१२६ ...{Loading}...
०१ वि हि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत।
यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत।
यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०१ वि हि ...{Loading}...
Griffith
Men have abstained from pouring juice; nor counted Indra as a God. Where at the votary’s store my friend Vrishakapi hath drunk his fill. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
वि। हि। सोतोः॑। असृ॑क्षत। न। इन्द्र॑म्। दे॒वम्। अ॒मं॒स॒त॒। यत्र॑। अम॑दत्। वृ॒षाक॑पिः। अ॒र्यः। पु॒ष्टेषु॑। मत्ऽस॑खा। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑रः। १२६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हि) क्योंकि (सोतोः) तत्त्वरस का निकालना (वि असृक्षत) उन्होंने [लोगों ने] छोड़ दिया है, [इसी से] (देवम्) विद्वान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य आत्मा] को (न अमंसत) उन्होंने नहीं जाना, (यत्र) जहाँ [संसार में] (अर्यः) स्वामी (मत्सखा) मेरा [देहवाले का] साथी (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् कँपानेवाले अर्थात् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (पुष्टेषु) पुष्टिकारक धनों में (अमदत्) आनन्द पाया है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य, दूसरे जीवों से अधिक उत्तम और तत्त्वज्ञानी होने पर भी अपने सामर्थ्य और कर्तव्य को भूल जाते हैं, वे आत्मघाती संसार में सुख कभी नहीं पाते ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।८६।१-२३ ॥ सूचना−इस सूक्त में इन्द्र, वृषाकपि, इन्द्राणी और वृषाकपायी का वर्णन है। इन्द्र शब्द से मनुष्य का शरीरधारी जीवात्मा, वृषाकपि से भीतरी जीवात्मा, इन्द्राणी से इन्द्र की विभूति वा शक्ति और वृषाकपायी से वृषाकपि की विभूति वा शक्ति तात्पर्य है, अर्थात् एक ही मनुष्य के जीवात्मा का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से है। इन्द्र अर्थात् शरीरधारी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ है, वह अपने को बुराई से बचाकर भलाई में सदा लगावे−सूक्त का यही सारांश है ॥ १−(वि) वियोगे (हि) यस्मात् कारणात् (सोतोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। षुञ् अभिषवे-तोसुन्। अभिषोतुम्। तत्त्वरसं निष्पादयितुम् (असृक्षत) विसृष्टवन्तः। त्यक्तवन्तः (नि) निषेधे (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं मनुष्यम् (देवम्) विद्वांसम् (अमंसत) मन ज्ञाने-लुङ्। ज्ञातवन्तः (यत्र) यस्मिन् संसारे (अमदत्) हृष्टोऽभूत् (वृषाकपिः) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१६। वृष सेचने पराक्रमे च-कनिन्, यद्वा, इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३। इति कप्रत्ययः। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ।६। अथ यद् रश्मिभिरभिप्रकम्पयन्नेति तद् वृषाकपिर्भवति वृषाकम्पनः-निरु० १२।२७। हरविष्णू वृषाकपिः-अमरः, २३।१३०। वृषाकपि=विष्णुः, शिवः, अग्निः, इन्द्रः, सूर्यः-इति शब्दकल्पद्रमः। वृषा बलवान्, कपिः कम्पयिता चेष्टयिता इन्द्रो जीवात्मा (अर्यः) स्वामी (पुष्टेषु) पोषकेषु धनेषु (मत्सखा) मम शरीरधारिणः सखा (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् प्राणिमात्रात् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् शरीरधारी मनुष्यः (उत्तरः) श्रेष्ठतरः ॥
०२ परा हीन्द्र
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परा॒ हीन्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑।
नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परा॒ हीन्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑।
नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०२ परा हीन्द्र ...{Loading}...
Griffith
Thou, Indra, heedless passest by the ill Vrishakapi hath wrought; Yet nowhere else thou findest place wherein to drink the Soma juice. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
परा॑। हि। इ॒न्द्र॒। धाव॑सि। वृ॒षाक॑पेः। अति॑। व्यथिः॑। नो इति॑। अह॑। प्र। वि॒न्द॒सि॒। अ॒न्यत्र॑। सोम॑ऽपीतये। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑रः। १२६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] तू (हि) ही (वृषाकपेः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] से (अति) अत्यन्त (व्यथिः) व्याकुल होकर (परा) दूर (धावसि) दौड़ता है। (अन्यत्र) [अपने आत्मा से] दूसरे [प्राणी] में (सोमपीतये) सोम [तत्त्व रस] के पाने के लिये (नो अह) कभी नहीं (प्र विन्दसि) तू पाया जाता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आत्मज्ञान के बिना कष्टों से व्याकुल होकर अपने सामर्थ्य को सींचकर काम करता है, वही तत्त्व मार्ग पर चलकर आप सुखी होता और सबको सुखी करता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(परा) दूरे (हि) अवधारणे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (धावसि) शीघ्रं गच्छसि (वृषाकपेः) म० १। बलवच्चेष्टाकारकाज्जीवात्मनः (अति) अत्यन्तम् (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। व्यथ भयसंचलनयोः-इन्। व्याकुलः (नो) नैव (अह) निश्चयेन (प्रः) (विन्दसि) लभसे। प्राप्यसे (अन्यत्र) स्वात्मनो भिन्ने (सोमपीतये) तत्त्वरसपानाय। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०३ किमयं त्वाम्
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किम॒यं त्वां॑ वृ॒षाक॑पिश्च॒कार॒ हरि॑तो मृ॒गः।
यस्मा॑ इर॒स्यसीदु॒ न्व१॒॑र्यो वा॑ पुष्टि॒मद्वसु॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
किम॒यं त्वां॑ वृ॒षाक॑पिश्च॒कार॒ हरि॑तो मृ॒गः।
यस्मा॑ इर॒स्यसीदु॒ न्व१॒॑र्यो वा॑ पुष्टि॒मद्वसु॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०३ किमयं त्वाम् ...{Loading}...
Griffith
What hath he done to injure thee, this tawny beast Vrishakapi, With whom thou art so angry now? What is the votary’s food- ful store? Supreme is Indra over all.
