१०७

१०७ ...{Loading}...

०१ समस्य मन्यवे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सम॑स्य म॒न्यवे॒ विशो॒ विश्वा॑ नमन्त कृ॒ष्टयः॑।
स॑मु॒द्राये॑व॒ सिन्ध॑वः ॥

०१ समस्य मन्यवे ...{Loading}...

Griffith

Before his hot displeasure all the peoples, all the men bow down, As rivers bend them to the sea.

पदपाठः

सम्। अ॒स्य॒। म॒न्यवे॑। विशः॑। विश्वाः॑। न॒म॒न्त॒। कृ॒ष्टयः॑। स॒मु॒द्राय॑ऽइव। सिन्ध॑वः। १०७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वत्सः
  • गायत्री
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वाः) सब (विशः) प्रजाएँ और (कृष्टयः) मनुष्य (अस्य) इस [परमेश्वर] के (मन्यवे) तेज वा क्रोध के आगे (सम्) ठीक-ठीक (नमन्त) नमे हैं, (समुद्राय इव) जैसे समुद्र के लिये (सिन्धवः) नदियाँ [नमती हैं] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे नदियाँ समुद्र की ओर झुकती हैं, वैसे ही सब सृष्टि के पदार्थ और सब मनुष्य परमात्मा की आज्ञा को अवश्य मानते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-३ ऋग्वेद में हैं-८।६।४-६ सामवेद-उ० ८।१। तृच १३ मन्त्र १ साम० पू० २।।३ ॥ १−(सम्) सम्यक् (अस्य) परमेश्वरस्य (मन्यवे) मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वा-निरु० १०।२९। तेजसे। क्रोधाय (विशः) प्रजाः (विश्वाः) (नमन्त) नमतेर्लङ्। नमन्ति स्म (कृष्टयः) मनुष्याः (समुद्राय) (इव) यथा (सिन्धवः) स्यन्दनशीला नद्यः ॥

०२ ओजस्तदस्य तित्विष

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ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत्।
इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥

०२ ओजस्तदस्य तित्विष ...{Loading}...

Griffith

This power of his shone brightly forth when Indra brought to- gether like A skin the worlds of earth and heaven.

पदपाठः

ओजः॑। तत्। अ॒स्य॒। ति॒त्वि॒षे॒। उ॒भे इति॑। यत्। स॒म्ऽअव॑र्तयत्। इन्द्रः॑। चर्म॑ऽइव। रोद॑सी॒ इति॑। १०७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वत्सः
  • गायत्री
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [परमेश्वर] का (ओजः) बल (तत्) तब (तित्विषे) प्रकाशित हुआ, (यत्) जब (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि को (चर्म इव) चमड़े के समान (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तमान किया ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे कोई चमड़े को कमाकर ठीक करता है, वैसे ही परमात्मा परमाणुओं के संयोग-वियोग से सृष्टि बनाता है, तब उसकी महिमा प्रकट होती है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(ओजः) बलम् (तत्) तदा (अस्य) परमेश्वरस्य (तित्विषे) त्विष दीप्तौ-लिट्। दिदीपे (उभे) (यत्) यदा (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तितवान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (चर्म) (इव) यथा (रोदसी) आकाशभूमी ॥

०३ वि चिद्वृत्रस्य

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वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा।
शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥

०३ वि चिद्वृत्रस्य ...{Loading}...

Griffith

The fiercely-moving Vritra’s head he severed with his thunder- bolt, His hundred-knotted thunderbolt.

