१२७ ...{Loading}...
Griffith
A hymn in praise of the good Government of King Kaurama
VH anukramaṇī
॥ अथ कुन्तापसूक्तानि ॥
खिलानि ।
०१ इदं जना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते।
ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते।
ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥
०१ इदं जना ...{Loading}...
Griffith
Listen to this, ye men, a laud of glorious bounty shall be sung. Thousands sixty, and ninety we, O Kaurama, among the Rusamas have received.
पदपाठः
इ॒दम्। जनाः॒। उप॑। श्रुत॒। नरा॒शंसः॒। स्तवि॑ष्यते। ष॒ष्टिम्। स॒हस्रा॑। नव॒तिम्। च॑। कौरम॒। आ। रु॒शमे॑षु। दद्महे। १२७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- पथ्या बृहती
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जनाः) हे मनुष्यो ! (इदम्) यह (उप) आदर से (श्रुत) सुनो, [कि] (नराशंसः) मनुष्यों में प्रशंसावाला पुरुष (स्तविष्यते) बड़ाई किया जावेगा। (कौरम) हे पृथिवी पर रमण करनेवाले राजन् ! (षष्टिम् सहस्रा) साठ सहस्र (च) और (नवतिम्) नब्बे [अर्थात् अनेक दानों] को (रुशमेषु) हिंसकों के फैंकनेवाले वीरों के बीच (आ दद्महे) हम पाते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - उत्तम कर्म करनेवाला मनुष्य संसार में सदा बड़ाई पाता है, यह विचारकर राजा कर्मकुशल वीरों के बीच आदर करके सुपात्रों को अनेक दान देवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: सूचना−सूक्त १३६ के मन्त्र १ तथा ४ को छोड़कर, यह कुन्तापसूक्त १२७-१३६ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से पदपाठ को संग्रह करके और कुछ शोधकर लिखते हैं। आगे सूचना अथर्व० २०।३४।१२, १६, १७ ४८।१-३ ४९।१-३ भी देखो ॥ का अर्थ पाप वा दुःख के भस्म करनेवाले सूक्त अर्थात् वेदमन्त्रों के समुदाय हैं ॥ [कुन्तापसूक्तानि−कुङ् आर्तस्वरे-डुप्रत्ययः+तप दाहे-घञ्, अलुक्-समासः+सु+वच कथने-क्त। कोः पापस्य दुःखस्य तापकानि दाहकानि सूक्तानि सुन्दरकथनानि वेदमन्त्रसमुदायाः-इत्यर्थः]॥ १−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (जनाः) हे मनुष्याः (उप) आदरे (श्रुत) शृणुत (नराशंसः) अथ० ।२७।३। नरेषु आशंसा यस्य सः। मनुष्येषु प्रशंसनीयः (स्तविष्यते) स्तुत्यो भविष्यति (षष्टिं सहस्रा नवतिं च) बहुसंख्याकानि दानानि-इत्यर्थः (कौरम) कौ+रमु क्रीडायाम्-अच्, अलुक्समासः। हे कौ पृथिव्यां रमणशील राजन् (रुशमेषु) अथ० २०।२०।२। रुशमाणां हिंसकानां प्रक्षेपकेषु वीरेषु (आ दद्महे) वयं गृह्णीमः ॥
०२ उष्ट्रा यस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑।
व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑।
व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥
०२ उष्ट्रा यस्य ...{Loading}...
Griffith
Camels twice-ten that draw the car, with females by their side, he gave. Fain would the chariot’s top bow down escaping from the stroke of heaven.
