१४१

१४१ ...{Loading}...

०१ यातं छर्दिष्पा

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या॒तं छ॑र्दि॒ष्पा उ॒त नः॑ प॑र॒स्पा भू॒तं ज॑ग॒त्पा उ॒त न॑स्तनू॒पा।
व॒र्तिस्तो॒काय॒ तन॑याय यातम् ॥

०१ यातं छर्दिष्पा ...{Loading}...

Griffith

Come as home-guardians, saving us from foemen, guarding our living creatures and our bodies, Come to the house to give us seed and offspring:

पदपाठः

या॒तम्। छ॒र्दिःऽपौ। उ॒त। नः॒। प॒रः॒ऽपा। भू॒तम्। ज॒ग॒त्ऽपौ। उ॒त। नः॒। त॒नू॒ऽपा। व॒र्तिः। तो॒काय॑। तन॑याय। या॒त॒म्। १४१.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनौ
  • शशकर्णः
  • विराडनुष्टुप्
  • सूक्त १४१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे दिन-राति दोनों !] (छर्दिष्पौ) घर के रक्षक होकर (यातम्) आओ, (उत) और (नः) हमारे बीच (परस्पा) पालनीयों के पालक, (जगत्पा) जगत् के रक्षक (उत) और (नः) हमारे (तनूपा) शरीरों के बचानेवाले (भूतम्) होओ, और (तोकाय) सन्तान और (तनयाय) पुत्र के हित के लिये (वर्तिः) [हमारे] घर (यातम्) आओ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य घर आदि स्थानों में दिन-रात का सुप्रयोग करके अपने बालक आदि को सुमार्ग में चलावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।९।११-१ ॥ १−(यातम्) आगच्छतम् (छर्दिष्पौ) गृहपालकौ (उत) अपि च (नः) अस्माकं मध्ये (परस्पा) पॄ पालनपूरणयोः-असुन्। परसां पालनीयानां पालकौ (भूतम्) भवतम् (जगत्पा) जगतः संसारस्य रक्षकौ (उत) (नः) अस्माकम् (तनूपा) शरीराणां पालकौ (वर्तिः) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। वृतु वर्तने-इसि। छर्दिः। गृहम् (तोकाय) सन्तानहिताय (तनयाय) पुत्रहिताय (यातम्) आगच्छतम् ॥

०२ यदिन्द्रेण सरथम्

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यदिन्द्रे॑ण स॒रथं॑ या॒थो अ॑श्विना॒ यद्वा॑ वा॒युना॒ भव॑थः॒ समो॑कसा।
यदा॑दि॒त्येभि॑रृ॒भुभिः॑ स॒जोष॑सा॒ यद्वा॒ विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णेषु॒ तिष्ठ॑थः ॥

०२ यदिन्द्रेण सरथम् ...{Loading}...

Griffith

Whatever with Indra ye be faring, Asvins, or resting in one dwelling-place with Vayu, In concord with the Ribhus or Adityas, or standing still in Vishnu’s striding-places.