पदपाठः
किम्। अ॒यम्। त्वाम्। वृ॒षाक॑पिः। च॒कार॑। हरि॑तः। मृ॒गः। यस्मै॑। इ॒र॒स्यसि॑। इत्। ऊं॒ इति॒। नु। अ॒र्यः। वा॒। पु॒ष्टि॒मत्। वसु॑। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (किम्) कौनसा [अपकार] (अयम्) इस (हरितः) छीन लेनेवाले, (मृगः) घूमनेवाले मृग [जंगली पशु के समान] (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (त्वाम्) तुझको (चकार) किया है ? (यस्मै) जिस [जीवात्मा] के लिये (अर्यः) स्वामी होकर तू (पुष्टिमत्) पुष्टि रखनेवाले (वसु) धन का (इत्) भी (वा) अवश्य (उ) निश्चय करके (नु) अब (इरस्यसि) डाह करता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि पशु के समान आचरण अर्थात् पापबुद्धि और डाह छोड़कर पुरुषार्थ से वृद्धि करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(किम्) किमपकारम् (अयम्) विचार्यमाणः (त्वाम्) मनुष्यम् (वृषाकपिः) म० १। बलवच्चेष्टाकारको जीवात्मा (चकार) कृतवान् (हरितः) हरणशीलः (मृगः) मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः-निरु० १३।३। भ्रमणशीलो वनपशुर्यथा (यस्मै) वृषाकपये जीवात्मने (इरस्यसि) इरस ईष्यायां कण्ड्वादिः। ईर्ष्यसि (इत्) अपि (उ) एव (नु) इदानीम् (अर्यः) स्वामी (वा) अवधारणे (पुष्टिमत्) पोषयुक्तम् (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत् ॥
०४ यमिमं त्वम्
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यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि।
श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि।
श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०४ यमिमं त्वम् ...{Loading}...
Griffith
Soon may the hound who hunts the boar seize him and bite him in the ear, O Indra, that Vrishakapi whom thou protectest as a friend. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
यम्। इ॒यम्। त्वम्। वृ॒षाक॑पिम्। प्रि॒यम्। इन्द्र॒। अ॒भि॒रक्ष॑सि। श्वा। नु। अ॒स्य॒। ज॒म्भि॒ष॒त्। अपि॑। कर्णे॑। व॒रा॒ह॒ऽयुः। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (त्वम्) तू (यम्) जिस (इमम्) इस (प्रियम्) प्यारे (वृषाकपिम्) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] की (अभिरक्षसि) सब ओर से रक्षा करे, [तो] (नु) क्या (वराहयुः) सुअर को ढूँढनेवाला (श्वा) कुत्ता [अर्थात् पाप कर्म] (अस्य) इस [सूअर अर्थात् जीव] के (अपि) भी (कर्णे) कान में (जम्भिषत्) काटेगा, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब सब प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य अपने आत्मा को अपने वश में कर लेता है, तब उसको कोई पाप कर्म ऐसा नहीं सताता है, जैसे कुत्ता सूअर को कान पकड़कर झँझोर डालता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(यम्) जीवात्मानम् (इमम्) शरीरे विद्यमानम् (त्वम्) (वृषाकपिम्) म० १। बलवच्चेष्टाकारकं जीवात्मानम् (प्रियम्) इष्टम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अभिरक्षसि) परिपालयसि (श्वा) कुक्कुरः (नु) प्रश्ने (अस्य) जीवात्मनः (जम्भिषत्) भक्षयेत् (अपि) एव (कर्णे) श्रोत्रे (वराहयुः) वराहं शूकरमिच्छन्। अन्यद् गतम् ॥
०५ प्रिया तष्टानि
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प्रि॒या त॒ष्टानि॑ मे क॒पिर्व्य॑क्ता॒ व्य᳡दूदुषत्।
शिरो॒ न्व᳡स्य राविषं॒ न सु॒गं दु॒ष्कृते॑ भुवं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रि॒या त॒ष्टानि॑ मे क॒पिर्व्य॑क्ता॒ व्य᳡दूदुषत्।
शिरो॒ न्व᳡स्य राविषं॒ न सु॒गं दु॒ष्कृते॑ भुवं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०५ प्रिया तष्टानि ...{Loading}...
Griffith
Kapi hath marred the beauteous things, all deftly wrought, that were my joy. In pieces will I rend his head; the sinner’s portion shall be woe. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
प्रि॒या। त॒ष्ठानि॑। मे॒। क॒पिः। विऽअ॑क्ता। वि। अ॒दू॒दु॒ष॒त्। शिरः॑। नु। अ॒स्य॒। रा॒वि॒ष॒म्। न। सु॒ऽगम्। दुः॒ऽकृते॑। भु॒व॒म्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कपिः) कपि [चञ्चल जीवात्मा] ने (मे) मेरे (व्यक्तानि) स्वच्छ किये हुए (प्रिया) प्यारे (तष्टानि) कर्मों को (वि) विरुद्धपन से (अदूदुषत्) दूषित कर दिया है (अस्य) इस [पाप कर्म] के (शिरः) शिर को (नु) अव (राविषम्) मैं काट डालूँ, और (दुष्कृते) दुष्ट कर्म में (सुगम्) सुगम (न) नहीं (भुवम्) हो जाऊँ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् जितेन्द्रिय मनुष्य के मन में यदि पाप की लहर उठे, वह ज्ञान से उसको सर्वथा नष्ट करके अपना महत्त्व दृढ़ बनाये रक्खे ॥॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: −(प्रिया) कमनीयानि (तष्टानि) कृतानि कर्माणि (मे) मम (कपिः) म० १। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। चपलो जीवात्मा (व्यक्ता) वि+अञ्जू-क्त। स्वच्छीकृतानि (वि) विरोधे (अदूदुषत्) दुष वैकृत्ये-णिच् लुङ्। दूषितवान् (शिरः) मस्तकम् (नु) इदानीम् (अस्य) पापकर्मणः (राविषम्) रुङ् गतिरेषणयोः-लुङ्, अडभावः। लुनीयाम् (न) निषेधे (सुगम्) यथा तथा सुगमम् (दुष्कृते) दुष्टकर्मणि (भुवम्) भवेयम्। अन्यद् गतम् ॥
०६ न मत्स्त्री
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न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्।
न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्।
न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०६ न मत्स्त्री ...{Loading}...
