१३६

१३६ ...{Loading}...

VH anukramaṇī

खिलानि ।

०१ यदस्या अंहुभेद्याः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यद॑स्या अंहु॒भेद्याः॑ कृ॒धु स्थू॒लमु॒पात॑सत्।
मु॒ष्काविद॑स्या एज॒तो गो॑श॒फे श॑कु॒लावि॑व ॥

०१ यदस्या अंहुभेद्याः ...{Loading}...

Griffith

Si quis in hujus tenui rima praeditae feminae augustias fascinum intromittit, vaccae ungularum et Sakula. rum pisci- um more pudenda ejus agitantur.

पदपाठः

यत्। अ॒स्याः॒। अंहु॒ऽभेद्याः। कृ॒धु। स्थू॒लम्। उ॒पऽअत॑सत्। मु॒ष्कौ। इत्। अ॒स्याः॒। ए॒ज॒तः॒। गो॑ऽश॒फे। श॑कु॒लौऽइ॑व। १३६.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (अस्याः) इस (अंहुभेद्याः) पाप से नाश होनेवाली [प्रजा] के (कृधु) छोटे और (स्थूलम्) बड़े [पाप] को (उपातसत्) वह [राजा] नाश करता है। (अस्याः) इस [प्रजा] के (मुष्कौ इत्) दोनों ही चोर [स्त्री और पुरुष चोर अथवा राति और दिन के] चोर (गोशफे) गौ के खुर के गढ़े में (शकुलौ इव) दो मछलियों के समान, (एजतः) काँपते हैं [डरते हैं] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब राजा न्याय से सब प्रजा के छोट़े-बड़े अपराध को मिटाता है, तब सब स्त्री-पुरुष राति और दिन में पाप से काँपते हैं, जैसे मछलियाँ थोड़े जल में घबराती हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]यह मन्त्र यजुर्वेद में है−२३।२८। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३३२ में व्याख्यात है ॥ १−(यत्) यदा (अस्याः) अग्रे वर्तमानायाः (अंहुभेद्याः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। अम रोगे पीडने च−उप्रत्ययः, हुक् च। अंहुरः=अंहस्वान्−निरु० ६।२७। अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। भिदिर् विदारणे−ईप्रत्ययः। अंहुना पापेन भेदनीया विदारणीया या सा अंहुभेदी तस्याः प्रजायाः (कृधु) ह्रस्वम्−निघ० ३।२। अल्पं पापम् (स्थूलम्) महत् पापम् (उपातसत्) तसु उपक्षये उपक्षेपे च−लङ् लडर्थे। उपक्षिपति नाशयति (मुष्कौ) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। मुष स्तेये−कक्। तस्करौ। स्त्रीपुरुषरूपौ रात्रिदिवसभवौ चौरौ वा (इत्) एव (अस्याः) प्रजायाः (एजतः) कम्पेते। बिभीतः (गोशफे) गोखुरचिह्ने (शकुलौ) मद्गुरादयश्च। उ० १।४१। शक्लृ शक्तौ−उरच्, रस्य लः। मत्स्यौ (इव) यथा ॥

०२ यदा स्थूलेन

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यदा॑ स्थू॒लेन॒ पस॑साणौ मु॒ष्का उपा॑वधीत्।
विष्व॑ञ्चा व॒स्या वर्ध॑तः॒ सिक॑तास्वेव॒ गर्द॑भौ ॥

०२ यदा स्थूलेन ...{Loading}...

Griffith

Quum magno pene parvula ejus pudenda vir percutit, huc et illuc ilia increscunt veluti duo asini in solo arenoso.

पदपाठः

यदा॑। स्थू॒लेन॒। पय॑सा। अणो। मु॒ष्कौ। उप॑। अ॒व॒धी॒त्। विष्व॑ञ्चा। व॒स्या। वर्धतः॒। सिक॑तासु। ए॒व। गर्द॑भौ। १३६.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) जब (स्थूलेन) बड़े (पससा) राज्य प्रबन्ध के साथ (अणौ) सूक्ष्म न्याय के बीच (मुष्कौ) दोनों चोरों [स्त्री और पुरुष चोरों वा राति और दिन के चोरों] को (उप अवधीत्) वह [राजा] मार डालता है। (विष्वञ्चा) सब ओर पूजनीय (वस्या) अति श्रेष्ठ दोनों [स्त्री और पुरुष], (सिकतासु) रेतवाले देशों में (गर्दभौ एव) दो श्वेत कमलों के समान, (वर्धतः) बढ़ते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब राजा सूक्ष्म विचार के साथ सब दुष्ट चोरों को मिटा देता है, तभी श्रेष्ठ गुणवान् स्त्री-पुरुष बढ़ते हैं, जैसे बालू के स्थानों में श्वेत कमल बढ़ता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यदा) (स्थूलेन) महता (पससा) अथ० ४।४।६। पस बन्धे बाधे च−असुन्। पसः=राष्ट्रम्−दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।२२। राज्यप्रबन्धेन (अणौ) सूक्ष्मे न्याये (मुष्कौ) म० १। तस्करौ (उप) व्याप्तौ (अवधीत्) हन्ति। नाशयति (विष्वञ्चा) विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। सर्वतः पूज्यौ (वस्या) वसु−ईयसुन्, ईकारलोपः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्डा। वसीयसौ। अतिश्रेष्ठौ स्त्रीपुरुषौ (वर्धतः) (सिकतासु) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। सिक सेचने−अतच्। बालुयुक्तभूमिषु (एव) सादृश्ये। इव (गर्दभौ) कॄशॄशलिकलिगर्दिभ्योऽभच्। उ० ३।१२२। गर्द शब्दे−अभच्। द्वे श्वेतकुमुदे ॥

