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०१ पिबा सोममिन्द्र

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पिबा॒ सोम॑मिन्द्र॒ मन्द॑तु त्वा॒ यं ते॑ सु॒षाव॑ हर्य॒श्वाद्रिः॑।
सो॒तुर्बा॒हुभ्यां॒ सुय॑तो॒ नार्वा॑ ॥

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Griffith

Drink Soma, Lord of Bays, and let it cheer thee: Indra, the stone, like a well-guided courser, Directed by the presser’s arms hath pressed it.

पदपाठः

पिब॑। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। मन्द॑तु। त्वा॒। यम्। ते॒। सु॒साव॑। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। अद्रिः॑। सो॒तुः। बा॒हुऽभ्या॑म्। सुऽय॑तः। न। अर्वा॑। ११७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • विराड्गायत्री
  • सूक्त-११७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यश्व) हे फुरतीले घोड़ोंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (सोमम्) सोम [तत्त्व रस] का (पिब) पान कर, (त्वा) तुझको (मन्दतु) वह [तत्त्व रस] आनन्द देवे। (यम्) जिसको (ते) तेरे लिये (सुयतः) अच्छे सिखाये हुए (अर्वा न) घोड़े के समान, (अद्रिः) मेघ [के तुल्य उपकारी पुरुष] ने (सोतुः) सार निकालनेवाले की (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं से (सुषाव) सिद्ध किया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अच्छा सधा हुआ घोड़ा अपने स्वामी को ठिकाने पर पहुँचाता है, वैसे ही विद्वानों के सिद्ध किये हुए तत्त्व रस को ग्रहण करके राजा पराक्रमी होवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-७।२२।१-३ सामवेद-उ० ३।१। तृच १३, म० १ साम० पू० ।१।८ ॥ १−(पिब) (सोमम्) तत्त्वरसम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (मन्दतु) आनन्दयतु (त्वा) (यम्) सोमम् (ते) तुभ्यम् (सुषाव) निष्पादितवान् (हर्यश्व) हरयो हरणशीलाः प्रापणशीला अश्वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (अद्रिः) मेघ इवोपकारी पुरुषः (सोतुः) अभिषवकर्तुः (बाहुभ्याम्) भुजाभ्याम् (सुयतः) सुशिक्षितः (न) इव (अर्वा) अश्वः ॥

०२ यस्ते मदो

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यस्ते॒ मदो॒ युज्य॒श्चारु॒रस्ति॒ येन॑ वृ॒त्राणि॑ हर्यश्व॒ हंसि॑।
स त्वामि॑न्द्र प्रभूवसो ममत्तु ॥

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Griffith

So let the draught of joy, thy dear companion, by which, O Lord of Bays, thou slayest foemen, Delight thee, Indra, Lord of princely treasures.

पदपाठः

यः। ते॒। मदः॑। युज्यः॑। चारुः॑। अस्ति॑। येन॑। वृ॒त्राणि॑। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। हंसि॑। यः। त्वाम्। इ॒न्द्र॒। प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो। म॒म॒त्तु॒। ११७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • विराड्गायत्री
  • सूक्त-११७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यश्व) हे फुरतीले घोड़ोंवाले ! (प्रभूवसो) हे समर्थ बसानेवाले [वा बहुत धनवाले] (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यः) जो [तत्त्व रस] (ते) तेरे लिये (युज्यः) योग्य और (चारुः) सुन्दर (मदः) आनन्दकारी (अस्ति) है, और (येन) जिस [तत्त्व रस] से (वृत्राणि) शत्रुदलों को (हंसि) तू मारता है, (सः) वह [तत्त्वरस] (त्वाम्) तुझको (ममत्तु) आनन्द देवे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा उचित उपायों से शत्रुओं को मारकर प्रजा का आनन्द बढ़ावे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यः) तत्त्वरसः (ते) तुभ्यम् (मदः) हर्षकरः (युज्यः) युज-क्यप् योग्यः (चारुः) समीचीनः (अस्ति) (येन) तत्त्वरसेन (वृत्राणि) शत्रुदलानि (हर्यश्व) म० १। प्रापणशीलाश्वयुक्त (हंसि) नाशयसि (सः) तत्त्वरसः (त्वाम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (प्रभूवसो) हे समर्थवासयितः। बहुधन (ममत्तु) मादयतु। हर्षयतु ॥

०३ बोधा सु

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बोधा॒ सु मे॑ मघव॒न्वाच॒मेमां याँ ते॒ वसि॑ष्ठो॒ अर्च॑ति॒ प्रश॑स्तिम्।
इ॒मा ब्रह्म॑ सध॒मादे॑ जुषस्व ॥

०३ बोधा सु ...{Loading}...

Griffith

Mark closely, Maghavan; the words I utter, this eulogy recited by Vasishtha: Accept the prayers I offer at thy banquet.

पदपाठः

बोध॑। सु। मे॒। म॒घ॒ऽव॒न्। वाच॑म्। आ। इ॒माम्। याम्। ते॒। वसि॑ष्ठः। अर्च॑ति। प्रऽश॑स्तिम्। इ॒मा। ब्रह्म॑। स॒ध॒मादे॑। जु॒ष॒स्व॒। ११७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वसिष्ठः
  • विराड्गायत्री
  • सूक्त-११७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे महाधनी राजन् ! (याम्) जिस (प्रशस्तिम्) उत्तम [वाणी] को (ते) तुझे (वसिष्ठः) वसिष्ठ [अति श्रेष्ठ विद्वान्] (अर्चति) समर्पण करता है, (मे) मेरी (इमाम्) इस (वाचम्) वाणी को, (सु) भले प्रकार (आ) सामने से (बोध) तू समझ, और (इमा) इन (ब्रह्म) वेदवचनों का (सधमादे) मिलकर हर्ष मनाने के स्थान उत्सव में (जुषस्व) सेवन कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है कि बड़े-बड़े विद्वानों की श्रेष्ठ वाणी और वेदवचनों को यथावत् मानकर उन्नति करे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(बोध) बुध्यस्व। जानीहि (सु) सुष्ठु (मे) मम (मघवन्) हे धनवन् (वाचम्) वाणीम् (आ) आभिमुख्येन (इमाम्) (याम्) (ते) तुभ्यम् (वसिष्ठः) अतिशयेन वसुः श्रेष्ठो विद्वान् (अर्चति) समर्पयति (प्रशस्तिम्) उत्तमाम् (इमा) इमानि (ब्रह्म) ब्रह्माणि वेदज्ञानानि (सधमादे) सहहर्षस्थाने (जुषस्व) सेवस्व ॥