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Griffith

The Enigmatical Verses

VH anukramaṇī

खिलानि ।

०१ विततौ किरणौ

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वित॑तौ किरणौ॒ द्वौ तावा॑ पिनष्टि॒ पूरु॑षः।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०१ विततौ किरणौ ...{Loading}...

Griffith

Two rays of light are lengthened out, and the man gently touches them with the two beatings on the drum.

पदपाठः

वित॑तौ। किरणौ॒। द्वौ। तौ। आ॑। पिनष्टि॒। पूरु॑षः। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (विततौ) फैले हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (पूरुषः) पुरुष [देहधारी जीव] (आ) सब ओर से (पिनष्टि) पीसता है [सूक्ष्म रीति से काम में लाता है]। (कुमारि) हे कुमारी ! [कामनायोग्य स्त्री] (वै) निश्चय करके (तत्) वह (तथा) वैसा (न) नहीं है, (कुमारि) हे कुमारी ! (यथा) जैसा (मन्यसे) तू मानती है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - संसार में सब प्राणी शरीर और आत्मा की स्वस्थता से सूक्ष्म विचार और कर्म के द्वारा उन्नति करते हैं, स्त्री आदि भी समय को व्यर्थ न खोकर सदा पुरुषार्थ करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: [पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]१−(विततौ) विस्तृतौ (किरणौ) प्रकाशरश्मी। शारीरिकबलात्मिकपराक्रमौ (द्वौ) (तौ) किरणौ (आ) समन्तात् (पिनष्टि) पिष्लृ संचूर्णने। संचूर्णीकरोति। सूक्ष्मतया प्रयोजयति (पूरुषः) शरीरी जीवः (न) निषेधे (वै) निश्चयेन (कुमारि) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। कमु कान्तौ-आरन् कित् अकारस्य उकारः, यद्वा कुमार क्रीडने-पचाद्यच्, ङीप्। हे कमनीये स्त्रि (तत्) कर्म (तथा) (यथा) (कुमारि) (मन्यसे) जानासि ॥

०२ मातुष्टे किरणौ

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मा॒तुष्टे कि॑रणौ॒ द्वौ निवृ॑त्तः॒ पुरु॑षानृते।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०२ मातुष्टे किरणौ ...{Loading}...

Griffith

Maiden, it truly is not so as thou, O maiden, fanciest. Two are thy mother’s rays of light: the skin is guarded from the man.

पदपाठः

मा॒तुः। ते॒। कि॑रणौ॒। द्वौ। निवृ॑त्तः॒। पुरु॑षान्। ऋ॒ते। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मातुः ते) तुझ माता के (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (पुरुषान्) पुरुषों [शरीरधारी जीवों] को (ऋते) सत्य शास्त्र में (निवृत्तः) प्रकाशमान करते हैं। (कुमारि) हे कुमारी ! ……….. [म० १] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - माता आदि से ही सुशिक्षा पाकर सब सन्तान पुरुषार्थी होते हैं। स्त्री आदि ………. [म० १] ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(मातुः) जनन्याः (ते) तव, मातुः-इति पदेन समानाधिकरणम् (किरणौ) म० १। (द्वौ) (निवृत्तः) वृतु चुरादिः-भाषणे दीपने च+निवर्तयतः। नितरां दीपयतः (पुरुषान्) शरीरधारिणो जीवान् (ऋते) सत्यशास्त्रे। अन्यत् पूर्ववत्। म० १ ॥

०३ निगृह्य कर्णकौ

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निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०३ निगृह्य कर्णकौ ...{Loading}...

पदपाठः

निगृ॑ह्य॒। कर्ण॑कौ॒। द्वौ। निरा॑यच्छसि॒। मध्य॑मे। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मध्यमे) हे मध्यस्थ होनेवाली ! [स्त्री] (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) कोमल कानों को (निगृह्य) वश में करके [सुनने में लगवाकर] (निरायच्छसि) [सन्तानों को] तू नियम में चलाती है। (कुमारि) हे कुमारी ! ………….. [म० १] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - माता आदि ध्यान दिलाकर बालकों को सुशिक्षा देवें, स्त्री आदि ……….. [म० १] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: भगवान् यास्क का वचन है-निरु० २।४ ॥ य आतृष्णत्यवितथेन कर्णावदुःखं कुर्वन्नमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत् कतमच्चनाह ॥ (यः) जो [आचार्य] (अदुःखं कुर्वन्) दुःख न करता हुआ, (अमृतं सम्प्रयच्छन्) अमृत देता हुआ (अवितथेन) सत्य [वेदज्ञान] से (कर्णौ) दोनों कानों को (आतृणत्ति) खोल देता है, (तम्) उसको (मातरं पितरं च) माता और पिता (मन्येत) वह [शिष्य] माने, (तस्मै) उससे (कतमच्चनाह) किसी प्रकार कभी (न द्रुह्येत्) बुराई न करे ॥ ३−(निगृह्य) वशीकृत्य (कर्णकौ) अनुकम्पायाम्-कन्। कोमलकर्णौ (द्वौ) (निरायच्छसि) निश्चयेन समन्तात् नियमयसि (मध्यमे) हे मध्यभवे स्त्रि। अन्यत् म० १ ॥

०४ उत्तानायै शयानायै

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उ॑त्ता॒नायै॑ शया॒नायै॒ तिष्ठ॑न्ती॒ वाव॑ गूहसि।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०४ उत्तानायै शयानायै ...{Loading}...