०३ यदल्पिकास्वल्पिका कर्कन्धूकेव

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यद॑ल्पिका॒स्व᳡ल्पिका॒ कर्क॑न्धू॒केव॒ पद्य॑ते।
वा॑सन्ति॒कमि॑व॒ तेज॑नं॒ यन्त्य॒वाता॑य॒ वित्प॑ति ॥

०३ यदल्पिकास्वल्पिका कर्कन्धूकेव ...{Loading}...

Griffith

Quum parvum, admodum parvum, Ziziphi Jujubae quasi granum in eam incidit, ventris ejus partes interiores, velut verno tempore arundo, extentae videntur.

पदपाठः

यत्। अल्पि॑का॒सु। अ॑ल्पिका॒। कर्क॑ऽधू॒के। अव॒ऽसद्यते। वास॑न्ति॒कम्ऽइ॑व॒। तेज॑न॒म्। यन्ति॒। अ॒वाता॑य॒। वित्प॑ति। १३६.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • आर्ष्यनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (अल्पिकासु) छोटी प्रजाओं में (अल्पिका) छोटी प्रजा (कर्कन्धूके) अग्नि के झोके में (अवपद्यते) कष्ट पाती है। [तब] (वित्पति) विद्वानों के पतन में (अवाताय) दुःख मिटाने के लिये (वासन्तिकम् इव) वसन्त ऋतु में होनेवाली [उत्तेजना] के समान (तेजनम्) उत्तेजना को (यन्ति) वे [शूर लोग] पाते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - छोटी-छोटी प्रजाओं पर अन्याय होने से बड़ों को हानि पहुँचती है, इसलिये शूर वीर पुरुष वसन्त ऋतु के समान उत्तेजित होकर शत्रुओं का नाश करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(यत्) यदा (अल्पिकासु) क्षुद्रासु प्रजासु (अल्पिका) क्षुद्रा प्रजा (कर्कन्धूके) कृदाधा०। उ० ३।४०। डुकृञ् करणे−कप्रत्ययः, ककारस्य इत्संज्ञा न। सृवृभू०। उ० ३।४१। धूञ् कम्पने−कक्। कर्कस्य अग्नेः धूके कम्पने (अवपद्यते) अवसीदति। दुःखं प्राप्नोति (वासन्तिकम्) वसन्ताच्च। पा० ४।३।२०। वसन्त−ठञ्। वसन्ते भवं तेजनम् (इव) यथा (तेजनम्) उद्दीपनम्। उत्तेजनाम्। प्रेरणाम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति ते शूराः (अवाताय) वात गतौ सेवायां सुखीकरणे च−घञ्। वातं सुखम् अवातं दुःखम्। तत् नाशयितुम् (वित्पति) विद ज्ञाने−क्विप्+पत्लृ गतौ−क्विप्। विदां विदुषां पति अधःपतने ॥

०४ यद्देवासो ललामगुम्

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यद्दे॒वासो॑ ललामगुं॒ प्रवि॑ष्टी॒मिन॑माविषुः।
स॑कु॒ला दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ॥

०४ यद्देवासो ललामगुम् ...{Loading}...

Griffith

Si Dii mentulae intumescenti faverunt, cum femoribus suis se: ostentat femina tanquam vero testi.