पदपाठः
उष्ट्राः॒। यस्य॑। प्रवा॒हणः॑। व॒धूम॑न्तः। द्वि॒र्दश॑। व॒र्ष्मा। रथ॑स्य॒। नि। जि॑हीडते। दि॒वः। ई॒षमा॑णाः। उप॒स्पृशः॑। १२७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- पथ्या बृहती
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिस [राजा] के (रथस्य) रथ के (प्रवाहणः) ले चलनेवाले, (ईषमाणाः) शीघ्रगामी, (उपस्पृशः) जुते हुए, (वधूमन्तः) ऊँटनियों सहित, (द्विर्दश) दो बार दस (उष्ट्राः) ऊँट (दिवः) उन्मत्त मनुष्य के (वर्ष्मा=वर्ष्माणम्) ऊँचे पद का (नि जिहीडते) अपमान करते रहते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा बीसहों ऊँट-ऊँटनी आदि को रथ आदि में जोतकर अनेक उद्यम करे-करावे और उद्योगी लोगों को बहुत से उचित पारितोषिक देवे ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(उष्ट्राः) उषिकुशिभ्यां कित्। उ० ४।१६२। उष दाहे वधे च-ष्ट्रन् कित्। पशुभेदाः (यस्य) राज्ञः (प्रवाहणः) वह प्रापणे-णिच् कनिन् वाहकाः (वधूमन्तः) उष्ट्रीसहिताः (द्विर्दश) द्विवारं दश। विंशतिम् (वर्ष्मा) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। द्वितीयास्थाने सुः। वर्ष्माणम्। उच्चपदम् (रथस्य) यानस्य (नि) नितराम् (जिहीडते) अ० ४।३२।। हेडृ अनादरे क्रोधे च तिरस्कुर्वन्ति (दिवः) दिवु मदे-क्विप्। उन्मत्तस्य (ईषमाणाः) ईष गतौ-शानच्। शीघ्रगामिनः (उपस्पृशः) उपस्पृष्टाः। योजिताः ॥
०३ एष इषाय
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए॒ष इ॒षाय॑ मामहे श॒तं नि॒ष्कान्दश॒ स्रजः॑।
त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ए॒ष इ॒षाय॑ मामहे श॒तं नि॒ष्कान्दश॒ स्रजः॑।
त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ॥
०३ एष इषाय ...{Loading}...
Griffith
A hundred chains of gold, ten wreaths, upon thee Rishi he bestowed, And thrice-a-hundred mettled steeds, ten-times-a-thousand cows he gave.
पदपाठः
ए॒षः। इ॒षाय॑। मामहे। श॒तम्। नि॒ष्कान्। दश॒। स्रजः॑। त्रीणि॑। श॒तानि॑। अर्व॑तान्। स॒हस्रा॒। दश॒। गोना॑म्। १२७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- निचृदनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) उस [राजा] ने (इषाय) उद्योगी पुरुष को (शतम्) सौ (निष्कान्) दीनारे [सुवर्ण मुद्रा], (दश) दश (स्रजः) मालाएँ, (अर्वताम् त्रीणि शतानि) तीन सौ घोड़े और (गोनाम् दश सहस्रा) दस सहस्र गौएँ (मामहे) दान दी हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा बीसहों ऊँट-ऊँटनी आदि को रथ आदि में जोतकर अनेक उद्यम करे-करावे और उद्योगी लोगों को बहुत से उचित पारितोषिक देवे ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(एषः) स राजा (इषाय) इष गतौ-क। उद्योगिने पुरुषाय (मामहे) मंहतेर्दानकर्मा-निघ० ३।४।२। ददौ (शतम्) (निष्कान्) निश्चयेन कायति। निस्+कै शब्दे-क। यद्वा, नौ सदेर्डिच्च। उ० ३।४। षद्लृ गतिविशरणयोः-कन्, स च डित्। दीनारान्। सुवर्णमुद्राः (दश) (स्रजः) सृज विसर्गे-क्विन्। मालाः (त्रीणि) (शतानि) (अर्वताम्) अश्वानाम् (सहस्रा) सहस्राणि (दश) (गोनाम्) गवाम्। धेनूनाम् ॥
०४ वच्यस्व रेभ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वच्य॑स्व॒ रेभ॑ वच्यस्व वृ॒क्षे न॑ प॒क्वे श॒कुनः॑।
नष्टे॑ जि॒ह्वा च॑र्चरीति क्षु॒रो न भु॒रिजो॑रिव ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वच्य॑स्व॒ रेभ॑ वच्यस्व वृ॒क्षे न॑ प॒क्वे श॒कुनः॑।
नष्टे॑ जि॒ह्वा च॑र्चरीति क्षु॒रो न भु॒रिजो॑रिव ॥
०४ वच्यस्व रेभ ...{Loading}...
Griffith
Glut thee, O Singer, glut thee like a bird on a ripe-fruited tree. Thy lips and tongue move swiftly like the sharp blades of a pair of shears.
