१२५

१२५ ...{Loading}...

०१ अपेन्द्र प्राचो

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अपे॑न्द्र॒ प्राचो॑ मघवन्न॒मित्रा॒नपापा॑चो अभिभूते नुदस्व।
अपोदी॑चो॒ अप॑ शूराध॒राच॑ उ॒रौ यथा॒ तव॒ शर्म॒न्मदे॑म ॥

०१ अपेन्द्र प्राचो ...{Loading}...

Griffith

Drive all our enemies away, O Indra, the western, mighty Con- queror, and the eastern, Hero, drive off our northern foes and southern, that we in thy wide shelter may be joyful.

पदपाठः

अप॑। इ॒न्द्र॒। प्राचः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒मित्रा॑न‌्। अप॑। अपा॑चः। अ॒भि॒ऽभू॒ते॒। नु॒द॒स्व॒। अप॑। उदी॑चः। अप॑। शू॒र॒। अ॒ध॒राचः॑। उ॒रौ। यथा॑। तव॑। शर्म॑न्। मदे॑म। १२५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे महाधनी ! (अभिभूते) हे विजयी ! (शूर) हे शूर ! (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (प्राचः) पूर्ववाले (अमित्रान्) वैरियों को (अपः) दूर, (अपाचः) पश्चिमवाले [वैरियों] को (अप) दूर, (उदीचः) उत्तरवाले [वैरियों] को (अप) दूर, और (अधराचः) दक्षिणवाले [वैरियों] को (अप) दूर (नुदस्व) हटा, (यथा) जिससे (तव) तेरी (उरौ) चौड़ी (शर्मन्) शरण में (मदेम) हम आनन्द करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रतापी राजा सब दिशाओं के शत्रुओं का नाश करके प्रजा को सुख देवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।१३१।१-७ ॥ १−(अप) दूरे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (प्राचः) प्र+अञ्चतेः-क्विन्, शस्। प्राग्देशे वर्तमानान् (मघवन्) महाधनिन् (अमित्रान्) पीडकान् वैरिणः (अप) (अपाचः) पश्चिमदेशे वर्तमानान् (अभिभूते) अभिभवितः (नुदस्व) प्रेरय। दूरे गमय (अप) (उदीचः) उत्तरदेशे वर्तमानान् (अप) (शूर) (अधराचः) दक्षिणदिशि वर्तमानान् (उरौ) विस्तीर्णै (यथा) येन प्रकारेण (तव) (शर्मन्) शर्मणि। शरणे (मदेम) हृष्येम ॥

०२ कुविदङ्ग यवमन्तो

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कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑।
इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः ॥

०२ कुविदङ्ग यवमन्तो ...{Loading}...

Griffith

What then? As men whose fields are full of barley reap the ripe corn removing it in order, So bring the food of those men, bring it hither, who come not to prepare the grass for worship.

पदपाठः

कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒ऽपू॒र्वम्। वि॒ऽयूथ॑। इ॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नमः॑ऽवृक्तिम्। न। ज॒ग्मुः। १२५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग) हे [राजन् !] (यवमन्तः) जौ आदि धान्यवाले [किसान लोग] (यथा चित्) जैसे ही (यवम्) जौ आदि धान्य को (अनुपूर्वम्) क्रम से (वियूय) अलग-अलग करके (कुवित्) बहुत प्रकार (दान्ति) काटते हैं। (इहेह) इस-इस [व्यवहार] में (एषाम्) उन [लोगों] के (भोजनानि) भोजनों और धनों को (कृणुहि) कर, (ये) जिन (बर्हिषः) बढ़ती करते हुए लोगों ने (नमोवृक्तिम्) सत्कार के त्याग को (न) नहीं (जग्मुः) पाया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे चतुर किसान जौ गेहूँ आदि धान्य को काटकर उनकी जाति और पकने के अनुसार एकत्र करते हैं, वैसे ही राजा आज्ञाकारी कर्मकुशल प्रजागणों को उनकी योग्यता के अनुसार भोजन और धन आदि दान करे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भी है-१०।३२ १९।६ तथा २३।३८ ॥ २−(कुवित्) बहुलम् (अङ्ग) हे (यवमन्तः) यवादिधान्ययुक्ताः कर्षकाः (यवम्) यवादिकम् (चित्) एव (यथा) (दान्ति) लुनन्ति (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम्। धान्यानां जातिपाकक्रमेण (वियूय) पृथक्कृत्य (इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (एषाम्) पुरुषाणाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) भोगसाधनानि खाद्यानि धनानि च (ये) पुरुषाः (बर्हिषः) वृद्धिकराः (नमोवृक्तिम्) वृजी वर्जने-क्त। नमस्कारस्य सत्कारस्य वर्जनं त्यागकरणम् (न) निषेधे (जग्मुः) प्रापुः ॥