पदपाठः

यत्। दे॒वास॑। ल॒लाम॑ऽगुम्। प्र। वि॒ष्टी॒मिन॑म्। आवि॑षुः। स॒कु॒ला। दे॒दि॒श्य॒ते॒। नारी॑। स॒त्यस्य॑। अ॑क्षि॒भुवः॑। य॒था॒। १३६.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • भुरिगनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जैसे (देवासः) विद्वान् लोग (ललामगुम्) प्रधानता पहुँचानेवाले (विष्टीमिनम्) कोमलता से युक्त न्याय में (प्र आविषुः) प्रविष्ट हुए हैं। और (यथा) जैसे (सकुला) बाल बच्चोंवाली (नारी) नारी [स्त्री] (अक्षिभुवः) आँखों से हुए [प्रत्यक्ष] (सत्यस्य) सत्य का (देदिश्यते) बार-बार उपदेश करती है [वैसे ही राजा न्याय और उपदेश करे] ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे पूर्वज लोग न्याय करने से प्रधान हुए हैं, और जैसे माता सत्य का उपदेश करके सन्तानों को गुणी बनाती है, वैसे ही राजा प्रजा का हित करता रहे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२३।२९। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३३४ में व्याख्यात है ॥ ४−(यत्) यथा (देवासः) विद्वांसः (ललामगुम्) प्रथेरमच्। उ० ।६८। लल ईप्सायाम्−अमच् पृषोदरादिदीर्घः। गच्छतेः-डु। ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु−अमरः २३।१४२। प्राधान्यस्य गमयितारं प्रापयितारम् (प्र) (विष्टीमिनम्) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। विष्टीम−इनि। विशेषेण आर्द्रभावेन कोमलत्वेन युक्तं, न्यायम् (आविषुः) अव रक्षणगतिप्रवेशादिषु−लुङ्। प्रविष्टवन्तः (सकुला) कुलैः सन्तानैः सह वर्त्तमाना (देदिश्यते) दिश दाने−यङ्प्रत्ययः। पुनः पुनरुपदेशं करोति (नारी) नरस्य स्त्री (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (अक्षिभुवः) अक्षि+भू−क्विप्। अक्षिभ्यां भवस्य प्रत्यक्षस्य (यथा) ॥

०५ महानग्न्यतृप्नद्वि मोक्रददस्थानासरन्

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म॑हान॒ग्न्य᳡तृप्नद्वि॒ मोक्र॑द॒दस्था॑नासरन्।
शक्ति॑का॒नना॑ स्वच॒मश॑कं सक्तु॒ पद्य॑म् ॥

०५ महानग्न्यतृप्नद्वि मोक्रददस्थानासरन् ...{Loading}...

Griffith

Magnopere delectata est arnica: ut equns solutus adveniens vocem edidit: Vaginam juvenis! pene percute: medium. femur paratum est.

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इत‍ि॑। अ॑तृप्नत्। वि। मोक्र॑द॒त्। अस्था॑ना। आसरन्। श॑क्तिका॒ननाः। स्व॑च॒मश॑कम्। सक्तु॒। पद्य॑म्। १३६.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [शारीरिक और आत्मिक बलों] को (वि) विशेष करके (अतृप्नत्) तृप्त करे, और (अस्थाना) अयोग्य स्थान में (आसरन्) आता हुआ (मोक्रदत्) न घबरावे। (शक्तिकाननाः) सामर्थ्य का प्रकाश करनेवाले हम (स्वचमशकम्) ज्ञातियों के लिये भोजन [लड्डू आदि] और (सक्तु) सत्तू (पद्यम्) प्राप्त करें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - समर्थ मनुष्य अन्न आदि पदार्थों का संग्रह करके कठिन समय में अपने भाई-बन्धुओं को पुष्ट करके रक्षा करे ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(महान्) समर्थः पुरुषः (अग्नी) प्रगृह्यत्वाभावः। अग्निरूपौ आत्मिकसामाजिकप्रतापौ (अतृप्नत्) तर्पयेत् (वि) विशेषेण (मोक्रदत्) क्रद, क्रदि वैकल्ये। नैव व्याकुलो भवेत् (अस्थाना) सुपां सुलुक्। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। अयोग्यस्थानम् (आसरन्) सृ गतौ−शतृ। आगच्छन् (शक्तिकाननाः) कन दीप्तौ−णिच्, ल्युट्। शक्तिं कानयन्ति दीपयन्तीति शक्तिकाननाः। सामर्थ्यप्रकाशकाः (स्वचमशकम्) अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। चमु अदने−असच्। सस्य शः, स्वार्थे कन्। स्वेभ्यो ज्ञातिभ्यः पिष्टकमेदं लड्डुकादिकम् (सक्तु) भ्रष्टयवादिचूर्णम् (पद्यम्) वयं प्राप्नुयाम ॥

०६ महानग्न्युलूखलमतिक्रामन्त्यब्रवीत् यथा

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म॑हान॒ग्न्यु᳡लूखलमति॒क्राम॑न्त्यब्रवीत्।
यथा॒ तव॑ वनस्पते॒ निर॑घ्नन्ति॒ तथै॑वेति ॥

०६ महानग्न्युलूखलमतिक्रामन्त्यब्रवीत् यथा ...{Loading}...

Griffith

Arnica, pilam superans, dixit: Ut tua, Arbor, ! (verbera) pinsunt, sic etiam nunc (hic me permolit).