पदपाठः
वच्य॑स्व॒। रेभ॑। वच्य॑स्व॒। वृ॒क्षे। न। प॒क्वे। श॒कुनः॑। नष्टे॑। जि॒ह्वा। च॑र्चरीति। क्षु॒रः। न। भु॒रिजोः॑। इव। १२७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रेभ) हे विद्वान् ! (वच्यस्व) उपदेश कर, (वच्यस्व) उपदेश कर, (न) जैसे (शकुनः) पक्षी (पक्वे) फलवाले (वृक्षे) वृक्ष पर [चह-चहाता है]। (नष्टे) दुःख व्यापने पर (भुरिजोः) दोनों धारण-पोषण करनेवाले [स्त्री-पुरुष] की (इव) ही (जिह्वा) जीभ (चर्चरीति) चलती रहती है, (न) जैसे (क्षुरः) छुरा [केशों पर चलता है] ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् स्त्री पुरुष प्रसन्न होकर सन्तान आदि को सदा सदुपदेश करें, जैसे फलवाले वृक्ष पर पक्षी प्रसन्न होकर बोलते हैं, और सदुपदेश द्वारा क्लेशों को इस प्रकार काटे, जैसे नापित केशों को छुरा से काट डालता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(वच्यस्व) ब्रवीतेर्यक्। ब्रूहि। उपदिश (रेभ) स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। हे विद्वन् (वच्यस्व) (वृक्षे) (न) यथा (पक्वे) फलयुक्ते (शकुनः) अथ० ६।२७।२। शक्लृ शक्तौ-उन। शक्तः। पक्षी (नष्टे) नशत्, व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। व्याप्ते दुःखे (जिह्वा) वाणी (चर्चरीति) भृशं चरति (क्षुरः) क्षुर विलेखने-क। नापितास्त्रम् (न) यथा (भुरिजोः) भृञ उच्च। उ० २।७२। डुभृञ् धारणपोषणयोः-इजि कित्, उकारान्तादेशः। धारकपोषकयोः स्त्रीपुरुषयोः (इव) एव ॥
०५ प्र रेभासो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र रे॒भासो॑ मनी॒षा वृषा॒ गाव॑ इवेरते।
अ॑मोत॒पुत्र॑का ए॒षाम॒मोत॑ गा॒ इवा॑सते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र रे॒भासो॑ मनी॒षा वृषा॒ गाव॑ इवेरते।
अ॑मोत॒पुत्र॑का ए॒षाम॒मोत॑ गा॒ इवा॑सते ॥
०५ प्र रेभासो ...{Loading}...
Griffith
Quickly and willingly like kine forth come the singers and their hymns: Their little maidens are at home, at home they wait upon the cows.
पदपाठः
प्र। रे॒भासः॑। मनी॒षाः। वृषाः॒। गावः॑ऽइव। ईरते। अ॒मो॒त॒। पु॒त्र॑काः। ए॒षाम्। अ॒मोत॑। गाः॒ऽइव। आ॑सते। १२७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- निचृदनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाः) बलवान् (गावः इव) बैलों के समान (रेभासः) विद्वान् लोग (मनीषाः) बुद्धियों को (प्र ईरते) आगे बढ़ाते हैं। (अमोत) हे बन्धनरहित ! (अमोत) हे मुक्त मनुष्य ! (एषाम्) इन [विद्वानों] के (पुत्रकाः) पुत्र (गाः) विद्याओं और भूमियाँ को (इव) अवश्य (आसते) सेवते हैं ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे बलवान् बैल आगे बढ़ते जाते हैं, मनुष्य विघ्नों से मुक्त होकर बुद्धि को अनेक प्रकार बढ़ावें और सन्तान आदि को योग्य विद्वान् और राज्याधिकारी बनावें ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(प्र) प्रकर्षेण (रेभासः) विद्वांसः (मनीषाः) बुद्धीः (वृषाः) बलवन्तः (गावः) वृषभाः (इव) यथा (ईरते) गमयन्ति (अमोत) मूङ् बन्धने-क्त, छान्दसो गुणः। हे अमूत। अबद्ध। मुक्त (पुत्रकाः) पुत्राः। सन्तानाः (एषाम्) पूर्वोक्तानाम् (अमोत) (गाः) विद्याः। भूमीः (इव) एव (आसते) उपासते। सेवन्ते ॥
०६ प्र रेभ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र रे॑भ॒ धीं भ॑रस्व गो॒विदं॑ वसु॒विद॑म्।
दे॑व॒त्रेमां॒ वाचं॑ श्रीणी॒हीषु॒र्नावी॑र॒स्तार॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र रे॑भ॒ धीं भ॑रस्व गो॒विदं॑ वसु॒विद॑म्।
दे॑व॒त्रेमां॒ वाचं॑ श्रीणी॒हीषु॒र्नावी॑र॒स्तार॑म् ॥
०६ प्र रेभ ...{Loading}...
