१३५ ...{Loading}...
VH anukramaṇī
खिलानि ।
०१ भुगित्यभिगतः शलित्यपक्रान्तः
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भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः।
दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः।
दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व ॥
०१ भुगित्यभिगतः शलित्यपक्रान्तः ...{Loading}...
Griffith
Bang! here he is. A dog,
पदपाठः
भुक्। इ॑ति। अ॒भिऽग॑तुः॒। शल्। इ॑ति। अ॒पऽक्रा॑न्तः॒। फल्। इ॑ति। अ॒भिऽस्थि॑तः। दुन्दुभि॑म्। आहनना॒भ्याम्। जरितः। आ। उथामः॑। दै॒व। १३५.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- स्वराडार्ष्यनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (भुक्) पालनेवाला [परमात्मा] (अभिगतः) सामने पाया गया है−(इति) ऐसा है, (शल्) शीघ्रगामी वह (अपक्रान्तः) सुख से आगे चलता हुआ है−(इति) ऐसा है, (फल्) सिद्धि करनेवाला वह (अभिष्ठितः) सब ओर ठहरा हुआ है−(इति) ऐसा है। (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (दैव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (दुन्दुभिम्) ढोल को (आहननाभ्याम्) दो डंकों से (आ) सब ओर (उथामः) हम उठावें [बल से बजावें] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर के उपकारों को देखकर डंके की चोट प्रयत्नी और उपकारी होवें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]१−(भुक्) भुज पालनाभ्यवहारयोः−क्विप्। पालकः परमात्मा (इति) एवं वर्तते (अभिगतः) आभिमुख्येन प्राप्तः (शल्) शल गतौ−क्विप्। शीघ्रगामी (इति) (अपक्रान्तः) अप आनन्दे+क्रमु पादविक्षेपे−क्त। सुखेन क्रमणशीलः (फल्) फल निष्पत्तौ−क्विप्। सिद्धिकर्ता परमेश्वरः (इति) (अभिष्ठितः) सर्वतः स्थितः (दुन्दुभिम्) बृहड्ढक्काम् (आहननाभ्याम्) ताडनस्य वादनस्य साधनाभ्याम् (जरितः) जरिता स्तोतृनाम−निघ० ३।१६। हे स्तोतः (आ) समन्तात् (उथामः) उत्+ष्ठा−लट् अन्तर्गतण्यर्थः। उत्थामः। उत्थापयामः। उच्चैर्वादयामः (दैव) देव−अण्। देवः परमात्मा देवता यस्य, तत्संबुद्धौ। हे परमेश्वरोपासक विद्वन् ॥
०२ कोशबिले रजनि
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को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्।
उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्।
उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥
०२ कोशबिले रजनि ...{Loading}...
Griffith
Swish! it is gone. Falling of leaves.
पदपाठः
को॒श॒बिले॑। रजनि॒। ग्रन्थेः॑। धा॒नम्। उ॒पानहि॑। पा॒दम्। उत्त॑मा॒म्। जनि॑माम्। ज॒न्या। अनुत्त॑मा॒म्। जनी॒न्। वर्त्म॑न्। यात्। १३५.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- भुरिगनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रजनि) रात्रि में [जैसे] (कोशबिले) कोश [सोना चाँदी रखने] के कुण्ड के भीतर (ग्रन्थेः) गाँठ के (धानम्) रखने को, [अथवा जैसे] (उपानहि) जूते में (पादम्) पैर को, [वैसे ही] (जन्या) मनुष्यों के बीच (उत्तमाम्) उत्तम (जनिमाम्) जन्म लक्ष्मी [शोभा वा ऐश्वर्य], (अनुत्तमाम्) अति उत्तम गति और (जनीन्) उत्पन्न पदार्थों को (वर्त्मनि) मार्ग में (यात्) [मनुष्य] प्राप्त होवे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे रात्रि में कोशागार में रखकर सोने चाँदी की, और जूता पहिनकर पैर की रक्षा करते हैं, वैसे ही मनुष्य श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर उत्तम प्रवृत्ति करके उन्नति करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(कोशबिले) सुवर्णरूप्यस्थितिकुण्डे (रजनि) रजन्याम्। रात्रौ (ग्रन्थेः) बन्धनस्य (धानम्) स्थापनम् (उपानहि) उप+णह बन्धने−क्विप्। नहिवृतिवृषि०। पा० ६।३।११६। पूर्वपदस्य दीर्घः। चर्मपादुकायाम् (पादम्) (उत्तमाम्) श्रेष्ठाम् (जनिमाम्) जनिघसिभ्यामिण्। उ० ४।१३०। जनी प्रादुर्भावे−इण्। जनिवध्योश्च। पा० ७।३।३। वृद्धिनिषेधः। माङ् माने शब्दे च−क्विप्। जनेः उत्पत्तेः जन्मनो मां लक्ष्मीं शोभामैश्वर्यं वा (जन्या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। जन−ड्या सप्तमीबहुवचने। जनेषु। मनुष्येषु (अनुत्तमाम्) अतिशयेन श्रेष्ठाम् (जनीन्) उत्पन्नान् पदार्थान् (वर्त्मन्) वर्त्मनि। मार्गे (यात्) यायात्। प्राप्नुयात् ॥
०३ अलाबूनि पृषातकान्यश्वत्थपलाशम्
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अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्।
पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोथामो॑ दै॒व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्।
पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोथामो॑ दै॒व ॥
०३ अलाबूनि पृषातकान्यश्वत्थपलाशम् ...{Loading}...