पदपाठः

म॒हा॒न्‌। अ॒ग्नी इति॑। उ॑लूखलम्। अतिक्राम॑न्ति। अब्रवीत्। यथा॒। तव॑। वनस्पते॒। निर॑घ॒न्ति॒। तथा॑। एवति॑। १३६.६। ।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] से (उलूखलम्) ओखली को (अतिक्रामन्ति) लाँघता है और (अब्रवीत्) कहता है−(वनस्पते) हे वनस्पति ! [काठ के पात्र] (यथा) जैसे (तव) तुझमें (निरघ्नन्ति) [लोग] कूटते हैं, (तथा) वैसे ही (एवति) ज्ञान के विषय में [होवे] ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे ओखली में कूटकर सार पदार्थ लेते हैं, वैसे ही मनुष्य परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(महान्) (अग्नी) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः, प्रगृह्यत्वाभावश्च। अग्निभ्याम्। आत्मिकसामाजिकबलाभ्याम् (उलूखलम्) धान्यादिकण्डनपात्रम् (अतिक्रामन्ति) एकवचनस्य बहुवचनम्। अतिक्रामति। उल्लङ्घयति (अब्रवीत्) ब्रवीति (यथा) (तव) त्वयि (वनस्पते) हे काष्ठमय पात्र (निरघ्नन्ति) अकारश्छान्दसः। निर्घ्नन्ति। नितरामाहननं कुर्वन्ति मनुष्याः (तथा) (एवति) वर्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। इवि व्याप्तौ−अति, नकारलोपः। ज्ञानविषये ॥

०७ महानग्न्युप ब्रूते

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म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते भ्र॒ष्टोऽथाप्य॑भूभुवः।
यथै॒व ते॑ वनस्पते॒ पिप्प॑ति॒ तथै॑वेति ॥

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Griffith

Arnica eum alloquitur: Tum etiam tu defecisti. Ut tua. Arbor! (verbera) Pinsunt, sic etiam nunc (me permole).

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इति॑। उप॑। ब्रू॒ते॒। भ्र॒ष्टः। अथ॑। अपि॑। अ॑भुव। यथा॒। एव। ते॑। वनस्पते॒। पिप्प॑ति॒। तथा॑। एवति॑। १३६.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (भ्रष्टः) परिपक्व, (अथ अपि) और भी (अभूभुवः) अशुद्धि का शोधनेवाला पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (ब्रूते) कहता है−(वनस्पते) हे वनस्पति ! [काठ के पात्र ओखली] (यथा) जैसे (ते) तुझ में (पिप्पति) [मनुष्य] भरता है, (तथा एव) वैसे ही (एवति) ज्ञान के विषय में [होवे] ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र ६ के समान है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(महान्) (अग्नी) म० । आत्मिकसामाजिकप्रतापौ (उप) उपेत्य। प्राप्य (ब्रूते) कथयति (भ्रष्टः) भ्रस्ज पाके−क्त। भृष्टः। परिपक्वः (अथ) अनन्तरम् (अपि) (अभूभुवः) भू सत्ताशुद्धिचिन्तनमिश्रणेषु−क्विप्+भूरञ्जिभ्यां कित्। उ० ४।२१७। भू शुद्धौ−असुन् कित्। अशुद्धिशोधकः पुरुषः (यथा) (एव) (ते) त्वयि (वनस्पते) म० ६। (पिप्पति) पृ पालनपूरणयोः पृषोदरादिरूपम्। पिपर्ति। पूरयति (तथा) (एवति) म० ६ ॥

०८ महानग्न्युप ब्रूते

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म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते भ्र॒ष्टोऽथाप्य॑भूभुवः।
यथा॑ वयो॒ विदाह्य॑ स्व॒र्गे न॒मवद॑ह्यते ॥

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Griffith

Arnica eum alloquitur: Tum etiam tu defceisti. Ut silvae ignis. inflammatur, sic ardent mea membra.

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इति॑। उप॑। ब्रू॒ते॒। भ्र॒ष्टः। अथ॑। अपि। अ॑भूवुवः। यथा॑। वयः॒। वि॑दाह्य॑। स्व॒र्गे। न॒म्। अवद॑ह्यते॒। १३६.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
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  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (भ्रष्टः) परिपक्व, (अथ अपि) और भी (अभूभुवः) अशुद्धि का शोधनेवाला पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (ब्रूते) कहता है−(यथा) जैसे (वयः) जीवन को (विदाह्य) विविध प्रकार तपाकर (स्वर्गे) स्वर्ग में [सुख विशेष में] (नम्) बन्धन को (अवदह्यते) [विद्वान्] भस्म कर देता है, [वैसे ही मनुष्य करे] ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य शुद्ध चित्त से बल बढ़ाकर विद्वानों के समान ब्रह्मचर्य आदि तप करके दुःखों से मुक्त होवे ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(वयः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वी गतिव्याप्तिप्रजननादिषु−असुन्। जीवनम् (विदाह्य) दह दाहे। विविधं तपश्चरणेन तप्त्वा (स्वर्गे) सुखविशेषे (नम्) णह बन्धे−ड। बन्धम् (अवदह्यते) भस्मीकरोति विनाशयति विद्वान्। अन्यद् गतम्−म० ७ ॥