पदपाठः

वि॒। चि॒त्। वृ॒त्रस्य॑। दोध॑तः। वज्रे॑णः। श॒तऽप॑र्वणा। शिरः॑। बि॒भे॒द॒। वृ॒ष्णिना॑। १०७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • वत्सः
  • गायत्री
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दोधतः) क्रोध करते हुए (वृत्रस्य) रोकनेवाले शत्रु के (शिरः) शिर को (शतपर्वणा) सैकड़ों जोड़ोंवाले, (वृष्णिना) दृढ़ (वज्रेण) वज्र से (चित्) निश्चय करके (वि) अनेक प्रकार (बिभेद) उस [परमेश्वर] ने तोड़ा है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे शूर पुरुष भारी-भारी शस्त्रों से शत्रुओं को मार गिराता है, वैसे ही परमात्मा पापियों को अनेक प्रकार दण्ड देता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(वि) विविधम् (चित्) एव (वृत्रस्य) आवरकस्य शत्रोः (दोधतः) अ० १२।१।८। क्रुध्यतः (वज्रेण) शस्त्रेण (शतपर्वणा) बहुसन्धियुक्तेन (शिरः) (बिभेद) विच्छेद (वृष्णिना) वीर्यवता। दृढेन ॥

०४ तदिदास भुवनेषु

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तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ ज॒ज्ञ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः।
स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो नि रि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यदे॑नं॒ मद॑न्ति॒ विश्व॒ ऊमाः॑ ॥

०४ तदिदास भुवनेषु ...{Loading}...

Griffith

In all the worlds That was the best and highest whence sprang the mighty God, of splendid valour. As soon as born he overcomes his foemen, he in whom all who lend him aid are joyful.

पदपाठः

तत्। इत्। आ॒स॒। भुव॑नेषु। ज्येष्ठ॑म्। यतः॑। ज॒ज्ञे। उ॒ग्रः। त्वे॒षऽनृ॑म्णः। स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। नि। रि॒णा॒ति॒। शत्रू॑न्। अनु॑। यत्। ए॒न॒म्। मद॑न्ति। विश्वे॑। ऊमाः॑। १०७.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) विस्तीर्ण ब्रह्म (इत्) ही (भुवनेषु) लोकों के भीतर (ज्येष्ठम्) सबमें उत्तम और सबमें बड़ा (आस) प्रकाशमान हुआ। (यतः) जिस [ब्रह्म] से (उग्रः) तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) तेजोमय बल वा धनवाला पुरुष (जज्ञे) प्रकट हुआ। (सद्यः) शीघ्र (जज्ञानः) प्रकट होकर (शत्रून्) गिरानेवाले विघ्नों को (नि रिणाति) नाश कर देता है, (यत्) जिससे (एनम् अनु) इस [परमात्मा] के पीछे-पीछे (विश्वे) सब (ऊमाः) परस्पर रक्षक लोग (मदन्ति) हर्षित होते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आदि कारण परमात्मा की उपासना से मनुष्य वीर होकर शत्रुओं को मारता है, जिसके कारण सब लोग प्रसन्न होते हैं, उस जगदीश्वर की उपासना सब लोग किया करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४-१२ आ चुके हैं-अथ० ।२।१-९ ॥ ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

०५ वावृधानः शवसा

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वा॑वृधा॒नः शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ शत्रु॑र्दा॒साय॑ भि॒यसं॑ दधाति।
अव्य॑नच्च व्य॒नच्च॒ सस्नि॒ सं ते॑ नवन्त॒ प्रभृ॑ता॒ मदे॑षु ॥

०५ वावृधानः शवसा ...{Loading}...

Griffith

Grown mighty in his strength, with ample vigour, he as a foe strikes fear into the Dasa, Eager to win the breathing and the breathless. All sang thy praise at banquet and oblation.