Griffith
Crunch! it is trodden on. A cow’s hoof.
पदपाठः
अला॑बूनि। पृ॒षात॑का॒नि। अश्व॑त्थ॒ऽपला॑शम्। पिपी॑लि॒का॒। वट॒श्वसः॑। वि॒ऽद्युत्। स्वाप॑र्णश॒फः। गोश॒फः। जरितः॒। आ। उथामः। दै॒व। १३५.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- आर्षी पङ्क्तिः
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अलाबूनि) तूँबी आदि बेलें, (पृषातकानि) पृषातक [वृक्ष विशेष], (अश्वत्थपलाशम्) पीपल और पलाश वा ढाक [वृक्ष विशेष], (पिपीलिका) पिपीलिका [वृक्ष विशेष], (वटश्वसः) वटश्वस [वृक्ष विशेष], (विद्युत्) बिजुली [वृक्ष विशेष], (स्वापर्णशफः) स्वापर्णशफ [वृक्ष विशेष], और (गोशफः) गोशफ [वृक्ष विशेष] हैं, [उन सब में] (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (दैव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि वाटिका, खेत आदि में अनेक लता बेलों और वृक्षों को लगाकर ठीक-ठीक उपकार लेकर सुखी होवें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(अलाबूनि) नञि लम्बेर्नलोपश्च। उ० १।८७। नञ्+लबि अवस्रंसने−ऊ, ऊकारस्य उकारः, स च णित्, नलोपश्च। तुम्बीलताः (पृषातकानि) अथ० १४।२।४८। पृषु सेचने−क+अत बन्धने−क्वुन्। वृक्षविशेषाः (अश्वत्थपलाशम्) पिप्पलपलाशवृक्षसमूहः (पिपीलिका) अथ० ७।६।७। अपि+पील रोधने−ण्वुल्, अकारलोपः टाप्, अत इत्त्वम्। पिपीलिका ऐलतेर्गतिकर्मणः निरु० ७।१३। वृक्षविशेषः (वटश्वसः) वट वेष्टने−अच्+श्वस प्राणने−अच्। वृक्षविशेषः (विद्युत्) वृक्षविशेषः (वटश्वसः) (स्वापर्णशफः) वृक्षविशेषः (गोशफः) वृक्षविशेषः (जरितः) म० १। हे स्तोतः (आ) समन्तात् (उथामः) उत्थामः। उच्चैर्भवामः (दैव) म० १। हे परमेश्वरोपासक विद्वन् ॥
०४ वीमे देवा
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वी᳡मे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑।
सु॑स॒त्यमिद्गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वी᳡मे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑।
सु॑स॒त्यमिद्गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑ ॥
०४ वीमे देवा ...{Loading}...
Griffith
These Gods have gone astray. Do thou, Adhvaryu, quickly do thy work.
