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०१ वयमेनमिदा ह्योऽपीपेमेह

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व॒यमे॑नमि॒दा ह्योऽपी॑पेमे॒ह व॒ज्रिण॑म्।
तस्मा॑ उ अ॒द्य स॑म॒ना सु॒तं भ॒रा नू॒नं भू॑षत श्रु॒ते ॥

०१ वयमेनमिदा ह्योऽपीपेमेह ...{Loading}...

Griffith

Here verily yesterday we let the Thunder-wielder drink his fill. So in like manner, offer him the juice to day. Now range you. by the Glorious One.

पदपाठः

व॒यम्। ए॒न॒म्। इ॒दा। ह्यः। अपी॑पेम। इ॒ह। व॒ज्रिण॑म्। तस्मै॑। ऊं॒ इति॑। अ॒द्य। स॒म॒ना। सु॒तम्। भ॒र॒। आ। नू॒नम्। भू॒ष॒त॒। श्रु॒ते। ९७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कलिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वीर के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) हमने (इदा) परम ऐश्वर्य के साथ [वर्तमान] (एनम्) इस (वज्रिणम्) वज्रधारी [वीर] को (ह्यः) कल (इह) यहाँ पर [तत्त्व रस] (अपीपेम) पान कराया है। [हे विद्वान् !] (तस्मै) उस (समना) पूर्ण बलवाले [शूर] के लिये (उ) ही (अद्य) आज (सुतम्) सिद्ध किये हुये [तत्त्व रस] को (भर) भर दे, और (नूनम्) निश्चय करके (श्रुते) सुनने योग्य शास्त्र के बीच (आ) सब ओर से (भूषत) तुम शोभा बढ़ाओ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस पराक्रमी वीर को सदा तत्त्वज्ञान का उपदेश होता है, वहाँ प्रत्येक मनुष्य अलग-अलग और सब मनुष्य मिलकर विज्ञान की उन्नति करते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।६६ [सायणभाष्य ]। ७-९ मन्त्र १, २ सामवेद-उ० ८।२।१३, मन्त्र १ साम० पू० ३।८।१० ॥ १−(वयम्) (एनम्) (इदा) इदि परमैश्वर्ये-क्विप्, नलोपः। परमैश्वर्येण सह वर्तमानम् (ह्यः) गतदिने (अपीपेम) पीङ् पाने जुहोत्यादौ लङ् परस्मैपदं छान्दसम्। पानं कारितवन्तः (इह) अत्र (वज्रिणम्) (तस्मै) (उ) निश्चयेन (अद्य) अस्मिन् दिने (समना) अन प्राणने-अच्, विभक्तेर्डा। समनाय। पूर्णबलवते (सुतम्) संस्कृतं तत्त्वरसम् (भर) धर (आ) समन्तात् (नूनम्) अवश्यम् (भूषत) अलंकुरुत (श्रुते) श्रवणीये शास्त्रे ॥

०२ वृकश्चिदस्य वारण

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वृक॑श्चिदस्य वार॒ण उ॑रा॒मथि॒रा व॒युने॑षु भूषति।
सेमं नः॒ स्तोमं॑ जुजुषा॒ण आ ग॒हीन्द्र॒ प्र चि॒त्रया॑ धि॒या ॥

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Griffith

Even the wolf, the savage beast that rends the sheep, follows the path of his decrees. So, India, graciously accepting this our praise, with wondrous. thought come forth to us.

