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०१ मा भूम
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव।
वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव।
वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥
०१ मा भूम ...{Loading}...
Griffith
Never may we be cast aside and strangers, as it were to thee. We, Thunder-wielding Indra, count ourselves as trees rejected and unfit to burn.
पदपाठः
मा। भू॒म॒। निष्ट्याः॑ऽइव। इन्द्र॑। त्वत्। अर॑णाःऽइव। वना॑नि। न। प्र॒ऽज॒हि॒तानि॑। अ॒द्रि॒ऽवः॒। दु॒रोषा॑सः। अ॒म॒न्म॒हि॒। ११६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-११६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वत्) तुझसे [अलग होकर] (निष्ट्याः इव) वर्णसङ्कर नीचों के समान और (अरणाः इव) न बात करने योग्य शत्रुओं के समान और (प्रजहितानि) छोड़ दिये गये (वनानि न) वृक्षों के समान (मा भूम) हम न होवें, (अद्रिवः) हे वज्रधारी ! (दुरोषासः) न जल सकनेवाले वा न मर सकनेवाले [अर्थात् जीते हुए, प्रबल] (अमन्महि) हम समझे जावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा प्रजा की रक्षा करके उसको प्रबल और मित्र बनाये रक्खे, जैसे माली वृक्षों को सींचकर उपयोगी बनाता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१।१३, १४ ॥ १−(मा भूम) न भवेम (निष्ट्याः) अथ० १।१९।३। निस्-त्यप् गतार्थो निर्गता वर्णाश्रमेभ्यः। चाण्डालाः। वर्णसङ्कराः (इव) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (त्वत्) त्वत्तः (अरणाः) रण शब्दे-अप्। असंभाषणीयाः। शत्रवः (इव) (वनानि) वृक्षजातानि (न) इव (प्रजाहितानि) ओहाक् त्यागे-क्त। शाखादिभिः परित्यक्तानि। प्रक्षीणानि (अद्रिवः) हे वज्रवन् (दुरोषासः) उष दाहे हिंसे च-घञ्, असुक्। ओषितुं दग्धुं हिंसितुं वा अशक्याः। जीवन्तः प्रबलाः (अमन्महि) मन ज्ञाने लिङर्थे लुङ्। ज्ञाता भवेम ॥
०२ अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अम॑न्म॒हीद॑ना॒शवो॑ऽनु॒ग्रास॑श्च वृत्रहन्।
सु॒कृत्सु ते॑ मह॒ता शू॑र॒ राध॒सानु॒ स्तोमं॑ मुदीमहि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अम॑न्म॒हीद॑ना॒शवो॑ऽनु॒ग्रास॑श्च वृत्रहन्।
सु॒कृत्सु ते॑ मह॒ता शू॑र॒ राध॒सानु॒ स्तोमं॑ मुदीमहि ॥
०२ अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ...{Loading}...
Griffith
O Vritra slayer, we were thought slow and unready for the fray: Yet once in thy great bounty may we have delight, O Hero, after praising thee.
पदपाठः
अम॑न्महि। इत्। अ॒ना॒शवः॑। अ॒नु॒ग्रासः॑। च॒। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। सु॒कृत्। सु। ते॒। म॒ह॒ता। शू॒र॒। राध॑सा। अनु॑। स्तोम॑म्। मु॒दी॒म॒हि॒। ११६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- मेध्यातिथिः
- बृहती
- सूक्त-११६
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के कर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [राजन्] (अनाशवः) अनफुरतीले (च) और (अनुग्रासः) अनतेज (इत्) ही (अमन्महि) हम जाने गये हैं। (शूर) हे शूर ! (ते) तेरे (महता) बड़े (राधसा) धन से (स्तोमम् अनु) बड़ाई के साथ (सकृत्) एक बार (सु) भले प्रकार (मदीमहि) हम आनन्द पावें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिये कि प्रजा को निरालसी, उद्यमी और बलवान् बनाने के लिये राजकोश से धन का व्यय करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अमन्महि) म० १। ज्ञाता अभूम (इत्) एव (अनाशवः) अशीघ्राः, अत्वरमाणाः (अनुग्रासः) अनुग्राः। निस्तेजसः (च) (वृत्रहन्) शत्रुनाशक राजन् (सकृत्) एकवारम् (सु) (ते) तव (महता) प्रभूतेन (शूर) (राधसा) धनेन (अनु) अनुलक्ष्य (स्तोमम्) स्तुत्यं गुणम् (मुदीमहि) आनन्देम ॥