१४० ...{Loading}...
०१ यन्नासत्या भुरण्यथो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑।
अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑।
अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥
०१ यन्नासत्या भुरण्यथो ...{Loading}...
Griffith
What force, Nasatyas, ye exert, whatever, Gods, ye tend and heal, This your own Vatsa gains not by his hymns alone: ye visit him who offers gifts.
पदपाठः
यत्। ना॒स॒त्या॒। भु॒र॒ण्यथः॑। यत्। वा॒। दे॒वा॒। भि॒ष॒ज्यथः॑। अ॒यम्। वा॒म्। व॒त्सः। म॒तिऽभिः॑। न। वि॒न्धते॒। ह॒विष्म॑न्तम्। हि। गच्छ॑थः। १४०.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- शशकर्णः
- बृहती
- सूक्त १४०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे असत्य न रखनेवाले दोनो ! [दिन-राति] (यत्) क्योंकि (भुरण्यथः) तुम पोषण करते हो, (वा) और, (देवा) हे व्यवहारकुशल दोनो ! (यत्) क्योंकि (भिषज्यथः) तुम औषध करते हो। (अयम्) यह (वत्सः) बोलनेवाला (वाम्) तुम दोनों को (मतिभिः) अपनी बुद्धियों से (न) नहीं (विन्धते) पाता है, (हविष्मन्तम्) भक्ति रखनेवाले को (हि) ही (गच्छथः) तुम दोनों मिलते हो ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य दिन राति का सुन्दर प्रयोग करके पुष्ट, स्वस्थ, विद्वान् होकर आनन्द पावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।९।६-१० ॥ १−(यत्) यतः (नासत्या) नास्ति असत्यं ययोस्तौ। नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७। इति नञः प्रकृतिभावः। विभक्तेराकारः। नासत्यौ वाश्विनौ, सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः, सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः, नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा। निरु० ६।१३। नासिकाप्रभवौ प्राणापानावित्यर्थः। हे असत्यरहितौ। सदा सत्यस्वभावौ। अश्विनौ (भुरण्यथः) भुरण धारणापोषणयोः कण्ड्वादिः। सर्वं पोषयथः (यत्) (वा) च (देवा) छान्दसः सांहितिको ह्रस्वः। व्यवहारकुशलौ (भिषज्यथः) भिषज चिकित्सायां कण्ड्वादिः। भैषज्यं कुरुथः (अयम्) (वाम्) युवाम् (वत्सः) अथ० २०।१३८।१। वदतेः-सप्रत्ययः। कथयिता (मतिभिः) बुद्धिभिः (न) निषेधे (विन्धते) दस्य धः। विन्दते लभते (हविष्मन्तम्) भक्तिमन्तम् (हि) एव (गच्छथ) प्राप्नुथः ॥
०२ आ नूनमश्विनोरृषि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ नू॒नम॒श्विनो॒रृषि॒ स्तोमं॑ चिकेत वा॒मया॑।
आ सोमं॒ मधु॑मत्तमं घ॒र्मं सि॑ञ्चा॒दथ॑र्वणि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ नू॒नम॒श्विनो॒रृषि॒ स्तोमं॑ चिकेत वा॒मया॑।
आ सोमं॒ मधु॑मत्तमं घ॒र्मं सि॑ञ्चा॒दथ॑र्वणि ॥
०२ आ नूनमश्विनोरृषि ...{Loading}...
Griffith
Now hath the Rishi splendidly thought out the Asvins’ hymn of praise. Let the Atharvan pour the warm oblation forth, and Soma very rich in sweets.