पदपाठः

व॒वृ॒धा॒नः। शव॑सा। भूरि॑ऽओजाः। शत्रुः॑। दा॒साय॑। भि॒यस॑म्। द॒धा॒ति॒। अवि॑ऽअनत्। च॒। वि॒ऽअ॒नत्। च॒। सस्नि॑। सम्। ते॒। न॒व॒न्त॒। प्रभृ॑ता। मदे॑षु। १०७.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शवसा) बल से (वावृधानः) बढ़ता हुआ, (भूर्योजाः) महाबली, (शत्रुः) हमारा शत्रु (दासाय) दानपात्र दास को (भियसम्) भय (दधाति) देता है। (अव्यनत्) गतिशून्य स्थावर (च) और (व्यनत्) गतिवाला जङ्गम जगत् (च) निश्चय करके [परमात्मा में] (सस्नि) लपेटा हुआ है, (प्रभृता) अच्छे प्रकार पुष्ट किये हुए प्राणी (मदेषु) आनन्दों में (ते) तेरी (सम् नवन्त) यथावत् स्तुति करते हैं ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सर्वशक्तिमान् परमेश्वर समस्त जगत् में व्यापक होकर सबको धारण करता है। उसीकी महिमा को जानकर सब मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक अपने विघ्नों को नाश करके प्रसन्न होवें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

०६ त्वे क्रतुमपि

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त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑।
स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

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Griffith

All concentrate on thee their mental vigour, what time these, twice or thrice, are thine assistants. Blend what is sweeter than the sweet with sweetness: win quickly with our meath that meath in battle.

पदपाठः

त्वे इति॑। क्रतु॑म्। अपि॑। पृ॒ञ्च॒न्ति। भूरि॑। द्विः। यत्। ए॒ते। त्रिः। भ‍व॑न्ति। ऊमाः॑। स्वा॒दो। स्वादी॑यः। स्वा॒दुना॑। सृ॒ज॒। सम्। अ॒दः। सु। मधु॑। मधु॑ना। अ॒भि। यो॒धीः॒। १०७.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (त्वे अपि) तुझमें ही (क्रतुम्) अपनी बुद्धि को (भूरि) बहुत प्रकार से [सब प्राणी] (पृञ्चन्ति) जोड़ते हैं, (एते) यह सब (ऊमाः) रक्षक प्राणी (द्विः) दो बार [स्त्री-पुरुष रूप से] (त्रिः) तीन-बार [स्थान, नाम और जन्म रूप से] (भवन्ति) रहते हैं। (यत्) क्योंकि (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु मोक्ष सुख को (स्वादुना) स्वादु [सांसारिक सुख] के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर, (अदः) उस (मधु) मधुर [मोक्ष सुख] को (मधुना) मधुर [सांसारिक] ज्ञान के साथ (सु) भले प्रकार (अभि) सब ओर से (योधीः) तूने पहुँचाया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - लिङ्गरहित आत्मा कभी स्त्री कभी पुरुष होकर अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि शरीर, नाम और जाति भोगता है। सब प्राणी परमेश्वर की महिमा जानकर सांसारिक व्यवहार द्वारा मोक्ष सुख प्राप्त करें, जैसे कि पूर्वज ऋषियों ने वेद द्वारा प्राप्त किया है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

०७ यदि चिन्नु

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यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति॒ विप्राः॑।
ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥

०७ यदि चिन्नु ...{Loading}...

Griffith

Therefore in thee too, thou who winnest riches, at every banquet are the sages joyful With mighter power, bold God, extend thy firmness: let not malignant Yatudhanas harm thee.

पदपाठः

यदि॑। चि॒त्। नु। त्वा॒। धना॑। जय॑न्तम्। रणे॑ऽरणे। अ॒नु॒मद॑न्त‍ि। विप्राः॑। ओजी॑यः। शु॒ष्मि॒न्। स्थि॒रम्। आ। त॒नु॒ष्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। दुः॒ऽएवा॑सः। क॒शोकाः॑। १०७.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) जो (चित्) निश्चय करके (विप्राः) पण्डित जन (रणेरणे) प्रत्येक रण में (नु) शीघ्र (धना) धनों को (जयन्तम्) जीतनेवाले (त्वा) तेरे (अनुमदन्ति) पीछे-पीछे आनन्द पाते हैं। (शुष्मिन्) हे बलवन् परमात्मन् ! (ओजीयः) अधिक बलवान् (स्थिरम्) स्थिर मोक्ष सुख (आ) सब ओर से (तनुष्व) फैला, (दुरेवासः) दुष्ट गतिवाले (कशोकाः) परसुख में शोक करनेवाले जन (त्वा) तुझको (मा दभन्) न सतावें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् मनुष्य विघ्नों को हटाकर कठिन-कठिन कार्य सिद्ध करके स्थिर सुख पाते हैं ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

