१२२ ...{Loading}...
०१ रेवतीर्नः सधमाद
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः।
क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः।
क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ॥
०१ रेवतीर्नः सधमाद ...{Loading}...
Griffith
With Indra splendid feasts be ours enriched with ample spoil, wherewith, Wealthy in food, we may rejoice.
पदपाठः
रे॒वतीः॑। नः॒। स॒ध॒ऽमादे॑। इन्द्रे॑। स॒न्तु॒। तु॒विऽवा॑जाः। क्षु॒ऽमन्तः॑। याभिः॑। मदे॑म। १२२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्र
- शुनःशेपः
- गायत्री
- सूक्त-१२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रे) इन्द्रे [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] में (नः) हमारे (सधमादे) हर्षयुक्त उत्सव के बीच (रेवतीः) बहुत धनवाली और (तुविवाजाः) बहुत बलवाली [प्रजाएँ] (सन्तु) होवें। (याभिः) जिन [प्रजाओं] के साथ (क्षुमन्तः) बहुत अन्नवाले होकर (मदेम) हम आनन्द पावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सभापति प्रयत्न करे कि सब प्रजागण उद्योगी, धनी होकर सुखी होवें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-१।३०।१३-१ सामवेद उ० ४।१। तृच १४ म० १ सा० पू० २।६।८ ॥ १−(रेवतीः) धनवत्यः प्रजाः (नः) अस्माकम् (सधमादे) आनन्देन सह वर्तमाने महोत्सवे (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति सभाध्यक्षे (सन्तु) (तुविवाजाः) बहुबलयुक्ताः (क्षुमन्तः) बहुविधान्नयुक्ताः (याभिः) प्रजाभिः (मदेम) हृष्येम ॥
०२ आ घ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्त स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः।
ऋ॒णोरक्षं॒ न च॑क्र्योः᳡ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्त स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः।
ऋ॒णोरक्षं॒ न च॑क्र्योः᳡ ॥
०२ आ घ ...{Loading}...
Griffith
Like thee, thyself, the singers’ friend, thou movest as it were, besought, Bold One, the axle of the car.
पदपाठः
आ। घ॒। त्वाऽवा॑न्। त्मना॑। आ॒प्तः। स्तो॒तृऽभ्यः॑। धृ॒ष्णो॒ इति॑। इ॒या॒नः। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। च॒क्र्योः॑। १२२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनःशेपः
- गायत्री
- सूक्त-१२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (धृष्णो) हे निर्भय ! [सभापति] (त्मना) अपने आप (त्वावान्) अपने सदृश (आप्तः) आप्त [सच्चा उपदेशक] (इयानः) ज्ञानवान् तू (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये (घ) अवश्य (आ) सब प्रकार से (ऋणोः) प्राप्त हो, (न) जैसे (चक्र्योः) दोनों पहियों में (अक्षम्) धुरा [होता है] ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे धुरा पहियों के बीच में रहकर सब बोझ उठाकर रथ को चलाता है, वैसे ही सभापति राज्य का सब भार अपने ऊपर रखकर प्रजा को उद्योगी बनावें और प्रजा भी उसकी सेवा करती रहे ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(आ) अभितः (घ) एव (त्वावान्) त्वत्सदृशः (त्मना) आत्मना (आप्तः) यथार्थज्ञाता। सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यः (धृष्णो) हे निर्भय (इयानः) इङ् गतौ-कानच्। अभिज्ञाता (ऋणोः) ऋण गतौ, लोडर्थे लङ्। प्राप्नुहि (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्र्योः) आदृगमहनजनः। पा० ३।२।१७१। करोतेः-कि प्रत्ययः। रथस्य चक्र्योः ॥
०३ आ यद्दुवः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्।
ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्।
ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
०३ आ यद्दुवः ...{Loading}...
Griffith
That, Satakratu, thou to grace and please thy praisers, as it were, Stirrest the axle with thy strength.
पदपाठः
आ। यत्। दुवः॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। आ। काम॑म्। ज॒रि॒तॄ॒णाम्। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। शची॑भिः। १२२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- शुनःशेपः
- गायत्री
- सूक्त-१२२
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) क्योंकि, (शतक्रतो) हे सैकड़ों बुद्धियों वा कर्मोंवाले ! [सभापति] (जरितॄणाम्) स्तुति करनेवालों की (दुवः) सेवा को (कामम्) अपनी इच्छा के अनुसार (आ) सब ओर से (आ) पूरी रीति पर (ऋणोः) तू पाता है, (न) जैसे (अक्षम्) धुरा (शचीभिः) अपने कर्मों से [रथ को प्राप्त होता है] ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे धुरा पहियों के बीच में रहकर सब बोझ उठाकर रथ को चलाता है, वैसे ही सभापति राज्य का सब भार अपने ऊपर रखकर प्रजा को उद्योगी बनावें और प्रजा भी उसकी सेवा करती रहे ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(आ) समन्तात् (यत्) यतः (दुवः) अ० २०।६८।। परिचरणम् (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ। बहुकर्मन् (आ) अभितः। पूरणतः (कामम्) यथेष्टम् (जरितॄणाम्) स्तावकानाम् (ऋणोः) म० २। प्राप्नोषि (अक्षम्) धूः (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः ॥