Griffith
O Singer, bring thou forth the hymn that findeth cattle, findeth: wealth. Even as an archer aims his shaft address this prayer unto the Gods.
पदपाठः
प्र। रे॑भ॒। भ॑रस्व। गो॒विद॑म्। वसु॒विद॑म्। दे॒व॒ऽत्रा। इमाम्। वाच॑म्। त्रीणी॒हि। इषुः॒। न। अर्वीः॑। अ॒स्तार॑म्। १२७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- भुरिगुष्णिक्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रेभ) हे विद्वान् ! (गोविदम्) भूमि प्राप्त करानेवाली और (वसुविदम्) धन प्राप्त करानेवाली (धीम्) बुद्धि को (प्र) अच्छे प्रकार से (भरस्व) धारण कर। (देवत्रा) विद्वानों के बीच (इमाम्) इस [पूर्वोक्त] (वाचम्) वाणी को (श्रीणीहि) पक्की कर, (इषुः न) जैसे तीर (अवीः) प्रवेशयोग्य लक्ष्यों को (अस्तारम्) तीर चलानेवाले के लिये [पक्का करता है] ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों में बैठकर निश्चय करे कि राज्य और धन की प्राप्ति के लिये यत्न सुफल होवे, जैसे चतुर धनुर्धारी का बाण लक्ष्य पर ही पहुँचता है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(प्र) प्रकर्षेण (रेभ) विद्वन् (धीम्) प्रज्ञाम् (भरस्व) धरस्व (गोविदम्) भूमिप्रापिकाम् (वसुविदम्) धनप्रापिकाम् (देवत्रा) विद्वत्सु (इमाम्) पूर्वोक्ताम् (वाचम्) वाणीम् (श्रीणीहि) परिपक्वां दृढां कुरु (इषुः) इषः (न) यथा (अवीः) अव प्रवेशे-इन्। प्रवेशाणि लक्ष्याणि (अस्तारम्) शरप्रक्षेप्तारम् ॥
०७ राज्ञो विश्वजनीनस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
राज्ञो॑ विश्व॒जनी॑नस्य॒ यो दे॒वोऽमर्त्याँ॒ अति॑।
वै॑श्वान॒रस्य॒ सुष्टु॑ति॒मा सु॒नोता॑ परि॒क्षितः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
राज्ञो॑ विश्व॒जनी॑नस्य॒ यो दे॒वोऽमर्त्याँ॒ अति॑।
वै॑श्वान॒रस्य॒ सुष्टु॑ति॒मा सु॒नोता॑ परि॒क्षितः॑ ॥
०७ राज्ञो विश्वजनीनस्य ...{Loading}...
Griffith
List to Parikshit’s eulogy, the sovran whom all people love, The King who ruleth over all, excelling mortals as a God.
