१०५

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०१ त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वमि॑न्द्र॒ प्रतू॑र्तिष्व॒भि विश्वा॑ असि॒ स्पृधः॑।
अ॑शस्ति॒हा ज॑नि॒ता वि॑श्व॒तूर॑सि॒ त्वं तू॑र्य तरुष्य॒तः ॥

०१ त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि ...{Loading}...

Griffith

Thou in the battles, Indra, art subduer of all hostile bands. Father art thou, all-conquering, cancelling the curse, thou victor of the vanquisher.

पदपाठः

त्वम्। इ॒न्द्र॒। प्रऽतू॑र्तिषु। अ॒भि। विश्वाः॑। अ॒सि॒। स्पृधः॑। अ॒श॒स्ति॒ऽहा। ज॒नि॒ता। वि॒श्व॒ऽतूः। अ॒सि॒। त्वम्। तू॒र्य॒। त॒रु॒ष्य॒तः। १०५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नृमेधः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१०५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] (त्वम्) तू (प्रतूर्तिषु) मार-धाड़वाले संग्रामों में (सर्वाः) सब (स्पृधः) ललकारती हुई शत्रुसेनाओं को (अभि असि) हरा देता है। (त्वम्) तू (अशस्तिहा) अपकीर्ति मिटानेवाला, (जनिता) सुख उत्पन्न करनेवाला, (विश्वतूः) सब शत्रुओं का मारनेवाला (असि) है, (तरुष्यतः) मारनेवाले वैरियों को (तूर्य) मार ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - युद्धपण्डित राजा विघ्ननाशक परमात्मा का आश्रय लेकर सब शत्रुओं का नाश करके प्रजापालन करे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र १-३ ऋग्वेद में हैं-८।९९ [सायणभाष्य ८८]।-७ मन्त्र १, २ यजुर्वेद-३३।६६ सामवेद-उ० ८।१।८, म० १ साम० पू० ४।२।९ ॥ १−(त्वम्) (इन्द्र) परमेश्वर (प्रतूर्तिषु) तूरी गतित्वरणहिंसनयोः-क्तिन्। परस्परमारणेषु संग्रामेषु (अभि असि) अभिभवसि (विश्वाः) सर्वाः (स्पृधः) स्पर्धमानाः शत्रुसेनाः (अशस्तिहा) अपकीर्तिनाशकः (जनिता) सुखोत्पादकः (विश्वतूः) तूरी हिंसायाम्-क्विप्। सर्वशत्रुनाशकः (असि) (त्वम्) त्वम् (तूर्य) तूरी हिंसे। मारय (तरुष्यतः) बाधकान् वैरिणः ॥

०२ अनु ते

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अनु॑ ते॒ शुष्मं॑ तु॒रय॑न्तमीयतुः क्षो॒णी शिशुं॒ न मा॒तरा॑।
विश्वा॑स्ते॒ स्पृधः॑ श्नथयन्त म॒न्यवे॑ वृ॒त्रं यदि॑न्द्र॒ तूर्व॑सि ॥

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Griffith

The earth, and heaven cling close to thy victorious might, as sire and mother to their child. When thou attackest Vritra all the hostile bands shrink and faint, Indra at thy wrath.

पदपाठः

अनु॑। ते॒। शुष्म॑म्। तु॒रय॑न्तम्। ई॒य॒तुः॒। क्षो॒णी इति॑। शिशु॑म्। न। मा॒तरा॑। विश्वाः॑। ते॒। स्पृधः॑। श्न॒थ॒य॒न्त॒। म॒न्यवे॑। वृ॒त्रम्। यत्। इ॒न्द्र॒। तूर्व॑सि। १०५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नृमेधः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१०५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] (क्षोणी) दोनों आकाश और भूमिलोक (ते) तेरे (तुरयन्तम्) वेग करते हुए (शुष्मम् अनु) शत्रुओं को सुखानेवाले बल के पीछे (ईयतुः) चलते हैं, (न) जैसे (मातरा) माता-पिता दोनों (शिशुम्) बालक के [पीछे प्रीति से चलते हैं]। (ते) तेरे (मन्यवे) क्रोध से (विश्वाः) सब (स्पृधः) ललकारती हुई शत्रुसेनाएँ (श्नथयन्त) मारी गयी हैं, (यत्) जब कि तू (वृत्रम्) शत्रु को (तूर्वसि) मारता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे माता-पिता आपा छोड़कर बच्चे से प्रीति करते हैं, वैसे ही सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता परमात्मा में परम भक्ति करके मनुष्य शत्रुओं को मारें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अनु) अनुसृत्य (ते) तव (शुष्मम्) शत्रुशोषकं बलम् (तुरयन्तम्) तुरां कुर्वन्तम् (ईयतुः) गच्छतः (क्षोणी) द्यावापृथिव्यौ (शिशुम्) (न) इव (मातरा) मातापितरौ (विश्वाः) (ते) तव (स्पृधः) स्पर्धमानाः शत्रुसेनाः (श्नथयन्त) श्नथतिर्वधकर्मा-निघ० ३।१९। हता अभवन् (मन्यवे) क्रोधाय (वृत्रम्) शत्रुम् (यत्) यदा (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (तूर्वसि) हंसि ॥

०३ इत ऊती

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इ॒त ऊ॒ती वो॑ अ॒जरं॑ प्रहे॒तार॒मप्र॑हितम्।
आ॒शुं जेता॑रं॒ हेता॑रं र॒थीत॑म॒मतू॑र्तं तुग्र्या॒वृध॑म् ॥