०८ त्वया वयम्

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त्वया॑ व॒यं शा॑शद्महे॒ रणे॑षु प्र॒पश्य॑न्तो यु॒धेन्या॑नि॒ भूरि॑।
चो॒दया॑मि त॒ आयु॑धा॒ वचो॑भिः॒ सं ते॑ शिशामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वयां॑सि ॥

०८ त्वया वयम् ...{Loading}...

Griffith

Proudly we put our trust in thee in battles, when we behold great wealth the prize of combat. I with my words impel thy weapons onward, and sharpen with my prayer thy vital vigour.

पदपाठः

त्वया॑। व॒यम्। शा॒श॒द्म॒हे॒। रणे॑षु। प्र॒ऽपश्य॑न्तः। यु॒धेन्या॑नि। भूरि॑। चो॒दया॑मि। ते॒। आयु॑धा। वचः॑ऽभिः। सम्। ते॒। शि॒शा॒म‍ि॒। ब्रह्म॑णा। वयां॑सि। १०७.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (भूरि) बहुत से (युधेन्यानि) युद्धों को (प्रपश्यन्तः) देखते हुए (वयम्) हम लोग (त्वया) तेरे साथ (रणेषु) रणक्षेत्रों में [शत्रुओं को] (शाशद्महे) मार गिराते हैं। (ते) तेरे (वचोभिः) वचनों से (आयुधा) अपने शस्त्रों को (चोदयामि) मैं आगे बढ़ाता हूँ और (ते) तेरे (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञान से (वयांसि) अपने जीवनों को (सम्) यथावत् (शिशामि) तीक्ष्ण करता हूँ ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - शूर-वीर मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करके पुरुषार्थपूर्वक बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करते हैं ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

०९ नि तद्दधिषेऽवरे

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नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे।
आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

०९ नि तद्दधिषेऽवरे ...{Loading}...

Griffith

Worthy of praises many-shaped, most skilful, most energetic, Aptya of the Aptyas: He with his might destroys the seven Danus, subduing many who were deemed his equals.

पदपाठः

नि। तत्। द॒धि॒षे॒। अव॑रे। परे॑। च॒। यस्म‍ि॑न्। आवि॑थ। अव॑सा। दु॒रो॒णे। आ। स्था॒प॒य॒त॒। मा॒तर॑म्। जि॒ग॒त्नु॒म्। अतः॑। इ॒न्व॒त॒। कर्व॑राणि। भूरि॑। १०७.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (अवरे) छोटे (च) और (परे) बड़े मनुष्य में (तत्) उस [घर] को (नि) निश्चय करके (दधिषे) तूने पोषण किया है, (यस्मिन्) जिस (दुरोणे) कष्ट से भरने योग्य घर में (अवसा) अन्न से (आविथ) तूने रक्षा की है। [हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वव्यापक (मातरम्) माता [परमेश्वर] को (आ) भली-भाँति (स्थापयत) [हृदय में] ठहराओ और (अतः) इसी से (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) कर्मों को (इन्वत) सिद्ध करो ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर की उपासनापूर्वक अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके अपने सब काम सिद्ध करें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

१० स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानम्

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स्तु॒ष्व व॑र्ष्मन्पुरु॒वर्त्मा॑नं॒ समृभ्वा॑णमि॒नत॑ममा॒प्तमा॒प्त्याना॑म्।
आ द॑र्शति॒ शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ प्र स॑क्षति प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्याः ॥

१० स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानम् ...{Loading}...