पदपाठः
राज्ञः॑। विश्व॒जनी॑नस्य। यः। दे॒वः। मर्त्या॒न्। अति॑। वै॒श्वा॒न॒रस्य॒। सुष्टु॑ति॒म्। आ। सु॒नोत। परि॒क्षितः॑। १२७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (देवः) देव [विजय चाहनेवाला पुरुष] (मर्त्यान् अति) मनुष्यों में बढ़कर [गुणी है], (विश्वजनीनस्य) सब लोगों के हितकारी, (वैश्वानरस्य) सबके नेता, (परिक्षितः) सब प्रकार ऐश्वर्यवाले (राज्ञः) उस राजा की (सुष्टुतिम्) उत्तम स्तुति को (आ) भले प्रकार (सुनोत) मथो ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सर्वहितकारी पुरुष से सब मनुष्य उत्तम गुणों का ग्रहण करें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(राज्ञः) तस्य शासकस्य (विश्वजनीनस्य) आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः। पा० ।१।९। विश्वजन-खप्रत्ययः। सर्वजनेभ्यो हितस्य (यः) (देवः) विजिगीषुः (मर्त्यान्) मनुष्यान् (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य श्रेष्ठगुणैः-वर्तते (वैश्वानरस्य) सर्वनायकस्य (सुष्टुतिम्) कल्याणीं स्तुतिम् (आ) समन्तात् (सुनीत) मथध्वम् (परिक्षितः) क्षि ऐश्वर्ये-क्विप्। तुक्। सर्वत ऐश्वर्ययुक्तस्य ॥
०८ परिच्छिन्नः क्षेममकरोत्तम
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प॑रि॒च्छिन्नः॒ क्षेम॑मकरो॒त्तम॒ आस॑नमा॒चर॑न्।
कुला॑यन्कृ॒ण्वन्कौर॑व्यः॒ पति॒र्वद॑ति जा॒यया॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प॑रि॒च्छिन्नः॒ क्षेम॑मकरो॒त्तम॒ आस॑नमा॒चर॑न्।
कुला॑यन्कृ॒ण्वन्कौर॑व्यः॒ पति॒र्वद॑ति जा॒यया॑ ॥
०८ परिच्छिन्नः क्षेममकरोत्तम ...{Loading}...
Griffith
‘Mounting his throne, Parikshit, best of all, hath given us peace and rest,’ Saith a Kauravya to his wife as he is ordering his house.
पदपाठः
प॒रि॒च्छिन्नः॒। क्षेम॑म्। अकरो॒त्। तमः॒। आस॑नम्। आ॒चर॑न्। कुला॑यन्। कृ॒ण्वन्। कौर॑व्यः॒। पतिः॒। वद॑ति। जा॒यया॑। १२७.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- भुरिगनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तमः) अन्धकार (परिच्छिन्नः) काट डालनेवाले [राजा] ने (आसनम्) आसन (आचरन्) ग्रहण करते हुए (क्षेमम्) आनन्द (अकरोत्) कर दिया है−[यह बात] (कुलायन्) घरों को (कृण्वन्) बनाता हुआ (कौरव्यः) कार्यकर्ताओं का राजा (पतिः) पति [गृहस्थ] (जायया) अपनी पत्नी से (वदति) कहता है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - न्यायकारी, प्रजापालक राजा की चर्चा गृहपति लोग अपनी-अपनी स्त्रियों से कहते हैं ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(परिच्छिन्नः) कर्तरि क्तः। परिच्छेदकः। सर्वतो नाशकः। (क्षेमम्) आनन्दम् (अकरोत्) कृतवान् (तमः) अन्धकारम् (आसनम्) सिंहासनम् (आचरन्) स्वीकुर्वन्। गृह्णन् (कुलायन्) ह्रस्वश्छान्दसः। कुलायान्। स्थानानि। गृहाणि (कृण्वन्) कुर्वन्। रचयन् (कौरव्यः) कृग्रोरुच्च। उ० १।२४। डुकृञ् करणे-कु, उकारश्च। कुरुनादिभ्यो ण्यः। पा० ४।१।१७२। कुरु-ण्य। कुरूणां कार्यकर्तॄणां राजा। गृहपतिः (पतिः) भर्ता (वदति) (जायया) पत्न्या ॥
०९ कतरत्त आ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क॑त॒रत्त॒ आ ह॑राणि॒ दधि॒ मन्थां॒ परि॒ श्रुत॑म्।
जा॒याः पतिं॒ वि पृ॑च्छति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
क॑त॒रत्त॒ आ ह॑राणि॒ दधि॒ मन्थां॒ परि॒ श्रुत॑म्।
जा॒याः पतिं॒ वि पृ॑च्छति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
०९ कतरत्त आ ...{Loading}...
Griffith
‘Which shall I set before thee, curds, gruel of milk, or barley- brew?’ Thus the wife asks her husband in the realm which King Parikshit rules.
