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VH anukramaṇī

खिलानि ।

०१ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागरालागुदभर्त्सथ

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गरा॑ला॒गुद॑भर्त्सथ ॥

०१ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागरालागुदभर्त्सथ ...{Loading}...

Griffith

Here are we sitting east and west and north and south, with waters. Bottle-gourd vessels.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। अरा॑लअ॒गुदभर्त्सथ। १३४.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में और (अधराक्) दक्षिण में−(अरालागुदभर्त्सथ) हिंसा की गति का धिक्कारनेवाला परमात्मा है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा को सब स्थान और सब काल में वर्तमान जानकर मनुष्य हिंसाकर्म से बचे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० २०।१२०।१ ॥ १−(इह) अत्र (इत्थ) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (प्राक्, अपाक्, उदक्) अथ० २–०।१२०।१। (अधराक्) नीच्यां दक्षिणस्यां दिशि (अरालागुदभर्त्सथ) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ऋ हिंसायाम्-आलच्+अग गतौ-उदच् प्रत्ययः यथा अर्बुदशब्दे+शीङ्शपिरु०। उ० ३।११३। भर्त्स तर्जने-अथ प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्लुक्। अराल-अगुद-भर्त्सथः। हिंसागतितिरस्कर्ता परमेश्वरः ॥

०२ इहेत्थ प्रागपागुदगधराग्वत्साः

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॑ग्व॒त्साः पुरु॑षन्त आसते ॥

०२ इहेत्थ प्रागपागुदगधराग्वत्साः ...{Loading}...

Griffith

Here east and west and north and south sit the calves sprinkling Curds and oil.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। व॒त्साः। पुरु॑षन्त। आसते। १३४.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार ………… [म० १]−(वत्साः) प्यारे बच्चे (पुरुषन्तः) पुरुष होते हुए (आसते) ठहरते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्थान और सब काल में मनुष्य पुरुषार्थ करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(वत्साः) प्रियशिशवः (पुरुषन्तः) पुरुषा भवन्तः (आसते) तिष्ठन्ति ॥

०३ इहेत्थ प्रागपागुदगधराक्स्थालीपाको

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒क्स्थाली॑पाको॒ वि ली॑यते ॥

०३ इहेत्थ प्रागपागुदगधराक्स्थालीपाको ...{Loading}...

Griffith

Here east and west and north and south the offering of rice clings on. The leaf of the Asvattha tree.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। स्थाली॑पा॒कः। वि। ली॑यते। १३४.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार ……………. [म० १]−(स्थालीपाकः) स्थाली पाक [बटले वा कड़ाही में पका हुआ भोजन पदार्थ] (वि) विविध प्रकार (लीयते) मिलता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य को सब स्थान में सदा भोजन आदि पदार्थ प्राप्त करना चाहिये ॥३, ४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(स्थालीपाकः) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−आलच् ङीप्+डुपचष् पाके−घञ्। स्थाल्यां सूपादिपचन्यां पच्यते। पक्वभोजनपदार्थः (वि) विविधम् (लीयते) लीङ् श्लेषणे। श्लिष्यते। संयुज्यते ॥

०४ इहेत्थ प्रागपागुदगधराक्स

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒क्स वै॑ पृ॒थु ली॑यते ॥

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Griffith

Here east and west and north and south adheres when touched. That water-drop.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। सः। वै॑। पृ॒थु। ली॑यते। १३४.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • विराट्साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार…………. [म० १]−(सः) वह [भोजन पदार्थ] (वै) निश्चय करके (पृथु) विस्तार से (लीयते) मिलता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य को सब स्थान में सदा भोजन आदि पदार्थ प्राप्त करना चाहिये ॥३, ४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(सः) स्थालीपाकः (वै) निश्चयेन (पृथु) यथा तथा विस्तारेण (लीयते) म० ३। संयुज्यते ॥

०५ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागास्ते

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गास्ते॑ लाहणि॒ लीशा॑थी ॥

०५ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागास्ते ...{Loading}...

Griffith

Here east and west and north and south in iron mayst thou not be caught. The cup.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। आष्टे॑। लाहणि॒। लीशा॑थी। १३४.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार ……….. [म० १]−(लाहणि) प्रेरक बुद्धि (लीशाथी) चलती हुई (आष्टे) फैलती हुई ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब विद्वान् अपनी बुद्धि को सब ओर चलाकर संसार में विचरें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(आष्टे) अशू व्याप्तौ। व्याप्यते (लाहणि) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। लाभ प्रेरणे−अनि, भस्य हः। विभक्तेर्लुक्। प्रेरिका शक्तिः। तीक्ष्णा बुद्धिः (लीशाथी) रुवदिभ्यां डित्। उ० ३।११। लिश गतौ, अल्पीभावे च−अथ प्रत्ययः, ङीप्, पृषोदरादिरूपम्। गमनशीला सती ॥

०६ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागक्ष्लिली

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इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गक्ष्लिली॒ पुच्छिली॑यते ॥

०६ इहेत्थ प्रागपागुदगधरागक्ष्लिली ...{Loading}...

Griffith

Here east and west and north and south fain would it clasp what would not clasp. Emmet hole.

पदपाठः

इ॒ह। इत्थ॑। प्राक्। अपा॒क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्ऽअक्ष्लि॑ली। पुच्छिली॑यते। १३४.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • प्रजापतिः
  • निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में और (अधराक्) दक्षिण में−(अक्ष्लिली) व्यवहार ग्रहण करनेवाली बुद्धि (पुच्छिलीयते) प्रसन्न होती है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अपनी बुद्धि को सब कामों में प्रविष्ट करके प्रसन्न रहें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(अक्ष्लिली) अक्षू व्याप्तौ−क्विप्। सलिकल्यनि०। उ० १।४। ला आदाने, इलच् स च डित्, ङीप्। अक्षः अक्षस्य व्यवहारस्य ग्राहिका बुद्धिः (पुच्छिलीयते) पुच्छ प्रसादे−इति शब्दकल्पद्रुमः। सलिकल्यनि०। उ० १।४। इति इलच् ङीप्। भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च। हलः। पा० ३।१।१२। पुच्छिली−क्यङ्, भवत्यर्थे बाहुलकात्। प्रसन्ना भवति। अन्यद् गतम्−म० १ ॥