Griffith
No dame hath ampler charms than I, or greater wealth of love’s delights. None with more ardour offers all her beauty to her lord’s embrace. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
न। मत्। स्त्री। सु॒भ॒सत्ऽत॑रा। न। सु॒याशु॑ऽतरा। भु॒व॒त्। न। मत्। प्रति॑ऽच्यवीयसी। न। सक्थि॑। उत्ऽय॑मीयसी। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्त्री) कोई स्त्री (मत्) मुझसे (न) न (सुभसत्तरा) अधिक बड़ी शोभावाली, (न) न (सुयाशुतरा) अधिक सुन्दर यत्नवाली, (न) न (मत्) मुझसे (प्रतिच्यवीयसी) अधिक सहनेवाली और (न) न (सक्थि) जङ्घा [आदि शरीर के अङ्गों] को (उद्यमीयसी) उद्योग में अधिक लगानेवाली (भुवत्) होवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - स्त्रियाँ भी मनुष्यशरीर पाकर सब प्रकार विद्या ग्रहण करें और कर्तव्य में चतुर बनकर अन्य स्त्रियों और प्राणियों से अपनी शोभा अधिक बढ़ावें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(न) निषेधे (मत्) मत्तः (स्त्री) अन्या नारी (सुभसत्तरा) शॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। भस दीप्तौ-अदि। अधिकसुदीप्यमाना। सुभगतरा (न) (सुयाशुतरा) यसु प्रयत्ने-उण्, सस्य शः। अतिशयेन सुप्रयतमाना (भुवत्) भवेत् (न) (मत्) (प्रतिच्यवीयसी) च्युङ् सहने गतौ च-तृच्, ईयसुन्। प्रत्यक्षेणाधिकच्यावयित्री। अधिकसहनशीला (न) (सक्थि) जङ्घादिशरीराङ्गजातम् (उद्यमीयसी) यमु उपरमे-तृच्, ईयसुन्। अतिशयेन उद्यमयित्री। अन्यद् गतम् ॥
०७ उवे अम्ब
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उ॒वे अ॑म्ब सुलाभिके॒ यथे॑वा॒ङ्ग भ॑वि॒ष्यति॑।
भ॒सन्मे॑ अम्ब॒ सक्थि॑ मे॒ शिरो॑ मे॒ वीव᳡ हृष्यति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒वे अ॑म्ब सुलाभिके॒ यथे॑वा॒ङ्ग भ॑वि॒ष्यति॑।
भ॒सन्मे॑ अम्ब॒ सक्थि॑ मे॒ शिरो॑ मे॒ वीव᳡ हृष्यति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०७ उवे अम्ब ...{Loading}...
Griffith
Mother whose love is quickly won,I say what verily will be, My breast, O mother, and my head and both my hips seem quivering Supreme is Indra over all.
पदपाठः
उ॒वे। अ॒म्ब॒। सु॒ला॒भि॒के॒। यथा॑ऽइव। अ॒ङ्ग। भ॒वि॒ष्यति॑। भ॒सत्। मे॒। अ॒म्ब॒। सक्थि॑। मे॒। शिरः॑। मे॒। विऽइ॑व। हृ॒ष्य॒ति॒। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उवे) हे (अम्ब) अम्मा ! (अङ्ग) हे (सुलाभिके) सुन्दर लाभ करानेवाली ! (यथा इव) जैसा कुछ (भविष्यति) आगे होगा [वैसा किया जावे], (अम्ब) हे अम्मा ! (मे) मेरा (भसत्) चमकता हुआ कर्म, (मे) मेरी (सक्थि) जङ्घा, (मे) मेरा (शिरः) शिर (वि) विविध प्रकार से (इव) ही (हृष्यति) आनन्द देवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब लड़के-लड़कियाँ गुणवती माता से, शरीर के अङ्गों से सुन्दर चेष्टा करके बलवान् और गुणवान् होना सीखें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(उवे) संबोधने निपातः। हे (अम्ब) मातः (सुलाभिके) शोभनलाभे (यथा इव) येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव (अङ्ग) हे (भविष्यति) भवतु (भसत्) म० ६। दीप्यमानं कर्म (मे) मम (अम्ब) (सक्थि) म० ६। जङ्घा (मे) (शिरः) (मे) (वि) विविधम् (इव) अवधारणे (हृष्यति) हर्षयतु। अन्यद् गतम् ॥
०८ किं सुबाहो
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किं सु॑बाहो स्वङ्गुरे॒ पृथु॑ष्टो॒ पृथु॑जाघने।
किं शू॑रपत्नि न॒स्त्वम॒भ्य᳡मीषि वृ॒षाक॑पिं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
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मूलम् (VS)
किं सु॑बाहो स्वङ्गुरे॒ पृथु॑ष्टो॒ पृथु॑जाघने।
किं शू॑रपत्नि न॒स्त्वम॒भ्य᳡मीषि वृ॒षाक॑पिं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०८ किं सुबाहो ...{Loading}...
Griffith
Dame with the lovely hands and arms, with broad hair-plaits and ample hips, Why, O thou hero’s wife, art thou angry with our Vrishakapi? Supreme is Indra over all.
पदपाठः
किम्। सु॒बा॒हो॒ इति॑ सु बाहो। सु॒ऽअ॒ङ्गु॒रे॒। पृथु॑स्तो॒ इति॒। पृथु॑ऽस्तो। पृथु॑ऽजघने। किम्। शू॒र॒ऽप॒त्नि॒। नः॒। त्वम्। अ॒भि। अ॒मी॒षि॒। वृ॒षाक॑पिम्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुबाहो) हे बलवान् भुजाओंवाली ! (स्वाङ्गुरे) हे दृढ़ अंगुलियोंवाली ! (पृथुजघने) हे मोटी जङ्घाओंवाली ! (पृथुष्टो) हे बड़ी स्तुतिवाली ! [कुलवधू] (किम्) क्यों, (शूरपत्नि) हे शूर की पत्नी ! (किम्) क्यों, (त्वम्) तू (नः) हमारे (वृषाकपिम्) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] को (अभि) सर्वथा (अमीषि) पीड़ा देगी, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - रूपवती, बलवती, गुणवती स्त्री पुत्र-पुत्रियों को रूपवान्, बलवान् और गुणवान् बनाकर पति आदि को सदा प्रसन्न करे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(किम्) आक्षेपे। किमर्थम् (सुबाहो) बलयुक्तभुजोपेते (स्वाङ्गुरे) दृढाङ्गुलिके (पृथुष्टो) अथ० ७।४६।१। ष्टुञ् स्तुतौ-डु। बहुस्तुतियुक्ते (पृथुजघने) स्थूलजङ्घे (किम्) (शूरपत्नि) हे वीरस्य भार्ये (नः) अस्माकम् (त्वम्) (अभि) सर्वतः (अमीषि) अम पीडने। आमयसि। पीडयिष्यसि (वृषाकपिम्) म० १। बलवन्तं चेष्टयितारं जीवात्मानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०९ अवीरामिव मामयम्
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अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते।
उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते।
उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
०९ अवीरामिव मामयम् ...{Loading}...
Griffith
This noxious creature looks on me as one bereft of hero’s love. Yet heroes for my sons have I, the Maruts’ friend and Indra’s Queen Supreme is Indra over all.