पदपाठः
वि। इ॑मे। दे॒वाः। अ॑क्रंस॒त। अध्व॒र्यो। क्षि॒प्रम्। प्र॒चर॑। सु॒स॒त्यम्। इत्। गवा॑म्। अ॒सि। असि॑। प्रखु॒दसि॑। १३५.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- आर्ष्युष्णिक्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इमे देवाः) इन विद्वानों ने (वि) विविध प्रकार (अक्रंसत) पैर बढ़ाया है, (अध्वर्यो) हे हिंसा न करनेवाले विद्वान् (क्षिप्रम्) शीघ्र (प्रचर) आगे बढ़। और (प्रखुदसि) बड़े आनन्द में (असि) तू हो, (असि) तू हो, [यह वचन] (गवाम्) स्तोताओं [गुणव्याख्याताओं] का (सुसत्यम् इत्) बड़ा ही सत्य है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पहिले विद्वान् लोग काम करने से बड़े हो गये हैं, वैसे ही हम भी विद्वानों का वचन मानकर आगे बढ़ें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(वि) विविधम् (इमे) प्रसिद्धाः (देवाः) विद्वांसः (अक्रंसत) क्रमु पादविक्षेपे। पादं विक्षिप्तवन्तः। अग्रे गताः (अध्वर्यो) अ० ७।७०३।। हे अहिंसाप्रापक विद्वन् (क्षिप्रम्) शीघ्रम् (प्रचर) अग्रे गच्छ (सुसत्यम्) सर्वसत्यम् (इत्) एव (गवाम्) गौः स्तोता−निघ० ३।१६। स्तोतॄणाम्। गुणव्याख्यातॄणाम् (असि) त्वं भव (असि) (प्रखुदसि) उषः क्थि। उ० ४।२३४। प्र+खुर्द क्रीडायाम्−असि कित् रेफलोपः। प्रकृष्टसुखे ॥
०५ पत्नी यदृश्यते
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प॒त्नी यदृ॑श्यते प॒त्नी यक्ष्य॑माणा जरित॒रोथामो॑ दै॒व।
हो॒ता वि॑ष्टीमे॒न ज॑रित॒रोथामो॑ दै॒व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प॒त्नी यदृ॑श्यते प॒त्नी यक्ष्य॑माणा जरित॒रोथामो॑ दै॒व।
हो॒ता वि॑ष्टीमे॒न ज॑रित॒रोथामो॑ दै॒व ॥
०५ पत्नी यदृश्यते ...{Loading}...
Griffith
There is good resting for the cows. Take thy delight.
पदपाठः
प॒त्नी। यत्। दृ॑श्यते। प॒त्नी। यक्ष्य॑माणा। जरितः॒। आ। उथामः॑। दै॒व। हो॒ता। वि॑ष्टीमे॒न। जरितः॒। आ। उथामः॑। दै॒व। १३५.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- स्वराडार्ष्यनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पत्नी) पत्नी (यत्) यहाँ पर (यक्ष्यमाणा) पूजी जाती हुई (पत्नी) पत्नी (दृश्यते) दीखती है, [वहाँ] (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (दैव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं। (विष्टीमेन) विशेष कोमलपन के साथ (होता) तू दाता है, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (देव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पत्नी और पति गुणवान् और परमेश्वरभक्त होकर आनन्द भोगें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(पत्नी) वेदविधानेनोढा। गृहिणी (यत्) यत्र (दृश्यते) प्रेक्ष्यते (पत्नी) (यक्ष्यमाणा) पूज्यमाना (जरितः, आ, उथामः, दैव) म० १, ३। (होता) त्वं दातासि (विष्टीमेन) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। विशेषेण आर्द्रीभावेन। कोमलत्वेन। अन्यद् गतम् ॥
०६ आदित्या ह
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आदि॑त्या ह जरित॒रङ्गि॑रोभ्यो॒ दक्षि॑णाम॒नय॑न्।
तां ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यं॒स्तामु ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आदि॑त्या ह जरित॒रङ्गि॑रोभ्यो॒ दक्षि॑णाम॒नय॑न्।
तां ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यं॒स्तामु ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यन् ॥
०६ आदित्या ह ...{Loading}...
Griffith
O singer, the Adityas brought rich guerdon to the Angirases. Singer, they went not near to it. Singer, they did not take the gift.