पदपाठः

यत्। इन्द्रे॑ण। स॒ऽरथ॑म्। या॒थः। अ॒श्वि॒ना॒। यत्। वा॒। वा॒युना॑। भव॑थः। सम्ऽओ॑कसा। यत्। आ॒दि॒त्येभिः॑। ऋ॒भुऽभिः॑। स॒ऽजोष॑सा। यत्। वा॒। विष्णोः॑। वि॒ऽक्रम॑णेषु। तिष्ठ॑थः। १४१.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनौ
  • शशकर्णः
  • जगती
  • सूक्त १४१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (यत्) चाहे (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सूर्य] के साथ (सरथम्) एक रथ में चढ़कर (याथः) तुम चलते हो, (वा) अथवा (यत्) चाहे (वायुना) पवन के साथ (समोकसा) एक घरवाले (भवथः) होते हो। (यत्) चाहे (आदित्येभिः) अखण्ड व्रतधारी (ऋभुभिः) बुद्धिमानों के साथ (सजोषसा) एक सी प्रीति करते हुए, (वा) अथवा (यत्) चाहे (विष्णोः) सर्वव्यापक परमात्मा के (विक्रमणेषु) पराक्रमों में (तिष्ठथः) ठहरते हो [वहाँ से दोनों आओ-म० १] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सर्वत्र व्यापी दिन-राति अर्थात् काल को सूर्यविद्या, वायुविद्या, विद्वानों के सत्सङ्ग और परमेश्वर की भक्ति आदि में लगाकर अपना पुरुषार्थ बढ़ावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यत्) यदि। सम्भावनायाम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सूर्येण सह (सरथम्) समानमेकं रथमास्थाय (याथः) गच्छथः (अश्विना) सू० १४०। म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (यत्) यदि (वा) अथवा (वायुना) पवनेन (भवथः) (समोकसा) समानगृहौ (यत्) (आदित्येभिः) अखण्डव्रतिभिः (ऋभुभिः) अथ० १।२।३। मेधाविभिः-निघ० ३।१। (सजोषसा) समानप्रीयमाणौ (यत्) (वा) (विष्णोः) सर्वव्यापस्य परमेश्वरस्य (विक्रमणेषु) शौर्यातिशयेषु। पराक्रमेषु (तिष्ठथः) वर्तेथे। सर्वस्मादपि स्थानादागच्छतम्-इति पूर्वमन्त्रेण सह अन्वयः ॥

०३ यदद्याश्विनावहं हुवेय

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यद॒द्याश्विना॑व॒हं हु॒वेय॒ वाज॑सातये।
यत्पृ॒त्सु तु॒र्वणे॒ सह॒स्तच्छ्रेष्ठ॑म॒श्विनो॒रवः॑ ॥

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Griffith

When 1, O Asvins, call on you to-day that I may gather strength, Or as all-conquering might in war, be that the Asvins’ noblest grace.

पदपाठः

यत्। अ॒द्य। अ॒श्विनौ॑। अ॒हम्। हु॒वेय॑। वाज॑ऽसातये। यत्। पृ॒त्ऽसु। तु॒र्वणे॑। सहः॑। तत्। श्रेष्ठ॑म्। अ॒श्विनोः॑। अवः॑। १४१.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनौ
  • शशकर्णः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त १४१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (अद्य) (अश्विनौ) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (वाजसातये) विज्ञान के लाभ के लिये (अहम्) मैं (हुवेय) बुलाऊँ। और (पृत्सु) संग्रामों के बीच (तुर्वणे) शत्रुओं के मारने में (यत्) जो (सहः) बल है, (तत्) वह (अश्विनोः) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] की (श्रेष्ठम्) अति उत्तम (अवः) रक्षा [होवे] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सदा विज्ञान के साथ अपना सामर्थ्य बढ़ावें, और शत्रुओं को मारकर सुखी होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(यत्) यदा (अद्य) अस्मिन् दिने (अश्विनौ) म० २। व्यापकौ। अहोरात्रौ (अहम्) (हुवेय) आह्वयेय (वाजसातये) विज्ञानस्य लाभाय (यत्) (पृत्सु) संग्रामेषु (तुर्वणे) कॄपॄवृजि०। उ० २।८१। तुर्वी हिंसायाम्-क्यु। शत्रूणां नाशने (सहः) अभिभवितृ बलम् (तत्) (श्रेष्ठम्) प्रशस्यतमम् (अश्विनोः) अहोरात्रयोः (अवः) रक्षणं भवतु ॥

०४ आ नूनम्

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आ नू॒नं या॑तमश्विने॒मा ह॒व्यानि॑ वां हि॒ता।
इ॒मे सोमा॑सो॒ अधि॑ तु॒र्वशे॒ यदा॑वि॒मे कण्वे॑षु वा॒मथ॑ ॥

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Griffith

Now come, ye Asvins, hitherward: here are oblations set for you; These Soma draughts to aid Yadu and Turvasa, these offered you mid Kanva’s sons.