पदपाठः
अ॒वीरा॑म्ऽइव। माम्। अ॒यम्। श॒रारुः॑। अ॒भि। म॒न्य॒ते॒। उ॒त। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। वी॒रिणी॑। इन्द्र॑ऽपत्नी। म॒रुत् स॑खा। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (शरारुः) अपकारी मनुष्य (माम्) मुझ [स्त्री] को (अवीराम् इव) अवीर स्त्री के समान (अभि मन्यते) मानता है, (उत) और (अहम्) मैं (वीरिणी) वीरिणी [वीर सन्तानोंवाली], (इन्द्रपत्नी) इन्द्रपत्नी [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य की पत्नी], और (मरुत्सखा) विद्वान् वीरों को साथी रखनेवाली (अस्मि) हूँ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वीरपत्नी स्त्री वीर सन्तानों और वीर पुरुषों के साथ रहकर दुष्टों से निर्भय होवे ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(अवीराम्) अबलाम् (इव) यथा (माम्) स्त्रियम् (अयम्) (शरारुः) शॄवन्द्योरारुः। पा० ३।२।१७३। शॄ हिंसायाम्-आरु। घातुकः। अपकारी (अभि) आभिमुख्ये (मन्यते) जानाति (उत) अपि च (अहम्) स्त्री (अस्मि) (वीरिणी) वीरसन्तानवती (इन्द्रपत्नी) इन्द्रस्य ऐश्वर्यवन्तः पुरुषस्य भार्या (मरुत्सखा) मरुद्भिर्विद्वद्भिः शूरैर्युक्ता। अन्यद् गतम् ॥
१० संहोत्रं स्म
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सं॑हो॒त्रं स्म॑ पु॒रा नारी॒ सम॑नं॒ वाव॑ गच्छति।
वे॒धा ऋ॒तस्य॑ वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी महीयते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं॑हो॒त्रं स्म॑ पु॒रा नारी॒ सम॑नं॒ वाव॑ गच्छति।
वे॒धा ऋ॒तस्य॑ वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी महीयते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१० संहोत्रं स्म ...{Loading}...
Griffith
From olden time the matron goes to feast and general sacrifice. Mother of heroes, Indra’s Queen, the rite’s ordainer is extolled. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
स॒म्ऽहो॒त्रम्। स्म॒। पु॒रा। नारी॑। सम॑नम्। वा॒। अव॑। ग॒च्छ॒ति॒। वे॒धाः। ऋ॒तस्य॑। वी॒रिणी॑। इन्द्र॑ऽपत्नी। म॒ही॒य॒ते॒। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नारी) नारी [नरों का हित करने हारी स्त्री] (पुरा) पहिले काल से (स्म) ही (संहोत्रम्) मिलकर अग्निहोत्र आदि यज्ञ करने (वा) और (समनम्) मिलकर जीवन करने को (अव गच्छति) जानती है। (ऋतस्य) सत्य ज्ञान का (वेधाः) विधान करनेवाली (वीरिणी) वीरिणी [वीर सन्तानोंवाली], (इन्द्रपत्नी) इन्द्रपत्नी [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य की स्त्री] (महीयते) पूजी जाती है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम श्रेष्ठ है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो ज्ञानवती स्त्री अपने सदृश वीर पति से विवाह करके वीर सन्तानें उत्पन्न करती है, वही संसार में बड़ाई पाती है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(संहोत्रम्) पत्यादिभिः सहाग्निहोत्रादियज्ञम् (स्म) एव (पुरा) पुरस्तात् (नारी) नराणां हिता स्त्री (समनम्) अन प्राणने-अच्। सहजीवनम् (वा) समुच्चये (अव गच्छति) जानाति (वधाः) विधात्री (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (वीरिणी) म० ९। (इन्द्रपत्नी) म० ९। (महीयते) पूज्यते। अन्यद् गतम् ॥
११ इन्द्राणीमासु नारिषु
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इ॑न्द्रा॒णीमा॒सु नारि॑षु सु॒भगा॑म॒हम॑श्रवम्।
न॒ह्य᳡स्या अप॒रं च॒न ज॒रसा॒ मर॑ते॒ पति॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॑न्द्रा॒णीमा॒सु नारि॑षु सु॒भगा॑म॒हम॑श्रवम्।
न॒ह्य᳡स्या अप॒रं च॒न ज॒रसा॒ मर॑ते॒ पति॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
११ इन्द्राणीमासु नारिषु ...{Loading}...
Griffith
So have I heard Indrani called most fortunate among these dames, For never shall her Consort die in future time through length of days. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
इ॒न्द्राणीम्। आ॒सु। नारि॑षु। सु॒ऽभगा॑म्। अ॒हम्। अ॒श्र॒व॒म्। न॒हि। अ॒स्याः॒। अ॒प॒रम्। च॒न। ज॒रसा॑। भर॑ते। पतिः॑। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आसु) इन (नारिषु) चलायी गयी प्रजाओं के बीच (इन्द्राणीम्) इन्द्राणी [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष की विभूति वा शक्ति] को (सुभगाम्) बड़ी भगवती [ऐश्वर्यवाली] (अहम्) मैंने (अश्रवम्) सुना है (अस्याः) इस [विभूति] का (पतिः) पति [पालन करनेवाला, इन्द्र यह मनुष्य] (अपरम् चन) दूसरे प्राणियों के समान (जरसा) वयोहानि से (नहि) नहीं (मरते) मरता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह वेदादि शास्त्रों से प्रसिद्ध है कि उन्नतिशील मनुष्य अपनी बुद्धि आदि शक्तियों को ठिकाने रखकर सदा बलवान् रहकर यशस्वी होवे ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(इन्द्राणीम्) इन्द्राणीन्द्रस्य पत्नी-निरु० ११।३७। इन्द्राणी इन्द्रस्य पत्नी इन्द्रस्य विभूतिः-दुर्गाचार्यः। परमैश्वर्यवतः पुरुषस्य विभूतिं शक्तिम् (आसु) दृश्यमानासु (नारिषु) वसिवपियजि०। उ० ४।१२। नॄ नये-इञ्। नीतासु प्रजासु (सुभगाम्) बह्वैश्वर्यवतीम् (अहम्) मनुष्यः (अश्रवम्) अश्रौषम्। श्रुतवानस्मि (नहि) नैव (अस्याः) विभूतेः (अपरम्) अन्यत् प्राणिजातम् (चन) सादृश्ये (जरसा) वयोहान्या। निर्बलत्वेन (मरते) द्विषते। (पतिः) पालकः। अन्यद् गतम् ॥
१२ नाहमिन्द्राणि रारण
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नाहमि॒न्द्राणि॑ रारण॒ सख्यु॑र्वृ॒षाक॑पेरृ॒ते।
यस्ये॒दमप्यं॑ ह॒विः प्रि॒यं दे॒वेषु॒ गच्छ॑ति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नाहमि॒न्द्राणि॑ रारण॒ सख्यु॑र्वृ॒षाक॑पेरृ॒ते।
यस्ये॒दमप्यं॑ ह॒विः प्रि॒यं दे॒वेषु॒ गच्छ॑ति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१२ नाहमिन्द्राणि रारण ...{Loading}...