०३ नहि स्थूर्यृतुथा

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न॒हि स्थूर्यृ॑तु॒था या॒तम॑स्ति॒ नोत श्रवो॑ विविदे संग॒मेषु॑।
ग॒व्यन्त॒ इन्द्रं॑ स॒ख्याय॒ विप्रा॑ अश्वा॒यन्तो॒ वृष॑णं वा॒जय॑न्तः ॥

०३ नहि स्थूर्यृतुथा ...{Loading}...

Griffith

Men come not with one horse at sacred seasons; thus they obtain no honour in assemblies. Sages desiring herds of kine and horses strengthen the mighty Indra for his friendship.

पदपाठः

न॒हि। स्थूरि॑। ऋ॒तु॒ऽथा। या॒तम्। अस्ति॑। न। उ॒त। श्रवः॑। वि॒वि॒दे॒। स॒म्ऽग॒मेषु॑। ग॒व्यन्तः॑। इन्द्र॑म्। स॒ख्याय॑। विप्राः॑। अ॒श्व॒ऽयन्तः॑। वृष॑णम्। वा॒जय॑न्तः। १२५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (स्थूरि) ठहरा हुआ [ढीला] काम (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार [ठीक समय पर] (यातम्) पाया हुआ (नहि) नहीं (अस्ति) होता है, (उत) और [इसी कारण] (संगमेषु) समाजों [वा संग्रामों] में (श्रवः) यश (न) नहीं (विविदे) मिलता है, (सख्याय) मित्रता के लिये (वृषणम्) बलवान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (वाजयन्तः) वेगवान् बनाते हुए (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (गव्यन्तः) भूमि चाहते हुए और (अश्वायन्तः) घोड़े चाहते हुए हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कार्य आरम्भ करके आलस के मारे छोड़ देता है, वह यश नहीं पाता है, इसलिये वह विद्वानों से शिक्षा पाकर राज्य आदि कामों को पुरुषार्थ से चलावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(नहि) न कदापि (स्थूरि) स्थः किच्च। उ० ।४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-ऊरन्। गतिशून्यं प्रवृत्तिरहितं कर्म (ऋतुथा) ऋतौ। निश्चितसमये (यातम्) प्राप्तं समाप्तम् (अस्ति) (न) निषेधे (उत) अपि (श्रवः) यशः (विविदे) लडर्थे लिट्। लभ्यते प्राप्यते (संगमेषु) समाजेषु। संग्रामेषु (गव्यन्तः) भूमिमिच्छन्तः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (सख्याय) सखिकर्मणे (विप्राः) मेधाविनः (अश्वायन्तः) तुरगानिच्छन्तः (वृषणम्) बलवन्तम् (वाजयन्तः) वेगवन्तं कुर्वन्तः ॥

०४ युवं सुराममश्विना

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यु॒वं सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑।
वि॑पिपा॒ना शु॑भस्पती॒ इन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥

०४ युवं सुराममश्विना ...{Loading}...

