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०१ यत्सोममिन्द्र विष्णवि
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यत्सोम॑मिन्द्र॒ विष्ण॑वि॒ यद्वा॑ घ त्रि॒त आ॒प्त्ये।
यद्वा॑ म॒रुत्सु॒ मन्द॑से॒ समिन्दु॑भिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यत्सोम॑मिन्द्र॒ विष्ण॑वि॒ यद्वा॑ घ त्रि॒त आ॒प्त्ये।
यद्वा॑ म॒रुत्सु॒ मन्द॑से॒ समिन्दु॑भिः ॥
०१ यत्सोममिन्द्र विष्णवि ...{Loading}...
Griffith
If, Indra, thou drink Soma by Vishnu’s or Trita Aptya’s side, Or with the Maruts take delight in flowing drops;
पदपाठः
यत्। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। विष्ण॑वि। यत्। वा॒। घ॒। त्रि॒ते। आ॒प्त्ये। यत्। वा॒। म॒रुत्ऽसु॑। मन्द॑से। सम्। इन्दु॑ऽभिः। १११.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- पर्वतः
- उष्णिक्
- सूक्त-१११
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (यत्) जब (घ) निश्चय करके (यत् वा) अथवा (आप्त्ये) आप्तों [यथार्थ वक्ताओं] के हितकारी, (त्रिते) तीनों लोकों में फैले हुए (विष्णवि) विष्णु [व्यापक परमात्मा] में, (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूर विद्वानों में (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सोमम्) सोम [तत्त्वरस] को (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू प्राप्त होता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।१२।१६-१८ म० १ सामवेद-पू० ७।१०।४ ॥ १−(यत्) यदा (सोमम्) तत्त्वरसम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् मनुष्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके परमात्मनि (यत् वा) अथवा (घ) निश्चयेन (त्रिते) अथ० ।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-डप्रत्ययः। त्रिषु लोकेषु विस्तृते (आप्त्ये) आप्तानां यथार्थवक्तॄणां हिते (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूरविद्वत्सु (मन्दसे) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु। गच्छसि। प्राप्नोषि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥
०२ यद्वा शक्र
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यद्वा॑ शक्र परा॒वति॑ समु॒द्रे अधि॒ मन्द॑से।
अ॒स्माक॒मित्सु॒ते र॑णा॒ समिन्दु॑भिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद्वा॑ शक्र परा॒वति॑ समु॒द्रे अधि॒ मन्द॑से।
अ॒स्माक॒मित्सु॒ते र॑णा॒ समिन्दु॑भिः ॥
०२ यद्वा शक्र ...{Loading}...
Griffith
Or, Sakra, if thou gladden thee afar or in the sea of air, Rejoice thee in this juice of ours, in flowing drops.
पदपाठः
यत्। वा॒। श॒क्र॒। प॒रा॒ऽवति॑। स॒मु॒द्रे। अधि॑। मन्द॑से। अ॒स्माक॑म्। इत्। सु॒ते। र॒ण॒। सम्। इन्दु॑ऽभिः। १११.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- पर्वतः
- उष्णिक्
- सूक्त-१११
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शक्र) हे शक्तिमान् ! (मनुष्य) (यत् वा) अथवा (परावति) बहुत दूरवाले (समुद्रे) समुद्र [जलनिधि वा आकाश] में (अधि) अधिकारपूर्वक (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ [तत्त्व रस को] (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू हर्षयुक्त करता है, (सत्पते) हे सत्पुरुषों के स्वामी ! (यत् वा) जब कि तू (सुन्वतः) उस तत्त्वरस निचोड़नेवाले (यजमानस्य) यजमान का (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, (यस्य) जिस [यजमान] के (उक्थे) वचन में (वा) निश्चय करके (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सम्) ठीक-ठीक (रण्यसि) तू उपदेश करता है, [तब] (अस्माकम् इत्) हमारे भी (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (रण) उपदेश कर ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यत् वा) अथवा (शक्र) हे शक्तिमान् (परवति) दुरगते (समुद्रे) जलनिधौ। आकाशे (अधि) अधिकृत्य (मन्दसे) म० १। मोदयसि। आनन्दयसि (अस्माकम्) (इत्) एव (सुते) संस्कृते तत्त्वरसे (रण) शब्दय। उपदिश (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥
०३ यद्वासि सुन्वतो
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यद्वासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धो यज॑मानस्य सत्पते।
उ॒क्थे वा॒ यस्य॒ रण्य॑सि॒ समिन्दु॑भिः ॥
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मूलम् (VS)
यद्वासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धो यज॑मानस्य सत्पते।
उ॒क्थे वा॒ यस्य॒ रण्य॑सि॒ समिन्दु॑भिः ॥
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Griffith
Or, Lord of Heroes, if thou aid the worshipper who sheds the juice, Or him whose laud delights thee, and his flowing drops.
पदपाठः
यत्। वा॒। असि॑। सु॒न्व॒तः। वृ॒धः। यज॑मानस्य। स॒त्ऽप॒ते॒। उ॒क्थे। वा॒। यस्य॑। रण्य॑सि। सम्। इन्दु॑ऽभिः। १११.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- पर्वतः
- उष्णिक्
- सूक्त-१११
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शक्र) हे शक्तिमान् ! (मनुष्य) (यत् वा) अथवा (परावति) बहुत दूरवाले (समुद्रे) समुद्र [जलनिधि वा आकाश] में (अधि) अधिकारपूर्वक (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ [तत्त्व रस को] (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू हर्षयुक्त करता है, (सत्पते) हे सत्पुरुषों के स्वामी ! (यत् वा) जब कि तू (सुन्वतः) उस तत्त्वरस निचोड़नेवाले (यजमानस्य) यजमान का (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, (यस्य) जिस [यजमान] के (उक्थे) वचन में (वा) निश्चय करके (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सम्) ठीक-ठीक (रण्यसि) तू उपदेश करता है, [तब] (अस्माकम् इत्) हमारे भी (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (रण) उपदेश कर ॥२, ३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यत् वा) अथवा (असि) (सुन्वतः) तत्त्वरसं निष्पादयतः पुरुषस्य (वृधः) वर्धयिता। (यजमानस्य) (सत्पते) सतां पालक (उक्थे) वचने (वा) अवधारणे (यस्य) यजमानस्य (रण्यसि) उपदिशसि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