Griffith
Never, Indrani have I joyed without my friend Vrishakapi, Whose welcome offering here, made pure with water, goeth to the Gods. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
न। अ॒हम्। इ॒न्द्रा॒णि॒। र॒र॒ण॒। सख्युः॑। वृ॒षाक॑पेः। ऋ॒ते। यस्य॑। इ॒दम्। अप्य॑स्। ह॒विः। प्रि॒यम्। दे॒वेषु॑। गच्छ॑ति। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राणि) हे इन्द्राणी ! [इन्द्र, बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य की विभूति] (सख्युः) सखा (वृषाकपेः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] के (ऋते) बिना (अहम्) मैं [शरीरधारी] (न) नहीं (रारण) चल सकता, (यस्य) जिस [वृषाकपि, जीवत्मा] का (इदम्) यह (अप्यम्) प्रजाओं का हितकारी (प्रियम्) प्यारा (हविः) हवि [देने-लेने योग्य, घृत जल आदि पदार्थ] (देवेषु) विद्वानों में (गच्छति) पहुँचता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपनी शक्ति को अपने मित्र जीवात्मा के साथ दृढ़ रखकर स्वस्थ रह, और सब प्राणियों से उत्तम होकर मोक्ष सुख पावे ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(न) निषेधे (अहम्) शरीरी जीवः (इन्द्राणि) म० ११। हे परमैश्वर्यवतः पुरुषस्य विभूते (रारण) रण गतौ शब्दे च-लडर्थे लिट्। गच्छामि (सख्युः) सखिभूतात् (वृषाकपेः) म० १। बलवतश्चेष्टयितुर्जीवात् (ऋते) विना (यस्य) वृषाकपेः (इदम्) दृश्यमानम् (अप्यम्) अपां प्रजानां हितम् (हविः) दातव्यग्राह्यं घृतजलादिकम् (प्रियम्) प्रीतिकरम् (देवेषु) विद्वत्सु (गच्छति) प्राप्यते। अन्यत् सिद्धम् ॥
१३ वृसाकपायि रेवति
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वृसा॑कपायि॒ रेव॑ति॒ सुपु॑त्र॒ आदु॒ सुस्नु॑षे।
घस॑त्त॒ इन्द्र॑ उ॒क्षणः॑ प्रि॒यं का॑चित्क॒रं ह॒विर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वृसा॑कपायि॒ रेव॑ति॒ सुपु॑त्र॒ आदु॒ सुस्नु॑षे।
घस॑त्त॒ इन्द्र॑ उ॒क्षणः॑ प्रि॒यं का॑चित्क॒रं ह॒विर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१३ वृसाकपायि रेवति ...{Loading}...
Griffith
Wealthy Vrishakapayi, blest with sons and consorts of thy sons, Indra will eat thy bulls, thy dear oblation that effecteth much. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
वृषा॑कपायि। रेव॑ति। सुऽपु॑त्रे। आत्। ऊं॒ इति॑। सुऽस्नुषे॑। घस॑त्। ते॒। इन्द्र॑। उ॒क्षणः॑। प्रि॒यम्। का॒चि॒त्ऽक॒रम्। ह॒विः। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाकपायि) हे वृषाकपायी ! [वृषाकपि, बलवान्, चेष्टा करानेवाले जीवात्मा की विभूति] (रेवति) हे धनवाली ! (सुपुत्रे) हे वीर पुत्रों की करनेवाली ! (सुस्नुषे) हे बहुत सुख बरसानेवाली ! (आत् उ) लगातार ही (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (ते) तेरे (उक्षणः) बढ़ती करनेवाले पदार्थों को (घसत्) खावे, वह (प्रियम्) प्यारा (काचित्-करम्) सुख का सब ओर से एकत्र करनेवाला (हविः) हवि [म० १२। घृत, जल आदि पदार्थ] हैं, [क्योंकि] (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य आत्मबल को अपनी विभूति में संयुक्त करके संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पावे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(वृषाकपायि) म० १। वृषाकप्यग्नि० पा० ४।१।३७। वृषाकपि-ङीप्, ऐकारादेशश्च। वृषाकपायी वृषाकपेः पत्न्यपैवाभिसृष्टकालतमा निरु० १२।८। वृषाकपायी वृषाकपेः पत्नी, वृषाकपिरादित्यः, तस्य पत्नी, तद्विभूतिः इति दुर्गाचार्यः। वृषाकपायी श्रीगौर्यौ-इत्यमरः, २३।१६। लक्ष्मीः, गौरी, स्वाहा, शची, जीवन्ती, शतावरी-इति शब्दकल्पद्रुमः। हे वृषाकपेर्जीवात्मनो विभूते (रेवति) धनवति (सुपुत्रे) सुवीराः पुत्रा यस्याः सकाशात् सा सुपुत्रा तत्सम्बुद्धौ (आत्) अनन्तरम् (उ) एव (सुस्नुषे) स्नुव्रश्चि०। उ० ३।६६। ष्णु प्रस्रवणे-सः कित्, टाप्। स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसाधिनीति वा स्वपत्यं तत् सनोतीति वा-निरु० १२।९। बहुसुखस्य वर्षयित्रि (घसत्) घस्लृ अदने-लेट्। भक्षयेत् (ते) तव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् मनुष्यः (उक्षणः) उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वृद्धिकरान् पदार्थान् (प्रियम्) इष्टम् (काचित्करम्) क+आ+चिञ् चयने-क्विप्, तुक्+करोतेः-अच्। सुखाचयकरं सुखकरम्-निरु० १२।९। कं सुखं तस्याचित् संघः, तत्करम् (हविः) म० १२। घृतजलादिकम्। अन्यद् गतम् ॥
१४ उक्ष्णो हि
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उ॒क्ष्णो हि मे॒ पञ्च॑दश सा॒कं पच॑न्ति विंश॒तिम्।
उ॒ताहम॑द्मि॒ पीव॒ इदु॒भा कु॒क्षी पृ॑णन्ति मे॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒क्ष्णो हि मे॒ पञ्च॑दश सा॒कं पच॑न्ति विंश॒तिम्।
उ॒ताहम॑द्मि॒ पीव॒ इदु॒भा कु॒क्षी पृ॑णन्ति मे॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१४ उक्ष्णो हि ...{Loading}...