Griffith

Ye, Asvins, Lords of Splendour, drank full draughts of grateful Soma juice, And aided Indra in his work with Namuchi of Asura birth.

पदपाठः

यु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒ऽपि॒पा॒ना। शु॒भः॒। प॒ती॒ इति॑। इन्द्र॑म्। कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒म्। १२५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनीकुमारौ
  • सुर्कीतिः
  • अनुष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभः पती) हे शुभ व्यवहार के पालन करने हारे (अश्विना) कर्मों में व्यापक [सभापति और सेनापति] (सचा) मिले हुए (विपिपाना) विविध प्रकार रक्षक (युवम्) तुम दोनों ने (नमुचौ) न छोड़ने योग्य [सदा रखने योग्य] (आसुरे) बुद्धिमान् पुरुष के व्यवहार में (कर्मसु) कर्मों के बीच वर्तमान, (सुरामम्) भले प्रकार आनन्द देनेवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले धनी पुरुष] की (आवतम्) रक्षा की है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजा और सेना के अधिकारी मिलकर व्यवहारकुशल धनी पुरुषों की रक्षा करके खेती आदि व्यापारों से प्रजा को सुख पहुँचावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४ यजुर्वेद में भी हैं-१०।३™३।३४ तथा २०।७६, ७७ ॥ ४−(युवम्) युवाम् (सुरामम्) सुष्ठु रमयितारं आनन्दयितारम् (अश्विना) कर्मसु व्यापकौ सभासेनेशौ (नमुचौ) अ० २०।२१।७। अमोचनीये। सदा रक्षणीये (आसुरे) असुर-अण्। असुः प्रज्ञा-निघ० ३।९, रो मत्वर्थे। असुरस्य मेधाविनः पुरुषस्य व्यवहारे (सचा) समवेतौ (विपिपाना) पा रक्षणे-कानच्। विविधं रक्षमाणौ (शुभः) कल्याणकरस्य व्यवहारस्य (पती) पालकौ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं धनिकम् (कर्मसु) (आवतम्) युवां रक्षितवन्तौ ॥

०५ पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः

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पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्दं॒सना॑भिः।
यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥

०५ पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः ...{Loading}...

Griffith

As parents aid a son, both Asvins, Indra, aided thee with their wondrous powers and wisdom When thou, with might, hadst drunk the draught that glad- dens, Sarasvati, O Maghavan refreshed thee.

पदपाठः

पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथ॑। काव्यैः॑। दं॒सना॑भिः। यत्। सु॒ऽराम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भि॒ष्ण॒क्। १२५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अश्विनीकुमारौ
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पितरौ) माता-पिता (पुत्रम् इव) जैसे पुत्र को [वैसे] (अश्विना) कामों में व्यापक [सभापति और सेनापति] (उभा) तुम दोनों ने (काव्यैः) बुद्धिमानों के लिये व्यवहारों से और (दंसनाभिः) दर्शनीय क्रियाओं से [राज्य की] (आवथुः) रक्षा की है, और (मघवन्) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यत्) क्योंकि (सुरामम्) बड़े आनन्द देनेवाले [आनन्द रस] को (शचीभिः) अपनी बुद्धियों से (वि) विविध प्रकार (अपिबः) तूने पिया है, (सरस्वती) सरस्वती [विज्ञानयुक्त विद्या] ने (त्वा) तुझको (अभिष्णक्) सेवन किया है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब प्रजा और सेना के अधिकारी पूरी प्रीति से प्रजा की रक्षा करते हैं, और जब मुख्य सभापति राजा भी तत्त्व जाननेवाला होता है, उस राज्य में विद्या की वृद्धि होती है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: −(पुत्रम्) सन्तानम् (इव) यथा (पितरौ) जननीजनकौ (अश्विना) कर्मसु व्यापकौ सभासेनेशौ (उभा) द्वौ (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (आवथुः) राज्यं रक्षितवन्तौ युवाम् (काव्यैः) कविभिर्मेधाविभिर्निर्मितैर्व्यवहारैः (दंसनाभिः) अथ० २०।७४।२। दर्शनीयाभिः क्रियाभिः (यत्) यतः (सुरामम्) म० ४। शोभनानन्दयितारम् (वि) विविधम् (अपिबः) पीतवानसि (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (सरस्वती) विज्ञानयुक्ता विद्या (त्वा) (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्णक्) भिष्णज् उपसेवायां कण्ड्वादिः, लङ्, यको लुक् छान्दसः। उपसेवताम् ॥