पदपाठः
आदि॑त्याः। ह। जरितः॒। अङ्गिरःऽभ्यः॒। दक्षि॑णाम्। अनय॑न्। ताम्। ह॑। जरितः॒। प्रति॑। आ॑य॒न्। ताम्। ऊं॒ इति॑। ह॑। जरितः॒। प्रति॑। आ॑यन्। १३५.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- स्वराडार्ष्यनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्याः) अखण्ड ब्रह्मचारियों ने (ह) ही, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले ! (अङ्गिरोभ्यः) विज्ञानी पुरुषों के लिये (दक्षिणाम्) दक्षिणा [दान वा प्रतिष्ठा] को (अनयन्) प्राप्त कराया है। (ताम्) उस [दक्षिणा] को (ह) ही, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले ! (प्रति आयन्) उन्होंने प्रत्यक्ष पाया है, (ताम्) उस [दक्षिणा] को (उ) निश्चय करके (ह) ही, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले ! (प्रति आयन्) उन्होंने प्रत्यक्ष पाया है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य पूर्व विद्वानों के समान विद्वानों द्वारा उत्तम शिक्षा पाकर अवश्य प्रतिष्ठित होवें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(आदित्याः) अथ० १९।११।४। अदिति−ण्य। अखण्डब्रह्मचारिणः (ह) एव (जरितः) हे स्तोतः (अङ्गिरोभ्यः) अ० २०।२८।२। विज्ञानिभ्यः (दक्षिणाम्) अथ० ।७।१। दानम्, प्रतिष्ठाम् (अनयन्) प्रापितवन्तः (ताम्) दक्षिणाम् (ह) (जरितः) (प्रति) प्रत्यक्षम् (आयन्) अथ० २०।६१।२। अगच्छम्। प्राप्नुवन् (उ) अवश्यम्। अन्यद् गतम् ॥
०७ तां ह
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तां ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णं॒स्तामु ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णः।
अहा॑नेतरसं न॒ वि चे॒तना॑नि य॒ज्ञानेत॑रसं न॒ पुरो॒गवा॑मः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तां ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णं॒स्तामु ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णः।
अहा॑नेतरसं न॒ वि चे॒तना॑नि य॒ज्ञानेत॑रसं न॒ पुरो॒गवा॑मः ॥
०७ तां ह ...{Loading}...
Griffith
Singer, they went not near to that; but, singer, they accepted this: That days may not be indistinct, nor sacrifices leaderless.
पदपाठः
ताम्। ह॑। जरितः। नः॒। प्रति॑। अ॑गृभ्ण॒न्। ताम्। ऊं॒ इति॑। ह॑। जरितः। नः॒। प्रति॑। अ॑गृभ्णः। अहा॑नेतरसम्। न॒। वि। चे॒तना॑नि। य॒ज्ञानेत॑रसम्। न॒। पुरो॒गवा॑मः। १३५.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- भुरिगार्षी त्रिष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ताम्) उस [दक्षिणा] को (ह) ही, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले ! (नः) हमारे लिये (प्रति अगृभ्णन्) उन्होंने [विज्ञानियों ने म० ६] प्रत्यक्ष पाया है, (ताम्) उसको (उ) निश्चय करके (ह) ही, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले ! (नः) हमारे लिये (प्रति अगृभ्णः) तूने प्रत्यक्ष पाया है। (न) अभी (अहानेतरसम्) व्याप्ति में बल रखनेवाले व्यवहार को, (वि) विविध (चेतनानि) चेतनाओं को, और (न) अभी (यज्ञानेतरसम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] में बल रखनेवाले व्यवहार को (पुरोगवामः) हम आगे होकर पावें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे पूर्वज महात्माओं ने श्रेष्ठ कर्मों से प्रतिष्ठा पाई है, वैसे ही आप और हम मिलकर विज्ञान द्वारा बड़ाई पावें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(ताम्) दक्षिणाम्−म० ६। (ह) एव (जरितः) हे स्तोतः (नः) अस्मभ्यम् (प्रति) प्रत्यक्षम् (अगृभ्णन्) अगृह्णन्। गृहीतवन्तः (ताम्) (उ) निश्चयेन (ह) (जरितः) (नः) (प्रति) प्रत्यक्षम् (अगृभ्णः) अगृह्णः। गृहीतवानसि (अहानेतरसम्) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। अह व्याप्तौ−आनच्। तरो बलनाम−निघ० २।९। ततः अर्शआद्यच्। अहाने व्याप्तौ तरसं बलयुक्तं व्यवहारम् (न) सम्प्रति−निरु० ७।३१। (वि) विविधानि (चेतनानि) चेतनाः। ज्ञानानि (यज्ञानेतरसम्) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु आनच्, नकारश्छान्दसः। यज्ञे बलयुक्तं व्यवहारम् (न) सम्प्रति (पुरोगवामः) गु गतौ−लट्, परस्मैपदम्। गवते गतिकर्मा−निघ० २।१४। अग्रे भूत्वा गच्छामः प्राप्नुमः ॥
०८ उत श्वेत
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उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः।
उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः।
उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥
०८ उत श्वेत ...{Loading}...
