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०१ यदिन्द्र प्रागपागुदङ्न्यग्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यदि॑न्द्र॒ प्रागपा॒गुद॒ङ्न्य᳡ग्वा हू॒यसे॒ नृभिः॑।
सिमा॑ पु॒रू नृषू॑तो अ॒स्यान॒वेऽसि॑ प्रशर्ध तु॒र्वशे॑ ॥

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Griffith

Though, Indra, thou art called by men eastward and westward, north and south, [p. 357] Thou chiefly art with Anava and Turvasa, brave Champion! urged by men to come.

पदपाठः

यत्। इ॒न्द्र॒। प्राक्। अपा॑क्। उद॑क्। न्य॑क्। वा॒। हू॒यसे॑। नृऽभिः॑। सिम॑। पु॒रू। नृऽसू॑तः। अ॒सि॒। आन॑वे। असि॑। प्र॒ऽश॒र्ध॒। तु॒र्वशे॑। १२०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • देवातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१२०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (यत्) जब (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में (वा) और (न्यक्) दक्षिण में (नृभिः) मनुष्यों करके (हूयसे) तू पुकारा जाता है। (सिम) हे सीमा बाँधनेवाले (प्रशर्ध) प्रबल ! [परमात्मन्] (आनवे) मनुष्यों के (तुर्वशे) हिंसकों के वश करनेवाले पुरुष में (पुरु) बहुत प्रकार (नृषूतः) तू मनुष्यों से प्रेरणा [प्रार्थना] किया गया (असि) है, (असि) है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सब स्थानों में परमात्मा को बारंबार स्मरण करके परस्पर उपकार करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।४।१, २ सामवेद, उ० ।१।१३ म० १ सा० पू० ३।९।७ ॥ १−(यत्) यदा (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (प्राक्) प्राच्यां दिशि (अपाक्) प्रतीच्यां दिशि (उदक्) उदीच्यां दिशि (न्यक्) नीच्यां दक्षिणस्यां दिशि (वा) च (हूयसे) आहूयसे (नृभिः) नेतृभिः (सिम) अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। षिञ् बन्धने-मन् कित्। हे सीमाकारक (पुरु) बहुलम् (नृषूतः) षू प्रेरणे-क्त। नरैः प्रेरितः पार्थितः (असि) (आनवे) अनु-अण्। अनवो मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्यसम्बन्धिनि (असि) (प्रशर्ध) शृधु उत्साहे-अच्। शर्धो बलनाम-निघ० २।९। हे प्रबल (तुर्वशे) अ० २०।३७।८। तुरां हिंसकानां वशयितरि ॥

०२ यद्वा रुमे

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यद्वा॒ रुमे॒ रुश॑मे॒ श्याव॑के॒ कृप॒ इन्द्र॑ मा॒दय॑से॒ सचा॑।
कण्वा॑सस्त्वा॒ ब्रह्म॑भि॒ स्तोम॑वाहस॒ इन्द्रा य॑च्छ॒न्त्या ग॑हि ॥

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Griffith

Or, Indra, when with Ruma, Rusama, Syavaka, and Kripa thou rejoicest thee, Still do the Kanvas bring praises, with their prayers, O Indra, draw thee hither: come.

पदपाठः

यत्। वा॒। समे॑। रुश॑मे। श्याव॑के। कृपे॑। इन्द्र॑। मा॒दय॑से। सचा॑। कण्वा॑सः। त्वा॒। ब्रह्म॑ऽभिः। स्तोम॑ऽवाहसः। इन्द्र॑। आ। य॒च्छ॒न्त‍ि॒। आ। ग॒हि॒। १२०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • देवातिथिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१२०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (यत्) जब (रुमे) ज्ञानी पुरुष में, (रुशमे) हिंसकों के फैंकनेवाले में, (श्यावके) उद्योगी में (वा) और (कृपे) समर्थ में (सचा) नित्य मेल से (मादयसे) तू हर्ष पाता है, [तभी] (इन्द्र) हे इन्द्र [परमात्मन्] (स्तोमवाहसः) बड़ाई के प्राप्त करानेवाले (कण्वासः) बुद्धिमान् लोग (त्वा) तुझको (ब्रह्मभिः) वेदवचनों से (आ यच्छन्ति) अपनी ओर खींचते हैं, (आ गहि) तू आ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा स्वभाव से पुरुषार्थियों पर कृपा करता है, इसी से विद्वान् लोग उसे हृदय में वर्तमान जानकर संसार में उन्नति करते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यत्) यदा (वा) च (रुमे) अविसिवि०। उ० १।१४४। रुङ् गतिरेषणयोः-मन्, कित्। ज्ञानिनि पुरुषे (रुशमे) रुश हिंसायाम्-क+डुमिञ् प्रक्षेपणे-डप्रत्ययः। हिंसकानां प्रक्षेप्तरि (श्यावके) अ० ।।८। गतिशीले। उद्योगिनि (कृपे) कृपू सामर्थ्ये-क। समर्थे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (मादयसे) हृष्यसि (सचा) समवायेन (कण्वासः) मेधाविनः (त्वा) (ब्रह्मभिः) वेदवचनैः (स्तोमवाहसः) अ० २–०।९८।११। स्तुतिप्रापकाः (इन्द्र) (आ यच्छन्ति) आनीय यमयन्ति। आकर्षन्ति (आगहि) आगच्छ ॥