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०१ उभयं शृणवच्च

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उ॒भयं॑ शृ॒णव॑च्च न॒ इन्द्रो॑ अ॒र्वागि॒दं वचः॑।
स॒त्राच्या॑ म॒घवा॒ सोम॑पीतये धि॒या शवि॑ष्ठ॒ आ ग॑मत् ॥

०१ उभयं शृणवच्च ...{Loading}...

Griffith

Both boons–may Indra hitherward turned, listen to this, prayer of ours, And, mightiest Maghavan with thought inclined to us come nigh to drink the Soma juice.

पदपाठः

उ॒भय॑म्। शृ॒ण्व॑त्। च॒। नः॒। इन्द्रः॑। अ॒र्वाक्। इ॒दम्। वचः॑। स॒त्राच्या॑। म॒घऽवा॑। सोम॑ऽपीतये। धि॒या। शवि॑ष्ठः। आ। ग॒म॒त्। ११३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • भर्गः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-११३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (उभयम्) दो प्रकार से [शत्रुओं पर दण्ड और भक्तों पर अनुग्रह करने से] (नः) हमारे (इदम्) इस (अर्वाक्) वर्त्तमान (वचः) वचन को (च) निश्चय करके (शृणवत्) सुने, (मघवा) महाधनी और (शविष्ठः) महाबली [राजा] (सोमपीतये) सोम [तत्त्व रस] पीने के लिये (सत्राच्या) सत्य गतिवाली (धिया) बुद्धि के साथ (आ गमत्) आवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा धन की पूर्णता और पराक्रम की उपयोगिता से शत्रुओं को मिटाकर और राजभक्तों को बढ़ाकर श्रेष्ठ कर्म करता रहे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।६१ [सायणभाष्य ०]।१-२ सामवेद-उ० ।१।१४ म० १ साम० पू० ३।१०।८ ॥ १−(उभयम्) द्विप्रकारं शत्रुनिग्रहं भक्तानुग्रहं च (शृणवत्) शृणुयात् (च) अवधारणे (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (अर्वाक्) अभिमुखम् (इदम्) (वचः) वचनम् (सत्राच्या) सत्यगतिवत्या (मघवा) महाधनी (सोमपीतये) तत्त्वरसस्य पानाय (धिया) प्रज्ञया (शविष्ठः) अतिशयेन बलवान् (आ गमत्) आगच्छतु ॥

०२ तं हि

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तं हि स्व॒राजं॑ वृष॒भं तमोज॑से धि॒षणे॑ निष्टत॒क्षतुः॑।
उ॒तोप॒मानां॑ प्रथ॒मो नि षी॑दसि॒ सोम॑कामं॒ हि ते॒ मनः॑ ॥

०२ तं हि ...{Loading}...

Griffith

For him, strong independent Ruler, Heaven and Earth have fashioned forth for power and might. Thou seatest thee as first among thy peers in place, for thy soul longs for Soma juice.

पदपाठः

तत्। हि। स्व॒ऽराज॑म्। वृ॒ष॒भम्। तम्। ओज॑से। धि॒षणे॒। इति॑। निः॒ऽत॒त॒क्षतुः॑। उ॒त। उ॒प॒ऽमाना॑म्। प्र॒थ॒मः। नि। सी॒द॒स‍ि॒। सोम॑ऽकामम्। हि। ते॒। मनः॑। ११३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • भर्गः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-११३
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के धर्म का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तम् हि) उस ही [तुझ] (स्वराजम्) स्वराजा को (तम्) उस ही [तुझ] (वृषभम्) बलवान् को (ओजसे) पराक्रम के लिये (धिषणे) दोनों सूर्य और भूमि ने (निष्टतक्षतुः) बना दिया है। (उत) और (उपमानाम्) समीपवालों का भी (प्रथमः) पहिला [मुख्य] होकर (नि षीदसि) तू बैठता है, (हि) क्योंकि (ते) तेरा (मनः) मन (सोमकामम्) ऐश्वर्य का चाहनेवाला है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा सूर्य के समान तेजस्वी और पृथिवी के समान सहनशील होकर अपने पराक्रम से ऐश्वर्य बढ़ावे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(तम्) तादृशं त्वाम् (हि) एव (स्वराजम्) स्वयमेव राजानम् (वृषभम्) बलवन्तम् (तम्) (ओजसे) पराक्रमाय (धिषणे) अथ० २०।९४।८। सूर्यभूमिलोकौ (निष्टतक्षतुः) संचस्करतुः (उत) अपि च (उपमानाम्) समीपस्थानाम् (प्रथमः) मुख्यः (नि षीदसि) उपविशसि (सोमकामम्) ऐश्वर्यं कामयमानम् (हि) यस्मात् कारणात् (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् ॥