०९ महानग्न्युप ब्रूते

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म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते स्वसा॒वेशि॑तं॒ पसः॑।
इ॒त्थं फल॑स्य॒ वृक्ष॑स्य॒ शूर्पे॑ शूर्पं॒ भजे॑महि ॥

०९ महानग्न्युप ब्रूते ...{Loading}...

Griffith

Arnica eum alloquitur: Fauste infixus est penis; arboris fructu celeriter fruamur.

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इति॑। उप॑। ब्रू॒ते॒। स्व॑सा॒। आ॒ऽवेशि॑त॒म्। पसः। इ॒त्थम्। फल॑स्य॒। वृक्ष॑स्य॒। शूर्पे॑। शूर्प॒म्। भजे॑महि। १३६.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (स्वसा) सुन्दर गति [उपाय] से (आवेशितम्) प्राप्त हुए (पसः) राज्यप्रबन्ध के विषय में (ब्रूते) कहता है−[कि] (इत्थम्) इसी प्रकार से (वृक्षस्य) स्वीकार करने योग्य (फलस्य) फल के (शूर्पे) एक सूप में (शूर्पम्) दूसरे सूप को (भजेमहि) हम सेवें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य अन्न आदि पदार्थ को सूप से लगातार शुद्ध करते हैं, वैसे ही राज्य का प्रबन्ध सदा विचार से करना चाहिये ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(महान्) (अग्नी) म० । आत्मिकसामाजिकप्रतापौ (उप) उपेत्य (ब्रूते) (स्वसा) सु+अस गतिदीप्त्यादानेषु−क्विप्। सुगत्या। उचितोपायेन (आवेशितम्) प्राप्तम्। रक्षितम् (पसः) म० २। राज्यप्रबन्धम् (इत्थम्) एवम् (फलस्य) (वृक्षस्य) वृक्ष वरणे-क। स्वीकरणीयस्य (शूर्पे) शूर्प माने-घञ्। एकस्मिन् धान्यस्फोटके (शूर्पम्) अन्यं शूर्पम् (भजेमहि) सेवेमहि ॥९॥

१० महानग्नी कृकवाकम्

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म॑हान॒ग्नी कृ॑कवाकं॒ शम्य॑या॒ परि॑ धावति।
अ॒यं न॑ वि॒द्म यो मृ॒गः शी॒र्ष्णा ह॑रति॒ धाणि॑काम् ॥

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Griffith

Arnica cum fuste gallum circumcurrit. Nos nescimus quae bestia pudendum muliebre in capite gerat.

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इति॑। कृ॑कवाक॒म्। शम्य॑या॒। परि॑। धावति। अ॒यम्। न। वि॒द्म। यः। मृ॒गः॒। शी॒र्ष्णा। ह॑रति॒। धाणिकम्। १३६.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] से और (शम्यया) जूये की कील [के समान शस्त्र] से (कृकवाकम् परि) बनावटी बोलीवाले पर (धावति) दौड़ता है। [उसको] (न) अब (विद्म) हम जानते हैं, (अयम् यः) यह जो (मृगः) पशु [के तुल्य मूर्ख] (शीर्ष्णा) शिर से [कल्पित विचार से] (धाणिकाम्) बस्ती [राजधानी आदि] को (हरति) लूटता है ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो ठग छल से झूँठी बनावटी बोली बोलकर राजधानी आदि बस्ती को लूटें, राजा उनको यथावत् दण्ड देवें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(महान्) (अग्नी) म० ६। अग्निभ्याम्। आत्मिकसामाजिकबलाभ्याम् (कृकवाकम्) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। करोतेः−कक्+वच कथने−घञ्। कृकः कृत्रिमः कल्पितो वाको वचनं यस्य तम्। कृत्रिमवाचिनम् (शम्यया) अथ० ६।१३८।४। शान्तिकरेण युगकीलतुल्यशस्त्रेण (परि) प्रति (धावति) शीघ्रं गच्छति (अयम्) (न) सम्प्रति−निरु० ७।३१। (विद्म) जानीमः (यः) (मृगः) पशुतुल्यो मूर्खः (शीर्ष्णा) शिरसा। कल्पितविचारेण (हरति) लुण्टति (धाणिकाम्) आणको लूघूशिङ्घिधाञ्भ्यः। उ० ३।८३। दधातेः-आणकप्रत्ययः, टाप् अत इत्त्वम्। वस्तीम्। राजधान्यादिकाम् ॥

११ महानग्नी महानग्नम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

म॑हान॒ग्नी म॑हान॒ग्नं धाव॑न्त॒मनु॑ धावति।
इ॒मास्तद॑स्य॒ गा र॑क्ष॒ यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥

११ महानग्नी महानग्नम् ...{Loading}...