पदपाठः
क॒त॒रत्। ते॒। आ। ह॑राणि॒। दधि॒। मन्था॑म्। परि॒। श्रु॒त॑म्। जा॒याः। पति॒म्। वि। पृ॑च्छति। रा॒ष्ट्रे। राज्ञः॑। परि॒क्षितः॑। १२७.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कतरत्) कौन वस्तु (ते) तेरे लिये (परि) सुधारकर (आ हराणि) मैं लाऊँ, (दधि) दही, (मन्थाम्) निर्जल मठा, [वा] (श्रुतम्) नोनी माखन आदि−[यह वात] (जायाः) पत्नी (पतिम्) पति से (परिक्षितः) सब प्रकार ऐश्वर्यवाले (राज्ञः) राजा के (राष्ट्रे) राज्य में (वि) विविध प्रकार (पृच्छति) पूछती है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सुनीतिवाले राजा के राज्य में दूध, दही, घृत आदि पदार्थ बहुतायत से पाकर लोग सुखी होते हैं ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(कतरत्) किं वस्तु (ते) तुभ्यम् (आ हराणि) आनयानि (दधि) (मन्थाम्) मथ्यते विलोड्यते, मन्थ विलोडने-घञ्, टाप्। मथितम्। निर्जलतक्रम् (परि) परिभूष्य (श्रुतम्) स्रु गतौ क्षरणे च-क्त, सस्य शः। स्रुतम्। क्षरितं नवनीतादिकम् (जायाः) एकवचनस्य बहुवचनम्। पत्नी (पतिम्) भर्तारम् (वि) विविधम् (पृच्छति) ज्ञातुमिच्छति (राष्ट्रे) राज्ये (राज्ञः) शासकस्य (परीक्षितः) म० ७। सर्वत ऐश्वर्ययुक्तस्य ॥
१० अभीवस्वः प्र
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भीवस्वः॒ प्र जि॑हीते॒ यवः॑ प॒क्वः प॒थो बिल॑म्।
जनः॒ स भ॒द्रमेध॑ति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒भीवस्वः॒ प्र जि॑हीते॒ यवः॑ प॒क्वः प॒थो बिल॑म्।
जनः॒ स भ॒द्रमेध॑ति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
१० अभीवस्वः प्र ...{Loading}...
Griffith
Up as it were to heavenly light springs the ripe corn above the cleft. Happily thrive the people in the land where King Parikshit reigns.
पदपाठः
अ॒भीवस्वः॒। प्र। जि॑हीते॒। यवः। प॒क्वः। प॒थः॑। बिल॑म्। जनः॒। सः। भ॒द्रम्। एध॑ति॒। रा॒ष्ट्रे। राज्ञः॑। परि॒क्षितः॑। १२७.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अभीवस्वः) सब ओर से बसानेवाला, (पक्वः) पका हुआ (यवः) जौ आदि अन्न (पथः) मार्ग से (बिलम्) गढ़े [खत्ती आदि] को (प्र) भले प्रकार (जिहीते) पहुँचता है। (सः जनः) वह मनुष्य (परिक्षितः) सब प्रकार ऐश्वर्यवाले (राज्ञः) राजा के (राष्ट्रे) राज्य में (भद्रम्) आनन्द (एधति) बढ़ाता है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा के सुप्रबन्ध से किसान आदि धनवान् लोग अन्न को पक जाने पर यथाविधि एकत्र करके खत्ती आदि में भरें और आवश्यकता पर काम में लाकर सुखी होवें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(अभीवस्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१। अभि+वस निवासे-वप्रत्ययः, छान्दसो दीर्घः। सर्वतो वासयिता (प्र) प्रकर्षेण (जिहीते) ओहाङ् गतौ। गच्छति। प्राप्नोति (यवः) यवादिभक्ष्यपदार्थः (पक्वः) पाकं गतः (पथः) मार्गात् (बिलम्) छिद्रम्। अन्नधारणगर्तम् (जनः) मनुष्यः, (सः) (भद्रम्) आनन्दम् (एधति) एधयति। वर्धयति। अन्यद् गतम्-म० ७ ॥
११ इन्द्रः कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रः॑ का॒रुम॑बूबुध॒दुत्ति॑ष्ठ॒ वि च॑रा॒ जन॑म्।
ममेदु॒ग्रस्य॒ चर्कृ॑धि॒ सर्व॒ इत्ते॑ पृणाद॒रिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रः॑ का॒रुम॑बूबुध॒दुत्ति॑ष्ठ॒ वि च॑रा॒ जन॑म्।
ममेदु॒ग्रस्य॒ चर्कृ॑धि॒ सर्व॒ इत्ते॑ पृणाद॒रिः ॥
११ इन्द्रः कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ ...{Loading}...