पदपाठः

आ। नू॒नम्। या॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। इ॒मा। ह॒व्यानि॑। वा॒म्। हि॒ता। इ॒मे। सोमा॑सः। अधि॑। तु॒र्वशे॑। यदौ॑। इ॒मे। कण्वे॑षु। वा॒म्। अथ॑। १४१.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनौ
  • शशकर्णः
  • बृहती
  • सूक्त १४१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-रात] (नूनम्) अवश्य (आ यातम्) आओ, (इमा) यह (हव्यानि) ग्राह्य द्रव्य (वाम्) तुम दोनों के लिये (हिता) रक्खे हैं। (इमे) यह (सोमासः) सोम रस [तत्त्व रस] (तुर्वशे) हिंसकों को वश में करनेवाले, (यदौ) यत्नशील मनुष्य में (अथ) और (इमे) यह [तत्त्व रस] (कण्वेषु) बुद्धिमानों में (वाम्) तुम दोनों के (अधि) अधिकाई से हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - समय के सुप्रयोग से विद्वान् प्रयत्न करनेवालों को उत्तम-उत्तम पदार्थ मिलते हैं और सदा मिलते रहेंगे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(आ यातम्) आगच्छतम् (नूनम्) अवश्यम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ अहोरात्रौ (इमा) पुरोवर्तीनि (हव्यानि) ग्राह्यवस्तूनि (वाम्) युवाभ्याम् (हिता) धृतानि (इमे) दृश्यमानाः (सोमासः) तत्त्वरसाः (अधि) आधिक्येन (तुर्वशे) अ० २०।३७।८। नरां हिंसकानां वशयितरि (यदौ) यती प्रयत्ने-उप्रत्ययः, तकारस्य दः। प्रयत्नशीले (इमे) (कण्वेषु) मेधाविषु (वाम्) युवयोः (अथ) अपि च ॥

०५ यन्नासत्या पराके

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यन्ना॑सत्या परा॒के अ॑र्वा॒के अस्ति॑ भेष॒जम्।
तेन॑ नू॒नं वि॑म॒दाय॑ प्रचेतसा छ॒र्दिर्व॒त्साय॑ य॒च्छत॑म् ॥

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Griffith

Whatever healing balm is yours, Nasatyas near or far away, Therewith, great Sages, grant a home to Vatsa and to Vimada.

पदपाठः

यत्। ना॒स॒त्या॒। प॒रा॒के। अ॒र्वा॒के। अस्ति॑। भे॒ष॒जम्। तेन॑। नू॒नम्। वि॒ऽम॒दाय॑। प्र॒ऽचे॒त॒सा॑। छ॒र्दिः। व॒त्साय॑। य॒च्छ॒त॒म्। १४१.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनौ
  • शशकर्णः
  • बृहती
  • सूक्त १४१
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सदा सत्य स्वभाववाले दोनों ! [दिन-राति] (यत्) जो (भेषजम्) औषध (पराके) दूर में और (अर्वाके) समीप में (अस्ति) है। (प्रचेतसा) हे उत्तम ज्ञान करानेवाले दोनों (तेन) उस [औषध] के साथ (नूनम्) अवश्य करके (विमदाय) निरहंकारी [वा अदीन] (वत्साय) शास्त्रों के कहनेवाले पुरुष को (छर्दिः) घर (यच्छतम्) दान करो ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य घर और बाहिर समय को उत्तम रीति से काम में लगाकर सुन्दर घरों में स्वस्थ रहें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(यत्) (नासत्या) सू० १४०।१। हे सदा सत्यस्वभावौ (पराके) पिनाकादयश्च। उ० ४।१। परा+क्रमु पादविक्षेपे-आकप्रत्ययः, धातुलोपः। पराके दूरनाम-निघ० ३।२६। पराके पराक्रान्ते-निरु० ।९। दूरदेशे (अर्वाके) वलाकादयश्च। उ० ४।१४। अर्वाक्+क्रमु पादविक्षेपे-आकप्रत्ययः, धातुलोपः। अर्वाके अन्तिकनाम-निघ० ३।१६। समीपे (अस्ति) (भेषजम्) औषधम् (तेन) भेषजेन सह (नूनम्) अवश्यम् (विमदाय) अ० ४।२९।४। निरहंकाराय। अदीनाय (प्रचेतसा) प्रकृष्टं ज्ञानं याभ्यां तौ। हे प्रकृष्टज्ञानकारकौ (छर्दिः) गृहम् (वत्साय) सू० १३८।१। शास्त्राणां कथनशीलाय (यच्छतम्) दत्तम् ॥