पदपाठः

उ॒त्ता॒नायै॑। शया॒नायै॒। तिष्ठ॑न्ती॒। वा। अव॑। गूहसिः। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्तानायै) बड़े उपकारवाली नीति के लिये (तिष्ठन्ती) ठहरती हुई (शयानायै) सोती हुई [आलस्यवाली] रीति को (वा) निश्चय करके (अव) निरादर करके (गूहसि) ढाँप देती है। (कुमारि) हे कुमारी ……. [म० १] ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री आदि अपनी चतुराई से कुरीतें छोड़कर सुरीतें चलावें, स्त्री आदि ……………. [म० १] ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(उत्तानायै) उत्+तनु विस्तारे श्रद्धोपकारादिषु च-घञ्। उत्तमोपकारायुक्तायै नीतये (शयानाय) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। शीङ् शयने-आनच्। टाप्। सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। द्वितीयार्थे चतुर्थी। प्राप्तनिद्राम्। आलस्ययुक्तां रीतिम् (तिष्ठन्ती) वर्तमाना त्वम् (वा) अवधारणे (अव) अनादरे। अनादृत्य (गूहसि) गुहू संवरणे। आच्छादयसि। अन्यत्-म० १ ॥

०५ श्लक्ष्णायां श्लक्ष्णिकायाम्

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श्लक्ष्णा॑यां॒ श्लक्ष्णि॑कायां॒ श्लक्ष्ण॑मे॒वाव॑ गूहसि।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०५ श्लक्ष्णायां श्लक्ष्णिकायाम् ...{Loading}...

पदपाठः

श्लक्ष्णा॑या॒म्। श्लक्ष्णि॑काया॒म्। श्लक्ष्ण॑म्। ए॒व। अव॑। गूहसि। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • निचृदनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (श्लक्ष्णायाम्) चिकनी [कोमल] और (श्लक्ष्णिकायाम्) मनोहर वाणी में (श्लक्ष्णम्) स्नेह [प्रेम] को (एव) निश्चय करके (अव) शुद्धि के साथ (गूहसि) तू गुहा [हृदय] में रखती है। (कुमारि) हे कुमारी ! ……… [म० १] ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - स्त्री आदि मधुर मनोहर वाणी से शुद्ध प्रेम के साथ उपदेश करें, स्त्री आदि …………. [म० १] ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मनु महाराज ने कहा है-मनुस्मृति अध्याय २ श्लोक १९ ॥ अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्। वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ (भूतानाम्) प्राणियों की (अहिंसया एव) अहिंसा [दुःख न देने] से ही (श्रेयः) कल्याणकारी (अनुशासनम्) शासन वा उपदेश (कार्यम्) करना चाहिये। (च) और (धर्मम् इच्छता) धर्म चाहनेवाले करके (वाक् एव) वाणी भी (मधुरा) मधुर, (श्लक्ष्णा) मनोहर (प्रयोज्या) बोलनी चाहिये ॥ −(श्लक्ष्णायाम्) श्लिषेरच्चोपधायाः। उ० ३।१९। श्लिष आलिङ्गने संसर्गे च-क्स्न, इकारस्य अकारः। चिक्कणायाम्। कोमलायाम् (श्लक्ष्णिकायाम्) श्लक्ष्ण-कन् स्वार्थे, टाप् अत इत्त्वम्। मनोहरायां वाचि-यथा मनु २।१९। (श्लक्ष्णम्) स्नेहम्। प्रेमभावम् (एव) अवधारणे (अव) शुद्धौ। शुद्धया (गूहसि) गुह संवरणे। गुहायां हृदये स्थापयसि। अन्यत्-म० १ ॥

०६ अवश्लक्ष्णमिव भ्रंशदन्तर्लोममति

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अव॑श्लक्ष्ण॒मिव॑ भ्रंशद॒न्तर्लो॑म॒मति॑ ह्र॒दे।
न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

०६ अवश्लक्ष्णमिव भ्रंशदन्तर्लोममति ...{Loading}...

पदपाठः

अव॑श्लक्ष्ण॒म्। इव। भ्रंशद॒न्तर्लोम॒मति॑। हृ॒दे। न। वै। कु॒मारि॒। तत्। तथा॒। यथा॑। कुमारि॒। मन्य॑से। १३३.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • कुमारी
  • अनुष्टुप्
  • कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (भ्रंशदन्तर्लोममति) भीतर पड़े हुए केश आदि पदार्थवाले (ह्रदे) जलाशय में (अवश्लक्ष्णम् इव) जैसे गँदला रूप [दीखता है]। (कुमारि) हे कुमारी ! [कामनायोग्य स्त्री] (वै) निश्चय करके (तत्) वह (तथा) वैसा (न) नहीं है, (कुमारि) हे कुमारी (यथा) जैसा (मन्यसे) तू मानती है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - गँदले पानी में गँदला रूप दीखता है, और शुद्ध में शुद्ध, वैसे ही स्त्री आदि सब लोग मानसिक मैल तज कर शुद्ध व्यवहार करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(अवश्लक्ष्णम्) म० । अव अनादरे, परिभवे च। अमनोहरत्त्वम्। मलिनरूपत्वम्, (इव) यथा (भ्रंशदन्तर्लोममति) भ्रंशु अधःपतने-शतृ+अन्तः+लोप-मतुप्। अधःपतितमध्यकेशादिपदार्थयुक्ते। अतिमलिनवस्तूपेते (ह्रदे) जलाशये। अन्यत्-म० १ ॥