Griffith

Thou in that house which thy protection guardedh bestowest- wealth, the higher and the lower. Thou stablishest the two much-wandering Mothers, and bringest many deeds to their completion.

पदपाठः

स्तु॒ष्व। व॒र्ष्म॒न्। पु॒रु॒ऽवर्त्मा॑नम्। सम्। ऋभ्वा॑णम्। इ॒न॒त॑मम्। आ॒प्तम्। आ॒प्त्याना॑म्। आ। द॒र्श॒ति॒। शव॑सा। भूरि॑ऽओजाः। प्र। स॒क्ष॒ति॒। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। पृ॒थि॒व्याः। १०७.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वर्ष्मन्) हे ऐश्वर्यवान् पुरुष ! (पुरुवर्त्मानम्) बहुत मार्गवाले (ऋभ्वाणम्) दूर-दूर चमकनेवाले, (इनतमम्) महाप्रभु और (आप्त्यानाम्) आप्त [यथार्थवक्ता] पुरुषों में रहनेवाले गुणों के (आप्तम्) यथार्थवक्ता परमेश्वर की (सम्) यथावत् (स्तुष्व) स्तुति कर। (भूर्योजाः) वह महाबली (शवसा) अपने बल से (आ) सब ओर (दर्शति) देखता है, और वह (पृथिव्याः) पृथिवी का (प्रतिमानम्) प्रतिमान होकर (प्र) भली-भाँति (सक्षति) व्यापता है ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जगदीश्वर परमात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव विचारकर अपनी उन्नति करें ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

११ इमा ब्रह्म

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इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्नि॒यः स्व॒र्षाः।
म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥

११ इमा ब्रह्म ...{Loading}...

Griffith

Brihaddiva, the foremost of light-winners, repeasts these holy prayers, this strength to Indra. He rules the great self-luminous fold of cattle, and all the doors of light hath he thrown open.

पदपाठः

इ॒मा। ब्रह्म॑। बृ॒हत्ऽदि॑वः। कृ॒ण॒व॒त्। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒ग्नि॒यः। स्वः॒ऽसाः। म॒हः। गो॒त्रस्य॑। क्ष॒य॒ति॒। स्व॒ऽराजा॑। तुरः॑। चि॒त्। विश्व॑म्। अ॒र्ण॒व॒त्। तप॑स्वान्। १०७.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहार वा गतिवाला, (अग्रियः) अगुआ और (स्वर्षाः) स्वर्ग का सेवन करनेवाला पुरुष (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (इमा) इन (ब्रह्म=ब्रह्माणि) बड़े स्तोत्रों को (शूषम्) अपना बल (कृणवत्) बनावें। (स्वराजा) वह स्वराजा [स्वतन्त्र राजा परमेश्वर] (महः) बड़े (गोत्रस्य) भूपति राजा का (क्षयति) राजा है, और वह (तुरः) शीघ्रस्वभाव, (तपस्वान्) सामर्थ्यवाला परमात्मा (चित्) ही (विश्वम्) सब जगत् में (अर्णवत्) व्यापता है ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जगदीश्वर परम पिता के गुण जानकर अपना बल बढ़ावें ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

१२ एवा महान्बृहद्दिवो

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ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्व१॒॑मिन्द्र॑मे॒व।
स्वसा॑रौ मात॒रिभ्व॑री अरि॒प्रे हि॒न्वन्ति॑ चैने॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥

१२ एवा महान्बृहद्दिवो ...{Loading}...

Griffith

Thou hath Brihaddiva the great Atharvan, spoken to Indra as himself in person. The Matarisvaris, the spotless sisters, with power exalt him and impel him onward.