पदपाठः
आ। नू॒नम्। अ॒श्विनोः॑। ऋषिः॑। स्तोम॑म्। चि॒के॒त॒। वा॒मया॑। आ। सोम॑म्। मधु॑मत्ऽतमम्। घ॒र्मम्। सि॒ञ्चा॒त्। अथ॑र्वणि। १४०.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- शशकर्णः
- अनुष्टुप्
- सूक्त १४०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋषिः) ऋषि [विज्ञानी पुरुष] (अश्विनोः) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] के (स्तोमम्) स्तुतियोग्य कर्म को (वामया) उत्तम बुद्धि से (नूनम्) अवश्य (आ) सब ओर से (चिकेत) जाने। और (मधुमत्तमम्) अत्यन्त ज्ञानवाले और (घर्मम्) प्रकाशवाले (सोमम्) सोम [तत्त्व रस] को (अथर्वणि) निश्चल [जिज्ञासु] पर (आ) भले प्रकार (सिञ्चात्) सींचे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विज्ञानी पुरुष काल की महिमा जानकर जिज्ञासुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(आ) समन्तात् (नूनम्) अवश्यम् (अश्विनोः) अथ० २।२९।६। अश्विनौ अहोरात्रावित्येके-निरु० १२।१। व्यापकयोः। अहोरात्रयोः (ऋषिः) विज्ञानी पुरुषः (स्तोमम्) स्तुत्यव्यवहारम् (चिकेत) कित ज्ञाने-लिट्-जानीयात् (वामया) वामः प्रशस्यः-निघ० ३।८। उत्कृष्टया बुद्ध्या (आ) (सोमम्) तत्त्वरसम् (मधुमत्तमम्) अतिशयेन मधुविद्यायुक्तम् (घर्मम्) अ० २०।१३९।४। घृ दीप्तौ-मक्। दीप्यमानम् (सिञ्चात्) सिञ्चेत् (अथर्वणि) अथ० ४।१।७। अ+थर्व चरणे-वनिप्, वलोपः। निश्चले जिज्ञासौ ॥
०३ आ नूनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ नू॒नं र॒घुव॑र्तनिं॒ रथं॑ तिष्ठाथो अश्विना।
आ वां॒ स्तोमा॑ इ॒मे मम॒ नभो॒ न चु॑च्यवीरत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ नू॒नं र॒घुव॑र्तनिं॒ रथं॑ तिष्ठाथो अश्विना।
आ वां॒ स्तोमा॑ इ॒मे मम॒ नभो॒ न चु॑च्यवीरत ॥
०३ आ नूनम् ...{Loading}...
Griffith
Ye Asvins, now ascend your car that lightly rolls upon its way. May these my praises make you speed hitherward like a cloud of heaven.
पदपाठः
आ। नू॒नम्। र॒घुऽव॑र्तनिम्। रथ॑म्। ति॒ष्ठा॒थः॒। अ॒श्वि॒ना। आ। वा॒म्। स्तोमाः॑। इ॒मे। मम॑। नभः॑। न। चु॒च्य॒वी॒र॒त॒। १४०.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- शशकर्णः
- अनुष्टुप्
- सूक्त १४०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (रघुवर्तनिम्) हलके घूमनेवाले [अति शीघ्रगामी] (रथम्) रथ पर (नूनम्) अवश्य (आ तिष्ठाथः) तुम चढ़ते हो, (मम) मेरे (इमे) यह (स्तोमाः) स्तुति के वचन (वाम्) तुम दोनों को (नभः न) मेघ के समान [शीघ्र] (आ) सब ओर से (चुच्यवीरत) [हमें] प्राप्त कराते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे पवन से बादल आकाश में दौड़ता है, उससे भी अधिक शीघ्रगामी काल को वश में लाकर बुद्धिमान् आनन्द पाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(आ तिष्ठाथः) अधितिष्ठथः (नूनम्) अवश्यम् (रघुवर्तनिम्) वृतेश्च। उ० २।१०६। लघु+वृतु वर्तने-अनि, लस्य रः। लघुवर्तनोपेतम्। अतिशीघ्रगामिनम् (रथम्) यानम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (आ) समन्तात् (वाम्) युवाम् (स्तोमाः) स्तुतिवचनानि (इमे) (मम) (नभः) मेघः (न) यथा (चुच्यवीरत) अन्तर्गतण्यर्थः। च्यवयन्ति। गमयन्ति ॥
०४ यदद्य वाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद॒द्य वां॑ नासत्यो॒क्थैरा॑चुच्युवी॒महि॑।
यद्वा॒ वाणी॑भिरश्विने॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद॒द्य वां॑ नासत्यो॒क्थैरा॑चुच्युवी॒महि॑।
यद्वा॒ वाणी॑भिरश्विने॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् ॥
०४ यदद्य वाम् ...{Loading}...
Griffith
When, O Nasatyas, we this day make you speed hither N ith our hymns, Or, Asvins, with our songs of praise, remember Kanva specially.