Griffith
And quickly Both he fly away, the White Horse swiftest on his feet, And swiftly fills his measure up.
पदपाठः
उ॒त। श्वेतः॒। आशु॑पत्वाः। उ॒तो। पद्या॑भिः॒। वसि॑ष्ठः। उ॒त। ईम्। आशु॒। मान॑म्। पिपर्ति। १३५.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- भुरिग्गायत्री
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आशुपत्वाः) हे शीघ्रगामी पुरुषो ! (श्वेतः) श्वेत वर्णवाला [सूर्य] (उत) भी (यविष्ठः) अत्यन्त बलवान् होकर (पद्याभिः) चलने योग्य गतियों से (उतो) निश्चय करके (उत) अवश्य (ईम्) प्राप्तियोग्य (मानम्) परिमाण को (आशु) शीघ्र (पिपर्ति) पूरा करता है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने मार्ग में चलकर संसार का उपकार करता है, वैसे ही मनुष्य वेदमार्ग पर चलकर शीघ्र उपकार करें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(उत) अपि (श्वेतः) शुक्लवर्णः सूर्यः (आशुपत्वाः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।११। आशु+पत गतौ−क्वन्। हे शीघ्रगामिनः (उतो) निश्चयेन (पद्याभिः) पाद−यत्। पद्यत्यतदर्थे। पा० ६।३।३। इति पद्भावः। पादाय गमनाय हिताभिर्गतिभिः (यविष्ठः) अथ० १८।४।६१। युवन्−इष्ठन्। अतिशयेन बलवान् सन् (उत) अवश्यम् (ईम्) प्राप्तव्यम् (आशु) शीघ्रम् (मानम्) परिमाणम् (पिपर्ति) पूरयति ॥
०९ आदित्या रुद्रा
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आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः।
इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः।
इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑ ॥
०९ आदित्या रुद्रा ...{Loading}...
Griffith
Adityas, Rudras, Vasus, all pay worship unto thee. Accept this liberal gift, O Angiras, This bounty excellent and rich, this ample bounty spreading far.
पदपाठः
आदि॑त्याः। रु॒द्राः। वस॑व॒। त्वे। अनु॑। ते। इ॒दम्। राधः॒। प्रति॑। गृभ्णीहि। अङ्गिरः। इ॒दम्। राधः॑। वि॒भु। प्रभु॑। इ॒दम्। राधः॑। बृ॒हत्। पृथु॑। १३५.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- विराडार्षी पङ्क्तिः
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे शूर सभापति !] (ते) वे (आदित्याः) अखण्ड ब्रह्मचारी, (रुद्राः) ज्ञानदाता और (वसवः) श्रेष्ठ विद्वान् लोग (त्वे अनु) तेरे पीछे-पीछे हैं, (अङ्गिरः) हे विज्ञानी पुरुष ! (इदम्) इस (राधः) धन को (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (गृभ्णीहि) तू ग्रहण कर। (इदम्) यह (राधः) धन (विभु) व्यापक और (प्रभु) बलयुक्त है, (इदम्) यह (राधः) धन (बृहत्) बहुत और (पृथु) विस्तीर्ण है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - शूर प्रतापी सभापति की सुनीति से सब लोग ब्राह्मण आदि चारों वर्ण अपना-अपना कर्तव्य पूरा करें और विद्या और धन की वृद्धि से संसार में सुख बढ़ावें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० ११।६।१३ और १९।११।४ ॥ ९−(आदित्याः) अदिति−ण्य। अखण्डब्रह्मचारिणः (रुद्राः) रुतो ज्ञानस्य रातारो दातारः (वसवः) श्रेष्ठपुरुषाः (त्वे) विभक्तेः शे। त्वाम् (अनु) अनुसृत्य (ते) प्रसिद्धाः (इदम्) (राधः) धनम् (प्रति) प्रत्यक्षेण (गृभ्णीहि) गृहाण (अङ्गिरः) विज्ञानिन् (इदम्) (राधः) (विभु) व्यापकम् (प्रभु) समर्थम् (इदम्) (राधः) (बृहत्) बहु (पृथु) विस्तृतम् ॥
१० देवा ददत्वासुरम्
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देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्।
युष्माँ॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्।
युष्माँ॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत ॥
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Griffith
The Gods shall give the precious boon: let it be pleasant to your hearts. Let it be with you every day: accept our offerings in return.