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Griffith

Bring to your aid the Eternal One, who shoots and none may shoot at him, Inciter, swift, victorious, best of charioteers, Tugrya’s unvan- quished strengthener;

पदपाठः

इ॒तः। ऊ॒ती। वः॒। अ॒जर॑म्। प्र॒ऽहे॒तार॑म्। अप्र॑ऽहितम्। आ॒शुम्। जेता॑रम्। हेता॑रम्। र॒थिऽत॑मम्। अतू॑र्तम्। तु॒ग्र्य॒ऽवृध॑म्। १०५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • नृमेधः
  • बृहती
  • सूक्त-१०५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (वः) तुम्हारी (ऊती) रक्षा के लिये (अजरम्) जरारहित [सदा बलवान्] (प्रहेतारम्) सबके चलानेवाले, (अप्रहितम्) किसी से न चलाये गये, (आशुम्) फुरतीले, (जेतारम्) जय करनेवाले, (हेतारम्) बढ़ानेवाले, (रथीतमम्) रमणीय पदार्थों के सबसे बड़े स्वामी, (अतूर्तम्) न सताये गये, (तुग्र्यावृधम्) बस्ती के हितकारी के बढ़ानेवाले [परमेश्वर] को (इतः) वे दोनों [आकाश और भूमि-म० २] प्राप्त होते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने पृथिवी और आकाश के पदार्थ मनुष्य के हित के लिये रचे हैं, उस जगदीश्वर की सदा भक्ति करके बलवान् होकर वृद्धि करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ३ सामवेद में भी है-पू० ३।१०।१ ॥ ३−(इतः) गच्छतः प्राप्नुतः। ते क्षोणी-म० २ (ऊती) ऊत्यै रक्षायै (वः) युष्माकम् (अजरम्) जरारहितम् (प्रहेतारम्) हि गतौ-तृन्। प्रकर्षेण गमयितारम् (अप्रहितम्) केनाप्यचालितम् (आशुम्) वेगवन्तम् (जेतारम्) जयकर्तारम् (हेतारम्) हि वृद्धौ-तृन्। वर्धयितारम् (रथीतमम्) रमणीयपदार्थानां स्वामितमम् (अतूर्तम्) तुरी हिंसने-क्त। अहिंसितम् (तुग्र्यावृधम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। तुज तुजि हिंसाबलाधाननिकेतनेषु रक्, तुग्र-यत्। निवासाय हितस्य वर्धकम् ॥

०४ यो राजा

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यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः।
विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥

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यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः ।
विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे॥४॥

पदपाठः

यः। राजा॑। च॒र्ष॒णी॒नाम्। याता॑। रथे॑भिः। अध्रि॑ऽगुः। विश्वा॑साम्। त॒रु॒ता। पृत॑नानाम्। ज्येष्ठः॑। यः। वृ॒त्र॒ऽहा। गृ॒णे। १०५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुन्हमा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१०५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [परमेश्वर] (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का (राजा) राजा (रथेभिः) रथी [के समान रमणीय लोकों] के साथ (अध्रिगुः) बे-रोक (याता) चलनेवाला, और (यः) जो (विश्वासाम्) सब (पृतनानाम्) शत्रु सेनाओं का (तरुता) हरानेवाला, (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठ, (वृत्रहा) अन्धकारनाशक है, [उसकी] (गृणे) मैं स्तुति करता हूँ ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सब मनुष्य आदि प्राणियों और सूर्य आदि लोकों का स्वामी है, हम उसके गुणों को ग्रहण करके सब कष्टों से बचें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: मन्त्र ४। आचुके हैं-अथ० २०।९२।१६, १७ ॥ ४, −व्याख्यातौ-अथ० २०।९२।१६, १७ ॥

०५ इन्द्रं तम्

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इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑।
हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥

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इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑ ।
हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥५॥

पदपाठः

इन्द्र॑म्। तम्। शु॒म्भ॒। पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न्। अव॑से। यस्य॑। द्वि॒ता। वि॒ऽध॒र्तरि॑। हस्ता॑य। वज्रः॑। प्रत‍ि॑। धा॒यि॒। द॒र्श॒तः। म॒हः। दि॒वे। न। सूर्यः॑। १०५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • पुरुन्हमा
  • प्रगाथः
  • सूक्त-१०५
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुहन्मन्) हे बहुत ज्ञानी ऋषि ! (तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] का (शुम्भ) भाषण कर, (यस्य) जिसके (द्विता) दोनों कर्म [अनुग्रह और निग्रह गुण] (विर्धतरि) बुद्धिमान् जन पर (अवसे) रक्षा के लिये और [जिसका] (दर्शतः) दर्शनीय (महः) महान् (वज्रः) वज्र [दण्डसामर्थ्य] (हस्ताय) हाथ [अर्थात् हमारे बाहुबल] के लिये (प्रति) प्रत्यक्ष (धायि) धारण किया गया है, (न) जैसे (सूर्यः) सूर्य (दिवे) प्रकाश के लिये है ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमात्मा अति प्रत्यक्ष रूप से दुष्टों को दण्ड देता है और धर्मात्माओं पर अनुग्रह करता है, ऐसा निश्चय करके विद्वान् लोग सदा ईश्वर की आज्ञा में रहकर सुखी होवें ॥॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४, −व्याख्यातौ-अथ० २०।९२।१६, १७ ॥