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०१ तत्सूर्यस्य देवत्वम्

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तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार।
य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥

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Griffith

This is the Godhead, this the might of Surya: he hath with- drawn what spread o’er work unfinished. When he hath loosed his horses from their station, straight over all night spreadeth out her garment.

पदपाठः

तत्। सूर्य॑स्य। दे॒व॒ऽत्वम्। तत्। म॒हि॒ऽत्वम्। म॒ध्या। कर्तोः॑। विऽत॑तम्। सम्। ज॒भा॒र॒। य॒दा। इत्। अयु॑क्त। ह॒रितः॑। स॒धऽस्था॑त्। आत्। रात्री॑। वासः॑। त॒नु॒ते॒। सि॒मस्मै॑। १२३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सूर्यः
  • कुत्सः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य के काम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) उस [ब्रह्म] ने (सूर्यस्य) सूर्य के (मध्यः) बीच में (तत्) उस (विततम्) फैले हुए (देवत्वम्) प्रकाशपन को, (महित्वम्) बड़प्पन को और (कर्तोः) [आकर्षण आदि] कर्म को (सम् जभार) बटोरकर रख दिया है−कि (यदा इत्) जब ही वह [सूर्य] (हरितः) रस पहुँचानेवाली किरणों को (सधस्थात्) एक से स्थान से (अयुक्त) जोड़ता है, [आगे बढ़ाता है], (आत्) तभी (रात्री) रात्री (सिमस्मै) सबके लिये (वासः) वस्त्र [अन्धकार] (तनुते) फैलाती है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने बहुत बड़े तेजस्वी, आकर्षक सूर्यलोक को बनाया है, और जो उस सूर्य और पृथिवी की गति से प्रकाश और रात्रि करके प्राणियों को कार्यकुशलता और विश्राम देता है, सब मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-१।११।४, ॥ १−(तत्) प्रसिद्धं ब्रह्म (सूर्यस्य) रविमण्डलस्य (देवत्वम्) प्रकाशत्वम् (तत्) प्रसिद्धम् (महित्वम्) महत्त्वम् (मध्या) विभक्तेराकारः। मध्ये (कर्तोः) करोतेः-तोसुन्प्रत्ययः। कर्म (विततम्) विस्तृतम् (सम्) संचित्य (जभार) जहार। गृहीतवान् (यदा) (इत्) एव (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) रसप्रापकान् रश्मीन् (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वस्त्रम्। अन्धकारम् (तनुते) विस्तारयति (सिमस्मै) सर्वस्मै संसाराय ॥

०२ तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे

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तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑।
अ॑न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ प्राजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥

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Griffith

In the sky’s lap the Sun this form assumeth for Mitra and for Varuna to look on. His bay steeds well maintain his power eternal, at one time bright and darksome at another.

पदपाठः

तत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒भि॒ऽचक्षे॑। सूर्यः॑। रू॒पम्। कृ॒णु॒ते॒। द्यौः। उ॒पऽस्थे॑। अ॒न॒न्तम्। अ॒न्यत्। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। कृ॒ष्णम्। अ॒न्यत्। ह॒रितः॑। सम्। भ॒र॒न्ति॒। १२३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सूर्यः
  • कुत्सः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१२३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य के काम का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) उस (अनन्तम्) अनन्त [ब्रह्म] के द्वारा (द्योः) प्रकाश के (उपस्थे) गोद में (मित्रस्य) प्राण वायु और (वरुणस्य) उदान वायु के (अभिचक्षे) सब ओर देखने के लिये (सूर्यः) प्रेरणा करनेवाला सूर्यलोक (रूपम्) रूप को (कृणुते) बनाता है, (अस्य) इस [सूर्य] के (अन्यत्) एक (रुशत्) प्रकाश और (अन्यत्) दूसरे (कृष्णम्) आकर्षण (पाजः) बल को (हरितः) दिशाएँ (सम्) मिलकर (भरन्ति) धारण करती हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर के नियम से सूर्यलोक अपने प्रकाश से वायु में नीचे ऊपर जाने का बल उत्पन्न करके पृथिवी आदि लोकों को सब दिशाओं में आकर्षण में रखता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(तत्) तेन (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) चक्षिङ् दर्शने-क्विप्। संमुखदर्शनाय (सूर्यः) प्रेरकः सविता (रूपम्) चक्षुर्ग्राह्यं गुणम् (कृणुते) करोति (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) उपस्थाने मध्ये (अनन्तम्) अन्तरहितेन ब्रह्मणा (अन्यत्) एकम् (रुशत्) रुश हिंसायाम्-शतृ-रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः-निरु० २।२०। ज्वलितवर्णम् दीप्यमानम् (अस्य) सूर्यस्य (पाजः) बलम् (कृष्णम्) आकर्षणम् (अन्यत्) द्वितीयम् (हरितः) दिशः (सम्) एकीभूय (भरन्ति) धरन्ति ॥