पदपाठः
देवाः॑। दद॒तु। आसु॑र॒म्। तत्। वः॑। अस्तु॒। सुचे॑तनम्। युष्मा॑न्। अस्तु॒। दिवे॑दिवे। प्र॒ति। एव॑। गृभायत। १३५.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (देवाः) विद्वान् लोग (आसुरम्) बुद्धिमत्ता (ददतु) देवें, (तत्) वह (वः) तुम्हारे लिये (सुचेतनम्) सुन्दर ज्ञान (अस्तु) होवे। (युष्मान्) तुमको वह (दिवेदिवे) दिन-दिन (अस्तु) होवे, [उस को] (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (एव) ही (गृभायत) तुम ग्रहण करो ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य विद्वानों से शिक्षा लेकर सदा आनन्द पावें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(देवाः) विद्वांसः (ददतु) प्रयच्छन्तु (आसुरम्) असुर-अण् भावे। असुरत्वं प्रज्ञावत्त्वं ज्ञानवत्त्वं वापि वासुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थानस्ताश्चास्यामर्थाः-निरु० १०।३४। बुद्धिमत्त्वम् (तत्) आसुरम् (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) (सुचेतनम्) प्रशस्तं ज्ञानम् (युष्मान्) युष्मभ्यम् (अस्तु) (दिवेदिवे) दिने-दिने (प्रति) प्रत्यक्षेण (एव) निश्चयेन (गृभायत) अ० ८।४।१८। गृह्णीत ॥
११ त्वमिन्द्र शर्मरिणा
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त्वमि॑न्द्र श॒र्मरि॑णा ह॒व्यं पारा॑वतेभ्यः।
विप्रा॑य स्तुव॒ते व॑सु॒वनिं॑ दुरश्रव॒से व॑ह ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वमि॑न्द्र श॒र्मरि॑णा ह॒व्यं पारा॑वतेभ्यः।
विप्रा॑य स्तुव॒ते व॑सु॒वनिं॑ दुरश्रव॒से व॑ह ॥
११ त्वमिन्द्र शर्मरिणा ...{Loading}...
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Vouchsafe us shelter, Indra, thou to be invoked from far away. Bring treasure hither to reward the far-famed bard who praises thee.
पदपाठः
त्वम्। इ॑न्द्र। श॒र्म। रि॑णाः। ह॒व्यम्। परा॑वतेभ्यः। विप्रा॑य। स्तुव॒ते। व॑सुव॑निम्। दुरश्रव॒से। व॑ह। १३५.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- निचृदार्ष्यनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तूने (शर्म) शरण और (हव्यम्) हव्य [विद्वानों के योग्य अन्न] (पारावतेभ्यः) पार और अपार देशवाले लोगों के लिये (रिणाः) पहुँचाया है। (स्तुवते) स्तुति करनेवाले (विप्राय) बुद्धिमान् के लिये (वसुवनिम्) धनों का सेवन (दुरश्रवसे) दुष्ट अपयश मिटाने को (वह) प्राप्त करा ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दूर और समीपवाली प्रजा को शरण में रख कर विद्या और धन से उनकी उन्नति करे ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: संहिता के (शर्मरिणाः) एक पद के स्थान पर [शर्म रिणाः] दो पद मानकर हमने अर्थ किया है ॥ ११−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (शर्म) शरणम्। सुखम् (रिणाः) री गतिरेषणयोः−लङ्। अरिणाः। प्रापितवानसि (हव्यम्) हु−यत्। देवयोग्यान्नम् (पारावतेभ्यः) पार+अवार−वत्, अण्, पृषोदरादिरूपम्। पारावतघ्नीं पारावारघातिनीं पारं परं भवत्यवारमवरम्−निरु० २।२४। पारावारदेशे विद्यमानेभ्यः (विप्राय) मेधाविने (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (वसुवनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ−इन्। धनानां सेवनम् (दुरश्रवसे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति तुमुनः कर्मणिः चतुर्थी। दुर् दुष्टम् अश्रवः अपयशः, तन्नाशयितुम्। दुष्टापकीर्तिनाशनाय (वह) प्रायय ॥
१२ त्वमिन्द्र कपोताय
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त्वमि॑न्द्र क॒पोता॑य च्छिन्नप॒क्षाय॒ वञ्च॑ते।
श्यामा॑कं प॒क्वं पीलु॑ च॒ वार॑स्मा॒ अकृ॑णोर्ब॒हुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वमि॑न्द्र क॒पोता॑य च्छिन्नप॒क्षाय॒ वञ्च॑ते।
श्यामा॑कं प॒क्वं पीलु॑ च॒ वार॑स्मा॒ अकृ॑णोर्ब॒हुः ॥
१२ त्वमिन्द्र कपोताय ...{Loading}...