पदपाठः

ए॒व। म॒हान्। बृ॒हत्ऽदि॑वः। अथ॑र्वा। अवो॑चत्। स्वाम्। त॒न्व॑म्। इन्द्र॑म्। ए॒व। स्वसा॑रौ। मा॒त॒रिभ्व॑री॒ इति॑। अ॒रि॒प्रे इति॑। हि॒न्वन्ति॑। च॒। ए॒ने॒ इति॑। शव॑सा। व॒र्धय॑न्ति। च॒। १०७.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • भुरिक्परातिजागतात्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहारवाले, (अथर्वा) निश्चलस्वभाव पुरुष ने (स्वाम्) अपनी (तन्वम्) विस्तृत स्तुति (इन्द्रम्) परमेश्वर के लिये (एव) ही (एव) इस प्रकार से (अवोचत्) कही है। (मातरिभ्वरी) आकाश में वर्तमान (स्वसारौ) अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले वा गतिवाले [वा दो बहिनों के समान सहायकारी] दिन और रात (च) और (अरिप्रे) निर्दोष (एने) यह दोनों [सूर्य और पृथिवी] (शवसा) अपने सामर्थ्य से [उसी को] (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती (च) और (वर्धयन्ति) सराहती हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हमसे पहिले ऋषियों ने भी उसी परमात्मा की स्तुति की है, और दिन-रात आदि काल और सूर्य पृथिवी आदि सब लोक उसीके आज्ञाकारी हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

१३ चित्रं देवानाम्

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चि॒त्रं दे॒वानां॑ के॒तुरनी॑कं॒ ज्योति॑ष्मान्प्र॒दिशः॒ सूर्य॑ उ॒द्यन्।
दि॑वाक॒रोऽति॑ द्यु॒म्नैस्तमां॑सि॒ विश्वा॑तारीद्दुरि॒तानि॑ शु॒क्रः ॥

१३ चित्रं देवानाम् ...{Loading}...

Griffith

Bright, Presence of the Gods, the luminous herald, Siirya hath mounted the celestial regions. Day’s maker, he hath shone away the darkness, and radiant passed o’er places hard to traverse.

पदपाठः

चि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। के॒तुः। अनी॑कम्। ज्योति॑ष्मान्। प्र॒ऽदिशः॑। सूर्यः॑। उ॒त्ऽवन्। दि॒वा॒ऽक॒रः। अति॑। द्यु॒म्नैः। तमां॑सि। विश्वा॑। अ॒ता॒री॒त्। दुः॒ऽइ॒तानि॑। शु॒क्रः। १०७.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सूर्यः
  • ब्रह्मा
  • आर्षी पङ्क्तिः
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र १३-१ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) जीवनदाता [ब्रह्म], (देवानाम्) गतिमान् लोकों के (केतुः) जतानेवाले, (ज्योतिष्मान्) तेजोमय (सूर्यः) सर्वप्रेरक [परमात्मा] (प्रदिशः) सब दिशाओं में (उद्यन्) ऊँचे होते हुए (दिवाकरः) दिन को रचनेवाले [सूर्य रूप], (शुक्रः) वीर्यवान् [परमेश्वर] ने (द्युम्नैः) अपने प्रकाशों से (तमांसि) अन्धकारों को (अति) लाँघकर (विश्वा) सब (दुरितानि) कठिनाइयों को (अतारीत्) पार किया है ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे यह सूर्य अन्धकार नाश करके दिन बनाकर प्रकाशमान है, वैसे ही वह परमेश्वर सूर्य आदि लोकों को रचकर धारण-आकर्षण द्वारा सबकी रक्षा करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या से प्रकाशमान होकर विघ्नों को हटावें ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १३, १४ आचुके हैं-अथ० १३।२।३४, ३ ॥ १३, १४−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथर्व० १३।२।३४, ३ ॥

१४ चित्रं देवानामुदगादनीकम्

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चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः।
आप्रा॒द्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥

१४ चित्रं देवानामुदगादनीकम् ...{Loading}...

