प्रेक्षणे-क्विप्, ऋकारस्य रिकारः। युवां पश्यन् ॥
०८ मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो
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मधु॑मती॒रोष॑धी॒र्द्याव॒ आपो॒ मधु॑मन्नो भवत्व॒न्तरि॑क्षम्।
क्षेत्र॑स्य॒ पति॒र्मधु॑मान्नो अ॒स्त्वरि॑ष्यन्तो॒ अन्वे॑नं चरेम ॥
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मूलम् (VS)
मधु॑मती॒रोष॑धी॒र्द्याव॒ आपो॒ मधु॑मन्नो भवत्व॒न्तरि॑क्षम्।
क्षेत्र॑स्य॒ पति॒र्मधु॑मान्नो अ॒स्त्वरि॑ष्यन्तो॒ अन्वे॑नं चरेम ॥
०८ मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो ...{Loading}...
Griffith
Sweet be the plants for us, the heavens, the waters, and full of sweets for us be air’s mid-region! May the Field’s Lord for us be full of sweetness, and may we follow after him uninjured.
पदपाठः
मधु॑ऽमतीः। ओष॑धीः। द्यावः॑। आपः॑। मधु॑ऽमत्। नः॒। भ॒व॒तु॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। क्षेत्र॑स्य। पतिः॑। मधु॑ऽमानः। नः॒। अ॒स्तु॒। अरि॑ष्यन्तः। अनु॑। ए॒न॒म्। च॒रे॒म॒। १४३.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- वामदेवः, मेध्यातिथिः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
खेती के काम का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नः) हमारे लिये (ओषधीः) ओषधियाँ [चावल जौ आदि अन्न], (द्यावः) सूर्य आदि के प्रकाश, (आपः) जल [मेह, कूएँ, नदी आदि के] (मधुमतीः) मधुर आदि गुणवाले [होवें], (अन्तरिक्षम्) आकाश (मधुमत्) मधुर आदि गुणवाला (भवतु) होवे। (क्षेत्रस्य पतिः) खेत का स्वामी [किसान] (नः) हमारे लिये (मधुमान्) मधुर आदि गुणवाला (अस्तु) होवे, (अरिष्यन्तः) बिना कष्ट उठाये हुए हम (एनम् अनु) इस [किसान] के पीछे-पीछे (चरेम) चलें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे किसान खेत में बीज बोकर धूप, जल, भूमि आदि से काम लेता हुआ अन्न उत्पन्न करके उपकार करता है, वैसे ही विद्वान् लोग सब पदार्थों का उपयोग करके संसार का उपकार करें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-४।७।३ ॥ ८−(मधुमतीः) मधुमत्यः। मधुरादिगुणयुक्ताः (ओषधीः) ओषध्यः। व्रीहियवादिभोज्यपदार्थाः (द्यावः) सूर्यादिप्रकाशाः (आपः) मेघकूपनद्यादिजलानि (मधुमत्) मधुरादिगुणयुक्तम् (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (क्षेत्रस्य) शस्याद्युत्पत्तिस्थानस्य (पतिः) स्वामी। कृषाणः (मधुमान्) मधुरादिगुणयुक्तः (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (अरिष्यन्तः) रिष हिंसायाम्-शतृ, नञ्समासः। हिंसां न प्राप्नुवन्तः (अनु) अनुसृत्य (एनम्) क्षेत्रपतिम् (चरेम) गच्छेम ॥
०९ पनाय्यं तदश्विना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प॒नाय्यं॒ तद॑श्विना कृ॒तं वां॑ वृष॒भो दि॒वो रज॑सः पृथि॒व्याः।
स॒हस्रं॒ शंसा॑ उ॒त ये गवि॑ष्टौ॒ सर्वाँ॒ इत्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प॒नाय्यं॒ तद॑श्विना कृ॒तं वां॑ वृष॒भो दि॒वो रज॑सः पृथि॒व्याः।
स॒हस्रं॒ शंसा॑ उ॒त ये गवि॑ष्टौ॒ सर्वाँ॒ इत्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ॥
०९ पनाय्यं तदश्विना ...{Loading}...
Griffith
Asvins, that work of yours deserves our wonder, the Bull of firmament and earth and heaven; Yes, and your thousand promises in battle. Come near to all these men and drink beside us.
पदपाठः
प॒नाय्य॑म्। तत्। अ॒श्वि॒ना॒। कृ॒तम्। वा॒म्। वृ॒ष॒भः। दि॒वः। रज॑सः। पृ॒थि॒व्याः। स॒हस्र॑म्। शंसाः॑। उ॒त। ये। गोऽइ॑ष्टौ। सर्वा॑न्। इत्। तान्। उप॑। या॒त॒। पिब॑ध्यै। १४३.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- मेध्यातिथिः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
१-७ ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (तत्) वह (वाम्) तुम दोनों का (कृतम्) काम (पनाय्यम्) बड़ाई योग्य है [कि] (पृथिव्याः) पृथिवी के और (रजसः) आकाश के (दिवः) व्यवहार के (वृषभः=वृषभौ) दोनों शासक [हो]। (उत) और (गविष्टौ) विद्या की प्राप्ति में (ये) जो (सहस्रम्) सहस्र (शंसाः) प्रशंसनीय गुण हैं, (तान् सर्वान्) उन सबको (इत्) ही (पिबध्यै) [सोम अर्थात् तत्त्व रस] पीने के लिये (उप) आदर से (यात) तुम सब लोग प्राप्त करो ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और मन्त्री विज्ञान द्वारा यान-विमान आदि से पृथिवी और आकाश में मार्ग करें और सब लोग विद्या की वृद्धि से तत्त्व रस प्राप्त करके सुखी होवें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-८।७।३। [सायणभाष्य अवशिष्ट बालशिल्य सू० ९। म० ३] ॥ इति नवमोऽनुवाकः ॥ इति षट्त्रिंशः प्रपाठकः ॥ इति विंशं काण्डम् ॥ इत्यथर्ववेदभाष्यं च समाप्तम् ॥ यह शासनकाण्ड नाम बीसवाँ काण्ड पूरा हुआ ॥ और अथर्ववेदसंहिता भी पूरी हुई ॥इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमास- दक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये विंशं काण्डं समाप्तम् ॥ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥९−(पनाय्यम्) श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६। पन व्यवहारे स्तुतौ च-आय्यप्रत्ययः। स्तुत्यम् (तत्) वक्ष्यमाणम् (अश्विना) म० १। हे चतुरराजामात्यौ (कृतम्) कर्म (वाम्) युवयोः (वृषभः) ऋषिवृषिभ्यां कित्। उ० ३।१२३। वृषु सेचने, वृषप्रजनैश्वर्ययोः+अभच्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। द्विवचनस्य सुः। वृषभौ। ईश्वरौ। शासकौ (दिवः) दिवु व्यवहारादिषु-डिवि। व्यवहारस्य (रजसः) अन्तरिक्षस्य। आकाशस्य (पृथिव्याः) भूमेः (सहस्रम्) बहुसंख्याकाः (शंसाः) स्तोमाः। स्तुत्यगुणाः (उत) अपि च (ये) (गविष्टौ) इष गतौ, यद्वा यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु-क्तिन्। गोर्वाचो विद्याया इष्टौ प्राप्तौ (सर्वान्) (इत्) एव (तान्) शंसान् स्तुत्यगुणान् (उप) पूजायाम् (यात) सांहितिको दीर्घः। प्राप्नुत (पिबध्यै) अथ० २०।८।३। पातुम्। सोमस्य तत्त्वरसस्य पानं कर्तुम् ॥