०६ इन्द्रः सुत्रामा

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इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ अवो॑भिः सुमृडी॒को भ॑वतु वि॒श्ववे॑दाः।
बाध॑तां॒ द्वेषो॒ अभ॑यं नः कृणोतु सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम ॥

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Griffith

Indra is strong to save, rich in assistance: may he, possessing all, be kind and gracious. May he disperse our foes and give us safety, and may we be the lords of hero vigour.

पदपाठः

इन्द्रः॑। सु॒ऽत्रामा॑। स्वऽवा॑न्। अवः॑ऽभिः। सु॒ऽमृ॒डी॒कः। भ॒व॒तु॒। वि॒श्वऽवे॑दाः। बाध॑ताम्। द्वेषः॑। अभ॑यम्। नः॒। कृ॒णो॒तु॒। सु॒ऽवीर्य॑स्य। पत॑यः। स्या॒म॒। १२५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुत्रामा) बड़ा रक्षक, (स्ववान्) बहुत से ज्ञाति पुरुषोंवाला, (विश्ववेदाः) बहुत धन वा ज्ञानवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (अवोभिः) अनेक रक्षाओं से (सुमृडीकः) अत्यन्त सुख देनेवाला (भवतु) होवे। वह (द्वेषः) वैरियों को (बाधताम्) हटावे, (नः) हमारे लिये (अभयम्) निर्भयता (कृणोतु) करे और हम (सुवीर्यस्य) बड़े पराक्रम के (पतयः) पालन करनेवाले (स्याम) होवें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा दुष्ट स्वभावों और दुष्ट लोगों को नाश करके प्रजा की रक्षा करे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ६, ७ आचुके हैं-अथ० ७ सू० ९१, ९२ ॥ ६, ७−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथ० ७ सू० ९१, ९२ ॥

०७ स सुत्रामा

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स सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ इन्द्रो॑ अ॒स्मदा॒राच्चि॒द्द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योतु।
तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥

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Griffith

May we enjoy his favour, his the holy: may we enjoy his blessed loving-kindness. May this rich Indra, as our good protector, drive off and keep afar all those who hate us.

पदपाठः

सः। सु॒ऽत्रामा॑। स्वऽवा॑न्। इन्द्रः॑। अ॒स्मत्। आ॒रात्। चि॒त्। द्वेषः॑। स॒नु॒तः। यु॒यो॒तु॒। तस्य॑। व॒यम्। सु॒ऽम॒तौ। य॒ज्ञिय॑स्य। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒। १२५.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • सुर्कीतिः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (सुत्रामा) बड़ा रक्षक, (स्ववान्) बड़ा धनी, (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] (अस्मत्) हमसे (आरात् चित्) बहुत ही दूर (द्वेषः) शत्रुओं को (सनुतः) निर्णयपूर्वक (युयोतु) हटावे। (वयम्) हम लोग (तस्य) उस (यज्ञियस्य) पूजा योग्य [राजा] की (अपि) ही (सुमतौ) सुमति में और (भद्रे) कल्याण करनेवाली (सौमनसे) प्रसन्नता में (स्याम) रहें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब मनुष्य प्रजारक्षक, शत्रुनाशक राजा की आज्ञा में रहकर सदा प्रसन्न रहें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६, ७−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथ० ७ सू० ९१, ९२ ॥