Griffith
Indra hath waked the bard and said, Rise, wander singing here and there. Praise me, the strong: each pious man will give thee riches in return,
पदपाठः
इन्द्रः॑। का॒रुम्। अ॑बूबुध॒त्। उत्ति॑ष्ठ। वि। चर॒। जन॑म्। मम। इत्। उ॒ग्रस्य॑। चर्कृ॑धि॒। सर्वः॒। इत्। ते॑। पृ॒णात्। अ॒रिः। १२७.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] ने (कारुम्) काम करनेवाले को (अबूबुधत्) जगाया है−(उत्तिष्ठ) उठ और (जनम्) लोगों में (वि चर) विचर, (मम इत् उग्रस्य) मुझ ही तेजस्वी की [भक्ति] (चर्कृधि) तू करता रहे, (सर्वः) प्रत्येक (अरिः) वैरी (इत्) भी (ते) तेरी (पृणात्) तृप्ति करे ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी राजा के प्रबन्ध से मनुष्य उद्यमी होकर आपस में विचारें और राजभक्त होकर चोर आदि प्रजा के शत्रुओं को वश में करें ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (कारुम्) कार्यकर्तारम् (अबूबुधत्) प्रबोधितवान् (उत्तिष्ठ) (वि) विविधम् (चर) गच्छ (जनम्) मनुष्यसमूहम् (मम) (इत्) एव (उग्रस्य) तेजस्विनः (चर्कृधि) करोतेः-यङ्लुकि रूपम्। भृशं भक्तिं कुरु (सर्वः) प्रत्येकः (इत्) (ते) तव (पृणात्) पृण प्रीणने। तृप्तिं कुर्यात् (अरिः) शत्रुः ॥
१२ इह गावः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒ह गावः॒ प्र जा॑यध्वमि॒हाश्वा इ॒ह पूरु॑षाः।
इ॒हो स॒हस्र॑दक्षि॒णोपि॑ पू॒षा नि षी॑दति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒ह गावः॒ प्र जा॑यध्वमि॒हाश्वा इ॒ह पूरु॑षाः।
इ॒हो स॒हस्र॑दक्षि॒णोपि॑ पू॒षा नि षी॑दति ॥
१२ इह गावः ...{Loading}...
Griffith
Here, cows! increase and multiply, here ye, O horses, here, O men. Here, with a thousand rich rewards, doth Pushan also seat him- self.
पदपाठः
इ॒ह। गावः॒। प्रजा॑यध्वम्। इ॒ह। अश्वाः। इ॒ह। पूरु॑षाः। इ॒हो। स॒हस्र॑दक्षि॒णः। अपि॑। पू॒षा। नि। सी॑दति। १२७.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- निचृदनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे गौओ ! तुम (इह) यहाँ पर [इस घर में], (अश्वाः) हे घोड़ो ! तुम (इह) यहाँ पर (पुरुषाः) हे पुरुषो ! तुम (इह) यहाँ पर (प्रजायध्वम्) बढ़ो, (इहो) यहाँ पर (सहस्रदिक्षणः) सहस्रों की दक्षिणा देनेवाला (पूषा) पोषक [गृहपति] (अपि) भी (नि षीदति) बैठता है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - उत्तम राजा के प्रबन्ध से गृहस्थ लोग गौओं, घोड़ों और मनुष्यों से वृद्धि करके परस्पर उपकार करें ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत है ॥ १२−(इह) अस्मिन् गृहे (गावः) हे धेनवः (प्रजायध्वम्) प्रवर्धध्वम् (इह) (अश्वाः) हे तुरङ्गाः (इह) (पूरुषाः) हे मनुष्याः (इहो) इह-उ। अत्रैव (सहस्रदक्षिणः) बहुदानस्वभावः (अपि) (पूषा) पोषको गृहपतिः (नि षीदति) उपविशति ॥
१३ नेमा इन्द्र
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नेमा इ॑न्द्र॒ गावो॑ रिष॒न्मो आ॒सां गोप॑ रीरिषत्।
मासा॑म॒मित्र॒युर्ज॑न॒ इन्द्र॒ मा स्ते॒न ई॑शत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नेमा इ॑न्द्र॒ गावो॑ रिष॒न्मो आ॒सां गोप॑ रीरिषत्।
मासा॑म॒मित्र॒युर्ज॑न॒ इन्द्र॒ मा स्ते॒न ई॑शत ॥
१३ नेमा इन्द्र ...{Loading}...