Griffith

Arnica post currentem amatorem currit: Has ejus boves custodi tu. Me futue: coctam oryzam ede.

पदपाठः

म॒हा॒न्। अ॒ग्नी इति॑। म॑हान्। अ॒ग्नम्‌। धाव॑न्त॒म्। अनु॑। धावति। इ॒माः। तत्। अ॑स्य॒। गाः। र॑क्ष॒। यभ॒। माम्। अ॑द्धि॒। औद॒नम्। ११३६.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] के, और (महान्) महान् पुरुष (अग्नम्) ज्ञानवान् (धावन्तम् अनु) दौड़ते हुए के पीछे (धावति) दौड़ता है। (तत्) सो (अस्य) इस [पुरुष] को (इमाः) इन (गाः) भूमियों की (रक्ष) रक्षा कर, (यभ) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) खिला ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - महान् पुरुष आत्मिक और सामाजिक बल प्राप्त करके ज्ञानियों का अनुकरण करे और राज्य की रक्षा करके प्रजा को पाले ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(महान्) (अग्नी) म० । आत्मिकसामाजिकपराक्रमौ (महान्) (अग्नम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। अग गतौ−न प्रत्ययः। ज्ञानवन्तम् (धावन्तम्) शीघ्रं गच्छन्तम् (अनु) अनुकृत्य (धावति) शीघ्रं गच्छति (इमाः) (तत्) ततः (अस्य) पुरुषस्य (गाः) भूमीः, (रक्ष) (यभ) मस्य भः। हे यम। न्यायकारिन् (माम्) प्रजाजनम् (अद्धि) अद भक्षणे, अन्तर्गतणिजर्थः। आदय। खादय। (औदनम्) स्वार्थे अण्। भोजनम् ॥

१२ सुदेवस्त्वा महानग्नीर्बबाधते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सुदे॑वस्त्वा म॒हान॑ग्नी॒र्बबा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म्।
कु॒सं पीव॒रो न॑वत् ॥

१२ सुदेवस्त्वा महानग्नीर्बबाधते ...{Loading}...

Griffith

Fortunatus, Arnica, te opprimit. Bona est magni viri fututio, Macrum pinguis. femina obtineat. Futue me, etc.

पदपाठः

सुदे॑वः। त्वा। म॒हान्। अ॑ग्नीः॒। बबाध॑ते॒। मह॒तः। सा॑धु। खो॒दन॑म्। कु॒सम्। पीव॒रः। नव॑त्। १३६.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृत्ककुबुष्णिक्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा जन !] (सुदेवः) बड़ा विजय चाहनेवाला, (महान्) महान् पुरुष (त्वा) तुझसे (महतः) बड़े (अग्नीः) अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] के द्वारा (खोदनम्) खोदने के कर्म [सैंध सुरंग आदि] को (साधु) भले प्रकार (बबाधते) रोकता है। (पीवरः) पुष्टाङ्ग पुरुष (कुसम्) आपस में मिलाप को (नवत्) प्राप्त करे ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा और प्रजा के मेल से चोर आदि दुष्ट लोग प्रजा को न सतावें ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(सुदेवः) सुविजिगीषुः (त्वा) प्रजाजनसकाशात् (महान्) (अग्नीः) अग्नीन्। आत्मिकसामाजिकपराक्रमैः-इत्यर्थः (बबाधते) बाधते। निवारयति (महतः) विशालान्। विशालैः (साधु) यथा तथा। यथावत् प्रकारेण (खोदनम्) खुड संवरणे भेदने च−ल्युट्। भेदनम्। सन्धिकरणम्। (कुसम्) कुस संश्लेषणे−क, परस्परसंगमनम् (पीवरः) अर्त्तिकमिभ्रमि०। उ० ३।१३२। पीव स्थौल्ये−अरप्रत्ययः, स च चित्। पुष्टः पुरुषः (नवत्) नवत इति गतिकर्मा−निघ० २।१४। प्राप्नुयात् ॥

१३ वशा दग्धामिमाङ्गुरिम्

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व॒शा द॒ग्धामि॑माङ्गु॒रिं प्रसृ॑जतो॒ग्रतं॑ परे।
म॒हान्वै भ॒द्रो यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥

१३ वशा दग्धामिमाङ्गुरिम् ...{Loading}...