Griffith
Fifteen in number, then, for me a score of bullocks they prepare. And I devour the fat thereof: they fill my belly full with food. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
उ॒क्ष्णः। हि। पञ्च॑ऽदश। सा॒कम्। पच॑न्ति। विं॒श॒तिम्। उ॒त। अ॒हम्। अ॒द्मि॒। पीवः॑। उ॒भा। कु॒क्षी इति॑। पृ॒ण॒न्ति॒। मे॒। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्चदश, विंशतिम्) पन्द्रह, बीस [अर्थात् बहुत से] (उक्ष्णः) बढ़ती करनेवाले पदार्थों को (मे) मेरे लिये (हि) ही (साकम्) एक साथ (पचन्ति) वे [ईश्वरनियम] परिपक्व करते हैं, (उत) और (अहम्) मैं, (पीवः) उनके पुष्टिकारक रस को (इत्) ही (अद्मि) खाता हूँ, और (मे) मेरी (उभा) दोनों (कुक्षी) कोखों को (पृणन्ति) वे [पदार्थ] भरते हैं, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने संसार में अनेक उपकारी पदार्थ उत्पन्न किये हैं, मनुष्य उनका सार लेकर शरीर और आत्मा की पुष्टि करे ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(उक्ष्णः) म० १३। वृद्धिकरान् पदार्थान् (हि) एव (मे) मह्यम् (पञ्चदश, विंशतिम्) बहुसंख्याकान् (साकम्) सह (पचन्ति) परिपक्वान् कर्वन्ति ते परमेश्वरनियमाः (उत) अपि च (अहम्) मनुष्यः (अद्मि) भक्षयामि (पीवः) पीव स्थौल्ये-असुन्। पुष्टिकरं रसम् (इत्) एव (उभा) उभौ। द्वौ (कुक्षी) उदरस्य वामदक्षिणपार्श्वौ (पृणन्ति) पूरयन्ति ते पदार्थाः (मे) मम। अन्यद् गतम् ॥
१५ वृषभो न
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वृ॑ष॒भो न ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ऽन्तर्यू॒थेषु॒ रोरु॑वत्।
म॒न्थस्त॑ इन्द्र॒ शं हृ॒दे यं ते॑ सु॒नोति॑ भाव॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वृ॑ष॒भो न ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ऽन्तर्यू॒थेषु॒ रोरु॑वत्।
म॒न्थस्त॑ इन्द्र॒ शं हृ॒दे यं ते॑ सु॒नोति॑ भाव॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१५ वृषभो न ...{Loading}...
Griffith
Like as a bull with pointed horn, loud bellowing amid the herds, Sweet to thine heart, O Indra, is the brew which she who tends thee pours. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
वृ॒ष॒भः। न। ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः। अ॒न्तः। यू॒थेषु॑। रोरु॑षत्। म॒न्थः। ते॒। इ॒न्द्र॒। शम्। हृ॒दे। वम्। ते॒। सु॒नोति॑। भा॒व॒युः। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (यूथेषु अन्तः) यूथों के बीच (रोरुवत्) दहाड़ते हुए, (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्ण सींगोंवाले (वृषभः न) बैल के समान, (मन्थः) वह तत्त्व रस (ते) तेरे (हृदे) हृदय के लिये (शम्) शान्तिदायक हो, (यम्) जिस [तत्त्व रस] को (ते) तेरे लिये (भावयुः) सत्ता चाहनेवाला [परमात्मा] (सुनोति) मथता है, [क्योंकि] (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे बलवान् साँड़ अपने झुण्डों को वश में करके सुख को प्राप्त होता है, वैसे ही प्रतापी मनुष्य परमात्मा के उत्पन्न किये पदार्थों से तत्त्व रस ग्रहण करके सुखी होवें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(वृषभः) पुङ्गवः (न) इव (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्णविषाणः (अन्तः) मध्ये (यूथेषु) सजातीयसमूहेषु (रोरुवत्) रु शब्दे-यङ्लुकि शतृ। भृशं ध्वनिं कुर्वन् (मन्थः) तत्त्वरसः (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (शम्) सुखदः (हृदे) हृदयाय (यम्) मन्थम् (ते) तुभ्यम् (सुनोति) निष्पादयति (भावयुः) भावं सत्तामिच्छुकः। अन्यद् गतम् ॥
१६ न सेशे
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न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॑त्।
सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॑त्।
सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१६ न सेशे ...{Loading}...
Griffith
Indrani speaks. Non ille fortis (ad Venerem) est cujus mentula laxe inter femora dependet; fortis vero estille cujus, quum sederit, membrum pilosum se extendit. Super omnia est Indra.
पदपाठः
न। सः। ई॒शे॒। यस्य॑। रम्ब॑ते। अ॒न्त॒रा। स॒क्थ्या॑। कपृ॑त्। सः। इत्। ई॒शे॒। यस्य॑। रो॒म॒शम्। नि॒ऽसेदुषः॑। वि॒ऽजृम्भ॑ते। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [विचारते हुए] पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक [ज्ञानसामर्थ्य] (विजृम्भते) फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि आलस्य से मस्तक झुकाकर अपने ज्ञान को संकुचित न करे, किन्तु शिर को सब ओर घुमाकर भली-भाँति विचारकर ज्ञान बढ़ाता हुआ अपना इन्द्रत्व दिखावे ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(न) निषेधे (सः) पुरुषः (ईशे) ईष्टे। ऐश्वर्यवान् भवति (यस्य) (रम्बते) लस्य रः। लम्बते। अधस्तादाश्रियते (अन्तरा) मध्ये (सक्थ्या) सक्थिनी। जङ्घे (कपृत्) क+पृ पालने-क्विप्, तुक्। कस्य शिरसः पालकः। कपालः (सः) (इत्) एव (ईशे) ईष्टे (यस्य) (रोमशम्) मत्वर्थे शप्रत्ययः। रोमयुक्तं मस्तकम् (निषेदुषः) उपविष्टस्य (विजृम्भते) विवृतं भवति। विस्तीर्यते। अन्यद् गतम् ॥
१७ न सेशे
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न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते।
सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒३॒॑ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते।
सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒३॒॑ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१७ न सेशे ...{Loading}...
Griffith
Indra speaks. Non fortis est ille cujus, quum sederit, membrum pilosum se extendit: fortis vero est ille cujus mentula laxe inter femora dependet. Super omnia est Indra.
पदपाठः
न। सः। ई॒शे॒। यस्य॑। रो॒म॒शम्। नि॒ऽसेदुषः॑। विऽजृम्भ॑ते। सः। इत्। ई॒शे॒। यस्य॑। रम्ब॑ते। अ॒न्त॒रा। स॒क्थ्यो॑। कपृ॑त्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [आलसी] का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक (विजृम्भते) जँभाई लेता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जङ्घाओं के बीच [ध्यान में] (रम्बते) नीचे लटकता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (श्विस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आलस्य से शिर झुकाकर ओंघने लगते हैं, उनको विद्या, सुवर्ण और राज्य आदि ऐश्वर्य नहीं मिलता, ऐश्वर्य उनको मिलता है, जो शिर को झुकाकर अपना आपा सोचते हुए इन्द्र बनते हैं ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(विजृम्भते) आलस्येन जृम्भां मुखविकाशं करोति। अन्यत् पूर्ववत् ॥
१८ अयमिन्द्र वृषाकपिः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पिः॒ पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत्।
अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादे॑ध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पिः॒ पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत्।
अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादे॑ध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१८ अयमिन्द्र वृषाकपिः ...{Loading}...