पदपाठः

वृकः॑। चि॒त्। अ॒स्य॒। वा॒र॒णः। उ॒रा॒ऽमथिः॑। आ। व॒युने॑षु। भू॒ष॒ति॒। सः। इ॒मम्। नः॒। स्तोम॑म्। जु॒जु॒षा॒णः। आ। ग॒हि॒। इन्द्र॑। प्र। चि॒त्रया॑। धि॒या। ९७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कलिः
  • प्रगाथः
  • सूक्त-९७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वीर के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वारणः) रोकनेवाला (उरामथिः) भेड़ों का मथने वाला (वृकः) भेड़िया (चित्) भी (अस्य) इस [वीर] के (वयुनेषु) कर्मों में (आ) अनुकूल (भूषति) हो जाता है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले शूर] (सः) सो तू (नः) हमारे (इमम्) इस (स्तोत्रम्) स्तोत्र को (जुजुषाणः) स्वीकार करता हुआ (चित्रया) विचित्र (धिया) बुद्धि वा कर्म के साथ (प्र) भले प्रकार (आ गहि) आ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - शूर प्रतापी राजा भेड़िये की प्रकृतिवाले दुष्टों को विचित्र नीति से वश में करके प्रजा को सुखी करे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: इस मन्त्र के अर्थ के लिये देखो-निरु० ।२१ ॥ २−(वृकः) वृक आदाने-क। श्वापि वृक उच्यते विकर्तनात्-निरु० ।२१। व्याघ्रभेदः (चित्) अपि (वारणः) वारयिता (उरामथिः) उरामथिः। उरणमथिः। उरण ऊर्णावान् भवत्यूर्णा पुनर्वृणतेरूर्णोतेर्वा-निरु० ।२१। मेषाणां मथिता नाशयिता (आ) समन्तात्। आनुकूल्येन (वयुनेषु) कर्मसु (भूषति) भवति (सः) स त्वम् (इमम्) (नः) अस्माकम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (जुजुषाणः) सेवमानः। स्वीकुर्वाणः (आ गहि) आगच्छ (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् वीर (प्र) प्रकर्षेण (चित्रया) अद्भुतया (धिया) बुद्ध्या ॥

०३ कदू न्वस्याकृतमिन्द्रस्यास्ति

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कदू॒ न्व१॒॑स्याकृ॑त॒मिन्द्र॑स्यास्ति॒ पौंस्य॑म्।
केनो॒ नु कं॒ श्रोम॑तेन॒ न शु॑श्रुवे ज॒नुषः॒ परि॑ वृत्र॒हा ॥

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Griffith

What manly deed of vigour now remains that Indra hath not done? Who hath not heard his glorious title and his fame, the Vritra- slayer from his birth?

पदपाठः

कत्। ऊं॒ इति॑। नु। अ॒स्य॒। अकृ॑तम्। इन्द्र॑स्य। अ॒स्ति॒। पौंस्य॑म्। केनो॒ इति॑। नु। क॒म्। श्रोम॑तेन। न। शु॒श्रु॒वे॒। ज॒नुषः॑। परि॑। वृ॒त्र॒ऽहा। ९७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • कलिः
  • बृहती
  • सूक्त-९७
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वीर के लक्षणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले वीर] का (नु) अब (कत् उ) कौन सा (पौंस्यम्) पौरुष (अकृतम्) बिना किया हुआ (अस्ति) है ? (केनो) किस (श्रोमतेन) श्रुति [वेद] माननेवाले करके (नु) अब (जनुषः परि) जन्म से लेकर (वृत्रहा) शत्रुनाशक [वीर पुरुष] (कम्) सुख से (न) नहीं (शुश्रुवे) सुना गया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब मनुष्य विश्वकर्मा होकर अपना सब धार्मिक कर्तव्य कर लेता है, तब वह वीर समस्त संसार से बड़ाई पाता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(कत्) किम् (उ) एव (नु) इदानीम् (अस्य) (अकृतम्) अनाचारितम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो वीरस्य (अस्ति) (पौंस्यम्) पौरुषम् (केनो) केनापि (नु) इदानीम् (कम्) सुखेन (श्रोमतेन) गमेर्डोः। उ० २।६७। श्रु श्रवणे-डोप्रत्ययः+मन ज्ञाने पूजायां च-क्त। श्रोः श्रवणीयो वेदो मतः संमानितो येन तेन (न) निषेधे (शुश्रुवे) श्रु श्रवणे-कर्मणि लिट्। श्रूयते स्म (जनुषः) जन्मनः सकाशात् (परि) (वृत्रहा) शत्रुनाशकः ॥