Griffith

Sine digito mulcta vacca vanankaram producit, Magna et bona est Aegle Marmelos. Futue me, etc.

पदपाठः

वशा। द॒ग्धाम्ऽइ॒म। अङ्गुरिम्। प्रसृ॑जत। उ॒ग्रत॑म्। परे। म॒हान्। वै। भ॒द्रः। यभ॒। माम्। अ॑द्धि। औद॒नम्। १३६.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • भुरिगार्ष्युष्णिक्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (वशा) वन्ध्या [निष्फल] (उग्रतम्) उग्रता [प्रचण्ड नीति] को (दग्धाम्) जली हुई, (अङ्गुरिम् इम्) अङ्गुरी के समान (परे) दूर (प्रसृजत) सर्वथा छोड़ो। (महान्) महान् पुरुष (वै) ही (भद्रः) मङ्गलदाता है, (यम) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) तू खिला ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे साँप आदि के विष से जले हुए अङ्गुली आदि अङ्ग को शरीर की रक्षा के लिये शीघ्र काटकर फैंक देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निष्फल प्रचण्ड नीति को छोड़कर प्रजा को सुख देवें ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(वशा) विभक्तेर्लुक्। वशाम्। वन्ध्याम्। निष्फलाम् (दग्धाम्) विषदग्धाम् (इम) वस्य मः। इव। यथा (अङ्गुरिम्) अङ्गुलिम्, (प्रसृजत) सर्वथा त्यजत (परे) दूरे (महान्) (वै) एव (भद्रः) मङ्गलप्रदः। अन्यद् गतम्−म० ११ ॥

१४ विदेवस्त्वा महानग्नीर्विबाधते

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विदे॑वस्त्वा म॒हान॑ग्नी॒र्विबा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म्।
कु॑मारी॒का पि॑ङ्गलि॒का कार्द॒ भस्मा॑ कु॒ धाव॑ति ॥

१४ विदेवस्त्वा महानग्नीर्विबाधते ...{Loading}...

Griffith

Infelix, Amice, te opprimit. Bona est magni viri fututio. Flava puollula, opere suo perfecto, procurrit.

पदपाठः

विदे॑वः। त्वा। म॒हान्। अग्नीः। विबा॑धते। मह॒तः। सा॑धु। खो॒दन॑म्। कु॒मा॒रि॒का। पि॑ङ्गलि॒का। कार्द॒। भस्मा॑। कु॒। धाव॑ति। १३६.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • उरोबृहती
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजा जन !] (विदेवः) मदरहित [निरहंकारी], (महान्) महान् पुरुष (त्वा) तुझसे (महतः) बड़े (अग्नीः) अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] के द्वारा (खोदनम्) खोदने के कर्म [सैंध सुरंग आदि] को (साधु) भले प्रकार (विबाधते) हटा देता है। (पिङ्गलिका) शोभायमान (कुमारिका) कामना योग्य कुमारी [कन्या] (कार्द) कीचड़ और (भस्मा) भस्म [राख आदि] को (कु) भूमि पर (धावति) शुद्ध कर देती है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा और प्रजा मिलकर चोर आदि दुष्टों को हटावें, जैसे शुद्ध स्वभाववाली स्त्री कूड़े-करकट को घर से बाहिर फैंक देती है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(विदेवः) दिवु क्रीडामदादिषु−अच्। विगतमदः। निरहंकारः पुरुषः (विबाधते) निवारयति (कुमारिका) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। कमु कान्तौ-आरन्, कन् टाप् अकारस्य उकारः, अत इत्त्वम्। कमनीया कन्या (पिङ्गलिका) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। पिजि दीप्तौ, वासे, बले, हिंसायां दाने च-कलप्रत्ययः, कन्, टाप्, अत इत्त्वम्। दीप्यमाना। शोभमाना (कार्द) कर्द कुत्सिते शब्दे-घञ्, विभक्तेर्लुक्। कार्दम् कर्दमम्। पङ्कम् (भस्मा) छान्दसो दीर्घः। भस्म। दग्धगोमयादिविकारम् (कु) कौ। भूम्याम् (धावति) धावु गतिशुद्ध्योः। शोधयति। अन्यद् यथा म० १२ ॥

१५ महान्वै भद्रो

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म॒हान्वै॑ भ॒द्रो बि॒ल्वो म॒हान्भ॑द्र उदु॒म्बरः॑।
म॒हाँ अ॑भि॒क्त बा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म् ॥

१५ महान्वै भद्रो ...{Loading}...

Griffith

Magna certe et bona est Aegle Marmelos. Bona est magna Ficus Glomerata. Magnus vir ubique opprimit. Bona est magni viri fututio.