Griffith
O Indra, this Vrishakapi hath found a slain wild animal, Dresser, and new-made pan, and knife, and wagon with a load of wood. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
अ॒यम्। इ॒न्द्र॒। वृषाक॑पिः। पर॑स्व॒न्तम्। ह॒तम्। वि॒दत्। अ॒सिम्। सू॒नाम्। नव॑म्। च॒रुम्। आत्। एध॑स्य। अनः॑। आऽचि॑तम्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (अयम्) इस (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (परस्वन्तम्) पालनेवाले व्यवहार को (हतम्) नाश किया हुआ (विदत्) पाया है, (आत्) तभी (नवम्) नवीन (चरुम्) स्थान [अर्थात् देश निकाला] [अथवा] (असिम्) तलवार, (सूनाम्) बध स्थान, और (एधस्य) इन्धन का (आचितम्) भरा हुआ (अनः) छकड़ा [पाया है], (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो पापी आत्मा उपकारी व्यवस्था को तोड़े, उसको दण्ड रीति से ऐसा कष्ट भोगना चाहिये, जैसे कोई अपराधी देश से निकाला जावे, अथवा तलवार आदि शस्त्र से मारकर लकड़ी से भस्म किया जावे ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(अयम्) प्रसिद्धः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (वृषाकपिः) म० १। बलवान् चेष्टयिता जीवात्मा (परस्वन्तम्) पॄ पालनपूरणयोः-असुन्। पालनवन्तं व्यवहारम् (हतम्) हिंसितम् (विदत्) अविदत्। प्राप्तवान् (असिम्) खड्गम् (सूनाम्) षू क्षेपे-क्त, टाप्। प्राणिवधस्थानम् (नवम्) नवीनम् (चरुम्) चरस्थानम्। विवासनम् (आत्) अनन्तरम् (एधस्य) इन्धनस्य (अनः) शकटम् (आचितम्) पूर्णम्। अन्यद् गतम् ॥
१९ अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म्।
पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म्।
पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
१९ अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् ...{Loading}...
Griffith
Distinguishing the Dasa and the Arya, viewing all, I go. I look upon the wise, and drink the simple votary’s Soma juice. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
अ॒यम्। ए॒मि॒। वि॒ऽचाक॑शत्। वि॒ऽचि॒न्वन्। दास॑म्। आर्य॑म्। पिबा॑मि। पा॒क॒सुत्व॑नः। अ॒भि। धीर॑म्। अ॒चा॒क॒श॒म्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विचाकशत्) विविध प्रकार सुशोभित हुआ, और (दासम्) डाकू और (आर्यम्) आर्य [श्रेष्ठ पुरुष] को (विचिन्वन्) पहिचानता हुआ (अयम्) यह मैं [इन्द्र] (एमि) चलता हूँ, (पाकसुत्वनः) पक्के विद्वान् के तत्त्व रस का (पिबामि) पान करता हूँ और (धीरम्) धीर [बुद्धिमान्] को (अभि) सब प्रकार (अचाकशम्) सुशोभित करता हूँ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित होकर, दुष्टों और शिष्टों की विवेचना करके शिष्टों का मान और दुष्टों का अपमान करता हुआ इन्द्रत्व दिखावे ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(अयम्) इन्द्रः (एमि) गच्छामि (विचाकशत्) अ० १३।३।१। काशृ दीप्तौ चङ्लुकि शतृ। विविधं भृशं शोभमानः (विचिन्वन्) चिञ् चयने-शतृ। परिचिन्वन्। विशेषेण जानन् (दासम्) उपक्षेपयितारम्। दस्युम् (आर्यम्) श्रेष्ठं पुरुषम् (पिबामि) पानं करोमि (पाकसुत्वनः) षुञ् अभिषवे-क्वनिप्। पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। विपक्वप्रज्ञस्य तत्त्वरसस्य (अभि) सर्वतः (धीरम्) बुद्धिमन्तम् (अचाकशम्) काशृ दीप्तौ यङ्लुकि लङ्। शोभयामि। अन्यद् गतम् ॥
२० धन्व च
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धन्व॑ च॒ यत्कृ॒न्तत्रं॑ च॒ कति॑ स्वि॒त्ता वि योज॑ना।
नेदी॑यसो वृषाक॒पेऽस्त॒मेहि॑ गृ॒हाँ उप॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
धन्व॑ च॒ यत्कृ॒न्तत्रं॑ च॒ कति॑ स्वि॒त्ता वि योज॑ना।
नेदी॑यसो वृषाक॒पेऽस्त॒मेहि॑ गृ॒हाँ उप॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
२० धन्व च ...{Loading}...
Griffith
The desert plains and steep descents, how many leagues in length they spread! Go to the nearest houses, go unto thine home, Vrishakapi. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
धन्व॑। च॒। यत्। कृ॒न्तत्र॑म्। च॒। कति॑। स्वि॒त्। ता। वि। योज॑ना। नेदी॑यसः। वृ॒षा॒क॒पे॒। अस्त॑म्। आ। इ॒हि॒। गृ॒हान्। उप॑। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (कृन्तत्रम्) काटने योग्य वन (च च) और (धन्व) निर्जल देश हैं, (ता) वे (कति स्वित्) कितने ही (योजना) योजन (वि) दूर-दूर हैं। (वृषाकपे) हे वृषाकपि ! [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] तू (नेदीयसः) अधिक समीपवाले (गृहान्) घरों को और (अस्तम्) अपने घर को (उप) आदर से (आ इहि) आ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि कठिनाई पड़ने पर आत्मघाती अर्थात् हताश न होवे, किन्तु धैर्य बाँधकर ठिकाने पर आ जावे ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(धन्व) धन्वानि। निर्जलदेशान् (च) (यत्) (कृन्तत्रम्) कृतेर्नुम् च। उ० ३।१०९। कृती छेदने-कत्रन् नुम् च। छेदनीयं वनम् (च) (कति) किंपरिमाणानि (स्वित्) प्रश्ने (ता) तानि धन्वानि (वि) विकृष्टानि (योजना) चतुःक्रोशस्थस्थानानि (नेदीयसः) अतिशयेन समीपस्थान् (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (अस्तम्) स्वगृहम् (आ इहि) आगच्छ (गृहान्) (उप) आदरे। अन्यद् गतम् ॥
२१ पुनरेहि वृषाकपे
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पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै।
य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै।
य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
२१ पुनरेहि वृषाकपे ...{Loading}...
Griffith
Turn thee again Vrishakapi; we twain will bring thee happiness. Thou goest homeward on thy way along this path which leads to sleep. Supreme is Indra over all.
