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०१ इन्द्राय मद्वने

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इन्द्रा॑य॒ मद्व॑ने सु॒तं परि॑ ष्टोभन्तु नो॒ गिरः॑।
अ॒र्कम॑र्चन्तु का॒रवः॑ ॥

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Griffith

For Indra, lover of carouse, loud be our songs about the juice: Let poets sing the hymn of praise.

पदपाठः

इन्द्रा॑य॒। मद्व॑ने। सु॒तम्। परि॑। स्तो॒भ॒न्तु॒। नः॒। गिरः॑। अ॒र्कम्। अ॒र्च॒न्तु॒। का॒रवः॑। ११०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
  • गायत्री
  • सूक्त-११०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मद्वने) आनन्दकारी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] के लिये (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (सुतम्) निचोड़े हुए तत्त्व रस का (परि) सब प्रकार (स्तोभन्तु) आदर करें और (कारवः) काम करनेवाले लोग (अर्कम्) उस पूजनीय का (अर्चन्तु) आदर करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों के उत्तम सिद्धान्तों को माने, लोग सदा उसका आदर करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।९२ [सायणभाष्य ८१]।१९-२१, सामवेद-उ० १।२। तृच ४ म० १ साम०-पू० २।७।४ ॥ १−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (मद्वने) माद्यतेः-क्वनिप्। आनन्दकाय (सुतम्) संस्कृतं तत्त्वरसम् (परि) सर्वतः (स्तोभन्तु) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। सत्कुर्वन्तु (नः) अस्माकम् (गिरः) वाण्यः (अर्कम्) अर्चनीयम् (अर्चन्तु) पूजयन्तु (कारवः) कर्मकर्तारः ॥

०२ यस्मिन्विश्वा अधि

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यस्मि॒न्विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॒ रण॑न्ति स॒प्त सं॒सदः॑।
इन्द्रं॑ सु॒ते ह॑वामहे ॥

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Griffith

We summon Indra to the draught, in whom all glories rest, in whom The seven communities rejoice.

पदपाठः

यस्मि॑न्। विश्वाः॑। अधि॑। श्रियः॑। रण॑न्ति। स॒प्त। स॒म्ऽसदः॑। इन्द्र॑म्। सु॒ते। ह॒वा॒म॒हे॒। ११०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
  • गायत्री
  • सूक्त-११०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (सप्त) सात (संसदः) मिलकर बैठनेवाले [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] (विश्वाः) सब (श्रियः) सम्पत्तियों को (अधि) अधिकारपूर्वक (रणन्ति) पाते हैं, (इन्द्रम्) उस इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] को (सुते) सिद्ध किये तत्त्वरस में (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य इन्द्रियों को वश करके सब सम्पत्तियाँ प्राप्त करे, वह सबका माननीय होवे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यजुर्वेद ३४।। में आया है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] शरीर में रक्खे हुए हैं ॥ २−(यस्मिन्) इन्द्रे (विश्वाः) सर्वाः (अधि) अधिकृत्य (श्रियः) सम्पत्तीः (रणन्ति) गच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (सप्त) सप्तसंख्याकाः (संसदः) परस्परस्थितिशीलाः−त्वचानेत्रश्रोत्रजिह्वावाङ्मनोबुद्धयः (इन्द्रम्) तं महाप्रतापिनं मनुष्यम् (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (हवामहे) आह्वयामः ॥

०३ त्रिकद्रुकेषु चेतनम्

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त्रिक॑द्रुकेषु॒ चेत॑नं दे॒वासो॑ य॒ज्ञम॑त्नत।
तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑ ॥

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Griffith

By the three Soma jars the Gods span sacrifice that stirs the mind: Let our songs aid and prosper it.

पदपाठः

त्रिऽक॑द्रुकेषु। चेत॑नम्। दे॒वासः॑। य॒ज्ञम्। अ॒त्न॒त॒। तम्। इत्। व॒र्धन्तु॒। नः॒। गिरः॑। ११०.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
  • गायत्री
  • सूक्त-११०
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवासः) विद्वानों ने (त्रिकद्रुकेषु) तीन [शारीरिक, आत्मिक, और सामाजिक उन्नतियों के] विधानों में (चेतनम्) चेतानेवाले (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] को (अत्नत) फैलाया है। (तम् इत्) उस ही [यज्ञ] को (नः) हमारी (गिरः) विद्याएँ (वर्धन्तु) बढ़ावें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वान् पूर्वज महात्माओं के समान विद्या प्राप्त करके शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(त्रिकद्रुकेषु) अथ० २०।९।१। तिसॄणां शारीरिकात्मिकसामाजिकवृद्धीनां कद्रुकेषु आह्वानेषु विधानेषु (चेतनम्) ज्ञानसाधनम् (देवासः) विद्वांसः (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (अत्नत) अतन्वत। विस्तारितवन्तः (तम् इत्) तमेव यज्ञम् (वर्धन्तु) वर्धयन्तु (नः) अस्माकम् (गिरः) विविधविद्याः ॥