Griffith
O Indra, let these cows be safe, their master free from injury. Let not the hostile-hearted or the robber have control of them.
पदपाठः
न। इमाः। इ॑न्द्र॒। गावः॑। रिष॒न्। मो इति॑। आ॒साम्। गोप॑। रीरिषत्। मा। आसा॑म्। अमि॒त्र॒युः। जनः॒। इन्द्र॒। मा। स्ते॒नः। ईश॑त। १२७.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- अनुष्टुप्
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (इमाः) यह (गावः) भूमियें (न रिषन्) न नष्ट होवें और (आसाम्) इनका (गोप) रक्षक (मो रीरिषत्) नहीं नष्ट होवे। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [राजन्] (मा) न तो (अमित्रयुः) वैरियों को चाहनेवाला (जनः) नीच मनुष्य, और (मा) न (स्तेनः) चोर (आसाम्) इन [भूमियों] का (ईशत) राजा होवे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा डाकू चोर आदि से खेती आदि भूमियों की रक्षा करके प्रजा को पाले ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(न) निषेधे (इमाः) दृश्यमानाः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (गावः) कृष्यादिभूमयः (रिषन्) नश्यन्तु (मो) निषेधे (आसाम्) गवां भूमीनाम् (गोप) गुपू रक्षणे-अच्। आयादय आर्धधातुके वा। पा० ३।१।३१। आयलोपः। विभक्तेर्लुक्। गोपः। रक्षकः (रीरिषन्) रिष हिंसायाम्, ण्यन्ताद् माङि लुङि चङि रूपं कर्मण्यर्थे। नश्येत् (मा) निषेधे (आसाम्) (अमित्रयुः) अमित्र-क्यच्, उप्रत्ययः। शत्रून् कामयमानः (जनः) पामरलोकः (इन्द्र) (मा) (स्तेनः) चोरः (ईशत्) राजा भवेत् ॥
१४ उप नो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑ नो न रमसि॒ सूक्ते॑न॒ वच॑सा व॒यं भ॒द्रेण॒ वच॑सा व॒यम्।
वना॑दधिध्व॒नो गि॒रो न रि॑ष्येम क॒दा च॒न ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उप॑ नो न रमसि॒ सूक्ते॑न॒ वच॑सा व॒यं भ॒द्रेण॒ वच॑सा व॒यम्।
वना॑दधिध्व॒नो गि॒रो न रि॑ष्येम क॒दा च॒न ॥
१४ उप नो ...{Loading}...
Griffith
Oft and again we glorify the hero with our hymn of praise, with prayer, with our auspicious prayer. Take pleasure in the songs we sing: let evil never fall on us.
पदपाठः
उप॑। नः॒। रमसि॒। सूक्ते॑न॒। वच॑सा। व॒यम्। भ॒द्रेण॒। वच॑सा। व॒यम्। वना॑त्। अधिध्व॒नः। गि॒रः। न। रि॑ष्येम। क॒दा। च॒न। १२७.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- प्रजापतिरिन्द्रो वा
- निचृत्पङ्क्तिः
- कुन्ताप सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (नः) हमको (न) अब (उप) आदर से (रमसि) तू आनन्द देता है, (सूक्तेन) वेदोक्त (वचसा) वचन के साथ (वयम्) हम, (भद्रेण) कल्याणकारी (वचसा) वचन के साथ (वयम्) हम (वनात्) क्लेश से अलग होकर (अधिध्वनः) ऊँची ध्वनिवाली (गिरः) वाणियों को (कदा चन) कभी भी (न) न (रिष्येम) नष्ट करें ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा और प्रजा परस्पर उपकार करके दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ संसार में सुख बढ़ावें ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(उप) पूजायाम् (नः) अस्मान् (न) सम्प्रति (रमसि) रमयसि। आनन्दयसि (सूक्तेन) वेदविहितेन (वचसा) वचनेन (वयम्) प्रजाजनाः (भद्रेण) कल्याणकरेण (वचसा) (वयम्) (वनात्) वन उपतापे-अच्। क्लेशात् पृथग्भूय (अधिध्वनः) ध्वन शब्दे-क्विप्। उच्चध्वनिः युक्ताः (गिरः) वाणीः (न) निषेधे (रिष्येम) नाशयेम (कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि ॥