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Thou, Indra, to the trembling dove whose pinions had been rent and torn. Gayest ripe grain and Pilu fruit, gavest him water when athirst.
पदपाठः
त्वम्। इ॑न्द्र। क॒पोता॑य। छिन्नप॒क्षाय॒। वञ्च॑ते। श्यामा॑कम्। प॒क्वम्। पीलु॑। च॒। वाः। अ॑स्मै॒। अकृ॑णोः। ब॒हुः। १३५.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तूने (अस्मै) इस (छिन्नपक्षाय) कटे पंखवाले, (वञ्चते) चलते हुए (कपोताय) कबूतर को (पक्वम्) पका हुआ (श्यामाकम्) श्यामा [समा अन्न], (पीलु) पीलु [फल विशेष] (च) और (वाः) जल (बहुः) बहुत बार (अकृणोः) किया है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे पंख कटे कबूतर को अन्न और जल देकर पुष्ट करते हैं, वैसे ही राजा दीन-दुखियों को अन्न आदि देकर सुखी करे ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (कपोताय) पक्षिविशेषाय (छिन्नपक्षाय) (वञ्चते) वञ्चु गतौ−शतृ। गच्छते (श्यामाकम्) क्षुद्रधान्यभेदम् (पक्वम्) (पीलु) फलविशेषम् (च) (वाः) जलम् (अस्मै) प्रसिद्धाय (अकृणोः) कृतवानसि (बहुः) द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच्। पा० ।४।१८। इति सुच् बाहुलकात्। बहुवारम् ॥
१३ अरङ्गरो वावदीति
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अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑।
इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥
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मूलम् (VS)
अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑।
इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥
१३ अरङ्गरो वावदीति ...{Loading}...
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The ready praiser loudly speaks though fastened triply with a strap. Yea, he commends the freshening draught, deprecates languor of disease.
पदपाठः
अ॒र॒म्ऽग॒रः। वा॑वदीति। त्रे॒धा। ब॒द्धः। व॑र॒त्रया॑। इ॑राम्। अह॒। प्रशं॑स॒ति। अनि॑रा॒म्। अप॑। से॒ध॒ति॒। १३५.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रश्च
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अरंगरः) पूरा विज्ञानी पुरुष (त्रेधा) तीन प्रकार से [स्थान, नाम और मनुष्य आदि जन्म से] (वरत्रया) रस्सी से (बद्धः) बँधा हुआ (वावदीति) बार-बार कहता है। (इराम्) लेने योग्य अन्न को (अह) ही (प्रशंसति) वह सराहता है और (अनिराम्) निन्दित अन्न को (अप सेधति) हटाता है ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् आप्त पुरुष अपना स्थान, नाम और जन्म सुधारने के लिये अधर्म को छोड़कर धर्म से अन्न आदि पदार्थ ग्रहण करें ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(अरंगरः) अलम्+गॄ विज्ञाने−अप्। पूर्णविज्ञानी पुरुषः (वावदीति) पुनः पुनर्वदति (त्रेधा) धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। स्थाननामजन्मभिस्त्रिप्रकारेण (बद्धः) (वरत्रया) वृञश्चित्। उ० ३।१०७। वृञ् वरणे−अत्रन् चित्। रज्ज्वा (इराम्) ऋज्रेन्द्रा−अ०। उ० २।२८। इण् गतौ−रन्, गुणाभावः। इरा अन्ननाम−निघ० २।७। प्रापणीयमन्नम् (अह) अवश्यम् (प्रशंसति) स्तौति (अनिराम्) निन्दितमन्नम् (अप सेधति) अपगमयति निवारयति ॥