पदपाठः

म॒हान्। वै। भ॒द्रः। बि॒ल्वः। म॒हान्। भ॑द्रः। उदु॒म्बरः॑। म॒हान्। अ॑भि॒क्त। बा॑धते। मह॒तः। सा॑धु। खो॒दन॑म्। १३६.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (भद्रः) मङ्गलदाता (महान्) महान् पुरुष (वै) ही (बिल्वः) बेल [वृक्ष के समान उपकारी] है, (भद्रः) मङ्गलदाता (महान्) महान् पुरुष (उदुम्बरः) गूलर [वृक्ष के समान उपकारी] है। (अभिक्त) हे विख्यात ! (महान्) महान् पुरुष (महतः) बड़े [आत्मिक और सामाजिक बलों-म० १४] से (खोदनम्) खोदने के कर्म [सैंध सुरंग आदि] को (साधु) भले प्रकार (बाधते) हटाता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब महान् पुरुष प्रयत्न करके प्रजा को दुष्टों से बचावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(महान्) (वै) एव (भद्रः) मङ्गलप्रदः (बिल्वः) उल्वादयश्च। उ० ४।९। बिल भेदने−वन्। फलवृक्षविशेषः। शिवद्रुमः (महान्) (भद्रः) (उदुम्बरः) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। उडु संहतौ सौत्रो धातुः−कु। संज्ञायां भृतॄवृ०। पा० ३।२।४६। उडु+वृञ् वरणे−खच्, मुम् च, डस्य दः, वस्य बः। वृक्षविशेषः। जन्तुफलः। यज्ञीयः (महान्) (अभिक्त) अभि+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-क्त, अकारलोपः। अभ्यक्त। हे विख्यात (बाधते) निवारयति। अन्यद् यथा म० १२ ॥

१६ यः कुमारी

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यः कु॑मा॒री पि॑ङ्गलि॒का वस॑न्तं पीव॒री ल॑भेत्।
तैल॑कुण्ड॒मिमा॑ङ्गु॒ष्ठं रोद॑न्तं शुद॒मुद्ध॑रेत् ॥

१६ यः कुमारी ...{Loading}...

Griffith

Quem macrum factum puella flava pinguisque capiat sicut pollicem ex olei cado fossorem ilium extrahat.

पदपाठः

यः। कु॑मा॒री। पि॑ङ्गलि॒का। वस॑न्तम्। पीव॒री। ल॑भेत्। तैल॑कुण्ड॒म्ऽइम। अ॑ङ्गु॒ष्ठम्। रोदन्तम्। शुद॒म्। उद्ध॑रेत्। १३६.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पीवरी) पुष्टाङ्गी, (पिङ्गलिका) शोभायमान, (कुमारी) कामनायोग्य कुमारी [कन्या] (यः) प्रयत्न से (वसन्तम्) वसन्त राग को (लभेत्) प्राप्त होवे। [वैसे ही राजा] (तैलकुण्डम्) [तपते हुए] तेलकुण्ड में डाले हुए (अङ्गुष्ठम् इम) अंगूठे [अंगुली] को जैसे [वैसे] (रोदन्तम्) रोते हुए (शुदम्) ज्ञानदाता का (उद्धरेत्) उद्धार करे [ऊँचा उठावे] ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे स्त्रियाँ प्रसन्न होकर वसन्त राग को गाती हैं, वैसे ही राजा प्रसन्न होकर क्लेश में पड़े हुए विद्वानों को उठावे, जैसे तपे हुए तेल में से अंगुली को उठा लेते हैं ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इति कुन्तापसूक्तानि समाप्तानि ॥ १६−(यः) यसु प्रयत्ने−क्विप्, विभक्तेर्लुक्। यसा। प्रयत्नेन (कुमारी) म० १४। कमु कान्तौ−आरन्, ङीप्। कमनीया कन्या (पिङ्गलिका) म० १४। शोभमाना (वसन्तम्) तॄभूवहिवसि०। उ० ३।१२८। वस निवासे−झच्। रागविशेषम् (पीवरी) म० १२। पीवर-ङीप्। पुष्टाङ्गी (लभेत्) प्राप्नुयात् (तैलकुण्डम्) पचाद्यच्। तप्ततैलकुण्डेन युक्तम् (इम) म० १३। इव। यथा (अङ्गुष्ठम्) अङ्गु+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क। अम्बाम्बगोभू०। पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। अङ्गौ हस्ते पादे वा तिष्ठतीति। अम्बाम्बेति सूत्रे, अङ्गु शब्दप्रयोगः। वृद्धाङ्गुलिम्। अङ्गुलिम् (रोदन्तम्) रोदनं कुर्वन्तम् क्लेशं प्राप्तम् (शुदम्) शुन गतौ−डु+ददातेः−क। ज्ञानदातारम् (उद्धरेत्) हृञ् हरणे ऊर्ध्वमानयेत् ॥