पदपाठः
यत्। अ॒द्य। वा॒म्। ना॒स॒त्या॒। उ॒क्थैः। आ॒ऽचु॒च्यु॒वी॒महि॑। यत्। वा॒। वाणी॑भिः। अ॒श्वि॒ना॒। ए॒व। इत्। का॒ण्वस्य॑। बो॒ध॒त॒म्। १४०.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- शशकर्णः
- अनुष्टुप्
- सूक्त १४०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सदा सत्य स्वभाववाले दोनों ! [दिन-राति] (अद्य) आज [यत्] जैसे (उक्थैः) कहने योग्य शास्त्रों से, (वा) अथवा (यत्) जैसे (वाणीभिः) अपनी वाणियों से (वाम्) तुम दोनों को (आचुच्युवीमहि) हम लावें, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (एव इत्) वैसे ही (काण्वस्य) बुद्धिमान् के किये कर्म का (बोधतम्) तुम दोनों ज्ञान करो ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य शीघ्र शास्त्रों में प्रवीण होकर अपने वचन के पक्के होवें और प्राप्त अवसर का यथावत् प्रयोग करें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(यत्) यथा (अद्य) अस्मिन् दिने (वाम्) युवाम् (नासत्या) म० १। हे सदा सत्यस्वभावौ (उक्थैः) कथनीयशास्त्रैः (आचुच्युवीमहि) आगमयेम (यत्) यथा (वा) अथवा (वाणीभिः) वाग्भिः (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ। अन्यद् गतम्-१३९।३ ॥
०५ यद्वां कक्षीवाँ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद्वां॑ क॒क्षीवाँ॑ उ॒त यद्व्य॑श्व॒ ऋषि॒र्यद्वां॑ दी॒र्घत॑मा जु॒हाव॑।
पृथी॒ यद्वां॑ वै॒न्यः साद॑नेष्वे॒वेदतो॑ अश्विना चेतयेथाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद्वां॑ क॒क्षीवाँ॑ उ॒त यद्व्य॑श्व॒ ऋषि॒र्यद्वां॑ दी॒र्घत॑मा जु॒हाव॑।
पृथी॒ यद्वां॑ वै॒न्यः साद॑नेष्वे॒वेदतो॑ अश्विना चेतयेथाम् ॥
०५ यद्वां कक्षीवाँ ...{Loading}...
Griffith
As erst Kakshivan and the Rishi Vyasva, as erst Dirghatamas invoked your presence, Or, in the sacrificial chambers, Vainya Prithi, so be ye mindful of us here, O Asvins.
पदपाठः
यत्। वा॒म्। क॒क्षीवा॑न्। उ॒त। यत्। वि॒ऽअ॑श्वः। ऋषिः॑। यत्। वा॒म्। दी॒र्घऽत॑माः। जु॒हाव॑। पृथी॑। यत्। वा॒म्। वै॒न्यः। सद॑नेषु। ए॒व। इत्। अतः॑। अ॒श्वि॒ना॒। चे॒त॒ये॒था॒म्। १४०.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- शशकर्णः
- त्रिष्टुप्
- सूक्त १४०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (कक्षीवान्) गतिवाले [वा शासनवाले] पुरुष ने, (उत) और (यत्) जैसे (व्यश्वः) विविध वेगवाले ने और (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (दीर्घतमाः) दीर्घतमा [लंबा हो गया है, चला गया है अन्धकार जिससे ऐसे] (ऋषिः) ऋषि [विज्ञानी] ने, (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (वैन्यः) बुद्धिमानों के पास रहनेवाले (पृथी) विस्तारवाले पुरुष ने (सदनेषु) अपने स्थानों में (जुहाव) ग्रहण किया है, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (एव इत्) वैसे ही (अतः) इस [मेरे वचन] को (चेतयेथाम्) जानो ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे-जैसे मनुष्य दिन-राति का सुप्रयोग करते हैं, वैसे ही दिन-राति उनको सुख देते हैं ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(यत्) यथा (वाम्) युवाम् (कक्षीवान्) अथ० ४।२९।। कश गतिशासनयोः-क्सि, मतुप्, मस्य वः, दीर्घश्च। गतिशीलः शासनशीलो वा (उत) अपि च (यत्) यथा (व्यश्वः) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्। विविधवेगयुक्तः (ऋषिः) विज्ञानी (यत्) (वाम्) (दीर्घतमाः) दॄ विदारणे-घञ्+तमु काङ्क्षायां खेदे च-असुन् दीर्घं विदीर्णं दूरीभूतं तमः अन्धकारो यस्मात् स विद्वान् (जुहाव) हु आदाने-लिट्। गृहीतवान्। स्वीकृतवान् (पृथी) अ० ८।१०(४)।११। प्रथ विस्तारे-घञर्थे कप्रत्ययः सम्प्रसारणं च, मत्वर्थे इनि। विस्तारवान् (यत्) (वाम्) (वैन्यः) अथ० ८।१०(४)।११। वेनो मेधावी-निघ० २।१। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इति ण्य। मेधाविनां समीपस्थः (सदनेषु) संहितायां दीर्घः। स्थानेषु (एव) एवम्। तथा (इत्) अवश्यम् (अतः) इदम्-द्वितीयार्थे तसिः। इदं वचनम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (चेतयेथाम्) जानीतम् ॥