Griffith

The brilliant Presence of the Gods hath risen, the eye of Mitra, Varuna, and Agni. The soul of all that moveth not or moveth, Surya hath filled the earth and air and heaven.

पदपाठः

चि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्र॒स्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्रा॒त्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒। १०७.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सूर्यः
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र १३-१ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानाम्) गतिमान् लोकों का (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) जीवनदाता, (मित्रस्य) सूर्य [वा प्राण] का, (वरुणस्य) चन्द्रमा [अथवा जल वा अपान] का और (अग्नेः) बिजुली का (चक्षुः) दिखानेवाला [ब्रह्म] (उत्) सर्वोपरि (अगात्) व्यापा है। (सूर्यः) सर्वप्रेरक, (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर के (आत्मा) आत्मा [निरन्तर व्यापक परमात्मा] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य भूमि [प्रकाशमान अप्रकाशमान लोकों] और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ) सब प्रकार से (अप्रात्) पूर्ण किया है ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो अद्भुतस्वरूप परमात्मा सूर्य, चन्द्र, वायु आदि द्वारा सब प्राणियों को सुख देता है, मनुष्य उसको उपासना द्वारा जानकर आत्मोन्नति करें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३, १४−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथर्व० १३।२।३४, ३ ॥

१५ सूर्यो देवीमुषसम्

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सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये᳡ति प॒श्चात्।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥

१५ सूर्यो देवीमुषसम् ...{Loading}...

Griffith

Even as a lover followeth a maiden, so doth the Sun the Dawn, refulgent Goddess: Where pious men extend their generations before the Gracious One for happy fortune.

पदपाठः

सूर्यः॑। दे॒वीम्। उ॒षस॑म्। रोच॑मानाम्। मर्यः॑। न। योषा॑म्। अ॒भि। ए॒ति॒। प॒श्चात्। यत्र॑। नरः॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। यु॒गानि॑। वि॒ऽत॒न्व॒ते। प्रति॑। भ॒द्राय॑। भ॒द्रम्। १०७.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सूर्यः
  • कुत्सः
  • त्रिष्टुप्
  • सूक्त-१०७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

मन्त्र १३-१ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यः) सूर्यमण्डल (देवीम्) देवी [दिव्यगुणवाली] (रोचमानाम्) रुचि करानेवाली (उषसम्) उषा [प्रभात वेला] के (पश्चात्) पीछे-पीछे (अभि) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है, (न) जैसे (मर्यः) मनुष्य (योषाम्) अपनी स्त्री को [प्रीति से प्राप्त होता है], (यत्र) जहाँ [संसार के बीच] (देवयन्तः) व्यवहार चाहनेवाले (नरः) नर [नेता लोग] (भद्रम् प्रति) आनन्दस्वरूप परमात्मा के सामने (भद्राय) आनन्द के लिये (युगानि) युगों [वर्षों] को (वितन्वते) फैलाते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वरकृत नियमों के अनुसार सूर्य और उषा के सम्बन्ध से प्रकाश, और पुरुष और स्त्री के सम्बन्ध से सन्तान होता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग सुखस्वरूप परमात्मा की आज्ञा में रहकर नियमपूर्वक सुख भोगते हुए अपना जीवनकाल बढ़ावें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।११।२ ॥ १−(सूर्यः) सविता (देवीम्) दिव्यगुणयुक्ताम् (उषसम्) प्रभातवेलाम्। सन्धिकालम् (रोचमानाम्) रुचिकारिकाम् (मर्यः) पतिर्मनुष्यः (न) इव (योषाम्) स्वभार्याम् (अभि) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (पश्चात्) (यत्र) यस्मिन् संसारे (नरः) नेतारः (देवयन्तः) व्यवहारान् कामयमानाः (युगानि) वर्षाणि (वितन्वते) विस्तारयन्ति (प्रति) अभिमुखीकृत्य (भद्राय) कल्याणाय (भद्रम्) सुखस्वरूपं परमात्मानम् ॥