पदपाठः
पुनः॑। आ। इ॒हि॒। वृ॒षा॒क॒पे॒। सु॒वि॒ता। क॒ल्प॒या॒व॒है॒। यः। ए॒षः। स्व॒प्न॒ऽनंश॑नः। अस्त॑म्। एषि॑। प॒था। पुनः॑। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाकपे) हे वृषाकपि ! [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] तू (पुनः) फिर (आ इहि) आ, (सुविता) ऐश्वर्य कर्मों को (कल्पयावहै) हम दोनों [तू और मैं] विचार कर करें, (यः) जो (एषः) यह तू (स्वप्ननंशनः) स्वप्न नाश करनेवाला [आलस्य छुड़ानेवाला] है, सो तू (पथा) मार्ग से [सन्मार्ग से] (पुनः) फिर (अस्तम्) घर (एषि) पहुँचता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने गिरे हुए आत्मा को सावधानी से ठिकाने पर लाकर ऐश्वर्य बढ़ाता रहे ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(पुनः) (आ इहि) आगच्छ (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (सुविता) प्र० २९।१। ऐश्वर्यकर्माणि (कल्पयावहै) त्वमहं चावामुच्चौ पर्यालोचनं कुर्याव (वः) (एष) स त्वम् (स्वप्ननंशनः) णश अदर्शने नाशे च-ल्युट्। मस्जिनशोर्झलि। पा० ७।१।६०। इति नुम्। स्वप्नस्यालस्यस्य नाशयिता (अन्तम्) गृहम् (एषि) गच्छसि (पथा) सन्मार्गेण (पुनः)। अन्यद् गतम् ॥
२२ यदुदञ्चो वृषाकपे
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यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन।
क्व१॒॑ स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गं जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन।
क्व१॒॑ स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गं जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
२२ यदुदञ्चो वृषाकपे ...{Loading}...
Griffith
When, Indra and Vrishakapi, ye travelled upward to your home, Where was that noisome beast, to whom went it, the beast that troubles man? Supreme is Indra over all.
पदपाठः
यत्। उद॑ञ्चः। वृ॒षा॒क॒पे॒। गृ॒हम्। इ॒न्द्र॒। अज॑गन्तन। क्व। स्यः। पु॒ल्व॒घः। मृ॒गः। कम्। अ॒ग॒न्। ऊ॒न॒ऽयोप॑नः। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृषाकपे) हे वृषाकपि ! [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] [और हे इन्द्राणी ! मनुष्य की विभूति] (यत्) जब (उदञ्चः) ऊँचे चढ़ते हुए तुम सब (गृहम्) घर (अजगन्तन) पहुँच गये, (स्यः) वह (पुल्वघः) महापापी, (जनयोपनः) मनुष्य को घबरा देनेवाला, (मृगः) पशु [पशु समान गिरा हुआ जीवात्मा] (क्व) कहाँ (कम्) किस मनुष्य को (अगन्) पहुँचा, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य अपने आत्मा और बुद्धि आदि विभूति को ठिकाने ले आता है, वह कभी भी दुष्ट कर्म करके संकट में नहीं पड़ता है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२−(यत्) यदा (उदञ्चः) उद्गामिनः सन्तः। (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (गृहम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य ! हे इन्द्राणि च यूयं सर्वे (अजगन्तन) गमेर्लङि मध्यमबहुवचने छान्दसः। शपः श्लुः। तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४। तनबादेशः। यूयम् अगच्छत (क्व) कुत्र (स्यः) सः (पुल्वघः) पुरु+अघ पापकरणे-अच् रस्य लः। बहुपापः (मृगः) म० ३। पशुतुल्यो नीचगामी जीवात्मा (कम्) प्रश्ने। मनुष्यम् (अगन्) अगच्छत् (जनयोपनः) जनमोहनः। अन्यद् गतम् ॥
२३ पर्शुर्ह नाम
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पर्शु॑र्ह॒ नाम॑ मान॒वी सा॒कं स॑सूव विंश॒तिम्।
भ॒द्रं भ॑ल॒ त्यस्या॑ अभू॒द्यस्या॑ उ॒दर॒माम॑य॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पर्शु॑र्ह॒ नाम॑ मान॒वी सा॒कं स॑सूव विंश॒तिम्।
भ॒द्रं भ॑ल॒ त्यस्या॑ अभू॒द्यस्या॑ उ॒दर॒माम॑य॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
२३ पर्शुर्ह नाम ...{Loading}...
Griffith
Daughter of Manu, Parsu bare a score of children at a birth. Her portion verily was bliss although her burthen caused her grief.
पदपाठः
पशुः॑। ह॒। नाम॑। मा॒न॒वी। सा॒कम्। स॒सू॒व॒। विं॒श॒तिम्। भ॒द्रम्। भ॒ल॒। त्यस्यै॑। अ॒भू॒त्। यस्याः॑। उ॒दर॑म्। आम॑यत्। विश्व॑स्मात्। इन्द्रः॑। उत्ऽत॑र। १२६.२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- वृषाकपिरिन्द्राणी च
- पङ्क्तिः
- सूक्त-१२६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पर्शुः) शत्रुओं का नाश करनेवाली (मानवी) मनुष्य की विभूति ने (ह) निश्चय करके (नाम) प्रसिद्ध (विशतिम्) बीस [पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मन्द्रियों और इनके दस विषयों] को (साकम्) एक साथ (ससूव) उत्पन्न किया है। (भल) हे विचारवान् ! [आत्मा] (त्यस्यै) उस [माता] के लिये (भद्रम्) कल्याण (अभूत्) हुआ है, (यस्याः) जिस [माता] के (उदरम्) पेट को (आमयत्) उस [गर्भ] ने पीड़ा दी थी, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - दस इन्द्रियाँ और उनके दस विषय, मनुष्य की उत्तम विभूति अर्थात् शक्ति से उत्तम होते हैं, इस लिये मनुष्य तपश्चरण से उत्तम विद्या प्राप्त करके सुख पावें, जैसे माता गर्भ का कष्ट सहकर उत्तम सन्तान उत्पन्न करके सुख पाती है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २३−(पर्शुः) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। पर+शॄ हिंसायाम्-कु डित्, पृषोदरादित्वादकारलोपः। पराणां शत्रूणां नाशयित्री (ह) अवधारणे (नाम) प्रसिद्धौ (मानवी) अ० ३।२४।३। मनु-अण्, ङीष्। मनोर्मनुष्यस्येयं विभूतिः (साकम्) सह (ससूव) ससूवेति निगमे। पा० ७।४।७४। इति सूतेर्लिटि रूपम्। सुषुवे। जनयामास (विंशतिम्) दशेन्द्रियाणि दश तेषां विषयान् च (भद्रम्) कल्याणम् (भल) भल वधे दाने निरूपणे च-अच्। हे निरूपकात्मन् (त्यस्यै) तस्यै। जनन्यै (अभूत्) (यस्याः) जनन्याः (उदरम्) गर्भाशयम् (आमयत्) अम पीडने। पीडितवान् स गर्भः। अन्यत् पूर्ववत् ॥